________________ .66] रिणी छन्द' भक्तिरस की निरिणी बहाने में सर्वथा समर्थ है। श्रीशङ्कराचार्य ने 'सौन्दर्य-लहरी' और देव्यपराधक्षमापन स्तोत्रादि में इसी छन्द का आलम्बन लिया है। उनकी इन रचनाओं के समान ही उपाध्यायजी महाराज ने भी 'न मन्त्रं नो यन्त्रं' की भाँति प्रत्येक चरण के प्रारम्भ में द्विपदानुप्रास का प्रयोग 'स्मरः स्मारं स्मारं, पुरस्ते चेदोस्ते, दृशां प्रान्तैः कान्तः, प्रसिद्धस्ते हस्ते' जैसे पदों के द्वारा शिखरिणी-नदी के धारा-सम्पात को अभिव्यक्त किया है। कुछ पद्यों में यही अनुप्रास-पद्धति 'चरण-मध्यगत' रूप से भी प्रस्तुत की है। ऐसे पदों में जहाँ समान-पदों की आवृत्ति हुई है वहाँ भिन्नार्थकता के कारण 'यमकालङ्कार' प्रशस्त हुअा है। रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा एवं अन्यान्य अर्थालङ्कारों का बहुधा समावेश होते हुए भी वे हठादाकृष्ट न होकर दूध में मिली शर्करा के समान घुल-मिल गए हैं, इसीलिए वे 'मधुरं हि पयः स्वभावतो ननु कीहक् सितशर्करान्वितम्' की उक्ति को चरितार्थ करते हैं। ___ स्तोत्रपाठ की महत्ता में पूज्य उपाध्यायजी ने इसी स्तोत्र के पद्य सं० 12 में कहा है कि उदारं यन्तारं तव समुदयत्पूष-विलसन्, मयूषे प्रत्यूषे जिनप ! जपति स्तोत्रमनिशम् / प्रतर्पद्दानाम्भः सुभग करदानां करटिनां, घटा तस्य द्वारि स्फुरति सुभटानामपि न किम् ? // अर्थात् प्रातः स्तोत्रपाठ करनेवाला व्यक्ति अपार लक्ष्मी प्राप्त करता है। इसी प्रकार अन्य पद्यों में नाम-स्मरण, मन्त्रजप, पालम्बिका आदि तपस्या, विविधप्रकारी पूजा आदि की महिमा भी वर्णित है। १६वें पद्य में अनन्यशरण की अभिव्यक्ति करते हुए त्वमेव सर्वं मम देवदेव' की भावना को व्यक्त किया है तो कहीं प्रभु के आज्ञापालन के अभाव में किए गए योगासनादि समन्वित तपस्याओं