________________ [ 221 ज्ञानार्थवादसदृशाश्चरणार्थवादाः, श्रूयन्त एव बहुधा समये ततः किम् // 10 // सम्यक्त्व-श्रद्धा का शोधक होने से ज्ञान का स्थान यदि कुछ ऊँचा होता है तो हो, पर इसका यह अर्थ नहीं हो सकता कि ज्ञान क्रियानिरपेक्ष होकर फल का साधक भी होता है। यदि ज्ञान की प्रशंसा करनेवाले अर्थवादवचनों के बल पर ज्ञान को प्रधानता दी जाए तो यह ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि जैन शासन में क्रिया की भी प्रशंसा करनेवाले बहुत से अर्थवाद-वचन उपलब्ध होते हैं, अत: अर्थवादवचनों के आधार पर कोई एकपक्षीय निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता / / 60 // शास्त्राण्यधीत्य बहवोऽत्र भवन्ति मूर्खा, यस्तु क्रियकनिरतः पुरुषः स विद्वान् / सञ्चिन्त्यतां निभृतमौषधमातुरं कि, विज्ञातमेव वितनोत्यपरोगजालम् // 1 // . ऐसे बहुत से लोग होते हैं जो शास्त्रों का अध्ययन करके भी मूर्ख ही रह जाते हैं तदनुसार क्रियाशील नहीं हो पाते। जो पुरुष शास्त्रानुसार क्रिया-परायण होता है, वही सच्चे अर्थ में विद्वान् होता है। यह कौन नहीं जानता कि औषध को जानकर उसका चिन्तन मात्र करने से रोग से मुक्ति नहीं मिलती, किन्तु उसके लिये औषध का विधिवत् सेवन अपेक्षित होता है / / 61 // ज्ञानं स्वगोचरनिबद्धमतः फलाप्तिनैकान्तिको चरणसंवलितात तथा सा।