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________________ [ 131 व्यावृत्तियों का भी है, अतः अतद्व्यावृत्तिरूप कुर्वद्रूपत्व की कल्पना भी उक्त विकल्पों से बाधित होगी। हे भगवान् ! यह बड़े आश्चर्य और खेद की बात है कि आपके विरोधी बौद्ध कुर्वद्रूपत्व की कल्पना के उस अनुचित पक्ष का आग्रह नहीं छोड़ते जिसमें अंकुर आदि सामान्य कार्यों का जन्म आकस्मिक अर्थात् अव्यवस्थित हो जाता है / / 11 // प्राकस्मिकत्वमपि तस्य भयाय न स्यात्, स्याद्वादमन्त्रमिह यस्तव बम्भरणीति / यत् साधनं यदपि बाधनमन्यदोयाः, कुर्वन्ति तत् तव पितुः पुरतः शिशुत्वम् // 12 // हे भगवन् ! जो व्यक्ति इस विचार में आपके स्याद्वादमन्त्र का प्रयोग विशेषरूप से करता है उसे कार्यसामान्य के आकस्मिक हो जाने का भय नहीं होता, क्योंकि विभिन्न दृष्टियों से कार्य को आकस्मिकता और अनाकस्मिकता दोनों ही इष्ट हैं। ऐसी स्थिति में स्याद्वाद के महत्त्व को जानकर जो किसी एक विचार का समर्थन एवं अन्य विचार का खण्डन करते हैं, उनका वह कार्य आपके सामने ठीक वैसा ही है, जैसा कि पिता के सामने बालक का विनोद // 12 // एकत्र नापि करणाकरणे विरुद्ध, भिन्नं निमित्तमधिकृत्य विरोधभङ्गात् / एकान्तदन्तहृदयास्तु यथाप्रतिज्ञं, किञ्चिद्वदन्त्यसुपरीक्षितमत्वदीयाः // 13 // यद्यपि एक व्यक्ति में भी करण तथा अकरण (किसी कार्य की उत्पादकता एवं अनुत्पादकता) के अस्तित्व से कोई विरोध नहीं होता, क्योंकि निमित्तभेद से उसका परिहार हो जाता है। अतः बौद्ध का
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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