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________________ 166 ] - यहां इस बात को ध्यान में रखना आवश्यक है कि जितने भी नय हैं वे सब वस्तु के किसी न किसी अंश को ही प्रदर्शित करते हैं। उसके अविकल रूप को प्रदर्शित करने की शक्ति उनमें नहीं होती। वस्तु के सम्पूर्ण स्वरूप का परिज्ञान तो 'स्याद्वाद' से ही हो सकता है। 'स्याद्वाद की इस महिमा को स्फूट करने के लिये ही जैनदर्शन में 'सप्तभंगी नय' की प्रतिष्ठा की गई है और 'अनेकान्त' को ही वस्तु का प्राण माना गया है / 68 // . द्रव्याश्रया विधिनिषेध-कृताश्च भङ्गाः, कृत्स्नैकदेशविधया प्रभवन्ति , सप्त। प्रात्मापि सप्तविध इत्यनुमानमुद्रा, त्वच्छासनेऽस्ति विशदव्यवहारहेतोः॥ 66 // सामान्यरूप से द्रव्यमात्र में तथा विशेषरूप से आत्मा में सप्तभंगी नय की उपपत्ति बताते हुए कहते हैं कि द्रव्यत्व को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप मानने पर यह प्रश्न उठता है कि द्रव्यत्व का स्वरूप ही जैनदर्शन में सत्ता का स्वरूप है / अतः वह जगत् के समस्त पदार्थों में विद्यमान है। उसके प्रभाव के लिये कहीं कोई स्थान नहीं है। फलतः द्रव्यत्व के विधि-निषेध के आधार पर 'स्याद् द्रव्यम्' आदि सप्तभंगी न्याय की प्रवृत्ति नहीं हो सकती और उसके अभाव में किसी भी द्रव्य का विशेषेण आत्मा का अविकल स्वरूप प्रकाश में नहीं आ सकता? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा गया है कि-कृत्स्न-समुदाय और देश की अपेक्षा द्रव्यत्व और उसके अभाव की कल्पना करके एक ही वस्तु में उक्त सातों भंग उपपन्न किये जा सकते हैं क्योंकि वस्तु के सम्पूर्ण भाग में द्रव्यत्व और उसके एक भाग में द्रव्यत्व का अभाव मानने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती। तात्पर्य यह है. कि द्रव्य एक
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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