________________ 84] हे जिनेश्वर ! मेरी समस्त भावना सरकते हुए काम रूपी. सर्प के गर्व का मथन करने में गारुडिक मन्त्र के समान, प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष, परम कल्याण का खजाना, सर्वोत्तम ज्ञान सम्पन्न, अज्ञान विनाशक, नीरोग तथा भूतल पर सूर्य के समान ऐसे आप में मिलकर पवित्र बने और सांसारिक बन्धनों के नाश के लिये हो // 103 // प्रसोद सद्यो भगवन्नवद्यं, हरस्व पुण्यानि पुषाण भर्तः ! / स्मर्तव्यतामेति न कश्चिदन्यस्त्वमेव मे देव ! निषेवरणीयः // 104 // हे भगवान् ! आप मुझ पर शीघ्र प्रसन्न होंवें. पापों को दूर करें, पुण्यों को पुष्ट करें। हे जिनेश्वर देव ! आपके बिना और अन्य कोई देव स्मरणीय नहीं है। मेरे द्वारा आप ही सेवनीय हैं / / 104 // हरि-दन्ति-सरीसृपानलप्रधनाम्भोनिधिबन्धरोगजाः। न भियः प्रसरन्ति देहिनां, तव नामस्मरणं प्रकुर्वताम् // 105 / / हे देव जिनेश्वर ! आपका नाम स्मरण करनेवाले प्राणियों को सिंह, हाथी, सूर्य, अग्नि, युद्ध, समुद्र, बन्धन और रोगों से उत्पन्न भय दूर भाग जाते हैं // 105 // चिदानन्दनिःस्पन्दवन्दारुशक स्फुरमौलिमन्दार-मालारजोभिः / पिशङ्गो भृशं गौरकीर्तेस्तवाङ्ग्री, गलल्लोभशोभाभिराम ! स्मरामः // 106 / / हे निर्लोभ शोभा से सुन्दर प्रभु जिनेश्वर ! हम आनन्द से ज्ञान स्थिर नमस्कार करने वाले इन्द्र के मस्तक पर शोभित मन्दार-पुष्पों की माला की रज से पीत-रक्त वर्ण वाले एवं उज्ज्वल कीर्ति सम्पन्न