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________________ 2] है ऐसे वीतराग भगवान् आदि जिनेश्वर को मैं वन्दन करता हूँ // 1 // रोधरहितविस्फुग्दुपयोग, योगं दधतमभङ्गरे / भङ्गनयव्रजपेशलवाचं, वाचंयमसुख-सङ्ग रे॥ आदि० // 2 // अप्रतिहत-स्वतन्त्र उपयोगों से विभासित, अभङ्गयोग के धारक, भङ्ग (विकल्प-विशेष) और नैगमादि नयों से सुन्दर वचनवाले तथा श्रमणों के सुख के लिये सङ्गमरूप भंगवान् आदि जिनेश्वर को मैं वन्दन करता हूँ // 2 // सङ्गतपदशुचिवचनतरङ्ग, रङ्ग जगति ददान रे। दानसुरद्रुममञ्जुलहृदयं, हृदयङ्गमगुणभान रे // प्रादि०॥ 3 // संसार में सर्वोपयोगी आगम पदों से युक्त, निर्मल वचनों की तरङ्गों से हर्ष का वितरण करनेवाले, दान में कल्पवृक्ष के समान तथा मनोहर हृदयवाले और सुन्दर गुण से विभूषित भगवान् आदि जिनेश्वर को मैं वन्दन करता हूँ // 3 // भानन्दित-सुरवरपुन्नागं, नागरमानसहंसं रे। हंसगति पञ्चमगतिवासं, वासविहिताशंसं रे // आदि० // 4 // अपनी कान्ति से देवश्रेष्ठ और पुरुषश्रेष्ठ को आनन्दित करनेवाले, सज्जनों के अन्तःकरणरूप मानस सरोवर में हंस के समान, हंस के समान गतिवाले, पञ्चमगति (मोक्ष) में निवास करनेवाले तथा इन्द्र के द्वारा प्रशंसित ऐसे भगवान् आदि जिनेश्वर को मैं वन्दन करता हूँ॥४॥ शंसन्तं नयवचनमनवम, नवमङ्गलदातारं रे। तारस्वरमघघनपवमानं, मानसुभटजेतारं रे // प्रादि० // 5 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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