________________ 176 ] विभागों को ही कारण मानना होगा, फिर अवयव के संयोग तथा विभागरूप कारण जब तक बने रहेंगे तब तक उनके द्वारा अवयवी के संयोग तथा विभागों के पुनर्जन्म का संकट बना रहेगा। फलतः उस संकट को टालने के लिये अवयवी के संयोग तथा विभागों को उनकी अपनी उत्पत्ति के प्रति प्रतिबन्धक मानना होगा। अतः अवयव में कम्प होने के समय अवयवी को निष्कम्प मानना उपयुक्त न होगा, और जब कम्पयुक्त अवयव में अवयवी को सकम्प और कम्पहीन अवयव में निष्कम्प माना जाएगा तब कम्प और कम्पाभाव के सहसन्निवेश से अवयवी की अनेकान्तरूपता अपरिहार्य होगी / / 57 / / न व्याप्यते यदि भिदानुभयाश्रयत्वा-- देकत्र रक्तिमविपर्यययोविरोधः / सर्वत्र तच्छबलताप्रतिबन्धसिद्धि-, दुर्वादिकुम्भि-मदमदन-सिंहनादः // 58 // जो वस्त्र लाल रंग से प्राधा रंगा और प्राधा बिना रंगा हुआ होता है, उसमें रंगे भाग में रक्तता और बिना रंगे भाग में रक्तता का अभाव होता है, किन्तु किसी एक ही भाग में रक्तता का अभाव नहीं होता। इसलिये रक्तत्व और रक्तताभाव में 'एक भाग में एक आश्रय का न होना' रूप विरोध होता है, पर इस विरोध में रक्त और अरक्त के भेद की व्याप्ति नहीं हो सकती। अर्थात् यह नियम नहीं हो सकता कि रक्तत्व और रक्तत्वाभाव के आश्रय परस्पर भिन्न ही होते हैं. क्योंकि उक्त प्रकार में एक ही वस्त्र में भागभेद से रक्तत्व तथा रक्तत्वाभाव दोनों का अनुभव होता है, फिर जब विरुद्ध धर्मों में आश्रयभेद का नियम सिद्ध नहीं हो सकता तो इसका अर्थ यह होगा कि जिन धर्मों में विरोध होता है उनमें एकान्ततः विरोध ही नहीं होता, अपितु किसी एक अपेक्षा से विरोध तथा अन्य अपेक्षा से अविरोध भी होता है, एवं