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“અહો! શ્રુતજ્ઞાન” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૮૭
સંગીત રત્નાકર - ૧ /
: દ્રવ્ય સહાયક : શ્રી પ્રેમ-ભુવનભાનુસૂરિજી સમુદાયની દીક્ષાદાનેશ્વરી પૂ. આ. શ્રી ગુણરત્નસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના આજ્ઞાનુવર્તિની
પૂ. સા. શ્રી પુણ્યરેખાશ્રીજી મ. ના શિષ્યા પૂ. સા. શ્રી લાવણ્યરેખાશ્રીજી મ.ની પ્રેરણાથી
આસોપાલવ ફ્લેટ, શાહીબાગ શ્રાવિકા ઉપાશ્રયના જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સનેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫ (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543
સંવત ૨૦૭૧
ઈ. ૨૦૧૫
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अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। પુસ્તકનું નામ
ક્રમાંક
પૃષ્ઠ
કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
पू. मेघविजयजी गणि म. सा.
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 05.
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श्री नंदीसूत्र अवचूरी
श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
श्री अर्हद्गीता भगवद्गीता
श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
अपराजितपृच्छा
शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
शिल्परत्नम् भाग - १
शिल्परत्नम् भाग - २
प्रासादतिलक
काश्यशिल्पम्
प्रासादमञ्जरी
राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
शिल्पदीपक
वास्तुसार
दीपार्णव उत्तरार्ध
જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
जैन ग्रंथावली
હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
| न्यायप्रवेशः भाग-१
दीपार्णव पूर्वार्ध
| अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग - १
| अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह तत्त्पोपप्लवसिंहः
शक्तिवादादर्शः
क्षीरार्णव
वेधवास्तु प्रभाकर
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा.
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा.
पू. मानतुंगविजयजी म.सा.
श्री बी. भट्टाचार्य
| श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री विनायक गणेश आपटे
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री नारायण भारती गोंसाई
श्री गंगाधरजी प्रणीत
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स
શ્રી હિમ્મતરામ મહાશંકર જાની
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म. सा.
श्री एच. आर. कापडीआ
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
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640
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454
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शिल्परत्नाकर
प्रासाद मंडन
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
(?)
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय - 3 (२)
(૩)
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय -५ વાસ્તુનિઘંટુ
તિલકમન્નરી ભાગ-૧
તિલકમન્નરી ભાગ-૨
તિલકમન્નરી ભાગ-૩
સપ્તસન્ધાન મહાકાવ્યમ
સપ્તભઙીમિમાંસા
ન્યાયાવતાર
વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સામાન્યનિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સપ્તભઙીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા
નયોપદેશ ભાગ-૧ તરઙિણીતરણી
નયોપદેશ ભાગ-૨ તરઙિણીતરણી
ન્યાયસમુચ્ચય
સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ
બૃહદ્ ધારણા યંત્ર
જ્યોતિર્મહોદય
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री
पं. भगवानदास जैन
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી
પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી
સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા)
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા)
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. દર્શનવિજયજી
પૂ. દર્શનવિજયજી
સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી
824
288
520
578
278
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324
302
196 190
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190
138
296
210
274
286
216
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113
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|
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર
ભાષા |
218.
|
164
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી.
या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी ugl stGirls sी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ता-टी815२-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहदन्यास अध्याय-६
| पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
296 056 | विविध तीर्थ कल्प
प. जिनविजयजी म.सा.
160 057 लारतीय टन भए। संस्कृति सनोमन
पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
श्री धर्मदत्तसूरि
202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
सं पू. मेघविजयजी गणि
516 064| विवेक विलास
सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
| पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा.
456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
| सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
420 06764शमाता वही गुशनुवाह
गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/. | श्री अंबालाल प्रेमचंद
406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
532 on જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો
१४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 376
060
322
073
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'075
374
238
194
192
254
260
| જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 13 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨
| બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧
કલ્યાણ કારક 085 | વિનોરન શોર
કથા રત્ન કોશ ભાગ-1
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ
238 260
ગુજ. | | श्री साराभाई नवाब ગુજ. | શ્રી સYTમારું નવાવ ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામારું નવીન ગુજ. | શ્રી મનસુબાન મુવામન ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરાન કોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સ. પૂ. મેનિયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ.
पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
114
'084.
910
436 336
087
2૩૦
322
(089/
114
એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
560
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
क्रम
272 240
सं.
254
282
466
342
362 134
70
316
224
612
307
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | पुस्तक नाम
कर्ता टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी सं. मोतीलाल लाघाजी पुना 92 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
बादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
बादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी
| वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी
सं. | सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला
| गौरीशंकर ओझा हिन्दी | मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी ।सं./ग । हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 | लघु प्रबंध संग्रह
जयंत पी. ठाकर सं. ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी सं, आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४.५
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका
सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१
पुरणचंद्र नाहर
| पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
कांतिविजयजी
सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह
दौलतसिंह लोढा सं./हि | अरविन्द धामणिया 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१
विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह
अगरचंद नाहटा सं./हि नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्वस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
गिरजाशंकर शास्त्री
फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ | पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 123|| | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स
पी. पीटरसन
| भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
| जिनविजयजी
सं. जैन सत्य संशोधक
514
454
354
सं./हि
337 354 372 142 336 364 218 656 122
764 404 404 540 274
सं./गु
414 400
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
754
194
3101
276
69 100 136 266
244
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता / संपादक
भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२
हीरालाल हंसराज गुज. हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
पी. पीटरसन
अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार
कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
शील खंड
सं. | ब्रज. बी. दास बनारस 133 || | करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २
जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।।
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
सोमविजयजी
| शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति
शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
रत्नचंद्र स्वामी
प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २
कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
मेघविजयजी
सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि
कल्याण वर्धन
सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. बीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
274 168
282
182
गुज.
384 376 387 174
320 286
272
142 260
232
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
| पृष्ठ
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संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं.-५ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता/संपादक विषय | भाषा
संपादक/प्रकाशक 154 | उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य | पू. हेमचंद्राचार्य | व्याकरण | संस्कृत
जोहन क्रिष्टे 155 | उणादि गण विवृत्ति | पू. हेमचंद्राचार्य
व्याकरण संस्कृत
पू. मनोहरविजयजी 156 | प्राकृत प्रकाश-सटीक
भामाह व्याकरण प्राकृत
जय कृष्णदास गुप्ता 157 | द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति | ठक्कर फेरू
धातु संस्कृत /हिन्दी | भंवरलाल नाहटा 158 | आरम्भसिध्धि - सटीक पू. उदयप्रभदेवसूरिजी ज्योतीष संस्कृत | पू. जितेन्द्रविजयजी 159 | खंडहरो का वैभव | पू. कान्तीसागरजी शील्प | हिन्दी | भारतीय ज्ञानपीठ 160 | बालभारत पू. अमरचंद्रसूरिजी | काव्य संस्कृत
पं. शीवदत्त 161 | गिरनार माहात्म्य
दौलतचंद परषोत्तमदास तीर्थ संस्कृत /गुजराती | जैन पत्र 162 | गिरनार गल्प
पू. ललितविजयजी | तीर्थ संस्कृत/गुजराती | हंसकविजय फ्री लायब्रेरी 163 | प्रश्नोत्तर सार्ध शतक पू. क्षमाकल्याणविजयजी | प्रकरण हिन्दी
| साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी 164 | भारतिय संपादन शास्त्र | मूलराज जैन
साहित्य हिन्दी
जैन विद्याभवन, लाहोर 165 | विभक्त्यर्थ निर्णय गिरिधर झा
संस्कृत
चौखम्बा प्रकाशन 166 | व्योम बती-१
शिवाचार्य
न्याय
संस्कृत संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी 167 | व्योम वती-२
शिवाचार्य न्याय
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय | 168 | जैन न्यायखंड खाद्यम् | उपा. यशोविजयजी न्याय संस्कृत /हिन्दी | बद्रीनाथ शुक्ल 169 | हरितकाव्यादि निघंटू | भाव मिथ
आयुर्वेद संस्कृत /हिन्दी | शीव शर्मा 170 | योग चिंतामणि-सटीक पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
| संस्कृत/हिन्दी
| लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस 171 | वसंतराज शकुनम् पू. भानुचन्द्र गणि टीका | ज्योतिष
खेमराज कृष्णदास 172 | महाविद्या विडंबना
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका | ज्योतिष | संस्कृत सेन्ट्रल लायब्रेरी 173 | ज्योतिर्निबन्ध ।
शिवराज
| ज्योतिष | संस्कृत
आनंद आश्रम 174 | मेघमाला विचार
पू. विजयप्रभसूरिजी ज्योतिष संस्कृत/गुजराती | मेघजी हीरजी 175 | मुहूर्त चिंतामणि-सटीक रामकृत प्रमिताक्षय टीका | ज्योतिष | संस्कृत अनूप मिश्र 176 | मानसोल्लास सटीक-१ भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 177 | मानसोल्लास सटीक-२ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष संस्कृत
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 178 | ज्योतिष सार प्राकृत
भगवानदास जैन
ज्योतिष
प्राकृत/हिन्दी | भगवानदास जैन 179 | मुहूर्त संग्रह
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
| गुजराती | शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी 180 | हिन्दु एस्ट्रोलोजी
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास | ज्योतिष गुजराती पिताम्बरदास टी. महेता
264 144 256 75 488 | 226 365
न्याय
संस्कृत
190
480 352 596 250 391
114
238 166
संस्कृत
368
88
356
168
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क्रम
181
182
183
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार संवत २०७१ ( ई. 2015) सेट नं.-६
- - -
192
पुस्तक नाम
काव्यप्रकाश भाग-१
काव्यप्रकाश भाग-२
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने ३
184 नृत्यरत्न कोश भाग-१
185 नृत्यरत्न कोश भाग-२
186 नृत्याध्याय
187 संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक
188 संगीरत्नाकर भाग २ सटीक
189 संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक
190 संगीरत्नाकर भाग-४ सटीक
191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य 'अने नाट्य संबंधी जैन ग्रंथो 193 न्यायविंदु सटीक
194 शीघ्रबोध भाग-१ थी ५
195 शीघ्रबोध भाग-६ श्री १० 196 शीघ्रबोध भाग- ११ थी १५ 197 शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 शीघ्रबोध भाग- २१ थी २५
199 अध्यात्मसार सटीक
200 | छन्दोनुशासन
200 | मग्गानुसारिया
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची । यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
विषय
कर्त्ता / संपादक
पूज्य मम्मटाचार्य कृत
पूज्य मम्मटाचार्य कृत
उपा. यशोविजयजी
श्री कुम्भकर्ण नृपति
श्री कुम्भकर्ण नृपति
श्री अशोकमलजी
श्री सारंगदेव
श्री सारंगदेव
श्री सारंगदेव
श्री सारंगदेव
नारद
श्री हीरालाल कापडीया
पूज्य धर्मोतराचार्य
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य गंभीरविजयजी
एच. डी. बेलनकर
श्री डी. एस शाह
भाषा
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत / हिन्दी
संस्कृत/अंग्रेजी
संस्कृत/अंग्रेजी
संस्कृत/अंग्रेजी
संस्कृत/अंग्रेजी
संस्कृत
गुजराती
संस्कृत
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
संस्कृत/गुजराती
संस्कृत
संस्कृत/गुजराती
संपादक / प्रकाशक
पूज्य जिनविजयजी
पूज्य जिनविजयजी
यशोभारति जैन प्रकाशन समिति
श्री रसीकलाल छोटालाल
श्री रसीकलाल छोटालाल
श्री वाचस्पति गैरोभा
श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
श्री
सुब्रमण्यम शास्त्री
श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग मुक्ति-कमल
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
-जैन मोहन ग्रंथमाला
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा नरोत्तमदास भानजी
सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ
ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
पृष्ठ
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222
330
156
248
504
448
444
616
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476
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
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हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
पृष्ठ 285
280
315 307
361
301
263
395
क्रम
पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह
बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219
प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220
| समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
| बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221
__ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता
संस्कृत महादेव शर्मा
386
351 260 272
530
648
510
560
427
88
विविध कर्ता
। संस्कृत
| महादेव शर्मा
78
महादेव शर्मा
112
विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत
महादेव शर्मा
228
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The Adyar Library Series No. 30
GENERAL EDITOR : G. SRINIVASA MURTI, B.A., B.L., M.B. & C.M., VAIDYARATNA
Director, Adyar Library
SANGĪTARATNĀKARA OF SĀRNGADEVA
WITH TWO COMMENTARIES
Vol. I-Adhyâya 1
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SANGĪTARATNĀKARA
OF S'ĀRNGADEVA
WITH KALĀNIDHI OF KALLINĀTHA AND SUDHĀKARA OF SIMHABHŪPĀLA
EDITED BY PANDIT S. SUBRAHMANYA SASTRI
Vol. 1-Adhyāya i
THE ADYAR LIBRARY
1943
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Price RS. 20.00
Printed by C. SUBBARAYUDU, AT THE VASANTA PRESS,
ADYAK, MADRAS.
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INTRODUCTION
IN introducing the first volume of Sārngadeva's Sangītaratnākara, containing the first adhyāya, along with the two commentaries, namely, Kallinātha's Kalānidhi and Simhabhūpāla's Sudhākara, my first duty is to record the gratitude of the Adyar Library to that great scholar, the late Pandit S. Subrahmanya Sastri, who undertook the edition of this important work. He had 'orrected the entire material for all the seven adhyāyas of the work for the press and the first adhyāya was completely printed before his death. In the normal course, this Introduction would have come from his pen. Having regard to his solid erudition, his profound knowledge of music both on the practical and the theoretical side, his wide reading, his deep insight into subjects allied to music like dancing, I must confess that the present Introduction is only a poor substitute for what could have been expected from him.
The Sangitaratnākara of Sārngadeva is one of the most important works on music now available. It is besides, one of the longest works on music in Sanskrit. It is a very comprehensive exposition of the subject, dealing with all aspects. Ever since it was written it has remained the standard work on music; it has been
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vi
drawn upon profusely, as authority, by all subsequent writers on the subject. Perhaps it has superseded many earlier works and obscured them; and they have disappeared from the field. But it has never been superseded till now.
A complete edition of the work was undertaken by Kalivara Vedāntavāgisa and Sārada Prasāda Ghosha from Calcutta with the commentary of Simhabhūpāla some time back, and the first volume containing the Svarādhyāya was published in 1879 from the New Arya Press, Calcutta. In the Preface to that edition, it had been promised that the remaining portions too would be published; but it does not seem that any further progress had been made in that direction. At that time they had access only to a very defective copy of the commentary of Kallinātha, which, as they say, was "very unintelligible, owing to numerous clerical mistakes." * As for Simhabhūpāla's commentary appearing in this edition, there is no indication of the source of the manuscripts. The Preface does not mention the point at all. Evidently they must have had access to a complete copy, since they had projected a complete edition. The manuscripts known to us and utilised for this edition will be noticed in the course of this introduction.
The text of Sangitaratnākara with the commentary of Kallinātha has been edited in the Anandasrama
The book has become very rare and difficult to obtain. p.ii.
p. iv.
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Sanskrit Series as No. 35 in 1896. In preparing this present edition, Pandit Subrahmanya Sastri has made use of both the editions. The text has been compared with manuscripts available in the various libraries in and near Madras and the commentary of Kallinātha has been compared with the manuscript in the Tanjore Palace Library. The printed editions have been carefully compared with these manuscripts and the readings have been improved.
The plan was to add an English translation of the text at the end of each volume for the portion contained in it. It is very unfortunate that the late Pandit Subrahmanya Sastri was not able to prepare the translation. That work has devolved on me, along with the responsibility to see through the press the matter for the later portions which he had got ready. The English translation for the first adhyāya is ready. The delay in issuing this first volume, which had been printed more than a year ago, is due to the time taken for getting the English translation ready. At this stage, the problem of printing-paper became a very acute one and it is not found possible at present to print the English translation. Therefore the first volume containing the first adhyāya is being issued, along with the commentaries and also appendices The second and the third adhyāyas have been printed and the printing of the fourth adhyāya has begun and the second volume containing these three adhyāyas
'In two volumes. * Descriptive Catalogue, Vol. XVI, No. 10749.
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will appear very soon. Unfortunately we have to hold up printing any further matter on account of difficulty in securing the needed paper. It is proposed to publish the remaining portion in a few convenient volumes and the English translation will appear in a separate volume for the entire text.
The appendices added in this volume from page 293 illustrate certain details given in the text. Of these the Svaraprastāras from page 297 and the next one on p. 394 are given at the end of the whole work in the Anandasrama edition; since the matter relates to the first adhyāya, it is given at the end of this volume containing the adhyāya. It is hoped that these and the other appendices which were prepared by Pandit Subrahmanya Sastri, and the index of half verses will be of help to the readers in making use of the book.
As is well known, the Sangitaratnākara is divided into seven adhyāyas dealing with:
1. Svara 4. Prabandha 7. Nộtya 2. Kāga 5. Tāla
3. Prakirnaka 6. Vadya The first adhyāya containing the Svara is divided into eight sections, called prakaranas and they deal with:
1. Padārthasangraha 2. Pindotpatti 3. Nāda - sthāna - s'ruti-svara-jāti-kula-daivata-rsi
chando-rasa 4. Grāma-murchana-krama-tāna
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5. Sādhāraṇa
6. Varṇālankāra
7. Jāti 8. Gīti
In the Calcutta edition,' the first of these prakaranas is called the Introductory section and the rest of the adhyaya is divided into seven sections. In the Preface there, the fifth section is called Sadhāraṇa and the Varṇālankāra is spoken of as the fourth; but in the text itself the order of these sections is as given in the present edition. I am adding a detailed list of contents, which, it is hoped, will be of use to the readers to understand the whole subject matter at a glance.
S'arngadeva, the author of the Sangītaratnākara, gives some information about himself in the beginning of the work, before he begins the summary of the work, in the first prakarana of the first adhyaya. The first verse is a mangala. Then he speaks of his family," which traces its origin to Kashmere. The family goes back to the sage Vṛṣagana. In that family there was one Bhaskara,' who migrated to the south." His son
1 Preface, p. ii.
9 p. iii.
3 Verses 2-14.
'अस्ति स्वस्तिगृहं वंश: verse 2.
" श्रीमत्काश्मीरसंभव: Ibid.
ऋषेर्वृषगणाज्जात: Ibid.
ix
+
7 तत्राभूद्भास्करप्रख्यः verse 4.
अलंकर्तु दक्षिणाशां यश्व के दक्षिणायनम् Ibid.
B
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was Sodhala. He was patronised by King Singhaņa.? This is a king of the Yadava dynasty, who ruled in Deogiri (modern Doulatabad) from 1210 to 1247 A.D.' Sārngadeva was the son of this Sodhala." He speaks about his own learning in detail."
Many commentaries are known to have been written on this work of Sārngadeva. The editors of the work from Calcutta say that they have known of seven commentaries, of which four are in Sanskrit, one in Hindi and two in Telugu. But they had seen only two of the Sanskrit commentaries (evidently those by Kallinātha and Simhabhūpāla) and the one in Hindi. The late Dr.. M. Krishnamacharyar mentions the following commentaries on it, in his Classical Sanskrit Literature': Sirihabhūpāla, Kes'ava, Kallinātha, Hamsabhūpala, Chandrikā, and the Hindi commentary by Gangārāma. Of these the commentaries by Simhabhūpāla and Kallinātha will be taken up for detailed consideration presently.
The commentary by Kesava is called Kaustubha, according to Dr. Krishnamacharyar. A commentary by Kesava is mentioned in the Sangitasudhā°
anay: ... Acc; verse 5.
a....uit hedt fagù xirfa Ibid. saka 1132-1169. 'ana... 18: ca: verse 9. * verses 10-14. Preface, p. 4. para 1004, page 853. foot-note 2 on p. 853.
Sargitasudhā of Govinda Dikşita mentions Kesava's commentary in:
' एनां स्फुटीकर्तुमिह प्रवृत्तौ यौ ब्राह्मणौ केशवकल्लिनाथौ । Edition of Music Academy, Madras, No. 1, p. 152, verse 408.
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of Govinda Dikshita,' which is published by the Music Acadamy, Madras. For the commentary of Hamsabhūpāla, Dr. Krishnamacharyar gives no reference. This must be the commentary mentioned in the Catalogue of Sanskrit Manuscripts from Gujerat, Karachi, Sindh and Kandesh. Evidently this is a mistake for Simhabhūpāla. For the commentary by Kumbhakarņa, there is not enough evidence.' For Chandrikā also Dr. Krishnamacharyar gives no reference and simply says that it is anonymous, Dr. V. Raghavan says that he has information that there are two commentaries, one called Kaustubha and another only a paraphrase of the text. According to Dr. Krishnamacharyar, Kaustubha
This is given as by King Raghunatha of Tanjore, in the colophon ; but Govinda Dikşita's son Venkatamakhin says that the work was by his father in the following verses of his Caturdandiprakās'ikā.
चेन्वयाच्युतभूपालाघुनाथनृपाङ्किते। अस्मत्तातकृते ग्रन्थे प्रोक्तम् . श्लोकान् लिखामि तान् ॥
p. 14, verses 154. in the edition of the Music Academy, Madras, No. 3. The verses quoted are found on p. 155, verses 440-443 in the edition of the Music Academy, Madras.
No. 1. * p. 274.
Dr. V. Raghavan also mentions this commentary in the Journal of the Music Academy, Madras, Vol. iv, p. 18. In this article he mainly gives the information he had himself gathered in his researches ; but he records also what information he had received from others. This is a point of the latter variety.
" Foot-note 4 on p. 853. Oppert mention this as No. 6258. Journal of the Music Academy, Madras, Vol. iv, p. 19.
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seems to be the work of Kes'ava. The commentary in Hindi is by Gangārāma, of which there is a good manuscript in the Tanjore Palace Library.' A Tamil translation of the work also is available in the Tanjore Palace Library
Of the two important commentaries, those by Kallinātha and Simhabhūpāla, the commentary of Simhabhūpāla is earlier. Simhabhūpāla belongs to the Recherla dynasty. His father was Anapota, who had a younger brother called Mada. They built up a strong kingdom and they divided the kingdom between themselves, the northern part going to Anapota with the capital at Rajukonda and the southern part to Mada with the capital at Devarakonda. Anapota had two sons; Devagirīs vara was the elder, who must have died young since it is Simhabhūpāla who succeeded Anapota. About Simhabhūpāla there is enough material available in his own works. In the commentary on Sangitaratnākara itself, there is not much information available. He simply says that he has discussed the matter with scholars well-versed in
See foot-note 8 on p. X. Descriptive Catalogue, Vol. XVI, No. 10754. *Tamil Catalogue by L. Olaganatha Pillai, No. 634, b.
See Velugotivāri Vams'āvali, edited by Dr. N. Venkata Ramanayya, No. 6, Bulletin of the Department of Indian History, University of Madras, p. 13. for this information. For names Anapota and Mada see note ó on p. XIV. below.
* This is not mentioned in the book referred to in the note just above: but see note 12 on p. XIV. below.
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the science of music.' He adds that he has studied all the subjects also. But he has written other works which are now available in print.
A great Alankara work called Rasarṇavasudhakara by Simhabhupala has been published in the Trivandrum Sanskrit Series by the late Mahāmahopadhyāya Dr. T. Ganapati Sastri as No. 50 in 1916. Here there is a long introductory portion where the author gives much information about himself. There is the caste born of the feet of Visnu (the S'udra caste). Belonging to that caste there is the dynasty of Recalla where there was the king named Dacana." He defeated the Pandya king, and he had the Title of Khadganārāyaṇa. His wife was Vocamamba" who belonged to the Tamarasa dynasty." They had three sons,'
xiii
' संगीतागमसारविद्भिरखिलैः सार्धं विचार्य स्फुटम् verse 9 in the com - mencement of his commentary.
* विद्याजातविशारदः Ibid.
3 verse 1-44.
4
तस्य (विष्णोः) पादाम्बुजाज्जातो वर्ण: verse 4.
5
तत्र रेचलवंशाब्धिशरद्रा कासुधाकरः ।
खड्गनारायणे यस्मिन् verse 7.
" तस्य भार्या महाभाग्या
कलानिधिरुदार श्रीरासीद् दाचननायकः ॥ verse 5. The name of the dynasty is recerla and lla in the printed edition must be a mistake for rlla.
" यस्यासिधारामार्गेण दुर्गेणापि रणाङ्कणे ।
पाण्डयराजगजानीकाजयलक्ष्मीरुपागता | verse 6.
9
जाता तामरसान्वयात् Ibid.
" तयोरभूवन् ..
. वोचमाम्बा गुणोदारा verse 8.
10
पुत्रास्त्रय: verse 9.
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S'inga Prabhu, Vennama Nayaka, and Reca.' S'inga became the king after the death of Dacana. His brother Reca had a son named Nagaya Nayaka3 who had the Title of Kuthariraya and who was also called Rāhuttaraya. S'inga Prabhu had two sons named Ananta and Madhava. This Madhava had many sons' of whom Vedagirindra was the eldest." The elder brother of Madhava, namely, Ananta became known as Anapota also." His wife was Annamām bā." They had two sons;" the elder was Devagiris'vara" and the second was Singabhupati." He lived in his anscestral city of Rajacala." His kingdom lay between the Vidhya mountains and the S'ris'aila.
1
शिङ्गप्रभुर्वेनमनायकच वीराग्रणी रेचमहीपतिश्च verse 9.
* तत्र शिङ्गमहीपाले पालयत्यखिलां महीम् verse 11.
'श्रीमान् रेचमहीपतिः
लब्ध्वा
4
'ब्धकुठारिराय बिरुदम् Ibid.
'राहुतरायाङ्कितम् Tbid.
" अनन्तमाधवौ यस्य तनूजौ verse 15. They are Anapota and Mada referred to in note + on p. XII above.
'तत्रानुजो माधवनामकेन्द्रः यस्याभवन् वंशकरा नरेन्द्रास्तनूभवाः verse 16.
...
'तनूभवा वेदगिरीन्द्रमुख्याः Ibid.
b
xiv
....
9
10
'तस्याग्रजन्मा भुवि राजदोषैर प्रोतभावादनपोतसंज्ञां दधाति verse 17.
'अन्नमाम्वेति विख्याता तस्यासीद्धरणीपतेः देवी verse 24.
" तयोरभूतां पुत्रौ द्वौ verse 26.
" आद्यो देवगिरीश्वर: Ibid.
13
'द्वितीयस्त्वद्वितीयोऽसौ यशसा सिङ्गभूपति: Ibid. His date is towards the
close of the 14th century A.D.
14
15
पुत्रं नागयनायकम् verse 14.
राजा स राजाचलनामधेयामध्यास्य वंशक्रमराजधानीम् verse 41.
विन्ध्यश्रीशैलमध्यक्ष्मामण्डलं पालयन् verse 42.
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XV
Another work of Simhabhūpāla is Kuvalayāvali or Ratna pāñcālikā, published in the Trivandrum Sanskrit Series by Dr. L. A. Ravi Varma as No. 146 in 1941. This is a small drama in four Acts. In the Prologue the author is mentioned as Sri S'ingabhūpāla,' otherwise known as Khadganārāyaṇa? who lived at the capital city named Rajasaila. His mother was Annamātā.' It is also stated there that one Vis'ves'vara had spoken very highly of his poetry. The Vis' ves' vara mentioned in the Prologue must be the author of Camatkāracandrikā; in the colophon of this work there is the mention of Simhabhūpāla.
There is a Telugu work called Velugotivārivaṁsāvali. In the Introduction to that work, Dr. Venkata Ramanayya deals with Simhabhūpāla on pages 13 ff.
staat fat a frontal p. 2, 11. 9, 10.
Exarciada p. 2. I. 8. His grandfather too had this Title. See note 7 on p. XIII above. Perhaps this is a Family Title.
STIFRS farai Hrit p. 1, last line.
w anach: p. 2, verse 4. In his other work the name is Annamāmbā. See note 10 on p. XIV above. If 372ą=375TFT, the form ought to be अन्नमात्रात्मज ; perhaps the word is अन्नमाम्बात्मज. 'अहो माहित्यसौभाग्यं श्रीशिङ्गधरणीपतेः ।
ja 67 ha fata Fadt II p. 2, verse 3. . The colophon mentions Simhabhūpāla as a patron of Visves - vara. The colophon is: sfâ Acharfecaigheter fast * 994guitarzi wakustifagurersitasi antrafregar etc. Government Oriental Manuscripts Library, Madras, R. 2679 and India Office, Eggeling 3966.
See note 4 on p. XII above.
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xvi
Simhabhūpāla is a versatile scholar and a profuse writer. Apart from his Kuvalayāvali and Rasārņavasudhākara, both published in the Trivandrum Sanskrit Series, he must have written many other works. In the Rasārņavasudhākara, he mentions a work called Kandarpasambhava as his own composition. In the whole of this Rasārņavasudhākara, he quotes from his own works about twenty five verses in illustration of various statements he makes, with the remark, yatha mamaiva. A few of them are tracable to his Kuvalayāvali as is mentioned in the Preface to that Drama in the Trivandrum Sanskrit Series. We have as yet no information about the other verses quoted from his works.
In Aufrecht's Catalogus Catalogorum, there is an entry of Nataka paribhāṣā as a work of Singadharanisena. The entry is made on p. 284 as found in Buhler's Report and on p. 791 as found in the India Office. The manuscripts in the India Office are described by Eggeling under Nos. 1201 and 1202. Evidently the author is Singadharaṇīs'a and Singadharanisena must be the Intrumental Singular form with sa for s'a. It is not a separate work; it is only a part of Simhabhūpāla's Rasārnavasudhākara beginning from verse 290 on p. 298.
There is no reason to believe that the Rasārņavasudhākara was written by Vis'ves vara on the ground that He says : 791 Freucina ha
उभे तदानीमुभयोस्तु चित्ते कदुष्णनि:श्वासचरिष्णुकेन । एकीकरिष्यन्ननुरागशिल्पी रागोष्मणैव वतामनेषीत् ॥
P. 151, under verse 112. * Eggeling gives the name as Singadharanisa.
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xvii
in Camatkaracandrika, Vis'ves'vara refers to Rasārņavasudhakara for details.' It is becoming a fashion now a days to refer all works bearing the name of a king to some court poet or court pandit. Unless there is definite evidence as in the case of Sangitasudha assigned to king Raghunatha and mentioned as by Govinda Dikṣita by his son Venkatamakhin', we have to accept that the king himself wrote these works. The kings in ancient and even in medieval India were not mere figure-heads in administration; nor were they mere administrators. They were the true representatives of the civilization of the country. In intellectual equipments, in cultural accomplishments and in every aspect of their lives, they represented the civilization in its ideal form. They maintained Dharma, which is another word for civilization; they lived according to Dharma also. Besides being warriors, conquerors and rulers, they were learned scholars, poets, philosophers and authors, and patrons of learning and arts. They recognized only an Indian Dharma or civilization without any racial prejudices. Simhabhūpāla himself says that he belonged to the lowest caste3; at the same time he honoured the Brahmins and protected religion. Neither caste distinction nor sectarian differences interfered with the unity of culture under the rule of those great Indian kings.
'Cf. Dr. M. Krishnamacharyar's Classical Sanskrit Literature, para 879, p. 771.
See note 1 on p. XI. above.
3 See note 4 on p. XIII. above.
C
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xviii
Dr. M. Krishnamacharyar says that Siṁhabhūpāla who wrote the commentary on the Sangītaratnākara is different from the author of Rasārņavasudhākara'. He does not give any explanation. It is true that while he gives an elaborate description of his ancestry in the introductory portion of the Rasārņavasudhākara, he gives little information about himself in his commentary. This must be due to the fact that he wrote the commentary after he wrote the Rasārnavasudhākara. It is not possible at this stage to investigate the point on the basis of any internal evidence. I must wait for that till the whole of the commentary is published. But the colophon in the two works proves the identity of the authors beyond any doubt. The question of a work called Nāta kaparibhāsa, the question of Rasārņavasudhākara having been written by another person who was a favourite in the court and the question of the authors of the two works being different-such questions should not have been raised, and if the points had been properly investigated such doubts would not have been raised. But since they are found in works well known and relied on by many, it has become necessary for me to investigate the points and make certain remarks on them.
See Classical Sanskrit Literature, footnote 1, p. 853. The colophon in Rasārņavasudhākara read as follows: इति श्रीमदन्ध्रमण्डलाधीश्वरप्रतिगण्डभैरवश्रीयनपोतनरेन्द्रनन्दनभुजबलभीमश्री
faxzafa faa Taraguaalfa etc. This may be compared with the colophon at the end of the first chapter of the commentary. Further the identity of the names gut in both works too point out to the identity of the authors.
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xix
Three manuscripts of Simhabhūpāla's commentary on the Sangitaratnākara have come to our notice. One is in the collection at the Fort at Bikaner and we were able to secure a transcript of it. There is another work in the Oriental Library at Baroda and for this also, we were able to have a transcript. The third is in the Bhandarkar Research Institute, Poona.' It is found that this last manuscript consists of a few stray leaves and so we did not utilise it. Another manuscript is known to exist in Kashmere. We tried very much to secure a loan or a transcript of it. But we are informed that the manuscript is not available there.
Kallinātha also gives some information about himself in the introductory portion of his commentary. He speaks about the Karņāțaka country with the Kāverī and the Kșsņā on the south and the north of the country,' which extends to the eastern and the western coasts.* Here on the banks of the
'Simhabhūpāla's commentary is not noticed in Rajendrala) Mitra's Catalogue. No. 1120 there is a part of Kallinātha's com. mentary. A new and complete Catalogue is under preparation. But the numbers have not been finally assigned and as such no number is given here for the Manuscript.
The Catalogue has not yet been printed. Descriptive Catalogue, Vol. XII, No. 327.
The MS. is not noticed in any catalogue. But its existence in the Raghunath Temple, Srinagar is known through private information.
* Verses 5-14 in the commencement of the commentary. 6 31 aufcert: verse 5. ifra tencurauitatata Fiscattatia: Ibid. sta: sifza gaforfasta997 912791ia Ibid.
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Tungabhadra there is the city called Vidyanagari (Vijayanagar) 1 where there ruled the king Devarāya, son of Vijaya of the Yadava dynasty. Devarāya's. son was Immadi Devaraya. Kallinatha lived there at that time. * His grand-father was Vallabhadeva;t his mother was Nārāyaṇī and father Lakṣmidhara.' He belonged to the S'andilya Gotra." Under the orders of the king, he commented on the Sangitaratnakara.9
XX
Vijaya I, mentioned by Kallinatha reigned from 1418 to 1423; his son Devaraya II reigned from 1423 to 1446. 10 Immadi Devarāya reigned from 1446 to 1465. Thus Kallinatha must have lived in the second half of the fifteenth century.
1
पुरीह विद्यानगरी चकास्ति तुङ्गातरङ्गैरभितः पवित्रा verse 6.
7
* एतां शास्ति प्रौढ : श्रीदेवरायो विजयनृपसुतो यादवानां वरेण्यः verse 7 ..
कल्लिनाथार्यवर्यः
...
' तस्यास्ति पुत्रः... इम्मिडिदेवराय : verse 8.
' सुधर्मेव सभा यस्य verse 9 and तस्यामस्ति ...
verse 10.
' वलभेश्वरदेवो हि यस्य साक्षात् पितामहः verse 11.
edition reads the name as तुत्तुलेश्वरदेव.
G
माता नारायणी यस्य verse 12.
पिता लक्ष्मीधरः स्वयम् Ibid.
* शाण्डिल्य गोत्रजः सोऽयम् Ibid.
9
तमाह कल्लिनाथाय स राजा बहुमानतः ।
रत्नाकरं व्याकुरुष्व लक्ष्यलक्षणकोविद || verse 13.
अतः स कल्लिनाथार्यो रत्नाकरनिबन्धनम् ।
कलानिधिं निबध्नाति । verses 14.
10
Anandasrama
Inscriptions about Vijaya are available from 1418-1426; but Devarāya began to reign from 1423. So there must have been a joint rule by father and son for three years.
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xxi
Sārngadeva the author of the Sangitaratnākara mentions many previous writers on the subject in verses 15 to 19 in the first prakarana of the first adhyaya. Of these authorities, some are very well known. A detailed notice of them will be more appropriate when the whole book is out. He must have eclipsed most of them. He styles himself as Nis's'ańka, “free from doubts." He also refers to himself as Karaņāgranīḥ, which shows that he was the accountant-general of his king. Thus the author of the original was a high official in the service of the king; the commentator Kallinātha was a prominent figure in the royal court, held in high esteem by the king; the other commentator is a king. This shows what a close relation there existed between the government and the culture of the country..
The Adyar Library has already published two works on Music, the Melarāgamālikā of Mahāvaidyanātha Sivan and the Sangrahaсūdāmaņi which were both edited by the late Pandit S. Subrahmanya Sastri and which appeared as Nos. 16 and 17 in the Adyar Library Series. The Rāgavibodha of Somanātha is already available in more than one edition and there is also an English translation. But the book is known to be out of print. The Adyar Library has already started printing a fresh edition of the work prepared by the late Pandit S. Subrahmanya Sastri, where he has been able to improve the readings in many places. This edition will be out very soon.
The plan of the Adyar Library is to publish works in all aspects of ancient Indian Culture, of which we
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xxii
consider music and other fine arts as very important ones. In India, music did not develope as a secular entertainment; music in India is a fundamental phase of religion; rather music has become a religion itself, with a philosophy attached to it. The musical notes are the physical manifestations of the Highest Reality termed Nāda-Brahman. Music is not a mere accompaniment in religious worship; it is religious worship itself, likes Yāgas and Temple worship. In India there has never been an antethesis between aesthetics and morality; there has never been developed an æsthetic doctrine which was not acceptable to the most orthodox follower of religion. Thus the Sangitaratnākara and other works on music undertaken for publication by the Adyar Library are presentations of orthodox phases of Hindu religion and of Indian civilization as much as the commentaries on the Vedas and the works on religion and philosophy like the Ahirbudhnya Samhita and the Vedāntaparibhāsā. Through our publications we desire to exhibit the unity of Indian culture and the harmony that exists among the various phases of the Culture.
Now what remains for me is to acknowledge the help that has been received in the preparation of this edition. Our gratitude to Pandit S. Subrahmanya Sastri, who prepared the edition is far beyond words to be adequately expressed. His whole life was spent in scholarly pursuits; it is a great privilege for me to be able to associate myself with this great work even in this very humble capacity. Dr. G. Srinivasa Murti,
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the Director of the Adyar Library and the General Editor of the Library Series has all along been taking a keen interest in this publication. There is no detail in which his advice has not been sought, and he was always ready with his help. Mr. Ramachandra Sarma, who is on the staff of the Library was working under the direction of Pandit Subrahmanya Sastri in preparing the edition. The index at the end has been prepared by him. All the credit for the printing and general get up goes to the Vasanta Press, which always keeps up the high standard in all aspects of publication. I express my very sincere gratitude to all of them who are directly connected with me in my work. I must also thank the authorities of the Manuscripts Library in Bikaner and the Oriental Institute, Baroda for supplying the Library with the transcripts of the commentary of Simhabhūpāla. Adyar Library,
C. KUNHAN RAJA 12th April 1943
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विषयसूची
[प्रकरणानां पुटसंख्यया निर्देशः । प्रकरणस्थविषयाणां तु श्लोकसंख्यया]
पुटाङ्काः १. पदार्थसंग्रहप्रकरणम् . . १-२१ मङ्गलम् १; प्रन्थकुटुंशः २-९; ग्रन्थकृत , प्रन्थश्च १०-१४;
प्राचीनाः प्रन्थकारा: १५-२०; संगीतलक्षणम् २१; संगीतस्य द्वैविध्यम् , तयोर्लक्षणं च २२-२४ ; गीतस्य मूलम् २५ ; गीतप्रयोजनम् २६, २७, गीतप्रशंसा २८-३०; प्रथमाध्यायसंग्रह: ३२-३६ ; द्वितीयाध्यायसंग्रहः ३७, ३८; तृतीयाध्यायसंग्रहः ३९, ४०; चतुर्थाध्यायसंग्रहः ४१-४३; पञ्चमाध्यायसंग्रहः ४४-४८; षष्ठाध्यायसंग्रहः ४८; सप्तमाध्यायसंग्रहः ४८
२. पिण्डोत्पत्तिप्रकरणम्
. २२-६२ नादप्रशंसा १, २; नादद्वैविध्यम् ३ ; ब्रह्मस्वरूपम् ४, ५;
जीवानां देहप्राप्तिः ६-१० ; जीव-ब्रह्म-जगदैक्यम् ११, १२ ; सृष्टिकमः १२–१७ ; मानुषशरीरस्योत्पत्तिक्रमः १८-२२; गर्भस्य मासचतुष्टयेऽवस्थाविशेषा: २३-२७ ; गर्भदोहदविधि: २८-३२; गर्भस्य पञ्चममासादूर्ध्वमवस्थाविशेषाः ३३-४१; प्रसूतिप्रकार: ४२, ४३ ; भावभेदाः ४४; मातृजा भावाः
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xxvi
पुटाङ्काः
४५, ४६ ; रसजा आत्मजाश्च भावा: ४७, ४८; ज्ञानेन्द्रियाणि, तेषां विषयाश्च ४९ ; कर्मेन्द्रियाणि तेषां व्यापाराश्च ५०; अन्त:करणद्वयम्, तद्व्यापार विशेषश्च ५१, ५२ ; इन्द्रियकारणम् ५३ तृतीयमन्तःकरणम् ५३ ; गुणाः, गुणकार्याणि च ५४, ५५ ; गुणसात्म्यजभावा: ५६ ; देहे भूतगुणा: ५६ ; आकाशगुणाः ५७ ; वायुगुणा: ५७ – ६० ; प्राणस्य स्थानं व्यापारश्च ६०, ६१ ; अपानस्य स्थानं व्यापारश्च ६२ ; व्यानस्य स्थानं व्यापारश्च ६३, ६४; समानस्य स्थानं व्यापारश्च ६४, ६५ ; उदानस्य स्थानं व्यापारश्च ६६ ; नागादिपञ्चवायूनां स्थानानि व्यापाराश्च ६७-६९; उदकगुणा: ६९, ७०; पृथिवीगुणाः ७०, ७१; अन्ये देहभेदा: ७१–७४ ; अङ्गप्रत्यङ्गानि ७५--७८ ; धातवः ७९-८२ ; हृदयम् ८३ – ८५ ; रन्ध्राणि ८६, ८७; अस्थिराशयः ८७–९० ; अस्थिसंख्या ९० -- ९२; अस्थिसंधय:, तेषां भेदाश्च ९२ – ९४ ; स्नायुभेदा: ९४, ९५ ; स्नायूनामुपयोगः ९६ ; पेशीसंख्या ९७ - १०० ; सिरा-धमनिकासंख्या १०१, १०२ ; सीवनीनां संस्थानादय: १०२ – १०५ ; धमन्यः १०५ - ११३ ; मर्माणि ११४, ११५ ; संहितामानम् ११५, ११६; द्रवमानम् ११६ – ११९; आधारचक्रम् १२० - - १२२; स्वाधिष्ठानचक्रम् १२२ – १२४; मणिपूर चक्रम् १२४–१२६ ; अनाहतचक्रम् १२६ – १२९; विशुद्धिचक्रम १२९–१३१ ; ललनाचक्रम् २३१-१३३; आज्ञाचक्रम् १३३, १३४ ; मनश्चक्रम् १३४, १३५ ; सोमचक्रम् १३६–१३८ ; चक्रान्तरम् १३९ ; चक्रफलानि १४० – १४५ ; अग्निशिखास्थानम् १४५, १४६ ; ब्रह्मप्रन्थि : १४७ - १५० ; मुख्यनाड्य: १५१ – १५५ ; सरस्वत्यादिनाडीनामवस्थानानि १५५
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xxvii
पुटाङ्काः १५९; तासां प्रमाणम् १९९--१६३ ; पिण्डनिरूपणस्योपसंहार: १६३, १६४ ; मुक्ति-भुक्त्युपाय: १६४ ; नादोपासना १६५–१५७
३. नाद-स्थान-श्रुति-स्वर-जाति-कुल-दैवत-पिच्छन्दो-रसप्रकरणम्
. ६२-९८ नादोपासना, तत्फलं च १, २, नादोत्पत्तिप्रकार: ३, ४; पञ्च
विधो नादः ५; नादशब्दव्युत्पत्ति: ६; व्यववहारे त्रिविधो नादः, एषां मानं च ७; नादस्य द्वाविंशतिभेदा: ८, ९, वीणाद्वयदृष्टान्तेन स्वराणां विशदीकरणम् १०-१६ ; तयोश्चलवीणायां कर्तव्यम् १७ ; सारणानां चतुष्टयम् १८-२२; सप्तस्वराः, स्वरशब्दव्युत्पत्तिश्च २३ २५; श्रुतिकारणाक्षेपः २५, २६ ; तत्परिहार: २६, २७ ; श्रुतिजातिविभाग: २७; तासां स्वरेषु व्यवस्थितिः २८- ३१; तासामवान्तरजातयः ३१३५ ; तासां स्वरस्थितिः ३५-३८; त्रिप्रकारा: स्वराः ३९; द्वादश विकृतस्वरा: ३९-४६, सप्तस्वराणां मयूरायुच्चारयितार: ४६, ४७; स्वराणां वादीत्यादिचातुर्विध्यम् ४७-५१; स्वराणां कुलानि ५२-५४ ; स्वराणां वर्णाः ५४, ५५; स्वराणां जन्मभूमय: ५५, ५६; स्वराणा द्रष्टार ऋषयः ५६, ५७; स्वराणां देवताः ५७, ५८, स्वराणां छन्दांसि ५८, ५९; स्वराणां रसा: ५९
४. ग्राम-मूर्छना-क्रम-तान-प्रकरणम् . ___ . ९९–१४६ ग्रामलक्षणम् १; तस्य द्वौ भेदौ १, २ ; षड्जग्रामस्य लक्षणम् २ ;
मध्यमग्रामस्य लक्षणम् ३; गान्धारग्राम: ४, ५, त्रयाणां
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पुटाङ्काः
प्राधान्यम् ६, ७ ; ग्रामत्रयदेवताः ७ ; तेषामृतव:, कालविशेषश्व ८ मूर्च्छनानिरूपणम्, तद्भेदाश्च ९- १२; तेषां भेदानां लक्षणानि १२-१५ ; मूर्च्छनानां चातुर्विध्यम् १६; काकली, काकल्यन्तरश्च १७ ; मूर्च्छनासंख्या परिज्ञानोपायः १८ ; षट्पञ्चाशत्संख्याकानां मूर्च्छनानां प्रत्येकं पञ्चविधत्वम् १९ - २० ; मूर्च्छनानां देवता: २० - २२; मूर्छनानां नामान्तराणि २२-२६ ; ताननिरूपणम् २७ - ३१; कूटताना: ३२; पूर्णकूटताना: ३२-३५ ; अपूर्णकूटताना: ३५, ३६; षाडवानां कूटतानानां संख्या ३७, ३८; एकस्वरादितानानां नामविशेषा: ३९; षाडवसंख्या ४० - ४३; पञ्चस्वरा: ४३ – ४५ ; चतुस्वरा: ४५, ४६; विस्वरा: ४७, ४८; द्विस्वरा: ४८, ४९ ; एकस्वरा: ४९, ५०; कूटताना: पुनरुक्ता: ५०-५२ ; अन्ये पुनरुक्ता: ५२-५७; मिलित्वा तेषां संख्या ५८६० ; संख्यानां लाघवेन परिज्ञानोपायः ६०, ६१; प्रस्तार: ६२, ६३; खण्डमेरुः, अङ्कनिवेशनप्रकारच ६३ – ६५ ; उद्दिष्टपरिज्ञानप्रकारः ६६ - ६८ ; नष्टपरिज्ञानप्रकार: ६८७० ; षाड्जग्रामिकशुद्धताननामानि ७१-७८ ; माध्यमग्रामिकशुद्धताननामानि ७८-८२; षाड्जग्रामिकौडुवताननामानि ८३-८६ ; माध्यमग्रामिकौडुवताननामानि ८७ - ९० ; ताननामप्रयोजनम् ९०
५. साधारणं प्रकरणम्
१४७ - १५०
साधारणलक्षणम् १ ; स्वरसाधारणभेदा: १, २; साधारणसंज्ञोपपादनम् २, ३; काकल्यन्तरयोः प्रयोगनियमः ४-६ ; षड्जमध्यम
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xxix
पुटाकाः साधारणलक्षणम् ७, ८ ; साधारणे ग्रामयोनियमः ८,९; जातिसाधारणलक्षणम् १०
६. वर्णालङ्कारप्रकरणम् . . १५१-१६८ वर्णलक्षणम् १; वर्णभेदाः १-३; अलङ्कारः ३; स्थाय्यलङ्काराः
४-६; परिभाषा ६, ७, मन्द्रतारयोलिपिपरिचयः ८, प्रसनादि: ९; प्रसन्नान्त:९; प्रसन्नाद्यन्त: १०; प्रसन्नमध्य: १०%; क्रमरेचितः ११, १२; दीप्तान्त:, प्रस्तारः, प्रसादश्च १३; आरोह्यलकारा: १४, १५; विस्तीर्णः १६ ; निष्कर्षः १७; गात्रवर्णः १७; बिन्दुः १८, १९; अभ्युच्चयः १९ ; हसितः २० ; प्रेलितः २१ ; आक्षिप्तः २२ ; संधिप्रच्छादनः २३ ; उद्गीतः २४ ; उद्वाहितः २४ ; त्रिवर्णः, २५; पृथग्वेणि: २५; अवरोह्यलङ्काराः २६; संचार्यलङ्कारा: २६---२९; मन्द्रादि: ३०; मन्द्रमध्यः ३१; मन्द्रान्त: ३१; प्रस्तारः ३२; प्रसाद: ३२, ३३ ; व्यावृत्तः ३३, ३४ ; स्खलित: ३५; परिवर्तक: ३६; आक्षेपः ३७; बिन्दुः ३७, ३८; उद्वाहितः ३९ ; ऊर्मिः ३९, ४० ; समः ४०. प्रेङ्खः ४१, ४२ ; निष्कूजितः ४२ ; श्येन: ४३ ; क्रम: ४४, ४५ ; उद्घट्टितः ४५ ; रञ्जितः ४६, ४७ ; संनिवृत्तप्रवर्तकः ४७, ४८ ; वेणुः ४८, ४९ ; ललितस्वरः ४९, ५० ; हुंकार: ५०, ५१ ; ह्रादमान: ५१ ; अवलोकितः ५२ ; अलङ्कागेपसंहार: ५३ ; लोकप्रसिद्धाः सप्तालङ्कारा: ५४, ५५, तारमन्द्रप्रसन्नः ५६, ५७ ; मन्द्रतारप्रसन्न: ५७, ५८ ; आवर्तकः ५८, ५९ ; संप्रदानः १९, ६० ; विधूतः ६०, ६१ ; उपलोल: ६१, ६२; उल्लासित: ६२, ६३; अलङ्काराणामानन्त्यम् ६३ ; अलङ्कारप्रयोजनम् ६४
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XXX
पुटाकाः ७. जातिप्रकरणम् . . . १६९-२७४ शुद्धा जातयः १-३; विकृता जातय: ३-७; विकृतसंसर्गजा जातयः
८-१६ ; जातीना प्रामविभाग: १७--२० ; स्वरसाधारणप्रयोगे नियमः २१-२४ ; अंशानां संख्या: २४-२८ ; ग्रहादीनां विभाग: २९-३१; अंशलक्षणम् ३२-३४ ; तार: ३५, ३६ ; मन्द्रः ३७, ३८; न्यासः ३८-४० ; अपन्यासः ४१-४६; संन्यासः ४७; विन्यास: ४७, ४८; बहुत्वम् ४९ ; अल्पत्वम् ५० ; लङ्घनम् ५१ ; अन्तरमार्गः ५२ ५३ ; पाडवः ५४ ; औडुवः ५५-५७ ; अल्पत्वस्य लोप्यविशेषत्र्यवस्था ५७–५९ सप्रस्तारा जातयः ५९ षाड्जी ६०-६४; आर्षभी ६४-६६; गान्धारी ६७-७० ; मध्यमा ७०७२ ; पञ्चमी ७३–७५ ; धैवती ७५-~-७७ ; नैषादी ७७, ७८ ; षड्जकैशिकी ७९, ८० ; षड्जोदीच्यवा ८१-८५; षड्जमध्यमा ८५-८८ ; गान्धारोदीच्यवा ८८-९१ ; रक्तगान्धारी ९१-९४ ; कैशिकी ९५–९८; मध्यमोदीच्यवा ९९,१०० ; कार्मारवी १०१-१०३; गान्धारपञ्चमी १०३१०५, आन्ध्री १०५-१०७ ; नन्दयन्ती १०७-१०९; अनुक्तानां तालादिनियमः ११०; मार्गाः ११०; गीतयः ११०, १११; मार्गेषु कलानियमः १११, ११२; संक्षेपेण रागांशनिरूपणम् ११३ ; जातिस्तुति: ११३ ; जातीनामन्यथा प्रयोगे दोष: ११३, ११४
८. गीतिप्रकरणम् . . . २७५-२८८ कपालोत्पत्तिः १ ; षाड्जीकपालम् २, ३ ; आर्षभीकपालम् ३, ४ ;
गान्धारीकपालम् ४, ५, मध्यमाकपालम् ६; पञ्चमीकपालम्
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पुटाकाः ७; धैवतीकपालम् ८ ; नैषादीकपालम् ९ ; कपालगाने फलम् १०; कम्बलोत्पत्तिः ११, १२; कम्बलगाने फलम् १३; ब्रह्मप्रोक्तकपालपदानि १४ ; गीतिसामान्यलक्षणम् १४-१६; मागधीगीतिः १६-१८; अर्धमागधीगीतिः १८, १९, संभावितागीतिः १९; पृथुलागीति: १९, २० ; तालाश्रयगीतिलक्षणम् २०-२५
अनुबन्धाः । . . . २९३-४१६ १. श्रुतिवीणास्वरग्रामबोधिनी
प्र० ३; श्लो० ११-३८ . . . २९३ २. शुद्धस्वरविकृतस्वरपट्टिका
प्र० ३ ; श्लो० ३९-४६ . . . २९४ ३. मूर्च्छनानामबोधिनी (१)
षड्जग्राम: प्र. ४ ; श्लो०९--१० मध्यमग्राम: प्र० ४ ; श्लो० ११, १२
गान्धारग्राम: प्र० ४ ; श्लो० ५ . . २९५ ४. मूच्छंनानामबोधिनी (२)
षड्जग्राम: प्र० ४ ; श्लो० ९, १०
मध्यमग्रामः प्र० ४ ; श्लो० ११, १२ . . २९६ ५. मूछनाभेदाः प० ४ ; श्लो० १६ . . २९६ ६. जात्यष्टादशकविमर्शनी
प्र० ७; श्लो० ५९-१० . . . २९७
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.
पुटाङ्काः २९९-३९३
७. स्वरप्रस्तारः प्र० ४ ; श्लो० ३९ . ८. श्रुतीनां जातिस्वरग्रामप्रदर्शकं चक्रम् ।
प्र० ३; श्लो० ३६-३८. . ९. श्लोकानामर्धानुक्रमणिका .
. .
. ३९४ ३९५-४१६
शोधनम्
प.
م
م
س
م
मण्डात्त १२५
नव त्रिंशत् १५७
ह्रस्वम्
लक्ष्म १६७
.प्रसन्ना. षड्ज.
अटमं Anubandhas 8 and 9 are marked 4 and 5. These figures
may be deleted.
و
२२४
२८८
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शिवाभ्यां नमः श्री-निःशङ्कशाङ्गदेव-प्रणीतः
संगीतरत्नाकरः चतुरकल्लिनाथ-विरचितया कलानिध्याख्यटीकया सिंहभूपाल
विरचितया संगीतसुधाकराख्यटीकया च समेतः
प्रथमः स्वरगताध्यायः
तत्रादिमं पदार्थसंग्रहाख्यं प्रकरणम् ब्रह्मग्रन्थिजमारुतानुगतिना चित्तेन हृत्पङ्कजे
मूरीणामनु रञ्जकः श्रुतिपदं यो ऽयं स्वयं राजते । यस्माद् ग्रामविभागवर्णरचनाऽलंकारजातिक्रमो वन्दे नादतनुं तमुद्भुरजगद्गीतं मुदे शंकरम् ॥ १ ॥
(कलानिधिः) कर्णालम्बितकम्बलाश्वतरयोगीतामृतास्वादना
दान्दोलीकृतमौलिनिर्जरनदीतारङ्गपाटश्रिया ।
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संगीतरत्नाकरः
[पदार्थ
नृत्यञ्चन्द्रकलाकलापविलसद्ब्रह्माण्डखण्डान्तरं
तं तूर्यत्रयपोषरूपवपुषं वन्दे भवानीपतिम् ॥ १ ॥ विघ्नौघहारिणं सर्वभक्ताभिमतकारिणम् । वारणास्यमहं वन्दे मौलावर्धेन्दुधारिणम् ॥ २ ॥ वाणि वीणालसत्पाणि पञ्चाशद्वर्णरूपिणि । पादानतसुरश्रेणि निवासं कुरु मन्मुखे ॥ ३ ॥ वन्दे वेदार्थतत्त्वज्ञं 'मुक्तिमार्गप्रवर्तकम् । सर्वागमविदं नित्यं चन्द्रभूषणदेशिकम् ॥ ४ ॥ आस्ते कर्णाटदेशः सुविमलयशसा पूरिताशः पृथिव्यां
कावेरीकृष्णवेणीतरलतरतरङ्गादक्षोत्तरांसः । हृष्टः संश्लिप्य पूर्वापरनिजवपुषा प्राच्यपाश्चात्त्यवेले ___ पाथोनाथप्रसक्तिप्रबलितनिखिलस्वाङ्गसौभाग्यलक्ष्मीः ॥ ५ ॥ भोग्यास्थिता भोगवतीव नित्यं सुपरम्या दिविजस्थलीव । पुरीह विद्यानगरी चकास्ति तुङ्गातरङ्गैरभितः पवित्रा ॥ ६ ॥ एतां शास्ति प्रशस्तप्रतिभटमकुटप्रान्तनिर्यननिर्य
द्रत्नज्योतिःप्रवालावनमनचटुलाटोपतापप्रतापः । कर्णाटाघाटलक्ष्मीवरणपरिलसत्पौरुषोत्कर्षशाली
प्रौढः श्रीदेवरायो विजयनृपसुतो यादवानां वरेण्यः ॥ ७ ॥ विश्वंभराभाग्यकृतावतारस्तस्यास्ति पुत्रो यशसा पवित्रः ।। संगीतसाहित्यकलास्वभिज्ञः प्रतापवानिम्मडिदेवरायः ॥ ८ ॥ सुधर्मेव सभा यस्य समुल्लासिकलाधरा ।। गान्धर्वगुणगम्भीरा विद्याधरविनोदिनी ॥ ९ ॥ 1.कलापरिलसद्. 'मार्गप्रदर्शकम् .
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-संग्रहः १]
प्रथमः स्वरगताध्यायः वाचा गेयेन नित्यं समुचितकुसुमैस्तोषितार्धाङ्गयोषः __कीर्त्या व्याप्तस्त्रिलोकीमभिनवभरताचार्यलक्ष्मप्रपूर्त्या। पादाने वीरभूषामणिगणविलुठत्सर्ववाग्गेयकार
स्तस्यामस्ति प्रशस्तश्रुतिगणचतुरः कल्लिनाथार्यवर्यः ॥ १० ॥ वल्लभेश्वरदेवो हि यस्य साक्षात्पितामहः । असौ किं वर्ण्यते ज्ञानवैराग्यैश्वर्यसंपदा ॥ ११ ॥ माता नारायणी यस्य पिता लक्ष्मीधरः स्वयम् । शाण्डिल्यगोत्रजः सो ऽयं साक्षात्संगीतदेवता ।। १२ ।। तमाह कल्लिनाथार्य स राजा बहुमानतः । रत्नाकरं व्याकुरुष्व लक्ष्यलक्षणकोविद ॥ १३ ॥ अतः स कल्लिनाथार्यों रत्नाकरनिबन्धनम् । कलानिधिं निबध्नाति लक्ष्यलक्ष्माविरोधतः ॥ १४ ॥
इह चिकीर्षाविषयनिबन्धनप्रतिपाद्यप्रधानांशं समासोक्त्या सूचयशिष्टाचारपरिप्राप्तं दृष्टादृष्टफलं विशिष्टेष्टदेवतानमस्कारमादौ करोतिब्रह्मग्रन्थीत्यादिना । तत्र प्रस्तुतवाच्यशंकरपक्षे~सूरीणां योगिनां हृत्पङ्कजे हृदयस्थानस्थिते ऽनाहताख्ये द्वादशदलचक्रे, ब्रह्मग्रन्थिजमारुतानुगतिना, ब्रह्मग्रन्थिर्नाम देहस्य गुदलिङ्गयोर्मध्ये स्थिताच्चतुर्दलादाधाराख्याचक्राद्वयगुलान्तरादूर्ध्वं मेहनाद्यगुलान्तरादध एकाङ्गुलं तप्तकाञ्चनप्रभं सूक्ष्माग्निशिखाऽऽश्रयो यहेहमध्यं नाम चक्रमस्ति तस्मान्नवागुलान्तरादुपरि चतुरगुलोत्सेधायामो नाभिकंदः, तत्र जातो मारुतो नाभीहृदयनासाऽऽस्यस्थानेषु चरञ्शब्दोच्चारणादिकारणं प्राणो नाम वायुः, तस्यानुगतिर्यस्य तेन चित्तेनान्तःकरणेन करणभूतेन, श्रुतिपदमनु, श्रुतीनां वेदानां पदमुत्पत्ति
1.प्रपूा .
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संगीतरत्नाकरः
[पदार्थस्थानम् , प्रणव इत्यर्थः, तदनु । अत्र ‘अनुर्लक्षणे' इत्यनोः कर्मप्रवचनीयत्वे · कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीया' इति श्रुतिपदमिति द्वितीया । रञ्जकः स्वव्यतिरिक्तं स्वात्मन्यन्तर्भावयन्महारजनादिवत्तथोक्तः । अथ वा, श्रुतिपदम् , श्रुतयो ऽवान्तरवाक्यानि, तासां पदं स्थानम् , उपक्रमादिना लिङ्गेन • सदेव सोम्येदमग्र आसीत् ' इत्यादिः 'तत्त्वमसि' इत्यन्तः संदर्भो महावाक्यम् । अन्विति, अस्य श्रवणानन्तरं शाव्द्यादिप्रतिपत्तिक्रमण भेदनिरासात्तत्त्वंपदार्थयोरैक्याभ्यासे सति । यो ऽयमिति । अत्र यच्छब्देनागमवेद्यत्वमुक्तम् , अयमितीदमा निर्देशेन तु श्रवणानन्तरं मनने कृते मानसप्रत्यक्षत्वम् । स्वयं राजते स्वेनैव प्रकाशते, साक्षात्कारे सति वृत्त्युपाध्युच्छेदे स्वस्वरूपेण नित्यं प्रकाशत इत्यर्थः । यथोक्तं योगयाज्ञवल्क्य
धारयन्मनसा वायुं व्याहरन्प्रणवाक्षरम् । आसने ऽनन्यधीरास्ते रहस्ये विजितेन्द्रियः ।। संप्राप्ते मारुते तस्मिन्सुषुम्णायां वरानने । मन्त्रमुच्चार्य मनसा हृन्मध्ये धारयेत्सुधीः ।। वायुना पूरिते व्योम्नि साङ्गोपाङ्गकलेबरे | तदा ऽऽत्मा राजते तत्र यथा व्योम्नि विकर्तनः ।। यद्यत्पश्यति तत्सर्व पश्येदात्मवदात्मनि ।' इति ।
ग्रामविभागवर्णरचनाऽलंकारजातिकमः । ग्रामशब्देन लोका 'उच्यन्ते, तेषां विभागः, वर्णा ब्राह्मणादयः, तेषां रचना, वर्णानामानुलोम्येन प्रातिलोम्येन चोत्पन्ना या जातयस्ता वर्णोपस्कारकत्वेनालंकारजातय उच्यन्ते ;
लक्ष्यन्ते.
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-संग्रहः १]
प्रथमः स्वरगताध्यायः तेषां ग्रामविभागादीनां क्रमः, यस्माद्भवतीत्यध्याहारः, 'यत्र क्रियान्तराभावस्तत्रास्तिर्भवतिः परः' इति शान्दन्यायात् । एतनेश्वरं प्रति जगतस्तटस्थलक्षणत्वं दर्शितं यथा जन्मादिसूत्रे • यतो वै-' इति वाक्यं विषयीकृत्य प्रतिपादितम् ' ब्राह्मणो ऽस्य मुखमासीत' इत्यादिश्रुतौ च । नादतनुं नादविग्रहम् , 'तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत' इति श्रुतेः । उद्धरजगद्गीतम् उद्धरमुद्भटं यथा भवति तथा जगता गीतं स्तुतं तं शंकरं मुदे निरतिशयसुखावाप्त्य वन्दे प्रणमामि । अप्रस्तुतप्रतीयमानस्वरपक्षे तु--सूरीणां तद्विदां हृत्पङ्कजे मन्द्रस्थाने । ब्रह्मग्रन्थीति पदस्य स एवार्थः । चित्तेन विवक्षमाणात्मप्रेरितेन मनसा । श्रुतिपदम् , श्रुतयः षड्जादिस्वराणामभिव्यञ्जिकाश्छन्दोवत्यादयः, तासां पदम् । पदमिति जातावेकवचनम् , पदं स्थानानीति । ऊर्ध्वनाडीसंलग्ना यास्तिरश्च्यो नाड्यस्तासु चित्ताकृष्टमारुताहतेरुत्पन्नो नादः पदशब्देन लक्ष्यते, तस्थे तदुपचारात् । तदनु तदविच्छेदेन रञ्जकः, स्वकारणश्रुतेः स्वस्वरूपोत्पादकत्वाच्छ्रोतृप्रीतिजनकत्वाच्च । यो ऽयं शास्त्रप्रसिद्धत्वेनानुभूयमानः । स्वयं राजत इति, प्रयोगे सहकारिकारणानपेक्षः प्रकाशत इत्यर्थः । एतेनाक्षरसाम्यात्स्वरशब्दनिरुक्तिर्दर्शिता । ग्रामेत्यादि । ग्रामाः षड्जग्रामादयः तेषां विभागः, वर्णाः स्थाय्यादयः तेषां रचना, अलंकाराः प्रसन्नाद्यादयः, जातयः पाड्ज्यादयः. एतेषां वक्ष्यमाणलक्षणानां ग्रामविभागादीनां क्रमो यस्मात्कारणभूतात्स्वराद्भवति । नादतनुं नादात्मकम् । उद्धरजगद्गीतम् , विशिष्टः स्वरसंदर्भो गीतम् , उद्धरमुद्भटं जगद्गीतं यस्मादिति तथोक्तम् , तं शंकरं सुखकरं मुदे आनन्दाविर्भावाय वन्दे स्तौमि ॥ १ ॥
(सुधाकरः) वेणद्वेलितगीतिरुदसलसद्वाद्यो वयस्यैः समं
तालीभिः फणिमौलिरङ्गधरणौ नृत्यक्रियाकौतुकी ।
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संगीतरत्नाकरः
[पदार्थइत्थं भङ्गिविशेषतः प्रकटयन्संगीतमङ्गीकृत
त्रैलोक्यप्रतिपालन: प्रतिपदं पद्मक्षणः पातु वः ॥ १ ॥ श्रियो निधानं जगतां श्रिये ऽस्तु श्रियो विशाल: स्तनसंनिवेशः । यस्मिन्कराभ्यां कलनामविन्दन्मन्ये चतुर्बाहुरभून्मुकुन्दः ॥ २ ॥ पितुर्जयार्थीव दधाति भानु सिन्दूरपूरारुणकुम्भदम्भात् । दानाम्बुधारायमुनां च मूर्धा गजाननं तं हृदि भावयामः ॥ ३ ॥ तज्जीवितं महेशस्य हिमाद्रेस्तपसां फलम् । निदानं जगतां वन्दे संदेहध्वान्तशान्तये ॥ ४ ॥ भरतादिप्रणीतानां ग्रन्थानां दुग्रहत्वतः । शार्ङ्गदेवोदयात्पूर्व खिला संगीतपद्धतिः ॥ ५ ॥ अभूत्सा शाह्मदेवेन स्फुटमेकपदीकृता । संगीतरसपीयूषे नैवात्मभरितोचिता ॥ ६ ॥ वदान्यस्येति मन्वानः करुणापूर्णमानसः । "एतां राजपथीकर्तुं यतते सिंहभूपतिः ॥ ७ ॥ संगीतरत्नाकरनामधेयग्रन्थस्य टीकां स्फुटदर्शितार्थाम् ।। श्रीसिंहभूपः स्वकुलप्रदीपस्तनोति संगीतसुधाकराख्याम् ॥ ८ ॥ दुर्बोधं भरतादिभिर्विरचितं शास्त्रं चिराभ्यासतः
संगीतागमसारविद्भिरखिलैः सार्ध विचार्य स्फुटम् । विद्याजातविशारदः सहृदयः श्रीसिंहपृथ्वीपति
र्लोकानुग्रहवाञ्छया विवृणुते संगीतरत्नाकरम् ॥ ९॥ ग्रन्थः शक्यो ऽपूर्वः किंचिज्ज्ञात्वा प्रपञ्चयितुम् । न तु मुगमे ऽपि ग्रन्थे विवृतावपि योजनामात्रम् ॥ १० ॥ अतिगम्भीर विषमे कतिपयवेद्ये त्विह ग्रन्थे । सम्यग्व्याख्याकुशल:' सर्वज्ञः सिंहभूप एवैकः ॥ ११ ॥
1.मङ्गीकृतं त्रैलोक्यप्रतिपालकः 'एनां. ३.व्याख्याशक्त:
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-संग्रहः १]
प्रथमः स्वरगताध्याय:
प्रागल्भ्यं दधते न लक्षणविदः संगीतलक्ष्यं विना
लक्ष्यज्ञा अपि शास्त्रबोधविधुरा गोष्टीऽवपळूक्तयः । संदृब्धस्फुटलक्ष्यलक्षणविदः श्रीसिंहपृथ्वीभुजो
नायं नूतन इत्यनूनधिषणैर्ग्रन्थो ऽवमान्यो बुधैः ॥ १२ ॥ प्रस्तौति स्तुतिमस्य निस्तुषतरं सारं न यः संस्तुव
नासौ नः स्तुतिमादधाति बधिरो गातुर्यथा स्तावकः । निश्चित्य स्वचितं वदन्नपि मुदं धत्ते विदामग्रणी
रोष्ठे चूर्णनिवेदनं हि शमयेद्वेषे नृणां वैकृतम् ॥ १३ ॥ गर्वेण कः सर्वगुणोत्तरो ऽपि संगीतरत्नाकरमुत्सहेत । व्याख्यातुमत्रापि तथा ऽपि कश्चित्प्रेक्षावतः प्रीणयितुं प्रयत्नः ॥ १४ ॥
भरतदत्तिलकोहलादिप्रणीतानि संगीतशास्त्राणि भूतलवर्तिभिर्विरलप्रझैदुरवबोधरहस्यानीति मत्वा परमकारुणिकः शिशिरकिरणाभरणचरणपङ्कजप्रवणमानसः शाङ्गदेवः संगीतरत्नाकराख्यं संगीतसारं लोकोपकाराय चिकीर्षुनिष्प्रत्यूहपरिसमाप्तये शिष्यप्रशिष्यद्वारा प्रचयगमनाय च सदाचारानुमितस्मृत्यनुमितश्रुतिविहितं विशिष्टेष्टदेवतानमस्काररूपं मङ्गलमाचरन्प्रसङ्गादभिधेयप्रयोजनसंबन्धांश्चैकेनैव श्लोकेन कथयति-ब्रह्मग्रन्थिजेति । ब्रह्मपदं सकलविघ्नविनाशनिघ्नहृदयं परमात्मानं स्मारयत्प्रथमनिवेशान्मङ्गलाचरणमपि भविष्यतीति मन्वानो नादस्वरूपं मोक्षनिदानं प्रथमं ब्रह्मपदं प्रायुङ्क्त । वन्दे अभिवादये स्तौमि च, 'वदि अभिवादनस्तुत्योः' इत्यभिधानात् । नमतिस्तोत्यादिप्रयोगे त्वन्यतरार्थ एव लभ्येत नोभयमिति वन्दतिप्रयोगः । अत्र नमस्काराणां मानसिकवाचिककायिकत्वेन त्रैविध्यं विशेषणानुपादानाल्लभ्यते । अथ वा, प्रथमचरणगतेन चित्तेनेति पदेन संबन्धः कार्यः, मानसिकस्यैव नमस्कारस्य श्रद्धाविहितत्वेन मुख्यत्वात् , 'यदेव विद्यया करोति श्रद्धया-'इति श्रुतेः । ग्रन्थादिनिवेशनेनव वाचिकनमस्कारस्यार्थत: सिद्धत्वादास्तिकानां श्रद्दधानानां वाचिकनमस्कारस्य कायिकनमस्कारनान्तरीयकत्वात्त्रिविधस्यापि नमस्कारस्य निवेशनसिद्धिः। कं वन्दे ? शंकरम् , ईश्वरमित्यर्थः । अथ वा, शं करोतीति शंकरः, निरपेक्षतया सुखदायक ईश्वर एव । अत एव सापेक्षतया सुखदायकानां राजादीनां व्युदासः ।
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संगीतरत्नाकरः
[पदार्थननु परमकारुणिका निरपेक्षा अप्यन्यानानन्दयितुं यतन्ते ; तन्निरासार्थमाह-. उद्धरेति । उद्रेण जगता गीतं स्तुतम् । 'गै शब्दे' इत्यस्य शब्दार्थत्वे ऽपीश्वरविषयत्वात्स्तुत्यर्थो लभ्यते । किंविशिष्टं तमीश्वरम् ? नादतनुम् , नादस्तनुः स्वरूपं यस्य तम् , शब्दब्रह्मेत्युक्तत्वात् । यद्वा नादेन कार्येण कारणमाकाशमुपलक्षयेत् ; तेनाकाशस्वरूपमित्यर्थः; आकाशो ऽप्येका मूर्तिः परमेश्वरम्य ; एतदुपादानं च परमेश्वरस्यापि शब्दकारणत्वात्तदनुग्रहस्य ग्रन्थरूपशब्दविस्तरसमाप्तिसाधनत्वाभिव्यक्त्यर्थम् । तमिति यच्छब्दसंबन्धार्थम् , 'यत्तदोनित्यः संबन्धः' इति वचनात् । तं कम् ? यस्माद् ग्रामेति । ग्रामशब्देन भूरादिलोका:, अथ वा नगरशाखानगरपामघोषादयो ग्राह्याः । विभज्यत इति विभागो द्रव्यं धान्यादि । अथ वा प्रामाणां विभागः पृथक्त्वेनावस्थापनम् , 'एष सेतुरेष विधरण एषां लोकानामसंभेदाय' इति श्रुतेः । वर्णा ब्राह्मणादयः, रचना द्विपदचतुष्पदषट्पदत्वादिः, अलंकाराः कटकमकुटादयः, जातयो गोत्वाश्वत्वादयः, क्रमो बाल्यादिः सृष्टिसंहारौ वा ऋतुक्रमो वा यस्मात्समुत्पन्नः । 'जनिकर्तुः प्रकृतिः' इत्युक्तत्वात्पञ्चम्यैव समुत्पन्न इति लभ्यते । अत्र च प्रामाश्च विभागश्च वर्णाश्च रचना चालंकाराश्च जातयश्चेति द्वंद्वं कृत्वा ताभिः सहितः क्रम इति क्रमपदेन सह तत्पुरुषः । अथवा, ग्रामादिजात्यन्तानां क्रमः परिपाटी, सा यस्मादिति संबन्धः । पुनश्च विशिनष्टि-यो ऽयं स्वयं राजते स्वप्रकाशः । ननु किमिदं स्वप्रकाशत्वम् ? ज्ञानाविषयत्वे सत्यपरोक्षव्यवहारयोग्यत्वम् । तदुक्तं तत्त्वप्रदीपिकायाम् -
'अपरोक्षव्यवहृतेर्योग्यस्याधीपदस्य नः ।
संभवे स्वप्रकाशस्य लक्षणासंभवः कुतः ॥' इति । क राजते ? सूरीणां हृत्पङ्कजे, 'अगुष्ठमात्रः पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति' इत्युक्तत्वात् । ननु व्यापकस्य परमात्मनः कथं मूर्तधर्मो हृद्यवस्थानम् ? अत आह–अनुरञ्जक इति | व्यापकस्यापि परमेश्वरस्य प्राणिनां हृत्पङ्कजे ऽभिव्यक्तिः । तदुक्तं व्यासेन --- 'अभिव्यक्तरित्याश्मरथ्यः' इति । केन हृद्यभित्र्यज्यते ? चित्तेन । कीदृशेन ? ब्रह्मप्रन्थिजमारुतानुगतिना | सुषुम्णया सहेडापिङ्गलयोः संबन्धस्थानं ब्रह्मप्रन्थिः ; तस्माज्जातो यो मारुतस्तत्रानुगतिः सहगमनं यस्य तादृशेन । अनुः सहार्थे । यद्वा, अनुगतं विद्यते ऽस्मिन्निति मत्वर्थ
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-संग्रहः १]
प्रथमः स्वरगताध्यायः इन्प्रत्ययः । मारुते ऽनुगतिना मारुतानुगतिनेति विग्रहः,' मनःपवनौ सहचारिणाविति योगिप्रसिद्धेः । श्रीहर्षेणाप्युक्तं नैषधचरिते
'त्वं हृद्गता भैमि बहिर्गता ऽपि प्राणायिता नासिकया ऽऽस्यगल्या ।
न चित्तमाक्रामति तत्र चित्रमेतन्मनो यद्भवदेकवृत्ति ॥' इति । यो ऽयमेवं विशिष्टः परमेश्वरः, तं मुदे हर्षाय वन्द इति संबन्धः । पक्षे, गीतं वन्दे । गीतमिति रञ्जकः स्वरसंदर्भ उच्यते, 'रञ्जकः स्वरसंदर्भो गीतमित्यभिधीयते' इति वक्ष्यमाणत्वात् । गीतस्य च मुख्यत्वेन गीतपदेनैव वाद्यनृत्ते अप्युपलक्ष्यास्मिन्प्रन्थे संगीतमभिधेयमित्यपि सूच्यते । अनभिधेयत्वे तस्य ग्रन्थादी स्तुत्यत्वेन नमस्कार्यत्वेन चाभिधानस्यासंगतत्वापात: | अथ वा नादतनुं वन्दे । नाद एव तनुः स्वरूपं यस्य स्वरसंदर्भस्य तं स्वरसंदर्भ वन्दे । कथंभूतम् ? उद्धरजगद्गीतम् , उडुरे जगति गीतं जात्येलादि यस्मात् । कस्मै ? मुदे आनन्दाय । पुनः कथंभूतम् ? शंकरम् , शं सुखं करोतीति । अनेन सुखं प्रयोजनम् , अभिधेयेन सह सुखस्य जन्यजनकभावः संबन्धो ऽपि दर्शितः । तं कम् ? यस्माद् ग्रामादीनामुत्पत्तिः । ग्रामा: स्वरसमूहाः षड्जग्रामो मध्यमग्रामो गांधारग्राम इति त्रयः तेषां विभागः पृथक्त्वम् , वर्णों गानक्रिया स्थाय्यारोह्यवरोहिसंचारिभेदेन चतुर्विधः 'गानक्रियोच्यते वर्णः' इति वक्ष्यमाणः तस्य रचना निष्पादनं सौन्दर्य वा, अलंकारा विशिष्टवर्णसंदर्भा मन्द्राद्यादयः, जातयो ऽष्टादश षाड्ज्यादयः सप्त शुद्धा एकादश विकृता: षड्जकैशिक्यादयः, तासां क्रम: परिपाटी यस्माज्जायत इति संबन्धः । यो ऽयं स्वयं राजते, अन्यानपेक्षतया ऽऽनन्दयितृत्वात् । स्वरपदस्य निरुक्तिरप्यनेन कथ्यते। कथंभूतः ? सूरीणां संगीततत्त्वं जानतामनुरञ्जको ऽनुरागोत्पादकः । क राजते ? हृत्पङ्कजे । हृत्पङ्कज इत्युपलक्षणम् । तेन स्वरोत्पत्तिस्थानानि हृत्कण्ठमूर्धानो ग्राह्याः । केन ? चित्तेन, चित्तस्यापि नादोत्पत्तौ कारणत्वस्य 'आत्मा विवक्षमाणो ऽयं मनः प्रेरयते' इत्यादिना वक्ष्यमाणत्वात् । ब्रह्मप्रन्यिजेति विशेषणं
1.गतिनेत्यन्वयः ५ .तत्वापत्तेः
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[पदार्थ
संगीतरत्नाकरः अस्ति स्वस्तिगृहं वंशः श्रीमत्काश्मीरसंभवः । ऋषेषगणाज्जातः कीर्तिक्षालितदिङ्मुखः ॥ २ ॥ यञ्चभिर्धर्मधीधुर्वेदसागरपारगैः । यो द्विजेन्द्रैरलंचक्रे ब्रह्मभिर्भूगतैरिव ।। ३ ।। तत्राभूद्भास्करप्रख्यो भास्करस्तेजसां निधिः । अलंकर्तु दक्षिणाशां यश्चक्रे दक्षिणाऽयनम् ॥ ४ ॥ तस्याभूत्तनयः प्रभूतविनयः श्रीसोढल: प्रौढधी
येन श्रीकरणप्रवृद्धविभवं' भूवल्लभं भिल्लमम् । आराध्याखिललोकशोकशमनी कीर्तिः समासादिता ___ जैत्रे जैत्रपदं न्यधायि महती श्रीसियणे श्रीरपि ॥ ५ ॥ एकः क्षमावलये क्षितीश्वरमिलन्मौलीन्द्रनीलावलि
"पोदश्चयुतिचित्रिताविनखरश्रेणिपालाग्रणीः । श्रीमत्सिवणदेव एव विजयी यस्य प्रतापानलो
विश्वव्याप्यपि दन्दहीति हृदयान्येव द्विपामुद्धरः ॥ ६ ॥ तं प्रसाद्य सुधीधुर्यो गुणिनं गुणरागिणम् । गुणग्रामेण यो विप्रानुपकारैरतीतपत् ॥ ७ ॥ ददौ न किं न किं जज्ञौ न दधौ कां च संपदम् । कं धर्म विदधौ नैप न वभो कैर्गुणैरयम् ॥ ८॥ तस्माइग्धाम्बुधेर्जातः शाङ्गदेवः सुधाकरः । उपर्युपरि सर्वान्यः सदौदार्यस्फुरत्करः ॥ ९ ॥
1.प्रवुद्धविभवं. 'प्रोदञ्चद्रुचि०
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-संग्रहः १]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
कृतगुरुपदसेव: प्रीणिताशेपदेवः कलितसकलशास्त्रः पूजिताशेषपात्रः । जगति विततकीर्त्तिर्मन्मथोदारमूर्तिः प्रचुरतरविवेकः शार्ङ्गदेवो ऽयमेकः ।। १० ।। नानास्थानेषु संभ्रान्ता परिश्रान्ता सरस्वती । सहवासप्रिया शश्वद्विश्राम्यति तदालये ।। ११ । स विनोदैकरसिको भाग्यवैदग्ध्यभाजनम् । धनदानेन विप्राणामार्ति संहृत्य शाश्वतीम् ।। १२ ।। जिज्ञासूनां च विद्याभिर्गदार्तानां रसायनैः । अधुना ऽखिललोकानां तापत्रयजिहीर्षया ॥ १३ ॥ शाश्वताय च धर्मा की निःश्रेयसाप्तये । आविष्करोति संगीतरत्नाकरमुदारधीः || १४ ||
(क०) अथ ग्रन्थकारः शार्ङ्गदेवः स्वदेशवंशवृत्तप्रशंसापूर्वकं ग्रन्थस्य प्रयोजनविषयौ निर्दिशति - अस्ति स्वस्तिगृहमित्यारभ्य संगीतरत्नाकरमुदारधीरित्यन्तेन ग्रन्थसंदर्भेण ॥ २ - १४ ॥
(सु० ) एवं मङ्गलाचरणं विधायाभिधेयं च सप्रयोजनमुक्त्वा ग्रन्थस्य कर्ता स्वयं ग्रन्थे वैशिष्ट्यप्रतिपादनाय स्ववंशं कथयति — अस्तीति । अस्तीति 1 वर्तमानप्रयोगेण वंशस्याकल्पावस्थायित्वं सूचयति । स्वस्तीत्यव्ययं कल्याणवाचकम्, कल्याणस्य गृहमाश्रयः । श्रीमान्य: काश्मीरदेशस्तस्मात्संभवो यस्य । वृषगणनाम्न ऋषेर्जातः, वृषगणगोत्रजात इत्यर्थः ॥ वंशस्य धार्मिकत्वं कथयति —
',
1
• मार्तीः संहृत्य शाश्वतीः
• र्गदिनां च . निःश्रेयसाय च
1
११
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१२
संगीतरत्नाकर:
सदाशिवः शिवा ब्रह्मा भरतः कश्यपो मुनिः । मतङ्गो याष्टिको दुर्गा शक्ति: शार्दूलकोहल ।। १५ ।। विशाखिलो दत्तिलश्व कम्बलो ऽश्वतरस्तथा । वायुर्विश्वावसु रम्भा ऽर्जुनो नारदतुम्बुरु || १६ ||
[पदार्थ
"
यज्वभिरिति । यज्वभिर्याज्ञिकैरलंकृतः । यस्मिन्वंश एवंविधाः समुत्पन्ना इत्यर्थः ॥ तस्मिन्वंशे समुत्पन्नं विशिष्टं मूलपुरुषं कथयति - तत्रेति । सूर्यसदृशो भास्कर नामा तेजसां निधिर्ब्रह्मवर्चसाश्रयः, पक्षे कान्त्याश्रयः, दक्षिणाऽऽयनं काश्मीर देशादक्षिणां दिशं प्रत्यागमनम् अथ वा दक्षिणाया देयद्रव्यस्यायनं पात्रप्रापणं चक्रे, दक्षिणानां प्रवीणानामाशां वाञ्छामलंकर्तुम् । सूर्यपक्षे दक्षिणाऽयनं प्रसिद्धमेव ॥ ग्रन्थस्य कर्ता स्वपितरं कथयति - तस्येति । भिल्लमं भिल्लमनामानं राजानम् । जैत्रे जैत्रनामनि नगरे || स्वस्वामिनं सिङ्घणभूपं वर्णयति -- एक इति । यस्य प्रतापानलो विश्वव्याप्यपि द्विषां हृदयान्येव दहतीति कारणे सत्यपि कार्यानुदयाद्विशेषोतिरलंकारः ॥ सिङ्घणदेव प्रसादप्रभावं कथयति - तं प्रसाद्येति । तं सिङ्ङ्घणं गुणग्रामेण गुणसमूहेन प्रसाद्य प्रसन्नं कृत्वा । गुणरागिणमिति साभिप्रायविशेषणत्वात्परिकरालंकारः । उपकारैरुपकार साधनैर्द्रव्यवस्त्रान्नादिभिः ॥ किं न ददौ ? सर्वमेव ददावित्यर्थः । एवं न किं जज्ञावित्यादिषु ॥ य एवंविधः सोढलनामा तस्मात्क्षीरसमुद्राच्छाङ्गदेवश्चन्द्र उत्पन्न इति संबन्ध: । उपर्युपरीति । उपरिशब्दस्याम्रेडितत्वात्सर्वानिति द्वितीया ॥ ग्रन्थे वैशिष्ट्यप्रतिपादनार्थमात्मानं वर्णयति - कृतेति ॥ स्ववैदुष्यं प्रकटयति- नानेति । सहवास: काश्मीरदेशे सरस्वत्यव - स्थानाच्छाङ्गदेवस्यापि काश्मीरदेश उत्पन्नत्वात् ॥ स इति । स शार्ङ्गदेवः संगीतरत्नाकरमाविष्करोति रचयतीति संबन्धः । निःश्रेयसाप्तये मोक्षप्राप्तये, मद्रकादीनां प्रकरणाख्यानां गीतानाम् 'शिवस्तुतौ प्रयोज्यानि मोक्षाय विदधे विधि:' इति मोक्षहेतुत्वस्य वक्ष्यमाणत्वात् ॥ २—१४॥
-
( क ० ) इह शास्त्रे प्रेक्षावत्प्रवृत्तये सदाशिवाद्यनेकप्रामाणिकपरिग्रहं दर्शयित्वा तन्मतसारसंग्रहत्वेन स्वकीयस्य ग्रन्थस्यातिशयितत्वं द्योतयति —
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-संग्रहः १] प्रथम: स्वरगताध्यायः
आञ्जनेयो मातृगुप्तो रावणो नन्दिकेश्वरः। स्वातिगणो बिन्दुराजः क्षेत्रराजश्च राहलः ॥ १७ ।। रुद्रटो नान्यभूपालो भोजभूवल्लभस्तथा । परमर्दी च सोमेशो जगदेकमहीपतिः ।। १८ ।। व्याख्यातारो भारतीये लोल्लटोद्भटशकुकाः । भट्टाभिनवगुप्तश्च श्रीमत्कीर्तिधरः परः ।। १९ ।। अन्ये च बहवः पूर्वे ये संगीतविशारदाः । अगाधवोधमन्थेन तेषां मतपयोनिधिम् ।। २० ।। निर्मथ्य श्रीशाईदेवः सारोद्धारमिमं व्यधात् । गीतं वाद्यं तथा नृत्तं त्रयं संगीतमुच्यते ॥ २१ ॥
सदाशिवः शिवेत्यादिना सारोद्धारमिमं व्यधादित्यन्तेन । सारोद्धारो नवनीतं तमिममिति व्यस्तरूपणम् , सारस्योद्धारो यस्मिन्कर्मणीति क्रियाविशेषणं वा ॥ १५-२० ॥
(मु०) ननु सदाशिवभरतादिप्रणीतेषु संगीतप्रन्थेषु सत्सु 'किमनेनाफलनिर्माणक्लेशेनेत्यत आह-सदाशिव इति । एतेषां मतपयोनिधि निर्मथ्य सारोद्धारमिमं व्यधादकार्षीत् । अतश्च ते वितता दुर्ग्रहा बहवश्व ग्रन्या अचिरजीविभिर्मनुध्यैरालोडयितुमशक्या इत्यल्पप्रयासेनैव सकलसंगीतरहस्यावबोधसिद्धर्नास्य प्रयासस्य वैफल्यमिति, एतानि च शास्त्राण्यालोच्य कृतत्वेनास्य समूलत्वात्प्रेक्षावद्भिः प्रमाणत्वेनोपादेयो ऽयमित्यप्यनेन कथयति ॥ १५-२० ॥
(क०) ननु, 'आविष्करोति संगीतरत्नाकरमुदारधीः' इति प्रतिज्ञायां संगीतशब्देन लोकप्रसिद्धया गीतस्यैव ग्रन्थप्रतिपाद्यत्वं प्रतीयते न तु
1किमनेनाधुनिकनिर्मा
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संगीतरत्नाकरः
[पदार्थमार्गो देशीति तद् द्वेधा तत्र मार्गः स उच्यते । यो मार्गितो विरिञ्च्यायैः' प्रयुक्तो भरतादिभिः ।। २२ ।। देवस्य पुरतः शंभोनियताभ्युदयप्रदः । देशे देशे जनानां यदुच्या हृदयरञ्जकम् ।। २३ ।।
वाद्यनृत्तयोरित्याशङ्कां परिजिहीर्घः संगीतशब्दार्थमाह-गीतं वाद्यमिति । यदि गीतमेव प्रतिपाद्येत तदा केवलं गीतशब्दं प्रयुञ्जीत न तु समुपसर्गयुक्तम् । ननु गीतस्यैव सम्यक्त्वद्योतनार्थ समुपसर्ग इति चेन्न, 'रञ्जकः स्वरसंदों गीतमित्यभिधीयते' इति विशिष्टवचनादनुपसृष्टस्यैव तस्य गीतस्य सम्यक्त्वसिद्धेः । समित्युपसर्गस्तु गीतशब्देन सह प्रयुज्यमानो गीते स्वेनाधेयातिशयाभावाद्गीतस्यान्ययोगं द्योतयशव्दत्वसामान्येन वाद्यस्य तदुभयाभिव्यञ्जकत्वेन नृत्तस्य च गीतेन संबन्धं विशिनष्टि । तस्माद्यत्र संगीतशब्दस्य प्रयोगस्तत्र तौर्यत्रिकं विवक्षितमिति मन्तव्यम् । कचिद्गीतमात्रे संगीतशब्दप्रयोगस्त्ववयवे ऽवयव्युपचारात्खण्डपटे पटव्यवहारवत् ॥ -२१ ॥
(मु०) संगीतग्रन्थी विरच्यत इत्युक्तम् । तत्र किमिदं संगीतमित्यपेक्षायामाह - गीतमिति । नन्वेवं समुदितानां संगीतत्व एकैकस्यासंगीतत्वापत्तिः ; नैवम्, गीतवाद्यनृत्तान्यतमत्वस्य संगीतशब्दप्रवृत्तिनिमित्तत्वात् ॥ २१ ॥
(क०) तस्य संगीतस्य मार्गदेशीभेदेन द्वैविध्यं प्रतिज्ञाय तयोनिरुक्तिपूर्वकं लक्षणमाह--मार्गो देशीत्यादिना । मार्गितत्वान्मार्गः । मार्गितत्वं च विरिश्चयाद्यैर्ब्रह्मादिभिः · नाट्यसंज्ञमिदं वेदं सेतिहासं करोम्य
विरिचाथैः १. व्यङ्गयत्वेन.
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-संग्रहः १]
प्रथमः स्वरगताध्यायः गीतं च वादनं नृत्तं तद्देशीत्यभिधीयते । नृत्तं वाद्यानुगं प्रोक्तं वायं गीतानुवर्ति च ।। २४ ।। अतो गीतं प्रधानत्वादत्रादावभिधीयते ।
सामवेदादिदं गीतं संजग्राह पितामहः ॥ २५ ॥ हम्' इति प्रतिज्ञाय चतुर्पु वेदेप्वन्विष्य कृतत्वात् । मार्गित इति ‘मार्ग अन्वेषणे' इत्यस्माद्धातोः कर्मणि निष्ठायां रूपम् । मार्ग इति तु तस्मादेव धातोः कर्मणि घञन्तम् । देशीति. देशशब्देन तत्रत्या जना लक्ष्यन्ते. तैर्यथेच्छं क्रियमाणायां गीतादिक्रियायामाचार्यकृता संज्ञा । संगीतपदाभिधेयत्वेन नाट्यं प्रत्यङ्गत्वेन च त्रयाणामप्यविशेषेण प्रतिपादने प्राथम्यप्रसक्ती, तत्र · गीतवाद्यप्रमाणेन कुर्याच्चाङ्गविचेष्टितम्' इति ‘गीतं चतुर्विधाद्वाद्याज्जायते चोपरज्यते, गीयते च' इति गीतस्य स्वेतरद्वयापेक्षितत्वेन प्राधान्यं प्रसाध्य प्राथम्यं प्रतिजानीते---- नृत्तं वाद्यानुगमिति ॥ २२-२४- ॥
(सु०) तस्य संगीतस्य मार्गतादेशीत्वाभ्यां वैविध्यमुक्त्वा मार्गस्य लक्षणं कथयति-यो मार्गित इति । मार्गितो ऽन्वेषितो दृष्टः । अनेन मार्गशब्दव्युत्पत्तिरपि सूचिता। देशीलक्षणं कथयति—देश इति । गीतस्य पूर्वनिरूपणे कारणमाह--नृत्तमिति ॥ २२-२४-॥
(क०) गीतस्य सामवेदसंग्रहरूपत्वेन वैदिकत्वादुपादेयत्वं दर्शयति--- सामवेदादिदमिति । तत्संग्रहरूपत्वं च गीतस्यापि सप्तस्वरात्मकत्वात् । सामनि हि क्रुष्टप्रथम द्वितीयतृतीयचतुर्थमन्द्रातिस्वार्याख्याः सप्त स्वराः ; इह तु त एव यथायोगं षड्जादिव्यपदेशभाज इति । ब्रह्मणा ऽपि वेदादुद्धत्य संग्रहणे सार्ववर्णिकत्वं प्रयोजनमिति भावः ॥ २५ ॥
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१६
[पदार्थ
संगीतरत्नाकरः गीतेन प्रीयते देवः सर्वज्ञः पार्वतीपतिः । गोपीपतिरनन्तो ऽपि वंशध्वनिवशं गतः ॥ २६ ॥ सामगीतिरतो ब्रह्मा वीणाऽऽसक्ता सरस्वती । किमन्ये यक्षगन्धर्वदेवदानवमानवाः ॥ २७ ॥ अज्ञातविषयास्वादो बालः पर्यङ्किकागतः । रुदनगीतामृतं पीत्वा होत्कर्ष प्रपद्यते ।। २८ ।। वनेचरस्तृणाहारश्चित्रं मृगशिशुः पशुः । लुब्धो लुब्धकसंगीते गीते यच्छति जीवितम् ॥ २९ ।। तस्य गीतस्य माहाऽऽत्म्यं के प्रशंसितुमीशते । धर्मार्थकाममोक्षाणामिदमेवैकसाधनम् ॥ ३० ॥
(सु०) गीतस्य समूलत्वमाह-सामवेदादिति । संजग्राह संग्रहेणोक्तवान् ॥ २५ ॥
(क०) एतच्च न केवलं वैदिकमित्युपादेयम् , किं त्वासर्वज्ञपार्वतीपत्याधीविकलपशु विगलितवेद्यान्तरतया ऽऽनन्दाविर्भावकत्वेन हृद्यत्वाच्चेत्याह-गीतेनेत्यादिना ॥ २६-२९ ॥
(सु०) गीतप्रयोजनमाह-गीतेनेति ॥ गीतं स्तौति-अज्ञातेति । लुब्धो ऽनुरक्तः । लुब्धको व्याधः ॥ २६-२९ ॥
(क०) प्रतिनियतसाधनानामपि धर्मार्थकाममोक्षाणामिदमेकमेव रमणीयं साधनं यतस्तस्मादस्य माहाऽऽत्म्यं वर्णयितुं न केचन शक्ता इत्याह--
। ०वशंवदः 'किनराः
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-संग्रहः १]
प्रथमः स्वरगताध्यायः तत्र स्वरगताध्याये प्रथमे प्रतिपाद्यते । शरीरं नादसंभूतिः स्थानानि श्रुतयस्तथा ॥ ३१ ॥ ततः शुद्धाः स्वराः सप्त विकृता द्वादशाप्यमी । कुलानि जातयो वर्णा द्वीपान्या च दैवतम् ॥ ३२ ॥
तस्येति । गीतस्य धर्मसाधनत्वं तावदश्वमेधप्रकरणे ‘ब्राह्मणौ वीणागाथिनौ गायतः . . . ब्राह्मणो ऽन्यो गायेत्' इति श्रुतेर्देवार्चनादिपु गीतादेस्तदङ्गत्वेन परिग्रहाच्च सिद्धम् । अर्थसाधनत्वं लोकतो दृष्टम् । कामसाधनत्वं तु ' तस्माद्गायन्तं स्त्रियः कामयन्ते' इति वेदतो लोकतश्च सिद्धम् । मोक्षसाधनत्वं च
'वीणावादनतत्त्वज्ञः श्रुतिजातिविशारदः ।
तालज्ञश्चाप्रयासेन मोक्षमार्ग स गच्छति ॥' इति याज्ञवल्क्यस्मृतेः, प्रकरणाख्यमद्रकादिगीतेषु · शिवस्तुतौ प्रयोज्यानि मोक्षाय विदधे विधिः' इत्युक्तत्वाच्च ॥ ३० ॥
(सु०) धर्मार्थेति । परमेश्वराराधनार्थ गीयमानं गीतं धर्महेतुः, यथोक्तलक्षणानां जात्यादीनां सम्यक्प्रयोगस्य 'अपि ब्रह्महणं पापाज्जातयः प्रपुनन्त्यमू:' इत्यादिना धर्महेतुत्वस्य वक्ष्यमाणत्वात् । गीतोपजीविनामर्थसाधनम् । शृङ्गारस्योद्दीपनविभावरूपत्वात्कामसाधनम् । मद्रकादीनां मोक्षसाधनत्वं च वक्ष्यते ॥ ३० ॥
___ (क०) सप्ताध्याय्यां रत्नाकरे प्रत्यध्यायं वस्तूनि संजिघृक्षन्नादौ स्वरगताध्याये शरीरादीन्पदार्थान्संगृह्य प्रतिपादयितुं प्रतिजानीते-तत्र स्वरगताध्याय इत्यादिना । एतावान्वस्तुसंग्रहः प्रतिपाद्यत इति योजना ।
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१८
संगीतरत्नाकर:
छन्दांसि विनियोगाश्च स्वराणां श्रुतिजातयः । ग्रामाश्च मूर्च्छनास्तानाः शुद्धाः 'कूटाश्च संख्यया ॥ ३३ ॥ प्रस्तारः खण्डमेरुश्च नष्टोद्दिष्टप्रबोधकः ।
[पदार्थ
स्वरसाधारणं जातिसाधारणमतः परम् ।। ३४ ।। काकल्यन्तरयोः सम्यक्प्रयोगो वर्णलक्षणम् । त्रिषष्टिरप्यलंकारास्त्रयोदशविधं ततः ।। ३५ ।। जातिलक्ष्म ग्रहांशादि कपालानि च कम्बलम् | नानाविधा गीतयश्चेत्येतावान्वस्तुसंग्रहः || ३६ ||
स्वरगताध्याय इति । स्वराननुगताः स्वरगताः श्रुतिग्राममूर्च्छनातानवर्णालंकारजातिगीत्यादयो विवेया:, तेषामध्यायें । अधीतिरेवाध्याय इति भावे घञन्तः । अधीयते ऽनेनाभिप्रेतो ऽर्थो ऽस्मिन्वेत्यध्याय इति ' अकर्तरि च ' इति करणाधिकरणयोर्वा । यद्वा, अधीत्यधिकारे ; अयनमाय: ; आयो ऽर्थावगतिः ; अर्थावगतिमधिकृत्य प्रवृत्तो ग्रन्थो Sध्यायः । अथ वा ईयते गम्यत इत्यायो ऽर्थः, तमधिकृत्य प्रवृत्तो ग्रन्थो ऽध्यायः । ननु, पूर्वत्र गीतस्य प्रतिपादने प्राथम्यं प्रतिज्ञातम्, इदान प्रथमे स्वगताध्याय इत्यधिकृत्य शरीरादिप्रतिपादनस्य प्राथम्यमुच्यते, अतः प्रतिज्ञाप्रतिपादनयोर्भिन्नविषयत्वाद्वैयधिकरण्यमिति चेन्नैष दोषः स्वरग ते शरीरादेः परंपरया गीतं प्रत्युपकारकत्वात्स्वरगतप्रतिपादनं प्रकारान्तरेण गीतप्रतिपादनमेवेत्यविरोधात् । तत्र शरीरादित्रिंशत्पदार्थानां मध्ये केषांचित्कार्यकारणभावादिसंगतिवशादुद्देशक्रमो विवक्षितः, केषांचित्तदभावेनाविवक्षितः । उत्तरत्रायमर्थः प्रकाश्यते ॥ ३१–३६ ॥
;
1 कूटा: स्वसंख्यया.
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१९
-संग्रहः १]
प्रथमः स्वरगताध्यायः अथ रागविवेकाख्ये ऽध्याये वक्ष्यामहे क्रमात् । ग्रामरागांश्चोपरागारागान्भाषा विभाषिकाः ॥ ३७ ।। ततो ऽप्यन्तरभाषाश्च रागाङ्गाण्यखिलान्यपि । भापाऽङ्गाण्यप्युपाङ्गानि क्रियाङ्गाणि च तत्त्वतः ॥ ३८ ॥ ततः प्रकीर्णकाध्याये तृतीये कथयिष्यते । वाग्गेयकारो गान्धर्वः स्वरादिर्गायनस्तथा ॥ ३९ ॥ गायनी गुणदोषाश्च तयोः शब्दभिदास्तथा । गुणदोषाश्च शब्दस्य शारीरं तद्गुणास्तथा ॥ ४० ॥ तदोपा गमकः स्थाया आलप्तिर्वृन्दलक्षणम् ।
(सु०) स्वरगताध्यायवस्तुसंग्रहं कथयति-तत्रेति । शरीरं नादोत्पत्याश्रयः । नादसंभूतिर्नादोत्पत्तिप्रकार: । स्थानानि हृदयादीनि ॥ त्रयोदशविधं जातिलक्ष्म-ग्रहः, अंशः, तारः, मन्द्रः, न्यासः, अपन्यासः, संन्यासः, विन्यासः, बहुत्वम् , अल्पता, अन्तरमार्गः, षाडवम् , औडुवितं चेति । अन्यत्सुगमम् ॥ ३१-३६ ॥
(क०) ततो द्वितीये ऽध्याये ग्रामरागादयो दशविधरागाः प्रतिपाद्यन्त इत्याह-अथेति । रागविवेकाख्य इति । रागाणां शुद्धकैशिकमध्यमादीनां विवेको विवेचनमसंकीर्णतया स्वरूपनिरूपणमस्मिन्निति स तथोक्तः ॥ ३७, ३८ ॥
(सु०) द्वितीयाध्यायवस्तुसंग्रहं कथयति-अथ रागेति । अखिलान्यपीति । प्राक्प्रसिद्धान्यधुना प्रसिद्धानि चेत्यर्थः ॥ ३७, ३८ ॥ ।
(क०) तृतीये वाग्गेयकारादयो द्वादश पदार्था लक्ष्यन्त इत्याह। यकस्तथा.
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संगीतरत्नाकर:
[पदार्थ
ततः प्रवन्धाध्याये तु धातवो ऽङ्गानि जातयः ॥ ४१ ॥ प्रवन्धानां द्विधा मूड: शुद्धश्छायालगस्तथा । आलिक्रममवन्धाश्च सूडस्था आलिसंश्रयाः ॥ ४२ ॥ विप्रकीर्णास्ततश्छायालगड समाश्रिताः । गीतस्था गुणदोषाश्च वक्ष्यन्ते शार्ङ्गसूरिणा ।। ४३ ।। तालाध्याये पञ्चमे तु मार्गतालाः कलास्तथा । पाता मार्गाश्च चत्वारस्तथा मार्गकलाष्टकम् ॥ ४४ ॥ गुरुलघ्वादिमानं चैककलत्वादयो भिदाः । पादभागास्तथा मात्रास्ताले पातकलाविधिः ।। ४५ । ततः प्रकीर्णति । प्रकीर्णाः शास्त्रेषु तत्र तत्र विक्षिप्ताः पदार्था अत्रैकत्र समुच्चित्याधिक्रियन्त इति प्रकीर्णकः ॥ ३९ - ४०-॥
२०
(सु० ) तृतीयाध्यायवस्तुसंग्रहं कथयति - तत इति । तयोर्गायनीगायनयोः । शब्दभिदा : शब्दभेदा: खाहुलादयः । तद्गुणाः शारीरगुणाः । तद्दोषाः शारीरदोषाः । गमकः स्वरस्य कम्पः । स्थाया गीतस्यावयवाः || ३९-४०- ॥
(क०) चतुर्थे धातुप्रभृतीनि द्वादश वस्तूनि विस्तार्यन्त इत्याहततः प्रवन्धाध्याय इति । प्रबन्धानामेलादीनामध्याये ॥ ४१-४३ ॥
(सु० ) चतुर्थाध्यायवस्तुसंग्रहं कथयति - ततः प्रबन्धेति । धातवः प्रबन्धावयवा उद्ग्राहादयश्चत्वारः । अङ्गानि स्वरादीनि षट् । जातयो मेदिन्यादयः पञ्च । शुद्धः सूड एलादिः । छायालग: सूडो ध्रुवमण्ठादिः ॥ ४१-४३ ॥
(क०) पञ्चमे मार्गतालादय एकविंशतिरर्थाः प्रपञ्च्यन्त इत्याहतालाध्याय इति ॥ ४४--४७- ॥
--
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२१
-संग्रहः १] प्रथमः स्वरगताध्याय:
अङ्गुलीनां च नियमो भेदा युग्मादयस्तथा । परिवर्तो लयस्तेषां यतयो गीतकानि च ॥ ४६॥ छन्दकादीनि गीतानि तालाङ्गनिचयस्तथा । गीताङ्गानि च वक्ष्यन्ते देशीतालाश्च तत्त्वतः ।। ४७ ॥ निःशङ्कशाह्मदेवेन तालानां प्रत्ययास्तथा । पष्ठे नानाविधं वाद्यमध्याये कथयिष्यते ॥ ४८ ।। सप्तमे नर्तनं नानारसभावाः क्रमेण च ।।
(सु०) पञ्चमाध्यायपदार्थसंग्रहमाचष्टे तालाध्याय इति । मार्गतालाश्चच्चत्पुटादयः । कला निःशब्दक्रियाः । पाता: सशब्दक्रियाः । मार्गाश्चत्वारो ध्रुवादयः । कलाऽष्टकं ध्रुवकादि । परिवर्तः पादभागादेरावृत्तिः । लयस्तालक्रियाऽन्तरालवर्ती कालः । यतिर्लयप्रवृत्तिनियमः । गीतानि मद्रकादीनि सप्त । देशीताला विंशत्युत्तरं शतमादितालादयः। प्रतीयन्ते यैस्तालसंख्यास्वरूपादय इति प्रत्ययाः प्रस्तारनष्टोद्दिष्टादयः ॥ ४४-४७- ॥
(क०) षष्ठे ततादिचतुर्विधवाद्यानामवान्तरभेदेनानेकप्रकारं वाद्यं निगद्यत इत्याह-षष्ठे नानाविधमिति || सप्तमे प्रतिपाद्यानाह-सप्तम इति । नर्तनमिति नाट्यनृत्यनृत्तानां गात्रविक्षेपरूपाणां सामान्यवचनम् । नानारसभावा इति । शृङ्गारादयो नव रसाः । विभावादयः पञ्चविधा भावाः । क्रमेणेति । उद्देशक्रमेणेत्यर्थः ॥ -४८, ४८- ।।
(सु०) षष्ठसप्तमाध्याययोर्वस्तुसंग्रहं कथयति-षष्ठ इति ॥ -४८, ४८- ॥
इति प्रथमे स्वरगताध्याये पदार्थसंग्रहाख्यमादिमं प्रकरणम् ॥ १ ॥
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[पिण्डो
संगीतरत्नाकरः अथ द्वितीयं पिण्डोत्पत्तिप्रकरणम्
गीतं नादात्मकं वाद्यं नादव्यक्त्या प्रशस्यते । तयानुगतं नृत्तं नादाधीनमतस्त्रयम् ॥१॥ नादेन व्यज्यते वर्णः पदं वर्णात्पदाद्वचः । वचसो व्यवहारो ऽयं नादाधीनमतो जगत् ॥ २॥ आहतो ऽनाहतश्चेति द्विधा नादो निगद्यते । सो ऽयं प्रकाशते पिण्डे तस्मात्पिण्डो ऽभिधीयते ॥ ३ ॥
(क०) ननु गीतनिदानत्वेन स्वरगते नादस्य प्रथमं प्रतिपाद्यत्वमस्तु, किं शरीरनिरूपणेनेत्याशङ्कय, नादमात्रस्य शरीरमन्तरेण प्रकाशाभावादिति परिहरशरीरं निरूपयितुमाह—गीतं नादात्मकमिति । अयमर्थः--न केवलं गीतादित्रयस्य नादाधीनत्वम् , वाङ्मलस्य सर्वलोकव्यवहारस्यापि नादाधीनत्वात्तदाधारः शरीरमादौ सुतरां निरूपणीयमेवेति ॥ १--३ ॥
(सु०) एवं पदार्थसंग्रहमुक्त्वा नादाभिव्यक्तेः स्थानं शरीरं कथयितुं नादं स्तौति-गीतमिति | नादात्मकं नाद आत्मा स्वरूपं यस्य । वाद्यं वीणादि नादाभिव्यक्त्यैव प्रशस्यते रमणीयतामुपैति । नृत्तं तवयानुगतम् , ' अङ्गेनालम्बयेद्गीतम्' इत्युक्तत्वात् । अतः, त्रयं गीतनृत्तवाद्यरूपं नादाधीनं नादापेक्षमित्यर्थः ॥ न केवलं गीतनृत्तवाद्यमेव नादापेक्षम् , अपि तु सर्व जगदित्याहनादेनेति । नादेन ध्वनिना वर्णः ककारादिय॑ज्यते । को ऽयं ध्वनि: ? यो ऽयं वर्णविशेषमप्रतिपद्यमानस्य दूरात्कर्णपथमवतरति मन्दत्वतीवत्वादिभेदं च वर्णेष्वासञ्जयति स ध्वनिरित्युच्यते । वर्णात्पदं घट इत्यादि । पदाद्वचो वाक्यं पदसमु
1.मिदं त्रयम् . ' द्वेधा.
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-त्पत्ति: २]
प्रथमः स्वरगताध्याय: अस्ति ब्रह्म चिदानन्दं स्वयंज्योतिर्निरञ्जनम् । ईश्वरं लिङ्गमित्युक्तमद्वितीयमजं विभु ॥ ४ ॥ निर्विकारं निराकारं सर्वेश्वरमनश्वरम् । सर्वशक्ति च सर्वज्ञं तदंशा जीवसंज्ञकाः ॥ ५ ॥
दायः । वचसो वाक्याच्छाब्दो ऽयं व्यवहारः । अतः सर्व जगदपि नादाधीनमित्यर्थः । मतङ्गेनापि बृहद्देश्यामुक्तम्
'न नादेन विना गीतं न नादेन विना स्वराः । न नादेन विना नृत्तं तस्मान्नादात्मकं जगत् ॥ नादरूपः स्मृतो ब्रह्मा नादरूपो जनार्दनः । नादरूपा परा शक्तिर्नादरूपो महेश्वरः ।। यदुक्तं ब्रह्मणः स्थानं ब्रह्मग्रन्थिश्च यः स्मृतः । तन्मध्ये संस्थित: प्राणः प्राणाद्वह्निसमुद्भवः ।। वह्निमारुतसंयोगान्नादः समुपजायते ।
नादादुत्पद्यते बिन्दुस्तत: सर्व' च वाङ्मयम् ॥' इति । नादद्वैविध्यं कथयति-आहत इति । द्विविधो ऽपि नादः पिण्डे प्रकाशते प्रकटीभवति ॥ १-३॥
(क०) तच्च शरीरं जीवकर्मायत्तम् । स च जीवो जिज्ञास्यमानः स्वांशि ब्रह्मापेक्षत इति तस्मिञ्जिज्ञासिते तत्स्वरूपं निरूपयति- अस्ति ब्रह्मेति । चिदानन्दं ज्ञानसुखस्वरूपम् । स्वयंज्योतिः स्वयं प्रकाशमानम् । निरञ्जनं निर्लेपम् । ईश्वरं स्वतन्त्रम् । प्रपञ्चलयनाल्लिङ्गम् । अद्वितीयं स्वसदृशवस्त्वन्तररहितम् । अजं जन्मरहितम् । विभु व्यापकम् । निर्विकारम् , जायते ऽस्ति वर्धते विपरिणमते ऽपक्षीयते विनश्यतीति षड् भाव
०समुद्रमः १० दात्सर्व.
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२४
संगीतरत्नाकरः
[पिण्डोअनाद्यविद्योपहिता यथा ऽग्नेविस्फुलिङ्गकाः । दाद्युपाधिसंभिन्नास्ते कर्मभिरनादिभिः ॥ ६ ॥
विकाराः, तै रहितम् । निराकारमाकारशून्यम् । सर्वेश्वरं सकलजगत्कर्त । अनश्वरं नाशरहितम् । सर्वशक्ति इच्छाज्ञानक्रियाभोगशक्तियुक्तम् । सर्वज्ञम् अतीतानागतवर्तमानसकलपदार्थवेदितृ । इत्युपनिषदुक्तं ब्रह्मास्ति । ब्रह्मस्वरूपमुक्त्वा तत्तादात्म्येन जीवांस्तेषां देहसंबन्धं च निरूपयति--तदंशा इति । तस्य ब्रह्मणो इंशा मात्राः ॥ ४, ५ ॥
(सु०) इति देहाभिधानं प्रतिज्ञाय तन्मूलकारणं कथयति-अस्तीति । सर्वदा सर्वत्रापि सत्, नित्यं व्यापकं चेत्यर्थः । ब्रह्म बृहत्त्वाद् बृंहणत्वाद्वा । चिद्विज्ञानरूपम्, आनन्दं सुखस्वरूपम् , 'विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' इति श्रुतेः । स्वयंज्योतिः स्वप्रकाशम् , 'तमेव भान्तमनु भाति विश्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति' इति श्रुतेः । निरञ्जनमविद्यालेपशून्यम् , अविद्याया जीवाश्रयत्वात् । ब्रह्माश्रयाविद्यापक्षे ऽपि स्वाश्रयाव्यामोहकत्वं निरञ्जनपदेनोच्यते । ईश्वरं कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तु वा शक्तम् । लिङ्गं कारणम् । अद्वितीयं सजातीयविजातीयस्वगतभेदशून्यम् । अजमकारणकम् । विभु व्यापकं समर्थ वा । निर्विकारं जायते ऽस्ति वर्धते विपरिणमते ऽपक्षीयते विनश्यतीति यास्कोदितसर्वविकारशून्यम् । निराकारं मूर्त्यनवच्छिन्नम् । सर्वेश्वरं सर्वेषां ब्रह्मादीनामपि शासकम् । अनश्वरमविनाशि | सर्वशक्ति सर्वा सर्वस्य प्रपञ्चस्य कारणं या सा शक्तिर्मायाऽऽख्या विद्यते ऽस्मिन्निति । सर्वज्ञं सर्वविषयसाक्षात्कारवत् । तदंशास्तदभिन्नाः, यथा ऽग्नेविस्फुलिङ्गा अग्नित्वेनाग्नेरभिन्नाः; अथ वा 'अंशो नानाव्यपदेशात्' इति सूत्रोक्तत्वाज्जीवपरमात्मनोरंशांशित्वपक्षमेव स्वीकृत्योक्तम् ॥ ४–५- ॥
(क०) अनाद्यविद्योपहिताः । अनाद्यविद्या मुलाविद्या, अधिष्ठानस्य याथाऽऽत्म्याज्ञानमिति यावत् । तया ऽविद्ययोपहिता अवच्छिन्ना जीवसंज्ञका भवन्ति । सच्चिदानन्दविभुस्वभावस्य वस्तुनो ऽविद्योपाधिव
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-त्पत्तिः २] प्रथमः स्वरगताध्यायः
सुखदुःखादैः पुण्यपापरूपैनियन्त्रिताः । तत्तज्जातियुतं देहमायुर्भोगं च कर्मजम् ।। ७ ।। प्रतिजन्म प्रपद्यन्ते तेपामस्त्यपरं पुनः । मूक्ष्मं लिङ्गशरीरं तदा मोक्षादक्षयं मतम् ॥ ८ ॥ मूक्ष्मभूतेन्द्रियमाणावस्थाऽऽत्मकमिदं विदुः । जीवानामुपभोगाय जगदेतत्सृजत्यजः ॥ ९ ॥ स आत्मा परमात्मा च विश्रान्त्यै संहरत्यथ ।
तदेतत्सृष्टिसंहारं प्रवाहानादि संमतम् ।। १० ॥ शादसत्त्वासर्वज्ञत्वदुःखित्वपरिच्छिन्नत्वादिधर्मारोपे जीवव्यपदेश आविधिक इत्यर्थः । तत्र दृष्टान्तमाह-यथा ज्नेरिति । अंशा इति शेषः । तेजो. रूपस्याग्नेरंशा दारुतणमण्याधुपाध्यवच्छिन्ना यथा स्फुलिङ्गा इति व्यपदिश्यन्ते तद्वदिति । ते कर्मभिरिति । ते जीवाः । क्रमेण सुखदुःखप्रदैः पुण्यपापरूपैः कर्मभिः । पुण्यकर्मणां सुखप्रदत्वं तावत् ' एष उ एव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषते' इति श्रुतेः । पापकर्मणां दुःखप्रदत्वं च 'एष उ एवासाधु कर्म कारयति तं यमधो निनीषते' इति श्रुतेः । अनादिभिरिति । कर्तत्वाद्यभिमानिन आत्मनो जीवत्वोपाधेरविद्याया अनादित्वाज्जीवकर्तकाणां कर्मणामपि तदाकृत्युपरक्तानां व्यक्तीनामेकयोनिता' इत्यादिन्यायेन प्रवाहरूपविवक्षया ऽनादित्वम् । नियन्त्रिता बद्धाः सन्तः । तत्तज्जातियुतं मनुष्यत्वादिजातियुक्तं देहमायुः कर्मजं भोगं च प्रतिजन्म जन्मनि जन्मनि प्रपद्यन्ते प्राप्नुवन्ति । कर्मभिनियन्त्रिता इत्यनेनैव जीवानां देहादिप्राप्तौ देहादीनामप्यविशेषेण कर्मजत्वे सिद्धे,
1.तृणपर्णा
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२६
संगीतरत्नाकरः
[पिण्डो
भोगस्य पुनः कर्ममिति विशेषणमिह जन्मनि क्रियमाणानि दृष्टफलकानि कृप्यादिकर्माणि प्रति जीवानां कर्तृत्वमपि नियतमेवेति वक्तुम् । तेषा - मस्तीति । तेषां स्थूलशरीरावच्छिन्नानां जीवानाम् अपरं स्थूलशरीरादन्यत्सूक्ष्ममव्यक्तं लिङ्गशरीरमस्ति, ' अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषः' इत्यादिश्रुतेः सिद्धमित्यर्थः । तच्च आ मोक्षाच्चरमस्वरूपसाक्षात्कारपर्यन्तम् अक्षयं स्वाविद्यावासनाऽनुच्छेदादविनाशि मतं शास्त्रसिद्धम् । इदं च लिङ्गशरीरं सूक्ष्मभूतेन्द्रियमाणावस्थाऽऽत्मकम् भूतानि पृथिव्यादीनि इन्द्रियाणि चक्षुरादीनि, प्राणाः प्राणादयः पञ्च वायवः, सूक्ष्माणामव्यक्तरूपाणामेतेषामन्तरिन्द्रियेण मनसा संघातत्वेनावस्था Sवस्थानमात्मा स्वरूपं यस्य तत्तथोक्तम् । केचित् 'न कदाचिदनीदृशं जगत्' इति जगत एव प्रवाहरूपेण नित्यत्वमङ्गीकुर्वन्ति ; तन्मतनिरासार्थं जगत्सृष्टिसंहारयोः सप्रयोजनमात्मकर्तृकत्वमाह – जीवानामिति । जीवानामुक्तदेहद्वयाभिमानिनामुपभोगाय सुखदुःखानुभवाय जगद्भूतभौतिकात्मकम् । अजः परमात्मा । स आत्मेत्यन्वयः । परत्वमप्यात्मनो निकृष्टजीवापेक्षयेश्वरत्वमापन्नमित्यर्थः । स आत्मेति पूर्वोक्तं ब्रह्म परामृश्यते । चकारो भिन्नक्रमः । संहरति चेत्यन्वयः । अथ सृष्टस्य जगतः स्थित्यनन्तरम् । विश्रान्त्यै, जीवानामित्यनुषञ्जनीयम्, सृष्टिसंहारयोरुक्तरीत्या जीवार्थत्वात् । जीवानादित्वद्योतनाय तयोः प्रवाहानादित्वमाह -- तदेतदिति । सृष्टिश्च संहारश्च सृष्टिसंहारमिति द्वंद्वैकवद्भावे नपुंसकत्वम् । प्रवाहानादीति । व्यक्तिविवक्षया सादित्वं संतानरूपेणानादित्वमित्यर्थः ॥ ६-१० ॥
"
( सु० ) ननु विषमो दृष्टान्तः, स्फुलिङ्गानां स्थूलत्वसूक्ष्मत्वादिविरुद्धधर्मसंसर्गेण भिन्नत्वात् ; अत आह— दार्वादीति । आदिशब्देनाबिन्धनस्य वैद्युतस्याग्नरुदकोपाधिग्रहणम् । अतश्चौपाधिकः स्फुलिङ्गादौ भेदो न तात्त्विक इत्यर्थः । तेषां जीवानां कर्मनिबद्धत्वं कथयति - ते कर्मभिरिति । ननु ब्रह्मा
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-त्पत्ति: २]
प्रथमः स्वरगताध्यायः ते जीवा नात्मनो भिन्ना भिन्नं वा नात्मनो जगत् । शक्त्या सृजन्नभिन्नो ऽसौ सुवर्ण कुण्डलादिव ॥ ११ ॥ सृजत्यविद्ययेत्यन्ये यथा रज्जुर्भुजंगमम् ।
भिन्नानां जीवानां कथं कर्मबन्ध इत्यत आह–अनादिभिरिति । ते जीवा: प्रतिजन्म तत्तजातियुतं मनुष्यत्वगोत्वादिजातियुक्तं देहमायुरुपभोगं च कर्मव्यापारजं तत्तजात्यनुरूपं प्रपद्यन्ते । ननु जीवानां स्थूलदेहनिबद्धत्वे कथमनेकजन्मप्राप्तिः स्थूलदेहस्य विनाशोपलब्धेरित्यत्राह-तेपामस्त्यपरमिति । आ मोक्षात्, मोक्षं मर्यादीकृत्य । किंविधं लिङ्गशरीरमित्यपेक्षायामाह-सूक्ष्मेति । पञ्च तन्मात्राणि, एकादशेन्द्रियाणि, एवं षोडशकलमित्यर्थः । ननु परमेश्वरस्य जगतः सृष्टिसंहारयोः किं प्रयोजनम् ? अत आह-जीवानामिति । अनादित्वाच्च तयोयिं पर्यनुयोग इत्याह-तदेतदिति । सृष्टिसंहारयोः समाहारः सृष्टिसंहारं प्रवाहानादित्वेन संमतम् ॥ ६-१०॥
(क०) अंशांशिभावनात्मनो जीवानां चाभेदमभिदधत्कार्यकारणभावनात्मनो जगतश्चाभेदं भेदाभेदमतानुसारेण सदृष्टान्तमाह--ते जीवा इति । असावात्मा शक्त्या स्वगतक्रियाशक्त्या जगत्सृजस्तस्मादभिन्नः । विभक्तिविपरिणामेन जगत्पदस्यानुषङ्गः कर्तव्यः । यथा सुवर्णकुण्डलयोस्तादात्म्यं तद्वदित्यर्थः । यथा ऽऽहु:
'कार्यरूपेण नानात्वमभेद: कारणात्मना ।
हेमात्मना यथा ऽभेदः कुण्डलाद्यात्मना भिदा ॥' इति । मुख्यवेदान्तिमतमवलम्व्याह--सृजतीति । अन्ये वेदान्तिनः । अविद्यया ऽधिष्ठानाज्ञानेन । तत्र दृष्टान्तः-यथा रज्जुर्भुजंगममिति । एतेन प्रपञ्चस्यातत्त्वतो ऽन्यथाभावाद् ब्रह्मविवर्तत्वं दर्शितम् ॥ ११, ११- ।।
1'तेजोवदात्मनो भिन्नाभिन्नया वा ऽऽत्मनो जगत् ।'
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२८
संगीतरत्नाकर:
आत्मनः पूर्वमाकाशस्ततो वायुस्ततो ऽनलः ।। १२ ।। अनलाज्जलमेतस्मात्पृथिवी समजायत । महाभूतान्यमून्येषा विराजो ब्रह्मणस्तनुः ॥ १३ ॥
[पिण्डो
(
(सु०) स परमेश्वरो जगतो भिन्नो ऽभिन्नो वेत्यपेक्षायामाह — तेजोवदिति । आत्मनः शक्त्या जगत्सृजन्भिन्नो न भवति । असौ परमेश्वरः । कथंभूतया शक्त्या ? तेजोवत् आत्मनो भिन्नाभिन्नया । यथा तेज: सूर्याद्भिन्नमित्युच्यते 'सूर्यस्य तेज:' इति, अभिन्नमपि व्यपदिश्यते ' सूर्यस्तेजः' इति । दृष्टान्तान्तरमाह - सुवर्णमिति । कुण्डलात्सुवर्णत्वेनाभिन्नं सुवर्णं कुण्डलत्वेन च भिन्नम् । वेदान्तिनां मतेन प्रपञ्चस्याविधिकत्वं कथयति — सृजतीति । यथा रज्जुः स्वाज्ञानात् 'भुजंगो ऽयम्' इति कल्पितं भुजंगं सृजति, तथा परमेश्वरो ऽप्यधिष्ठानभूतस्य स्वम्याज्ञानाद्वियदादिप्रपञ्चमित्यर्थः ॥ ११, ११- ॥
"
(क) भूतादिसृष्टिक्रमेण भौतिकं पिण्डं सप्रभेदं निरूपयति-आत्मनः पूर्वमित्यादिना । आत्मनः कारणभूतात् पूर्वं वाय्वादिभ्यः प्रथमम्, आकाश उत्पन्न इत्यर्थः । तत इति तच्छब्देनाकाशः परामृश्यते । तस्मादाकाशात्कारणभूताद्वायुरुत्पन्न इत्यर्थः । ततो ऽनल इत्यत्रापि वायोरनलः समजायतेत्यर्थः । तथा च श्रुतिः 'आत्मन आकाशः संभूतः, आकाशाद्वायुः' इत्यादिः । अमुन्याकाशादीनि महाभूतानि । विराजो ब्रह्मणो महाभूतोपहितस्य ब्रह्मण एषा तनुरिति संबन्धः । एषेति पुरोवर्तितया निर्देशो भूतसंघातस्य सकललोकप्रत्यक्षत्वेन । विराज इति, आत्मा महाभूतानि सृष्ट्वा तान्यनुप्रविश्य तदभिमानित्वेन विराडित्युच्यते, तस्य । अमून्येषा तनुरिति 'उद्दिश्यमानप्रति निर्दिश्यमानयोरैक्यं प्रतिपादयन्ति सर्वनामानि पर्यायेण तत्तल्लिङ्गभाञ्जि भवन्ति' इति भिन्नलिङ्गतोपपत्तिः ॥ - १२, १३ ॥
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- त्पत्तिः २]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
ब्रह्म ब्रह्माणमसृजत्तस्मै वेदान्प्रदाय च ।
भौतिकं वेदशब्देभ्यः सर्जयामास तेन तत् ॥ १४ ॥ तदाज्ञयाऽसृजद् ब्रह्मा मनसैव प्रजापतीन् । तेभ्यस्तु रैतसी सृष्टिः शरीराणां निरूप्यते ।। १५ ।। स्वेदोद्भेद जराखण्डहेतुभेदाच्चतुर्विधम् ।
देहं युकाऽऽदिनः स्वेदादुद्भेदातु लताऽऽदिनः ॥ १६ ॥ जरायोर्मानुषादीनामण्डात विहगादिनः ।
२९
(सु० ) सृष्टिक्रमं कथयति - आत्मन इति । पञ्चमहाभूतात्मिका विराड्ब्रह्मणस्तनुरित्याह- महाभूतानीति ॥ - १२, १३ ॥
(क० ) ब्रह्म ब्रह्माणमिति । ब्रह्म विरारूपं ब्रह्माणं चतुर्मुखमसृजत् । पुनस्तद्ब्रह्म तस्मै चतुर्मुखाय वेदान् ऋग्वेदादीन्प्रदाय तेन प्रयोज्येन कर्त्रा स्वयं प्रयोजकम्, वेदशब्देभ्यः, वेद्येते अनेन धर्माधर्माविति वेद:, तस्मिञ्शब्दा आकृत्यादिवाचकाः, तेभ्यः कल्पान्तरातीतपदार्थस्मारकत्वेन निमित्तभूतेभ्यः, भौतिकं पञ्चीकृतपञ्चमहाभूतात्मकं देहेन्द्रियादि सर्जयामास, भौतिकस्य सृष्टिं कारितवदित्यर्थः ॥ १४ ॥
(सु० ) ननु हिरण्यगर्भ एव जगतः कर्तेति लोकप्रसिद्धिः, कथमीश्वरः कर्तेत्युच्यते ? अत आह— ब्रह्मेति । ब्रह्मेश्वरो ब्रह्माणं हिरण्यगर्भमसृजत्, तस्मै च वेदान्प्रदाय भौतिकं प्रपञ्चं सर्जयामास सृजन्तं ब्रह्माणं प्रेरयामास । वेदशब्देभ्य इति ल्यलोपे पञ्चमी । ततश्च वेदशब्दान्स्मारयित्वा ऽसर्जयत्, 'यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै ' इति श्रुतेः । ततश्च कर्तृत्वं हिरण्यगर्भस्य, प्रयोजककर्तृत्वं परमेश्वरस्येत्यर्थः ॥ १४ ॥
(क०) साक्षात्कर्तुश्चतुर्मुखाद्भौतिकसृष्टेः क्रममाह -- तदाज्ञयेति । तस्य विराज आज्ञया । तेभ्यः प्रजापतिभ्यो रैतसी रेतोविकाररूपा ।
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संगीतरत्नाकरः
[पिण्डोतत्र नादोपयोगित्वान्मानुषं देहमुच्यते ॥ १७ ॥ क्षेत्रज्ञः स्थित आकाश आकाशाद्वायुमागतः ।
वायोधूमं ततश्चाभ्रमभ्रान्मेघे ऽवतिष्ठते ॥ १८ ॥ रेतःशब्देन शोणितमप्युपलक्ष्यते । स्वेदोद्भेदेति । स्पष्टो ऽर्थः । यूकाऽऽदिन इत्यादौ यूका ऽऽदिर्यस्येति तद्गुणसंविज्ञानो बहुव्रीहिः ॥ १५-१६ ॥
(सु०) ब्रह्मा किमसृजदित्यपेक्षायामाह--तदाज्ञयेति । प्रजापतीन् दक्षादीन् । तेभ्यः किमुत्पन्नमित्यपेक्षायामाह---तेभ्यस्त्विति । रेतसः समुत्पन्ना रैतसी। शरीराणां चातुर्विध्यं कथयति-स्वेदोद्रेदेति । किं कस्मादुत्पन्नमित्यपेक्षायामाह-यूकाऽऽदिन इति ॥ १५, १६- ॥
(क) उक्तचतुर्विधदेहमध्ये त्रिविधेषु यूकाऽऽदिदेहेषु लताऽऽदेरचेतनत्वात् , यूकाऽऽदेरतिसूक्ष्मत्वात् , विहगादेः संपूर्णधातुनाड्याद्यभावात् , जरायुजेप्वपि पश्वादिदेहस्य धातुनाड्यादिसंपूर्णतासद्भावे ऽपि तिर्यक्त्वेनोचारणाशक्तेश्च, पारिशेप्यान्मानुषं देहमेव नादोपयोगि ; ततस्तस्यैवोत्पत्तिर्निरूप्यत इत्याह--तत्रेति ।। -१७ ॥
(सु०) तेषु देहेषु मानुषदेहस्यैव विशेषतो निरूपणे कारणमाहतत्रेति ॥ -१७॥
(क०) तस्य मानुषशरीरस्य रैतस्यां सृष्टौ जीवस्याकाशादिपरंपरया गर्भसंक्रमणमाह--क्षेत्रज्ञ इत्यादिना गर्भाशयगतं भवेदित्यन्तेन । क्षेत्रं शरीरम् , तज्जानाति अहमिति वा ममेदमिति वा वेत्तीति क्षेत्रज्ञो जीवः, यदुक्तं भगवता--
'इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते । एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥'
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-त्पत्तिः २] प्रथम: स्वरगताध्यायः
आहुत्या ऽऽप्यायितो ग्रस्तरसो ग्रीष्मे च भानुभिः । भानुर्मेघे घनरसं निधत्ते तं बलाहकः ।। १९ ।। यदा वर्षति वर्षेण सह जीवस्तदा भुवः । वनस्पत्योषधी॥ताः संक्रामत्यविलक्षितः ॥ २० ॥ ताभ्यो ऽन्नं जातमन्नं तत्पुरुपैः शुक्लतां गतम् । शुद्धार्तवाया योषाया निषिक्तं स्मरमन्दिरे ।। २१ ॥ सहातवेन शुद्धं चेद्गर्भाशयगतं भवेत् ।
इति । धूमज्योतिर्मरुतां संघातो ऽभ्रम् , जलवत्तदेव मेघः । आहुत्येति । यजमानैर्मन्त्रपूर्वकं देवतोद्देशेनानौ प्रक्षिप्यमाणं समिदन्नाज्यादि द्रव्यमाहुतिः, तया ऽऽप्यायितः संतर्पितः, ग्रीष्मे भानुभिः किरणैस्तरसो भूमेरात्तसारो भानुः सूर्यः । घनरसं जलम् । भुवो जाता वनस्पत्योपधीरित्यन्वयः । अचाक्षुषत्वादविलक्षितः । ताभ्य ओषधीभ्यः । अन्नम् , अद्यत इत्यन्नमोदनादि । पुरुषैरन्नं भुक्तं तदोदनादि । शुद्धार्तवायाः, आर्तवं शोणितम् 'लाक्षारसशशास्राभं धौतं यच्च विरज्यते' इत्युक्तलक्षणम् , शुद्धमार्तवं यस्यास्तस्याः । शुद्धं चेदिति । शुक्लमपि 'शक्तं शुक्लं गुरु स्निग्धं मधुरं बहुलं बहु । घृतमाक्षिकतैलाभं सद् गर्भाय' इत्युपक्रम्य 'शुद्धं शुद्धार्तवम् ' इत्युक्तत्वाच्छुद्धम् । जीवकर्मेति । तच्च शुक्लमाशयगतत्वमात्रेण गर्भ नारभते, किं तु जीवकर्मप्रेरितं जीवस्योत्पत्स्यमानदेहाभिमानिनः कर्मभिः प्रारब्धकर्मभिः प्रेरितं देहभावानुकूलक्रियया योजितं सदेव गर्भमारभते । अत्र गर्भशब्देन देहोपादानमाशयं गतः शुक्लशोणितसंघात उच्यते ॥१८--२२॥
(सु०) उत्पत्तिप्रकारं कथयति-क्षेत्रज्ञ इति । क्षेत्रज्ञ आत्मा । अभ्रमित्यवर्षकं मेघशकलमुच्यते, मेघ इति वर्षको मेघः । ननु मेघे कथमुदकप्राप्तिरित्यत
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संगीतरत्नाकरः
[पिण्डोजीवकर्मप्रेरितं तद् गर्भमारभते तदा ॥ २२ ।। द्रवत्वं प्रथमे मासि कललाख्यं प्रजायते । द्वितीये तु घनः पिण्डः 'पेशीषद्धनमर्बुदम् ॥ २३ ॥ पुंस्त्रीनपुंसकानां स्युः प्रागवस्थाः क्रमादिमाः। तृतीये त्वङ्कुराः पञ्च कराविशिरसो मताः ॥ २४ ॥
आह-आहुत्येति । आहुत्या यागादौ विहितया ऽऽप्यायितस्तर्पितः, संतुष्ट इति यावत्, भानुभिः किरणैस्तरसः स्वीकृतोदको भानुः सूर्यो मेघे घनरसमुदकं निधत्ते । मेघवृष्टेनोदकेन सह जीवस्यौषध्यादिप्रवेशमाह-तं बलाहक इति । जीवस्यौषधीभ्यो ऽन्नशुक्रादिद्वारा गर्भप्रवेशमाह-ताभ्य इति ॥ १८-२२ ॥
(क०) एवमुक्तप्रकारेणाशयगतस्य गर्भस्य प्रथममासत आरभ्य नवममासपर्यन्तं प्रतिमासमवस्थाभेदान्दर्शयति--द्रवत्वमित्यादिना । कललाख्यं कललमित्याख्या यस्य तत्तथोक्तम् । कललमित्यगृहीतकाठिन्यस्य शुक्लशोणितसंघातस्य द्रवीभाव उच्यते । द्वितीये विति । धनः पिण्डो जनिष्यमाणस्य पुंसः प्रागवस्था, पेशी जनिप्यमाणायाः स्त्रियाः प्रागवस्था, ईषद्घनमर्बुद जनिप्यमाणस्य नपुंसकस्य प्रागवस्था, इति क्रमः । घनः काठिन्ययुक्तः, पेशी चतुरश्रा मांसप्राया, ईपद्घनं घनपेश्युभयसाधारणस्वात्तथोक्तम् , अर्बुदं शाल्मलीमुकुलाकारम् ; यथा ऽऽहु:--
'चतुरश्रा स्मृता पेशी वृत्तः पिण्डो घनः स्मृतः ।
शाल्मलीमुकुलाकारमर्बुदं भिषजो विदुः ॥' इति । तृतीये विति । पूर्वोक्तघनपिण्डादेः, कराविशिरसः, करौ चाची च शिरश्च कराङ्घिशिरः, प्राण्यङ्गत्वाद् द्वंद्वैकवद्भावः, तस्य कराविशिरसः ।
पेशी च धन..
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- त्पत्तिः २]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
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अङ्गप्रत्यङ्गभागाश्व सूक्ष्माः स्युर्युगपत्तदा । विहाय श्मश्रुदन्तादीञ्जन्मानन्तरसंभवान्' ।। २५ ।। एषा प्रकृतिरन्या तु विकृतिः संमता सताम् । चतुर्थे व्यक्तता तेषां 'भावानामपि जायते ॥ २६ ॥ पुंसां शौर्यादयो भावा भीरुत्वाद्यास्तु योषिताम् । नपुंसकानां संकीर्णा भवन्तीति प्रचक्षते ॥ २७ ॥
अङ्कुरा इति । अङ्कुरा जायमाना एव कराङ्घ्रिशिरो भवन्तीति भाव्यवयवविवक्षयाऽयं व्यपदेश: सूत्रशाटकन्यायेन । युगपदङ्कुरावस्थायामेव । अङ्गप्रत्यङ्गभागा इति । शिरोऽङ्कुरे ग्रीवानयननासिका कर्णादिभागाः, कराङ्कुर योरं सकूर्परमणिबन्धाङ्गुल्यादिभागाः अङ्घ्रङकुरयोरुरुजानु - जङ्घा गुल्फाङ्गुल्यादिभागाः । सूक्ष्मा अव्यक्तरूपाः । एषा प्रकृतिरिति । जन्मानन्तरसंभवाञ्श्मश्रुदन्तादीन्विहायाङ्कुराद्यवस्थायामेव सूक्ष्मरूपाङ्गप्रत्यङ्गभागोत्पत्तिः प्रकृतिः, जरायुजानां साधारणः स्वभाव इति यावत । अन्या तु विकृतिरिति । अन्या जन्मानन्तरभाविनां श्मश्रुदन्तादीनामङ्गादिसमानकालमेवोत्पत्तिरङ्गादिषु केषांचिदनुत्पत्तिः स्थानव्यत्यासेनोत्पत्तिरगुल्यादिसंख्याया न्यूनाधिकभावश्च । चतुर्थ इति । तेषामङ्गप्रत्यङ्गभागानां व्यक्तता ऽभिव्यक्तता पृथगात्मता । भावानामपि शौर्यादीनामात्मधर्माणां लीनानां व्यक्तता ॥। २३--२७ ।।
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३३
(सु० ) प्रतिमासं गर्भस्यावस्थाविशेषमाह --- द्रवत्वमिति । पुंस्त्रीनपुंसकानां क्रमात्प्रागवस्था आह-- द्वितीय इति । पिण्डस्य पेशीसाम्यं पुरुषावस्था, कठिनत्वं स्त्र्यवस्था, अर्बुदत्वमकठिनत्वं नपुंसकावस्था || श्मश्रुदन्तादीत्यादिशब्देन 1 श्मश्रुदन्तादि जन्मानन्तरसंभवात् .
भावानामुपजायते.
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[पिण्डो
मंगीतरत्नाकरः मातृजं चास्य हृदयं विषयानभिकाङ्क्षति । अतो मातुर्मनोऽभीष्टं कुर्याद्र्भसमृद्धये ॥ २८ ।। तां च द्विहदयां नारीमाहुदौंहृदिनी बुधाः । अदानादोहदानां स्युर्गर्भस्य व्यङ्गताऽऽदयः ।। २९ ॥ मातुर्यद्विषयालाभस्तदातों जायते सुतः । गर्भः स्यादर्थवान्भोगी दोहदादाजदर्शने ॥ ३० ॥ अलंकारेषु ललितो धर्मिष्ठस्तापसाश्रमे । देवतादर्शने भक्तो हिंस्रो भुजगदर्शने ।। ३१ ॥ गोधाऽशने तु निद्रालुबली गोमांसभक्षणे । माहिषे शुकरक्ताक्षं लोमशं मूयते सुतम् ।। ३२ ।।
स्त्रीणां स्तनादि ज्ञातव्यम् , जन्मानन्तरसंभवादिति हेतूक्तेः ॥ चतुर्थे भावा: प्रकटीभवन्तीत्युक्तम् ; तानेव भावान्विभज्य कथयति-पुंसामिति ॥२३ --२७॥
(क०) मातृजं चेति । अस्य गर्भस्य मातृजं मातुर्जातं हृदयम् , चकारान्मातुर्हृदयं च ; तदुभयं यतो विषयानभिकाङ्क्षति, अत इति संबन्धः । अयमर्थः---मातृहृदयसंबद्धस्य गर्भहृदयस्यैव विषयाभिलापित्वात्तदा मातुरभीष्टमवश्यं कर्तव्यं गर्भसमृद्धिकामेनेति ॥ दौहदिनीमिति । द्वयोर्हदययोः समाहारो द्विहृदयम् , तस्य भावो दौहृदमिति पृषोदरादित्वात्साधुः ; तत्संबन्धाद्गर्भो ऽपि दौहृदमित्युच्यते ; तद्दौहृदमस्या अस्तीति दौहृदिनी, ताम् । तदभीष्टाकरणे दोषमाह-अदानादिति । दोहद्रानाम् , दोहदं गर्भिणीमनोरथः, तद्विषया अपि दोहदानि, तेषाम् ॥ तत्तद्दोहदवशादुत्पत्स्यमानस्योत्कर्षापकर्षावाह-गर्भः स्यादित्यादिना । गर्भिण्या राजदर्शने
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-त्पत्तिः २]
प्रथमः स्वरगताध्याय: प्रबुद्धं पञ्चमे चित्तं मांसशोणितपुष्टता । पष्टे ऽस्थिस्नायुनखरकेशरोमविविक्तता ॥ ३३ ॥ वलवर्णौ चोपचितौ सप्तमे त्वङ्गपूर्णता । पाल्यन्तरितहस्ताभ्यां श्रोत्ररन्ध्रे पिधाय सः ॥ ३४ ॥ उद्विग्नो गर्भसंवासादास्ते गर्भाशयान्वितः । स्मरन्पूर्वानुभूताः स नानाजातीश्च यातनाः ॥ ३५ ॥
दोहदादभिलाषाद्गर्भ उत्पत्स्यमानो ऽर्थवान्भोगी च भवति । एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यम् ॥ २८-३२ ।।
(सु०) मातृजमिति । मातृजं मातृसंबन्धि हृदयमस्याभीष्टान्विषयानभिकाङ्क्षति । अथ वा, अस्य गर्भस्य मात्रवयवेषु निष्पन्नं मातृ हृदयमिति संबन्धः कर्तव्यः॥ दौहृदिनीपदं निर्वक्ति–तां चेति। दोहदादाने दोषमाह-अदानादिति। व्यङ्गता काणत्वान्धत्वपशुत्वादिः । आदिशब्देन दुर्बलत्वं निरुत्साहत्वमित्यादि ज्ञातव्यम् ॥ दोहदविशेषेण गर्भ फलविशेषमाह--गर्भ: स्यादिति ॥ माहिष इति । माहिषमांसे दोहदिनी नारी शुकवद्रक्ताक्षमालोहितलोचनं रोमशं च सुतमपत्यं सूते ॥ २८-३२ ॥
(क०) पश्चम इति । प्रबुद्धम् , पूर्व लीनमन्तःकरणं तदा स्पन्दोन्मुखं भवति । पष्ठ इति । नायवः सूक्ष्मसिराः, केशाः शिरोजाः, रोमाण्यङ्गरुहाणि ; बलवी, बलं सत्त्वम् , वर्णो गौरताऽऽदिः । सप्तमे विति । पाल्यन्तरितहस्ताभ्याम् । पालिरूरु:, ‘पालि: म्यश्रयङ्कपङ्क्तिषु' इत्यभिधानात् ; पालिभ्यामूरुभ्यामन्तरितावाच्छादितौ हस्तौ. ताभ्याम् । श्रोत्ररन्ध्रे पिधायेत्यनेनाधोमुखतया संकुचद्गात्रत्वमुक्तम् || उद्विमो भीतः । गर्भाशयान्वितो जरायुप्रस्तदेहः । अभ्यासतत्पर इति । अभ्यासो नामात्र
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संगीतरत्नाकरः
[पिण्डोमोक्षोपायमभिध्यायन्वर्तते ऽभ्यासतत्परः । अष्टमे त्वक्स्मृती' स्यातामोजश्चैतच्च हद्भवम् ।। ३६ ।। शुद्धमापीतरक्तं च निमित्तं जीविते मतम् । पुनरम्बां पुनर्गर्भ चञ्चलं तत्प्रधावति ।। ३७ ॥ अतो जातो ऽष्टमे मासि न जीवत्योजसोज्जितः । किंचित्कालमवस्थानं संस्कारात्खण्डिताङ्गवत् ।। ३८ ।। समयः प्रसवस्य स्यान्मासेषु नवमादिषु ।
मातू रसवहां नाडीमनुवद्धा पराऽभिधा ॥ ३९ ॥ संसारजिहासया पौन:पुन्येनात्मचिन्तनम् || अष्टम इति । त्वक्स्मृती स्यातामिति । यद्यपि त्वक्स्मृती सप्तमे ऽपि स्तः, तथा ऽप्यत्र त्वचः सान्द्रत्वं स्मृतेश्च विकल्पविषयत्वं भवतीत्यर्थः । ओजश्च स्यादित्यूहः । ओजः शुक्लसारः । एतदोजश्च हृद्भवं हृन्निवासं शुद्धं दुष्टवाताद्यनुपहतम् आपीतरक्तमीषत्पीतरक्तवर्ण जीवित प्राणधारणे निमित्तं कारणं मतमित्यन्वयार्थः । तदोजश्चञ्चलमेकत्रानवस्थितं सदम्बां गर्भ च मुहुर्धावति । तदुक्तं वाग्भटाचार्येण - ‘ओजो ऽष्टमे संचरति मातापुत्त्रौ मुहुः क्रमात् ' इति । यतो ऽष्टमे ऽनवस्थितमोजो ऽत इत्यर्थः । अतो ऽष्टमे मासि जातो न जीवतीति न माससाकल्यार्थः ; अपि तु यदौजो गर्भ विहायाम्बां संक्रामेत्तदा जात ओजसोज्झितत्वान्न जीवतीत्यर्थः । यदा पुनरोजो ऽम्बां विहाय गर्भ संक्रामेत्तदा तु प्रसवे ऽम्बा न जीवति ; यदा पुनरोजसः प्रधावनसमय एव प्रसवस्तदा तस्यैकत्राप्यनवस्थानादुभावपि न जीवत इति भावः । ननु लोके क्वचिदोजसोज्झितस्यापि गर्भस्य जन्मानन्तरं किंचित्कालं जीवतो ऽवस्थानं दृश्यते. तत्कथमजीवनमित्याशङ्कय सदृष्टान्तमुपपत्तिमाह-किंचिकालमिति । संस्कारादोजःसंचारसंस्कारात । खण्डिताङ्गवत् , खण्डितं च
त्वक्श्रुती.
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-त्पत्तिः २] प्रथमः स्वरगताध्यायः
नाभिस्थनाडी गर्भस्य मात्राहाररसावहा । . कृताञ्जलिर्ललाटे ऽसौ मातृपृष्ठमभि स्थितः ॥ ४० ॥ अध्यास्ते संकुचद्गात्रो गर्भ दक्षिणपार्श्वगः । वामपार्थस्थिता नारी क्लीबं मध्यस्थितं मतम् ।। ४१ ।। क्रियते ऽधःशिराः मूतिमारुतैः प्रवलैस्ततः । निःसार्यते रुजद्दात्री यन्त्रच्छिद्रेण बालकः ।। ४२ ।। जातमात्रस्य तस्याथ प्रवृत्तिः स्तन्यगोचरा ।
प्राग्जन्मबोधसंस्कारादिति जीवस्य नित्यता ।। ४३ ।। तदङ्गमिति कर्मधारयः । खण्डितमङ्गं यथोत्तरक्षणे प्राणसंचारसंस्काराचेष्टमानं दृश्यते तद्वदित्यर्थः ॥ नवमादिष्विति । क्वचिन्नवमे मासे प्रसवः स्यात्कचिदशमे कचिदेकादशे ऽपीति दर्शयितुमादिशब्दग्रहणम् ॥ ३३-४१॥
(सु०) पञ्चमे मासि चित्तं प्रबुद्धम् , ज्ञानवान्भवतीत्यर्थः । विविक्तता पृथक्त्वे सति प्रकटत्वम् ॥ उपचितौ वृद्धि प्राप्तौ । पाल्यन्तरितेति । पाली कर्णपाली, तया ऽन्तरिताभ्यां व्यवहिताभ्यां पाणिभ्यां श्रोत्ररन्ध्रे पिधाय । उद्विग्नो वैराग्यमापन्नः । गर्भशयो गर्भे ध्यानातिशय आत्मानुसंधानम् , तेनान्वितः। यातना: पीडाः। मोक्षोपायं मोक्षसाधनमभिध्यायंश्चिन्तयन् । अभ्यासतत्पर आत्मानुसंधाननिष्ठः । अष्टममासावस्थां कथयति-अष्टम इति । श्रुतिर्बहिःस्थस्य शब्दस्याकणेनं न तु श्रवणेन्द्रियम् , तस्याकाशस्वरूपत्वानित्यत्वेनानुत्पत्तेः । ओजो धातुविशेषः ॥ शुद्धमकलुषम् । ओजो जीविते निमित्तमित्युक्तम् ; तदेव विशदयति-पुनरम्बामिति ॥ गर्भस्य कथं पुष्टिरित्यत आह-मातुरिति । नाडीमनुबद्धा तद्विमिश्रा । मातृपृष्ठमभि लक्षीकृत्य । दक्षिणपार्श्वग इति पुंलिङ्गनिर्देशात्पुमानिति गम्यते ॥ ३३-४१ ॥
(क) सूतिमारुतैरपानाख्यमारुतैः । यन्त्रच्छिद्रेण योनिरन्ध्रेण ।। तस्य जातस्य ॥ मृदव इति । मृदवो मृदुत्वयुक्ताः । प्लीहेति । जीवा
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३८
[पिण्डो
संगीतरत्नाकर:
भावाः स्युः षड़िधास्तस्य मातृजाः पितृजास्तथा । रसजा आत्मजाः सच्वसंभवाः सात्म्यजास्तथा ॥ ४४ ॥ मुद्रवः शोणितं मेदो मज्जा लीहा यकृद् गुदम् । नाभीत्येवमाद्यास्तु भावा मातृभवा मताः ॥ ४५ ॥ उपश्रुलोमकचाः स्नायुसिराधमनयो नखाः । दशनाः शुक्कमित्याद्याः स्थिराः पितृसमुद्भवाः || ४६ ॥ शरीरोपचयो वर्णो वृद्धिः सुप्तिर्वलं स्थितिः' । अलोलुपत्वमुत्साह इत्यादीन्रसजान्विदुः ॥ ४७ ॥
धिष्ठानभूतवामपार्श्वस्थितमांसविशेषवाचकः प्लीहशब्दः । यकृदिति दक्षिणपार्श्वस्थितस्तादृशो मांसविशेषः । स्नायुसिराधमनयः स्नायवः सूक्ष्मनाड्यः. सिरास्ततो ऽपि स्थूलाः, धमनय एरण्डकाण्डवत्स्थूलाः । स्थिराः कठिनाः ॥ ४२-४६॥
(सु० ) प्रसूतिप्रकारं कथयति - क्रियत इति । सूतिमारुतै: प्रसूतिसाधनैर्वायुभिः । रुजद्गात्रः पीडितदेहः । यन्त्रच्छिद्रेण यन्त्राकारेण सूक्ष्मेण योनिरन्ध्रेणेत्यर्थः ॥ जातमात्रस्य स्तन्यपानादिप्रवृत्त्या जीवस्य नित्यत्वं कथयतिजातमात्रस्येति ॥ भावभेदान्कथयति - भावाः स्युरिति । रसो ऽन्नरसः । सत्त्वमन्तःकरणविशेषः । सात्म्यं चिरपरिचयसंस्कारविशेषः || मातृजान्भावान्कश्रयति - मृदव इति । मृदवो मार्दवयुक्ताः प्रदेशा: । प्लीहा यक्रम हृदयस्थितौ मांसखण्ड विशेषौ । हृच्च नाभिश्व हृन्नाभीति समाहारद्वंद्व: । ' द्वंद्वे प्राणितूर्यसेनाऽङ्गानाम्' इत्येकवद्भावः ॥ ४२–४६ ॥
( क ० ) शरीरोपचय इत्यादिर्ग्रन्थविस्तरकातरा इत्यन्तो ग्रन्थो निगढ़व्याख्यातः || ४७–७४ ॥
1 धृतिः
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-त्पत्तिः २]
प्रथमः स्वग्गताध्यायः इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं धर्माधर्मी च भावना । प्रयत्नो ज्ञानमायुश्चेन्द्रियाणीत्यात्मजा मताः ॥ ४८ ॥ ज्ञानेन्द्रियाणि श्रवणं स्पर्शनं दर्शनं तथा । रसनं घ्राणमित्याहुः पञ्च तेषां तु गोचराः ।। ४९ ॥ शब्दः स्पर्शस्तथा रूपं रसो गन्ध इति क्रमात् । वाक्कराज्रिगुदोपस्थानाहुः कर्मेन्द्रियाणि तु ॥ ५० ॥ वचनादानगमनविसर्गरतयः क्रमात् । क्रियास्तेषां मनो बुद्धिरित्यन्तःकरणद्वयम् ॥ ५१ ।। सुखं दुःखं च विषयौ विज्ञेयो मनसः क्रिया । स्मृतिभ्रान्तिविकल्पाद्या 'धियो ऽध्यवसितिर्मता ॥ ५२ ।। ब्रह्मयोनीनीन्द्रियाणि भोतिकान्यपरे जगुः । सत्त्वाख्यमन्तःकरणं गुणभेदात्रिधा मतम् ॥ ५३ ।।
(सु०) रसजानात्मजांश्च कथयति-शरीरेति । उपचयः पीनत्वम् । वृद्धिः प्रमाणाधिक्यम् ॥ ४७, ४८ ॥ ज्ञानेन्द्रियाणि तद्विषयांश्च विभजतेज्ञानेन्द्रियाणीति । स्पर्शनं त्वगिन्द्रियम् । दर्शनं चक्षुः । रसनं जिह्वा ॥ ४९ ॥ कमन्द्रियाणि तद्वयापारांश्च कथयति--वाकरेति ॥ ५० ॥ वेदान्तिनां मतमाश्रित्यान्तःकरणद्वयं कथयति-मनो बुद्धिरिति । वाचस्पत्ये 'बुद्धिमनसोश्च करणयोरहमिति प्रख्यानप्रतिभासालम्बनत्वं योगः' इत्युक्तम् ॥ ५१ ॥ बुद्धिमनसोविवेकार्थ व्यापारविशेषं कथयति-सुखमिति । ततश्च सुखदुःखोपलब्धिसाधनं मनः, स्मृतिभ्रान्तिविकल्पादिसाधनं बुद्धिरिति विवेकः । व्यवसितियापारः ॥ ५२ ॥ मतभेदेनेन्द्रियकारणं निरूपयति-ब्रह्मेति । वेदान्तिनस्तु ब्रह्मकारणकानीन्द्रियाणीत्याहुः, सर्वस्यापि प्रपञ्चस्य ब्रह्मविवर्तत्वात् । अथ वा ब्रह्मयोनीन्यभौतिकानीति सांख्या मन्यन्ते । अपरे वैशेषिका भौतिकानि
धियो व्यवसिति०
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संगीतरत्नाकरः
[पिण्डोसत्त्वं रजस्तम इति गुणाः सत्वात्तु साचिकात् । आस्तिक्यशुद्धधर्मेकरुचिप्रभृतयों मताः ॥ ५४ ।। सत्त्वात्तु राजसाद्भावाः कामक्रोधमदादयः । निद्राऽऽलस्यप्रमादार्तिवञ्चनाद्यास्तु तामसात् ।। ५५ ।। प्रसन्नेन्द्रियताऽऽरोग्यानालस्याद्यास्तु सात्म्यजाः।। देहो भूतात्मकस्तस्मादादत्ते तद्गुणानिमान् ॥ ५६ ॥ शब्दं श्रोत्रं सुषिरतां वैविक्त्यं मूक्ष्मवोद्धृताम् । विलं च गगनाद्वायोः स्पर्श च स्पर्शनेन्द्रियम् ॥ ५७ ॥ उत्क्षेपणमवक्षेपाकुश्चने गमनं तथा । प्रसारणमितीमानि पञ्च कर्माणि रूक्षताम् ॥ ५८ ॥
पृथिव्यादिभूतोत्पन्नानीत्याहुः । तृतीयमन्तःकरणं कथयति--सत्त्वाख्यमिति । सत्त्वाख्यं स्वभावाख्यमित्यर्थः । गुणभेदात्सत्त्वरजस्तमोभेदात् ॥ ५३ ॥ गुणाविभज्य कथयति--सत्त्वमिति । सात्त्विकान्तःकरणकार्य कथयति--सत्त्वादिति । आस्तिक्यमस्ति परलोक इति श्रद्धा । शुद्धो निर्मलो यो धर्मस्तत्रैका रुचिः प्रीतिः । प्रभृतिशब्देनाधर्मान्निवृत्तिरुच्यते ॥ ५४ ॥ राजसान्त:करणकार्य कथयति-सत्त्वादिति । राजसाद्रजोगुणप्रधानात् सत्त्वात्सत्त्वाख्यादन्तःकरणात् । तामसान्तःकरणकार्य कथयति-निद्रेति । निद्रा, इन्द्रियाणां बाह्यविषयच्यापारोपरमः मुप्तिः सुषुप्तिर्वा । आलस्यमिष्टसाधनेष्वपि व्यापारेष्वप्रवृत्तिः । प्रमादो निरवधानत्वम् । वञ्चनं प्रतारणम् || ५५ ॥ सात्म्यजान्भावान्कथयतिप्रसन्नेति। आरोग्यं नीरोगत्वम् । देहे भूतगुणान्विभजते-देह इति । भूतात्मकः पञ्चमहाभूतारब्धः। यद्यपि देहस्यैककभूतारब्धत्वमेव, तथा ऽप्युपष्टम्भकत्वमन्येषां भूतानां विद्यत एव ॥ ५६ ॥ सुषिरता सच्छिद्रत्वम् । वैविक्त्यं विविक्तस्य भावो देहस्वभावप्रापकत्वेन पृथगवस्थानम् । सूक्ष्मबोद्धृता दुर्बोधस्याप्यर्थस्यानायासेन परिज्ञानम् | बिलं स्थलं छिदं सुषिरं त्वल्पमिति विवेकः। शरीरे वायुगुणान्कथयति-वायोरिति । स्पर्शो गुणः । स्पर्शनेन्द्रियं त्वगिन्द्रि
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-त्पत्तिः २]
प्रथमः स्वरगताध्यायः प्राणापानौ तथा व्यानसमानोदानसंज्ञकान् । नागं कूर्म च कृकरं देवदत्तं धनंजयम् ।। ५९ ।। दशेति वायुविकृतीस्तथा गृह्णाति लाघवम् । तेषां मुख्यतमः प्राणो नाभिकंदादधः स्थितः ॥ ६० ॥ चरत्यास्ये नासिकयो भौ हृदयपङ्कजे । शब्दोच्चारणनिःश्वासोच्छासकासादिकारणम् ।। ६१ ॥ अपानस्तु गुदे मेढ़े कटीजचोदरेषु च । नाभिकंदे वङ्क्षणयोरूरुजानुनि तिष्ठति ।। ६२ ।। अस्य मूत्रपुरीषादिविसर्गः कर्म कीर्तितः । व्यानो ऽक्षिश्रोत्रगुल्फेषु कट्यां घ्राणे च तिष्ठति ॥ ६३ ।। प्राणापानधृतित्यागग्रहणाद्यस्य कर्म च ।
समानो व्याप्य निखिलं शरीरं वह्निना सह ॥ ६४ ॥ यम् ॥ ५७ ॥ उत्क्षेपणमूर्ध्वाकाशदेशेन सह संयोगजनकं कर्म । अवक्षेपो ऽधराकाशदेशेन सह संयोगजनकं कर्म | आकुञ्चनं स्वाभिमुखानयनम् । गमनं दिग्विशेषानवच्छिन्नाकाशदेशसंयोगजनकं कर्म । प्रसारणं परतो नयनम् । रूक्षता स्निग्धत्वाभावः ॥ २८ ॥ प्राणापानादयो दश वायुविकाराः । लाघवं गुरुत्वाभावः । एतान्गुणान्वायोगृह्णाति शरीरमिति संबन्धः ।। ५९, ५९- ॥ मुख्यस्य प्राणस्य स्थानं व्यापारं च कथयति-तेषामिति । मुख्यतमः प्रधानभूतः, अन्येषामपानादीनां तदनुयायित्वात् । नाभिकंदादध आधारप्रदेशे चरति विचरति ॥-६०, ६१॥ अपानस्य स्थानं कर्म च कथयति- अपानस्त्विति । कटीजङ्घोदरेश्वित्यत्र पञ्चस्वित्यध्याहार्यम् , अन्यथा 'द्वंद्वश्च प्राणितूर्यसेनाऽङ्गानाम्' इत्येकवद्भावप्राप्तेः । संख्योपादाने तु नैकवद्भावः प्राप्नोति, 'कथं चेद्दश दन्तोष्ठाः संख्यावाचीह भेदकः' इति विचारचिन्तामणावुक्तत्वात् ॥ ६२ ॥ मूत्रपुरीषादीति । अत्रादिशब्देन वीर्यदूषिकाऽऽदिग्रहणम् । व्यानस्य स्थानं कर्म च कथयति-व्यान इति ॥ ६३ ॥ प्राणापानयोः पवनयोधृतिर्धारणम् , कुम्भनमिति यावत् । त्यागो
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४२
संगीतरत्नाकरः
[पिण्डोद्विसप्ततिसहस्रेषु नाडीरन्ध्रपु संचरन् । मुक्तपीतरसान्सम्यगानयन्देहपुष्टिकृत् ।। ६५ ।। उदानः पादयोरास्ते हस्तयोरङ्गसंधिषु । कर्मास्य देहोन्नयनोत्क्रमणादि प्रकीर्तितम् ।। ६६ ।। त्वगादिधातूनाश्रित्य पञ्च नागादयः स्थिताः । उद्गारादि निमेषादि क्षुतप्रभृति च क्रमात् ॥ ६७ ॥ तन्द्राप्रभृति शोफादि तेषां कर्म प्रकीर्तितम् । अग्नेस्तु लोचनं रूपं पित्तं पाकं प्रकाशताम् ।। ६८ ।। अमर्ष तैक्ष्ण्यमूष्माणमोजस्तेजश्च शूरताम् । मेधावितां तथा ऽऽदत्ते जलात्तु रसनं रसम् ।। ६९ ॥ शैत्यं स्नेहं द्रवं स्वेदं मूत्रादि मृदुतामपि ।
भूमेर्घाणेन्द्रियं गन्धं स्थैर्य धैर्य च गौरवम् ॥ ७० ॥ बहिनिःसारणम् । ग्रहणमन्तःप्रवेशनम् | आदिशब्देन योगशास्त्रप्रसिद्धं नकुलकर्मादि । समान इति । वह्निनोदर्येण भुक्तपीतपाकहेतुना सह संचरन् भुक्तपीतरसान्नाडीरन्ध्रेष्वानयन्देहपुष्टिं करोतीति संबन्धः ॥ ६४, ६५ ॥ उदानस्य स्थानं कर्म च कथयति----उदान इति । देहस्योन्नयनमूर्ध्वनयनम् । उत्क्रमणं मरणम् । आदिशब्देन हिक्काऽऽदि ॥ ६६ ॥ नागादीनां पञ्चानां वायूनां स्थानं कर्म च कथयति-त्वगादीति | त्वचि नागस्यावस्थानम्, शोणिते कूर्मस्य, मांसे कुकरस्य, मेदसि देवदत्तस्य, अस्थि धनंजयस्य ॥ ६७ ॥ तन्द्रा ऽऽलस्यम् । प्रभृतिशब्देन जृम्भणादि । शरीर तेजोगुणान्कथयति-अग्नेस्त्विति । लोचनं चक्षरिन्द्रियम् । पित्तं दोषविशेषः । पाको ऽन्नरसपचनम् | प्रकाशता तेजस्विता ॥ ६८ ॥ अमर्ष: कोपः । तैक्ष्ण्यमसहनत्वम् । ऊष्मा स्वेदोत्पादकस्तापविशेषः । ओजः पूर्वोक्तम् | शूरता निर्भयत्वम् । मेधाविता ऽनुभूतस्याविस्मृतिः । उदकगुणान्कथयति—जलात्त्विति । रसनं रसनेन्द्रियम् ॥ ६९ ॥ स्नेहः स्निग्ध इति व्यवहारकारणभूतो वाग्विशेषगुणः । पृथ्वीगुणान्कथयति--
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प्रथमः स्वरगताध्यायः
४३
-त्पत्तिः २]
श्मश्रुकेशनखं दन्तानस्थ्याद्यन्यच्च कर्कशम् । वातादिधातुप्रकृतिकॊमादिप्रकृतिस्तथा ॥ ७१ ।। सप्तथा सात्त्विको यश्च ब्रह्मेन्द्रयमविग्रहः । वारुणश्चाथ कौबेर आपों गान्धर्वविग्रहः ।। ७२ ।। राजसः पड्डिधो यश्च पैशाचो राक्षसस्तथा । आसुरः शाकुनः सार्पः प्रेतदेहस्तथा परः ॥ ७३ ।। तामसस्त्रिविधो यश्च पशुमत्स्याध्रिपाकृतिः ।। तेषां लक्ष्माणि न ब्रूमो ग्रन्थविस्तरकातराः ॥ ७४ ॥ पिण्डस्याहुः पडङ्गानि शिरः पादौ करौ तथा। मध्यं चेत्यथ वक्ष्यन्ते प्रत्यङ्गान्यखिलान्यपि ॥ ७५ ॥ त्वचः सप्त कलाः सप्त स्नायुश्लेष्मजरायुभिः ।
छन्नाः कोशाग्निभिः पक्कास्ता धातूनन्तरा ऽन्तरा ॥ ७६ ॥ भूमेरिति । स्थैर्यमत्वरत्वम् । धैर्यमापद्यप्यव्यामूढता। गौरवं पतनासमवायिकारणभूतो गुणः ॥ ७० ॥ अन्यानपि देहभेदान्कथयति-वातादीति । वातादयो वातपित्तश्लेष्माणः । व्योमपवनतेजोऽम्बुभूमयो व्योमादयः ॥ ७१ ॥ सप्तधा सप्तप्रकार: सात्त्विको देहो ब्रह्मादीनाम् , षडियो राजसो देहः पिशाचादीनाम् , त्रिविधस्तामसो देहः पश्वादीनामिति । तेषां लक्षणं किमिति नोक्तमित्यत आह–तेषामिति ॥ ७२-७४ ॥
(क०) जातस्य मातृजादीन्षड्डिधान्भावान्भौतिकस्य देहम्य तत्तद्भूतगुणोपादानं चोक्त्वा तस्य देहस्याङ्गप्रत्यङ्गधातुधमनीचक्रादिप्रपञ्चमाहपिण्डस्याहुरित्यादिना । प्रत्यङ्गानि त्वकलाऽऽदीनि । वक्ष्यन्ते, समनन्तरमेवेत्यर्थः ॥ त्वचः सप्लेति । पच्यमानादसृजो जायमाना भासिन्यादयः सप्त त्वचः । यथोक्तमायुर्वेदे
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४४
संगीतरत्नाकरः
सीमभूताच धातूनां काष्टसारोपमा मताः । आद्या मांसधरा मांसे सिरा धमनयस्तथा ॥ ७७ ॥ नास्रोतांसि रोहन्ति पङ्के पङ्कजकंदवत् । असृङ्मेदःश्लेष्मशकृत्पित्तशुक्लधराः पराः ॥ ७८ ॥
' इति भूतमयो देहस्तत्र सप्त त्वचो ऽसृजः । • पच्यमानात्प्रजायन्ते क्षीरात्संतानिका इव ॥ भासिनी लोहिनी श्वेता ताम्रा त्वग्वेदिनी तथा । स्याद्रोहिणी मांसधरा सप्तमी परिकीर्तिता ॥ '
[पिण्डो
इति । कलाः सप्तेति । रसक्केदो धातुसारविशेष: पूर्वोत्तरधात्वन्तरालस्थः स्नायुश्लेष्मजरायुच्छन्नः कोशा पिकः काष्ठसारोपमः सूक्ष्मरूपत्वात्कलेत्युच्यते । तथा चोक्तम्
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' धात्वाशयान्तरक्लेदो विपक्कः स्वं स्वमूप्मणा । श्लेष्मस्नाय्वपराच्छन्नः कलाऽऽख्यः काष्ठसारवत् ॥
इति । स्नाय्वादिच्छन्नत्वादिकं विशेषणं त्वक्कलोभयसाधारणं वेदितव्यम् । तास्त्वचः कलाश्च धातूनन्तरा ऽन्तरा त्वगादिसप्तधातूनां मध्ये मध्ये सीमभूतास्तेषामेव धातूनामसंकीर्णताऽऽपादका इत्यर्थः ॥ आद्येति। आद्या-त्वकला च मांसधरा नाम, पराः षट् त्वचः कलाश्चासृगादिधराः ॥ ७५- ७८ ॥
(सु० ) देहे ऽङ्गप्रत्यङ्गानि विभजते- पिण्डस्येति ॥ धातूनन्तरा ऽन्तरा सप्तानां धातूनां मध्ये मध्य इत्यर्थः ॥ काष्ठसारोपमा कठिना ऽऽद्या मांसधरा त्वक्, अन्यास्त्वकठिना इत्यर्थः । सिराऽऽदयः कुत्रोत्पद्यन्त इत्यत आहमांस इति । धमनयः सिराविशेषाः ॥ स्नायुस्तन्तुसंनिभो मांसबन्धनविशेषः । अन्यास्त्वचः कलाश्च किं धारयन्तीत्यत आह- असृगिति ।। ७५ - ७८ ॥
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-त्पत्ति: २] प्रथमः स्वरगताध्याय:
त्वगसृङमांसमेदोऽस्थिमज्जशुक्लानि धातवः । सप्त स्युस्तत्र चोक्ता त्वग्रक्तं जाठरवह्निना ।। ७९ ।। पक्काद्भवेदनरसादेवं रक्तादिभिः परे । वस्वकोशामिना पक्कैर्जन्यन्ते धातवः क्रमात् ।। ८० ।। रक्तश्लेष्मामपित्तानां पकस्य मरुतस्तथा । मूत्रस्य चाश्रयाः सप्त क्रमादाशयसंज्ञकाः ॥ ८१ ।। गर्भाशयो ऽष्टमः स्त्रीणां पित्तपकाशयान्तरे । प्रसन्नाभ्यां कफामुग्भ्यां हृदयं पङ्कजाकृति ॥ ८२ ।। सुपिरं स्यादधोवक्त्रं यकृत्प्लीहान्तरस्थितम् । एतच चेतनस्थानं तदस्मिस्तमसा ऽऽकृते ॥ ८३ ।। निमीलति स्वपित्यात्मा जागर्ति विकसत्यपि । द्वेधा स्वप्नसुपुप्तिभ्यां स्वापो बाह्येन्द्रियाणि चेत् ॥ ८४ ॥
(क०) धातूनुद्दिश्य तेषामुत्पत्तिं दर्शयति-त्वगमृगित्यादिना। तत्र चोक्ता त्वगिति । चकारो भिन्नक्रमः, त्वक्चेति । अयमर्थ:--अत्र धातुत्वेन परिगणिता बाह्या त्वगपि धातुसीमभूतत्वग्लक्षणेनैवोक्तलक्षणेति ॥ ७९-८२- ॥
(सु०) धातून्विभजते-त्वगिति ॥ रक्तादीनामुत्पत्तिप्रकारमाह--रक्तेति। आमो ऽपक्को रसः ॥ स्त्रीणामधिकमाशयं कथयति-गर्भाशय इति । हृदयस्योत्पत्तिप्रकारं संस्थानविशेष स्थानं च कथयति–प्रसन्नाभ्यामिति ॥७९-८२-॥
(क०) एतच्च चेतनस्थानमिति । एतत्पङ्कजाकृत्यधोवक्त्रं सुषिरं हृत्पङ्कजमित्यर्थः । अत्र चशब्दश्चेतनाभिव्यक्तिहेतुभूतस्थानान्तरसमुच्चयार्थः । स्थानान्तराणि तु 'प्राणो ब्रह्म कं ब्रह्म खं ब्रह्म' इत्यादिश्रुत्युक्तानि प्राणा
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४८
संगीतरत्नाकरः
[पिण्डो लीयन्ते हृदि जागर्ति चित्तं स्वप्नस्तदोच्यते । मनश्चेल्लीयते प्राणे सुषुप्तिः स्यात्तदा ऽऽत्मनः ॥ ८५ ॥
स्वमपीतः परात्मानं स्वपित्यात्मेत्यतो मतः । दीनि । चेतनस्थानं चेतनस्य कूटस्थब्रह्मणः स्थानमभिव्यक्तिस्थानम् । अत्र चेतनशब्दो न जीवपरः । कुतः ? श्रुतिविरोधात् , 'अथ यदिदं ब्रह्मपुरम् ' इत्यादिः श्रुतिर्हि 'पुण्डरीकसंनिवेशम्' इत्यत्र पुण्डरीकस्य ब्रह्मस्थानत्वमाह । तथा हि भामत्यां दहराधिकरणे 'अथ यदिदमस्मिन्ब्रह्मपुरं दहरं सूक्ष्मगुहाप्रायं पुण्डरीकसंनिवेशं वेश्म दहरम्' इत्युपक्रम्य ‘इमाः सर्वाः प्रजा अहरहर्ब्रह्म गच्छन्त्य एतं ब्रह्मलोकं न विन्दन्ति' इति श्रुतिमुदाहृत्य स्वापकाले ऽपि सर्व एवायं विद्वानविद्वांश्च जीवलोको हृत्पुण्डरीकाश्रयं दहराकाशाख्यं ब्रह्मलोकं प्राप्तो ऽप्यनाद्यविद्यातमःपटलपिहितदृष्टितया ब्रह्मभूयमापन्नो ऽहमस्मीति न वेद' इत्यादिना महता संदर्भेण दहरशब्दस्याकाशजीवपरत्वदूषणपूर्वकं ब्रह्मपरत्वप्रतिपादनादत्रापि हृत्पङ्कजाधिष्ठातृत्वेन चंतनं ब्रह्मैवेत्यवगन्तव्यम् । तदस्मिन्नित्यादि । अस्मिश्चेतने ब्रह्मणि तमसा ऽनाद्यविद्यया ऽऽवृतं पिहिते सति, तद्भुदयपङ्कजं यदा निमीलति मुकुलीभवति तदा ऽऽत्मा जीवः स्वपिति निद्राति, तत्पङ्कजं यदा विकसति तदा जीवो जागर्त्यहमिति बुध्यते । अपिश्चार्थे । एतदुक्तं भवतिआत्मनः स्वरूपाज्ञानेन जीवभावे ऽप्यनादिविश्वतैजसप्राज्ञव्यपदेशहेतवो जीवस्य जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यवस्था भवन्तीति । द्वेधेति । स्वापो निद्रा, तद्विशेषौ स्वप्नसुपुप्ती ॥ -८३-८५- ॥
(सु०) हृदयमेव स्वप्नजागरणयोः कारणमित्याह-एतच्चेति । चेतनस्यात्मनः स्थानम् । अस्मिन्निमीलति सत्यात्मा स्वपिति, विकसति सति जागति । स्वापस्य द्वैविध्यं कथयित्वा तं लक्षयति-द्वेधेति । चित्तं मनः, जागर्ति स्वाग्नि
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प्रथमः स्वरगताध्यायः
श्रवणे नयने नासे वदनं गुदशेफसी ।। ८६ ।। वहिर्मलबहानि स्युर्नव स्रोतांसि देहिनाम् ।। स्त्रीणां त्रीण्यधिकानि स्युः स्तनयोझै भगे ऽसृजः ।। ८७ ॥ अस्थिस्नायुसिरामांसस्थानि जालानि पोडश । षट् कूर्चाः करयोरङ्घयोः कंधरायां च मेहने ।। ८८ ॥ पार्श्वयोः पृष्ठवंशस्य चतस्रो मांसरजवः । सीवन्यः पञ्च शिरसि द्वे जिह्वालिङ्गयोर्मते ।। ८९ ॥ चतुर्दशाष्टादश वा 'संमता अस्थिराशयः । अस्थ्नां शरीरे संख्या स्यात्पष्टियुक्तं शतत्रयम् ।। ९० ।। वलयानि कपालानि रुचकास्तरुणानि च । नलकानीति तान्याहुः पञ्चधा ऽस्थीनि मूरयः ।। ९१ ।।
त्रीण्येवास्थिशतान्यत्र धन्वन्तरिरभाषत । कान्पदार्थान्पश्यति । स्वपितिशब्दं निवक्ति-स्वमपीत इति । 'स्वं ह्यपीतो भवति, तस्मादेनं स्वपितीत्याचक्षते' इति श्रुतेः ॥ -८३-८५- ॥
(क०) श्रवणे नयने इत्यादिरस्मद्विरचिते ऽध्यात्मविवेके वीक्ष्यतां बुधैरित्यन्तः स्पष्टार्थः ।। -८६-११९ ॥
(सु०) बहिर्मलवहानि रन्ध्राणि कथयति-श्रवणे इति ॥ -८६-८७ ।। जलानि षोडश षट् कूर्चान्रज्जूश्चतस्त्रः सप्त सीवनीश्च कथयति-अस्थीस्यादिना ॥ ८८, ८९ ॥ 'मतभेदेनास्थिराशीन्कथयति-चतुर्दशेति ॥ ८९-॥ अस्थीनि संख्याति-अस्नामिति ॥-९० ॥ आकारविशेषेण पञ्चधा ऽस्थीन्याह-वलयानीति ॥ ९१ ॥ मतभेदेनास्थामन्यथा संख्यां ख्यापयति
सीमन्ता. नामभेदेन.
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४८
[पिण्डो
संगीतरत्नाकरः
द्वे शते त्वस्थिसंधीनां स्यातामत्र दशोत्तरे ।। ९२ । कोरकाः प्रतरास्तुन्नाः सीवन्यः स्युरुलूखलाः । सामुद्रा मण्डलाः शङ्खावर्ता वायसतुण्डकाः ॥ ९३ ॥ इत्यष्टधा समुद्दिष्टा मुनीन्द्रैरस्थिसंघयः । पेशीस्नायुसिरासंधिसहस्रद्वितयं मतम् ॥ ९४ ॥ नव स्नायुशतानि स्युचतुर्धा स्नायवो मताः । मानवत्यः सुषिरा: कण्डराः पृथुलास्तथा ।। ९५॥ बन्धनैर्बहुभिर्वद्धा भूरिभारक्षमा भवेत् । नौरम्भसि यथा स्नायुशतबद्धा तनुस्तथा ॥ ९६ ॥ पञ्च पेशीशतान्याहुः शरीरस्थानि सूरयः । अधिका विंशतिः स्त्रीणां तत्र स्युः स्तनयोर्दश ॥ ९७ ॥ यौवने ताः प्रवर्धन्ते दश योनौ तु तत्र च । द्वे अन्तः प्रसृते बाह्ये द्वे तिस्रो गर्भमार्गगाः ॥ ९८ ॥ शङ्खनाभ्याकृतिर्योनिस्त्र्यावर्ता ऽत्र तृतीयके । आवर्ते गर्भशय्या ऽस्ति पित्तपकाशयान्तरे ॥ ९९ ॥ रोहिताभिमत्स्यस्य सदृशी तत्र पेशिका | शुक्लार्तत्रप्रवेशिन्यस्तिस्रः प्रच्छादिका मताः ।। १०० ।। सिराधमनिकानां तु लक्षाणि नवविंशतिः । सानि स्युर्नवशती षट्पञ्चाशद्युता तथा ।। १०१ ।।
-
त्रीणीति ॥ ९१ ॥ अस्थिसंधीसंख्याति - द्वे शते इति ॥ ९२ ॥ आकारविशेषेणास्थिसंधीनामष्टविधत्वं कथयति — कोरका इति ॥ ९३, ९३ ॥ पेशीस्नायुसिरासंधीन्संख्याय स्नायुभेदान्कथयति — पेशीति ॥ - ९४, ९५ ॥ स्नायूनामुपयोगं कथयति — बन्धनैरिति ॥ ९६ ॥ पुंस्त्रीभेदेन पेशी : संख्याति - पश्चेति ॥ ९७ - १०० ॥ सिराधमनिकाः संख्याति - सिरेति ॥ १०१,
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-त्पत्ति: २]
प्रथमः स्वरगताध्यायः दश मूलसिरा ओजोवाहिन्यो हृदयाश्रयाः । द्वयङ्गुलं चागुलदलं यवं यवदलं तथा ॥ १०२ ।। गत्वा द्रुमदलस्येव सीवन्यः प्रतता यदा । भिद्यन्ते तास्तदा सप्त शतानि परिसंख्यया ॥ १०३ ॥ तासु जिह्वास्थिते द्वे द्वे वाग्रसज्ञानकारणे । घ्राणे गन्धवहे द्वे द्वे मेपोन्मेषकृतौ दृशोः ॥ १०४ ॥ श्रोत्रयोः शब्दवाहिन्यौ तासु द्वे शाङ्गिणोदिते । धमन्यो रसवाहिन्यश्चतुर्विंशतिरीरिताः ॥ १०५ ॥ कुल्याभिरिव केदारास्ताभिर्देहो ऽभिवर्धते । एताः प्रतिष्ठिता नाभ्यां चक्रनाभावरा इव ॥ १०६ ।। ऊर्व दश दशाधस्ताच्चतस्रस्तिर्यगायताः । ऊर्ध्वगा हृदयं प्राप्ताः प्रतायन्ते पृथक्त्रिधा ।। १०७॥ वातं पित्तं कर्फ रक्तं रसं द्वे द्वे विमुञ्चतः । शब्दं रूपं रसं गन्धं द्वे द्वे तत्रावगच्छतः ॥ १०८ ॥ दे द्वे च भाषणं घोषं वापं बोधं च रोदनम् । कुर्वाते द्वे नरे शुक्लं स्तन्यं तु स्रवतः स्त्रियाम् ।। १०९ ॥
१०१- ॥ सीवनीनां दृष्टान्तेन संस्थानविशेष दर्शयित्वा संख्यां स्थानं विभागं च कथयति-द्वयगुलमिति । गन्धवहे गन्धज्ञानकारणे ॥ -१०२-१०४- ॥ रसवाहिनीर्धमनीः संख्याय तासां प्रयोजनमाह-धमन्य इति ॥-१०५, १०५-॥ तासां स्थानं संस्थानं च कथयति-एता इति ।। -१०६, १०६- ॥ ऊर्ध्वायता दश, अधआयता दश, तिर्यगायताश्चतस्र इत्युक्तम् ; तत्रोझ्यतानां व्यापारभेदेन त्रैविध्यं कथयति-ऊर्ध्वगा इति ॥ -१०७-१०९ ॥ अधोगतानां त्रैविध्यं
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५०
संगीतरत्नाकरः
[पिण्डोअधोगता अपि त्रेधा पृथक्पकाशयस्थिताः । प्रवर्तयन्ति तत्राद्या दश वातादि पूर्ववत् ॥ ११० ।। अन्नं भुक्तं धमन्यो द्वे वहतो ऽम्बुसमाश्रयात् । तोयं मूत्रं बलं द्वे द्वे नारीणामार्तवं त्विमे ।। १११ ।। विमुञ्चतो द्वे स्रोतांसि द्वे स्थूलान्त्रान्विते शकृत् । स्वेदं समर्पयन्त्यष्टौ तिरश्च्यो बहुधा मताः ॥ ११२ ।। रोमकूपेषु सन्त्यासां मुखानि स्वेदमुक्तये । प्रवेशयन्ति चाभ्यङ्गलेपादिप्रभवान्रसान् ॥ ११३ ।। जीवस्थानानि मर्माणि शतं सप्तोत्तरं विदुः । सार्धकोटित्रयं रोम्णां श्मश्रुकेशास्त्रिलक्षकाः ॥ ११४ ॥ स्रोतःसिराश्मश्रुकेशैः सह रोम्णां तु कोटयः । चतुःपञ्चाशदाख्याताः सप्तषष्टया च साध्या ।। ११५ ।। लक्षाणां संहितामानं जलादेरधुनोच्यते । दशाञ्जलि जलं ज्ञेयं रसस्याञ्जलयो नव ।। ११६ ।। रक्तस्याष्टौ पुरीपस्य सप्त स्युः श्लेष्मणस्तु पट् । पित्तस्य पञ्च चत्वारो मूत्रस्याञ्जलयस्त्रयः ॥ ११७ ॥ वसाया मेदसो द्वौ तु मज्ज्ञ एको ऽञ्जलिर्मतः ।। अर्धाञ्जलिः शिरोमज्जा श्लेष्मसारो बलं तथा ॥ ११८ ॥
कथयति-अधोगता इति ॥ १०९- ॥ तासां व्यापारं कथयति—प्रवर्तयन्तीति । बलं वीर्यम् ॥ -११०-१११- || तिरश्चीनां विशेषं कथयति-तिरश्चय इति ॥ -११२, ११३ ॥ मर्माणि परिसंख्याति-जीवस्थानानीति ॥ ११४, ११४- ॥ संहितानां मानं कथयति-सप्तषष्टयेति । संहिता रोमादिसंधिः ।
1 मजा त्वजलिसंमितः.
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- त्पत्तिः २]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
इति प्रत्यङ्गसंक्षेपो विस्तरस्त्विह तत्त्वतः । अस्मद्विरचितेऽध्यात्मविवेके वीक्ष्यतां बुधैः ॥ ११९ ॥ गुदलिङ्गान्तरे चक्रमाधाराख्यं चतुर्दलम् । परमः सहजस्तद्वदानन्दो वीरपूर्वकः ।। १२० ।। योगानन्दश्च तत्र स्यादेशानादिदले फलम् । अस्ति कुण्डलिनी ब्रह्मशक्तिराधारपङ्कजे ॥ १२१ ॥ आब्रह्मरन्ध्रमृजुतां नीतेयममृतप्रदा ।
५१
द्रवमानं प्रतिज्ञाय कथयति — जलादेरिति । रसस्यान्नरसस्य । 'मज्ज्ञो मज्जाख्यधातोः । विस्तरस्त्वध्यात्मविवेके वीक्ष्यतामित्यनेन सो ऽपि मत्कृतो ग्रन्थो ऽस्तीति कर्ता स्वातिशयं प्रतिपादयति ॥ ११६-११९ ॥
( क ० ) गुदलिङ्गान्तर इति । गुदलिङ्गयोर्मध्ये स्थितस्याधारचक्रस्यैशानादिदलचतुष्टये जन्मकाले जीवस्थित्या परमानन्दादयः फलानि । आधारपङ्कजे तस्मिन्नेवाधारचक्रे । कुण्डलिनीत्यन्वर्थतया सर्परूपिणी ब्रह्मशक्तिः, ब्रह्मणो ऽसङ्गोदासीनस्य परमात्मनः कर्तृत्वाद्युपहिताकारकारिण्यविद्याशक्तिः । सैव मूर्तिमती कुटिलाकारतया कुण्डलिनीत्युच्यते । आब्रह्मरन्ध्रम्, ब्रह्मरन्धं नाम सुषुम्णाया अयं शिरसि सहस्रदलचक्रमध्यगम्, तत्पर्यन्तम् । ऋजुतां नीतेति । गुरूपदिष्टप्रकारेण यमनियमादिक्रमेण वायोरिडापिङ्गलयोः संचारं निरुध्य तेन वायुना सवह्निना ब्रह्मग्रन्थौ सुषुम्णामूलरन्ध्राच्छादिनीं कुण्डलिनीफणामपसार्य तत्र प्रवेशितेन तेन ब्रह्मविष्णुरुद्रमन्थीनां क्रमाद्भेदे सति कुण्डलिनी चात्मवक्रतां विहाय यदा ऋजुतां प्राप्यते । अमृतप्रदेति । तदा कुण्डलिनी स्वार्जवाद्ब्रह्मरन्ध्रवि
1 मज्जा तदाख्यो धातुः.
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५२
संगीतरत्नाकरः .
[पिण्डोस्वाधिष्ठानं लिङ्गमूले षट्पत्रं चक्रमस्य च ।। १२२ ॥ पूर्वादिषु दलेष्वाहुः फलान्येतान्यनुक्रमात् । प्रश्रयः क्रूरता गर्वनाशो मूर्छा ततः परम् ।। १२३ ॥ अवज्ञा स्यादविश्वासः कामशक्तेरिदं गृहम् ।
निर्गतेन स्ववालाग्रेण सुधाऽऽधारं सहस्रदलचक्रं विभिद्य ततो ऽमृतं द्रावयतीति तथोक्ता ॥ १२०-१२१- ॥
__(सु०) एवमङ्गप्रत्यङ्गान्युक्त्वा चक्राणि वक्तुमुपक्रमते-गुदलिङ्गान्तर इति । गुदलियोरन्तरे मध्य आधारसंज्ञकं चक्रं चतुर्दलपद्माकारमास्ते ॥ तस्य चतुर्णा दलानां फलं कथयति-परम इति । ऐशानदले परमानन्दः, आग्नेयदले सहजानन्दः, नैऋतदले वीरानन्दः, वायव्यदले योगानन्दः । ततश्चाधारकमलस्य विदिस्थितान्येव चत्वारि दलानीति लभ्यते ॥ अस्तीति । कुण्डलिनीसंज्ञिका ब्रह्मशक्तिः, ब्रह्मप्राप्तिकारणत्वात् , आधारपङ्कजे विद्यते । सेयमाब्रह्मरन्धं ब्रह्मरन्ध्रपर्यन्तमृजुतां नीता सत्यमृतप्रदा मोक्षप्रदा ॥१२०-१२१॥
(क०) स्वाधिष्ठानमिति । आधारचक्रादूर्ध्व लिङ्गमूले स्वाधिष्ठानाख्यं षड्दलं द्वितीयं चक्रम् । तस्य पूर्वादिदलेषु क्रमात्प्रश्रयादीनि फलान्याहअस्य चेति । अवज्ञा स्यादिति । धर्मपरो ऽयं निर्देशः ।।-१२२-१२३-॥
(सु०) स्वाधिष्ठानसंज्ञितं चक्रं कथयति-स्वाधिष्ठानमिति । षट्पत्रं षड्दलकमलाकारम् । एतस्य षण्णां दलानां फलानि कथयति-अस्य चेति । प्रश्रयो विनयः पूर्वदिगवस्थितस्य दलस्य फलम् । तत्रावस्थित आत्मा प्रश्रयवान्भवतीत्यर्थः । क्रूरता दुष्टकर्माभिनिवेशः । गर्व आत्मोत्कर्षभावनम् , तस्य नाशः। मूर्छा मोहाधिक्यम् | अवज्ञा ऽवगणना । अविश्वासः सर्वत्र सशङ्कत्वमनाश्वासो वा । इदं स्वाधिष्ठानचक्रं कामोत्पादिकायाः शक्तेर्गृहमाश्रयः ॥ -१२२-१२३- ॥
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-त्पत्ति: २] प्रथमः स्वरगताध्याय:
नाभौ दशदलं चक्रं मणिपूरकसंज्ञितम् ॥ १२४ ॥ सुषुप्तिरत्र तृष्णा स्यादीp पिशुनता तथा । लज्जा भयं घृणा मोहः कषायो ऽथ विपादिता ॥ १२५ ॥ क्रमात्पूर्वादिपत्रे तु स्याद्भानुभवनं च तत् । हृदये ऽनाहतं चक्रं शिवस्य प्रणवाकृतेः ॥ १२६ ।। पूजास्थानं तदिच्छन्ति दलैादशभिर्युतम् । लौल्यप्रणाशः प्रकटो वितको ऽप्यनुतापिता ॥ १२७ ॥ आशा प्रकाशश्चिन्ता च समीहा समता ततः । क्रमेण दम्भो वैकल्यं विवेको ऽहंकृतिस्तथा ॥ १२८ ॥ फलान्येतानि पूर्वादिदलस्थस्यात्मनो जगुः ।
(क०) तत ऊर्ध्व नाभिहृदयकण्ठघण्टिकाभ्रूमध्यललाटकेशमलब्रह्मरन्ध्रप्वष्टसु स्थानेषु क्रमेण मणिपूरकानाहतविशुद्धिललनाऽऽज्ञामन:सोमसहस्रपत्राख्यानामष्टानां चक्राणां तच्चक्रगतदलसंख्यया प्रागाद्यारम्भक्रमेण प्रतिदलं पृथक्फलान्याह-नाभौ दशदलमित्यादिना ॥-१२४-१२८-॥
(सु०) मणिपूरकचक्रं कथयति-नाभाविति । एतस्य पूर्वादिदलानां फलानि कथयति-सुषुप्तिरिति । सुषुप्तिर्बाह्येन्द्रियाणां मनसश्चोपरमावस्था । तृष्णा ऽभिलाषः । ईष्या परगणासहनम् । पिशुनता विद्यमानाविद्यमानपरदोषसचनम । लजाभये प्रसिद्धे । घृणा परदुःखप्रहाणेच्छा । मोहो जाग्रदवस्थायामपि विषयापरिज्ञानम् । कषाय: कलुषाशयत्वम् । विषादः सचिन्तं दुःखम् । तन्मणिपूरकं चक्रं भानोः सूर्याख्यस्य प्राणस्य भवनं स्थानम् ॥ १२५, १२६- ॥ अनाहतं चक्रं कथयति-हृदय इति । शिवस्य प्रणवाकृतेरोंकाराकृते: पूजास्थानमिति; तत्र स्थितं परमेश्वरं ध्यात्वा मनसा पूजयेदित्यर्थः । आत्मनः पूर्वादिद्वादशदलेष्ववस्थानेन फलानि कथयति-लौल्येति । लोलस्य भावो लौल्यम् ,
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५४
संगीतरत्नाकरः
[पिण्डोकण्ठे ऽस्ति भारतीस्थानं विशुद्धिः षोडशच्छदम् ॥ १२९ ॥ तत्र प्रणव उद्गीथो हुंफड् वषडथ स्वधा । स्वाहा नमो ऽमृतं सप्त स्वराः षड्जादयो विषम् ।। १३० ॥ इति पूर्वादिपत्रस्थे फलान्यात्मनि पोडश । ललनाऽऽख्यं घण्टिकायां चक्रं द्वादशपत्रकम् ।। १३१ ।। मदो मानस्ततः स्नेहः शोकः खेदश्च लुब्धता । अरतिः संभ्रमश्चोमिः श्रद्धातोषोपरोधिताः ॥ १३२ ॥ फलानि ललनाचक्रे स्युः पूर्वादिदलेविति ।
तस्य प्रणाशो निश्चलत्वम् । प्रकट इति प्रकटत्वेन वितर्कस्य विशेषणम् । वितर्क उभयोर्मध्ये ऽन्यतरोपादेयताविचारः । अनुतापिता पश्चात्तापवत्त्वम् । आशेष्टप्राप्तेरभिलाषः । प्रकाश आकारगुप्तेरभावः । चिन्ता विचारमात्रम् । समीहा ऽनिष्टनिवृत्तीच्छा । समतोत्कर्षापकर्षशून्यतया सर्वेषां भावनम् । दम्भो लोकोपसंग्रहार्थमश्रद्धया कर्मानुष्ठानम् । वैकल्यमनबस्थत्वम् । विवेकः सम्यग्विचार्य कार्यकरणम् । अहंकृतिरशक्ये ऽपि कार्ये चिकीर्षाऽध्यवसाय: ॥-१२६-१२८॥
__ (क०) उद्गीथ इति सानो द्वितीयो भागः ; सानो हि पञ्च भागाः-प्रस्तावः प्रथमः, उद्गीथो द्वितीयः, प्रतिहारस्तृतीयः, उपद्रवश्चतुर्थः, निधनः पञ्चम इति । प्रणव इत्युद्गीथस्यादौ प्रयोज्य ओंकारः । घण्टिकायां जिह्वामूले । ऊर्मयो ऽशनायापिपासाशोकमोहजरामरणानि षडूर्मयः ॥ -१२९-१३२. ॥
__ (सु०) विशुद्धिसंज्ञकं चक्रं कथयति-कण्ठ इति । भारतीस्थानम् , भारत्याः सरस्वत्याः स्थानमाश्रयः । तत्र भाविता वाग्देवता वाग्वैभवं ददातीत्यर्थः । एतस्य चक्रस्य पूर्वादिपत्रावस्थितावात्मन: षोडश फलानि कथयतितत्रेति । प्रणव ओंकारः । पूर्वपत्रे प्रणवानुसंधानेनात्मा श्रेयः प्राप्नोति । उद्गीथः
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त्पत्तिः २] प्रथमः स्वरगताध्याय:
भूमध्ये त्रिदलं चक्रमाज्ञासंगं फलानि तु ॥ १३३ ॥ आविर्भावाः सत्त्वरजस्तमसां क्रमतो मताः । ततो ऽप्यस्ति मनश्चक्रं पड्दलं तत्फलानि तु ॥ १३४ ॥ स्वप्नो रसोपभोगश्च घ्राणं रूपोपलम्भनम् । स्पर्शनं शब्दवोधश्च पूर्वादिषु दलेष्विति ॥ १३५ ।।
सामभक्तिविशेषः। द्वितीयपत्रे स्थितमुद्गीथमुद्गीथोपासनायां चिन्तयेदित्यर्थः । हुंफडिति हवि:प्रदाने ऽव्ययम् । वषडित्यपि । स्वधेति पित्रुद्देशेन हवि:प्रदाने ऽव्ययम् | स्वाहेति देवतोद्देशेन । नम इति नमस्कारे ऽव्ययम् । एतानि तत्तद्दलेषु चिन्तनीयानीत्यर्थः । अमृतं पीयूषम् । तद्दले स्थित आत्मा पीयूषाप्लुत इव सुखितो भवतीत्यर्थः । सप्त स्वराः षड्जादयः षड्जर्षभगांधारमध्यमपञ्चमधैवतनिषादाः। तेषां तानि तानि दलान्युपासनस्थानानि । विषममृतवद्वयाख्येयम् । विषदलस्थ आत्मा दुःखितो भवतीत्यर्थः ॥ ललनाऽऽख्यं चक्र कथयति-ललनाऽऽख्यमिति | घण्टिका ऽवटुः । एतस्य पत्रफलानि कथयति-मद इति । मदो मत्तता। मान उत्कर्षभावनया कार्याकार्यानवेक्षणम् । स्नेहः स्निग्धता | शोको विज्ञातकारणकं दुःखम् । खेदो ऽविज्ञातकारणकं दुःखम् । लुब्धता ऽभिलाषाधिक्यम् । अरतिः सुखसाधनेष्वप्युद्वेगः । संभ्रम आवेगः । ऊर्मयः षडागमशास्त्रप्रसिद्धाः
'बुभुक्षा च पिपासा च शोकमोहौ जरामृती ।
ऊर्मयः षडिति प्राणबुद्धिदेहेषु संस्थिताः ॥' इति । श्रद्धा ऽऽस्तिक्यबुद्धिः। तोषः प्रसिद्धः। उपरोधिता दाक्षिण्यम् ॥ -१२९-१३२- ॥
(क०) ध्यानाश्रु, ध्यानाज्जातमश्रु ध्यानाश्रु ॥ -१३३-१४४- ॥
(सु०) त्रिदलमाज्ञाचक्रं कथयति-भ्रूमध्य इति । तस्य फलानि कथयति-आविर्भावा इति । प्रथमदले सत्त्वाविर्भावः, द्वितीयदले रजआविर्भावः,
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संगीतरत्नाकरः
[पिण्डोततो ऽपि षोडशदलं सोमचक्रमितीरितम् । दलेषु षोडशस्वस्य कलाः षोडश संस्थिताः ॥ १३६ ।। कृपा क्षमा ऽऽर्जवं धैर्य वैराग्यं धृतिसंमदौ । हास्यं रोमाञ्चनिचयो ध्यानाश्रु स्थिरता ततः ।। १३७ ।। गाम्भीर्यमुद्यमो ऽच्छत्वमौदार्यैकाग्रते क्रमात् । फलान्युद्यन्ति जीवस्य पूर्वादिदलगामिनः ॥ १३८ ॥ चक्रं सहस्रपत्रं तु ब्रह्मरन्ध्रे सुधाधरम् । तत्सुधासारधाराभिरभिवर्धयते तनुम् ॥ १३९ ।। अनाहतदले पूर्व अष्टमे चैकादशे तथा । द्वादशे च स्थितो जीवो गीतादेः सिद्धिमृच्छति ॥ १४० ॥ चतुर्थपष्टदशमैदलैगीतादि नश्यति ।
विशुद्धेरष्टमादीनि दलान्यष्टौ श्रितानि तु ।। १४१ ।। तृतीयदले तमआविर्भावः, मनःसंज्ञकं षड्दलं चक्रं कथयति-तत इति । मनश्चक्रं मनःसंज्ञं चक्रम् । मनःसंज्ञा तु तत्र मनसो ऽवस्थानात् । फलान्याहतत्फलानीति । स्वप्नः सुप्त्यवस्था। रसोपभोगो ऽन्नरसस्योपभोगः । घ्राणं गन्धज्ञानम् । रूपोपलम्भनं दर्शनम् । स्पर्शनं त्वगिन्द्रियकरणकं ज्ञानम् | शब्दबोधः श्रवणम् । सोमाख्यं चक्रं कथयति--तत इति । ततो ऽप्युपरिप्रदेशे। अस्य पूर्वादिदलावस्थानेन जीवस्य फलानि कथयति-कृपेति । कृपा परानुग्रहापेक्षा | क्षमा कोपकारणे सत्यप्यकोपः । आर्जवमवक्रबुद्धित्वम् । धैर्यमस्खलितचेतस्त्वम् । वैराग्यं संसारासारताबुद्धिः । धृतिर्धारणम् । संमदो हर्षः । हास्यादीनि गाम्भीर्यान्तानि प्रसिद्धानि | उद्यम उद्योगः । अच्छत्वमकलुषमनस्त्वम् । औदार्य स्वभावेन दानशूरता। एकाग्रतैकतानत्वम् ॥ चक्रान्तरं कथयति-चक्रमिति । सुधाधरममृतधारकम् । तद्वयापारं कथयति-तदिति । एतेषां चक्राणां तत्तद्दलावस्थाने जीवस्य फलानि कथयन्प्रकृतोपयोगमाहअनाहतेति । अनाहतचक्रस्य दले पत्रे पूर्वे पूर्वदिस्थिते प्रथमे वा ऽष्टमादिषु
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- त्पत्ति: २]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
दद्युर्गीतादिसंसिद्धिं षोडशं तद्विनाशकम् । दशमैकादशे पत्रे ललनायां तु सिद्धिदे || १४२ ।। नाशकं प्रथमं तुर्ये पञ्चमं च दलं विदुः । ब्रह्मरन्ध्रस्थितो जीवः सुधया संप्लुतो यथा ।। १४३ ॥ तुष्ट गीतादिकार्याणि सप्रकर्षाणि साधयेत् । एषां शेषेषु पत्रेषु चक्रेष्वन्येषु च स्थितः ॥ १४४ ॥ जीवो गीतादिसंसिद्धिं न कदाचिदवाप्नुयात् । आधाराद् द्व्यङ्गुलादूर्ध्व मेहनाद् द्वय गुलादधः || १४५ ॥ एकाङ्गुलं देहमध्यं तप्तजाम्बूनदप्रभम् । तत्रास्ते ऽग्निशिखा तन्वी चक्रात्तस्मान्नवाङ्गुले || १४६ ।।
५७
च संस्थितो जीवो गीतादेः सिद्धिमृच्छति गीतनृत्तवाद्यानां सिद्धिमाप्नोति, अथ वा तान्यभिलषति । चतुर्थषष्ठदशमदलेषु स्थिते जीवे गीतादि नश्यति । विशुद्धेरिति । विशुद्धिसंज्ञकस्य चक्रस्याष्टमादिष्वष्टसु दलेषु संस्थिते जीवे गीतादि सिध्यति । षोडशदलावस्थिते नश्यति । ललनाऽऽख्यचक्रस्य दलविशेषावस्थाने जीवस्य गीतादिसिद्ध्यसिद्धी कथयति - दशमेति । दशमं चैकादशं चेति द्वे पत्रे गीतादिसिद्धिदायके भवतः । प्रथमादीनि तु गीतादिनाशकानीति विदुर्यो - गशास्त्रविदः । ब्रह्मरन्ध्रावस्थानेन जीवस्य गीतादिसिद्धिं कथयति — ब्रह्मरन्ध्रेति । ब्रह्मरन्ध्रे तिष्टञ्जीवो ऽमृतप्लुत इव निर्वृति प्राप्तः संस्तुष्टो निरभिलाषो गीतादि साधयेन्निष्पादयेत् । एवं गीतादेः साधकानि नाशकानि च दलानि कथयित्वा साधारणानि कथयति - एषामिति । एषामनाहतविशुद्धिललनाऽऽख्यानां चक्राणां शेपेषु साधकनाशकेभ्यो ऽन्येषु पत्रेषु, अन्येषु चक्रेषु विशुद्धयादेरन्येषु मणिपूरकादिचक्रेषु च स्थितो जीवो गीतादिसिद्धावुदासीन इत्यर्थः ॥ १३३ - १४४ ॥
(क०) देहविधारकनाडीसंदोहमूलभूतस्य ब्रह्मग्रन्थेः स्थानं स्वरूपं चाह – आधाराद् द्व्यङ्गुलादिति । आधारादाधारचक्रादवधिभूतात् ।
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संगीतरत्नाकरः
[पिण्डोदेहस्य कंदो ऽस्त्युत्सेधायामाभ्यां चतुरगुलः । ब्रह्मग्रन्थिरिति प्रोक्तं तस्य नाम पुरातनैः ॥ १४७॥ तन्मध्ये नाभिचक्रं तु द्वादशारमवस्थितम् । लूतेव तन्तुजालस्था तत्र जीवो भ्रमत्ययम् ।। १४८ ॥ सुषुम्णया ब्रह्मरन्ध्रमारोहत्यवरोहति । जीवः प्राणसमारूढो रज्ज्वां कोहाटिको यथा ॥ १४९ ॥ सुषुम्णां परितो नाड्यः कंदादा ब्रह्मरन्ध्रतः । 'कंदीकृत्य स्थिताः कंदं शाखाभिस्तन्वते तनुम् ।। १५० ।।
देहमध्यमिति । देहस्योर्ध्वाधोभागयोर्मध्ये स्थितत्वाद्देहमध्यम् । चक्रात्तस्मादिति । देहमध्यचक्रादवधेः । ब्रह्मग्रन्थिरिति । ब्रह्माधिष्ठितत्वाब्रह्मग्रन्थिः । तन्मध्ये ब्रह्मग्रन्थिमध्ये । नाभिचक्र द्वादशारं द्वादशाराणि यस्य तत्तथोक्तम् । आतानवितानात्मकनाडीसंघातरूपत्वान्नाभिचक्रस्य तन्तुजालं दृष्टान्तः । कंदीकृत्य, अकंदं कंदं कृत्वा । अभूततद्भावे चिः । ताश्च नाड्यः स्वशाखाभिः कंदीकृतं कंदं तनुं देहाकारं तन्वते ।। -१४५-१५०॥
(सु०) अग्निशिखास्थानं कथयति-आधारादिति । आधारचक्राद् द्वयङ्गुलमात्रमूर्ध्वप्रदेशे मेहनाल्लिङ्गस्थानाद् द्वयङ्गुलमात्रमधःप्रदेश एकागुलिप्रमाणं सुवर्णवर्ण देहमध्यं देहस्य मध्यप्रदेशः । तत्र तन्वी कृशा ऽग्निशिखा ऽऽस्ते । तस्माच्चक्रादेहमध्यादाधाराद्वा नवामुले नवाङगुलप्रमाणे । ब्रह्मपन्थि कथयति-देहस्येति । हेहस्य शरीरस्य कंदो विस्तारकारणम् | उत्सेधो दीर्घोच्छायः। नाभिस्थितश्चतरङगलप्रमाणकः । तस्य नाम ब्राग्रन्थिरिति । तन्मध्य इति । तस्य ब्रह्मग्रन्थेमध्ये नाभिचक्राख्यं चक्रं द्वादशदलमस्ति । लूतोर्णनाभः, तद्वज्जीवस्तत्र भ्रमति । सुषुम्णयेति । आ ऽऽधारादाब्रह्मरन्ध्रमायता
क्रोडीकृत्य.
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-त्पत्तिः २]
प्रथमः स्वरगताध्याय: ताश्च भूरितरास्तासु मुख्याः प्रोक्ताश्चतुर्दश । सुषुम्णेडा पिङ्गला च कुहूरथ सरस्वती ॥ १५१ ।। गांधारी हस्तिजिढा च वारुणी च यशस्विनी । विश्वोदरा शङ्खिनी च ततः पूषा पयस्विनी ॥ १५२ ।। अलम्बुसेति तत्राद्यास्तिस्रो मुख्यतमा मताः । सुषुम्णा तिसृषु श्रेष्ठा वैष्णवी मुक्तिमार्गगा ॥ १५३ ॥ कंदमध्ये स्थिता तस्या इडा सव्ये ऽथ दक्षिणे । पिङ्गलेडापिङ्गलयोश्चरतश्चन्द्रभास्करो ॥ १५४ ।। क्रमात्कालगतेर्हेतू सुषुम्णा कालशोषिणी ।
नाडी सुषुम्णा। तया तस्य सकाशाद्ब्रह्मरन्ध्रपर्यन्तमारोहति ब्रह्मरन्ध्राच्चावरोहति । प्राणसमारूढः प्राणपवनेनोपश्लिष्ट: । कोह्लाटिको विषमनर्तकः । सुषुम्णां परितः सर्वत: सुषुम्णाया: कंदं ब्रह्मपन्धि क्रोडीकृत्य व्याप्य स्थिता नाडयस्तनुं शरीरं तन्वते विस्तारयन्ति ॥ -१४५-१५० ॥
(क०) कालगतेरिति । अत्र कालशब्देन जीवस्य पिण्डावस्थानिमित्तभूतास्तपनपरिस्पन्दक्षणा उच्यन्ते, त एवायुरिति यावत् ; तस्य गतेः क्षयस्येत्यर्थः । कालशोषिणीति । इह कालशब्देन मृत्युरुच्यते, तस्य शोषिणी प्रतिबन्धिनी ॥ १५१-१५५ ॥
(सु०) तासु नाडीषु मुख्याश्चतुर्दशेति कथयति-ताश्चेति .. १५०-॥ तासां नामानि कथयति-सुषुम्णेति । चतुर्दशानां मध्ये सुषुम्णेडापिङ्गलानां तिसृणां नाडीनां मुख्यत्वं तासु च सुषुम्णाया मुख्यत्वमाह-तत्राद्या इति । सुषुम्णाया मुख्यत्वे कारणमाह-वैष्णवीति । वैष्णवी विष्णुदेवताका। अथ वा, वैष्णवी या मायाशक्तिस्तद्रूपिणी । मुक्तिमार्गगा मोक्षप्रदायिनी । अथ वा, मुक्तिमार्गो मुक्तेरुपाय आत्मा, तत्संबन्धिनी, आत्मनो ऽधिष्ठानभूतेत्यर्थः ।
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६०
संगीतरत्नाकरः
[पिण्डोसरस्वती कुहूश्चास्ते सुषुम्णायास्तु पार्श्वयोः ॥ १५५ ॥ इडायाः पृष्ठपूर्वस्थे गांधारीहस्तिजिहिके । क्रमात्पूपायशस्विन्यौ पिङ्गलापृष्टपूर्वयोः ॥ १५६ ॥ विश्वोदरा मध्यदेशे स्यात्कुहूहस्तिजिह्वयोः । मध्ये कुहूयशस्विन्योर्वारुणी संस्थिता मता ॥ १५७ ॥ पूषासरस्वतीमध्यमधिशेते पयस्विनी । गांधारिकासरस्वत्योमध्ये वसति शहिनी ॥ १५८ ॥ अलम्बुसा कंदमध्ये तत्रेडापिङ्गले क्रमात् ।
सव्यदक्षिणनासाऽन्तं कुहूरामेहनं पुरः ।। १५९ ॥ कंदस्य ब्रह्मपन्थेमध्ये स्थिता । इडापिङ्गले तस्या वामदक्षिणतः स्थिते इत्यर्थः । तयोः प्रचरत: प्राणपवनस्य संज्ञाविशेषमाह-इडापिङ्गलयोरिति । वामनाडयनुसारी प्राणपवनश्चन्द्रः, दक्षिणनाडयनुसारी तु भास्कर इत्युच्यते । कथं प्राणपवनस्य चन्द्रत्वं भास्करत्वं चेत्यत आह-कालगतेर्हेतू इति । यथा चन्द्रसूर्यो कालज्ञानकारणे तथा तावपीत्यर्थः ॥ १५१-१५५ ॥
(क०) सर्वगा तु वारुणीति । अत्र वारुणीति नाडी तु सर्वगा सकलशरीरव्यापिनी ॥ लोकरञ्जनं भवभञ्जनमिति द्वे गेयविशेषणे ॥ -१५५-१६७- ॥
(सु०) सरस्वत्यादीनां नाडीनामवस्थानमाह–सरस्वतीति । सरस्वती सुषुम्णाया दक्षिणपार्श्वे तिष्ठति, कुहूर्वामपार्श्व ; गांधारीडायाः पश्चात्प्रदेशे, हस्तिजिहिका पूर्वप्रदेशे ; पूषा पिङ्गलायाः पृष्ठप्रदेशे, यशस्विनी पूर्वप्रदेशे; विश्वोदरा कुहूहस्तिजिह्वयोमध्ये ; वारुणी कुहूयशस्विन्योर्मध्ये । पयस्विनी पूषासरस्वत्योर्मध्यमधिशेते । 'अधिशीङ्स्थाऽऽसां कर्म' इति कर्मत्वम् । शङ्खिनी गांधारिकासरस्वत्योर्मध्ये तिष्ठति ; अलम्बुसा पूर्वोक्तस्य कंदस्य मध्ये । एतासां नाडीनां प्रमाणं कथयति-तत्रेति । इडा सव्यनासापर्यन्तम् ; पिङ्गला दक्षिण
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-त्पत्तिः २]
प्रथमः स्वग्गताध्यायः सरस्वत्यूर्ध्वमाजिढं गांधार्या पृष्ठतः स्थिता । आवामनेत्रमासव्यपादाङ्गुष्ठं तु संस्थिता ॥ १६० ॥ हस्तिजिह्वा सर्वगा तु वारुण्यथ यशस्विनी ।
आ ऽङ्गुष्ठादक्षिणाङघ्रिस्था देहे विश्वोदरा ऽखिले ॥ १६१ ॥ शङ्खिनी सव्यकर्णान्तं पूपा त्वा याम्यनेत्रतः । पयस्विनी तु वितता दक्षिणश्रवणावधि ॥ १६२ ॥ अलम्बुसा पायुमूलमवष्टभ्य व्यवस्थिता । एवंविधे तु देहे ऽस्मिन्मलसंचयसंटते ॥ १६३ ॥ प्रसाधयन्ति धीमन्तो भुक्तिं मुक्तिमुपायतः । तत्र स्यात्सगुणाद्धयानाद्भुक्तिर्मुक्तिस्तु निर्गुणात् ॥ १६४ ॥ ध्यानमेकाग्रचित्तैकसाध्यं न सुकरं नृणाम् । तस्मादत्र सुखोपायं श्रीमन्नादमनाहतम् ॥ १६५ ॥
गुरूपदिष्टमार्गेण मुनयः समुपासते ।। नासापर्यन्तम् ; कुहूर्मेहनपर्यन्तम् ; सरस्वत्यूर्ध्व जिह्वापर्यन्तम् ; गांधारी पृष्ठप्रदेशपर्यन्तम् ; हस्तिजिह्वा वामनेत्रादारभ्य वामपादाङ्गुष्ठपर्यन्तम् ; वारुणी सर्वप्रदेशे । यशस्विन्यपृष्ठादारभ्य दक्षिणाङ्घौ तिष्ठति ; अखिले देहे विश्वोदरा । शलिनी सव्यकर्णपर्यन्तम् । पूषा ऽऽ दक्षिणनेत्रतः । पयस्विनी दक्षिणकर्णपर्यन्तम् । अलम्बुसा पायुमूलं गुदमूलमवष्टभ्य स्थिता । पिण्डनिरूपणमुपसंहरति-एवंविध इति । भुक्तिमुक्तिश्च देह उपायात्सिध्यत इत्युक्तम् ; तयोरुपायं कथयति-तत्रेति । पूर्व सगुणोपासनोक्तिस्तु निर्गुणोपासनां प्रति तस्या हेतुत्वं सूचयितुम् । तथोक्तं वेदान्तकल्पतरौ--
'निर्विशेषं परं ब्रह्म साक्षात्कर्तुमनीश्वराः ।
ये मन्दास्ते ऽनुकम्प्यन्ते सविशेषनिरूपणैः ॥' इति । सगुणनिर्गुणब्रह्मोपासनास्वसमर्था नादमुपासत इत्याह-ध्यानमिति । न सुकरम् ,
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६२
संगीतरत्नाकरः
सो sपि रक्तिविहीनत्वान्न मनोरञ्जको नृणाम् ॥ १६६ ॥ तस्मादाहतनादस्य श्रुत्यादिद्वारतो ऽखिलम् । गेयं वितन्वतो लोकरञ्जनं भवभञ्जनम् ॥ १६७ ॥ उत्पत्तिमभिधास्यामस्तथा श्रुत्यादिहेतुताम् ।
अथ तृतीयं नादस्थानश्रुतिस्वरजातिकुलदैवतर्षिच्छन्दोरस प्रकरणम्
चैतन्यं सर्वभूतानां विवृत्तं जगदात्मना । नादब्रह्म तदानन्दमद्वितीयमुपास्महे ॥ १ ॥
[नाद००
सुखेन कर्तुमशक्यम् । अनाहतो ऽपि नादो न जनमनोहर इत्याह-- सोऽपीति । पूर्वप्रकृतमुपसंहरन्नुत्तरत्राभिधेयं प्रतिजानीते - तस्मादिति । श्रुत्यादीत्यादिशब्देन स्वरग्राममूर्च्छनातानकूटतानादयो गृह्यन्ते ; तद्द्वारतो ऽखिलं गेयं गानक्रियायोग्यं जात्यादि वितन्वतो विस्तारयत माहतनादस्योत्पत्तिं श्रुत्यादिहेतुत्वं च वक्ष्याम इति संबन्ध: । लोकरञ्जनं भवभञ्जनमिति गेयस्य विशेषणद्वयं भुक्तिमुक्तिप्रदत्वं सूचयति ; अन्यथा सगुणनिर्गुणब्रह्मोपासनाऽनुकल्पत्वं नादोपासनाया नावकल्पेतेत्यर्थः ॥ - १५५ - १६७॥
इति प्रथमे स्वरगताध्याये द्वितीयं पिण्डोत्पत्ति प्रकरणम् ॥ २ ॥
(क०) शरीरं निरूप्य शारीरनादादिप्रकरणमारभमाणः श्रुत्यादिप्रपञ्चनिदानस्य नादस्य चैतन्यादिसाधर्म्येण ब्रह्मत्वं रूपयित्वा तस्य परदेवतात्वमनुसंधायोपास्ते--- चैतन्यमिति । सर्वभूतानां सकलप्राणिनां चैतन्यम् ।
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रसा: ३]
प्रथमः स्वरगताध्यायः नादोपासनया देवा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।
भवन्त्युपासिता नूनं यस्मादेते तदात्मकाः ॥ २॥ नादो हि स्फोटात्मना समस्तपदार्थप्रकाशकत्वसाधम्र्येण चैतन्यारोपविषयत्वाचैतन्यम् । जगदात्मना परिदृश्यमानचराचरप्रपञ्चाकारेण विवृत्तमतत्त्वतो ऽन्यथाभूतम् , नादे श्रुतिवर्णादिसकलशब्दप्रपञ्चप्रतिभाससाधर्म्यण नामरूपोल्लिखितस्य जगतो ऽप्यधिष्ठानत्वारोपात् । आनन्दमभिव्यञ्जके ऽस्मिन्नभिव्यङ्गयानन्दरूपारोपात् । अद्वितीयं स्वकार्यस्वरादिप्रपञ्चकारणत्वरूपेण ब्रह्मसाधर्येणैकत्वारोपात् । तदिति सर्वलोकप्रसिद्धम् । नादब्रह्म, नाद एव ब्रह्मेत्यभेदप्राधान्य आरोपविषयभूतनादानपहवे चैतन्याद्यवयवयुक्तत्वेन समस्तवस्तुविषयं सावयवरूपकम् । उपास्मह इति ‘अस्मदो द्वयोश्च' इति बहुवचनोपपत्तिः । अयमभिसंधिः-परावावपर्यायस्य ब्रह्मशक्तेर्नादस्य ब्रह्मणो ऽत्यन्तप्रत्यासन्नत्वात्तदुपासनायां कृतायां ब्रह्मप्राप्तिर्मणिप्रभाप्रवृत्तस्य मणिलाभवद्भवेदिति । तथा चोक्तम्
'अतो गीतप्रपञ्चस्य श्रुत्यादेस्तत्त्वदर्शनात् । अपि स्यात्सच्चिदानन्दरूपिणः परमात्मनः ।। प्राप्तिः प्रभाप्रवृत्तस्य मणिलाभो यथा भवेत् ।
प्रत्यासन्नतया ऽत्यन्तम्' इति, वीणावादन-' इत्यादि च । ननूपासनस्य सगुणेषु प्रसिद्धदेवताऽन्तरेषु सत्स्वपि किमचेतनस्य नादस्य ब्रह्मत्वरूपेणोपासनमित्यत आह-नादोपासनयेति । तत्रोपपत्तिमाह-यस्मादेते तदात्मका इति । अत्र तदिति नादब्रह्म परामृश्यते । तस्मादभिन्ना यतो ऽत इत्यर्थः ॥ १, २ ॥
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६४
संगीतरत्नाकरः
[नादस्थानआत्मा विवक्षमाणो ऽयं मनः प्रेरयते मनः। देहस्थं वह्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम् ॥३॥ ब्रह्मग्रन्थिस्थितः सो ऽथ क्रमा पथे चरन् । नाभिहत्कण्ठमूर्धास्येष्वाविर्भावयति ध्वनिम् ॥ ४॥ नादो ऽतिसूक्ष्मः सूक्ष्मश्च पुष्टो ऽपुष्टश्च कृत्रिमः । इति पञ्चाभिधा धत्ते पञ्चस्थानस्थितः क्रमात् ॥ ५ ॥ नकारं प्राणनामानं दकारमनलं विदुः । जातः प्राणाग्निसंयोगात्तेन नादो ऽभिधीयते ॥६॥
(सु०) एवं श्रुत्यादिकारणं पिण्डं निरूप्य श्रुतिस्वरादि निरूपयितुमिच्छुः प्रकृतानुगुणं मङ्गलमाचरति-चैतन्यमिति । नाद एव ब्रह्म नादब्रह्म, तदुपास्महे । सर्वभूतानां चैतन्यं चैतन्यफलं वा, नादाभावे चेतनानां पाषाणादिभिरचेतनैः को विशेष: स्यात् ? ब्रह्मपक्षे सर्वभूतानां चैतन्यं ज्ञानम् , 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' इति श्रुतेः । जगदात्मना विवृत्तम् , जगति प्रसिद्धत्वान्नादस्य जगद्रूपेण विवृत्ततोच्यते । ब्रह्मपक्षे ऽप्रच्युतप्राच्यावस्थस्यासन्नानाकारावभासो विवर्तः । एवं ब्रह्मैव जगदाकारेण विवर्तत इत्यर्थः। आनन्दं सुखसाधनम् । पक्षे सुखं सुखरूपम् , 'आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्' इति श्रुतेः । अद्वितीयमनुपमं लोकोत्तरम् | पक्षे सजातीयविजातीयस्वगतभेदशून्यम् । अत्र लिष्टरूपकमलंकारः ॥ किमर्थं नाद उपास्यत इत्यत आह–नादोपासनयेति । ब्रह्मादयो देवा नादोपासनयोपासिता भवन्तीत्यत्र हेतुर्यस्मादेते तदात्मका इति । नादात्मका इत्यर्थः ॥ १, २ ॥
(क०) तस्य नादस्य नित्यत्वमङ्गीकृत्य तदभिव्यक्तिक्रममाहआत्मा विवक्षमाण इत्यादिना । विवक्षमाण इति ब्रुव इच्छायां सनि तस्यार्धधातुकत्वाद् ब्रुवो वच्यादेशे 'पूर्ववत्सनः' इति निमित्तातिदेशत्वादात्मनेपदित्वे रूपम् ॥ नाभ्यादिस्थानेवाविर्भूतस्य नादस्य क्रमेण
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-०रसा: ३] प्रथमः स्वरगताध्यायः व्यपदेशभेदमाहे-नादो ऽतिसूक्ष्म इति ॥ नादशब्दस्य योगतो निरुक्तिमाह-नकारमिति । प्राणनामानं प्राण इति नाम यस्यासौ प्राणनामा, तम् । एतेन मन्त्रशास्त्रानुसारतो बीजाक्षराणां तत्तद्देवताताद्रप्यापत्त्या ऽत्र नकारदकारौ प्राणाग्नी इत्युक्तं भवति । विदुः, मान्त्रिका इति शेषः । जात उदितः, अभिव्यक्त इति यावत् । उक्तपञ्चविधनादस्याप्यविशेषेण गीतोपयोगित्वे प्राप्ते, हृत्कण्ठमूर्धस्थानेष्वेव श्रुतिपदनाडीसद्भावात्तत्रत्यस्यैव नादत्रयस्य गीतोपयोगित्वम् ॥ ३-६ ॥
(सु०) नादोत्पत्तिप्रकारमाह-आत्मेति । वक्तुमिच्छन्विवक्षमाण आत्मा मनो ऽन्तःकरणं प्रेरयते । तदन्त:करणमात्मप्रेरितं सद्देहस्थमुदर्यमग्निमाहन्ति ताडयति । स वह्निर्मारुतं वायु प्रेरयति ॥ स पूर्व ब्रह्मप्रन्थिस्थितस्तेन वह्निना प्रेरितः सन्नूर्ध्वमार्गे गच्छन्नाघातेन नाभिहृदयकण्ठमूर्धमुखेषु ध्वनि प्रकटयति । ऊर्ध्वपथ इति प्रकृतगानोपयोगार्थम्, अधो ऽप्यनाहतस्य नादस्योत्पत्तेः; तदुक्तम्
'कंदस्थानसमुत्थो ऽपि समीर: संचरन्नधः ।
ऊर्ध्वं च कुरुते सर्वान्नादान्मूर्धनि तूद्रतान् ।' इति ॥ पञ्चविधस्य नादस्य संज्ञाः कथयति-नाद इति । सूक्ष्मो ऽतिसूक्ष्मः पुष्टो ऽपुष्ट: कृत्रिम इत्ययमेव क्रमो ज्ञातव्यः । ग्रन्थान्तरे तु पुष्टापुष्टयोळक्तो ऽव्यक्त इति नामनी । तथा चोक्तं मतङ्गेन
'सूक्ष्मश्चैवातिसूक्ष्मश्च व्यक्तो ऽव्यक्तश्च कृत्रिमः । सूक्ष्मनादो गुहावासी हृदये चातिसूक्ष्मकः ॥ कण्ठमध्यस्थितो व्यक्तश्चाव्यक्तस्तालुदेशगः ।
कृत्रिमो मुखदेशे तु ज्ञेयः पञ्चविधो बुधैः ॥' इति ॥ नादशब्दव्युत्पत्तिं कथयति-नकारमिति । नामलिङ्गानुशासनविदो नकारं प्राणनामानं विदुर्दकारं चाग्निम् । नदाभ्यां जात इत्यण्प्रत्यये जाते,
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६६
संगीतरत्नाकरः
व्यवहारे त्वसौ त्रेधा हृदि मन्द्रो ऽभिधीयते । कण्ठे मध्य मूर्ध्नि तारो द्विगुणश्चोत्तरोत्तरः ॥ ७ ॥
[० स्थानश्रुति
आदिवृद्धौ च नाद इति रूपं सिध्यति । मतङ्गेन तु नद्यत इति नाद इति व्युत्पत्तिर्दर्शिता । तथा चोक्तम्
' नकारं प्राण इत्याहुर्दकारश्चानलो मतः । नादस्य हि पदार्थोऽयं समीचीनो मयोदितः । नादो ऽयं नदतेर्धातोः स च पञ्चविधो भवेत् ॥' इति ॥ ३-६ ॥
(क०) नामान्तराणि स्वरूपभेदं चाह - - व्यवहारे त्विति । व्यवहियत इति व्यवहारो गीतम्, तस्मिन् । तुः पक्षं व्यावर्तयति । नाभ्यास्यस्थानयोर्नैवमित्यर्थः । द्विगुणश्चोत्तरोत्तर इति । उत्तरोत्तरः, मन्द्रादुत्तरो मध्यो मध्यादुत्तरस्तार इति यावत् । द्विगुणः, गुण उच्चारणप्रयत्नः, गुणस्येति द्विगुणः । अयमर्थः - मन्द्रस्थानस्थितात्षड्जादिव्यपदेशवतो नादान्मध्यस्थानस्थितः स एव षड्जादिव्यपदेशवांस्ततोऽपि द्विगुणप्रयत्नसाध्यत्वाद् द्विगुण इति । पूर्वस्थानस्थितात्क्रमेणारोहे सत्यष्टमः स्वर इति यावत् । अत्रासाविति नादसामान्य निर्देशे ऽपि व्यवहारानुपयोगात्स्वररूपनादाद् द्वैगुण्यं विवक्षितम् । श्रुतिरूपनादविवक्षायां तु त्रयोविंशो द्विगुणः ॥ ७ ॥
(सु० ) त्रिविधस्य नादस्य व्यवहार योग्यत्वं कथयति — व्यवहारे त्विति । व्यवहारे गानव्यवहारे, घटपटाद्यभिधानव्यवहारे तु मुखोत्पन्नस्यापि ध्वनेरुपयोगित्वात् । हृदि य उत्पद्यते नादः स मन्द्र इति कथ्यते ; यस्तु कण्ठ उत्पद्यते स मध्यः ; यस्तु मूर्ध्निस तारः । एषां मानं कथयति --- द्विगुण इति । यावान्मन्द्रस्ततो द्विगुणो मध्यः, यावान्मध्यस्ततो द्विगुणस्तारः । तदुक्तं संगीतसमयसारे' त्रीणि स्थानानि हृत्कण्ठशिरांसीति समासतः । एकैकमपि तेषु स्याद् द्वाविंशतिविधायुतम् ॥
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-०रसा: ३] प्रथमः स्वरगताध्यायः
तस्य द्वाविंशतिर्भेदाः श्रवणाच्छ्रतयो मताः । हृयूद्धनाडीसंलग्ना नाडयो द्वाविंशतिर्मताः ॥ ८ ॥ तिरश्च्यस्तासु तावत्यः श्रुतयो मारुताहतेः । उच्चोच्चतरतायुक्ताः प्रभवन्त्युत्तरोत्तरम् ॥ ९ ॥ एवं कण्ठे तथा शीर्षे श्रुतिद्वाविंशतिर्मता।
द्वाविंशतिविधो मन्द्रो ध्वनिः संजायते हृदि । यथोत्तरमसौ नादो वीणायामधरोत्तरम् ॥ स एव द्विगुणो मध्यः कण्ठस्थाने यथाक्रमम् । स एव मस्तके तारः स्यान्मध्याद् द्विगुणः क्रमात् ॥ इति स्वरगता ज्ञेयाः श्रुतयः श्रुतिवेदिभिः ।
अन्तरस्वरवर्तिन्यो ह्यन्तरश्रुतयो मताः ॥' इति ॥ ७॥
(क०) स्थानान्युक्त्वा क्रमप्राप्ताः श्रुती दभेदत्वेनाह-तस्येति । तस्यैकैकस्थानाविर्भूतस्य नादस्य । सामान्यविवक्षयैकत्वम् । द्वाविंशतिभेदा अभिव्यञ्जकनाडीभेदवशात् । श्रवणाच्छ्रवणयोग्यत्वात् । श्रुतयः, श्रूयन्त इति व्युत्पत्त्या । एतदुक्तं भवति-यद्यपि श्रवणयोग्यत्वमनुरणनात्मनः स्वरतानादिरूपेण दीर्घदीर्घस्यापि ध्वनेर्विद्यते, तथा ऽप्यत्र मारुताद्याहत्यनन्तरोत्पन्नप्रथमक्षणवर्तिश्रवणमात्रयोग्यध्वनेरेव श्रुतित्वमिति । तत्र मन्द्रस्थाने श्रुतिभेदजनकनाडीनां संनिवेशमाह-हृदीति । ऊर्ध्वनाड्याविडापिङ्गले, तयोः संलग्ना नाड्यः सच्छिद्रा नाडिकाः, तासु नाडीपूत्तरोत्तरमुच्चोच्चतरतायुक्ताः । उच्चा चोच्चतरा चोच्चोच्चतरे, तयोर्भावावुच्चोच्चतरते, ताभ्यां युक्ताः श्रुतयः प्रभवन्ति । अयमर्थः-मन्द्रस्थाने प्रथमनाड्युत्पन्ना श्रुतिरतिनीचा । तदपेक्षया द्वितीयातृतीययोः श्रुत्योरुच्चोच्चतरते । तत्र द्वितीयाया
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६८
संगीतरत्नाकरः
[ श्रुतिस्वरउच्चायास्तृतीया किंचिदुच्चेति तरप्प्रयोगः । एवं तृतीयाचतुर्थ्यादिषु श्रुतिषु द्वयोर्द्वयोर्द्रष्टव्यमिति ॥ एवं प्रथमस्थानोक्तमर्थमुत्तरोत्तरस्थानद्वये ऽप्यतिदिशति-एवं कण्ठ इति ।। ८-९- ॥
(सु०) तस्य नादस्य भेदान्कथयति-तस्येति । तस्य नादस्य द्वाविंशतिसंख्याका भेदा भवन्ति । ते च श्रुतिसंज्ञयोच्यन्ते । तत्र व्युत्पत्तिं कथयति-श्रवणादिति । श्रूयन्त इति श्रुतय इत्यर्थः । तथा चोक्तं मतङ्गेन
'श्रवणार्थस्य धातो: क्तिन्प्रत्यये च सुसंश्रिते ।
श्रुतिशब्दः प्रसाध्यो ऽयं शब्दज्ञैः कर्मसाधनः ॥' इति । तत्र श्रुतेरेकत्वानेकत्वविषये महती विप्रतिपत्तिः । देहाकाशपवनसंयोगात् पुरुषप्रयत्नप्रेरितो ध्वनि मेरूद्धमाकाशदेशमाक्रामन्धूमवत्सोपानपदावस्थानं पवनेच्छया ऽनेकधा ऽऽरोहन्नन्तर्भूतपूरणप्रत्ययार्थतया चतुःश्रुतित्वादिभेदभिन्नो ऽवभासत इति मतङ्गः । विश्वावसुस्तु द्वैविध्यं श्रुतेरुक्तवान् । तथा चाह
'श्रवणेन्द्रियग्राह्यत्वाद्धनिरेव श्रुतिर्भवेत् ।।
सा चैका द्विविधा ज्ञेया स्वरान्तरविभागतः ॥ नियतश्रुतिसंस्थातो गीयन्ते सप्त गीतिषु । तस्मात्स्वरगता ज्ञेयाः श्रुतयः श्रुतिवेदिभिः ॥
अन्तरस्वरवर्तिन्यो ह्यन्तर श्रुतयो मताः ।' इति । केचित्स्थानत्रययोगाच्छ्रुतीनां विध्यं प्रतिपद्यन्ते । केचिद् द्वाविंशति श्रुतीराहुः । केचित्षट्षष्टिम् । अन्य आनन्त्यम् । तथा चाह कोहल:
'द्वाविंशति केचिदुदाहरन्ति श्रुतीः श्रुतिज्ञानविचारदक्षाः ।
षट्षष्टिभिन्नाः खलु केचिदासामानन्त्यमन्ये प्रतिपादयन्ति ॥' इति । तत्र मन्दतीव्रतीव्रतरादितारतम्याख्यविरुद्धधर्मसंसर्गस्य विद्यमानत्वाखूदस्तावत्सिद्धः । तदुक्तम्-'अयमेव हि भेदो भेदहेतुर्वा यद्विरुद्धधर्माध्यासः कारणभेदश्च' इति । मन्द्रमध्यतारस्थानेष्वपि ता एवैता: श्रुतयस्त एवामी स्वरा इति प्रत्यभिज्ञानाद्भेदस्यासिद्धिः, तस्माद् द्वाविंशतिश्रुतिपक्ष एव समीचीन
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-०रसाः ३] प्रथमः स्वरगताध्यायः
व्यक्तये कुर्महे तासां वीणाद्वंद्वे निदर्शनम् ॥ १० ॥ द्वे वीणे सदृशौ कार्ये यथा नादः समो भवेत् । तयोविंशतिस्तन्त्र्यः प्रत्येकं तासु चादिमा ॥ ११ ॥ कार्या मन्द्रतमध्वाना द्वितीयोच्चध्वनिर्मनाक् ।
स्यान्निरन्तरता श्रुत्योर्मध्ये ध्वन्यन्तराश्रुतेः ॥ १२ ॥ इति मत्वा द्वाविंशतिरित्युक्तवान् । संख्यानियमे कारणमाह---हृदीति । हृदि, ऊर्ध्वनाडी सुषुम्णा, तत्संलग्नाः, तिरश्चयस्तियक्थिता द्वाविंशतिर्नाड्यः । तासु मारुतसंबन्धात्तावन्त एव नादा उत्पद्यन्ते । तेषु विरुद्धधर्मसंसर्ग दर्शयतिउच्चेति । उत्तरोत्तरमुच्चोच्चतरतायुक्ताः । प्रथमो नादो हीनतमः, ततो ऽनन्तरमुच्चः, ततो ऽनन्तरमुच्चतरः, ततो ऽनन्तरमुच्चतम इत्यर्थः । हृदय उक्तं श्रुत्युत्पत्तिप्रकारं कण्ठशीर्षयोरतिदिशति—एवमिति ॥ ८-९- ॥
(क०) शरीरे प्रतिस्थानमुक्तसंख्याकनाडीसंनिवेशस्य तत्र श्रुत्युत्पादस्य च परोक्षत्वात्तत्तत्सद्भावे संदेहः स्यादिति तन्निरासार्थ प्रत्यक्षतः संवादयितुं प्रतिज्ञाय निर्दिशति-व्यक्तय इत्यादिना । सदृशौ सदृशाकारे । यथा नादः समो भवेदिति । यथा सदृशाकारयोः कृतयोर्नादः समो भवेत्तथा सदृशौ कार्ये । नादसाम्ये लाघवादिविशिष्टाकारसाम्यं निमित्तमित्यर्थः । तासु चेति । वीणयोः प्रत्येकं द्वाविंशतौ तन्त्रीषु । चकारो द्वितीयवीणागततन्त्रीसमुच्चयार्थः । आदिमा प्रथमा तन्त्रीः । कञपेक्षया संनिहितेत्यर्थः । मन्द्रतमध्वाना ऽतिमन्द्रस्वना ; उत्तरोत्तराऽपेक्षया पूर्वपूर्वस्या मन्द्रत्वे संभवत्यपि सर्वापेक्षयेयं मन्द्रेति तमप्प्रयोगः । अतिमन्द्रस्वनत्वं च तन्व्या अतिशिथिलीकरणेन भवति । ततो ऽपि शिथिलीकरणे यथा ऽनुरणनध्वन्यसंभवस्तथा कार्येत्यर्थः । द्वितीया तन्त्रीर्मनागुच्चध्वनिः कार्या । मनागुच्चध्वनित्वस्यैव व्यवस्थापकम्-स्यान्निरन्तरतेति । श्रुत्योः पूर्वोत्तर
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___ संगीतरत्नाकरः [.श्रुतिस्वरअधराधरतीव्रास्तास्तज्जो नादः श्रुतिर्मतः । वीणाद्वये स्वराः स्थाप्यास्तत्र षड्जश्चतुःश्रुतिः ॥ १३ ॥
तन्व्युत्पन्नयोर्मध्ये ध्वन्यन्तराश्रुतेर्ध्वन्यन्तरस्य पूर्वोत्तरश्रुतिविलक्षणस्य पूर्वश्रुतेः किंचिदुच्चस्योत्तरश्रुतेः किंचिन्नीचस्य चान्यध्वनेरश्रुतिरश्रवणम् । अश्रुतेरिति हेतौ पञ्चमी । मध्यगतध्वन्यन्तराश्रवणं निमित्तीकृत्य श्रुत्योर्निरन्तरता यथा स्यात्तथा तन्त्रीः किंचिद् दृढीकरणेन मनागुच्चध्वनिः कार्येत्यर्थः । अत्र नैरन्तयं ध्वन्योरेवोक्तं न तु तन्त्र्योर्दण्डादिप्रदेशस्थयोः । अतस्तन्त्र्योर्दण्डादिषु मध्ये ऽवकाशो दृश्यत इति तत्र ध्वन्यन्तरसंभवो न शङ्कनीयः । द्वितीयेत्युपलक्षणम् । तेन तृतीयाऽऽदयो ऽपि द्वितीयाऽऽद्यपेक्षया किंचित्किंचिद् दृढीकरणेन मनागुच्चध्वनयः कार्या इत्यर्थः । एवं कृते तास्तन्त्र्यो ऽधराधरतीवा उच्चोच्चध्वनयो भवन्ति । यथा शरीरे श्रुतय उत्तरोत्तरोच्चा उत्पद्यन्ते तथा वीणायामधराधरोच्चा उत्पद्यन्त इति बोद्धव्यम् । तज्जः, तासु तन्त्रीप्वाहत्योत्पन्नो नादः श्रुतित्वेन मतः । अत्र श्रुतिशब्दनिरुक्तिपूर्वकं श्रुत्येकत्वादिविषयविकल्पे मतङ्गो मतभेदानदर्शयत् । तद्यथा
'श्रवणार्थस्य धातोः क्तिन्प्रत्यये च सुसंश्रिते ।
श्रुतिशब्दः प्रसाध्यो ऽयं शब्दज्ञैः कर्मसाधनः ॥' श्रूयत इति श्रुतिः। सा चैका ऽनेका वा । एकैव श्रुतिरिति । तद्यथा-तत्रादौ तावदेहाकाशपवनसंयोगात्पुरुषप्रयत्नप्रेरितो ध्वनि भेरूद्धमाकाशदेशमाक्रा - मन्धूमवत्सोपानपदक्रमेण पवनेच्छया ऽनेकधा ऽऽरोहन्नन्तर्भूतपूरणप्रत्ययार्थतया चतुःश्रुत्यादिभेदभिन्नः प्रतिभासत इति मामकीनं मतम् । अन्ये तु पुनर्द्विप्रकारां श्रुतिं मन्यन्ते । कथम् ? स्वरान्तरविभागात् । तथा चाह विश्वावसुः
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-०रसाः ३] प्रथमः स्वरगताध्यायः
स्थाप्यस्तन्त्र्यां तुरीयायामृषभस्त्रिश्रुतिस्ततः । पञ्चमीतस्तृतीयायां गांधारो द्विश्रुतिस्ततः ॥ १४ ॥ 'श्रवणेन्द्रियग्राह्यत्वाद् ध्वनिरेव श्रुतिर्भवेत् । सा चैका द्विविधा ज्ञेया स्वरान्तरविभागतः ॥ नियतश्रुतिसंस्थानाद् गीयन्ते सप्त गीतिषु ।
तस्मात्स्वरगता ज्ञेयाः श्रुतयः श्रुतिवेदिभिः ।।' शुद्धस्वररूपा इत्यर्थः ।
'अन्तरस्वरवर्तिन्यो ह्यन्तरश्रुतयो मताः ।' विकृतस्वररूपा इत्यर्थः । प्रयोगबहुलत्वापेक्षया श्रुतय इति बहुवचननिर्देशः ।
‘एतासामपि वैस्वर्य क्रियाग्रामविभागतः ॥' इति । केचिस्थानत्रययोगात्रिविधां श्रुतिं मन्वते । अन्ये विन्द्रियवैगुण्यात्रिविधां श्रुतिं मन्यन्ते । इन्द्रियवैगुण्यं च त्रिविधं सहजं दोषजमभिधातजं चेति । अत्रेन्द्रियं मनः । तत्र सत्त्वगुणयुक्तं सहजम् , रजस्तमोयुक्तं दोषजम् , अम्लादिरसोपहतमभिघातजमित्यर्थः । अपरे तु वातपित्तकफसंनिपातभेदभिन्नां चतुर्विधां श्रुतिं प्रतिपेदिरे । तथा चाह तुम्बुरु:
'उच्चैस्तरो ध्वनी रूक्षो विज्ञेयो वातजो बुधैः । गम्भीरो घनलीनस्तु ज्ञेयो ऽसौ पित्तजो ध्वनिः ॥ स्निग्धश्च सुकुमारश्च मधुरः कफजो ध्वनिः ।
त्रयाणां गुणसंयुक्तो विज्ञेयः संनिपातजः ॥' इति । एते तु शब्दभेदत्वेन वक्ष्यन्ते । अपरे तु वेण्वादयो मुनयो नवविधां श्रुतिं मन्यन्ते । तथा हि
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७२
संगीतरत्नाकरः
[ श्रुतिस्वरअष्टमीतो द्वितीयायां मध्यमो ऽथ चतुःश्रुतिः । दशमीतश्चतु• स्यात्पञ्चमो ऽथ चतुःश्रुतिः ॥ १५ ॥ चतुर्दशीतस्तुर्यायां धैवतस्त्रिश्रुतिस्ततः । 'द्विश्रुतिस्त्रिश्रुतिश्चैव चतुःश्रुतिक एव च ।
स्वरप्रयोगः कर्तव्यो वंशच्छिद्रगतो बुधैः ॥' इति । भरतेनाप्युक्तम्
'द्विकत्रिकचतुष्कास्तु ज्ञेया वंशगताः स्वराः । कम्पमानार्धमुक्ताश्च व्यक्तमुक्ताङ्गुलिस्वराः ॥
इति तावन्मया प्रोक्ताः समीच्यः श्रुतयो नव ।' इति । एतानि षण्मतानि स्वरश्रुत्योरभेदमङ्गीकृत्य प्रवर्तितानीति मन्तव्यम् । तानि त्वभिव्यङ्गयत्वाभिव्यञ्जकत्वाभ्यां साक्षाद्भिन्नरूपयोः स्वरश्रुत्योर्भेदापहवान्न समीचीनानि । अत्र केचिन्मीमांसामांसलितधियो धीरा द्वाविंशति श्रुतीर्मन्यन्ते । केचित्पुनः षट्षष्टिभेदभिन्नाः श्रुतय इति वदन्ति । अन्ये पुनरानन्त्यं वर्णयन्ति श्रुतीनाम् । तथा चाह कोहल:
'द्वाविंशति केचिदुदाहरन्ति श्रुतीः श्रुतिज्ञान विचारदक्षाः ।
षट्पष्टिभिन्नाः खलु केचिदासामानन्त्यमन्ये प्रतिपादयन्ति ॥' इति । तत्र,
'आनन्त्यं हि श्रुतीनां च सूचयन्ति विपश्चितः । यथा ध्वनिविशेषाणामानन्त्यं गगनोदरे ॥ उत्तालपवनोद्वैलजलराशिसमुद्भवाः । इयत्तां प्रतिपद्यन्ते न तरङ्गपरंपराः ॥'
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७३
-०रसा: ३] प्रथमः स्वरगताध्यायः
अष्टादश्यास्तृतीयायां निषादो द्विश्रुतिस्ततः ॥ १६ ॥ एकविंश्या द्वितीयायां वीणैका त्र ध्रुवा भवेत् ।
इति श्रुतीनामानन्त्यं दर्शित मिति । अस्मिन्पक्षे रणनानुरणनात्मकयोः श्रुतिस्वरयोर्भेदाङ्गीकारे ऽप्यनुरणनरूपाणामपि ध्वनीनां श्रुतित्वमभिधायोभयेषामपि वीचीतरङ्गन्यायेनोत्पद्यमानानां तेषामतिसूक्ष्मभागकल्पनया प्रतिध्वन्यवयवभूतध्वनिबहुत्वविवक्षया ऽऽनन्त्यं दर्शितम् । तदनुपपन्नमिति मन्तव्यम् । यद्यपि श्रवणयोग्यस्य ध्वनेरिन्द्रियग्राह्यत्वाक्षिप्तेन सावयवत्वेन त्रसरेणुवदवयवाः सन्ति, तथा ऽपि तेषां श्रोत्रप्रत्यक्षमूलेनानुमानेनार्थापत्त्या वा ऽन्यतरेणैव त्रसरेणुगतपरमाणुवद्गम्यतया श्रोत्रग्राह्यत्वाभावात् . स्वतः स्वराभिव्यक्तिहेतुत्वाभावेनाश्रुतित्वादिति । द्वाविंशतिश्रुतिपक्षे षट्पष्टिश्रुतिपक्षे च यद्यपि श्रुतिस्वरयोर्भेदाङ्गीकारः समान एव, तथा ऽपि द्वाविंशतिश्रुतिपक्षे द्वाविंशतिः श्रुतय एव मन्द्रस्थाः स्थानान्तरयोरपि द्विगुणद्विगुणत्वेनावय॑न्त इति । पट्पष्टिश्रुतिपक्षे तु तावत्य एव श्रुतयः स्थानत्रये ऽप्यनावृत्ताः परस्परं भिन्ना इति च वैषम्यम् । तत्रानावृत्तिपक्षस्वीकारे षड्जादीनामपि स्वराणामावृत्त्यभावान्मध्यतारस्थाश्चतुर्दश स्वराः पृथग्व्यपदेशभाजो भवेयुः । नैव तथा व्यवहारः । अत एव मतङ्गादिदर्शितेषु नवसु पक्षेषु द्वाविंशतिश्रुतिपक्षमेव रणनानुरणनात्मना साक्षादनुभूयमानश्रुतिस्वरभेदानपहवेनावृत्त्या सप्तानामेव स्वराणां गुणभिन्नानां व्यवहारोपयोगित्वसिद्धेश्च सारतमं निश्चित्य निःशङ्को वीणयोर्निदर्शितानां तासां द्वाविंशतिश्रुतीनां मध्ये चतुर्थीप्रभृतिषु शास्त्रानुसारेण पूर्वोत्तरावधिप्रदर्शनपूर्वकं षड्जादिसप्तस्वरस्थापनं विदधाति-चीणाद्वय इत्यादिना । चतुःश्रुतिरिति । स्वाभिव्यक्तिकरणत्वेन चतस्रः श्रुतयो यस्येति स तथोक्तः । एवं त्रिश्रुतिरित्यादौ द्रष्टव्यम् ॥ -१०-१६ ॥
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संगीतरत्नाकरः
[० श्रुति
(सु० ) दृष्टान्तेन विनैते नादविशेषा दुरवबोधाः, कण्ठे ऽपि दर्शयितुमशक्याः ; तस्माद्वीणाद्वंद्वे दृष्टान्तकथनं प्रतिजानीते - व्यक्तय इति । ताः प्राकटयेन दर्शयितुमित्यर्थः । तदुक्तं संगीतसमयसारे
७४
'ते तु द्वाविंशतिर्नादा न कण्ठेन परिस्फुटाः । शक्या दर्शयितुं तस्माद्वीणायां तन्निदर्शनम् || '
इति । प्रतिज्ञातमर्थ कथयति - द्वे वीणे इति । सदृशौ समाने । आकारसाम्यं नात्रोपयुज्यत इत्याह-यथा नादः समान एव भवतीति । तदुक्तम्
'द्वे वीणे तुलिते कार्ये समस्तावयवैस्तथा । एकवीणेव भासेते यथा द्वे अपि शृण्वताम् ॥
ܕ
इति । तयोः प्रत्येकं द्वाविंशतिस्तन्त्र्यः स्थापनीया: । तास्वाद्या मन्द्रतमध्वाना कर्तव्या । स मन्द्रतमो यस्माद्धीनो मन्द्रो ऽन्यो नादो रञ्जको न निष्पद्यते । द्वितीया तस्याः सकाशान्मना किंचिदुच्चध्वनिः । किंचिदित्यनेनैवोक्तमर्थं विशदयति – मध्ये ध्वन्यन्तराश्रुतेरिति । यथा मध्ये विसदृशं ध्वन्यन्तरं नोत्पद्यते तथा नैरन्तर्य विधेयम् । तदुक्तम्
'द्वितीया तु ततस्तीव्रध्वनिस्तन्त्रार्विधीयते । यथा यथा तयोर्मध्ये न तृतीया ध्वनिर्भवेत् ॥ '
इति । तास्तन्त्र्यो ऽधोऽधः स्थातस्तीवनादा भवन्ति । ताभ्यस्तन्त्रीभ्यो जाती नादः श्रुतिरित्युच्यते । श्रुतेः प्रमाणमुक्तं मतङ्गेन- ननु श्रुतेः किं मानम् ? उच्यते, पञ्चमस्तावद् ग्रामद्वयस्थो लोके प्रसिद्ध: । ' तस्योत्कर्षापकर्षाभ्यां मार्दवादायतत्वाद्वा यदन्तरं तत्प्रमाणा श्रुतिरिति । स्थानत्रये षट्षष्टिसंख्याकानां श्रुतीनां नामान्युक्तानि संगीतसमयसारे
'मन्द्रा चैवातिमन्द्रा च घोरा घोरतरा तथा ।
मण्डना च तथा सौम्या सुमनाः पुष्करा तथा ॥ शङ्खिनी चैव नीला च उत्पला चानुनासिका । घोषावती लीननादा आवर्तन्यपि चापरा ॥
1
तस्य श्रुत्युत्कर्षापकर्षाभ्यां.
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-०रसाः ३]
प्रथमः स्वरगताध्यायः चलवीणा द्वितीया तु तस्यां तन्त्रीस्तु सारयेत् ॥ १७ ॥ स्वोपान्त्यतन्त्रीमानेयास्तस्यां सप्त स्वरा बुधैः ।
रणदा चैव गम्भीरा दीर्घतारा च नादिनी । मन्द्रजा सुप्रसन्ना च निनदा मन्द्रसप्तके ॥ नादान्ता निष्कला गूढा सकला मधुरा गली । एकाक्षरा भृङ्गजाती रसगीती सुरक्षिका ॥ पूर्णा ऽलंकारिणी चैव वांशिका वैणिका तथा । त्रिस्थाना सुस्वरा सौम्या भाषाऽङ्गी वार्त्तिका तथा ॥ संपूर्णा च प्रसन्ना च सर्वव्यापनिका तथा । द्वाविंशतिः समाख्याताः श्रुतयो मध्यसप्तके || ईश्वरी चैव कौमारी सवराली तथा परा।। भोगवीर्या मनोरामा सुस्निग्धा च तथा परा || दिव्याङ्गा ऽथो सुललिता विद्रुमा च तथा परा । महार्का शङ्किनी राका लज्जा चैव तथा परा ॥ काली सूक्ष्मा ऽतिसूक्ष्मा च पुष्टा चैव सुपुष्टिका । विस्पष्टा काकली चैव कराली च तथा परा ।।
विस्फोटान्तर्भदिनी च इत्येतास्तारसप्तके ।' इति । श्रुतिभ्यः स्वरोत्पत्तिप्रकारं कथयति-वीणाद्वय इति । वीणाद्वये स्वराः स्थापनीयाः । तत्र चतस्रः श्रुतयो यस्य संबन्धिन्यः स चतुःश्रुतिः षड्जस्तुरी. यायां चतुझं तन्त्र्यां स्थाप्यः । त्रिश्रुतिर्ऋषभः सप्तम्याम् | द्विश्रुतिधारो नवम्याम् । चतुःश्रुतिमध्यमस्त्रयोदश्याम् । चतुःश्रुतिः पञ्चमः सप्तदश्याम् । त्रिश्रुतिधैवतो विंशतितम्याम् । द्विश्रुतिर्निषादो द्वाविंश्याम् ॥ -१०-१६॥
(क०) अत्र वीणयोः । एका ध्रुवा भवेदिति । अनयोश्चलत्वध्रुवत्वे सारणाऽन्वयव्यतिरेकानुविधायिनी । द्वितीयेति । ध्रुवत्वेन कल्पिताया अन्येत्यर्थः । अत्र तुशब्दो व्यपदेशान्तरपरिग्रहार्थः । श्रुतिगतेयत्तापरिज्ञानार्थ
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संगीतरत्नाकरः
[• श्रुतिध्रुववीणास्वरेभ्यो ऽस्यां चलायां ते स्वरास्तदा ॥ १८ ॥
एक त्यपकृष्टाः स्युरेवमन्या ऽपि सारणा' । चलवीणायां सारणां विदधाति-तस्यामिति । तन्त्रीस्तु सारयेदिति । तुशब्दो भिन्नक्रमः । तस्यां त्विति योजना ध्रुवातो वैषम्यप्रदर्शनार्था । सारयेत्सारणां कुर्यात् ; स्वस्वतन्त्रीस्थितान्स्वरांस्तत्तच्छृतिस्थानात्प्रच्याव्य श्रुत्यन्तराणि तन्त्रीः प्रापयदित्यर्थः ॥ सारयेदित्यनेनानियमेन श्रुत्यन्तरप्रापणे प्राप्ते, प्रथमादिसारणासु श्रुत्यन्तरनियममाह -स्वोपान्त्येति । तस्यां प्रथमायां सारणायाम् । ननु श्रुत्यन्तरप्राप्त्या स्वरान्तरत्वं किं न स्यादित्यत आह–ध्रुववीणाम्वरेभ्य इति । ते स्वरास्तदैकश्रुत्यपकृष्टाः स्युरित्यत्र त इति ध्रुवायामिव चतुःश्रुतिकत्वादिलक्षणानां षड्जादीनां परामर्शाच्छ्रत्यन्तरप्राप्त्या म्वरान्तरत्वप्राप्तावप्येकश्रुत्यपकर्षेण तेषामेव नीचत्वमात्रप्रतीतेविशेषलाभाभावात्स्वरान्तरत्वं न स्यादित्यर्थः । उक्तं प्रकारं सारणाऽन्तरे ऽप्यतिदिशति--एवमिति । पूर्वत्र सारणायामेकश्रुत्यपकृष्टान्स्वरान्प्रकृतिं कृत्वा तेषां ततो ऽप्युपान्त्यतन्त्र्यानयनमिहान्यशब्दार्थः ॥ -१७-१८- ॥
___ (सु०) अत्र वीणाद्वय एका चलवीणैका ध्रुववीणा । यस्यां स्वरा: स्वस्थानं परित्यज्यापकृष्यन्ते सा चलवीणा, यस्यां तु नापकृश्यन्ते सा ध्रुववीणा। श्रुतिनिश्चयार्थ चलवीणायां यत्कर्तव्यं तदाह-तस्यामिति । तस्यां चलवीणायां तन्त्रीः सारयेदपकषयेत् । प्रथमसारणाप्रकारमाह-स्वोपान्त्येति । तस्यां चलवीणायां सप्तापि स्वरा यत्र स्थापितास्ता अन्यास्तन्त्र्यः, तत्समीपवर्तिन्यो ऽपकृष्टा उपान्त्याः , तासु सप्त स्वरा आनेया: स्थापनीया: । एवं प्रथमसारणायां कृतायां किं स्यात् ? तदाह-ध्रुववीणेति । अस्यां चलायां चलवीणायां ते षड्जादय: स्वरा ध्रुववीणास्वरेभ्यस्तदपेक्षयैकश्रुत्या ऽपकृष्टाः स्युः । एवमेव
1.मन्याश्च सारणा:
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७७
-०रसा: ३]
प्रथमः स्वरगताध्यायः श्रुतिद्वयलयादस्यां चलवीणागतौ गनी ॥ १९ ॥ ध्रुववीणोपगतयो रिधयोविंशतः क्रमात् । तृतीयस्यां सारणायां विशतः सपयो रिधौ ॥ २० ॥ निगमेषु चतुझं तु विशन्ति समपाः क्रमात् ।
श्रुतिद्वाविंशतावेवं सारणानां चतुष्टयात् ।। २१ ॥ द्वितीयतृतीयचतुर्थ्यः सारणा: कर्तव्या इत्याह-एवमिति । प्रतिसारणं स्वराणां ततो ऽपि पुनरेकैकश्रुत्यपकर्षः कर्तव्यः ॥ -१७-१८- ॥
(क) द्वितीयादिपु सारणासु ज्ञेयं दर्शयति-श्रुतिद्वयेत्य दिना । अस्यां द्वितीयसारणायां चलवीणागतौ चलवीणायां म्वस्वोपान्त्यतन्त्रीस्थितौ गनी गांधारनिषादौ ध्रुववीणोपगतयोgववीणायां स्वम्वाधारश्रुतिस्थयो रिधयोऋषभधैवतयोः क्रमादृषभं गांधारो धैवते निषादश्च श्रुतिद्वयलयात्प्रातिस्विकश्रुतिद्वयपरित्यागाद्विशतो लीनौ भवतः । ध्वनिसाम्यादेकाकारतां भजत इति यावत् । एवं तृतीयचतुर्थसारणयोरपि स्वरान्तरप्रवेशो द्रष्टव्यः । ननु चतुर्थसारणायां मन्द्रषड्जस्य निषादे प्रवेश उच्यते ; तत्कथमुपपद्यते ? 'कार्या मन्द्रतमभ्वाना' इति षड्जादिमश्रुतेरारम्भात्तत्पूर्वध्वन्यसंभवेनोपान्त्यतन्त्र्यभावात । सत्यं ध्वन्यसंभवात्तन्व्यभावः ; तथा ऽपि मन्द्रम्वरसप्तकस्यावृत्तौ पड्जनिषादयोः संनिधानान्निषादाधारश्रुतेरुपान्त्यत्वं कल्पयित्वा प्रवेशः पर्यवस्यतीत्युपपन्नम् । अथ वा, स्थानान्तरावृत्तस्य तस्यैव षड्जम्य पूर्व निषादसंभवात्तस्मिन्प्रवेशो द्रष्टव्यः । सारणानां फलमाह-श्रुतिद्वाविंशताविति । यद्येवं स्यादेतदनावृत्तिमतानुसारेण सारणापञ्चकेनापि सप्तानामपि स्वराणामेकोनत्रिंशच्छ्रतीयत्तानिश्चयः कर्तु शक्यत इति । नैवम् । स्वरास्तावच्छ्रत्यनुरणनात्मकाः । ते च पड़जादयो
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संगीतरत्नाकरः
[.श्रुतिस्वरध्रुवाश्रुतिषु लीनायामियत्ता ज्ञायते स्फुटम् । अतः परं तु रक्तिघ्नं न कार्यमपकर्षणम् ॥ २२ ॥
श्रुतिभ्यः स्युः स्वराः षड्जर्षभगांधारमध्यमाः । लोके शास्त्रे च चतुर्थ्यादिश्रुतिषु मयूरादिस्वरसंवादित्वेनाभिव्यक्ताः सिद्धाः । तेषां तदुक्तरीत्योत्कर्षणेन पञ्चम्यादिषु श्रुतिषु प्रापणे कृते तादृशानुरणनाभावान्मन्द्रमध्ययोरुत्तरोत्तरस्थानाक्रमणे तारमन्द्रव्यवस्थितेरपायाच्च यतो रक्तिघातः, अतः सारणाऽन्तरं न कर्तव्यमित्यभिसंधायोक्तम्-~-अतः परं त्विति ॥ -१९-२२ ॥
(सु०) द्वितीयसारणायां कृतायां यत्सिध्यति तदाह-श्रुतिद्वयेति । अस्यां चलवीणायां द्वितीयसारणायां कृतायां श्रुतिद्वयस्य लयादपकर्षाच्चलवीणायां वर्तमानौ गांधारनिषादौ ध्रुववीणागतयोषभधैवतयोः प्रविशत: । क्रमादिति । गांधार ऋषभं निषादो धैवतमित्यर्थः । तयोः प्रविशत इति तत्समाननादौ भवत इत्यर्थः । तृतीयसारणायां सिद्धं कथयति-तृतीयस्यामिति । सपयो: षड्जपञ्चमयोऋषभधैवतौ विशतः । ऋषभः षड्ज प्रविशति, धैवत: पञ्चमं प्रविशति । चतुझं तु सारणायां गध्यषड्जो मन्द्रनिषादं प्रविशति, मध्यमो गांधारं प्रविशति, पञ्चमो मध्यमं प्रविशति । उपसंहरति-श्रुतिद्वाविंशताविति । एवं सारणाचतुष्टयाच्छ्रतिद्वाविंशतौ ध्रुवाश्रुतिषु लीनायां सत्यां द्वाविंशतिरेव श्रुतय इतीयतैतावत्संख्याकत्वं ज्ञायते । द्वितीयसारणायां श्रुतिचतुष्टयलाभः, तृतीयायां षटतिलाभः, चतुर्थी द्वादशश्रुतिलाभः। ननु पुनरप्यपकषणं कर्तव्यम् । नेत्याह-अतः परमिति । अत: परमपकर्षणं न कार्यम् । कुतः ? यतो रक्ति नमिति । अतः परमपकर्षणे कृते स्वराणां रञ्जकत्वाभावात्स्वरत्वमेव नश्यति, 'स्वतो रञ्जयति श्रोतृचित्तं स स्वर उच्यते' इति वक्ष्यमाणत्वात् ।। -१९-२२ ॥
(क०) इत्थमियत्तया निश्चिताभ्यः श्रुतिभ्यः स्वराणां निप्पत्तिमाह---श्रुतिभ्यः स्युः स्वरा इति । चतसृभ्यस्तिसृभ्यो द्वाभ्यां च
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७९
-०रसाः ३]
प्रथमः स्वरगताध्यायः पञ्चमो धैवतश्चाथ निषाद इति सप्त ते ॥ २३ ॥
तेषां संज्ञाः सरिगमपधनीत्यपरा मताः । यथायोगं द्वाविंशतेः श्रुतिभ्यः सप्त स्वरा भवन्तीत्यर्थः । अत्र पञ्च पक्षाः संभवन्ति-श्रवणैकेन्द्रियग्राह्यत्वाद्विशेषस्पर्शशून्ययोः स्वरश्रुत्योर्जातिव्यक्त्योरिव तादात्म्यमिति प्रथमः पक्षः । दर्पणे मुख विवर्तवच्छ्रतिषु स्वरा विवर्तन्त इति द्वितीयः । यथा घटस्य मृत्पिण्डदण्डादिकार्यत्वं तथा स्वराणां श्रुतिकार्यत्वमिति तृतीयः । क्षीरं दधिरूपेणेव श्रुतयः स्वररूपेण विपरिणमन्त इति चतुर्थः । प्रदीपादन्धकारस्थितघटायभिव्यक्तिवच्छृतिभ्यः स्वराणामभिव्यक्तिरिति पञ्चमः । नाद्यः, स्वरश्रुत्योभिन्नबुद्धिग्राह्यत्वादाश्रयाश्रयित्वभेदाच्च जातिव्यक्त्योरपि 'निर्विशेषं न सामान्यम्' इति न्यायेन भेदस्य सिद्धत्वाच्च । न द्वितीयः, विवर्तत्वे हि स्वराणां भ्रान्तत्वं स्यात् ; न च तथा, तेषामबाधितप्रयोगहेतुत्वदर्शनात् । तृतीयो ऽपि न परीक्षाक्षमः । स्वरव्यतिरेकेण श्रुतिसद्भावे प्रमाणाभाव इति वक्तुं हि न युक्तम् , ' स्वरस्य हि श्रूयमाणमनुरणनात्मकत्वं रणनमन्तरेण नोपपद्यते' इत्यार्थापत्त्या वा, 'अयं स्वरो रणनपूर्वको ऽनुरणनात्मकत्वाद्दण्डाहतजयघण्टाऽनुरणनशब्दवत् ' इत्यनुमानेन वा तत्सिद्धेः । सत्यम् । यद्यपि स्फुटपौर्वापर्येण कार्यकारणभावप्रतीतिरस्ति, तथा ऽप्युपादानस्य मृत्पिण्डादेर्यथा घटादिकार्यनिप्पत्तौ भेदेनानुपलब्धिर्न तथेह स्वरनिप्पत्तौ श्रुतीनामनुपलम्भ इति तासामकारणत्वात् । चतुर्थपञ्चमावदुष्टत्वेन मतङ्गादिसंमतत्वाद् ग्राह्यौ । अथ शुद्धस्वरानन्वर्थतया प्रसिद्धैर्नामभिः परिगणयति---पड्जेति । षड्जादिनाम्नामन्वर्थता मतङ्गादिभिरुक्ता । तद्यथा
'षण्णां स्वराणां जनकः षड्भिर्वा जन्यते स्वरैः । षड्भ्यो वा जायते ऽङ्गेभ्यः षड्ज इत्यभिधीयते ॥'
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८०
संगीतरत्नाकरः
[.स्वरषडपि स्वराञ्जनयति प्रकाशयतीति जनेरन्त वितण्यर्थात् · अन्येप्वपि दृश्यते' इति डप्रत्यये टिलोपे च सति षड्ज इति रूपम् । षभिः स्वरैरङ्गभावेन प्रविष्टैर्जन्यते प्रकाश्यत इति वा षड्जः । पूर्ववद्रूपसिद्धिः । षड्भ्यो नासाकण्ठोरस्तालुजिह्वादन्तस्थानेभ्यो जायत इति वा ‘पञ्चम्यामजातौ' इति डप्रत्यये षड्ज इति ।
' प्राप्नोति हृदयं शीघ्रमन्यस्मादृषभः स्मृतः । स्त्रीगवीपु यथा तिष्ठन्विभाति ऋषभो महान् ॥
स्वरग्रामे समुत्पन्नः स्वरो ऽयमृषभस्तथा ।' ऋषति गच्छति हृदयमन्यस्वरेभ्य इति 'ऋष गतौ' इत्यस्माद्धातोरौणादिके ऽभच्प्रत्यये ऋषभ इति रूपम् । यथा गोसमूहे बलीवर्दस्तथा स्वरसमूहे राशौ द्वितीयो बलवान् । ऋषभवन्नदतीति वा ऋषभः ।
'वाचं गानात्मिकां धत्त इति गांधारसंज्ञकः' गां गानामिकां वाचं धत्त इति ‘धृ धारणे' इत्यस्माद्धातोर्गोशब्दे कर्मण्युपपदे ऽण्प्रत्यये पृषोदरादित्वाहहुलग्रहणाद्वा ऽलुकि गांधार इति रूपम् । गान्धर्वसुखहेतुत्वाद्वा गांधारः ।
_ 'स्वराणां मध्यमत्वाच्च मध्यमः स्वर इष्यते ।' सप्तानां स्यराणां चतुर्थो यः स्वरस्तस्य मध्यस्थत्वात् · मध्यान्मः' इति भवार्थे मप्रत्यये मध्यम इति रूपम् । अथ वा मद्धियो ऽमो रोग इति मद्धयमः । यद्वा मम धियो रोग इति मद्ध्यमशब्देन सप्तानां स्वराणां श्रयमाणो रुचिरत्वाशङ्कया पीडयतीत्यर्थः ।
'स्वरान्तराणां विस्तारं यो मिमीते स पञ्चमः । पाठक्रमेण गणने संख्यया पञ्चमो ऽथ वा ॥'
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- ० रसाः ३]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
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' पचि विस्तारे ' इत्यस्माद्धातोर्भावे धनि पञ्चं विस्तारं मिमीत इति 'आतो ऽनुपसर्गे कः' इति कप्रत्यये पञ्चम इति रूपम् । ' ह्वावामश्च' इत्यण्युक् संज्ञात्वादुपेक्ष्येते । यद्वा पृषोदरादित्वाद्युगभाव आलोपश्च । स्वराणां क्रमेण गणने पञ्चमत्वाद्वा पञ्चमस्थानसंभूतत्वाद्वा पञ्चमः ।
‘धीरस्यास्तीति धीवांस्तत्संबन्धी धैवतः स्मृतः । यद्वा, ' षष्ठस्थाने धृतो यस्मात्ततो ऽसौ धैवतो मतः । '
धीरस्यास्तीति धीवान् तत्संबन्धित्वेन ' तस्येदम्' इत्यणि धैवत इति रूपम् । संबन्धित्वं चानेकप्रकारं निरूप्यनिरूपकलक्षणमास्वाद्यास्वादकलक्षणं जन्यजनकलक्षणं चेति । तत्रोत्तरस्वरेण संसृष्टश्रुतित्वात्स्थूलमतीनां दुर्विवेकत्वाद्धीमतः सूक्ष्ममतेरेव निरूप्यत्वाद्वैवतः । षष्ठस्थाने ललाटस्थाने धृतत्वाद्वा धैवतः ।
' निषीदन्ति स्वराः सर्वे निषादस्तेन कथ्यते । '
6
(
पदल विशरणे' इत्यस्माद्धातोः, निषीदन्ति पर्यवस्यन्त्यस्मिन्स्वरा इति 'अकर्तरि च ' इति सूत्रेण घञि निषाद इति रूपम् । इत्युक्तप्रकारेण ते स्वराः सप्तैवेति नियमे सप्तधात्वाश्रितत्वं सप्तचक्राश्रितत्वं वा निमित्तं मतङ्गोक्तमनुसंधेयम् || प्रयोगसौकर्यार्थ तेषामाद्याक्षराण्युद्धृत्य संज्ञाऽन्तरायाह - तेषां संज्ञा इति । सरिगादीनां मतङ्गाभिमत उद्धारक्रम उच्यते
- अत्राकचटतपयशा अष्टौ वर्गाः । तत्राष्टमस्य तृतीयं हरिबीजयुक्त माद्यस्वरमुद्धरेत् । हरिबीजमकारः । सप्तमस्य द्वितीयं कामबीजयुक्तं द्वितीयस्वरमुद्धरेत् । कामबीजमिकारः । द्वितीयस्य तृतीयं हरिबीजयुक्तं तृतीयस्वरमुद्धरेत् । षष्ठस्य पञ्चममकारयुक्तं 'चतुर्थस्वरमुद्धरेत् । षष्ठस्य प्रथमम -
मध्यमस्वरं समुद्धरेत्.
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संगीतरत्नाकरः
[.स्वरश्रुत्यनन्तरभावी यः स्निग्धो ऽनुरणनात्मकः ॥ २४ ॥ खतो रञ्जयति श्रोतचित्तं स स्वर उच्यते ।
कारयुक्तं पञ्चमस्वरमुद्धरेत् । पञ्चमस्य चतुर्थमकारयुक्तं षष्ठस्वरमुद्धरेत् । पञ्चमस्य पञ्चमं कामबीजयुक्तं सप्तमस्वरमुद्धरेत् । अत्र सरिगादिप्वाद्याक्षराणां व्यञ्जनत्वात्कथं स्वरत्वमित्याक्षिप्याचार्यपरिभाषया संकेतमात्रमेतदिति प्रत्याह मतङ्गः ।। २३, २३- ॥
(सु०) एवं श्रुतीनिरूप्य स्वरान्निरूपयति-श्रुतिभ्य इति । षड्जर्षभेयादीनामाद्याक्षरैर्व्यवहारार्थ संज्ञान्तराणि कथयति-तेषामिति । सरिगमपधनीत्येताः प्रथमं स्वरोपादानात्तेषां पूर्वाभ्यो ऽपराः संज्ञाः । यद्यपि षऋगमपधनीति संज्ञाघोषणं युक्तं तथा ऽपि सरिगेत्यपभ्रंशः पाठः ।। २३, २३ ॥
(क०) स्वराणां सामान्यलक्षणं स्वरशब्दस्य निरुक्तिं चाहश्रुत्यनन्तरेति । श्रुत्यनन्तरभावी, श्रुतेश्चतुर्थ्यादेर्मारुताद्याहत्युत्पन्नप्रथमध्वनेरनन्तरं भाव्याविर्भवनशीलः, स्निग्धो ऽरूक्षः सन्दूरसंश्राव्यः, अनुरणनात्मको ऽनुस्वानरूपः, स्वतः सहकारिकारणनिरपेक्षं श्रोतृचित्तं रञ्जयत्यनुरक्तं करोति । स्वतःशब्दोपपदात् 'रञ्ज रागे' इत्यस्माद्धातोः ‘अन्येभ्यो ऽपि दृश्यते' इति डप्रत्यये टिलोपे पूर्वपदस्थतकारादेः पृषोदरादित्वाल्लोपे च स्वर इति रूपसिद्धिः ॥ -२४, २४ ॥
(सु०) स्वरस्य लक्षणं निर्वचनं च कथयति-श्रुत्यनन्तरेति । श्रुतेरनन्तरं भवतीति श्रुत्यनन्तरभावी । प्रथमतन्त्र्यामाहतायां यो ध्वनिरनुरणनशून्य उत्पद्यते स श्रुतिः, यस्तु ततो ऽनन्तरमनुरणनरूपः श्रूयते स स्वरः । कथं तस्य स्वरत्वमित्यत आह-स्वत इति । स्वतो ऽन्यानपेक्षतया यस्माच्छ्रोतृचित्तं रञ्ज पति तस्मात्स्वर इति निरुक्तिः । कथं तस्य रञ्जकत्वम् ? अतो हेतुगर्भ
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- ० रसाः ३]
८३
विशेषणं निग्ध इति । यद्यपि स्निग्वत्वमपामेव धर्म:, 'स्नेहो ऽपां विशेषगुण:' इत्युक्तत्वात, न तस्य श्रवणेन्द्रियगम्यता; तथा ऽप्यौपचारिकं स्निग्धत्वं स्वरेषु गृह्यते । अत्र बहुधा विप्रतिपत्तिः केचित्स्वरश्रुत्योस्तादात्म्यं वर्णयन्ति । यदाहु:
प्रथमः स्वरगताध्यायः
'विशेषस्पर्शशून्यत्वाच्छ्रवणेन्द्रियगम्ययोः ।
स्वरश्रुत्योस्तु तादात्म्यं जातिव्यक्त्योरिवानयोः ॥ '
इति । केचित्स्वरश्रुत्योर्विवत्यविवर्तकतामाचक्षते । यदाहु:'नराणां तु मुखं यद्वद्दर्पणेषु विवर्तते ।
प्रतिभान्ति स्वरास्तद्वच्छ्रुतिष्वेव विवर्तिनः ॥ '
इति । केचित्स्वरश्रुत्योः कार्यकारणभावं वदन्ति । यदाहु:
'स्वराणां श्रुतिकार्यत्वमिति केचिद्वदन्ति हि । मृत्पिण्डदण्डकार्यत्वं घटस्येह यथा भवेत् ॥
,
इति । केचित्परिणामपक्षमाद्रियन्ते । यदाहु:
( 'श्रुतयः स्वररूपेण परिणामं व्रजन्ति हि । परीणमेद्यथा क्षीरं दधिरूपेण सर्वधा ॥ '
इति । केचित्पुनरभिव्यक्तिपक्षमङ्गीकुर्वते । यदाहु:
' षड्जादयः स्वराः सप्त व्यज्यन्ते श्रुतिभिः सदा । अन्धकार स्थिता यद्वत्प्रदीपेन घटादयः ॥ '
इति । एतेषु पक्षेषु परिणामाभिव्यक्तिपक्षावेव स्वीकृतौ मतङ्गेन । यदाह
'भेदः स्वलक्षणानां सामान्येनान्यवस्तुवत्सिद्धः । तद्धि विशेषैः शून्यं भवति नभः पुपसंकाशम् ॥ नानाबुद्वि गृहीतत्वात्स्वरश्रुत्योस्तु भिन्नता । आश्रयाश्रयिभेदाच्च तादात्म्यं केन सिध्यति ॥
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८४
संगीतरनाकरः
[०स्वरजाति०
यदभाणि विवर्तत्वं स्वराणां तदसंगतम् । विवर्तत्वे स्वराणां हि भ्रान्तिज्ञानं प्रसज्यते ॥ तथा च कारणत्वं च श्रुतीनां नैव संभवेत् । कार्येषु विद्यमानेषु कारणस्योपलम्भनात् ॥ घटादौ विद्यमाने हि मृत्पिण्डो नोपलभ्यते ।
परिणामो ऽप्यभिव्यक्तिय्यिः पक्षः सतां मतः ॥' इति । मतङ्गेन त्वन्यथा स्वरशब्दो व्युत्पादितः । यदाह
'राज दीप्तावस्य धातोः स्वशब्दपूर्वकस्य च ।
स्वयं हि राजते यस्मात्तस्मात्स्वर इति स्मृतः ॥' इति । षड्जादीनां निरुक्तिरुक्ता संगीतसमयसारकारेण
नासा कण्ठ उरस्तालु जिह्वा दन्तास्तथैव च । षडभिः संजायते यस्मात्तस्मात्षड्ज इति स्मृतः ॥ नाभेः समुत्थितो वायुः कण्ठशीर्षसमाहतः । नदत्यृषभवद्यस्मात्तस्मादृषभ ईरित: ॥ नाभेः समुत्थितो वायुः कण्ठशीर्षसमाहतः । गन्धर्वसुखहेतुः स्याद्गांधारस्तेन हेतुना ॥ वायुः समुत्थितो नाभेहृदये च समाहतः । मध्यस्थानोद्भवत्वात्तु मध्यमत्वेन कीर्तितः ॥ वायुः समुत्थितो नाभेरोष्ठकण्ठशिरोहृदि । पञ्चस्थानसमुद्भूतः पञ्चमस्तेन कीर्तितः ॥ नाभेः समुत्थितो वायुः कण्ठतालुशिरोहृदि । तत्तत्स्थानधृतो यस्मात्ततो ऽसौ धैवतो मतः ॥ नाभेः समुत्थिते वायौ कण्ठतालुशिरोहते ।
निषीदन्ति स्वरा: सर्वे निषादस्तेन कथ्यते ॥ इति ॥ -२४, २४-॥
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प्रथमः स्वरगताध्यायः
०रसा: ३]
ननु श्रुतिश्चतुर्थ्यादिरस्त्येवं स्वरकारणम् ।। २५ ॥ त्र्यादीनां तत्र पूर्वासां श्रुतीनां हेतुता कथम् । बमस्तुर्यातृतीयाऽऽदिः श्रुतिः पूर्वाऽभिकाङ्क्षया ॥ २६ ।। निर्धार्यते ऽतः श्रुतयः पूर्वा अप्यत्र हेतवः । दीप्ता ऽऽयता च करुणा मृदुमध्येति जातयः ॥ २७ ॥ श्रुतीनां पञ्च तासां च स्वरेष्वेवं व्यवस्थितिः । दीप्ता ऽऽयता मृदुर्मध्या षड्जे स्यादृपभे पुनः ॥ २८ ।। संस्थिता करुणा मध्या मृदुर्गाधारके पुनः । दीप्ताऽऽयते मध्यमे ते मृदुमध्ये च संस्थिते ।। २९ ॥ मृदुमेध्या ऽऽयताऽऽरख्या च करुणा पश्चमे स्थिता । करुणा चायता मध्या धैवते सप्तमे पुनः ॥ ३० ॥ दीप्ता मध्येति तासां च जातीनां ब्रूमहे भिदाः । तीव्रा रौद्री वज्रिकोग्रेत्युक्ता दीप्ता चतुर्विधा । ३१ ॥ कुमुदत्यायता या ऽस्याः क्रोधा चाथ प्रसारिणी। संदीपनी रोहिणी च भेदाः पञ्चेति कीर्तिताः ॥ ३२ ॥
(क०) यद्येवं चतुर्थ्यादेरेव श्रुतेः स्वरकारणत्वमस्तु, न पूर्वपूर्वासामित्याक्षिपति-नन्विति । व्यादीनामिति । तृतीयाऽऽदीनामित्यर्थः । अत्र वृत्तौ तीयप्रत्ययान्तस्य ' प्रत्ययलोपे ऽपि तदर्थग्रहणम्' इति व्यादीनामिति निर्देशोपपत्तिः । समाधत्ते-म इति । तुर्यातृतीयाऽऽदिः, षड्जमध्यमपञ्चमानां तुर्या, ऋषभधैवतयोस्तृतीया, आदिशब्देन गांधारनिषादयोद्वितीया च श्रुतिः, पूर्वाऽभिकाङ्क्षया, आदिशब्दसामर्थ्यात्पूर्वेत्यस्य वीप्सा कर्तव्या पूर्वपूर्वाऽभिकाङ्क्षयेति । उत्तरोत्तरतारूपेण लक्षणेन स्वोत्पत्तौ
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संगीतरत्नाकरः [०स्वरजाति०दयावती तथा ऽऽलापिन्यथ प्रोक्ता मदन्तिका। त्रयस्ते करुणाभेदा मृदोर्मेंदचतुष्टयम् ।। ३३ ॥ मन्दा च रतिका प्रीतिः क्षितिर्मध्या तु षड्विधा । छन्दोवती रञ्जनी च मार्जनी रक्तिका तथा ॥ ३४ ॥ रम्या च क्षोभिणीत्यासामथ ब्रूमः स्वरस्थितिम् । तीव्राकुमुद्वतीमन्दाच्छन्दोवत्यस्तु पड्जगाः ॥ ३५ ॥ दयावती रञ्जनी च रक्तिका चर्षभे स्थिताः । रौद्री क्रोधा च गांधारे वजिका ऽथ प्रसारिणी ॥ ३६॥ प्रीतिश्च मार्जनीत्येताः श्रुतयो मध्यमाश्रिताः । क्षिती रक्ता च संदीपन्यालापिन्यपि पश्चमे ॥ ३७ ॥ मदन्ती रोहिणी रम्येत्येतास्तिस्रस्तु धैवते । उग्रा च क्षोभिणीति द्वे निषादे वसतः श्रुती ॥ ३८ ॥
संख्यया तुर्याऽऽदिव्यपदेशे च पूर्वपूर्वस्यां साकाङ्क्षतया यतो निर्धार्यते ऽत इत्यर्थः । श्रुतीनामन्योऽन्यमसंकीर्णतया स्वरूपपरिज्ञानाय क्वचित्तासां साजात्येन संगत्या रक्तिलाभाय चावान्तरभेदसहितानां जातीनां स्वरेषु व्यवस्थानं दर्शयति-दीप्ता ऽऽयतेत्यादिना । स्वरविनियोगानन्तरमुद्दिष्टानामपि श्रुतिजातीनामिह निरूपणं श्रुतिस्वरविवेचनरूपार्थसंगतिवशादुपपन्नम् । व्युत्क्रमेणोद्देशस्तु क्वचित्क्रमस्याविवक्षितत्वज्ञापनार्थम् । एतेन ' कुलानि जातयः-' इत्यादिक्रमस्त्वविवक्षित इति मन्तव्यम् ॥ -२५-३८ ॥
___ (सु०) 'श्रुतिभ्यः स्युः स्वराः' इत्युक्तम् ; तत्र श्रुतिभ्य इति पञ्चम्या 'जनिकर्तुः प्रकृतिः' इत्यनेन श्रुतीनां स्वरान्प्रति कारणत्वं प्रतीयते ; अयं स्वरश्चतुःश्रुतिरयं स्वरस्त्रिश्रुतिरयं द्विश्रुतिरित्युक्तत्वाच्च सर्वासामपि कारणत्वं
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-०रसा: ३]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
प्रतीयते; तदाक्षिपति-नन्विति । ननु यस्यां श्रुतौ स्वरः स्थाप्यते सा चतुर्थ्यादिः श्रुतिः, चतुर्थी सप्तमी नवमी त्रयोदशी सप्तदशी विंशी द्वाविंशी च श्रुतिरभिव्यञ्जकत्वेन परिणामकत्वेन वा स्वराणां षड्जादीनां कारणमस्तु नाम ; पूर्वासां त्र्यादीनां श्रुतीनां स्वरं प्रति कथं हेतुत्वम् ? त्र्यादीनामित्यत्रादिशब्देन षड्जमध्यमपञ्चमेषु तिसृणां तिसृणामृषभधैवतयोद्वयोर्द्वयोर्गाधारनिषादयोरेकस्या एकस्याः पूर्वावस्थितायाः श्रुत्याः स्वरं प्रति क उपयोगः ? परिहरति-घूम इति । तुरीयातृतीयाऽऽदिः श्रुतिः पूर्वापेक्षया निर्यित इयं श्रुतिश्चतुर्थीयं तृतीयेयं द्वितीयेति पूर्वाः श्रुतीरपेक्ष्यायं व्यवहारः | यदि पूर्वाः श्रुतयो न स्युस्तर्हि किमपेक्ष्यायं चतुर्थ्यादिव्यवहार: स्यात् ? अतश्चतुर्थीत्वादिनिर्धारणार्थ पूर्वासामपि श्रुतीनां हेतुत्वसिद्धिः । अधुना श्रुतिजातीविभजते-दीप्ता ऽऽयतेति । श्रुतीनां पञ्च जातयो भवन्ति दीप्ता ऽऽयता करुणा मृदुर्मध्येति । तासु का जातिः कस्मिन्स्वरे निवसतीत्यपेक्षायामाह-तासां चेति । षड्जे दीप्ताऽऽदयश्चतस्त्रः श्रुतिजातयः, प्रथमा श्रुतिर्दीता द्वितीया ऽऽयता तृतीया मृदुश्चतुर्थी मध्या । ऋषभे तु प्रथमा श्रुतिः करुणा द्वितीया मध्या तृतीया मृदुः । गांधारे प्रथमा श्रुतिर्दीप्ता द्वितीया ऽऽयता । मध्यमे ते दीप्ताऽऽयते मृदुमध्ये च संस्थिते । ततश्च मध्यमस्य प्रथमा श्रुतिर्दीप्ता द्वितीया ऽऽयता तृतीया मृदुश्चतुर्थी मध्या। पञ्चमे प्रथमा श्रुतिम॒दुर्द्वितीया मध्या तृतीया ऽऽयता चतुर्थी करुणा । धैवते प्रथमा श्रुति: करुणा द्वितीया ऽऽयता तृतीया मध्या । सप्तमे निषादे प्रथमा श्रुतिर्दीप्ता द्वितीया मध्येति । तासामपि जातीनामवान्तरजाती: प्रतिज्ञाय कथयति-तासां चेति । दीप्ता चतुर्विधा तीव्रा रौद्री वज्रिकोग्रेति । आयतायाः पञ्च भेदाः कुमुदती क्रोधा प्रसारिणी संदीपनी रोहिणी चेति । करुणाया भेदत्रयं दयावत्यालापिनी मदन्तिकेति । मृदोश्चत्वारो भेदा मन्दा रतिः प्रीतिः क्षितिरिति । मध्या तु षड्विधा षट्प्रकारा च्छन्दोवती रञ्जनी मार्जनी रक्तिका रम्या क्षोभिणीति । तुशब्देन पूर्वाभ्यो ऽधिकभेदत्वं सूचितम् । एतासां जातीनां स्वरस्थिति प्रतिज्ञाय कथयति-आसामथेति । आसां श्रुतिजातीनां षड्जगा: षड्जे वर्तमानाश्चतस्रो जातयस्तीवादयः । ततश्च षड्जे प्रथमा श्रुतिस्तीवाजात्याक्रान्ता दीप्ता; द्वितीया कुमुद्वतीजातिका ऽऽयता; तृतीया मन्दाजातिका मृदुः; चतुर्थी च्छन्दोवतीजातिका मध्या। ऋषभे प्रथमा श्रुतिर्दयावतीजातिका
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संगीतरत्नाकर:
[० स्वरजाति०
मन्द्रमध्यताराख्यस्थानभेदात्त्रिधा मताः । तएव विकृतावस्था द्वादश प्रतिपादिताः ।। ३९ ।। च्युतो ऽच्युतो द्विधा षड्जो द्विश्रुतिर्विकृतो भवेत् । साधारणे काकलीत्वे निषादस्य च दृश्यते ॥ ४० ॥ साधारणे श्रुति पाइजीमृषभः संश्रितो यदा । चतुःश्रुतित्वमायाति तदैको विकृतो भवेत् ॥ ४१ ॥
करुणा ; द्वितीया रञ्जनीजातिका मध्या; तृतीया रतिजातिका मृदुः । गांधारे प्रथमा श्रुती रौद्रीजातिका दीप्ता; द्वितीया क्रोधाजातिका ऽऽयता । मध्यमे प्रथमा श्रुतिर्वत्रिकाजातिका दीप्ता ; द्वितीया प्रसारिणीजातिका ऽऽयता ; तृतीया प्रीतिजातिका मृदुः ; चतुर्थी मार्जनीजातिका मध्या । पञ्चमे प्रथमा श्रुतिः क्षितिजातिका मृदुः ; द्वितीया रक्ताजातिका मध्या; तृतीया संदीपनीजातिका ssयता ; चतुर्थ्यालापिनीजातिका करुणा । धैवते प्रथमा श्रुतिर्मदन्तीजातिका करुणा ; द्वितीया रोहिणीजातिका ऽऽयता ; तृतीया रम्याजातिका मध्या । निषादे प्रथमा श्रुतिरुप्रजातिका दीप्ता ; द्वितीया क्षोभिणीजातिका मध्येति । ननु किं श्रुतिजातिनिरूपणेन प्रयोजनम् ? उच्यते - तत्तजातिकां श्रुतिं श्रुत्वा मनसो नामसाम्येन तथा तथा विकार उत्पद्यत इति सूचयितुं श्रुतिजातिनिरूपणम् । ततश्च दीप्तां श्रुतिमाकण्र्य मनसो दीप्तत्वमिव भवति; आयतां श्रुतिमाकर्ण्यायतत्वमिव ; एवं करुणत्वादि ज्ञातव्यम् ॥ - २५-३८ ॥
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(क०) प्रसङ्गाच्छुतिजातीरुक्त्वा प्रकृतस्वरपरामर्शपूर्वकं स्थानभेदात्तेषां त्रैविध्यमाह--- ते मन्द्रेति । ननु च्युतादयः पृथक्स्वराः स्युः ; किं तेषामवस्थाऽन्तरापन्नषड्जादित्वकल्पनयेत्यत आह-त एवेति । द्वादशेति ॥ षड्जमध्यमग्रामद्वयापेक्षया क्रमप्राप्तान्विकृतस्वरालक्षयति - च्युतो ऽच्युत इत्यादिना । चतुःश्रुतिः षड्जो द्विश्रुतिर्विकृतः संश्चयुतो ऽच्युत इति द्विधा भवेत् । स च साधारणे स्वसाधारणे च्युतः, निषादस्य काकली
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- ० रसाः ३]
साधारणे त्रिश्रुतिः स्यादन्तरत्वे चतुःश्रुतिः । गांधार इति तद्भेौ द्वौ निःशङ्केन कीर्तितौ ॥ ४२ ॥ मध्यमः षड्जवद् द्वेधाऽन्तरसाधारणाश्रयात् । पञ्चमो मध्यमग्रामे त्रिश्रुतिः कैशिके पुनः ॥ ४३ ॥ मध्यमस्य श्रुतिं प्राप्य चतुःश्रुतिरिति द्विधा । धैवतो मध्यमग्रामे विकृतः स्याच्चतुःश्रुतिः ॥ ४४ ॥ कैशिके काकलीत्वे च निपादस्त्रिचतुःश्रुतिः । प्राप्नोति विकृतौ भेदौ द्वाविति द्वादश स्मृताः ।। ४५ ।। शुद्धैः सप्तभिः सार्धं भवन्त्ये कोनविंशतिः ।
प्रथमः स्वरगताध्यायः
चाच्युत इति दृश्यते ॥ साधारणे त्रिश्रुतिः स्यादित्यत्र मध्यमसाधारण इत्यर्थः । अन्तरत्वे चतुःश्रुतिरित्यत्र स्वस्यान्तरत्व इति विशेषणीयम् ॥ मध्यमः पड्जवदिति । अत्र षड्जवदिति षड्जो यथा द्विश्रुतिर्विकृतश्चयुतत्वाच्युतत्वभेदभिन्नस्तथा मध्यमो ऽपीति वतेरर्थः ॥ कैशिके काकलीत्वे चेत्यत्र कैशिके षड्जसाधारणे त्रिश्रुतिः स्वस्य काकलीत्वे चतुःश्रुतिरिति ।। ३९ - ४५ ॥
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श्रुतिभ्य: . 2 प्रतिभाति.
(सु० ) एवं श्रुती: श्रुतिजाती : 'श्रुतिजातिभ्यः स्वरोत्पत्ति च कथयित्वा स्वरभेदान्निरूपयति - त इति । ते षड्जादयः स्वरास्त्रिधा त्रिप्रकाराः । कुतस्त्रिप्रकारत्वम् ? अत आह— मन्द्रमध्यताराख्यस्थानभेदात् । ततश्च तात्त्विको भेदो नास्ति, किं तु स्थानकल्पितो भेदः । यथैक एव देवदत्तस्त्रिभूमिके प्रासादे प्रथमभूमिकायां द्वितीयभूमिकायां तृतीयभूमिकायां च तिष्टन्नन्य इव भासते तथा स्वरा अपि स्थानविशेषेणेत्यर्थः । ननु यथा षड्जादीनां सप्तानां स्वराणां स्थान
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९० संगीतरत्नाकरः
[.स्वरविशेषेणैव भेदस्तात्त्विकः प्रतीयते तथा मन्द्रमध्यतारस्थानस्थितानां षड्जादीनामपीति कथमत्रैव काल्पनिकत्वमङ्गीक्रियते ? ब्रूमः ; प्रत्यभिज्ञानात्स्थानत्रये ऽपि त एव स्वरा इति प्रतीयते । य एव मन्द्रस्थः षड्जः स एवायं मध्यस्थाने तारस्थाने च प्रतीयत इति सकललोकसाक्षिका प्रत्यभिज्ञा नावज्ञातुं शक्यते । नैवं षड्जषभादिषु सप्तसु प्रत्यभिज्ञालेशो ऽप्यस्तीति महान्विशेषः । एवं शुद्धान्सप्त स्वरान्निरूप्य द्वादश विकृतान्स्वगन्विभज्य निरूपयति-त एवेति । ते शुद्धाः सप्त स्वरा एव विकृतावस्था विकारं प्राप्ता द्वादशसंख्याका भवन्ति ॥ ३९ ॥ तमेव विकारं दर्शयति-च्युत इति । द्विश्रुतिः षड्जो द्विधा विकृतो भवतीति च्युतश्चाच्युतश्चेत्युच्यते । तत्र च्युतो यस्यां चतुर्थ्या श्रुतौ स्थापितस्तस्याः सकाशात्प्रच्युतः, अच्युतस्तु तस्यामेव श्रुताववस्थितः पूर्वश्रुतिहीनतया विकृतो भवति । कदा तस्यैवंविधं विकृतत्वम्! तदाह-साधारण इति । साधारणे स्वसाधारणे निषादस्य च काकलीत्व उभयविधं विकृतत्वम् ।
'निषादो यदि षड्जस्य श्रुतिमाद्यां समाश्रयेत् ।
ऋषभस्त्वन्तिमा प्रोक्तं षड्जसाधारणं तदा ॥' इति वक्ष्यमाणे षड्जसाधारणे षड्जः स्वस्थानाच्चतुर्थश्रुतेः प्रच्युतस्तृतीयश्रुताववस्थितो विकृतो भवति ।
'श्रुतिद्वयं चेत्षड्जस्य निषादः संश्रयेत्तदा ।
स काकली मध्यमस्य गांधारस्त्वन्तरः स्वरः ॥' इति वक्ष्यमाणे निषादस्य काकलीत्वे पूर्वश्रुतिद्वयहीनत्वादच्युतः स्वस्थाने चतुर्थश्रुतौ स्थित एव विकृतो भवति । ननु स्वस्थानस्थितस्य पूर्वश्रुतिद्वयहीनत्वे ऽपि ध्वनिविकाराभावात्कथं विकृतत्वम् ? उच्यते-यद्यपि पूर्वश्रुतिविहीनत्वे तत्स्थानस्थितत्वाद् ध्वनिविकारो नास्ति, तथा ऽपि निषादस्य स्वस्थानस्थितत्वे चतु:श्रुतित्वात्षड्जस्यायतत्वं भवति । यदा काकलीत्वे निषादः षड्जस्य द्वितीयश्रुतौ तिष्ठति, तदा द्विश्रुतित्वादनायतः प्रतीयते । तस्माद्भवत्येव विकृतः ॥ ४० ॥ ऋषभस्य विकृतत्वं कथयति-साधारण इति । साधारणे षड्जसाधारणे षड्जस्यान्तिमां श्रुतिमृषभो गृह्णाति, तदा चतुःश्रुतिः सन्विकृतो भवति ॥ ४१ ॥ गांधारस्य द्वौ भेदौ विकृतौ कथयति–साधारण इति । साधारणे मध्यमसाधारणे
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-०रसा: ३]
प्रथमः स्वरगताध्यायः मयूरचातकच्छागक्रौञ्चकोकिलदर्दुराः ॥ ४६ ।। गजश्च सप्त षड्जादीन्क्रमादुच्चारयन्त्यमी ।
मध्यमस्य प्रथमां श्रुति गांधारो गृह्णाति । तदा त्रिश्रुतिर्विकृतो भवति । 'अन्तरस्तु गांधारो मध्यमस्यायं श्रुतिद्वयं गृह्णाति । तदा चतुःश्रुतिः सन्विकृतो भवति ॥४२॥ मध्यमस्य द्वौ विकृतौ भेदौ कथयति-मध्यम इति । षड्जो यथा च्युतत्वेनाच्युतत्वेन च द्वेधा विकृत: कथित: स्वसाधारणे निषादस्य च काकलीत्वे, तद्वन्मध्यमसाधारणे गांधारस्यान्तरत्वे च मध्यमो ऽपि द्वेधा विकृतो भवति ।
'मध्यमस्यापि गपयोरेवं साधारणं मतम् । ' इति,
'. . . . मध्यमस्य गांधारस्त्वन्तरः स्वरः ।' इति च मध्यमसाधारणं गांधारस्यान्तरत्वं च वक्ष्यते ॥ ४२ ॥ पञ्चमस्य द्वधा विकृतत्वं कथयति-पञ्चम इति । पञ्चमे तृतीयश्रुतिसंस्थिते सति मध्यमग्राम इति वक्ष्यते । तस्मिन्मध्यमग्रामे त्रिश्रुति: पञ्चमो विकृतो भवति । पुनश्च कैशिके मध्यमसाधारणे मध्यमस्यान्तिमां श्रुतिं प्राप्य चतुःश्रुतिः सन्विकृतो भवति ॥-४३, ४३- ॥ धैवतस्यैकधा विकृतत्वं कथयति-धैवत इति । मध्यमग्रामे पञ्चमस्य तृतीयश्रुताववस्थितत्वादन्तिमा पञ्चमस्य श्रुतिधैवतं प्रविशति । स तदा चतुःश्रुतिर्विकृतो भवति ॥-४४ ॥ निषादस्य द्विधा विकृतत्वं कथयतिकैशिक इति । कैशिके षड्जसाधारणे निषादः षड्जस्य प्रथमश्रुतौ यदा तिष्ठति, सदा त्रिश्रुतिः सन्विकृतः; यदा तु काकली भवन्षड्जस्य श्रुतिद्वयं गृहीत्वा चत:श्रुतिर्भवति तदा ऽपि विकृतः । एवं द्वादश विकृतभेदाः । विकृतानां शुद्धानामप्येकोनविंशतिभेदा भवन्तीत्याह-तैरिति ।। ४५, ४५- ॥
(क०) लोकतो ऽपि षड्जादिस्वरूपपरिज्ञानाय मयूरादिप्राणिविशेषध्यनि निदर्शनाभिप्रायेणाह-मयूरेति । स्वराणामन्योऽन्यं स्वरूपकृतं भेदमुक्त्या प्रसङ्गात्प्रयोगार्थ प्रकारभेदेन तेषां चातुर्विध्यं दर्शयति
अन्तरस्वरस्तु.
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संगीतरत्नाकरः
[.स्वरचतुर्विधाः स्वरा वादी संवादी च विवाद्यपि ॥ ४७ ॥ अनुवादी च वादी तु प्रयोगे बहुलः स्वरः । श्रुतयो द्वादशाष्टौ वा ययोरन्तरगोचराः ॥ ४८ ।। मिथः संवादिनौ तौ स्तो निगावन्यविवादिनौ ।
रिधयोरेव वा स्यातां तौ तयोर्वा रिधावपि ॥ ४९ ॥ चतुर्विधा इति । वदनाद्वादी । ननु वदनादिकं प्राणिधर्मः कथमचेतनानां स्वराणां संभवति ? सत्यम् ; वदनं हि नाम रागप्रतिपादकत्वं विवक्षितम् , न वचनमित्यदोषः । संवदनात्संवादी । संवदनं नाम यद्वादिना स्वरेण रागम्य रागत्वं जनितं तन्निर्वाहकत्वम् । विवदनाद्विवादी । विवदनं नाम वाद्यादिभिः स्वरैरुत्पाद्यमानाया रक्तेविनाशकत्वम् । अनुवदनादनुवादी । अनुवदनं नाम वादिसंवादिसंपादितरक्त्यनुकूलत्वम् । क्रमेण तालक्षयतिवादी वित्यादिना । प्रयोगे जात्यादौ बहुलो ग्रहत्वन्यासत्वादिभेदेन पुनः पुनरावृत्तः । संवादिलक्षणपरिज्ञानार्थमादौ मण्डलप्रस्तारं वीणाप्रस्तारं वा लिग्वेत् । तत्र मण्डलप्रस्तारो यथा-षडूवरेखा लिखित्वा तदूर्वाधः किंचिदग्राण्यवशेप्य मध्ये पञ्च तिर्यग्रेखाः किंचिदग्रावशेषं लिखेत् । तदा परितो रेखाऽग्राणि द्वाविंशतिर्भवन्ति । वीणाप्रस्तारस्तु--तिर्यग्रेखा एव द्वाविंशतिं लिग्वेत् । तत्र वामतो दक्षिणतो वा रेखाऽग्राणि द्वाविंशतिर्भवन्ति । तत्रैकस्मिश्रुतिमण्डले शुद्धान्विकृतान्वा षड्जादीस्वस्वश्रुतिसंख्यया विलिखेत् । तेषु ययोः स्वरयोरन्तरगोचराः स्वाधारश्रुती विहाय मध्यवर्तिन्यः श्रुतयो द्वादशाष्टौ वा दृश्यन्ते तो मिथः संवादिनौ भवत इति ज्ञातव्यम् । निगावन्यविवादिनाविति । अन्येषां पञ्चानां विवादिनौ विरोधिनौ। ननु निगयोरितरान्पश्चापि स्यरान्प्रति यियादित्यमुक्तम् ; तदनुपपन्नम् , शुद्धयोर्मध्यमनिषादयोः परस्परं संवादित्वदर्शनादित्यपरितोषेण
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- रसाः ३]
प्रथमः स्वरगताध्यायः शेषाणामनुवादित्वं वादी राजा ऽत्र गीयते । संवादी त्वनुसारित्वादस्यामात्यो ऽभिधीयते ।। ५० ॥
विवादी विपरीतत्वाद्धीरैरुक्तो रिपूपमः । पक्षान्तरमाह-रिधयोरेव वेति । प्रथममन्यविवादिनावित्यविशेण कथनं तु समश्रुतिकयोरेव संवाद इति मतानुसारेण । अतो द्वादशाष्टश्रुत्यन्तरितत्वमात्रमेव संवादिलक्षणमिति सिद्धं भवति । तौ तयोर्वेति । तौ रिधी तयोगियोर्विवादिनौ म्तः । एतेनैकश्रुत्यन्तरितौ परस्परं विवादिनाविति लक्षणं सूचितं भवति । 'द्वयन्तरत्वाद्विवादित्वमुक्तम्' इति मतङ्गोक्तस्यापि द्वयोरेकस्वराधारश्रुत्या सह द्वयन्तरत्वस्य विवक्षितत्वादेकश्रुत्यन्तरितत्वमेवार्थः । एवम् 'त्रयोदशनवान्तरम्' इति मतङ्गोक्तस्य संवादिलक्षणस्यापि द्वादशाष्टान्तरत्वमेवार्थः । अतः शुद्धावस्थायां रिगयोर्धन्योश्च यथा परस्परं विवादः, तथा विकृतावस्थायां गमयोनिसयोश्च विवादो द्रष्टव्यः । अयमभिप्रायः-वादिसंवाद्यनुवादिनां परस्परं स्थानव्यत्ययेन प्रयोगे ऽपि जातिरागहानिर्न भवति ; विवादिनस्तु प्रयोगे जातिरागहानिर्भवेदिति । शेषाणां वाद्यादिलक्षणरहितानाम् । अथ प्रयोगे वाद्यादीनां प्रधानोपसर्जनभावेन तारतम्यं सदृष्टान्तं दर्शयति-वादी राजेत्यादिना ॥ -४६-५१ ॥
(सु०) एतेषां स्वराणां स्वरूपज्ञानार्थमसाधारणानुच्चारयितन्कथयतिमयूरेति । मयूर: षड्जमुचारयति, चातक ऋषभम् , छागो गांधारम् , क्रौञ्चो मध्यमम् , कोकिलः पञ्चमम् , ददुरो धैवतम् , गजो निषादमिति ।। -४६, ४६- ॥ स्वराणां चातुर्विध्यं कथयति-चतुर्विधा इति । वादिनो लक्षणं कथयतिवादी त्विति । प्रयोगे जातिरागादौ बहुलो बाहुल्येन य उच्चार्यते सो ऽशस्वरापरपर्यायो वादी । ननु वदतीति वादी ; वदनं च प्राणिधर्मः कथमचेतनानां स्वराणां संभवति? सत्यम् ; वदनं हि नामात्र रागप्रतिपादकत्वं विवक्षितम् ; ततश्च रागाणां रागत्वं वदन्ति प्रतिपादयन्तीति वादिनः ।। -४७, ४७ ॥ संवादि
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९४ संगीतरमाकरः
[०स्वरकुललक्षणं कथयति-श्रुतय इति । द्वादशाष्टौ वा श्रुतयो ययोरन्तरे वर्तन्ते तौ मिथः परस्परं संवादिनौ भवतः । ननु मतङ्गेन त्रयोदशनवश्रुत्यन्तरत्वेन संवादित्वमुक्तम् ; यदाह-'संवादिनस्तु पुनः समश्रुतिकत्वे सति त्रयोदशनवान्तरत्वे वा ऽन्योऽन्यं बोद्धव्याः' इति । दत्तिलेनाप्युक्तम्--
'मिथः संवादिनौ ज्ञेयौ त्रयोदशनवान्तरौ ।' इति; तत्कथमुच्यते 'श्रुतयो द्वादशाष्टौ वा ययोरन्तरगोचराः' इति ? उच्यते--ययोः श्रुत्योः स्वराववस्थितौ ते श्रुती विहाय मध्यस्थाः श्रुतयो द्वादशाष्टौ वा यदि भवन्ति तदा तयोः संवादित्वमित्यनेनाभिप्रायेणैवमुक्तम् । मतङ्गादिभिस्तु यो यस्य संवादी तस्यावस्थानश्रुतिमपि मध्ये गणयित्वा त्रयोदशनवान्तरत्वमुक्तमिति न कश्चिद्विसंवादः । ततः षड्जस्य मध्यमपञ्चमौ संवादिनौ, ऋषभस्य धैवतः, गांधारस्य निषादः, मध्यमस्य षड्जः, पश्चमस्य षड्जः, धैवतस्यर्षभः, निषादस्य गांधार इति । ननु संवादित्वेन क उपयोगः? बूम:यस्मिन्गीते यो ऽशत्वेन परिकल्पितः षड्जस्तस्य स्थाने मध्यमः क्रियमाणो जातिरागनाशको न भवति ; यस्मिन्वा इंशत्वेन मूछनावशान्मध्यमः प्रयुक्तस्तस्य स्थाने षड्जः प्रयुज्यमानो जातिरागनाशको न भवति ; षड्जपञ्चमयोः स्थाने पञ्चमषड्जौ प्रयुज्यमानौ जातिरागहानिकरौ न भवतः; एवमृषभधैवतयोः स्थाने धैवतर्षभौ प्रयुज्यमानौ जातिरागविनाशकरौ न भवतः ; गांधारनिषादयोः स्थाने निषादगांधारौ प्रयुज्यमानौ जातिरागहानि न कुरुत इति । विवादिलक्षणमाह-निगाविति । निषादगांधारावन्येषां सर्वेषां स्वराणां विवादिनौ। पक्षान्तरमाह-रिधयोरिति । तौ निषादगांधारावृषभधैवतयोरेव विवादिनाविति । तृतीयं पक्षमाह-तयोरिति । तयोनिषादगांधारयोर्ऋषभधैवतौ विवादिनाविति । मतङ्गेन तु द्विश्रुत्यन्तरितत्वेन विवादित्वमुक्तम् ; यदाह 'द्वयन्तरौ तु स्वरौ विवादिनौ' इति । ननु किमिदं विवादित्वम् ? ब्रूमः-वाद्यादिभिः स्वरैयद्रागस्य वादित्वं संवादित्वमनुवादित्वं वा प्राप्तं तद्विनाशकत्वं नाम विवादित्वम् । ततश्चर्षभस्थाने यदा गांधारः प्रयुज्यते गांधारस्थाने वर्षभस्सदा जातिरागहानिभवति । अनुवादिलक्षणं कथयति-शेषाणामिति । येषां परस्परं संवादित्वं विवादित्वं वा नास्ति तेषामनुवादित्वम् । मतङ्गेन त्वेकश्रुत्यन्तरहीनत्वेनानु
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-०रसाः ३]
प्रथमः स्वरगताध्यायः नृपामात्यानुसारित्वादनुवादी तु भृत्यवत् ॥ ५१ ।। गीर्वाणकुलसंभूताः षड्जगांधारमध्यमाः ।
वादित्वमुक्तम् | नन्वनुवादी स्वरः किमनुवदति ? यद्वादिना रागस्य रागत्वं संपादित तत्प्रतिपादकत्वं नामानुवादित्वम् । ततश्च षड्जस्थान ऋषभः प्रयुज्यमान ऋषभस्थाने च षड्जः प्रयुज्यमानो जातिरागविनाशकरो न भवति ; पञ्चमस्थाने धैवतः प्रयुज्यमानो धैवतस्थाने च पञ्चमः प्रयुज्यमानो जातिरागविनाशकरो न भवति; षड्जस्थाने धैवतः प्रयुज्यमानो धैवतस्थाने च षड्जः प्रयुज्यमानो जातिरागविनाशकरो न भवति ; तथा पञ्चमस्थान ऋषभः प्रयुज्यमान ऋषभस्थाने च पञ्चमः प्रयुज्यमानो जातिरागविनाशकरो न भवति ; मध्यमस्थान ऋषभ ऋषभस्थाने च मध्यमस्तथा धैवतस्थाने मध्यमो मध्यमस्थाने च धैवतः प्रयुज्यमानो जातिरागनाशको न भवतीति । ऋषभगांधारयोश्चैकश्रुत्यन्तरहीनत्वेनानुवादित्वे प्राप्ते द्वयन्तरत्वाद्विवादित्वम् । एवं षड्जग्रामे वादिसंवादिविवाद्यनुवादिविचारः । एवमेव मध्यमग्रामे ऽपि पञ्चमस्य तृतीयश्रुत्यवस्थितत्वात्कचिद्विकृतो ऽयमेव विचारो बोद्धव्यः । तत्र षड्जस्य संवादी मध्यमः ; ऋषभस्य धैवतपञ्चमौ ; गांधारस्य निषादः ; मध्यमस्य षड्जनिषादौ; पञ्चमस्यर्षभः; धैवतस्यर्षभः; निषादस्य गांधारमध्यमाविति । विवादित्वं ग्रामद्वये ऽपि समानमेव । षड्जस्य पञ्चमधैवतर्षभा अनुवादिनः ; ऋषभस्य षड्जमध्यमौ ; गांधारनिषादयोः सर्वविवादित्वादनुवादित्वं नास्ति ; मध्यमस्यर्षभधैवतौ ; पञ्चमस्य मध्यमधैवतौ ; धैवतस्य मध्यमपञ्चमाविति ज्ञातव्यम् । एतेषां वाद्यादीनां प्रधानगुणभावमाह-वादी राजेति । यथा राजा मुख्यस्तथा वादी, अन्येषां तदनुसारित्वात् । संवादी त्वस्य वादिनः प्रधानपुरुषतुल्यः; कुत: ? अनुसारित्वात्सहवृत्तेः, अत एवामा सह वसतीत्यमात्य इत्यमात्यशब्देनाभिधीयते। विवादी तु रिपुतुल्यो विपरीतत्वात ; अननुसारित्वादित्यर्थः । अनुवादी सेवकवत् ; नृपो वादी, अमात्यः संवादी, तदनुसारित्वात् । भृत्यो ऽप्युभयानुसारी भवति ॥ -४६-५१ ॥
(क०) ज्ञात्वा प्रयोगे ऽदृष्टातिशयो ऽप्यस्तीति स्वराणां कुलादीन्युद्देशकमेणाह-गीर्वाणकुलेत्यादिना ॥ ५२-५९- ॥
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१६
संगीतरत्नाकरः [.कुलर्षिच्छन्दोपञ्चमः पितृवंशोत्थो रिधाषिकुलोद्भवौ ।। ५२ ॥ निषादो ऽसुरवंशोत्थो ब्राह्मणाः समपञ्चमाः ।। रिधौ तु क्षत्रियौ ज्ञेयौ वैश्यजाती निगौ मतौ ।। ५३ ।। शूद्रावन्तरकाकल्यौ स्वरौ वर्णास्त्विमे क्रमात । पद्माभः पिञ्जरः स्वर्णवर्णः कुन्दप्रभो ऽसितः ॥ ५४ ।। पीतः कर्बुर इत्येषां जन्मभूमीरथ ब्रुवे । जम्बूशाककुशक्रौञ्चशाल्मलीश्वेतनामसु ।। ५५ ।। द्वीपेषु पुष्करे चैते जाताः पड्जादयः क्रमात् । वहिर्वेधाः शशाङ्कश्च लक्ष्मीकान्तश्च नारदः ॥ ५६ ॥ ऋषयो ददृशुः पञ्च पड्जादींस्तुम्बुरुर्धनी।। वहिब्रह्मसरस्वत्यः शर्वश्रीशगणेश्वराः ॥ ५७ ।। सहस्रांशुरिति प्रोक्ताः कमात्पड्जादिदेवताः । क्रमादनुष्टुब्गायत्त्री त्रिष्टुप्च बृहती ततः ॥ ५८ ।। पङ्क्तिरुष्णिकच जगतीत्याहुश्छन्दांसि सादिषु । सरी वीरे अद्भुते रौद्रे धो वीभत्से भयानके ॥ ५९ ।। कार्यों गनी तु करुणे हास्यशृङ्गारयोर्मपौ ।
(सु०) इदानीं घड्जादीनां स्वराणां कुलानि कथयति-गीर्वाणेति । षड्जगांधारमध्यमास्त्रयः सुरवंशसमुत्पन्नाः; पञ्चमः पितृवंशोद्भवः; ऋषभधैवतावृषिवंशोद्भवौ ; निषादो ऽसुरवंश्यः । इदानी ब्राह्मणत्वादिवर्णविशेष कथयति-ब्राह्मणा इति । षड्जमध्यमपञ्चमा ब्राह्मणाः; ऋषभधैवतौ क्षत्रियों ; निषादगांधारौ वैश्यौ ; अन्तरकाकल्यौ शूद्रौ । तयोस्तु लक्षणं मूछनाप्रकरणे वक्ष्यति ।। ५१-५३- || अधुना तु सितादिवर्णविशेषं कथयति-पद्माभ इति । पमाभो रक्तवर्णः षड्जः ; ऋषभस्तु पिञ्जर ईषत्पीतवर्णः ; गांधारः स्वर्णवर्णो ऽतिपीतवर्णः; मध्यमः कुन्दवर्णः शुभः ; पञ्चमो ऽसितः कृष्णवर्णः ;
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- ०रसा: ३]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
९७
धैवतः पीतवर्णः ; निषादः कर्बुरो विचित्रवर्णः ॥ -५४ || अधुना ऽमूनां स्वराणां जन्मभूमी: प्रतिज्ञाय कथयति - एषां जन्मभूमीरिति । जम्बूद्वीपे षड्जस्योत्पत्तिः; शाकद्वीप ऋषभस्य ; कुशद्वीपे गांधारस्य ; क्रौञ्चद्वीपे मध्यमस्य ; शाल्मलीद्वीपे पञ्चमस्य; श्वेतद्वीपे धैवतस्य; पुष्करद्वीपे निषादस्य । नन्विदं द्वीपोत्पत्तिकथनं कुत्रोपयुज्यते ? स्वराणां सप्तत्वनिश्चय इति ब्रूमः । तथा चोक्तं मतङ्गेन - ' ननु कथं सप्त स्वरा इति नियमः ? उच्यते - यथा सप्तधात्वाश्रितत्वेन सप्तैव धातवो रसादयो ज्ञेयाः; तथा चाह सुश्रुत:
'त्वगसृङ्मांसमेदोऽस्थिमज्जशुक्लानि धातवः । '
इति ; तथा सप्तचक्राश्रितत्वेन सप्तद्वीपाश्रितत्वेन वा सप्तैव स्वरा इति । ननु काकल्यन्तरयोरपि स्वरान्तरयोः सद्भावात्कथं सप्तैव स्वरा इति नियमः सिध्यति ? नव स्वरा इति हि वक्तव्यम्; मैवम्, अनंशत्वादनयोः स्वरान्तरत्वं नास्ति; विकृतनिषादस्यैव काकलीत्वं विकृतगांधारस्यैवान्तरत्वम् । तथा चोक्तं दत्तिलेन
'निषादः काकलीसंज्ञां द्विश्रुत्युत्कर्षणाद्भवेत् । गांधारस्तद्वदेव स्यादन्तरस्वरसंज्ञितः ॥ अनंशत्वात्तु भेदेन स्वरत्वं नोच्यते तयोः । अतो निषादगांधार वतावाद्यैरुदाहृतौ ॥ '
इति ॥ ५५, ५५- ॥ अथ स्वराणां द्रष्टृनृषीन्कथयति – वह्निरिति । षड्जस्यर्विह्निः ; ऋषभस्य ब्रह्मा; गांधारस्य चन्द्रः ; मध्यमस्य विष्णुः ; पञ्चमस्य नारद: ; धैवतनिषादयोस्तुम्बुरुः ॥ - ५६, ५६- ॥ देवताः कथयति-वह्नीति ॥ -५७, ५७ - ॥ छन्दांसि कथयति — क्रमादनुष्टुबिति । ननु स्वराणाम् ' पद्माभ: - ' इत्यादि वर्णनिरूपणमृषिदैवतच्छन्दोनिरूपणं च कुत्रोपयुज्यते ? स्वरोपासनायामित्यवेहि । यदा स्वराणां बीजै: षड्जादयः स्वरा उपास्यन्ते तदा तेषामृषिदेवताच्छन्दांसि स्मर्तव्यानि वर्णाश्च ध्येयाः । अत एव स्वराणां बीजान्युक्तानि मतङ्गेन । यथा
'वर्गाष्टकं तु संप्राप्य अकारादि यशान्तकम् । वर्णमात्रासमायुक्तमुद्धरेत्स्वरसप्तकम् ॥
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९८
संगीतरत्नाकर:
अष्टमस्य तृतीयं तु हरिबीजसमन्वितम् । आद्यं स्वरं स्वरज्ञस्तु उद्धरेत्स प्रयत्नतः ॥ सप्तमस्य द्वितीयं तु कामबीजसमन्वितम् । उद्धरेत्तु स्वरं नित्यं सौरभेयं मनोहरम् ॥ द्वितीयस्य तृतीयं तु हरिबीजसमन्वितम् । समुद्धरेत्तृतीयं तं सरसं स्वरमुत्तमम् ॥ स्यापि हि वर्गस्य अन्तिमं चादिसंयुतम् । अविनष्टं विजानीयान्मध्यम स्वरमुत्तमम् ॥ तदादि प्रथमोपेतं स्वरं संविद्धि शोभनम् । व्योमसंख्या समायुक्तमोष्ठस्थानसमुद्भवम् ॥ पञ्चस्यापि वर्गस्य चतुर्थं चादिभूपितम् । कोदण्डद्वय संभूतमुद्धरेत्स्वरमुत्तमम् ॥ अकारान्तान्तसंभिन्नं पञ्चमान्तं समुद्धरेत् । ब्रह्मस्थानसमुद्भूतं सुतारध्वनिसंयुतम् || आगमस्थः स्वरोद्धार एवं तावत्प्रदर्शितः । '
[नाद०रसा : ३]
इति ॥ -५८, १८- ॥ अथ स्वराणां रसव्यञ्जक नियममाह--सरी इति । षड्जर्षभौ वीराद्भुतरौद्रेषु धैवतो बीभत्सभयानकयोः ; गांधारनिषादौ करुणे ; मध्यमपञ्चमौ हास्यशृङ्गारयोरिति ॥ -५९, ५९ ॥
इति प्रथमे स्वरगताध्याये नादस्थानश्रुतिस्वरजातिकुलदैवतर्पिच्छन्दोरसप्रकरणम् ॥ ३॥
14 'सौरभेयमृषभम्' इति सुधाटिप्पणी.
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प्रथमः स्वरगताध्यायः
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अथ चतुर्थ ग्राममूर्छनाक्रमतानप्रकरणम
ग्रामः स्वरसमूहः स्यान्मूर्च्छनाऽऽदेः समाश्रयः । तौ द्वौ धरातले तत्र स्यात्पड्जग्राम आदिमः ॥१॥ द्वितीयो मध्यमग्रामस्तयोर्लक्षणमुच्यते । षड्जग्रामः पञ्चमे स्वचतुर्थश्रुतिसंस्थिते ॥ २ ॥
(क०) एवं स्वरान्निरूप्य व्यस्तानां तेषां दृष्टादृष्टफलोपयोगित्वं नास्तीति तत्सिद्धये नियतसमस्तस्वरसंनिवेशरूपान्मूर्च्छनाऽऽदीन्निरूपयिष्यंस्तदाश्रयत्वाद्यवस्थापकत्वाच्च ग्रामयोः प्रसक्तयोस्तत्सामान्यलक्षणं तावदाह-ग्राम इति । ग्रामवद् ग्रामः । यथा लोके जनसमूहो ग्राम इत्युच्यते, एवमत्र स्वरसमूहो ग्राम इति विवक्षितः । स्वरसमूहो ग्राम इत्येतावत्युच्यमाने लौकिकवैदिकवाक्येप्वपि स्वरसमहत्वसंभवात्तत्रातिव्याप्तिः स्याल्लक्षणस्य । तव्यावृत्त्यर्थ मूर्च्छनाऽऽदेः समाश्रय इति विशेषणम् । अत्रादिशब्देन क्रमतानवर्णालंकारजात्यादयो गृह्यन्ते । सामान्यलक्षणे ग्राम इति जातावकत्वनिर्देशादविशेषेण सप्तानामपि स्वराणां ग्रामविशेषणत्वे प्राप्ते, त्रयाणामेव तद्विशेषणत्वमवगमयन्यामविशेषलक्षणानि लोकव्यवस्थापूर्वकमाह-तौ द्वावित्यादिना। ननु समहित्वाविशेषेण सप्तानामपि ग्रामव्यपदेशकत्वसंभवे कथं धरातले द्वावित्यवधारणमिति चेत्तत्रोच्यते--शुद्धविकृतरूपेण द्विविधस्वरप्रयोगवशात् ,
'द्वौ ग्रामौ विश्रुतौ लोके पड्जमध्यमसंज्ञकौ' इति मुनिवचनाच्च शुद्धाश्रयत्वात्षड्जग्राम आदिमो विकृताश्रयत्वाद्वितीयो मध्यमग्राम इत्युपपद्यत इति । स्वचतुर्थश्रुतिसंस्थित इति । स्वकीय
1.मूर्च्छनादिसमाश्रयः
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संगीतरत्नाकरः [ग्राममूर्च्छनास्वोपान्त्यश्रुतिसंस्थे ऽस्मिन्मध्यमग्राम इष्यते । यद्वा धस्त्रिश्रुतिः षड्जे मध्यमे तु चतुःश्रुतिः ॥ ३ ॥ रिमयोः श्रुतिमेकैकां गांधारश्चेत्समाश्रितः । पश्रुतिं धो निषादस्तु धश्रुतिं सश्रुतिं श्रितः ॥ ४ ॥ गांधारग्राममाचष्ट तदा तं नारदो मुनिः।
प्रवर्तते स्वर्गलोके ग्रामो ऽसौ न महीतले ॥ ५ ॥ चतुर्थश्रुतौ करुणाजातिभेद आलापिन्यामादितः सप्तदश्यां स्थिते सति षड्जग्रामः । स्वोपान्त्यश्रुतिसंस्थ इति । स्वोपान्त्यश्रुतावायताभेदे संदीपन्यां षोडश्यां संतिष्ठत इति संस्थः, तस्मिन् । अत्र चतुर्थश्रुतिसंस्थित इत्युपान्त्यश्रुतिसंस्थ इति चैतावत्युक्ते, मध्यमग्रामे मध्यमसाधारणे पञ्चमस्य चतु:श्रुतिकत्वेन स्वतृतीयश्रुतिसंस्थस्यापि मध्यमान्तिमश्रुतिसाहित्येन चतुर्थश्रुतिसंस्थत्वम् , तस्यामवस्थायां स्वद्वितीयश्रुतेरुपान्त्यत्वेनोपान्त्यश्रुतिसंस्थत्वं च संभवतीति तन्निवृत्त्यर्थमुभयत्र स्वशब्दोपादानं कृतम् , तयोस्तृतीयद्वितीययोः श्रुत्योः स्वकीयत्वेन रूपेण चतुर्थत्वोपान्त्यत्वाभावात् । यद्वेत्यभ्युच्चयपक्षः । कुतः ? पञ्चमभेदायत्तत्वेन ग्रामभेदे सिद्धे ग्रामभेदाश्रयणेन धैवतभेदकथनात् , धैवतस्य पञ्चमसंनिधानं विना स्वगतभेदाप्रतीतेः स्वतो ग्रामभेदकत्वाभावाच्च । भेदकत्वकथनं तु धैवतः पञ्चमान्त्यश्रुतिलाभाच्चतु:अतिर्विकृतः संस्तदलाभे शुद्धश्च सन्साक्षाल्लक्षणस्य पञ्चमस्य क्रमात्रिश्रुतित्वं चतुःश्रुतित्वं चावगमयन्ग्रामयोरुपलक्षणं भवतीति ॥ १-५ ॥
(सु०) ग्रामनिरूपणार्थमाह-ग्रामः स्वरसमूह इति । स्वराणां समूहो प्रामशब्देनोच्यते । ननु कथं स्वरसमूहस्य ग्रामशब्दवाच्यत्वम् ? उच्यते-यतो मूर्च्छनाऽऽदे: समाश्रयभूतः, अतः स्वरसमूहो ग्रामः । लोकाश्रयभूतो हि प्राम इत्युच्यते । तदुक्तं मतङ्गेन
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-क्रमतानाः ४]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
१०१
'यथा कुटुम्बिनः सर्व एकीभूता वसन्ति हि ।
'सर्वलोकस्य स ग्रामो यत्र नित्यं व्यवस्थितिः ॥' इति । अथ वा स्वरसमूहस्य ग्रामत्वे ऽव्यवस्थयोच्चारितस्यापि स्वरसमूहस्य ग्रामत्वं स्यात् , तन्निवृत्त्यर्थमुक्तं मूर्च्छनाऽऽदिसमाश्रय इति । यस्तु मूर्च्छनाऽऽदीनामाश्रयः स्वरसमूहः स एव ग्रामशब्देनोच्यते, नाव्यवस्थयोच्चारित: स्वरसमूह इत्यर्थः । तथा चोक्तं संगीतसमयसारकारेण
'स्वराणां मूर्च्छनातानजातिजात्यंशकात्मनाम् ।
व्यवस्थितश्रुतीनां हि समूहो ग्राम इष्यते ॥' इति । तस्य भेदावाह-तौ द्वाविति । ननु त्रयो ग्रामा इति प्रसिद्धिः; कथं द्वावित्युच्यते ? अत आह–धरातल इति । तत्र तयोर्मध्ये षड्जग्राम आदिमो मुख्यः । द्वितीयो मध्यमग्रामः । अत एव मतङ्गेनोक्तम्
'उभयोमियोर्मध्ये मुख्यत्वं कस्य गण्यते ।
षड्जस्यैव हि मुख्यत्वं गम्यते वचनान्मुनेः ॥' इति । तयोर्लक्षणं प्रतिज्ञाय कथयति-तयोरिति । पञ्चमे स्वरे स्वकीया या चतुर्थी श्रुतिर्यस्यामसौ स्थापितस्तत्स्थे ऽविकृते षड्जनामः । यद्यपि षड्जनामे ऽन्येषामपि षड्जादीनां स्वराणामविकृतत्वं तथा ऽपि पञ्चमस्यैवाविकृतत्वकथन मध्यमग्रामे पञ्चमस्य विकृतत्वात्तद्वैलक्षण्यप्रतिपादनार्थम् । मध्यमग्रामलक्षणं कथयति-स्वोपान्त्येति । स्वस्योपान्त्या ऽन्त्यायाः श्रुतेः समीपे वर्तमाना या तृतीया श्रुतिस्तत्र संस्थिते ऽस्मिन्पञ्चमे मध्यमग्रामो भवति । यद्यपि धैवतस्य प्रथमा श्रुतिः पञ्चमस्यान्त्यश्रुतेः समीपवर्तिनी भवति, तथा ऽपि सा स्वकीया न भवतीति तन्निवृत्त्यर्थं स्वेत्युक्तम् । इदमेव लक्षणं प्रकारान्तरेण कथयतियद्वेति । धो धैवतः षड्जनामे त्रिश्रुतिः, मध्यमग्रामे तु पञ्चमस्यान्तिमां श्रुति लब्ध्वा चतुःश्रुतिः। अर्थस्तु स एव । किं तु पूर्व पञ्चमस्वरप्राधान्येनोभयोलक्षण
1 सर्वलोकेषु. ५ गण्यते.
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१०२ संगीतरत्नाकरः
[प्राममूर्च्छनाषड्जः प्रधानमाद्यत्वादमात्याधिक्यतस्तथा । ग्रामे स्यादविलोपित्वान्मध्यमस्तु पुरःसरः ॥६॥ एतत्कुलप्रमूतत्वाद्गांधारो ऽप्यग्रणीदिवि । क्रमाद ग्रामत्रये देवा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ॥ ७ ॥ हेमन्तग्रीष्मवर्षासु गातव्यास्ते यथाक्रमम् ।
पूर्वाह्नकाले मध्याह्ने ऽपराह्ने ऽभ्युदयार्थिभिः ॥ ८॥ मुक्तम्, इदं तु धैवतप्राधान्येन । 'धैवतप्रधान्यनिरूपणाद्यत्पूर्वोक्तं लक्षणमसंमतमिव भाति तत्परमते, न तु स्वमते । अत एव पञ्चमरहितानां कूटतानानां भेदकपञ्चमाभावादेव पौनरुक्त्यं वक्ष्यति, न धैवताभावेन पौनरुक्त्यमिति । गांधारग्रामस्य क्षितितले ऽनुपयोगे ऽपि शास्त्रस्य सर्वविषयत्वात्तलक्षणं कथयति-रिमयोरिति । गांधार ऋषभस्यान्तिमां श्रुतिं मध्यमस्य चादिमां श्रुतिमाश्रितः संश्चतुःश्रुतिर्भवति । धैवतस्तु पञ्चमस्यान्तिमां श्रुतिमाश्रयति । निषादश्च धैवतस्यान्तिमां श्रुतिं गृहीत्वा षड्जस्य चादिमां श्रुतिं समाश्रितः संश्चतुःश्रुतिर्भवति । तदा तं गांधारग्रामं नारदो मुनिराचष्ट । नारदकथनं प्राशस्त्यार्थ न तु स्वमते ऽन्यथात्वप्रकटनार्थम् ॥ १-५॥
(क०) ननु स्वरप्रयोगवशादिह द्वावेव ग्रामौ स्याताम् ; स्वरान्तरेषु सत्सु किं तयोः षड्जमध्यमविशेषणेनेत्याशङ्कय तत्रोपपत्तिमाह-- षड्ज: प्रधानमिति । अमात्याधिक्यतः, संवादिस्वरबाहुल्यादित्यर्थः । ग्राम प्रधान स्यादित्यन्वयः । अविलोपित्वादिति । मध्यमस्याविलोपित्वं चाधस्तनानां सरिगाणामुपरितनानां पधनीनां च यथासंख्यं द्वयोर्द्वयोरेकत्र तन्त्र्यां संवदनं संवाद इति मतानुसारेणैकाकिनो मध्यमस्यान्येन संवादाभावात्परिशेषादवधिभूतस्य तस्य लोपो नेप्यत इति केषांचिन्मतम् । अन्येषां तु शुद्धतान
1 धैवतप्राधान्यनिरूपणं च संमतं परमतत्वेन. न तु स्वमतत्वेन ।
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१०३
-क्रमतानाः ४] प्रथमः स्वरगताध्याय:
क्रमात्स्वराणां सप्तानामारोहश्चावरोहणम् । लक्षणावसरे पड्जर्षभनिषादपञ्चमहीनाश्चत्वारस्ताना इत्यादिना भरतादिभिमध्यमव्यतिरिक्तानामेव पाडवौडुवकारित्वेन लोपविधानान्मध्यमस्याविनाशित्वमिति ॥ ६-८ ॥
(सु०) ननु कथं षड्जमध्यमगांधाराणामेव ग्रामत्वव्यपदेशो नान्येषां स्वराणामत आह-पड्ज इति । षड्ज: सर्वेषां स्वराणामाद्यः, तस्मात्प्रधानं मुख्यः । अन्यदपि प्राधान्ये कारणमाह-अमात्याधिक्यत इति । अमात्याः संवादिनः, तेषामाधिक्यमन्यस्वरापेक्षया । अन्येषां स्वराणामेकैक एव स्वरः संवादी ; षड्जस्य तु मध्यमपञ्चमो द्वौ संवादिनौ । मध्यमो ऽपि ग्रामे पुर:सर आद्यः; ग्रामव्यपदेशभाग्भवतीति यावत् । कारणमाह-अविलोपित्वादिति । षाडवितत्व औडुवितत्वे च मध्यमस्य लोपो नास्ति । तस्मात्सो ऽपि प्रधानम् । एतयोः षड्जमध्यमयोः कुले देवकुल उत्पन्नत्वाद्गांधारो ऽपि स्वर्गलोके स्वराणामप्रणीराद्यो ग्रामव्यपदेशभाक् । अत एवोक्तं मतङ्गेन-'ननु कथं षड्जमध्यमस्वराभ्यां ग्रामव्यपदेशः? उच्यते--असाधारणत्वेन ताभ्यां ग्रामव्यपदेशः । असाधारणत्वं च देवकुलोत्पन्नत्वेन।' इति । मध्यमस्याविलोपित्वमुक्तं दत्तिलेन
'पञ्चमं मध्यमग्रामे षड्जग्रामे तु धैवतम् ।
अलोपिनं विजानीयात्सर्वत्रैव तु मध्यमम् ॥' इति । ग्रामत्रये ऽप्यधिष्ठातृन्देवान्कथयति-क्रमादिति । गान ऋतुनियम कथयति-हेमन्तेति । ऋतुविशेषेष्वपि पूर्वाह्नादिकालविशेषं गाने नियमयतिपूर्वाह्वेति । ऋतुविशेषेवप्यभ्युदयार्थिभिरिति फलस्य कथितत्वान्नियमे फलमनियमे न दोषः । ग्रामनिरूपणप्रयोजनमुक्तं मतङ्गेन-'स्वरश्रुतिमूच्छनातानजातिरागाणां व्यवस्थापकत्वं नाम प्रयोजनम्' इति ॥ ६--८ ॥ इति ग्रामप्रकरणम् ॥
(क०) ग्रामलक्षणे तदाधेयत्वेन प्रथमोपात्तानां मूर्च्छनानां सामान्यलक्षणमाह-क्रमात्स्वराणामिति । क्रमादिति कूटतानव्यावृत्त्यर्थम् । सप्तानां
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१०४
संगीतरत्नाकरः
ग्राममूर्च्छनामूर्छनेत्युच्यते ग्रामद्वये ताः सप्त सप्त च ॥९॥ पड्जे तूत्तरमन्द्रा ऽऽदौ रजनी चोत्तरायता। शुद्धषड्जा 'मत्सरीकृदश्वक्रान्ता ऽभिरुगता ॥ १० ॥ मध्यमे स्यात्तु सौवीरी हारिणाश्वा ततः परम् । स्यात्कलोपनता शुद्धमध्या मार्गी च पौरवी ॥ ११ ॥
हृष्यकेत्यथ तासां तु लक्षणं प्रतिपाद्यते । स्वराणामिति शुद्धतानव्यावृत्त्यर्थम् । आरोहश्चावरोहणमित्यारोह्यवरोहिद्विविधवर्णालंकारनिवृत्त्यर्थम् । मूर्छनेति । यया करणभूतया रागो मूर्च्यते व्याप्यत इति, श्रोता मुच्छर्यते मोह्यत इति वा 'मुर्छा मोहसमुच्छ्राययोः' इति धातोर्ण्यन्ताधुचि प्रत्यये मूर्च्छनेति रूपम् । यदि पुनर्मतङ्गनन्दिकेश्वरादिभिः प्रयोगे स्थानत्रयव्याप्तिसिद्धयर्थ लक्ष्यानुरोधेन द्वादशस्वरमूर्च्छना अप्युक्ताः, एवमपि लक्ष्ये प्रायेण ग्रामद्वयसंसृष्टप्रयोगदर्शनात्तेनैव स्थानत्रयव्याप्तिः सेत्स्यतीत्यभिप्रायेण न पृथगुक्ताः । तद्विशेषान्ग्रामद्वये ऽपि व्यवहारार्थ नामतो रूपतश्च संख्यापूर्वकं दर्शयति-ग्रामद्वय इत्यादिना । मर्छनेति जातिविवक्षयैकत्वे प्रकृते ऽपि ता इति बहुवचनेन परामर्शो वक्ष्यमाणतद्विशेषापेक्षयेत्युपपद्यते । मध्यस्थानस्थषड्जेनाग्रिमा मूर्च्छनोत्तरमन्द्रा ऽऽरभ्यते । कुतो ऽयं नियमः ? भरतादिनियमितत्वात्तासाम् । यथा ऽऽह भरतः ‘मध्यमस्वरेण वैणवेन मूर्च्छनानिर्देशः' इति ; मतङ्गो ऽपि ' मध्यसप्तकेन मूर्च्छनानिर्देशः कार्यो मन्द्रतारसिद्धयर्थम् ' इति ॥ ९-११- ॥
(सु०) मूर्च्छनां निरूपयति-क्रमादिति । सप्तानां स्वराणामारोहश्चावरोहणं च मूर्छनेत्युच्यते । आरोहावरोहणशब्देन तद्युक्ताः स्वरा उच्यन्ते ।
1 मत्सरीकृता ऽश्वक्रान्ता.
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क्रमताना: ४] प्रथमः स्वरगताध्यायः
मध्यस्थानस्थपड्जेन मूर्च्छना ऽऽरभ्यते ऽग्रिमा ॥ १२ ॥ अधस्तनैनिपादाद्यैः पडन्या मूर्च्छनाः क्रमात् ।। मध्यमध्यममारभ्य सौवीरी मूर्छना भवेत् ।। १३ ।। पडन्यास्तदधोऽधःस्थस्वरानारभ्य तु क्रमात् । पड्जस्थानस्थितैाथै रजन्याद्याः परे विदुः ।। १४ ॥ हारिणाश्वादिका गाद्यैर्मध्यमस्थानसंस्थितैः ।
ततश्वारूढा अवरूढाश्च क्रमतः सप्त स्वरा मूर्च्छनाशब्दवाच्याः । मूर्च्छनाशब्दव्युत्पत्तिः कथिता मतङ्गेन
'मूर्च्छनाशब्दनिष्पत्तिर्मुर्छा मोहे समुच्छ्ये ।
मूर्यते येन रागो हि मूछनेत्यभिसंज्ञिता ॥' इति । स्वराणामेव मूर्च्छनात्वं न त्वारोहणावरोहणरूपाया: क्रियाया इत्यप्युक्तं तेनैव--
‘आरोहणावरोहणक्रमेण स्वरसप्तकम् ।
मूर्च्छनाशब्दवाच्यं हि विज्ञेयं तद्विचक्षणः ॥' इति । सप्तानां स्वराणामित्युपलक्षणम् , द्वादशस्वराणामपि मूछनानां मतङ्गेन प्रतिपादितत्वात् । तासां भेदान्कथयति--ग्रामद्वय इति । षड्जग्रामे सप्त मूच्छनाः, मध्यमग्रामे च सप्त भवन्ति । तासां नामानि कथयति--षड्ज इति । षड्जग्रामे प्रथमा मूर्च्छनोत्तरमन्द्रा, द्वितीया रजनी, तृतीयोत्तरायता, चतुर्थी शुद्धषड्जा, पञ्चमी मत्सरीकृता, षष्ठयश्वक्रान्ता, सप्तम्यभिरुद्गता । मध्यमग्रामे प्रथमा सौवीरी, द्वितीया हारिणाश्वा, तृतीया कलोपनता, चतुर्थी शुद्धमध्या, पञ्चमी मार्गी, षष्ठी पौरवी, सप्तमी हृष्यकेति ॥ ९-११- ॥
(क०) अधस्तनैर्मन्द्रस्थानभवैः । तदधोऽधःस्थस्वरान् , तस्य मध्यस्थानस्थितमध्यमस्याधोऽधःस्था गांधारर्षभादयः स्वराः, तान् । क्रमादवरोहक्रमेण । लक्ष्यानुरोधेन पक्षान्तरमाह-~-पड्जस्थानस्थितैरिति। मध्य
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संगीतरत्नाकर:
[प्राममूर्च्छना
स्थानस्थितषड्जस्थानगतैरिति प्रकरणादवगन्तव्यम् । सरिगमपधनीत्युत्तरमन्द्रास्वरस्थानेष्वेव निसरिगमपधेति रजनीस्वरानुच्चारयेदित्यर्थः || हारिणाश्वादिका इति । अत्रापि मध्यस्थानस्थितमध्मममारभ्य मपधनिस रिति सौवीरीस्वरस्थानेष्वेव गमपधनिसरीति हारिणाश्वास्वरानुच्चारयेदित्यर्थः । उभयत्राप्यादिशब्देन षड्जमध्यमस्थानयोरेव तत्तन्मूर्च्छनाऽऽदिमस्वरारम्भो
द्रष्टव्यः ॥ - १२–१४-॥
१०६
(सु० ) श्रोत्रवधानार्थं वैषम्यद्योतनाय चैतासां लक्षणं प्रतिज्ञाय कथयतिअथ तासामिति । मध्यस्थानस्थितेन षड्जेनाग्रिमा षड्जग्रामे प्रथमा मूर्च्छनोत्तरमन्द्रा ऽऽरभ्यते । षड्जमारभ्य सप्तमस्वरपर्यन्तमारोहो निषादमारभ्य षड्जपर्यन्तं चावरोहः कार्यः । अन्यास्तु षड्जन्यादयो मूर्च्छनास्तस्मान्मध्यस्थानस्थितात्षड्जादधो ऽपकृष्टस्थाने स्थिता ये मन्द्रनिषादधैवतादयो मन्द्रर्षभपर्यन्ताः षट्, तानारभ्य कर्तव्या: । मध्यमग्राममूर्च्छना लक्षयति- मध्यमध्यममिति । मध्यस्थानस्थितं मध्यममारभ्य सौवीरी मध्यमग्रामे प्रथमा मूर्च्छना भवेत् । अन्यास्तु षड् हारिणाश्वादयस्तस्य मध्यस्थानस्थमध्यमस्याधो ऽधो ऽपकृष्टे स्थाने स्थिताः स्वरा ये गांधारर्षभादयो मन्द्रपञ्चमपर्यन्ताः, तानारभ्य कर्तव्याः । ततश्चैवं मूर्च्छनास्वरूपं भवति - लिपौ बिन्दुशिरा मन्द्रो ज्ञातव्यः, ऊर्ध्वरेखाशिरास्तु तारः, 'मन्द्रो विन्दुशिरा भवेत् । ऊर्ध्वरेखास्तारो लिपौ ' इति वक्ष्यमाणत्वात् । तत्र त्वारोहक्रम एव लिख्यते । अवरोहक्रमस्त्वन्तिमस्वराज्ज्ञातत्रयः । सरिगमपधनि- उत्तरमन्द्रा ॥ १ ॥ निसरिगमपध -- रजनी ॥ २ ॥ धंनिसरिगमप – उत्तरायता ॥ ३ ॥ पंधनिसरिगम - शुद्धषड्जा ॥ ४ ॥ मंपंधंनिसरिग - मत्सरीकृता ॥ ५ ॥ गंपंधंनिसरि - अश्वक्रान्ता ॥ ६ ॥ रिंगमंपंधंनिस - अभिरुद्गता ॥ ७ ॥ मपधनिसेरिंग- सौवीरी ॥ १ ॥ गमपधनिसंरिहारिणाश्वा ॥ २ ॥ रिगमपधनिसकलोपनता ॥ ३ ॥ सरिगमपधनिशुद्धमध्या ॥ ४ ॥ उत्तरमन्द्रायां तु पञ्चमश्चतुः श्रुतिः अस्यां तु त्रिश्रुतिरित्यनयोर्भेदः । निसरिगमपध - मार्गी ॥ ५ ॥ अस्या रजन्याश्च पूर्ववत्पञ्चमेन भेदः । धंनिसरिगमप - पौरवी ॥ ६ ॥ अस्या उत्तरायतायाश्च पूर्ववत्पञ्चमेन भेदः ।
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क्रमतानाः ४] प्रथमः स्वरगताध्यायः
षड्जादीमध्यमादींश्च तदूर्ध्व सारयेत्क्रमात् ॥ १५ ॥ चतुर्धा ताः पृथक्शुद्धाः 'काकलीकलितास्तथा । सान्तरास्तद्वयोपेताः पट्पञ्चाशदितीरिताः ॥ १६ ॥
पंधंनिसरिंगमहज्यका ॥ ७ ॥ अस्याः शुद्धषड्जायाश्चापि पूर्ववत्पञ्चमेन भेदः । मतान्तरेणान्यथैतासां लक्षणमाह-षड्जस्थानेति । निषादाद्यैः स्वरैः षड्जस्थानस्थित रजन्याद्या भवन्ति । षड्जस्य स्थाने निषादे स्थाप्यमाने रजनी ॥२॥ धैवते स्थाप्यमान उत्तरायता ॥ ३ ॥ पञ्चमे स्थाप्यमाने शुद्धषड्जा ॥ ४ ॥ मध्यमे मत्सरीकृता ॥ ५ ।। गांधारे ऽश्वक्रान्ता ॥ ६ ॥ ऋषभे ऽभिरुद्गता ॥ ७॥ एवं मध्यमस्य स्थाने स्थाप्यमानैर्गाधाराद्यैर्हारिणाश्वाऽऽदयो भवन्ति । मध्यमस्य स्थाने गांधारे स्थाप्यमाने हारिणाश्वा ॥२॥ ऋषभे स्थाप्यमाने कलोपनता ॥३॥ षड्जे स्थाप्यमाने शुद्धमध्या ॥ ४ ॥ निषादे मार्गी ॥ ५॥ धैवते पौरवी ॥६॥ पञ्चमे हृष्यका ॥ ७ ॥ इति ॥ -१२-१४- ॥
(क०) ननु षड्जमध्यमस्थानयोरेव निषादगांधारादिप्रयोगे सति षड्जग्राम उत्तरमन्द्रारजन्यादीनां कर्थ परस्परं भेदो मध्यमग्रामे च सौवीरीहारिणाश्वाऽऽदिकानां च कथमन्योऽन्यं भेद इत्याशङ्कय परिहरिप्यन्नाह - षड्जादीन्मध्यमादींश्चेति । तदूर्ध्वमिति । रजन्यादिकायां षड्जस्थानस्थापितनिषादादेोरिणाश्वाऽऽदिकायां मध्यमस्थानस्थापितगांधारादेश्च परं षड्जादीमध्यमादींश्च स्वरान्सारयेत् ; स्वस्वश्रुतिसंख्यापर्यालोचनया श्रुत्यन्तराणि प्रापये दित्यर्थः । क्रमादिति । उत्तरायतायां षड्जस्थाने धैवते स्थापिते तदूर्ध्व निषादं कलोपनतायां मध्यमस्थान ऋषभे स्थापिते तदूर्ध्वं गांधारं चेत्यादिः क्रमः । तस्मान्मूर्च्छनानां शुद्धादिभेदेन प्रत्येकं चातुर्विध्यं दर्शयति-चतुर्धेति । ग्रामयोरुक्ताश्चतुर्दश मूर्च्छनास्ता इति परामृश्यन्ते ।
'काकलीसहिता..
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संगीतरत्नाकरः [प्राममूर्च्छनाशुद्धाः षड्जग्रामे सर्वस्वरविकाररहिताः ; मध्यमग्रामे तु ग्रामस्वरूपभेदनिर्वर्तकं पञ्चमं तदुपलक्षकं धैवतं च विहायेतरस्वरविकाररहिताः । तत्र पञ्चमधैवतयोस्तादवस्थ्यमेव शुद्धत्वं विवक्षितमिति मन्तव्यम् । ननु विकृतस्वरेषु यद्यपि पञ्चमस्य ग्रामभेदकत्वेनैव चरितार्थत्वे ऽपि, ऋषभधैवतयोश्च षड्जपञ्चमविकारायत्तविकारयोः स्वतो भेदकत्वाभावे ऽपि, षड्जमध्यमसाधारणद्वयाश्रयणेनापि प्रकारान्तरेषु संभवत्सु केवलं काकल्यन्तराश्रयणेनैव चतुर्धेति निश्चयः कथमिति चेत् । सत्यम् ; षड्जमध्यमयोः साधारणीकृतयोः स्वरूपेण भेदकत्वे संभवत्यपि काकल्यन्तरयोः साधारणयोरन्तर्भूतत्वेन तयोः पृथग्भेदकत्वम् । तथा चाह मतङ्ग:--' साधारणस्वरौ निषादगांधारवन्तौ तदादिविकृतास्तत्रैवान्तर्भूताः' इति । किं च ग्रामद्वये मूर्च्छनासाधारणप्रकारभेदनिरूपणावसरे प्रतिनियतग्रामवर्तिनोः षड्जमध्यमसाधारणयोरनुपयोगाच्च । यथोक्तं भरतेन-'षड्जग्रामे षड्जसाधारणं मध्यमग्रामे मध्यमसाधारणम्' इति । अतश्चतुर्धेत्युपपद्यत इत्याचार्यरहस्यमसंप्रदायविदुषां दुर्ग्रहम् ।
श्रुतिस्वरप्रमाणज्ञः कल्लिनाथः कलानिधिः । चातुर्विध्यं मूर्च्छनानामत्रैवं निरदीधरत् ॥ -१५, १६ ॥
(सु०) ननु षड्जस्थाने मध्यमस्थाने च यदि निषादादयो गांधारादयश्च स्थापितास्तदा षड्जमध्यमयोः कुत्रावस्थानमत आह-षड्जादीनिति । षड्जर्षभगांधारादीन्मध्यमपञ्चमधैवतादींश्चोर्ध्वं सारयेदुत्कृष्टेषु स्वरेषु स्थापयेत् । यदा निषाद: षड्जस्थाने स्थापितस्तदा षड्ज ऋषभस्थान ऋषभो गांधारस्थान इत्यादि । यदा धैवतः षड्जस्थाने तदा निषाद ऋषभस्थाने षड्जो गांधारस्थान इत्यादि स्वयमूह्यम् । ननु कथमन्यस्य स्वरस्यान्यस्वरस्थाने ऽवस्थानम् ? ब्रूमः ; नायं मुख्यो व्यवहारः, किं त्वौपचारिको ऽयं व्यवहारः । अथ वा, दत्तिलादिभिरङ्गीकृतत्वादेवमुच्यते । दत्तिलो हि स्वेच्छया यस्यां कस्यामपि श्रुतौ
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क्रमताना: ४ ]
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षड्जं स्थापयेत्तदपेक्षया च श्रुतिनियमेनान्यान्वरान्स्थापयेदित्युक्तवान् ।
यदाह
प्रथमः स्वग्गताध्यायः
' षड्जत्वेन गृहीतो यः षड्जग्रामे ध्वनिर्भवेत् । तत ऊर्ध्वं तृतीयः स्यादृषभो नात्र संशयः ॥ ततो द्वितीयो गांधारचतुर्थो मध्यमस्ततः । मध्यमात्पञ्चमस्तद्वत्तृतीयो धैवतस्ततः ॥ निषादो तो द्वितीयः स्यात्ततः षड्जश्चतुर्थकः । '
इति । विवृतं चैतत्प्रयोगस्तबकाख्यायां दत्तिलटीकायाम् —' षड्जत्वेन षड्जस्वरभावेन गृहीतः परिकल्पितो बुद्ध्या व्यवस्थापितो यः कश्चिद् ध्वनिविशेषः षड्जाख्ये ग्रामे भवेत्तस्माद् ध्वनिविशेषादूर्ध्वं तृतीयः स्यादृषभ:' इति । नैवाभिप्रायेण दत्तिः षड्जग्राममूर्च्छनानां मध्यमग्राममूर्च्छनानां च किंचिद्विकारेणैक्यमुक्तवान् । यदाह -
'गांधारं धैवतीकुर्याद् द्विश्रुत्युत्कर्पणाद्यदि । तद्वशान्मध्यमादश्च निषादादीन्यथा स्थितान् ॥ ततोऽभूद्यावतियेषा षड्जग्रामस्य मूर्च्छना । जायते तावतिथ्येव मध्यमग्राममूर्च्छना ॥ श्रुतिद्वयापकर्षेण गांधारीकृत्य धैवतम् । पूर्ववन्मध्यमाद्यांश्च भावयेत्षड्जमूर्च्छनाः ॥
इति । स्वेच्छया षड्जावस्थापनमङ्गीकृत्यैव दत्तिलदक्षप्रजापत्यादयो ऽवधानं गांधर्वाङ्गत्वेनाकार्षुः । यदाह दत्तिल:---
'पदस्थः स्वरसंघातस्तालेन सुमितस्तथा । प्रयुक्तश्वावधानेन गांधर्वमभिधीयते ॥ '
इति । दक्षप्रजापतिरपि -
' अवधानानि गांधर्व पश्चात्स्वरपदादय: । अवधानातिरेकेण त्रिविधं नोपपद्यते ॥
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संगीतरत्नाकर:
[प्राममूर्च्छना
इत्याह । अवधानं नाम मनोबुद्धिस्मृतीन्द्रियाणामैकाप्रयम् । षड्जो यत्र स्थापितस्तदपेक्षयैवान्येषां स्वराणामुच्चारणमिति यावत् । यदि स्वराः स्वेच्छया नावस्थाप्यन्ते तदा ऽवधानं नोपयुज्येत । शार्ङ्गदेवेनापि चलवीणायां सारणानिरूपणेनायं पक्षः किंचित्स्वीकृत एव, 'स्वोपान्त्यतन्त्रीमानेयास्तस्यां सप्त स्वरा बुधैः' इत्युक्तत्वात् । लोके च वैणिकाः स्वेच्छया स्वरानवस्थापयन्तो दृश्यन्त इत्यास्तां विस्तरः । मतङ्गेन तु द्वादशस्वरमूर्च्छना उक्ता:
'इदानीं संप्रवक्ष्यामि द्वादशस्वरमूच्र्छना: '
इति । अत्र मूर्च्छना निर्देशः स्थानत्रितयप्राप्त्यर्थमिति वचनाद् द्वादशस्वरसंपन्ना मूर्च्छना द्रष्टव्याः । नन्दिकेश्वरेणाप्युक्तम्
'द्वादशस्वरसंपन्ना ज्ञातव्या मूर्च्छना बुधैः । 'जातिभाषाऽऽदिसिद्धयर्थं तारमन्द्रादिसिद्धये ॥ '
इति । ताश्चैवम् -- धनिसरिगमपधनिसरिंग — उत्तरमन्द्रा ॥ १ ॥ निसरिगमपधनिसरिगम - रजनी ॥ २ ॥ सरिगमपधनिसरिगमप - उत्तरायता ॥ ३ ॥ रिंगमपधनिसरिगमपध - शुद्धषड्जा ॥ ४ ॥ गमपधनिसरिगमपधनि — मत्सरीकृता ॥ ५ ॥ मपधनिसरिगमपधनिस - अश्वक्रान्ता ॥ ६ ॥ पधनिसरिगमपधनिसरि - अभिरुद्गता ॥ ७ ॥ इति षड्जग्रामे || मध्यमप्रामे ऽप्येवमेव । ' सरिगमपधनिसरिगमप – सौवीरी ॥ १ ॥ रिगमपधनिसरिगमपध - हारिणाश्वा ॥ २ ॥ गमपधनिसरिगमपधनि-कलोपनता ॥ ३ ॥ मपधनिसरिगमपधनिस - शुद्धमध्या ॥ ४ ॥ पधनिसरिगमपधनिसरि मार्गी ॥ ५ ॥ धनिसरिगमपधनिसरिंगपौरवी ॥ ६ ॥ निसरिगमपधनिसरिगम - हृन्यका ॥ ७ ॥ इति । चतुर्दशानामपि मूर्च्छनानां चातुर्विध्यं प्रतिपादयति- चतुर्धेति । ताश्चतुर्दश मूर्च्छनाः पृथक्प्रत्येकं चतुर्विधाः शुद्धाः काकलीसहिताः सान्तराः काकल्यन्तरोपेताश्चेत्येवं षट्पञ्चाशद्भवन्ति ॥ - १५, १६ ॥
1 परिभाषाऽऽदि०.
' निसरिगमपधनिसरिगम — सौवीरी • इत्यादि: कोशान्तरपाठः
०
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क्रमताना: ४] प्रथमः स्वरगताध्यायः
श्रुतिद्वयं चेत्पड्जस्य निपादः संश्रयेत्तदा । स काकली मध्यमस्य गांधारस्त्वन्तरः स्वरः ॥ १७ ॥
(क०) मूर्च्छनाभेदकत्वेन प्रसक्तयोः काकल्यन्तरयोः स्वरूपमाहश्रुतिद्वयं चेदिति । मध्यमस्येति । अत्रापि श्रुतिद्वयं चेदित्याद्यनुषञ्जनीयम् । मर्छनाभेदोपयोगिकाकल्यन्तरप्रसङ्गान्मतङ्गप्रोक्तौ स्वराणां प्रवेशनिग्रहावुच्येते । तद्यथा--द्विविधस्तानप्रयोगः प्रवेशेन निग्रहेण च । प्रवेशो द्विविधः पूर्वस्वरविप्रकर्षणोत्तरस्वरमार्दवेन च । तत्रर्षभापेक्षया षड्जस्याधरीभूतस्य लोपनीयस्यापि विप्रकर्षः पीडनम् ; ऋषभापादनमिति यावत् । तस्यैव षड्जस्य निषादापेक्षयोत्तरीभूतस्य मार्दवं शिथिलीकरणम् ; निषादापादनमिति यावत् । निग्रहस्तृत्तरस्वरस्य परित्यागः ; असंस्पर्श इति यावत् । तथा चाह भरत:
'द्विधा तानक्रिया तन्त्र्यां प्रवेशान्निग्रहात्तथा । इति । तत्र प्रवेशो नामाधरस्वरविप्रकर्षादुत्तरस्वरमार्दवाद्वा। निग्रहश्चासंस्पर्शः' इति । दत्तिलेनाप्युक्तम्
'तानक्रिया द्विधा तन्त्र्यां प्रवेशान्निग्रहात्तथा ।
प्रवेशो ध्वनिसादृश्यमसंस्पर्शस्तु निग्रहः ॥' इति ॥ १७ ॥
(सु०) काकलीसहिताः सान्तरा इत्युक्तम् । तत्र को ऽयं काकल्यन्तरो वेत्यपेक्षायामाह-श्रुतिद्वयमिति । निषादः षड्जस्य श्रुतिद्वयं संश्रयेच्चेत , षड्जस्य द्वितीयश्रुतौ तिष्ठंश्चतुःश्रुतिर्भवति यदि, तदा काकलीत्युच्यते । गांधारश्च मध्यमस्य श्रुतिद्वयं गृह्णश्चतुःश्रुतिः सन्नन्तर इत्युच्यते । निषादगांधारावेव काकल्यन्तरस्वरौ, न तयोः स्वरान्तरत्वमित्युक्तं प्राक् ॥ १७ ॥
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संगीतरत्नाकरः
[ग्राममूर्च्छनायस्यां यावतिथौ षड्जमध्यमौ ग्रामयोः क्रमात् । मूर्च्छना तावतिथ्येव सा निःशङ्केन कीर्तिता ।। १८ ।। प्रथमादिस्वरारम्भादेकैका सप्तधा भवेत् । तामूच्चार्यान्त्यस्वरांस्तान्पूर्वानुच्चारयेत्क्रमात् ॥ १९ ॥ ते क्रमास्तेषु संख्या स्याद् द्वानवत्या शतत्रयम् । यक्षरक्षोनारदाब्जभवनागाश्विपाशिनः ॥ २० ॥ पड्जग्रामे मूर्च्छनानामेताः स्युर्देवताः क्रमात् । ब्रह्मेन्द्रवायुगन्धर्वसिद्धद्रुहिणभानवः ॥ २१ ॥ स्युरिमा मध्यमग्राममूर्च्छनादेवताः क्रमात् । तासामन्यानि नामानि नारदो मुनिरब्रवीत् ॥ २२ ॥ मूर्छनोत्तरवर्णा ऽऽद्या पड्जग्रामे ऽभिरुद्गता । अश्वकान्ता च सौवीरी हृष्यका चोत्तरायता ॥ २३ ॥ रजनीति समाख्याता ऋपीणां सप्त मूर्छनाः ।। आप्यायनी विश्वकृता चन्द्रा हेमा कपर्दिनी ॥ २४ ॥ मैत्री चान्द्रपसी पित्र्या मध्यमे मूर्च्छना इमाः । नन्दा विशाला सुमुखी चित्रा चित्रवती सुखा ।। २५ ॥ आलापा चेति गांधारग्रामे स्युः सप्त मूर्च्छनाः । ताश्च स्वर्गे प्रयोक्तव्या विशेषात्तेन नोदिताः ।। २६ ॥
(क०) मर्छनासु प्रथमादिसंख्यापरिज्ञानोपायमाह-यस्यामिति । यावतिथाविति । यावच्छब्दात्पूरणे ऽर्थे डटि ‘वतोरिथुक् ' इति वत्वन्तस्येथुगागमे कृते यावतिथ इति रूपम् । ग्रामयोर्यस्यां मूर्च्छनायां षड्जमध्यमौ यावतिथौ सा मूर्च्छना तावतिथी। अत्र · टिड्ढाणञ्- ' इत्यादिना
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क्रमतानाः ४] प्रथमः स्वरगताध्यायः
११३ ङीप् ॥ अथ मर्छनाप्रसङ्गेन केवलारोहवत्या तदेकदेशरूपान्क्रमान्प्रस्तारे कूटतानोपयोगार्थ प्रतिमूर्च्छनमियत्तया ऽवधार्य लक्षयति -प्रथमादीत्यादिना । प्रथमादिस्वरारम्भात् , यस्यां मूर्च्छनायां यः प्रथमः स्वर: स आदिर्येषां त इतरे षट् स्वराः, तद्गुणसंविज्ञानात्प्रथमश्चेति प्रथमादयः सप्त स्वराः, तेषामारम्भः क्रमादादिमत्वेनोच्चारणम् , तस्मात् । एकैकेति । शुद्धादिभेदेनोक्तासु पट्पञ्चाशन्मूर्च्छनासु प्रत्येकमित्यर्थः । तास्वन्त्यस्वरान्क्रमादुच्चार्य पूर्वान्स्वरान्क्रमादुच्चारयेदिति क्रमादित्यस्यावृत्त्या ऽन्वयः कर्तव्यः । पूर्वानारब्धस्वरादधस्तनान् । इह सप्तस्वरात्मकेषु क्रमेषु पूर्वानुच्चारयेदिति लक्षणांशः प्रतिमर्छनं प्रथमक्रमेप्वसंभाव्यो ऽपि द्वितीयादिक्रमे संभवत्स्वरविषयो द्रष्टव्यः । तद्यथा-उत्तरमन्द्रायां सरिगमपधनीति प्रथमः क्रमः । निसरिगमपधेति द्वितीयः । धनिसरिगमपेति तृतीयः । पधनिसरिगमेति चतुर्थः । मपधनिसरिगेति पञ्चमः । गमपधनिसरीति षष्ठः । रिंगमपधनिसेति सप्तमः । एवं क्रमेणोच्चारितत्वादेतेपां क्रमसंज्ञा ॥ यक्षरक्ष इत्यादिः स्पष्टार्थः ॥ १८-२६ ॥
__ (सु०) मूछनासंख्यापरिज्ञानार्थ सुगममुपायमाह-यस्यामिति । उभयो मियोमध्ये षड्जमध्यमौ स्वरौ यावतिथौ यावत्संख्यापूरणौ, तावतिथी तावत्संख्यापूरणी मूछना निःशङ्केन निःशङ्क इति बिरुदविराजितेन शाङ्गदेवेन कथिता । षड्जग्राममूर्च्छनासु यदि षड्जः प्रथमस्तर्हि प्रथमा मूर्च्छना, यदि षड्जो द्वितीयस्तर्हि द्वितीया, यदि तृतीयस्तृतीया, यदि चतुर्थश्चतुर्थी, यदि पञ्चमः पञ्चमी, यदि षष्ठः षष्ठी, यदि सप्तमः सप्तमीति । एवं मध्यमग्राममूच्छनासु यदि मध्यमः प्रथमस्तर्हि प्रथमा मूर्च्छना, यदि द्वितीयो द्वितीया, यदि तृतीयस्तृतीयेत्यादि ॥ १८ ॥ षट्पञ्चाशत्संख्यानां मूछनानां प्रत्येकं सप्तविधत्वं दर्शयति-प्रथमादीति । एकैका मूछना सप्तधा भवति, प्रथमद्वितीयतृतीय तुरीयपञ्चमषष्ठसप्तमस्वरारम्भात् । ननु द्वितीयादिस्वरारम्भे कथं सप्तस्वरत्वम् ? अत आह-तास्विति । तासु मूर्च्छनास्वन्त्यस्वरपर्यन्तमुच्चार्य पूर्वान्स्वरानु
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११४ संगीतरत्नाकरः
[ग्राममूर्च्छनाचारयेत् । ननु तर्हि कमादारोहावरोहाभावान्मूछनात्वं व्याहन्येत ; अत आहक्रमादिति । यद्यप्यारोहावरोहयोः क्रमो नास्ति, तथा ऽपि स्वरक्रमस्य सद्भावान्मूर्च्छनात्वम् ॥ १९ ॥ ते मूर्च्छनाभेदाः क्रमशब्देनोच्यन्ते । तेषां संख्या द्वानवत्या ऽधिकं शतत्रयं ज्ञातव्यम् । मतङ्गदत्तिलौ तु मूछनानामन्यथा चातुर्विध्यमवादिष्टाम् । यदाह मतङ्गः-'तत्र सप्तस्वरा मूर्च्छना चतुर्विधा पूर्णा षाडवौडुविता साधारणी चेति । तत्र सप्तभिः स्वरैर्या गीयते सा पूर्णा । षभिः स्वरैर्या गीयते सा पाडवा । पञ्चभिः स्वरैर्या गीयते सोडुविता । काकल्यन्तरैः स्वरैर्या गीयते सा साधारणी।' इति । दत्तिलो ऽप्याह
'स्वरौ यावतिथौ स्यातां ग्रामयोः षड्जमध्यमौ । मूर्च्छना तावतिथ्येव तद्ग्रामद्वितये तथा ॥
सर्वास्ताः पञ्चषट्पूर्णसाधारणकृताः स्मृताः ।' इति । मूर्च्छनानां षाडवत्वं वक्ष्यमाणषाडवतानप्रकारेणोक्तम् । ओडुवत्वं वक्ष्यमाणौडवतानप्रकारेणोक्तम् । ताभ्यां पाडवौडुवत्वम् । मूछनातानयोश्च भेदः प्रतिपादितो मतङ्गेन । यदाह-'ननु मूर्च्छनातानयोः को भेद: ? उच्यते । मूछनातानयो र्थान्तरत्वमिति विशाखिलः । एतन्न संगतम् , संग्रहश्लोके मूछनातानयोर्भेदस्य प्रतिपादितत्वात् । ननु कथं मूच्छनातानयोर्भदः? ब्रूमःआरोहावरोहक्रमयुक्तः स्वरसमुदायो मूर्छनेत्युच्यते; तानस्त्वारोहणक्रमेण भवतीति भेदः' इति ॥ १९- ॥ मूर्च्छनानां देवताः कथयति-यक्षेति । यक्षाः, रक्षांसि, नारदः, अब्जभवो ब्रह्मा, नागा: सर्पाः, अश्विनौ दस्रो, पाशी वरुणः ॥ -२०, २०- || मध्यमग्राममूछनानां देवताः कथयति-ब्रह्मेति । देवताकथनं तु तया तया मुर्छनया गीतया सा सा देवता प्रीयत इत्येतमर्थ ज्ञापयितुम् | नारदमतेन मूछनानामन्यथा नामानि कथयति-तासामिति । ऋषीणां समाख्याता इति । ऋषिभिः समाख्याता इत्यर्थः । नारदमतेन गांधारग्राममूछनानामानि कथयति-नन्देति । ननु गांधारग्राममूछनानां लक्षणं किमिति नोक्तम् ? अत आह-ताश्चेति । विशेषयति व्यावर्तयति सजातीयविजातीयेभ्य इति विशेष) लक्षणम् | ल्यब्लोपे पञ्चमी । लक्षणं कृत्वा नोक्ता इत्यर्थः ॥ -२१-२६ ॥
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क्रमताना: ४]
प्रथमः स्वग्गताध्यायः
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तानाः स्युर्मूर्च्छनाः शुद्धाः पाडवौडुवितीकृताः । पड्जगाः सप्त हीनाश्चेत्क्रमात्सरिपसप्तमैः ॥ २७ ॥ तदा ऽष्टाविंशतिस्ताना मध्यमे सरिगोज्झिताः । सप्त क्रमाद्यदा तानाः स्युस्तदा त्वेकविंशतिः ।। २८ ॥ एते चैकोनपञ्चाशदुभये पाडवा मताः । सपाभ्यां द्विश्रुतिभ्यां च रिपाभ्यां सप्त वर्जिताः ॥ २९ ॥ पड्जयामे पृथक्ताना एकविंशतिरौडुवाः । रिधाभ्यां द्विश्रुतिभ्यां च मध्यमग्रामगास्तु ते ॥ ३० ॥ हीनाश्चतुर्दशैव स्युः पञ्चत्रिंशत्तु ते युताः। सर्वे चतुरशीतिः स्युमिलिताः पाडवौडुवाः ॥ ३१ ॥
(क०) प्रसङ्गाक्रमानुक्त्वा मूर्च्छनैकदेशरूपत्वेन मूर्च्छनाऽनन्तरमुद्दिष्टाशुद्धतानालक्षयति-तानाः स्युरिति । तन्यते विस्तार्यत इति तनोतेर्धातोः ‘अकर्तरि च-.' इत्यादिना सूत्रेण कर्मणि घञि तान इति रूपं दायो लाभ इतिवत् । शुद्धा मूर्च्छनाः षाडवौडवितीकृताः सत्यः शुद्धास्तानाः स्युरिति शुद्धपदस्योभयत्र संबन्धः । यदि तानपदेनैव संबन्धस्तदा मूर्च्छना इत्यविशेषेण प्रकृतत्वात्पटपञ्चाशन्मछेनानामपि प्रसक्तौ तासां च प्रत्येकं वक्ष्यमाणप्रकारेण पाडवौडुवितत्वयोः कृतयोस्तदुत्थतानसंख्यायां पत्रिंशदुत्तरशतत्रयमितायां सत्याम् 'तानाश्चतुरशीतिः स्युः' इति भरतवचनविरोधः स्यात् । किं चोत्तरवाक्ययोः ‘षड्जगाः सप्त' 'मध्यमे सप्त' इति च संख्योपादानमनुपपन्नं स्यात् । अतः शुद्धा मूर्च्छना इत्यन्वयः कर्तव्यः । अथ यदि मूर्च्छनापदेनैव संबन्धः क्रियेत तदा कूटतानानामपि लक्ष्यत्वं प्रतीयेत, तानपदस्थाविशेषेणोपादानात् । तन्मा भूदित्यु
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संगीतरत्नाकरः
[ग्राममूर्च्छनाभयत्रान्वयः कर्तव्यः । इह मूर्च्छनानां शुद्धत्वं नाम काकल्यन्तररहितत्वम् ; तानानां तु शुद्धत्वं काकल्यन्तररहितत्वं व्युत्क्रमेणोच्चारितस्वररहितत्वं चावगन्तव्यम् । पाडवौडवितीकृता इति । सप्तसु नियतैकस्वरलोपात्पाडवाः । सप्तसु नियतस्वरद्वयलोपादौडुविताः । पूर्वमषाडवाः षाडवाः संपन्नाः षाडवीकृताः, पूर्वमनौडुविता औडविताः संपन्ना औडुवितीकृताः । पाडवीकृताश्चौडुवितीकृताश्चेति समासः । षाडवौडुवितीकृता इत्यनेनैकस्य द्वयोर्वा स्वरयोरविशेपेण लोपे प्राप्ते, भरतादिमतानुसारेण लोपं निगमयतिपड्जगा इत्यादिना । ननु शुद्धतानेषु केषुचिद्भेदकपञ्चमलोपाद् ग्रामविवेकः कथमिति चेत् ; उच्यते-ग्रामविशेषमधिकृत्यैव तत्तत्स्वरविहीनतानाभिधानास्क्वचिद्भेदकपञ्चमाभावे ऽपि तानविशेषस्यैव ग्रामभेदकत्वमिति ॥ २७-३१॥
(सु०) तानान्निरूपयति--ताना: स्युरिति । शुद्धा मूर्च्छनास्तानाः स्युः । किंविधा मूछनाः ? विवक्षितकस्वरापकर्षेण विवक्षितस्वरद्वयापकर्षेण च षट्स्वरा: पञ्चस्वराश्चेति कृताः । तमेव विवक्षितं स्वरापकर्ष कथयति-षड़जगा इति । षड्जप्रामस्था मूर्च्छना यदा षड्जेन हीनाः क्रियन्ते तदा सप्त ताना भवन्ति । यदर्षभेण हीनास्तदा सप्त । यदा पञ्चमेन हीनास्तदा सप्त । यदा सप्तमेन निषादेन हीनास्तदा सप्त । एवं षड्जग्रामे पाडवा अष्टाविंशतिस्ताना भवन्ति । मध्यमग्रामे सप्त मूछना यदा षड्जोज्झिता भवन्ति तदा सप्त तानाः । यदर्षभोज्झितास्तदा सप्त । यदा गांधारोज्झितास्तदा सप्त । एवं मध्यमग्राम एकविंशतिः षाडवास्ताना भवन्ति । ग्रामद्वये मिलिता: षाडवास्ताना एकोनपञ्चाशत् ॥ २७-२८- ॥ औडुवांस्तानान्निरूपयति--सपाभ्यामिति । षड्जमाममूर्च्छना: सपाभ्यां षड्जपञ्चमाभ्यां वर्जिता यदा भवन्ति तदा सप्तौडुवास्तानाः । यदा द्विश्रुतिभ्यां गांधारनिषादाभ्यां वर्जितास्तदा सप्त । यदा रिपाभ्यामृषभपञ्चमाभ्यां हीनास्तदा सप्त । एवं षड्जग्राम एकविंशतिस्ताना औडुवा: । मध्यमप्रामे यदा सप्त मूछना रिधाभ्यामृषभधैवताभ्यां हीना भवन्ति तदा सप्त ताना औडुवाः । यदा द्विश्रुतिभ्यां गांधारनिषादाभ्यां हीनास्तदा सप्त । एवं मध्यमग्राम
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क्रमताना: ४]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
असंपूर्णाश्च संपूर्णा व्युत्क्रमोच्चारितस्वराः ।
मूर्च्छनाः कूटतानाः स्युस्तत्संख्यामभिदध्महे ।। ३२ । पूर्णाः पञ्च सहस्राणि चत्वारिंशद्युतानि तु । एकैकस्यां मूर्च्छनायां कूटतानाः सह क्रमैः ॥ ३३ ॥
११७
औडुवास्तानाश्चतुर्दश । ग्रामद्वये मिलिता औडुवा: पञ्चत्रिंशत् । सर्वे ऽपि पाडचौडवाश्चतुरशीतिः । तानानां प्रयोगस्तु द्विधा कथितो मतङ्गेन । यदाहकथमेषां तानानां प्रयोग: कार्य इति चेत्, उच्यते । द्विविधस्तानप्रयोगः प्रवेशेन निग्रहेण च । प्रवेशो ह्यृषभापेक्षया षड्जस्याधरीभूतस्य लोपनीयस्य विप्रकर्षः पीडनम्, ऋषभापादनमिति यावत् । इति विप्रकर्षेण प्रवेश: । मार्दवेनायं यथा — तस्यैव षड्जस्य निषादापेक्षयोत्तरीभूतस्य मार्दवं शिथिलीकरणम्, निषादापादनमिति यावत् । इति द्विविध: प्रवेशः । निग्रहस्तूत्तरस्वरपरित्यागो ऽसंस्पर्शः । प्रयोगस्तु यथा-सासागरिपापामारी । तथा चाह भरतः - 'द्विधा तानक्रिया तन्त्र्यां प्रवेशो निग्रहश्च । अत्र प्रवेशो नामाधरस्वरप्रकर्षणादुत्तरस्वरमार्दवाच्च । निग्रहश्वासंस्पर्श:' इति । दत्तिलो ऽप्याह
'द्विधा तानक्रिया तन्त्र्यां प्रवेशान्निप्रहात्तथा । प्रवेशो ध्वनिसादृश्यमसंस्पर्शस्तु निग्रहः ॥ '
इति । ननु प्रथमायां सप्तम्यां च मूर्च्छनायां षड्जे लुप्ते रिगमपधनीत्येकमेव रूपं भवतीति तत्र को विशेष: ? सत्यं भेदो नास्ति परं तु मन्द्रतारकृतो भेदो विद्यत एव । ननु मूर्च्छनास्तावज्जातिरागभाषाऽऽदिषूपयोगिन्य इति युक्तं तासां कथनम् ; तानास्तु कुत्रोपयुज्यन्ते ? उच्यते । द्वयोर्ग्रामयोर्जातिरागान्यत्वप्रतिपादनार्थ प्रयोगस्तानानामित्युक्तं मतङ्गेन ॥ २९–३१ ॥
(क०) क्रमप्राप्तान्कूटतानाऍलक्षयति — असंपूर्णाश्चेति । मूर्च्छनाश्चतुर्विधा अपि मूर्च्छनाः संपूर्णा असंपूर्णाश्च व्युत्क्रमेणोच्चारितस्वराश्चेत्कूटतानाः स्युरित्यन्वयः । संपूर्णाः सप्तस्वरयुक्ताः, असंपूर्णा एकैकान्त्यान्त्यस्वरत्यागे सति षटस्वराद्येकस्वरान्ताः, चकारो विकल्पार्थः । व्युत्क्रमोच्चा
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११८
संगीतरत्नाकर:
षट्पञ्चाशन्मूर्च्छनास्थाः पूर्णाः कूटास्तु योजिताः । लक्षद्वयं सहस्राणि द्वयशीतिर्दे शते तथा ॥ ३४ ॥ चत्वारिंशच्च संख्याता अथापूर्णान्प्रचक्ष्महे । एकैकान्त्यान्त्य विरहाद्भेदाः षट् षट्स्वरादयः ।। ३५ ।। एकस्वरो sa निर्भेदोsयुक्तो नष्टादिसिद्धये । क्रमा अकूटतानत्वे ऽप्युक्तास्तेषूपयोगिनः || ३६ ||
[प्राममूर्च्छना
रितस्वरा इत्यत्र स्वराणामानुपूर्व्या ssरोह एव क्रमः । तेष्वेकादिस्वरव्यत्यासो व्युत्क्रमः । अवरोहे सत्यामपि विपरीतानुपूर्व्या क्रमत्वाभावेन कूटतानत्वमेव । कूटत्वं नाम व्युत्क्रमोच्चारितस्वरत्वम् || अथ षट्पञ्चाशति मूर्च्छनास्वेकैकस्याः संपूर्णादिसप्तभेदेषु प्रतिभेदं वक्ष्यमाणप्रस्तारवशादियत्तया कूटतानसंख्यां दर्शयितुं प्रतिज्ञापूर्वक माह पूर्णाः पञ्च सहस्राणीत्या - दिना || एकैकान्त्यान्त्यविरहादिति । एकैकस्यां मूर्च्छनायामन्त्यान्त्यविरहादन्त्यान्त्यस्वरपरित्यागात् । अन्त्यान्त्येति वीप्सयोत्तरमन्द्रायां संपूर्णक्रमे ऽन्त्यो निषादः, तस्य परित्यागात्पट्स्वरः क्रमो भवति । तस्मिन्क्रमे ऽन्त्यो धैवतः, तत्परित्यागात्पञ्चस्वरः क्रमो भवति । एवमसंपूर्णाः षड् भेदा द्रष्टव्याः । तद्यथा सरिगमपधेति पट्स्वरो भेद: ; सरिगमपेति पञ्चस्वर : ; सरिगमेति चतु:स्वरः ; सरिगेति त्रिस्वरः; सरीति द्विस्वर : ; सेत्येकस्वरः । एवमन्यास्वपि मूर्च्छनासु प्रत्येकं पड् भेदा द्रष्टव्याः । निर्भेदः प्रस्ताराभावादवान्तरभेदरहितः । नष्टादिसिद्धय इति । आदिशब्देनोद्दिष्टस्य संख्यायाश्च ग्रहणम् ; तेषु ' मौलैकाङ्कसमन्वितैः' इत्येकस्वरतानस्योपयोगात्तत्सिद्धिरिति, तस्यै । तेषूपयोगिन इति । तेषु कूटतानेपु मूलकारणत्वेनोपयोगिनो यतो ऽत उक्ता: । व्युत्क्रमस्य क्रमापेक्षित्वादिति
भावः ।। ३२-३६ ॥
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क्रमतानाः ४] प्रथमः स्वरगताध्यायः
(सु०) कूटतानान्कथयति- असंपूर्णा इति । या मूछना असंपूर्णा याश्च संपूर्णास्तास्ता एव व्युत्क्रमेणोच्चारितस्वरा: सत्यः कूटताना भवन्ति । प्रतिमूच्छेनं पूर्णकूटतानसंख्यां प्रतिज्ञाय कथयति-तत्संख्यामिति ॥ ३२ ॥ एकैकस्यां मूर्छनायां पूर्णाः कूटतानाश्चत्वारिंशदुत्तराणि पञ्च सहस्राणि (५०४०) भवन्ति । ननु मतङ्गेन त्रयस्त्रिंशदधिकानि पञ्च सहस्राणि (५०३३) प्रतिमूच्छनं कूटतानसंख्योक्ता ; यदाह-"कूटतानानां सहस्राणि पञ्च त्रयस्त्रिंशदधिकानि निष्पद्यन्ते ;
दत्तिलेनाप्युक्तम्--
'पूर्णाः पञ्च सहस्राणि त्रयस्त्रिंशच्च संख्यया ।
कथयन्ति प्रतिग्राममुपायो गणने ऽधुना ||' इति" इति । तन्निरासार्थमाह--सह क्रमैरिति । प्रतिमूछेनं प्रस्तारे क्रियमाणे सप्त क्रमाः संजायन्ते ; तैः सह चत्वारिंशदुत्तराणि पञ्च सहस्राणि भवन्तीति तात्पर्यम् । दत्तिलादिभिस्तु क्रमान्विहाय कूटतानसंख्यैव निर्दिष्टेत्यविरोधः ॥३३॥ प्रतिमूच्छेनं कूटतानसंख्यामुक्त्वा सर्वासां मूर्च्छनानां कूटतानसंख्यां कथयतिषट्पञ्चाशदिति । चत्वारिंशदधिकानि पञ्च सहस्राणि षट्पञ्चाशता गुणनीयानि । एतावता लक्षद्वयं व्यशीतिः सहस्राणि शतद्वयं चत्वारिंशदधिकमितीयं संख्या (२८२२४०) निष्पद्यते । अपूर्णान्कूटतानान्प्रतिज्ञाय कथयति-अथापूर्णानिति । क्रमाणां कूटतानानां च षट्स्वरादयः षड् भेदा भवन्ति । कथं भवन्तीत्यपेक्षायामाह--एकैकान्त्यान्त्यविरहादिति । पूर्णा या मूच्छंना ग्रामद्वये तासामेकैकान्त्यस्वरापकर्षण ; अन्त्यकस्वरापकर्षेण षट्स्वरा भेदा भवन्ति, अन्त्यस्वरद्वयापकर्षण पञ्चस्वराः, अन्त्यस्वरत्रयविरहेण चतुःस्वराः, अन्त्यस्वरचतुष्टयहान्या त्रिस्वराः, अन्त्यस्वरपञ्चकहान्या द्विस्वराः, अन्यस्वरषट्कहानेनैकस्वरा इति ॥३४, ३५॥ नन्वेकस्वराणां प्रस्ताराभावाद्भेदा न सन्ति; ते किमर्थमत्रोच्यन्ते? अत आहएकस्वर इति । एकस्वरभेदा नष्टोद्दिष्टसिद्धय उक्ताः । एकस्वरपरित्यागेन द्विस्वरादीनामपि निवेशने खण्डमेरौ नष्टोद्दिष्टपरिज्ञानस्याशक्यत्वादेकस्वरा अप्युक्ता इत्यर्थः । ननु तर्हि क्रमाः कूटतानत्वाभावात्किमर्थमत्रोच्यन्ते? अत आह-क्रमा इति । क्रमा यद्यपि कूटताना न भवन्ति, तथा ऽपि क्रमं न्यस्य स्वरः स्थाप्यः। इति वक्ष्यमाणे प्रस्तारे ते कूटतानेषूपयोगिनो भवन्ति, क्रमैर्विना कूटतानानामशक्यज्ञानत्वात् ॥ ३२-३६ ॥
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१२०
संगीतरत्नाकर:
षाडवानां विंशत्या सह सप्त शतानि तु । औडवानां तु विंशत्या सहितं शतमिष्यते ॥ ३७ ॥ चतु:स्वराणां 'कूटानां चतुर्विंशतिरीरिताः । त्रिस्वराः षड् द्विस्वरौ द्वावेकस्त्वेकस्वरो मतः ॥ ३८ ॥ आर्चिको गाथिकाथ सामिको ऽथ स्वरान्तरः । एकस्वरादितानानां चतुर्णामभिधा इमाः ॥ ३९ ॥ 'उक्ताः शुद्धादिभेदेन निगयुक्ताश्चतुर्विधाः । तयोरेकैकहीनास्तु द्वेधा मूलकमा मताः ॥ ४० ॥
[प्राममूर्च्छना
( क ० ) स्युः पाडवानामिति । अत्र पाडवत्वं षट्स्वरवत्त्वमात्रेण विवक्षितम्, न तु प्रयोगापादनसमर्थषट्स्वरवत्त्वम् । औडुवानामित्यत्राप्येवमेव द्रष्टव्यम् || आर्चिक इति । यज्ञप्रयोगेष्वृचामेकस्वराश्रयत्वात्, तत्संबन्धादाचिकः । तथा गाथासंबन्धाद्वाथिको द्विस्वरः । सामसंबन्धात्त्रिस्वरस्तानः सामिकः । साम्नां तु त्रिस्वरत्वं सप्तस्वरवत्त्वे ऽपि मन्द्रादिस्थानत्रय - विवक्षया । चतुःस्वरतानस्यैकस्वरादिसप्तविधतानमध्यवर्तित्वात्स्वरान्तर इति संज्ञा ॥ उक्ताः शुद्धादिभेदेनेति । अत्रादिशब्देन सकाकलिसान्तरतद्द्वयोपेता गृह्यन्ते ॥ ३७–४० ॥
( सु० ) षाडवानां कूटतानानां क्रमः सह संख्यामाह - स्यु: पाडवानामिति । षाडवस्य क्रमस्य प्रस्तारे क्रियमाणे विंशत्युत्तराणि सप्त शतानि (७२०) भेदाः संजायन्ते । औडुवानां प्रस्तारे प्रतिमूर्च्छनं विंशत्युत्तरशतम् (१२० ) भेदा भवन्ति । चतु:स्वराणां प्रस्तारे चतुर्विंशतिर्भेदा भवन्ति । त्रिस्वराणां प्रस्तारे
तानानां .
' उक्तशुद्धा दिभेदेन.
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क्रमतानाः प्रथमः स्वरगताध्यायः
१२१ पड्जाद्यो मध्यमाद्यौ च चत्वारः स्युविधा द्विधा । चतुर्धा ऽन्ये दशेत्यष्टाचत्वारिंशदमी क्रमाः ॥ ४१ ॥ सविंशतिः सप्तशती प्रागुक्ता गुणिता क्रमैः।
चतुस्त्रिंशत्सहस्राणि पष्टया पञ्च शतानि च ॥ ४२ ॥ षड् (६) भेदाः । द्विस्वराणां प्रस्तारे द्वौ (२) भेदो । एकस्वरप्रस्तार एकः (१) ॥ ३७, ३८ ॥ एकस्वरादितानानां नामविशेषं कथयति-आर्चिक इति । एकस्वर आर्चिक इत्युच्यते । द्विस्वरो गाथिकः । त्रिस्वरः सामिकः । चतुःस्वरः स्वरान्तरः । पञ्चस्वरस्यौडुवत्वं षट्स्वरस्य षाडवत्वं च वक्ष्यति । सप्तस्वरः संपूर्णः, सप्तभ्यो ऽधिकस्वराभावात् । तथा चाह नारद:
'आर्चिको गाथिकश्चैव सामिकश्च स्वगन्तरः ।
औडुवः षाडवश्चैव संपूर्णश्चैव सप्तमः ॥ एकस्वरप्रयोगो हि आर्चिकस्त्वभिधीयते । गाथिको द्विस्वरो ज्ञेयस्त्रिस्वरश्चैव सामिकः ॥ चतुःस्वरप्रयोगो हि स्वरान्तरक उच्यते । औडुवः पञ्चभिश्चैव षाडवः षट्स्वरो भवेत् ॥
संपूर्णः सप्तभिश्चैव विज्ञेयो गीतयोक्तृभिः ।' इति ॥ ३९ ॥ एवं षाडवादीनां प्रतिक्रम संख्यामुक्त्वा षाडवक्रमसंख्याऽर्थमाहउक्ताः शुद्धादिभेदेनेति । ग्रामद्वये चतुर्दश मूच्र्छना अन्त्यकैकस्वरापकर्षेण यदा षाडवाः क्रियन्ते तदा निषादगांधारयुक्ता भेदाश्चतुर्विधा भवन्ति शुद्धाः काकलीकलिता: सान्तरास्तद्वयोपेता इति । तयोनिषादगांधारयोरेकैकहीनास्तु द्वेधा निषादहीनौ शुद्धौ सान्तरौ, गांधारहीनौ शुद्धौ काकलीकलितौ ॥ ४० ॥
(क०) षड्जाद्यौ मध्यमाद्यौ चेति । षड्जग्राम औत्तरमन्द्रः क्रमः षड्जाद्यः, मध्यमग्रामे शौद्धमध्यमः षड्जाद्यः, एतौ षड्जाद्यौ । मध्यमग्रामे सौवीरः क्रमो मध्यमाद्यः, षड्जग्रामे मात्सरीकृतः क्रमो मध्यमाद्यः, एतौ मध्यमाद्यौ । मिलित्वा चत्वारो द्विधा द्विधा स्युः प्रत्येकं द्विधा भवन्ति ;
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१२२
संगीतरत्नाकरः [ग्राममूच्र्छनाइति पाडवसंख्या स्यादथ पञ्चस्वरान्ब्रुवे । गाद्यौ धाद्यौ निषादाद्यौ चतुर्भेदाः पडौडवाः॥ ४३ ॥ अष्टावन्ये द्विधेत्येवं चत्वारिंशदिमे क्रमाः । सविंशतौ शते तैश्च गुणिते ऽष्टौ शतानि तु ॥ ४४ ॥ चत्वारि च सहस्राणि संख्या पञ्चस्वरेष्विति । चतुःस्वरेषु न्यायौ द्वौ चतुर्था द्वादशापरे ॥ ४५ ॥ क्रमा द्विधेति द्वात्रिंशचतुर्विंशतिताडिता । शतानि सप्ताष्टपष्टया स्याच्चतुःस्वरसंमितिः ॥ ४६ ।। त्रिस्वरेषु तु माद्यो द्वावभेदौ द्वादशापरे। द्विधा पड्विंशतिरिति क्रमास्ते पद्भिराहता ॥ ४७ ॥ पट्पश्चाशच्छतं च स्युर्दिस्वरेपु पुनर्द्विधा। रिगधन्यादयो ऽष्टौ स्युः शुद्धास्तदितरे क्रमाः ॥ ४८ ॥
द्वाविंशतिस्ते तु चतुश्चत्वारिंशद् द्विताडिता । निगयोरेकैकहीनत्वादित्यर्थः । अन्ये दश चतुर्धेति । निगयुक्तत्वादित्यर्थः । गाद्यौ धाद्यावित्यादिप्वप्येवं द्रष्टव्यम् ॥ ४१-४८- ॥
(सु०) चतुर्दशसु के चतुर्धा के च द्वेधेत्यपेक्षायामाह--षड्जाद्याविति । ग्रामद्वयमूर्च्छनासु षड्जाद्यौ द्वौ भेदौ निषादहीनत्वाद् द्विप्रकारौ शुद्धौ सान्तराविति । मध्यमाद्यौ च द्वौ भेदौ गांधारहीनत्वाद् द्विप्रकारौ शुद्धौ काकलीकलिताविति । अन्ये तु दश भेदाश्चतुर्धा शुद्धाः सान्तराः काकलीकलितास्तद्वयोपेता इति । एवमष्टाचत्वारिंशत् (४८) षाडवाः क्रमा भवन्ति । प्रतिक्रमं च विंशत्युत्तराणि सप्त शतानि (७२०)। तान्यष्टाचत्वारिंशता गुणितानि चतुस्त्रिंशत्सहस्राणि षष्टयधिकानि पञ्च शतानि च (३४५६०) क्रमैः सह षाडवकूटतानभेदा भवन्ति । पञ्चस्वरान्क्रमान्परिगणयति-गाद्या विति । ग्रामद्वये गांधाराद्यौ द्वौ भेदौ, धैवतायो द्वौ, निषादाद्यौ द्वौ । एवं षडौडुवाः पञ्चस्वरा भेदा निषादगां
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क्रमतानाः ४] प्रथमः स्वरगताध्यायः
एकस्वरास्त्वभेदत्वान्मौला एव चतुर्दश ।। ४९ ॥ पड्जादेः शुद्धमध्याया भेदकं पञ्चमं विना ।
चतुःस्वरे क्रमद्वंद्वे ऽष्टाचत्वारिंशदीरिताः ॥ ५० ।। धारयुक्तत्वाच्चतुःप्रकाराः। अन्ये ऽष्टौ भेदास्तु चत्वागे निषादहीनाश्चत्वारश्च गांधारहीनाः, तस्माद् द्विप्रकागः । एवं चत्वारिंशत् (४०) औडुवा: क्रमा भवन्ति । प्रतिक्रमं च विंशत्युत्तरं शतम् (१२०) भेदा भवन्ति । अतश्च विंशत्युत्तरे शते चत्वारिंशता गुणिते ऽप्टशताधिकानि चत्वारि सहस्राणि (४८००) पञ्चस्वराः कूटताना: क्रमः सह भवन्ति ॥ ४१-४४- ॥ चतुःस्वरान्क्रमान्परिगणयति-चतुःस्वरेष्विति । ग्रामद्वये चतुर्दशसु मूर्च्छनाभेदेषु मध्ये निषादाद्यौ द्वौ भेदौ चतुःस्वरौ निषादगांधारयुक्तत्वाच्चतुर्धा । अपरे द्वादश भेदा एकैकयुक्तत्वाद् द्विधा । एवं द्वात्रिंशत् (३२) चतुःस्वराः क्रमा भवन्ति । प्रतिक्रमं चतुर्विशतिः (२४) भेदाः । अतश्चतुर्विशत्या गुणितायां द्वात्रिंशत्यष्टषष्टयधिकानि सप्त शतानि (७६८) चतु:स्वराः कूटताना: क्रमैः सह भवन्ति ॥ -४५, ४६ ॥ त्रिस्वरान्क्रमान्गणयति--त्रिस्वरेष्विति । त्रिस्वराणां चतुर्दशानां क्रमाणां मध्ये माद्यौ मध्यमाद्यौ द्वौ भेदौ निषादगांधारहीनत्वादभेदौ भेदशून्यौ । अपरे द्वादश भेदा निषादगांधारयोरैकैकयुक्तत्वाद् द्विप्रकाराः । एवं षडिशतिः (२६) त्रिस्वरा: क्रमा: संपद्यन्ते । प्रतिक्रमं च षड़ (६) भेदाः । ततश्च षड्भिर्गुणितायां षडिंशतौ षट्पञ्चाशदुत्तरं शतम् (१५६) त्रिस्वराः कूटतानाः क्रमैः सह भवन्ति । द्विस्वरान्क्रमान्परिगणयति-द्विस्वरेप्विति । ग्रामद्वये चतुर्दशानां द्विस्वराणां मध्य ऋषभाद्यौ द्वौ भेदौ, गांधाराद्यौ द्वौ, धेवताद्यौ द्वौ, निषादाद्यौ द्वौ । एवमष्टौ भेदा निषादगांधारयोरेकैकयुक्तत्वाद् द्विधा । अपरे तु षड् भेदा उभयहीनत्वाच्छुद्धाः सान्तरत्वादिभेदहीनाः । एवं द्विस्वरा द्वाविंशतिः (११) क्रमा भवन्ति । प्रतिक्रमं च भेदद्वयम् (२) । अतश्च ते द्वाविंशतिर्भदा द्वाभ्यां गुणितायां द्वाविंशतौ चतुश्चत्वारिंशद् (४४) द्विस्वराः कूटतानाः क्रमैः सह भवन्ति ॥ ४७-४८- ॥
(क०) एकस्वरास्त्विति । तुशब्दो द्विस्वरादिक्रमवैषम्यद्योतनार्थः । वैषम्यं चात्र काकल्यन्तरप्रयुक्तभेदराहित्यम् । अभेदत्वात्प्रस्तारप्रयुक्तभेदर
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१२४ संगीतरत्नाकरः
[ग्राममूर्च्छनातानास्त्रिस्वरयोस्त्वेते द्वादश द्विस्वरे द्वयम् । एक एकस्वरस्ते त्रिपष्टिरौत्तरमन्द्रकैः ।। ५१ ।। पुनरुक्ता मतास्तानैादिमार्गीक्रमाः पुनः । पञ्चस्वरा ये चत्वारस्तत्तानानां चतुःशती ॥ ५२ ।। अशीत्यभ्यधिका चातुःस्वरी पण्णवतिर्भवेत् । द्वादश त्रिस्वरद्वंद्वे चत्वारो द्विस्वरद्वये ॥ ५३ ॥ एक एकस्वरस्तानस्तेषां पञ्चशती त्वियम् ।
त्रिनवत्या युता तानैरभिन्ना रजनीगतैः ॥ ५४ ॥ हितत्वात् । मौला मुले भवाः, शुद्धा इत्यर्थः । चतुर्दशैव ; अत्रान्ययोगव्यवच्छेदार्थमवधारणम् । अयमभिप्रायः– यद्यपि निगयोः काकल्यन्तरावस्थाssपत्त्या मूर्च्छनाभेदकत्वं तथा ऽप्येकैकस्वरयोस्तयोः स्वरान्तरयोगमन्तरेण स्वगतसूक्ष्मभेदस्यालक्ष्यमाणत्वाच्छुद्धयोरेव गणना, न काकल्यन्तरयोरिति । यदा पुनः षड्जग्रामे मध्यस्थानस्थितषड्जस्थान एव निषादाद्यारम्भेण रजन्यादयो मूर्च्छना भवेयुरिति तथा मध्यमग्रामे मध्यस्थानस्थितमध्यमस्थान एव गांधाराद्यारम्भेण हारिणाश्वादयो मुर्छना भवेयुरिति च पक्षः, तदा ग्रामयोर्भेदकपञ्चमाभावे ऽपि मर्छनानां स्थानभेदस्य विद्यमानत्वात्कूटतानपौनरुक्त्याभाव एव । यदा पुनमियोर्मूर्च्छनानां तदधोऽधःस्थस्वरारम्भपक्षस्तदा तु मध्यमग्रामीणानां शुद्धमध्यामार्गीपौरवीगतानां तानानां षड्जग्रामीणैरुत्तरमन्द्रारजन्युत्तरायतागतैर्यथायोगं पट्स्वरादिभिस्तानैः सह स्थानभेदाभावाद्भेदकपञ्चमाभावेन पौनरुक्त्यं निश्चित्य तत्र शुद्धाश्रयत्वेन प्रथमोक्तान्पाड्जग्रामिकान्गणनायां संस्थाप्य तदपेक्षया पुनरुक्तान्माध्यमग्रामिकानपनेतुं तान्परिगणयति-पड्जादेः शुद्धमध्याया इत्यादिना ।
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क्रमतानाः ४] प्रथमः स्वरगताध्यायः
१२५ ननु शुद्धमध्याया इत्यनेनैव पड्जादित्वे सिद्धे षड्जादेरिति विशेषणं व्यर्थमिति चेत् , न ; अशुद्धमध्यायाः प्रथमादिस्वरारम्भक्रमाक्रमसप्तकवत्त्वेन तावत्येवोक्तक्रमविषयः संदेहः स्यात् ; तन्निवर्तकत्वेन विशेषणमर्थवदिति । एवं न्यादिमार्गीत्यत्र धैवतादेस्तु पौरव्या इत्यत्राप्यवगन्तव्यम् ॥ -४९-५४ ॥
(सु०) एकस्वरास्तु भेदाभावाच्चतुर्दशैव भवन्तीत्याह-एकस्वगस्त्विति । एवं क्रमः पुनरुक्तैश्च सह लक्षत्रयं द्वाविंशतिः सहस्राणि पञ्च शतानि द्वयशीतिश्च (३२२५८२) भेदा भवन्ति । एतेषु पृथकर्तुं पुनरुक्तान्कूटतानान्कथयति-- षड्जादेरिति । मध्यमग्रामे चतुर्थी मूर्च्छना षड्जादिः शुद्धमध्या। तस्याश्चतुःस्वरं क्रमद्वयं शुद्धं सान्तरं च । तत्र ग्रामद्वयमूछनानां भेदकं चतुःश्रुतिकत्वेन त्रिश्रुतिकत्वेन च द्विविधं पञ्चमं विना ऽष्टाचत्वारिंशद्भेदाः पुनरुक्ताः ॥ -४९-६० ॥ त्रिस्वरयोस्तु द्वयोः क्रमयोः शुद्धसान्तरयोदश भेदाः पुनरुक्ताः । द्विस्वरे निषादगांधारहीनत्वादेकस्मिन्प्रामे भेदद्वयं पुनरुक्तम् । एकस्वरस्त्वेक एव पुनरुक्तः । एवं शुद्धमध्यायास्त्रिषष्टिर्भदाः । औत्तरमन्द्रकैः षड्जग्रामे प्रथममूर्च्छनोत्तरमन्द्रा षड्जादिभिरेव तत्संबन्धिभिः कूटतानैः सह पुनरुक्ताः । अन्यानपि पुनरुक्तान्गणयति-न्यादिमार्गीति | मध्यमग्रामे निषादादिर्हि पञ्चमी मूर्च्छना मार्गी । तस्यां पञ्चस्वराश्चत्वारः क्रमा भवन्ति, निषादगांधारयुक्तत्वात् । तेषां भेदा अशीत्यभ्यधिकं शतचतुष्टयम् । चतु:स्वरसंबन्धिनी चातुःस्वरी षण्णवतिः । कूटतानानां पुनरुक्ताश्चतुःस्वरा अपि निषादगांधारयुक्तत्वाच्चत्वारः क्रमा: । प्रतिक्रमं च चतुर्विशतिर्भेदा: । अतः षण्णवते: पौनरुक्त्यम् । त्रिस्वरं तु क्रमद्वयमेव, निषादयुक्तत्वात् । तत्र द्वादश भेदाः । द्विस्वरं क्रमद्वयं निषादयुक्तत्वात् । तस्य चत्वारो भेदाः । एकस्वर एक एव । यद्यपि निषादस्य शुद्धत्वेन काकलीत्वेन च द्वैविध्यं संभवति, तथा ऽप्येकस्वरस्य क्रमत्वेनानुपेयत्वान्न भेदादरः । एवं त्रिनवत्या युता पञ्चशती रजनीगतैस्तानैः सह पुनरुक्ताः । रजनी षड्जग्रामे द्वितीया मूर्च्छना निषादादिः ॥ ५१-५४ ॥
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१२६ संगीतरत्नाकरः
[ग्राममूर्च्छनाधैवतादेस्तु पौरव्याश्चत्वारः षट्स्वराः क्रमात् । तत्तानानां तु साशीतिः शताष्टाविंशतिर्मता ॥ ५५ ॥
औड्डवानां चतुर्णा प्रागुक्ता संख्या चतुःस्वरौ । त्रिस्वरौ द्विस्वरावेकस्वरः प्रागुक्तसंख्यकाः ।। ५६ ।। पञ्चविंशतिसंयुक्ता चतुस्त्रिंशच्छती त्वियम् । तानानां सदृशाकारा स्यात्तानेरौत्तरायतैः ।। ५७ ।। इत्येकाशीतिसंयुक्तं सहस्राणां चतुष्टयम् । तानानां पुनरुक्तानां पूर्णापूर्णैः सह क्रमैः ।। ५८ ॥
(क०) धैवतादेस्तु पौरव्या इति । अत्र धैवतस्य ग्रामभेदकत्वं नाशङ्कनीयम् , तस्योपलक्षणतया पूर्वमभेदकत्वप्रतिपादनात् ॥ ५५-५७ ॥
(सु०) पुनरपि पुनरुक्तान्गणयति धैवतादेरिति । मध्यमग्रामे षष्ठी मूछना धैवतादि: पौरवी । तस्या निषादगांधारयुक्तत्वात्षट्स्वराश्चत्वारः क्रमा भवन्ति । प्रतिक्रमं च सप्त शतानि विंशत्युत्तराणि | चतुर्णी क्रमाणामशीत्यभ्यधिकान्यष्टाविंशतिः शतानि भेदाः पुनरुक्ताः । सर्वत्र भेदकं पञ्चमं विनेत्यनुषङ्गो योज्यः । तस्या एव पौरव्या औडुवाः पञ्चस्वरा निषादगांधारयुक्तत्वाच्चत्वारः क्रमाः । तेषां प्रागुक्ता संख्या ऽशीत्यभ्यधिका चतुःशती। चतु:स्वरौ द्वौ क्रमौ निषादयुक्तत्वात् । तयोरष्टाचत्वारिंशद्भेदा भवन्ति । त्रिस्वरौ निषादयुक्तत्वाद् द्वौ क्रमौ । तयोर्वादश भेदाः । द्विस्वरावपि निषादयुक्तत्वाद् द्वौ क्रमौ । तयोश्चत्वारो भेदाः । एकस्वरस्त्वेक एव । एवं पञ्चविंशतिसंयुक्तानि चतुस्त्रिंशच्छतानि सदृशाकाराणि पुनरुक्तानि भवन्ति । कैः सह पौनरुक्त्यम् ? अत आह-औत्तरायतैरिति । उत्तरायता षड्जग्रामे तृतीया मूर्च्छना धैवतादिः । तत्संबन्धिभिः कूटतानैः सह पौनरुक्त्यमित्यर्थः ॥ ५५-५७ ॥
(क०) पूर्णापूर्णैः सह क्रमैरिति । तत्र पूर्णाः क्रमाः प्रथमादिस्वरारम्भादित्यादिना लक्षणेन निप्पन्ना द्वानवतियुतशतत्रयसंख्याकाः ।
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क्रमताना
१२७
प्रथमः स्वरगताध्यायः अपनीयेत चेदेषा कूटतानमितिर्भवेत् । लक्षत्रयं सप्तदश सहस्राणि शतानि च ॥ ५९ ।। नवत्रिंशद्युतानीति ज्ञानोपायो ऽत्र कथ्यते ।
अपूर्णा द्वयशीत्युत्तरशतसंख्याकाः । उभये चतुःसप्तत्यधिकपञ्चशतसंख्याकाः। नन्वतैः क्रमैः सहिते पुनरुक्ततानानामेकाशीतियुक्तसहस्रचतुष्टये द्वयशीत्युत्तरपञ्चशताधिकद्वाविंशतिसहस्रसहितलक्षत्रयमितात्तानराशेरपनीते सत्यवशिष्टकूटतानसंख्या लक्षत्रयं सप्तदश सहस्राणि नव शतानि सप्तविंशतिश्चेति दृश्यते । अत्र त्रिंशद्युतानीति कथमुपपद्यत इति चेत् , ब्रूमः---अत्रैकस्वरतानानां चतुर्दशानां मध्ये शुद्धमध्यामार्गीपौरवीगतेषु त्रिप्वेकस्वरतानेषु पुनरुक्तत्वेनापनीतेप्वेकादशैवेतरेष्वेषां क्रमत्वाभावे ऽपि कूटतानत्वाभावादपनेयत्वेन क्रमराशौ निवेशिताः, त्रयस्तु न निवेशिता इति तैः सह त्रिंशद्युतानीत्युपपद्यत इति । एवं तर्हि शुद्धमध्याऽऽदिष्वेव द्विस्वरादिप्वेकत्रिंशत्क्रमेयु पुनरुक्ततानत्वेनापनीतेषु तेषामपि क्रमराशावननुप्रवेशादेकषष्टियुक्तानीति पठितव्यं स्यादिति चेत् , सत्यम् । अत्रोच्यते--पुनरुक्ततानत्वाकारेणापनीतानामपि तेषां क्रमत्वसंभवात्क्रमराशावनुप्रविष्टानां क्रमत्वप्रयुक्त्या ऽपि पुनरपनेयत्वमाकारद्वयवशाद् बृहस्पतिसवानुष्ठानवदुपपद्यते । यथैकस्यापि बृहस्पतिसवस्याश्वमेधाङ्गत्वेन प्राधान्येन चानुष्ठेयत्वम् , लोके च यथैकस्यापि देवदत्तस्य पाठकत्वपाचकत्वोपाधिवशाद्भेदेन परिगणनात्कार्यान्तरान्वयः, तद्वत्त्रयाणामेकस्वराणामनुक्रमत्वाभावेनाकारद्वयासंभवान्न पुनरपनेयत्वम् , द्विस्वरादीनामेकत्रिंशत्तानानामाकारद्वयसंभवात्पुनरपनेयत्वमेव ; अन्यथा तु दोषः स्यादिति मत्वा त्रिंशद्युतानीति सुष्टुक्तं निःशङ्कशाङ्गदेवेन । ये तु मन्यन्ते
'त्यक्तानां न सकृत्त्यागः कथमप्युपपद्यते ' इति निर्णीय,
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१२८
संगीतरत्नाकरः [ग्राममूर्च्छना' सहस्रैः सप्तदशभिर्युतं लक्षत्रयं तथा ।
शतानि नव षष्टिश्च सैका कूटाः समासते ॥' इति. ते प्रष्टव्या:--अथैकत्रिंशत्तानानां सकृत्त्यागः पुनरुक्तत्वेन वा क्रमत्वेन वा? यदि पुनरुक्तत्वेनैव त्यज्येरंस्तदा तेषां क्रमत्वेन त्याज्येप्वपरिगणनात्केवलकूटतानपरिगणनावसरे क्रमाणामपि ग्रहणात् 'कूटाः समासते' इति वदतां व्याहतिः स्यात् । किं च तेषां पुनरुक्ताकारवत्तया च पुनरुक्तपरित्यागो ऽपि साकल्येन न कृतः स्यात् । अथ क्रमत्वेनैव परित्यागस्तदा पुनरुक्तत्वेन त्याज्येप्वपरिगणनादपुनरुक्तकूटतानेयत्ताऽभिधानावसरे पुनरुक्तानामपि तेषां ग्रहणात् 'त्रिषष्टिः परिकीर्तिता' इत्यादिना शुद्धमध्याऽऽदिषु क्रमैः सह पुनरुक्तान्परिगणयतां व्याहतिः स्यात् । तेषां क्रमाकारवत्तया च क्रमत्यागो ऽपि साकल्येन न कृतः स्यादिति तत्रभवतां मीमांसामांसलितधियाम् 'पष्टिश्च सैका कूटाः' इति महदिदं ग्रन्थनिर्माणकौशलम् !
संगीतरत्नाकरभावबोद्धा श्रीकल्लिनाथः सुधियां मतेन । अपौनरुक्त्यात्क्रमकूटतानसंख्याविरोधं त्विह पर्यहार्षीत् ॥
५८-५९- ।।
(मु०) एवं शुद्धमध्यामार्गीपौरवीणां पुनरुक्तान्कूटतानान्मिलितान्परिगणयति--- इत्येकाशीतीति । एवं पुनरुक्तानां तानानां सहस्रचतुष्टयमेकाशीत्यधिकं भवति । पुनरुक्तकूटतानापनयने पूर्णापूर्णक्रमापनयने च निष्कृष्टां कूटतानसंख्यां कथयति-लक्षत्रयमिति । पूर्णाः क्रमा द्वानवत्यधिकं शतत्रयम् । षाडवा अष्टाचत्वारिंशत् । औडुवाश्चत्वारिंशत् । चतु:स्वरा द्वात्रिंशत् । त्रिस्वराः षड्विशतिः । द्विस्वरा द्वाविंशतिः । एकस्वरा एकादश । यद्यप्येकस्वराश्चतुर्दश, तथा ऽपि षड्जनिषादधैवतानां पुनरुक्तमध्ये ऽपनीतत्वादवशिष्टा एकादशैव गण्यन्ते ।
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क्रमतानाः ४] प्रथमः स्वरगताध्यायः
अङ्कानेकादिसप्तान्तानूर्ध्वमूर्ध्व लिखेत्क्रमात् ॥ ६० ।। हते पूर्वेण पूर्वेण तेषु चाङ्के परे परे । एकस्वरादिसंख्या स्यात्क्रमेण प्रतिमूर्च्छनम् ।। ६१ ॥
एवमेकसप्तत्यधिकानि पञ्च शतानि क्रमा भवन्ति । पुनरुक्ताश्चैकाशीत्यधिकं सहस्रचतुष्टयम् । एतेषामैक्ये चत्वारि सहस्राणि षट् शतानि द्वापञ्चाशत् (४६५२)। क्रमपुनरुक्तसहितकूटतानसंख्या तु लक्षत्रयं द्वाविंशतिः सहस्राणि पञ्च शतानि द्वयशीतिश्च (३२२५८२)। क्रमपुनरुक्तापनयने तु लक्षत्रयं सप्तदश सहस्राणि नव शतानि त्रिंशच (३१७९३०) पूर्णापूर्णाः कूटतानाः संपन्नाः । ननु यथा पञ्चमो ग्रामद्वये भेदकश्चतुःश्रुतिकत्वात्निश्रुतिकत्वाच्च, तथा त्रिश्रुतिकत्वाच्चतु:श्रुतिकत्वाच्च धैवतः कथं भेदको न भवति? ब्रूमः—यद्यपि धैवतः षड्जग्रामे त्रिश्रुतिमध्यमग्रामे च चतुःश्रुतिः, तथा ऽपि स्वस्थानं न परित्यजति, केवलं तु मध्यमग्रामे पञ्चमान्त्यश्रुतिग्रहणमात्रम् । ततश्च यदा पञ्चमसहचरितो धैवत उच्चार्यते तदैव तस्य विकृतत्वप्रतीतिर्नान्यदेति न किंचिदेतत् । कूटतानानां बहुत्वात्स्वरूपपरिज्ञानं दुःसंपादमिति लाघवेन परिज्ञानोपायं वक्तुं प्रतिजानीते-ज्ञानोपाय इति ॥ ५८-५९-॥
(क०) परिगणितपूर्णापूर्णतानसंख्यापरिज्ञानोपायमाह - अङ्कानेकादिसप्तान्तानिति । तेषु सप्तस्वक्केषु परे परे द्वयकादौ पूर्वेण पूर्वेणैकाङ्कादिना हते गुणिते सति । अयमर्थः-प्रथमं पूर्वेणैकाङ्कन परे द्वयके गुणिते द्विसंख्या जायते । ततो जातं द्विसंख्याऽकं पूर्व कृत्वा तेन परे व्यङ्के गुणिते षटसंख्या जायते । पटसंख्यया परे चतुरङ्के गुणिते चतुर्विशतिसंख्या जायते । तया परे पञ्चाङ्के गुणिते विंशत्युत्तरशतसंख्या जायते । तया परे षडङ्के गुणिते सविंशतिः सप्तशती जायते । तया परे सप्ताङ्के गुणिते चत्वारिंशदुत्तरपञ्चसहस्रसंख्या जायते । एवमुक्तरीत्या गुणितव्यम् । एवं कृते
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१३०
संगीतरत्नाकरः [ग्राममूर्च्छनाक्रमं न्यस्य स्वरः स्थाप्यः पूर्वः पूर्वः परादधः । स चेदुपरि तत्पूर्वः पुरस्तूपरिवर्तिनः ॥ ६२ ॥
मूलक्रमक्रमात्पृष्ठे शेषाः प्रस्तार ईदृशः । सति प्रतिमूर्च्छनं क्रमेणैकस्वरादिसंख्या स्यात् , एकस्वरादितानानां संख्या भवेत् ॥ -६०, ६१ ॥
(सु०) संख्यापरिज्ञानोपायं कथयति-अङ्कानिति । एकादिसप्तान्तानकानूर्ध्वमूर्ध्व लिखेत् । प्रथममेकाको लेखनीयः, तस्योर्ध्वप्रदेशे द्वयङ्कः, ततस्त्र्यङ्कः, ततश्चतुरङ्कः, तत: पञ्चाङ्कः, ततः षडङ्कः, तत: सप्ताङ्क इति । ततः परे परे तूलस्थे ऽङ्के पूर्वेणाध:स्थितेनाङ्केन हते गुणिते सति प्रतिमूर्छनमेकस्वरद्विस्वरादिसंख्या स्यात् । एकेन द्वयङ्के गुणिते द्वावेव, 'एकेन गुणितं तदेव भवति' इति न्यायात् । द्वाभ्यां त्र्यङ्के गुणिते षट् । षड्भिश्चतुरङ्के गुणिते चतुर्विंशतिः । चतुर्विशत्या पश्चाङ्के गुणिते विंशत्युत्तरं शतम् । विंशत्युत्तरेण शतेन षडङ्के गुणिते विंशत्युत्तरा सप्तशती । विंशत्युत्तरया सप्तशत्या सप्ताङ्के गुणिते पञ्च सहस्राणि चत्वारिंशदुत्तराणि भवन्ति । एषैर्वकस्वरादिसंख्या ॥-६०-६१ ॥
(क०) उक्तसंख्यानिदर्शनार्थमुद्देशकमेण प्रस्तारं लक्षयति—क्रम न्यस्येति । क्रमं षष्टयुत्तरपञ्चशतसंख्यया परिगणितेपु पूर्णापूर्णकमेप्वन्यतमं न्यस्य लिखित्वा पूर्वः पूर्वः स्वरः परादधः स्थाप्य इति । उत्तरमन्द्रायां तावत् सरिगमेति चतुःस्वरं क्रमं लिखित्वा तस्मिन्क्रमे पूर्वः षड्जः परादृषभादधः स्थाप्यः । अत्र पूर्वः पूर्व इति वीप्सा ऽऽ प्रस्तारपरिसमाप्तेः प्रतितानं सकृत्करणविषया ऽवगन्तव्या नैकतानविषया । एकतानविषयत्वे तु पुरस्तूपरिवर्तिन इत्यस्य क्वचिदपि न संभवः । तेन परिगणिततानभेदा अपि न संभवेयुः । तस्मादेकवारमेव पूर्वः स्वरः परादधः स्थाप्यः । स चेदुपरि
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क्रमतानाः ४] प्रथमः स्वरगताध्यायः
१३१ तत्पूर्व इत्यस्य लक्षणांशस्य नायं विषयः । पुरस्त्विति । लिखितस्वरापेक्षया तत्पङ्क्तौ क्रमेण लेखनोचिते देशे लिखितो यस्तस्य दक्षिणभाग इत्यर्थः । उपरिवर्तिनः पुरोदेशस्योर्ध्वपक्तिस्थिताः स्थाप्या इत्यूह्यम् । अनेनात्र षड्जानन्तरं गमौ स्थाप्यौ । पृष्ठे प्रथममधोलिखितस्वरस्य पश्चाद्देशे लिखितो यस्तस्य वामभाग इत्यर्थः । शेषाः क्रमापेक्षया लिखितेभ्यो ऽवशिष्टाः स्वराः, मूलकमक्रमात् , मूलक्रमः ; उत्तरमन्द्रायां क्रमेण षड्जादिसप्तस्वराद्याः क्रमाः सप्त, तत्र षड्जाद्यः क्रमो मूलक्रमः, तस्मिन्स्वराणां यः क्रमो व्यवहितत्वेनाव्यवहितत्वेन वा तस्मात् ; स्थाप्या इति शेषः । शेषा इति बहुवचनं संभवद्विषयम् । अनेनात्रावशिष्ट ऋषभः पृष्ठे लिख्यते । एवं च सति रिसगमेति प्रथमः कूटतानः प्रस्तारे निष्पद्यते । अथास्मिंस्ताने यद्यप्यषभात्षड्जः पूर्वस्तथा ऽपि स चेदुपरि, स पूर्व उपरि चेदुपरितन्यामेव पङ्क्तावुत्तरत्र वर्तते चेत् , तदा तत्पूर्व उपरि वर्तमानात्पूर्वः स्थाप्य इति । अत्रोपरि वर्तमानात्षड्जादस्मिन्क्रमे पूर्वाभावादेवर्षभषड्जयोरधः स्थाप्यौ न संभवतः । गांधारस्याधस्तान्मूलक्रमापेक्षयर्षभस्य पूर्वत्वात्तस्योपरि वर्तमानत्वाभावाचर्षभः स्थाप्यः । पुरस्तूपरिवर्तिन इत्यृषभानन्तरं मध्यमः स्थाप्यः । अत्रापि बहुवचनं संभवद्विषयम् । मूलक्रमक्रमादिति पृष्ठे षड्जगांधारौ स्थाप्यौ । तदा सगरिमेति द्वितीयः कूटतानः । एवं मूलक्रमावरोहावधि प्रस्तारे क्रियमाणे तत्तत्क्रमोक्तसंख्याकाः कूटताना उत्पद्यन्ते । ततः प्रस्तार एव न संभवति ॥ ६२, ६३. ॥
___ (सु०) सप्तस्वरक्रमरूपपरिज्ञानार्थ प्रस्तारं कथयति-क्रमं न्यस्येति । क्रमं प्रथमतो न्यस्य स्थापयित्वा । सरिगमपधनीति क्रमः । क्रमापेक्षया पूर्वः पूर्वः स्वरः परादधो ऽध: स्थापनीयः । पूर्वः पूर्व इति वीप्सया लभ्यमर्थ विशदयति-स चेदिति । स पूर्वः स्वर उपरिभागे वर्तते चेत्तदा तस्यापि पूर्वः स्वरो लेखनीयः । सो ऽपि चेदने वर्तते तदा तत्पूर्वः । सो ऽपि चेत्परवर्ती
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१३२ संगीतरत्नाकरः
[प्राममूर्च्छनातदा तस्यापि पूर्वः। एवं निषादमारभ्य षड्जपर्यन्तं विचारणीयम् । तत्रापि षड्जपर्यन्ताः स्वरा: पुरस्तात्तिष्ठन्ति चेत्तं स्वरं विहाय द्वितीये स्वरे प्रस्तारश्चिन्तनीयः । तत्रापि षड्जपर्यन्ता: स्वराः पुरस्तात्तिष्ठन्ति चेत्तदा ऽन्यस्मिन्स्वरे प्रस्तारश्चिन्तनीयः । एवं विचार्य पूर्वस्मिन्स्वरे दत्ते, उपरिवर्तिनः स्वराः सन्ति चेत्पुर:प्रदेशे त एव देयाः । शेषा अवशिष्टाः स्वरा मूलकमक्रमेण पृष्ठे पूर्वप्रदेशे देयाः । अवशिष्टेषु स्वरेषु मूलकमेण य: पूर्वः स पूर्व देयः । यस्तु ततो ऽनन्तरः स तदनन्तरं देयः । ईदृशो ऽयं प्रस्तारो बोद्धव्यः । तत्र दृष्टान्तार्थ चतुःस्वरः प्रस्तारः प्रदर्श्यते-सरिगमेति पूर्व क्रमः संस्थाप्यः । षड्जस्याधस्तात्पूर्वस्वराभावात्स्वरो न स्थाप्यते । ऋषभस्य त्वधस्तात्तत्पूर्वः षड्जो देयः । उपरिगौ गांधारमध्यमौ पुरो देयौ । अवशिष्ट ऋषभः पश्चाद्देयः । एवं रिसगमेति द्वितीयो भेदः । तत ऋषभस्याधस्तात्षड्जो देयत्वेनासीत् | स चोपर्यग्रे वर्तते । तेनर्षभान्न प्रस्तारः । षड्जस्य पूर्वस्वराभावात्ततो ऽपि न प्रस्तारः । तेन गांधारस्याधस्तादृषभो देयः । पुरस्तूपरिवर्ती मध्यमो देयः । पूर्वशून्यक्रमे मूलक्रमात्षड्जगांधारौ देयौ । ततः सगरिमेति तृतीयो भेदः । ततो ऽनन्तरं गांधारस्याधस्तात्पूर्वमृषभो देयो भवति । परंतु स पुरस्ताद्विद्यते । तस्य पूर्वः षड्जो देयः । पुरो रिमौ पश्चाद्गः । एवं गसरिमेति चतुर्थो भेदः । तत ऋषभस्याधस्तात्षड्जो देयः । पुरो मः । पश्चाद्रिगौ । एवं रिगसमेति पञ्चमो भेदः । ततो ऽनन्तरं गांधारस्याधस्तादृषभ: । पुरः समौ । पश्चाद्गः । एवं गरिसमेति षष्ठो भेदः । ततो मध्यमस्याधस्ताद्गांधारः । पश्चात्सरिमाः। एवं सरिमगेति सप्तमो भेदः । तत ऋषभस्याधस्तात्षड्ज: । पुरो मगौ । पश्चाद्रिः । एवं रिसमगेल्यष्टमो भेदः । ततो मध्यमस्याधस्तादृषभः । पुरो गः। पश्चात्समौ । एवं समरिगेति नवमो भेदः । ततो मध्यमस्याधस्तात्षड्जः । पुरो रिगी। पश्चान्मः । एवं मसरिगेति दशमो भेदः। तत ऋषभस्याधस्तात्षड्जः । पुरो गः। पश्चाद्रिमौ । एवं रिमसगेत्येकादशो भेदः । ततो मध्यमस्याधस्तादृषभः । पुरः सगौ । पश्चान्मः । एवं मरिसगेति द्वादशो भेदः । ततो गांधारस्याधस्तादृषभः । पश्चात्सगमाः । एवं सगमरीति त्रयोदशो भेदः । ततो गांधारस्याधस्तात्षड्जः । पुरो मरी। पश्चाद्गः । एवं गसमरीति चतुर्दशो भेदः । ततो मध्यमस्याधस्ताद्गांधारः । पुरो रि: । पश्चात्समौ । एवं समगरीति पञ्च
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क्रमताना: ४] प्रथमः स्वरगताध्यायः
१३३ सप्तायेकान्तकोष्ठानामधो ऽधः सप्त पङ्क्तयः ॥ ६३ ॥ दशो भेदः । ततो मध्यमस्याधस्तात्पड्जः । पुरो गरी। पश्चान्मः । एवं मसगरीति षोडशो भेदः । ततो गांधारस्याधस्तात्षड्जः । पुरो रिः । पश्चाद्गमौ । एवं गमसरीति सप्तदशो भेदः । ततो मध्यमस्याधस्ताद्गांधारः । पुरः सरी । पश्चान्म: । एवं मगसरीत्यष्टादशो भेदः । तत ऋषभस्याधस्तात्षड्जः । पश्चाद्रिगमाः । एवं रिंगमसेत्यूनविंशतितमो भेदः । ततो गांधारस्याधस्तादृषभः । पुरो मसौ। पश्चाद्गः । एवं गरिमसेति विंशतितमो भेदः । ततो मध्यमस्याधस्ताद्गांधारः । पुरः सः । पश्चाद्रिमौ । एवं रिमगसेत्येकविंशतितमो भेदः । ततो मध्यमस्याधस्तादृषभः । पुरो गसौ। पश्चान्मः । एवं मरिगसेति द्वाविंशतितमो भेदः । ततो गांधारस्याधस्तादृषभः । पुरः सः । पश्चाद्गमौ । एवं गमरिसेति त्रयोविंशतितमो भेदः । ततो मध्यमस्याधस्ताद्गांधारः । पुरो रिसौ । पश्चान्मः । एवं मगरिसेति चतुर्विंशतितमो भेदः । ततो विपरीतक्रमसद्भावात्प्रस्तारलक्षणाभावाच्च प्रस्तारो नास्ति । अनेनैव प्रकारेण पञ्चस्वरादिषु प्रस्तार: कर्तव्यः । तत्र सरिगमपेति पञ्चस्वरप्रस्तारे पान्ताश्चतुर्विशतिः । ततो मान्ताश्चतुर्विशतिः । ततो गान्ताश्चतुर्विशतिः । ततो यन्ताश्चतुर्विशतिः । ततः सान्ताश्चतुर्विशतिः । एवं पञ्चस्वरप्रस्तारे विंशत्युत्तरं शतं भेदा भवन्ति । सरिगमपधेति षट्स्वरप्रस्तारे धान्ता विंशत्युत्तरं शतम् । पान्ताश्च विंशत्युत्तरं शतम् । मान्ताश्च विंशत्युत्तरं शतम् । गान्ताश्च विंशत्युत्तरं शतम् । यन्ताश्च विंशत्युत्तरं शतम् । सान्ताश्च विंशत्युत्तरं शतम् । एवं विंशत्युत्तराणि सप्त शतानि षट्स्वरभेदा भवन्ति । सरिगमपधनीति सप्तस्वरप्रस्तारे तु निषादान्ता विंशत्युत्तराणि सप्त शतानि । ततो धान्ता विंशत्युत्तराणि सप्त शतानि । ततः पान्तास्तावन्ति । ततो मान्तास्तावन्ति । ततो गान्तास्तावन्ति । तत ऋषभान्तास्तावन्ति । ततः सान्तास्तावन्ति । एवं सप्तस्वरप्रस्तारे चत्वारिंशदुत्तराणि पञ्च सहस्राणि भेदा भवन्ति ॥ ६२, ६३- ॥
(क०) एवं प्रस्तुतेषु कूटेषु नष्टोद्दिष्टतानबोधार्थ खण्डमेरुं लक्षयति- सप्तादीति । सप्तायेकान्तकोष्ठानाम् , सप्तादयो येषां ते सप्तादयः,
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१३४
संगीतरत्नाकरः [प्राममूर्च्छनातास्वाद्यायामाद्यकोष्ठे लिखेदेकं परेषु खम् । वेद्यतानस्वरमितान्न्यस्येत्तेष्वेव लोष्टकान् ॥ ६४ ॥
एको ऽन्तो येषां त एकान्ता इति तद्गुणसंविज्ञानो बहुव्रीहिः । सप्तादयश्च त एकान्ताश्च कोष्ठा इति ततः कर्मधारयः । तेषां सप्त पङ्क्तयो ऽधो ऽधः क्रमेण लेखनीया इति शेषः । अयमर्थः-आदौ सप्तकोष्ठान्वितां तिर्यक्पङ्क्तिं लिखेत् । तदधोऽध आदिमैकैककोष्ठहासात्क्रमेण षट् पङ्क्तीलिखेत् । तदा सप्तायेकान्तकोष्ठानां सप्त तिर्यक्पङ्क्तयो भवन्ति । अत्रैव
चैकादिसप्तान्तकोष्ठानामूर्ध्वाधःस्थिताः पङ्क्तयश्च सप्त दृश्यन्ते । तासु तिर्यक्पङ्क्तिप्वाद्यायां सप्तकोष्ठायां पङ्क्तावाद्यकोष्ठ एकमेकसंख्याऽङ्क लिखेत् । परेपु द्वितीयादिषु तत्पङ्क्तिकोष्ठेषु खं शून्याङ्कम् , बिन्दुमित्यर्थः । खमिति जातावेकवचनम् । तेष्वेवाद्यपङ्क्तिकोष्ठेप्वेव वेद्यतानस्वरमितान् , नष्टत्वेन वोद्दिष्टत्वेन वा जिज्ञास्यो वेद्यः, तस्य तानस्य यावन्तः स्वरास्तैर्मितांस्तत्समसंख्याकान् । लोष्टकानिति चालनोचितद्रव्योपलक्षणम् ॥ -६३, ६४ ॥
(सु०) एवं प्रस्तारमुक्त्वा प्रस्तारणे ऽप्यशक्तस्य लघुपायेन भेदपरिज्ञानार्थ नष्टोद्दिष्टे विवक्षुस्तदुपायभूतं खण्डमेरुं कथयति-सप्तायेकान्तेति । सप्त पङ्क्तयो ऽधोऽधस्तात्स्थापनीयाः । कियतां कोष्ठकानामित्यपेक्षायामाह-सप्तायेकान्तकोष्ठानामधो ऽधः सप्त पङ्क्तयः स्थाप्याः । उत्कृष्टापकृष्टसंख्याकथनेनार्थतो मध्यसंख्यासिद्धिः । ततश्च सप्तकोटिका प्रथमा पङक्तिः कर्तव्या। द्वितीया तस्या अधस्तात्षट्कोष्ठिका । तृतीया तस्या अधस्तात्पञ्चकोष्ठिका | चतुर्थी तस्या अधस्ताच्चतुःकोष्टिका । पञ्चमी तस्या अधस्तात्त्रिकोष्ठिका । षष्ठी तस्या भधस्ताद् द्विकोष्ठिका । सप्तमी तस्या अधस्तादेककोष्टिका । एवं खण्डमेरुसंस्थानमुक्त्वा ऽङ्कनिवेशनार्थमाह–तास्वाद्यायामिति । तासु सप्तसु पङ्क्तिषु मध्य आद्यायां सप्तकोष्ठिकायां पङ्क्तावाद्यकोष्ठ एकाङ्कं लिखेन्निवेशयेत् । परेषु कोष्ठेषु
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१३५
क्रमतानाः ४] प्रथमः स्वरगताध्याय:
प्राक्पङ्क्त्यन्त्याङ्कसंयोगमूर्ध्वाधःस्थितपङ्क्तिपु । शून्यादधो लिखेदेकं तं चाधो ऽधः स्वकोष्ठकान् ॥ ६५ ॥ कोष्ठसंख्यागुणं न्यस्येत्खण्डमेरुरयं मतः ।
खं शून्यं लिखेत् । तेश्वेव प्रथमपङ्क्तिकोष्ठकेषु लोष्टकान्कर्करान्यस्येत्स्थापयेत् । कियतो लोष्टकान्? वेद्यतानस्वर मितान् ; वेद्यो यस्तानस्त्रिस्वरश्चतुःस्वर: पञ्चस्वरः षट्स्वरः सप्तस्वरो वा तत्स्वरसंख्याकान् । यदि त्रिस्वरो जिज्ञासितस्तदा ऽऽदित आरभ्य त्रिषु कोष्ठकेषु त्रील्लोष्टकान्यस्येत् । यदि चतु:स्वरो जिज्ञासितस्तदा ऽऽदित आरभ्य चतुषु कोष्ठकेषु चतुरो लोष्टकान्यस्येत् । यदि पञ्चस्वरो जिज्ञासितस्तदा पञ्चेत्यादि द्रष्टव्यम् । लोष्टन्यसनोपयोगमनुपदमेव वक्ष्यति ॥ ६३, ६४ ॥
(क०) ऊर्ध्वाधःस्थितपङ्क्तिपूर्वाधःस्थितकोष्ठानां पङ्क्तिषु । अत्र स्थितेति विशेषणपदस्य विशेष्यकोष्ठपदसापेक्षत्वेन समासः । प्राक्पङ्क्त्यन्त्याङ्कसंयोगम् , प्राक्पङ्क्तेः प्राक्पङ्क्त्योः प्रावपङ्क्तीनां वा यथासंभवमत्याङ्कस्यान्त्याङ्कयोरन्त्याकानां वा संयोगम् , संयोगोत्पन्नमकान्तरमित्यर्थः । संनिहितपरपङ्क्तौ शून्याद बिन्द्वाक्रान्तकोष्ठादधःकोष्ठे लिखेत् । एतदुक्तं भवति-द्वितीयपङ्क्तौ प्राक्पङ्क्त्यन्त्याङ्कस्यैकत्वेन संयोगस्याभावादेकाङ्कमेव लिखेत् । तृतीयपङ्क्तौ तु प्राक्पङ्क्त्योरन्त्याङ्कयोः संभवेन तत्संयोगोत्पन्नं द्वयकं शून्यादधो लिखेदिति । तं च द्वयकादिकं च स्वकोष्ठकात्स्वेनाधिष्ठितं कोष्ठमारभ्याधो ऽधः ; कोष्ठसंख्यागुणम् , कोष्ठयोः कोष्ठानां वा संख्या कोष्ठसंख्या, तस्या गुणो यस्मिन्कर्मणीति क्रियाविशेषणम् । अयमर्थःतृतीयपङ्क्तौ द्वयकाधिष्ठितकोष्ठेन सहाधःकोष्ठस्य द्वितीयस्य संभवात्तत्र द्वयकं द्विगुणीकृत्य चतुरङ्क लिखेत् । चतुर्थपङ्क्तावपि प्राक्पङ्क्तीनामत्याङ्कानां संयोगिनां षडकं तत्र शून्यादधो लिखेत् । ततः संनिहिताधः
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संगीतरत्नाकरः [ग्राममूर्च्छनाकोष्ठे तं कोष्ठसंख्यया द्विगुणीकृत्य द्वादशाकं लिखेत् । ततो ऽप्यध:कोष्ठे तं षडकमेव कोष्ठसंख्यया त्रिगुणीकृत्याष्टादशाकं लिखेत् । एवं पञ्चम्यादिषु पङ्क्तिपु प्राक्पङ्क्त्यन्त्याङ्कसंयोगादिप्रकारेण लिखेदिति ॥ ६५, ६५- ॥
(सु०) द्वितीयपङ्क्तावविन्यासं कथयति-प्राक्पङ्क्तीति । ऊर्ध्वाध:स्थितपङ्क्तिध्वधःस्थिता याः पङ्क्तयस्तासु प्राक्पङ्क्त्यन्त्याङ्कसंयोगं लिखेत् । यद्येका प्राक्पङ्क्तिस्तर्हि तस्या अन्त्याको लेख्यः । यदि प्राक्पङ्क्ती द्वे तदा तयोः संयोगो लेख्यः । यदि बह्वयः प्राक्पङ्क्तयस्तदा तासां संयोगो लेख्यः । क लेख्य इत्यपेक्षायामाह-शून्यादध इति । तं चान्त्याङ्कसंयोगरूपमवं स्वकोष्ठकात् , यत्रासावङ्कः स्थापितस्तत्स्वकोष्ठकम , तस्मादधो ऽधो ऽधराधरकोष्ठकेषु कोष्टसंख्यागुणितं न्यस्येत् । द्वितीयकोष्टके द्विगुणं तृतीयकोष्टके त्रिगुणं चतुर्थकोष्टके चतुर्गुणं पञ्चमकोष्ठके पश्चगुणं षष्ठकोष्टके षड्गुणमिति । ततश्च षट्कोष्ठिकाया द्वितीयपङ्क्तेः प्रथमकोष्ठे प्राक्पङ्क्तरेकस्या अन्त्याङ्क एकाङ्को देयः । अधः कोष्टाभावाद् द्वैगुण्यादि नास्ति । तस्या एव पङ्क्ते द्वितीयकोष्ठे द्वयोः प्राक्पङ्क्त्योरन्याङ्क एक एकश्च, अनयोः संयोगे द्वयको देयः । तस्याधःकोष्ठके तमङ्घ द्विगुणं चतुरङ्क दद्यात् । तृतीयकोष्टके प्राक्पङ्क्तयस्तिस्रः । तासामन्याङ्का एक एकश्चत्वारः । तेषां संयोगात्षडङ्को देयः । द्वितीयाध:कोष्ठके द्विगुणः षड् द्वादशाको देयः । तदधःकोष्ठके त्रिगुणः षडष्टादशाको देयः । द्वितीयपङ्क्तिचतुर्थकोष्ठ के प्राक्पङ्क्तयश्चतस्रः । तासामन्त्याङ्का एक एकश्चत्वारो ऽष्टादश । तेषां संयोगे चतुर्विशतिर्देया । तदधो द्वितीयकोष्टके द्विगुणा ऽष्टाचत्वारिंशत् | तदधस्तृतीयकोष्टके त्रिगुणा द्वासप्ततिः । तदधश्चतुर्थकोष्टके चतुर्गुणा षण्णवतिः । द्वितीयपतिपञ्चमकोष्ठके प्राक्पङ्क्तयः पञ्च । तासामन्त्याङ्का एक एकश्चत्वारो ऽष्टादश षण्णवतिः । तेषां संयोगे विंशत्युत्तरं शतं देयम् । तदधो द्वितीयकोष्ठके द्विगुणं चत्वारिंशदधिकं शतद्वयं देयम् । तृतीयकोष्ठके त्रिगुणं षष्टयधिकं शतत्रयम् | चतुर्थकोष्ठके चतुर्गुणमशीत्यधिकं शतचतुष्टयम् । अध:कोष्ठके पञ्चमे पञ्चगुणं षट्शती। द्वितीयपङ्क्तेः षष्ठकोष्ठे प्राक्पङ्क्तयः षट् । तासामन्याङ्का एक एकश्चत्वारो ऽष्टादश षण्णवतिः षट्शती । तेषां संयोगे विंशत्युत्तरा सप्तशती देया । तदधो द्वितीयकोष्टके द्विगुणा सा चत्वारिंशदधिकानि चतुर्दश शतानि देयानि । तृतीयकोष्ठके त्रिगुणा
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क्रमताना: ४]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
| स| रिग म प ध नि । १
. २४ १०० ७२० २ ४८ २४० १४४० १८ ७२ ३६० २१६०
९६ ४८० २८८० । ६०० ३६००
४३२० इति खण्डमेरुः स्वरान्मूलक्रमस्यान्त्यात्पूर्व यावतिथः स्वरः ॥ ६६ ॥ उद्दिष्टान्त्यस्तावतिथे कोठे ऽधो लोष्टकं क्षिपेत् । लोष्टचालनमन्त्यात्स्यात्यक्त्वा लब्धं क्रमो भवेत् ।। ६७ ।।
लोष्टाक्रान्ताङ्कसंयोगादुद्दिष्टस्य मितिर्भवेत् । षष्ट्यधिकान्येकविंशतिः शतानि । चतुर्थकोष्ठके चतुर्गुणान्यशीत्यधिकान्यष्टाविंशतिः शतानि । तदधः पञ्चमकोष्टके पञ्चगुणानि षट्त्रिंशच्छतानि । अधः षष्ठकोष्ठे षड्गुणानि विंशत्यधिकानि त्रिचत्वारिंशच्छतानि । एवंविधो ऽयं खण्डमेरुतिव्यः ॥ ६५, ६५- ॥
(क०) अस्मिन्खण्डमेरावुद्दिष्टनष्टयो|धोपायं दर्शयति- स्वरानित्यादिना । स्वरूपमुक्त्वा कतमो ऽयमिति संख्याविषयत्वेन यः पृच्छयते स उद्दिष्टस्वरूपत्वादुद्दिष्टसंज्ञकस्तानः । उद्दिष्टान्त्यः स्वरो मूलक्रमस्य मूर्छनाप्रथमस्वरमारभ्य प्रवृत्तस्योत्तरमन्द्रायां सरिगमेति चतु:स्वरक्रमस्य तावदन्त्यात्स्वरान्मध्यमात्पूर्व पृष्ठतो मगसरीत्युद्दिष्टतानस्यान्त्य ऋषभो यावतिथ इति विचार्यमाणस्तृतीयो भवति । अधस्तावतिथे तृतीये कोठे द्वादशाङ्काकिते 'लोष्टचालनमन्त्यात्स्यात्' इति नियमेनोर्ध्वाधःस्थितपङ्क्तिषु चतुर्थ
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१३८ संगीतरत्नाकरः
[ग्राममूर्च्छनापङ्क्तौ बिन्दुकोष्ठस्थितं लोष्टकं क्षिपेत् । अनन्तरं लब्धं कोष्ठस्थाङ्कप्रापकत्वेन चरितार्थमृषभं त्यक्त्वा शिष्टानां स्वराणां सगमेति क्रमो भवेत् । तदोद्दिष्टे ऽपि लब्धत्यागान्मगसेत्युद्दिष्टो भवेत् । पुनरप्युद्दिष्टान्त्यः षड्जः पूर्वोक्तरीत्या तृतीयो यतस्तेन तृतीयपङ्क्तिबिन्दुस्थितं लोष्टकमधस्तृतीय चतुरङ्काकिते क्षिपेत् । तदा षड्जे लब्धे तमपि त्यक्त्वा गमेति क्रमः स्यात् । मगेत्युद्दिष्टो ऽपि स्यात् । पुनरप्युद्दिष्टान्त्यस्य गांधारस्योक्तरीत्या द्वितीयत्वाद्वितीयपङ्क्तिबिन्दुस्थितं लोष्टकमधो द्वितीये कोष्ठ एकाङ्काङ्किते क्षिपेत् । ततो मलक्रमोद्दिष्टयोरवशिष्टस्य मध्यमस्यैकत्वात्प्रथमपङ्क्तेरधः कोष्ठाभावाच्च मौलिकाङ्कस्थितो लोप्टो न चलति । यत्र पुनर्मूलक्रम उद्दिष्टताने च स्वराणामन्त्यत्वादिना साम्यं तत्रापि न लोष्टचालनम् । एवं च सति 'लोष्टाक्रान्ताङ्कसंयोगादुद्दिष्टस्य मितिर्भवेत् । इति प्रकृतस्य मगसरीत्यस्याष्टादशत्वं प्रमितं भवति । एवं सर्वतानेप्वपि द्रष्टव्यम् ॥ -६६-६७. ॥
(सु०) एवं नष्टोद्दिष्टपरिज्ञानोपायं खण्डमेरुमुक्त्वोद्दिष्टपरिज्ञानमाहस्वरादिति । मूलक्रमस्यान्त्यात्स्वरादुद्दिष्टस्यान्त्यः स्वरः पूर्व गणने सति यावतिथो यावत्संख्यापूरणस्तावतिथे तावत्संख्यापूरणे ऽधः कोष्टके लोष्टकं क्षिपेत्स्थापयेत् । इदं लोष्टचालनं कस्मात्प्रभृति कर्तव्यमित्यपेक्षायामाह-लोप्टचालनमन्यात्स्यादिति । अन्त्यादिति ल्यब्लोपे पञ्चमी । अन्त्यमारभ्य लोष्टचालनं स्यात् । एवं लोष्टचालने कृते लब्धं लब्धसंज्ञकं स्वरं त्यक्त्वा लुप्त्वा तेन हीनः क्रमो भवेदिति कर्तव्य इत्यर्थः । तत्रापि क्रमे मूलक्रमस्यान्त्यादित्यादिपूर्वोक्तप्रकारः कर्तव्यः । एवं कृते येषु येवङ्केषु लोष्टकानि यान्ति तेषामङ्कानां संयोगादुद्दिष्टस्य मानं भवति । तत्र च त्रिस्वरकूटतानपरिज्ञाने त्रिकोष्ठक एव खण्डमेरुः । चतुःस्वरपरिज्ञाने चतुःकोष्ठकः । पञ्चस्वरपरिज्ञाने पञ्चकोष्ठकः । षट्स्वरपरिज्ञाने षट्कोष्ठकः । सप्तस्वरपरिज्ञाने सप्तकोष्ठक इति ज्ञातव्यम् ।
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क्रमताना प्रथमः स्वरगताध्यायः
१३९ स्वरप्रमाणान्येव लोष्टकानि देयानि । दृष्टान्तार्थमुद्दिष्टपरिज्ञानप्रकारो दर्श्यते । नष्टोद्दिष्टप्रश्ने सरिगमेति क्रमो लेख्यः । मगरिसेत्युद्दिष्टम् । तत्रोद्दिष्टस्यान्त्यः षड्जो मूलक्रमस्यान्त्यान्मध्यमात्पूर्वगणने सति चतुर्थः । तस्माच्चतुर्थकोष्ठकशून्यस्थं लोष्टकमधश्चतुर्थकोष्टके ऽष्टादशाङ्कस्थाने क्षिपेत् | उद्दिष्टे मूलक्रमे च षड्जो लोप्यः । तत उद्दिष्टान्त्य ऋषभो मूलक्रमस्यान्यान्मध्यमात्तृतीयः । तस्मात्तृतीयकोष्ठशून्यस्थं लोष्टकमधस्तृतीयकोष्ठके चतुरङ्कस्थाने क्षिपेत् । ऋषभो लोप्यः । तत उद्दिष्टान्त्यो गांधारो मूलक्रमस्यान्त्यान्मध्यमाद् द्वितीयः । तस्माद् द्वितीयकोष्ठस्थं लोष्टकमधो द्वितीयकोष्टक एकाङ्कस्थाने क्षिपेत् । तत उद्दिष्टान्त्यो मूलक्रमस्यान्त्यात्प्रथम एव । तत्र लोष्टाभावाचालनं नास्ति । एषामङ्कानां संयोगे सति चतुर्विशतिसंख्या लभ्यते । तस्मान्मगरिसेति चतुर्विशतितमो भेद: सिद्धो भवति । एवं सप्तस्वरप्रस्तारे मगसरिधनिपेति किंसंख्याको भेद इति पृच्छायां सरिगमपधनीति मूलक्रमः स्थापनीयः । उद्दिष्टान्त्यः पञ्चमो मूलक्रमस्यान्त्यान्निषादात्तृतीयः । ततश्च सप्तमपङ्क्तौ शून्यादधस्तृतीयकोष्टके चत्वारिंशदुत्तरचतुर्दशशतस्थाने लोष्टक: स्थाप्यः । पञ्चम उभयत्रापि लोप्यः । तत उद्दिष्टान्त्यो निषादो मूलक्रमस्यान्त्यान्निषादात्प्रथम एव । ततश्चालनं नास्ति । षष्ठपङ्क्तौ शून्यस्थान एव लोष्टकावस्थितिः । तथैवोद्दिष्टे मूलक्रमे च निषादो लोप्यः । तत उद्दिष्टान्त्यो धैवतो मूलक्रमस्यान्त्या?वतात्प्रथम एव । ततश्चालनं नास्ति । ततश्च पञ्चमकोष्ठे शून्यस्थान एव लोष्टकावस्थितिः । मूलक्रम उद्दिष्टे च पूर्ववद्वैवतो लोप्यः । तत उद्दिष्टान्त्य ऋषभो मूलक्रमस्यान्त्यान्मध्यमात्तृतीयः । ततश्च चतुर्थपङ्क्तौ शून्याधस्तृतीयकोष्ठके द्वादशाङ्कस्थाने लोष्टकः स्थाप्यः । मूलक्रम उद्दिष्टे च ऋषभो लोप्यः । ततश्चोद्दिष्टान्त्यः षड्जो मूलक्रमस्यान्त्यान्मध्यमात्तृतीयः । ततस्तृतीयकोष्ठस्थचतुर्थपङ्क्तौ शून्यादधस्तृतीयकोष्ठके चतुरङ्कस्थाने स्थाप्यः । उद्दिष्टे मूलक्रमे च षड्जो लोप्यः । तत उद्दिष्टान्त्यो गांधारो मूलक्रमस्यान्त्यान्मध्यमाद् द्वितीयः । ततश्च द्वितीयपङ्क्तौ शून्यादध एकाङ्कस्थाने लोष्टकः स्थापनीयः । मूलकम उद्दिष्टे च गांधारो लोप्यः । ततश्च मध्यमस्यैक्यालोष्टचालनं नास्ति । लोष्टाक्रान्तानामङ्कानां संयोगे चाष्टापञ्चाशदधिकानि चतुर्दश शतानि भवन्ति । तावत्संख्याको मगसरिधनिपेत्येवं भेदो बोध्यः । एवमेव षट्स्वरादिश्वप्युद्दिष्टपरिज्ञानप्रकार ऊह्यः ॥ -६६-६७- ॥
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१४०
संगीतरत्नाकरः
[ग्राममूर्च्छनायैरकैनष्टसंख्या स्यान्मौलैकाङ्कसमन्वितैः ॥ ६८ ॥ तेषु लोष्टं क्षिपेन्मूले' लोष्टस्थानमितं भवेत् । नष्टतानस्वरस्थानं ततो यावतिथे पदे ॥ ६९ ॥
(क०) एतावतिथ इति संख्याविशेषमुक्त्वा किंरूप इति स्वरूपं विषयीकृत्य यः पृच्छ्यते सो ऽप्रतीयमानरूपत्वान्नष्ट इत्युच्यते । नष्टसंख्या नष्टतानसंख्या । उत्तरमन्द्रायां चतु:स्वरक्रमे तावदष्टादशस्तान इत्युक्त्वा मौलैकाङ्कसमन्वितैः, तिर्यक्पङ्क्तिप्वाद्या सप्तकोष्ठिका पङ्क्तिर्मुलम् , तत्र भवो मौलः, स चासावेकाङ्कश्च, तत्राद्यकोष्ठस्थित इति यावत् ; तेन समन्वितैः ; यैरकैभिन्नपङ्क्तिकोष्ठस्थितैः, चतुर्थपङ्क्तौ द्वादशाङ्केन तृतीयपङ्क्तौ चतुरकेण द्वितीयपङ्क्तावेकाङ्केन चैतैर्मिलितैरष्टादशसंख्या स्यात् , तेप्वकेषु लोप्टं प्रत्येकं क्षिपेत् । नष्टतानस्वरस्थानं नष्टतानस्वरस्य प्रापर्क स्थानम् , चालितलोष्टाक्रान्तकोष्ठ इत्यर्थः । मले तिर्यगाद्यपङ्क्तौ, लोष्टस्थानमितम् , लोप्टस्थानं बिन्दुकोष्ठस्तेन मितम् । बिन्दुकोप्ठेन सह परिगणितमित्यर्थः । अन्यथा स्वकोष्ठकाकोष्ठसंख्यागुणमित्यत्रोक्तनियमो ऽत्रापि प्रसरेदित्येवमुक्तम् । ततो ऽनन्तरम् , अधः क्रमाद्यावतिथे पदे लोष्टोऽस्ति क्रमान्तिमस्वरात्पूर्वस्तावतिथः स्वरो भवेदिति । प्रकृते ऽष्टादशे ताने ऽन्त्यलोष्टस्य तृतीयकोष्ठस्थितत्वात्क्रमान्तिमस्वरात्पूर्वस्तृतीय ऋषभो नष्टतानान्तिमत्वेन लभ्यते । लब्धत्यागादि पूर्ववदित्यतिदेशः । तदुद्दिष्टोक्तप्रकारेण कर्तव्यमित्यर्थः । तथा च कृते सति, ऋषभं त्यक्त्वा सगमेति क्रमो भवति । तद्वदुपान्त्यलोष्टस्यापि तृतीयकोष्ठस्थितत्वात्क्रमान्तिमस्वरात्पूर्वस्तृतीयः षड्जो नष्टोपान्त्यत्वेन लभ्यते । ततो ऽपि गमेति क्रमो द्वितीयलोष्टस्य द्वितीयकोष्ठस्थितत्वात्क्रमान्तिमाद् द्वितीयो गांधारो नष्टद्वितीयत्वेन लभ्यते । ततः पारि
क्षिपेन्मौलं.
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क्रमतानाः ४] प्रथमः स्वरगताध्याय:
अधःक्रमादस्ति लोष्टः स्वरस्तावतिथो भवेत् । क्रमान्तिमस्वरात्पूर्वो लब्धत्यागादि पूर्ववत् ।। ७०॥
शेप्यान्मध्यमस्तानपूरकत्वेन नष्टादिमो लभ्यते । तदा मगसरीति नष्टतानरूपं स्यात् । किं च यत्र यत्रान्ते मध्ये वा लोप्टचालनं नास्ति तत्र तत्र मूलक्रमान्त्यादिः स्वरो नष्टो ऽपि तादृशो लभ्यत इत्यवगन्तव्यम् ॥-६८-७०॥
(सु०) नष्टपरिज्ञानप्रकारं कथयति-यैरवरिति । नष्टसंख्या यैररेकीभूतैर्भवेत्प्रथमपङ्क्तिप्रथमकोष्ठस्थमौलकाङ्कसहितैः, तेषु कोष्टाङ्केषु लोष्टकं क्षिपेत् । मौलं सर्वासां पङ्क्तीनां शून्यसंयुक्तप्रथमकोष्टस्थमिति लोष्टविशेषणम् । एकस्यां पङ्क्तौ कोष्टद्वये लोष्टकं न स्थापयेदित्याह-लोटस्थानमिति । नष्टतानस्वराणां स्थानं लोष्टस्थानमितं लोष्टकस्थानप्रमाणकम् । यावन्ति लोष्टस्थानानि तावन्त्येव स्वरस्थानानि । ततश्च प्रतिपङ्क्तयेकैकस्मिन्कोष्ठके लोष्टकं स्थापयित्वा प्रथमपङ्क्तिस्थैकाङ्केन समं नष्टसंख्या पूरणीया । एवं लोष्टकेषु स्थापितेषु किं वर्तत इत्यपेक्षायामाह-तत इति । ततो ऽनन्तरं यावतिथे पदे कोष्ठके ऽध:क्रमादधो गणने शून्यस्थानाल्लोष्टकं तिष्ठति क्रमस्यान्तिमस्वरात्तावत्संख्याकः स्वरो बोद्धव्यः । लब्धत्यागादि पूर्ववदिति । य: स्वरो लब्धः स लोप्यः । आदिशब्देन सप्तस्वरनष्टविचारः सप्तकोष्टपङ्क्तिषु, षट्स्वरनष्टविचारः षट्कोष्ठपङ्क्तिषु, पञ्चस्वरनष्टविचार: पञ्चकोष्ठपङ्क्तिष्वित्यादि बोद्धव्यम् । अयमत्र परिज्ञानक्रमः-सहस्रतमो भेदः सप्तस्वरप्रस्तारे कीदृगिति प्रश्ने, सप्तम्यां पङ्क्तौ शून्यादधो द्वितीयकोष्टके सविंशतिकसप्तशतस्थाने लोष्टक: स्थाप्यः । षष्टपङ्क्तौ शून्यादधस्तृतीयकोष्ठके चत्वारिंशदधिकशतद्वयस्थाने लोष्टकः स्थापनीयः । पञ्चमपङ्क्तौ शून्यादधो द्वितीयकोष्ठके चतुर्विशत्यङ्कस्थाने लोष्टकं स्थापयेत् | चतुर्थपङ्क्तौ तृतीयकोष्टके द्वादशाङ्कस्थाने लोष्टकं स्थापयेत् । तृतीयपङ्क्तौ शून्यादधो द्वितीयकोष्टके व्यङ्कस्थाने लोष्टकं स्थापयेत् । द्वितीयपङ्क्तौ शून्यादधो द्वितीयकोष्ठक एकाङ्कस्थाने लोष्टकं स्थापयेत् । एतैरकर्मोलिकाङ्कसमन्वितैः सहस्रसंख्या पूर्यते । ततः सप्तमपङ्क्तौ द्वितीयकोष्ठके लोष्टकस्तिष्ठतीति मूलकमस्यान्त्यान्निषादाद् द्वितीयो
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संगीतरत्नाकरः [ग्राममूर्च्छनातानस्वरमितोर्ध्वाधःपङ्क्तिगान्त्याङ्कमिश्रणात् । एकस्वरादितानानां संख्या संजायते क्रमात् ।। ७१ ।। अथात्र शुद्धतानानां नामानि व्याहरामहे ।। अग्निष्टोमो ऽत्यग्निष्टोमो वाजपेयश्च षोडशी ।। ७२ ॥ पुण्डरीको ऽश्वमेधश्च राजमूयस्ततः परः । इति स्युः षड्जहीनानां सप्त नामान्यनुक्रमात् ॥ ७३ ॥ स्विष्टकृद्धहुसौवर्णो गोसवश्च महाव्रतः । विश्वजिब्रह्मयज्ञश्च प्राजापत्यस्तु सप्तमः ॥ ७४ ॥
धैवतो नष्टस्य सप्तमस्वरत्वेन लेख्यः । मूलक्रमे धैवतो लोप्यः । ततः षष्ठपङ्क्तौ तृतीयकोष्टके लोष्टकस्तिष्ठतीति मूलक्रमस्यान्त्यान्निषादात्तृतीयो मध्यमो नष्टस्य षष्ठस्वरत्वेन लेख्यः । मूलक्रमे मध्यमो लोप्यः । ततः पञ्चमपङ्क्तौ लोष्टकस्य द्वितीयकोष्टावस्थितत्वान्मूलक्रमान्त्यान्निषादाद् द्वितीयः पञ्चमो नष्टस्य पञ्चमस्वरत्वेन लेख्यः । मूलक्रमे पञ्चमो लोप्यः । ततश्चतुर्थपङ्क्तौ तृतीयकोष्टके द्वादशाङ्कस्थाने लोष्टकस्तिष्ठतीति मूलक्रमस्यान्त्यान्निषादात्तृतीय ऋषभो नष्टस्य चतुर्थस्वरत्वेन लेख्यः । मूलकम ऋषभो लोप्यः । ततस्तृतीयपङ्क्तौ द्वितीयकोष्ठके लोष्टकावस्थानान्मूलक्रमस्यान्त्यान्निषादाद्गांधारो नष्टस्य तृतीयस्वरत्वेन लेख्यः । मूलक्रमे गांधारो लोप्यः । ततो द्वितीयपङ्क्तावपि द्वितीयकोष्टके लोष्टकावस्थिते लक्रमस्यान्त्यान्निषादाद् द्वितीयः षड्ज एव नष्टतानद्वितीयत्वेन लेख्यः । मूलक्रमे षड्जो लोप्यः । ततश्चावशिष्टो निषादो नष्टस्याद्यस्वरत्वेन लेख्यः । एवं च निसगरिपमधेति सप्तस्वरेषु सहस्रतमो भेदो लभ्यते । एवं षट्स्वरादिषु ज्ञातव्यम् ॥ -६८-७० ॥
(क०) अत्र खण्डमेरावपि तानसंख्याज्ञानोपायमाह-तानस्वरेति । तानस्वरमितोर्ध्वाध:पङ्क्तिगान्त्याङ्कमिश्रणात , तानस्यैकस्वरादिप्वन्यतमस्य स्वरा यावन्तस्तैर्मितास्तत्संख्यापरिच्छिन्नाः, तत्समसंख्याका इत्यर्थः ; या ऊर्ध्वाधःपङ्क्तयस्ता गच्छन्तीत्यूर्ध्वाध:पङ्क्तिगाः, त एवान्त्याङ्कास्तेषां यथा
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क्रमताना
प्रथमः स्वरगताध्यायः
क्रमादृपभहीनानां तानानामभिधा इमाः । अश्वक्रान्तो रथक्रान्तो विष्णुकान्तस्ततः परः ॥ ७५ ॥ मूर्यक्रान्तो गजक्रान्तो वलभिन्नागपक्षकः । इति पञ्चमहीनानां संज्ञाः सप्त क्रमान्मताः ॥ ७६ ।। चातुर्मास्यो ऽथ संस्थाऽऽख्यः शस्त्रश्चोक्थश्चतुर्थकः । सौत्रामणी तथा चित्रा सप्तमस्तूद्भिदायः ।। ७७ ॥ संज्ञा निपादहीनानां पाडवानामिमाः क्रमात् ।
इति षाड्जग्रामिकाष्टाविंशतिताननामानि ।
सावित्री चार्घसावित्री सर्वतोभद्रसंज्ञकः ॥ ७८ ॥ आदित्यानामयनश्च गवामयननामकः । सर्पाणामयनः पष्ठः सप्तमः कोणपायनः । नामानि पड्जहीनानां तानानामिति मेनिरे ॥ ७९ ॥ अग्निचिद् द्वादशाहश्थोपांशुः सोमाभिधस्ततः । अश्वप्रतिग्रहो वर्हिरथाभ्युदयसंज्ञकः ॥ ८ ॥ ऋषभेण विहीनानामिति नामानि मन्यते । सर्वस्वदक्षिणो दीक्षा सोमाख्यः समिदाह्वयः । ८१ ॥ स्वाहाकारस्तनूनपात्ततो गोदोहनो मतः । इति गांधारहीनानां क्रमात्संज्ञाः प्रचक्षते ॥ ८२ ॥
इति माध्यमग्रामिकैकविंशतिषाडवताननामानि ।
संभवं द्वित्र्यादीनां मिश्रणात् । एकस्वरादितानानां संख्या पूर्वोक्ता, एकस्वरस्यैको द्विस्वरस्य द्वौ त्रिस्वरस्य षट् चतुःस्वरस्य चतुर्विंशतिरित्यादिरूपा ।
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संगीतरत्नाकरः
[प्राममूर्च्छनाइडा पुरुषमेधश्च श्येनो वज्र इषुस्ततः । अङ्गिराः कङ्क इत्येताः सपहीनाभिधाः क्रमात् ॥ ८३ ॥ ज्योतिष्टोमस्ततो दर्शो नान्द्याख्यः पौर्णमासकः । अश्वप्रतिग्रहो रात्रिः सौभरः सप्तमः स्मृतः ।। ८४ ॥ एता निपादगांधारहीनानामभिधाः क्रमात् । सौभाग्यकृच्च कारीरी शान्तिकृत्पुष्टिकृत्तथा ।। ८५ ।। वैनतेयोच्चाटनौ च वशीकरणसंज्ञकः । पञ्चमर्षभहीनानां तानानामभिधा इमाः ।। ८६ ॥
इति पाड्जग्रामिकैकविंशत्यौडुवताननामानि |
त्रैलोक्यमोहनो वीरः कंदर्पवलशातनः ।। ८७ ॥ शङ्खचूडो गजच्छायो रौद्राख्यो विष्णुविक्रमः । तानानां रिधहीनानां नामान्येतान्यनुक्रमात् ।। ८८ ॥ भैरवः कामदाख्यश्चावभृथो ऽष्टकपालकः ।। स्विष्टकृच्च वपट्कारो मोक्षदः सप्तमो मतः ॥ ८९॥ संज्ञा निषादगांधारहीनानामिति संमताः ।
इति माध्यमग्रामिकचतुर्दशौडुवताननामानि |
क्रमात् , द्वयङ्कमिश्रणे द्विस्वरतानसंख्या व्यङ्कमिश्रणे त्रिस्वरतानसंख्येत्यादिः क्रमस्तस्मात् । कूटतानोपयोगित्वेन खण्डमेरुं निरूप्य प्रसङ्गाच्छुद्धतानानामदृष्टफलसंबन्धं च कथयिप्यस्तेषां यज्ञानामभिधेयत्वं वक्तुमुपक्रमते-- अथात्रेत्यादिना । शुद्धतानानां यज्ञफलसंबन्धे किं प्रमाणमित्यत आह
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१४५
क्रमतानाः ४] प्रथमः स्वरगताध्यायः
यद्यज्ञनामा यस्तानस्तस्य तत्फलमिष्यते ॥ ९० ॥ गान्धर्वे मूर्च्छनास्तानाः श्रेयसे श्रुतिचोदिताः । गाने स्थानस्य लाभेन ते कूटाश्चोपयोगिनः ।। ९१ ।।
गान्धर्व इति । गान्धर्व वक्ष्यमाणलक्षणो गीतविशेषस्तत्र । मूर्च्छनास्ताना इति । तानाः शुद्धतानाः । ते च शुद्धा इति प्रकरणाल्लभ्यते । तत्साहचर्यान्मुर्छना अपि शुद्धा एव विवक्षिताः । श्रेयसे ऽदृष्टफलाय । श्रुतिचोदिता इति । श्रुतिशब्देन तदनुगृहीताः स्मृतयो ऽप्युपलक्ष्यन्ते ; ताभिश्चोदिताः । तद्यथा
'उत्तरमन्द्राऽनुगता गायत्तिस्रो मुदा युक्तः । गांधारा रक्षोनीत्यौद्गात्रे मूर्च्छना विहिताः ॥ आमिष्टोमिकतानेन गीतं साम शृणोति यः । स सर्वपातकैर्मुक्तो लोकाञ्जयति दुर्जयान् । दक्षप्रोक्तं पठेद्यस्तु वर्णयन्शुद्धषड्जया । प्रत्यहं संध्ययोः स्तोत्रं नाकलोकं स गच्छति ॥ आमिष्टोमिकतानेन यैर्नरैः स्तूयते शिवः ।
ते भुक्त्वा विपुलान्भोगाशिवसायुज्यमाप्नुयुः ॥' इति । कूटतानानां तु केवलं दृष्टफलत्वेनोपयोगमाह-गान इति । गानं च वक्ष्यमाणलक्षणं तस्मिन् । स्थानस्य तत्तन्मूच्छनावशेन सारितानां स्वराणामाधारश्रुतेर्लाभेन परिज्ञानेन ॥ ७१-९१ ॥
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संगीतरत्नाकरः [ग्राम तानाः ४] (सु०) खण्डमेरुणैव लाघवेन संख्यापरिज्ञानमाह-तानस्वरेति । तानस्वरप्रमिता या ऊर्ध्वाध:पङ्क्तयः, तद्गता ये ऽन्त्याङ्काः, तेषां मिश्रणादैक्येनैकस्वरादितानानां संख्या संजायते । पङ्क्तिद्वयान्त्याकमिश्रणाद् द्विस्वरसंख्या द्वौ । पङ्क्तित्रयान्त्याङ्कमिश्रणात्त्रिस्वरसंख्या षट् । पङ्क्तिचतुष्टयान्त्याङ्कमिश्रणाच्चतु:स्वरसंख्या चतुर्विशतिः । पङ्क्तिपञ्चकान्त्याङ्कमिश्रणात्पञ्चस्वरसंख्या विंशत्युत्तरं शतम् । पङ्क्तिषटकान्त्याङ्कमिश्रणात् षट्स्वरसंख्या सप्त शतानि विंशत्युत्तराणि । सर्वासामन्याङ्कमेलनेन सप्तस्वरसंख्या पञ्च सहस्राणि चत्वारिंशदुत्तराणि ॥ तानानां नामानि कथयितुं प्रतिजानीते-अथात्रेति । षाड्जग्रामिकषड्जहीनषाडवताननामानि कथयति-अग्निष्टोम इति । षाड्जग्रामिकर्षभहीनषाडवताननामानि कथयति-स्विष्टकृदित्यादि । षाड्जग्रामिकपञ्चमहीनषाडवताननामानि कथयति--अश्वक्रान्त इति । षाड्जग्रामिकनिषादहीनषाडवताननामानि कथयति-चातुर्मास्य इति । इति षाड्जग्रामिकाष्टाविंशतिषाडवताननामानि ॥ माध्यमग्रामिकषड्जहीनषाडवताननामानि कथयति–सावित्रीत्यादि । माध्यमग्रामिकर्षभहीनषाडवताननामानि कथयति-अनिचिदिति । माध्यमग्रामिकगांधारहीनषाडवताननामानि कथयति- सर्वस्वदक्षिणेत्यादि । इति माध्यमग्रामिकैकविंशतिषाडवताननामानि ॥ षाड्जग्रामिकषड्जपञ्चमहीनौडुवताननामानि कथयति-इडा पुरुषमेधश्चेत्यादि । षाड्जग्रामिकनिषादगांधारहीनौडुवताननामानि कथयति-ज्योतिष्टोम इत्यादि । षाड्जग्रामिकपञ्चमर्षभहीनोडुवताननामानि कथयति-सौभाग्यकृदित्यादि । इति षाड्जग्रामिकैकविंशत्यौडुवताननामानि ॥ माध्यमग्रामिकधैवतर्षभहीनौडुवताननामानि कथयति-त्रैलोक्यमोहन इत्यादि । माध्यमग्रामिकनिषादगांधारहीनोडुवताननामानि कथयति-भैरव इति । इति माध्यमग्रामिकचतुर्दशौडुवताननामानि || ताननामप्रयोजनमाह-यद्यज्ञेति । यस्य तानस्य यस्याग्निष्टोमादे म तस्य तानस्य सम्यक्प्रयोगे तस्य यज्ञस्य फलमिष्यते मन्यते पूर्वाचार्यः । मूर्च्छनातानानां प्रयोजनमाह-गान्धर्व इति । मूर्च्छनास्तानाश्च गान्धर्वे मार्गगाने श्रुतिचोदिताः श्रुत्या विहिताः । श्रेयसे ऽभ्युदयाय निःश्रेयसार्थम् । ततश्च शुद्धमूर्च्छनातानादिप्रयोगस्य धर्मत्वमपि सूच्यते, 'यतो ऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः' इत्यङ्गीकारात् । गान इति । गाने देशीगाने ते शुद्धमूर्च्छनास्तानाः कूटतानाश्च स्थानस्य लाभेन रञ्जकस्थायविशेषलाभेन चोपयोगिनो
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प्रथम: स्वरगताध्यायः
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अथ पञ्चमं साधारणप्रकरणम्
साधारणं भवेद् द्वेधा स्वरजातिविशेषणात् । स्वरसाधारणं तत्र चतुर्धा परिकीर्तितम् ॥ १॥ काकल्यन्तरपड्जैश्च मध्यमेन विशेषणात् । साधारणः काकली हि भवेत्पड्जनिपादयोः ॥ २ ॥ साधारण्यमतस्तस्य यत्तत्साधारणं विदुः ।
भवन्ति । अथ वा मन्द्रमध्यताराख्यस्थानप्राप्तय उपयोगिनो भवन्ति । संगीतसमयसारे ऽप्युक्तम्-'ननु तानानां यज्ञानां च कथमेकत्र व्यवहार: ? उच्यतेएकस्मिन्नपि तान उच्चारिते ऽग्निष्टोमादियागानामेकैकस्य फलोपलव्धेर्गायकानां यज्ञस्तानादेव सिध्यति' इति । अतो नासंगतम् ॥ ७१-९१ ॥ इति प्रथमे स्वरगताध्याये चतुर्थ ग्राममूर्च्छनाक्रमशुद्धतानकूटतानप्रकरणम् ॥ ४ ॥
(क०) गीते विकृतस्वरप्रयोगेण वैचित्रीं क्वचिद्गानसाम्यं च दर्शयितुं साधारणमवधारयति—साधारणमित्यादिना । स्वरजातिविशेषणादिति । स्वरसाधारणं जातिसाधारणमित्येवमित्यर्थः । तत्र तयोर्मध्ये स्वरसाधारणं चतुर्धा । काकल्यन्तरषड्जैश्च मध्यमेन विशेषणादिति । काकलिसाधारणमन्तरसाधारणं पड्जसाधारणं मध्यमसाधारणमित्येवमित्यर्थः ॥ अनेकाश्रयत्वेन लोकसिद्धं साधारणशब्दार्थ प्रकृते योजयति-साधारणः काकलीत्यादिना । हि यस्मात्कारणात्काकली विकृतश्चतुःश्रुतिको निषादः षड्जनिषादयोः शुद्धयोः साधारणो भवेत्तदुभयश्रुतिसंबन्धित्वेन, अतः कारणात्तस्य काकलिनो यत्साधारण्यं तत्साधारणं विदुः । तदेव साधारण्यं साधारणमिति पदेनापि विदुरित्यर्थः । धर्मपरत्वेन साधारणमिति नपुंसक
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१४८ संगीतरत्नाकरः
[साधारणअन्तरस्यापि गमयोरेवं साधारणं मतम् ॥ ३ ॥ प्रयोज्यौ पड्जमुच्चार्य काकलीधैवतौ क्रमात । एवं मध्यममुच्चार्य प्रयुञ्जीतान्तरर्षभौ ॥ ४ ॥ पड्जकाकलिनौ यद्वोच्चार्य षड्ज पुनव्रजेत् । तत्परान्यतमं चैवं मध्यमं चान्तरस्वरम् ॥ ५ ॥ प्रयुज्य मध्यमो ग्राह्यस्तत्परान्यतमो ऽथ वा ।
अल्पप्रयोगः सर्वत्र काकली चान्तरः स्वरः ॥ ६॥ निर्देशः । अतः ‘साधारणं भवेद्वेधा 'इत्यादिषु साधारणपदस्य साधारण्यपदपर्यायत्वमवसेयं माधुर्ये मधुरमिति प्रयोगवत् ॥ १-२-॥
(सु०) इदानीं साधारणलक्षणं कथयति—साधारणमिति । तत्र स्वरजात्यन्यतरत्वमेव साधारणसामान्यलक्षणमिति मन्वानो विशेषणद्वयमेव विभज्य निरूपयति–साधारणं द्वेधा द्विप्रकारं भवेत्स्वरजात्योर्विशेषणात् । ततश्चैकं स्वरसाधारणमेकं जातिसाधारणमिति । तत्र स्वरसाधारणस्य भेदानाह-स्वरसाधारणमिति । स्वरसाधारणं चतुर्धा चतुःप्रकार काकलिसाधारणमन्तरसाधारणं षड्जसाधारणं मध्यमसाधारणं चेति । वक्ष्यमाणलक्षणस्य साधारण्यस्य कथं समानशब्दपर्यायशब्दवाच्यत्वम् ? अत आह–साधारण इति । काकली स्वरः षड्जनिषादयोः साधारणस्तुल्यावस्थितिर्भवति, निषादस्य षड्जस्य च श्रुतिद्वयग्रहणात् । अत: कारणात्तस्य काकलिन उभयोनिषादषड्जयोर्यत्साधारण्यं तत्साधारणं विदुः संगीतज्ञाः । साधारणशब्दाद्भावे प्यञ्प्रत्यये साधारणस्य भावः साधारण्यमिति ॥ १-२- ॥
(क०) अन्तरस्यापीति । अन्तरस्य विकृतत्वेन चतु:श्रुतिकस्य गांधारस्यापि, एवमुक्तप्रकारेणोभयाश्रयत्वेन गमयोः शुद्धयोः श्रुतिसंबन्धित्वेन साधारणं साधारण्यं मतमिष्टम् । स्वरसाधारणविशेषधर्मत्वेन काकल्य
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१४९
प्रकरणम् ५] प्रथमः स्वरगताध्यायः
निपादो यदि पड्जस्य श्रुतिमाद्यां समाश्रयेत् । ऋपभस्त्वन्तिमां प्रोक्तं पड्जसाधारणं तदा ।। ७ ।। मध्यमस्यापि गपयोरेवं साधारणं मतम् ।
साधारणं मध्यमस्य मध्यमग्रामगं ध्रुवम् ॥ ८ ॥ न्तरयोरुपात्तयोस्तत्संबन्धवशादुद्देशक्रममुल्लध्यापि तयोः प्रयोगं दर्शयतिप्रयोज्यावित्यादिना । काकलीधैवताविति । अत्र काकलीति स्त्रीलिङ्गनिर्देशः । तत्परान्यतममिति । तस्मात्पड्जात्परेपु स्वरेप्वन्यतमम् , संनिहितः परो यदि लोप्यः स्यात्तदा तं विहाय तत्संनिहितमेव परमित्यर्थः । काकलिप्रयोगे ऽभिहितं प्रकारमन्तरप्रयोगे ऽप्यतिदिशति-एवं मध्यममिति ॥ -३-६ ॥
(सु०) काकल्युक्तं साधारणशब्दप्रवृत्तिप्रकारमन्तरे ऽप्यतिदिशतिअन्तरस्यापीति । अन्तरः स्वरो हि गांधारमध्यमयोः साधारणः, गांधारस्य मध्यमस्य च अतिदयग्रहणात । तस्यान्तरस्य गांधारमध्यमयोर्यत्साधारणत्वं तत्साधारणमित्यर्थः । काकल्यन्तरयोः प्रयोगनियममाह-प्रयोज्याविति । षड्जमुच्चार्य काकलिधैवतौ प्रयोक्तव्यौ । क्रमादित्यवरोहक्रमात् । ततश्च पूर्व काकली पश्चावतः प्रयोक्तव्यः । एवं मध्यममुच्चार्यान्तरर्षभाववरोहक्रमेण प्रयोक्तव्यौ । एतयोर्विकल्पनान्यथाप्रयोगनियमं कथयति-षड्जकाकलिनाविति । षड्जं काकलिनं चोच्चार्य ततः पुनः षड्जं व्रजेदुच्चारयेत् । तत्परान्यतमं च, तस्मात्षड्जात्परे ये, ऋषभगांधारमध्यमपञ्चमधैवतास्तेध्वन्यतममेकमुच्चारयेत् । एवं मध्यममन्तरस्वरं च प्रयोज्योचार्य पुनरपि मध्यमो ग्राह्यः । तस्मान्मध्यमात्परे ये पञ्चमधैवतनिषादषड्जर्षभास्तेष्वन्यतमश्च ग्राह्यः । अल्पप्रयोग इति । काकल्यन्तरः स्वरश्च सर्वत्र जातिरागादावल्पप्रयोगः ॥ -३-६ ॥
(क०) एवं काकलिसाधारणमन्तरसाधारणं च सप्रयोगमुक्त्वा षड्जमध्यमसाधारणे लक्षयति-निपादो यदीत्यादिना । स्वरसाधारण
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१५०
संगीतरत्नाकरः
साधारणे कैशिके ते केशाग्रवदणुत्वतः । ते एव कैश्चिदुच्येते ग्रामसाधारणे बुधैः ॥ ९ ॥ एकग्रामोद्भवास्कांशासु जातिषु यद्भवेत् । समानं गानमार्यास्तज्जातिसाधारणं जगुः ॥ १० ॥ जातिसाधारणं केचिद्रागानेव प्रचक्षते ।
[ साधा० प्रकरणम् ५ ]
चतुष्टयस्यापि ग्रामद्वये प्रसक्तौ विकृतत्वे ऽपि स्वराणां पञ्चश्रुतित्वमनिष्टमिति मत्वा मध्यमसाधारणं मध्यम एव नियमयति - साधारणं मध्यमस्येति ॥ षड्जमध्यमसाधारणयोर्व्यपदेशान्तरे सप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयति-साधारणे इति । ते साधारणे षड्जमध्यमसाधारणे । केशाश्रवदणुत्वतः, चतुःश्रुतिकस्य च्युतत्वेन द्विश्रुतिकत्वापत्त्या ऽल्पत्वात् कैशिके इत्युच्येते । ते एव षड्जमध्यमसाधारणे एव ग्रामप्रतिनियतत्वात्कैश्चिद् बुधैर्ग्रामसाधारणे इत्युच्यते इत्यर्थः ॥ जातिसाधारणं लक्षयति - एकग्रामेति । जातिसाधारणमिति । जात्योर्वा जातिषु वा वर्णसाम्येन गानस्य यत्साधारणं तदेव तथोक्तम् ॥ ७– १०- ॥
(सु० ) काकलिसाधारणलक्षणमन्तरसाधारणलक्षणं च काकल्यन्तरस्वरलक्षणेनैवोक्तं मूर्च्छनाप्रकरणे 'श्रुतिद्वयं चेत्षड्जस्य' इत्यादिना । अतः षड्जसाधारणं मध्यमसाधारणं च लक्षयति-निषाद इति । निषादो यदि षड्जस्याद्यां श्रुतिं समाश्रयति, ऋषभश्चान्तिमां श्रुतिं तदा षड्जसाधारणम् । एवं गांधारो यदा मध्यमस्याद्यां श्रुतिं समाश्रयति पञ्चमश्चान्तिमां श्रुतिं तदा मध्यमसाधारणम् । षड्जसाधारणे निषादस्त्रिश्रुतिऋषभश्चतुःश्रुतिः । मध्यमसाधारणे गांधारस्त्रिश्रुतिः पञ्चमश्चतुःश्रुतिः ॥ ७, ७ ॥ साधारणे ग्रामयोर्नियमयति-- साधारणमिति ।
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प्रथमः स्वरगताध्यायः
अथ षष्ठं वर्णालंकारप्रकरणम्
गानक्रियोच्यते वर्णः स चतुर्धा निरूपितः । स्थाय्यारोहावरोही च संचारीत्यथ लक्षणम् ॥ १ ॥ स्थित्वा स्थित्वा प्रयोगः स्यादेकस्यैव स्वरस्य यः | स्थायी वर्णः स विज्ञेयः परावन्वर्थनामकौ ॥ २ ॥ एतत्संमिश्रणाद्वर्ण: संचारी परिकीर्तितः ।
१५१
मध्यम साधारणं मध्यमग्राम एव । साधारणयोर्मध्ये मध्यमग्रामे मध्यमसाधारणमेव । ततश्च षड्जग्राम एव षड्जसाधारणमिति गम्यते । ते द्वे साधारणे कैशिके इत्युच्येते । केशाग्रवदणुत्वत इति कैशिकशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तं दर्शितम् । ते एव षड्जमध्यमसाधारणे कैश्चिदाचार्यैप्रमसाधारणे इत्युच्येते । जातिसाधारणं लक्षयति - एकप्रामेति । समानग्रामोद्भवास्वेकांशस्वरासु जातिषु यत्समानं गानं भवेत्तदार्या मान्या आचार्या भरतादयो जातिसाधारणमवादिषुः । मतभेदेनान्यथा जातिसाधारणं लक्षयति- जातीति । केचिद्रागा एव शुद्धकेशिकमध्यमादयो जातिसाधारणमित्याहुः ॥ ७-१० - ॥
इति प्रथमे स्वरगताध्याये पञ्चमं साधारण प्रकरणम् ॥ ५ ॥
(क०) जातिसाधारण निरूपणे गानसंबन्धित्वेन प्रसक्तं वर्ण सप्रभेदं लक्षयति- गानक्रियेति । गानक्रियाया वर्णत्वं स्वरपदादेर्वर्णनाद्विस्तारकरणात् । एकस्यैवेति । एकैकस्येति वा । तत्रादौ 'सासासा रीरीरी ' इत्येवमादिप्रयोगः । द्वितीये ' सारीगामा' इत्येवमादिरूपः । परावन्वर्थनामकाविति । परावारोह्यवरोहिणावन्वर्थनामकौ । ' सरिगमपधनि 'इत्यारोदाही ' निधपमगरिस 'इत्यवरोहादव रोहीत्येवम् । एतत्संमिश्रणात्,
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१५२ संगीतरत्नाकरः
[वर्णालंकारविशिष्टं वर्णसंदर्भमलंकारं प्रचक्षते ॥ ३॥ एतेषां स्थाय्यादीनां त्रयाणां वर्णानाम् ‘सारी सारीगा सनिधा सारीगा' इत्येवं यथायोगं मिश्रणात्संचारी वर्णः परिकीर्तितः । यत्र गानक्रियायां यस्य वर्णस्य बाहुल्यं दृश्यते तत्र तेन व्यपदेशः कर्तव्य इति मन्तव्यम् ॥ १-२.॥
(सु०) वर्ण लक्षयति--गानक्रियेति । स्वराणां वक्ष्यमाणप्रकारेण गानक्रिया गानकरणम् , उच्चारणमिति यावत् । सा वर्णशब्देनोच्यते । स च वर्णश्चतुर्धा भवति-स्थाय्यारोह्यवरोही संचारी चेति । तत्र स्थायिवर्णलक्षणमाहस्थित्वा स्थित्वेति । यत्रैकस्यैव स्वरस्य स्थित्वा स्थित्वा विलम्ब्य विलम्ब्य प्रयोग उच्चारणं स स्थायिवर्णो विज्ञेयः । यथा षड्जस्य 'सासासासा', मध्यमस्य 'मामामामा' इति । परावारोहिवर्णावरोहिवो, अन्वर्थनामको, अर्थमनुगतमन्वर्थ नाम ययोस्तावन्वर्थनामको । नामार्थ एव तयोर्लक्षणम्--यत्र स्वराणामारोहः स आरोही वर्णः, यत्रावरोहः सो ऽवरोही वर्ण इति । एतेषां त्रयाणां संमिश्रणात्परस्परलक्षणसंचरणात्संचारी वर्ण उक्तः । मतङ्गेन त्वेवं संचारिवर्णलक्षणमुक्तम्
"यत्र ताने संचरन्ति स्वरा अन्त्यान्त्यसंहिताः ।
एकैकशो द्विशो वा स संचारी वर्ण उच्यते ॥ यथा मालवकैशिके-'सा सा स नि म म नि म प नि रि रि पा पनीपानिध' एवमादि ॥” १-२-॥
(क०) उक्तवर्णग्रथनविशेषरूपमलंकारं प्रतिवर्ण सविभागं लक्षयति -विशिष्टं वर्णसंदर्भमित्यादिना । वर्णसंदर्भो ऽलंकार इत्येतावत्युक्ते वर्णविशेषे संचारिणि व्यभिचारः स्यात् ; स मा भूदिति विशिष्टमिति विशेषणम् । वैशिष्टयं च नियतकलाऽऽदियुक्तत्वम् । इह प्रसन्नादिप्रभृतीनामलंकारत्वं गीतिरेतैरलंक्रियत इति करणव्युत्पत्त्या, यथा लोके हारादि
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प्रथमः स्वरगताध्यायः
१५३
प्रकरणम् ६]
तस्य भेदास्तु वहवस्तत्र स्थायिगतान्ब्रुवे । येपामाद्यन्तयोरेकः स्वरस्ते स्थायिवर्णगाः ॥ ४ ॥ प्रसन्नादिः प्रसन्नान्तः प्रसन्नाद्यन्तसंज्ञकः । ततः प्रसन्नमध्यः स्यात्पञ्चमः क्रमरेचितः ॥ ५ ॥ प्रस्तारो ऽथ प्रसादः स्यात्सप्तैते स्थायिनि स्थिताः । मन्द्रः प्रकरणे ऽत्र स्यान्मूर्च्छनाप्रथमः स्वरः ॥ ६ ॥ स एव द्विगुणस्तारः पूर्वः पूर्वो ऽथ वा भवेत् । मन्द्रः परस्ततस्तारः प्रसन्नो मृदुरित्यपि ॥ ७ ॥ मन्द्रस्तारस्तु दीप्तः स्यान्मन्द्रो विन्दुशिरा भवेत् । ऊर्ध्वरेखाशिरास्तारो लिपौ त्रिवचनात्प्लुतः ॥ ८॥ मन्द्रद्वयात्परे तारे प्रसन्नादिरुदीरितः ।
सं सं से । (१)
भिर्नारी काव्ये वा ऽनुप्रासादिभी रसादिस्तद्वत् । तथा चाह भरतः प्रकारान्तरेण
'शशिना रहितेव निशा विजलेव नदी लता विपुष्पेव । अविभूषितेव कान्ता गीतिरलंकारहीना स्यात् ॥' इति ।
येषामाद्यन्तयोरिति । येषामलंकाराणामाद्यन्तयोः कलानामुपक्रमोपसंहारयोरेकः स्वरो मूर्च्छनावशेन षड्जादीनां मध्ये यस्तूपक्रान्त उपसंहारे स्थानान्तरगतो ऽपि स एवेत्यर्थः । एतेन स्थायिवर्णादिवृत्तिरेतेषु दर्शिता । अतस्ते स्थायिवर्णगाः स्थाय्यलंकाराः ॥ उक्तेष्वेव मन्द्रादिस्थानेष्वलंकार
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१५४ संगीतरत्नाकरः
[वर्णालंकारलक्षणार्थ प्रतिमूर्च्छनं तारमन्द्रव्यवहारमन्यथा ऽनेकधा करोति-मन्द्रः प्रकरण इति । द्विगुणो ऽष्टमः ॥ -३--८॥
(सु०) वर्णमुक्त्वा तदनुगतालंकारलक्षणमाह-~-विशिष्टमिति । केनचिल्लक्षणविशेषेण विशिष्टं वर्णसंदर्भ वर्णसमुदायमलंकारं प्रचक्षते भरतादयः । मतङ्गेनाप्यलंकारस्य लक्षणव्युत्पत्ती कथिते । यथा-" नन्वलंकारशब्देन किमुच्यते, व्युत्पत्तिर्वा तस्य कीदृशी? उच्यते- अलंकारशब्देन मण्डनमुच्यते । यथा कटककेयूरादिना ऽलंकारेण नारी पुरुषो वा मण्डितः शोभामावहेत्तथैतैरलंकारैः प्रसन्नादिभिरलंकृता वर्णाश्रया गीतिर्गातृश्रोतॄणां सुखावहा भवतीति । व्युत्पत्तिश्च यथा- 'डुकृञ् करणे' इत्यस्माद्धातोरलंशब्दपूर्वाद् घञ्प्रत्यये ऽलंकारशब्दः" इति ॥ तस्य बहुभेदत्वे ऽपि कियतांचित्कथनार्थ प्रतिजानीते... तस्येति ॥ स्थायिवर्णालंकारालँलक्षयति-येषामिति । आदावन्ते च येषामेक एव स्वरस्ते स्थायिवर्णालंकाराः । तान्परिगणयति-प्रसन्नादिरिति । एते सप्त स्थायिनि वर्णे स्थिताः, स्थाय्यलंकारा इत्यर्थः ॥ अलंकारप्रकरणोपयोगिनी परिभाषामाह-~-मन्द्र इति । अत्रास्मिन्नलंकारप्रकरणे मूच्छनायाः प्रथमः स्वरो मन्द्रशब्देनोच्यते । स एव मूर्च्छनाप्रथमस्वरो द्विगुणस्तारशब्देनोच्यते । यदा मूछनाप्रथमस्वरो मन्द्रो भवति तदा स एव मध्यस्तारशब्देनोच्यते । यदा तु मूर्च्छनाप्रथमस्वरो मध्यस्तदा स एव तारस्तारशब्देनोच्यते । विकल्पेनान्यथा मन्द्रतारादिशब्दवाच्यत्वमाह-पूर्वः पूर्व इति । पूर्वस्थानस्थ: स्वरो मन्द्रः परस्थानस्थस्तार इति । यदा मन्द्रस्थानस्थ: पूर्वस्तदा मध्यस्थानस्थस्तारः । यदा मध्यस्थानस्थः पूर्वस्तदा तारस्थानस्थस्तारः । अत्र मूर्च्छनाऽऽदिस्वरेणैव पूर्वेण भवितव्यमिति नियमो नास्तीति पूर्वमुक्तात्पक्षाद्भेदः । मन्द्रतारपर्यायानाहप्रसन्न इति । प्रसन्नमूदुमन्द्रशब्दमन्द्रो ऽभिधीयते । दीप्ततारशब्दाभ्यां तारः । मन्द्रतारयोलिपिविशेषं कथयति-मन्द्र इति । लिपौ मन्द्रः स्वरो बिन्दुशिराः शिरसि बिन्दुसहितो लेखनीयः, तारस्तु शिरस्यूर्ध्वरेखया सहितः । त्रिवचनास्वरः प्लुत इत्युच्यते । स त्रिरुचारणीय इत्यर्थः ॥ -३-८ ॥
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१५५
प्रकरणम् ६]
प्रथमः स्वरगताध्यायः तद्वैलोम्ये प्रसन्नान्तः सं सं सं । (२)
प्रसन्नद्वयमध्यगे ॥९॥ दीप्ते प्रसन्नाद्यन्तः स्यात् सं सं सं । (३)
तारयोर्मध्यगे पुनः । मन्द्रे प्रसन्नमध्याख्यमलंकारं विदो विदुः ॥ १० ॥ ___ सं सं स । (४) आद्यन्तयोर्मूर्च्छनाऽऽदिश्चेत्स्वरो ऽन्तर्द्वितीयकः । सैका कला ऽथ चेन्मध्ये स्तस्तृतीयचतुर्थकौ ॥ ११ ॥ सा द्वितीया पश्चमाद्यास्त्रयो ऽन्तश्चेत्कला परा। एवं कलात्रयेणोक्तो ऽलंकारः क्रमरेचितः ।। १२ ।।
(क०) उद्देशक्रमेण त्रिषष्टिमलंकारान्दर्शयति—मन्द्रद्वयात्पर इत्यादिना त्रिषष्टिरुदिता मयेत्यन्तेन । इह ग्रन्थकारेण दिङ्मात्रप्रदर्शनार्थमुत्तरमन्द्रामधिकृत्य प्रसिद्धालंकाराणां प्रस्तारो लिखितः । तद्वन्मूर्च्छनाऽऽन्तरेप्वप्यलंकारप्रस्तारा द्रष्टव्याः ॥ ९-६३ ॥
(सु०) प्रसन्नादि लक्षयति---मन्द्रद्वयादिति । मन्द्रस्वरद्वयमुच्चार्य यदि सकृत्तारस्वर उच्चार्यते तदा प्रसन्नादिरलंकारः । तद्वैलोम्य इति । तस्य प्रसन्नादेविपरीतत्वे पूर्व सकृत्तारः पश्चाद् द्विमन्द्रश्चेत्, तदा प्रसन्नान्तः । प्रसन्नद्वयेति । यदि पूर्व मन्द्रः पश्चाद्दीप्त: पुनरपि मन्द्रस्तदा प्रसन्नाद्यन्तः । तारयोरिति । यदि पूर्व तार: पश्चान्मद्रः पुनरपि तारस्तदा प्रसन्नमध्यः ॥ ९, १० ॥ कमरेचितं लक्षयति-आद्यन्तयोरिति । मूर्च्छनाया: प्रथमः स्वरो यद्यादावन्ते च तिष्ठति, द्वितीयः स्वरो मध्ये, एवमेका कला ; द्वितीयकलायां तु मूर्च्छनाप्रथमस्वर एवा
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१५६
संगीतरत्नाकरः
संरिसं संगमसं संपधनिसं । (५) दीप्तान्तत्प्रतिकलं प्रस्तारः सो ऽभिधीयते । संरिर्स संगमसे संपधनिस । (६) तारमन्द्रविपर्यासात्तं प्रसादं प्रचक्षते ।। १३ ।। सरिसं संगमसं संपधनिसं । (७)
इति स्थायिगतालंकारा: ।
[वर्णालंकार
स्यातां विस्तीर्णनिष्कर्षौ विन्दुरभ्युच्चयः परः । हसितप्रेङ्खिताक्षिप्तसंधिप्रच्छादनास्तथा ।। १४ ।। उतद्वाहितौ तद्वत्रिवर्णो वेणिरित्यमी । द्वादशारोहिवर्णस्थालंकाराः परिकीर्तिताः ॥ १५ ॥ मूर्च्छनाऽऽदेः स्वराद्यत्र क्रमेणारोहणं भवेत् । स्थित्वा स्थित्वा स्वरैर्दधैः स विस्तीर्णो ऽभिधीयते ॥ १६ ॥ सारी गा मा पा धा नी । (१)
"
,
द्यन्तयोः मध्ये तृतीयचतुर्थी ; तृतीयस्यां तु कलायां प्रथमः स्वर एवाद्यन्तयोः मध्ये पञ्चमषष्ठसप्तमस्वराः ; एवं कलात्रयेण क्रमरेचितो ऽलंकारो भवति ॥११, १२॥ दीप्तान्त इति । क्रमरेचितस्य तिसृष्वपि कलासु यद्यन्तिमो दीप्तो भवति तदा प्रस्ताराख्यो ऽलंकारः ॥ १२ ॥ तारेति । प्रस्तारस्य तारमन्द्रविपर्यासात्प्रसादालंकारः । क्रमरेचितस्य कलात्रये पूर्वस्तारो ऽन्तिमस्तु मन्द्र एवेति ॥ १३ ॥ इति स्थायिगतालंकाराः ॥ आरोह्यलंकारान्परिगणयति - स्यातामिति ॥ १४, १५॥ विस्तीर्णालंकारं लक्षयति-— मूर्च्छनाऽऽदेरिति । मूर्च्छनायाः प्रथमस्वराद्दीर्वैः स्वरैः स्थित्वा स्थित्वा विलम्ब्य विलम्ब्य क्रमेण यत्रारोहणं भवेत्स विस्तीर्णालंकारः ।
1 • रभ्युच्छ्रयः
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१५७
प्रकरणम् ६]
प्रथमः स्वरगताध्यायः इस्वैः स्वरैः स निष्कर्षो द्विर्द्विरुक्तैर्निरन्तरैः ।
सस रिरि गग मम पप धध निनि । (२) त्रिश्चतुर्वा स्वरोच्चारे गात्रवर्णमिमं विदुः ॥ १७॥
ससस रिरिरि गगग ममम पपप धधध निनिनि ।। सससस रिरिरिरि गगगग मममम पपपप धधधध निनिनिनि । (२) निष्कर्षस्यैव भेदौ द्वौ केचिदेतौ वभापिरे । प्लुतं दूस्वं प्लुतं इस्तं प्लुतं इस्वं प्लुतं स्वरम् ॥ १८ ॥ कुर्वन्क्रमाद्यदा ऽऽरोहेत्तदा विन्दुरयं मतः ।
सरि ग३म प३ध नि३ । (३) एकान्तरस्वरारोहमाहुरभ्युच्चयं बुधाः ।। १९ ।।
सगपनि । (४) यत्रैकोत्तरवृद्धाभिरावृत्तिभिरुदीरिताः । आरुह्यन्ते स्वराः प्राह इसितं तं शिवप्रियः ॥ २०॥
स्वराणां दीर्घत्वाद्विलम्बितत्वाच्च क्रमाद्भेदः ॥ १६॥ ह्रस्वैरिति । ह्रस्वैः स्वरैडिद्धिरुक्तैः क्रमेणोच्चारितैनिष्कर्षालंकारः ॥ १६ ॥ त्रिरिति । स्वराणां त्रिश्चतुर्वोच्चारणे गात्रवर्णालंकारः ॥ -१७ ॥ मतान्तरेण गात्रवर्णस्य निष्कर्षान्तर्भावमाहनिष्कर्षस्यैवेति । एतौ द्वौ भेदौ त्रिश्चतुःस्वरोच्चारणरूपौ ॥ १७ ॥ प्लुतमिति । प्रथमस्वरं त्रिरुच्चार्य द्वितीयस्वरं सकृत् , तृतीयस्वरं त्रिः, चतुर्थस्वरं सकृत् , पञ्चमस्वरं त्रिः, षष्ठस्वरं सकृत् , सप्तमस्वरं त्रिरुचारयेत् , तदा बिन्द्राख्यो ऽलंकारः ॥ -१८, १८- ॥ एकान्तरेति । एकान्तरस्वरारोहणेनाभ्युच्चयाख्यो ऽलंकारः ॥ -१९ ॥ यत्रेति । यत्रं स्वराणामेकोत्तरवृद्धया ऽऽवृत्तिः, प्रथमः स्वर: सकृत् , द्वितीयो द्विः, तृतीयस्त्रिः, चतुर्थश्चतुः, पञ्चमः पञ्चकृत्वः, षष्ठः षट्कृत्वः, सप्तमः सप्तकृत्व उच्चार्यते तमलंकारं शिवप्रियः शाङ्गदेवो हसितमिति
1.रभ्युच्छ्यम् .
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१५८
संगीतरत्नाकरः [वर्णालंकारस रिरि गगग मममम पपपपप धधधधधध निनिनिनि
निनिनि । (५) स्वरद्वयं समुच्चार्य पूर्व पूर्वयुतं परम् । यदान्दोलितमारोहेपेडितो ऽसौ क्रमो ऽथ वा ॥ २१ ॥
सरि रिंग गम मप पध धनि । (६) एकान्तरं स्वरयुगं तादृक्पूर्वयुतं परम् । क्रमादारोहति यदा तदा ऽऽक्षिप्तं प्रचक्षते ॥ २२ ॥ __ सग गप पनि । (७) त्रिस्वरा ऽऽद्या कला ऽन्ये च पूर्वपूर्वान्तिमादिमे । कले स्तस्त्रिस्वरे यत्र संधिपच्छादनस्तु सः ॥ २३ ॥
सरिंग गमप पधनि । (८) यदा ऽऽद्याद्यस्त्रिरावृत्तः कलयोस्त्रिस्वरात्मनोः । तदोद्गीतः
सससरिंग मममपध । (९)
ब्रूते ॥ २० ॥ स्वरद्वयमिति । पूर्व स्वरद्वयमुच्चार्य परं पूर्वयुतम् , पूर्वापेक्षया परो द्वितीयः स्वरस्तद्युतं परं तृतीयमारोहेत् । पुनरपि तृतीययुतं चतुर्थ चतुर्थयुतं पञ्चमं पञ्चमयुतं षष्ठं षष्ठयुतं सप्तममान्दोलयन्यदा ऽऽरोहति तदा ऽसावलंकारः प्रेलितनामा ऽथ वा क्रमनामा भवति ॥ २१ ॥ आक्षिप्तं लक्षयतिएकान्तरमिति । पूर्वोक्तरीत्या यदैकान्तरं स्वरयुगमारोहति, प्रथमसहितं तृतीयं तृतीयसहितं पञ्चमं पञ्चमसहितं सप्तमं यदा ऽऽरोहति तदा ऽऽक्षिप्तालंकारः ॥२२॥ संधिप्रच्छादनं लक्षयति-त्रिस्वरेति । आद्या कला त्रिस्वरा, अन्ये द्वे कले पूर्वपूर्वान्तिमादिमे, पूर्वस्या: पूर्वस्याः कलाया यो ऽन्तिमः स्वरः स आदिमो ययोस्ते तथाविधे त्रिस्वरे यस्मिन्स त्रिकल: संधिप्रच्छादनः ॥ २३ ॥ उद्गीतं लक्षयति-यदेति । त्रिस्वरयोः कलयोर्यदा ऽऽद्याद्यः स्वरस्त्रिरावर्तते तदोद्गीता
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प्रकरणम् ६] प्रथमः स्वरगताध्यायः
मध्यमेन तादृशोद्वाहितो मतः ॥ २४ ॥ सरिरिरिंग मपपपध । (१०) अन्त्यस्य तु त्रिरावृत्तौ त्रिवर्ण वर्णयन्त्यमुम् ।
सरिगगग मपधधध । (११) त्रयाणां तु त्रिरावृत्तौ पृथग्वेणिरुदीरितः ॥ २५ ॥ ससस रिरिरि गगग, ममम पपप धधध । (१२)
इत्यारोह्यलंकाराः। अवरोहक्रमादेते द्वादशाप्यवरोहिणि ।
इत्यवरोह्यलंकाराः । मन्द्रादिमन्द्रमध्यश्च मन्द्रान्तः स्यादतः परम् ॥ २६ ॥ प्रस्तारश्च प्रसादो ऽथ व्यावृत्तस्खलितावपि । परिवर्ताक्षेपबिन्दवाहितोर्मिसमास्तथा ॥ २७ ॥ प्रेयनिष्कूजितश्येनक्रमोट्टितरञ्जिताः । संनिवृत्तपत्तो ऽथ वेणुश्च ललितस्वरः ॥ २८ ॥
ख्यो ऽलंकारः । एतस्मिन्नलंकारे मूर्च्छनायाः षडेव स्वरा व्याप्यन्ते । सप्तमस्य समाप्तिास्ति ॥ २३- | अधुनोद्वाहितं वर्णयति--मध्यमेनेति । त्रिस्वरयोः कलयोर्मध्यमेन स्वरेण तादृशा त्रिरावृत्तेन तूद्वाहिताख्यो ऽलंकारः ॥ २४ ॥ त्रिवर्ण लक्षयति-अन्त्यस्येति । त्रिस्वरयोः कलयोरन्त्यस्य त्रिरावृत्तौ त्रिवर्णाख्यो ऽलंकारः ॥ २४- ॥ पृथग्वेणिमाचष्टे-त्रयाणामिति । त्रिस्वरयोः कलयोस्त्रयाणामपि स्वराणां त्रिरावृत्तौ पृथग्वेणिरलंकारः । एतेषु त्रिष्वप्यलंकारेषु सप्तस्वरावृत्तिर्नास्ति ॥ २५ ॥ इत्यारोह्यलंकाराः ॥ अवरोह्यलंकारालक्षयतिअवरोहेति । एत एवावरोहक्रमेणोच्चारिता अवरोह्यलंकारा भवन्ति ॥ २५ ॥ इत्यवरोह्यलंकाराः ॥ संचार्यलंकारान्परिगणयति-मन्द्रादिरिति । मन्द्राद्यादयः
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१६०
संगीतरत्नाकरः
[वर्णालंकारहुंकारो हादमानश्च ततः स्यादवलोकितः । स्युः संचारिण्यलंकाराः पञ्चविंशतिरित्यमी ॥ २९ ॥ त्रिस्वरा ऽद्या कलैकैकमन्द्रत्यागेन चापराः । त्रिस्वराश्चेत्कला मन्द्राधा मन्द्रादिस्तदा भवेत् ॥ ३० ॥ ___ सगरि रिमग गपम मधप पनिध । (१) ताः कला मन्द्रमध्यान्ताः क्रमाञ्चेदपरौ तदा ।
मन्द्रमध्यो यथागसरि मरिग पगम धमप निपध । (२)
मन्द्रान्तो यथारिगस गमरि मपग पधम धनिप । (३) त्यक्तान्तरं स्वरयुगं त्यक्तादारभ्यते पुनः ॥ ३१ ॥ युगं तादृक्समारोहेत्तदा प्रस्तार उच्यते ।
सग रिम गप मध पनि । (४) पूर्वः पूर्वः परस्योर्ध्वाधोवर्ती क्रियते स्वरः ।। ३२ ॥
पञ्चविंशतिरलंकाराः संचारिणः ॥ -२६-२९ ॥ तत्र मन्द्रादि लक्षयतित्रिस्वरेति । आद्या कला त्रिस्वरा प्रथमतृतीयद्वितीयस्वरयुक्ता, अन्या अपि मन्द्राद्याः कला एकैकमन्द्रत्यागेन यदि भवन्ति तदा मन्द्रादिरलंकारः ॥ ३० ॥ मन्द्रमध्यमन्द्रान्तौ लक्षयति--ता इति । तास्वेव पञ्चसु कलासु मन्द्रो मध्ये भवति चेन्मध्यश्चादौ तदा मन्द्रमध्यो ऽलंकारः । तास्वेव मन्द्रो ऽन्ते भवति
चेदन्तिमश्चादौ तदा मन्द्रान्तो ऽलंकारः ॥ ३०- ॥ प्रस्तारं लक्षयतित्यक्तान्तरमिति । त्यक्तान्तरं स्वरयुगं प्रथमतृतीयस्वरयुगमारुह्य त्यक्ताद् द्वितीयस्वरादारभ्य तादृक्त्यक्तान्तरं स्वरयुगं द्वितीयचतुर्थस्वरयुगम् , एवं तृतीयपञ्चमस्वरयुगं चतुर्थषष्टस्वरयुगं पञ्चमसप्तमस्वरयुगं च यद्यारोहति तदा प्रस्ताराख्यो ऽलंकारः ॥ -३१, ३१- ॥ प्रसादं लक्ष्यति । पूर्व इति । पूर्वः पूर्वः स्वरः
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प्रकरणम् ६] प्रथमः स्वरगताध्यायः
यदा तदा प्रसादं तमाह श्रीकरणेश्वरः ।
सरिस रिगरि गमग मपम पधप धनिध । (५) चतुःस्वरा कला तत्राद्यात्तृतीयं द्वितीयकात् ।। ३३॥ तुर्य गत्वा ऽऽदिमं गच्छेदेवमेकैकहानतः । चतुःस्वराः परा यत्र स व्यावृत्तः स्मृतो बुधैः ॥ ३४ ॥ ____सगरिमस रिमगपरि गपमधग मधपनिम । (६) कलां प्रयुज्य मन्द्रादेर्द्विरुक्तोलस्वरान्विताम् । अवरुह्येत चेदेप स्खलिताख्यस्तदा भवेत् ॥ ३५ ॥ सगरिममरिगस रिमगपपगरि गपमधधमपग
मधपनिनिपधम । (७) स्वरं द्वितीयमुज्झित्वा त्रिस्वरा ऽऽद्या कला यदि । त्यक्तादारभ्य तादृश्यो ऽन्यास्तदा परिवर्तकः ।। ३६ ॥
सगम रिमप गपध मधनि । (८) त्रिस्वराश्चेत्कलाः पूर्वपूर्वत्यागोर्ध्वसंक्रमैः ।
परस्य द्वितीयस्वरस्योर्ध्वाधोवाद्यन्तवर्ती यदि क्रियते तदा प्रसादाख्यो ऽलंकारः ॥ -३२, ३२- ॥ व्यावृत्तं लक्षयति-चतुःस्वरेति । एतस्मिन्कला चतुःस्वरा । तस्याः प्रथमतृतीयद्वितीयचतुर्थाद्याः स्वरा उच्चार्याः, प्रथमस्वरपरित्यागेनान्यदेवमेव कलात्रयं यत्र स व्यावृत्ताख्यो ऽलंकार: ॥ -३३, ३४ ॥ स्खलितं लक्षयति-कलामिति । मन्द्रादेरलंकारस्य प्रथमतृतीयद्वितीयस्वरयुक्तां त्रिस्वरां कलां प्रयुज्योर्ध्व स्वरं चतुर्थ स्वरं द्विरुच्चार्य सकलावरोहेण चेदुच्चार्यंत तदा ऽष्टस्वरकलः स्खलिताख्यो ऽलंकारः ॥ ३५॥ परिवर्तकं लक्षयतिस्वरमिति । द्वितीयस्वरमुज्झित्वा प्रथमतृतीयचतुर्थस्वरैस्त्रिस्वरा प्रथमा कला, त्यक्ताद् द्वितीयस्वरादारभ्यैवमेवान्याः कला यत्र स परिवर्तकाख्यो ऽलंकारः ॥३६॥ आक्षेपं लक्षयति-त्रिस्वग इति । त्रिस्वरा: कला: पूर्वपूर्वपरित्यागेनोर्ध्वस्वर
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संगीतरत्नाकर:
[वर्णालंकार
तदा ऽऽक्षेपः
सरिग रिगम गमप मपध पधनि । ( ९ )
अथ विन्दुः स यत्र प्लुतमधःस्वरम् || ३७ || कृत्वाऽग्निवत्परं स्पृष्ट्वा यः स्पर्शेनाखिलाः कलाः । सरिस रि३गरि ग३मग म३पम प३धप ध३निध । (१०) hatri atraरान्गीत्वा वरुयैकं पराः कलाः ॥ ३८ ॥ कोज्झिता गीतास्तद्वदुद्वा हितस्तु सः ।
सरिगरि रिगमग गमपम मपधप पधनिध । (११) मूर्च्छनाऽऽदेः स्वरात्तुर्य प्लुतीकृत्याद्यमेत्य च ।। ३९ ॥ तुर्यगाने कलैकै कहानाद्यत्रापरास्तथा । स ऊर्मिः स्यात्
सम३सम रिप३रिप गध३गध मनि३मनि । (१२) स तु समः कला यत्र चतुः स्वराः || ४० ॥
व्याप्या च यदि क्रियन्ते तदा ऽऽक्षेपालंकारः ॥ ३६- ॥ बिन्दुं लक्षयति-अथ बिन्दुरिति । अधः स्वरं पूर्वस्वरं प्लुतं कृत्वा त्रिरुच्चार्य परं द्वितीयमग्निवत्सकृत्स्पृष्ट्वा ऽऽद्यः सकृदुच्चारणीयः । एवं द्वितीयस्वराद्याः पञ्चस्वरा: कला यत्र स विन्द्वाख्यो ऽलंकारः ॥ ३७, ३७ ॥ उद्वाहितं लक्षयति — कलापामिति । त्रीन्स्वरान्गीत्वैकं स्वरमवरोहेत ; पूर्वस्वरपरित्यागेनैवमेव द्वितीयस्वराद्या अन्याः कलास्तदोद्वाहिताख्यो ऽलंकारः ॥ ३८, ३८- ॥ ऊर्मि लक्षयति — मूर्च्छनाऽऽदेरिति । मूर्च्छनाऽऽदेः स्वरात्तुरीयं चतुर्थ स्वरं प्लुतीकृत्य त्रिरुच्चार्याद्यं सद्गीत्वा पुनरपि चतुर्थ स्वरं सकृद्रायेत, प्रथमस्वरपरित्यागेन चैवमेवान्याः कला यत्र स ऊर्म्यलंकारः ॥ ३९, ३९ ॥ समं लक्षयति-- स तु सम इति । यस्मिन्कलायां चत्वारः स्वराः क्रमेणारुह्यन्ते ऽवरुह्यन्ते च अन्या अपि
'ऽग्रिमस्वरं,
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प्रकरणम् ६]
प्रथमः स्वरगताध्यायः तुल्यारोहावरोहैकैकहानादपरास्तथा । सरिगममगरिस रिगमपपमगरि गमपधधपमग मपनिनि
. धपम । (१३) कला गतागतवती द्विस्वरेककहानतः ।। ४१ ।। यत्रान्यास्तादृशः स स्यात्प्रेङ्खः सरिरिस रिगगरि गममग मपपम पधधप धनिनिध । (१४)
निष्कूजितः पुनः । प्रसादस्य कलां गीत्वा तत्कलाऽऽदेस्तृतीयकम् ।। ४२ ॥ गत्वा ऽऽद्यगानाद्भवति सरिसगस रिगरिमरि गमगपग मपमधम पधपनिप । (१५)
श्येनः संवादियुग्मकेः ॥ ४३ ॥ क्रमात्सरिगमाद्यैः स्यात् . सप रिध गनि मस । (१६)
कला द्वित्रिचतुःस्वराः । आद्यस्वराद्यास्तिस्रः स्युर्द्वितीयाद्यादयस्तथा ॥ ४४ ॥ यत्रासौ क्रम इत्युक्तः
कला: प्रथमैकैकस्वर परित्यागेन, स समाख्यो ऽलंकार: ॥ -४०, ४०- ॥ प्रेझं लक्षयति-कलेति । द्विस्वरा कला, गतागते आरुह्यते ऽवरुह्यते चेत्यारोहावरोहौ तद्वती, प्रथमैककस्वरपरित्यागाच्चान्या: कला यत्र स प्रेखो ऽलंकारः ।। -४१, ४१- ॥ निष्कूजितं लक्षयति-निष्कूजित इति । प्रसादालंकारस्य कलां प्रथमद्वितीयस्वरयुक्तां गीत्वा ऽऽदिस्वरात्तृतीयं तत आद्यं यदि गायेत्तदा निष्कूजितालंकारः ॥ -४२, ४२ ॥ श्येनं लक्षयति--इयेन इति । संवादिनां युग्मचतुष्टयेन षड्जर्षभगांधारमध्यमादिना श्येनालंकारः । अत्र षड्जपञ्चमयोऋषभधैवतयोगाँधारनिषादयोमध्यमषड्जयोश्च युग्मचतुष्टयम् ।। -४३, ४३- ॥ क्रमाख्यमलंकार
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संगीतरत्नाकरः
[वर्णालंकारसरिसरिगसरिगम रिगरिंगमरिगमप गमगमपगमपध
मपमपधमपनि । (१७)
स तूट्टित उच्यते । यत्र स्वरद्वयं गीत्वा पञ्चमाच्चतुरः स्वरान् ॥ ४५ ॥ अवरोहेकला गायेत्तथैकैकोज्झनात्पराः।
सरिपमगरि रिगधपमग गमनिधपम । (१८) द्विरुक्ता यदि मन्द्रान्ता मन्द्रादेः स्युः कलास्तदा ॥ ४६॥ रञ्जितः सगरिसगरिस रिमगरिमगरि गपमगपमग मधपमधपम
पनिधपनिधप । (१९) अथ भवेदेप संनिवृत्तप्रवृत्तकः । यत्राद्यपञ्चमौ गीत्वा तुर्यास्त्रीनवरोहति ॥ ४७ ॥ क्रमात्कला सा यत्रान्यास्तद्वदेकैकहानतः ।
सपमगरि रिधपमग गनिधपम । (२०)
लक्षयति-कला इति । प्रथमस्वरमारभ्य तिस्रः कला गेयाः । एका द्विस्वरा, एका त्रिस्वरा, एका चतुःस्वरा । एवं द्वितीयतृतीयचतुर्थस्वरमारभ्य तिस्रः कला यत्र गीयन्ते स क्रमाख्यो ऽलंकारः ॥ -४४, ४४- ॥ उद्घट्टितं लक्षयति-स त्विति । आदित आरभ्य स्वरद्वयं गीत्वा पञ्चमस्वराच्चतुर: स्वरानवरोहेत् , एवं द्वितीयं तृतीयं च स्वरमारभ्येत्येवं कलात्रयं यत्र स उद्घट्टिताख्यो ऽलंकारः ॥ ४५, ४५- ॥ रञ्जितं लक्षयति-द्विरुक्ता इति । मन्द्रादेः प्रथमतृतीयद्वितीयस्वरयुक्तस्य कला यदि द्विरुच्चार्यते, अन्ते च मन्द्रो मूर्च्छनाप्रथमस्वरो निक्षिप्यते, तदा रञ्जिताख्यो ऽलंकारः ॥ -४६, ४६- ॥ संनिवृत्तप्रवृत्तकं लक्षयति---अथ भवेदिति । यत्र प्रथमं पञ्चमं च स्वरं गीत्वा तुर्यात्स्वरात्रीन्स्वरानवरोहेण गायेत् , एवमेका कला, प्रथमैकैकस्वरपरित्यागाच्चान्यत्कलाद्वयम् , स संनिवृत्तप्रवृत्ताख्यो
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प्रकरणम् ६] प्रथमः स्वरगताध्यायः
१६५ यत्राद्यः स्याद् द्विर्द्वितीयचतुर्थकतृतीयकाः ॥ ४८ ॥ सकृत्कला ऽन्याश्चैकैकहानाद्वेणुरसौ मतः ।
ससरिमग रिरिगपम गगमप ममपनिध । (२१) गीत्वा ऽऽद्यौ द्वौ चतुर्थं च यस्यां ताववरोहति ॥ ४९ ॥ सा कला ऽन्याश्च तादृश्यो यत्रासौ ललितस्वरः ।
सरिमरिस रिगपगरि गमधमग मपनिपम । (२२) आदिमेन कला यत्र द्विस्वरा ऽऽद्या गतागतैः ॥ ५० ॥ स्वरैरैकोत्तरं दृद्धैः स हुंकारो निगद्यते ।
सरिस सरिगरिस सरिगमगरिस सरिगमपमगरिस
सरिगमपधपमगरिस सरिगमपधनिधपमगरिस । (२३) हादमाने प्रसन्नान्ता मन्द्रादेस्तु कला मताः ॥ ५१॥
सगरिस रिमगरि गपमग मधपम पनिधप । (२४) यदा ऽऽरोहे ऽवरोहे च स्वद्वितीयं परित्यजेत ।
ऽलंकार: -४७, ४७- ॥ वेणुं लक्षयति-यत्रेति । यस्मिन्नाद्यः स्वरो द्विर्गीयते, द्वितीयचतुर्थतृतीयस्वराश्च सकृद्रीयन्ते सैका कला, प्रथमैकैकम्वरपरित्यागाच्चान्याः कला:, स वेणुरलंकारः ॥ -४८, ४८- ॥ ललितस्वरं लक्षयति-गीत्वेति । प्रथमस्वरद्वयं गीत्वा तदनन्तरं चतुर्थ गीत्वा तौ प्रथमद्वितीयाववरोहेत् । सैका कला भवति । अन्याश्च द्वितीयतृतीयतुर्यस्वराद्यास्तिस्रः कला: । स ललितस्वराख्यो ऽलंकारः ॥ -४९, ४९- ॥ हुंकारं लक्षयति-आदिमेनेति । आदिमेन प्रथमेन स्वरेण द्विस्वरा कला गतागतैरारोहावरोहैः, ततस्त्रिस्वरा, ततश्चतु:स्वरा, ततः पञ्चस्वरा, ततः षदस्वरा, ततः सप्तस्वरा, आरोहावरोहैयंत्र गीयन्ते स हुंकाराख्यो ऽलंकार: ॥ -५०, ५०- ॥ हादमानं लक्षयति-द्वादमान इति । मन्द्रादेः प्रथमद्वितीयतृतीयस्वरयुक्तस्य प्रसन्नान्ताः प्रथमस्वरान्ता: कला यदि गीयन्ते तदा ह्रादमानाख्यो ऽलंकारः ॥-५१ ॥ अवलोकितं लक्षयति-यदेति ।
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१६६
संगीतरत्नाकरः
[वर्णालंकार
चतु:स्वरा समकला तदा स्यादवलोकितः ॥ ५२ ॥ सगममरिस रिमपपगरि गपधधमग मधनिनियम । (२५) एवं संचार्यलंकारा आरोहेण प्रदर्शिताः । yataraण प्राह श्रीकरणाग्रणीः ॥ ५३ ॥
इति संचार्यलंकारा: ।
अन्ये ऽपि सप्तालंकारा गीतज्ञैरुपदर्शिताः । तारमन्द्रप्रसन्नश्च मन्द्रतारम सन्नकः ॥ ५४ ॥
आवर्तकः संप्रदानो विधूतोऽप्युपलोलकः । उल्लासितश्चेति तेषामधुना लक्ष्मं कथ्यते ॥ ५५ ॥ कलास्तेषां द्वितीयाद्याः पूर्वेकैकप्रहाणतः । अष्टमस्वरपर्यन्तमारुह्याद्यं व्रजेद्यदि ॥ ५६ ॥ तारमन्द्रप्रसन्नो ऽयमलंकारस्तदोच्यते ।
संरिगमपधनिससं । (१)
मन्द्रादष्टममुत्प्लुत्य सप्तकस्यावरोहणे ॥ ५७ ॥
यदा चतु:स्वरा समालंकारस्य कला ऽऽरोहे ऽवरोहे च द्वितीयस्वरं परित्यजति तदा ऽवलोकिताख्यो ऽलंकारः ॥ ५२ ॥ एवमिति । एवमनेन प्रकारेण संचार्य - लंकारा आरोहेण कथिताः । एताञ्श्रीकरणाग्रणीः शार्ङ्गदेवो ऽवरोहेणापि प्राह कथितवान् ॥ ५३ ॥ इति संचार्यलंकाराः ॥ गीतज्ञैः प्रदर्शिता लोकप्रसिद्धानन्यान्सप्तालंकारान्कथयति - अन्ये ऽपीति ॥ ५४, ५५ ॥ लाघवार्थं सर्वेषां साधारणं लक्षणमाह- कलास्तेषामिति । एतेषां प्रथमकलालक्षणमेव वक्ष्यति— द्वितीयस्वराद्याः पूर्वैकैकस्वरपरित्यागात्कला ज्ञातव्याः || ५५ ॥ तारमन्द्रप्रसन्नादि विशदयति-- अटमस्वरेति । प्रथमस्वरमारभ्याष्टमस्वरपर्यन्तमारोहेण गीत्वा प्रथमस्वरं यदि गायेत्तदा तारमन्द्रप्रसन्नाख्यो ऽलंकारः ॥ - ५६, ५६ ॥ मन्द्रतारप्रसन्नं
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प्रकरणम ६] प्रथमः स्वरगताध्यायः मन्द्रतारप्रंसन्नाख्यमाह माहेश्वरोत्तमः ।
संसनिधपमगरिसं । (२) आद्यं द्वितीयमाद्यं च द्विर्गीित्वा द्वितीयकम् ॥ ५८ ॥ सकृदाद्यं यत्कलायां गायेदावर्तकस्तु सः । ससरिरिससरिस रिरिंगगरिरिगरि गगममगगमग ममपप
ममपम पपधधपपधप धधनिनिधधनिध । (३) एतस्यैव कला ऽन्त्यौ द्वौ स्वरौ संत्यज्य गीयते ।। ५९ ॥ यदा तदा संपदानमलंकारं विदुर्बुधाः। ससरिरिसस रिरिगगरिरि गगममगग ममपपमम पपधधपप
धधनिनिधध । (४) युग्ममेकान्तरितयोस्त्यक्तादप्येवमेव चेत् ॥ ६० ॥ द्विह्निः प्रयुज्येत तदा विधूतो बुधसंमतः ।
सगसग रिमरिम गपगप मधमध पनिपनि । (५) कलायामाद्ययोर्युग्मं चेत्तृतीयद्वितीययोः ॥ ६१ ॥
लक्षयति-मन्द्रादिति । मन्द्रादष्टमस्वरं गीत्वा यदि सप्त स्वरा अवरोहेण गीयन्ते तदा मन्द्रतारप्रसन्नाख्यो ऽलंकारः ॥ ५७, ५७- | आवर्तकं लक्षयतिआद्यमिति । आद्यं स्वरं द्वितीयं पुनराद्यं च द्विद्विवारं गीत्वा पुनर्द्वितीयमाद्यं च यदि सकृद्गायेत्तदा ऽऽवर्तकाख्यो ऽलंकारः ॥ -५८,५८- ॥ संप्रदानं लक्षयतिएतस्यैवेति । एतस्यावर्तकस्यान्त्यं स्वरद्वयं विहाय यदि कला गीयन्ते तदा संप्रदानाख्यो ऽलंकारः ॥ -५९,५९- ॥ विधूतालंकारं लक्षयति-युग्ममिति । एकान्तरितं स्वरद्वयं द्विर्गायेत ; त्यक्तमारभ्यैकान्तरितं स्वरद्वयं द्विर्गायेत् ; एवं चतुःस्वर: पञ्चकलो विधूताख्यो ऽलंकारः ॥-६०,६०- ॥ उपलोलं लक्षयतिकलायामिति । प्रथमस्वरयोयुग्मं द्विर्गीत्वा तृतीयद्वितीयस्वरयोयुग्मं द्विर्गीयते यदा
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१६८
संगीतरत्नाकरः [वर्णा० प्रकरणम् ६] द्विह्निः प्रयुज्यते तज्जैरुपलोलस्तदोच्यते । सरिसरिगरिगरि रिगरिंगमगमग गमगमपमपम मपमपधपधप
पधपधनिधनिध । (६) द्विर्गीत्वा ऽऽयं तृतीयं च प्रथमं च तृतीयकम् ॥ ६२ ॥ सकृद्गायेद्यत्कलायां तमुल्लासितमूचिरे । ससगसग रिरिमरिम गगपगप ममधमध पपनिपनि । (७)
इति सप्तालंकाराः । इति प्रसिद्धालंकारास्त्रिपष्टिरुदिता मया ॥ ६३ ॥ अनन्तत्वात्त ते शास्त्रे न सामस्त्येन कीर्तिताः। रक्तिलाभः स्वरज्ञानं वर्णाङ्गानां विचित्रता ॥ ६४॥ इति प्रयोजनान्याहुरलंकारनिरूपणे ।
तदोपलोलाख्यो ऽलंकारः ॥ -६१,६१- ॥ उल्लासितं लक्षयति-द्विरिति । यस्य कलायामाद्यं स्वरं द्विर्गीत्वा तृतीयं प्रथमं पुनस्तृतीयं च सकृद्गीयते तमुलासितमूचिरे संगीताचार्याः ॥ ६२, ६२- ॥ इति सप्तालंकारा: ॥ समस्तालंकारकथनमशक्यमित्याह-इतीति ॥ ६३, ६३- ॥ अलंकारप्रयोजनमाहरक्तिलाभ इति । स्वराणां रञ्जकत्वज्ञानं स्वरूपज्ञानं स्थाय्यादिवर्णानां वैचित्र्यं चालंकारनिरूपणे प्रयोजनमः ॥ -६४, ६४- ॥
इति प्रथमे स्वरगताध्याये पष्ठं वर्णालंकारप्रकरणम् ॥६॥
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प्रथमः स्वग्गताध्याय:
१६९.
अथ सप्तमं जातिप्रकरणम्
शुद्धाः स्युर्जातयः सप्त ताः पड़जादिस्वराभिधाः । पाड्ज्यापभी च गांधारी मध्यमा पञ्चमी तथा ।। १ ।। धैवती चाथ नैपादी शुद्धतालक्ष्म कथ्यते । यासां नामस्वरो न्यासो ऽपन्यासो ऽशो ग्रहस्तथा ॥ २ ।। तारन्यासविहीनास्ताः पूर्णाः शुद्धाभिधा मताः ।
(क०) गानक्रियाऽऽत्मकवर्णालंकारनिरूपणानन्तरमलंकार्यतया प्रतीतगीताद्यनुगतत्वेन प्रसक्तानां जातीनां लक्षणमुद्दिष्टं विवेक्तुकामस्तलक्ष्यत्वेनाक्षिप्ता जातीः सप्रभेदं लक्षयितुमुद्दिशति- शुद्धाः स्युरित्यादिना । जातय इति । यथायोगं ग्रामद्वयाज्जायन्त इति जातयः । अत एवानित्यतया साकल्येन सामान्यरूपजातिलक्षणाभावे ऽप्यनेकगेयव्यक्तिप्वनुवृत्तत्वमात्रेण गोत्वादिजातिवज्जातय इति वा, गीतजातं तस्योपरञ्जनं वा ऽऽभ्यो जायत इति जातय इति वा जातिशब्दव्युत्पत्तिर्मतङ्गाद्यभिमता द्रष्टव्या । जातयः शुद्धा वक्ष्यमाणशुद्धत्वलक्षणोपेताः सप्त स्युः । ताः षड्जादिस्वराभिधाः ; षड़जादिस्वराणामभिधा इवाभिधा यासां ता इत्युपमानपूर्वपदो बहुव्रीहिः ; यद्वा षड्जादिस्वरवाचकाः पड्जादिशब्दाः प्रकृतित्वेनाभिधाः संज्ञा यासां ताः । अत्राभिधाशब्दस्यावृत्तिः कर्तव्या । तथैवोद्दिशति-पाड्जीत्यादिना । तासां शुद्धत्वं किमित्यत आह-शुद्धतालक्ष्मेति । यासां षाड़ज्यादीनां नामस्वरः षड्जादिरेव वक्ष्यमाणलक्षणन्यासत्वाद्यवस्थाऽऽपन्नो भवति, याश्च तारन्यासविहीनास्तारस्थाने न्यासरहिता इति विशेषनिषेधः शेषाभ्यनुज्ञां गमयतीति मन्द्रमध्यस्थानयोर्यथायोगं न्यास विधिरिप्यते । यदपि भरतेन 'न्यासः शुद्धासु मन्द्रे स्यात् ' इत्युक्तं तत्तारनिषेधपरं द्रष्टव्यम् । अन्यथा
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१७०
संगीतरत्नाकरः
[जाति
विकृता न्यासवनँतल्लक्ष्महीना भवन्त्यमूः ॥ ३ ॥
षाज्यां मध्यषड्जन्यासत्वं मतङ्गोक्तं लक्ष्य विरुध्येत । पूर्णाः सप्तस्वरयुक्ताः । शुद्धाभिधाः शुद्धा इति संज्ञा यासां ताः ॥ १-२- ॥
(सु०) जातीनिरूपयति-शुद्धाः स्युरिति । शुद्धाः सप्त जातयो भवन्ति । तासां किं नामेत्यपेक्षायामाह-ताः षड्जादिस्वराभिधा इति । षड्जादयः सप्त स्वरास्तासां नाम्नि कारणभूताः। तासां तान्येव स्वरसंबन्धीनि नामानि कथयति-पाड्जीति । तासां शुद्धतालक्षणं प्रतिज्ञाय कथयति-शुद्धतेति । यासां जातीनां नामस्वर एव न्यासो ऽपन्यासो ऽशो ग्रहश्च भवति, न्यासस्वरश्च तारो न भवति ताः शुद्धा जातयो ज्ञातव्याः । न्यासादिलक्षणं वक्ष्यति ॥१--२-॥
__(क०) अमू: शुद्धाः पाड्ज्यादय एव । न्यासव तल्लक्ष्महीना इति । जातीनां शुद्धतायामभिहितेषु नामस्वरस्यैव न्यासापन्यासांशग्रहत्वेषु ससंपूर्णत्वेषु पञ्चसु लक्षणेपु मध्ये न्यासवर्ज न्यासनियमस्यैकस्य सङ्गं परिहृत्यैतल्लक्ष्मभिरपन्यासांशग्रहपूर्णत्वैींना नियतैरेतैर्वर्जिताः । अयमर्थःनामस्वरमेव न्यासं कृत्वा उपन्यासादी-स्वरान्तराणि कुर्यादिति । एवं कृता यदि, तदा विकृता विकृतावस्थाऽऽपन्ना भवन्ति, न तु विकृतसंसर्गजातजातिवद्वयपदेशान्तरभाज इत्यर्थः । अत्र न्यासनियमस्य परित्यागो नेप्टः ; तस्मिन्नपि परित्यक्ते सति विकृतासु जात्यन्तरभेदकत्वेन प्रधानभूतावयवाननुवृत्तौ तासां तत्तच्छुद्धजातिभेदत्वप्रतीतिर्न स्यात् ॥ ३ ॥
(सु०) विकृता जातीः कथयति-विकृता इति । न्यासं विनोक्तलक्षणहीना विकृता: । न्यासलक्षणहीनत्वं तारन्यासत्वम् । तत्कि विकृतानां न संभवति ? न । तदुक्तं मतङ्गेन-'याः शुद्धास्तासु नामकारी न्यासो नियमेन मन्द्रो भवति ; या विकृतास्तासु नामकारी मन्द्रो भवतीत्यनियमः । तत्र शुद्धानां
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प्रकरणम् ७]
प्रथमः स्वरगताध्यायः संपूर्णत्वग्रहांशापन्यासेष्वेकैकवर्जनात् । भवन्ति भेदाश्चत्वारो द्वयोस्त्यागे तु षण्मताः ॥ ४ ॥ त्यागे त्रयाणां चत्वार एकस्त्यक्ते चतुष्टये । भेदाः पञ्चदशैवते पाड्ज्याः सद्भिनिरूपिताः ॥ ५॥ तत्राष्टौ पूर्णताहीनाः सप्त वितरवर्जिताः । द्विधा स्युः पूर्णताहीनाः पाडवौडुवभेदतः ॥६॥ अतो ऽष्टावधिका आपभ्यादिष्वौडवजातिषु । अतस्त्रयोविंशतिधा षट्सु प्रत्येकमीरिताः ।। ७ ।।
जातीनां शुद्धत्वं विकृतत्वं च रूपद्वयमस्ति; षड्जकैशिक्यादीनामेकादशजातीनां तु विकृतत्वमेव, न शुद्धत्वम् ।' इति । जातिशब्दव्युत्पत्तिस्तु मतङ्गेनोक्ता'श्रुतिस्वरप्रामसमूहाज्जायन्त इति जातयः ; यद्वा ग्रहादिभ्यो जायन्त इति जातयः ; अथ वा जायते रसप्रतीतिराभ्य इति जातयः; यद्वा सकलस्य रागादेर्जन्महेतुत्वाजातयः; अथ वा यथा नराणां ब्राह्मणत्वादयो जातयः शुद्धा विकृताश्च, एवमेता अपीति जातयः ॥' इति ॥ -३ ॥
(क०) न्यासव्यतिरिक्तसंपूर्णत्वादिषु चतुर्पु लक्षणेष्वेकद्वयादिपरित्यागेन संभूतान्भेदान्षाड़ज्यादिषु यथासंभवं परिगणयति-संपूर्णत्वेत्यादिना। एकैकवर्जनादिति संपूर्णत्वादीनां स्वरूपनिषेधो न क्रियते, जात्यनुत्पत्तिप्रसङ्गात ; अपि तु नियतस्वरपर्युदासात्स्वरान्तरविधिर्विज्ञायते । भवन्ति भेदाश्चत्वार इति । संपूर्णत्ववर्जने कृते ग्रहांशापन्यासयुक्त एकः, ग्रहवर्जने संपूर्णत्वांशापन्यासवान्द्वितीयः, अंशवर्जने संपूर्णत्वग्रहापन्यासवांस्तृतीयः, अपन्यासवर्जने संपूर्णत्वग्रहांशयुक्तश्चतुर्थो भेदः, इति चत्वारो भेदाः । द्वयोस्त्यागे तु पण्मता इति । संपूर्णत्वग्रहाभ्यां संपूर्णत्वांशाभ्यां संपूर्णत्वापन्यासाभ्यां ग्रहांशाभ्यां ग्रहापन्यासाभ्यामंशापन्यासाभ्यां त्यक्ताभ्यां पड़
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१७२ संगीतरत्नाकरः
[जातिभेदा भवन्ति । त्यागे त्रयाणां चत्वार इति । संपूर्णत्वग्रहांशैः संपूर्णत्वग्रहापन्यासैः संपूर्णत्वांशापन्यासैफेहांशापन्यासैस्त्यक्तैश्चत्वारो भेदाः । चतुष्टय त्यक्त एको भेद इत्येते पञ्चदशैव भेदाः पाज्या निरूपिताः ॥ संपूर्णताहीनानामवान्तरभेदं वक्तुं विभजते-तत्राष्टाविति । तत्र पञ्चदशसु मध्ये ऽष्टौ भेदाः पूर्णताहीनाः संपूर्णत्वरहिताः । सप्त वितरवर्जिताः । संपूर्णत्वयुक्तत्वे सतीतरेषु ग्रहांशापन्यासेषु यथायोगमेकेन द्वाभ्यां त्रिभिर्वा वर्जिता द्विधा म्युः । पूर्णताहीना अष्टौ भेदाः षाडवौडुवभेदतो द्विधा स्युः पोडश भवन्तीत्यर्थः । ननु पूर्णताहीनानां भेदानां चतु:स्वरादिभिरपि भेदैः सह षड़िधत्वे संभवति कथं द्वैविध्यमिति चेत् ; उच्यते-पूर्णताहीना इत्यनेन चतुःस्वरादीनां च प्रतीतो सत्यामपि नञिवयुक्तन्यायेन जातिरागसंपादकत्वात्संपूर्णत्वसदृशप्रतिपत्त्या पाडवौडवयोरेवात्र ग्रहणमिति । चतुःस्वरप्रयोगस्तु भरतनापकृष्टध्रुवायामेवोक्तः । त्रिस्वरादीनां प्रयोगस्तु सामव्यतिरिक्तर्गादौ' द्रष्टव्यः । पाड्ज्यपेक्षया ऽऽर्षभ्यादिपु षट्सु जातिषु भेदाधिक्यं दर्शयति-अतो ऽष्टाविति । अतो ऽस्याः पूर्णताहीनेषु षोडशस्वष्टाभिरेव पाडवभैदैः पूर्णतायुक्तैरितरवर्जितैः सप्तभिः सह पञ्चदशभेदवत्त्वेनोक्तायाः पाड्ज्या इतराम्वार्पभ्यादिप्वौडुवजातिप्वौडुवावस्थया ऽपि युक्तास्वष्टावौडुवभेदा अधिकाः । अतः कारणात्ता आर्षभ्यादयः षड् जातयः प्रत्येकं त्रयोविंशतिधेरिता इति सप्तसु जातिषु विकृतभेदा मिलितास्त्रिपञ्चाशदुत्तरं शतं भवन्ति ॥ ४ -७ ॥
(सु०) विकृतभेदान्गणयति- संपूर्णत्वेति । शुद्धजातीनां चत्वारि लक्षणानि-नामस्वरग्रहत्वं नामस्वरांशत्वं नामस्वरापन्यासत्वं संपूर्णत्वं चेति । तत्र संपूर्णत्वपरित्यागेनको विकृतभेदः, ग्रहपरित्यागेनकः, अंशपरित्यागेनैकः,
। सामगाधर्भु.
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प्रकरणम् ७ ]
प्रथमः स्वरगलाध्यायः
विकृतानां तु संसर्गाज्जाता एकादश स्मृताः । स्यात्पड्जकैशिकी पड्जोदीच्यवा षड्जमध्यमा ॥ ८ ॥ गांधारोदीच्या रक्तगांधारी कैशिकी तथा । मध्यमोदीच्या कार्मारवी गांधारपञ्चमी ।। ९ ।। तथाssध्री नन्दयन्तीति तद्धेतूनधुना ब्रुवे | पाजीगांधारिकायोगाज्जायते पजकैशिकी || १० ||
१७३
अपन्यासपरित्यागेनैकः, एवमेकैकपरित्यागे चत्वारो भेदाः । संपूर्णत्वग्रहपरित्यागेनैकः, संपूर्णत्वांशपरित्यागेनैकः, संपूर्णत्वापन्यास परित्यागेनकः, ग्रहांशपरित्यागेनैकः, ग्रहापन्यासपरित्यागेनैकः, अंशापन्यासपरित्यागेनेकः, एवं लक्षणद्वयपरित्यागे पड् भेदा विकृता भवन्ति । संपूर्णत्वग्रहांश परित्यागेनैकः, संपूर्णत्वग्रहापन्यास परित्यागेनैकः, संपूर्णत्वांशापन्यास परित्यागेनैकः, ग्रहांशापन्यासपरित्यागेनैकः, एवं लक्षणत्रयपरित्यागे चत्वारो भेदा विकृता भवन्ति । लक्षणचतुष्टयपरित्याग एक एवं भेद: । एवं षाड्ज्याः पञ्चदश भेदा भवन्ति । तेषु पूर्णताहीना अष्टौ इतर लक्षणहीनाः सप्त । षाड्ज्या: षाडवत्वेनैवासंपूर्णत्वम् । अन्यासां षाडवत्वेनौडुवितत्वेन च भेदाधिक्यं कथयितुमाह-- द्विधा स्युरिति । पूर्णताहीना भेदाः षट्स्वरत्वेन पञ्चस्वरत्वेन च द्विविधाः । अत आभ्यादिषु षट्सु जातिष्वष्टौ भेदा अधिका विकृता भवन्ति । अतः प्रत्येकं तासां त्रयोविंशतिर्विकृता भेदाः । एतासां मिलिता विकृतभेदास्त्रिपञ्चाशदधिकं शतं भवन्ति ॥ ४–७ ॥
(क०) उक्त विकृतभेदसंसर्गोत्पन्नानां व्यपदेशान्तरभाजां विकृतजातीनां संख्यामाह - विकृतानां त्विति । तुशब्दो भिन्नक्रमः - विकृतानां संसर्गाज्जातास्त्विति । उक्ता विकृताः शुद्ध जातीनामेवावस्थाऽन्तराणि, एताः पुनस्तद्विकृतभेदसंसर्गोत्पन्नत्वान्न तथेति तुशब्दार्थः ॥ ता उद्दिश्य तासां निमित्तभूतं विकृतावस्थाऽऽपन्नषाड्ज्यादिसं दर्शयति – स्यात्पड्जकै -
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१७४
संगीतरत्नाकरः
[जातिपाड्जिकामध्यमाभ्यां तु जायते षड्जमध्यमा । गांधारीपञ्चमीभ्यां तु जाता गांधारपञ्चमी ॥ ११ ॥ गांधार्यार्पभिकाभ्यां तु जातिरान्ध्री प्रजायते । पाड्जी गांधारिका तद्वद्धैवती मिलितास्त्विमाः ॥ १२ ॥ पड्जोदीच्यवर्ती जातिं कुर्युः कार्मारवीं पुनः । उत्पादयन्ति नैषादीपञ्चम्यापभिका युताः ॥ १३ ॥ नन्दयन्ती तु गांधारीपञ्चम्यार्पभिका युताः । गांधारी धैवती पाड्जी मध्यमेति युतास्त्विमाः ॥ १४ ।। गांधारोदीच्यवां कुर्युर्मध्यमोदीच्यवां पुनः। एता एव विना पाज्या पञ्चम्या सह कुर्वते ।। १५ ।। कुर्युस्ता रक्तगांधारी नैयादी च न धैवती । आपभी धैवतीं त्यक्त्वा पञ्चभ्यः कैशिकी भवेत् ॥ १६ ॥
शिकीत्यादिना पश्चभ्यः कैशिकी भवेदित्यन्तेन । अत्राष्टादशसु जातिसंज्ञासु पाङ्ज्यादीनां कासांचिदन्वर्थतया योगरूढता, कार्मारव्यादीनां तु कतिपयानां केवलरूढतेवेति मन्तव्यम् ॥ ८-१६ ॥
(मु०) विकृतसंसर्गाज्जाता एकादश जातीनित्यविकृताः कथयतिविकृतानां त्विति । एतासामेकादशानां विकृतानां जातीनां कारणभूता जाती: कथयति-पाड्जीति । षाड्जीगांधारिकाभ्यां षड्जकैशिकी जायते । षाड्जीमध्यमाभ्यां षड्जमध्यमा । गांधारीपञ्चमीभ्यां गांधारपञ्चमी । गांधार्षिभिकाभ्यामान्ध्री । घाड्जीधैवतीगांधारीभ्यः षड्जोदीच्यवती। नैषादीपञ्चम्यापभीभ्यः कार्मारवी। गांधारीपञ्चम्यापभीभ्यो नन्दयन्ती । गांधारीधैवतीषाड्जीमध्यमाभ्यो गांधारोदीच्यवा। गांधारीधैवतीमध्यमापञ्चमीभ्यो मध्यमोदीच्यवा। गांधारी
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प्रकरणम् ७ ]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
चतस्रः पड्जशब्दिन्यो नेपाढ़ी धैवती तथा । आर्पभी चेति सप्तैताः पड्जग्रामस्य जातयः ॥ १७ ॥ शेषाः स्युर्मध्यमग्रामे पूर्णत्वाद्यधुनोच्यते । कार्मारव्यथ गांधारपञ्चमी पड्जकैशिकी ।। १८ ।। मध्यमोदीच्यवेत्येता नित्यपूर्णाः प्रकीर्तिताः । पाड्जी च नन्दयन्त्यान्ध्री गांधरोदीच्यवेत्यम्: ।। १९ । संपूर्णपाडवा: प्राह चतस्रः काश्यपो मुनिः । दशावशिष्टाः संपूर्णपाडवोडविता मताः ॥ २० ॥
१७५
नैषादीमध्यमा पञ्चमीभ्यो रक्तगांधारी । षाड्जीगांधारीमध्यमापञ्चमीनैषादीभ्यः कैशिकी ॥ ८- १६ ॥
(क० ) सर्वासामपि जातीनां ग्रामविभागं दर्शयति – चतस्र इत्यादिना । अष्टादशसु जातिषु मध्ये यथायोगं संपूर्णत्वादिना साधर्म्य - माह - -- पूर्णत्वादीत्यादिना । पूर्णत्वादीत्यादिशब्देन पाडवत्वमौडुवत्वं च गृह्यते । नित्यपूर्णा नित्यं सदा पूर्णाः ; न कदाचिदपि पाडवौडुवावस्थाssपन्ना इत्यर्थः । संपूर्णषाडवाः, संपूर्णाश्च ताः षाडवाश्च । षाड्जीनन्दयन्त्यान्ध्रीगांधारोदीच्यवाश्चतस्रो जातयो भरतादिमतपर्यालोचनया संपूर्णत्वेन पाडवत्वेन च नियमिता इति निश्चित्य कथ्यन्त इत्यर्थः । एवं च सति यदा गाता ताः षाडवीकर्तुमिच्छति, तदा वक्ष्यमाणलक्षणानुसारेण षाड्ज्यां निषादलोपेन, नन्दयन्त्याप्रयोः षड्जलोपेन गांधारोदीच्यवायामृषभलोपेन च षाडवत्वं नियतं द्रष्टव्यम् || दशावशिष्टा इति । अवशिष्टा नित्य पूर्णाभ्यश्चतसृभ्यः संपूर्णपाडवाभ्यश्चतसृभ्यश्च व्यतिरिक्ता दश ' सोढलात्मज:.
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१७६
संगीतरत्नाकरः
पञ्चमीमध्यमाषड्जमध्यमाऽऽख्यासु जातिषु । स्वरसाधारणं प्रोक्तं मुनिभिर्भरतादिभिः ॥ २१ ॥
[जाति
आर्षभी गांधारी मध्यमा पञ्चमी धैवती नैपादी षड्जोदीच्यवा पडुजमध्यमा रक्तगांधारी कैशिकी चेति । संपूर्णषाडवौडुविता: ; संपूर्णाश्च पाडवाचौविताश्च ता इति कर्मधारयः ; दशाप्येताः संपूर्णत्वादिव्यवस्थाssपन्ना इत्यर्थः । तद्यथा--- आर्षभी षड्जलोपात्पाडवा, सपलोपादौडुवा । गांधारीरक्तगांधारी कैशिक्यो रिलोपेन षाडवाः, रिधलोपेनौडुवाः । मध्यमापञ्चम्यौ गलोपेन षाडवे, निगलोपेनौडुवे । धैवतीनेषाद्यौ पलोपेन पाडवे, सपलोपेनौडुवे । षड्जोदीच्यवा रिलोपेन षाडवा. परिलोपेनौडुवा । षड्जमध्यमा निलोपेन षाडवा, निगलोपे नौडुवेति ॥ १७ - २० ॥
( सु० ) एतासां किययः कस्मिन्ग्राम इत्यपेक्षायामाह - चतस्र इति । एतासां जातीनां मध्ये षड्जशब्दवत्यश्चतस्त्रो जातय: षाड्जी षड्जकैशिकी षड्जमध्यमा षड्जोदीच्यवा चेति, तथा नैषादी धैवत्यार्षभी चेत्येताः सप्त षड्जग्रामोत्पन्नाः ; शेषा एकादश मध्यमप्रामोत्पन्नाः ॥ जातीनां पूर्णत्वषाडवत्वौडुवितत्वानि प्रतिज्ञाय कथयति - पूर्णत्वादीति । कार्मारवीगांधारपञ्चमीषड्जकैशिकीमध्यमोदीच्यवानां पूर्णत्वमेव, षाडवत्वमौडुवितत्वं च नास्ति । षाड्जीनन्दयन्त्यान्ध्री गांधारोदीच्यवानां संपूर्णत्वं षाडवत्वं च विद्यते, औडुवितत्वं नास्ति । अवशिष्टानां दशानां संपूर्णत्वं षाडवत्वमौडुवितत्वं चास्ति ॥ १५-२० ॥
(क० ) तत्र कासुचिज्जातिषु भरताद्युक्तं स्वरसाधारणप्रयोगे नियमं दर्शयति – पञ्चमीत्यादिना ॥ अनेनैव वचनेन पञ्चमीमध्यमाषड्जमध्यमासु तिसृषु जातिषु यथायोगं षड्जमध्यमपञ्चमानामन्यतमस्यांशत्वे स्वरान्तरस्यांशत्वे चोभयत्र स्वरसाधारणे प्राप्ते, स्वरान्तरांशत्वपक्ष निवृत्त्यर्थं स्वर
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१७७
प्रकरणम् ७] प्रथमः स्वरगताध्यायः
अंशेषु समपेष्वेतद्यथास्वनियमाद्भवेत् । एतदल्पनिगावाहुः कम्बलाश्वतरादयः ॥ २२ ॥ अल्पद्विश्रुतिके रागभाषाऽऽदावपि तन्मतम् । निगयोरंशयोः षड्जमध्यमायां न तद्भवेत् ।। २३ ॥ विकृता एव तत्रापि स्वरसाधारणाश्रयाः ।
साधारणं परिसंख्याति-अंशेषु समपेष्विति । एतत्स्वरसाधारणम् । यथास्वनियमात् ; स्वनियमः ‘प्रयोज्यौ षड्जमुच्चार्य' इत्यादिनोक्तः, तमनतिक्रम्य । अत्रेयं व्यवस्था–पञ्चम्यां पञ्चमे ऽशे, मध्यमाषड्जमध्यमयोः प्रत्येकं षड्जमध्यमपञ्चमेप्वंशेषु साधारणप्रयोग इति कम्बलाश्वतरादयः । एतत्स्वरसाधारणम् । काकल्यन्तरावित्यर्थः । अल्पनिगासु लोप्यनिषादगांधारासु जातिषु पञ्चमीमध्यमाषड्जमध्यमाऽऽख्यासु । एतदुक्तं भवति--निषादगांधारयोरन्यतरस्मिन्नंशे ऽन्यस्य तत्संवादित्वेन लोप्यत्वाभावात्काकल्यन्तरप्रयोगो न कर्तव्य इति । अल्पद्विश्रुतिके लोप्यनिषादगांधारे । रागभापाऽऽदावपीति । अत्र रागशब्देन ग्रामरागोपरागरागास्त्रयो ऽपि गृह्यन्ते ; भाषाशब्देन भाषाविभाषाऽन्तरभाषास्तिस्रो गृह्यन्ते ; आदिशब्देन पुना रागाङ्गभाषाऽङ्गक्रियाङ्गोपाङ्गचतुष्टयं गृह्यत इति दशविधो ऽपि रागप्रपञ्चो गृहीतः । तत्रापिशब्देन न केवलमल्पद्विश्रुतिकासु जातिप्वेव, किं त्वल्पद्विश्रुतिके रागादौ सर्वत्रापीति द्योत्यते । तत्काकल्यन्तरसाधारणं मतं भरतादीनां संमतम् || उक्तमर्थ व्यतिरेकेणाप्युदाहृत्य द्रढयन्नाहनिगयोरंशयोरिति । ‘पञ्चमीमध्यमा' इति भरतमतानुसारिणा वचनेन, 'एतदल्पनिगासु-' इति कम्बलाश्वतरादिमतानुसारिणा वचनेन चोपात्तासु
यथास्वं नियमाद्भवेत.
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१७८
संगीतरत्नाकरः
[जातिएकांशा नन्दयन्ती च मध्यमोदीच्यवा तथा ॥ २४ ॥ गांधारपश्चमीत्येतास्तिस्रो द्वयंशास्तु धैवती ।
गांधारोदीच्यवा चाथ पञ्चमीत्युदिता इमाः ॥ २५ ॥ पञ्चमीमध्यमाषड्जमध्यमाषाड्जीषु चतसृषु षड्जमध्यमाया विकृतसंसर्गजत्वेन केवलविकृतत्वाच्छुद्धताया अभावे ऽपीतरासां तिसृणां शुद्धावस्थायां विकृतावस्थायां चाविशेषेण स्वरसाधारणे प्राप्ते नियमयति-विकृता एवेति । तत्रापीति । तत्र पञ्चमीमध्यमाषाड्जीषु तिसृषु । अयमभिसंधिः-पाड्ज्यादिषु शुद्धावस्थायां विकृतस्वरप्रयोगो न कर्तव्य इति ॥ २१-२३- ॥
(सु०) पञ्चमीति । पञ्चमीमध्यमाषड्जमध्यमासु जातिषु स्वरसाधारणं प्रयोक्तव्यमित्युक्तं श्रीभरतादिभिः ॥ २१ ॥ अंशेष्विति । षड्जमध्यमपञ्चमेष्वंशेष्वेतत्स्वरसाधारणं नियमात्कर्तव्यम् । कथम् ? यथास्वं स्वकीयं स्थानमनतिक्रम्य । यदा षड्जो ऽशस्वरस्तदा षड्जसाधारणम् , यदा मध्यमपञ्चमौ तदा मध्यमसाधारणमिति । एतत्स्वरसाधारणमल्पनिषादगांधारासु जातिषु भवतीति कम्बलाश्वतरादय आहुः । अल्पनिषादगांधारे रागभाषाऽऽदावपि स्वरसाधारणं प्रयोक्तव्यमिति तेषां कम्बलाश्वतरादीनां मतम् ॥ २२, २२-॥ निगयोरिति । यदा षड्जमध्यमायां निषादगांधारावंशौ तदा तत्स्वरसाधारणं न प्रयोक्तव्यम् । प्रायस्तु विकृता एव स्वरसाधारणयोगिन्यः ॥ २३, २३-॥
(क०) अथाष्टादशसु जातिषु यथायोगमेकांशकादिसप्तांशकान्तं वक्ष्यमाणलक्षणांशस्वरसंबन्धकथनेन संभूतामंशसंख्यामवधारयति-एकांशा इत्यादिना जातिष्वष्टादशस्विम इत्यन्तेन । एकांशा एकः स्वरो ऽशो यासा ताः । नन्दयन्तीमध्यमोदीच्यवागांधारपञ्चमीनां तिसृणां वक्ष्यमाणलक्षणानुसारेण प्रत्येकं पञ्चमो ऽशो वेदितव्यः । द्वयंशास्त्विति । धैवतीगांधारोदीच्यवापञ्चम्यो द्वयंशाः । तत्र धैवत्यामृषभधैवतावंशौ ; गांधारोदीच्यवायां षड्ज
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प्रकरणम् ७]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
नैषाद्यार्षभिकाषड्जकैशिक्यस्त्रयंशिका मताः । आन्ध्रीकार्मारत्रीषड्जोदीच्यवाचतुरंशिकाः ॥ २६ ॥ पञ्चांश रक्तगांधारी गांधारी मध्यमा तथा । पाड्जीत्येताश्चतस्रः स्युः पर्डशैकैव कैशिकी ॥ २७ ॥ सप्तांशा सूरिभि: पड्जमध्यमा परिकीर्तिता । इति त्रिपष्टिरंशाः स्युर्जातिष्वष्टादशस्त्रिमे ।। २८ ।।
१७९
मध्यमौ ; पञ्चम्यामृषभपञ्चमौ | त्र्यंशिका मता इति । नैपाद्यार्षभिकाषड्जकैशिक्यस्त्र्यंशिकाः । तत्र नैषाद्यां निषादषड्जगांधारास्त्रयो ऽंशा: ; आर्षभ्यामृषभ निषादधैवताः ; षड्जकैशिक्यां षड्जगांधारपञ्चमाः । चतुरंशिका इति । आन्ध्रीकार्मारवीषड्जोदीच्यवाश्चतुरंशिकाः । तत्रान्धयामृषभगांधारपञ्चमनिषादाश्चत्वारो ऽंशा:; कार्मारव्यामृषभपञ्चमधैवतनिषादाः ; षड्जोदीच्य वायां षड्जमध्यमधैवत निषादाः । पञ्चांशा इति । रक्तगांधारीगांधारीमध्यमाषाड्ज्यश्चतस्रः पञ्चांशाः । तत्र रक्तगांधार्यो सगमपनिषादाः पञ्चांशाः ; गांधार्यामपि तद्वत्; मध्यमायां सरिमपधाः; पाड्ज्यां सगमपधाः । पडंशेति । एकैव कैशिकी षडंशा । तत्रर्षभव्यतिरिक्ताः षट् स्वरा अंशाः । सप्तांशेति । षड्जमध्यमा सप्तांशा । तस्यां षड्जादयः सप्त स्वरा अंशाः स्युः ॥ - २४ --२८॥
(सु०) अंशान्संख्याति - एकांशा इति । नन्दयन्तीमध्यमोदी च्यवागांधारपञ्चमीष्वेक एको ऽंशः ; धैवतीगांधारोदीच्यवापञ्चमीषु द्वौ द्वावंशौ ; नैषाद्यार्षभीषड्जकैशिकीषु त्रयस्त्रयो ऽंशाः ; आन्ध्रीकार्मारवीषड्जोदीच्यवासु चत्वारश्चत्वारो Sशाः ; रक्तगांधारी गांधारीमध्यमाषाड्जीषु पञ्च पञ्चांशाः ; कैशिक्येकैव षडंशा ; षड्जमध्यमा सप्तांशा । एवमष्टादशसु जातिषु त्रिषष्टिरंशा भवन्ति । इयं तु संख्या जातीनां संपूर्णत्वे । षाडवत्वे तु सप्तचत्वारिंशदंशा भवन्ति । तदुक्तं
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१८०
संगीतरत्नाकरः
[जातिग्रहांशतारमन्द्राश्च न्यासापन्यासको तथा । अपि संन्यासविन्यासौ बहुत्वं चाल्पता ततः ॥ २९ ॥ एतान्यन्तरमार्गेण सह लक्ष्माणि जातिपु । पाडवौडुविते कापीत्येवमाहुस्त्रयोदश ॥ ३० ॥
मतङ्गेन--- "योज्याः सप्ताधिकास्ते च चत्वारिंशच्च षाडवे | अस्यार्थः-घाडवविधौ क्रियमाणे सप्तचत्वारिंशदंशा भवन्ति । कथम्? चतसृणां जातीनां नित्यपूर्णानां नवांशाः पातनीयास्त्रिषष्टिमध्ये । एषु नवांशेषु पातितेषु चतुष्पञ्चाशदंशा अवशिष्यन्ते । तत्रापि षड्जमध्यमा षाड्जी षड्जोदीच्यवा कैशिकी रक्तगांधारीत्यासां सप्तांशा अपवादभूताः पातनीयाः । तेषु सप्तांशेषु पातितेषु सप्तचत्वारिंशदंशा भवन्ति।" इति । औडुवविधौ तु त्रिंशदंशा भवन्ति । तदुक्तं मतङ्गेन-"तथा ऽपवादनिर्मुक्तास्त्रिंशदौडुविते तु ते । अस्यार्थः" पूर्ववत् । षोडशसु पातितेषु नित्यपूर्णपाडवानां द्वादश पातनीयाः । अन्ये चापवादभूताः पञ्च । एवं त्रिंशदौडुविते ते इंशा भवन्ति । तथा चाह भरत:
'पञ्चस्वरमौडुवितं विज्ञेयं दशविधप्रयोगज्ञैः ।
त्रिंशत्प्रकारविहितं पूर्वोक्तं लक्षणं तस्य ।' इति । अपकृष्टध्रुवासु जातीनां चतुःस्वरप्रयोगो ऽप्युक्तो भरतेन---
'षट्स्वरस्य प्रयोगो ऽस्ति तथा पञ्चस्वरस्य च ।
चतुःस्वरप्रयोगो ऽपि ह्यपकृष्टध्रुवास्वथ ॥' इति ॥-२४-२८ ।।
(क०) अथ त्रयोदशविधं जातिलक्ष्म' इत्युद्देशे लक्ष्यत्वेनोपात्तजातिनिरूपणावसरे तदवयवत्वेन च प्राप्तांस्त्रयोदशापि ग्रहादीन्विभज्य क्रमेण लक्षयति--ग्रहांशतारमन्द्राश्चेत्यादिना । पाडवौडुविते कापीति । नित्यपूर्णाभ्यो ऽन्यासु यथायोगमित्यर्थः । यद्यपि भरतमतङ्गादिभिः संन्यासविन्यासयोर्विदार्याश्रितत्वादपन्यासे ऽन्तर्भावणान्तरमार्गस्याप्यंशाद्यवय
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प्रथमः स्वरगताध्यायः
१८१
प्रकरणम् ७]
गीतादिनिहितस्तत्र स्वरो ग्रह इतीरितः । तत्रांशग्रहयोरन्यतरोक्तावुभयग्रहः ॥ ३१ ॥ यो रक्तिव्यञ्जको गेये यत्संवाद्यनुवादिनौ । विदार्या बहुलौ यस्मात्तारमन्द्रव्यवस्थितिः ॥ ३२ ॥ यः स्वयं यस्य संवादी चानुवादी स्वरो ऽपरः । न्यासापन्यासविन्याससंन्यासग्रहतां गतः ॥ ३३ ॥ प्रयोगे वहुलः स स्याद्वाद्यशो योग्यतावशात् । बहुलत्वं प्रयोगेषु व्यापकं त्वंशलक्षणम् ।। ३४ ॥
वानामन्योन्यसंघटनात्मकस्यांशादिसंबन्धाधीनसिद्धेः पृथगुद्देशो नापेक्षित इति दशकं जातिलक्षण मित्युक्तम् , तथा ऽपि संन्यासविन्यासयोः पृथगवयवत्वेनान्तरमार्गस्य तु सत्स्वंशादिप्ववयवेषु तेन विना प्रयोगासिद्धेस्तस्यावश्यिकत्वाल्लक्षणेपु पृथगुद्दिश्य त्रयोदशेत्युक्तं ग्रन्थकारेण ॥ गीतादिनिहित इति । तत्र तेषु त्रयोदशसु मध्ये, गीतादिनिहितः, गीतस्य रञ्जकस्वरसंदर्भस्यादावुपक्रमे निहितः । गृहीत इति येन गीतं गृह्यत इति वा ग्रहः । तत्रांशग्रहयोरित्यत्र तत्रेति गीतगानलक्षण इत्यर्थः । अंशग्रहयोरन्यतरोक्तौ, यत्र क्वचिदंश एवोच्यते न ग्रहः, यत्र च ग्रह एवोच्यते न त्वंशः, तत्रोभयग्रह उभयोर्ग्रहांशयोHहो ग्रहणं भवति । अयमर्थः --यत्र गीतलक्षणे यस्य स्वरस्यांशत्वमुक्तं नान्यस्य ग्रहत्वं तत्र तस्यैव ग्रहत्वमप्युक्तम् , यस्य च ग्रहत्वमुक्तं नान्यस्यांशत्वं तत्रापि तस्यैवांशत्वमप्युक्तमिति । एतेनैतदुक्तं भवति–यस्यां जातौ ये यावन्तो ऽशास्तत्र ते तावन्त एव ग्रहा इति । सर्वासु जातिपु ग्रहा अपि त्रिषष्टिरित्यर्थः । तथा चोक्तं भरतेन
'त्रिषष्टिरंशा विज्ञेयास्तासां चैवांशवद् ग्रहाः' इति ।
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१८२
संगीतरत्नाकर:
[जाति
मतङ्गेनापि सो ऽंशवत्त्रिषष्टिभेदभिन्नो बोद्धव्यः' इति ॥ यो रक्तीत्याद्यैशलक्षणम् । रक्तिव्यञ्जकत्वादिधर्मयुक्तो यः स्वरः स संगीत भागत्वादेश इति व्यपदिश्यते गेये । रक्तिव्यञ्जक इत्येतावत्युच्यमाने स्वरगतरक्तिमात्रव्यञ्जकत्वं स्वरान्तराणामध्यविशिष्टमितीह स्वरसंदर्भभेदप्रतिनियतरक्तिविशेषव्यञ्जकत्वस्य विवक्षितत्वाद्द्वेय इति विशेषणं यथा वाक्यार्थभूतरसादिव्यञ्जकत्वं विवक्षितान्यपरवाच्ये ऽसंलक्ष्यक्रमध्वनौ स्वार्थमभिदधतः पदस्य । यत्संवाद्यनुवादिनौ | यस्यांशत्वेन लिलक्षयिषितस्य' स्वरस्य । अस्मिलक्षणे प्रतिवाक्यं यच्छब्दो विधेयांशस्वरपरः । संवाद्यनुवादिनौ पूर्वोक्तलक्षणौ स्वरौ विदार्थी गीतखण्डे बहुलौ प्रचुरप्रयोगौ ; यस्मात्तारमन्द्रव्यवस्थितिः, यमवधिं कृत्वोत्तरस्वरारोहेण तारव्यवस्था ऽधस्तनस्वरावरोहेण मन्द्रव्यवस्था च भवति ; यः स्वयं यस्य संवादी, यस्य वादिव्यपदेशवतः स्वस्य स्वयमेव कदाचित्संवादी च भवति; अत्र चकार एवार्थः संवाद्येवेति ; अनुवादी स्वरो ऽपरः, यस्यानुवादी त्वपर एव स्वरो भवति, न कदाचिदपि स्वस्य स्वयमनुवादीत्यर्थः ; यथा लोके राजा प्रयोजनवशात्कचिदमात्यकृत्यकारी भवति न कदाचिदपि भृत्यकृत्यकारी, तद्वत्; यश्च न्यासापन्यासबिन्याससंन्यासग्रहतां गतः सन्प्रयोगे बहुलो भवति ; तस्य न्यासादिरूपापत्तिः प्रयोगबाहुल्ये हेतु:, स वादी योग्यतावशादेशः स्यात् । योग्यता नामात्र यथायोगं रक्तिव्यञ्जकत्वाद्युक्तलक्षणार्हत्वम् । तथा ऽऽह भरतः -
'रागश्च यस्मिन्वसति यस्माच्चैव प्रवर्तते । नेता च तारमन्द्राणां यो ऽत्यर्थमुपलभ्यते ॥ ग्रहापन्यासविन्याससंन्यासन्यासयोगतः । अनुवृत्तश्च यश्चेह सो ऽंशः स्याद्दशलक्षणः ॥ '
विवक्षितस्य.
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प्रकरणम् ७ ]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
१८३
इति । नन्वंशो ग्रह इति भरतादेशेन सर्वेष्वप्यंशधर्मेषु ग्रहस्य प्राप्तेषु ग्रहांशयोः को विशेष इति चेत्, उच्यते – ग्रहस्यांशातिदेशतस्तु प्राप्तं न केवलं वादित्वमेव धर्मः, अपि तु वादित्वादिचतुष्टयमपीति तयोर्भेद इति । यथोक्तं मतङ्गेन' अंशो वाद्येव परं ग्रहस्तु वाद्यादिभेदभिन्नश्च - तुर्विध:' इति ॥ दशानामपि लक्षणानां सप्तषष्टिरूपत्वाद्बहुलत्वमेवांशस्य नियतं लक्षणमित्याह - बहुलत्वमिति । प्रयोगे बहुलत्वं व्यापक मंशलक्षणमिति संबन्धः | व्यापकमिति । यो ऽंश: स बहुल इत्यविना
भावात् ॥ २९-३४ ॥
(सु० ) त्रयोदशविधं जातिलक्षणं विभजते- ग्रहांशेति । षाडवौडुविते वापीति । याः कार्मारव्यादयश्चतत्रो नित्यपूर्णास्ता विहायेत्यर्थः । ग्रहलक्षणं कथयति - गीतादीति । गीतस्य जात्यादेरादौ यः स्वरः प्रयुज्यते स ग्रह इत्युच्यते । तत्रेति । तत्र ' यः स्वरो ऽंशः स एव ग्रहः' इति नियमादंशग्रहयोरेकोक्तावुभयं लभ्यते । नन्वेवं तर्हि ग्रहांशयोः को भेदः ? उच्यतेअंशो वाद्येव परम्; ग्रहस्तु वाद्यादिभेदभिन्नश्चतुर्विध: ; अंशश्च रागजनकत्वात्प्रधानम् ; ग्रहस्त्वप्रधानमिति तयोर्भेदः ॥ ६९ - ३१ ॥ अंशलक्षणं कथयति-यो रक्तिव्यञ्जक इति । यो गीते रञ्जकत्वं व्यनक्ति, यस्य संवाद्यनुवादी च विदार्या बहुल: । ननु विदारीशब्देन किमुच्यते ? विदार्यते खण्ड्यते गीतं पदं वा यया सा विदारी । सा द्विविधा गीतविदारी पदविदारी चेति । सा विशेषेण तालाध्याये निरूपयिष्यते । यमवधिं कृत्वा मन्द्रतारव्यवस्था, यो वा यस्य संवाद्यनुवादी वा न्यासत्वमपन्यासत्वं विन्यासत्वं संन्यासत्वं ग्रहत्वं च प्राप्नोति यस्य जात्यादिप्रयोगे बाहुल्यं संवाद्यंशश्चेत्युच्यते । योग्यतावशादिति । प्राधान्याद्वादिशब्दवाच्यत्वमन्यैर्लक्षणैरंशशब्दवाच्यत्वमिति । प्रयोगे बाहुल्यमेव मुख्यं लक्षणमंशस्येति कथयति — बहुलत्वमिति । ननु कथमस्यांशशब्दवाच्यत्वम् ? अंशशब्देन भाग उच्यते ; अयमपि जातिरागादिविभागकारित्वादंशशब्देनोच्यते, कारणे कार्यवदुपचारात् ॥ ३२ -- ३४ ॥
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१८४
संगीतरत्नाकरः
मध्यमे सप्तकेशः स्यात्तस्मात्तारस्थितात्परान् । स्वरांश्चतुर आरोहेदेष तारावधिः परः ।। ३५ ।। अर्वाक् कामचारः स्यात्तारे लुप्तो ऽपि गण्यते । आतारपद्जमारोहो नन्दयन्त्यां प्रकीर्तितः ।। ३६ ।।
[जाति
(क० ) अथ तारव्यवस्थामाह-ह - मध्यमे सप्तके ऽंशः स्यादिति । मध्यमे सप्तके, मध्यस्थानस्थितेषु षड्जादिपु सप्तसु स्वरेध्वित्यर्थः । अंशः स्यात्, षड्जमध्यमग्रामयोः प्राधान्यात्प्राबल्याच्च यस्मिन्प्रामे यश्चतुःश्रुतिको ऽंशः षड्जो वा मध्यमो वा भवेत् । तारस्थिताद् द्विगुणात्तस्मात् षड्जाद्वा मध्यमाद्वा परांश्चतुरः स्वरान् । मध्यमग्रामे तावत्तस्मादिति तारमध्यमपरामर्शे तस्मादिति ल्यब्लोपे पञ्चमी । तमारभ्येत्यर्थः । तेन सह परांश्चतुरो मपधनीना रोहेदित्यर्थः । षड्जग्रामे तु तस्मादिति तारषड्जपरामर्शे तस्मादित्यवधौ पञ्चमी । ततः परांश्चतुरः स्वरान्रिगमपानारोहेदिति । एप तारावधिः, एष उक्तप्रकारस्तारावधिः । परो निरतिशयः । कुतः ? मध्यमग्रामे तारनिषादात्परस्य स्वरस्यासंभवादेव ; पड्जग्रामे तु तारपञ्चमात्परयोधैवत निषादयोः संभवे, शक्तौ च सत्यामपि तत्र प्रयोगे रक्तेरभावादिति ॥ अर्वाक्त्वति । अर्वाङ् न्यूनतारावधित्वेनोक्तयोर्निषादपञ्चमयोरधस्तात्तारे स्थितेषु यस्य कस्यचिदवधित्वे तु कामचारः, गातुरशक्तयेच्छया वा प्रवर्तनम् । तारे लुप्तो ऽपि गण्यत इति । तारे तारव्यवस्थाविषये । चतुर आरोहेदित्यत्र चतुर्षु मध्ये प्रयोगलक्षणवशादेकस्य स्वरस्य लोपे सत्यप्यारोहगणनायां सोऽपि गृह्यते । नन्दयन्त्या जातेरपि मध्यमग्रामीणत्वात्तारव्यवस्थायां चतुः स्वरारोहे तारमध्यमस्य प्रारम्भावधित्वे प्राप्ते, तदपवादत्वेन तारषड्जस्य भरतादिमतात्परावधित्वं रुद्रटादिमतात्पूर्वावधित्वं च विहितमित्यभिसंधाय तन्त्रेणाह – आतारषड्जमिति । परावधित्व आ तार
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प्रकरणम् ७] प्रथमः स्वागताध्यायः
१८५ षड्जात्तारषड्जपर्यन्तमारोहः प्रकीर्तितो भरतादिभिरित्यर्थः । यथा ऽऽह भरत:--
'तारगत्या तु षड्जं च कदाचिन्नातिवर्तते' इति । तत्पूर्वावधित्वे त्वातारषड्जं तारषङ्जमारभ्यारोहः सामान्यतः प्राप्तचतुर्थस्वरारोहः । सामान्यतः प्रकीर्तितो रुद्रटादिभिरित्यर्थः । यथा यावत्षड्जमेव तारगतिमध्यमस्याप्यत्र संवादित्वादनाशित्वाच्च तारगती रुद्रटेन कृता मध्यमस्येति न दोष इति मतङ्गोक्तम् । अयमाशयः–नन्दयन्त्या हृप्यकामूर्च्छनाऽन्वितत्वेन पञ्चमांशत्वान्मन्द्रव्यापकत्वेन तारगतेः संकोचस्त्वाचार्यैः कृत इति । सामान्या तारव्यवस्था तु भरतोक्ता । यथा
'अंशात्तारगति विद्यादा चतुर्थस्वरादिह ।
आ पञ्चमात्सप्तमाद्वा नातः परमिहेप्यते ॥' इति । तरतेर्णिजन्तात्तार्यत इति कर्मणि घञि दूरश्राव्यस्य मूर्धन्यस्य ध्वनेस्तार इति संज्ञा ॥ ३५, ३६ ॥
(सु०) तारलक्षणं कथयति--मध्यम इति । मध्यसप्तकस्थितो यो इंशस्वरः, तस्मादेव तारस्थिताच्चतुःस्वरपर्यन्तमारोहणं कर्तव्यम् । अयमारोहे परो ऽवधिरुक्तः । ततः परमारोहणं न कर्तव्यम् । अक्तुि स्वेच्छया तारगतिः । तारे लुप्तो ऽपि स्वरो ग्राह्यः । भरतेन चतुर्थपञ्चमसप्तमस्वरपर्यन्तं तारगतिरुक्ता । यदाह
'अंशात्तारगति विद्यादा चतुर्थस्वरादिह ।
आ पञ्चमात्सप्तमाद्वा नातः परमिहेश्यते ॥' इति । आतारेति । नन्दयन्त्यां तारषड्जपर्यन्तमेवारोहणं कर्तव्यम् । पूर्वोक्तस्यायमपवाद: ।। ३५, ३६ ॥
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[जाति
१८६
संगीतग्नाकरः मध्यस्थानस्थितादंशादामन्द्रस्थांशमात्रजेत् । आमन्द्रन्यासमथ वा तदधःस्थरिधावपि ॥ ३७॥ एषा मन्द्रगतः सीमा ततो ऽक्किामचारिता। . गीते समाप्तिकृन्नयास एकविंशतिधा च सः ॥ ३८ ॥
(क०) मध्यस्थानस्थितादिति । अंशाद् प्रामापेक्षया षड्जाद्वा मध्यमाद्वा । अत्रापि ल्यब्लोपे पञ्चमी-अंशमारभ्येति । आमन्द्रस्थांशं यथाग्रामं मन्द्रस्थानस्थितषड्जपर्यन्तं तादृशमध्यमपर्यन्तं वा । आङत्राभिविधौ । आव्रजेदागच्छेत् । अनेन मध्यस्थानस्थितस्यांशस्य प्रायेण प्रारम्भो गम्यते । जातिप्रयोगे षड्जमन्द्रव्यवस्थायामयमेकः पक्षः । अथ वा, आमन्द्रन्यासं मन्द्रस्थानस्थितन्यासस्वरपर्यन्तम् । आङभिविधौ । अत्र न्यासशब्देन ग्रामयोरन्तिमौ गांधारनिषादौ विवक्षितौ, न तु जात्यादिगीतसमापकः । तौ च व्यत्यासेन पाड्जयामिके प्रयोगे मन्द्रगांधारो न्यासः, माध्यमग्रामिके प्रयोगे मन्द्रनिषादो न्यास इति ग्रामयोर्मन्द्रावधी भवतः । अत्र लिङ्गं षड्जग्रामीणया ऽपि षड्जकैशिक्या मन्द्रगांधारस्य न्यासत्वदर्शन मिति द्वितीयः पक्षः । तदधःस्थरिधावपीति तृतीयः पक्षः । अत्रापिशब्दो विकल्पार्थो रिधौ वेति । तच्छब्देन ग्रामन्यासतया विवक्षितौ गांधारनिषादौ परामृश्यते । तयोरधःस्थौ रिधावित्यनेन क्रमेण ग्रामविवक्षया न्यासयोर्व्यत्यास एव दर्शितः । यथोक्तं भरतेन---" त्रिधा मन्द्रगतिरंशपरा न्यासपरा ऽपन्यासपरा चेति ।
मन्द्रस्त्वंशात्परो नास्ति न्यासे तु द्वौ व्यवस्थितौ ।
गांधारन्यासलिङ्गेन दृष्टमृषभसेवनम् ॥" इति । एषा पक्षत्रये ऽन्यतमाश्रया मन्द्रगतर्मन्द्रस्थम्वरावरोहस्य सीमा ऽवधिः । तत उक्तावधेराङ न्यूनतायां कामचारिता गातुरिच्छया ऽशक्त्या
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प्रकरणम् ७]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
षाड्ज्यादीनां तु सप्तानां न्यासः स्यान्नामकृत्स्वरः । aौ नामकारिणौ षड्जमध्यमायां तु तौ मतौ ॥ ३९ ॥ उदीच्यवात्रयं मान्तं निपगान्ता तु कैशिकी | कारवी पञ्चमान्ता गान्ताः पञ्चापराः स्मृताः ॥ ४० ॥
१८७
वा प्रवर्तमानत्वम् । 'मदी हर्षे ' इत्यस्माण्णिजन्तान्मदयतीति कर्तरि रप्रत्यये रूपम् । हृद्यस्य ध्वनेर्मन्द्र इति संज्ञा ॥ अथ न्यासः -- - गीते समाप्तिकृदिति । गीते जात्यादिप्रयोगे समाप्तिकृन्निरपेक्षावसानकारी स्वरो न्यासः, न्यस्यते त्यज्यते येन गीतमिति करणे घञि न्याससंज्ञकः । स चाष्टादशसु जातिष्वेकविंशतिधा वक्ष्यमाणप्रकारेण ॥ ३७, ३८ ॥
(सु० ) मन्द्रं निरूपयति — मध्यस्थानेति । मन्द्रस्थानस्थितादंशस्वरान्मन्द्रांशस्वरपर्यन्तमवरोहणं कर्तव्यम्, मन्द्रन्यासस्वरपर्यन्तं वा, मन्द्रस्थानस्थभधैवतपर्यन्तं वेति पक्षत्रयम् । एषा मन्द्रगतेः परा काष्टोक्ता । अर्वाक्तु स्वेच्छया मन्दगतिः । न्यासलक्षणं कथयति — गीत इति । यस्तु गीतसमापको गीतस्य जात्यादेरन्ते तिष्ठति स न्यास इत्युच्यते । न्यस्यते व्यज्यते यस्मिन्येन वा गीतमिति स न्यासः । स चैकविंशतिप्रकारो भवति ॥ ३७, ३८ ॥
(क०) तदेव विवृणोति - षाड्ज्यादीनामित्यादिना । सप्तानां शुद्धानां विकृतभेदैश्च सहितानां नामकृदिति, षाड्ज्यां षड्ज आर्षभ्यामृषभ इत्येवम् । नान्य इति तुशब्दार्थः । उदीच्यवात्रयमिति । षड्जोदीच्या गांधारोदीच्यवा मध्यमोदीच्यवा च त्रिकं मान्तं मध्यमन्यासकम् । अपराः पञ्च षड्जकैशिकी रक्तगांधारी गांधारपञ्चम्यान्ध्री नन्दयन्ती चेति । स्मृताः, भरतादिभिरिति शेषः ॥ ३९, ४० ॥
(सु०) एकविंशतिप्रकार तामेव विशदयति — षाड्ज्यादीनामिति । षाड्ज्यादीनां सप्तानां नामस्वराः सप्त न्यासाः । षड्जमध्यमायाः षड्जमध्यमौ न्यासौ ।
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संगीतरत्नाकरः
जातिअपन्यासस्वरः स स्याद्यो विदारीसमापकः । कार्मारव्यां च नैपाद्यामान्ध्रीमध्यमयोस्तथा ॥ ४१॥ आर्षभ्यां च स्वरा ये शास्ते ऽपन्यासाः प्रकीर्तिताः । उदीच्यवानां त्रितये ऽपन्यासौ षड्जधैवतौ ॥ ४२ ।। मध्यमो रक्तगांधार्या गांधार्या पड्जपश्चमौ । सनिपाः षड्जकैशिक्यां पञ्चम्यां निरिपाः स्मृताः ॥ ४३ ॥ रिपौ गांधारपञ्चम्यां पाड्ज्यां गांधारपञ्चमौ। धैवत्यां रिमधाः प्रोक्ता नन्दयन्त्यां मपो मतौ ॥४४॥ रिवाः षट् च कैशिक्यां सप्तापीत्युचिरे परे । सप्तखरापन्यासां तु भाषन्ते पड़जमध्यमाम् ॥ ४५ ॥ अत्र ये ऽन्त्या अपन्यासास्ते स्युरेकोनविंशतिः । सप्तत्रिंशत्परे ते च षट्पञ्चाशत्तु संयुताः ॥ ४६॥
कैशिक्यां सप्तपक्षे तान्सप्तपञ्चाशतं विदुः । षड्जोदीच्यवागांधारोदीच्यवामध्यमोदीच्यवानां मध्यमो न्यासः । कैशिक्या निषादपञ्चमगांधाराः । कार्मारव्याः पञ्चमः । अवशिष्टानां पञ्चानां गांधारो न्यासः । एवमेकविंशतिनासा: ॥ ३९, ४० ॥
(क०) अथापन्यासः--अपन्यासस्वरः स स्यादित्यादिना सप्तपञ्चाशतं विदुरित्यन्तेन निरूपितः स्पष्ट: । अपन्यस्यते प्रयोगो यनेत्यपन्यासः। अपन्यसनं च न्यासत्वापगमे त्ववान्तरविच्छेदकारित्वान्नयासवप्रतिभासनम् ॥ ४१-४६- ॥
(सु०) अपन्यासं लक्षयति-अपन्यास इति । यः स्वरो विदार्या गीतावयवस्य समापकः सो ऽपन्यासः । मतङ्गेनाप्युक्तम्-'यत्र समाप्तमिव
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प्रकरणम् ७ ]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
अंशाविवादी गीतस्याद्यविदारीसमाप्तिकृत् ॥ ४७ ॥ संन्यासो ऽंशाविवाद्येव विन्यासः स तु कथ्यते । यो विदारीभागरूपपदान्ते ऽवतिष्ठते ॥ ४८ ॥ अलङ्घनात्तथा ऽभ्यासाद्बहुत्वं द्विविधं मतम् । पर्यायांशे स्थितं तच्च वादिसंवादिनोरपि ॥ ४९ ॥
१८९
गीतं प्रतिभासते सो ऽपन्यासः । स च विदारीमध्ये भवति । गीतशरीरमध्य इत्यर्थ: । ' इति । अपन्यासान्परिगणयति - कार्मारभ्यामिति । कार्मारवीनैषाद्यान्ध्रीमध्यमाऽऽर्पभीणामंशा एवापन्यासाः । षड्जोदीच्यवागांधारोदीच्यवामध्यमोदीच्यवानां षड्जधैवतावपन्यासौ । रक्तगांधार्या मध्यमः । गांधार्थी षड्जमध्यमौ । षड्जकैशिक्यां षड्जपञ्चमनिषादाः । पञ्चम्यां निषादर्षभपञ्चमाः । गांधारपञ्चम्यामृषभपञ्चमौ । षाड्ज्यां गांधारपञ्चमौ । धैवत्यामृषभमध्यमधैवताः । नन्दयन्त्यां मध्यमपञ्चमौ । कैशिक्यामृषभवर्जिताः षट् स्वरा अपन्यासाः । सप्तापि स्वरा इति केषांचिन्मतम् । षड्जमध्यमायां सप्त स्वरा: । अत्रांशा एवापन्यासाः । त एकोनविंशतिः । अन्ये सप्तत्रिंशत् । मिलिताः षट्पञ्चाशत् । यदि कैशिक्यां सप्तापन्यासास्तदा सप्तपञ्चाशदपन्यासस्वरा भवन्ति ॥ ४१-४६-॥
I
(क०) अथ संन्यास विन्यासौ – अंशाविवादी, यस्मिन्प्रयोगे यो Sशस्तस्याविरोधी संवादीत्यर्थः । गीतस्याद्यविदारीसमाप्तिकृत्प्रथमखण्डसमापकः । अनेनापन्यासस्यातिरिक्त विदारीविषयत्वं विज्ञेयम् । विन्यासः स तु कथ्यते । स इति वक्ष्यमाणपरामर्शः । अंशाविवादित्वमुक्तमेव । विदारीभागरूपपदप्रान्ते, विदार्या भागरूपाणि वर्णालंकारादियुक्तस्य रागस्य वाक्यस्थानीयस्यावयवभूतानि पदवत्पदानि तेषां स्वरसमुदायात्मनां प्रान्ते यो ऽवतिष्ठत इति संबन्धः । विवादिव्यतिरिक्तानां सर्वेषामपि स्वराणां संन्यास विन्यासत्वसंभवेन बहुत्वादेतयोः संख्या नोक्ता ॥ अथ बहुत्वम् - अलङ्घनादिति । लङ्घनमीषत्स्पर्शः स्वरस्य स्थानप्रयत्नकृतस्वरूपन्यूनता ;
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१९० संगीतरत्नाकरः
[जाति___ अल्पत्वं च द्विधा प्रोक्तमनभ्यासाच्च लङ्घनात् ।।
अनभ्यासस्त्वनंशेषु प्रायो लोप्येष्वपीष्यते ॥ ५० ॥ ईपत्स्पर्शो लङ्घनं स्यात्प्रायस्तल्लोप्यगोचरम् ।
उशन्ति तदनंशे ऽपि कचिद्गीतविशारदाः ।। ५१ ॥ तदभावो ऽलङ्घनम् ; साकल्येन स्पर्श इति यावत् । इदमेकं बहुत्वम् । अभ्यासादावृत्तेः । नैरन्तर्येण वा सान्तरत्वेन वा स्वरस्य पुनः पुनरुच्चारणमावृत्तिः । इदमन्यद्बहुत्वम् । तच्च द्विविधं बहुत्वं पर्यायांशे वादिभूतांशाद्वयतिरिक्तांशे, वादिसंवादिनोरपि स्थितम् , प्रयोक्तव्यमिति शेषः । अथाल्पत्वम् --- अल्पत्वं चेति । अनभ्यासाच्च लङ्घनादिति बहुत्वोक्तलक्षणविपर्ययः । अनभ्यासस्तु, आवृत्त्यभावेन सकृदुच्चारणरूपमल्पत्वं तु, अनंशेषु वादिपर्यायांशोभयव्यतिरिक्तेषु स्वरेप्विप्यते ; लोप्येप्वपि पाडवौडवकारिषु च प्राय इप्यते ; प्राचुर्येण भवतीत्यर्थः ॥ ईषत्स्पर्श इति ग्रन्थस्तु विवृतार्थः ॥ ४७---५१ ॥
(सु०) संन्यासं लक्षयति-अंशाविवादीति | यः स्वरो ऽशेन सहाविवादी सन्गीतस्याद्यां विदारी समापयति स संन्यासः । मतङ्गेनाप्युक्तम्-- 'अंशस्य विवादी यो न भवति स प्रथमविदार्यामन्ते यदि प्रयुक्तो भवति तदा संन्यास इत्युच्यते' इति । विन्यासं लक्षयति-अंशाविवाद्येवेति-अंशेन सहाविवाद्येव यः स्वरो विदार्यशरूपाणां पदानामन्ते तिष्ठति स विन्यासस्वरः । मतङ्गेनाप्युक्तम्-'एष एव तु संन्यासस्वरो यदा पदान्ते विन्यस्यते तदा विन्यासः; अत एवांशस्य संवाद्यनवादी वा पदविदार्यन्ते भवतीत्यक्तम् ।' इति । बहुत्वं कथयति-अलङ्घनादिति । अन्यस्पर्शादभ्यासाच्च बहुत्वं द्विविधम । तच बहुत्वं वादिसंवादिनोः पर्यायः । अलङ्घनाद्यस्य बहुत्वं स वादी ; तद्यस्याभ्यासात्स संवादीत्यर्थः । अल्पत्वं चेति । अल्पत्वमध्यनभ्यासालङ्घनाच द्विप्रकारम् । अनभ्यासस्त्वंशस्वरादन्येषु स्वरेषु क्वचिल्लोप्येश्वपीध्यते भरतादिमिः । लङ्घनादल्पत्वमित्युक्तम् ; तत्र किमिदं लङ्घनमित्यपेक्षाया
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प्रकरणम् ७] प्रथमः स्वग्गताध्यायः
न्यासादिस्थानमुज्झित्वा मध्ये मध्ये ऽल्पतायुजाम् ।। स्वराणां या विचित्रत्वकारिण्यंशादिसंगतिः ॥ ५२ ।। अनभ्यासः कचित्कापि लङ्घनैरेव केवलैः।। कृता सा ऽन्तरमार्गः स्यात्सायो विकृतजातिषु ॥ ५३ ।। पडवन्ति प्रयोगं ये स्वरास्ते पाडवा मताः ।
पट्स्वरं तेषु जातत्वाद्गीतं पाडवमुच्यते ॥ ५४॥ माह-ईषस्पर्श इति । सकृदुच्चारणं लङ्घनम् । तत्प्रायो लोप्येषु स्वरेषु भवेत् । अंशस्वरादन्येष्वपि स्वरेषु लङ्घनं भवतीति केषांचिन्मतम् ॥ ४७-५१ ॥
(क०) अथान्तरमार्गः---न्यासादिस्थानमिति । न्यासादिस्थानम् , न्यासादीनां न्यासापन्यासविन्याससंन्यासग्रहांशानां स्थानं गीतस्यान्त्यप्रदेशाद्युज्झित्वा विहाय । मध्ये मध्य इति मध्यानां बहुत्वाद्वीप्सायां द्विर्वचनम् । तेनोक्तन्यासादीनां द्वयोर्द्वयोर्मध्य इत्युक्तं भवति । तत्राल्पतायुजामुक्तद्विविधाल्पत्वभाजां स्वराणां या इंशादिसंगतिः , अंशग्रहापन्यासादिभिः सह संगतिरारोहादिना संघटना विचित्रत्वकारिणी स्वरसमुदायात्मकतानवैचित्र्यकारिणी भवति, क्वचित्केवलैरनभ्यासैः क्वापि लङ्घनैरेव तत्तद्गीतरक्तिवशात्कृतोत्पादिता सा ऽन्तरमार्गः स्यात् । सो ऽपि विकृतजातिपु प्रायः स्यात् ; शुद्धजातिषु तु कादाचित्क इत्यर्थः ॥ ५१, ५३ ॥
(सु०) अन्तरमार्ग लक्षयति-न्यासादीति । न्यासापन्यासविन्याससंन्यासग्रहांशस्थानं परित्यज्य मध्ये मध्ये ऽल्पानां स्वराणां भङ्गिविशेषकारिणी कचिदनभ्यासैः कचित्केवलैर्लङ्घनैरेव या विहिता इंशादिभिः सह संगतिः सा ऽन्तरमार्ग इत्युच्यते । सा प्रायशो या विकृता जातयस्तन्निष्ठैव भवति ॥५२, ५३॥
(क०) अथ षाडवम्-पडवन्तीति । ये षट् स्वराः शुद्धा विकृता वा प्रयोगं जात्यादिकमवन्ति रक्षन्ति, प्रवर्तयन्तीत्यर्थः ; ते स्वराः षडवाः ।
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१९२
संगीतरत्नाकर:
वान्ति यान्त्युडवो ऽत्रेति व्योमोक्तमुडुवं बुधैः । पञ्चमं तच्च भूतेषु पञ्चसंख्या तदुद्भवा ॥ ५५ ॥ औडवी सा ऽस्ति येषां च स्वरास्ते त्वौडुवा मताः । ते संजाता यत्र गीते तदौडुवितमुच्यते ॥ ५६ ॥ तत्संबन्धादौडवं च पञ्चखरमिदं विदुः ।
[जाति
'अव रक्षणे' इत्यस्मात्पचाद्यच्यवा इति रूपम् । षट् च ते वाश्चेति कर्मधारयः । तेषु षडवेषु जातत्वात्षट्स्वरं गीतं षाडवमुच्यत इति योजना | तेषु जातत्वादित्यनेन षडवशब्दात् ' तत्र जातः' इत्यणि पाडवमिति रूपम् । अयमर्थ:-सप्तसु स्वरेषु लक्षणवशादेकस्मिंस्त्यक्ते, तदितरषट्स्वर प्रयोगप्रपञ्चवशाज्जातं गीतं षाडवव्यपदेशवदिति ॥ अथौडुवितम् - वान्तीति । यान्तीति वा गतिगन्धनयो:' इत्यस्मान्निप्पन्नस्य वान्तीत्यस्यैव गत्यर्थतोक्तिः । अत्रोडवो नक्षत्राणि वान्ति गच्छन्तीति वाघातो: 'सुपि स्थः ' इत्यत्र सुपीति योगविभागात्कप्रत्यय उडवमिति व्योमाकाशमुक्तम् । तच्चोडुवं भूतेषु पृथिव्यादिमहाभूतेषु गुणबाहुल्येनाभ्यर्हितत्वात्सृष्टिक्रमप्रातिलोम्येन पृथिव्यादिपरिगणनायां पञ्चमं पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशानीति । पञ्चसंख्या पञ्चचेति संख्या तदुद्भवा तदुद्भवद्रव्याश्रिता सत्यौडुवीत्युच्यते । उडुवशब्दात् ' तत्र जात : ' इत्यणि स्त्रियाम् ' टिड्ढाणञ्' इत्यादिना ङीपि रूपमित्यर्थः । सा चौडुवी संख्या येषां तत्र तत्र नियतम्वरद्वयलोपे सत्यवशिष्टानां प्रयोगप्रवर्तकानां स्वराणामस्ति, ते तु पञ्च स्वरा औडुवा मताः । तदस्यास्तीत्यस्मिन्नर्थे शैषिके ऽणि सतीत्यर्थः । जातं त्विति तुशब्देन येषामिति यच्छन्दतात्पर्येणोक्ता एव, न तु संपूर्ण घाडवे वा शते पञ्चाशन्नयायेन यथाकथंचित्संभवन्तः पञ्चापीति गम्यते । त औडुवा यत्र गीते संजातास्तगीत मौडुवितमुच्यते । औडुवशब्दात् ' तदस्य संजातम् -' इत्यादि
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प्रकरणम् ७] प्रथमः स्वरगताध्यायः
क्रमादल्पाल्पतरते पाडवौडुवकारिणोः ॥ ५७ ॥ संपूर्णत्वदशायां स्तः पञ्चम्यां तु विपर्ययः ।
नेतच्प्रत्यये सतीत्यर्थः ॥ तत्संबन्धादिति। पञ्चस्वरमिदं गीतम् . तत्संबन्धात् , तच्छब्देनौडुवाः परामृश्यन्ते. तेषामोडुवानां संबन्धीति संबन्धमात्रविवक्षायाम् । तस्येदम् ' इत्यण्प्रत्यय औडुवमिति च विदुः ॥ ५४-५६-॥
(सु०) षाडवं लक्षयति-पडवन्तीति । षण्मिलित्वा ये प्रयोगं जात्यादिकमवन्ति रक्षन्ति, ते षडवा: स्वराः । षडवेषु जातं षाडवम् । जातार्थे ऽण्प्रत्ययः । औडुवं लक्षयति-वान्तीति । उडवो नक्षत्राणि वान्ति यान्त्यस्मिन्नित्यडवं व्योम । तच्च भूतेष पञ्चमम । तेन पञ्चसंख्या लक्ष्यते । औडुवी संख्या विद्यते येषां स्वराणां त औडुवाः पञ्च स्वराः । ते जाता यत्र गीते तदौडुवितमुच्यते । जातार्थ इतच्प्रत्ययः । तत्संबन्धात्पञ्चस्वरमौडुवं विदुर्बुधा भरतादयः ॥ ५४-५६- ॥
(क०) पूर्व द्विविधस्याप्यल्पत्वस्य सामान्येन प्रायो लोप्यविषयत्वमुक्त्वेदानीं तस्यैव कदाचिल्लोप्यविशेषव्यवस्थां दर्शयति—क्रमादिति । अल्पाल्पतरते, अल्पश्चाल्पतरश्वाल्पाल्पतरौ स्वरौ, तयोर्भावावल्पाल्पतरते ; अत्र द्वंद्वान्ते श्रुतस्य तलः प्रत्येकमभिसंवन्धो ऽल्पता ऽल्पतरता चेति ; अल्पता ऽनभ्यासः, अल्पतरता लड्नम् ; संपूर्णत्वदशायां यासां जातीनां संपूर्णत्वाद्यवस्थात्रयं संभवति, तासां संपूर्णत्वावस्थायामेव ते षाडवौडुवकारिणोः क्रमात्स्तः ; पाडवकारिणः स्वरस्याल्पता, औडुवकारिणः स्वरस्याल्पतरतेति प्रयोज्यं भवतः । यासां जातीनां तु संपूर्णत्वषाडवत्वाख्यावस्थाद्वयमेव, तासु षाडवकारिणो ऽल्पतैव. औडुवकारिणो ऽभावादल्पतरता न स्यात् ; यास्तु नित्यपूर्णास्तासु लोप्यस्वराभावादल्पत्वमनंशविषय मेवेत्यवगन्तव्यम् । अल्पत्वप्रयोगे कृतम्य नियमस्य क्वचिद्विधिना बाधं दर्शयति-पञ्चम्यां विति ।
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१९४ संगीतरत्नाकरः
[जातिवचनं विधिरप्राप्ताविहाल्पत्वबहुत्वयोः ॥ ५८ ॥
परिसंख्या द्वयोः प्राप्तावेकस्यातिशयाय यत् । तुशब्दो ऽत्रेतरजातिवैलक्षण्यद्योतनार्थः । विपर्ययो ऽन्यथाभावः । एतदुक्तं भवति-अवस्थात्रयवत्याः पञ्चम्याः पूर्णत्वलक्षणे · सगमाः स्वल्पका मताः' इत्यनेन वक्ष्यमाणेन षड्जमध्यमयोरपाडवौडुवकारित्वादप्राप्तौ ‘क्रमाद्देन निगाभ्यां च षाडवौडविता मता' इति षाडवकारित्वाद्गांधारे प्राप्तौ च संभूय त्रयाणामल्पत्ववचनेन निषादे ऽप्यौडुवकारित्वेन बहुत्वस्य प्राप्तौ 'ऋषभपञ्चमनिषादा अपन्यासाः' इति बहुत्ववचनेन च नियमस्य बाधः, यथा 'प्राङ्मुखो ऽन्नानि भुञ्जीत' इत्यस्य लक्ष्मीव्रते ‘संपत्कामः पश्चिमाशामुखाशी' इत्येन वचनेन । ननु विषयव्यवस्थया सर्वजातिषु नियतस्याल्पत्वस्य पञ्चम्यां कथं विपर्यय इत्यत आह-वचनं विधिरिति । इह पञ्चम्यामल्पत्वबहुत्वयोः स्वरधर्मयोरप्राप्तौ ; अत्र षाडवौडवकारिणोः षड्जमध्यमयोरल्पत्वस्य, औडुवकारिणि निषादे बहुत्वम्य चाप्राप्तौ सत्याम् ; वचनम् , 'दौर्बल्यं चात्र विज्ञेयं षड्जगांधारमध्यमैः' इति षड्जमध्यमयोः साक्षादल्पत्वस्य, 'सनिषादावपन्यासौ' इत्यपन्यासलिङ्गेन निषादे बहुत्वस्य च भरतोक्तमेतद्वचनं विधिः ‘प्रातः संध्यामुपासीत' इति वचनवन् । विधीयते ऽनेनेति करणे ‘उपसर्गे घोः किः' इति किप्रत्यये सति विधिरिति रूपम् । ननु षड्जमध्यमयोरप्राप्तावल्पत्ववचनं निषादे ऽप्यप्राप्ती बहुत्ववचनं विधिरस्तु ; इह षाडवकारित्वेनाल्पत्वविषय गांधारप्राप्तौ सत्या. मपि पुनरल्पत्वविधानं किमितीत्याशयवानाह–परिसंख्येति । द्वयोः, इह पाडवौडुवकारिणोर्गोधारनिषादयोर्द्वयोः प्राप्तावल्पत्वधर्मितया प्राप्तौ सत्याम् , एकस्य तयोरेकस्य गांधारस्य, अतिशयाय रक्तिविशेषाय यदल्पत्ववचनम् , परिसंख्या, सा परिसंख्या भवतीत्यर्थः । यत्तदोः संबन्धस्य नित्यत्वादत्र
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प्रकरणम् ७] प्रथमः स्वरगताध्यायः
अथ प्रत्येकमेतासां जातीनां लक्ष्म कथ्यते ॥ ५९ ॥ सेति तच्छब्दाध्याहारः कर्तव्यः । परिसंख्योदाहरणं यथा--' इमामगृभ्णन्रशनामृतस्येत्यश्वाभिधानीमादत्ते' इति । चयनप्रकरणे 'इमामगृभ्णन्-' इति मन्त्रे रशनालिङ्गेन प्राप्तयोरश्वगर्दभाभिधान्योः ‘तस्मादश्वाद्गर्दभो ऽश्वतरः' इति निकृष्टाया गर्दभाभिधान्या अश्वाभिधानी श्रेयसीत्येवैकस्या अतिशयाय ‘इमामगृभ्णनशनामृतस्य' इति मन्त्रानुवादेन 'अश्वाभिधानीमादत्ते' इति यत्तदर्थ शास्त्रवचनं परिसंख्या, तद्वत् । परिसंख्याया इतरपरिवर्जनफलत्वादिहापि निषादस्याप्यल्पत्वनिषेधः फलम् ॥ -५७-५८-॥
(सु०) क्रमादिति । षाडवौडुवकारिणौ यौ स्वरौ तयोः संपूर्णत्वदशायां क्रमादल्पाल्पतरते ज्ञातव्ये । यस्य लोपेन षाडवत्वं तस्य स्वरस्य संपूर्णत्वदशायामल्पत्वम् ; यस्य च लोपेनौडुवत्वं तस्य संपूर्णत्वदशायामल्पतरत्वम् । पञ्चम्यां तु जातौ विपर्यय:-यस्य लोपेन षाडवत्वं तस्याल्पतरत्वम् , यस्य लोपेनौडुवत्वं तस्याल्पत्वमिति । वचनमिति । 'क्रमादल्पाल्पतरते' इत्यनेन न्यायेनाल्पत्वबहुत्वयोरप्राप्तौ सत्यां यद्वचनं स विधिः, अप्राप्तप्रापकत्वात् । द्वयोः प्राप्तावेकस्य वचनं परिसंख्या । तद्वचनमेकस्यातिशयाय | विधिपरिसंख्ययोर्लक्षणमुक्तं भट्टाचार्य:
विधिरत्यन्तमप्राप्तौ नियमः पाक्षिके सति ।
तत्र चान्यत्र च प्राप्तौ परिसंख्येति गीयते ॥' इति ॥ -५७-५८-॥
(क०) ग्रहादीनां त्रयोदशानां जातिलक्षणानां प्रत्येकमन्वर्थतया स्वरूपं निरूप्य, तानि षाज्यादिषु सप्तसु शुद्धविकृतान्योन्यसंसर्गजातासु षड्जकैशिक्यादिप्वेकादशसु चेत्यष्टादशसु जातिषु क्रमेण प्रत्येकं यथासंभवं
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१९६
[जाति
संगीतरत्नाकर:
षाड्ज्यामंशाः स्वराः पञ्च निषादर्षभवर्जिताः । निलोपात्पाडवं सोऽत्र पूर्णत्वे काकली कचित् || ६० ॥ सगयोः सधयोश्चात्र संगतिर्वहुलस्तु गः । गांधारे शे न नेर्लोपो मूर्च्छना धैवतादिका ॥ ६१ ॥
योजयित्वा सप्रस्तारं दर्शयितुमाह - अथ प्रत्येकमित्यादिना । प्रत्येकमेकस्यामेकस्याम् । यथाऽर्थे वीप्सायामव्ययीभावः । तासु षाड्ज्यां निषादर्षभवर्जिताः पञ्च स्वराः सगमपधा अंशाः । ते पर्यायेण वादिनो ग्रहाश्च भवन्तीत्यर्थः । निलोपान्निषादपरित्यागात्पाडवं षट्स्वरप्रयोगः, कार्यमिति शेषः । स निषादः, अत्र षाड्ज्यां पूर्णत्वे संपूर्णावस्थायां कचित्षड्जस्य वादित्वे विकृतदशायां काकली भवति । सगयोः सधयोश्चात्र संगतिरिति । अत्र षड्जस्य गांधारेणैकान्तरितेन तादृशेनैव धैवतेन च यथारक्ति संबन्धः सगसगसधेति गसगसधसेति वा कार्यः ; गस्तु गांधारस्तु बहुल इति । यद्यपि 'निगावन्यविवादिनौ' इति विवादित्वाद्गांधारस्याप्राप्तं बहुत्वम्, तथा sपि ' गांधारस्य च बाहुल्यम् ' इति मुनिवचनाद्विधीयत इति तुशब्दार्थः । गांधारे शे न नेर्लोपः । निषादस्य गांधारसंवादित्वादंशसंवादिनो लोपा - भावादिति भावः । एतेनावस्थाद्वयवत्या अप्यस्याः षाड्ज्या गांधारस्यांशत्वे निलोपप्रतिषेधेन षाडवापवादात्पूर्णताऽवस्थैवेत्युक्तं भवति । अतोऽस्याः समपधेषु चतुर्व्वशेषु संपूर्णत्वपाडवत्वाख्यावस्थाद्वयं व्यवस्थितम् । षड्जे शे ऽपि तस्यैव ग्रहापन्यासत्वात्केवलाशुद्धतायां पूर्णतैवेत्यस्याः पूर्णतायां षडंशाः पाडवत्वे चत्वार इति मतङ्गोक्ता दशांशा वेदितव्याः । एवमवस्थाssपन्नांशसंख्या जात्यन्तरेष्वप्यूह्या । मूर्च्छना धैवतादिका ; अस्यां षाड्जप्रामिकतया धैवतादिकोत्तरायता मूर्च्छना, न तु मध्यमग्रामीणा पौर
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प्रकरणम् ७]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
त्रिधा ताल: पञ्चपाणिरत्र चैककलाऽऽदिकः । क्रमान्मार्गाश्चित्रवृत्तिदक्षिणा गीतयः पुनः ॥ ६२ ॥ मागधी संभाविता च पृथुलेति क्रमादिमाः । नैष्क्रामिकध्रुवायां च प्रथमे प्रेक्षणे स्मृतः ।। ६३ ।।
वीत्यर्थः । अस्यां तालमार्गगीतिविनियोगानां नियमं दर्शयति-- त्रिधा ताल इत्यादिना । अत्र षाड्ज्याम्, एककलाऽऽदिकः, एककलो द्विकलश्चतुष्कल इति त्रिधा च पञ्चपाणिः षट्पितापुत्रकः, प्रयोक्तव्य इति शेषः । क्रमान्मार्गा इत्यनेनैककले पञ्चपाणौ चित्रो मार्गो मागधी गीतिः, द्विकले वार्त्तिको मार्गः संभाविता गीतिः, चतुष्कले दक्षिणो मार्गः पृथुला गीतिरिति क्रमो दर्शितः । अत्र षाड्ज्यामित्युपलक्षणम् । जात्यन्तरेष्वपि तालान्तरेष्वये कलत्वादीनां योजना कर्तव्या, उत्तरत्र ' योक्ता ऽस्माभिः कलासंख्या ' इत्यादिना सामान्येन वक्ष्यमाणत्वात् । तालादीनां लक्षणं तु स्वप्रकरणे वक्ष्यते । तथा प्रथमे प्रेक्षणे नैष्क्रामिकधुवायां च विनियोगः स्मृतइति योजना । प्रथमप्रेक्षणे नाटकादीनां प्रथमाङ्के । नैष्क्रामिकधुवायामिति । ध्रुवासामान्यलक्षणं तावद्भरतोक्तम्
' यानि चैवं निबद्धानि च्छन्दोवृत्तिविधानतः । मुखप्रतिमुखादीनि गीताङ्गान्येव सर्वशः || यदात्मकानि तानि स्युर्ध्रुवासंज्ञानि नाटके । '
इति । तद्विशेषाश्च -
१९७
'प्रावेशिकी तु प्रथमा द्वितीया ऽऽक्षेपिकी स्मृता ॥ प्रासादिकी तृतीया च चतुर्थी चान्तरा ध्रुवा । नैकामिकी तु विज्ञेया पञ्चमी तु ध्रुवा बुधैः ॥ '
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१९८
संगीतरत्नाकरः
[जातिविनियोगो द्वादशात्र कला अष्टलघुः' कला। इति प्रवेशाद्यर्थसूचनादेतासामन्वर्थता ज्ञेया । अपकृष्टे ताडिताऽऽदयो गुरुलध्वक्षरोभयप्रायास्त्रिविधा अपि ध्रुवाजातयः प्रावेशिक्यादीनामेवावान्तरभिदाः । एतासां सतालत्वमेव पदमधिकृत्योक्तम् ‘सतालं च ध्रुवाऽर्थेषु निबद्धम्' इति । तत्रैव स्मृतम् ‘अनिबद्धाक्षराणि स्युस्तेनेनप्रभृतीनि च'' इति । 'तत्राङ्कान्ते निष्क्रमणे भवेत्त्र्यश्रावसानिकी' । अस्याः प्रस्तुतार्थनियोगः
‘निष्कामोपगतगुणां विद्यान्नैप्क्रामिकी तां तु ।' 'अथोत्तमानां कर्तव्या चतुरश्रावसानिकी ।
अधमानां तु कर्तव्या ध्रुवा व्यावसानिकी ॥' नैष्कामिकी-त्र्यविरामस्त्रिकलश्चतुरश्रे चतुष्कलः ।
प्रावेशिक्यां ध्रुवायां तु नैष्क्रामिक्यां तथैव च ॥' इति । एवं तत्तत्तालविशेषनियतायां नैष्कामिक्यां ध्रुवायां विनियोगः । ध्रुवापदानामेतज्जात्युक्तस्वरसंदर्भेण योजनं नाट्याङ्गत्वेन । चकारात्स्वातन्व्येणापि ब्रह्मप्रोक्तपदैरन्यैर्वा शंकरस्तुतावेव विनियोगः समुच्चीयते । स्मृतः, भरतादिभिरिति शेषः । द्वादशात्र कला इति । अत्र षाज्यां कलाः कालविशेषा द्वादश, अत्रोक्तस्य पञ्चपाणेर्यथाऽक्षरत्वे द्वादशमात्रिकत्वात् । कलाशब्देन प्रतीतस्य कालविशेषस्य ध्रुवाऽऽदिमार्गभेदाश्रितत्वेनानेकरूपत्वादिह किंप्रमाणो विवक्षित इत्याकाङ्क्षायामाह-अष्टलघुः कलेति । अत्र लघुशब्देन पञ्चलघ्वक्षरोच्चारमितः कालो विवक्ष्यते । तादृशा अष्टौ लघवो यस्याः कलायाः सा ऽष्टलघुः । एतेनात्र कला दक्षिणमार्गाश्रितेति
अश्गुरुः
'स्युर्यान्यजातिकृतानि तु.
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प्रकरणम् ७] प्रथमः स्वरगताध्यायः
अस्यां पाड्ज्यां पड्जो न्यासः। गांधारपञ्चमावपन्यासौ । वराटी दृश्यते । अस्याः प्रस्तारः
१. षाड्जी १. सा सा सा सा पा निध पा धनि ___तं भ व ल ला ट
गम्यते । तथा च वक्ष्यति - 'योक्ता ऽस्माभिः कलासंख्या सा दक्षिणपथे स्थिता' इति । अतो ऽत्र चतुप्कलस्य पञ्चपाणेर्द्विरावृत्तिरवगन्तव्या । यदा तु वृत्तिमार्गाश्रयणेन चतुर्विंशतिः कलास्तदा द्विकलपञ्चपाणेश्चतुरावृत्तयः । यदा पुनश्चित्रमार्गाश्रयणेनाप्टाचत्वारिंशत्कलास्तदा यथाऽक्षरपञ्चपाणेरष्टावृत्तयः । एवं तालान्तरमप्यूह्यम् ।।-५९-६३ ॥
(सु०) अथैतासां जातीनां प्रत्येकं लक्षणं कथयितुं प्रतिजानीतेअथेति । षाड्जीलक्षणं कथयति-पाड्ज्यामिति । षाड्ज्यां षड्जगांधारमध्यमपञ्चमधैवता अंशाः। तेषां च विकल्पेनांशत्वम् , 'गांधारे ऽशे न नेर्लोपः' इति वक्ष्यमाणत्वात् । मतङ्गेनाप्युक्तम्-'इति त्रिषष्टिरंशाः स्युस्तेषामेकैकशो ऽशता' इति । निषादलोपेन षाडवम् । स निषादः पूर्णत्वे काकली। षडूजगांधारयोः षड्जधैवतयोश्च संगतिः । गांधारस्य बाहुल्यम् । गांधारो यदा इंशस्तदा निलोपात्षाडवं नास्ति । धैवतादिमूछना । पञ्चपाणिः पितापुत्रक एककलो विकलश्चतुष्कलश्चात्र तालः । यदैककलस्तदा चित्रो मार्गः; यदा द्विकलस्तदा वार्तिकः ; यदा चतुष्कलस्तदा दक्षिणो मार्ग इति । गीतयः पुन:यदा चित्रो मार्गस्तदा मागधी ; यदा वार्तिकस्तदा संभाविता ; यदा दक्षिणस्तदा पृथुला । प्रथमे प्रेक्षणे नष्कामिकध्रुवायां विनियोगः । अत्र द्वादश कलाः । कलायामष्टौ गुरवः ।। -५९-६३. ॥
(क०) अस्यां षाड्ज्यां षड्जो न्यास इति वदतो ऽयं भावःअस्यां षाज्यां विकृतावस्थासु ग्रहादीनामनियमत्वे ऽपि नामस्वरस्यैव
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२००
[जाति
संगीतरत्नाकरः २. री गम गा गा सा रिंग धस धा
न य नां बु जा धि ३. रिंग सा री गा सा सा सा सा
धा नी निस निध पा ग सू नु प्र ण य
गा सा गा के लि स मु सा धां धंनिं पां सा सा सा
सा गा सा मा पा स र स कृ त ति ल क सा गा मा धनि निध पा गा रिंग पं का नु ले प गा गा गा गा सा सा सा सा
སྦ སྦ ་
AAP 44 = अ में
गरि सा मा मा प्र ण मा मि का म धा नी पा धनि री गा री सा
दे हे ध ना न १२. रिंग सा री गा सा सा सा सा
* ལ ཤྩ སྦ*
न्यासत्वं शुद्धायां विकृतासु च नियतमिति । गांधारपञ्चमावपन्यासाविति विकृतावस्थामाश्रित्योक्तिः । शुद्धतायां तु नामस्वरस्य षड्जस्य चापन्यासत्वं
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प्रकरणम् ७] प्रथमः स्वरगताध्यायः कर्तव्यम् । यदाह मतङ्गः–'शुद्धत्वे षड्जश्चापन्यासः' इति । वराटी दृश्यत इति । यदा विकृतावस्थायामपि काकलीप्रयोगस्तदा वराटी प्रतीयते । अन्यदा वराटयेकदेशप्रतीतिरेवेत्यर्थः । प्रस्तार इह कलासु स्वरसंनिवेशः; क्रियत इति शेषः । तत्र षड्जग्रामे शुद्धस्वरमेलने प्रथमकलायां तावन्मध्यस्थानस्थितः षड्जः पञ्चलघ्वक्षरोच्चारमितलघुकालश्चतुर्वारमावर्त्यते ; ततस्तत्स्थान एव पञ्चमो लघुकाल एकः ; ततस्तत्रत्यावेव निषादधैवतौ मिलित्वैकलघुकालौ; पुनः पञ्चम एकलघुकालः ; ततो
धैवतनिषादौ मिलित्वैकलघुकालौ ; इत्येका कला । अस्यां तं भवललाटेति ब्रह्मप्रोक्तपदाक्षरैः स्वरयोजनाप्रकारस्तु-तं, इति सानुनासिकेन प्रथमः षड्जः ; तच्छेषतयैव द्वितीयः ; भवाभ्यां तृतीयचतुर्थी ; लेन पञ्चमः ; लेन दीर्पण निषादः; तच्छेपत्वेन धैवतपञ्चमौ ; टेन धैवतः ; तच्छेषो निषाद इति (१)। द्वितीयस्यां मध्यस्थाने रिलघुः ; गमौ लघुः ; द्वौ गौ लघू ; सो लघुः ; रिगौ लघुः ; धसौ लघुः ; धो लघुः । अत्र नयनाम्बुजाधीत्यक्षरयोजना-नेन रिः; येन गः; तच्छेषो मः; सानुनासिकदीर्पण नेन गः; तच्छेषो गः; बुना सः; दीर्पण जेन रिः; तच्छेषा गधसाः; धिना धः (२) । तृतीयस्यां रिगौ लघुः ; सरिगास्त्रयो लघवः ; ततश्चत्वारः षड्जा लघवः । अत्र कमित्यक्षरयोजना-केन सानुनासिकेन रिः; तच्छेषा इतरे स्वराः (३)। चतुर्थ्यो मध्यस्थानौ धौ लघू ; निर्लघुः ; नितारसौ लघुः ; मध्ये निधौ लघुः ; पो लघुः ; तारे सौ लघू । नगसूनुप्रणयेत्यक्षरयोजना-नगसूभिर्धधनयः ; तच्छेषौ निसौ ; नुना निः; तच्छेषो धः ; प्रणयैः पससाः (४) । पञ्चम्यां मध्यस्थाने निधपा लघवः ; धनी लघुः; रिगसगा लघवः । केलिसमुद्रेत्यक्षरयोजना-केऽक्षरेण निः; तच्छेषो धः; लीत्यनेन पः; तच्छेषौ धनी ; सेन रिः; मु, इत्यनेन
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२०२ संगीतरत्नाकरः
[जातिगः ; तच्छेषः सः ; खून गः (५) । षष्ठयां मध्ये सो लघुः ; मन्द्रे धो लघुः; धनी लघुः ; पो लघुः; मध्ये साश्चत्वारो लघवः । वमित्यक्षरयोजना-चेन सानुनासिकेन सः; तच्छेषा इतरे (६) । सप्तम्यां मध्ये ससगसमपममा लघवः सरसकृततिलकाक्षरैः क्रमेण युक्ताः (७) । अष्टम्यां मध्ये सो लघुः; गो लघुः; मो लघुः ; धनी लघुः ; निधौ लघुः ; पो लघुः ; गो लघुः ; रिगौ लघुः । पङ्कानुलेपेत्यक्षरयोजना–सानुनासिकेन पेन सः; तच्छेषौ गमौ ; दीर्पण केन धः; तच्छेषो निः; नुना निः : तच्छेषो धः; लेऽक्षरेण पः; पेन गः ; तच्छेषौ रिगौ (८) । नवम्यां मध्ये गाश्चत्वारो लघवः; साश्चत्वारो लघवः ; नमित्यक्षरयोजना--नेन सानुनासिकेन गः ; तच्छेषा इतरे (९) । दशम्यां मन्द्रे धो लघुः ; मध्ये सो लघुः ; रिर्लघुः ; गरी लघुः ; समममा लघवः । प्रणमामि कामेत्यक्षरयोजनाप्रणमाऽक्षरैर्धसरयः; तच्छेषौ गरी; मिना सः ; दीर्पण केन मः ; तच्छेषो मः ; ततो मेन मः (१०) । एकादश्यां मध्ये धनिपा लघवः ; धनी लघुः; रिगरिसा लघवः । देहेन्धनानेत्यक्षरयोजना-देकारेण धः; तच्छेषो निः; हे, इत्यनेन पः; तच्छेषौ धनी ; धनानेत्येतैः क्रमेण रिगरयः । तच्छेषः सः (११) । द्वादश्यां मध्ये रिगौ लघुः ; सरिगास्त्रयो लघवः ; चत्वारः षड्जा लघवः । लमित्यक्षरयोजना-लेन सानुनासिकेन रिः; शेषाः सर्वे ऽपि स्वराः (१२) ।
तं भवललाटनयनाम्बुजाधिकं नगसूनुप्रणयकेलिसमुद्भवम् ।
सरसकृततिलकपङ्कानुलेपनं प्रणमामि कामदेहेन्धनानलम् ॥ अत्र स्वरसंख्या ऽल्पत्वबहुत्वपरिज्ञानाय लिख्यते । षड्जाः षट्त्रिंशत् ; ऋषभा द्वादश ; गांधारा विंशतिः; मध्यमा अष्टौ ; पञ्चमा अष्टौ; धैवताः षोडश ; निषादा द्वादशेति मिलिता द्वादशोत्तरं शतम् । अयं
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प्रकरणम् ७]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
अथार्थ भी
आर्षभ्यां तु त्रयो ऽंशाः स्युर्निपादर्षभधैवताः || ६४ ॥ द्विश्रुत्योः संगतिः शेषैर्लङ्ङ्घनं पञ्चमस्य च । षाडवं षड्जलोपेन सपलोपादिहौडुवम् ।। ६५ ।। मूर्च्छना पञ्चमादिश्च तालश्चच्चत्पुटो मतः । अष्टौ कला भवन्तीह विनियोगस्तु पूर्ववत् ।। ६६ ।।
२०३
प्रस्तारः षड्जांशत्वे । गांधाराद्यंशत्वे ऽप्येवमेवाशबहुत्वादिना सम्यविचार्योद्धारो नेयः । गांधाराद्यंशत्वमपि स्वस्थानस्थितानामेव । तेषां स्थायित्वकरणमपि वीणायामुपतन्त्रीणां स्वनादसाम्यापादनमिति रहस्यम् । षाड्ज्यादिसर्वजातिप्वंशस्वरगतो रसो वेदितव्यः ॥ इति षाड्जी ॥ १ ॥
(क०) आर्षभ्यां त्विति । तुशब्दो ऽस्यां षाड्जीवैलक्षण्यद्योतनार्थः । निषादर्षभधैवतास्त्रयो ऽंशा ग्रहाश्च स्युः । द्विश्रुत्योर्गाधारनिषादयोः प्रत्येकं शेषैः सरिमपधैः पञ्चभिर्यथायोगं संगतिः संबन्धः । एतेन गांधारनिषादयोबहुत्वमितरेषामल्पत्वमिति च सूचितम् । पञ्चमस्य लङ्घनं च । लङ्घनमल्पतरत्वम् । चकारादल्पत्वं च संपूर्णताऽवस्थायां भवति । षाडवं षड्जलोपेनेत्यादि स्फुटार्थम् ॥ - ६४–६६॥
1
(सु० ) आर्षभ लक्षयति--- आर्षभ्यामिति । आर्षभ्यां निषादर्षभधैवतायो ऽंशाः । गांधारनिषादयोद्विश्रुत्योरन्यैः स्वरैः सह संगतिः । पञ्चमस्येषत्स्पर्शः । षड्जाभावेन षाडवत्वम् । षड्जपञ्चमाभावेन चौडुवितत्वम् | पञ्चमादिर्मूर्च्छना । चच्चत्पुरस्तालः । अष्टौ कलाः । विनियोगः पूर्ववन्नैकामिकध्रुवायाम् ॥ ६४-६६॥
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२०४.
संगीतरत्नाकरः
[जाति
अस्यामाभ्यामृषभो न्यासः । अंशा एवापन्यासाः । देशीमधु
कयौं दृश्येते । अस्याः प्रस्तार:--
२. आर्षभी
१. री गा सा रिंग मा रिम गा रिरि गुण लो च ना
धि
२. री री निध निध गा रिम मा पनि
क म न
न्त म म र
मा धा नी धा पा पा सा गा
म ज र म
क्षय
नी धनि री गरि सधैं गरि री री म जे
यं
३.
४.
री मा गरि सधैं सस रिस रिंग मम मि दिव्य
प्र ण
मा
६. निध पारी री रिप गरि सधं सा म णि द र्प
म
५.
७.
८.
ןןס
रिस रिस रिंग रिंग मा मा मा गरि ल नि के
तं
पानी री मा गरि सधं गरि गरि भ व म मे
(क०) देशीमधुक दृश्येते इति । देशीमधुकयौं सदृशरागत्वादृषभाङ्गत्वेन प्रस्तुताया आभ्या गाने तयोः प्रतीतिर्भवतीति भावः । षड्जग्रा शुद्धस्वरमेलने प्रथमकलायां मध्ये रिगसास्त्रयो लघवः ; रिगावेकः; मश्चैकः ; रिमावेक: ; ग एकः ; ऋषभावेकः ; एवमष्टौ लघवः । अत्र गुणलोचनाधीत्यक्षराणि - गुणलोभिः क्रमेण रिगसाः; तच्छेषौ रिगौ; चनाभ्यां मरी;
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प्रकरणम् ७] प्रथमः स्वरगताध्यायः
२०५ तच्छेषा मगरयः ; धिना रिः (१) । द्वितीयस्यां मध्य ऋषभौ द्वौ ; निधावेकः ; पुनर्निधावेकः ; ग एकः ; रिमावेकः ; म एकः ; पनी एकः ; एवमष्टौ लघवः । कमनन्तममरेत्यक्षराणि-कमनै रिरिनयः ; तच्छेषा धनिधाः ; न्तमाभ्यां गरी; तच्छेषो मः ; मराभ्यां मपौ ; तच्छेषो निः (२)। तृतीयस्यां मध्ये मधनिधपपसगा अष्टौ लघवः ; मजरमक्षयेत्यक्षराणि-मजरमैर्मधनिधाः; तच्छेषौ पौ; क्षयाभ्यां सगौ (३) । चतुर्थ्यो मध्ये निरेकः ; धनी एकः ; रिरेकः ; गरी एकः ; समन्द्रधावेकः ; मध्ये गरी एकः ; ऋषभौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । मजेयमित्यक्षराणि-मजे इत्याभ्यां निधौ ; तच्छेषा अष्टौ पराः; यमित्यनेनोपान्त्यो रिः ; तच्छेषो रिः (४) । पञ्चम्यां मध्ये रिरेकः ; म एकः ; गरी एकः ; समन्द्रधावेकः ; मध्ये सावेकः ; रिसावेकः ; रिगावेकः ; मावेकः; एवमष्टौ लघवः । प्रणमामि दिव्येत्यक्षराणि—प्रणाभ्यां रिमौ ; तच्छेषौ गरी; दीपेण मेन सः ; तच्छेषा धससरिसाः ; मिना रिः ; तच्छेषो गः ; दिव्याभ्यां मौ (५)। षष्ठयां मध्ये निधावेकः ; प एकः ; ऋषभौ द्वौ ; रिपावेकः ; गरी एकः ; समन्द्रधावेकः ; मध्ये स एकः ; एवमष्टौ लघवः । मणिदर्पणामेत्यक्षराणि-मेन निः; तच्छेषो धः ; णिदाभ्यां परी ; तच्छेषो रिः ; र्पण रिः ; तच्छेषः पः ; दीपेण णेन गः ; तच्छेषा रिसधाः ; मेन सः (६) । सप्तम्यां रिसौ द्विद्वौं ; रिगौ द्विद्वौं ; मध्यमास्त्रयः ; गरी एकः ; एवमष्टौ लघवः । लनिकेतमित्यक्षराणि-लेन रिः ; तच्छेषः सः ; निना रिः ; तच्छेषः सः ; के इत्यनेन रिः; तच्छेषा गरिगममाः ; तमित्यनेन मः ; तच्छेषौ गरी (७) । अष्टम्यां मध्ये पनिरयस्त्रयः ; म एकः ; गरी एक ; समन्द्रधावेकः ; मध्ये गरी द्विद्वौं ; एवमष्टौ लघवः । भवममेयमित्यक्षराणि-भवममे, इत्यतैः पनिरिमाः; तच्छेषा गरिसधगरयः ; यमित्यनेन गः ; तच्छेषो रिः (८)।
गुणलोचनादिकमनन्तममरमजरमक्षयमजेयम् । प्रणमामि दिव्यमणिदर्पणामलनिकेतं भवममेयम् ॥
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२०६
संगीतरत्नाकरः
अथ गांधारी
पश्चांशा रिधवाः स्युर्गाधार्या संगतिः पुनः । न्यासांशाभ्यां तदन्येषां धैवतापमं व्रजेत् ।। ६७ ॥ रिलोपरिधलोपाभ्यां षाडवौडुविते क्रमात् । पञ्चमः षाडवद्वेषी निसमध्यमपञ्चमाः ॥ ६८ ॥ अंशा द्विषन्त्यौडुवितं कलाः पोडश कीर्तिताः । मूर्छना धैवतादिः स्यात्तालश्चच्चत्पुटो मतः ॥ ६९ ॥ विनियोगो ध्रुवागाने तृतीयप्रेक्षणे भवेत् ।
अत्रापि स्वरसंख्या प्रस्तारत एव द्रष्टव्या, अंशान्तरप्रस्तारेष्वभ्यूहनीया । इत्यार्षभी ॥ २ ॥
(क०) पञ्चांशा इति । अस्यां गांधार्यो रिधवाः पञ्च सगमपनयो इंशा ग्रहाश्च स्युः; संगतिः पुनः संगतिस्तु, न्यासांशाभ्यां न्यासेन गांधारेणांशेन गमपनिसेप्वन्यतमेन, तदन्येषां न्यासादुपात्तांशाच्चान्येषां पर्यायांशानंशरूपाणां च, भवतीति शेषः । धैवतादृषभं व्रजेदिति । पूर्णताऽवस्थायां कदाचिद्धैवतर्षभयोः संगतिः स्यादित्यर्थः । पञ्चमः षाडवद्वेषीत्यादिनैतदुक्तं भवति-यदा पञ्चमो ऽशो भवति तदा संपूर्णावस्थैवेति, निसमा यदा शास्तदा संपूर्णषाडवावस्थे द्वे एवेति च । एतेन गांधारांशत्व एवास्यास्तिस्रो ऽवस्था इति ज्ञायते । ‘पञ्चमः षाडवद्वेषी निसमध्यमपञ्चमाः; अंशा द्विषन्त्यौडुवितम्' इत्यस्योपपत्तिराचार्यवचनं च रक्तगांधार्यो सम्यगभिधास्यते ; तत एवावगन्तव्यम् । कलाः षोडश कीर्तिता इति चतुष्कलस्य चच्चत्पुटस्य दक्षिणमार्गे चतुरावृत्तिरुक्ता । मृर्छना धैवतादिः स्यादिति । अस्यां गांधार्या माध्यमग्रामिकत्वात्पौरवी मूर्च्छनेत्यर्थः ।
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प्रकरणम् ७] प्रथमः स्वरगताध्यायः
अस्यां गांधार्या गांधारो न्यासः । षड्जपञ्चमावपन्यासौ । गांधारपञ्चमदेशीवेलावल्यो दृश्यन्ते । अस्याः प्रस्तारः
३. गांधारी
१. गा गा सा नी सा गा गा गा
२. गा गम पा पा धप मा निध निस
र ज नि व धू मु ख ३. निध पनि मा मपरि गा गा गा गा
वि भ्र म दं। ४. गा गम पा पा धप मा निध निस
नि शा म य व रो रु
ततीयप्रेक्षणे ध्रवागान इति ध्रुवासामान्यनिर्देशात्प्रावेशिक्यादिषु यथोचित विनियोग इत्यर्थः ॥ ६७-६९- ॥
(सु०) गांधारी लक्षयति-पञ्चांशा इति । गांधार्या षड्जगांधारमध्यमपञ्चमनिषादा विकल्पेन पञ्चांशाः । न्यासांशस्वराभ्यां सहान्येषां संगतिः । धैवतादृषभपर्यन्तमारोहणं कर्तव्यम् । ऋषभलोपात्षाडवम् , ऋषभधैवतलोपादौडुवितम् । पञ्चमे ऽशे षाडवं नास्ति ; निषादषड्जपञ्चमेष्वंशेष्वौडुवितं नास्ति । षोडश कलाः। धैवतादिमूछना। चञ्चत्पुटस्तालः । ध्रुवागाने तृतीयप्रेक्षणे विनियोगः ॥ ६७-६९- ॥
(क०) षड्जपञ्चमावपन्यासाविति विकृतत्वविवक्षया। गांधारपञ्चमदेशीवेलावल्यो दृश्यन्त इति । गांधारपञ्चमो ग्रामरागः । दृश्यन्त
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२०८
संगीतरत्नाकरः
[जाति
५. निध पनि मा मपरि मा गा मा सा
त व मु ख वि ला स ६. गा सा गा गा गा गम गा गा
व पु श्वा रु म म ल ७. गा गम पा पा धप मा निध निस
मृ दु कि र ण ८. निध पनि मा मपरि गा गा गा गा
म मृ त भ वं री गा मा पध री गा सा सा र ज त गि रि शि ख र नी नी नी नी नी नी नी नी
म णि श क ल शं ख ११. गा गम पा पा धप मा निध निस
व र यु व ति दं त १२. निध पनि मा मपरि गा गा गा गा पंक्ति नि भं
नी नी पा नी गा मा गा सा प्र ण मा मि प्र ण य गा सा गा गा गा गम गा गा र ति क ल ह र व नु गा पा मा मा निध निस निध पनि
TV
मा परिग गा गा गा गा गा गा श शि नं
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प्रकरणम् ७] प्रथमः स्वरगताध्यायः
२०९ इत्यनेन गांधारांशप्रस्तारगाने तेषामेकदेशेन प्रतीतिरूह्या । माध्यमग्रामिकशुद्धस्वरमेलने प्रथमकलायां मध्ये गगसा लघवस्त्रयः ; मन्द्रे निरेकः ; मध्ये स एकः ; गास्त्रयः ; एवमष्टौ लघवः । एतमित्यक्षरे-एकारेण गः ; तच्छेषा गसनयः; तमित्यनेन सः ; तच्छेषा गास्त्रयः (१)। द्वितीयस्यां मध्ये ग एकः ; गमावेकः; पौ द्वौ ; धपावेकः ; म एकः ; निधावेकः ; निषादतारषड्जावेकः ; एवमष्टौ लघवः । रजनिवधूमुखेत्यक्षराणि-- रजाभ्यां गौ ; तच्छेषो मः ; निवधूभिः पपधाः ; तच्छेपौ पमौ ; मुना निः ; तच्छेषो धः । खेन निः; तच्छेषः सः (२) । तृतीयस्यां मध्ये निधावेकः ; पनी एकः ; म एकः ; मपरय एकः ; गाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । विभ्रमदमित्यक्षराणि-विना निः; तच्छेषा धपनिमाः; श्रेण मः ; तच्छेषौ परी; मेन गः ; तच्छेषो गः ; दमिति गः ; तच्छेषो गः (३) । द्वितीयावच्चतुर्थी कला। निशामय वरोरु, इत्यक्षराणि-निशाभ्यां गौ; तच्छेषो मः ; मयवैः पपधाः ; तच्छेषः पः ; रो इति मः ; तच्छेषौ निधौ ; रुणा निः; तच्छेषः सः (४)। पञ्चम्यां तृतीयावत्प्रथमादयो लघवः षट् ; उपान्त्यान्त्यौ मध्यमषड्जौ । तव मुखविलासेत्यक्षराणि-तेन निः; तच्छेषो धः; वेन पः; तच्छेषो निः; मुखाभ्यां मौ; तच्छेषौ परी; विलाभ्यां गौ; तच्छेषो मः; सेन सः (५)। षष्ठयां मध्ये गसौ द्वौ ; गास्त्रयः ; गमावेकः ; गौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । वपुश्चारुममलेत्यक्षराणि-वपुश्चारुभिर्गसगगाः; तच्छेषो गः; मेन गः; तच्छेषो मः; मलाभ्यां गौ (६)। चतुर्थीवत्सप्तमी । मृदुकिरणेत्यक्षराणिमृदुभ्यां गौ; तच्छेषो मः; किरणैः पपधाः ; तच्छेषा इतरे (७) । तृतीयावदष्टमी । ममृतभवमित्यक्षराणि- मेन निः; तच्छेषो धः ; मृणा पः; तच्छेषो निः; तभाभ्यां मौ; तच्छेषौ परी; वमिति गः; तच्छेषा इतरे (८)। नवम्यां मध्ये रिंगमास्त्रयो लघवः ; पधावेकः ; रिगौ
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२१०
संगीतरत्नाकर:
[जाति
द्वौ ;
सौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । रजतगिरिशिखरेत्यक्षराणि - रजतगिभिः क्रमेण रिगमपाः ; तच्छेषो धः; रिशिखरै रिगससा : ( ९ ) । दशम्यां मन्द्रे ऽष्टौ निषादा लघवः । मणिशकलशङ्खत्यक्षराणि - मणिशकलश मित्येतैः निषादा: ; तच्छेष उपान्त्य: ; खेनान्त्य : (१०) । सप्तमीवदेकादशी । वरयुवतिदन्तेत्यक्षराणि - वराभ्यां गौ; तच्छेषो मः ; युवतिभिः पपधाः, तच्छेषः प; दमिति मः; तच्छेषौ निधौ; तेन निः; तच्छेषः सः (११) । अष्टमीवद् द्वादशी । पङ्क्तिनिभमित्यक्षराणि – पेन निः; तच्छेषा धपनयः ; ङ्क्तिनिभ्यां मौ; तच्छेषौ परी; भमिति गः ; तच्छेषा गाः (१२) । त्रयोदश्यां मध्ये निनिपनिगमगसा अष्टौ लघवः । प्रणमामि प्रणयेत्यक्षराणि - चतुर्थो माक्षरशेष: (१३) । चतुर्दश्यां मध्ये गसौ द्वौ ; गास्त्रयः ; गमावेकः ; गौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । रतिकलहरवनु, इत्यक्षराणि; मध्यमो रशेष: (१४) । पञ्चदश्यां मध्ये गपौ द्वौ ; मौ द्वौ ; निधावेकः ; निषादतारषड्जावेकः ; मध्ये निधावेकः ; पनी एकः ; एवमष्टौ लघवः । दमिति गः ; तच्छेषा इतरे (१५) । षोडश्यां मध्ये म एकः ; परिगा एकः ; गाः षट्; एवमष्टौ लघवः । शशिनमित्यक्षराणि - शशिभ्यां मपौ ; तच्छेषा रित्रयो गाश्च ; नमिति गः ; तच्छेषास्त्रयो गाः (१६) ।
एतं रजनिवधूमुखविभ्रमदं निशामय वरोरु
तव मुखविलासवपुश्चारुममलमृदु किरणममृतभवम् । रजतगिरिशिखरमणिशकलशङ्खवर युवतिदन्तपङ्क्तिनिभं प्रणमामि प्रणयरतिकलहरवनुदं शशिनम् ॥
अत्र शशिप्रणामो ऽपि शशिनः शशिशेखर संबन्धाच्छंकरस्तुतावेव पर्यवस्यति ; अथ वा शशिनो ऽष्टमूर्तिधरमूर्तिभेदत्वात्तत्प्रणाम एवेति मन्तव्यम् ॥ इति गांधारी ॥ ३ ॥
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प्रकरणम् ७ ]
अथ मध्यमा
पञ्चांशा मध्यमायां स्युरगांधारनिषादका: ।। ७० ।। षड्जमध्यमबाहुल्यं गांधारो ऽल्पो ऽत्र पाडवम् । गलोपान्निगलोपेन त्वौडुवं स्यात्कलाऽष्टकम् ।। ७१ ।। ऋषभादिर्मूर्च्छना स्यात्तालश्चच्चत्पुटो मतः । विनियोगो धुवागाने द्वितीयप्रेक्षणे भवेत् ॥ ७२ ॥
प्रथमः स्वरगताध्यायः
अस्यां मध्यमायां मध्यमो न्यासः । अंशा एवापन्यासाः ।
चोक्षपाडवदेशयान्धाल्यो दृश्यन्ते । अस्याः मस्तारः
४. मध्यमा
१.
२.
मा मा मा मा पा धनि नी धप
पा
तु भ व मू
मा पम मा सा मा गा री री र्ध जा न न
२११
1
( क ० ) पञ्चांशा इति । मध्यमायामगांधार निषादकाः पञ्च सरिमपधा अंशा ग्रहाश्च स्युः । षड्जमध्यमबाहुल्ये प्राप्ते ऽपि पुनर्ग्रहणं तयोः पर्यायांशत्वे ऽपि वादिवद्बाहुल्यसिद्ध्यर्थम् । गांधारो ऽल्प इति पूर्णतायामिति मन्तव्यम् । अत्र षाडवमिति स्पष्टो ऽर्थः ॥ -७०–७२ ॥
( सु० ) मध्यमां लक्षयति- पश्चांशा इति । मध्यमायां षड्जर्षभमध्यमपञ्चमधैवता विकल्पेनांशाः । षड्जमध्यमौ बहुलौ । गांधारो ऽल्पः । गांधारलोपात्षाडवम् । निषादगांधारलोपा दौडुवितम् । अष्टौ कलाः । ऋषभादिर्मूर्च्छना । चच्चत्पुटस्ताल: । द्वितीयप्रेक्षणे धुत्रागाने विनियोगः ॥ - ७० - ७२॥
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२१२
[जाति
संगीतरत्नाकरः ३. पा मा रिम गम मा मा मा मा
कि री ट ४. मा निध निस निध पम पध मा मा
म णि द प णं
नी नी री री नी री री पा गौरी क र प
नीं मप मा मा सा सा सा सा ल्ल वां गु लि सु गो नी सा गा धप मा धनि सा
जि तं ८. पा सा पा निधप मा मा मा मा
सु कि रणं
위
(क०) चोक्षषाडवेति । शुद्धषाडवो ग्रामरागः । माध्यमग्रामिकशुद्धस्वरमेलने प्रथमकलायां मध्ये मध्यमाश्चत्वारो लघवः ; प एकः ; धनी एकः ; निरेकः ; धपावेकः ; एवमष्टौ लघवः । पातु भवमू इत्यक्षराणि-पा, इति मः ; तच्छेषौ मौ; तुभवैर्मपधाः ; तच्छेषो निः; मू, इति निः; तच्छेषौ धपौ (१)। द्वितीयस्यां मध्ये म एकः ; पमावेकः ; मसमगरिरयः षट् ; एवमष्टौ लघवः । र्धजाननेत्यक्षराणि-र्धजाभ्यां मपौ ; तच्छेषा ममसाः; ननाभ्यां मगौ ; तच्छेषौ री (२) । तृतीयस्यां मध्ये पमौ द्वौ; रिमावेकः ; गमावेकः ; माश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । किरीटेत्यक्षराणिकिरीटैः पमरयः ; तच्छेषा इतरे (३)। चतुर्थ्यो तारे म एकः ; मध्ये निधावेकः ; नितारषड्जावेकः ; मध्ये निधावेकः ; पमावेकः; पधावेकः; मौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । मणिदर्पणमित्यक्षराणि-मणिभ्यां मनी; तच्छेषो धः ; देन निः ; तच्छेषाः सनिधाः ; पेण पः ; तच्छेषा मपधाः ;
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प्रकरणम् ७ ]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
अथ पञ्चमी
रिपावंशौ तु पञ्चम्यां सगमाः स्वल्पका मताः । रिमयोः संगतिर्गच्छेत्पूर्णत्वे गान्निपादकम् ।। ७३ ।।
२१३
;
णमिति मः ; तच्छेषो मः (४) । पञ्चम्यां मन्द्रे नी द्वौ ; मध्ये री द्वौ ; मन्द्रे निः ; मध्ये रिरिपास्त्रयः ; एवमष्टौ लघवः । गौरीकरपेत्यक्षराणि-गौ, इति निः; तच्छेषो निः; री, इति रिः; तच्छेषो रिः ; करपैर्निरिरयः तच्छेषः पः (५) । षष्ठयां मन्द्रे निरेकः ; मध्ये मपावेकः; मौ द्वौ ; साश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । ल्लवाङ्गुलिस्वित्यक्षराणि -- ल्लवां इति निमौ; तच्छेषाः पममाः ; गुलिभ्यां सौ; तच्छेषः सः ; सुना सः (६) । सप्तम्यां तारे गः ; मध्ये निः; तारे सगौ; मध्ये धपावेकः ; म एकः ; धनी एक: ; तारे स एकः ; एवमष्टौ लघवः । तेजितमित्यक्षराणि-ते इति गः ; तच्छेषाः परे षट् स्वराः; जिना धः ; तच्छेषो निः; तमिति सः (७) । अष्टम्यां मध्ये प एकः; तारे स एकः ; पुनर्मध्ये प एकः ; निधपा एक: ; माश्चत्वारः; एवमष्टौ लघवः । सुकिरणमित्यक्षराणि – सुकिरैः पसपा: ; तच्छेषा निधपाः ; णमिति मः ; तच्छेषास्त्रयः ( ८ ) ।
पातु भवमूर्धजानन किरीटमणिदर्पणम् ।
गौरीकरपल्लवाङ्गुलि सुतेजितं सुकिरणम् ॥ इति मध्यमा ||४||
(क०) रिपावंशाविति । सगमाः स्वल्पका मता इत्यत्र समयोरषाडवौडुवकारित्वेनाप्राप्तावल्पत्ववचनं विधिरिति, गस्य षाडवौडुवकारित्वेन प्राप्तौ पुनर्वचनं परिसंख्येति च ' पञ्चम्यां तु विपर्ययः' इत्यादिग्रन्थव्याख्यानसमये पूर्वं प्रतिपादितम् । संपूर्णत्वदशायां गान्निषादकं गच्छेदिति ; गन्योः संगतिं कुर्यादित्यर्थः । एतेन षाडवत्वे गस्यौडुवत्वे निगयोश्च लोप्यत्वात्तत्र तयोः संगतिं न कुर्यादिति गम्यते । गेन निगाभ्यां चेत्यत्र लुप्तेन
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२१४
संगीतरत्नाकरः
क्रमाद्वेन निगाभ्यां च षाडवौडवता मता' । ऋषभो शस्त्वौडुवितं द्वेष्टयष्टौ च कला मताः ॥ ७४ ॥ मूर्च्छनाऽऽदि तु पूर्वावत्प्रेक्षणं तु तृतीयकम् ।
अस्यां पञ्चम्यां पञ्चमो न्यासः । ऋषभपञ्चमनिषादा अपन्यासाः । चोक्षपञ्चमदेश्यान्धाल्यो दृश्यन्ते । अस्याः प्रस्तार:
५ पञ्चमी
१.
पा धनि नी नी मा नी मा पा ह र मू ६ जा न
[जाति
लुप्ताभ्यामिति चाध्याहारः कार्यः । क्रमात्षाडवौडुवता, गेन षाडवं निगाभ्यामौडुवमिति क्रमात् षाडवौडुवयोर्भावः षाडवौडुवता । ऋषभो शस्त्वौवितं द्वेष्टति । अस्यामौडुवकारिणोर्निगयोऋषभे ऽंशे संवादित्वाभावे ऽपि,
'ऋषभश्चैव पञ्चम्यां कैशिक्यां चैव धैवतः । एवं हि द्वादशैते स्युर्वर्ज्याः पञ्चस्वरे सदा ॥
इति मुनिवचनबलादौडुवत्वं निषिध्यत इति मन्तव्यम् । मूर्च्छनाऽऽदि तु पूर्वादिति । पूर्वावन्मध्यमायामिवात्रापि मूच्छनर्षभादिः । आदिशब्देन चच्चत्पुटश्च तालो गृह्यते । अन्यदुक्तप्रायम् ॥ ७३–७४- ॥
(सु०) पञ्चमीं लक्षयति — रिपाविति । पञ्चम्यामृषभपञ्चमावंशौ ; षड्जगांधारमध्यमा अल्पाः ; ऋषभमध्यमयोः संगतिः ; पूर्णत्वे गांधारान्निषादपर्यन्तमारोहणम् ; गांधारलोपात्षाडवम् ; निषादगांधारलोपादौडुवितम् ; ऋषभे ऽंश औडुवितं नास्ति; अष्टौ कलाः । ऋषभादिर्मूच्र्च्छना । चञ्चत्पुटस्ताल: । ध्रुवायां तृतीयप्रेक्षणे विनियोगः ॥ ७३--७४- ॥
1 षाडवौडुविते मते.
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प्रकरणम् ७ ]
२.
प्रथमः स्वरगताध्याय:
गा गा सा सा मां मां पां पां
नं म हे
श म म र
३. पां पां धां नीं नीं नीं गा सा पति बा हु स्तं भ
४.
५.
६.
७.
८.
पा मा धा नी निध पा पा पा
न म नं
तं
पापा री री
प्र ण मा
री री री री
मि पुरुष
मां निंग सा सघ नी नी नी नी
4
18
मु ख प द्म
सो सो सो मा पा पा पा पा
ह र
बिका
प
धा मा धा नी पा पा पा पा ति म जे
यं
ल
क्ष्मी
२.१५
(क०) माध्यमग्रामिकशुद्धस्वरमेलने प्रथमकलायां मध्ये पएको लघुः ; धनी एकः ; नी द्वौ ; मनिमपाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । हरमूर्धजानेत्यक्षराणि --- हराभ्यां पधौ ; तच्छेषो निः ; मू इति निः; तच्छेषो निः; र्धजाभ्यां मनी ; तच्छेषो मः ; नेन प: (१) द्वितीयस्यां मध्ये गौ
द्वौ सौ द्वौ मन्द्रे मौ द्वौ ; पौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । नं महेशममरे -
;
;
त्यक्षराणि–नं महे इति गगसाः ; तच्छेषः सः ; शममरैर्ममपपाः (२) । तृतीयस्यां मन्द्रे पौ द्वौ ; ध एकः ; निषादास्त्रयः ; मध्ये ग एकः ; स एकः ; एवमष्टौ लघवः । पतिबाहुस्तम्भेत्यक्षराणि - पतिबा इति पपधाः ; तच्छेषो निः; हुस्तमिति निषादौ ; तच्छेषो गः ; भेन सः (३) । चतुर्थ्यां मध्ये
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२१६ संगीतरत्नाकरः
[जातिश्रय धैवती स्तो धैवत्यां रिधावंशौ लङ्घयावारोहिणौ सपौ ॥ ७५ ।। पलोपात्पाडवं प्रोक्तमौडवं सपलोपतः। ऋषभादिमूर्च्छना स्यात्तालो मार्गश्च गीतयः ।। ७६ ।।
विनियोगश्च षाड्जीवत्कला द्वादश कीर्तिताः । पमधनयश्चत्वारः ; निधावेकः ; पास्त्रयः ; एवमष्टौ लघवः । नमनन्तमित्यक्षराणि-नमनमिति पमधाः ; तच्छेषो निः; तमिति निः; तच्छेषा इतरे (४) । पञ्चम्यां मध्ये पौ द्वौ ; तार ऋषभाः षट् ; एवमष्टौ लघवः । प्रणमामि पुरुषेत्यक्षराणि-प्रणमा इति पपरयः ; तच्छेषो रिः ; मिपुरुषैश्चत्वार ऋषभाः (५) । षष्ठयां मन्द्रे म एकः ; मन्द्रनिमध्यगावेकः ; स एकः ; सधावेकः ; निषादाश्चत्वारः; एवमष्टौ लघवः । मुखपद्मलक्ष्मीत्यक्षराणिमुखाभ्यां मनी ; तच्छेषो गः ; पद्माभ्यां सौ ; तच्छेषौ धनी ; लेन निः; तच्छेषो निः; क्ष्मीति निः; (६)। सप्तम्यां तारे सास्त्रयः ; मध्ये म एकः; पाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । हरमम्बिकापेत्यक्षराणि-हरममिति सास्त्रयः ; तच्छेषो मः ; बिकाभ्यां पौ ; तच्छेषः पः; पेति पः (७) । अष्टम्यां मध्ये धमधनयश्चत्वारः ; पाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । तिमजेयमित्यक्षराणितिमजे इति धमधाः ; तच्छेषो निः; यमिति पः ; तच्छेषाः परे (८) ।
हरमूर्धजाननं महेशममरपतिबाहुस्तम्भनमनन्तम् ।
तं प्रणमामि पुरुषमुखपद्मलक्ष्मीहरमम्बिकापतिमजेयम् ॥ इति पञ्चमी ॥ ५ ॥
(क०) स्तो धैवत्यामिति । आरोहिणावारोहिवर्णगौ सपौ लथ्यौ लङ्घनीयौ ; पूर्णावस्थायामल्पतरौ कर्तव्यावित्यर्थः । एतेनावरोहे सपावल्पौ
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प्रकरणम् ७]
प्रथमः स्वरगताध्यायः अस्यां धैवत्यां धैवतो न्यासः । ऋपभमध्यमधैवता अपन्यासाः। चोक्षकैशिकदेशीसिंहल्यो दृश्यन्ते । अस्याः प्रस्तारः
६. धैवती
१. धा धा निध पध मा मा मा मा
त रु णा म लें दु २. धा धा निध निस सां सां सा सा
म णि भूषि ता म सध धा पा मध धा निध धनि धा ल शिरो
जं. ४. सा सा रिंग रिंग सा रिंग सा सा
भु ज गा धि पै क
धां धां नी पां धां पां मां मां कुंड ल वि ला स धां धां पां मंधं धां निधं धंनि धां कृ त शो
में धा धा निस निस निध पा पा पा
न ग सू नु ल क्ष्मी कर्तव्यौ, न त्वल्पतराविति गम्यते । पलोपात्षाडवमित्यादिः स्पष्टार्थो ग्रन्थः ।। -७५-७६-॥
(सु०) धैवती लक्षयति-स्तो धैवत्यामिति । धैवत्यामृषभधैवतावंशौ । आरोहिवर्णस्थौ षड्जपञ्चमौ लङ्घ्यावीषत्स्पशयोग्यौ । पञ्चमलोपात्षाडवम् । षड्जपञ्चमलोपादौडुवितम् | ऋषभादिमूच्छंना । अत्र षाड्जीवत्तालमार्गगीतिविनियोगाः । द्वादश कलाः ॥ -७५-७६- ॥
28
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२१८
[जाति
संगीतरत्नाकरः ८. रिंग सा सा सा नी नी नी नीं
सा रिंग रिंग सा नी सा धां धां
री गरि मंगं मां मां मां मां मां
प्र ण मा मि भू त ११. नी नी धा धा पा रिंग सा रिंग
गी तो प हा र १२. पा धा सा मा धा नी धा धा
प रि तुष्टं
(क०) षाजग्रामिकशुद्धस्वरमेलने प्रथमकलायां मध्ये धौ लघू ; निधावेकः ; पधावेकः ; माश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । तरुणामलेन्द्वित्यक्षराणि-तरुणा, इति धधनयः ; तच्छेषा धपधाः; मलें, इति मौ; तच्छेषो मः ; दुना मः (१)। द्वितीयस्यां मध्ये धौ द्वौ ; निधावेकः ; निसावेकः; साश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । मणिभूषितामेत्यक्षराणिमणिभूभिर्धधनयः ; तच्छेषा धनिसाः ; पिताभ्यां सौ ; तच्छेषः सः ; मेन सः (२)। तृतीयस्यां मध्ये सधावेकः ; धपौ द्वौ ; मधावेकः ; ध एकः ; निधावेकः ; धनी एकः ; ध एकः; एवमष्टो लघवः । लशिरोजमित्यक्षराणि-लेन सः ; तच्छेषो धः ; शिरो इति धपौ; तच्छेषा मधधनिधाः; जं, इति धः ; तच्छेपौ निधौ (३) । चतु• मध्ये सौ द्वौ ; रिगौ द्विद्वौं ; स एकः ; रिगावेकः ; सौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । भुजगाधिपैकेत्यक्षराणि-- भुजगाभिः ससरयः ; तच्छेषा गरिगाः; धिपै इति सरी; तच्छेषौ गसौ; केन सः (१) । पञ्चम्यां मन्द्रे धौ द्वौ ; निपधपाश्चत्वारः ; मौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । कुण्डलविलासेत्यक्षराणि- द्वितीयोपान्त्यो शेषो (५) । पष्ठयां
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प्रकरणम् ७] प्रथमः स्वरगताध्यायः
२१९ मन्द्रे धौ द्वौ ; प एकः ; मधावेकः ; ध एकः ; निधावेकः ; धनी एकः ; ध एकः; एवमष्टौ लघवः । कृतशोभमित्यक्षराणि-कृतशोभिर्धधपाः ; तच्छेषा मधधनिधाः ; भमिति धः ; तच्छेपौ निधौ (६) । सप्तम्यां मध्ये धौ द्वौ ; द्वौ नितारषड्जो द्विद्वौं ; निधावेकः ; पास्त्रयः ; एवमष्टौ लघवः । नगसूनुलक्ष्मीत्यक्षराणि- नगसूभिर्धधनयः ; तच्छेषाः सनिसाः ; नुना निः; तच्छेषो धः; लेन पः; तच्छेषः पः ; क्ष्मीति पः (७) । अष्टम्यां मध्ये रिगावेकः ; सास्त्रयः ; मन्द्रे निषादाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । देहार्धमिश्रीत्यक्षराणि-दे, इति रिः; तच्छेषो गः ; हा, इति सः ; तच्छेषौ सौ; र्धमिभ्यां नी; तच्छेषो निः; श्रिणा निः (८)। नवम्यां मध्ये स एकः; रिगौ द्विद्वौं ; सनिसास्त्रयः ; धौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । तशरीरमित्यक्षराणि-तशाभ्यां सरी; तच्छेषो गः; री, इति रिः; तच्छेषा गसनिसाः; रमिति धः; तच्छेषो धः (९)। दशम्यां मन्द्रे रिरेकः ; गरी एकः ; मगावेकः ; माः पञ्च ; एवमष्टौ लघवः । प्रणमामि भूतेत्यक्षराणिप्रणाभ्यां रिगौ ; तच्छेषो रिः; मा इति मः; तच्छेषौ गमौ; मिभूभ्यां मौ; तच्छेषो मः ; तेन मः (१०) । एकादश्यां मध्ये नी द्वौ ; धौ द्वौ ; प एकः ; रिगावेकः ; स एकः ; रिगावेकः ; एवमष्टौ लघवः । गीतोपहारेत्यक्षराणि --गी इति निः; तच्छेषो निः; तो, इति धः ; तच्छेषो धः ; पहाभ्यां परी; तच्छेषौ गसौ ; रेण रिः; तच्छेषो गः (११) । द्वादश्यां मध्ये पधसमधनयः षट् ; धौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । परितुष्टमित्यक्षराणिपरितुभिः पधसाः; प्टमित्युपान्त्यः (१२) ।
तरुणामलेन्दुमणिभूषितामलशिरोज
भुजगाधिपैककुण्डलविलासकृतशोभम् । नगसूनुलक्ष्मीदेहार्धमिश्रितशरीर
प्रणमामि भूतगीतोपहारपरितुष्टम् ॥ इति धैवती ॥ ६ ॥
HIRTHERE
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२२० संगीतरत्नाकरः
[जातिअथ नैषादी नैषाद्यां निरिगा अंशा अनंशावहुलाः स्मृताः ।। ७७ ॥ पाडवौडुवलङ्घयाः स्युः पूर्वावद्विनियोजनम् । चच्चत्पुटः षोडशात्र कला गादिश्च मूर्च्छना ॥ ७८ ॥
अस्यां नैपायां निषादो न्यासः । अंशा एवापन्यासाः । चोक्षसाधारितदेशीवेलावल्यो दृश्यन्ते । अस्याः प्रस्तारः
५. नैषादी १. नी नी नी नी सा धा नी नी
तं सु र वंदि त (क०) नैपाद्यामिति । अनंशाबहुला निरिगा अंशाः स्मृता इति योजना । अनंशाः समपधा अबहुला अल्पत्वयुक्ता येषु निरिगेप्वंशेषु ते इंशा बहुलाः स्मृताः । अन्यथा ऽनंशाः षड्जादयो बहुलाः स्मृता इति पदभेदेन भिन्नवाक्यत्वे 'पूर्णावस्थायां षड्जमध्यमपञ्चमधैवतानामल्पत्वं पाडवे षड्जमध्यमधैवतानामल्पत्वमौडुवे मध्यमधैवतयोरल्पत्वम्' इति मतङ्गवचनेन 'अनभ्यासस्त्वनंशेषु' इति स्ववचनेन च विरोधः स्यात् । पूर्वावद धैवत्यामिव पाडवौडुवलद्ध्याः स्युः, पलोपात्षाडवं सपलोपादौडुवमारोहिणौ सपौ लथ्यौ चेति पाडवौडवलद्ध्याः, विनियोजनं च षाड्जीवदिति । अन्यद्वयाख्यातचरम् ॥ -७७, ७८ ॥ ___ (सु०) नैषादी लक्षयति-नैपाद्यामिति । नेषाद्यां निषादर्षभगांधारा विकल्पेनांशाः । षड्जमध्यमपञ्चमधैवता बहुला: (?) । पञ्चमलोपात्षाडवम् ; षड्जपञ्चमलोपादौडुवितम् । षड्जपञ्चमौ लड्यौ । प्रथमे प्रेक्षणे नष्क्रामिकध्रुवायां विनियोगः । चञ्चत्पुटस्तालः । षोडश कलाः । गांधारादिमूर्च्छना ॥ -७७, ७८ ॥
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प्रकरणम् ७]
२.
३.
म थ न मु मा
४. सो सोधा नी नी नी नी नी भो ग यु तं
५.
६.
७.
८.
प्रथमः स्वरगताध्याय:
पा मा सा धां नीं नीं नीं नीं
म हि ष म हा
सु र
सा सा गा गा नी नी धा नी
पतिं
११.
सा सा गा गा मां मां मां मां
न ग सु त का
मिनी
नीं पां धां पां मां मां मां मां दि व्य वि शे
री गो सो सो रीं गो
सू च क शु भ न ख
नी नी पा धनि नी नी नी नी र्पण कं
द
९. सा सा गा सा मा मा मा मा अ हि मुख म णि ख चि १०. मां मां मां मां नीं धां मां मां तो ज्ज्वल नू र
धा धा नी नी री गा मां मां बा ल भु जं ग म
१२. मां मां पां धां नीं नीं नीं नीं र व क लि
तं
ष क
नी नी
क
१३. पां पांनीं नीं री री री री
मि
द्रु त म भित्र जा
२२१
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[जाति
२२२
संगीतरत्नाकरः १४. री मा मा मा री गा सा सा
श र ण म नि दि त धा मा री गा सा धा नी नी
पा द यु ग पं क १६. पा मा री गां नी नी नी नी
ज वि ला सं
(क०) पाड्जग्रामिकशुद्धस्वरमेलने प्रथमकालायां मध्ये निषादाश्चत्वारः; तारे स एकः ; मध्ये ध एकः ; नी द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । तं सुरवन्दितेत्यक्षराणि-तमिति निः; तच्छेपो निः; सुरवमिति निनिसाः ; तच्छेषो धः ; दिताभ्यां नी (१)। द्वितीयस्यां मध्ये पमसास्त्रयः ; मन्द्रे ध एकः ; निषादाश्चत्वारः; एवमष्टौ लघवः । महिषमहासुरेत्यक्षराणि—षष्ठः शेषः (२)। तृतीयस्यां मध्ये सौ द्वौ ; गौ द्वौ ; नी द्वौ ; धनी द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । मथनमुमापतिमित्यक्षराणिषष्ठः शेषः (३)। चतुर्थ्यो तारे सौ द्वौ ; मध्ये ध एकः ; निषादाः पञ्च ; एवमष्टौ लघवः । भोगयुतमित्यक्षराणि-भो इति सः ; तच्छेषः सः; गयुतमिति धनिनयः ; तच्छेषा इतरे (४) । पञ्चम्यां मध्ये सौ द्वौ , गौ द्वौ ; मन्द्रे माश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । नगसुतकामिनीत्यक्षराणि-- षष्ठः शेषः (५) । षष्ठयां मन्द्रे निपधपाश्चत्वारः; माश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । दिव्यविशेषकेत्यक्षराणि- द्वितीयषष्ठौ शेषौ (६) । सप्तम्यां तारे रिगससरिगाः षट् ; मध्ये नी द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । सूचकशुभनखेत्यक्षराणि---द्वितीयः शेषः (७) । अष्टम्यां मध्ये निनिपास्त्रयः ; धनी एकः; निषादाश्चत्वारः; एवमष्टौ लघवः । दर्पणकमित्यक्षराणि-देन निः; तच्छेषो निः; र्पणाभ्यां पधौ ; तच्छेषो निः; कमिति निः; तच्छेषा
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प्रकरणम् ७ ]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
२२३
;
इतरे (८) | नवम्यां मध्ये ससगसाश्चत्वारः ; माश्चत्वारः; एवमष्टो लघवः | अहिमुखमणिखचीत्यक्षराणि (९) । दशम्यां मन्द्रे माश्चत्वारः निधौ द्वौ ; मौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । तोज्ज्वलनूपुरेत्यक्षराणि द्वितीयष्ठौ शेषौ (१०) । एकादश्यां मध्ये धौ द्वौ ; नी द्वौ ; रिगौ द्वौ ; मन्द्रे मौ द्वौ एवमष्टौ लघवः । बालभुजंगमेत्यक्षराणि - तृतीयसप्तमौ शेषौ (११) ; द्वादश्यां मन्द्रे मौ द्वौ ; प एकः ; ध एकः ; निषादाश्चत्वारः; एवमष्टौ लघवः । रवकलितमित्यक्षराणि - रवकलिभिर्ममपधाः ; तच्छेषो निः; तमिति निः; तच्छेषावितरौ ( १२ ) । त्रयोदश्यां मन्द्रे पौ द्वौ ; नी द्वौ ; मध्य ऋषभाश्चत्वारः; एवमष्टौ लघवः । द्रुतमभिव्रजामीत्यक्षराणिसप्तमः शेषः (१३) । चतुर्दश्यां मध्ये रिरेकः ; मास्त्रय: ; रिगौ द्वौ ; सौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । शरणमनिन्दितेत्यक्षराणि - षष्ठः शेष: (१४) । पञ्चदश्यां मध्ये धमरिगसधाः षट्; नी द्वौ; एवमष्टौ लघवः । पादयुगपङ्केत्यक्षराणि— द्वितीय सप्तमौ शेषौ (१५) । षोडश्यां तारे पमरिगाश्चत्वारः ; मध्ये निषादाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । जविलासमित्यक्षाणि -- जविलाभिः पमरयः ; तच्छेषो गः ; समिति निः; तच्छेषाः परे (१६) । तं सुरवन्दितमहिषमहाऽसुरमथनमुमापतिं भोगयुतं नगसुतकामिनीदिव्यविशेषकसूचकशुभनखदर्पणकम् । अहिमुखमणिखचितोज्ज्वलनूपुरबालभुजंगमरवकलितं
द्रुतमभिव्रजामि शरणम निन्दितपादयुगपङ्कजविलासम् ॥ इति नैषादी || ७ ||
"
इति षाड्ज्यादयः सप्त जातयः शुद्धतालक्षणयुक्ता एव प्रस्तारे दर्शिताः । लक्षणेषु नामस्वराव्यतिरेकेण स्वरान्तराणां ग्रहांशापन्यासत्ववचनं तु तासामेव विकृतदशायामपि नियमप्रदर्शनार्थमित्यवसेयम् ॥
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२२४
संगीतरत्नाकरः अथ पड्जकैशिकी
अंशाः स्युः षड्जकैशिक्यां षड्जगांधारपञ्चमाः । ऋषभे मध्यमे ऽल्पत्वं धनिपादौ मनाग्वहू ॥ ७९ ॥ चच्चत्पुटः षोडशास्यां कलाः स्युर्विनियोजनम् । प्रावेशिक्यां ध्रुवायां स्यात्प्रेक्षणे तु द्वितीयके ॥ ८० ॥
अस्यां षड्जकैशिक्यां गांधारो न्यासः । षड्जनिषादपञ्चमा अपन्यासाः । प्रागुक्ता गांधारपञ्चमहिन्दोलकदेशीवेलावल्यो दृश्यन्ते ।
अस्याः मस्तार:
८.
१.
२.
1
षड्जकैशिकी
सा सा मां पां गरि मग मा मा
दे
[जाति
मा मा मा मा सां सां सां सां
वं
(क० ) अथ संसर्गजविकृतजातिषु प्रथमा षड्जकैशिकी - अंशाः स्युरिति । ऋषभे मध्यमे ऽल्पत्वमिति । इहानंशेषु रिमधनिषु प्राप्तमल्पत्वं रिमयोर्नियम्यते । धनिपादौ मनाग्बहू इति । अंशीभूतसगपापेक्षया ऽल्पत्वमल्पीभूतरिमापेक्षया बहुत्वं धन्योः कर्तव्यमित्यर्थः । चच्चत्पुट इत्यादि । स्पष्टोऽर्थः ॥ ७९, ८० ॥
(सु० ) षड्जकैशिक लक्षयति — अंशाः स्युरिति । षड्जकैशिक्यां षड्जगांधारपञ्जमा अंशा: ; ऋषभमध्यमयोरल्पत्वम् ; धैवतनिषादयोः किंचिद्बहुत्वम् । चञ्च्चत्पुटस्तालः । षोडश कलाः । प्रावेशिक्यां ध्रुवायां द्वितीयप्रेक्षणे विनियोगः ॥ ७९, ८० ॥
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प्रकरणम् ७ ]
३.
8.
५.
نوں
७.
८.
९.
१०.
११.
१२.
१३.
१४.
29
प्रथमः स्वरगताध्यायः
धा धा पा पा धा धा री रिम
अ स क ल श शिति ल
री री नीं नीं नीं नीं नीं नीं
कं
धा धा पा धनि मा मा पा पा द्वि र द ग
तिं
धा धा पा धनि धा धा पा पा नि पु ण म तिं
सा सा सा सा सा सा सा सा
ग्ध मुखां
बु
धनि धा धा धा
व्य कां तिं
मु
धा धा पा धा
रु ह दि
सा सा सा रिंग सा रिंग धा धा
हर मं
बुदो
द
मा धा पा पा धा धा नी नी धि नि ना दं
5
री री गा सा सांसां सां गां अ च ल व र सू नु धां रिंसं रीं संरिं रीं सां सां सां दे हा र्ध मि श्रि
सा सरि री सरि री सा सा सा त श री रं
मा मा मा मा
प्र ण मा
4ে3.
निध पध मा मा
मि
तम हं
२२५
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२२६
[जाति
संगीतरत्नाकरः १५. नी नी पा पम पा पम पध रिग
अ नु प म मु ख क म १६. गा गा गा गा गा गा गा गा
अ.
(क०) गांधारो न्यास इति । — गांधारश्च भवेन्नयासः' इति मुनिवचनात् । तेन ‘न्यासवज्यैतल्लक्षणहीनाः' इत्यत्र न्यासवज्य॒त्यस्य विकृतजातिलक्षणांशस्य 'संसर्गजविकृताविषयत्वमुक्तं भवति । षाड्जग्रामिकशुद्धस्वरमेलने प्रथमकलायां मध्ये सौ द्वौ ; मन्द्रे मपौ द्वौ ; मध्ये गरी एकः; मगावेकः ; मौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । दे इति प्रथमः सः; तच्छेषा इतरे (१)। द्वितीयस्यां मध्ये माश्चत्वारः ; मन्द्रे साश्चत्वारः; एवमष्टौ लघवः । वमिति मः; तच्छेषा इतरे (२)। तृतीयस्यां मध्ये धौ द्वौ ; पौ द्वौ ; धौ द्वौ; रिरेकः ; रिमावेकः ; एवमष्टौ लघवः । असकलशशितिलेत्यक्षराणि ; अन्त्यः शेषः (३) । चतुर्थ्यो मध्ये री द्वौ; मन्द्रे निषादाः षट् ; एवमष्टौ लघवः । कमिति रिः ; तच्छेषा इतरे (४) । पञ्चम्यां मध्ये धौ द्वौ; प एकः ; धनी एकः ; मौ द्वौ; पौ द्वौ; एवमष्टौ लघवः । द्विरदगतिमित्यक्षराणि -द्विरदगैर्धधपधाः ; तच्छेषो निः; तिमिति मः ; तच्छेषाः परे (५)। षष्ठयां मध्ये धौ द्वौ ; प एकः; धनी एकः ; धौ द्वौ ; पौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । निपुणमतिमित्यक्षराणिनिपुणमैर्धधपधाः; तच्छेषो निः; तिमिति धः; तच्छेषाः परे (६) । सप्तम्यां मध्ये षड्जा अष्टौ लघवः । मुग्धमुखाम्ब्वित्यक्षराणि-मुना सः; तच्छेषः सः; ग्धेन सः ; तच्छेषः सः ; मुखांभ्यां सौ ; तच्छेषः सः ; बुना सः (७) । अष्टम्यां मध्ये धधपधाश्चत्वारः ; धनी एकः ; धास्त्रयः ; एवमष्टौ लघवः । रुहदिव्यकान्तिमित्यक्षराणि ; चतुर्थषष्ठोपान्त्याः शेषाः (८)।
। संसर्गवय॑विकृ.
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प्रकरणम् ७] प्रथम: स्वरगताध्यायः
२२७ नवम्यां मध्ये सास्त्रयः ; रिगावेकः ; स एकः ; रिगावेकः ; धौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । हरमम्बुदोदेत्यक्षराणि-हरमं इति साः ; तच्छेषौ रिगौ ; बुदोभ्यां सरी; तच्छेषों गधौ ; देन धः (९) । दशम्यां मध्ये मधौ द्वौ ; पौ द्वौ ; धौ द्वौ ; नी द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । धिनिनादमित्यक्षराणि-धिनिनाभिर्मधपाः ; तच्छेषः पः ; दमिति धः ; तच्छेषाः परे (१०)। एकादश्यां मध्ये रिरिंगसाश्चत्वारः ; मन्द्रे सास्त्रयः ; ग एकः ; एवमष्टौ लघवः । अचलवरसून्वित्यक्षराणि ; सप्तमः शेषः (११) । द्वादश्यां मन्द्रे ध एकः ; रिसावेकः ; रिरेकः ; सरी एकः ; रिरेकः ; सास्त्रयः ; एवमष्टौ लघवः । देहार्धमिश्रीत्यक्षराणि-दे इति धः; तच्छेषौ रिसौ ; हा इति रिः; तच्छेषौ सरी; धमिभ्यां रिसौ ; तच्छेषः सः ; श्रिणा सः (१२) । त्रयोदश्यां मध्ये स एकः ; सरी एकः ; रिरेकः ; सरी एकः ; रिरेकः ; सास्त्रयः ; एवमष्टौ लघवः । तशरीरमित्यक्षराणि-- तशाभ्यां सौ ; तच्छेषो रिः; री इति रिः। तच्छेषौ सरी; रमिति रिः; तच्छेषाः साः (१३)। चतुर्दश्यां मध्ये माश्चत्वारः ; निधावेकः; पधावेकः ; मौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । प्रणमामि तमहमित्यक्षराणि ; चतुर्थषष्ठदशमाः शेषाः (१४) । पञ्चदश्यां मध्ये निनिपास्त्रयः ; पमावेकः ; प एकः ; पमावेकः ; पधावेकः ; रिगावेकः; एवमष्टौ लघवः । अनुपमसुखकमेत्यक्षराणि ; पञ्चमाष्टमदशमद्वादशाः शेषाः (१५) षोडश्यां मध्ये गांधारा अष्टौ लघवः । लमिति गः ; तच्छेषा इतरे (१६)।
देवमसकलशशितिलकं द्विरदगति
निपुणमतिं मुग्धमुखाम्बुरुह दिव्यकान्तिम् । हरमम्बुदोदधिनिनादमचलवरसूनुदेहार्धमिश्रितशरीरं
प्रणमामि तमहमनुपममुखकमलम् ।। इति षड्जकैशिकी ॥ ८ ॥
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२२८
संगीतानाकरः
जाति
अथ षड्जोदीच्यवा अंशाः समनिधाः षड्जोदीच्यवायां प्रकीर्तिताः । मिथश्च संगतास्ते स्युर्मन्द्रगांधारभूरिता ।। ८१ ॥ पड्जर्षभौ भूरितारौ रिलोपात्पाडवं मतम् ॥
औडुवं रिपलोपेन धैवते ऽशे न पाडवम् ।। ८२ ॥ पाड्जीवद्गीततालादि गांधारादिश्च मूर्च्छना। द्वितीये प्रेक्षणे गाने ध्रुवायां विनियोजनम् ॥ ८३ ।।
(क०) अंशाः समनिधा इति । मिथश्च संगतास्ते स्युः ; ते समनिधा मिथः परस्परं संगताश्च रक्तिवशाद्यथायोगं संबद्धाश्च भवेयुः । मन्द्रगांधारभूरिता, मन्द्रस्थानस्थितस्य गांधारस्यानंशस्यापि भूरिता बाहुल्यम् 'षड्जश्च ऋषभश्चैव गांधारश्च बली भवेत्' इति मुनिवचनाद्भवति । तेन स्थानान्तरस्थितस्य तम्य तन्नेत्युक्तं भवति । षड्जर्षभौ भूरितारौ भूरि तारस्थानं ययोस्तौ ; तारस्थयोर्बाहुल्यं कर्तव्यमित्यर्थः । तत्रर्षभस्य च षाडवौडुवकारित्वेन ‘पूर्णावस्थायामृषभपञ्चमयोरल्पत्वम्' इति मतङ्गवचनं मन्द्रमध्यस्थर्षभविषयम् । 'ऋषभश्च बली भवेत्' इति मुनिवचनं तु तारस्थर्षभविषयमिति व्यवस्थापनीयम् । तत्र षड्जस्यांशत्वेन सिद्धे ऽपि बहुत्वे षड्जस्येति मुनिवचनान्मन्द्रमध्यस्थापेक्षया तारस्थस्यातिशयितत्वेन बहुत्वं षड्जर्षभावित्यनेन विधीयत इत्यवगन्तव्यम् । धैवते शे न पाडवमिति । ऋषभस्य धैवतसंवादित्वेनांशसंवादिलोपस्यानिष्टत्वात । ननु तस्मिन्नेवांशे रिपलोपेनौडुवाभ्युपगमः कथमिति चेत ; उच्यते-रिपयोलोंपेनौडुवत्वे पाडवकारित्वं पञ्चम एव पर्यवसितमिति तस्य संवादित्वान्न विरोधः । पाड्जीवदित्यादि गतार्थम् ॥ ८१-८३ ॥
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२२९
प्रथमः स्वरगताध्यायः
अस्यां षड्जोदीच्यवायां मध्यमो न्यासः । षड्जधैवतावपन्यासौ ।
प्रकरणम् ७ ]
अस्याः प्रस्तारः -
९. षड्जोदीच्यवा
१.
२.
३.
४.
A.
सा सा सा सा मां मां गां गां
शै
ले
७.
गा मा पा मा गा मा मा धा
श
सा सा मा गा पा पा नी धा
शै
ཚེམྦ, ཟཐ ལྦ་ྭ སམྦ ལྒ སྦ སྐུ
धा
प्र
गां सा सा सा
ण
नी सा सा धा नी पा मा
प्र सं
ग
सा सा सा गां
सखे
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स विला
56? 51
६. धा धा पा धा पा
न
वि नो
नु
श सू नु
धा धा
दं
सा गां गां गां गां गां सा सा
अ
क
(मु० ) षड्जोदीच्यवां लक्षयति- अंशा इति । षड्जोदीच्यवायां षड्जमध्यमनिषादधैवता अंशाः । अंशानामेव परस्परं संगतिः । मन्द्रगांधारबाहुल्यम् । षड्जर्षभयोरतिबाहुल्यम् । ऋषभलोपात्षाडवम् । ऋषभधैवतलोपादौडुवितम् । यदा धैवतो ऽंशस्तदा षाडवं नास्ति । गीतितालादि षाड्जीवत । गांधारादिर्मूच्र्छना । चञ्चत्पुटस्ताल: । द्वादश कलाः । ध्रुवायां द्वितीयप्रेक्षणे विनियोजनम् ॥ ८१-८३ ॥
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२३०
संगीतरत्नाकरः
[जाति
नी धा पा धा पा धा धा धा
這叫币“可
सा सा मा गा पा अ धि क मु खें
सां सां धा नी न य नं न मा गां सा सा सा सा सा सा गां
दे वा सु रे श १२. धा धा पा धा मां मा मा मा
त व रु चि रं
शैलेऽक्षराभ्यां प्रथमा द्वितीया तु शमृनुना। तैः पञ्चभिस्तृतीया स्यात्सप्तमी त्वधिकाक्षरैः ॥ ८४ ॥ मुखेन्दुना ऽष्टमी वस्यां पड्भिस्तैर्नवमी कला।
(क०) षाड्जग्रामिकशुद्धस्वरमेलने मध्ये साश्चत्वारः ; मन्द्रे मौ द्वौ ; गौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । शैले इत्यक्षराभ्यां प्रथमपञ्चमौ ; शेषाः परे (१)। द्वितीयस्यां मध्ये गमपमगममधा अष्टौ लघवः । शसूनुभिः प्रथमतृतीयाष्टमाः; शेषाः परे (२)। तृतीयस्यां मध्ये ससमगपपनिधा अष्टौ लघवः । शैलेशसून्वित्यक्षराणि ; द्वितीयचतुर्थसप्तमाः शेषाः (३) । चतुर्थी मध्ये धनिससधनिपमा अष्टौ लघवः । प्रणयप्रसङ्गत्यक्षराणि ; चतुर्थसप्तमौ शेषौ (४) । पञ्चम्यां मन्द्रे ग एकः ; मध्ये साः षट् ; मन्द्रे ग एकः ; एवमष्टौ लघवः । सविलासखेले. त्यक्षराणि ; चतुर्थसप्तमौ शेषौ (५) । षष्ठयां मध्ये धधपधपनिधधा अष्टौ लघवः । नविनोदमित्यक्षराणि-नविनोभिर्धधपाः; दमिति सप्तमः ; शेषा
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प्रकरणम् ७]
प्रथमः स्वरर्गताध्यायः
२३१
इतरे ( ६ ) । सप्तम्यां मध्ये स एकः ; मन्द्रे गाः पञ्च; मध्ये सौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । अधिकैः प्रथमतृतीयपञ्चमाः; शेषा इतरे (७) । अष्टम्यां मध्ये निधपधपधधधा अष्टौ लघवः । मुखेन्दुभिः प्रथमतृतीयाष्टमा:; शेषा इतरे (८) | नवम्यां तारे सौ द्वौ ; मध्ये मगपपनिधाः षट् ; एवमष्टौ लघवः । अधिकमुखेन्द्वित्यक्षराणि; चतुर्थसप्तमौ शेषौ (९) । दशम्यां मध्ये धनी द्वौ ; तारे सौ; मध्ये धनिपमाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । नयनं नमामीत्यक्षराणि; चतुर्थसप्तमौ शेषौ (१०) । एकादश्यां मन्द्रे ग एकः ; मध्ये साः षट् ; मन्द्रे ग एकः ; एवमष्टौ लघवः । देवासुरेशेत्यक्षराणि; द्वितीयचतुर्थसप्तमाः शेषाः (११) । द्वादश्यां मध्ये धधपधाश्चत्वारः ; तारे माश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । तव रुचिरमित्यक्षराणि ; षष्ठादयस्त्रयः शेषाः (१२) ।
शैलेशसूनुप्रणयप्रसङ्गसविलासखेलन विनोदम् ।
अधिकमुखेन्दुनयनं नमामि देवासुरेश तव रुचिरम् ||
सर्वासु जातिषु मागध्यादिषु गीतियोजनादिकप्रदर्शनार्थमस्यां त्रिरावृत्तपदा मागधी द्विवृत्तपदा ऽर्धमागधीत्या दिवक्ष्यमाणलक्षणानुसारेणार्धमागधीगीतियोगं दर्शयति — शैलेऽक्षराभ्यामित्यादिना । प्रथमा प्रथमकला शैलेऽक्षराभ्यां शै ले इत्याभ्यामक्षराभ्यां योजनीयेति शेषः । द्वितीया तु शसूनुनेति । द्वितीयकला तु शसूनुनेति द्वंद्वैकवद्भावः, श सू नु इति त्रिभिरक्षरैर्योजनीयेत्यर्थः । तैः पञ्चभिस्तृतीया स्यादिति । तृतीयकला तैः, शैलेश सू नु इति पञ्चभिरक्षरैर्योजनीया स्यात् । सप्तमी त्वधिकाक्षरैरिति । अधिक इत्येतैस्त्रिभिरक्षरैः । अष्टमी तु मुखेन्दुना मु खें दु इति त्रिभिरक्षरैः । नवमी तै:, अधिक मुखें दु इति षड्भरक्षरैः । अन्यासु कलासु यथालक्षणं गीतान्तरयोगो द्रष्टव्यः ॥ ८४, ८४ ॥ इति षड्जोदीच्यवा ॥ ९ ॥
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२३२
संगीतरत्नाकरः
[जाति
अथ पढ्जमध्यमा
अंशाः सप्त स्वराः षड्जमध्यमायां मिथश्च ते ॥ ८५ ॥ संगच्छन्ते निरल्पो शाद्गादृते वादितां विना । निलोपनिगलोपाभ्यां षाडवौडुविते मते ॥ ८६ ॥ पाडवौडुवयोः स्यातां द्विश्रुती तु विरोधिनौ । गीतितालकलाऽऽदीनि पाड्जीवन्मूर्च्छना पुनः ।। ८७ ।। मध्यमादिरिह ज्ञेया पूर्वावद्विनियोजनम् ।
(सु०) एतस्याः कलायामभिधेयनियमं कथयति-शैलेऽक्षराभ्यामिति । प्रथमकला शिववाचकाक्षरद्वयेन कर्तव्या। द्वितीया गणेशवाचकपदेन (?) । तृतीया कला शिवगणेशवाचकपदाक्षरपञ्चकेन । सप्तमी त्वधिकाक्षरैः । अष्टमी मुखेन्दुना । षड्भिरक्षरैनवमी ॥ ८४, ८४ ॥
(क०) अंशाः सप्त स्वरा इति । निरल्पः, पूर्णावस्थायां निषादो ऽल्पः कार्यः । अंशादगाहत इति । तस्यामप्यवस्थायां यदा गांधारो इंशो भवति तदा निषादस्य तत्संवादित्वेनाल्पत्वं नेष्टमिति भावः । वादितां विनेति । स्वस्य वादित्वे सुतरामल्पत्वाभाव इत्यर्थः ॥ द्विश्रुती तु निषादगांधारी; अंशीभूतौ त्वित्यर्थाद्गम्यते ; पाडवौडवयोर्विरोधिनौ स्याताम् , निलोपेन निगलोपेन च पाडवौडुवयोर्विहितत्वात् , स्वरयोरेवांशत्वं लोप्यत्वमिति च धर्मयोर्विरोधात् । तदा षाडवौडवे न भवत इति भावः । तेन निगयोरंशयोः पूर्णताया एव नियतत्वादस्यां षाडवांशाः पञ्चौडवांशा अपि त एव पञ्च संपूर्णोशा: सप्तेति मतङ्गोक्ताः सप्तदशांशा द्रष्टव्याः ॥ गीतितालकलाऽऽदीनि पाड्जीवदिति । गीतितालकलाऽऽदीनि, गीतयो मागधीसंभावितापृथुलास्तिस्रः, तालो ऽप्येककलद्विकलभेदस्त्रिविधः पञ्चपाणिः, कला अष्टलध्वात्मिका द्वादश, आदिशब्देन चित्रवृत्तिदक्षिणास्त्रयो मार्गा
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प्रकरणम
प्रथमः स्वरगताध्यायः
२३३
अस्यां षड्जमध्यमायां षड्जमध्यमौ न्यासौ। सप्त स्वरा अपन्यासाः । अस्याः प्रस्तारः
१०. षड्जमध्यमा
१. मा गा सग पा धप मा निध निम
र ज नि व धू मु ख मां मां सां रिंग मग निध पध पा वि ला स लो च
गारी गा मा मा सा सा
४. मा मगम मा मा निध पध पम गमम
प्र वि क सि त कु मु द । ५. धा पध परि रिंग मग रिंग सधस सा द ल फे न सं
नि गृह्यन्ते, एतानि गीत्यादीनि षाड्जीवत् ; षाड्ज्यामिवास्यामपि कर्तव्यानीत्यतिदेशार्थः । मूर्च्छना पुनर्मध्यमादिरिह ज्ञेयेति । अस्याः षाड्जग्रामिकत्वान्मत्सरीकृता मर्छनेत्यर्थः । विनियोजनं पूर्वावत् ; पूर्वस्यां षड्जोदीच्यवायामिव द्वितीये प्रेक्षणे ध्रुवागान इत्यर्थः ।। -८५-८७- ।।
(सु०) षड्जमध्यमां लक्षयति-अंशाः सप्त स्वरा इति । षड्जमध्यमायां सप्तापि स्वरा अंशा: । अंशानामेव परस्परं संगतिः । निषादो ऽल्पः । यदा गांधारो ऽशस्तदा निषादाल्पत्वं नास्ति । यदा च निषादो वादी तदा च तदल्पत्वं नास्ति । निषादलोपेन षाडवम् । निषादगांधारयोर्लोपेनौडुवितम् । पाडवौडुवितयोः क्रियमाणयोनिषादगांधारयोविवादित्वम् । गीतितालकलाऽऽदयः पाड्जीवत् । मध्यमादिमूछना । षड्जोदीच्यवावद्विनियोगः ॥ -८५-८७- ॥
30
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२३४
२३४
संगीतरत्नाकरः
[जाति
६. निध सा री मगम मा मा मा मा
मां मां मंगमं मंधं धंपं पंधं पंमं गंमंगं का मि ज न न य न धा पध परि रिंग मग रिंग सधस सा हृ द या भि नं
दि मा मा धनि धस धप मप पा पा
मां मंगमं मां निधं पंधं पंमंगं गां मां प्र ण मा मि दे वं धा पध परि रिंग मग रिग सधस सा कु मु दा धि वा
सि १२. निध सा री मगम मा मा मा मा
(क०) पड्जमध्यमौ न्यासाविति । षड्जमध्यमयोरेकतरो न्यासः कर्तव्य इत्यर्थः । सप्त स्वरा अपन्यासा इति । ग्रहांशस्वराधीनरक्तिवशाद्यथायोगं पर्यायेणापन्यासा भवन्तीति मन्तव्यम् । षाड्जग्रामिकशुद्धस्वरमेलने प्रथमकलायां मध्ये मगौ द्वौ ; सगावेकः; प एकः; धपावेकः ; म एकः; निधावेकः ; निमावेकः ; एवमष्टौ लघवः । रजनिवधूमुखेत्यक्षराणि-रजनिभिर्मगसाः; तच्छेषो गः; वधूभ्यां पधौ; शेषौ पमौ; मुना निः; शेषो धः ; खेन निः; शेषो मः (१) । द्वितीयस्यां तारे ममसास्त्रयः ; रिंगावेकः ; मगावेकः ; मध्ये निधावेकः ; पधावेकः ; प एकः ; एवमष्टौ लघवः ; विलासलोचेत्यक्षराणि-विलाभ्यां
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प्रकरणम् ७ ]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
२३५
मौ; शेषः सः; सेन रिः; शेषो गः ; लो इति मः ; शेषा गनिधपधाः ; चेन प ( २ ) । तृतीयस्यां मध्ये मगरिगममससा अष्टौ लघवः । नमिति म: ; शेषा इतरे (३) । चतुर्थ्यो मध्ये म एकः ; मगमा एकः; मौ द्वौ ; निधावेकः ; पधावेकः ; पमावेकः ; गममा एकः ; एवमष्टौ लघवः । प्रविकसितकुमुदेत्यक्षराणि – प्रविभ्यां मौ; शेषौ गमौ ; कसितैर्ममनयः ; शेषो धः; कुना पः; शेषो धः ; मुना पः; शेषो मः ; देन गः; शेषौ मौ (४) । पञ्चम्यां मध्ये ध एकः ; पधावेकः; परी एक: ; रिगावेकः
;
मगावेकः ; रिगावेकः ; सघसा एकः स एकः ; एवमष्टौ लघवः । दलफेनसंनीत्यक्षराणि–दलाभ्यां धपौ; शेषो धः; फे इति पः; शेषो रिः ; नेन रिः; शेषो गः ; समिति मः; शेषा गरिगसधसाः ; निना सः (५) । षष्ठयां मध्ये निधावेकः ; सरी द्वौ ; मगमा एकः ; माश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघव:; भमिति निः; शेषा इतरे ( ६ ) । सप्तम्यां मन्द्रे मौ द्वौ ; मगमा एकः ; मधावेकः ; धपावेकः ; पधावेकः ; पमावेकः ; गमगा एकः ; एवमष्टौ लघवः । कामिजननयनेत्यक्षराणि --- का इति मः; शेषो मः ; शेषो धः ; नेन धः; शेषः प:; शेषो मः ; नेन गः ; शेषौ मगौ (७) ।
मिना मः ; शेषौ गमौ ; जेन मः ;
नेन पः; शेषो धः ; येन पः; अष्टम्यां मध्ये ध एकः ; पधावेकः; परी एकः ; रिगावेकः ; मगावेकः ; रिगावेकः ; सधसा एकः ; स एकः ; एवमष्टौ लघवः । हृदयाभिनन्दीत्यक्षराणि ---- हृदाभ्यां धपौ; शेषो धः; या इति पः; शेषो रिः ; भिना रिः; शेषो गः ; नमिति मः; शेषा गरिगसधसा:; दिना सः (८) | नवम्यां मध्ये मौ द्वौ ; धनी एकः ; धसावेकः ; धपावेकः ; मपावेकः ; पौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । नमिति मः ; तच्छेषा इतरे (९) । दशम्यां मन्द्रे म एकः ; मगमा एकः ; म एकः ; निधावेकः ; पधावेकः ;
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२३६ संगीतरत्नाकरः
[जातिअथ गांधारोदीच्यवा गांधारोदीच्यवायां तु द्वावंशौ षड्जमध्यमौ ।। ८८ ॥ रिलोपाषाडवं ज्ञेयं पूर्णत्वे ऽशेतराल्पता । अल्पा निधपगांधाराः षाडवत्वे प्रकीर्तिताः ॥ ८९ ॥ रिधयोः संगतिज्ञेया धैवतादिश्च मूर्च्छना । तालश्चच्चत्पुटो ज्ञेयः कलाः षोडश कीर्तिताः ॥ ९० ॥
विनियोगो ध्रुवागाने चतुर्थप्रेक्षणे मतः । पमगा एकः ; गमौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । प्रणमामि देवमित्यक्षराणिप्रणाभ्यां मौ; शेषौ गमौ; मा इति मः; शेषौ निधौ; मिना पः। शेषो धः; दे इति पः; शेषौ मगौ ; वमिति गः ; शेषो मः (१०); एकादश्यां मध्ये ध एकः ; पधावेकः ; परी एकः ; रिंगावेकः ; मगावेकः ; रिगावेकः; सधसा एकः; स एकः; एवमष्टौ लघवः । कुमुदाधिवासीत्यक्षराणि-कुमुभ्यां धपौ; शेषो धः ; दा इति पः; शेषो रिः; धिना रिः; शेषो गः ; वा इति मः; शेषा गरिगसधसाः; सिना सः (११)। द्वादश्यां मध्ये निधावेकः ; सरी द्वौ ; मगमा एकः ; माश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । नमिति निः; शेषा इतरे (१२) । रजनिवधूमुखविलासलोचनं
प्रविकसितकुमुददलफेनसंनिभम् । कामिजननयनहृदयाभिनन्दिनं
प्रणमामि देवं कुमुदाधिवासिनम् ॥ इति षड्जमध्यमा ॥१०॥
(क०) गांधारोदीच्यवायां विति । पूर्णत्वे संपूर्णत्वदशायाम् , अंतराल्पता, अंशाभ्यां समाभ्यामितरेषां रिगपधनीनामल्पत्वम् ; षाडवत्वे
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प्रकरणम् ७ ]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
२३७
अस्यां गांधारोदीच्यवायां मध्यमो न्यासः । षड्जधैवताव
पन्यासौ । अस्याः प्रस्तारः
११. गांधारोदीच्यवा
१. सा सा पा मा पा धप पा मा
२.
३.
४.
新
५..
सौ
धा पा मा मा सा सा सा सा
म्य
비
धा नी सा सा मा मा पा पा गौ री मुखां
नी नी नी नी
रुह दि
मा मा धा परि चुं
६. मा पा मा त सु पा
बु
नी नी नी नी
व्य ति ल क
निस नी नी नी नी
बि ता
ਕਿੰ
परिंग गा गा सा सा
दं
निधपगांधारा अल्पाः, ऋषभस्य लुप्तत्वादिति भावः । अत एव रिधयोः संगतिः पूर्णत्वावस्थायामेवेति ज्ञेया । अन्यत्तु सुगमम् ॥ -८८–९०- ॥
(सु० ) गांधारोदीच्यवां लक्षयति- गांधारोदीच्यवायामिति । गांधारोदीच्यवायां षड्जमध्यमावंशौ । ऋषभलोपात्षाडवम् । पूर्णत्वे शेतराल्पता । षाडवत्वे निषादधैवतपञ्चमगांधारा अल्पाः । ऋषभधैवतयोः संगतिः । धैवतादिर्मूर्च्छना । चच्चत्पुटस्ताल: । षोडश कलाः । चतुर्थप्रेक्षणे ध्रुवागाने विनियोगः ॥ - ८८–९०-॥
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२३८
संगीतरत्नाकरः
[जाति
७. गा मग पा पध मा धनि पा पा
प्र वि क सि त हे म री गा सा सध नी नी धा धा क म ल नि भं गा रिंग सा सनि गा रिंग सा सा अ ति रु चि र कांति सा सा सा मा मनि धनि नी नी न ख द प णा म मा पा मां परिगे गा गा सा सो ल नि के तं गो सा गा सा मा पा मा परिंग म न सि ज श री र गौ मा गो सा गा गा गा सो
नी' नी' पा धा नी' गो गो गां प्र ण मा मि गौरी नी' नी' धो पा धां पा मां पा
च र ण यु ग म नु प १६. धा पां सां सा मा मा मा मा
FEEF
(क०) माध्यमग्रामिकशुद्धस्वरमेलने प्रथमकलायां मध्ये सौ द्वौ; पमपास्त्रयः ; धपावेकः ; पमौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । सौ इति प्रथमः सः; शेषा इतरे (१)। द्वितीयस्यां मध्ये धपममाश्चत्वारः; साश्चत्वारः ;
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प्रकरणम् ७]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
२३९ एवमष्टौ लघवः । म्येति धः; शेषा इतरे (२) । तृतीयस्यां मध्ये धनिससममपपा अष्टौ लघवः । गौरीमुखाम्व्वित्यक्षराणि ; द्वितीयचतुर्थसप्तमाः शेषाः (३)। चतु• मध्ये निषादा अष्टौ लघवः । रुहदिव्यतिलकेत्यक्षराणि ; चतुर्थः शेषः (४)। पञ्चम्यां मध्ये ममधास्त्रयः ; निसावेकः ; निषादाश्चत्वारः; एवमष्टौ लघवः । परिचुम्बिता/त्यक्षराणि-चतुर्थपञ्चमाष्टमाः शेषाः (६) । षष्ठयां मध्ये मपमास्त्रयः ; परिगा एकः ; गौ द्वौ ; सौ द्वौ; एवमष्टौ लघवः । तसुपादमित्यक्षराणि-तसुपाभिर्मपमाः ; शेषाः परिगाः ; दमिति गः; शेषाः परे (६) । सप्तम्यां मध्ये ग एकः ; मगावेकः ; प एकः; पधावेकः ; म एकः ; धनी एकः ; पौ द्वौ; एवमष्टौ लघवः । प्रविकसितहेमेत्यक्षराणि-प्रविभ्यां गमौ; तच्छेषो गः; कसिभ्यां पपौ; तच्छेपो धः; तेन मः ; हे इति धः ; तच्छेषौ निपौ; मेन पः (७) । अष्टम्यां मध्ये रिगसास्त्रयः; सधावेकः; नी द्वौ ; धौ द्वौ; एवमष्टौ लघवः । कमलनिभमित्यक्षराणि--पञ्चमः शेषः ; भमिति निः; तच्छेषाः परे (८) । नवम्यां मध्ये ग एकः ; रिगावेकः ; स एकः; सनी एकः ; ग एकः ; रिगावेकः ; सौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । अतिरुचिरकान्तीत्यक्षराणि-तृतीयषष्ठनवमदशमाः शेषाः (९) । दशम्यां मध्ये सास्त्रयः ; म एकः ; मनी एकः ; धनी एकः ; नी द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । नखदर्पणामेत्यक्षराणि ; चतुर्थषष्ठाष्टमनवमाः शेषाः (१०)। एकादश्यां तारे मपमास्त्रयः ; परिगा एकः ; गौ द्वौ ; सौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । लनिकेतमित्यक्षराणि-लनिकेभिर्मपमाः; तच्छेषाः परिगाः; तमिति गः ; शेषाः परे (११) । द्वादश्यां तारे गसगसमपमाः सप्त ; परिगा एकः ; एवमष्टौ लघवः । मनसिजशरीरेत्यक्षराणि ; शेषाः परिगाः (१२) । त्रयोदश्यां तारे गमगसाश्चत्वारः ; गास्त्रयः ; स एकः ; एवमष्टौ लघवः । ताडनमित्यक्षराणि-ताडनमित्यक्षरैः प्रथमचतुर्थपञ्चमाः ; शेषा इतरे (१३)।
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२४०
संगीतरत्नाकरः
अथ रक्तगांधारी
अंशाः स्यू रक्तगांधार्या पश्च धर्षभवर्जिताः ॥ ९१ ॥ रिमतिक्रम्य सगयोः कार्ये संनिधिमेलने । रिलोपरिधलोपाभ्यां षाडवौडुवमिष्यते ।। ९२ ।। बहुत्वं निधयोरंशः पञ्चमो द्वेष्टि षाडवम् । द्विषन्त्यौडुवितं षड्जनिमपाः संगतौ सगौ ॥ ९३ ॥ पञ्चपाण्यादि षाड्जीवदृषभादिस्तु मूर्च्छना | तृतीयमेक्षणगतधुवायां विनियोजनम् ॥ ९४ ॥
[जाति
चतुर्दश्यां तारे निनिपधनयः पञ्च ; गास्त्रयः ; एवमष्टौ लघवः । प्रणमामि गौरत्यक्षराणि; चतुर्थसप्तमौ शेषौ (१४) । पञ्चदश्यां तारे निनिधपधपमपा अष्टौ लघवः । चरणयुगमनुपेत्यक्षराणि (१५) । षोडश्यां तारे धपससाश्चत्वारः ; माश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । ममिति धः ; शेषाः परे (१६) ।
सौम्यगौरीमुखाम्बुरुह दिव्य तिलकपरिचुम्बितार्चितसुपाद
प्रविकसितहेमकमलनिभम् ।
अतिरुचिर कान्तिनखदर्पणामल निकेतं
मनसिजशरीरताडनं प्रणमामि गौरीचरणयुगमनुपमम् ॥ इति गांधीच्या ॥ ११ ॥
( क ० ) अंशाः स्युरिति । धैवतर्षभवर्जिताः पञ्च सगमपनयः । रिमतिक्रम्य सगयोः संनिधिमेलने कार्ये । रिमतिक्रम्य, ऋषभेण विनेत्यर्थः,
' गांधारषड्जयोश्चात्र संचारश्चर्षभं विना '
' षाडवौद्धविते मते.
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प्रकरणम् ७ ]
प्रथमः स्वरगताध्याय:
२४१
इति मुनिवचनात् । अत्र सगयोऋषभादितरैर्मपधनिभिः सह यथायोगं संनिधिमेलने संनिधिर्मेलनं च । इह भिन्नलघुकालयोः स्वरयोनैरन्तर्य संनिधिः ; एकलघुकालयोर्द्वयोस्त्रयाणां च नैरन्तर्ये मेलनमिति विवक्षितम् । ते कार्ये यथाशक्ति कर्तव्ये । षाडवौडुवमिति द्वंद्वैकवद्भावः । निधयोर्बहुत्वमिति । अत्र निषादस्यांशत्वेन प्राप्तमपि बहुत्वमतिशयार्थम्, धैवतस्य त्वौडुवकारिण औडुवावस्थायामनवस्थाने ऽपि संपूर्णत्वषाडवत्वावस्थयोः प्राप्ताल्पत्वापवादेन बहुत्वम्
* बलिनौ भवतश्चात्र धैवतः सप्तमस्तथा
इति मुनिवचनाद्विधीयत इत्यवगन्तव्यम् । अंशः पञ्चमः षाडवं द्वेष्टि । पञ्चमः स्वयमंशीभवन् रिलोपनिर्वर्त्य षाडवं न सहते, मध्यमग्रामे पञ्चमर्षभयोः संवादादिति भावः । षड्जनिमपा औडवितं द्विपन्ति, सनिमपा अंशा भवन्तो रिधलोपनिर्वर्त्यमौडुवितं न सहन्ते ; एक एवांशो गांधार औडुवितं सहत इत्यर्थः । अत्र निधयोः षड्जाद्यंशसंवादित्वाभावे ऽप्यवितानभ्युपगमस्तु
• गांधारीरक्तगांधार्योः षड्जमध्यमपञ्चमाः । सप्तमश्चैव विज्ञेया एषु नौडुवितं भवेत् ॥
इति मुनिवचनादवगन्तव्यः । अतः षाडवादिजातिपु क्वचित्षाडव निषेधो Sशसंवादिलोपानभ्युपगमान्नियतः,
• संवादिलोपात्सप्तैताः षाट्स्वर्येषु विवर्जिताः '
इति मुनिवचनोक्तत्वात् । औडुवादिजातिषु कदाचिदौडुवितस्य प्राप्तस्यापि निषेधः क्वचिदंशलोपात्क्वचिद्वचनादेवेति द्रष्टव्यम् । सगौ संगताविति ।
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२४२ संगीतरनाकरः
[जातिअस्यां रक्तगांधार्या गांधारो न्यासः। मध्यमो ऽपन्यासः । अस्याः प्रस्तारः
१२. रक्तगांधारी १. पा नी सा सा गा सा पा नी
तं बा ल र ज नि सां सां पा पा मा मा गा गा
र ति ल क भू मा पा धा पा मा पा धप मग ण वि भू मा मा मा मा मा मा मा मा
44 में अ
थां नी पां मपं धां नी पां पां
मां पां मां धंनिं पां पां पां पां
सगयोः पूर्व रिव्यतिरिक्तैरितरैः संनिधिमेलनोभयरूपा संगतिरुक्ता ; सा कदाचित्तयोः परस्परं कर्तव्येत्यर्थः । पञ्चपाण्यादीत्यादिः स्पष्टार्थः ॥ -९१-९४ ॥
__ (सु०) रक्तगांधारी लक्षयति-अंशाः स्युरिति । रक्तगांधार्या धैवतर्षभवाः पञ्च स्वरा अंशाः । ऋषभातिक्रमेण षड्जगांधारयोः संगतिः । ऋषभलोपात्षाडवम् । ऋषभधैवतलोपादौडुवितम् । निषादधैवतयोबहुत्वम् । यदा पञ्चमो ऽशस्तदा षाडवत्वं नास्ति । यदा षड्जनिषादमध्यमपञ्चमा अंशास्तदौडुवितत्वं नास्ति । षड्जगांधारयोः संगतिः । ऋषभादिर्मूछना । कलाकालविनियोगादिः षाड्जीवत् ॥ -९१-९४ ॥
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प्रकरणम् ७]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
२४३
७.
ग गा मा पा पा पा मा पा प्र ण मा मि गौरी री गा मा पा पा पा मां पा व द ना र विं पा पा पा पा पा पा पा पा
aas
༧ ཟླཐཱ ཡྻ
.
गा मा मा री गा गा गा प्री ति करं गो गा पा धर्म धा निध पा पा
.
१२. मा पा मा पंरिगं गा गां गां गां
(क०) माध्यमग्रामिकशुद्धस्वरमेलने प्रथमकलायां मध्ये पनिससगसपनयो ऽष्टौ लघवः । तं बालरजनीत्यक्षराणि ; द्वितीयचतुर्थों शेषौ (१)। द्वितीयस्यां तारे सौ द्वौ ; मध्ये पौ द्वौ ; मौ द्वौ ; गौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । करतिलकभूषेत्यक्षराणि ; सप्तमः शेषः (२) । तृतीयस्यां मध्ये मपधपमपा: षट् ; धपावेकः ; मगावेकः ; एवमष्टौ लघवः । णविभू इत्यक्षराणि-णविभूभिर्मपधाः; शेषाः परे (३)। चतुर्थी मध्ये मा अष्टौ लघवः । तिमिति प्रथमः ; शेषाः परे (४) । पञ्चम्यां मन्द्रे धनिपास्त्रयः ; मपावकः ; धनिपपाश्चत्वारः : एवमष्टौ लघवः । शेषाः सर्वे (५) । षष्ठयां मन्द्रे मपमास्त्रयः ; धनी एकः ; पाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । शेषाः सर्वे (६) । सप्तम्यां मध्ये रिंगमास्त्रयः ; पास्त्रयः ; मपौ द्वौ ; एवमष्टी लघवः । प्रणमामि गौरीत्यक्षराणि ; चतुर्थसप्तमौ शेषौ (७) । अष्टम्यां तारे
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२४४ संगीतरत्नाकरः
[जातिअथ कैशिकी कैशिक्यामृषभान्ये इंशा निधावंशौ यदा तदा । न्यासः पश्चम एव स्यादन्यदा द्विश्रुती मतौ ॥ ९५ ॥ अन्ये तु निगपान्यासानिधयोरंशयोर्विदुः ।। रिलोपरिधलोपेन पाडवौडुवितं मतम् ॥ ९६ ॥ रिरल्पो निपवाहुल्यमंशानां संगतिर्मिथः । पाडवौडुविते द्विष्टः क्रमात्पञ्चमधैवतो ॥ ९७ ॥ पाड्जीवत्पञ्चपाण्यादि गांधारादिस्तु मूर्च्छना ।
पञ्चमप्रेक्षणगतध्रुवायां विनियोजनम् ।। ९८ ॥ सप्तम्युक्ताः स्वराः । वदनारविमित्यक्षराणि ; चतुर्थसप्तमाष्टमाः शेषाः (८)। नवम्यां मध्ये पा अष्टौ लघवः । देन प्रथमः ; शेषाः परे (९.)। दशम्यां मध्ये रिगससरिगगगा अष्टौ लघवः । प्रीतिकरमित्यक्षराणि ; अत्र गाः शेषाः (१०)। एकादश्यां तारे गौ द्वौ ; प एकः ; धमावेकः ; ध एकः ; निधावेकः ; पौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । शेषाः सर्वे (११) । द्वादश्यां तारे मपमात्रयः ; परिगा एकः ; गाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । शेषाः सर्वे (१२)।
तं बालरजनिकरतिलकभूषणविभूतिम् । प्रणमामि गौरीवदनारविन्दप्रीतिकरम् ॥ इति रक्तगांधारी ॥१२॥
(क०) कैशिक्यामिति । ऋषभान्य ऋषभादन्ये सगमपधनयः पट् स्वरा अंशाः; भवन्तीति शेषः । यदा निधावंशौ तदा पञ्चम एव न्यासः स्यादिति
'धैवते इंशे निषादे च न्यासः पञ्चम इप्यते'
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प्रकरणम् ७] प्रथमः स्वरगताध्यायः
२४५ अस्यां कैशिक्यां गांधारपञ्चमनिषादा न्यासाः । रिवाः षट् सप्त वा स्वरा अपन्यासाः । अस्याः प्रस्तार:
१३. केशिकी १. पा धनि पा धनि गा गा गा गा
के ली ह त ।
इति मुनिवचनान्नियम्यते । अन्यदा निधव्यतिरिक्तेषु सरिगमपेप्वंशेवित्यर्थः । द्विश्रुती निगौ मतौ न्यासत्वेन संमतावित्यर्थः । अन्ये तु मतङ्गादयस्तु निधयोरंशयोर्निंगपांस्त्रीनपि न्यासान्विदुः. 'धैवतनिषादयोरंशत्वे पञ्चमो ऽपि न्यासः' इति मतङ्गोक्तत्वात् । अयं पक्षो ऽपि पञ्चमस्य न्यासत्वं निधयोरंशयोरेवेति नियमे पर्यवस्यति । रिलोपरिधलोपेनेत्येकवद्भावः । रिरल्पः पूर्णताऽवस्थायामिति भावः । निपबाहुल्यमिति निपयोरंशत्वे बाहुल्ये प्राप्ते ऽपि बलिनौ चान्त्यपञ्चमी' इति मुनिवचनात्तयोरितरांशापेक्षया ऽतिबाहुल्यं विधीयत इति बोद्धव्यम् । पञ्चमधैवतावंशीभवन्तौ क्रमात्षाडवौडविते द्विष्टः । पञ्चमः पाडवं धैवत औडवितमिति क्रमः । मध्यमग्राम ऋषभस्य पञ्चमसंवादित्वात्तु धैवतांशे तस्यैव लोप्यत्वाभावादिति भावः । षाड्जीवदित्यादि सुबोधम् ॥ ९५.-१८ ।।
(सु०) कैशिकी लक्षयति-कैशिक्यामिति । कैशिक्यामृषभादन्ये षट् स्वरा अंशाः । यदा निषादधैवतावंशौ तदा पञ्चम एव न्यासः; अन्यदा निषादगांधारौ । अन्ये तु केचिन्निषादधैवतयोरंशयोनिषादगांधारपञ्चमान्नयासान्विदुः । ऋषभलोपात्षाडवम् ; ऋषभधैवतलोपादौडुवितम् | ऋषभो ऽल्पः । निषादपञ्चमयोर्बाहुल्यम् । अंशस्वराणां परस्परं संगतिः । यदा पञ्चमो ऽशस्तदा षाडवं नास्ति । यदा धैवतो ऽशस्तदौडुवितं नास्ति । पितापुत्रकतालादि षाड्जीजातिवत् | गांधारादिद्च्छना। ध्रुवायां पञ्चमप्रेक्षणे विनियोगः ॥९५-९८॥
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२४६
[जाति
संगीतरत्नाकरः २. पा पा मा निध निध पा पा पा
का म त नु धा नी सा सा री री री री वि भ्र म वि ला सं सा सा सा री गा मा मा मा
. .
. अब
币 开闭即可 田市
अ.
मां धां नी धां मां धां मां पां मू ? ल बा ल गा री मा धनि री री री गै सो म नि भं गा री सा सा धा धा मा मा मु ख क म लं
गा गा मा मा निधनि नी नी अ स म हाट गा गा नी नी गा गा गा गा क स रो जं
गां नी नी' निध पा पा पा हृ दि सु ख दं मां पा मा पा पा पा मा मा
प्र ण मा मि लो च १२. सा मा गो निधन नी नी' मा गा
न वि शे
.
#訂 訂可印
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२४७
प्रकरणम् ७]
प्रथमः स्वरगताध्यायः (क०) रिवाः षट् सप्त वा स्वरा अपन्यासा इति ।
'अपन्यासः कदाचिच्च ऋषभो ऽपि भवेदिह' इति मुनिवचनात् । कदाचिदिति पूर्णत्वे ऽपि पक्ष इत्यर्थः । माध्यमग्रामिकशुद्धस्वरमेलने प्रथमकलायां मध्ये प एकः ; धनी एकः; प एकः ; धनी एकः ; गाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । केलीहतेत्यक्षराणिकेलीभ्यां पौ; हताभ्यां प्रथमतृतीयगौ ; शेषा इतरे (१)। द्वितीयस्यां मध्ये पौ द्वौ ; म एकः ; निधौ द्विद्वौ ; पास्त्रयः ; एवमष्टौ लघवः । कामतनु, इत्यक्षराणि--का इति पः; शेषः पः ; मताभ्यां मनी ; शेषो धः ; नुना निः; शेषाः परे (२)। तृतीयस्यां मध्ये धनी द्वौ ; तारे स एकः ; मध्ये स एकः; ऋषभाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । विभ्रमविलासमित्यक्षराणि ; द्वितीयसप्तमौ शेषौ (३) । चतुर्थी मध्ये सास्त्रयः ; रिगौ द्वौ; मास्त्रयः ; एवमष्टो लघवः । तिलकयुतमित्यक्षराणि ; शेषा माः (४) । पञ्चम्यां मन्द्रे मधनिधमधमपा अष्टौ लघवः । मूोर्ध्वबालेत्यक्षराणि ; द्वितीयचतुर्थसप्तमाः शेषाः (५)। षष्ठयां मध्ये गरिसास्त्रयः ; धनी एकः ; ऋषभाश्चत्वारः; एवमष्टौ लघवः । सोमनिभमित्यक्षराणि----- सोमनिभिर्गसधाः; भमिति प्रथमरिः; शेषा इतरे (६) । सप्तम्यां मध्ये गरी द्वौ ; सौ द्वौ ; धौ द्वौ; मौ द्वौ; एवमष्टौ लघवः । मुखकमलमित्यक्षराणि ; षष्ठादयः शेषाः (७) । अष्टम्यां मध्ये गास्त्रयः ; मौ द्वौ; निधनय एकः; नी द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । असमहाटेत्यक्षराणिअसमैर्गाः; शेषो मः; हा इति मः; शेषा निधनयः ; टेन निः; शेषो निः (८)। नवम्यां मध्ये गौ द्वौ ; नी द्वौ ; गाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । कसरोजमित्यक्षराणि-कसरोभिर्गगनयः ; जमिति पञ्चमो गः; शेषा इतरे (९) । दशम्यां तारे गौ द्वौ ; नी द्वौ ; निधावेकः ; पास्त्रयः;
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२४८ संगीतरत्नाकरः
[जातिअथ मध्यमोदीच्यवा पञ्चमांशा सदा पूर्णा मध्यमोदीच्यवा मता । लक्ष्म शेषं विजानीयाद गांधारोदीच्यवागतम् ॥ ९९ ॥ मूर्च्छना मध्यमादिः स्यात्तालश्चञ्चत्पुटो मतः ।
चतुर्थस्य प्रेक्षणस्य ध्रुवायां विनियोजनम् ॥ १०० ॥ एवमष्टौ लघवः । हृदि सुखदमिति क्रमेण पञ्च ; शेषाः परे (१०)। एकादश्यां तारे मपमास्त्रयः; पास्त्रयः; मौ द्वौ; एवमष्टौ लघवः । प्रणमामि लोचैत्यक्षराणि ; चतुर्थाष्टमौ शेषौ (११) । द्वादश्यां तारे समगास्त्रयः ; निधनय एकः ; नी द्वौ ; मगौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः ; नविशेषमित्यक्षराणि --- नविशेभिः समगाः ; पमिति सप्तमो निः ; शेषा इतरे (१२)।
केलीहतकामतनुविभ्रमविलासं तिलकयुतं मूधोंर्ध्वबालसोमनिभम् । मुखकमलमसमहाटकसरोजं हृदि सुखदं प्रणमामि लोचन विशेषम् ।।
इति कैशिकी ॥ १३ ॥ (क०) पञ्चमांशेति । एकः पञ्चम एवांशो यस्याः सा तथोक्ता । सदा पूर्णेति । कदाचिदपि षाडवौडवा च न भवतीत्यर्थः । शेषं लक्ष्मांशेन वा ऽल्पत्वं रिधयोमिथः संगतिः षोडश कला इत्येतावल्लक्षणं गांधारोदीच्यवागतं विजानीयात् ; तदत्राप्यनुसंधेयमित्यर्थः । मध्यमादिर्मर्च्छना सौवीरी । अन्यत्सुबोधम् ॥ ९९, १०० ॥
(सु०) मध्यमोदीच्यवां लक्षयति-पञ्चमांशेति । मध्यमोदीच्यवायां पञ्चमो ऽशस्वरः । पूर्णत्वं सप्तस्वरत्वमेव । षाडवौडुविते न स्तः । अवशिष्टं लक्षणं गांधारोदीच्यवावज्ज्ञातव्यम् । मध्यमादिमूच्र्छना। चच्चत्पुटस्ताल: । ध्रुवायां चतुर्थप्रेक्षणे विनियोगः ॥ ९९, १०० ॥
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प्रकरणम् ७]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
अस्यां मध्यमोदीच्यवायां मध्यमो न्यासः । अस्याः प्रस्तारः
१४. मध्यमोदीच्यवा
१.
२..
५.
६.
७.
८.
पा धनि नी नी मा पानी पा
म
३. नी नी नी नी नी नी नी नी म लें दु कुं द नी नी धप मा निध निध पा पा कु मु द नि भं
४.
32
दे हा र्ध रू प
रीगा सा
म ति कां
F৮
रिंग गा गा
ति म म ल
पापा री री री री री री चा मी करां बु
ি
मा रिंग सा सधं नीं नीं नीं नीं व्य कांति
रु ह
दि
मा पानी सा पा पा गा गा
प्र च र ग ण पू जि
गा पां मां निधं नीं नीं सा सा तम जे यं
९. पां पां मां धंनिं पां पां पां पां सुरा भिष्टु त म नि ल १०. मां पां मां रिंग गा गा गा गा म नो ज
व
मं बु
२४९
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२५०
११.
१२.
१४.
संगीतरत्नाकरः
गा पा मा पा नी नी नी नी
दो
द धि नि ना द
१५.
मा पा मा
म ति हा
१३. गो गो गो गो
परिंग गा गा गा गा
सं
क
मां निधे नी' नी'
शिवं शां त म सु र
नी नी धप मा
निध निध पा पा
च मू म थ नं
री' गां सांसां मां निधनिं नी' नी' वं दे त्रैलो क्य
१६. नी' नी' धां पांधांपां मां मा न त च र णं
[जाति
(क०) माध्यमग्रामिकशुद्धस्वरमेलने प्रथमकलायां मध्ये प एकः ; धनी एकः ; नी द्वौ ; मपनिपाश्चत्वारः; एवमष्टौ लघवः । देहार्ध - रूपेत्यक्षराणि – दे इति पः; शेषौ धनी; हा इति निः; शेषो निः; रूभ्यां मपौ ; शेषो निः; पेन प: (१) । द्वितीयस्यां मध्य ऋषभास्त्रयः ; गसौ द्वौ ; रिगावेकः ; गौ द्वौ ; एवमष्टौ लघव: ; मतिकान्तिममलेत्यक्षराणि; चतुर्थसप्तमौ शेषौ (३) । तृतीयस्यां मध्ये निषादा अष्टौ लघवः । ममलेन्दुकुन्देत्यक्षराणि; चतुर्थसप्तमौ शेषौ (३) । चतुर्थ्यो मध्ये नी द्वौ ; धपावेकः ; म एकः ; निधावेकः ; निधावेकः ; पौ द्वौ; एवमष्टौ लघवः । कुमुदनिभमित्यक्षराणि --- कुमुदैर्निनिधाः ; शेषः पः; निर्भभ्यां मनी; शेषाः परे (४) । पञ्चम्यां मध्ये पौ द्वौ ; ऋषभाः षट्; एवमष्टौ लघवः । चामीकराम्व्वित्यक्षराणि; द्वितीयचतुर्थ
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प्रकरणम् ७] प्रथमः स्वरगताध्यायः
२५१ सप्तमाः शेषाः (५) । षष्ठयां मध्ये म एकः ; रिंगावेकः ; स एकः : समन्द्रधावेकः ; मन्द्रे निषादाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । रुहदिव्यकान्तीत्यक्षराणि ; तृतीयपञ्चमषष्ठसप्तमाः शेषाः (६)। सप्तम्यां मध्ये मपनिसपपगगा अष्टौ लघवः । प्रवरगणपूजीत्यक्षराणि ; सप्तमः शेषः (७) । अष्टम्यां मध्ये ग एकः; मन्द्रे पमौ द्वौ ; निधावेकः ; नी द्वौ ; मध्ये सौ द्वौ; एवमष्टौ लघवः । तमजेयमित्यक्षराणि-तमजेभिर्गपमाः; शेषो निधौ ; यमिति निः; शेषाः परे (८)। नवम्यां मन्द्रे पौ द्वौ ; म एकः ; धनी एकः ; पाश्चत्वारः; एवमष्टौ लघवः ; सुराभिष्टुतमनिलेत्यक्षराणि ; पञ्चमो निषादः शेषः (१)। दशम्यां मन्द्रे मपमास्त्रयः ; मध्ये रिगावेकः ; गाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । मनोजवमम्ब्वित्यक्षराणि ; चतुर्थपञ्चमसप्तमाः शेषाः (१०)। एकादश्यां मध्ये गपमपाश्चत्वारः; निषादाश्चत्वारः; एवमष्टौ लघवः । दोदधिनिनादेत्यक्षराणि ; द्वितीयसप्तमौ शेषौ (११)। द्वादश्यां मध्ये मपमास्त्रयः ; परिगा एकः ; गाश्चत्वारः; एवमष्टौ लघवः । मतिहासमित्यक्षराणिमतिहाभिर्मपमाः; समिति सप्तमः ; शेषा इतरे (१२)। त्रयोदश्यां तारे गाश्चत्वारः ; म एकः; निधावेकः ; नी द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । शिवं शान्तमसुरेत्यक्षराणि ; चतुर्थसप्तमौ शेषौ (१३)। चतुर्दश्यां मध्ये नी द्वौ ; धपावेकः ; म एकः ; निधावेकः ; निधावेकः ; पौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । चमूमथनमित्यक्षराणि-चममैर्निनिधाः ; शेषः पः ; थनंभ्यां मनी ; शेषाः परे (१४)। पञ्चदश्यां तारे रिगससमाः पञ्च ; निधनय एकः ; नी द्वौ; एवमष्टौ लघवः । वन्दे त्रैलोक्येत्यक्षराणि ; द्वितीयचतुर्थसप्तमाष्टमदशमाः शेषाः (१५) । षोडश्यां तारे नी द्वौ ; धपधपाश्चत्वारः; मौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । नतचरणमित्यक्षरैः क्रमेण पञ्च ; शेषाः परे (१६) ।
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२५२ संगीतरत्नाकरः
[जातिअथ कार्मारवी कार्मारव्यां भवन्त्यंशा निषादरिपधैवताः । बहवो ऽन्तरमार्गत्वादनंशाः परिकीर्तिताः ॥ १०१॥ गांधारो ऽत्यन्तबहुलः सर्वाशस्वरसंगतिः । चञ्चत्पुटः षोडशात्र कलाः पड्जादिमूर्च्छना ।। १०२ ॥ पञ्चमस्य प्रेक्षणस्य ध्रुवायां विनियोजनम् । देहाधरूपमतिकान्तिममलममलेन्दुकुन्दकुमुदनिभं ___ चामीकराम्बुरुह दिव्यकान्तिप्रवरगणपूजितमजेयम् । सुराभिष्टुतमनिलमनोजवमम्बुदोदधिनिनादमतिहासं
शिवं शान्तमसुरचम्मथनं वन्दे त्रैलोक्यनतचरणम् ॥ इति मध्यमोदीच्यवा ॥ १४ ॥
(क०) कार्मारव्यामिति । अनंशा इह सगमाः । अनंशत्वेनाल्पा इत्यपि । अन्तरमार्गत्वात्सर्वेषामंशादिस्वरसंगहेंतोर्मुहुः प्रयोगाबहवो बहुत्वयुक्ता भवन्ति । नन्वेवमविशिष्टे बहुत्वे इंशानंशयोः को भेद इति चेत् ; उच्यते । यः स्थायित्वेन बहुप्रयोगः सो इंशः । यस्तु संचारित्वेन बहुप्रयोगः सो ऽन्तरमार्गाश्रयो ऽनंश इति विवेक्तव्यम् । 'बहुलत्वं प्रयोगेषु व्यापकं त्वंशलक्षणम्' इत्यत्रापि बहुलत्वम् 'यो रक्ति' इत्याद्यंशलक्षणे यच्छब्दाभिहितस्थायिविषयमेवेति मन्तव्यम् । एतेनास्यां जातावन्तरमार्गः कर्तव्य इत्युक्तं भवति । तथा च भरतः
____ 'अनंशा बलवन्तस्तु नित्यमेव प्रयोगतः' इति । गांधारः सर्वांशस्वरसंगतेः पर्यायांशैरपि संगतेविशेषादत्यन्तं बहुलः । सर्वोशस्वरसंगतिरपि
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प्रकरणम् ७ ]
२५३
अस्यां कामरव्यां पञ्चमो न्यासः । अंशा एवापन्यासाः ।
अस्याः मस्तारः
१५. कारवी
१.
२.
प्रथमः स्वरगताध्याय:
४.
री री री री री री री री
तं
स्था णु ल लित
मा गा सा गा सा नी नी नी मां ग स
वा
क्त
३. नीं मां नीं मां म ति ते
गा पा मा पा सौ धां
पां पां गा गा
जः प्र स र
नी नी नी नी
शु कां
ति
५. री गो सो नी' री' गां री' मा फणि प ति मु खं
६. री गा री सा नी धनि पा पा उ रो विपुल सा
ग
' गांधारस्य विशेषेण सर्वतो गमनं भवेत् '
इति मुनिवचनात् । चच्चत्पुट इत्यादि सुबोधम् ॥ १०१ – १०२ ॥
(सु० ) कार्मारवीं लक्षयति- कार्मारव्यामिति । कार्मारत्र्यां निषादर्षभपञ्चमधैवता अंशाः । अंशस्वरेभ्यो ऽन्ये षड्जगांधारमध्यमा अन्तरमार्गोक्तन्यायेन बहवः । गांधारस्यातिबाहुल्यम् । सर्वैरंशस्वरैः सह संगतिः । चच्चत्पुटस्ताल: । षोडश कलाः । षड्जादिर्मूच्र्च्छना । पञ्चमप्रेक्षणे ध्रुवायां विनियोगः ॥ १०१ - १०२ ॥
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२५४
मंगीतग्नाकरः
[जाति
७. मा पा मां पंरिग गा गा गा गा
र नि के तं रीरी गा सम मा मा पा पा सि त पं न गेंद्र मा पा मा परिंग गा गा गा गा म ति कां धा नी पा मा धा नी सा सा
___ख वि नो द नी नी नी नी नी नी नी नी क र प ल्ल वां गु मां मां धां नी सनिनि धा पा पा लि वि ला स की ल मा पा मा परिग गा गा गा गा न वि नोदं
नी पा धनि गा गा गा गा
ण मा मि दे व मां री' गां सा नी' नी' नी' नी'
य ज्ञो ५ वी त १६. नी' नी' धा धा पा पा पा पा
(क०) माध्यमग्रामिकशुद्धस्वरमेलने प्रथमकलायां मध्य ऋषभा अष्टौ लघवः । तं स्थाणुललितेत्यक्षराणि ; द्वितीयचतुथीं शेषौ (१) ।
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प्रकरणम् ७ ]
२५५
;
द्वितीयस्यां मध्ये मगसगसाः पञ्च निषादास्त्रयः ; एवमष्टौ लघवः । वामाङ्गसक्तेत्यक्षराणि; द्वितीयचतुर्थसप्तमाः शेषाः (२) । तृतीयस्यां मन्द्रे निमनिमपपाः षट् ; मध्ये गौ द्वौ ; एवमष्टो लघवः । मतितेजः प्रसंरेत्यक्षराणि ; चतुर्थः शेषः (३) । चतुर्थ्यो मध्ये गपमपाश्चत्वारः ; निषादाश्चत्वारः; एवमष्टौ लघवः । सौधांशुकान्तीत्यक्षराणि; द्वितीयचतुर्थसप्तमाः शेषाः (४) । पञ्चम्यां तारे रिगसनिरिगरिमा अष्टौ लघवः । फणिपतिमुखमित्यक्षराणि ; उपान्त्यान्त्यौ शेषौ ( ५ ) । षष्ठयां मध्ये रिगरिसनयः पञ्च ; धनी एकः ; पौ द्वौ एवमष्टौ लघवः । उरोविपुलसागेत्यक्षराणि; सप्तमाष्टम शेषौ (६) । सप्तम्यां तारे मपमास्त्रयः ; परिगा एकः ; मध्ये गाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । रनिकेतमित्यक्षराणि - रनिकेभिर्मपमा:; तमिति सप्तम: ; शेषा इतरे ( ७ ) । अष्टम्यां मध्ये रिरिगास्त्रय: ; समावेकः ; मौ द्वौ ; पौ द्वौ एवमष्टौ लघवः । सितपन्नगेन्द्रेत्यक्षराणि; चतुर्थपञ्चमाष्टमाः शेषाः (८) | नवम्यां मध्ये मपमास्त्रयः ; परिगा एकः ; गाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । मतिकान्तमित्यक्षराणि - मतिकांभिर्मपमाः ; तमिति सप्तम: ; शेषा इतरे (९) । दशम्यां मध्ये धनिपमधनिससा अष्टौ लघवः । मुखविनोदेत्यक्षराणि; द्वितीय सप्तमौ शेषौ (१०) । एकादश्यां मध्ये निषादा अष्टौ लघवः । करपल्लवावित्यक्षराणि; चतुर्थसप्तमौ शेषौ (११) । द्वादश्यां मन्द्रे ममधनयश्चत्वारः ; मध्ये सनिनय एक: ; धपपास्त्रय: ; एवमष्टौ लघवः । लिविलासकीलेत्यक्षराणि ; चतुर्थषष्ठसप्तमनवमाः शेषाः ( १२ ) । त्रयोदश्यां मध्ये नवमीवत्स्वराः । नविनोदमित्यक्षराणि - नविनोभिर्मपमा: ; दमिति सप्तम: ; शेषा इतरे (१३) । चतुर्दश्यां मध्ये निनिपास्त्रय: ; धनी एकः ; गाश्चत्वारः एवमष्टौ लघवः । प्रणमामि देवेत्यक्षराणि; चतुर्थपञ्चमामाः शेषाः (१४) । पञ्चदश्यां तारे सरिगसाश्चत्वारः ;
;
प्रथमः स्वरगताध्यायः
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२५६
संगीतरत्नाकर:
अथ गांधारपञ्चमी
अंशो गांधारपञ्चम्यां पञ्चमः संगतिः पुनः ।। १०३ ॥ कर्तव्या ऽत्रापि गांधारीपञ्चम्योरिव भूरिभिः । चच्चत्पुटः षोडशात्र कला गादिश्व मूर्च्छना ॥ १०४ ॥ तुर्यप्रेक्षण संवन्धिधुवागाने नियोजनम् ।
[जाति
निषादाश्चत्वारः; एवमष्टौ लघवः । यज्ञोपवीतेत्यक्षराणि; द्वितीयचतुर्थसप्तमाः शेषाः (१५) | षोडश्यां तारे नी द्वौ ; धौ द्वौ ; पाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । कमिति प्रथमो निः; शेषाः परे (१६) ।
तं स्थाणुललितवामाङ्गसक्तमतितेजः प्रसरसौधांशुकान्ति फणिपतिमुखमुरोविपुल सागरनिकेतं सितपन्नगेन्द्रमतिकान्तम् । षण्मुखविनोदकरपल्लवाङ्गुलि विलासकीलन विनोदं
प्रणमामि देवयज्ञोपवीतकम् ॥ इति कार्मारवी ॥ १५ ॥
(क० ) अंशो गांधारपञ्चम्यामिति । संगतिः पुनः संगतिस्तु गांधारीपञ्चम्योरिवात्रापि भूरिभिः कर्तव्येति । गांधार्यां तावत् 'न्यासांशाभ्यां तदन्येषाम्' इत्युक्तम्, तद्वदत्रापि न्यासांशाभ्यां गांधारपञ्चमाभ्यां तदन्येषां सरिमधनीनाम्; पञ्चम्यां तु 'रिमयो:' इत्युक्तत्वादत्राप्यृषभमध्यमयोर्मिश्रश्च ; एवं भूरिभिः स्वरैः संगतिः कर्तव्यत्यतिदेशार्थः । शेषं सुबोधम् ॥ १०३ - १०४ ॥
(सु० ) गांधारपञ्चमी लक्षयति- अंश इति । गांधारपञ्चम्यां पञ्चमो ऽंश: । गांधारीपञ्चम्योरिव स्वराणां संगतिः । चच्चत्पुटस्ताल: । षोडश कलाः । गांधारादिर्मूर्च्छना । ध्रुवायां चतुर्थप्रेक्षणे विनियोगः ॥ -१०३–१०४ ॥
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प्रकरणम् ७]] प्रथमः स्वरगताध्यायः
२५७ अस्यां गांधारपञ्चम्यां गांधारो न्यासः। ऋषभपञ्चमावपन्यासौ । अस्याः प्रस्तार:
१६. गांधारपञ्चमी १. पा मप मध नी धप मा धा नी
सनिनि धा पा पा पा पा पा पा
A.A
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धा नी सा सा मा मा पा पा वा मै क दे श नी नी नी नी नी नी नी नी पें खो ल मा न नी नी धप मा निध निध पा पा
क म ल नि भं ६. पा पा री री री री री री
व र सु र भि कु सु म ७. मा रिंग सा सध नी नी नी नी
. गंधा धि वा सि
नी सां रिस री' से' री' से म नो . ज्ञ गा सा निग सा नी नी नी
ग रा ज सू नु १०. नी मां नी मां पां पां गा गा
र ति रा ग र भ स
+
+ +
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२५८
[जाति
*
संगीतरत्नाकरः ११. गा पां मां पां नी नी नी नी
के ली कु च ग्र मा पा मा परिंग गा गा गा गा
ली लं तं नी पां धां नी गा गा गा ण मा मि दे वं नीं नी नी नी नी नी नीं
द्रार्ध मंडि मां मां धां नी सनिनि धा पा पा त वि ला सकी ल मा पा मा परिंग गा गा गा गा न वि नो दं
. *
(क०) माध्यमग्रामिकशुद्धस्वरमेलने प्रथमकलायां मध्ये प एकः; मपावेकः; मधावेकः ; निरेकः; धपावेकः ; मधनयस्त्रयः; एवमष्टौ लघवः । कामिति प्रथमः; शेषा इतरे (१)। द्वितीयस्यां मध्ये सनिनय एकः; ध एकः; पाः षट् ; एवमष्टौ लघवः । तमिति पञ्चमः; शेषा इतरे (२)। तृतीयस्यां मध्ये धनी द्वौ; सौ द्वौ; मौ द्वौ ; पौ द्वौ; एवमष्टौ लघवः । वामैकदेशेत्यक्षराणि ; द्वितीयचतुर्थसप्तमाः शेषाः (३)। चतुर्थ्यो मध्ये निषादा अष्टौ लघवः । प्रेङ्खोलमानेत्यक्षराणि; द्वितीयचतुर्थसप्तमाः शेषाः (४) । पञ्चम्यां मध्ये नी द्वौ ; धपावेकः ; म एकः ; निधौ द्विद्वौं; पौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । कमलनिभमित्यक्षराणि-कमलैर्निनिधाः; शेषः पः; निभंभ्यां मनी; शेषाः परे (५) । षष्ठयां मध्ये पौ द्वौ; ऋषभाः षट; एवमष्टौ लघवः । वरसुरभिकुसुमेत्यक्षराणि (६) । सप्तम्यां मध्ये म
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प्रकरणम् ७] प्रथमः स्वरगताध्यायः
२५९ एकः; रिगावेकः; स एकः; सधावेकः; निषादाश्चत्वारः; एवमष्टौ लघवः । गन्धाधिवासीत्यक्षराणि ; द्वितीयतृतीयपञ्चमषष्ठनवमाः शेषाः (७)। अष्टम्यां मध्ये नी द्वौ; तारे स एकः; रिसावेकः; ऋषभाश्चत्वारः; एवमष्टौ लघवः । तमनोज्ञेत्यक्षराणि-तमनोभिर्निनिसाः; शेषौ रिसौ; ज्ञेति रिः; शेषाः परे (८) । नवम्यां मध्ये निगसास्त्रयः; निगावेकः ; स एकः; मन्द्रे निषादास्त्रयः ; एवमष्टौ लघवः । नगराजसून्वित्यक्षराणि ; चतुर्थपञ्चमाष्टमा: शेषाः (९) । दशम्यां मन्द्रे निमनिमपपाः षट् ; मध्ये गौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । रतिरागरभसेत्यक्षराणि ; चतुर्थः शेषः (१०) । एकादश्यां मध्ये ग एकः ; मन्द्रे पमपास्त्रयः ; निषादाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । केलीकुचप्रेत्यक्षराणि ; द्वितीयचतुर्थसप्तमाः शेषाः (११) । द्वादश्यां मध्ये मपमास्त्रयः ; परिगा एकः ; गाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । हलीलं तमित्यक्षराणि-हलीलमिति मपमाः; तमिति सप्तमः ; शेषा इतरे (१२)। त्रयोदश्यां मन्द्रे निनिपधनयः पञ्च ; मध्ये गास्त्रयः ; एवमष्टौ लघवः । प्रणमामि देवमित्यक्षराणि ; चतुर्थसप्तमौ शेषौ (१३) । चतुर्दश्यां मन्द्रे निषादा अष्टौ लघवः । चन्द्रार्धमण्डीत्यक्षराणि ; द्वितीयचतुर्थसप्तमाः शेषाः (१४) । पञ्चदश्यां मन्द्रे मौ द्वौ ; धनी द्वौ ; मध्ये सनिनय एकः; ध एकः; पौ द्वौ; एवमष्टौ लघवः । तविलासकीलेत्यक्षराणि ; चतुर्थसप्तमनवमदशमाः शेषाः (१५) । षोडश्यां मध्ये मपमास्त्रयः ; परिगा एकः ; गाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । नविनोदमित्यक्षराणि-नविनोभिर्मपमाः ; दमिति सप्तमः ; शेषा इतरे (१६) ।
कान्तं वामैकदेशप्रेढोलमानकमलनिभं वरसुरभिकुसुमगन्धाधि
वासितमनोज्ञनगराजसूनुरतिरागरभसकेलीकुचग्रहलीलम् ।
तं प्रणमामि देवं चन्द्रार्धमण्डितविलासकीलन विनोदम् ॥ इति गांधारपञ्चमी ॥ १६ ॥
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२६०
आन्ध्रामंशा निरिगपा रिगयोर्निधयोस्तथा ॥ १०५ ॥ संगतिर्व्यासपर्यन्तमंशानुक्रमतो व्रजेत् ।
षाडवं षड्जलोपेन मध्यमादिस्तु मूर्च्छना ।। १०६ ।। पूर्वावत्तु कलाकालविनियोगाः प्रकीर्तिताः ।
संगीतरत्नाकरः
अथान्धी
(क०) आन्ध्रयामंशा इति । निरिगपाः पर्यायेणांशा महाश्च स्युः । रिगयोर्निधयोस्तथा । अत्र तथेति निपातः समुच्चयार्थः, निधयोश्चेति । संगतिः परस्परं संनिधिर्मेलनात्मकः संबन्धः । कर्तव्येति शेषः । परस्परं संगतिरित्यनेनानियमे प्राप्ते नियमार्थमाह – अंशानुक्रमतो न्यासपर्यन्तं व्रजेदिति । अंशानुक्रमतः ; अत्र निरिंगपानां मध्ये यदा यो ऽंशीकृतस्तस्यानुक्रमतः ; तमंशीभूतं पूर्वमुच्चार्यानंशं पर्यायांशं वा पश्चादुच्चारयन्, न्यासपर्यन्तं गीतसमाप्तिकृत्स्वरपर्यन्तम्, आ गीतपरिसमाप्तेरित्यर्थः, व्रजेद्द्वायेदिति नियमः । तथा चाह भरत:
' गांधारर्षभयोश्चात्र व्यापारस्तु परस्परम् । सप्तमस्य च षष्ठस्य न्यासगत्या ऽनुपूर्वशः || ' इति ।
ग्रन्थान्तरे च
C
'स्वांशानुपूर्वी व्याप्तिं च कुर्वन्न्यासावधिं व्रजेत् '
[जाति
इति । शेषं निर्विशेषम् ॥ -१०५-१०६- ॥
1
( सु० ) आन्ध्रीं लक्षयति-- आन्ध्रयामिति । आन्ध्रयां निषादर्षभगांधारपञ्चमा अंशाः । ऋषभगांधारयोर्निषादधैवतयोश्च संगतिः । अंशान्न्यासपर्यन्तमारोहणम् । षड्जलोपेन षाडवम् । मध्यमादिर्मूच्र्च्छना । गांधारपञ्चमीवत्कलातालविनियोगः ॥ - १०५-१०६- ॥
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प्रकरणम् ७]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
२६१
अस्यामान्ध्रयां गांधारो न्यासः । अंशा एवापन्यासाः । अस्याः प्रस्तार:
१७. आन्ध्री
त रु णे दु कु सु म २. री गा री गारी री री री
ख चि त ज टं री री गा गा री री मा मा त्रि दि व न दी स लि ल री गा सा धनि नी नी नी नी
त मु खं नीं री नी री धनि धनि पा पा न ग सू नु प्र ण यं पां मां रिंग गा गा गा गा
द नि धिं री गा सस मा मा पा पा प रि णा हि तु हि न मां पां मां रिंग गा गा गा गा गा
4. A+ A
at.
में 4. a = Fou. = * A
.
धां नी गा गा गा गा गा गा अ मृ त भ वं पा पा मा रिंग गा गा गा गा गु ण र हि तं
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[जाति
२६२
संगीतरत्नाकरः ११. नी नी नी नी री री री री
त म व नि र वि श शि री री गा नी सा सा नी नी
ज्व ल न ज ल प व न १३. पा पा मा रिंग गा गा गा गा
ग ग न त नुं री' री' गा सम मा मा पा पा
श र णं व जा मि १५. मां मां नी नी' सा री' गा पा
शु भ म ति कृ त नि ल १६. रिंग गा गा गा गा गा गा गा
यं
(क०) माध्यमग्रामिकशुद्धस्वरमेलने प्रथमकलायां मध्ये ग एकः ; ऋषभाः सप्त ; एवमष्टौ लघवः । तरुणेन्दुकुसुमेत्यक्षराणि ; चतुर्थः शेषः (१)। द्वितीयस्यां मध्ये रिगरिगाश्चत्वारः ; ऋषभाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । खचितजटमिति क्रमेण पञ्चाक्षराणि ; शेषाः परे (२)। तृतीयस्यां मध्ये री द्वौ; गौ द्वौ ; री द्वौ ; मौ द्वौ; एवमष्टौ लघवः । त्रिदिवनदीसलिलेत्यक्षराणि (३)। चतु• मध्ये रिगसास्त्रयः ; धनी एकः ; मन्द्रे निषादाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । धौतमुखमित्यक्षराणि-धौ इति रिः; शेषो गः; तमुभ्यां सधौ ; शेषो निः; खमिति निः; शेषाः परे (४)। पञ्चम्यां मन्द्रे निरेकः ; मध्ये रिरेकः ; पुनर्मन्द्रे निरेकः ; मध्ये रिरेकः ; मन्द्रे धनी द्विद्वौं ; पौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । नगसू नुप्रणयमित्यक्षराणि ; चतुर्थषष्ठसप्तमाः शेषाः (५)। षष्ठयां मन्द्रे मपमास्त्रयः ; मध्ये रिगावेकः ; गाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः ।
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प्रकरणम् ७] प्रथमः स्वरगताध्याय:
२६३ वेदनिधिमित्यक्षराणि-वे इति मः; शेषः पः; दनिभ्यां मरी; शेषो गः; धिमिति गः; शेषाः परे (६)। सप्तम्यां मध्ये रिरिगास्त्रयः ; ससावेकः ; मौ द्वौ ; पौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । परिणाहितुहिनेत्यक्षराणि ; चतुर्थपञ्चमौ शेषौ (७)। अष्टम्यां षष्ठयुक्ताः स्वराः । शैलगृहमित्यक्षराणि-शै इति मः ; तच्छेषः प: ; लगृभ्यां मरी; शेषो गः ; हमिति गः; शेषाः परे (८)। नवम्यां मन्द्रे धनी द्वौ ; मध्ये गाः षट् ; एवमष्टौ लघवः । अमृतभवमिति निरन्तराण्यक्षराणि ; शेषाः परे (९)। दशम्यां मध्ये पपमास्त्रयः ; रिगावेकः ; गाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । गुणरहितमित्यक्षराणि-गुणरहिभिः पपमरयः; शेषो गः; तमिति गः; शेषाः परे (१०)। एकादश्यां मध्ये निषादाश्चत्वारः ; ऋषभाश्चत्वारः; एवमष्टौ लघवः । तमवनिरविशशीत्यक्षराणि (११) । द्वादश्यां मध्ये रिरिंगनयश्चत्वारः; सौ द्वौ ; नी द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । ज्वलनजलपवनेत्यक्षराणि (१२)। त्रयोदश्यां तारे पपमास्त्रयः ; रिगावेकः; गाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । गगनतनुमित्यक्षराणि-गगनतैः प्रथमादयश्चत्वारः ; नुमिति षष्ठः ; शेषा इतरे (१३)। चतुर्दश्यां तारे रिरिंगास्त्रयः; समावेकः; मौ द्वौ ; पौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । शरणं व्रजामीत्यक्षराणि ; चतुर्थपञ्चमाष्टमाः शेषाः (१४)। पञ्चदश्यां तारे मौ द्वौ ; नी द्वौ ; सरिगपाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । शुभमतिकृतनिलेत्यक्षराणि (१५) । षोडश्यां तारे रिगावेकः ; गाः सप्त ; एवमष्टौ लघवः । यमिति रिः; शेषाः परे (१६) ।
तरुणेन्दुकुसुमखचितजटं त्रिदिवनदीसलिलधौतमुखं
नगसूनुप्रणयं वेदनिधिं परिणाहितुहिनशैलगृहम् । अमृतभवं गुणरहितं तमवनिरविशशिज्वलनजलपवनगगनतनुं
शरणं व्रजामि शुभमतिकृतनिलयम् ॥ इत्यान्धी ॥ १७ ॥
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२६४ संगीतरत्नाकरः
[जातिअथ नन्दयन्ती नन्दयन्त्यां पञ्चमो ऽशो गांधारस्तु ग्रहः स्मृतः ॥ १०७॥ कैश्चित्तु पञ्चमः प्रोक्तो ग्रहो ऽस्यां गीतवेदिभिः । मन्द्रर्षभस्य बाहुल्यं पाडवं षड्जलोपतः ॥ १०८ ।। हृष्यका मूर्च्छना ताल: पूर्वावद् द्विगुणाः कलाः । विनियोगो ध्रुवागाने प्रथमप्रेक्षणे भवेत् ॥ १०९ ।।
अस्यां नन्दयन्त्यां गांधारो न्यासः । मध्यमपञ्चमावपन्यासौ । अस्याः प्रस्तार:
१८. नन्दयन्ती
१.
गा गा गा गा पा पा धप मा
धा धा धा धा धा नी सनिनि धा
. . .
पां पां पां पां
पां पां
पां पां
,
धां नी मां पां गां गां गां गां वे दां ग वेद मा री गा गा गा गा गा गा
क र क म ल यो नि ६. मा मा पा पा धा निध पा पा
त मो र जो वि व
A
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________________
प्रकरणम् ७ ]
७.
८.
९.
१०.
प्रथमः स्वरगताध्यायः
धा नी मा पा गा गा गा गा
जिंतं
गम पा पा पा मा मा गा गा
हरं
११. री गा मा पा पम पा पा नी शिवं शां तं सं नि
१५.
धा नी मा पा गा गा गा गा
भ व ह र कम ल गृ
१२. रीं रीं रीं रीं पां पां मां मां वे श् न म पू वै
१६.
मा मा मा मामामा मा मा
हं
१३. धां नीं मर्निंनिं धां पां पा पा पा भूष ण ली लं
१४. धां नी मां पां उर गे
34
गा पा पा पा
भा सु र
धा धा नी धा
लं
4
गां गां गां गां श भो
ग
था मा गा मा
शुभ पृ श्रु
पा पा पा पा
१७. री गा मा पा पम पा पा नी
अ च ल
प ति सृ नु
२६५
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[जाति
FE 45
२६६
संगीतरत्नाकरः १८. * * - री पां पां पां पां
क र पंकजा म १९. पा पा पा पा धा मा मा मा
ल वि ला स की ल २०. नी पां गां गंमं गां गां गां गां
न वि नो दं री री गां गां मां मां मां मा
म्फ टि क म णि र ज त २२. नी पा नी मा नी धा पा पा
सि त न व दु कू ल २३. सो मा धनि धा पा पा पा पा
क्षी रोद सा ग २४. मा पा मा परिंग गा गा सा मा
र नि का शं री री गा गा मा मा पा पा अ ज शि र: क पा ल री री री गा मा रिग मा मा पृ शु भा ज नं
मा नी पा नी गा गा गा गा वंदे मु ख दं २८. मा मा पा पा धा धनि निध मः
ह र दे ह म म ल
the Fr
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प्रकरणम् ७ ]
२९.
प्रथमः स्वरगताध्यायः
धा धा सा नी धा नी पा पा
मधु सू द न
सु
मा पा धा मा धिक सु
३१. नी नी नी नी धा पा मा मा
ग ति यो
३०. री री री री ते जो
३२.
मा परिंग गा गा गा गा गा गा
निं
m
२६७
1
(क०) नन्दयन्त्यामिति । गांधारस्तु ग्रहः स्मृत इति । अत्र अंश एव ग्रहः कार्यः' इति सकलजातिसाधारणेन मुनिवचनेन प्राप्तस्य पञ्चमहत्वस्य : गांधारग्रहो जातिविशेषे कार्यः' इति विशेषविषयं तद्वचनमेव तत्र कौण्डिन्यनयेन बाधकमित्यवगन्तव्यम् । गीतवेदिभिर्लक्षणज्ञैः कैश्चिदाचार्यैस्त्वस्यां पञ्चमो ग्रहः प्रोक्त इति पक्षान्तरम् । मन्द्रर्षभस्य बाहुल्यमिति । नन्दयन्त्या माध्यमग्रामिकत्वेन ऋषभपर्यन्ताया मन्द्रगतावभावे ऽपि मन्द्रपञ्चमारम्भनिप्पन्नहृप्य कामूर्च्छनाऽऽश्रयत्वादंशीभूतमन्द्रपञ्चमेन ऋषभमात्रस्य संवादादितरस्थानस्थितापेक्षया मन्द्रर्षेभस्य बाहुल्यं कर्तव्यमित्यभिप्रायः । तथा चाह भरतः ---
'बाहुल्यमृषभस्यात्र तच मन्द्रगतं स्मृतम् '
इति । ताल: पूर्वावदति । पूर्वावदान्प्रयामिव तालश्चच्चत्पुटः । द्विगुणाः कला इति । पूर्वाsपेक्षया द्विगुणाः । पूर्वस्यां कलाः षोडश ; अस्यां तु द्वात्रिंशत्कला भवन्तीत्यर्थः । एतेन चच्चत्पुटस्य दक्षिणमार्गे चतुरावृत्तिरुक्ता भवति । अन्यत्सुगमम् । माध्यमग्रामिकशुद्धस्वरमेलने प्रथमकलायां
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२६८ संगीतरत्नाकरः
[जातिमध्ये गाश्चत्वारः; पौ द्वौ ; धपावेकः ; म एकः; एवमष्टौ लघवः । सौ, इति प्रथमः ; शेषाः परे (१) द्वितीयस्यां मध्ये धाः पञ्च ; निरेकः; सनिनय एकः ; ध एकः ; एवमष्टौ लघवः । शेषाः सर्वे (२)। तृतीयस्यां मन्द्रे पा अष्टौ लघवः । म्यमिति प्रथमः पः ; शेषाः परे (३) । चतुर्थी मन्द्रे धनिमपाश्चत्वारः ; गाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । वेदाङ्गवेदेत्यक्षराणि ; द्वितीयचतुर्थसप्तमाः शेषाः (४) । पञ्चम्यां मध्ये मरी द्वौ ; गाः पट ; एवमष्टौ लघवः । करकमलयोनिमित्यक्षराणि ; सप्तमः शेषः (५) । षष्ठयां मध्ये मौ द्वौ ; पौ द्वौ ; ध एकः ; निधावेकः ; पौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । तमोरजोविवेत्यक्षराणि ; सप्तमादयः शेषाः (६)। सप्तम्यां मध्ये धनिमपाश्चत्वारः ; गाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । जितमिति धनी; तृतीयादयः शेषाः (७) । अष्टम्यां मध्ये गमावेकः ; पास्त्रयः; मौ द्वौ ; गौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । हरमिति गमौ ; शेषाः परे (८) । नवम्यां सप्तम्युक्ताः स्वराः । भवहरकमलगृ, इत्यक्षराणि (९) । दशम्यां मध्ये मा अष्टौ लघवः । हमिति प्रथमः ; शेषाः परे (१०) । एकादश्यां मध्ये रिगमपाश्चत्वारः ; पमावेकः ; पो द्वौ ; निरेकः ; एवमष्टौ लघवः । शिवं शान्तं संनीत्यक्षराणि : चतुर्थषष्ठाप्टमाः शेषाः (११) । द्वादश्यां मन्द्र ऋषभाश्चत्वारः; पौ द्वौ ; मौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । वेशनमपूर्वमित्यक्षराणि ; द्वितीयसप्तमौ शेषौ (१२)। त्रयोदश्यां मन्द्रे धनी द्वौ; मध्यषड्जमन्द्रनिनय एकः ; ध एकः ; पाश्चत्वारः; एवमष्टौ लघवः । भूषणलीलमित्यक्षराणि ; तृतीयचतुर्थपञ्चमाष्टमदशमाः शेषाः (१३) चतुर्दश्यां मन्द्रे धनिमपाश्चत्वारः : गाश्चत्वारः; एवमष्टौ लघवः । उरगेशभोगेत्यक्षगणि; चतुर्थसप्तमौ शेषौ (१४)। पञ्चदश्यां मध्ये ग एकः ; पास्त्रयः ; धमगमाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । भासुरशुभपृथ्वित्यक्षराणि ;
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प्रकरणम् ७] प्रथम: स्वरगताध्यायः
२६९ द्वितीयः शेषः (१५) । पोडश्यां मध्ये धौ द्वौ ; निधौ द्वौ ; पाश्चत्वारः; एवमष्टो लघवः । लमिति प्रथमः; शेषाः परे (१६)। सप्तदश्यां मध्ये रिंगमपाश्चत्वारः ; पमावेकः ; पौ द्वौ ; निरकः ; एवमष्टौ लघवः । अचलपतिसून्वित्यक्षराणि : पष्ठनवमौ शेषौ (१७)। अष्टादश्यां मन्द्र ऋषभाश्चत्वारः ; पाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । करपङ्कजामेत्यक्षराणि ; चतुर्थसप्तमौ शेषौ (१८) । एकोनविंश्यां मध्ये पाश्चत्वारः ; ध एकः : मास्त्रयः । एवमष्टौ लघवः । लविलासकीलेत्यक्षराणि ; चतुर्थसप्तमौ गषी (१९.) । विश्यां मन्द्रे निपगास्त्रयः ; गमावेकः ; गाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । नविनोदमित्यक्षराणि ; चतुर्थपञ्चमौ सप्तमादयश्च शेषाः (२०)। एकविश्यां मन्द्रे री द्वौ ; गो द्वौ ; माश्चत्वारः; एवमष्टौ लघवः । स्फटिकमणिरजतेत्यक्षराणि (२१)। द्वाविंश्यां मध्ये निपनिमनिधपपा अष्टो लघवः । सितनवदुकूलत्यक्षराणि : सप्तमः शेषः (२२) । त्रयोविंश्यां तारे सौ द्वौ ; मध्ये धनी एकः ; ध एकः : पाश्चत्वारः : एवमष्टौ लघवः । क्षीरोदसागेत्यक्षराणि ; द्वितीयपञ्चमसप्तमाष्टमाः शेषाः (२३) । चतुर्विश्यां मध्ये मपमास्त्रयः ; परिगा एकः : गौ द्वौ; तारे सौ द्वौ ; एवमष्टों लघवः । रनिकाशमित्यक्षराणि-रनिकाभिर्मपमाः ; शमिति सप्तमः ; शेषा इतरे (२४)। पञ्चविंश्यां मध्ये री द्वौ ; गौ द्वौ : मौ द्वौ; पौ द्वौ ; एवमष्टौ लघवः । अजशिरःकपालेत्यक्षराणि : सप्तमः शेपः (२५)। षडिश्यां मध्य ऋषभास्त्रयः ; गमौ द्वौ ; रिगावेकः ; मौ द्वौ ; एवमष्टो लघवः । पृथुभाजनमित्यक्षराणि ; चतुर्थपञ्चमसप्तमनवमाः शेषाः (२६) । सप्तविंश्यां मध्ये मनिपनयश्चत्वारः ; गाश्चत्वारः; एवमष्टौ लघवः । वन्दे सुखदमित्यक्षराणि ; द्वितीयचतुर्थाष्टमाः शेषाः (२७) । अष्टाविंश्यां मध्ये ममपपधाः पञ्च ; धनी एकः ; निधावेकः ; म एकः ; एवमष्टौ लघवः ।
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२७० संगीतरत्नाकरः
[जातिहरदेहममलेत्यक्षराणि ; चतुर्थसप्तमनवमाः शेषाः (२८) । एकोनविंश्यां मध्ये धधसनिधनिपपा अष्टौ लघवः । मधुसूदनसु, इत्यक्षराणि ; चतुर्थसप्तमौ शेषौ (२९)। त्रिंश्यां तार ऋषभाश्चत्वारः ; मध्ये मधमाश्चत्वारः; एवमष्टौ लघवः । तेजोधिकसु, इत्यक्षराणि ; द्वितीयचतुर्थसप्तमाः शंषाः (३०)। एकत्रिंश्यां मध्ये निषादाश्चत्वारः ; धपममाश्चत्वारः ; एवमष्टौ लघवः । गतियोभिर्निषादास्त्रयः ; चतुर्थादयः शेषाः (३१) । द्वात्रिंश्यां मध्ये म एकः ; परिगा एकः ; गाः षट् ; एवमष्टौ लघवः । निमिति पञ्चमो गः ; शेषा इतरे (३२)।
सौम्यं वेदाङ्गवेदकरकमलयोनि तमोरजोविवर्जितं हरं
भवहरकमलगृहं शिवं शान्तं संनिवेशनमपूर्व
भूषणलीलमुरगेशभोगभासुरशुभपृथुलम् । अचलपतिसूनुकरपङ्कजामलविलासकीलनविनोदं
स्फटिकमणिरजतसितनवदुकूलक्षीरोदसागरनिकाशम् । अजशिरःकपालपृथुभाजनं वन्दे सुखदं
हरदेहममलमधुसूदनसुतेजोऽधिकसुगतियोनिम् ॥ इति नन्दयन्ती ॥ १९ ॥
इति संसर्गजा विकृतजातयः प्रातिस्विकांशेष्वेकैकांशेनैव पूर्णत्वे प्रस्तार्य दर्शिताः । एवं यथासंभवमंशावस्थाऽन्तरे ऽप्यंशान्तरैरपि लक्षणानुसारेणोह्यम् । तत्र
स्युादशकलाः षाड्जी धैवती षड्जमध्यमा । कैशिकी रक्तगांधारी षड्जोदीच्यवतीति षट् ॥ स्युः षोडशकलाश्चाष्टौ गांधारी च निषादिनी ।
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२७१
प्रकरणम् ७]
प्रथमः स्वरगताध्यायः अनुक्ताविह तालः स्यात्रिधैवैककलाऽऽदिकः । मार्गाः क्रमाच्चित्रवृत्तिदक्षिणा गीतयः पुनः ॥ ११० ॥ मागधी संभाविता च पृथुलेत्युदिताः क्रमात् । गांधारोदीच्यवा कार्मारवी गांधारपञ्चमी ॥ मध्यमोदीच्यवा चान्ध्री तथा स्यात्षड्जकैशिकी । तिम्रो ऽष्टकलिकाः पञ्चम्यार्षभी मध्यमा तथा । द्वात्रिंशत्कलिका चैका नन्दयन्ती प्रकीर्तिता ॥-१०७-१०९॥
(मु०) नन्दयती लक्षयति-नन्दयन्त्यामिति । नन्दयन्त्यां पञ्चमो उंशः। गांधारो ग्रहः। नन्वंशस्यैव ग्रहत्वं पूर्वमुक्तम् | मैवम् ; उत्सर्गमात्रं तदपोह्यते । मतान्तरे तु पञ्चमो ग्रह उक्तः । मन्द्रस्थानस्थर्षभस्य बहुलत्वम् । षड्जलोपात्षाडवम् । हृष्यका मूछना। चञ्चत्पुटस्ताल: । द्वात्रिंशत्कलाः । ध्रुवायां प्रथमप्रेक्षणे विनियोगः ॥ -१०७-१०९ ॥
(क०) पूर्वमेकस्मिन्नेव षाज्या लक्षणे · त्रिधा तालः पञ्चपाणिः' इत्यादिनैकतालादिपु तालभेदेषु चित्रादयस्त्रयो मार्गा मागध्यादयस्तिस्रो वृत्तयश्च क्रमेण योजनीया इत्युक्तम् । तथा केषुचिद्धैवत्यादीनां लक्षणेषु 'तालो मार्गश्च गीतयः । विनियोगश्च पाड्जीवत्' इति 'पाड्जीवद्गीतितालादिः' इति चातिदेशतो दर्शितम् । अन्येष्वार्षभ्यादीनां लक्षणेषु तु 'तालश्चञ्चत्पुटो मतः । अष्टौ कला भवन्ति' इति — कलाः पोडश कीर्तिताः' इति च तालमात्रं कलासंख्यामात्रं चोक्तम् । तत्रैककलत्वादितालविशेषमार्गगीतीनामनुक्तिरेव । तत्र कथं प्रयोग इत्याकाङ्क्षायामाह-अनुक्ताविहेति । इह जातिलक्षणेषु, अनुक्तावेककलत्वादितालभेदमार्गगीतीनामनभिधाने ताललक्षणेषूक्तश्चच्चत्पुट: पञ्चपाणिर्वैककलाऽऽदिस्त्रिधैव स्यात् । एककलाऽऽदिक
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२७२
संगीतरत्नाकरः
[जातियोक्ता ऽस्माभिः कलासंख्या सा दक्षिणपथे स्थिता ॥ १११ ॥ वार्तिके द्विगुणा ज्ञेया सैव चित्रे चतुर्गुणा । सर्वजातिषु जानीयादंशस्वरगतं रसम् ॥ ११२ ॥
इति विधेयविशेषणम् । त्रिधैवेत्यादि षाड्ज्यामेव व्याख्यातं तत एवावगन्तव्यम् ॥ ११०, ११० ॥
(सु०) यत्र विशेषो नोक्तस्तत्र साधारणं लक्षणमाह-अनुक्ताविति । यत्र तालविशेषो नोक्तस्तत्रैककलो द्विकलश्चतुष्कलश्चचत्पुटो ज्ञातव्यः । मार्गाश्च क्रमेणैककलाऽऽदिषु चित्रवृत्तिदक्षिणाः । गीतयश्च मागधीसंभावितापृथुला: क्रमशः ॥ ११०, ११०- ॥
(क०) एवं तर्हि षाड्ज्यादिलक्षणेयूक्ता कलासंख्या तत्रोक्तेषु तालमार्गगीतिभेदेषु कतमभेदेत्याकाङ्क्षायामाह-योक्ता ऽस्माभिरिति । अस्माभिर्भरतमतानुसारिभिरस्मदादिभिरित्यर्थः । या कलासंख्या पञ्चपाणौ द्वादश, चच्चरपुटं कासुचिदष्टौ, कासुचित्पोडश, एकस्यां द्वात्रिंशदित्येवं. रूपोक्ता : पाड्ज्यादिलक्षणेप्विति शेषः : सा कलासंख्या दक्षिणपथे दक्षिणमार्गे स्थितेति ज्ञेया । एतेनानया मार्गविशेषाश्रयतया कलासंग्ख्याया अत्र चतुष्कलस्तालः पृथुला गीतिश्चेति तालगीतिविशेषावप्युक्तौ भवतः । प्रत्येकं त्रिविधस्य तालादित्रितयस्य गीतिलक्षणेपु मिथो यथासंख्य योजनादिहोक्तां कलासंज्ञां दक्षिणमार्गगतामुक्त्वा तस्या एव गातुरिच्छया मार्गान्तरप्रयोगप्रकारं दर्शयति-वार्तिक इत्यादिना। सैव मागोक्ता कलासंख्यैव वार्तिके मार्गे द्विगुणा ज्ञेया । पाड्ज्यां तावदक्षिणे द्वादशोक्ता वार्त्तिके चतुर्विंशतिर्भवतीत्यर्थः । अष्टलध्यात्मिका: कला हित्वा चतुर्लध्वात्मिकाः कलाः कर्तव्या इत्यभिप्रायः । सैवेति पुनरावृत्तिः । सा
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२७३
प्रकरणम् ७] प्रथमः स्वरगताध्यायः
दृश्यन्ते जन्यरागांशास्तज्ज्ञैर्जनकजातिषु । ब्रह्ममोक्तपदैः सम्यक्पागुक्ताः' शंकरस्तुतौ ॥ ११३ ॥ अपि ब्रह्महणं पापाजातयः प्रघुनन्त्यमूः । ऋचो यजूंषि सामानि क्रियन्ते नान्यथा यथा ।। ११४ ॥
तथा सामसमुद्भूता जातयो वेदसंमिताः । दक्षिणोक्ता कलासंख्यैव चित्रे मार्गे चतुर्गुणा ज्ञेया । षाड्ज्यां तावदष्टाचत्वारिंशत्कला भवन्तीत्यर्थः । भक्त्वा लघुद्वयात्मिका: कलाः कर्तव्या इत्यभिप्रायः । एतेनैव वार्तिके द्विकलस्तालः संभाविता गीतिः, चित्रे त्वेककलस्तालो मागधी गीतिरिति चोक्तं भवति । एवं जात्यन्तरेष्वप्यूहनीयम् । लक्षणेषु प्रत्येकं रसानामुक्तिगौरवमिति मत्वा सर्वासामपि लघूक्त्या रसयोगं दर्शयति--सर्वजातिष्विति । अंशस्वरगतं यस्यां जातौ यदा यो ऽशो भवति तस्याम् ‘सरी वीरे' इत्यादिनोक्तप्रकारेण तत्तदंशस्वरगतं रसं विजानीयात् । ज्ञात्वा तत्तद्रसाभिव्यञ्जकैः पदैर्गायदित्यर्थः ॥ -१११, ११२ ॥
__ (सु०) मार्गविशेषेण कलाविशेषं कथयति-योक्ता ऽस्माभिरिति । 'अष्टगुरुः कला' इति या कलासंख्योक्ता सा दक्षिणमार्गे । वर्तिके मार्गे षोडशगुरुः कला । चित्रे मार्गे द्वात्रिंशद्गुरुः कला । स्वराणां रसाः पूर्वमुक्ताः ‘सरी वीरे ऽद्भुते रौद्रे' इत्यादिना । यस्यां जातौ यो ऽशस्वरस्तदीयो रसस्तस्यां जातौ ज्ञातव्यः ॥ -१११, ११२ ॥
(क०) पूर्व षाड्मयादिषु कासुचिज्जातिषु विराटी दृश्यते' इत्यादिभिर्जन्यरागांशा दिङमात्रेण प्रदर्शिताः कासुचिन्न प्रदर्शिताः । तत्र सर्वत्रेदानीं संक्षेपेण रागांशान्दर्शयितुमाह-दृश्यन्त इति । जन्य
J.प्रयुक्ताः
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२७४
संगीतरत्नाकर:
[जातिप्रकरणम् ७ ]
रागांशाः, ग्रामरागादयो दशविधा अपि जातीनां साक्षात्परंपरया वा जन्यरागा एव तेषामंशा अवयवाः; तथा च वक्ष्यति --- ' रागान्तर - स्यावयवो रागांश:' इति । रागैकदेशा इत्यर्थः । जनकजातिषु साक्षात्परंपरया वा स्वेषां जनिकासु जातिषु तज्ज्ञै रागभेदविद्भिर्दृश्यन्त उद्भाव्यन्त इत्यर्थः । अथ यथाविधि जातिगानैरदृष्टफलातिशयं दर्शयति - ब्रह्मप्रोक्तेति । प्राक्पूर्व शंकरस्तुतौ शंकरस्तुतिं विषयीकृत्य ब्रह्मप्रोक्तपदैः, ब्रह्मणा चतुर्मुखेण प्रोक्तैर्ग्रथितैः पदैः 'तं भवललाट ' इत्यादिभिर्योजयित्वा सम्यगन्यूनान तिरेकेणोक्ता गीताश्चेदमू: पाड्ज्यादयो जातयो ब्रह्मणमपि ब्रह्मन्नमपि पुरुषं पापाद् ब्रह्महत्यारूपान्मोचयित्वा प्रपुनन्ति पूतं कुर्वन्ति । अ सम्यग्जातिगानस्य महापातकप्रायश्चित्तत्वमुक्तं भवति । एवं सामर्थ्य जातीनामुक्तनियमयुक्तानामृगादिमन्त्रसादृश्य हेतुत्वेनाभिसंधाय तासाम नियमप्रयोगं निषेधति - ऋच इति । ऋचो यजूंषि सामानि यथा ऽन्यथा न क्रियन्ते स्वरवर्णोच्चारणादिवैपरीत्येन न प्रयुज्यन्ते, तथा सामसमुद्भूताः सामभ्यः समुत्पन्ना अत एव वेदसंमिता वेदसदृशा जातयो ऽन्यथा न क्रियन्ते; स्वरपदतालादिवैपरीत्येन न प्रयोक्तव्या इत्यर्थः । एतेन विपरीत प्रयोगे प्रत्यवायः सूचितो भवति ॥ ११३ – ११४- ॥
( सु० ) दृश्यन्त इति । यासु जन्यजातिषु रागांशा नोक्तास्तासु तज्जनकजातिरागांशा ज्ञातव्याः । उक्ता जाती : स्तौति — ब्रह्मप्रोक्तपदैरिति । प्रस्तारोक्तानि पदानि शंकरस्तुतौ ब्रह्मप्रोक्तानि ; तैः पदैः सम्यग्लक्षणाव्यभिचारेण प्रयुक्ता जातयो ब्रह्महणं ब्रह्मन्नमपि पवित्रयन्ति, किमुतान्यपापिनमित्यर्थः । जातीनामन्यथाप्रयोगे दोषमाह - ऋच इति । वेदसमाना जातयस्ता असम्यक्प्र योगे दोषात्सम्यक्प्रोक्तव्या इत्यर्थः ॥ ११३ – ११४-॥
इति प्रथमे स्वरगताध्याये सप्तमं जातिप्रकरणम् ॥ ७ ॥
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प्रथमः स्वरगताध्याय
२७५
अथाष्टमं गीतिप्रकरणम्
शुद्धजातिसमुद्भूतकपालान्यधुना ब्रुवे । रागा जनकजातीनां तत्कपालेषु संमिताः ॥ १॥ पड्जो ग्रहो ऽशो ऽपन्यासो गो न्यासो ऽतिबहू गमों । अल्पा रिपनिधा लझ्यो रिः कला द्वादशोदिताः ॥ २ ॥ यस्मिन्पाइजीकपालं तद्गदितं गीतवेदिभिः । यत्रर्षभो ऽशो ऽपन्यासो मो ऽन्तो गनिपघाल्पता ॥ ३ ॥
(क०) अथोद्देशक्रमेण कपालानि लक्षयितुमादौ तदुत्पत्तिं दर्शयन्प्रतिजानीते---शुद्धजातीति । अधुना जातिस्वरूपनिरूपणानन्तरं शुद्धजातिसमुद्भूतकपालानि, शुद्धजातिभ्यः पाडज्यादिभ्यः सप्तभ्यः समुद्भूतानि कपालानि । एतेन संसर्गजजातिभ्यः कपालोत्पत्तिनेंत्युक्तं भवति । ननु जातित्याविशेपात्ताभ्यो ऽपि कपालोत्पत्तिः कुतो नेति चेत् ; उच्यते । संसर्गजा अपि शुद्धाभ्यः समुत्पन्नाः । कपालान्यपि ताभ्य एव । उभयेषामप्येककारणादव्यवधानोत्पन्नत्वस्याविशिष्टत्वात्संसर्गजानां कपालजातीयं प्रति कारणत्वायोगादिति कपालपरिज्ञानस्य दृष्टप्रयोजनं तावदर्शयतिरागा इति । जनकजातीनाम ; अत्र शुद्धजातयो जनकत्वेन विवक्षिताः; तासां रागा जन्या रागाः, षड्जे पाड्जीसमुद्भूतं श्रीरागम्' इत्यादिना वक्ष्यमाणप्रकारेण श्रीरागादयो रागाः : तत्कपालेषु तासां षाड्ज्यादीनां कपालेषु संमिताः सदृशाकाराः प्रतीयन्ते । रागस्वरूपपरिज्ञानमत्र प्रयोजनमित्यर्थः । यथा घटैकदेशत्वेन कपालानि घटप्रतीतिजनकान्येवमेतान्यपि गगैकदेशत्वेन रागप्रतीतिजननात्कपालानीव कपालानीति तेषां संज्ञा ऽव
1 मार्गवेदिभिः
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२७६
संगीतरत्नाकरः
[गीतिसो ऽत्यल्पो ऽष्टकलं तत्स्याकपालं त्वार्षभीगतम् । मध्यमो' शो ग्रहो न्यासो ऽपन्यासो धैवतो बहुः ॥४॥ यत्राल्पाः सरिगा लोपाद्रिपयोरौडवं भवेत् । तद्गांधारीकपालं स्यात्कलाऽष्टकविनिर्मितम् ॥ ५ ॥ मध्यमो ऽशो निरिगपाः स्वल्पा यत्र कला नव । तन्मध्यमाकपालं स्यादिति निःशङ्कसंमतम् ।। ६ ॥ ऋषभांशं सग्रहं च निधषड्जगमाल्पकम् । कपालं पञ्चमीजातिजातमष्टकलं विदुः ॥ ७॥ अत्यल्पर्षभगांधारं पन्यासं मधभूरि च । षाज्या इव कपालं तदैवत्याः सकलाऽष्टकम् ॥ ८॥ ग्रहांशन्यासषड्ज च रिंगाल्पमतिभूरिभिः । निधमैरष्टकलकं स्यानपादीकपालकम् ॥ ९॥ इति सप्त कपालानि गायन्ब्रह्मोदितैः पदैः । स्वरैश्च पार्वतीकान्तस्तुतौ कल्याणभाग्भवेत् ॥ १० ॥
गन्तव्या । अथ वा, पुरा भिक्षाऽटनसमये शंभुना षाज्यादिषु गीयमानासु निरतिशयरसाभिव्यक्त्या रसात्मिकायां तन्मौलिगतचन्द्रकलायां च सवन्त्यां तदमृतरससिक्तानि तद्भूषणब्रह्मकपालानि तदा सजीवानि तद्नानमनुकृत्यागायन्किल । अतः कपालगीतत्वात्कपालसंज्ञानीत्यैतिह्यम् । षाड्जीकपालादिलक्षणानि स्पष्टार्थानि । एतेषां जातिभ्यः स्वरूपभेदस्तु न्यासादिभेदाद् द्रष्टव्यः । उच्यमाननियमेन कपालानां गातुरदृष्टफलयोगं चाहइति सप्त कपालानीति ॥ १-१०॥
'गांधारो.
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प्रकरणम् ८]
प्रथमः स्वरगताध्यायः यत्र ग्रहो शो ऽपन्यासः पञ्चमो बहुलस्तु रिः ।
सो न्यासो मधगांधारास्त्वल्पास्तत्कम्बलं मतम् ॥ ११ ॥
(सु०) 'कपालानि च कम्बलम् । नानाविधा गीतयश्च०' इति पदार्थसंग्रहोक्तवस्तुक्रमानुरोधादुपयोगित्वेनोद्देशक्रममनुल्लड़्यादौ कपालानि नि. रूपयितुमाह-शुद्धजातीति । यस्या जातेयत्कपालं समुत्पन्नं तजातिरागा एव तस्मिन्कपाले ज्ञातव्याः ॥ १ ॥ षाड्जीकपालं लक्षयति-षड्ज इति । यस्मिन्षड्जस्वर एव ग्रहश्वांशश्वापन्यासश्च, गांधारो न्यासः, गांधारमध्यमयोरतिबाहुल्यम् , ऋषभपञ्चमनिषादधेवतानामल्पत्वम , ऋषभस्य लङ्घनमीषत्स्पर्शः, द्वादश कलाः, तत्षाड्जीकपालं भरतादिभिर्गदितम् ॥ २, २- ॥ आषभीकपालं लक्षयति—यत्रेति । यत्रर्षभो ऽशो ऽपन्यासश्च, मध्यमो न्यासः, परंतु गांधारनिषादपञ्चमधैवता अल्पाः, षड्जो ऽत्यल्पः, अष्टौ कला:, तदार्षभीकपालम् ॥ -३, ३-॥ गांधारीकपालं लक्षयति-मध्यमो इंश इति । यत्र मध्यमो ऽशस्वरो ग्रहो न्यासो ऽपन्यासश्च, धैवतस्य बाहुल्यम्, षड्जर्षभगांधारपश्चमा अल्पाः , ऋषभपञ्चमलोपादौडुवम्, अष्टौ कला:, तद् गांधारीकपालम् ॥ -४, ५ ॥ मध्यमाकपालं लक्षयति-मध्यमो इंश इति । यत्र मध्यमो ऽशस्वरः, निषादर्षभगांधारपञ्चमाः स्वल्पाः, नव कला:, तन्मध्यमाकपालम् ॥ ६ ॥ पञ्चमीकपालं लक्षयति-ऋषभांशमिति । यत्र ऋषभो ऽशस्वरः, षड्जो ग्रहः, निषादधैवतषड्जगांधारमध्यमा अल्पाः, अष्टौ कलाः, तत्पञ्चमीकपालम् ॥ ७ ॥ धैवतीकपालं लक्षयति-अत्यल्पेति । यत्रर्षभगांधारावत्यल्पो, पञ्चमो न्यासः, मध्यमवतयोबहुत्वम् , अष्टौ कला:, अन्यत्षाजीकपालवत, तत्तु धैवतीकपालम् ॥ ८ ॥ नैषादीकपालं लक्षयति-प्रहांशेति । यत्र षड्जो ग्रहो ऽशो न्यासश्च, ऋषभगांधारयोरल्पत्वम् , निषादधैवतमध्यमा अतिबहुला:, अष्टौ कलाः, तन्नषादीकपालम् ॥ ९ ॥ कपालगाने फलमाह-इतीति । इति ब्रह्मप्रोक्तैर्जातिप्रस्तारे कथितैः पदैरुक्तैः स्वरश्च सप्त कपालानि गायन्कल्याणं भजते ॥ १० ॥ इति कपाललक्षणम् ।।
(क०) अथ यथोद्देशक्रमं कम्बलं लक्षयित्वा तस्योत्पत्तिं तद्भेदबाहुल्यं च प्रदर्श्य तद्गानस्य फलमाह-यत्र ग्रहो ऽशो ऽपन्यास इत्यादिना ।
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२७८ संगीतरत्नाकरः
[गीतिपञ्चमीजातिसंजातमल्पताबहुतावशात् । स्वराणां बहवो भेदास्तस्य पूर्वैरुदीरिताः ॥ १२ ॥ प्रीतः कम्बलगानेन कम्बलाय वरं ददो। पुरा पुरारिरद्यापि प्रीयते तैरतः शिवः ।। १३ ।। कपालानां क्रमाद् ब्रूमो ब्रह्मप्रोक्तां पदावलीम् ।
झण्टुं झण्टुं ॥१॥ खदाङ्गधरं ॥ २ ॥ दंष्ट्राकरालं ।। ३ ।। तडित्सदृशजिदं ॥ ४ ॥ हो हो हो हो हो हो हो हौ ॥ ५ ॥ बहुरूपवदनं घनघोरनादं ॥ ६॥ हो हो हो हो हो हो हो हो ।॥ ७ ॥ ॐ ॐ हां रौं हौं हौं हौं हौं ॥ ८ ॥ नृमुण्डमण्डितम् ॥ ९॥ हूं हूं कह कह हूं हूं ॥ १० ॥ कृतविकटमुखम् ॥ ११ ॥ नमामि देवं भैरवम् ॥ १२ ॥ इति पाइजीकपालपदानि ॥१॥ निगदव्याख्यातमेतत् । कम्बलनाम्ना खण्डपरशुकर्णकुण्डलेन कुण्डलीन्द्रेण गीतत्वादस्य कम्बलसंज्ञा ॥ ११ - १३ ॥
(सु०) कम्बलं निरूपयति-योति । यत्र पञ्चमो ग्रहो ऽशो ऽपन्यासश्च, ऋषभस्य बाहुल्यम् , षड्जो न्यासः, मध्यमवतगांधाराणामल्पत्वम् , तत्पञ्चमीजातेः समुत्पन्नं कम्बलमित्युच्यते । तस्य कम्बलस्य स्वराणामल्पत्वेन बहुत्वेन च बहवो भेदा भरतादिभिः पूर्वाचार्यैरुदीरिताः; ते तत्तद्ग्रन्थेषु विलोकनीयाः । इह तु ग्रन्थविस्तरभयानोच्यन्त इत्यर्थः । कम्बलशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं कम्बलगानस्य फलं च कथयति-प्रीत इति । यस्मात्कम्बलो नागो गीतवांस्तस्मात्कम्बलगानमित्यभिधीयते । ईश्वरः प्रीयते । तत्प्रीत्या च सकलपुरुषार्थसिद्धिः फलम् ॥ ११-~१३ ॥ इति कम्बललक्षणम् ॥
(क०) 'गायन्ब्रमोदितैः पदैः' इति कपालगाननियमे प्रसक्तानां ब्रह्मोदितपदानां स्वरूपं हुमादिस्तोभाक्षरसहितं तत्तत्कपालोक्तकलासंख्यावि
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प्रकरणम् ८]
प्रथमः स्वागताध्यायः
२७९ झण्टुं झण्टुं खट्वाङ्गधरम् ।। १ ।। दंष्ट्राकरालम् ॥ २ ॥ तडित्सदृशजितम् ॥ ३ ॥ हो हो हो हो हो हो हो हौ ॥ ४ ॥ वरसुरभिकुसुम ॥ ५ ॥ चर्चितगात्रम् ॥ ६॥ कपालहस्तम् ॥ ७॥ नमामि देवम् ॥ ८ ॥ इत्यार्पभीकपालपदानि ॥२॥
चलत्तरङ्ग ॥१॥ भगुरम् ।। २ ॥ अनेकरेणु ॥ ३ ॥ पिञ्जरं सु ॥ ४ ॥ रासुरैः सुसेवितं पु ॥ ५॥ नातु जाह्न ॥ ६ ॥ वीजलम् ।। ७ ।। मां विन्दुभिः ॥ ८ ॥ इति गांधारीकपालपदानि ॥३॥
शुलकपाल ॥ १॥ पाणित्रिपुरविनाशि ॥ २ ॥ शशाङ्कधारिणम् ॥ ३॥ त्रिनयनत्रिशूलम् ॥ ४ ॥ सततमुमया सहि ॥ ५॥ तं वरदम् ॥ ६॥ हो हो हो हो हो हो हो हो ॥ ७॥ हो हो हो हो हो हो हो हो ॥ ८॥ नौमि महादेवम् ।। ९ ।। इति मध्यमाकपालपदानि ॥४॥
जय विषमनयन ॥ १॥ मदनतनुदहन ॥ २॥ वरवृषभगमन ॥ ३ ॥ त्रिपुरदहन ॥ ४॥ नतसकलभुवन ॥ ५॥ सितकमलवदन ॥ ६ ॥ भव मे भयहरण ॥ ७॥ भव शरणम् ॥ ८ ॥ इति पञ्चमीकपालपदानि ॥ ५ ॥
अग्निज्वाला ॥१॥ शिखावली ॥२॥ मांसशोणित ॥ ३ ॥ भोजिनि ॥४॥ सर्वाहारि ॥ ५॥णि निर्मासे ॥६॥ चर्ममुण्डे ॥७॥ नमो ऽस्तु ते ॥ ८ ॥ इति धैवतीकपालपदानि ॥ ६ ॥॥
सरसगजचर्मपटम् ॥१॥ भीमभुजंगमानद्धजटम् ॥ २॥ कहकहहुंकृतिविकृतमुखम् ॥३॥ नम तं शिवं हरमजितम् ॥४॥ चण्डतुण्डमजेयम् ।। ५ ।। कपालमण्डितमुकुटम् ॥ ६ ॥ कामदर्पविध्वं
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२८० संगीतरत्नाकरः
[गीतिसकरम् ॥ ७॥ नम तं हरं परमशिवम् ॥ ८॥ इति नैषादीकपालपदानि ॥ ७ ॥ इति सप्त कपालपदानि ।।
वर्णाद्यलंकृता गानक्रिया पदलयान्विता ।। १४ ।। गीतिरित्युच्यते सा च बुधैरुक्ता चतुर्विधा । मागधी प्रथमा ज्ञेया द्वितीया चार्धमागधी ॥ १५ ॥ संभाविता च पृथुलेत्येतासां लक्ष्म चक्ष्महे । गीत्वा कलायामाद्यायां विलम्बितलयं पदम् ॥ १६ ।। द्वितीयायां मध्यलयं तत्पदान्तरसंयुतम् । सतृतीयपदे ते च तृतीयस्यां द्रुते लये ॥ १७ ॥
इति त्रिरावृत्तपदां मागधीं जगदुर्बुधाः । भागेन दर्शयितुमाह-कपालानां क्रमाद ब्रूम इत्यादिना । तेषां स्वरयोजना तत्तल्लक्ष गानुसारेणोन्नेया ॥ १३ ॥
(सु०) कपालपदानि प्रतिज्ञाय कथयति-कपालानामिति । कपालपदेषु न व्याख्येयमस्ति किंचित् ॥ १३ ॥
(क०) अथ जात्युपयोगिनी गीति सामान्यविशेषाभ्यां दर्शयतिवर्णालंकृतेत्यदिना। वर्णद्यलंकृता; वर्णाः स्थाय्यादयश्चत्वारः ; आदिशब्देनालंकारा गृह्यन्ते ; ते च प्रसन्नादयस्त्रिषष्टिः ; प्रागुक्तलक्षणैस्तैर्वर्णादिभिरलंकृता भूषिता; ये वर्णा ये ऽलंकाराश्चोदितास्तैर्युक्तेत्यर्थः । पदलयान्विता; पदानि सुप्तिङन्तानि ; लया विलम्बितमध्यद्रुतास्त्रयो वक्ष्यमाणलक्षणाः; पदैश्च यथायोगं लयैश्वान्विता । एवं विशिष्टा गानक्रिया गीतिरित्युच्यत इति सामान्यलक्षणम् । तद्विशेषांश्चतुर्धा विभजते-सा
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प्रकरणम् ८]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
२८१
यथा
मा
गा
मा
धा
धनि धनि सनि धा दे वं रु रिंग रिंग मग रिस देवं रुद्रं वं दे
चेत्यादिना । ताः क्रमेण लक्षयितुमाह--एतासामिति । मागधीं लक्षयति-गीत्वेत्यादिना । उदाहरणार्थ तावच्चतुर्मात्रिकाः कलाः कल्पनीयाः । तत्राद्यायां विलम्बितलयं विवक्षितकलाचतुर्गुणितविश्रान्तिकालं पदम् । अत्र देवमित्यक्षरद्वयात्मकं पदं गीत्वैकैकाक्षरे मात्राद्वयमितं गीत्वा द्वितीयस्यां कलायां मध्यलयं द्विगुणविश्रान्तिकालं पदान्तरसंयुतं रुद्रमिति पदान्तरेण युक्तं तत्प्रथमकलागीतं देवमिति पदं गीत्वेत्यनुपञ्जनीयम् । गीत्वा देवं रुद्रमिति पदद्वयं द्विस्वरात्मिकयैकस्वरात्मिकया वा मितैकैकाक्षरं गायेदित्यर्थः । तृतीयस्यां कलायां द्रुते लये विलम्बितमध्यापेक्षया शीघ्रतमायां क्रियाविश्रान्तौ सतृतीयपदे वन्द इति तृतीयपदसहिते ते च द्वितीयकलागीते देवं रुद्रमिति पदे । चकारादत्रापि गायेदित्यनुषङ्गः । अस्यां कलायां प्रथममात्रया देवमिति द्वितीयया रुद्रमिति तृतीयया वमिति चतुझं दे इति योजयित्वा गायेदित्यर्थः । इत्युक्तप्रकारेण त्रिरावृत्तपदां कलात्रये देवमिति पदस्य त्रिरावृत्तत्वात्निरावृत्तपदाम् ; गीतिमित्यध्याहर्तव्यम् ; बुधाः संगीतशास्त्रज्ञा मागधी जगदुः । अत्र लिखितोदाहरणादन्यत्राप्येवमेवोहनीयम् । अस्या मगधदेशोद्भवत्वान्म।गधीति निरुक्तिर्मतङ्गोक्ता ॥ -१४-१७- ॥
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२८२
[गीति
संगीतरत्नाकरः पूर्वयोः पदयोरर्धे चरमे द्विर्यदोदिते ॥ १८ ॥ तदा र्धमागधी पाहुः
यथा
मा
री
गा
सा
(सु०) जातिगीतानामुपयोग उक्तः । किंलक्षणास्ता गीतय इत्यपेक्षायामाह-वर्णाद्यलंकृतेति । वर्णाः स्थाय्यादयः, आदिना ऽलंकाराः प्रसन्नादयश्च, तैर्भूषिता । पदलयान्विता, पदं प्रसिद्धम् ; लयो द्रुतमध्यविलम्बिताख्यस्तालावान्तरकालस्तालाध्याये वक्ष्यमाणः, ताभ्यामन्विता गानक्रिया गीतिरित्युच्यते । सा चतुर्विधा-मागध्यर्धमागधी संभाविता पृथुलेति । तत्र मागध्या लक्षणं कथयति-गीत्वेति । आद्यायां कलायां विलम्बितलयेन पदं गायेत् । द्वितीयकलायां तदेव पदं पदान्तरेण संयुतं मध्यलयेन गायेत् । तृतीयस्यां तु कलायां ते द्वे पदे तृतीयपदसहिते द्रुतलयेन गायेत् । एवं त्रिरावृत्तपदा त्रिकलां मागधी बुधा गीतविशारदा जगदुरवादिषुः । देवमिति विलम्बितलयेन गीत्वा द्वितीयकलायां तदेव देवपदं रुद्रपदेन सहितं देवं रुद्रमिति मध्यलयेन गीयते । तृतीयकलायां देवं रुद्रमिति पदद्वयं वन्द इति पदान्तरेण सहितं देवं रुदं वन्द इति द्रुतलयेन गीयते ॥ -१४-१७- ॥
(क०) अर्धमागधी लक्षयति-पूर्वयोरिति । उक्तेषु त्रिषु पदेषु पूर्वयोः पदयोर्देवं रुद्रमित्येतयोश्चरमे ऽर्धे, देवंपदस्य चरममधे वमिति ; रुद्रंपदस्य चरममधे द्रमिति ; ते वं दं इत्युभे अर्धे यदा द्विरेव द्वयम् , उदिते उच्चारिते भवतस्तदा ऽर्धमागधीं प्राहुः । अयमर्थः-प्रथमकलायां मागध्युक्तप्रकारेण देवमिति पदमुच्चार्य द्वितीयायां वं रुद्रमित्युच्चारयत ।
। पूर्वयोः पदयोरर्ध चरमं द्विर्यदोच्यते.
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प्रकरणम् ८]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
२८३
नी
NA.
सा सा धा वं रु द्रं पा धा पा
मा
द्विरावृत्तपदां परे।
यथा
मा
मा
मा
FFE
सा
धा
नी
पा निध मा
मा
ततस्तृतीयायां द्रं वन्दे इत्युच्चारयेत् । एवं पूर्वपदद्वयचरमार्धयोर्द्विरावृत्तिर्भवतीति । द्विरावृत्तपदां पर इति । पर आचार्या द्विरावृत्तपदां प्रथमकलायामुक्तस्य देवमिति पदस्य द्वितीयकलायां देवं रुद्रमिति द्विरावृत्तिस्तृतीयायां रुद्रं वन्द इति रुद्रंपदस्य द्विरावृत्तिः । एवं द्विरावृत्तपदामर्धमागधी प्राहुः । मतङ्गस्त्वेनां मागधीभेदत्वेनाह । यथा- 'अन्ये तु द्विनिवृत्तां मागधी पठन्ति' इति । अथो अर्धमागध्या मागध्यन्तर्भूतत्वात्वचिन्मागधीस्थाने ऽर्धमागधीप्रयोगो ऽपि संमत एव । अत्र पदावृत्त्या पुनरुक्तिदोषं पदार्धभागेनानर्थकत्वं वा ऽऽशङ्कय मतङ्गेन परिहृतं यथा'सामवेदे गीतप्रधान आवृत्तिप्वर्था नाद्रियन्ते ' इति । तथा वेदेनैवोदाहृतं च-उदुत्यं जातवेदसम्' इत्यत्र वेदशब्दपर्यन्तमावृत्तिपरंपरया गीत्वा
। द्विरावृत्तपदान्तरे.
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२८४
[गीति
संगीतरत्नाकरः संक्षेपितपदा भूरिगुरु: संभाविता मता ।। १९ ।।
यथा
मा रि ग भक्त्या
धा
नी
मा
मा
जातवेदसमिति गीयते ; पदखण्डनादर्थभङ्गो न भवत्यत्रापीति । अतः सामवेदप्रकृतिके संगीते गानवशात्वचित्पदानां पुनरुक्तिर|क्तिश्च न दोषायेति मन्तव्यम् || -१८, १८- ॥
(सु०) अर्धमागधी लक्षयति-पूर्वयोरिति । पूर्वयोः पदयोश्वरममन्तिममर्धं यदा द्विरुच्यते, यथा प्रथमकलायां देवमिति पदं गीत्वा द्वितीयकलायां प्रथमपदान्यार्धेन वमित्यक्षरेण सह रुद्रमिति पदम् , अर्थाद्वं रुद्रमिति गीयते, तृतीयकलायां द्वितीयपदान्त्यार्धेन द्रमित्यक्षरेण सह वन्द इति पदं गीयते । अत्रापि कलात्रये विलम्बितमध्यद्रुतलया ज्ञातव्याः ॥ -१८, १८- ॥
(क) संभावितां लक्षयति—संक्षेपितपदेति । संक्षेपितानि पदानि यस्यां सा तथोक्ता । अत्र प्रतिकलं यावत्स्वरमक्षरप्रयोगः पदानां विस्तरः, तत्संकोचः संक्षेपः । संक्षेपशव्दात् 'तत्करोति--' इत्यादिना निष्ठायां संक्षेपितेति रूपम् । एतेन कलागतस्वरेषु कतिपयानामेवाक्षरयोगः कर्तव्य इत्युक्तं भवति । भूरिगुरुः, भूरीणि प्रचुराणि गुर्वक्षराणि
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प्रकरणम ८] प्रथमः स्वरगताध्यायः
भूरिलध्वक्षरपदा पृथुला संमता सताम् । यथा
मा गा री गा
सु र न त यस्यां सा। तेन कचिद्विरललध्वक्षरप्रयोगो ऽप्यङ्गीकृतो भवति । तथा चतुर्मात्रिकासु कलासु प्रथमकलागतपञ्चस्वराणां प्रथमं युक्तपरतया गुरुणा भकारेण तृतीयस्वरं क्त्येति गुरुणा योजयित्वेतरत्स्वरद्वयं तच्छेषत्वेन गायेत् । द्वितीयकलागतचतुःस्वराणां प्रथमतृतीयौ देवमिति गुर्वक्षराभ्याम् , तथा तृतीयकलागतचतुःस्वराणां च प्रथमतृतीयौ रुद्रमित्यक्षराभ्याम् , तथा चतुर्थकलागतचतुःस्वराणां प्रथमतृतीयौ वन्द इत्यक्षराभ्यां च योजयित्वेतरस्वरांस्तत्तदक्षरशेषतया गायेत् । भक्त्या देवं रुद्रं वन्दे, इति संक्षेपितानि पदानि । एवं लिखितोदाहरणादन्यत्राप्यूह्यम् । कलास्वरविशेषास्तु यां कांचिजातिमाश्रित्य तत्तत्कलागताः प्रयोक्तव्याः । एवं गीयमाना गीतिः संभाविता मता। 'संक्षिप्तता संभाव्यते पदानां यत्र सा संभाविता' इति निरुक्तिर्मतङ्गोक्ता || -१९ ॥
(सु०) संभावितां लक्षयति-द्विरावृत्तेति । द्विरावृत्ते पदान्तरे यस्यां सा संक्षेपितपदा बहुगुरुयुता संभाविता गीतिः। प्रथमकलायां चत्वारि पदानि गीत्वा भक्त्या देवं रुद्रं वन्द इति, द्वितीयकलायां मध्यस्थं पदद्वयं द्विर्गीयते देवं देवं रुद्रं रुद्रमिति, तृतीयकलायां प्रथमकलावद् भक्त्या देवं रुद्रं वन्द इति || -१९॥
(क०) पृथुलां लक्षयति---भूरिलघ्वक्षरपदेति । स्पष्टो ऽर्थः । सुरनतहरपदयुगलं प्रणमतेति कलाचतुष्टयपदाभिप्रायेण प्रतिस्वरं प्रयुक्ताक्षराणि 'भूयस्त्वात्पदग्रामस्य पृथुलेत्युक्ता' इति मतङ्गोक्ता निरुक्तिः ॥ १९ ॥
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२८६
संगीतरत्नाकरः
[गीति
सा धनि
धा
धा
धा सा धा नी
पा निधप मा मा
प्र ण म त यद्वा यथाऽक्षरे युग्मे गुर्वोः प्रथमयोर्यदा ।। २० ॥ एकैकं चित्रमार्गादि प्रयुज्य चगणात्मकम् । मात्राभिरष्टभिर्युक्तं दक्षिणे ध्रुवकाऽऽदिभिः ॥ २१ ॥ प्रयुज्यते तदा गीतिर्मागधीत्यभिधीयते ।
(सु.) पृथुलां लक्षयति-भूरिलघ्वक्षरपदेति । लघून्यक्षराणि लघ्वक्षराणि बहूनि यस्याम् , अन्यलक्षणं संभावितावत् ; सा पृथुला । यथा सुरनतहरपदयुगलं प्रणमतेति पदचतुष्टयं प्रथमकलायां गीत्वा द्वितीयकलायां मध्यमपदयोरािवृत्तिः, तृतीयकला पूर्वकलावत् । इयं पृथुला मतान्तरेण ॥ १९ ॥
(क०) एवं पदाश्रितत्वेन गीतीर्लक्षयित्वा तालाश्रितत्वेनाप्येता लक्षयति- यद्वेत्यादिना । यथाऽक्षरे गुरुद्वयलघुप्लुतात्मके युग्मे चच्चत्पुटे प्रथमयोः प्रथमद्वितीययोर्गोंर्द्विमात्रिकयोर्मध्य एकैकं गुरुं चित्रमार्गार्ह स्वत एव मात्राद्वयात्मकत्वाच्चित्रमार्गप्रयोगयोग्यं प्रयुज्य ध्रुवकापतितायुक्तं कृत्वा ततश्चगणात्मकम् ; चगणश्चतुर्मात्रिको मात्रागणविशेषः ; तथा च वक्ष्यति'तद्गणाश्छपचास्तदौ' इति ; स चगण आत्मा यस्य तत्तथोक्तम् ; प्रयुज्येत्यावर्तनीयम् ; चगणात्मकं प्रयुज्य द्विकलीकृत्य चतुर्मात्राऽऽत्मकमेकैकं गुरुं वार्तिकमार्गाश्रयणाद् ध्रुवकासर्पिणीपताकापतिताऽऽरव्याभिः करक्रि
1चगणान्वितम्.
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प्रकरणम् ८]
प्रथमः स्वरगताध्यायः तृतीयं लघु युग्मस्य च्छगणार्धयुतं यदा ॥ २२ ॥ आधाभ्यामन्तिमाभ्यां च मात्राभ्यां संप्रयुज्यते ।
ततः प्लुतं सार्धगणयुक्तं कृत्वा प्रयुज्यते ॥ २३ ॥ याभिः प्रत्येकं प्रयोक्तव्यमित्यर्थः । ततो दक्षिणे दक्षिणमार्गे ध्रुवकाऽऽदिभिः, ध्रुवकासर्पिणीकृष्यापद्मिनीविसर्जिताविक्षिप्तापताकापतिताऽऽख्याभिर्वक्ष्यमाणलक्षणाभिरष्टभिर्मात्राभिः ; अत्रोपाध्युपाधिमतोरभेदोपचारादू ध्रुवकाऽऽदीनां मात्राव्यवहारो द्रष्टव्यः ; ताभिर्युक्तमेकैकं गुरुं प्रत्येकं चतुष्कलीकृत्येत्यर्थः ; यदा प्रयुज्यत इति संवन्धः । एवं यदा प्रयुज्यते तदा मागधी गीतिरित्यभिधीयते । गुरुद्वयस्य त्रिरावृत्तत्वादित्यभिप्रायः ॥ -२०-२१- ॥
(सु०) अन्यथैतासां गीतीनां लक्षणमाह-यद्वेति । यथाऽक्षरे युग्मे चच्चत्पुटे प्रथमयोYोरेकैकं गुरुं चित्रमार्गयोग्यं प्रयुज्य चगणेनान्वितम् | 'तद्गणाश्छपचास्ती' इति गणान्प्रबन्धाध्याये वक्ष्यति । ध्रुवकाऽऽदिभिः 'ध्रुवका सर्पिणी कृष्या पद्मिनी च विसर्जिता । विक्षिप्ताऽऽख्या पताका च मात्रा स्यात्पतिता ऽष्टमी ॥' इति तालाध्याये वक्ष्यमाणाभिरष्टभिर्मात्राभिर्युक्तं तदेव चचत्पुटस्याद्यं गुरुद्वयं दक्षिणे मार्गे यदा प्रयुज्यते, तदा मागधी गीतिः ।। -२०-२१-॥
___ (क०) अथार्धमागधी लक्षयति-तृतीयमिति । युग्मस्य चच्चत्पुटस्य, यथाऽक्षरस्येति शेपः ; तृतीयं तालावयवत्वेन गुरुद्वयानन्तरगं लघु, छगणार्धयुतम् ; छगणः षण्मात्रिको मात्रागणविशेषः, तस्या मात्रात्रयम् , तेन युतम् , स्वेन सह चतुर्लध्वात्मकं कृतमित्यर्थः । आद्याभ्यां मात्राभ्यां ध्रुवकासर्पिणीभ्याम् , अन्तिमाभ्यां च, पताकापतिताभ्यां चेत्यर्थः ; एवं यदा संप्रयुज्यते, ततो ऽनन्तरं प्लुतं चच्चत्पुटान्तिमावयवं प्लुतं सार्धगणयुक्तम् । अत्र सामान्यगणशब्देन संनिहितश्छगणो गृह्यते ; अर्धशब्देन च तदर्ध गृह्यते । अर्धेन सहितः सार्धः, मात्रात्रयसहितो गण इत्यर्थः ।
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२८८
संगीतरत्नाकरः
[गीति
ध्रुवकाऽऽदिभिरष्टाभिर्द्विरुक्तान्त्यद्वयेन च । तदा ऽर्धमागधी ते द्वे तद्वत्तालान्तरेष्वपि ॥ २४ ॥ संभाविता भूरिगुरुकिले वार्त्तिके पथि । चतुष्कले भूरिलघुर्दक्षिणे पृथुला मता ।। २५ ।।
इति प्रथमे स्वरगताध्याये ऽष्टमं गीतिप्रकरणम् ॥ ८ ॥ इति श्रीमदनवद्यविद्याविनोदश्रीकरणाधिपतिश्रीसोढलदेवनन्दनिःशङ्कश्रीशार्ङ्गदेवविरचिते संगीतरत्नाकरे
स्वरगताध्यायः प्रथमः । नेन सार्धगणेन युक्तम् । छगणस्य षण्मात्राः, अर्धस्य तिस्रो मात्राः; एवं नवभिर्मात्राभिर्योगे त्रिमात्रिकस्य प्लुतस्य द्वादशमात्राऽऽत्मकत्वं भवति । प्लुतमेवंरूपं कृत्वा ध्रुवकाऽऽदिभिरष्टाभिः क्रमेण प्रयोगे सति, अवशिष्टं मात्राचतुष्टयम् ; द्विरुक्तान्त्यद्वयेन च, अन्त्ययोर्मात्रयोः पताकापतितयोर्द्वयोद्विरुक्तं द्विरावृत्तम् ; द्विरुक्तं च तदन्त्यद्वयं च, तेन च यदा प्रयुज्यते । अयमर्थः ---अवशिष्टं मात्राचतुष्टयं पताकापतितापताकापतिताभिः क्रमेण प्रयुज्यते चेत्तदा ऽर्धमागधीत्यभिधीयते । ते द्वे मागध्यर्धमागध्यौ तालान्तरेप्वपि पञ्चपाण्यादिप्वपि तद्वच्चञ्चत्पुटे यथा तथा योजनीये इत्यर्थः । संभावितापृथुलयोर्लक्ष्मणी स्पष्टार्थे । एता गीतयः षाज्यादिषु चित्रादिमार्गवशाद्यथास्वनियमं प्रयोक्तव्या इत्यवगन्तव्यम् ॥ -२२-२५ ॥
भूमौ स्वरगताख्यातः कल्लिनाथः सुधीः स्वयम् ।
इति स्वरगताध्यायं व्याख्यल्लक्षणलक्ष्यवित् ॥ इति श्रीमदभिनवभरताचार्यरायबयकारतोडरमल्ललक्ष्मणाचार्यनन्दनचतुरकल्लिनाथविरचिते संगीतरत्नाकरकलानिधौ प्रथमः
स्वरगताध्यायः ॥ १॥
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प्रकरणम् ८ ]
प्रथमः स्वरगताध्यायः
२८९
(सु० ) अर्धमागर्धी लक्षयति - तृतीयमिति । युग्मस्य चञ्चत्स्य तृतीयं लघु, छगणस्यार्धेन युतम् आद्याभ्यां ध्रुवका सर्पिणीभ्यां मात्राभ्यामन्तिमाभ्यां पताकापतिताभ्यां च प्रयुज्यते, ततश्चञ्चत्पुटस्य चतुर्थ प्लुतसंज्ञर्क सार्धगणयुक्तं छगणार्धेन युक्तं कृत्वा ध्रुवकाऽऽदिभिरष्टाभिर्मात्राभिः पताकापतिताभ्यां मात्राभ्यां द्विगुणाभ्यां च यदा प्रयुज्यते तदा ऽर्धमागधी । ते द्वे मागध्यर्धमागध्यौ यथा चच्चत्पुटे युक्ते तथा चाचपुटादितालान्तरेष्वपि ज्ञातव्ये । संभावितां लक्षयति-संभावितेति । द्विकले चञ्चत्पुटे वार्त्तिके पथि वार्त्तिकमार्गे बहुगुरुयुक्ता पूर्वोक्तनयेन संभाविता गीतिः । चतुष्कले दक्षिणे मार्गे बहुलघुयुक्ता पूर्वोक्तप्रकारेण पृथुला गीतिज्ञेया ॥ - २२ - २५ ॥ इति गीतिलक्षणम् ॥ ८ ॥
इति श्रीमदन्धमण्डलाधीश्वरप्रतिगण्ड भैरवश्रीअनपोत नरेन्द्रनन्दनभुजबलभीमश्रीसिंहभूपालविरचितायां संगीतरत्नाकरटीकायां सुधाकराख्यायां स्वरगताध्यायः समाप्तः ।
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अनुबन्धः
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० ६ रजनी कक ७ रतिका
८ रौद्री
९ क्रोधा
०
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०
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••
•
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श्रुतिवीणास्वरग्रामबोधिनी
11
१ तीमा
२ कुमुद्वती
३ मन्दा
मृदु:
४ छन्दोवती मध्या षड्जः
५ दयावती
करुणा
मध्या
८
० १० वज्रिका
• ११ प्रसारिणी
• १२ प्रीतिः
१३ मार्जनी
मृदुः
मध्या
40
• १६ संदीपनी आयता |
A १७ आलापिनी करुणा पश्चमः
करुणा
आयता
मध्या धैवतः दीप्ता
• • १५ रक्ता
• १४ क्षितिः
दीप्ता
आयता
• १८ मदन्ती
• १९ रोहिणी
२० रम्या
मृदुः ऋषभः | दीप्ता
| आयता गांधारः
दीप्ता
आयता
| कैशिक निषादः काकलिनिषादः
च्युतषड्जः
४ अच्युतषड्जः
३) विकृतर्षभः
२
मृदुः च्युतमध्यमः मध्या मध्यमः ४ अच्युतमध्यमः
४
साधारणगांधारः अन्तरर्गाचारः
०२१ उग्रा
c • २२ क्षोभिणी मध्या निषादः २
३) विकृतधैवतः
तद्गतश्रुतिसंख्या
षड्जग्राम:
૨)
२ स
विकृतपश्चमौ ३,
२
२ म
xffe
मध्यमग्रामः
गांधारग्राम:
प
स स
ग
नि
ध ध
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पप
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ग
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________________
२९४
संगीतरत्नाकरः
शुद्धविकृतस्तरपट्टिका
अस.
औन. कानि. चुस. अस.
शुनि. .. .....
-
--शुरि; चरि.
वर्धे ; शुधै.
शुप.४ त्रिप.३
कैप.४
शुम.४ च्युम.२ अम.२
केशिको निश्च्युतः षड्जो विकृतर्षभ एव च । षड्जग्रामे प्रयोक्तव्या मध्यमग्रामशत्रवः ॥ १॥ केवलं मध्यमग्रामे योज्यस्तु च्युतमध्यमः । साधारणोऽपि गांधारस्तथा विकृतपञ्चमौ ॥ २॥ विकृतो धैवतश्चैव शेषास्तूभयचारिणः । मिथ:सद्धावसापेक्षा मध्यमग्रामशत्रवः ॥३॥ साधारणस्तु गांधारस्तथा कैशिकपञ्चमः । च्युतश्च मध्यमस्तद्वन्मिथ: सहचरा: स्वराः ॥ ४ ॥ मिथ:सद्भावसापेक्षौ काकलिन्यच्युताख्यसौ । तद्वदन्तरगांधाराच्युतमध्यमको स्वरौ ॥ ५॥ च्युतमध्यमविद्वेषी भवेत्त्रिश्रुतिपञ्चमः । मध्यमग्रामसापेक्षो विकृतो धैवतो मतः ॥६॥
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भरतमते
उत्तरमन्द्रा
रजनी
उत्तरायता
शुद्धषड्जा
मत्सरीकृत्
अश्वक्रान्ता
अभिता
सौ
हारिणाश्वा
कलोपनता
शुद्धमध्या
मार्गी
पौवी
हृष्यका
अनुबन्धः
मूर्च्छनानामवोधिनी १.
षड्जग्राम:
XENCEBEMER
METE~EMEX
~E METH~~
TINE MORTEMENTE
~~~~~
~~E
MENE
म प
गम
२
२
3
ग
म प
नारदम
म प ध नि उत्तरवर्णा
म पध
THE MONE
mero mt
Video mobho
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me to for it to to mp
मध्यमप्रामः
४ 3
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3 3 3
লাw এএএw এaএa
२४
म प ध
स रि ग म
गांधारग्रामः
ग म प
ग म प
MEME
MME
TESTEMTEME
SEXE MEMEME
TEMELEME MEENEMETE
XENKME
MEMETENE ETMEMETE
ग म प ध नि स
MEX
MME
४ 3
४ 3 3 3 ४ 3
ध
अभिता
अश्वकान्ता
सौवीरी
हष्यका
उत्तरायता
रजनी
आप्यायनी
विश्वकृता
चन्द्रा
हेमा
कपर्दिनी
मैत्री
चान्द्रमसी
नन्दा
विशाला
मुमुखी
चित्रा
चित्रवती
सुखा
आलापा
२९५
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२९६
संगीतरत्नाकरः मूर्च्छनानामबोधिनी २.
१. उत्तरमन्द्रा २. रजनी ३. उत्तरायता ४. शुद्धषड्जा ५. मत्सरीकृत् ६. अश्वकान्ता ७. अभिरुदता
षड्जनाम: ३ २ ४ ४ ३२
रि ग म प ध नि नि स रि ग म प ध ध नि स रि ग म प प ध नि स रिग म म प ध नि स रि ग ग म प ध नि स रि रि ग म प ध नि स
मध्यमग्राम:
१. सौवीरी २. हारिणाश्वा ३. कलोपनता ४. शुद्धमध्या ५. मार्गी ६. पौरवी ७. हृष्यका
म प ध नि स रि ग ग म प ध नि स रि रि ग म प ध नि स स रि ग म प ध नि नि सरि ग म प ध ध नि स रि ग म प ध नि स रि ग म
मूर्छनामेदाः
म
प
ध
षड्जप्रामे
م له سه >
१. शुद्धा २. काकलीकलिता स र ग
सान्तरा तवयोपेता
Naam
Igawagawag
म २ म
प ४ प
मध्यमग्रामे
१. शुद्धा २. काकलीकलिता ३. सान्तरा ४. तवयोपेता
Sarawa
म पघ म प
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संख्या
१ षाड्जी *
२
आर्षभी
३
गांधारी
४
५
६
७
जातयः
.
मध्यमा
पञ्चमी धवती * नैषादी *
षड्जकैशिकी *
षड्जोदीच्यवा
९
१०
११
१२ रक्तगांधारी
१३
कैशिकी
१४
१५
१६
१७
१८
सगमपध
रिधनि
सगमपनि
सरिमपध
कार्मारवी
गांधारपञ्चमी
रिप
श्रंशाः
रिध
निरिंग
षड्जमध्यमा
गांधारोदीच्यवा सम
सगप
समधनि
सरिगमपधनि
मध्यमोदीच्या प
सगमपनि
सगमपधनि
रिपधनि
प
रिगपनि
प
न्यासाः
स
रि
ग
म
55CE5
ध
नि
ग
म
सम
म
गपनि
भ
प
जात्यष्टादशक विमर्शनी
5
ग
अपन्यासाः
गप
रिधनि
सप
सरिमपध
रिपनि
रिमध
निरिंग
པ སྠ ལླཱ སྠཽ ཤྲཱ
सध
सरिगमपधनि
सध
आन्ध्री
नन्दयन्ती
* एताः षाड्जग्रामिकाः, अन्यास्तु माध्यमग्रामिकाः.
म
सगमपधनि
सध
रिपधनि
रिप
रिगपनि
मप
मूर्च्छना:
उत्तरायता
शुद्धषड्जा
पौरवी
कलोपनता
कलोपनता
अभिता
अश्वकान्ता
अश्वकान्ता
मत्सरीकृत्
पौरवी
कलोपनता
हारिणाश्वा
सौवीरी
शुद्धमध्या
हारिणाश्वा
सौवीरी
हृष्यका
पाढवद्वेषिस्वराः | श्रदुवद्वेषिस्वराः
नि
स
रि
ग
प
प
०
रि
स
स
सप
रिध
गनि
गनि
सप
सप
•
रिप
गनि
रिध
रिध
अनुबन्धः
२९७
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स्वरप्रस्तारः
आर्चिकस्वरप्रस्तार:--(१) स. (२) रि. (३) ग. (४) म. (५) प. (६) ध. (७) नि.
गाथिकस्वरप्रस्तार: – (१) सरि, रिस, (२) सग, गस. (३) सम, मस. (४) सप, पस. (५) सध, धस. (६) सनि, निस. (७) रिग, गरि (८) रिम, मरि. (९) रिप, परि. (१०) रिध, धरि. (११) रिनि, निरि. (१२) गम, मग. (१३) गप, पग. (१४) गध, धग. (१५) गनि, निग. (१६) मप, पम. (१७) मध, धम. (१८) मनि, निम. (१९) पध, धप. (२०) पनि, निप. (२१) धनि, निध.
सामिकस्वर प्रस्तार:- (१) सरिग, रिसग, सगरि, गसरि, रिगस, गरिस. (२) सरिम, रिसम, समरि, मसरि, रिमस, मरिस. (३) सरिप, रिसप, सपरि, पसरि, रिपस, परिस. (४) सरिध, रिसध, सधरि, धसरि, रिधस, धरिस. ( ५ ) सरिनि, रिसनि, सनिरि, निसरि, रिनिस, निरिस. (६) सगम, गसम, समग, मसग, गमस, मगस. (७) सगप, गसप, सपग, पसग, गपस, पगस. (८) सगध, गसध, सधग, धसग, गधस, धगस. (९) सगनि, गसनि, सनिग, निसग, गनिस, निगस. (१०) समप, मसप, सपम, पसम, मपस, पमस (११) समध, मसध, सधम, धसम, मधस, धमस. (१२) समनि, मसनि, सनिम, निसम, मनिस, निमस (१३) सपध, पराध, सधप, धसप, पधस, धपस (१४) सपनि, पसनि, सनिप, निसप, पनिस, निपस, (१५) सधनि, धसनि, सनिध, निसध, धनिस, निधस. (१६) रिगम, गरिम, रिमग, मरिग, गमरि, मगरि. (१७) रिगप, गरिप, रिपग, परिग, गपरि, पगरि (१८) रिगध, गरिध, रिधग, धरिग, गधरि,
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३००
संगीतरत्नाकरः सा० (१८) ६धगरि. (१९) रिगनि, गरिनि, रिनिग, निरिग, गनिरि, निगरि. (२०) रिमप, मरिप, रिपम, परिम, मपरि, पमरि. (२१) रिमध, मरिध, रिधम, धरिम, मधरि, धमरि. (२२) रिमनि, मरिनि, रिनिम, निरिम, मनिरि, निमरि. (२३) रिपध, परिध, रिधप, धरिप, पधरि, धपरि. (२४) रिपनि, परिनि, रिनिप, निरिप, पनिरि, निपरि. (२५) रिधनि, धरिनि, रिनिध, निरिध, धनिरि, निधरि. (२६) गमप, मगप, गपम, पगम, मपग, पमग. (२७) गमध, मगध, गधम, धगम, मधग, धमग. (२८) गमनि, मगनि, गनिम, निगम, मनिग, निमग. (२९) गपध, पगध, गधप, धगप, पधग, धपग. (३०) गपनि, पगनि, गनिप, निगप, पनिग, निपग. (३१) गधनि, धगनि, गनिध, निगध, धनिग, निधग. (३२) मपध, पमध, मधप, धमप, पधम, धपम. (३३) मपनि, पमनि, मनिप, निमप, पनिम, निपम. (३४) मधनि, धमनि, मनिध, निमध, धनिम, निधम. (३५) पधनि, धपनि, पनिध, निपध, धनिप, निधप.
स्वरान्तरस्वरप्रस्तार:-(१) सरिगम, रिसगम, सगरिम, गसरिम, रिगसम, गरिसम, सरिमग, रिसमग, समरिग, मसरिग, रिमसग, मरिसग, सगमरि, गसमरि, समगरि, मसगरि, गमसरि, मगसरि, रिगमस, गरिमस, रिमगस, मरिगस, गमरिस, मगरिस." (२) सरिगप, रिसगप, सगरिप, गसरिप, रिगसप, गरिसप, सरिपग, रिसपग, सपरिंग, पसरिंग,1° रिपसग, परिसग, सगपरि, गसपरि, सपगरि, पसगरि, गपसरि, पगसरि, रिगपस, गरिपस, रिपगस, परिगस, गपरिस, पगरिस." (३) सरिगध, रिसगध, सगरिध, गसरिध, रिगसध, गरिसध, सरिधग, रिसधग, सधरिंग, धसरिंग, रिधसग, धरिसग, सगधरि, गसधरि, सधगरि, धसगरि, गधसरि, धगसरि, रिंगधस, गरिधस,2° रिधगस, धरिगस, गधरिस, धगरिस.2 (४) सरिगनि, रिसगनि, सगरिनि, गसरिनि, रिगसनि, गरिसनि, सरिनिग, रिसनिग, सनिरिंग, निसरिंग, 1 रिनिसग, निरिसग, सगनिरि, गसनिरि, सनिगरि, निसगरि, गनिसरि, निगसरि, रिगनिस, गरिनिस,२° रिनिगस, निरिगस, गनिरिस, निगरिस.2 (५) सरिमप, रिसमप, समरिप, मसरिप, रिमसप, मरिसप, सरिपम, रिसपम, सपरिम, पसरिम,1° रिपसम, परिसम, समपरि,
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स्व० (१३) २१]
अनुबन्धः
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20
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मसपरि, सपमरि, पसमरि, मपसरि, पमसरि, रिमपस, मरिपस, " रिपमस, परिमस, मपरिस, पमरिस. (६) सरिमध, रिसमध, समरिध, मसरिध, रिमसध, मरिसध, सरिधम, रिसधम, सधरिम, धसरिम." रिधसम, धरिसम, समधरि, मसधरि, सधमरि, धसमरि, मधसरि, धमसरि, रिमधस, मरिधस, 2 रिधमस, धरिमस, मधरिस, धमरिस. 24 (७) सरिमनि, रिसमनि, समरिनि, मसरिनि, रिमसनि, मरिसनि, सरिनिम, रिसनिम, सनिरिम, निसग्मि, ' रिनिसम, निरिसम, समनिरि, मसनिरि, सनिमरि, निसमरि, मनिसरि, निमसर, रिमनिस, मरिनिस, 20 रिनिमस, निरिमस, मनिरिस, निमरिस. " (८) सरिपध, रिसपध, सपरिध, पसरिध, रिपराध, परिसध, सरिधप, रिसधप, सधरिप, धसरिप, 10 रिधसप, धरिसप, सपधरि, पसधरि, सधपरि, धसपरि, पधसरि, धपसरि, रिपधस, परिधस, रिधपस, धरिपस, पधरिस, धपरिस." (९) सग्पिनि, रिसपनि, सपरिनि, पसरिनि, रिपसनि, परिसनि, सरिनिप, रिसनिप, सनिरिप, निसरिप, रिनिसप, निरिसप, सपनिरि, पसनिरि, सनिपरि, निसपरि, पनिसरि, निपसरि, रिपनिस, परिनिस, " रिनिपस, निरिपस, पनिरिस, निपरिस. " (१०) सरिधनि, रिसधनि, सधरिनि, धसरिनि, रिधसनि, धरिसनि, सरिनिध, रिसनिध, सनिरिध, निसरिध, 10 रिनिसध, निरिसध, सधनिरि, धसनिरि, सनिधरि, निसधरि, धनिसरि, निधसरि, रिधनिस, धरिनिस, 20 रिनिधस, निरिधस, धनिरिस, निधरिस, 24 (११) सगमप, गसमप, समगप, मसगप, गमसप, मगसप,
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सगपम, गसपम, सपगम, पसगम, गपसम, पगसम, समपग, मसपग, सपमग, पसमग, मपसग, पमसग, गमपस, मगपस, गपमस, पगमस, मपगस, पमगस." (१२) सगमध, गसमध, समगध, मसगध, गमसध, मगसध, सगधम, गसधम, सधगम, धसगम, 10 गधसम, धगसम, समधग, मसधग, सधमग, धसमग, मधसग, धमसग, गमधस, मगधस, 20 गधमस, धगमस, मधगस, धमगस, (१३) सगमनि, गसमनि, समगनि, मसगनि, गमसनि, मगसनि, सगनिम, गस निम, सनिगम, निसगम, ° गनिसम, निगसम, समनिग, मसनिग, सनिमग, निसमग, मनिसग, निमसग, गमनिस, मगनिस, " गनिमस,
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संगीतरत्नाकरः [स्व० (१३) २२--- निगमस, मनिगस, निमगस." (१४) सगपध, गसपध, सपगध, पसगध, गपसध, पगसध, सगधप, गसधप, सधगप, धसगप,° गधसप, धगसप, सपधग, पसधग, सधपग, धसपग, पधसग, धपसग, गपधस, पगधस, गधपस, धगपस, पधगस, धपगस." (१५) सगपनि, गसपनि, सपगनि, पसगनि, गपसनि, पगसनि, सगनिप, गसनिप, सनिगप, निसगप, गनिसप, निगसप, सपनिग, पसनिग, सनिपग, निसपग, पनिसग, निपसग, गपनिस, पगनिस, गनिपस, निगपस, पनिगस, निपगस.“ (१६) सगधनि, गसधनि, सधगनि, धसगनि, गधसनि, धगसनि, सगनिध, गसनिध, सनिगध, निसगध, गनिसध, निगसध, सधनिग, धसनिग, सनिधग, निसधग, धनिसग, निधसग, गधनिस, धगनिस, गनिधस, निगधस, धनिगस, निधगस." (१७) समपध, मसपध, सपमध, पसमध, मपसध, पमसध, समधप, मसधप, सधमप, धसमप,1° मधसप, धमसप, सपधम, पसधम, सधपम, धसपम, पधसम, धपसम, मपधस, पमधस, मधपस, धमपस, पधमस, धपमस.. (१८) समपनि, मसपनि, सपमनि, पसमनि, मपसनि, पमसनि, समनिप, मसनिप, सनिमप, निसमप, मनिसप, निमसप, सपनिम, पसनिम, सनिपम, निसपम, पनिसम, निपसम, मपनिस, पमनिस, मनिपस, निमपस, पनिमस, निपमस." (१९) समधनि, मसधनि, सधमनि, धसमनि, मधसनि, धमसनि, समनिध, मसनिध, सनिमध, निसमध,10 मनिसध, निमसध, सधनिम, धसनिम, सनिधम, निसधम, धनिसम, निधसम, मधनिस, धमनिस,° मनिधस, निमधस, धनिमस, निधमस." (२०) सपधनि, पसधनि, सधपनि, धसपनि, पधसनि, धपसनि, सपनिध, पसनिध, सनिपध, निसपध,1° पनिसध, निपसध, सधनिप, धसनिप, सनिधप, निसधप, धनिसप, निधसप, पधनिस, धपनिस,° पनिधस, निपधस, धनिपस, निधपस." (२१) रिंगमप, गरिमप, रिमगप, मरिगप, गमरिप, मगरिप, रिगपम, गरिपम, रिपगम, परिगम,1° गपरिम, पगरिम, रिमपग, मरिपग, रिपमग, परिमग, मपरिग, पमरिंग, गमपरि, मगपरि, गपमरि, पगमरि, मपगरि, पमगरि."
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(३०) ४] अनुबन्धः
३०३ (२२) रिंगमध, गरिमध, रिमगध, मरिगध, गमरिध, मगरिध, रिंगधम, गरिधम, रिधगम, धरिगम,1° गरिम, धगरिम, रिमधग, मरिधग, रिधमग, धरिमग, मधरिंग, धमरिग, गमधरि, मगधरि, गधमरि, धगमरि, मधगरि, धमगरि." (२३) रिगमनि, गरिमनि, रिमगनि, मरिगनि, गमरिनि, मगरिनि, रिगनिम, गरिनिम, रिनिगम, निरिगम,1° गनिरिम, निगरिम, रिमनिग, मरिनिग, रिनिमग, निरिमग, मनिरिग, निमरिंग, गमनिरि, मगनिरि,° गनिमरि, निगमरि, मनिगरि, निमगरि." (२४) रिगपध, गरिपध, रिपगध, परिगध, गपरिध, पगरिध, रिगधप, गरिधप, रिधगप, धरिगप,° गधरिप, धगरिप, रिपधग, परिधग, रिधपग, धरिपग, पधरिंग, धपरिग, गपधरि, पगधरि,२० गधपरि, धगपरि, पधगरि, धपगरि." (२५) रिंगपनि, गरिपनि, रिपगनि, परिगनि, गपरिनि, पगरिनि, रिगनिप, गरिनिप, रिनिगप, निरिगप, गनिरिप, निगरिप, रिपनिग, परिनिग, रिनिपग, निरिपग, पनिरिग, निपरिग, गपनिरि, पगनिरि, गनिपरि, निगपरि, पनिगरि, निपगरि. (२६) रिगधनि, गरिधनि, रिधगनि, धरिगनि, गधरिनि, धगरिनि, रिगनिध, गरिनिध, रिनिगध, निरिगध, गनिरिध, निगरिध, रिधनिग, धरिनिग, रिनिधग, निरिधग,धनिरिंग, निधरिंग,गधनिरि,धगनिरि, गनिधरि, निगधरि, धनिगरि, निधगरि." (२७) रिमपध, मरिपध, रिपमध, परिमध, मपरिध, पमरिध, रिमधप, मरिधप, रिधमप, धरिमप, मधरिप, धमरिप, रिपधम, परिधम, रिधपम, धरिपम, परिम, धपरिम, मपधरि, पमधरि, मधपरि, धमपरि, पधमरि, धपमरि." (२८) रिमपनि, मरिपनि, रिपमनि, परिमनि, मपरिनि, पमरिनि, रिमनिप, मरिनिप, रिनिमप, निरिमप, मनिरिप, निमरिप, रिपनिम, परिनिम, रिनिपम, निरिपम, पनिरिम, निपरिम, मपनिरि, पमनिरि,° मनिपरि, निमपरि, पनिमरि, निपमरि." (२९) रिमधनि, मरिधनि, रिधमनि, धरिमनि, मधरिनि, धमरिनि, रिमनिध, मरिनिध, रिनिमध, निरिमध, मनिरिध, निमरिध, रिधनिम, धरिनिम, रिनिधम, निरिधम, धनिरिम, निधरिम, मधनिरि, धमनिरि, मनिधरि, निमधरि, धनिमरि, निधमरि." (३०) रिपधनि, परिधनि, रिधपनि, धरिपनि,
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संगीतरत्नाकरः [स्व० (३०) ५परिनि, धपरिनि, रिपनिध, परिनिध, रिनिपध, निरिपध,1° पनिरिध, निपरिध, रिधनिप, धरिनिप, रिनिधप, निरिधप, धनिरिप, निधरिप, पधनिरि, धपनिरि,२° पनिधरि, निपधरि, धनिपरि, निधपरि. (३१) गमपध, मगपध, गपमध, पगमध, मपगध, पमगध, गमधप, मगधपं, गधमप, धगमप, मधगप, धमगप, गपधम, पगधम, गधपम, धगपम, पधगम, धपगम, मपधग, पमधग, मधपग, धमपग, पधमग, धपमग." (३२) गमपनि, मगपनि, गपमनि, पगमनि, मपगनि, पमगनि, गमनिप, मगनिप, गनिमप, निगमप, मनिगप, निमगप, गपनिम, पगनिम, गनिपम, निगपम, पनिगम, निपगम, मपनिग, पमनिग, मनिपग, निमपग, पनिमग, निपमग." (३३) गमधनि, मगधनि, गधमनि, धगमनि, मधगनि, धमगनि, गमनिध, मगनिध, गनिमध, निगमध, मनिगध, निमगध, गधनिम, धगनिम, गनिधम, निगधम, धनिगम, निधगम, मधनिग, धमनिग,° मनिधग, निमधग, धनिमग, निधमग." (३४) गपधनि, पगधनि, गधपनि, धगपनि, पधगनि, धपगनि, गपनिध, पगनिध, गनिपध, निगपध,10 पनिगध, निपगध, गधनिप, धगनिप, गनिधप, निगधप, धनिगप, निधगप, पधनिग, धपनिग,° पनिधग, निपधग, धनिपग, निधपग." (३५) मपधनि, पमधनि, मधपनि, धमपनि, पधमनि, धपमनि, मपनिध, पमनिध, मनिपध, निमपध,' पनिमध, निपमध, मधनिप, धमनिप, मनिधप, निमधप, धनिमप, निधमप, पधनिम, धपनिम, पनिधम, निपधम, धनिपम, निधपम."
औडुवस्वरप्रस्तार:-(१) सरिगमप, रिसगमप, सगरिमप, गसरिमप, रिंगसमप, गरिसमप, सरिमगप, रिसमगप, समरिगप, मसरिगप, रिमसगप, मरिसगप, सगमरिप, गसमरिप, समगरिप, मसगरिप, गमसरिप, मगसरिप, रिगमसप, गरिमसप, रिमगसप, मरिगसप, गमरिसप, मगरिसप, सरिगपम, रिसगपम, सगरिपम, गसरिपम, रिगसपम, गरिसपम, सरिपगम, रिसपगम, सपरिगम, पसरिगम, रिपसगम, परिसगम, सगपरिम, गसपरिम, सपगरिम, पसगरिम," गपसरिम, पगसरिम, रिगपसम, गरिपसम, रिपगसम, परिगसम, गपरिसम, पगरिसम, सरिमपग, रिसमपग, ° समरिपग, मसरिपग, रिमसपग,
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औ० (२) १०९]
अनुबन्धः
३०५
80
मरिसपग, सरिपमग, रिसपमग, सपरिमग, पसरिमग, रिपसमग, परिसमग, " समपरिंग, मसपरिंग, सपमरिंग, पसमरिंग, मपसरिंग, पमसरिंग, रिमपसग, मरिपसग, रिपमसग, परिमसग, 70 मपरिसग, पमरिसग, सगमपरि, गसमपरि, समगपरि, मसगपरि, गमसपरि, मगसपरि, सगपमरि, गसपमरि, ° सपगमरि, पसगमरि, गपसमरि, पगसमरि, समपगरि, मसपगरि, सपमगरि, पसमगरि, मपसगरि, पमसगरि," गमपसरि, मगपसरि, गपमसरि, पगमसरि, मपगसरि, पमगसरि, रिगमपस, गरिमपस, रिमगपस, मरिगपस, 100 गमरिपस, मगरिपस, रिगपमस, गरिपमस, रिपगमस, परिगमस, गपरिमस, पगरिमस, रिमपगस, मरिपगस, 10 रिपमगस, परिमगस, मपरिगस, पमरिगस, गमपरिस, मगपरिस, गपमरिस, पगमरिस, मपगरिस, पमगरिस. 120 (२) सरिगमध, रिसगमध, सगरिमध, गसग्मिध, रिगसमध, गरिसमध, सरिमगध, रिसमगध, समरिगध, मसरिगध, 10 रिमसगध, मरिसगध, सगमरिध, गसमरिध, समगरिध, मसगरिध, गमसरिध, मगसरिध, रिगमसध, गरिमसध, रिमगसध, मरिगसध, गमरिसध, मगरिसध, सरिगधम, रिसगधम, सगरिधम, गसरिधम, रिगसधम, गरिसधम, 30 सरिधगम, रिसधगम, सधरिगम, धसरिगम, ग्धिसगम, धरिसगम, सगधरिम, गसधरिम, सधगरिम, धसगरिम, गधसरिम, धगसरिम, रिगधसम, गरिधसम, रिधगसम, धरिगसम, गधरिसम, धगरिसम, सरिमधग, रिसमधग, ° समरिधग, मसरिधग, रिमसधग, मरिसधग, सरिधमग, रिसधमग, सधरिमग, धसरिमग, विधसमग, धरिसमग, ,०० समधरिंग, मसधरिंग, सधमरिंग, धसमरिंग, मधसरिंग, धमसरिंग, रिमधसग, मरिधसग, रिधमसग, धरिमसग, 10 मधरिसग, धमरिसंग. सगमधरि, गसमधरि, समगधरि, मसगधरि, गमसधरि, मगसधरि, सगधमरि, गसधमरि, ° सधगमरि, धसगमरि, गधसमरि, धगसमरि, समधगरि, मसधगरि, सधमगरि, धसमगरि, मधसगरि, धमसगरि, " गमधसरि, मगधसरि, गधमसरि, धगमसरि, मधगसरि, धमगसरि रिगमधस, गग्मिधस, ग्मिगधस, मरिगधस, गमरिधस, मगरिधस, रिगधमस, गरिधमस, रिधगमस, धरिगमस, गधरिमस, धगरिमस, रिमधगस,
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३०६
संगीतरत्नाकरः [औ० (२) ११०मरिधगस,10 रिधमगस, धरिमगस, मधरिगस, धमरिगस, गमधरिस, मगधरिस, गधमरिस, धगमरिस, मधगरिस, धमगरिस.२० (३) सरिगमनि, रिसगमनि, सगरिमनि, गसरिमनि, रिगसमनि, गरिसमनि, सरिमगनि, रिसमगनि, समरिगनि, मसरिगनि,10 रिमसगनि, मरिसगनि, सगमरिनि. गसमरिनि, समगरिनि, मसगरिनि, गमसरिनि, मगसरिनि, रिंगमसनि, गरिमसनि,२० रिमगसनि, मरिगसनि, गमरिसनि, मगरिसनि, सरिगनिम, रिसगनिम, सगरिनिम, गसरिनिम, रिगसनिम, गरिसनिम.3° सरिनिगम, रिसनिगम, सनिरिगम, निसरिगम, रिनिसगम, निरिसगम, सगनिरिम, गसनिरिम, सनिगरिम, निसगरिम,° गनिसरिम, निगमरिम, रिगनिसम, गरिनिसम, रिनिगसम, निरिगसम, गनिरिसम, निगरिसम, सरिमनिग, रिसमनिग,° समरिनिग, मसरिनिग, रिमसनिग, मरिसनिग, सरिनिमग, रिसनिमग, सनिरिमग, निसरिमग, रिनिसमग, निरिसमग, समनिरिंग, मसनिरिग, सनिमरिग, निसमरिग, मनिसरिंग, निमसरिग, रिमनिसग, मरिनिसग, रिनिमसग, निरिमसग, मनिरिसग, निमरिसग, सगमनिरि, गसमनिरि, समगनिरि, मसगनिरि, गमसनिरि, मगसनिरि, सगनिमरि, गसनिमरि, सनिगमरि, निसगमरि, गनिसमरि, निगसमरि, समनिगरि, मसनिगरि, सनिमगरि, निसमगरि, मनिसगरि, निमसगरि,°° गमनिसरि, मगनिसरि, गनिमसरि, निगमसरि, मनिगसरि, निमगसरि, रिगमनिस, गरिमनिस, रिमगनिस, मरिगनिस,10° गमरिनिस, मगरिनिस, रिगनिमस, गरिनिमस, रिनिगमस, निरिगमस, गनिरिमस, निगरिमस, रिमनिगस, मरिनिगस,1° रिनिमगस, निरिमगस, मनिरिगस, निमरिगस, गमनिरिस, मगनिरिस, गनिमरिस, निगमरिस, मनिगरिस, निमगरिस.12° (४) सरिगपध, रिसगपध, सगरिपध, गसरिपध, रिगसपध, गरिसपध, सरिपगध, रिसपगध, सपरिगध, पसरिंगध, रिपसगध, परिसगध, सगपरिध, गसपरिध, सपगरिध, पसगरिध, गपसरिध, पगसरिध, रिगपसथ, गरिपसध, रिपगसध, परिगसध, गपरिसध, पगरिसध, सरिगधप, रिसगधप, सगरिधप, गसरिधप, रिगसधप, गरिसधप,३० सरिधगप,
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(६) ७७] अनुबन्धः
३०७ रिसधगप, सधरिगप, धसरिगप, रिधसगप, धरिसगप, सगधरिप, गसधरिप, सधगरिप, धसगरिप,° गधसरिप, धगसरिप, रिंगधसप, गरिधसप, रिधगसप, धरिगसप, गधरिसप, धगरिसप, सरिपधग, रिसपधग,° सपरिधग, पसरिधग, रिपसधग, परिसधग, सरिधपग, रिसधपग, सधरिपग, धसरिपग, रिधसपग, धरिसपग,8° सपधरिंग, पसधरिग, सधपरिग, धसपग्गि, पधसरिंग, धपसरिंग, रिपधसग, परिधसग, रिधपसग, धरिपसग, परिसग, धपरिसग, सगपधरि, गसपधरि, सपगधरि, पसगधरि, गपसधरि, पगसधरि, सगधपरि, गसधपरि,° सधगपरि, धसगपरि, गधसपरि, धगसपरि, सपधगरि, पसधगरि, सधपगरि, धसपगरि, पधसगरि, धपसगरि,°° गपधसरि, पगधसरि, गधपसरि, धगपसरि, पधगसरि, धपगसरि, रिगपधस, गरिपधस, रिपगधस, परिगधस,०० गपरिधस, पगरिधस, रिंगधपस, गरिधपस, रिधगपस, धरिगपस, गधरिपस, धगरिपस, रिपधगस, परिधगस, रिधपगस, धरिपगस, पधरिगस, धपरिगस, गपधरिस, पगधरिस, गधपरिस, धगपरिस, पधगरिस, धपगरिस.२० (५) सरिगपनि, रिसगपनि, सगरिपनि, गसरिपनि, रिगसपनि, गरिसपनि, सरिपगनि, रिसपगनि, सपरिगनि, पसरिगनि, रिपसगनि, परिसगनि, सगपरिनि, गसपरिनि, सपगरिनि, पसगरिनि, गपसरिनि, पगसरिनि, रिगपसनि, गरिपसनि,° रिपगसनि, परिगसनि, गपरिसनि, 'पगरिसनि, सरिगनिप, रिसगनिप, सगरिनिप, गसरिनिप, रिगसनिप, गरिसनिप, सरिनिगप, रिसनिगप, सनिरिगप, निसरिंगप, रिनिसगप, निरिसगप, सगनिरिप, गसनिरिप, सनिगरिप, निसगरिप, गनिसरिप, निगसरिप, रिगनिसप, गरिनिसप, रिनिगसप, निरिगसप, गनिरिसप, निगरिसप, सरिपनिग, रिसपनिग,° सपरिनिग, पसरिनिग, रिपसनिग, परिसनिग, सरिनिपग, रिसनिपग, सनिरिपग, निसरिपग, रिनिसपग, निरिसपग,80 सपनिरिग, पसनिरिंग, सनिपरिग, निसपरिग, पनिसरिंग, निपसरिग, रिपनिसग, परिनिसग, रिनिपसग, निरिपसग.'' पनिरिसग, निपरिसग, सगपनिरि, गसपनिरि, सपगनिरि, पसगनिरि, गपसनिरि,
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३०८
संगीतरत्नाकरः [औ० (५) ७८-- पगस निरि, सगनिपरि, गसनिपरि, सनिगपरि, निसगपरि, गनिसपरि, निगसपरि, सपनिगरि, पसनिगरि, सनिपगरि, निसपगरि, पनिसगरि, निपसगरि,°° गपनिसरि, पगनिसरि, गनिपसरि, निगपसरि, पनिगसरि, निपगसरि, रिगपनिस, गरिपनिस, रिपगनिस, परिगनिस,100 गपरिनिस, पगरिनिस, रिगनिपस, गरिनिपस, रिनिगपस, निरिंगपस, गनिरिपस, निगरिपस, रिपनिगस, परिनिगस, रिनिपगस, निरिपगस, पनिरिगस, निपरिगस, गपनिरिस, पगनिरिस, गनिपरिस, निगपरिस, पनिगरिस, निपगरिस.२० (६) सरिगधनि, रिसगधनि, सगरिधनि, गसरिधनि, रिगसधनि, गरिसधनि, सरिधगनि, रिसधगनि, सधरिगनि, धसरिगनि, रिधसगनि, धरिसगनि, सगधरिनि, गसधरिनि, सधगरिनि, धसगरिनि, गधसरिनि, धगसरिनि, रिगधसनि, गरिधसनि, रिधगसनि, धरिगसनि, गधरिसनि, धगरिसनि, सरिगनिध, रिसगनिध, सगरिनिध, गसरिनिध, रिगसनिध, गरिसनिध, ° सरिनिगध, रिसनिगध, सनिरिगध, निसरिगध, रिनिसगध, निरिसगध, सगनिरिध, गसनिरिध, सनिगरिध, निसगरिध, गनिसरिध, निगसरिध, रिगनिसध, गरिनिसध, रिनिगसध, निरिगसध, गनिरिसध, निगरिसध, सरिधनिग, रिसधनिग,°° सधरिनिग, धसरिनिग, रिधसनिग, धरिसनिग, सरिनिधग, रिसनिधग, सनिरिधग, निसरिधग, रिनिसधग, निरिसधग,०° सधनिरिग, धसनिरिग, सनिधरिंग, निसधरिंग, धनिसरिंग, निधसरिंग, रिधनिसग, धरिनिसग, रिनिधसग, निरिधसग, धनिरिसग, निधरिसग, सगधनिरि, गसधनिरि, सधगनिरि, धसगनिरि, गधसनिरि, धगसनिरि, सगनिधरि, गसनिधरि,° सनिगधरि, निसगरि, गनिसधरि, निगसधरि, सधनिगरि, धसनिगरि, सनिधगरि, निसधगरि, धनिसगरि, निधसगरि,° गधनिसरि, धगनिसरि, गनिधसरि, निगधसरि, धनिगसरि, निधगसरि, रिंगधनिस, गरिधनिस, रिधगनिस, धरिगनिस'०० गधरिनिस, धगरिनिस, रिगनिधस, गरिनिधस, रिनिगधस, निरिगधस, गनिरिधस, निगरिधस, रिधनिगस, धरिनिगस,' रिनिधगस, निरिधगस, धनिरिगस, निधरिगस, गधनिरिस, धगनिरिस, गनिधरिस, निगधरिस,
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(८) ३९] अनुबन्धः
३०९ धनिगरिस, निधगरिस.२० (७) सरिमपध, रिसमपध, समरिपध, मसरिपध, रिमसपध, मरिसपध, सरिपमध, रिसपमध, सपरिमध, पसरिमध," रिपसमध, परिसमध, समपरिध, मसपरिध, सपमरिध, पसमरिध, मपसरिध, पमसरिध, रिमपसध, मरिपसध, रिपमसध, परिमसध, मपरिसध, पमरिसध, सरिमधप, रिसमधप, समरिधप, मसरिधप, रिमसधप, मरिसधप, सरिधमप, रिसधमप, सधरिमप, धसरिमप, रिधसमप, धरिसमप, समधरिप, मसधरिप, सधमरिप, धसमरिप, मधसरिप, धमसरिप, रिमधसप, मरिधसप, रिधमसप, धरिमसप, मधरिसप, धमरिसप, सरिपधम, रिसपधम, सपरिधम, पसरिधम, रिपसधम, परिसधम, सरिधपम, रिसधपम, सधरिपम, धसरिपम, रिधसपम, धरिसपम,७० सपरिम, पसधरिम, सधपरिम, धसपरिम, पधसरिम, धपसरिम, रिपधसम, परिधसम, रिधपसम, धरिपसम, परिसम, धपरिसम, समपधरि, मसपधरि, सपमधरि, पसमधरि, मपसधरि, पमसधरि, समधपरि, मसधपरि, सधमपरि, धसमपरि, मधसपरि, धमसपरि, सपधमरि, पसधमरि, सधपमरि, धसपमरि, पधसमरि, धपसमरि,°० मपधसरि, पमधसरि, मधपसरि, धमपसरि, पधमसरि, धपमसरि, रिमपधस, मरिपधस, रिपमधस, परिमधस,०० मपरिधस, पमरिधस, रिमधपस, मरिधपस, रिधमपस, धरिमपस, मधरिपस, धमरिपस, रिपधमस, परिधमस, रिधपमस, धरिपमस, पधरिमस, धपरिमस, मपधरिस, पमधरिस, मधपरिस, धमपरिस, पधमरिस, धपमरिस.120 (८) सरिमपनि, रिसमपनि, समरिपनि, मसरिपनि, रिमसपनि, मरिसपनि, सरिपमनि, रिसपमनि, सपरिमनि, पसरिमनि,10 रिपसमनि, परिसमनि, समपरिनि, मसपरिनि, सपमरिनि, पसमरिनि, मपसरिनि, पमसरिनि, रिमपसनि, मरिपसनि,२० रिपमसनि, परिमसनि, मपरिसनि, पमरिसनि, सरिमनिप, रिसमनिप, समरिनिप, मसरिनिप, रिमसनिप, मरिसनिप,° सरिनिमप, रिसनिमप, सनिरिमप, निसरिमप, रिनिसमप, निरिसमप, समनिरिप, मसनिरिप, सनिमरिप,
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३१०
संगीतरत्नाकरः [औ० (८) ४०निसमरिप,° मनिसरिप, निमसरिप, रिमनिसप, मरिनिसप, रिनिमसप, निरिमसप, मनिरिसप, निमरिसप, सरिपनिम, रिसपनिम,8° सपरिनिम, पसरिनिम, रिपसनिम, परिसनिम, सरिनिपम, रिसनिपम, सनिरिपम, निसरिपम, रिनिसपम, निरिसपम,6° सपनिरिम, पसनिरिम, सनिपरिम, निसपरिम, पनिसरिम, निपसरिम, रिपनिसम, परिनिसम, रिनिपसम, निरिपसम,° पनिरिसम, निपरिसम, समपनिरि, मसपनिरि, सपमनिरि, पसमनिरि, मपसनिरि, पमसनिरि, समनिपरि, मसनिपरि,8° सनिमपरि, निसमपरि, मनिसपरि, निमसपरि, सपनिमरि, पसनिमरि, सनिपमरि, निसपमरि, पनिसमरि, निपसमरि,°° मपनिसरि, पमनिसरि, मनिपसरि, निमपसरि, पनिमसरि, निपमसरि, रिमपनिस, मरिपनिस, रिपमनिस, परिमनिस,100 मपरिनिस, पमरिनिस, रिमनिपस, मरिनिपस, रिनिमपस, निरिमपस, मनिरिपस, निमरिपस, रिपनिमस, परिनिमस,' रिनिपमस, निरिपमस, पनिरिमस, निपरिमस, मपनिरिस, पमनिरिस, मनिपरिस, निमपरिस, पनिमरिस, निपमरिस.२० (९) सरिमधनि, रिसमधनि, समरिधनि, ममरिधनि, रिमसधनि, मरिसधनि, सरिधमनि, रिसधमनि, सधरिमनि, धसरिमनि,1° रिधसमनि, धरिसमनि, समधरिनि, मसधरिनि, सधमरिनि, धसमरिनि, मधसरिनि, धमसरिनि, रिमधसनि, मरिधसनि, रिधमसनि, धरिमसनि, मधरिसनि, धमरिसनि, सरिमनिध, रिसमनिध, समरिनिध, मसरिनिध, रिमसनिध, मरिसनिध,° सरिनिमध, रिसनिमध, सनिरिमध, निसरिमध, रिनिसमध, निरिसमध, समनिरिध, मसनिरिध, सनिमरिध, निसमरिध,° मनिसरिध, निमसरिध, रिमनिसध, मरिनिसध, रिनिमसध, निरिमसध, मनिरिसध, निमरिसध, सरिधनिम, रिसधनिम,0 सधरिनिम, धसरिनिम, रिधसनिम, धरिसनिम, सरिनिधम, रिसनिधम, सनिरिधम, निसरिधम, रिनिसधम, निरिसधम,७° सधनिरिम, धसनिरिम, सनिधरिम, निसधरिम, धनिसरिम, निधसरिम, रिधनिसम, धरिनिसम, रिनिधसम, निरिधसम, धनिरिसम, निधरिसम, समधनिरि, मसधनिरि, सधमनिरि, धसमनिरि, मधसनिरि, धमसनिरि, समनिधरि, मसनिधरि,
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(१०) १२०]
अनुबन्धः सनिमधरि, निसमधरि, मनिसधरि, निमसधरि, सधनिमरि, धसनिमरि, सनिधमरि, निसधमरि, धनिसमरि, निधसमरि,°° मधनिसरि, धमनिसरि, मनिधसरि, निमधसरि, धनिमसरि, निधमसरि, रिमधनिस, मरिधनिस, रिधमनिस, धरिमनिस,०° मधरिनिस, धमरिनिस, रिमनिधस, मरिनिधस, रिनिमधस, निरिमधस, मनिरिधस, निमरिधस, रिधनिमस, धरिनिमस, रिनिधमस, निरिधमस, धनिरिमस, निधरिमस, मधनिरिस, धमनिरिस, मनिधरिस, निमधरिस, धनिमरिस, निधमरिस.120 (१०) सरिपधनि, रिसपधनि, सपरिधनि, पसरिधनि, रिपसधनि, परिसधनि, सरिधपनि, रिसधपनि, सधरिपनि, धसरिपनि,10 रिधसपनि, धरिसपनि, सपधरिनि, पसधरिनि, सधपरिनि, धसपरिनि, पधसरिनि, धपसरिनि, रिपधसनि, परिधसनि, रिधपसनि, धरिपसनि, पधरिसनि, धपरिसनि, सरिपनिध, रिसपनिध, सपरिनिध, पसरिनिध, रिपसनिध, परिसनिध, सरिनिपध, रिसनिपध, सनिरिपध, निसरिपध, रिनिसपध, निरिसपध, सपनिरिध, पसनिरिध, सनिपरिध, निसपरिध,° पनिसरिध, निपसरिध, रिपनिसध, परिनिसध, रिनिपसध, निरिपसध, पनिरिसध, निपरिसध, सरिधनिप, रिसधनिप, सधरिनिप, धसरिनिप, रिधसनिप, धरिसनिप, सरिनिधप, रिसनिधप, सनिरिधप, निसरिधप, रिनिसधप, निरिसधप,०० सधनिरिप, धसनिरिप, सनिधरिप, निसधरिप, धनिसरिप, निधसरिप, रिधनिसप, धरिनिसप, रिनिधसप, निरिधसप, धनिरिसप, निधरिसप, सपधनिरि, पसधनिरि, सधपनिरि, धसपनिरि, पधसनिरि, धपसनिरि, सपनिधरि, पसनिधरि, ° सनिपधरि, निसपधरि, पनिसधरि, निपसधरि, सधनिपरि, धसनिपरि, सनिधपरि, निसधपरि, धनिसपरि, निधसपरि,°° पधनिसरि, धपनिसरि, पनिधसरि, निपधसरि, धनिपसरि, निधपसरि, रिपधनिस, परिधनिस, रिधपनिस, धरिपनिस,10° परिनिस, धपरिनिस, रिपनिधस, परिनिधस, रिनिपधस, निरिपधस, पनिरिधस, निपरिधस, रिधनिपस, धरिनिपस, रिनिधपस, निरिधपस, धनिरिपस, निधरिपस, पधनिरिस, धपनिरिस, पनिधरिम, निपधरिस, धनिपरिस, निधपरिस.२० (११)
* 11111111111111111111111
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३१२
संगीतरत्नाकरः
[औ० (११)१
सगमपध, गसमपध, समगपध, मसगपध, गमसपध, मगसपध, सगपमध, गसपमध, सपगमध, पसगमध गपसमध, पगसमध, समपगध, मसपगध, सपमगध, पसमगध, मपसगध, पमसगध, गमपसध, मगपसध, गपमसध, पगमसध, मपगसध, पमगसध, सगमधप, गसमधप, समगधप, मसगधप, गमसधप, मगसधप,° सगधमप, गसधमप, सधगमप, धसगमप, गधसमप, धगसमप, समधगप, मसधगप, सधमगप, धसमगप, मधसगप, धमसगप, गमधसप, मगधसप, गधमसप, धगमसप, मधगसप, धमगसप, सगपधम, गसपधम," सपगधम. पसगधम, गपसधम, पगसधम, सगधपम, गसधपम, सधगपम, धसगपम, गधसपम, धगसपम,°° सपधगम, पसधगम, सधपगम, धसपगप, पधसगम, धपसगम, गपधसम, पगधसम, गधपसम, धगपसम, पधगसम, धपगसम, समपधग, मसपधग, सपमधग, पसमधग, मपसधग, पमसधग, समधपग, मसधपग, ° सधमपग, धसमपग, मधसपग, धमसपग, सपधमग, पसधमग, सधपमग, धसपमग, पधसमग, धपसमग, मपधसग, पमधसग, मधपसग, धमपसग, पधमसग, धपमसग, गमपधस, मगपधस, गपमधस, पगमधस,1°° मपगधस, पमगधस, गमधपस, मगधपस, गधमपस, धगमपस, मधगपस, धमगपस, गपधमस, पगधमस, गधपमस, धगपमस, पधगमस, धपगमस, मपधगस, पमधगस, मधपगस, धमपगस, पधमगस, धपमगस.120 (१२) सगमपनि, गसमपनि, समगपनि, मसगपनि, गमसपनि, मगसपनि, सगपमनि, गसपमनि, सपगमनि, पसगमनि,'" गपसमनि, पगसमनि, समपगनि, मसपगनि, सपमगनि, पसमगनि, मपसगनि, पमसगनि, गमपसनि, मगपसनि,२० गपमसनि, पगमसनि, मपगसनि, पमगसनि, सगमनिप, गसमनिप, समगनिप, मसगनिप, गमसनिप, मगसनिप,३० सगनिमप, गसनिमप, सनिगमप, निसगमप, गनिसमप, निगसमप, समनिगप, मसनिगप, सनिमगप, निसमगप,40 भनिसगप, निमसगप, गमनिसप, मगनिसप, गनिमसप, निगमसप, मनिगसप, निमगसप, सगपनिम, गसपनिम,50 सपगनिम, पसगनिम, गपसनिम, पगसनिम, सगनिपम, गसनिपम, सनिगपम, निसगपम,
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II
(१३) ९९] अनुबन्धः
३१३ गनिसपम, निगमपम,०० सपनिगम, पसनिगम, सनिपगम, निसपगम, पनिसगम, निपसगम, गपनिसम, पगनिसम, गनिपसम, निगपसम,० पनिगसम, निपगसम, समपनिग, मसपनिग, सपमनिग, पसमनिग, मपसनिग, पमसनिग, समनिपग, मसनिपग,०० सनिमपग, निसमपग, मनिसपग, निमसपग, सपनिमग, पसनिमग, सनिपमग, निसपमग, पनिसमग, निपसमग,०० मपनिसग, पमनिसग, मनिपसग, निमपसग, पनिमसग, निपमसग, गमपनिस, मगपनिस, गपमनिस, पगमनिस,100 मपगनिस, पमगनिस, गमनिपस, मगनिपस, गनिमपस, निगमपस, मनिगपस, निमगपस, गपनिमस, पगनिमस,10 गनिपमस, निगपमस, पनिगमस, निपगमस, मपनिगस, पमनिगस, मनिपगस, निमपगस, पनिमगस, निपमगस.120 (१३) सगमधनि, गसमधनि, समगधनि, मसगधनि, गमसधनि, मगसधनि, सगधमनि, गसधमनि, सधगमनि, धसगमनि,10 गधसमनि, धगसमनि, समधगनि, मसधगनि, सधमगनि, धसमगनि, मधसगनि, धमसगनि, गमधसनि, मगधसनि,30 गधमसनि, धगमसनि, मधगसनि, धमगसनि, सगमनिध, गसमनिध, समगनिध, मसगनिध, गमसनिध, मगसनिध,80 सगनिमध, गसनिमध, सनिगमध, निसगमध, गनिसमध, निगसमध, समनिगध, मसनिगध, सनिमगध, निसमगध, मनिसगध, निमसगध, गमनिसध, मगनिसध, गनिमसध, निगमसध, मनिगसध, निमगसध, सगधनिम, गसधनिम,७° सधगनिम, धसगनिम, गधसनिम, धगसनिम, सगनिधम, गसनिधम, सनिगधम, निसगधम, गनिसधम, निगसधम,8° सधनिगम, धसनिगम, सनिधगम, निसधगम, धनिसगम, निधसगम, गधनिसम, धगनिसम, गनिधसम, निगधसम, धनिगसम, निधगसम, समधनिग, मसधनिग, सधमनिग, धसमनिग, मधसनिग, धमसनिग, समनिधग, मसनिधग,80 सनिमधग, निसमधग, मनिसधग, निमसधग, सधनिमग, धसनिमग, सनिधमग, निसधमग, धनिसमग, निधसमग,°° मधनिसग, धमनिसग, मनिधसग, निमधसग, धनिमसग, निधमसग, गमधनिस, मगधनिस, गधमनिस,
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धगमनिस, ' 100 मधगनिस धमगनिस, गमनिधस, मगनिधस, गनिमधस, निगमधस, मनिगधस, निमगधस, गधनिमस, धगनिमस, " गनिधमस, निगधमस, धनिगमस, निधगमस, मधनिगस, धमनिगस, मनिधगस, निमधगस, धनिमगस, निधमगस, 120 (१४) सगपधनि, गसपधनि, सपगधनि, पसगधनि, गपसधनि, पगसधनि, सगधपनि, गसधपनि, सधगपनि, धसगपनि, ' ,10 गधसपनि, धगसपनि, सपधगनि, पसधगनि, सधपगनि, धसपगनि, पधसगनि, धपसगनि, गपधसनि, पगधसनि, " गधपसनि, धगपस नि, पधगसनि, धपगसनि, सगपनिध, गसपनिध, सपगनिध, पसगनिध, गपसनिध, पगसनिध, ३० सगनिपध, गसनिपध, सनिगपध, निसगपध, गनिसपध, निगसपध, सपनिगध, पसनिगध, सनिपगध, निसपगध, " पनिसगध, निपसगध, गपनिसध, पगनिसध, गनिपसध, निगपसध, पनिगसध, निपगसध, सगधनिप, गसधनिप, ' सधगनिप, धसगनिप, गधसनिप, धगसनिप, सगनिधप, गसनिधप, सनिगधप, निसगधप, गनिसधप, निगसधप, ° सधनिगप, धसनिगप, सनिधगप, निसधगप, धनिसगप, निधसगप, गधनिसप, धगनिसप, गनिधसप, निगधसप, धनिगसप, निधगसप, सपधनिग, पसधनिग, सधपनिग, धसपनिग, पधसनिग, धपसनिग, सपनिधग, पसनिधग, सनिपधग, निसपधग, पनिसधग, निपसधग, सधनिपग, धसनिपग, सनिधपग, निसधपग, धनिसपग, निवसपग, ° पधनिसग, धपनिसग, पनिधसग, निपधसग, धनिपसग, निधपसग, गपधनिस, पगधनिस, गधपनिस, धगपनिस, ' पथगनिस, धपगनिस, गपनिधस, पगनिधस, गनिपधस, निगपधस, पनिगधस, निपराधस, गधनिपस, धगनिपस, ' गनिधपस, निगधपस, धनिगपस, निधगपस, पधनिगस, धपनिगस, पनिधगस, निपधगस, धनिपगस, निधपगस 130 (१५) समपधनि, मसपधनि, सपमधनि, पसमधनि, मपधनि, पमसधनि, समधपनि, मसधपनि, सधमपनि, धसमपनि, " मधसपनि, धमसपनि, सपधमनि, पसधमनि, सधपमनि, धसपमनि, पधसमनि, धपसमनि, मपधसनि,
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(१६) ६०] अनुबन्धः
३१५ पमधसनि,° मधपसनि, धमपसनि, पधमसनि, धपमसनि, समपनिध, मसपनिध, सपमनिध, पसमनिध, मपसनिध, पमसनिध,° समनिपध, मसनिपध, सनिमपध, निसमपध, मनिसपध, निमसपध. सपनिमध, पसनिमध, सनिपमध, निसपमध, पनिसमध, निपसमध, मपनिसध, पमनिसध, मनिपसध, निमपसध, पनिमसध, निपमसध, समधनिप, मसधनिप, सधमनिप, धसमनिप, मधसनिप, धमसनिप, समनिधप, मसनिधप, सनिमधप, निसमधप, मनिसधप, निमसधप,०° सधनिमप, धसनिमप, सनिधमप, निसधमप, धनिसमप, निधसमप, मधनिसप, धमनिसप, मनिधसप, निमधसप, धनिमसप, निधमसप, सपधनिम, पसधनिम, सधपनिम, धसपनिम, पधसनिम, धपसनिम, सपनिधम, पसनिधम,° सनिपधम, निसपधम, पनिसधम, निपसधम, सधनिपम, धसनिपम, सनिधपम, निसधपम, धनिसपम, निधसपम,° पधनिसम, धपनिसम, पनिधसम, निपधसम, धनिपसम, निधपसम, मपधनिस, पमधनिस, मधपनिस, धमपनिस,10° पधमनिस, धपमनिस, मपनिधस, पमनिधस, मनिपधस, निमपधस, पनिमधस, निपमधस, मधनिपस, धमनिपस, मनिधपस, निमधपस, धनिमपस, निधमपस, पधनिमस, धपनिमस, पनिधमस, निपधमस, धनिपमस, निधपमस.२० (१६) रिगमपध, गरिमपध, रिमगपध, मरिगपध, गमरिपध, मगरिपध, रिंगपमध, गरिपमध, रिपगमध, परिगमध, गपरिमध, पगरिमध, ग्मिपगध, मरिपगध, रिपमगध, परिमगध, मपरिगध, पमरिगध, गमपरिध, मगपरिध,२० गपमग्धि, पगमरिध, मपगरिध, पमगरिध, रिंगमधप, गरिमधप, ग्मिगधप, मरिगधप, गमरिधप, मगरिधप,० ग्गिधमप, गरिधमप, रिधगमप, धरिगमप, गधरिमप, धगरिमप, ग्मिधगप, मरिधगप, रिधमगप, धरिमगप, मधरिगप, धमरिंगप, गमधरिप, मगधरिप, गधमरिप, धगमरिप, मधगरिप, धमगरिप, रिगपधम, गरिपधम, रिपगधम, परिगधम, गपरिधप, पगरिधम, ग्गिधपम, गरिधपम, रिधगपम, धरिगपम, गधरिपम, धगरिपम,००
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३१६
[ औ० (१६) ६१ -
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रिपधगम, परिधगम, रिधपगम, धरिपगम, पधरिगम, धपरिगम, गपधरिम, पगधरिम, गधपरिम, धगपरिम, पधगरिम, धपगरिम, ग्मिपधग, मरिपधग, रिपमधग, परिमधग, मपरिधग, पमरिधग, रिमधपग, मरिधपग, रिधमपग, धरिमपग, मधरिपग, धमरिपग, रिपधमग, परिधमग, रिधपमग, धरिपमग, पधरिमग, धपरिमग, मपधरिंग, पमधरिंग, मधपरिंग, धमपरिंग, पधमरिंग, धपमरिंग, गमपधरि, मगपधरि, गपमधरि, पगमधरि, मगधरि, पमगधरि, गमधपरि, मगधपरि, गधमपरि, धगमपरि, मधगपरि, धमगपरि, गपधमरि, पगधमरि, ' गधपमरि, धगपमरि, पधगमरि, धपगमरि, मपधगरि, पमधगरि, मधपगरि, धमपगरि, पधमगरि, धपमगरि (१७) रिगमपनि, गरिमपनि, रिमगपनि, मरिगपनि, गमरिपनि, मगरिपनि, रिगपमनि, गरिपमनि, रिपगमनि, परिगमनि, गपरिमनि, पगरिमनि, रिमपगनि, मरिपगनि, रिपमगनि, परिमगनि, मपरिगनि, पमरिगनि, गमपरिनि, मगपरिनि, 20 गपमरिनि, पगमरिनि, मपगरिनि, पमगरिनि, रिगमनिप, गरिमनिप, रिमगनिप, मरिगनिप, गमरिनिप, मगरिनिप, ग्गिनिमप, गरिनिमप, रिनिगमप, निरिगमप, गनिरिमप, निगरिमप, रिमनिगप, मरिनिगप, रिनिमगप, निग्मिगप, ° मनिग्गिप, निमरिंगप, गमनिरिप, मगनिरिप, गनिमरिप, निगमरिप, मनिगरिप, निमगरिप, रिगपनिम, गरिनिम, ' रिपगनिम, परिगनिम, गपरिनिम, पगरिनिम, रिगनिपम, गरिनियम, रिनिगपम, निरिंगपम, गनिरिपम, निगरिपम" रिपनिगम, परिनिगम, रिनिपगम, निरिपमग, पनिरिगम, निपरिगम, गपनिग्मि, पगनिरिम, गनिपरिम,
40
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निगपरिम, 10 पनिगरिम, निपगरिम, रिमपनिग, मरिपनिग, रिपमनिग, परिमनिग, मपरिनिंग, पमरिनिग, ग्मिनिपग, मरिनिपग रिनिमपग, निग्मिपग, मनिरिपग, निमग्पिग, रिपनिमग, परिनिमग, रिनिपमग, निरिपमग, पनिरिमग, निपरिमग, " मपनिरिंग, पमनिरिंग, मनिपरिंग, निमपरिंग, पनिमरिंग, निपमरिंग, गमपनिरि, मगपनिरि, गपमनिरि, पगम निरि, ' मपगनिरि, पमगनिरि, गमनिपरि, मगनिपरि, गनिमपरि,
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संगीतरत्नाकरः
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(१९) २५] अनुबन्धः
३१७ निगमपरि, मनिगपरि, निमगपरि, गपनिमरि, पगनिमरि,1° गनिपमरि, निगपमरि, पनिगमरि, निपगमरि, मपनिगरि, पमनिगरि, मनिपगरि, निमपगरि, धनिमगरि, निपमगरि.१० (१८) रिंगमधनि, गरिमधनि, रिमगधनि, मरिगधनि, गमरिधनि, मगरिधनि, रिंगधमनि, गरिधमनि, रिधगमनि, धरिगमनि,10 गधरिमनि, धगरिमनि, रिमधगनि, मरिधगनि, रिधमगनि, धरिमगनि, मधरिगनि, धमरिगनि, गमधरिनि, मगधरिनि, गधमरिनि, धगमरिनि, मधगरिनि, धमगरिनि, रिंगमनिध, गरिमनिध, रिमगनिध, मरिगनिध, गमरिनिध, मगरिनिध, रिगनिमध, गरिनिमध, रिनिगमध, निरिमगध, गनिरिमध, निगरिमध, रिमनिगध, मरिनिगध, रिनिमगध, निरिमगध,'' मनिरिगध, निमरिंगध, गमनिरिध, मगनिरिध, गनिमरिध, निगमरिध, मनिगरिध, निमगरिध, रिंगधनिम, गरिधनिम, रिधगनिम, धरिगनिम, गधरिनिम, धगरिनिम, रिगनिधम, गरिनिधम, रिनिगधम, निरिंगधम, गनिरिधम, निगरिधम, रिधनिगम, धरिनिगम, रिनिधगम, निरिधगम, धनिरिगम, निधरिगम, गधनिरिम, धगनिरिम, गनिधरिम, निगधरिम, धनिगरिम, निधगरिम, रिमधनिग, मरिधनिग, रिधमनिग, धरिमनिग, मधरिनिग, धमरिनिग, रिमनिधग, मरिनिधग, रिनिमधग, निरिमधग, मनिरिधग, निमरिधग, रिधनिमग, धरिनिमग, रिनिधमग. निरिधमग, धनिरिमग, निधरिमग,° मधनिरिंग, धमनिग्गि, मनिधग्गि, निमधरिंग, धनिमरिंग, निधमरिंग, गमधनिरि, मगधनिरि, गधमनिरि, धगमनिरि, 10° मधगनिरि, धमगनिरि, गमनिधरि, मगनिधरि, गनिमधरि, निगमधरि, मनिगधरि, निमगधरि, गधनिमरि, धगनिमरि,10 गनिधमरि, निगधमरि, धनिगमरि, निधगमरि, मधनिगरि, धमनिगरि, मनिधगरि, निमधगरि, धनिमगरि, निधमगरि.१० (१९) रिगपधनि, गरिपधनि, रिपगधनि, पग्गिधनि, गपरिधनि, पगरिधनि, रिंगधपनि, गरिधपनि, रिधगपनि, धरिगपनि, गधरिपनि, धगरिपनि, रिपधगनि, परिधगनि, ग्धिपगनि, धरिपगनि, पधग्गिनि, धपरिगनि, गपधगिनि, पगधरिनि,२° गधपरिनि, धगपरिनि, पधगरिनि, धपगरिनि, रिंगपनिध,
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३१८
संगीतरत्नाकरः [औ० (१९) २६गरिपनिध, रिपगनिध, परिगनिध, गपरिनिध, पगरिनिध, रिगनिपध, गरिनिपध, रिनिगपध, निरिगपध, गनिरिपध, निगरिपध, रिपनिगध, परिनिगध, रिनिपगध, निरिपगध, पनिरिगध, निपरिगध, गपनिरिध, पगनिरिध, गनिपरिध, निगपरिध, पनिगरिध, निपगरिध, रिंगधनिप, गरिधनिप, रिधगनिप, धरिगनिप, गधरिनिप, धगरिनिप, रिगनिधप, गरिनिधप, रिनिगधप, निरिगधप, गनिरिधप, निगरिधप,७० रिधनिगप, धरिनिगप, रिनिधगप, निरिधगप, धनिरिगप, निधरिगप, गधनिरिप, धगनिरिप, गनिधरिप, निगधरिप, धनिगरिप, निधगरिप, रिपधनिग, परिधनिग, रिधपनिग, धरिपनिग, पधरिनिग, धपरिनिग, रिपनिधग, परिनिधग,8° रिनिपधग, निरिपधग, पनिरिधग, निपरिधग, रिधनिपग, धरिनिपग, रिनिधपग, निरिधपग, धनिरिपग, निधरिपग,°° पधनिरिंग, धपनिरिग, पनिधरिंग, निपधरिंग, धनिपरिग, निधपरिग, गपधनिरि, पगधनिरि, गधपनिरि, धगपनिरि,10° पधगनिरि, धपगनिरि, गपनिधरि, पगनिधरि, गनिपधरि, निगपधरि, पनिगधरि, निपगधरि, गधनिपरि, धगनिपरि,1° गनिधपरि, निगधपरि, धनिगपरि, निधगपरि, पधनिगरि, धपनिगरि, पनिधगरि, निपधगरि, धनिपगरि, निधपगरि.१० (२०) रिमपधनि, मरिपधनि, रिपमधनि, परिमधनि, मपरिधनि, पमरिधनि, रिमधपनि, मरिधपनि रिधमपनि, धरिमपनि,1° मधरिपनि, धमरिपनि, रिपधमनि, परिधमनि, रिधपमनि, धरिपमनि, पधरिमनि, धपरिमनि, मपरिनि, पमधरिनि,२० मधपरिनि, धमपरिनि, पधमरिनि, धपमरिनि, रिमपनिध, मरिपनिध, रिपमनिध, परिमनिध, मपरिनिध, पमरिनिध, " रिमनिपध, मरिनिपध, रिनिमपध, निरिमपध, मनिरिपध, निमरिपध, रिपनिमध, परिनिमध, रिनिपमध, निरिपमध,*° पनिरिमध, निपरिमध, मपनिरिध, पमनिरिध, मनिपरिध, निमपरिध, पनिमरिध, निपमरिध, रिमधनिप, मरिधनिप, रिधमनिप, धरिमनिप, मधरिनिप, धमरिनिप, रिमनिधप, मरिनिधप, रिनिमधप, निरिमधप, मनिग्धिप, निमरिधप,०० रिधनिमप, धरिनिमप, रिनिधमप, निरिधमप, धनिरिमप, निधरिमप,
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(२१) १०७] अनुबन्धः
३१९ मधनिरिप, धमनिरिप, मनिधरिप, निमधरिप, धनिमरिप, निधमरिप, रिपधनिम, परिधनिम, रिधपनिम, धरिपनिम, पधरिनिम, धपरिनिम, रिपनिधम, परिनिधम,8° रिनिपधम, निरिपधम, पनिरिधम, निपरिधम, रिधनिपम, धरिनिपम, गिनिधपम, निरिधपम, धनिरिपम, निधरिपम, पधनिरिम, धपनिरिम, पनिधरिम, निपधग्मि, धनिपग्मि, निधपरिम, मपधनिरि, पमधनिरि, मधपनिरि, धमपनिरि,10° पधमनिरि, धपमनिरि, मपनिधरि, पमनिधरि, मनिपधरि, निमपधरि, पनिमधरि, निपमधरि, मधनिपरि, धमनिपरि,1° मनिधपरि, निमधपरि, धनिमपरि, निधमपरि, पधनिमरि, धपनिमरि, पनिधमरि, निपधमरि, धनिपमरि, निधपमरि.१० (२१) गमपधनि, मगपधनि, गपमधनि, पगमधनि, मपगधनि, पमगधनि, गमधपनि, मगधपनि, गधमपनि, धगमपनि, मधगपनि, धमगपनि, गपधमनि, पगधमनि, गधपमनि, धगपमनि, पधगमनि, धपगमनि, मपधगनि, पमधगनि, मधपगनि, धमपगनि, पधमगनि, धपमगनि, गमपनिध, मगपनिध, गपमनिध, पगमनिध, मपगनिध, पमगनिध, गमनिपध, मगनिपध, गनिमपध, निगमपध, मनिगपध, निमगपध, गपनिमध, पगनिमध, गनिपमध, निगपमध,° पनिगमध, निपगमध, मपनिगध, पमनिगध, मनिपगध, निमपगध, पनिमगध, निपमगध, गमधनिप, मगधनिप, गधमनिप, धगमनिप, मधगनिप, धमगनिप, गमनिधप, मगनिधप, गनिमधप, निगमधप, मनिगधप, निमगधप,०० गधनिमप, धगनिमप, गनिधमप, निगधमप, धनिगमप, निधगमप, मधनिगप, धमनिगप, मनिधगप, निमधगप, धनिमगप, निधमगप, गपधनिम, पगधनिम, गधपनिम, धगपनिम, पधगनिम, धपगनिम, गपनिधम, पगनिधम,8° गनिपधम, निगपधम, पनिगधम, निपगधम, गधनिपम, धगनिपम, गनिधपम, निगधपम, धनिगपम, निधगपम,°° पधनिगम, धपनिगम, पनिधगम, निपधगम, धनिपगम, निधपगम, मपधनिग, पमधनिग, मधपनिग, धमपनिग,०° पधमनिग, धपमनिग, मपनिधग, पमनिधग, मनिपधग, निमपधग, पनिमधग,
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निपमधग, मधनिपग, धमनिपग, 0 मनिधपग, निमधपग, धनिमपग, निधमपग, पधनिमग, धपनिमग, पनिधमग, निपधमग, धनिपमग, निधपमग, ३०
संगीतरत्नाकर:
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षाडवस्वरप्रस्तार:- (१) सरिगमपध, रिसगमपध, सगरिमपध, गसरिमपध, रिगसमपध, गरिसमपध, सरिमगपध, रिसमगपध, समरिगपध, मसरिगपध, 10 रिमसगपध, मरिसगपध, सगमरिपध, गसमरिपध, समगरिपध, मसगरिषध, गमसरिपध, मगसरिपध, रिगमपध, गरिमसपध, ° रिमगसपध, मरिगसपथ, गमरिसपध, मगरिसपध, सरिगपमध, रिसगपमध, सगरिपमध, सरपमध, रिगसपमध, गरिसपमध, ° सरिपगमध, रिसपगमध, सपरिगमध, पसरिगमध, रिपसगमध, परिसगमध, सगपरिमध, गसपरिमध, सपगरिमध, पसगरिमध, ° गपसरिमध, पगसरिमध, रिगपसमध, गरिपसमध, रिपगसमध, परिसमध, गपरिसमध, पगरिसमध, सरिमपगध, रिसमपराध, ° समरिपगध, मसरिपगध, रिमसपगध, मरिसपगध, सरिपमगध, रिसपमगध, सपरिमगध, पसरिमगध, रिपसमगध, परिसमगध, ° समपरिगध, मसपरिगध, सपमरिगध, पसमरिगंध, मपसरिगध, पमसरिगध, रिमपसगध, मरिपसगध, रिपमसगध, परिमगध, मपरिसगध, पमरिसगध, सगमपरिध, गसमपरिध, समगपरिध, सगपरिध, गमसपरिध, मगसपरिध, सगपमरिध, गसपमरिध," सपगमरिध, पसगमरिध, गपसमरिध, पगसमरिध, समपगरिध, मसपगरिध, सपमगरिथ, पसमगरिध, मपमगरिध, पमसगरिथ, " गमपसरिध, मगपसरिध, गपमसरिध, पगमसरिध, मपगसग्धि, पमगसरिध, रिगमपध, गरिमपराध, रिमगपसध, मरिगपसध, गमरिपसध, मगरिपराध, रिगपमसध, गरिपमसध, रिपगमसध, परिगमसध, गपरिमसध, पगरिमसंध, रिमपगसध, मरिपगसध, " रिपमगसध, परिमगसध, मपरिगसध, पमरिगसध, गमपरिसध, मगपरिसध, गपमरिसध, पगमरिसध, मपगरिसध, पमगरिसध, 20 सरिगमधप, रिसगमधप, सगरिमधप, गसरिमधप, रिगसमधप, गरिसमधप, सरिमगधप, रिसमराधप, समरिगधप, मसरिगधप, ° रिमसगधप, मरिसगधप, सगमरिधप, गसमरिधप, समगरिधप, मसगरिधप, गमसरिधप, मगसरिधप, रिगमसधप, गरिमसधप, "
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रिमगसधप, मरिगसधप, गमरिसधप, मगरिसधप, सरिगधमप, रिसगधमप, सगरिधमप, गसरिधमप, रिगसधमप, गरिसधमप, ° सरिधगमप, रिसधगमप, सधरिगमप, धसरिगमप, रिधसगमप, धरिसगमप, सगधरिमप, गसधरिमप, सधगरिमप, धसगरिमप" गधसरिमप, धगसरिमप, रिगधसमप, गरिघसमप, रिधगसमप, धरिगसमप, गधरिसमप, धगरिसमप, सरिमधगप, रिसमधगप, समरिधगप, मसरिधगप, रिमसधगप, मरिसधगप, सरिधमगप, रिसधमगप, सधरिमगप, धसरिमगप, रिधसमगप, धरिसमगप, समधरिगप, मसधरिगप, सधमरिगप, धसमरिगप, मधसरिगप, धमसरिगप, रिमधसगप, मरिधसगप, रिधमसगप, धरिमसगप, ° मधरिसगप, धमरिसगप, सगमधरिप, समधरिप, समगधरिप, मसगधरिप, गमसधरिप, मगसधरिप, सगधमरिप, गसधमरिप, सधगमरिप, धसगमरिप, गधसमरिप, धगसमरिप, समधगरिप, मसधगरिप, सधमगरिप, धसमगरिप, मधसगरिप, धमसगरिप, 10 गमधसरिप, मगधसरिप, गथमसरिप, धगमसरिप, मधगसरिप, धमगसरिप, रिगमधसप, गरिमधसप, रिमगधसप, मरिगधसप, 20 गमरिधसप, मगरिधसप, रिगवमसप, गरिधमसप, रिधगमसप, धरिगमसप, गधरिमसप, धगरिमसप, रिमधगसप, मरिधगसप, " रिधमगसप, धरिमगसप, मधरिगसप, धमरिगसप, गमधरिसप, मगधरिसप, धमरिसप, धगमरिसप, मधगरिसप, धमगरिसप, सरिगपधम, रिसगपधम, सगरिपधम, गसरिपधम, रिगसपधम, गरिसपधम, सरिपराधम, रिसपराधम, सपरिगधम, पसरिगधम,° रिपसगधम, परिसगधम, सगपरिधम, गसपरिधम, सपगरिधम, पसगरिधम, गपसरिधम, पगसरिधम, रिगपसधम, गरिपराधम, रिपगसधम, परिगसधम, गपरिसधम, पगरिसधम, सरिगधपम, रिसगधपम, सगरिधपम, गसरिधपम, रिगसधपम, गरिसधपम, " सरिधगपम, रिसधगपम, सधरिगपम, धसरिगपम, रिधसगपम, धरिसगपम, सगधरिपम, गसधरिपम, सधगरिपम, धसगरिपम, 80 गधस रिपम, धगसरिपम, रिगधसपम, गरिधसपम, रिधगसपम, धरिगसपम, गधरिसपम, धगरिसपम, सरिपधगम, रिसपधगम, " सपरिधगम, पसरिधगम, रिपसधगम, परिसधगम, सरिधपगम, रिसधपगम, सधरिपगम, धस रिपगम, रिधसपगम, धरिसपगम, 300 सपधरिगम, पसधरिगम,
70
41
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३२२
संगीतरत्नाकरः [षा० (१) ३०३सधपरिगम, धसपरिगम, पधसरिगम, धपसरिगम, रिपधसगम, परिधसगम, रिधपसगम, धरिपसगम,1° पधरिसगम, धपरिसगम, सगपधरिम, गसपधरिम, सपगधरिम, पसगधरिम, गपसधरिम, पगसधरिम, सगधपरिम, गसधपरिम,२० सधगपरिम, धसगपरिम, गधसपरिम, धगसपरिम, सपधगरिम, पसधगरिम, सधपगरिम, धसपगरिम, पधसगरिम, धपसगरिम,° गपधसरिम, पगधसरिम, गधपसरिम, धगपसरिम, पधगसरिम, धपगसरिम, रिंगपधसम, गरिपधसम, रिपगधसम, परिंगधसम, गपरिधसम, पगरिधसम, रिंगधपसम, गरिधपसम, रिवगपसम, धरिगपसम, गधरिपसम, धगरिपसम, रिपधगसम, परिधगसम," रिधपगसम, धरिपगसम, परिगसम, धपरिगसम, गपधरिसम, पगधरिसम, गधपरिसम, धगपरिसम, पधगरिसम, धपगरिसम, सरिमपधग, रिसमपधग, समरिपधग, मसरिपधग, रिमसपधग, मरिसपधग, सरिपमधग, रिसपमधग, सपरिमधग, पसरिमधग,'° रिपसमधग, परिसमधग, समपरिधग, मसपरिधग, सपमरिधग, पसमरिधग, मपसरिधग, पमसरिधग, रिमपसधग, मरिपसधग,80 रिपमसधग, परिमसधग, मपरिसधग, पमरिसधग, सरिमधपग, रिसमधपग, समरिधपग, मसरिधपग, रिमसधपग, मरिसधपग,°° सरिधमपग, रिसधमपग, सधरिमपग, धसरिमपग, रिधसमपग, धरिसमपग, समधरिपग, मसधरिपग, सधमरिपग, धसमरिपग, ५०° मधसरिपग, धमसरिपग, रिमधसपग, मरिधसपग, रिधमसपग, धरिमसपग, मधरिसपग, धमरिसपग, सरिपधमग, रिसपधमग, सपरिधमग, पसरिधमग, रिपसधमग, परिसधमग, सरिधपमग, रिसधपमग, सधरिपमग, धसरिपमग, रिधसपमग, धरिसपमग,2° सपधरिमग, पसधरिमग, सधपरिमग, धसपरिमग, पधसरिमग, धपसरिमग, रिपधसमग, परिधसमग, रिधपसमग, धरिपसमग,७° पधरिसमग, धपरिसमग, समपधरिंग, मसपधरिंग, सपमधरिग, पसमधरिग, मपसधग्गि, पमसधरिग, समधपरिंग, मसधपरिंग,° सधमपरिग, धसमपरिग, मधसपरिंग, धमसपरिग, सपधमरिंग, पसधमरिंग, सधपमरिग, धसपमग्गि, पधसमरिंग, धपसमरिग, मपधसग्गि, पमधसरिंग, मधपसरिंग, धमपसरिंग, पधमसरिंग, धपमसरिंग, रिमपधसग, मरिपधसग, रिपमधसग, परिमधसग,8° मपरिधसग, पमरिधसग, रिमधपसग, मरिधपसग,
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(१) ६२६] अनुबन्धः
३२३ रिधमपसग, धरिमपसग, मधरिपसग, धमरिपसग, रिपधमसग, परिधममग, रिधएमसग, धरिपमसग, पधग्मिस्ग, धपरिमसग, मपधग्सिग, पमधरिसग, मधपरिसग, धमपरिसग, पधमरिसग, धपमरिसग, सगभपधरि, गसमपधरि, समगपधरि, मसगपधरि, गमसपधरि, मगसपधरि, सगपमधरि, गसपमधरि, सपगमधरि, पसगमधरि,° गपसमधरि, पगसमधरि, समपगधरि, मसपगधरि, सपमगधरि, पलमगधरि, मपसगधरि, पमसगधरि, गमपमधरि, मगपसधरि,०° गपमसधरि, पगमसधरि, मपगसधरि, पमगसधरि, सगमधपरि, गममधपरि, सभगधपरि, मसगधपरि, गमसधपरि, मगसधपरि, सगधमपरि, गसधमपरि, सधगमपरि, धसगमपरि, गधसमपरि, धगसमपरि, समधगपरि, मसधगपरि, सधमगपरि, धसमगपरि, मधसगपरि, धमसगपरि, गमधसपरि, मगधसपरि, गधमसपरि, धगमसपरि, मधगसपरि, धमगसपरि, सगपधमरि, गमपधमरि, सपगधमरि, पसगधमरि, गपसधमरि, पगसधमरि, सगधपमरि, गसधपमगि, सधगपमरि, धसगपमगि, गधसपमरि, धगसपमरि, सपधगमगि, पसधगमरि, सधपगमरि, धसपगमरि, पसगमरि, धपसगमरि, गपधसमरि, पगधसमरि, गधपसमरि, धगपसमरि,5° पधगसमरि, धपगसमरि, समपधगरि, मसपधगरि, सपमधगरि, पसमधगरि, मपसधगरि, पमसधगरि, समधपगरि, मसधपगरि,60 सधमपगरि, धसमपगरि, मधसपगरि, धमसपगरि, सपधमगरि, पसधमगरि, सधपमगरि, धसपमगरि, पधालमगरि, धपसमगरि, मपधसगरि, पमधसगरि, मधपसगरि, धमपसगरि, पधमसगरि, धपमसगरि, गमपधसरि, मगपधसरि, गपमधसरि, पगमधसरि, मपगधसरि, पमगधसरि, गमधपसरि, मगधपसरि, गधभपसगि, धगमपसरि, मधगपसरि, धमगपसरि, गपधमसरि, पगधमसरि,°° गधएमसरि, धगपमसरि, पधगमसरि, धपगमसरि, मपधगसरि, पमधगसगि, मधपगसरि, धमपगसरि, पधमगसरि, धपमगसरि, ०° रिंगमपधस, गरिमपधस, रिमगपधस, मरिगपधस, गमरिपधस, मगरिपधस, रिंगपमधस, गरिपमधस, रिपगमधस, परिगमधस, गपरिमधस, पगरिमधस, रिमपगधस, मरिपगधस, रिपमगधस, परिमगधस, मपरिगधस, पमरिगधस, गमपरिधस, मगपरिधस, गपमरिधस, पगमरिधस, मपगरिधस, पमगरिधस, रिंगमधपस, गरिमधपस,
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३२४
संगीतरत्नाकरः [षा० (१) ६२७रिमगधपस, मरिगधपस, गमरिधपस, मगरिधपस, रिंगधमपस, गरिधमपस, रिधगमपस, धरिगमपस, गधरिमपस, धगरिमपस, रिमधगपस, मरिधगपस, रिधमगपस, धरिमगपस, ° मधरिगपस, धमरिगपस, गमधरिपस, मगधरिपस, गधमरिपस, धगमरिपस, मधगरिपस, धमगरिपस, रिगपधमस, गरिपधमस, रिपगधमस, परिगधमस, गपरिधमस, पगरिधमस, रिंगधपमस, गरिधपमस, रिधगपमस, धरिगपमस, गधरिपमस, धगरिपमस, ° रिपधगमस, परिधगमस, रिधपगमस, धरिपगमस, पधरिगमस, धपरिगमस, गपधरिमस, पगधरिमस, गधपरिमस, धगपरिमस,'° पधगरिमस, धपगरिमस, रिमपधगस, मरिपधगस, रिपमधगस, परिमधगस, मपरिधगस, पमरिधगस, रिमधपगस, मरिधपगस, रिधमपगस, धरिमपगस, मधरिपगस, धमरिपगस, रिपधमगस, परिधमगस, रिधपमगस, धरिपमगस, पधरिमगस, धपरिमगस,°° मपरिगस, पमधरिगस, मधपरिगस, धमपरिगस, पधमरिगस, धपमरिगस, गमपधरिस, मगपधरिस, गपमधरिस, पगमधरिस,०° मपगधरिस, पमगधरिस, गमधपरिस, मगधपरिस, गधमपरिस, धगमपरिस, मधगपरिस, धमगपरिस, गपधमरिस, पगधमरिस, गधपमरिस, धगपमरिस, पधगमरिस, धपगमरिस, मपधगरिस, पमधगरिस, मधपगरिस, धमपगरिस, पधमगरिस, धपमगरिस.२० (२) सरिगमपनि, रिसगमपनि, सगरिमपनि, गसरिमपनि, रिगसमपनि, गरिसमपनि, सरिमगपनि, रिसमगपनि, समरिगपनि, मसरिगपनि,' रिमसगपनि, मरिसगपनि, सगमरिपनि, गसमरिपनि, समगरिपनि, मसगरिपनि, गमसरिपनि, मगसरिपनि, रिगमसपनि, गरिमसपनि,२० रिमगसपनि, मरिगसपनि, गमरिसपनि, मगरिसपनि, सरिगपमनि, रिसगपमनि, सगरिपमनि, गसरिपमनि, रिगसपमनि, गरिसपमनि,° सरिपगमनि, रिसपगमनि, सपरिगमनि, पसरिगमनि, रिपसगमनि, परिसगमनि, सगपरिमनि, गसपरिमनि, सपगरिमनि, पसगरिमनि,° गपसरिमनि, पगसरिमनि, रिंगपसमनि, गरिपसमनि, रिपगसमनि, परिगसमनि, गपरिसमनि, पगरिसमनि, सरिमपगनि, रिसमपगनि, समरिपगनि, मसरिपगनि, रिमसपगनि, मरिसपगनि, सरिपमगनि, रिसपमगनि,
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(२) १९१]
अनुबन्धः सपरिमगनि, पसरिमगनि, रिपसमगनि, परिसमगनि,०० समपरिगनि, मसपरिगनि, सपमरिगनि, पसमरिगनि, मपसरिगनि, पमसरिगनि, रिमपसगनि, मरिपसगनि, रिपमसगनि, परिमसगनि,' मपरिसगनि, पमरिसगनि, सगमपरिनि, गसमपरिनि, समगपरिनि, मसगपरिनि, गमसपरिनि, मगसपरिनि, सगपमरिनि, गसपमरिनि, सपगमरिनि, पसगमरिनि, गपसमरिनि, पगसमरिनि, समपगरिनि, मसपगरिनि, सपमगरिनि, पसमगरिनि, मपसगरिनि, पमसगरिनि,° गमपसरिनि, मगपसरिनि, गपमसरिनि, पगमसरिनि, मपगसगिनि, पमगसरिनि, रिगमपसनि, गरिमपसनि, रिमगपसनि, मरिगपसनि,10° गमरिपसनि, मगरिपसनि, ग्गिपमसनि, गरिपमसनि, रिपगमसनि, परिगमसनि, गपरिमसनि, पगरिमसनि, रिमपगसनि, मरिपगसनि, रिपमगसनि, परिमगसनि, मपरिगसनि, पमग्गिसनि, गमपरिसनि, मगपरिसनि, गपमरिसनि, पगमरिसनि, मपगरिसनि, पमगरिसनि,२० सरिगमनिप, रिसगमनिप, सगरिमनिप, गसरिमनिप, रिगसमनिप, गरिसमनिप, सरिमगनिप, रिसमगनिप, समरिगनिप, मसरिगनिप, रिमसगनिप, मरिसगनिप, सगमरिनिप, गसमरिनिप, समगरिनिप, मसगरिनिप, गमसरिनिप, मगसगिनिप, रिंगमसनिप, गरिमसनिप, रिमगसनिप, मरिगसनिप, गमरिसनिप, मगरिसनिप, सरिगनिमप, सिगनिमप, सगरिनिमप, गसगिनिमप, रिगसनिमप, गरिसनिमप,° सरिनिगमप, रिसनिगमप, सनिरिगमप, निसरिगमप, रिनिसगमप, निरिसगमप, सगनिग्मिप, गसनिरिमप, सनिगरिमप, निसगरिमप,०० गनिसरिमप, निगसरिमप, रिंगनिसमप, गरिनिसमप, रिनिगसमप, निग्गिसमप, गनिरिसमप, निगग्सिमप, सरिमनिगप, रिसमनिगप, समरिनिगप, मसरिनिगप, रिमसनिगप, मरिसनिगप, सरिनिमगप, सिनिमगप, सनिग्मिगप, निसरिमगप, रिनिसमगप, निरिसमगम,° समनिरिगप, मसनिरिगप, सनिमरिगप, निसमरिगप, मनिसग्गिप, निमसग्गिप, रिमनिसगप, मरिनिसगप, रिनिमसगप, निरिमसगप,°° मनिरिसगप,
* Infiifi 11111111111111111
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संगीतरत्नाकरः [षा० (२) १९२निमरिसगप, सगमनिरिप, गसमनिरिप, समगनिरिप, मसगनिरिप, गमसनिम्पि, मगस निरिप, सगनिमरिप, गसनिमरिप,200 सनिगमरिप, निसगमरिप, गनिसमरिप, निगसमरिप, समनिगरिप, मसनिगरिप, सनिमगरिप, निसमगरिप, मनिसगरिप, निमसगरिप, गमनिसरिप, मगनिसरिप, गनिमसग्पि, निगमसरिप, मनिगसरिप, निमगसरिप, ग्गिमनिसप, गरिमनिसप, रिमगनिसप, मरिगनिसप, गमरिनिसप, मगरिनिरूप, रिगनिमसप, गरिनिमसप, रिनिगमसप, निग्गिमसप, गनिरिमसप, निगरिमसप, रिभनिगसप, मरिनिगसप, गिनिमगसप, निरिमगसप, मनिरिंगरूप, निमरिंगसप, गमनिरिमप, मगनिरिसप, गनिमरिसप, निगमरिसप, मनिगरिसप, निमगरिसप, सरिगपनिम, रिसगपनिम, सगरिपनिम, गसरिपनिम, रिगसपनिम, गरिसपनिम, सग्पिगनिम, रिसपगनिम, सपरिगनिम, पसरिगनिम, रिपसगनिम, परिसगनिम, सगपरिनिम, गसपरिनिम, सपगगिनिम, पसगरिनिम, गपसरिनिम, पगसरिनिम, रिंगपसनिम, गरिपसनिम,°° रिपगसनिम, परिगसनिम, गपरिसनिम, पगरिसनिम, सरिगनिपम, रिसगनिपम, सगरिनिपम, गसरिनिपम, रिगसनिपम, गरिसनिपम, सरिनिगपम, रिसनिगपम, सनिरिगपम, निसरिगपम, रिनिसगपम, निरिसगपन. सगनिरिपम, गसनिरिपम, सनिगरिपम, निसगरिपम, गनिसरिपम, निगसरिपम, रिगनिसपम, गरिनिसपम, रिनिगसपम, निरिगसपम, गनिरिसपम, निगरिसपम, सरिपनिगम, रिसपनिगम,°° सपरिनिगम, पसरिनिगम, रिपसनिगम, परिसनिगम, सरिनिपगम, रिसनिपगम, सनिरिपगम, निसरिपगम, रिनिसपगम, निरिसपगम,३०० सपनिरिगम, पसनिरिगम, सनिपरिगम, निसपरिगम, पनिप्तरिगम, निपसग्गिम, रिपनिसगम, परिनिसगम, रिनिपसगम, निरिपसगम,1° पनिरिसगम, निपरिसगम, सगपनिरिम, गसपनिरिम, सपगनिरिम, पसगनिरिम, गपतनिग्मि, पगसनिरिम, सगनिपरिम, गसनिपरिम, सनिगपरिम, निसगपरिम, गनिसपरिम, निगसपरिम, सपनिगरिम, पसनिगरिम,
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(२) ४६१]
अनुबन्धः
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90
सनिपगरिम, निसपगरिम, पनिसगरिम, निपसगरिम, 30 गपनिसरिम, पगनिसरिम, गनिपसरिम, निगपसरिम, पनिगसरिम निपगसरिम, रिंगपनिसम, गग्पिनिसम, रिपगनिसम, पग्गिनिसम, गरिनिसम, पगरिनिसम, रिगनिपसम, गरिनिपसम, रिनिगपसम, निग्गिपसम, गनिपिसम, निगम्पिसम, रिपनिगसम, परिनिगसम, " रिनिपगसम, निरिपगसम, पनिरिंगसम, निपरिगसम, गपनिरिसम, पगनिरिसम, गनिपरिसम, निगपरिसम, पनिगरिसम, निपगरिसम, सरिमपनिग, रिसमपनिग, समपिनिग, मसग्पिनिग, रिमसपनिग, मरिसपनिग, सरिम निग, रिसपम निग, सपरिमनिग, पसरिमनिग, ' 10 रिपसमनिग परिसमनिग, समपरिनिग, मसपरिनिंग, सपमरिनिग, पसमरिनिग, मपसरिनिग, पमसरिनिग, रिमपसनिग, मरिपसनिग, रिपमसनिग, परिमस निग, मपरिसनिग, पमरिसनिग, सरिमनिपग, रिसमनिपग, समरिनिपग, मसरिनिपग, रिमसनिपग, मरिसनिपग, ' सरिनिमपग, रिसनिमपग, सनिरिमपग, निसरिमपग, रिनिसमपग, निरिसमपग, समनिपिग, मसनिरिपग, सनिमरिपग, निसमरिपग, मनिसरिपग, निमस रिपग, रिमनिसपग, मरिनिसपग, रिनिमसपग, निरिमसपग, मनिरिसपग, निमरिसपग, सरिपनिमग, रिसपनिमग, 10 सपरिनिमग, पसरिनिमग, रिपस निमग, परिसनिमग, सरिनिपमग, रिसनिपमग, सनिरिपमग, निसरिपमग, रिनिसपमग, निरिसपमग, सपनिरिमग, पसनिग्मिग, सनिपरिमग, निसपरिमग, पनिसरिमग, निपसरिमग, रिपनि समग, परिनिसमग, रिनिपसमग, निरिपसमग, पनिरिसमग, निपरिसमग, समपनिरिंग, मसपनिरिंग, सपमनिरिंग, पसमनिरिंग, मपस निरिंग, पमस निरिंग, समनिपरिंग, मसनिपरिंग, 10 निमपरिंग, निसमपरिंग, मनिसपरिंग, निमसपरिंग, सपनिमरिंग, पसनिमरिंग, सनिपमरिंग, निसपमरिंग, पनिसमरिंग, निपसमरिंग, 50 मपनिसरिंग,
पमनिसरिंग, मनिपसरिंग, निमपसरिंग, पनिमसरिंग, निपमसरिंग, रिमपनिसग, मरिपनिसग, रिपमनिसग, परिमनिसग, १० परिनिसग,
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संगीतरत्नाकरः [षा० (२) ४६२ -
परिनिसग, रिमनिपसग, मरिनिपसग, रिनिमपसग, निरिमपसग, मनिरिपसग, निमरिपसग, रिपनिमसग, परिनिमसग, 10 रिनिपमसग, निरिपमसग, पनिरिमसग, निपरिमसग, मपनिरिसग, पमनिरिसग, मनिपरिसग, निमपरिसग, पनिमरिसग, निपमरिसग,' 80 सगमपनिरि, गसमपनिरि, समगपनिरि, मसगपनिरि, गमसपनिरि, मग पनिर, सगपमनिरि, गसपमनिरि, सपगमनिरि, पसगमनिरि, ' गपसमनिरि,
90
सपमगनिरि, पसमगनिरि,
पगसमनिरि, समपगनिरि, मसपगनिरि, मपसगनिरि, पमसगनिरि, गमपस निरि, पगमसनिरि, मपगसनिरि, पमगसनिरि, समगनिपरि, मसग निपरि, गमसनिपरि, गसनिमपरि, सनिगमपरि, निसगमपरि,
सगमनिपरि,
मगसनिपरि, 10
गनिसमपरि,
समनिगपरि, मसनिगपरि, सनिमगपरि, निसमगपरि, 20
मगपसनिरि, '
500
निगसमपरि,
मनिसगपरि,
निमसगपरि, गमनिसपरि, मगनिसपरि,
निगम परि
सपगनिमरि,
गसनिपमरि,
मनिगसपरि, निमगस परि, सगपनिमरि, पसगनिमरि, गपस निमरि, पगस निमरि, सगनिपमरि, सनिगपमरि, निसगपमरि, गनिसपमरि, निगसपमरि, ° सपनिगमरि, पसनिगमरि, सनिपगमरि, निसपगमरि, पनिसगमरि, निपसगमरि,
40
50 पनिगसमरि,
गपनिसमरि, पगनिसमरि, गनिपसमरि, निगपसमरि, निपगसमरि, समपनिगरि, मसपनिगरि, सपमनिगरि, पसमनिगरि, मपसनिगरि, पमस निगरि, समनिपगरि, मसनिपगरि, सनिमपगरि, निसमपगरि, मनिसपगरि निमसपगरि, सपनिमगरि, पस निमगरि, सनिपमगरि, निसपमगरि, पनिसमगरि, निपसमगरि, 70 मपनिसगरि, पमनिसगरि, मनिपसगरि, निमपसगरि, पनिमसगरि, निपमसगरि, गमपनिसरि, मगपनिसरि, गपमनिसरि, पगमनिसरि, मपगनिसरि, पमगनिसरि, गमनिपसरि, मगनिपसरि, गनिमपसरि, निगमपसरि, मनिगपसरि, निमगपसरि, गपनिमसरि, पगनिमसर, ० गनिमसर, निगपमसरि, पनिगमसरि, निपगमसरि, मपनिगसरि, पमनिगसरि,
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गनिमस परि,
80
गसपनिमरि,
60
गमस निरि,
गसमनिपरि,
सगनिमपरि,
80
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(३) ११] अनुबन्धः
३२९ मनिपगसरि, निमपगसरि, पनिमगसरि, निपमगसरि,००० रिंगमपनिस, गरिमपनिस, रिमगपनिस, मरिगपनिस, गमरिपनिस, मगरिपनिस, रिगपमनिस, गरिपमनिस, रिपगमनिस, परिगमनिस,1° गपरिमनिस, पगरिमनिस, रिमपगनिस, मरिपगनिस, रिपमगनिस, परिमगनिस, मपरिगनिस, पमग्गिनिस, गमपरिनिस, मगपरिनिस, गपमरिनिस, पगमरिनिस, मपगरिनिस, पमगरिनिस, रिंगमनिपस, गरिमनिपस, रिमगनिपस, मरिगनिपस, गमरिनिपस, मगरिनिपस, रिगनिमपस, गरिनिमपस, रिनिगमपस, निरिगमपस, गनिरिमपस, निगरिमपस, रिमनिगपस, मरिनिगपस, रिनिमगपस, निरिमगपस, मनिरिगपस, निमरिगपस, गमनिरिपस, मगनिरिपस, गनिमरिपस, निगमरिपस, मनिगरिपस, निमगरिपस, रिंगपनिमस, गरिपनिमस,5° रिपगनिमस, परिगनिमस, गपरिनिमस, पगरिनिमस, रिगनिपमस, गरिनिपमस, रिनिगपमस, निरिगपमस, गनिरिपमस, निगरिपमस, रिपनिगमस, परिनिगमस, रिनिपगमस, निरिपगमस, पनिरिगमस, निपरिगमस, गपनिरिमस, पगनिरिमस, गनिपरिमस, निगपरिमस,' पनिगरिमस, निपगरिमस, रिमपनिगस, मरिपनिगस, रिपमनिगस, परिमनिगस, मपरिनिगस, पमरिनिगस, रिमनिपगस, मरिनिपगस, रिनिमपगस, निरिमपगस, मनिरिपगस, निमरिपगस, रिपनिमगस, परिनिमगस, रिनिपमगस, निरिपमगस, पनिरिमगस, निपरिमगस,°० मपनिरिगस, पमनिरिगस, मनिपरिगस, निमपरिगस, पनिमरिगस, निपमरिगस, गमपनिरिस, मगपनिरिस, गपम निरिस, पगमनिरिस,०० मपगनिरिस, पमगनिरिस, गमनिपरिस, मगनिपरिस, गनिमपरिस, निगमपरिस, मनिगपरिस, निमगपरिस, गपनिमरिस, पगनिमरिस, गनिपमरिस, निगपमरिस, पनिगमरिस, निपगमरिस, मपनिगरिस, पमनिगरिस, मनिपगरिस, निमपगरिस, पनिमगरिस, निपमगरिस.१० (३) सरिगमधनि, रिसगमधनि, सगरिमधनि, गसरिमधनि, रिगसमधनि, गरिसमधनि, सरिमगधनि, रिसमगधनि, समरिगधनि, मसरिगधनि,' रिमसगधनि,
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३३०
संगीतरत्नाकर:
[बा० (३) १२
20
40
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70
मरिसगधनि, सगमरिधनि, गसमरिधनि, समगरिधनि, मसगरिधनि, गमसरिधनि, मगसरिधनि, रिगमसधनि, गरिमसधनि, ' रिमगसधनि, मरिसधनि, गमरिसधनि, मगरिसधनि, सरिगधमनि, रिसगधमनि, सगरिधमनि, गसरिधमनि, रिगसधमनि, गरिसधमनि, सरिधगमनि, रिसधगमनि, सधरिगमनि, घसरिगमनि, रिधसगमनि, धरिसगमनि, सगधरिमनि, गसधरिमनि, सधगरिमनि, धसगरिमनि, " गधसरिमनि, धगसरिमनि, रिगधसमनि, गरिधसमनि, रिधगसमनि, धरिगसमनि, गधरिसमनि, धगरिसमनि, सरिमधगनि, रिसमधगनि, ' समरिधगनि, मसरिधगनि, रिमसधगनि, मरिसधगनि, सरिधमगनि, रिसधमगनि, सधरिमगनि, धसरिमगनि, रिधसमगनि, धरिसमगनि, ' समधरिगनि, मसधरिगनि, सधमरिगनि, धसमरिगनि, मधसरिगनि, धमसरिगनि, रिमधसगनि, मरिधसगनि, रिधमसगनि, धरिमसगनि, ' मधरिसगनि, धमरिसगनि, सगमधरिनि, गसमधरिनि, समगधरिनि, मसगधरिनि, गमसधरिनि, मगसधरिनि, सगधमरिनि, गसधमरिनि, सधगमरिनि, धसगम रिनि, गधसमरिनि, धगसमरिनि, समधगरिनि, मसधगरिनि, सधमगरिनि, धसमगरिनि, मधसगरिनि, धमसगरिनि, ' सरिन, मगधसरिनि, गधमसरिनि, धगमसरिनि, मधगसरिनि, धमगसरिनि, रिगमधसनि, गरिमधसनि, रिमगधसनि, मरिगधसनि, ' गमरिधसनि, मगरिधसनि, रिगधमसनि, गरिधमसनि, रिधगमसनि, धरिगमसनि, गधरिमसनि, धगरिमसनि, रिमधगसनि, मरिधगसनि, " धरिमगसनि, गधरिगसनि, धमरिगसनि, गमधरिसनि, मगधरिसनि, गधमरिसनि, धगमरिसनि, मधगरिसनि, धमगरिसनि, ' सरिगमनिध, रिसगमनिध, सगरिमनिध, गसरिमनिध, रिगसमनिध, गरिसमनिध, सरिमगनिध, रिसमगनिध, समरिगनिध, मसरिगनिध, रिमसगनिध, मरिसगनिध, सगमरिनिध, गसमरिनिध, समगरिनिध, मसगरिनिध, गमसरिनिध, मगसरिनिध, रिंगमसनिध, गरिमसनिध, मध मरिगसन्धि, गमरिसनिध, मगरिसनिध, सरिगनिमध, रिसगनिमध,
90
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रिधमगसनि,
20
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11111111111111111111
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(३) २८१] अनुबन्धः
३३१ सगरिनिमध, गसरिनिमध, रिगसनिमध, गरिसनिमध,° सरिनिगमध, रिसनिगमध, सनिरिंगमध, निसरिंगमध, रिनिसगमध, निरिसगमध, सगनिरिमध, गसनिरिमध, सनिगरिमध, निसगरिमध, गनिसरिमध, निगसरिमध, रिगनिसमध, गरिनिसमध, रिनिगसमध, निरिगसमध, गनिरिसमध, निगरिसमध, सरिमनिगध, रिसमनिगध, समरिनिगध, मसरिनिगध, रिमसनिगध, मरिसनिगध, सरिनिमगध, रिसनिमगध, सनिरिमगध, निसरिमगध, रिनिसमगध, निरिसमगध, समनिरिंगध, मसनिरिगध, सनिमरिगध, निसमरिगध, मनिसरिंगध, निमसरिगध, रिमनिसगध, मरिनिसगध, रिनिमसगध, निरिमसगध, मनिरिसगध, निमरिसगध, सगमनिरिध, गसमनिरिध, समगनिरिध, मसगनिरिध, गमसनिरिध, मगसनिरिध, सगनिमरिध, गसनिमरिध,२०० सनिगमरिध, निसगमरिध, गनिसमरिध, निगसमरिध, समनिगरिध, मसनिगरिध, सनिमगरिध, निसमगरिध, मनिसगरिध, निमसगरिध, गमनिसरिध, मगनिसरिध, गनिमसरिध, निगमसरिध, मनिगसरिध, निमगसरिध, रिगमनिसध, गरिमनिसध, रिमगनिसध, मरिगनिसध,२० गमरिनिसध, मगरिनिसध, रिगनिमसध, गरिनिमसध, रिनिगमसध, निरिगमसध, गनिरिमसध, निगरिमसध, रिमनिगसध, मरिनिगसध, रिनिमगसध, निरिमगसध, मनिरिगसध, निमरिगसध, गमनिरिसध, मगनिरिसध, गनिमरिसध, निगमरिसध, मनिगरिसध, निमगरिसध,° सरिगधनिम, रिसगधनिम, सगरिधनिम, गसरिधनिम, रिगसधनिम, गरिसधनिम, सरिधगनिम, रिसधगनिम, सधरिगनिम, धसरिगनिम, रिधसगनिम, धरिसगनिम, सगधरिनिम, गसधरिनिम, सधगरिनिम, धसगरिनिम, गधसरिनिम, धगसरिनिम, रिंगधसनिम, गरिधसनिम, रिधगसनिम, धरिगसनिम, गधरिसनिम, धगरिसनिम, सरिगनिधम, रिसगनिधम, सगरिनिधम, गसरिनिधम, रिगसनिधम, गरिसनिधम, सरिनिगधम, रिसनिगधम, सनिरिगधम, निसरिंगधम, रिनिसगधम, निरिसगधम, सगनिरिधम, गसनिरिधम, सनिगरिधम, निसगरिधम, गनिसरिधम,
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३३२
संगीतरत्नाकरः [षा० (३) २८२निगसरिधम, रिगनिसधम, गरिनिसधम, रिनिगसधम, निरिगसधम, गनिरिसधम, निगरिसधम, सरिधनिगम, रिसधनिगम,° सधरिनिगम, धसरिनिगम, रिधसनिगम, धरिसनिगम, सरिनिधगम, रिसनिधगम, सनिरिधगम, निसरिधगम, रिनिसधगम, निरिसधगम,80° सधनिरिगम, धसनिरिगम, सनिधरिगम, निसधरिगम, धनिसरिगम, निधसरिंगम, रिधनिसगम, धरिनिसगम, रिनिधसगम, निरिधसगम, धनिरिसगम, निधरिसगम, सगधनिरिम, गसधनिरिम, सधगनिरिम, धसगनिरिम, गधसनिरिम, धगसनिरिम, सगनिधरिम, गसनिधरिम,२० सनिगधरिम, निसगधरिम, गनिसधरिम, निगसधरिम, सधनिगरिम धसनिगरिम, सनिधगरिम, निसधगरिम, धनिसगरिम, निधसगरिम, गनिसरिम, धगनिसरिम, गनिधसरिम, निगधसरिम, धनिगसरिम, निधगसरिम, रिगधनिसम, गरिधनिसम, रिधगनिसम, धरिगनिसम, गधरिनिसम, धगरिनिसम, रिगनिधसम, गरिनिधसम, रिनिगधसम, निरिगधसम, गनिरिधसम, निगरिधसम, रिधनिगसम, धरिनिगसम,50 रिनिधगसम, निरिधगसम, धनिरिगसम, निधरिगसम, गधनिरिसम, धगनिरिसम, गनिधरिसम, निगधरिसम, धनिगरिसम, निधगरिसम,७० सरिमधनिग, रिसमधनिग, समरिधनिग, मसरिधनिग, रिमसधनिग, मरिसधनिग, सरिधमनिग, रिसधमनिग, सधरिमनिग, धसरिमनिग, रिधसमनिग, धरिसमनिग, समधरिनिग, मसधरिनिग, सधमरिनिग, धसमरिनिग, मधसरिनिग, धमसरिनिग, रिमधसनिग, मरिधसनिग, रिधमसनिग, धरिमसनिग, मधरिसनिग, धमरिसनिग, सरिमनिधग, रिसमनिधग, समरिनिधग, मसरिनिधग, रिमसनिधग, मरिसनिधग,°° सरिनिमधग, रिसनिमधग, सनिरिमधग, निसरिमधग, रिनिसमधग, निरिसमधग, समनिरिधग, मसनिरिधग, सनिमरिधग, निसमरिधग,०° मनिसरिधग, निमसरिधग, रिमनिसधग, मरिनिसधग, रिनिमसधग, निरिमसधग, मनिरिसधग, निमरिसधग, सरिधनिमग, रिसधनिमग, सधरिनिमग, धसरिनिमग, रिधसनिमग, धरिसनिमग, सरिनिधमग, रिसनिधमग,
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(३) ५५१] अनुबन्धः
३३३ सनिरिधमग, निसरिधमग, रिनिसधमग, निरिसधमग, सधनिरिमग, धसनिरिमग, सनिधरिमग, निसधरिमग, धनिसरिमग, निधसरिमग, रिधनिसमग, धरिनिसमग, रिनिधसमग, निरिधसमग, धनिरिसमग, निधरिसमग, समधनिरिग, मसधनिरिंग, सधमनिरिग, धसमनिग्गि, मधसनिरिंग, धमसनिरिग, समनिधरिंग, मसनिधरिंग,° सनिमधरिंग, निसमधरिंग, मनिसधरिंग, निमसधरिंग, सधनिमरिंग, धसनिमरिग, सनिधमरिंग, निसधमरिग, धनिसमरिंग, निधसमरिंग, मधनिसरिंग, धमनिसरिंग, मनिधसरिंग, निमधसरिंग, धनिमसरिंग, निधमसरिंग, रिमधनिसग, मरिधनिसग, रिधमनिसग, धरिमनिसग, मधरिनिसग, धमरिनिसग, रिमनिधसग, मरिनिधसग, रिनिमधसग, निरिमधसग, मनिरिधसग, निमरिधसग, रिधनिमसग, धरिनिमसग, रिनिधमसग, निरिधमसग, धनिरिमसग, निधरिमसग, मधनिरिसग, धमनिरिसग, मनिधरिसग, निमधरिसग, धनिमरिसग, निधमरिसग, सगमधनिरि, गसमधनिरि, समगधनिरि, मसगधनिरि, गमसधनिरि, मगसधनिरि, सगधमनिरि, गसधमनिरि, सधगमनिरि, धसगमनिरि, गधसमनिरि, धगसमनिरि, समधगनिरि, मसधगनिरि, सधमगनिरि, धसमगनिरि, मधसगनिरि, धमसगनिरि, गमधसनिरि, मगधसनिरि,500 गधमसनिरि, धगमसनिरि, मधगसनिरि, धमगसनिरि, सगमनिधरि, गसमनिधरि, समगनिधरि, मसगनिधरि, गमसनिधरि, मगसनिधरि,1° सगनिमधरि, गसनिमधरि, सनिगमधरि, निसगमधरि, गनिसमधरि, निगसमधरि, समनिगधरि, मसनिगरि, सनिमगधरि, निसमगधरि, मनिसगधरि, निमसगधरि, गमनिसधरि, मगनिसधरि, गनिमसधरि, निगमसधरि, मनिगसधरि, निमगसधरि, सगधनिमरि, गसधनिमरि, सधगनिमरि, धसगनिमरि, गधसनिमरि, धगसनिमरि, सगनिधमरि, गसनिधमरि, सनिगधमरि, निसगधमरि, गनिसधमरि, निगसधमरि,° सधनिगमरि, धसनिगमरि, सनिधगमरि, निसधगमरि, धनिसगमरि, निधसगमरि, गधनिसमरि, धगनिसमरि, गनिधसमरि, निगधसमरि, धनिगसमरि,
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संगीतरत्नाकरः [षा० (३) ५५२निधगसमरि, समधनिगरि, मसधनिगरि, सधमनिगरि, धसमनिगरि मधसनिमरि, धमसनिगरि, समनिधगरि, मसनिधगरि,०० सनिमधगरि, निसमधगरि, मनिसधगरि, निमसधगरि, सधनिमगरि, धसनिमगरि, सनिधमगरि, निसधमगरि, धनिसमगरि, निधसमगरि, मधनिसगरि, धमनिसगरि, मनिधसगरि, निमधसगरि, धनिमसगरि, निधमसगरि, गमधनिसरि, मगधनिसरि, गधमनिसरि, धगमनिसरि, ० मधगनिसरि, धमगनिसरि, गमनिधसरि, मगनिधसरि, गनिमधसरि, निगमधसरि, मनिगधसरि, निमगधसरि, गधनिमसरि, धगनिमसरि,°° गनिधमसरि, निगधमसरि, धनिगमसरि, निधगमसरि, मधनिगसरि, धमनिगसरि, मनिधगसरि, निमधगसरि, धनिमगसरि, निधमगसरि,००० रिंगमधनिस, गरिमधनिस, रिमगधनिस, मरिगधनिस, गमरिधनिस, मगरिधनिस, ग्गिधमनिस, गरिधमनिस, रिधगमनिस, धरिगमनिस, गधरिमनिस, धगरिमनिस, रिमधगनिस, मरिधगनिस, रिधमगनिस, धरिमगनिस, मधरिगनिस, धमरिगनिस, गमधरिनिस, मगधरिनिस, गधमरिनिस, धगमरिनिस, मधगरिनिस, धमगरिनिस, रिगमनिधस, गरिमनिधस, रिमगनिधस, मरिगनिधस, गमरिनिधस, मगरिनिधस, रिगनिमधस, गरिनिमधस, रिनिगमधस, निरिगमधस, गनिरिमधस, निगरिमधस, रिमनिगधस, मरिनिगधस, रिनिमगधस, निरिमगधस, मनिरिगधस, निमरिगधस, गमनिरिधस, मगनिरिधस, गनिमरिधस, निगमरिधस, मनिगरिधस, निमगरिधस, रिंगधनिमस, गरिधनिमस, रिधगनिमस, धरिगनिमस, गधरिनिमस, धगरिनिमस, रिगनिधमस, गरिनिधमस, रिनिगधमस, निरिगधमस, गनिरिधमस, निगरिधमस, रिधनिगमस, धरिनिगमस, रिनिधगमस, निरिधगमस, धनिरिगमस, निधरिगमस, गधनिरिमस, धगनिरिमस, गनिधरिमस, निगधरिमस, धनिगरिमस, निधगरिमस, रिमधनिगस, मरिधनिगस, रिधमनिगस, धरिमनिगस, मधरिनिगस, धमरिनिगस, रिमनिधगम, मरिनिधगस, रिनिमधगस, निरिमधगस, मनिरिधगस, निमरिधगस, रिधनिमगस, धरिनिमगस,
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(४) १०१) अनुबन्धः
३३५ रिनिधमगस, निरिधमगस, धनिरिमगस, निधरिमगस,° मधनिरिगस, धमनिरिगस, मनिधरिगस, निमधरिगस, धनिमरिगस, निधमरिगस, गमधनिरिस, मगधनिरिस, गधमनिरिस, धगमनिरिस,100 मधगनिरिस, धमगनिरिस, गमनिधरिस, मगनिधरिस, गनिमधरिस, निगमधरिस, मनिगधरिस, निमगधरिस, गनिमरिस, धगनिमरिस, गनिधमरिस, निगधमरिस, धनिगमरिस, निधगमरिस, मधनिगरिस, धमनिगरिस, मनिधगरिस, निमधगरिस, धनिमगरिस, निधमगरिस.२० (४) सरिगपधनि, रिसगपधनि, सगरिपधनि, गसरिपधनि, रिगसपधनि, गरिसपधनि, सरिपगधनि, रिसपगधनि, सपरिगधनि, पसरिंगधनि, रिपसगधनि, परिसगधनि, सगपरिधनि, गसपरिधनि, सपगरिधनि, पसगरिधनि, गपसरिधनि, पगसरिधनि, रिगपसधनि, गरिपसधनि, रिपगसधनि, परिगसधनि, गपरिसधनि, पगरिसधनि, सरिंगधपनि, रिसगधपनि, सगरिधपनि, गसरिधपनि, रिगसधपनि, गरिसधपनि, सरिधगपनि, रिसधगपनि, सधरिगपनि, धसरिंगपनि, रिधसगपनि, धरिसगपनि, सगधरिपनि, गसधरिपनि, सधगरिपनि, धसगरिपनि, गधसरिपनि, धगसरिपनि, रिंगधसपनि, गरिधसपनि, रिधगसपनि, धरिगसपनि, गधरिसपनि, धगरिसपनि, सरिपधगनि, रिसपधगनि, सपरिधगनि, पसरिधगनि, रिपसधगनि, परिसधगनि, सरिधपगनि, रिसधपगनि, सधरिपगनि, धसरिपगनि, रिधसपगनि, धरिसपगनि,° सपरिगनि, पसधरिगनि, सधपरिगनि, धसपरिगनि, पधसरिगनि, धपसरिगनि, रिपधसगनि, परिधसगनि, रिधपसगनि, धरिपसगनि,' परिसगनि, धपरिसगनि, सगपरिनि, गसपरिनि, सपगधरिनि, पसगधरिनि, गपसधरिनि, पगसधरिनि, सगधपरिनि, गसधपरिनि, सधगपरिनि, धसगपरिनि, गधसपरिनि, धगसपरिनि, सपधगरिनि, पसधगरिनि, सधपगरिनि, धसपगरिनि, पधसगरिनि, धपसगरिनि,° गपधसरिनि, पगधसरिनि, गधपसरिनि, धगपसरिनि, पधगसरिनि, धपगसरिनि, रिगपधसनि, गरिपधसनि, रिपगधसनि, परिगधसनि,100 गपरिधसनि,
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संगीतरत्नाकरः [षा० (४) १०२पगरिधसनि, रिंगधपसनि, गरिधपसनि, रिधगपसनि, धरिगपसनि, गधरिपसनि, धगरिपसनि, रिपधगसनि, परिधगसनि, रिधपगसनि, धरिपगसनि, पधरिंगसनि, धपरिगसनि, गपधरिसनि, पगधरिसनि, गधपरिसनि, धगपरिसनि, पधगरिसनि, धपगरिसनि, सरिगपनिध, रिसगपनिध, सगरिपनिध, गसरिपनिध, रिगसपनिध, गरिसपनिध, सरिपगनिध, रिसपगनिध, सपरिगनिध, पसरिगनिध, रिपसगनिध, परिसगनिध, सगपरिनिध, गसपरिनिध, सपगरिनिध, पसगरिनिध, गपसरिनिध, पगसरिनिध, रिगपसनिध, गरिपसनिध,° रिपगसनिध, परिगसनिध, गपरिसनिध, पगरिसनिध, सरिगनिपध, रिसगनिपध, सगरिनिपध, गसरिनिपध, रिगसनिपध, गरिसनिपध,5° सरिनिगपध, रिसनिगपध, सनिरिगपध, निसरिंगपध, रिनिसगपध, निरिसगपध, सगनिरिपध, गसनिरिपध, सनिगरिपध, निसगरिपध, गनिसरिपध, निगसरिपध, रिगनिसपध, गरिनिसपध, रिनिगसपध, निरिगसपध, गनिरिसपध, निगरिसपध, सरिपनिगध, रिसपनिगध, सपरिनिगध, पसरिनिगध, रिपसनिगध, परिसनिगध, सरिनिपगध, रिसनिपगध, सनिरिपगध, निसरिपगध, रिनिसपगध, निरिसपगध, सपनिरिंगध, पसनिरिंगध, सनिपरिगध, निसपरिगध, पनिसरिंगध, निपसरिगध, रिपनिसगध, परिनिसगध, रिनिपसगध, निरिपसगध,°° पनिरिसगध, निपरिसगध, सगपनिरिध, गसपनिरिध, सपगनिरिध, पसगनिरिध, गपस निरिध, पगसनिरिध, सगनिपरिध, गसनिपरिध,२०० सनिगपरिध, निसगपग्धि, गनिसपरिध, निगसपरिध, सपनिगरिध, पसनिगरिध, सनिपगरिध, निसपगरिध, पनिसगरिध, निपसगरिध,'० गपनिसरिध, पगनिसरिध, गनिपसरिध, निगपसरिध, पनिगसरिध, निपगसरिध, रिगपनिसध, गरिपनिसध, रिपगनिसध, परिगनिसध,२० गपरिनिसध, पगरिनिसध, रिगनिपसध, गरिनिपसध, रिनिगपसध, निरिंगपसध, गनिरिपसध, निगरिपसध, रिपनिगसध, परिनिगसध, रिनिपगसध, निरिपगसध, पनिरिगसध, निपरिगसध, गपनिरिसध, पगनिरिसध,
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(४) ३७१]
अनुबन्धः
40
गनिपरिसध, निगपरिसध, पनिगरिसध, निपगरिसध, ° सरिगधनिप, रिसगधनिप, सगरिधनिप, गसरिधनिप, रिगसधनिप, गरिसधनिप, सरिधगनिप, रिसधगनिप, सधरिगनिप, धसरिगनिप, 50 रिधसगनिप, धरिसगनिप, सगधरिनिप, गसधरिनिप, सधगरिनिप, धसगरिनिप, गधसरिनिप, धगसरिनिप, रिगधसनिप, गरिधसनिप, रिधगसनिप, धरिगसनिप, गधरिसनिप, धगरिसनिप, सरिगनिधप, रिसगनिधप, सगरिनिधप, गसरिनिधप, रिगसनिधप, गरिसनिधप, 10 सरिनिगधप, रिसनिगधप, सनिरिंगधप, निसरिगधप, रिनिसगधप, निरिसगधप, सगनिरिधप, गसनिरिधप, सनिगरिधप, निसगरिधप, गनिसरिधप, निग सरिधप, रिगनिसधप, गरिनिसधप, रिनिगसधप, निरिगसधप, गनिरिसधप, निगरिसधप, सरिधनिगप, रिसधनिगप, सधरिनिगप, धसरिनिगप, रिधसनिगप, धरिसनिगप, सरिनिधगप, रिसनिधगप, सनिरिधगप, निसरिधगप, रिनिसधगप, निरिसधगप, सधनिरिंगप धसनिरिंगप, सनिधरिगप, निसधरिगप, धनिसरिगप, निधसरिगप, रिधनिसगप, धरिनिसगप, रिनिधसगप, निरिधसगप, 10 धनिरिसगप, निधरिसगप, सगधनिरिप, गसधनिरिप, सधगनिरिप, धसगनिरिप, गधसनिरिप, धगस निरिप, सगनिधरिप, गस निधरिप, 20 सनिगधरिप, निसगधरिप गनिसधरिप, निगसधरिप, सधनिगरिप, धसनिगरिप, सनिधगरिप, निसधगरिप, धनिसगरिप, निधमगरिप, गधनिसरप, धगनिसरिप गनिधसरिप, निगधसरिप, धनिगस रिप, निधगसरिप, रिगधनिसप, गरिधनिसप, रिधगनिसप, धरिगनिसप, ' गधनिरिसप धगरिनिसप, रिगनिधसप, गरिनिधसप, रिनिगधसप, निरिगधसप, गनिरिधसप, निगरिघसप, रिधनिगसप, धरिनिगसप, ' रिनिधगसप, निरिधगसप, धनिरिगसप, निधरिगसप, गधनिरिसप, धगनिरिसप, गनिधरिसप, निगधरिसप, धनिगरिसग, निधगरिसप, ,०० सरिपधनिग, रिसपधनिग, समरिधनिग, पसरिधनिग, रिपसधनिग, परिसधनिग, सरिधपनिग, रिसधपनिग, सधरिपनिग, धसरिपनिंग, ' रिधसपनिग,
40
50
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संगीतरत्नाकरः
[षा० (४) ३७२
400
10
20
धरिसपनिग, सपधरिनिग, पसधरिनिग, सधपरिनिग, धसपरिनिग, पधसरिनिग, धपसरिनिग, रिपधसनिग, परिधसनिग, १० रिधपस निग, धरिपसनिग, पथरिसनिग, धपरिसनिग, सरिपनिधग, रिसपनिधग, सपरिनिधग, पसरिनिधग, रिपसनिधग, परिसनिधग, सरिनिपधग, रिसनिपधग, सनिरिपधग, निसरिपधग, रिनिसपधग, निरिसपधग, सपनि रिधग, पसनिरिधग, सनिपरिधग, निसपरिधग, 1 पनि सरिधग, निपसरिधग, रिपनिसधग, परिनिसधग, रिनिपसधग, निरिपसधग, पनिरिसधग, निपरिसधग, सरिधनिपग, रिसधनिपग, " सधरिनिपग, धसरिनिपग, रिधसनिपग, धरिसनिपग, सरिनिधपग, रिसनिधपग, सनिरिधपग, निसरिधपग, रिनिसधपग, निरिसधपग, 2 सधनिरिपग, धसनिरिपग, सनिधरिपग, निसधरिपग, धनिसरिपग, निधस रिपग, रिधनिसपग, धरिनिसपग, रिनिधसपग, निरिधसपग, धनिरिसपग, निधरिसपग, सपधनिरिंग, पसधनिरिंग, सधपनिरिंग, धसपनिरिंग, पधसनिरिंग, धपसनिरिंग, सपनिधरिंग, पसनिधरिंग, 1° सनपरिग निपधरिंग, पनिसधरिंग, निपसधरिंग, सधनिपरिंग, धस निपरिंग, सनिधपरिंग, निसधपरिंग, धनिसपरिंग, निधसपरिंग, पधनिसरिंग, धपनिस रिंग, पनिधसरिंग, निपधसरिंग, धनिपस रिंग, निधपसरिग, रिपधनिसग परिधनिसग, रिधपनिसग, धरिपनिसग, परिनिसग, धपरिनिसग, रिपनिधसग, परिनिधसग, रिनिपधसग, निरिपधसग, पनिरिधसग, निपरिधसग, रिधनिपसग, धरिनिपसग, 70 रिनिधपसग, निरिधपसग, धनिरिपसग, निधरिपसग, पधनिरिसग, धपनिरिसग, पनिधरिसंग, निपधरिसग, धनिपरिसग, निधपरिसग, 80 सगपधनिरि गसपधनिरि, सपगधनिरि, पसगधनिरि, गपसधनिरि, पगसधनिरि, सगधपनिरि, गसधपनिरि, सधगपनिरि, धसगपनिरि, ' पनिर, धगसपनिरि, सपधगनिरि, पसधगनिरि, सधपगनिरि, धसपगनिरि, पथसगनिरि, धपमगनिरि, गपधसनिरि, पगधसनिरि, गधपस निरि धगपस निरि, पधगस निरि, धपगसनिरि, सगपनिधरि, गसपनिधरि,
60
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50
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(४) ६४१] अनुबन्धः
३३९ सपगनिधरि, पसगनिधरि, गपसनिधरि, पगसनिधरि, सगनिपधरि, गसनिपधरि, सनिगपरि, निसगपधरि, गनिसपधरि, निगसपधरि, सपनिगधरि, पसनिगधरि, सनिपगधरि, निसपगधरि, पनिसगरि, निपसगधरि, गपनिसधरि, पगनिसधरि, गनिपसधरि, निगपसधरि, पनिगसधरि, निपगसधरि, सगधनिपरि, गसधनिपरि, सधगनिपरि, धसगनिपरि, गधसनिपरि, धगसनिपरि, सगनिधपरि, गसनिधपरि, सनिगधपरि, निसगधपरि, गनिसधपरि, निगसधपरि, सधनिगपरि, धसनिगपरि, सनिधगपरि, निसधगपरि, धनिसगपरि, निधसगपरि, गधनिसपरि, धगनिसपरि, गनिधसपरि, निगधसपरि, धनिगसपरि, निधगसपरि, सपधनिगरि, पसधनिगरि, सधपनिगरि, धसपनिगरि, पधसनिगरि, धपसनिगरि, सपनिधगरि, पसनिधगरि,०० सनिपधगरि, निसपधगरि, पनिसधगरि, निपसधगरि, सधनिपगरि, धसनिपगरि, सनिधपगरि, निसधपगरि, धनिसपगरि, निधसपगरि, पधनिसगरि, धपनिसगरि, पनिधसगरि, निपधसगरि, धनिपसगरि, निधपसगरि, गपधनिसरि, पगधनिसरि, गधपनिसरि, धगपनिसरि, पधगनिसरि, धपगनिसरि, गपनिधसरि, पगनिधसरि, गनिपधसरि, निगपधसरि, पनिगधसरि, निपगधसरि, गधनिपसरि, धगनिपसरि,°° गनिधपसरि, निगधपसरि, धनिगपसरि, निधगपसरि, पधनिगसरि, धपनिगसरि, पनिधगसरि, निपधगसरि, धनिपगसरि, निधपगसरि,००० रिंगपधनिस, गरिपधनिस, रिपगधनिस, परिगधनिस, गपरिधनिस, पगरिधनिस, रिगधपनिस, गरिधपनिस, रिधगपनिस, धरिगपनिस,° गधरिपनिस, धगरिपनिस, रिपधगनिस, परिधगनिस, रिधपगनिस, धरिपगनिस, पधरिगनिस, धपरिगनिस, गपधरिनिस, पगधरिनिस, गधपरिनिस, धगपरिनिस, पधगरिनिस, धपगरिनिस, रिंगपनिधस, गरिपनिधस, रिपगनिधस, परिगनिधस, गपरिनिधस, पगरिनिधस, रिगनिपधस, गरिनिपधस, रिनिगपधस, निरिगपधस, गनिरिपधस, निगरिपधस, रिपनिगधस, परिनिगधस, रिनिपगधस, निरिपगधस,° पनिरिंगधस,
111111111111111111111 Williiiiiiiiiii
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३४०
संगीतरत्नाकरः [षा० (४) ६४२ -
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निपरिगधस, गपनिरिधस, पगनिरिधस, गनिपरिधस, निगपरिधस, पनिगरिधस, निपगरिधस, रिगधनिपस, गरिधनिपस, रिधगनिपस, धरिगनिपस, गधरिनिपस, धगरिनिपस, रिगनिधपस, गरिनिधपस, रिनिगधपस, निरिगधपस, गनिरिधपस, निगरिधपस,०० रिधनिगप धरिनिगपस, रिनिधगपस, निरिधगपस, धनिरिंगपस, निधरिगपस, गधनिरिपस, धगनिरिपस, गनिधरिपस, निगधरिपस, 2 धनिगरिपस, निधगरिपस, रिपधनिगस, परिधनिगस, रिधपनिगस, धरिपनिगस, पृधरिनिगस, धपरिनिगस, रिपनिधगस, परिनिधगस, रिनिपधगस, निरिपधगस, पनिरिधगस, निपरिधगस, रिधनिपगस, धरिनिपगस, रिनिधपगस, निरिधपगस, धनिरिपगस, निधरिपगस, ' पधनिरिंगस, धपनिरिंगस, पनिधरिगस, निपधरिगस, धनिपरिगस, निधपरिगस, गपधनिरिस, पगधनिरिस, गधपनिरिस, धगपनिरिस,०० पधगनिरिस, धपगनिरिस, गपनिधरिस, पगनिधरिस, गनिपधरिस, निगपधरिस, पनिगधरिस, निपगधरिस, गधनिपरिस, धगनिपरिस, निधपरिस निगधपरिस, धनिगपरिस, निधगपरिस, पधनिगरिस, धपनिगरिस, पनिधगरिस, निपधगरिस, धनिपगरिस, निधपगरिस. 720 (५) सरिमपधनि, रिसमपधनि, समरिपधनि, मसरिपधनि, रिमसपधनि, मरिसपधनि, सरिपमधनि, रिसपमधनि, सपरिमधनि, पसरिमधनि, ' रिपसमधनि, परिसमधनि, समपरिधनि, मसपरिधनि, सपमरिधनि, पसमरिधनि, मपसरिधनि, पमसरिधनि, रिमपसधनि, मरिपसधनि, रिपमधनि, परिमसधनि, मपरिसधनि, पमरिसधनि, सरिमधपनि, रिसमधपनि, समरिधपनि, मसरिधपनि, रिमसधपनि, रिसधमपनि, सधरिमपनि, धस रिमपनि, समधरिपनि, मसधरिपनि, सधमरिपनि, धमस रिपनि, रिमधसपनि, मरिधसपनि, मधरिस पनि, धमरिसपनि, सरिपधमनि, 50 सपरिधमनि, पसरिधमनि, रिपसधमनि, परिसधमनि, सरिधपमनि, रिसधपमनि,
10
मरिसधपनि, 30 सरिधमपनि,
रिधसमपनि, धरिसमपनि, धसमरिपनि, सरपनि, रिधमसपनि, धरिमसपनि, रिसपधमनि, '
50
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(१) १९१]
अनुबन्धः
३४१
सधरिपमनि, धसरिपमनि, रिधसपमनि, धरिसपमनि, सपरमनि पसधरिमनि, सधपरिमनि, धसपरिमनि, पधसरिमनि, धपस रिमनि, रिपधसमनि, परिधसमनि, रिधपसमनि, धरिपसमनि
धपरिसमनि, समपधरिनि, मसपधरिनि, सपमधरिनि, मपसधरिनि, पमसधरिनि, समधपरिनि, मसधपरिनि, धसमपरिनि, मधसपरिनि, धमसपरिनि, सपधमरिनि, पसधमरिनि, सधपमरिनि, धसपमरिनि, पधसमरिनि, धपसमरिनि, मपधसरिनि, पमधसरिनि, मधपसरिनि, धमपसरिनि, पथमसरिनि, धपमसरिबि, रिमपधसनि, मरिपधसनि, रिपमधसनि, परिमधसनि, ' परिधसनि, परिधसनि रिमधपसनि, मरिधपसनि, रिधमपसनि, धरिमपसनि, मधरिपसनि, धमरिपसनि, रिपधमसनि, परिधमसनि, 10 रिधपमस नि,
100
20
धरिपमसनि, पधरिमसनि, धपरिमसनि, मपधरिसनि, पमधरिसनि, मधपरिसनि, धमपरिसनि, पधमरिसनि, धपमरिसनि, " सरिमपनिध, रिसमपनिध, समरिपनिध, मसरिपनिध, रिमसपनिध, मरिसपनिध, समिनिध, रिसपमनिध, सपरिमनिध, पसरिमनिध, रिपसमनिध, परिसमनिध, समपरिनिध, मसपरिनिध, सपमरिनिध, पसमरिनिध, मपसरिनिध, पमसरिनिध, रिमपसनिध, मरिपसनिध, रिपमस निध, 'परिमसनिध, मपरिसनिध, पमरिसनिध, सरिमनिपध, रिसमनिपध, समरिनिपध, मसरिनिपध, रिमसनिपध, मरिसनिपध, 60 सरिनिमपध, रिसनिमपध, सनिरिमपध, निसरिमपध, रिनिसमपध, निरिसमपध, समनिरिपध, मस निरिपध, सनिमरिपध, निसमरिपध, मनिसरिपध, निमसरिपध, रिमनिसपध, मरिनिसपध, रिनिमसपध, निरिमसपध, मनिरिसपध, निमरिसपध, सरिपनिमध, रिसपनिमध, 70 सपरिनिमध पसरिनिमध, रिपस निमध, परिसनिमध, सरिनिपमध, रिसनिपमध, सनिरिपमध, निसरिपमध, रिनिसपमध, निरिसपमध, ° सपनिरिमध, पस निरिमध, सनिपरिमध, निसपरिमध, पनिसरिमध, निपसरिमध, रिपनिसमध, परिनिसमध, रिनिपसमध, निरिपसमध, पनिरिसमध,
80
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परिसमनि, पसमधरिनि, 80 सधमपरिनि
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संगीतरत्नाकरः [षा० (५) १९२निपरिसमध, समपनिरिध, मसपनिरिध, सपमनिरिध, पसमनिरिध, मपसनिरिध, पमसनिरिध, समनिपरिध, मसनिपरिध,३०० सनिमपरिध, निसमपरिध, मनिसपरिध, निमसपरिध, सपनिमरिध, पसनिमरिध, सनिपमरिध, निसपमरिध, पनिसमरिध, निपसमरिध,1° मपनिसरिध, पमनिसरिध, मनिपसरिध, निमपसरिध, पनिमसरिध, निपमसरिध, रिमपनिसध, मरिपनिसध, रिपमनिसध, परिमनिसध,२० मपरिनिसध, पमरिनिसध, रिमनिपसध, मरिनिपसध, रिनिमपसध, निरिमपसध, मनिरिपसध, निमरिपसध, रिपनिमसध, परिनिमसध, रिनिपमसध, निरिपमसध, पनिरिमसध, निपरिमसध, मपनिरिसध, पमनिरिसध, मनिपरिसध, निमपरिसध, पनिमरिसध, निपमरिसध, सरिमधनिप, रिसमधनिप, समरिधनिप, मसरिधनिप, रिमसधनिप, मरिसधनिप, सरिधमनिप, रिसधमनिप, सधरिमनिप, धसरिमनिप, रिधसमनिप, धरिसमनिप, समधरिनिप, मसधरिनिप, सधमरिनिप, धसमरिनिप, मधसरिनिप, धमसरिनिप, रिमधसनिप, मरिधसनिप,०० रिधमसनिप, धरिमसनिप, मधरिसनिप, धमरिसनिप, सरिमनिधप, रिसमनिधप, समरिनिधप, मसरिनिधप, रिमसनिधप, मरिसनिधप,7° सरिनिमधप, रिसनिमधप, सनिरिमधप, निसरिमधप, रिनिसमधप, निरिसमधप, समनिरिधप, मसनिरिधप, सनिमरिधप, निसमरिधप,8° मनिसरिधप, निमसरिधप, रिमनिसधप, मरिनिसधप, रिनिमसधप, निरिमसधप, मनिरिसधप, निमरिसधप, सरिधनिमप, रिसधनिमप,°° सधरिनिमप, धसरिनिमप, रिधसनिमप, धरिसनिमप, सरिनिधमप, रिसनिधमप, सनिरिधमप, निसरिधमप, रिनिसधमप, निरिसधमप,३०° सधनिरिमप, धसनिरिमप, सनिधरिमप, निसधरिमप, धनिसरिमप, निधसरिमप, रिधनिसमप, धरिनिसमप, रिनिधसमप, निरिधसमप, धनिरिसमप, निधरिसमप, समधनिरिप, मसधनिरिप, सधमनिरिप, धसमनिरिप, मधसनिरिप, धमसनिरिप, समनिधरिप, मसनिधरिप, सनिमधरिप, निसमधरिप, मनिसधरिप, निमसधरिप, सधनिमरिप, धसनिमरिप,
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(५) ४६१]
अनुबन्धः सनिधमरिप, निसधमरिप, धनिसमरिप, निधसमरिप, मधनिसरिप, धमनिसरिप, मनिधसरिप, निमधसरिप, धनिमसरिप, निधमसरिप, रिमधनिसप, मरिधनिसप, ग्धिमनिसप, धरिमनिसप, गधरिनिसम, धमरिनिसप, रिमनिधसप, मरिनिधसप, रिनिमधसप, निरिमधसप, मनिरिधसप, निमरिधसप, रिधनिमसप, धरिनिमसप, रिनिधमसप, निरिथमसप, धनिरिमसप, निधरिमसप, मधनिरिसप, धमनिरिसप, मनिधरिसप, निमधरिसप, धनिमरिसप, निधमरिसप, सरिपधनिम, रिसपधनिम, सपरिधनिम, पसरिधनिम, रिपसधनिम, परिसधनिम, सरिधपनिम, रिसधपनिम, सधरिपनिम, धसरिपनिम, रिधसपनिम, धरिसपनिम, सपरिनिम, पसधरिनिम, सधपरिनिम, धसपरिनिम, पधसरिनिम, धपसरिनिम, रिपधसनिम, परिधसनिम, रिधपसनिम, धरिपसनिम, पधरिसनिम, धपरिसनिम, सरिपनिधम, रिसपनिधम, सपरिनिधम, पसरिनिधम, रिपसनिधम, परिसनिधम,°° सरिनिपधम, रिसनिपधम, सनिरिपधम, निसरिपधम, रिनिसपथम, निरिसपधम, सपनिरिधम, पसनिरिधम, सनिपरिधम, निसपरिधम,०° पनिसरिधम, निपसरिधम, रिपनिसधम, परिनिसधम, रिनिपसधम, निरिपसधम, पनिरिसधम, निपरिसधम, सरिधनिपम, रिसधनिपम, सधरिनिपम, धसरिनिपम, रिधसनिपम, धरिसनिपम, सरिनिधपम, रिसनिधपम, सनिरिधपम, निसरिधपम, रिनिसधपम, निरिसधपम, सधनिरिपम, धसनिरिपम, सनिधरिपम, निसधरिपम, धनिसरिपम, निधसरिपम, रिधनिसपम, धरिनिसपम, रिनिधसपम, निरिधसपम,3° धनिरिसपम, निधरिसपम, सपधनिरिम, पसधनिरिम, सधपनिरिम, धसपनिरिम, पधसनिरिम, धपसनिरिम, सपनिधरिम, पसनिधरिम, सनिपधरिम, निसपधरिम, पनिसधरिम, निपसधरिम, सधनिपरिम, धसनिपरिम, सनिधपरिम, निसधपरिम, धनिसपरिस, निधसपरिम,° पधनिसरिम, धपनिसरिम, पनिधसरिम, निपधसरिम, धनिपसरिम, निधपसरिम, रिपधनिसम, परिधनिसम, रिधपनिसम, धरिपनिसम,०° पधरिनिसम,
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३४४
संगीतरत्नाकरः [षा० (५) ४६२धपरिनिसम, रिपनिधसम, परिनिधसम, रिनिपधसम, निरिपधसम, पनिरिधसम, निपरिधसम, रिधनिपसम, धरिनिपसम, रिनिधपसम, निरिधपसम, धनिरिपसम, निधरिपसम, पधनिरिसम, धपनिरिसम, पनिधरिसम, निपधरिसम, धनिपरिसम, निधपरिसम, समपधनिरि, मसपधनिरि, सपमधनिरि, पसमधनिरि, मपसधनिरि, पमसधनिरि, समधपनिरि, मसधपनिरि, सधमपनिरि, धसमपनिरि,°° मधसपनिरि, धमसपनिरि, सपधमनिरि, पसधमनिरि, सधपमनिरि, धसपमनिरि, पधसमनिरि, धपसमनिरि, मपधसनिरि, पमधसनिरि,००० मधपसनिरि, धमपसनिरि, पधमसनिरि, धपमसनिरि, समपनिधरि, मसपनिधरि, सपमनिधरि, पसमनिधरि, मपसनिधरि, पमसनिधरि, समनिपधरि, मसनिपधरि, सनिमपधरि, निसमपरि, मनिसपधरि, निमसपधरि, सपनिमधरि, पसनिमधरि, सनिपमधरि, निसपमधरि, पनिसमधरि, निपसमधरि, मपनिसधरि, पमनिसधरि, मनिपसधरि, निमपसधरि, पनिमसधरि, निपमसधरि, समधनिपरि, मसधनिपरि, सधमनिपरि, धसमनिपरि, मधसनिपरि, धमसनिपरि, समनिधपरि, मसनिधपरि, सनिमधपरि, निसमधपरि, मनिसधपरि, निमसधपरि,° सधनिमपरि, धसनिमपरि, सनिधमपरि, निसधमपरि, धनिसमपरि, निधसमपरि, मधनिसपरि, धमनिसपरि, मनिधसपरि, निमधसपरि, धनिमसपरि, निधमसपरि, सपधनिमरि, पसधनिमरि, सधपनिमरि, धसपनिमरि, पधसनिमरि, धपसनिमरि, सपनिधमरि, पसनिधमरि,सनिपधमरि, निसपधमरि, पनिसधमरि, निपसधमरि, सधनिपमरि, धसनिपमरि, सनिधपमरि, निसधपमरि, धनिसपमरि, निधसपमरि,° पधनिसमरि, धपनिसमरि, पनिधसमरि, निपधसमरि, धनिपसमरि, निधपसमरि, मपधनिसरि, पमधनिसरि, मधपनिसरि, धमपनिसरि,80 पधमनिसरि, धपमनिसरि, मपनिधसरि, पमनिधसरि, मनिपधसरि, निमपधसरि, पनिमधसरि, निपमधसरि, मधनिपसरि, धमनिपसरि,° मनिधपसरि, निमधपसरि, धनिमपसरि, निधमपसरि, पधनिमसरि, धपनिमसरि,
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________________
(६) ११] अनुबन्धः
३४५ पनिधमसरि, निपधमसरि, धनिपमसरि, निधपमसरि,००० रिमपधनिस, मरिपधनिस, रिपमधनिस, परिमधनिस, मपरिधनिस, पमरिधनिस, रिमधपनिस, मरिधपनिस, रिधमपनिस, धरिमपनिस, मधरिपनिस, धमरिपनिस, रिपधमनिस, परिधमनिस, रिधपमनिस, धरिपमनिस, पधरिमनिस, धपरिमनिस, मपधरिनिस, पमधरिनिस, मधपरिनिस, धमपरिनिस, पधमरिनिस, धपमरिनिस, रिमपनिधस, मरिपनिधस, रिपमनिधस, परिमनिधस, मपगिनिधस, पमरिनिधस, रिमनिषधस, मरिनिपधस, रिनिमपधस, निरिमपधस, मनिरिपधस, निमरिपधस, रिपनिमधस, परिनिमधस, रिनिपमधस, निरिपमधस, पनिरिमधस, निपरिमधस, मपनिरिधस, पमनिरिधस, मनिपरिधस, निमपरिधस, पनिमरिधस, निपमरिधस, रिमनिपस, मरिधनिपस, रिधमनिपस, धरिमनिपस, मधरिनिपस, धमरिनिपस, रिमनिधपस, मरिनिधपस, रिनिमधपस, निरिमधपस, मनिरिधपस, निमरिधपस, रिधनिमपस, धरिनिमपस, रिनिधमपस, निरिधमपस, धनिरिमपस, निधरिमपस, मधनिरिपस, धमनिरिपस, मनिधरिपस, निमधरिपस, धनिमरिपस, निधमरिपस, रिपधनिमस, परिधनिमस, रिधपनिमस, धरिपनिमस, परिनिमस, धपरिनिमस, रिपनिधमस, परिनिधमस, रिनिपधमस, निरिपधमस, पनिरिधमस, निपरिधमस, रिधनिपमस, धरिनिपमस, रिनिधपमस, निरिधपमस, धनिरिपमस, निधरिपमस,°° पधनिरिमस, धपनिरिमस, पनिधरिमस, निपधरिमस, धनिपरिमस, निधपरिमस, मपधनिरिस, पमधनिरिस, मधपनिरिस, धमपनिरिस,०° पधमनिरिस, धपमनिरिस, मपनिधरिस, पमनिधरिस, मनिपधरिस, निमपरिस, पनिमधरिस, निपमधरिस, मधनिपरिस, धमनिपरिस, मनिधपरिस, निमधपरिस, धनिमपरिस, निधमपरिस, पधनिमरिस, धपनिमरिस, पनिधमरिस, निपधमग्सि, धनिपमरिस, निधपमरिस.२० (६) सगमपधनि, गसमपधनि, समगपधनि, मसगपधनि, गमसपधनि, मगसपधनि, सगपमधनि, गसपमधनि, सपगमधनि, पसगमधनि, गपसमधनि,
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३४६
संगीतरत्नाकरः
[बा० (६) १२
सपमगधनि,
मगधनि,
गधसम पनि, धसमगपनि, म पनि
40
पग समधनि, समपगधनि, मसपगधनि, मपसगधनि, पमसगधनि, गमपसधनि, मगपसधनि, २० पधनि, पगमसधनि, मपगसधनि, पमगसधनि, सगमधपनि, गसमधपनि, समगधपनि, मसगधपनि, गमसधपनि, मगसधपनि, सगधमपनि, सधमपनि, सधगमपनि, धसगमपनि, धगसमपनि, समधगपनि, मसधगपनि, सधमगपनि, धमसगपनि, गमधसपनि, मगधसपनि, गधमसपनि, मधगसपनि, धमगसपनि, सगपधमनि, गमपधमनि, ' पसगधमनि, गपसधमनि, पगसधमनि, सगधपमनि, सधगपमनि, धसगपमनि, गधसपमनि, धगसपमनि, ° पसधगमनि, सधपगमनि, धसपगमनि, पधसगमनि, धपसगमनि, पधसमनि, पगधसमनि, गधपसमनि, धगपसमनि, ' धपगसमनि, समपधगनि, मसपधगनि, सपमधगनि,
धगमसपनि, सपगधमनि,
50
गसधपमनि,
सपधगमनि,
70
पधगसमनि,
पसमधगनि, मसधपगनि, समपनि, सपधमगनि, पसधमगनि, धपमगनि, ' पधमसगनि,
90
मपधसगनि, धपमसगनि,
100
मपसधगनि, पमसधगनि, समधपगनि, धसमपगनि, मधसपगनि, धमसपगनि, सधपमगनि, धसपमगनि, पथसमगनि, पमधसगनि, मधपसगनि, धमपसगनि, गमपधसनि, मगपधसनि, गपमधसनि, पगमधसनि, ' पमगधसनि, गमधपसनि, मगधपसनि, गधमपसनि, मधगपसनि, धमगपसनि, गपधमसनि, धगपमसनि, पधगमसनि, धपगमसनि, मधपगसनि, धमपगसनि, पधमगसनि, गसमपनिध, समगपनिध, मसगपनिध, सगपमनिध, गमपमनिध, सपगमनिध, पगसमनिध, समपगनिध, मसपगनिध, मपसगनिध, पमसगनिध, गमपसनिध, पगमसनिध, मपगसनिध, पमगसनिध,
गमसपनिध,
पसंगमनिध, १०
सपमगनिध, मगपसनिध, 1 सगमनिपध,
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80
80
पराधमसनि, '
मपधगसनि, धपमगसनि, '
20
10
मगधसनि,
धगमपसनि,
गधपमसनि,
पमधगसनि,
सगमपनिध,
मगसपनिध,
पसमनिध,
पसमगनिध,
40 गमसनिध,
मनिपध,
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________________
1 11111111111
1111111
(६) २८१] अनुबन्धः
३४७ समगनिपध, मसगनिपध, गमसनिपध, मगसनिपध,° सगनिमपध, गसनिमपध, सनिगमपध, निसगमपध, गनिसमपध, निगसमपध, समनिगपध, मसनिगपध, सनिमगपध, निसमगपध, मनिसगपध, निमसगपध, गमनिसपध, मगनिसपध, गनिमसपध, निगमसपध, मनिगसपध, निमगसपध, सगपनिमध, गसपनिमध, सपगनिमध, पसगनिमध, गपसनिमध, पगसनिमध, सगनिपमध, गसनिपमध, सनिगपमध, निसगपमध, गनिसपमध, निगसपमध,७० सपनिगमध, पमनिगमध, सनिपगमध, निसपगमध, पनिसगमध, निपसगमध, गपनिसमध, पगनिसमध, गनिपसमध, निगपसमध,°° पनिगसमध, निपगलमध, समपनिगध, मसपनिगध, सपमनिगध, पसमनिगध, मपस निगध, पमसनिगध, समनिपगध, मसनिपगध,१०० सनिमपगध, निसमपगध, मनिसपगध, निमसपगध, सपनिमगध, पसनिमगध, सनिपमगध, निसपमगध, पनिसमगध, निपसमगध, मपनिसगध, पमनिसगध, मनिपसगध, निमपसगध, पनिमसगध, निपमसगध, गमपनिसध, मगपनिसध, गपमनिसध, पगमनिसध, मपगनिसध, पमगनिसध, गमनिपसध, मगनिपसध, गनिमपसध, निगमपसध, मनिगपसध, निमगपसध, गपनिमसध, पगनिमसध, गनिपमसध, निगपमसध, पनिगमसध, निपगमसध, मपनिगसध, पमनिगसध, मनिपगसध, निमपगसध, पनिमगसध, निपमगसध,° सगमधनिप, गसमधनिप, समगधनिप, मसगधनिप, गमसधनिप, मगसधनिप, सगधमनिप, गसधमनिप, सधगमनिप, धसगमनिप, गधसमनिप, धगसमनिप, समधगनिप, मसधगनिप, सधमगनिम, धसमगनिप, मधसगनिप, धमसगनिप, गमधसनिप, मगधसनिप, गधमसनिप, धगमसनिप, मधगसनिप, धमगसनिप, सगमनिधप, गसमनिधप, समगनिधप, मसगनिधप, गमसनिधप, मगसनिधप," सगनिमधप, गसनिमधप, सनिगमधप, निसगमधप, गनिसमधप, निगसमधप, समनिगधप, मसनिगधप, सनिमगधप, निसमगधप,° मनिसगधप,
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३४८
संगीतरत्नाकरः षा० (६) २८२निमसगधप, गमनिसधप, मगनिसधप, गनिमसधप, निगमसधप, मनिगसधप, निमगसधप, सगधनिमप, गसधनिमप,°° सधगनिमप, धसगनिमप, गधसनिमप, धगसनिमप, सगनिधमप, गसनिधमप, सनिगधमप, निसगधमप, गनिसधमप, निगसधमप,80° सधनिगमप, धसनिगमप, सनिधगमप, निसधगमप, धनिसगमप, निधसगमप, गधनिसमप, धगनिसमप, गनिधसमप, निगधसमप,1° धनिगसमप, निधगसमप, समधनिगप, मसधनिगप, सधमनिगप, धसमनिगप, मधसनिगप, धमसनिगप, समनिधगप, मसनिधगप, सनिमधगप, निसमधगप, मनिसधगप, निमसधगप, सधनिमगप, धसनिमगप, सनिधमगप, निसधमगप, धनिसमगप, निधसमगप,७० मधनिसगप, धमनिसगप, मनिधसगप, निमधसगप, धनिमसगप, निधमसगप, गमधनिसप, मगधनिसप, गधमनिसप, धगमनिसप, मधगनिसप, धमगनिसप, गमनिधसप, मगनिधसप, गनिमधसप, निगमधसप, मनिगधसप, निमगधसप, गधनिमसप, धगनिमसप, गनियमसप, निगधमसप, धनिगमसप, निधगमसप, मधनिगसप, धमनिगसप, मनिधगसप, निमधगसप, धनिमगसप, निधमगसप,७० सगपधनिम, गसपधनिम, सपगधनिम, पसगधनिम, गपसधनिम, पगसधनिम, सगधपनिम, गसधपनिम, सधगपनिम, धसगपनिम, गधसपनिम, धगसपनिम, ___ सपधगनिम, पसधगनिम, सधपगनिम, धसपगनिम, पधसगनिम, धपसगनिम, गपधसनिम, पगधसनिम, गधपसनिम, धगपसनिम, पधगसनिम, धपगसनिम, सगपनिधम, गसपनिधम, सपगनिधम, पसगनिधम, गपसनिधम, पगस निधम,°° सगनिपधम, गसनिपधम, सनिगपधम, निसगपधम, गनिसपधम, निगसपधम, सपनिगधम, पसनिगधम, सनिपगधम, निसपगधम,०° पनिसगधम, निपसगधम, गपनिसधम, पगनिसधम, गनिपसधम, निगपसधम, पनिगसधम, निपगसधम, सगधनिपम, गसधनिपम,1° सधगनिपम, धसगनिपम, गधसनिपम, धगसनिपम, सगनिधपम, गसनिधपम,
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३४९
(६) ५५१]
अनुबन्धः सनिगधपम, निसगधपम, गनिसधपम, निगसधपम, सधनिगपम, धसनिगपम, सनिधगपम, निसधगपम, धनिसगपम, निधसगपम, गधनिसपम, धगनिसपम, गनिधसपम, निगधसपम, धनिगसपम, निधगसपम, सपधनिगम, पसधनिगम, सधपनिगम, धसपनिगम, पधसनिगम, धपसनिगम, सपनिधगम, पसनिधगम, सनिपधगम, निसपधगम, पनिसधगम, निपसधगम, सधनिपगम, धसनिपगम, सनिधपगम, निसधपगम, धनिसपगम, निधसपगम,७० पधनिसगम, धपनिसगम, पनिधसगम, निपधसगम, धनिपसगम, निधपसगम, गपधनिसम, पगधनिसम, गधपनिसम, धगपनिसम,०° पधगनिसम, धपगनिसम, गपनिधसम, पगनिधसम, गनिपधसम, निगपधसम, पनिगधसम, निपगधसम, गधनिपसम, धगनिपसम, गनिधपसम, निगधपसम, धनिगपसम, निधगपसम, पधनिगसम, धपनिगमम, पनिधगसम, निपधगसम, धनिपगसम, निधपगसम, समपधनिग, मसपधनिग, सपमधनिग, पसमधनिग, मपसधनिग, पमसधनिग, समधपनिग, मसधपनिग, सधमपनिग, धसमपनिग,°० मधसपनिग, धमसपनिग, सपधमनिग, पसधमनिग, सधपमनिग, धसपमनिग, पधसमनिग, धपसमनिग, मपधसनिग, पमधसनिग,०० मधपसनिग, धमपसनिग, पधमसनिग, धपमसनिग, समपनिधग, मसपनिधग, सपमनिधग, पसमनिधग, मपसनिधग, पमसनिधग, समनिपधग, मसनिपधग, सनिमपधग, निसमपधग, मनिसपधग, निमसपधग, सपनिमधग, पसनिमधग, सनिपमधग, निसपमधग, पनिसमधग, निपसमधग, मपनिसधग, पमनिसधग, मनिपसधग, निमपसधग, पनिमसधग, निपमसधग, समधनिपग, मसधनिपग, सधमनिपग, धसमनिपग, मधसनिपग, धमसनिपग, समनिधपग, मसनिधपग, सनिमधपग, निसमधपग, मनिसधपग, निमसधपग, सधनिमपग, धसनिमपग, सनिधमपग, निसधमपग, धनिसमपग, निधसमपग, मधनिसपग, धमनिसपग, मनिधसपग, निमधसपग, धनिमसपग,
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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३५०
संगीतरत्नाकरः
पसधनिमग,
नियमसपा, सपध निमग, पधसनिमग, धपसनिमग, रूपनिधमग,
[बा० (६) ५५२ --
धसपनिमग, सनपधमग,
निपसधमग,
सधप निमग,
पसनिधमग, '
80
निसपधमग, पनिसधमग,
धनिसपमग,
पनिधसमग,
निपधसमग,
धमपनिसग,
,०००
पनि मसग, गमपधनिस,
10
सनिधपमग, निसधपमग, धपनि समग, मपधनिसग, पमधनिसग, मधपनिसग, धपमनिस, मपनिधसग, पमनिधसग, मनिपधसग, पनिमधसग, निपमधसग, मधनिपसग, धमनिपसग, निमधपसग, धनिमपसग, निधमपसग, पधनिमसग, पनिधमसग, निपधमसग, धनिपमसग, निधपमसग, मगपधनिस, गपमधनिस, पगमधनिस, मपधनिस, पमगधनिस, गमधपनिस, मगधपनिस, गधमपनिस, धगमप निस, मधगपनिस, धमगपनिस, गपथमनिस, पगवमनिस, गधपमनिस, धगमनिस, पधगमनिस, धपगमनिस, मपधगनिस, पमधगनिस, मधपगनिस, धमपगनिस, पधमगनिस, धपमगनिस, गमपनिधस, मगपनिधस, गपमनिधस, पगमनिधस, मपगनिधस, पमगनिवस, मनिपधस, मगनिपधस, गनिमपधस, निगमपधस, मनिपधस निमगपधस, गपनिमधस, पगनिमधस, गनिपमधस, निगपमधस, निगम, निपगमधस, मपनिगधस, पमनिगधस, मनिपगधस, निमपगधस, पनिमगधस, निपमगधस, गमधनिपस, मगधनपस, 5 धमनपस धगमनिपस, मधगनिपस, धमगनिपस, गमनिधपस, मगनिधपस, गनिमधपस, निगमधपस, मनिगधपस, निमगधपस, निमपस, धगनिमपस, गनिधमपस, निगधमपस, धनिगमपस, निधगमपस, मधनिगपस, धम निगपस, मनिधगपस, निमधगपस, ' निधमगपस, गपधनिमस, पगधनिमस, गधपनिमस, पधगनिमस, धपगनिमस, गपनिधमस, पगनिधमस, निगपधमस, पनिगधमस, निपगधमस, गधनिपमस,
50
70
धनिमपस, धगपनिमस, गनपधमस,
धगनिपमस,
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सधनिपमग,
निधसपमग, '
70
धनिपसमग,
80
90
20
30
40
60
80
धस निपमग,
निमग,
निधपसमग,
पधमनिस
निमपधसग, मधिपसग
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(७) १०१] अनुबन्धः
३५१ गनिधपमस, निगधपमस, धनिगपमस, निधगपमस,°° पधनिगमस, धपनिगमस, पनिधगमस, निपधगमस, धनिपगमस, निधपगमस, मपधनिगस, पमधनिगस, मधपनिगस, धमपनिगस,०० पधमनिगस, धपमनिगम, मपनिधगस, पमनिधगस, मनिपधगस, निमपधगस, पनिमधगस, निपमधगस, मधनिपगस, धमनिपगस, मनिधपगस, निमधपगस, धनिमपगस, निधमपगस, पधनिमगस, धपनिमगस, पनिधमगस, निपधमगस, धनिपमगस, निधपमगस.१० (७) रिगमपधनि, गरिमपधनि, रिमगपधनि, मरिगपधनि, गमरिपधनि, मगरिपधनि, रिंगपमधनि, गरिपमधनि, रिपगमधनि, परिंगमधनि, गपरिमधनि, पगरिमधनि, रिमपगधनि, मरिपगधनि, पिमगधनि, परिमगधनि, मपरिगधनि, पमरिगधनि, गमपरिधनि, मगपरिधनि,२० गपमरिधनि, पगमरिधनि, मपगरिधनि, पमगरिधनि, रिंगमधपनि, गरिमधपनि, रिमगधपनि, मरिगधपनि, गमरिधपनि, मगरिधपनि, रिंगधमपनि, गरिधमपनि, रिधगमपनि, धरिगमपनि, गधरिमपनि, धगरिमपनि, रिमधगपनि, मरिधगपनि, रिधमगपनि, धरिमगपनि,° मधरिगपनि, धमरिगपनि, गमधरिपनि, मगधरिपनि, गधमरिपनि, धगमरिपनि, मधगरिपनि, धमगरिपनि, रिगपधमनि, गरिपधमनि, रिपगधमनि, परिगधमनि, गपरिधमनि, पगरिधमनि, रिंगधपमनि, गरिधपमनि, रिधगपमनि, धग्गिपमनि, गधरिपमनि, धगरिपमनि,° रिपधगमनि, परिधगमनि, रिधपगमनि, धरिपगमनि, पधरिगमनि, धपरिगमनि, गपधरिमनि, पगधरिमनि, गधपरिमनि, धगपरिमनि,' पधगरिमनि, धपगरिमनि, रिमपधगनि, मरिपधगनि, रिपमधगनि, परिमधगनि, मपरिधगनि, पमरिधगनि, ग्मिधपगनि, मरिधपगनि, रिधमपगनि, धरिमपगनि, मधरिपगनि, धमरिपगनि, रिपधमगनि, परिधमगनि, रिधपमगनि, धरिपमगनि, पधरिमगनि, धपरिमगनि,° मपधरिगनि, पमधरिगनि, मधपरिगनि धमपरिगनि, पधमरिगनि, धपमरिगनि, गमपधरिनि, मगपरिनि, गपमधरिनि, पगमधरिनि,०० मपगधरिनि,
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11111111111
३५२
संगीतरत्नाकरः [षा० (७) १०२पमगधरिनि, गमधपरिनि, मगधपरिनि, गधमपरिनि, धगमपरिनि, मधगपरिनि, धमगपरिनि, गपधमरिनि, पगधमरिनि,1° गधपमरिनि, धगपमरिनि, पधगमरिनि, धपगमरिनि, मपधगरिनि, पमधगरिनि, मधपगरिनि, धमपगरिनि, पधमगरिनि, धपमगरिनि, रिगमपनिध, गरिमपनिध, रिमगपनिध, मरिगपनिध, गमरिपनिध, मगरिपनिध, रिगपमनिध, गरिपमनिध, रिपगमनिध, परिगमनिध,° गपरिमनिध, पगरिमनिध, रिमपगनिध, मरिपगनिध, रिपमगनिध, परिमगनिध, मपरिगनिध, पमरिगनिध, गमपरिनिध, मगपरिनिध, गपमरिनिध, पगमरिनिध, मपगरिनिध, पमगरिनिध, रिमगनिपध, मरिगनिपध, रिगमनिपध, मरिगनिपध, गमरिनिपध, मगरिनिपध, रिगनिमपध, गरिनिमपध, रिनिगमपध, निरिगमपध, गनिरिमपध, निगरिमपध, रिमनिगपध, मरिनिगपध, रिनिमगपध, निरिमगपध, मनिरिगपध, निमरिगपध, गमनिरिपध, मगनिरिपध, गनिमरिपध, निगमरिपध, मनिगरिपध, निमगरिपध, रिगपनिमध, गरिपनिमध, रिपगनिमध, परिगनिमध, गपरिनिमध, पगरिनिमध, रिगनिपमध, गरिनिपमध, रिनिगपमध, निरिगपमध, गनिरिपमध, निगरिपमध, रिपनिगमध, परिनिगमध, रिनिपगमध, निरिपगमध, पनिरिगमध, निपरिगमध, गपनिरिमध, पगनिरिमध, गनिपरिमध, निगपरिमध,°° पनिगरिमध, निपगरिमध, रिमपनिगध, मरिपनिगध, रिपमनिगध, परिमनिगध, मपरिनिगध, पमरिनिगध, रिमनिपगध, मरिनिपगध,२०० रिनिमपगध, निरिमपगध, मनिरिपगध, निमरिपगध, रिपनिमगध, परिनिमगध, रिनिपमगध, निरिपमगध, पनिरिमगध, निपरिमगध,10 मपनिरिगध, पमनिरिगध, मनिपरिगध, निमपरिगध, पनिमरिगध, निपमरिंगध, गमपनिरिध, मगपनिरिध, गपमनिरिध, पगमनिरिध,२० मपगनिरिध, पमगनिरिध, गमनिपरिध, मगनिपरिध, गनिमपरिध, निगमपरिध, मनिगपरिध, निमगपरिध, गपनिमरिध, पगनिमरिध, गनिपमरिध, निगपमरिध, पनिगमरिध, निपगमरिध, मपनिगरिध, पमनिगरिध,
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(७) ३७१] अनुबन्धः
३५३ मनिपगरिध, निमपगरिध, पनिमगरिध, निपमगरिध, रिंगमधनिप, गरिमधनिप, रिमगधनिप, मरिगधनिप, गमरिधनिप, मगरिधनिप, रिंगधमनिप, गरिधमनिप, रिधगमनिप, धरिंगमनिप, गधरिमनिप, धगरिमनिप, रिमधगनिप, मरिधगनिप, रिधमगनिप, धरिमगनिप, मधरिगनिप, धमरिगनिप, गमधरिनिप, मगधरिनिप, गधमरिनिप, धगमरिनिप, मधगरिनिप, धमगरिनिप, रिगमनिधप, गरिमनिधप, रिमगनिधप, मरिगनिधप, गमरिनिधप, मगरिनिधप, रिगनिमधप, गरिनिमधप, रिनिगमधप, निरिंगमधप, गनिरिमधप, निगरिमधप, रिमनिगधप, मरिनिगधप, रिनिमगधप, निरिमगधप, मनिरिगधप, निमरिगधप, गमनिरिधप, मगनिरिधप, गनिमरिधप, निगमरिधप, मनिगरिधप, निमगरिधप, रिंगधनिमप, गरिधनिमप, रिधगनिमप, धरिगनिमप, गधरिनिमप, धगरिनिमप, रिगनिधमप, गरिनिधमप, रिनिगधमप, निरिगधमप, गनिरिधमप, निगरिधमप,so० रिधनिगमप, धरिनिगमप, रिनिधगमप, निरिधगमप, धनिरिगमप, निधरिंगमप, गधनिरिमप, धगनिरिमप, गनिधरिमप, निगधरिमप, धनिगरिमप, निधगरिमप, रिमधनिगप, मरिधनिगप, रिधम निगप, धरिमनिगप, मधरिनिगप, धमरिनिगप, रिमनिधगप, मरिनिधगप, रिनिमधगप, निरिमधगप, मनिरिधगप, निमरिधगप, रिधनिमगप, धरिनिमगप, रिनिधमगप, निरिधमगप, धनिरिमगप, निधरिमगप, मधनिरिगप, धमनिरिगप, मनिधरिंगप, निमधरिगप, धनिमरिगप, निधमरिगप, गमधनिरिप, मगधनिरिप, गधमनिरिप, धगमनिरिप, मधगनिरिप, धमगनिरिप, गमनिधरिप, मगनिधरिप, गनिमधरिप, निगमधरिप, मनिगधरिप, निमगधरिप, गधनिमरिप, धगनिमरिप, गनिधमरिप, निगधमरिप, धनिगमरिप, निधगमरिप, मधनिगरिप, धमनिगरिप, मनिधगरिप, निमधगरिप, धनिमगरिप, निधमगरिप,७० रिगपधनिम, गरिपधनिम, रिपगधनिम, पग्गिधनिम, गपरिधनिम, पगरिधनिम, रिगधपनिम, गरिधपनिम, रिधगपनिम, धग्गिपनिम, गधरिपनिम,
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३५४
संगीतरत्नाकरः
[षा० (७) ३७२
80
10
रिधनिगपम,
धगरिपनिम, रिपधगनिम, परिधगनिम, रिधपगनिम, धरिपगनिम, पधरिगनिम, धपरिगनिम, गपधरिनिम, पगधरिनिम, ' गधपरिनिम, धगपरिनिम, पधगरिनिम, धपगरिनिम, रिंगपनिधम, गरिपनिधम, रिपगनिथम, परिगनिधम, गपरिनिधम, पगरिनिधम, रिगनिपधम, गरिनिपधम, रिनिगपधम, निरिंगपधम, गनिरिपधम, निगरिपधम, रिपनिगधम, परिनिगधम, रिनिपगधम, निरिपगधम, पनिरिंगधम, निपरिगधम, गपनिरिधम, पगनिरिधम, गनिपरिधम, निगपरिधम, पनिगरिधम निपगरिधम, रिगधनियम, गरिधनिपम, ' रिधगनियम, धरिगनिपम, गधरि नियम, धगरिनियम, रिगनिधपम, गरिनिधपम, रिनिगधपम, निरिगधपम, गनिरिधपम, निगरिधपम, 20 धरिनिगपम, रिनिधगपम, निरिधगपम, धनिरिंगपम, निधरिगपम, गधनिरिपम, धगनिरिपम, गनिधरिपम, निगधरिपम, धनिगरिपम, निधगरिपम, रिपधनिगम, परिधनिगम, रिधपनिगम, धरिपनिगम, पधरिनिगम, धपरिनिगम, रिपनिधगम, परिनिधगम, रिनिपधगम, निरिपधगम, पनिरिधगम, निपरिधगम, रिधनिपगम, धरिनिपगम, रिनिधपगम, निरिधपगम, धनिरिपगम, निधरिपगम, पधनिरिगम, धपनिरिगम, पनिधरिगम, निपधरिगम, धनिपरिगम, निधपरिगम, गपधनिरिम, पगधनिरिम, गधपनिरिम, धगपनिरिम, ० पधगनिरिम, धपगनिरिम, गपनिधरिम, पगनिधरिम, गनिपधरिम, निगपधरिम, पनिगधरिम, निपगधरिम, गधनिपरिम, धगनिपरिम, निधपरिम निगधपरिम, धनिगपरिम, निधगपरिम, पधनिगरिम, धपनिगरिम, पनिधगरिम, निपधगरिम, धनिपगरिम, निधपगरिम, मरिपधनिग, रिपमधनिग, परिमधनिग, मपरिधनिग, ग्मिधपनिग, मरिधप निग, रिधमपनिग,
धरिमपनिग,
धरिपम निग,
धमरिपनिग, रिपधम निग, परिधमनिग, पधरिमनिग, धपरिमनिग, मपधरिनिग, धमपरिनिग, पधमरिनिग, धपमरिनिग,
रिधपमनिग, पमधरिनिग, '
मधपरिनिग
रिमपनिधग, मरिपनिधग,
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90
400
80
40
50
70
80 रिमपधनिग,
पमरिधनिग,
मधरिपनिग,
90
500
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• (७) ६४१] अनुबन्धः
३५५ रिपमनिधग, परिमनिधग, मपरिनिधग, पमगिनिधग,' रिमनिपधग, मरिनिपधग, रिनिमपधग, निरिमपधग, मनिरिपधग, निमरिपधग, रिपनिमधग, परिनिमधग, रिनिपमधग, निरिपमधग,°° पनिरिमधग, निपरिमधग, मपनिरिधग, पमनिरिधग, मनिपरिधग, निमपरिधग, पनिमरिधग, निपमरिधग, रिमधनिपग, मरिधनिपग, रिधमनिपग, धरिमनिपग, मधरिनिपग, धमरिनिपग, रिमनिधपग, मरिनिधपग, रिनिमधपग, निरिमधपग, मनिरिधपग, निमरिधपग, रिधनिमपग, धरिनिमपग, रिनिधमपग, निरिधमपग, धनिरिमपग, निधरिमपग, मधनिरिपग, धमनिरिपग, मनिधरिपग, निमधरिपग, धनिमरिपग, निधमरिपग, रिपधनिमग, परिधनिमग, रिधपनिमग, धरिपनिमग, पधरिनिमग, धपरिनिमग, रिपनिधमग, परिनिधमग, रिनिपधमग, निरिपधमग, पनिरिधमग, निपरिधमग, रिधनिपमग, धरिनिपमग, रिनिधपमग, निरिधपमग, धनिरिपमग, निधरिपमग, पधनिरिमग, धपनिरिमग, पनिधरिमग, निपधरिमग, धनिपरिमग, निधपरिमग, मपधनिरिग, पमधनिरिग, मधपनिग्गि, धमपनिरिंग, पधमनिरिंग, धपमनिरिग, मपनिधरिंग, पमनिधरिग, मनिपधरिंग, निमपधरिंग, पनिमधरिग, निपमधरिंग, मधनिपरिग, धमनिपरिग,° मनिधपरिंग, निमधपरिग, धनिमपरिग, निधमपरिग, पधनिमरिग, धपनिमरिंग, पनिधमरिंग, निपधमरिग, धनिपमरिंग, निधपमरिग,80° गमपधनिरि, मगपधनिरि, गपमधनिरि, पगमधनिरि, मपगधनिरि, पमगधनिरि, गमधपनिरि, मगधपनिरि, गधमपनिरि, धगमपनिरि, मधगपनिरि, धमगपनिरि, गपधमनिरि, पगधमनिरि, गधपमनिरि, धगपमनिरि, पधगमनिरि, धपगमनिरि, मपधगनिरि, पमधगनिरि,२० मधपगनिरि, धमपगनिरि, पधमगनिरि, धपमगनिरि, गमपनिधरि, मगपनिधरि, गपमनिधरि, पगमनिधरि, मपगनिधरि, पमगनिधरि, गमनिपधरि, मगनिपधरि, गनिमपधरि, निगमपधरि, मनिगपधरि, निमगपधरि, गपनिमधरि, पगनिमधरि, गनिपमधरि, निगपमधरि, पनिगमधरि,
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३५६
संगीतरत्नाकरः [षा० (७) ६४२निपगमधरि, मपनिगधरि, पमनिगधरि, मनिपगधरि, निमपगधरि, पनिमगधरि, निपमगधरि, गमधनिपरि, मगधनिपरि, गधमनिपरि, धगमनिपरि, मधगनिपरि, धमगनिपरि, गमनिधपरि, मगनिधपरि, गनिमधपरि, निगमधपरि, मनिगधपरि, निमगधपरि, गधनिमपरि, धगनिमपरि, गनिधमपरि, निगधमपरि, धनिगमपरि, निधगमपरि, मधनिगपरि, धमनिगपरि, मनिधगपरि, निमधगपरि, धनिमगपरि, निधमगपरि, गपधनिमरि, पगधनिमरि, गधपनिमरि, धगपनिमरि, पधगनिमरि, धपगनिमरि, गपनिधमरि, पगनिधमरि, गनिपधमरि, निगपधमरि, पनिगधमरि, निपगधमरि, गधनिपमरि, धगनिपमरि, गनिधपमरि. निगधपमरि. धनिगपमरि, निधगपमरि,° पधनिगमरि, धपनिगमरि, पनिधगमरि, निपधगमरि, धनिपगमरि, निधपगमरि, मपधनिगरि, पमधनिगरि, मधपनिगरि, धमपनिगरि,100 पधमनिगरि, धपमनिगरि, मपनिधगरि, पमनिधगरि, मनिपधगरि, निमपधगरि, पनिमधगरि, निपमधगरि, मधनिपगरि, धमनिपगरि,1° मनिधपगरि, निमधपगरि, धनिमपगरि, निधमपगरि, पधनिमगरि, धपनिमगरि, पनिधमगरि, निपधमगरि, धनिपमगरि, निधपमगरि.२०
___ संपूर्णस्वरप्रस्तार:-सरिगमपधनि, रिसगमपधनि, सगरिमपधनि, गसरिमपधनि, रिगसमपनि, गरिसमपधनि, सरिमगपधनि, रिसमगपधनि, समरिगपधनि, मसरिगपधनि,° रिमसगपधनि, मरिसगपधनि, सगमरिपधनि, गसमरिपधनि, समगरिपधनि, मसगरिपधनि, गमसरिपधनि, मगसरिपधनि, रिगमसपधनि, गरिमसपधनि,२° रिमगसपधनि, मरिगसपधनि, गमरिसपधनि, मगरिसपधनि, सरिगपमधनि, रिसगपमधनि, सगरिपमधनि, गसरिपमधनि, रिगसपमधनि, गरिसपमधनि,° सरिपगमधनि, रिसपगमधनि, सपरिगमधनि, पसरिंगमधनि, रिपसगमधनि, परिसगमधनि, सगपरिमधनि, गसपरिमधनि, सपगरिमधनि, पसगरिमधनि,° गपसरिमधनि, पगसरिमधनि, रिगपसमधनि, गरिपसमधनि, रिपगसमधनि, परिगसमधनि, गपरिसमधनि, पगरिसमधनि, सरिमपगधनि, रिसमपगधनि,° समरिपगधनि, मसरिपगधनि, रिमसपगधनि,
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सं० १८८ ]
अनुबन्धः
३५७
60
70
80
मरिसपधनि, सरिपमगधनि, रिसपमगधनि, सपरिमगधनि, पसरिमगधनि, रिपसमगधनि, परिसमगधनि, " समपरिगधनि, मसपरिगधनि, सपमरिगधनि, पसमरिगधनि, मपसरिगधनि, पमसरिगधनि, रिमपसगधनि, मरिपसगधनि, रिपमसगधनि, परिमसगधनि, 10 मपरिसगधनि, पमरिसगधनि, सगमपरिधनि, गसमपरिधनि, समगपरिधनि, मसगपरिधनि, गमसपरिधनि, मगसपरिधनि, सगपमरिधनि, गसपमरिधनि, " सपगमरिधनि, पसगमरिधनि, गपसमरिधनि, पगसमरिधनि, समपगरिधनि, मसपगरिधनि, सपमगरिधनि, पसमगरिधनि, मपसगरिधनि, पमसगरिधनि, गमपसरिधनि, मगपसरिधनि, गपमसरिधनि, पगमसरिधनि, मपगसरिधनि, पमगसरिधनि, रिगमपधनि, गरिमपधनि, रिमगपधनि, मरिगपसधनि, 100 गमरिपसधनि, मगरिपराधनि, रिगपमसधनि, गरिमसधनि, रिपगमसधनि, परिगमसधनि, गपरिममधनि, पगरिमसधनि, रिमपगसधनि, मरिपगसधनि, ग्पिमगसधनि, परिमगसधनि, मपरिगसधनि, पमरिगसधनि, गमपरिसधनि, मगपरिसधनि, गपमरिसधनि, पगमरिसधनि, मपगरिसधनि, पमगरिसधनि, 20 सरिगमधपनि, रिसगमधपनि, सगरिमधपनि, गसरिमधपनि, रिगसमधपनि, गरिसमधपनि, सरिमगधपनि, रिस मगधपनि, समरिगधपनि, मसरिगधपनि, रिमसगधपनि, मरिसगधपनि, सगमरिधपनि, समरिधपनि, समगरिधपनि, मसगरिधपनि, गमसरिधपनि, मगसरिधपनि, रिगमसधपनि, गरिमसधपनि, रिमगसधपनि, मरिगसधपनि, गमरिसधपनि, मगरिसधपनि, सरिगधमपनि, रिसगधमपनि, सगरिधमपनि, गसरिधमपनि, रिगसधमपनि, गरिसधमपनि, ° सरिधगमपनि, रिसधगमपनि, सधरिगमपनि, धसरिगमपनि, रिधसगमपनि, धरिसगमपनि, सगधरिमपनि, गसधरिमपनि, सधगरिमपनि, धसगरिमपनि, " गधसरिमपनि, धगस रिमपनि, रिगधसमपनि, गरिधसमपनि, रिधगसमपनि, धरिगसमपनि, गधरिसमपनि, धगरिसमपनि, सरिमधगपनि, रिसमधगपनि, ° समरिधगपनि, मसरिधगपनि, रिमसधगपनि, मरिसधगपनि, सरिधमगपनि, रिसधमगपनि, सथरिमगपनि, धसरिमगपनि, रिधसमगपनि, धरिसमगपनि, ° समधरिंगपनि, मसधरिगपनि, सधमरिगपनि, धसमरिंगपनि, मधसरिगपनि, धमसरिंगपनि, रिमधसंगपनि, मरिधसगपनि,
50
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10
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३५८
संगीतरत्नाकरः
[सं० १८९
10
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रिधमसगपनि, धरिमसग पनि,° मधरिसगपनि, धमरिसगपनि, सगमधरिपनि, गसमधरिपनि, समगधरिपनि, मसगधरिपनि, गमसधरिपनि, मगसधरिपनि, सगधमरिपनि, गसधमरिपनि, सधगमरिपनि, धसगमरिपनि, गधसमरिपनि, धगसमरिपनि, समधगरिपनि, मसधगरिपनि, सधमगरिपनि, धसमगरिपनि, मधसगरिपनि, धमसगरिपनि, " गमधसरिपनि, मगधसरिपनि, गधमसरिपनि, धगमसरिपनि, मधगसरिपनि, धमगसरिपनि, रिंगमधसपनि, गरिमधसपनि, रिमगधसपनि, मरिगधसपनि,° गमरिधसपनि, मगरिधसपनि, रिगधमसपनि, गरिधमसपनि, रिधगमसपनि, धरिगमसपनि, गधरिमसपनि, धगरिमसपनि, रिमधगसपनि, मरिधगसपनि, रिधमगसपनि, धरिमगसपनि, मधरिगसपनि, धमरिगसपनि, गमधरिसपनि, मगधरिसपनि, गधमरिसपनि, धगमरिसपनि, मधगरिसपनि, धमगरिसपनि, ° सरिगपधमनि, रिसगपधमनि, सगरिपधमनि, गसरिपधमनि, रिगसपधमनि गरिसपधमनि, सरिपगधमनि, रिसपगधमनि, सपरिगधमनि, पसरिगधमनि, " रिपसगधमनि, परिसगधमनि, सगपरिधमनि, गस परिधमनि, सपगरिधम नि, पसगरिधमनि, गपसरिधमनि, पगसरिधमनि, रिगपसधमनि, गरिपसधमनि,° रिपगसधमनि, परिगसधमनि, गपरिसधमनि, पगरिसधमनि, सग्गिधपमनि, रिसगधपमनि, सगरिधपमनि, गसरिधपमनि, रिगसधपमनि, गरिसधपमनि, सरिधगपमनि, रिसधगपमनि, सधरिगपमनि, धसरिगपमनि, रिधसगपमनि, धरिसगपमनि, सगधरिपमनि, गसधरिपमनि, सधगरिपमनि, धसगरिपमनि, गधसरिपमनि, धगसरिपमनि, रिगधसपमनि, गरिधसपमनि, रिधगसपमनि, धरिगसपमनि, गधरिसपमनि, धगरिसपमनि, सरिपधगमनि, रिसपधगमनि," सपरिधगमनि, पसरिधगमनि, रिपसधगमनि, परिसधगमनि, सरिधपगमनि, रिसधपगमनि, सधरिपगमनि, धसरिपगमनि, रिधसपगमनि, धरिसपगमनि, 300 सपधरिगमनि, पसधरिगमनि, सधपरिगमनि, धसपरिगमनि, पधसरिगमनि, धपसरिगमनि, रिपधसगमनि, परिधसगमनि, रिधपसगमनि, धरिपसगमनि, " पधरिसगमनि, धपरिसगमनि, सगपधरिमनि, गसपधरिमनि, सपगधरिमनि, पसगधरिमनि, गपसधरिमनि, पगसधरिमनि, सगधपरिमनि, गसधपरिमनि, 2° सधगपरिमनि, धसगपरिमनि, गधसपरिमनि,
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४५८] अनुबन्धः
३५९ धगसपरिमनि, सपधगरिमनि, पसधगरिमनि, सधपगरिमनि, धसपगरिमनि, पधसगरिमनि, धपसगरिमनि, ° गपधसरिमनि, पगधसरिमनि, गधपसरिमनि, धगपसम्मिनि, पधगसरिमनि, धपगसरिमनि, रिगपधसमनि, गरिपधसमनि, रिपगधसमनि, परिगधसमनि, गपरिधसमनि, पगरिधसमनि, रिंगधपसमनि, गरिधपसमनि, रिधगपसमनि, धरिगपसमनि, गधरिपसमनि, धगरिपसमनि, रिपधगसमनि, परिधगसमनि, रिधपगसमनि, धरिपगसमनि, पधरिगसमनि, धपरिगसमनि, गपरिसमनि, पगधरिसमनि, गधपरिसमनि, धगपरिसमनि, पधगरिसमनि, धपगरिसमनि,° सरिमपधगनि, रिसमपधगनि, समरिपधगनि, मसरिपधगनि, रिमसपधगनि, मरिसपधगनि, सरिपमधगनि, रिसपमधगनि, सपरिमधगनि, पसरिमधगनि,'° रिपसमधगनि, परिसमधगनि, समपरिधगनि, मसपरिधगनि, सपमरिधगनि, पसमरिधगनि, मपसरिधगनि, पमसरिधगनि, रिमपसधगनि, मरिपसधगनि, रिपमसधगनि, परिमसधगनि, मपरिसधगनि, पमरिसधगनि, सरिमधपगनि, रिसमधपगनि, समरिधपगनि, मसरिधपगनि, रिमसधपगनि, मरिसधपगनि,° सरिधमपगनि, रिसधमपगनि, सधरिमपगनि, धसरिमपगनि, रिधसमपगनि, धरिसमपगनि, समधरिपगनि, मसधरिपगनि, सधमरिपगनि, धसमरिपगनि,0° मधसरिपगनि, धमसरिपगनि, रिमधसपगनि, मरिधसपगनि, रिधमसपगनि, धरिमसपगनि, मधरिसपगनि, धमरिसपगनि, सरिपधमगनि, रिसपधमगनि,° सपरिधमगनि, पसरिधमगनि, रिपसधमगनि, परिसधमगनि, सरिधपमगनि, रिसधपमगनि, सधरिपमगनि, धसरिपमगनि, रिधसपमगनि, धरिसपमगनि,° सपधरिमगनि, पसधरिमगनि, सधपरिमगनि, धसपरिमगनि, पधसरिमगनि, धपसरिमगनि, रिपधसमगनि, परिधसमगनि, रिधपसमगनि, धरिपसमगनि,° पधरिसमगनि, धपरिसमगनि, समपधरिगनि, मसपधग्गिनि, सपमधरिगनि, पसमधरिगनि, मपसधरिगनि, पमसधरिगनि, समधपग्गिनि, मसधपरिगनि,° सधमपरिगनि, धसमपरिगनि, मधसपरिगनि, धमसपरिगनि, सपधमरिगनि, पसधमरिगनि, सधपमरिगनि, धसपमरिगनि, पधसमरिगनि, धपसमरिगनि,° मपधसरिगनि, पमधसरिगनि, मधपसग्गिनि, धमपसरिगनि, पधमसरिगनि, धपमसरिंगनि, रिमपधसगनि, मरिपधसगनि,
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संगीतरत्नाकरः [सं० ४५९रिपमधसगनि, परिमधसगनि,° मपरिधसगनि, पमग्धिसगनि, रिमधपसगनि, मरिधपसगनि, रिधमपसगनि, धरिमपसगनि, मधरिपसगनि, धमरिपसगनि, रिपधमसगनि, परिधमसगनि, रिधपमसगनि, धरिपमसगनि, पधरिमसगनि, धपरिमसगनि, मपधरिसगनि, पमधरिसगनि, मधपरिसगनि, धमपरिसगनि, पधमरिसगनि, धपमरिसगनि,९° सगमपधरिनि, गसमपधरिनि, समगपधरिनि, मसगपरिनि, गमसपधरिनि, मगसपरिनि, सगपमधरिनि, गसपमधरिनि, सपगमधरिनि, पसगमधरिनि,°° गपसमधरिनि, पगसमधरिनि, समपगधरिनि, मसपगधरिनि, सपमगधरिनि, पसमगधरिनि, मपसगधरिनि, पमसगधरिनि, गमपसधरिनि, मगपसधरिनि, 50° गपमसधरिनि, पगमसधरिनि, मपगसधरिनि, पमगसधरिनि, सगमधपरिनि, गसमधपरिनि, समगधपरिनि, मसगधपरिनि, गमसधपरिनि, मगसधपरिनि, सगधमपरिनि, गसधमपरिनि, सधगमपरिनि, धसगमपरिनि, गधसमपरिनि, धगसमपरिनि, समधगपरिनि, मसधगपरिनि, सधमगपरिनि, धसमगपरिनि,२० मधसगपरिनि, धमसगपरिनि, गमधसपरिनि, मगधसपरिनि, गधमसपरिनि, धगमसपरिनि, मधगसपरिनि, धमगसपरिनि, सगपधमरिनि, गसपधमरिनि,३° सपगधमरिनि, पसगधमरिनि, गपसधमरिनि, पगसधमरिनि, सगधपमरिनि, गसधपमरिनि, सधगपमरिनि, धसगपमरिनि, गधसपमरिनि, धगसपमरिनि,° सपधगमरिनि, पसधगमरिनि, सधपगमरिनि, धसपगमरिनि, पधसगमरिनि, धपसगमरिनि, गपधसमगिनि, पगधसमरिनि, गधपसमरिनि, धगपसमरिनि,° पधगसमरिनि, धपगसमरिनि, समपधगरिनि, मसपधगरिनि, सपमधगरिनि, पसमधगरिनि, मपसधगरिनि. पमसधगरिनि, समधपगरिनि, मसधपगरिनि,° सधमपगरिनि, धसमपगरिनि, मधसपगरिनि, धमसपगरिनि, सपधमगरिनि, पसधमगरिनि, सधपमगरिनि, धसपमगरिनि, पधसमगरिनि, धपसमगगिनि,'° मपधसगगिनि, पमधसगरिनि, मधपसगरिनि, धमपसगरिनि, पधमसगरिनि, धपमसगरिनि, गमपधसरिनि, मगपधसरिनि, गपमधसरिनि, पगमधसरिनि,° मपगधसरिनि, पमगधसरिनि, गमधपसरिनि, मगधपसरिनि, गधमपसरिनि, धगमपसरिनि, मधगपसरिनि, धमगपसरिनि, गपधमसरिनि, पगधमसगिनि°° गधपमसरिनि, धगपमसरिनि, पधगमसरिनि,
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७२८]
अनुबन्धः धपगमसरिनि, मपधगसरिनि, पमधगसरिनि, मधपगसरिनि, धमपगसरिनि, पधमगसरिनि, धपमगसरिनि,००° रिगमपधसनि, गरिमपधसनि, रिमगपधसनि, मरिगपधसनि, गमरिपधसनि, मगरिपधसनि, रिगपमधसनि, गरिपमधसनि, रिपगमधसनि, परिगमधसनि,1° गपरिमधसनि, पगरिमधसनि, रिमपगधसनि, मरिपगधसनि, रिपमगधसनि, परिमगधसनि, मपरिगधसनि, पमरिंगधसनि, गमपरिधसनि, मगपरिधसनि, गपमरिधसनि, पगमरिधसनि, मपगरिधसनि, पमगरिधसनि, रिंगमधपसनि, गरिमधपसनि, रिमगधपसनि, मरिगधपसनि, गमरिधपसनि, मगरिधपसनि,° रिंगधमपसनि, गरिधमपसनि, रिधगमपसनि, धरिगमपसनि, गधरिमपसनि, धगरिमपसनि, रिमधगपसनि, मरिधगपसनि, रिधमगपसनि, धरिमगपसनि,° मधरिंगपसनि, धमरिगपसनि, गमधरिपसनि, मगधरिपसनि, गधमरिपसनि, धगमरिपसनि, मधगरिपसनि, धमगरिपसनि, रिंगपधमसनि, गरिपधमसनि,° रिपगधमसनि, परिगधमसनि, गपरिधमसनि, पगरिधमसनि, रिगधपमसनि, गरिधपमसनि, रिधगपमसनि, धरिगपमसनि, गधरिपमसनि, धगरिपमसनि,° रिपधगमसनि, परिधगमसनि, रिधपगमसनि, धरिपगमसनि, परिगमसनि, धपरिगमसनि, गपधरिमसनि, पगधरिमसनि, गधपरिमसनि, धगपरिमसनि,° पधगरिमसनि, धपगरिमसनि, रिमपधगसनि, मरिपधगसनि, रिपमधगसनि, परिमधगसनि, मपरिधगसनि, पमरिधगसनि, रिमधपगसनि, मरिधपगसनि,8° रिधमपगसनि, धरिमपगसनि, मधरिपगसनि, धमरिपगसनि, रिपधमगसनि, परिधमगसनि, रिधपमगसनि, धरिपमगसनि, परिमगसनि, धपरिमगसनि,°° मपरिगसनि, पमधरिगसनि, मधपरिगसनि, धमपरिगसनि, पधमरिगसनि, धपमरिगसनि, गमपधरिसनि, मगपधरिसनि, गपमधरिसनि, पगमधरिसनि,70° मपगधरिसनि, पमगधरिसनि, गमधपरिसनि, मगधपरिसनि, गधमपरिसनि, धगमपरिसनि, मधगपरिसनि, धमगपरिसनि, गपधमरिसनि, पगधमरिसनि, गधपमरिसनि, धगपमरिसनि, पधगमरिसनि, धपगमरिसनि, मपधगरिसनि, पमधगरिसनि, मधपगरिसनि, धमपगरिसनि, पधमगरिसनि, धपमगरिसनि,° सरिगमपनिध, रिसगमपनिध, सगरिमपनिध, गसरिमपनिध, रिगसमपनिध, गरिसमपनिध, सरिमगपनिध, रिसमगपनिध,
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३६२ संगीतरत्नाकरः
[सं० ७२९समरिगपनिध, मसरिगपनिध,३° रिमसगपनिध, मरिसगपनिध, सगमरिपनिध, गसमरिपनिध, समगरिपनिध, मसगरिपनिध, गमसरिपनिध, मगसरिपनिध, रिगमसपनिध, गरिमसपनिध, ° रिमगसपनिध, मरिगसपनिध, गमरिसपनिध, मगरिसपनिध, सरिगपमनिध, रिसगपमनिध, सगरिपमनिध, गसरिपमनिध, रिगसपमनिध, गरिसपमनिध,° सरिपगमनिध, रिसपगमनिध, सपरिगमनिध, पसरिगमनिध, रिपसगमनिध, परिसगमनिध, सगपरिमनिध, गसपरिमनिध, सपगरिमनिध, पसगरिमनिध, गपसरिमनिध, पगसरिमनिध, रिगपसमनिध, गरिपसमनिध, रिपगसमनिध, परिगसमनिध, गपरिसमनिध, पगरिसमनिध, सरिमपगनिध, रिसमपगनिध,'° समरिपगनिध, मसरिपगनिध, रिमसपगनिध, मरिसपगनिध, सरिपमगनिध, रिसपमगनिध, सपरिमगनिध, पसरिमगनिध, रिपसमगनिध, परिसमगनिध, ° समपरिगनिध, मसपरिगनिध, सपमरिगनिध, पसमरिगनिध, मपसरिगनिध, पमसरिगनिध, रिमपसगनिध, मरिपसगनिध, रिपमसगनिध, परिमसगनिध,° मपरिसगनिध, पमरिसगनिध, सगमपरिनिध, गसमपरिनिध, समगपरिनिध, मसगपरिनिध, गमसपरिनिध, मगसपरिनिध, सगपमरिनिध, गसपमरिनिध,80° सपगमरिनिध, पसगमरिनिध, गपसमरिनिध, पगसमरिनिध, समपगरिनिध, मसपगरिनिध, सपमगरिनिध, पसमगरिनिध, मपसगरिनिध, पमसगरिनिध, गमपसरिनिध, मगपसरिनिध, गपमसरिनिध, पगमसरिनिध, मपगसरिनिध, पमगसरिनिध, रिगमपसनिध, गरिमपसनिध, रिमगपसनिध, मरिगपसनिध,२° गमरिपसनिध, मगरिपसनिध, रिगपमसनिध, गरिपमसनिध, रिपगमसनिध, परिगमसनिध, गपरिमसनिध, पगरिमसनिध, रिमपगसनिध, मरिपगसनिध, ° रिपमगसनिध, परिमगसनिध, मपरिगसनिध, पमरिगसनिध, गमपरिसनिध, मगपरिसनिध, गपमरिसनिध, पगमरिसनिध, मपगरिसनिध, पमगरिसनिध,° सरिगमनिपध, रिसगमनिपध, सगरिमनिपध, गसरिमनिपध, रिगसमनिपध, गरिसमनिपध, सरिमगनिपध, ग्सिमगनिपध, समरिगनिपध, मसरिगनिपध, रिमसगनिपध, मरिसगनिपध, सगमरिनिपध, गसमरिनिपध, समगरिनिपध, मसगरिनिपध, गमसरिनिपध, मगसरिनिपध, रिगमसनिपध, गरिमसनिपध,७° रिमगमनिपध, मरिगसनिपध, गमरिसनिपध,
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९९८] अनुबन्धः
३६३ मगरिसनिपध, सरिगनिमपध, रिसगनिमपध, सगरिनिमपध, गसरिनिमपध, रिगसनिमपध, गरिसनिमपध,' सरिनिगमपध, सिनिगमपध, सनिरिगमपध, निसरिंगमपध, रिनिसगमपध, निरिसगमपध, सगनिरिमपध, गसनिरिमपध, सनिगरिमपध, निसगरिमपध, गनिसरिमपध, निगसरिमपध, ग्गिनिसमपध, गरिनिसमपध, रिनिगसमपध, निरिगसमपध, गनिरिसमपध, निगरिसमपध, मरिमनिगपध, रिसमनिगपध,° समरिनिगपध, मसगिनिगपध, रिमसनिगपध, मरिस निगपध, सरिनिमगपध, रिसनिमगपध, सनिग्मिगपध, निसरिमगपध, रिनिसमगपध, निरिसमगपध,90° समनिरिगपध, मसनिरिगपध, सनिमरिगपध, निसमरिगपध, मनिसरिगपध, निमसग्गिपध, रिमनिसगपध, मरिनिसगपध, रिनिमसगपध, निरिमसगपध, मनिरिसगपध, निमरिसगपध, सगमनिरिपध, गसमनिरिपध, समगनिरिपध, मसगनिरिपध, गमसनिरिपध, मगसनिरिपध, सगनिमग्पिध, गसनिमरिपध, सनिगमरिपध, निसगमरिपध, गनिसमरिपध, निगसमरिपध, समनिगरिपध, मसनिगरिपध, सनिमगरिपध, निसमगरिपध, मनिसगरिपध, निमसगरिपध,° गमनिसरिपध, मगनिसरिपध, गनिमसरिपध, निगमसरिपध, मनिगसरिपध, निमगसरिपध, रिगमनिसपध, गरिमनिसपध, रिमगनिसपध, मरिगनिसपध,° गमरिनिसपध, मगरिनिसपध, रिगनिमसपध, गरिनिमसपध, रिनिगमसपध, निरिगमसपध, गनिरिमसपध, निगरिमसपध, रिमनिगसपध, मरिनिगसपध, रिनिमगसपध, निरिमगसपध, मनिरिगसपध, निमरिगसपध, गमनिरिसपध, मगनिरिसपध, गनिमरिसपध, निगमरिसपध, मनिगरिसपध, निमगरिसपध, सरिगपनिमध, रिसगपनिमध, सगरिपनिमध, गसरिपनिमध, रिगसपनिमध, गरिसपनिमध, सरिपगनिमध, रिसपगनिमध, सपरिगनिमध, पसरिगनिमध, रिपसगनिमध, परिसगनिमध, सगपरिनिमध, गसपरिनिमध, सपगरिनिमध, पसगरिनिमध, गपसरिनिमध, पगसरिनिमध, रिगपसनिमध, गरिपसनिमध,°° रिपगसनिमध, परिगसनिमध, गपरिसनिमध, पगरिसनिमध, सरिगनिपमध, रिसगनिपमध, सगरिनिपमध, गसरिनिपमध, ग्गिसनिपमध, गरिसनिपमध, सरिनिगपमध, रिसनिगपमध, सनिरिगपमध, निसरिगपमध, रिनिमगपमध, निरिसगपमध, सगनिरिपमध, गसनिरिपमध,
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३६४
संगीतरत्नाकर:
[सं० ९९९
10
20
30
40
60
सनिगरिपमध, निसगरिपमध, ,1000 गनिसरिपमध, निगसरिपमध, रिगनिसपमध, गरिनिसपमध, रिनिगसपमध, निरिगसपमध, गनिरिसपमध, निगरिसपमध, सरिपनि गमध, रिस पनिगमध, " सपरिनिगमध, पसरिनिगमध, रिपसनिगमध, परिसनिगमध, सरिनिपगमध, रिसनिपगमध, सनिरिपगमध, निसरिपगमध, रिनिसपगमध, निरिसपगमध, " सपनिरिंगमध, पसनिरिंगमध, सनिपरिगमध, निसपरिगमध, पनिसरिगमध, निपसरिगमध, रिपनिसगमध, परिनिसगमध, रिनिपसगमध, निरिपसगमध, ° पनिरिसगमध, निपरिसगमध, सगपनिरिमध, गसपनिरिमध, सपगनिरिमध, पसगनिरिमध, गपसनिरिमध, पगसनिरिमध, सगनिपरिमध, गसनिपरिमध, ° सनिगपरिमध, निसगपरिमध, गनिसपरिमध, निगसपरिमध, सपनिगरिमध, पसनिगरिमध, सनिपगरिमध, निसपगरिमध, पनिसगरिमध, निपसगरिमध, " गपनिसरिमध, पगनिसरिमध, गनिपसरिमध, निगपसरिमध, पनिगसरिमध, निपगसरिमध, रिंगपनिसमध, गरिपनिसमध, रिपगनिसमध, परिगनिसमध, ° गपरिनिसमध, पगरिनिसमध, रिगनिपसमध, गरिनिपसमध, रिनिगपसमध, निरिंगपसमध, गनिरिपलमध, निगरिपसमध, पिनिगसमध, परिनिगसमध, ° रिनिपगसमध, निरिपगसमध, पनिरिगसमध, निपरिगसमध, गपनिरिसमध, पगनिरिसमध, गनिपरिसमध, निगपरिसमध, पनिगरिसमध, निपगरिसमध, सरिमपनिगध, रिसमपनिगध, समरिपनिगध, मसरिपनिगध, रिमपनिगध, मरिसपनिगध, सरिपमनिगध, रिसपमनिगध, सपरिमनिगध, पसरिमनिगध, ° रिपसमनिगध, परिसमनिगध, समपरिनिगध, मसपरिनिगध, सपमरिनिगध, पसमरिनिगध, मपसरिनिगध, पमसरिनिगध, रिमपनिगध, मरिसनिगध, 100 रिपमसनिगध, परिमसनिगध, मपरिसनिगध, पमरिसनिगध, सरिमनिपराध, रिसमनिपगध, समरिनिपगध, मसरिनिपराध, रिमसनिपगध, मरिसनिपगध, ° सरिनिमपराध, रिसनिमपगध, सनिरिमपराध, निसरिमपराध, रिनिसमपराध, निरिसमपराध, समनिरिपराध, मसनिरिपराध, सनिमरिपगध, निसमरिपराध, 2° मनिसरिपगध, निमसरिपराध, रिमनिसपगध, मरिनिसपगध, रिनिमसपराध, निग्मिसपराध, मनिरिसपराध, निमरिसपराध, सग्पिनिमगध, ग्सिपनिमगध, " सपरिनिमगध, पसरिनिमगध, रिपस निमगध,
70
90
10
20
80
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१२६८]
अनुबन्धः परिसनिमगध, सरिनिपमगध, रिसनिपमगध, सनिरिपमगध, निसरिपमगध, रिनिसपमगध, निरिसपमगध,° सपनिरिमगध, पसनिरिमगध, सनिपरिमगध, निसपरिमगध, पनिसरिमगध, निपसरिमगध, रिपनिसमगध, परिनिसमगध, रिनिपसमगध, निरिपसमगध,5° पनिरिसमगध, निपरिसमगध, समपनिरिगध, मसपनिरिगध, सपमनिरिगध, पसमनिरिगध, मपसनिरिगध, पमसनिरिगध, समनिपरिगध, मसनिपरिगध, ° सनिमपग्गिध, निसमपरिगध, मनिसपरिगध, निमसपरिगध, सपनिमरिगध, पसनिमरिगध, सनिपमरिंगध, निसपमरिगध, पनिसमरिगध, निपसमरिंगध,7° मपनिसरिगध, पमनिसरिंगध, मनिपसरिंगध, निमपसरिंगध, पनिमसरिंगध, निपमसरिंगध, रिमपनिसगध, मरिपनिसगध, रिपमनिसगध, परिमनिसगध, ° मपरिनिसगध, पमरिनिसगध, रिमनिपसगध, मरिनिपसगध, रिनिमपसगध, निरिमपसगध, मनिरिपसगध, निमरिपसगध, रिपनिमसगध, परिनिमसगध,° रिनिपमसगध, निरिपमसगध, पनिरिमसगध, निपरिमसगध, मपनिरिसगध, पमनिरिसगध, मनिपरिसगध, निमपरिसगध, पनिमरिसगध, निपमरिसगध,20° सगमपनिरिध, गसमपनिरिध, समगपनिरिध, मसगपनिरिध, गमसपनिरिध, मगसपनिरिध, सगपमनिरिध, गसपमनिरिध, सपगमनिरिध, पसगमनिरिध, गपसमनिरिध, पगसमनिरिध, समपगनिरिध, मसपगनिरिध, सपमगनिरिध, पसमगनिरिध, मपसगनिरिध, पमसगनिरिध, गमपसनिरिध, मगपसनिरिध, गपमसनिरिध पगमसनिरिध, मपगसनिरिध, पमगसनिरिध, सगमनिपरिध, गसमनिपरिध, समगनिपरिध, मसगनिपरिध, गमसनिपरिध, मगसनिपरिध,३° सगनिमपरिध, गसनिमपरिध, सनिगमपरिध, निसगमपरिध, गनिसमपरिध, निगसमपरिध, समनिगपरिध, मसनिगपरिध, मनिमगपरिध, निसमगपरिध, मनिसगपरिध, निमसगपरिध, गमनिसपरिध, मगनिसपरिध, गनिमसपरिध, निगमसपरिध, मनिगसपरिध, निमगसपग्धि, सगपनिमग्धि, गसपनिमरिध, ° सपगनिमरिध, पसगनिमरिध, गपसनिमरिध, पगसनिमरिध, सगनिपमरिध, गसनिपमरिध, सनिगपमरिध, निसगपमरिध, गनिसपमरिध, निगसपमरिध, सपनिगमरिध, पसनिगमरिध, सनिपगमरिध, निसपगमरिध, पनिसगमरिध, निपसगमरिध, गपनिसमरिध, पगनिसमरिध,
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३६६
संगीतरनाकरः [सं० १२६९गनिपसमरिध, निगपसमरिध,' पनिगसमरिध, निपगसमरिध, समपनिगरिध, मसपनिगरिध, सपमनिगरिध, पसमनिगग्धि, मपसनिगरिध, पमसनिगरिध, समनिपगरिध, मसनिपगरिध, ° सनिमपगरिध, निसमपगरिध, मनिसपगरिध, निमसपगरिध, सपनिमगरिध, पसनिमगरिध, सनिपमगरिध, निसपमगरिध, पनिसमगरिध, निपसमगरिध,°° मपनिसगरिध, पमनिसगरिध, मनिपसगरिध, निमपसगरिध, पनिमसगरिध, निपमसगरिध, गमपनिसरिध, मगपनिसरिध, गपमनिसरिध, पगमनिसरिध,30° मपगनिसरिध, पमगनिसरिध, गमनिपसरिध, मगनिपसरिध, गनिमपसरिध, निगमपसरिध, मनिगपसरिध, निमगपसरिध, गपनिमसरिध, पगनिमसरिध, गनिपमसरिध, निगपमसरिध, पनिगमसरिध, निपगमसरिध, मपनिगसरिध, पमनिगसरिध, मनिपगसरिध, निमपगसरिध, पनिमगसरिध, निपमगसरिध,३° रिंगमपनिसध, गरिमपनिसध, रिमगपनिसध, मरिगपनिसध, गमरिपनिसध, मगरिपनिसध, रिगपमनिसध, गरिपमनिसध, रिपगमनिसध, परिगमनिसध, गपरिमनिसध, पगरिमनिसध, रिमपगनिसध, मरिपगनिसध, रिपमगनिसध, परिमगनिसध, मपरिगनिसध, पमरिगनिसध, गमपरिनिसध, मगपरिनिसध, गपमरिनिसध, पगमरिनिसध, मपगरिनिसध, पमगरिनिसध, रिगमनिपसध, गरिमनिपसध, रिमगनिपसध, मरिगनिपसध, गमरिनिपसध, मगरिनिपसध,° रिगनिमपसध, गरिनिमपसध, रिनिगमपसध, निरिगमपसध, गनिरिमपसध, निगरिमपसध, रिमनिगपसध, मरिनिगपसध, रिनिमगपसध, निरिमगपसध,8° मनिरिगपसध, निमरिगपसध, गमनिरिपसध, मगनिरिपसध, गनिमरिपसध, निगमरिपसध, मनिगरिपसध, निमगरिपसध, रिंगपनिमसध, गरिपनिमसध,7° रिपगनिमसध, परिगनिमसध, गपरिनिमसध, पगरिनिमसध, रिगनिपमसध, गरिनिपमसध, रिनिगपमसध, निरिगपमसध, गनिरिपमसध, निगरिपमसध, ° रिपनिगमसध, परिनिगमसध, रिनिपगमसध, निरिपगमसध, पनिरिगमसध, निपरिगमसध, गपनिरिमसध, पगनिरिमसध, गनिपरिमसध, निगपरिमसध,°° पनिगरिमसध, निपगरिमसध, रिमपनिगसध, मरिपनिगसध, रिपमनिगसध, परिमनिगसध, मपरिनिगसध, पमरिनिगसध, रिमनिपगसध, मरिनिपगसध,0° रिनिमपगसध, निरिमपगसध, मनिरिपगसध,
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३६७
१५३८]
अनुबन्धः निमरिपगसध, रिपनिमगसध, परिनिमगसध, रिनिपमगसध, निरिपमगसध, पनिरिमगसध, निपरिमगसध, मपनिरिगसध, पमनिरिगसध, मनिपरिगसध, निमपरिगसध, पनिमरिगसध, निपमरिगसध, गमपनिरिसध, मगपनिरिसध, गपमनिरिसध, पगमनिरिसध,° मपगनिरिसध, पमगनिरिसध, गमनिपरिसध, मगनिपरिसध, गनिमपरिसध, निगमपरिसध, मनिगपरिसध, निमगपरिसध, गपनिमरिसध, पगनिमरिसध, गनिपमरिसध, निगपमरिसध, पनिगमरिसध, निपगमरिसध, मपनिगरिसध, पमनिगरिसध, मनिपगरिसध, निमपगरिसध, पनिमगरिसध, निपमगरिसध, सरिंगमधनिप, रिसगमधनिप, सगरिमधनिप, गसरिमधनिप, रिगसमधनिप, गरिसमधनिप, सरिमगधनिप, रिसमगधनिप, समरिगधनिप, मसरिगधनिप,° रिमसगधनिप, मरिसगधनिप, सगमरिधनिप, गसमरिधनिप, समगरिधनिप, मसगरिधनिप, गमसरिधनिप, मगसरिधनिप, रिगमसधनिप, गरिमसधनिप, रिमगसधनिप, मरिगसधनिप, गमरिसधनिप, मगरिसधनिप, सरिंगधमनिप, रिसगधमनिप, सगरिधमनिप, गसरिधमनिप, रिगसधमनिप, गरिसधमनिप, सरिधगमनिप, रिसधगमनिप, सधरिगमनिप, धसरिगमनिप, रिधसगमनिप, धरिसगमनिप, सगधरिमनिप, गसधरिमनिप, सधगरिमनिप, धसगरिमनिप,8° गधसरिमनिप, धगसरिमनिप, रिगधसमनिप, गरिधसमनिप, रिधगसमनिप, धरिगसमनिप, गधरिसमनिप, धगरिसमनिप, सरिमधगनिप, रिसमधगनिप,° समरिधगनिप, मसरिधगनिप, रिमसधगनिप, मरिसधगनिप, सरिधमगनिप, रिसधमगनिप, सधरिमगनिप, धसरिमगनिप, रिधसमगनिप, धरिसमगनिप, 50° समधरिगनिप, मसधरिगनिप, सधमरिगनिप, धसमरिगनिप, मधसरिगनिप, धमसरिगनिप, रिमधसगनिप, मरिधसगनिप, रिधमसगनिप, धरिमसगनिप,1° मधरिसगनिप, धमरिसगनिप, सगमधरिनिप, गसमधरिनिप, समगधरिनिप, मसगधरिनिप, गमसधरिनिप, मगसधरिनिप, सगधमरिनिप, गसधमरिनिप, सधगमरिनिप, धसगमरिनिप, गधसमनिप, धगसमरिनिप, समधगरिनिप, मसधगरिनिप, सधमगरिनिप, धसमगरिनिप, मधसगरिनिप, धमसगरिनिप, गमधसरिनिप, मगधसरिनिप, गधमसरिनिप, धगमसरिनिप, मधगसरिनिप, धमगसरिनिप, रिंगमधसनिप, गरिमधसनिप,
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३६८
संगीतरत्नाकरः
[सं० १५३९
रिमगधसनिप, मरिगधसनिप, गमरिधसनिप, मगरिधसनिप, रिंगधमसनिप, गरिधमसनिप, रिधगमसनिप, धरिगमसनिप, गधरिमसनिप, धगरिमसनिप, रिमधगसनिप, मरिधगसनिप,5° रिधमगसनिप, धरिमगसनिप, मधरिंगसनिप, धमरिगसनिप, गमधरिसनिप, मगधरिसनिप, गधमरिसनिप, धगमरिसनिप, मधगरिसनिप, धमगरिसनिप, ° सरिगमनिधप, रिसगमनिधप, सगरिमनिधप, गसरिमनिधप, रिगसमनिधप, गरिसमनिधप, सरिमगनिधप, रिसमगनिधप, समरिगनिधप, मसरिगनिधप, रिमसगनिधप, मरिसगनिधप, सगमरिनिधप, गसमरिनिधप, समगरिनिधप, मसगरिनिधप, गमसरिनिधप, मगसरिनिधप, रिगमसनिधप, गरिमसनिधप, ° रिमगसनिधप, मरिगसनिधप, गमरिसनिधप, मगरिसनिधप, सरिगनिमधप, रिसगनिमधप, सगरिनिमधप, गसरिनिमधप, रिगसनिमधप, गरिसनिमधप,°° सरिनिगमधप, रिसनिगमधप, सनिरिगमधप, निसरिंगमधप, रिनिसगमधप, निरिसगमधप, सगनिरिमधप, गसनिरिमधप, सनिगरिमधप, निसगरिमधप,००° गनिसरिमधप, निगसरिमधप, रिगनिसमधप, गरिनिसमधप, रिनिगसमधप, निरिगसमधप, गनिरिसमधप, निगरिसमधप, सरिमनिगधप, रिसमनिगधप, समरिनिगधप, मसरिनिगधप, रिमसनिगधप, मरिसनिगधप, सरिनिमगधप, रिसनिमगधप, सनिरिमगधप, निसरिमगधप, रिनिसमगधप, निरिसमगधप,° समनिरिगधप, मसनिरिगधप, सनिमरिगधप, निसमरिगधप, मनिसरिगधप, निमसरिंगधप, रिमनिसगधप, मरिनिसगधप, गिनिमसगधप, निरिमसगधप,3° मनिरिसगधप, निमरिसगधप, सगमनिरिधप, गसमनिरिधप, समगनिरिधप, मसगनिरिधप, गमसनिरिधप, मगसनिरिधप, सगनिमरिधप, गसनिमरिधप,° सनिगमरिधप, निसगमरिधप, गनिसमरिधप, निगसमरिधप, समनिगरिधप, मसनिगरिधप, सनिमगरिधप, निसमगरिधप, मनिसगरिधप, निमसगरिधप,° गमनिसग्धिप, मगनिसरिधप, गनिमसरिधप, निगमसरिधप, मनिगमरिधप, निमगसरिधप, रिगमनिसधप, गरिमनिसधप, रिमगनिसधप, मरिगनिसधप,०° गमरिनिसधप, मगरिनिसधप, रिगनिमसधप, गरिनिमसधप, रिनिगमसधप, निरिगमसधप, गनिरिमसधप, निगरिमसधप, रिमनिगसधप, मरिनिगसधप,' रिनिमगसधप, निरिमगसधप, मनिरिगसधप,
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१८०८]
अनुबन्धः
३६९
निमरिगसधप, गमनिरिसधप, मगनिरिसधप, गनिमरिसधप, निगमरिसधप, मनिगरिसधप, निमगरिसधप, सरिगधनिमप, रिसगधनिमप, सगरिधनिमप, सरिधनिमप, रिगसध निमप, गरिसधनिमप, सरिधगनिमप, रिसधगनिमप, सधरिगनिमप, धसरिगनिमप, रिधसगनिमप, धरिसगनिमप, सगधरिनिमप, गधरिनिमप, सधगरिनिमप, घसगरिनिमप, गधसरिनिमप, धगसरिनिमप, रिगधसनिमप, गरिधसनिमप, १०० रिधगस निमप, धरिगसनिमप, गधरिसनिमप, धगरिसनिमप, सरिगनिधमप, रिसगनिधमप, सगरिनिधमप, गसरिनिधमप, रिगसनिधमप, गरिसनिधमप, 10 सरिनिगधमप, रिसनिगधमप, सनिरिगधमप, निसरिगधमप, रिनिसगधमप, निरिसगधमप, सगनिरिधमप, गसनिरिधमप, सनिगरिधमप, निसगरिधमप, " गनिसरिधमप, निगसरिधमप, रिगनिसधमप, गरिनिसधमप, रिनिगसधमप, निरिगसधमप, गनिरिसधमप, निगरिसधमप, सरिधनिगमप, रिसधनिगमप, सधरिनिगमप, धसरिनिगमप, रिधसनिगमप, धरिसनिगमप, सरिनिधगमप, रिसनिधगमप, सनिरिधगमप, निसरिधगमप, रिनिसधगमप, निरिसधगमप, " सधनिरिंगमप, धसनिरिगमप, सनिधरिगमप, निसधरिगमप, धनिसरिगमप, निधसरिगमप, रिधनिसगमप, धरिनिसगमप, रिनिधसगमप, निरिधसगमप," धनिरिसगमप, निधरिसगमप, सगधनिरिमप, गसधनिरिमप, सधगनिरिमप, धसगनिरिमप, गधसनिरिमप, धगसनिरिमप, सगनिधरिमप, गसनिधरिमप, " सनिगधरिमप, निसगधरिमप, गनिसधरिमप, निगसधरिमप, सधनिगरिमप, धस निगरिमप, सनिधगरिमप, निसधगरिमप, धनिसगरिमप, निधसगरिमप, " गधनिसरिमप, धगनिसरिमप, गनिधसरिमप, निगधसरिमप, धनिगस रिमप, निधगसरिमप, रिगधनिसमप, गरिधनिसमप, रिधगनिसमप, धरिगनिसमप, " गधरिनिसमप, धगरिनिसमप, रिगनिधसमप, गरिनिधसमप, रिनिगधसमप, निरिंगधसमप, गनिरिधसमप, निगरिधसमप, रिधनिगसमप, धरिनिगसमप, " रिनिधगसमप, निरिधगसमप, धनिरिगसमप, निधरिगसमप, गधनिरिसमप, धगनिरिसमप, गनिधरिसमप, निगधरिसमप, धनिगरि समप, निधगरिसमप, सरिमधनिगप, रिसमधनिगप, समरिधनिगप, मसरिधनिगप, रिमसधनिगप, मरिसधनिगप, सरिधमनिगप, रिसधमनिगप,
60
70
80
90
47
80
90
30
800
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३७०
संगीतरत्नाकर:
[सं० १८०९
10
40
50
60
70
सधरिमनिगप, धसरिमनिगप, ° रिधसमनिगप, धरिसमनिगप, समधरिनिगप, मसधरिनिगप, सधमरिनिगप, धसमरिनिगप, मधसरिनिगप, धमसरिनिगप, रिमधस निगप, मरिधस निगप, रिधमसनिगप, धरिमसनिगप, मधरिसनिगप, धमरिसनिगप, सरिमनिधगप, रिसमनिधगप, समरिनिधगप, मसरिनिधगप, रिमसनिधप, मरिसनिधगप, सरिनिमधगप, रिसनिमधगप, सनिरिमधगप, निसरिमधगप, रिनिसमधगप निरिसमधगप, समनिरिधगप, मसनिरिधगप, सनिमरिधगप, निसमरिधगप, ° मनिसरिधगप, निमसरिधगप, रिमनिसधगप, मरिनिसधगप, रिनिमसधगप, निरिमसधगप, मनिरिसधगप, निमरिसधगप, सरिधनिमगप, रिसधनिमगप, ° सधरिनिमगप, धस रिनिमगप, रिधसनिमगप, धरिसनिमगप, सरिनिधमगप, रिसनिधमगप, सनिरिधमगप, निसरिधमगप, रिनिसधमगप, निरिसधमगप, ° सधनिरिमगप, धसनिरिमगप, सनिधरिमगप, निसधरिमगप, धनिसरिमगप, निधसरिमगप, रिधनिसमगप, धरिनिसमगप, रिनिधसमगप, निरिधसमगप, " धनिरिसमगप, निधरिसमगप, समधनिरिगप, मसधनिरिगप, सधमनिरिंगप, धसमनिरिंगप, मधसनिरिंगप, धमसनिरिंगप, समनिधरिगप, मसनिधरिगप, " सनिमधरिगप, निसमधरिगप, मनिसधरिगप, निमसधरिगप, सधनिमरिंगप, धसनिमरिंगप, सनिधमरिगप, निसधमरिगप, धनिसमरिगप, निधसमग्गिप, " मधनिसरिगप, धमनिसरिगप, मनिधसरिगप, निमधसरिगप, धनिमस रिंगप, निधमसरिगप, रिमधनिसगप, मरिधनिसगप, रिधम निसगप, धरिमनिसगप, ' मधरिनिसगप, धमरिनिसगप, रिमनिधसगप, मरिनिधसगप, रिनिमधसगप, निरिमधसगप, मनिरिधसगप, निमरिधसगप, रिधनिमसाप, धरिनिमस गप, 10 रिनिधमसगप, निरिधमसगप, धनिरिमसगप, निधरिमसगप, मधनिरिसगप, धमनिरिसगप, मनिधरिसगप, निमधरिसगप, धनिमरिसगप, निधमरिसगप, 2" सगमधनिरिप, गसमधनिरिप, समगधनिरिप, मसगधनिरिप, गमसधनिरिप, मगसधनिरिप, सगधमनिरिप, गसधमनिरिप, सधगमनिरिप, धसगमनिरिप," गधसमनिरिप, धगसमनिरिप, समधगनिरिप, मसधगनिरिप, सधमगनिरिप, धसमगनिरिप, मधसगनिरिप, धमसगनिरिप, गमधसनिरिप, मगधसनिरिप," गधमस निरिप, धगमस निरिप, मधगसनिरिप,
80
90
900
20
20
80
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२०७८ ]
अनुबन्धः
60
धमगस निरिप, सगमनिधरिप, गसमनिधरिप, समगनिधरिप, मसगनिधरिप, गमसनिधरिप, मगसनिधरिप, सगनिमधरिप, गसनिमधरिप, सनिगमधरिप, निसगमधरिप, गनिसमधरिप, निगसमधरिप, समनिगधरिप, मसनिगधरिप, सनिमगधरिप, निमगधरिप, " मनिसगधरिप, निमसगधरिप, गमनिसधरिप, मगनिसधरिप, गनिमसधरिप, निगमसधरिप, मनिगसधरिप, निमगसधरिप, सगधनिमरिप, सधनिमग्पि, सधगनिमरिप, धसगनिमग्पि, गधसनिमरिप, धगस निमग्पि, सगनिधमरिप, गसनिधमरिप, सनिगधमरिप, निसगधमरिप, गनिसधमरिप, निगसधमग्पि, सधनिगमग्पि, धस निगमग्पि, सनिधगम रिप, निसधगमरिप, धनिसगमरिप, निधसगमग्पि, गधनिसमरिप, धगनिसमग्पि, गनिधसमरिप, निगधसमरिप, धनिगसमरिप, निधगसमरिप, समध निगरिप, मसधनिगरिप, सधमनिगरिप, धसमनिगरिप, मधसनिगरिप, धमसनिगरिप, समनिधगरिप, मसनिधगरिप, २००० : 'सनिमधगरिप, निसमधगरिप, मनिसधगरिप, निमसधगरिप, सधनिमगरिप, धस निमगरिप, सनिधमगरिप, निसधमगरिप, धनिसमगरिप, निधसमगरिप, 10 मधनिसगरिप, धमनिसगरिप, मनिधसगरिप, निमधसगरि, धनिमस गरिप, निधमसगरि, गमधनिसरिप, मगधनिसरिप, गधमनिसरिप, धगमनिसरिप, 20 मधगनिसरिप, धमगनिसरिप, गमनिधसरिप, मगनिधसग्पि, गनिमधसरिप, निगमधसरिप, मनिगधसरिप, निमगधसरिप, गधनिमसरप, धगनिमसरिप, " गनिधमसग्पि, निगधमसरिप, धनिगमसरिप, निधगमसरप, मधनिगसग्पि, धमनिगसरिप, मनिधगसरिप, निमधगसरिप, धनिमगसरिप, निधमगसरिप, रिगमधनिसप, गरिमधनिसप, रिमगधनिसप, मरिगधनिसप, गमरिधनिसप, मगरिधनिसप, रिगधमनिसप, गरिधमनिसप, रिधगमनिसप, धरिगमनिसप, गधरिमनिसप, धगरिमनिसप, ग्मिधगनिसप, मरिधगसिप, रिधमगनिसप, धरिमगनिसप, मधरिगनिसप, धमरिगनिसप, गमधरिनिसप, मगधरिनिसप, गधमरिनिसप, धगमरिनिसप, मधगरिनिसप, धमगरिनिसप, ग्गिमनिधसप, गरिमनिधसप, रिमगनिधसप, मरिगनिधसप, गमरिनिधसप, मगरिनिधसप, रिगनिमधसप, गरिनिमधसप, रिनिगमधसप, निरिंगमधसप, गनिरिमधसप, निगग्मिधसप, रिमनिगधसप, मरिनिगधसप,
30
60
70
80
90
40
80
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३७२
संगीतरत्नाकर:
[सं० २०७९
100
10
30
40
रिनिमगधसप, निरिमगधसप, मनिरिगधसप, निमरिगधसप, गमनिरिधसप, मग निरिधसप, गनिमरिधसप, निगमरिधसप, मनिगरिधसप, निमगरिधसप, रिगधनिमसप, गरिधनिमसप, रिधगनिमसप, धरिगनिमसप, गधरिनिमसप, धगरिनिमसप, रिगनिधमसप, गरिनिधमसप, रिनिगधमसप, निरिगधमसप, गनिरिधमसप, निगरिधमसप, ' 'रिधनिगमसप, धरिनिगमसप, रिनिधगमसप, निरिधगमसप, धनिरिगमसप, निधरिगमसप, गधनिरिमसप, धगनिरिमसप, गनिधरिमसप, निगधरिमसप, " धनिगरिमसप, निधगरिमसप, रिमधनिगसप, मरिधनिगसप, रिधमनिगसप, धरिमनिरासप, मधरिनिगसप, धमरिनिगसप, रिमनिधगसप, मरिनिधगसप, 20 रिनिमधगसप, निरिमधगसप, मनिरिधगसप, निमरिधगसप, रिधनिमगसप, धरिनिमगसप, रिनिधमगसप, निरिधमगसप, धनिरिमगसप, निधरिमगसप, " मधनिरिंगसप, धमनिरिगसप, मनिधरिगसप, निमधरिगसप, धनिमरिगसप, निधमरिगसप, गमधनिरिसप, मगधनिरिसप, गधमनिरिसप, धगमनिरिसप, ° मधगनिरिसप, धमगनिरिसप, गमनिधरिसप, मगनिधरिसप, गनिमधरिसप, निगमधरिसप, मनिगधरिसप, निमगधरिसप, गधनिमरिसप, धगनिमरिसप, " गनिधमरिसप, निगधमरिसप, धनिगमरिसप, निधगमरिसप, मधनिगरिसप, धमनिगरिसप, मनिधगरिसप, निमधगरिसप, निमगरिसप, निधमगरिसप, ° सरिगपधनिम, रिसगपधनिम, सगरिपधनिम, गसरिपधनिम, रिगसपधनिम, गरिसपधनिम, सरिपगधनिम, रिसपगधनिम, सपरिगधनिम, पसरिगधनिम, 10 रिपसगधनिम, परिसगधनिम, सगपरिधनिम, सपरिधनिम, सपगरिधनिम, पसगरिधनिम, गपसरिधनिम, पगसरिधनिम, पिसधनिम, गरिसधनिम, रिपगसधनिम, परिगसधनिम, गपरिसधनिम, पगरिसधनिम, सग्गिधपनिम, रिसगधपनिम, सगरिधपनिम, गसरिधपनिम, रिगसधपनिम, गरिसधपनिम," सरिधगपनिम, रिसधगपनिम, सधरिगपनिम, धसरिगपनिम, रिधसगपनिम, धरिसगपनिम, सगधरिपनिम, गसधरिपनिम, सधगरिपनिम, धसगरिपनिम, २०० गधसरि पनिम, धगसरिपनिम, रिगधसपनिम, गरिधसपनिम, रिधगसपनिम, धरिगसपनिम, गधरिसपनिम, धगरिसपनिम, सरपधगनिम, सिपधगनिम, " सपरिधगनिम, पसरिधगनिम, रिपसधगनिम,
60
70
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अनुबन्धः
३७३
परिसधगनिम, सरिधपगनिम, रिसधपगनिम, सधरिपगनिम, धसरिपगनिम, रिधसपगनिम, धरिसपगनिम,° सपधरिगनिम, पसधरिगनिम, सधपरिगनिम, धसपरिगनिम, पधसरिगनिम, धपसरिगनिम, रिपधसगनिम, परिधसगनिम, रिधपसगनिम, धरिपसगनिम,° पधरिसगनिम, धपरिसगनिम, सगपधरिनिम, गसपधरिनिम, सपगधरिनिम, पसगधरिनिम, गपसपरिनिम, पगसधरिनिम, सगधपरिनिम, गसधपरिनिम, सधगपरिनिम, धसगपरिनिम, गधसपरिनिम, धगसपरिनिम, सपधगरिनिम, पसधगरिनिम, सधपगरिनिम, धसपगरिनिम, पधसगरिनिम, धपसगरिनिम, ° गपधसरिनिम, पगधसरिनिम, गधपसरिनिम, धगपसरिनिम, पधगसरिनिम, धपगसरिनिम, रिगपधसनिम, गरिपधसनिम, रिपगधसनिम, परिगधसनिम, गपरिधसनिम, पगरिधसनिम, रिगधपसनिम, गरिधपसनिम, रिधगपसनिम, धरिगपसनिम, गधरिपसनिम, धगरिपसनिम, रिपधगसनिम, परिधगसनिम, रिधपगसनिम, धरिपगसनिम, पधरिगसनिम, धपरिगसनिम, गपधरिसनिम, पगधरिसनिम, गधपरिसनिम, धगपरिसनिम, पधगरिसनिम, धपगरिसनिम, ° सरिंगपनिधम, रिसगपनिधम, सगरिपनिधम, गसरिपनिधम, रिगसपनिधम, गरिसपनिधम, सरिपगनिधम, रिसपगनिधम, सपरिगनिधम, पसरिगनिधम,°° रिपसगनिधम, परिसगनिधम, सगपरिनिधम, गसपरिनिधम, सपगरिनिधम, पसगरिनिधम, गपसरिनिधम, पगसरिनिधम, रिगपसनिधम, गरिपसनिधम,30° रिपगसनिधम, परिगसनिधम, गपरिसनिधम, पगरिसनिधम, सरिगनिपधम, रिसगनिषधम, सगरिनिपधम, गसरिनिपधम, रिगसनिपधम, गरिसनिपधम,1° सरिनिगपधम, रिसनिगपधम, सनिरिगपधम, निसरिगपधम, रिनिसगपधम, निरिसगपधम, सगनिरिपधम, गसनिरिपधम, सनिगरिपधम, निसगरिपधम, गनिसरिपधम, निगसरिपधम, रिगनिसपधम, गरिनिसपधम, रिनिगसपधम, निरिगसपधम, गनिरिसपधम, निगरिसपधम, सरिपनिगधम, रिसपनिगधम, ° सपरिनिगधम, पसरिनिगधम, रिपसनिगधम, परिसनिगधम, सरिनिपगधम, रिसनिपगधम, सनिरिपगधम, निसरिपगधम, रिनिसपगधम, निरिसपगधम, ° सपनिरिगधम, पसनिरिगधम, सनिपरिगधम, निसपरिगधम, पनिसरिगधम, निपसरिंगधम, रिपनिसगधम, परिनिसगधम,
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३७४
संगीतरनाकरः [सं० २३४९रिनिपसगधम, निरिपसगधम,5° पनिरिसगधम, निपरिसगधम, सगपनिरिधम, गसपनिरिधम, सपगनिरिधम, पसगनिरिधम, गपसनिरिधम, पगसनिरिधम, सगनिपरिधम, गसनिपरिधम,8° सनिगपरिधम, निसगपरिधम, गनिसपरिधम, निगसपरिधम, सपनिगरिधम, पसनिगरिधम, सनिपगरिधम, निसपगरिधम, पनिसगरिधम, निपसगरिधम, गपनिसरिधम, पगनिसरिधम, गनिपसरिधम, निगपसरिधम, पनिगसरिधम, निपगसरिधम, रिंगपनिसधम, गरिपनिसधम, रिपगनिसधम, परिगनिसधम, गपरिनिसधम, पगरिनिसधम, रिगनिपसधम, गरिनिपसधम, रिनिगपसधम, निरिगपसधम, गनिरिपसधम, निगरिपसधम, रिपनिगसधम, परिनिगसधम, रिनिपगसधम, निरिपगसधम, पनिरिगसधम, निपरिगसधम, गपनिरिसधम, पगनिरिसधस, गनिपरिसधम, निगपरिसधम, पनिगरिसधम, निपगरिसधम,°° सरिगधनिपम, रिसगधनिपम, सगरिधनिपम, गसरिधनिपम, रिगसधनिपम, गरिसधनिपम, सरिधगनिपम, रिसधगनिपम, सधरिगनिपम, धसरिगनिपम,1° रिधसगनिपम, धरिसगनिपम, सगधरिनिपम, गसधरिनिपम, सधगरिनिपम, धसगरिनिपम, गधसरिनिपम, धगसरिनिपम, रिगधसनिपम, गरिधसनिपम, रिधगसनिपम, धरिंगसनिपम, गधरिसनिपम, धगरिसनिपम, सरिगनिधपम, रिसगनिधपम, सगरिनिधपम, गसरिनिधपम, रिगसनिधपम, गरिसनिधपम, ° सरिनिगधपम, रिसनिगधपम, सनिरिगधपम, निसग्गिधपम, रिनिसगधपम, निग्सिगधपम, सगनिरिधपम, गसनिरिधपम, सनिगरिधपम, निसगग्धिपम,° गनिसरिधपम, निगसरिधपम, रिगनिसधपम, गरिनिसधपम, रिनिगसधपम, निरिगसधपम, गनिरिसधपम, निगरिसधपम, सरिधनिगपम, रिसधनिगपम,6° सधरिनिगपम, धसरिनिगपम, रिधसनिगपम, धरिसनिगपम, सरिनिधगपम, रिसनिधगपम, सनिरिधगपम, निसरिधगपम, रिनिसधगपम, निरिसधगपम, ° सधनिरिगपम, धसनिरिगपम, सनिधरिंगपम, निसधरिगपम, धनिसरिगपम, निधसरिंगपम, रिधनिसगपम, धरिनिसगपम, रिनिधसगपम, निरिधसगपम, धनिरिसगपम, निधरिसगपम, सगधनिरिपम, गसधनिरिपम, सधगनिरिपम, धसगनिरिपम, गधसनिरिपम, धगसनिरिपम, सगनिधरिपम, गसनिधरिपम, ° सनिगधरिपम, निसगधरिपम, गनिसधरिपम,
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२६१८]
अनुबन्धः निगसधरिपम, सधनिगरिपम, धसनिगरिपम, सनिधगरिपम, निसधगरिपम, धनिसगरिपम, निधसगरिपम, गधनिसरिपम, धगनिसरिपम, गनिधसरिपम, निगधसरिपम, धनिगसरिपम, निधगसरिपम, रिंगधनिसपम, गरिधनिसपम, रिधगनिसपम, धरिगनिसपम,60 ° गधरिनिसपम, धगरिनिसपम, रिगनिधसपम, गरिनिधसपम, रिनिगधसपम, निरिंगधसपम, गनिरिधसपम, निगरिधसपम, रिधनिगसपम, धरिनिगसपम,1" रिनिधगसपम, निरिधगसपम, धनिरिगसपम, निधरिगसपम, गधनिरिसपम, धगनिरिसपम, गनिधरिसपम, निगधरिसपम, धनिगरिसपम, निधगरिसपम,2° सरिपधनिगम, रिसपधनिगम, सपरिधनिगम, पसरिधनिगम, रिपसधनिगम, परिसधनिगम, सरिधपनिगम, रिसधपनिगम, सधरिपनिगम, धसरिपनिगम, रिधसपनिगम, धरिसपनिगम, सपरिनिगम, पसधरिनिगम, सधपरिनिगम, धसपरिनिगम, पधसरिनिगम, धपसरिनिगम, रिपधसनिगम, परिधसनिगम, रिधपसनिगम, धरिपसनिगम, पधरिसनिगम, धपरिसनिगम, सरिपनिधगम, रिसपनिधगम, सपरिनिधगम, पसरिनिधगम, रिपसनिधगम, परिसनिधगम, सरिनिपधगम, रिसनिपधगम, सनिरिपधगम, निसरिपधगम, रिनिसपधगम, निरिसपधगम, सपनिरिधगम, पसनिरिधगम, सनिपरिधगम, निसपरिधगम,° पनिसरिधगम, निपसरिधगम, रिपनिसधगम, परिनिसधगम, रिनिपसधगम, निरिपसधगम, पनिरिसधगम, निपरिसधगम, सरिधनिपगम, रिसधनिपगम, सधरिनिपगम, धसरिनिपगम, रिधसनिपगम, धरिसनिपगम, सरिनिधपगम, रिसनिधपगम, सनिरिधपगम, निसरिधपगम, रिनिसधपगम, निरिसधपगम, ° सधनिरिपगम, धसनिरिपगम, सनिधरिपगम, निसधरिपगम, धनिसरिपगम, निधसरिपगम, रिधनिसपगम, धरिनिसपगम, रिनिधसपगम, निरिधसपगम, धनिरिसपगम, निधरिसपगम, सपधनिरिगम, पसधनिरिगम, सधपनिरिगम, धसपनिरिगम, पधसनिरिगम, धपसनिरिगम, सपनिधरिगम, पसनिधरिगम,80° सनिपधरिगम, निसपधरिगम, पनिसधरिगम, निपसधरिगम, सधनिपरिगम, धसनिपरिगम, सनिधपरिगम, निसधपरिगम, धनिसपरिगम, निधसपरिगम,1° पधनिसरिगम, धपनिसरिगम, पनिधसरिगम, निपधसरिंगम, धनिपसरिगम, निधपसरिगम, रिपधनिसगम, परिधनिसगम,
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३७६
संगीतरत्नाकरः [सं० २६१९रिधपनिसगम, धरिपनिसगम,° परिनिसगम, धपरिनिसगम, रिपनिधसगम, परिनिधसगम, रिनिपधसगम, निरिपधसगम, पनिरिधसगम, निपरिधसगम, रिधनिपसगम, धरिनिपसगम, रिनिधपसगम, निरिधपसगम, धनिरिपसगम, निधरिपसगम, पधनिरिसगम, धपनिरिसगम, पनिधरिसगम, निपधरिसगम, धनिपरिसगम, निधपरिसगम, सगपधनिरिम, गसपधनिरिम, सपगधनिरिम, पसगधनिरिम, गपसधनिरिम, पगसधनिरिम, सगधपनिरिम, गसधपनिरिम, सधगपनिरिम, धसगपनिरिम, गधसपनिरिम, धगसपनिरिम, सपधगनिरिम, पसधगनिरिम, सधपगनिरिम, धसपगनिरिम, पधसगनिरिम, धपसगनिरिम, गपधसनिरिम, पगधसनिरिम,°° गधपसनिरिम, धगपसनिरिम, पधगसनिरिम, धपगसनिरिम, सगपनिधरिम, गसपनिधरिम, सपगनिधरिम, पसगनिधरिम, गपसनिधरिम, पगसनिधरिम, सगनिपधरिम, गसनिपधरिम, सनिगपधरिम, निसगपधरिम, गनिसपधरिम, निगसपधरिम, सपनिगधरिम, पसनिगधरिम, सनिपगधरिम, निसपगधरिम,° पनिसगधरिम, निपसगधरिम, गपनिसधरिम, पगनिसधरिम, गनिपसधरिम, निगपसधरिम, पनिगसधरिम, निपगसधरिम, सगधनिपरिम, गसधनिपरिम, सधगनिपरिम, धसगनिपरिम, गधसनिपरिम, धगसनिपरिम, सगनिधपरिम, गसनिधपरिम, सनिगधपरिम, निसगधपरिम, गनिसधपरिम, निगसधपरिम,10° सधनिगपरिम, धसनिगपरिम, सनिधगपरिम, निसधगपरिम, धनिसगपरिम, निधसगपरिम, गधनिसपरिम, धगनिसपरिम, गनिधसपरिम, निगधसपरिम, धनिगसपरिम, निधगसपरिम, सपधनिगरिम, पसधनिगरिम, सधपनिगरिम, धसपनिगरिम, पधसनिगरिम, धपसनिगरिम, सपनिधगरिम, पसनिधगरिम, सनिपधगरिम, निसपधगरिम, पनिसधगरिम, निपसधगरिम, सधनिपगरिम, धसनिपगरिम, सनिधपगरिम, निसधपगरिम, धनिसपगरिम, निधसपगरिम,३° पधनिसगरिम, धपनिसगरिम, पनिधसगरिम, निपधसगरिम, धनिपसगरिम, निधपसगरिम, गपधनिसरिम, पगधनिसरिम, गधपनिसरिम, धगपनिसरिम,° पधगनिसरिम, धपगनिसरिम, गपनिधसरिम, पगनिधसरिम, गनिपधसरिम, निगपधसरिम, पनिगधसरिम, निपगधसरिम, गधनिपसरिम, धगनिपसरिम, गनिधपसरिम, निगधपसरिम, धनिगपसरिम,
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२८८८] अनुबन्धः
३७७ निधगपसरिम, पधनिगसरिम, धपनिगसरिम, पनिधगसरिम, निपधगसरिम, धनिपगसरिम, निधपगसरिम,8° रिगपधनिसम, गरिपधनिसम, रिपगधनिसम, परिगधनिसम, गपरिधनिसम, पगरिधनिसम, रिंगधपनिसम, गरिधपनिसम, रिधगपनिसम, धरिगपनिसम, गधरिपनिसम, धगरिपनिसम, रिपधगनिसम, परिधगनिसम, रिधपगनिसम, धरिपगनिसम, परिगनिसम, धपग्गिनिसम, गपधगिनिसम, पगधगिनिसम, गधपरिनिसम, धगपरिनिसम, पधगरिनिसम, धपगरिनिसम, रिगपनिधसम, गरिनिधमम, रिपगनिधसम, परिगनिधसम, गपरिनिधसम, पगरिनिधसम,°° रिगनिपधसम, गरिनिपधसम, रिनिगपधसम, निरिगपधसम, गनिरिपधसम, निगरिपधसम, रिपनिगधसम, परिनिगधसम, रिनिपगधसम, निरिपगधसम,80° पनिग्गिधसम, निपरिगधसम, गपनिरिधसम, पगनिरिधसम, गनिपरिधसम, निगपरिधसम, पनिगरिधसम, निपगरिधसम, रिगधनिपसम, गरिधनिपसम, रिधगनिपसम, धग्गिनिपसम, गधरिनिपसम, धगरिनिपसम, रिगनिधपसम, गरिनिधपसम, रिनिगधपसम, निरिगधपसम, गनिग्धिपसम, निगरिधपसम, रिधनिगपसम, धरिनिगपसम, रिनिधगपसम, निरिधगपसम, धनिरिगपसम, निधग्गिपसम, गधनिरिपसम, धगनिरिपसम, गनिधरिपसम, निगधरिपसम, धनिगरिपसम, निधगरिपसम, रिपधनिगसम, परिधनिगसम, रिधपनिगसम, धरिपनिगसम, पधरिनिगसम, धपरिनिगसम, रिपनिधगसम, परिनिधगसम, रिनिपधगसम, निरिषधगसम, पनिरिधगसम, निपरिधगसम, रिधनिपगसम, धरिनिपगसम, रिनिधपगसम, निरिधपगसम, धनिरिपगसम, निधरिपगसम,° पधनिरिगसम, धपनिरिंगसम, पनिधरिगसम, निपधरिगसम, धनिपरिगसम, निधपरिगसम, गपधनिरिसम, पगधनिरिसम, गधपनिरिसम, धगपनिरिसम,७° पधगनिरिसम, धपगनिरिसम, गपनिधरिसम, पगनिधरिसम, गनिपधरिसम, निगपधरिसम, पनिगधरिसम, निपगधरिसम, गधनिपरिसम, धगनिपग्सिम, गनिधपरिसम, निगधपरिसम, धनिगपरिसम, निधगपरिसम, पधनिगरिसम, धपनिगरिसम, पनिधगरिसम, निपधगरिसम, धनिपगरिसम,निधपगरिसम. (५)सरिमपधनिग,रिसमपधनिग,समरिपधनिग, मसरिपधनिग, ग्मिसपधनिग, मरिसपधनिग, सरिपमधनिग, रिसपमधनिग,
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३७८
संगीतरत्नाकरः [सं० २८८९सपरिमधनिग, पसरिमधनिग,°° रिपसमधनिग, परिसमधनिग, समपरिधनिग, मसपरिधनिग, सपमरिधनिग, पसमरिधनिग, मपसरिधनिग, पमसरिधनिंग, रिमपसधनिग, मरिपसधनिग,°°° रिपमसधनिग, परिमसधनिग, मपरिसधनिग, पमरिसधनिग, सरिमधपनिग, रिसमधपनिग, समरिधपनिग, मसरिधपनिग, रिमसधपनिग, मरिसधपनिग, सरिधमपनिग, रिसधमपनिग, सधरिमपनिग, धसरिमपनिग, रिधसमपनिग, धरिसमपनिग, समधरिपनिग, मसधरिपनिग, सधमरिपनिग, धसमरिपनिग,° मधसरिपनिग, धमसरिपनिग, रिमधसपनिग, मरिधसपनिग, रिधमसपनिग, धरिमसपनिग, मधरिसपनिग, धमरिसपनिग, सरिपधमनिग, रिसपधमनिग,° सपरिधमनिग, पसरिधमनिग, रिपसधमनिग, परिसधमनिग, सग्धिपमनिग, रिसधपमनिग, सधरिपमनिग, धसरिपमनिग, ग्धिसपमनिग, धरिसपमनिग, सपधरिमनिग, पसधरिमनिग, सधपरिमनिग, धसपरिमनिग, पधसरिमनिग, धपसरिमनिग, रिपधसमनिग, परिधसमनिग, रिधपसमनिग, धरिपसमनिग,° पधरिसमनिग, धपरिसमनिग, समपरिनिग, मसपधरिनिग, सपमधरिनिग, पसमधरिनिग, मपसधरिनिग, पमसधरिनिग, समधपरिनिग, मसधपरिनिग, ° सधमपरिनिग, धसमपरिनिग, मधसपरिनिग, धमसपरिनिग, सपधमगिनिग, पसधमरिनिग, सधपमरिनिग, धसपमरिनिग, पधसमरिनिध, धपममरिनिग,° मपधसरिनिग, पमधसरिनिग, मधपसरिनिग, धमपसरिनिग, पधमसरिनिग, धपमसरिनिग, रिमपधसनिग, मरिपधसनिग, रिपमधसनिग, परिमधसनिग, ° मपरिधसनिग, पमरिधसनिग, रिमधपसनिग, मग्धिपसनिग, रिधमपसनिग, धरिमपसनिग, मधरिपसनिग, धमरिपसनिग, रिपधमसनिग, परिधमसनिग, रिधपमसनिग, धरिपमसनिग, पधरिमसनिग, धपरिमसनिग, मपधरिसनिग, पमधरिसनिग, मधपरिसनिग, श्रमपरिसनिग, पधमरिसनिग, धपमरिसनिग, ३००° सरिमपनिधग, रिसमपनिधग, समरिपनिधग, मसरिपनिधग, रिमसपनिधग, मरिसपनिधग, सरिपमनिधग, रिसपमनिधग, सपरिमनिधग, पसरिमनिधग, रिपसमनिधग, परिसमनिधग, समपरिनिधग, मसपरिनिधग, सपमरिनिधग, पसमरिनिधग, मपसरिनिधग, पमसरिनिधग, रिमपसनिधग, मरिपसनिधग,2° रिपमसनिधग, परिमसनिधग, मपरिसनिधग,
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३१५८]
अनुबन्धः
३७९
50
पमरिसनिधग, सरिमनिपधग, रिसमनिपधग, समरिनिपधग, मसरिनिपधग, रिमसनिपधग, मरिसनिपधग, सरिनिमपधग, रिसनिमपधग, सनिरिमपधग, निसरिमपधग, रिनिसमपधग, निरिसमपधग, समनिरिपधग, मसनिरिपधग, सनिमरिपधग, निसमरिपधग, मनिसरिपधग, निमसरिपधग, रिमनिसपधग, मरिनिसपधग, रिनिमसपधग, निग्मिसपधग, मनिरिसपधग, निमरिसपधग, सरिपनिमधग, रिसपनिमधग, " सपरिनिमधग, पसरिनिमधग, रिपसनिमधग, परिसनिमधग, सरिनिपमधग, रिसनिपमधग, सनिरिपमधग, निसरिपमधग, रिनिसपमधग, निरिसपमधग, सपनिरिमधग, पसनिरिमधग, सनिपरिमधग, निसपरिमधग, पनिसरिमधग, निपसरिमधग, रिपनिसमधग, परिनिसमधग, रिनिपसमधग, निरिपसमधग, पनिरिसमधग, निपरिसमधग, समपनिरिधग, मसप निग्धिग, सपमनिरिधग, पसमनिरिधग, मपस निरिधग, पमस निग्धिग, समनिपरिधग, मसनिपरिधग, सनिमपरिधग, निसमपरिधग, मनिसपरिधग, निमसपरिधग, सपनिमरिधग, पसनिमरिधग, सनिपमरिधग, निसपमरिधग, पनिस मरिधग, निपसमरिधग," मपनिसरिधग, पमनिसरिधग, मनिपसरिधग, निमपसरिधग, पनिमसरिधग, निपमसरिधग, रिमपनिसधग, मरिपनिसधग, रिपमनिसधग, परिमनिसधग, 100 मपरिनिसधग, पमरिनिसधग, ग्मिनिपसधग, मरिनिपसधग, रिनिमपसधग, निरिमपसधग, मनिग्पिसधग, निमरिपसधग, रिपनिमसधग, परिनिमसधग, 10 रिनियमसधग, निरिपमसग, पनिरिमसधग, निपरिमसधग, मपनिरिसधग, पमनिरिसधग, मनिपरिसधग, निमपरिसधग, पनिमरिसधग, निपमरिसधग, 30 सरिमधनिपग, रिसमधनिपग, समरिधनिपग, मसरिधनिपग, रिमसधनिपग, मरिसधनिपग, सरिधमनिपग, रिसधम निपग, सधरिमनिपग, धसरिम निपग, " रिधसमनिपग, धरिसमनिपग, समधरिनिपग, मधरिनिपग, सधमरिनिपग, धसमरिनिपग, मधसरिनिपग, धमसरिनिपग, रिमधसनिपग, मरिधसनिपग, रिधमसनिपग, धरिमसनिपग, मधरिसनिपग, धमरिसनिपग, सरिमनिधपग, रिसमनिधपग, समरिनिधपग, मसरिनिधपग, रिमसनिधपग, मरिसनिधपग, सरिनिमधपग, रिस निमधपग, सनिरिमधपग, निसरिमधपग, रिनिसमधपग, निरिसमधपग, समनिरिधपग, मसनिरिधपग,
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सनिमरिधपग, निमरिधपग, " मनिसरिधपग, निमसरिधपग, रिमनिसधपग, मरिनिधपग, रिनिमसधपग, निरिमसधपग, मनिरिसधपग, निमरिसधपग, सरिधनिमपग, रिसधनिमपग, 10 सधरिनिमपग, धसरिनिमपग, रिधसनिमपग, धरिसनिमपग, सरिनिधमपग, रिसनिधमपग, सनिरिधमपग, निसरिधमपग, रिनिसधमपग, निरिसधमपग, " सधनिरिमपग, धसनिरिमपग, सनिधरिमपग, निसरिमपग, धनिसरिमपग, निधसरिमपग, रिधनिसमपग, धरिनिसमपग, रिनिधसमपग, निरिधसमपग, " धनिरिसमपग, निधरिसमपग, समधनिरिपग, मसधनिरिपग, सधमनिरिपग, धसमनिरिपग, मधसनिरिपग, धमसनिरिपग, समनिधरिपग, मसनिधरिपग, 200 सनिमधरिपग, निसमधरिपग, मनिसधरिपग, निमसधरिपग, सधनिमरिपग, वसनिमरिपग, सनिधमरिपग, निसधमरिपग, धनिसमरिपग, निधसमरिपग, 10 मधनिसरिपग, धमनिसरिपग, मनिधसरिपग, निमधसरिपग, धनिमसरिपग, निधमसरिपग, रिमधनिसपग, मरिधनिलपग, रिधमनिसपग, धरिमनिसपग, " मधरिनिसपग, धमरिनिसपग, रिमनिधसपग, मरिनिधसपग, रिनिमधसपग, निरिमधसपग, मनिग्धिसपग, निमरिधसपग, रिधनिमपग, धरिनिमसपग, " रिनिधमसपग, निरिधमसपग, धनिरिमसपग, निधरिमसपग, मधनिरिसपग, धमनिरिसपग, मनिधरिसपग, निमधरिसपग, धनिमरिसपग, निधमरिसपग, " सरिपधनिमग, रिसपधनिमग, सपरिधनिमग, पसरिधनिमग, रिपसधनिमग, परिसधनिमग, सग्धिपनिमग, रिसधपनिमग, सधरिपनिमग, धस रिपनिमग, रिधसपनिमग, धरिसपनिमग, सपधरिनिमग, पधरिनिमग, सधपरिनिमग, धसपरिनिमग, पथसरिनिमग, धपसरिनिमग, रिपधसनिमग, परिघस निमग, रिधपसनिमग, धरिपस निमग, पधरिसनिमग, धपरिसनिमग, सरिपनिधमग, रिसपनिधमग, सपरिनिधमग, पसरिनिधमग, रिपसनिधमग, परिसनिधमग, " सरिनिपधमग, रिसनिपधमग, सनिरिपधमग, निसरिपधमग, रिनिसपथमग, निरिसपधमग, सपनिरिधमग, पसनिरिधमग, सनिपरिधमग, निसपरिधमग, " पनिसरिधमग, निपसरिधमग, रिपनिसधमग, परिनिसधमग, रिनिपसधमग, निरिपसधमग, पनिरिसधमग, निपरिसधमग, सरिधनिपमग, रिसधनिपमग, " सधरिनिपमग, धसरिनिपमग, रिधसनिपमग,
30
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३८०
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३४२८] अनुबन्धः
३८१ धरिसनिपमग, सरिनिधपमग, रिसनिधपमग, सनिरिधपमग, निसरिधपमग, रिनिसधपमग, निरिसधपमग,३०° सधनिरिपमग, धसनिरिपमग, सनिधरिपमग, निसधरिपमग, धनिसरिपमग, निधसरिपमग, रिधनिसपमग, धरिनिसपमग, रिनिधसपमग, निरिधसपमग, धनिरिसपमग, निधरिसपमग, सपधनिरिमग, पसधनिरिमग, सधपनिरिमग, धसपनिरिमग, पधसनिरिमग, धपसनिरिमग, सपनिधरिमग, पसनिधरिमग, सनिपधरिमग, निसपरिमग, पनिसधरिमग, निपसधरिमग, सधनिपरिमग, धसनिपरिमग, सनिधपरिमग, निसधपरिमग, धनिसपरिमग, निधसपरिमग,° पधनिसरिमग, धपनिसरिमग, पनिधसरिमग, निपधसरिमग, धनिपसरिमग, निधपसरिमग, रिपधनिसमग, परिधनिसमग, ग्धिपनिसमग, धग्पिनिसमग,° पधरिनिसमग, धपरिनिसमग, रिपनिधसमग, परिनिधसमग, रिनिपधसमग, निरिपधसमग, पनिरिधसमग, निपरिधसमग, रिधनिपसमग, धरिनिपसमग,° रिनिधपसमग, निरिधपसमग, धनिरिपसमग, निधरिपसमग, पधनिरिसमग, धपनिरिसमग, पनिधरिसमग, निपधरिसमग, धनिपरिसमग, निधपरिसमग, समपधनिरिंग, मसपधनिरिंग, सपमधनिरिंग, पसमधनिरिग, मपसधनिरिंग, पमसधनिरिंग, समधपनिरिंग, मसधपनिरिंग, सधमपनिरिंग, धसमपनिग्गि,7° मधसपनिरिंग, धमसपनिरिग, सपधमनिरिप, पसधमनिरिग, सधपमनिरिग, धसपमनिरिंग, पधसमनिरिग, धपसमनिरिंग, मपधमनिरिंग, पमधसनिरिग, मधपसनिरिंग, धमपसनिरिंग, पधमसनिरिंग, धपमसनिरिग, समपनिधरिंग, मसपनिधरिंग, सपमनिधरिग, पसमनिधरिंग, मपसनिधरिंग, पमसनिधरिग, ° समनिपधरिंग, मसनिपधरिग, सनिमपधरिंग, निसमपधरिंग, मनिसपधग्गि, निमसपधग्गि, सपनिमधरिंग, पसनिमधग्गि, सनिपमधरिंग, निसपमधरिंग, ०° पनिसमधरिंग, निपसमधरिंग, मपनिसधरिंग, पमनिसधरिग, मनिपसधरिग, निमपसधरिंग, पनिमसधरिग, निपमसधरिंग, समधनिपरिग, मसधनिपरिग, सधमनिपरिग, धसमनिपरिंग, मधसनिपरिंग, धमसनिपरिग, समनिधपरिग, मसनिधपरिग, सनिमधपरिग, निसमधपरिंग, मनिसधपरिग, निमसधपरिग, सधनिमपरिग, धसनिमपरिग, सनिधमपरिग, निसधमपरिग, धनिसमपरिग, निधसमपरिग, मधनिसपरिग, धमनिसपरिंग,
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३८२
संगीतरत्नाकरः [सं० ३४२९मनिधसपरिंग, निमधसपरिंग, धनिमसपरिग, निधमसपरिग, सपधनिमरिंग, पसधनिमरिंग, सधपनिमरिंग, धसपनिमरिंग, पधसनिमरिंग, धपसनिमरिंग, सपनिधमरिग, पसनिधमरिंग,° सनिपधमरिग, निसपधमरिग, पनिसधमरिंग, निपसधमरिंग, सधनिपमरिंग, धसनिपमरिंग, सनिधपमरिंग, निसधपमरिंग, धनिसपमरिंग, निधसपमरिंग, ° पधनिसमरिंग, धपनिसमरिग, पनिधसमरिंग, निपधसमरिग, धनिपसमरिग, निधपसमरिग, मपधनिसरिंग, पमधनिसरिंग, मधपनिसरिंग, धमपनिसरिंग,° पधमनिसरिंग, धपमनिसरिंग, मपनिधसरिंग, पमनिधसरिंग, मनिपधसरिंग, निमपधसरिंग, पनिमधसरिंग, निपमधसरिंग, मधनिपसरिंग, धमनिपसरिंग, मनिधपसरिग, निमधपसरिंग, धनिमपसरिंग, निधमपसरिंग, पधनिमसरिंग, धपनिमसरिंग, पनिधमसरिंग, निपधमसरिंग, धनिपमसरिंग, निधपमसरिंग,80 रिमपधनिसग, मरिपधनिसग, रिपमधनिसग, परिमधनिसग, मपरिधनिसग, पमरिधनिसग, रिमधपनिसग, मरिधपनिसम, रिधमपनिसग, धरिमपनिसग,°° मधरिपनिसग, धमरिपनिसग, रिपधमनिसग, परिधमनिसग, रिधपमनिसग, धरिपमनिसग, पधरिमनिसग, धपरिमनिसग, मपधरिनिसग, पमधरिनिसग,०° मधपरिनिसग, धमपरिनिसग, पधमरिनिसग, धपमरिनिसग, रिमपनिधसग, मरिपनिधसग, रिपमनिधसग, परिमनिधसग, मपरिनिधसग, पमरिनिधसग, रिमनिपधसग, मरिनिपधसग, रिनिमपधसग, निरिमपधसग, मनिरिपधसग, निमरिपधसग, रिपनिमधसग, परिनिमधसग, रिनिपमधसग, निरिपमधसग,२° पनिरिमधसग, निपरिमधसग, मपनिरिधसग, पमनिरिधसग, मनिपरिधसग, निमपरिधसग, पनिपरिधसग, निपमग्धिसग, ग्मिधनिपसग, मरिधनिपसग, रिधमनिपसग, धरिमनिपसग, मधरिनिपसग, धपरिनिपसग, रिमनिधपसग, मरिनिधपसग, रिनिमधपसग, निरिमधपसग, मनिरिधपसग, निमरिधपसग, रिधनिमपसग, धरिनिमपसग, रिनिधमपसग, निरिधमपसग, धनिरिमपसग, निधरिमपसग, मधनिरिपसग, धमनिरिपसग, मनिधरिपसग, निमधरिपसग, धनिमरिपसग, निधमरिपसग, रिपधनिमसग, परिधनिमसग, रिधपनिमसग, धरिपनिमसग, पधरिनिमसग, धपरिनिमसग, रिपनिधमसग, परिनिधमसग,७° रिनिपधमसग, निरिपधमसग, पनिरिधमसग,
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३६९८] अनुबन्धः
३८३ निपरिधमसग, रिधनिपमसग, धरिनिपमसग, रिनिधपमसग, निरिधपमसग, धनिम्पिमसग, निधरिपमसग,'° पधनिरिमसग, धपनिरिमसग, पनिधरिमसग, निपधरिमसग, धनिपरिमसग, निधपरिमसग, मपधनिरिसग, पमधनिरिसग, मधपनिरिसग, धमपनिरिसग,8° पधमनिरिसग, धपमनिरिसग, मपनिधरिसग, पमनिधरिसग, मनिपधग्सिग, निमपरिसग, पनिमधरिसग, निपमधरिसग, मधनिपरिसग, धमनिपरिसग,°° मनिधपरिसग, निमधपरिसग, धनिमपरिसग, निधमपग्सिग, पधनिमरिसग, धपनिमरिसग, पनिधमरिसग, निपधमग्सिग, धनिपमग्सिग, निधपमरिसग,००° सगमपधनिरि, गसमपधनिरि, समगपधनिरि, मसगपधनिरि, गमसपधनिरि, मगसपधनिरि, सगपमधनिरि, गसपमधनिरि, सपगमधनिरि, पसगमधनिरि,1° गपसमधनिरि, पगसमधनिरि, समपगधनिरि, मसपगधनिरि, सपमगधनिरि, पसमगधनिरि, मपमगधनिरि, पमसगधनिरि, गमपसधनिरि, मगपसधनिरि, गपमसधनिरि, पगमसधनिरि, मपगसधनिरि, पमगसधनिरि, सगमधपनिरि, गसमधपनिरि, समगधपनिरि, मसगधपनिरि, गमसधपनिरि, मगसधपनिरि,° सगधमपनिरि, गसधमपनिरि, सधगमपनिरि, धसगमपनिरि, गधसमपनिरि, धगसमपनिरि, समधगपनिरि, मसधगपनिरि, सधमगपनिरि, धसमगपनिरि,° मधसगपनिरि, धमसगपनिरि, गमधसपनिरि, मगधसपनिरि, गधमसपनिरि, धगमसपनिरि, मधगसपनिरि, धमगसपनिरि, सगपधमनिरि, गसपधमनिरि, ° सपगधमनिरि, पसगधमनिरि, गपसधमनिरि, पगसधमनिरि, सगधपमनिरि, गसधपमनिरि, सधगपमनिरि, धसगपमनिरि, गधसपमनिरि, धगसपमनिरि, सपधगमनिरि, पसधगमनिरि, सधपगमनिरि, धसपगमनिरि, पधसगमनिरि, धपसगमनिरि, गपधसमनिरि, पगधसमनिरि, गधपसमनिरि, धगपसमनिरि, पधगसमनिरि, धपगसमनिरि, समपधगनिरि, मसपधगनिरि, सपमधगनिरि, पसमधगनिरि, मपसधगनिरि, पमसधगनिरि, समधपगनिरि, मसधपगनिरि, ° सधमपगनिरि, धसमपगनिरि, मधसपगनिरि, धमसपगनिरि, सपधमगनिरि, पसधमगनिरि, सधपमगनिरि, धसपमगनिरि, पधसमगनिरि, धपसमगनिरि,°° मपधसगनिरि, पमधसगनिरि, मधपसगनिरि, धमपसगनिरि, पधमसगनिरि, धपमसगनिरि, गमपधस निरि, मगपधसनिरि,
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३८४
संगीतरत्नाकर; [सं० ३६९९गपमधसनिरि, पगमधसनिरि,०° मपगधसनिरि, पमगधसनिरि, गमधपसनिरि, मगधपसनिरि, गधमपसनिरि, धगमपसनिरि, मधगपसनिरि, धमगपसनिरि, गपधमसनिरि, पगधमसनिरि, गधपमसनिरि, धगपमसनिरि, पधगमसनिरि, धपगमसनिरि, मपधगसनिरि, पमधगसनिरि, मधपगसनिरि, धमपगसनिरि, पधमगसनिरि, धपमगसनिरि, सगमपनिधरि, गसमपनिधरि, समगपनिधरि, मसगपनिधरि, गमसपनिधरि, मगसपनिधरि, सगपमनिधरि, गसपमनिधरि, सपगमनिधरि, पसगमनिधरि, गपसमनिधरि, पगसमनिधरि, समपगनिधरि, मसपगनिधरि, सपमगनिधरि, पसमगनिधरि, मपसगनिधरि, पमसगनिधरि, गमपसनिधरि, मगपसनिधरि, गपमसनिधरि, पगमसनिधरि, मपगसनिधरि, पमगसनिधरि, सगमनिपधरि, गसमनिपधरि, समगनिपधरि, मसगनिपधरि, गमसनिपधरि, मगसनिपधरि,° सगनिमपधरि, गसनिमपधरि, सनिगमपधरि, निसगमपधरि, गनिसमपधरि, निगसमपधरि, समनिगपधरि, मसनिगपधरि, मनिमगपधरि, निसमगपधरि,°° मनिसगपधरि, निमसगपधरि, गमनिसपधरि, मगनिसपधरि, गनिमसपधरि, निगमसपधरि, मनिगसपधरि, निमगसपधरि, सगपनिमधरि, गसपनिमधरि, सपगनिमधरि, पसगनिमधरि, गपसनिमधरि, पगसनिमधरि, सगनिपमधरि, गसनिपमधरि, सनिगपमधरि, निसगपमधरि, गनिसपमधरि, निगसपमधरि, ° सपनिगमधरि, पसनिगमधरि, सनिपगमधरि, निसपगमधरि, पनिसगमधरि, निपमगमधरि, गपनिसमधरि, पगनिसमधरि, गनिपसमधरि, निगपसमधरि,° पनिगसमधरि, निपगसमधरि, समपनिगधरि, मसपनिगधरि, सपमनिगधरि, पसमनिगधरि, मपसनिगधरि, पमसनिगधरि, समनिपगधरि, मसनिपगधरि, ०° सनिमपगधरि, निसमपगधरि, मनिसपगधरि, निमसपगधरि, सपनिमगधरि, पसनिमगधरि, सनिपमगधरि, निसपमगधरि, पनिसमगधरि, निपसमगधरि, मपनिसगधरि, पमनिसगधरि, मनिपसगधरि, निमपसगधरि, पनिमसगरि, निपमसगरि, गमपनिसधरि, मगपनिसधरि, गपमनिसधरि, पगमनिसधरि,२° मपगनिसरि, पमगनिसधरि, गमनिपसधरि, मगनिपसधरि, गनिमपसधरि, निगमपसधरि, मनिगपसधरि, निमगपसधरि, गपनिमसधरि, पगनिमसधरि,° गनिपमसधरि, निगपमसधरि, पनिगमसधरि,
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३९६८] अनुबन्धः
३८५ निपगमसधरि, मपनिगसधरि, पमनिगसधरि, मनिपगमधरि, निमपगसधरि, पनिमगसधरि, निपमगसधरि, सगमधनिपरि, गसमधनिपरि, समगधनिपरि, मसगधनिपरि, गमसधनिपरि, मगसधनिपरि, सगधमनिपरि, गसधमनिपरि, सधगमनिपरि, धसगमनिपरि, गधसमनिपरि, धगसमनिपरि, समधगनिपरि, मसधगनिपरि, सधमगनिपरि, धसमगनिपरि, मधसगनिपरि, धमसगनिपरि, गमधसनिपरि, मगधसनिपगि, गधमसनिपरि, धगमसनिपरि, मधगसनिपरि, धमगसनिपरि, सगमनिधपरि, गसमनिधपरि, समगनिधपरि, मसगनिधपरि, गमसनिधपरि, मगसनिधपरि, सगनिमधपरि, गसनिमधपरि सनिगमधपरि, निसगमधपरि, गनिसमधपरि, निगसमधपरि, समनिगधपरि, मसनिगधपरि, मनिमगधपरि, निसमगधपरि, मनिसगधपरि, निमसगधपरि, गमनिसधपरि, मगनिसधपरि, गनिमसधपरि, निगमसधपरि, मनिगसधपरि, निमगसधपरि, सगधनिमपरि, गसधनिमपरि,° सधगनिमपरि, धसगनिमपरि, गधसनिमपरि, धगसनिमपरि, सगनिधमपरि, गसनिधमपरि, सनिगधमपरि, निसगधमपरि, गनिसधमपरि, निगसधमपरि,००° सधनिगमपरि, धसनिगमपरि, सनिधगमपरि, निसधगमपरि, धनिसगमपरि, निधसगमपरि, गधनिसमपरि, धगनिसमपरि, गनिधसमपरि, निगधसमपरि, धनिगसमपरि, निधगसमपरि, समधनिगपरि, मसधनिगपरि, सधमनिगपरि, धसमनिगपरि, मधसनिगपरि, धमसनिगपरि, समनिधगपरि, मसनिधगपरि, सनिमधगपरि, निसमधगपरि, मनिसधगपरि, निमसधगपरि, सधनिमगपरि, धसनिमगपरि, सनिधमगपरि, निसधमगपरि, धनिसमगपरि, निधसमगपरि, मधनिसगपरि, धमनिसगपरि, मनिधसगपरि, निमधसगपरि, धनिमसगपरि, निधमसगपरि, गमधनिसपरि, मगधनिसपरि, गधमनिसपरि, धगपनिसपरि,° मधगनिसपरि, धमगनिसपरि, गमनिधसपरि, मगनिधसपरि, गनिमधसपरि, निगमधसपरि, मनिगधसपरि, निमगधसपरि, गधनिमसपरि, धगनिमसपरि, गनिधमसपरि, निगधमसपरि, धनिगमसपरि, निधगमसपरि, मधनिगसपरि, धमनिगसपरि, मनिधगसपरि, निमधगसपरि, धनिमगसपरि, निधमगसपरि,° सगपधनिमरि, गसपनिमरि, सपगधनिमरि, पसगधनिमरि, गपसधनिमरि, पगसधनिमरि, सगधपनिमरि, गसधपनिमरि,
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संगीतरत्नाकर:
[सं० ३९६९
80
4000
20
सधगपनिमरि, धसगपनिमरि, 70 गधसपनिमरि, धगसपनिमरि, सपधगनिमरि, पसधगनिमरि, सधपगनिमरि, धसपगनिमरि, पधसगनिमरि, धपसगनिमरि, गपधसनिमरि, पगधस निमरि, " गधपसनिमरि, धगपसनिमरि, पधगस निमरि, धपगसनिमरि, सगपनिधमरि, गसपनिधमरि, सपगनिधमरि, पसगनिधमरि, गपसनिधमरि, पगसनिधमरि, सगनिपधमरि, गसनिपधमरि, सनिगपधमरि, frerपधमरि, गनिसपधमरि, निगसपधमरि, सपनिगधमरि, पसनिगधमरि, सनिपगधमरि, निसपगधमरि, 0° पनिसगधमरि, निपसगधमरि, गपनिसधमरि, पगनिसधमरि, गनिपसधमरि, निगपसधमरि, पनिगसधमरि, निपगसधमरि, सगधनिपमरि, गसधनिपमरि, " सधगनिपमरि, धसगनिपमरि, गधसनिपमरि, धगसनिपमरि, सगनिधपमरि, गसनिधपमरि, सनिगधपमरि, निसगधपमरि, सिधपमरि, निगसधपमरि, ° सधनिगपमरि, धस निगपमरि, सनिधगपमरि, निसधगपमरि, धनिसगपमरि, निधसगपमरि, गधनिसपमरि, धगनिसपमरि, गनिधसपमरि, निगधसपमरि, धनिगसपमरि, निधगसपमरि, सपधनिगमरि, पसधनिगमरि, सधपनिगमरि, धसपनिगमरि, पधसनिगमरि, धपसनिगमरि, सपनिधगमरि, पसनिधगमरि, ° सनिपधगमरि, निसपधगमरि, पनिसधगमरि, निपसधगमरि, सधनिपगमरि, धसनिपगमरि, सनिधपगमरि, निसधपगमरि, धनिसपगमरि, निधसपगमरि, ° पधनिसगमरि, धपनिसगमरि, पनिधसगमरि, निपधसगमरि, धनिपसगमरि, निधपसगमरि, गपधनिसमरि, पगधनिसमरि, गधपनिसमरि, धगपनिसमरि, " पधगनिसमरि, धपगनिसमरि, गपनिधसमरि, पगनिधसमरि, गनिपधसमरि, निगपधसमरि, पनिगधसमरि, निपगधसमरि, धनिपसमरि, धगनिपसमरि, गनिधपसमरि, निगधपसमरि, धनिगपसमरि, निधगपसमरि, पधनिगसमरि, धपनिगसमरि, पनिधगसमरि, निपधगसमरि, धनिपगसमरि, निधपगसमरि, " समपधनिगरि, मसपधनिगरि, सपमधनिगरि, पसमधनिगरि, मपसधनिगरि, पमसधनिगरि, समधपनिगरि, मसधपनिगरि, सधमपनिगरि, धसमपनिगरि, " मधसपनिगरि, धमसपनिगरि, सपधमनिगरि, पसधमनिगरि, सधपम निगरि, धसपमनिगरि, पधसमनिगरि, धपसमनिगरि, मपधसनिगरि, पमधसनिगरि, ' 'मधपस निगरि, धमपस निगरि, पधमस निगरि,
40
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४२३८] अनुबन्धः
३८७ धपमसनिगरि, समपनिधगरि, मसपनिधगरि, सपमनिधगरि, पसमनिधगरि, मपसनिधगरि, पमसनिधगरि, समनिपधगरि, मसनिपधगरि, सनिमपधगरि, निसमपधगरि, मनिसपधगरि, निमसपधगरि, सपनिमधगरि, पसनिमधगरि, सनिपमधगरि, निसपमधगरि,2° पनिसमधगरि, निपसमधगरि, मपनिसधगरि, पमनिसधगरि, मनिपसधगरि, निमपसधगरि, पनिमसधगरि, निपमसधगरि, समधनिपगरि, मसधनिपगरि.३° सधमनिपगरि, धसमनिपगरि, मधसनिपगरि, धमसनिपगरि, समनिधपगरि, मसनिधपगरि, सनिमधपगरि, निसमधपगरि, मनिसधपगरि, निमसधपगरि,° सधनिमपगरि, धसनिमपगरि, सनिधमपगरि, निसधमपगरि, धनिसमपगरि, निधसमपगरि, मधनिसपगरि, धमनिसपगरि, मनिधसपगरि, निमधसपगरि, धनिमसपगरि, निधमसपगरि, सपधनिमगरि, पसधनिमगरि, सधपनिमगरि, धसपनिमगरि, पधसनिमगरि, धपसनिमगरि, सपनिधमगरि, पसनिधमगरि,° सनिपधमगरि, निसपधमगरि, पनिसधमगरि, निपसधमगरि, सधनिपमगरि, धसनिपमगरि, सनिधपमगरि, निसधपमगरि, धनिसपमगरि, निधसपमगरि, पधनिसमगरि, धपनिसमगरि, पनिधसमगरि, निपधसमगरि, धनिपसमगरि, निधपसमगरि, मपधनिसगरि, पमधनिसगरि, मधपनिसगरि, धमपनिसगरि,8° पधमनिसगरि, धपमनिसगरि, मपनिधसगरि, पमनिधसगरि, मनिपधसगरि, निमपधसगरि, पनिमधसगरि, निपमधसगरि, मधनिपसगरि, धमनिपसगरि,°° मनिधपसगरि, निमधपसगरि, धनिमपसगरि, निधमपसगरि, पधनिमसगरि, धपनिमसगरि, पनिधमसगरि, निपधमसगरि, धनिपमसगरि, निधपमसगरि,२०० गमपधनिसरि, मगपधनिसरि, गपमधनिसरि, पगमधनिसरि, मपगधनिसरि, पमगधनिसरि, गमधपनिसरि, मगधपनिसरि, गधमपनिसरि, धगमपनिसरि, मधगपनिसरि, धमगपनिसरि, गपधमनिसरि, पगधमनिसरि, गधपमनिसरि, धगपमनिसरि, पधगमनिसरि, धपगमनिसरि, मपधगनिसरि, पमधगनिसरि,१० मधपगनिसरि, धमपगनिसरि, पधमगनिसरि, धपमगनिसरि, गमपनिधसरि, मगपनिधसरि, गपमनिधसरि, पगमनिधसरि, मपगनिधसरि, पमगनिधसरि, ° गमनिपधसरि, मगनिपधसरि, गनिमपधसरि, निगमपधसरि, मनिगपधसरि, निमगपधसरि, गपनिमधसरि, पगनिमधसरि,
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३८८
संगीतरत्नाकरः [सं० ४२३९गनिपमधसरि, निगपमधसरि, पनिगमधसरि, निपगमधसरि, मपनिगधसरि, पमनिगधसरि, मनिपगधसरि, निमपगधसरि, पनिमगधसरि, निपमगधसरि, गमधनिपसरि, मगधनिपसरि, ° गधमनिपसरि, धगमनिपसरि, मधगनिपसरि, धमगनिपसरि, गमनिधपसरि, मगनिधपसरि, गनिमधपसरि, निगमधपसरि, मनिगधपसरि, निमगधपसरि,०° गधनिमपसरि, धगनिमपसरि, गनिधमपसरि, निगधमपसरि, धनिगमपसरि, निधगमपसरि, मधनिगपसरि, धमनिगपसरि, मनिधगपसरि, निमधगपसरि, धनिमगपसरि, निधमगपसरि, गपधनिमसरि, पगधनिमसरि, गधपनिमसरि, धगपनिमसरि, पधगनिमसरि, धपगनिमसरि, गपनिधमसरि, पगनिधमसरि, गनिपधमसरि, निगपधमसरि, पनिगधमसरि, निपगधमसरि, गधनिपमसरि, धगनिपमसरि, गनिधपमसरि, निगधपमसरि, धनिगपमसरि, निधगपमसरि,° पधनिगमसरि, धपनिगमसरि, पनिधगमसरि, निपधगमसरि, धनिपगमसरि, निधपगमसरि, मपधनिगसरि, पमधनिगसरि, मधपनिगसरि, धमपनिगसरि, ०° पधमनिगसरि, धपमनिगसरि, मपनिधगसरि, पमनिधगसरि, मनिपधगसरि, निमपधगसरि, पनिमधगसरि, निपमधगसरि, मधनिपगसरि, धमनिपगसरि,1° मनिधपगसरि, निमधपगसरि, धनिमपगसरि, निधमपगसरि, पधनिमगसरि, धपनिमगसरि, पनिधमगसरि, निपधमगसरि, धनिपमगसरि, निधपमगसरि,2° रिगमपधनिस, गरिमपधनिस, रिमगपधनिस, मरिगपधनिस, गमरिपधनिस, मगरिपधनिस, रिगपमधनिस, गरिपमधनिस, रिपगमधनिस, परिगमधनिस,° गपरिमधनिस, पगरिमधनिस, रिमपगधनिस, मरिपगधनिस, रिपमगधनिस, परिमगधनिस, मपरिगधनिस, पमरिंगधनिस, गमपरिधनिस, मगपरिधनिस,° गपमरिधनिस, पगमरिधनिस, मपगरिधनिस, पमगरिधनिस, रिंगमधपनिस, गरिमधपनिस, रिमगधपनिस, मरिगधपनिस, गमरिधपनिस, मगरिधपनिस,° रिगधमपनिस, गरिधमपनिस, रिधगमपनिस, धरिगमपनिस, गधरिमपनिस, धगरिमपनिस, रिमधगपनिस, मरिधगपनिस, रिधमगपनिस, धरिमगपनिस,°° मधरिंगपनिस, धमरिगपनिस, गमधरिपनिस, मगधरिपनिस, गधमरिपनिस, धगमरिपनिस, मधगरिपनिस, धमगग्पिनिस, रिगपधमनिस, गरिपधमनिस, रिपगधमनिस, पग्गिधमनिस, गपरिधमनिस,
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४५०८] अनुबन्धः
३८९ पगरिधमनिस, रिगधपमनिस, गरिधपमनिस, रिधगपमनिस, धरिगपमनिस, गधरिपमनिस, धगरिपमनिस,8° रिपधगमनिस, परिधगमनिस, रिधपगमनिस, धरिपगमनिस, परिगम निस, धपरिगमनिस, गपधरिमनिस, पगधरिमनिस, गधपरिमनिस, धगपरिमनिस,°° पधगरिमनिस, धपगरिमनिस, रिमपधगनिस, मरिपधगनिस, रिपमधगनिस, परिमधगनिस, मपरिधगनिस, पमरिधगनिस, ग्मिधपगनिस, मरिधपगनिस,०° रिधमपगनिस, धरिमपगनिस, मधरिपगनिस, धमरिपगनिस, रिपधमगनिस, परिधमगनिस, रिधपमगनिस, धरिपमगनिस, पधरिमगनिस, धपरिमगनिस, मपधरिगनिस, पमधरिगनिस, मधपरिगनिस, धमपरिगनिस, पधमरिगनिस, धपमरिगनिस, गमपधरिनिस, मगपधरिनिस, गपमधरिनिस, पगमधरिनिस, मपगधरिनिस, पमगधरिनिस, गमधपरिनिस, मगधपरिनिस, गधमपरिनिस, धगमपरिनिस, मधगपरिनिस, धमगपरिनिस, गपधमरिनिस, पगधमरिनिस, ° गधपमरिनिस, धगपमरिनिस, पधगमरिनिस, धपगमरिनिस, मपधगरिनिस, पमधगरिनिस, मधपगरिनिस, धमपगरिनिस, पधमगरिनिस, धपमगरिनिस, रिंगमपनिधस, गरिमपनिधस, रिमगपनिधस, मरिगपनिधस, गमरिपनिधस, मगरिपनिधस, ग्गिपमनिधस, गरिपमनिधस, रिपगमनिधस, परिगमनिधस, गपरिमनिधस, पगरिमनिधस, रिमपगनिधस, मरिपगनिधस, रिपमगनिधस, परिमगनिधस, मपरिगनिधस, पमरिगनिधस, गमपरिनिधस, मगपरिनिधस,8° गपमरिनिधस, पगमरिनिधस, मपगरिनिधस, पमगरिनिधस, ग्गिमनिपधस, गरिमनिपधस, रिमगनिपधस, मग्गिनिपधस, गमरिनिपधस, मगरिनिपधस, रिगनिमपधस, गरिनिमपधस, रिनिगमपधस, निरिगमपधस, गनिरिमपधस, निगरिमपधस, रिमनिगपधस, मरिनिगपधस, रिनिमगपधस, निरिमगपधस, ° मनिरिगपधस, निमरिगपधस, गमनिरिपधस, मगनिरिपधस, गनिमरिपधस, निगमरिपधस, मनिगरिपधस, निमगरिपधस, रिगपनिमधस, गरिपनिमधस,°° रिपगनिमधस, परिगनिमधस, गपरिनिमधस, पगरिनिमधस, रिगनिपमधस, गरिनिपमधस, रिनिगपमधस, निरिगपमधस, गनिरिपमधस, निगरिपमधस,०° रिपनिगमधस, परिनिगमधम, रिनिपगमधस, निम्पिगमधस, पनिग्गिमधस, निपरिगमधस, गपनिरिमधस, पगनिरिमधस,
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संगीतरत्नाकरः
[सं० ४५०९
10
50
गनिपरिमधस, निगपरिमधस, 1° पनिगरिमधस, निपगरिमधस, रिमपनिगधस, मरिपनिगधस, रिपमनिगधस, परिमनिगधस, मपरिनिगधस, पमरिनिगधस, रिमनिपराधस, मरिनिपगधस, रिनिमपगधस, निरिमपगधस, मनिरिपगधस, निमरिपगधस, रिपनिमगधस, परिनिमगधस, रिनिपमगधस, निरिपमगधस, पनिरिमगधस, निपरिमगधस, " मपनिरिगधस, पमनिरिंगधस, मनिपरिगधस, निमपरिगधस, पनिमरिगधस, निपमरिगधस, गमपनिरिधस, मगपनिरिधस, गपमनिरिधस, पगमनिरिधस, " मपगनिरिधस, पमगनिरिधस, गमनिपरिधस, मगनिपरिधस, गनिमपरिधस, निगमपरिधस, मनिगपरिधस, निमगपरिधस, गपनिमरिधस, पगनिमरिधस, ° गनिपमरिधस, निगपमरिधस, पनिगमरिधस, निपगमरिधस, मपनिगरिधस, पमनिगरिधस, मनिपगरिधस, निमपगरिधस, पनिमगरिधस, निपमगरिस, " रिगमधनिपस, गरिमधनिपस, रिमगधनिपस, मरिगधनिपस, गमरिधनिपस, मगरिधनिपस, रिगधमनिपस, गरिधमनिपस, रिधगमनिपस, धरिगमनिपस, गधरिमनिपस, धगरिमनिपस, रिमधगनिपस, मरिधगनिपस, रिधमगनिपस, धरिमगनिपस, मधरिगनिपस, धमरिगनिपस, गमधरिनिपस, मगधरिनिपस, गधमरिनिपस, धगम रिनिपस, मधगरिनिपस, धमगरिनिपस, ग्गिमनिधपस, गरिमनिधपस, रिमगनिधपस, मरिगनिधपस, गरिनिधपस, मगरिनिधपस, रिगनिमधपस, गरिनिमधपस, रिनिगमधपस, निरगमधपस, गनिरिमधपस, निगरिमधपस, रिमनिगधपस, मरिनिगधपस, रिनिमगधपस, निरिमगधपस, 'मनिरिगधपस, निमरिगधपस, गमनिरिधपस, मगनिरिधपस, गनिमरिधपस, निगमरिधपस, मनिगरिधपस, निमगरिधपस, रिगधनिमपस, गग्धिनिमपस, 10 रिधगनिमपस, धरिगनिमपस, गधरिनिमपस, गरिनिमपस, ग्गिनिधमपस, गरिनिधमपस, रिनिगधमपस, निरिगधमपस, गनिरिधमपस, निगरिधमपस, " रिधनिगमपस, धरिनिगमपस, रिनिधगमपस, निरिधगमपस, धनिरिगमपस, निधरिगमपस, गधनिरिमपस, धगनिरिमपस, गनिधरिमपस, निगधरिमपस, धनिगरिमपस, निधगरिमपस, रिमधनिगपस, मग्धिनिगपस, रिधमनिगपस, धरिमनिगपस, मधरिनिगपस, धमरिनिगपस, रिमनिधगपस, मरिनिधगपस, रिनिमधगपस, निरिमधगपस, मनिरिधगपस,
20
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४७७८] अनुबन्धः
३९१ निमरिधगपस, रिधनिमगपस, धरिनिमगपस, रिनिधमगपस, निरिधमगपस, धनिरिमगपस, निधरिमगपस,° मधनिरिगपस, धमनिरिगपस, मनिधरिंगपस, निमधरिंगपस, धनिमरिगपस, निधमरिगपस, गमधनिरिपस, मगधनिरिपस, गधमनिरिपस, धगमनिरिपस, मधगनिरिपस, धमगनिरिपस, गमनिधरिपस, मगनिधरिपस, गनिमधरिपस, निगमधरिपस, मनिगधरिपस, निमगधरिपस, गधनिमरिपस, धगनिमरिपस, गनिधमरिपस, निगधमरिपस, धनिगमरिपस, निधगमरिपस, मधनिगरिपस, धमनिगरिपस, मनिधगरिपस, निमधगरिपस, धनिमगरिपस, निधमगरिपस, रिगपधनिमस, गरिपधनिमस, रिपगधनिमस, परिंगधनिमस, गपरिधनिमस, पगरिधनिमस, रिंगधपनिमस, गरिधपनिमस, रिधगपनिमस, धरिगपनिमस,°° गधरिपनिमस, धगरिपनिमस, रिपधगनिमस, परिधगनिमस, रिधपगनिमस, धरिपगनिमस, पधरिगनिमस, धपरिगनिमस गपधरिनिमस, पगधरिनिमस,०° गधपरिनिमस, धगपरिनिमस, पधगरिनिमस, धपगरिनिमस, रिगपनिधमस, गरिपनिधमस, रिपगनिधमस, परिगनिधमस, गपरिनिधमस, पगरिनिधमस,' रिगनिपधमस, गरिनिपधमस, रिनिगपधमस, निरिंगपधमस, गनिरिपधमस, निगरिपधमस, रिपनिगधमस, परिनिगधमस, रिनिपगधमस, निरिपगधमस,° पनिरिंगधमस, निपरिगधमस, गपनिरिधमस, पगनिरिधमस, गनिपरिधमस, निगपरिधमस, पनिगरिधमस, निपगरिधमस, रिगधनिपमस, गरिधनिपमस, रिधगनिपमस, धरिगनिपमस, गधरिनिपमस, धगरिनिपमस, रिगनिधपमस, गरिनिधपमस, रिनिगधपमस, निरिगधपमस, गनिरिधपमस, निगरिधपमस, ° रिधनिगपमस, धरिनिगपमस, रिनिधगपमस, निरिधगपमस, धनिरिगपमस, निधरिगपमस, गधनिरिपमस, धगनिरिपमस, गनिधरिपमस, निगधरिपमस, धनिगरिपमस, निधगरिपमस, रिपधनिगमस, परिधनिगमस, रिधपनिगमस, धरिपनिगमस, पधरिनिगमस, धपरिनिगमस, रिपनिधगमस, परिनिधगमस, रिनिपधगमस, निरिपधगमस, पनिरिधगमस, निपरिधगमस, ग्धिनिपगमस, धरिनिपगमस, रिनिधपगमस, निरिधपगमस, धनिरिपगमस, निधरिपगमस,° पधनिरिगमस, धपनिरिगमस, पनिधरिगमस, निपधरिंगमस, धनिपग्गिमस, निधपरिगमस, गपधनिरिमस, पगधनिरिमस,
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३९२
संगीतरत्नाकरः [सं० ४७७९गधपनिरिमस, धगपनिरिमस, ° पधगनिरिमस, धपगनिरिमस, गपनिधरिमस, पगनिधरिमस, गनिपधरिमस, निगपरिमस, पनिगधरिमस, निपगधरिमस, गधनिपरिमस, धगनिपरिमस,°° गनिधपरिमस, निगधपरिमस, धनिगपरिमस, निधगपरिमस, पधनिगरिमस, धपनिगरिमस, पनिधगरिमस, निपधगरिमस, धनिपगरिमस, निधपगरिमस,००० रिमपधनिगस, मरिपधनिगस, रिपमधनिगस, परिधमनिगस, मपरिधनिगस, पमरिधनिगस, रिमधपनिगस, मरिधपनिगस, रिधमपनिगस, धरिमपनिगस,1° मधरिपनिगस, धमरिपनिगस, रिपधमनिगस, पग्धिमनिगस, रिधपमनिगस, धरिपमनिगस, पधरिमनिगस, धपरिमनिगस, मपधरिनिगस, पमधरिनिगस, मधपरिनिगस, धमपरिनिगस, पधमरिनिगस, धपमरिनिगस, रिमपनिधगस, मरिपनिधगस, रिपमनिधगस, परिमनिधगस, मपरिनिधगस, पमरिनिधगस, रिमनिपधगस, मरिनिपधगस, रिनिमपधगस, निरिमपधगस, मनिरिपधगस, निमरिपधगस, रिपनिमधगस, परिनिमधगस, रिनिपमधगम, निरिपमधगस,° पनिरिमधगस, निपरिमधगस, मपनिरिधगस, पमनिरिधगस, मनिपरिधगस, निमपरिधगम, पनिमरिधगस, निपमरिधगस, रिमधनिपगस, मरिधनिपगस, रिधमनिपगस, धरिमनिपगस, मधरिनिपगस, धमरिनिपगस, रिमनिधपगस, मरिनिधपगस, रिनिमधपगस, निरिमधपगस, मनिरिधपगस, निमरिधपगस,०° ग्धिनिमपगस, धरिनिमपगस, रिनिधमपगस, निरिधमपगस, धनिरिमपगस, निधरिमपगस, मधनिरिपगस, धमनिरिपगस, मनिधरिपगस, निमधरिपगस, धनिमरिपगस, निधमरिपगस, रिपधनिमगस, परिधनिमगस, रिधपनिमगस, धरिपनिमगस, पधरिनिमगस, धपरिनिमगस, रिपनिधमगस, परिनिधमगस, रिनिपधमगस, निरिपधमगस, पनिरिधमगस, निपरिधमगस, रिधनिपमगस, धरिनिपमगस, रिनिधपमगस, निरिधपमगस, धनिरि पमगस, निधरिपमगस,°° पधनिरिमगस, धपनिरिमगस, पनिधरिमगस, निपधरिमगस, धनिपरिमगस, निधपरिमगस, मपधनिरिगस, पमधनिरिगस, मधपनिरिगस, धमपनिरिगस,००° पधमनिरिगस, धपमनिरिगस, मपनिधरिंगस, पमनिधरिगस, मनिपधरिगस, निमपरिगस, पनिमधरिंगस, निपमधरिगस, मधनिपरिगस, धमनिपरिगस,1° मनिधपरिगस, निमधपरिगस, धनिमपरिगस,
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५०४०]
अनुबन्धः
३९३
20
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निधमपरिगस, पधनिमरिगस, धपनिमरिगस, पनिधमरिगस, निपधमरिगस, धनिपमरिगस, निधपमरिगस, " गमपधनिरिस, मगपधनिरिस, गपमधनिरिस, पगमधनिरिस, मपगधनिरिस, पमगधनिरिस, गमधपनिरिस, मगधपनिरिस, गधमपनिरिस, धगमपनिरिस, " मधगपनिरिस, धमगपनिरिस, गपधम निरिस, पगधमनिरिस, गधपमनिरिस, धगपमनिरिस, पधगमनिरिस, धपगम निरिस, मपधगनिरिस, पमधगनिरिस, मधपगनिरिस, धमपगनिरिस, पधमगनिरिस, धपमगनिरिस, गमपनिधरिस, मगपनिधरिस, गपमनिधरिस, पगमनिधरिस, मपगनिधरिस, पमगनिधरिस, " गमनिपधरिस, मगनिपधरिस, गनिमपधरिस, निगमपधरिस, मनिगपधरिस, निमगपधरिस, गपनिमधरिस, पगनिमधरिस, गनिपमधरिस, निगपमधरिस, " पनिगमधरिस, निपगमधरिस, मपनिगधरिस, पनिगधरिस, मनिपगधरिस, निमपगधरिस, पनिमगधरिस, निपमगधरिस, गमधनिपरिस, मगधनिपरिस, 10 गधमनिपरिस, धगमनिपरिस, मधगनिपरिस, धमगनिपरिस, गमनिधपरिस, मगनिधपरिस, गनिमधपरिस, निगमधपरिस, मनिगधपरिस, निमगधपरिस, गधनिमपरिस, धगनिमपरिस, गनिधमपरिस, निगधमपरिस, धनिगमपरिस, निधगमपरिस, मधनिगपरिस, धमनिगपरिस, मनिधगपरिस, निमधगपरिस," धनिमगपरिस, निधमगपरिस, गपधनिमरिस, पगधनिमरिस, गधपनिमरिस, धगपनिमरिस, पधगनिमरिस, धपगनिमरिस, गपनिधमरिस, पगनिधमरिस, 'गनिपधमरिस, निगपधमरिस, पनिगधमरिस, निपगधमरिस, गधनिपमरिस, धगनिपमरिस, गनिधपमरिस, निगधपमरिस, धनिगपमरिस, निधगपमरिस, " पधनिगमरिस, पधनिगमरिस, पनिधगमरिस, निपधगमरिस, धनिपगमरिस, निधपगमरिस, मपधनिगरिस, पमधनिगरिस, मधपनिगरिस, धमपनिगरिस, " पधमनिगरिस, धपमनिगरिस, मपनिधगरिस, पमनिधगरिस, मनिपधगरिस, निमपधगरिस, पनिमधगरिस, निपमधगरिस, मधनिपगरिस, धमनिपगरिस, मनिधपगरिस, निमधपगरिस, धनिमपगरिस, निधमपगरिस, पधनिमगरिस, धपनिमगरिस, पनिधमगरिस, निपधमगरिस, धनिपमगरिस, निधपमगरिस,००००
10
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इति प्रस्ताराः ।
50
40
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5000
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३९४
संगीतरत्नाकरः
परिशिष्टम् ४। श्रुतीनां जातिस्वरग्राममदर्शकं चक्रम् ।
श्रुतिसंख्या
श्रुतिनामानि
श्रुतिजातयः
षड्जग्रामस्वराः
मध्यमग्रामस्वराः
गान्धारग्रामस्वराः
दीप्ता
'
. .
आयता मृदुः मध्या करुणा मध्या
. .
दीप्ता
आयता
. . .
दीप्ता
आयता
तीवा कुमुद्धती मन्दा छन्दोवती दयावती रजनी रतिका | रौद्री कोधा वत्रिका प्रसारिणी प्रीतिः मार्जनी क्षितिः रक्ता संदीपिनी आलापिनी मदन्ती रोहिणी रम्या उग्रा क्षोभिणी
. .
मूदुः मध्या
१३
. .
मृदुः मध्या आयता करुणा करुणा आयता मध्या दीप्ता मध्या
. .
.
.
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परिशिष्टम् ५। श्लोकानामर्धानुक्रमणी पुटसंख्या
पुटसंख्या
१७१
२७६
१८८ १९५
अंशाविवादी गीतस्य अंशाः द्विषन्त्यौडुवितं अंशाः सप्त स्वराः षड्ज. अंशाः समनिधाः षड्ज. अंशाः स्युः षड्जकैविक्यां अंशा स्यू रक्तगांधार्या अंशेषु समपेष्वेतत् अंशो गांधारपञ्चम्यां अगाधबोधमन्येन अमिष्टोमो ऽत्यग्निष्टोमः अग्निचिद्वादशाहः अमेस्तु लोचनं रूपं अङ्कानेकादिसप्तान्तान् अङ्गप्रत्यङ्गभागाश्च अङ्गिराः कङ्क इति अङ्गुलीनां च नियमः अज्ञातविषयास्वादः
अतः परं तु रक्तिनं
अतस्त्रयोविंशतिधा १८९ अतो ऽष्टावधिका आर्ष. २.६ अतो गीतं प्रधानत्वात् २३२ अतो जातो ऽष्टमे मासि २२८ अतो मातुर्मनो ऽभीष्टं २२४ अत्यल्पर्षभगांधार २४. अत्र येऽन्त्या अपन्यासाः १७७ अथ प्रत्येकमेतासां २५६ अथ रागविवेकाख्ये १३ अथात्र शुद्धतानानां १४२ अदानाद्दोहदानां
अधः क्रमादस्ति लोष्टः
अधराधरतीव्रास्ताः १२९ अधस्तनैर्निषादायैः
अधिका विंशतिः स्त्रीणां १४४ अधुनाखिललोकानां २१ अधोगता अपि त्रेधा १६ अध्यास्ते संकुचद्गात्रः
१४२
३४
१४३ ४२
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________________
३९६
संगीतरत्नाकरः
पुटसंख्या
पुरसंख्या
१९०
१७७ १४८ २३६ २७५
अनन्तत्वात्तु ते शास्त्रे अनभ्यासस्त्वनंशेषु अनभ्यासैः कचित्वापि अनलाजलमेतस्मात् अनाद्यविद्योपहिता अनाहतदले पूर्वे अनुवादी च वादी तु अनुक्ताविह तालः स्यात् अन्तरस्यापि गमयोः अन्त्यस्य तु त्रिरावृत्ती अन्नं भुक्तं धमन्यौ द्वे अन्ये च बहवः पूर्वे अन्ये तु निगपानपासात् अन्ये ऽपि सप्तालंकाराः अपनीयेत चेदेषा अपन्यास: स्वरः स स्यात् अपानस्तु गुदे मेरे अपि ब्रह्महणं पापात अपि संन्यासविन्यासी अमर्ष तैष्ण्यमूष्माणं अरतिः संभ्रमश्चोमिः अर्धाञ्जलिः शिरो मजा अक्तुि कामचारः स्यात् अलंकर्तु दक्षिणाशां अलंकारेषु ललितः अलङ्घनात्तथाऽभ्यासात् अलम्बुसा कंदमध्ये अलम्बुसा पायुमूलं
१६८ अलम्बुसेति तत्रायाः १९. अलोलुपत्वमुत्साहः १९१ अल्पत्वं च द्विधा प्रोक्तं २८ अल्पद्विश्रुतिके राग० २४ अल्पप्रयोगः सर्वत्र ५६ अल्पा निधपगांधाराः ९२ अल्पा रिपनिधा लञ्चयः २७१ अवज्ञा स्यादविश्वासः १४८ अवरुह्येत चेदेषः १५९ अवरोहक्रमादेते
५. अवरोहेकला गायेत् १३ अशीत्यभ्यधिका चातुः. २४४ अश्वकान्ता च सौवीरी १६६ अश्वक्रान्तो रथकान्तः १२७ अश्वप्रतिग्रहो बर्हिः १८८ अश्वप्रतिग्रहो रात्रिः
४१ अष्टमस्वरपर्यन्तं २७३ अष्टमीतो द्वितीयायां १८० अष्टमे त्वक्स्मृती स्याता
अष्टादश्यास्तृतीयायां अष्टावन्ये द्विधेत्येवं
अष्टौ कला भवन्तीह १८४ असंपूर्णाश्च संपूर्णाः १. अमृङ्मेदःश्लेष्मशकृत् ३४ अस्ति कुण्डलिनी ब्रह्म १८९ अस्ति ब्रह्म चिदानन्दं ६. अस्ति स्वस्तिगृहं वंशः ६१ अस्थिस्नायुसिरामांस०
१६१ १५९ १६४ १२४ ११२ १४३ १४३ १४४
१२२ २०३
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________________
अस्नां शरीरे संख्या स्यात्
अस्मद्विरचिते ऽध्यात्म० अस्य मूत्रपुरीषादि
श्रा
आष्ठाद्दक्षिणाङ्घ्रिस्था आञ्जनेयो मातृगुप्तः आतारषड्जमारोहः
आत्मनः पूर्वमाकाशः
आत्मा विवक्षमाणो ऽयं
आदित्यानामयनश्च
आदिमेन कला यत्र
आद्यं द्वितीयमाद्यं च आद्यन्तयोर्मूर्च्छनाऽऽदिश्चेत्
आयस्वरायास्तिस्रः स्युः
आद्याभ्यामन्तिमाभ्यां च
आद्या मांसधरा मांसे
आधाराद्वयङ्गुलादूर्ध्व आन्ध्रीकार्मारवीषड्ज ०
आन्ध्रयामंशा निरिगपाः
आप्यायनी विश्वकृता
आब्रह्मरन्ध्रमृजुतां
आमन्द्रन्यासमथ वा
आराध्याखिललोक ०
आरुह्यन्ते स्वराः प्राह
आर्चिको गाथिकश्वाथ
आर्षभी चेति सप्तैताः आर्षभ धैवतीं त्यक्त्वा
लोकानामनुक्रमणी
पुटसंख्या
13
५१
४१
६१
१३
१८४
२८
६४
१४३
१६५
आर्षभ्यां च स्वरा ये ऽंशाः आर्षभ्यां तु त्रयो ऽंशाः स्युः
आलापा चेति गांधार •
आलिकम प्रबन्धाश्व
आवर्तकः संप्रदानः
आवर्ते गर्भशय्या स्ति
आवामनेत्र मासव्य ०
आविर्भावाः सत्त्वरजः
आविष्करोति संगीत०
आशा प्रकाशश्चिन्ता च
आसुरः शाकुनः सार्पः
आस्तिक्यशुद्धधर्मैक •
१६७
आहतो ऽनादतश्चेति
१५५ आहुत्या ssप्यायितो ग्रस्त •
१६३
२८७
४४
५७
१७९
२६०
११२
५१
१८६
१०
१५७
इति पूर्वादिपत्रस्थे
१२० इति प्रत्यङ्गसंक्षेपः
इ
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं
पुरुषमेधश्च
इडायाः पृष्ठपूर्वस्थे
इति गांधारहीनानां
इति त्रिवृत्तपदां
इति त्रिषष्टिरंशाः स्युः
इति पञ्चमहीनानां
इति पञ्चाभिधा दत्ते
१७५ इति प्रयोजनान्याहुः
१७४ इति प्रसिद्धालंकाराः
३९७
पुटसंख्या
१८८
२०३
११२
२०
१६६
४८
६१
५५
११
५३
४३
४.
२२
३१
३९
१४४
६०
१४३
२८०
१७९
१४३
૪
५४
५१
१६८
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17
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________________
३९८
संगीतरत्नाकरः
पुटसंख्या
पुटसंख्या
१२२ २७६
इति षाडवसंख्या स्यात् इति सप्त कपालानि इति स्युः षड्जहीनानां इत्यष्टधा समुद्दिष्टाः इत्येकाशीतिसंयुक्तं
१४२
ऊर्ध्व दश दशाधस्तात् ऊर्ध्वगा हृदयं प्राप्ताः ऊर्ध्वरेखा शिरास्तारः
१५३
१२६
२७३ १४९
२३
ईश्वर लिङ्गमित्युक्त ईषत्स्पर्शो लङ्घनं स्यात्
१९०
२७६ २११, २१६
ऋचो यजूंषि सामानि । ऋषभस्त्वन्तिमां प्रोक्तं ऋषभांशं सग्रहं च ऋषभादिमूर्च्छना स्यात् ऋषमेण विहीनानां ऋषमे मध्यमे ऽल्पत्वं
ऋषभो शस्त्वौडुवितं ८६ ऋषयो ददृशुः पञ्च ६७ ऋषेषगणाजातः
२२४
१२०
V
४०
उक्ताः शुद्धादिमेदेन उग्रा च क्षोभिणीति द्वे उच्चोच्चतरता युक्ताः उत्क्षेपणमवक्षेप. उत्पत्तिमभिधास्यामः उत्पादयन्ति नैषादी. उदानः पदायोरास्ते उदीच्यवात्रयं मान्तं उदीच्यवानां त्रितये उद्गारादिनिमेषादि उद्गीतोद्वाहितौ तद्वत् उद्दिष्टान्त्यस्तावतिथे उद्विग्नो गर्भसंवासात उपर्युपरिसर्वान्यः उल्लासितश्चेति तेषां उशन्ति तदनंशे ऽपि
१५०
१७४ एक: क्ष्मावलये
४२ एक एकस्वरस्ते त्रि. १८७ एक एकस्वरस्तान: १८८ एकप्रामोद्भवास्त्वेक.
४२ एकविंश्या द्वितीयायां १५६ एकश्रुत्यपकृष्टा स्युः १३७ एकस्वरादितानानां ३५ एकस्वरादिसंख्या स्यात् १. एकस्वरास्त्वभेदत्वात् १६६ एकस्वरोऽत्र निर्भेदः १९. एकांशा नन्दयन्ती च
१२०,१४२
१२९ १२३ ११८
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________________
३९९
श्लोकानामर्धानुक्रमणी पुटसंख्या
पुटसंख्या
५७ औडवानां तु विंशत्या १५७ औडवी सा ऽस्ति येषां च १५८ औडुवं रिपलोपेन
१२० १९२
२२८
क
एकागुलं देहमध्यं एकान्तरस्वरारोहं एकान्तरं स्वरयुगं एकैकं चित्रमार्गादि एकैकस्यां मूर्च्छनायां एकैकान्त्यान्त्यविरहात् एतच्च चेतनस्थानं एतत्कुलप्रसूतत्वात् एतत्संमिश्रणाद्वर्णः एतदल्पनिगास्वाहुः एतस्यैव कला ऽन्त्यौ द्वौ एताः प्रतिष्ठिता नाभ्यां एता एव विना षाज्या एता निषादगांधार. एतानेवावरोहेण एतान्यन्तरमार्गेण एते चैकोनपश्चाशत् एवं कण्ठे तथा शीर्षे एवं कला त्रयेणोक्तः एवं मध्यममुच्चार्य एवं विधे तु देहे ऽस्मिन् एवं संचार्यलंकाराः एषां शेषेषु पत्रेषु एषा प्रकृतिरन्या तु एषा मन्द्रगतेः सीमा
२७८
८५ २५६
११७ . ११८ कं धर्म विदधौ नेषः
४५ कंदमध्ये स्थिता तस्या १.२ कंदीकृत्य स्थिताः कंदं १५१ कण्ठे ऽस्ति भारतीस्थानं १७७ कण्ठे मध्यो मूर्ध्नि तारः १६७
कपालं पञ्चमीजाति. ४९ कपालानां क्रमाब्रूमः १७४ करुणा चायता मध्या १४४ कर्तव्या ऽत्रापि गांधारी. १६६ कर्मास्य देहोन्नयन. १८० कलां प्रयुज्य मन्द्रादेः ११५ कला गतागतवती
६७ कलायां त्रीन्स्वरान्गीत्वा १५५ कलायामाद्ययोर्युग्मं १४८ कलास्तेषां द्वितीयाद्याः
६१ कले स्तस्त्रिस्वरे यत्र १६६ काकल्यन्तरयोः सम्यक् ५७ काकल्यन्तरषड्जैश्च
कार्मारवी पञ्चमान्ता १६ कार्मारव्यथ गांधार.
कार्मारव्यां च नैषाद्यां
कार्मारव्यां भवन्त्यंशाः १२६ कार्या मन्द्रतमध्वाना
१६१ १६३ १६२ १६७ १६६ १५८
१८ १४७ १८७ १७५ १८८
२५२
औडवानां चतुर्णा प्राक
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________________
संगीतरत्नाकरः
पुटसंख्या
पुटसंख्या
१६३
९६ क्रमात्सरिगमाद्यैः स्यात् ३६ क्रमादनुध्रुन्गायत्री १६ क्रमादल्पाल्पतरते ८५ क्रमादारोहति यदा १७४ क्रमाद्ामत्रये देवाः १५७ क्रमाद्न निगाभ्यां च
क्रमादृषभहीनानां १७ क्रमान्तिमस्वरात्पूर्वः
कमान्मार्गाश्चित्रवृत्ति क्रमेण दम्भो वैकल्यं
क्रियते ऽधः शिराः सूति. १९१ क्रियास्तेषां मनो बुद्धिः १६२ क्षिती रक्ता च संदीप. ५६ क्षेत्रज्ञः स्थित आकाश:
१९३ १५८ १०२ २१४ १४३ १४१
१९७
du
क
10
कार्यों गनी तु करुणे किंचित्कालमवस्थानं किमन्ये यक्षगन्धर्व कुमुदत्यायता या ऽस्याः कुर्युस्ता रक्तगांधारी कुर्वन्क्रमाद्यदा ऽऽरोहेत् कुति द्वे नरे शुक्र कुलानि जातयो वर्णाः कुल्याभिरिव केदाराः कृतगुरुपदसेवः कृताञ्जलिर्ललाटे ऽसौ कृता सा ऽन्तरमार्गः स्यात् कृत्वा ऽग्निवत्परं स्पृष्ट्या कृपा क्षमा ऽऽर्जवं धैर्य कैशिके काकलीत्वे च कैशिक्यां सप्तपक्षे तान् कैशिक्यामृषभान्ये ऽशाः कैश्चित्तु पञ्चमः प्रोक्तः कोरकाः प्रतरास्तुन्नाः कोष्ठसंख्यागुणं न्यस्येत् कम न्यस्य स्वरः स्थाप्यः कमा अकूटतानत्वे क्रमा द्विधेति द्वात्रिंशत् कमात्कला सा यत्र क्रमात्कालगतेर्हेतू क्रमात्पूर्वादिपत्रे तु क्रमात्पूषा यशस्विन्यौ कमात्स्वराणां सप्तानां
ग
१८८
९१ १६३
२११
२४४ गजश्च सप्त षड्जादीन् २६४ गत्वा ऽऽद्यगानाद्भवति ४८ गत्वा दुमदलस्येव १३५ गर्भः स्यादर्थवान्भोगी १३. गर्भाशयो ऽष्टमः स्त्रीणां ११८ गलोपानिगलोपेन १२२ गांधार इति तद्भेदौ १६४ गांधारग्राममाचष्ट ५९ गांधारपञ्चमीत्येताः ५३ गांधारिकासरस्वत्योः ६. गांधारी धैवती षाड्जी १०३ गांधारीपञ्चमीभ्यां तु
१००
१७८
१७४
१७४
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________________
गांधारी हस्तिजिह्वां च गांधारे ऽंशे न नेर्लोपः
गांधारो ऽत्यन्तबहुल:
गांधारोदीच्यां कुर्युः
गांधारोदीच्यवा चाथ
गांधारोदीच्यवायां तु
गांधारोदीच्यवा रक्त०
गांधार्यार्षभिकाभ्यां तु
गायौ धायौ निषादाय
गान क्रियोच्यते वर्णः
गाने स्थानस्य लामेन
गान्धर्वे मूर्च्छनास्तानाः गाम्भीर्यमुयमो ऽच्छत्वं गायनीगुणदोषाश्च
गीतं च वादनं नृत्तं
गीतं नादात्मकं वाद्यं
गीतं वाद्यं तथा नृत्तं
गीतस्था गुणदोषाश्च गीताङ्गानि च वक्ष्यन्ते
गीतादिनिहितस्तत्र
गीतितालकलाssदीनि
गीतिरित्युच्यते सा च
गीतेन प्रीयते देवः
गीते समाप्तिकृन्न्यासः
गीत्वा कलायामाद्यायां fter ssa द्वौ चतुर्थ च
गीर्वाणकुलसंभूताः
गुण मेण यो विप्रान्
51
लोकानामनुक्रमणी
पुटसंख्या
५९
१९६
२५२
१७४
गुणदोषाश्च शब्दस्य
गुदलिङ्गान्तरे चक्रं
गुरुलध्वादिमानं च
गुरूपदिष्टमार्गेण
१७८
गेयं वितन्वतो लोक ०
२३६ गोधाऽशने तु निद्रालुः
गोपी पतिरनन्तो ऽपि
१७३
१७४
ग्रहांशतारमन्द्राश्च
१२२ ग्रहांशन्यासषड्जं च
घ
घ्राणे गन्धवहे द्वे द्वे
४०१
पुटसंख्या
१५१
ग्रामः स्वरसमूहः स्यात् १४५ ग्रामरागांश्चोपरागान् ग्रामाश्च मूर्च्छनास्तानाः
१४५
५६ ग्रामे स्यादविलोपित्वात्
१९
१५
२२
१३
२०
२१
१८१
चक्रं सहस्रपत्रं तु ५६ चचत्पुटः षोडशात्र २२०, २५२, २५६ २३२ चच्चत्पुटः षोडशास्यां चतस्रः षड्जशब्दिन्यः चतुःपञ्चाशदाख्याताः १८६ चतुःश्रुतित्वमायाति
२२४ १७५
२८०
१६
२८०
१६५
९५ चतुःस्वरा समकला
१०
चतुःखराणां कूटानां
चतुः स्वराः परा यत्र
चतुःखरा कला तत्र
१९
५.१
२०
६१
६२
३४
१६
१८०
२७६
९९.
१९
१८
१०२
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४९
५०
८८
१६६
१६१
१६६
१२०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
४०२
चतुःखरेषु न्यायौ द्वौ
चतुःखरे क्रमद्वंद्वे चतुर्थषष्ठदशमैः
चतुर्थस्य प्रेक्षण चतुर्थे व्यक्तता तेषां
चतुर्दशाष्टादश वा चतुर्दशीतस्तुर्यायां चतुर्धा ऽन्ये दशेत्यष्टौ
चतुर्धा ताः पृथक्शुद्धाः चतुर्विधाः खरा वादी
चतुष्कले भूरिलघुः
चतुस्त्रिंशत्सहस्त्राणि
चत्वारिंशच्च संख्याताः
चत्वारि च सहस्राणि
चरत्यास्ये नासिकयोः
चलवीणा द्वितीया तु चातुर्मास्यो ऽथ संस्थाssख्यः चैतन्यं सर्वभूतानां च्युतो ऽच्युतो द्विधा षड्जः
छ
छन्दकादीनि गीतानि छन्दांसि विनियोगाश्व
छन्दोवती रजनी च छन्नाः कोशामिभिः पक्काः
जगति विततकीर्तिः
ज
संगीतरत्नाकर:
पुटसंख्या
१२२
१२३
५६
जम्बूशाक कुशक्रौञ्च ० जरायोर्मानुषादीनां
जातः प्राणाभिसंयोगात्
२४८
जातमात्रस्य तस्याथ
३३ जातिलक्ष्म ग्रहांशादि
४७
७२
१२१
१०७
९२
२८८ जीवानामुपभोगाय
१२१
११८
१२२
४१
७५
१४३
६२
८८
११
जातिसाधारणं केचित्
जिज्ञासूनां च विद्याभिः
जीवः प्राणसमारूढः
जीवकर्मप्रेरितं तद्
जीवस्थानानि मर्माणि
जीवो गीतादिसंसिद्धिं
• ज्योतिष्टोमस्ततो दर्शः
ज्ञानेन्द्रियाणि श्रवणं
त
तं प्रसाद्य सुधीधुर्यः
तएव विकृतावस्था
ततः प्रकीर्णकाध्याये
ततः प्रबन्धाध्याये तु
ततः प्रसन्नमध्यः स्यात्
ततः प्लुतं सार्धगण •
२१
१८
८६
४३ ततो ऽप्यन्तरभाषाश्च
ततो ऽप्यस्ति मनश्चक्रं
ततः शुद्धाः स्वराः सप्त
ततो ऽपि षोडशदलं
तत्तजातियुतं देहं
तत्तानानां तु सा ऽशीतिः
पुटसंख्या
९६
२९
૬૪
३७
१८
१५०
११
५८
३२
५०
२५
५७
१४४
३९
१०
८८
१९
२०
१५३
२७८
१७
५६
१९
५५
२५
१२६
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________________
श्लोकानामर्धानुक्रमणी
पुटसंख्या
पुटसंख्या
.
.
.
.
W
११५
तत्परान्यतमं चैव तत्संबन्धादौडुवं च तत्सुधासारधाराभिः तत्र नादोपयोगित्वात् तत्र प्रणव उद्गीथः तत्र खरगताध्याये तत्र स्यात्सगुणाद्ध्यानात् तत्रांशग्रहयोरन्य. तत्राभूद्भास्करप्रख्यः तत्राष्टौ पूर्णता हीनाः तत्रास्ते ऽमिशिखा तन्वी तथाऽऽन्ध्री नन्दयन्तीति तथा सामसमुद्भताः तदाज्ञयाऽसृजद् ब्रह्मा तदाऽर्धमाधीं प्राहुः तदाऽर्धमागधी ते द्वे तदा ऽष्टाविंशतिस्तानाः तदा ऽऽक्षेपो ऽथ बिन्दुः स्यात् तदेतत्सृष्टिसंहारं तदोद्गीतो मध्यमेन तद्गान्धारीकपालं स्यात् तदोषागमक: स्थायाः तद्वयानुगतं नृतं तद्वैलोम्ये प्रसन्नान्तः तन्द्राप्रभृति शोफादि तन्मध्यमाकपालं स्यात् तन्मध्ये नाभिचक्र तयोरेकैकहीनास्तु
१४८ तयोविंशतिस्तन्त्र्यः १९२ तस्मादत्र सुखोपायं
तस्मादाहतनादस्य ३० तस्माद्दुग्धाम्बुधेर्जातः ५४ तस्य गीतस्य माहात्म्य
तस्य द्वाविंशतिभेदाः ६१ तस्य मेदास्तु बहवः १८१ तस्याभूत्तनयः प्रभूति.
१. तां च द्विहृदयां नारी १७१ ताः कला मन्द्रमध्यान्ताः
५७ तानस्वरमितो/धः १७३ तानास्त्रिस्वरयोस्त्वेते
तानाः स्युर्मूर्च्छनाः शुद्धाः २९ तानानां पुनरुक्तानां २८२ तानानां रिधहीनानां २८८ तानानां सदृशाकारा: ११५ ताभ्यो ऽनं जातमन्नं तत् १६२ तामसत्रिविधो यश्च
२५ तारन्यासविपर्यासात् १५८ तारन्यासविहीनास्ताः २७६ तारमन्द्रप्रसन्नश्च १९ तारमन्द्रप्रसन्नो ऽयं २२ तालश्चच्चत्पुटो शेयः १५५ तालाध्याये पञ्चमे तु
ताश्च भूरितरास्तासु २७६ ताश्च खर्गे प्रयोक्तव्याः
५८ तासामन्यानि नामानि १२. तामु जिह्वास्थिते द्वे द्वे
१४४
१२६
४३
१५६
१५६ १६६
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________________
४०४
तासूचार्यान्त्यस्वरान् तास्वायायामाद्यकोष्ठे
तिरश्च्यस्तासु तावत्यः
तीव्राकुमुद्वतीमन्द्रा तीव्रा रौद्री वज्रिकोप्रा तुर्थं गत्वा ssदिमं गच्छेत्
तुर्याने कलेक
तुर्य प्रेक्षण संबन्धि
तुल्यारोहावरो हैक ०
तुष्टो गीतादिकार्याणि
तृतीयं लघुयुग्मस्य तृतीयप्रेक्षण तृतीयस्यां सारणायां
तृतीये त्वराः पच
ते
एव कैश्विदुच्येते
तेक्रमास्तेषु संख्या स्यात्
ते शुद्धैः सप्तभिः सार्धं
ते जीवा नात्मनो भिन्ना:
ते संजाता यत्र गीते
ते मन्द्रमध्यताराख्य ०
तेभ्यस्तु रैतसी सृष्टिः
तेषां मुख्यतमः प्राणः
तेषां लक्ष्माणि न ब्रूमः
तेषां संज्ञाः सरिगम •
तेषु लोष्टं क्षिपेन्मूले तैः पञ्चभिस्तृतीया स्यात्
तोयं मूत्रं बलं द्वे द्वे
तौ द्वौ घरातले तत्र
संगीतरत्नाकर:
पुटसंख्या
११२
त्रयस्ते करुणा भेदाः
१३४ त्रयाणां तु त्रिरावृत्तौ
६७
त्रिधा तालः पञ्चपाणिः
८६
८५
१६१
१६२
२५६
१६३
५७
२८७
२४०
७७
३२
त्रिनवत्या युताः
त्रिश्चतुर्वा स्वरोच्चारे
त्रिषष्टिरप्यलंकाराः
त्रिस्वराद्या कला ऽन्ये च
त्रिस्वराद्या कलैकैक •
त्रिस्वरात्कलाः पूर्व०
त्रिस्वरात्कला मन्द्र०
त्रिस्वराः षड् द्विस्रौ द्वौ
त्रिस्वरेषु तु माधौ द्वौ
त्रिस्वरौ द्विस्वरावेकः
त्रीण्येवास्थिशतान्यत्र त्रैलोक्यमोहनो वीरः
त्यक्तादारभ्य तादृश्यः
१५०
११२
८९ त्यक्तान्तरं स्वरयुगं
२७
१९२
..
२९ त्वगादि धातूनाश्रित्य
४१
त्वचः सप्त कलाः सप्त
४३
त्यागे त्रयाणां चत्वारः
त्र्यादीनां तत्र पूर्वासां मांसमेदोऽस्थि०
द
ददौ न किं न किं जज्ञौ
७९
१४०
२३० दद्युर्गीतादिसंसिद्धिं
५०
९९
दयावती तथा ssलापिन्
दयावती रञ्जनी च
पुटसंख्या
८६
१५९
१९७
१२४
१५७
१८
१५८
१६०
१६१
१६०
१२०
१२२
१२६
४७
१४४
१६१
१६०
१७१
८५
४५
४२
४३
५०
५७
८६
33
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दषु षोडशस्वस्य
दशनाः शुक्रमित्याद्याः
दशमीतश्चतुर्थ्या स्यात्
दश मूलसिरा ओज •
दशमैकादशे पत्र
दशाञ्जलि जलं ज्ञेयं
दशावशिष्टा: संपूर्ण ०
दशेति वायुविकृतीः दार्वाद्युपाधिसंभिन्नाः
दीप्तान्तश्चेति प्रतिकलं
दीप्ता मध्येति तासां च
दीप्ताऽऽयता च करुणा
दीप्ता ऽऽयता च मृदुः दीयते मध्यमे ते
दीप्ते प्रसन्नाद्यन्तः स्यात् दृश्यन्ते जन्यरागांशाः
देवतादर्शने भक्तः
देवस्य पुरतः शंभो:
देशे देशे जनानां यत्
देहं यूकादिनः स्वेदात्
देहस्थं वह्निमाहन्ति
देहस्य कंदो ऽस्त्युत्सेधः
देहो भूनात्मकस्तस्मात्
द्रवत्वं प्रथमे मासि
द्वादश त्रिस्वरद्वंद्वे
द्वादशारो हि वर्णस्थाः द्वादशे च स्थितो जीवः द्वाविंशतिस्ते तु चतुः
लोकानामनुक्रमणी
पटसंख्या
५६ द्वितीये तु घनः पिण्डः
३८
द्वितीयायां मध्यलयं
७२
४९
५७
५०
१७५
४१
२.४
१५६
८५
22
"
१५५
१७३
३४
१४
"
२९
६४
५८
४०
३२
१२४
१५६
५६
१२२
द्वितीये प्रेक्षणे गाने
द्वितीयो मध्यमग्रामः
द्विधा पडिशतिरिति
द्विधा स्युः पूर्णताहीनाः
द्विरुक्ता यदि मन्द्रान्ता
द्विर्गीत्वाऽऽयं तृतीयं च
द्विर्द्विः प्रयुज्यते तज्ज्ञैः
द्विर्द्धिः प्रयुज्येत तदा
द्विश्रुत्योः संगतिः शेषैः
द्विषन्त्यौडुवितं षड्ज०
द्विसप्ततिसहस्रेषु
द्वीपेषु पुष्करे चैते
द्वे अन्तः प्रसृते बाह्ये
द्वे द्वे न भाषणं घोषं
द्वेधा स्वप्नसुषुप्तिभ्यां
द्वे वीणे सदृशौ कार्ये
द्वे शते त्वस्थिसंधीनां
द्व्यङ्गुलं चाङ्गुलदलं
द्वौ नामकारिणौ षड्ज
ध
धनदानेन विप्राणां
धमन्यो रसवाहिन्यः
धर्मार्थकाममोक्षाणां
धैवतादेस्तु पौरव्याः
धैवतो मध्यमग्रामे
४०५
पुटसंख्या
३२
२८०
२२८
९९.
१२२
१७१
१६४
१६८
12
१६७
२०३
२४०
४२
९६
४८
४९
४५
६९
४८
४९
१८७
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
११
४९
१६
१२६
८९
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०६
धैवती चाथ नैषादी
धैवत्यां रिमधाः प्रोक्ताः ध्यानमेकाग्रचित्तैक ०
ध्रुवका दिभिरष्टाभिः
ध्रुववीणा स्वरेभ्यो ऽस्यां
ध्रुववीणोपगतयः ध्रुवाश्रुतिषु लीनायां
न
नकारं प्राणनामानं ननु श्रुतिश्चतुर्थ्यादिः
नन्दयन्तीं तु गांधारीं
नन्दयन्त्यां पञ्चमो ऽंशः
नन्दा विशाला मुमुखी
नपुंसकानां सकीर्णाः
नलकानीति तान्याहुः
नव स्नायुशतानि स्युः नष्टतानस्वरस्थानं नागं कूर्म च कुकरं
नादब्रह्म तदानन्दं
नादेन व्यज्यते वर्णः
नादो ऽतिसूक्ष्मः सूक्ष्मश्र
नादोपासनया देवाः
नानाविधा गीतयश्च
नानास्थानेषु संभ्रान्ता
नाभिकंदे वणयोः
नाभिस्थनाडी गर्भस्य
संगीतरत्नाकरः
पुटसंख्या
१६९
१८८
६१
२८८
१७६
७७
७८
६४
८५
१७४
२६४
११२
३७
४७
१२७
४८
१४०
४१
६२
२२
६४
६३
नाभौ दशदलं चक्रं
नामानि षड्जहीनानां
नाशकं प्रथमं तु
निःशङ्कुशादेवेन
निःसार्यते रुजद्गात्रः
निगयोरंशयोः षड्ज •
निद्राऽऽलस्य प्रमादार्ति •
निधनैरष्टकलकं
निर्धार्यते ऽतः श्रुतयः
निर्मर्थ्य श्रीशार्ङ्गदेवः
निर्विकारं निराकारं
निमीलति स्वपित्यात्मा
निलोपनिगलोपाभ्यां
निलोपात्षाडवं सो ऽत्र
निषादो ऽसुरवंशोत्थः
निषादो यदि षड्जस्य
निष्कर्षस्यैव भेदौ द्वौ
नृत्तं वाद्यानुगं प्रोक्तं
नृपामात्यानुसारित्वात् षायां निरिगा अंशाः
नैषाद्यार्षभिकाषड्ज •
नैष्कामिकध्रुवायां च
नौरम्भसि यथा स्नायु ०
न्यासः पञ्चम एव स्यात्
१८
११
न्यासांशाभ्यां तदन्येषां
४१
न्यासादिस्थान मुज्झित्वा
३७ न्यासापन्यासविन्यास ०
पुटसंख्या
५३
१४३
५७
२१
३७
१७७
४०
२७६
८५
१३
२३
४५
२३२
१९६
९६
१४९
१५६
१५
९५
२२०
१७९
१९७
૪૮
२४४
२०६
१९१
१८१
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोकानामर्धानुक्रमणी
पुटसंख्या
पुटसंख्या
२१
१९४
१८९
प पक्काद्भवेदन्नरसात् पङ्क्तिरुष्णिक् च जगती पञ्च पेशी शतान्याहुः पञ्चपाण्यादिषाड्जीवत् पञ्चमं तच्च भूतेषु पञ्चमः पितृवंशोत्थः पञ्चमः षाडवद्वेषी पञ्चमप्रेक्षणगत. पञ्चमर्षभहीनानां पञ्चमस्य प्रेक्षणस्य पञ्चमांशा मध्यमायां पञ्चमांशा सदा पूर्णा पञ्चमीजातिसंजातं पञ्चमीतस्तृतीयायां पञ्चमीमध्यमा षड्ज. पञ्चमो धैवतश्चाथ पञ्चमो मध्यमग्रामे पञ्चविंशतिसंयुक्ता पच्चस्वरा ये चत्वारः पञ्चांशा मध्यमायां पञ्चाशा रक्तगांधारी पञ्चांशा रिधवाः पद्माभः पिञ्जरः स्वर्ण पयस्विनी तु वितता परमः सहजस्तद्वत् परमर्दी च सोमेशः परिवर्ताक्षेपबिन्दू.
परिवर्तो लयस्तेषां ४५ परिसंख्या द्वयोः प्राप्तौ ९६ पर्यायांशे स्थितं तच्च ४८ पलोपात्षाडवं प्रोक्तं २४० पश्रुतिं धो निषादस्तु १९२ पाता मार्गाश्च चत्वारः
९६ पादभागास्तथा मात्राः २०६ पाल्यन्तरितहस्ताभ्यां २४४ पार्श्वयोः पृष्ठवंशस्य
पिङ्गलेडापिङ्गलयोः २५२ पिण्डस्याहुः षडङ्गानि २११ पित्तस्य पञ्च चत्वारः २४८ पीतः कर्बुर इत्येषां २७८ पुंसां शौर्यादयो भावाः
७. पुंस्त्रीनपुंसकानां स्युः १७६ पुण्डरीको ऽश्वमेधश्च ८९ पुनरम्बां च पुनर्गर्भ
, पुनरुक्ता मतास्तानैः १२६ पुरा पुरारिरद्यापि १२४ पूजास्थानं तदिच्छन्ति २११ पूर्णाः पञ्च सहस्राणि १७९ पूर्वः पूर्वः परस्योर्ध्व० २०६ पूर्वयोः पदयोरर्धे ९६ पूर्वादिषु दलेष्वाहुः ६१ पूर्वावनु कलाकाल. ५१ पूर्वाह्नकाले मध्याह्ने १३ पूषासरस्वतीमध्या १५९ पेशीस्नायुसिरासंधि
१४२
१२४
२७८
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०८
प्रतानवत्यः सुषिराः प्रतिजन्म प्रपद्यन्ते
प्रथमादिस्वरारम्भात्
प्रबन्धानां द्विधा सूडः प्रबुद्धं पञ्चमे चित्तं
प्रयत्नो ज्ञानमायुश्र प्रयुज्यते तदा गीतिः
प्रयुज्य मध्यमो ग्राह्यः
प्रयोगे बहुलः स स्यात्
प्रयोज्य पर्य
प्रवर्तयन्ति तत्राद्या
प्रवेशयन्ति चाभ्यङ्ग० प्रवर्तते स्वर्गलोके
प्रश्रयः क्रूरता गर्व ०
प्रसन्नादिः प्रसन्नान्तः
प्रसन्नाभ्यां कफासृग्भ्यां प्रसन्नेन्द्रियताऽऽरोग्य ०
प्रमादस्य कलां गीत्वा
प्रसाधयन्ति धीमन्तः
प्रसारणमितीमानि
प्रस्तारः खण्डमेरुश्च
प्रस्तारश्व प्रसादो ऽथ
प्रस्तारो ऽथ प्रसादः स्यात्
प्राक्पङ्कयन्त्याङ्कसंयोगं प्राग्जन्मबोधसंस्कारात्
प्राणापानधृतित्याग ०
प्राणापानौ तथा व्यान०
प्राप्नोति विकृतौ भेदौ
संगीतरत्नाकरः
पुटसंख्या
४८
२५
११२
२०
"
१००
५२
प्रावेशिक्यां ध्रुवायां स्यात्
प्रीतः कम्बलगानेन
प्रीतिश्च मार्जनीत्येताः
३५
३९
२८६
१४८
फलानि ललना चक्रे
१८१
फलान्येतानि पूर्वादि •
१४८ फलान्युद्यन्ति जीवस्य
५०
१५३
४५
प्रेङ्खनिकूजितः श्येन ०
प्लुतं हस्वं प्लुतं हवं
फ
बन्धनैर्बहुभिर्बद्धा
बलवर्णौ चोपचितौ
बहवो ऽन्तरमार्गत्वात्
बहिर्मलवानि स्युः
૪.
त्वं प्रयोगेषु
१६३ बहुत्वं निधयोरंशः
६१
४०
बिलं च गगनाद्वायोः
ब्रह्मग्रन्थिजमारुत •
ब्रह्मग्रन्थिरिति प्रोक्तं
ब्रह्मग्रन्थिस्थिः सोऽथ
ब्रह्म प्रोक्तपदैः सम्यक्
१८
१५९
१५३
१३५
ब्रह्म ब्रह्माणमसृजम् ३७ ब्रह्मयोनीनीन्द्रियाणि
४१
पुटसंख्या
२२४
२७८
८६
१५९
१५७
५४
५३
५६
४८
३५
२५२
४७
१८१
२४०
४०
१
५८
६४
२७३
२९
३९
५७
११२
८५
ब्रह्मरन्ध्रस्थितो जीवः
४१
ब्रह्मेन्द्रवायुगन्धर्व ०
८९ नृमस्तुर्या तृतीयादिः
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
भ
भट्टाभिनवगुप्तश्च भवन्ति मेदाश्चत्वारः
भवन्त्युपासिता नूनं भानुर्मेधे घनरसं
भावाः स्युः षड्विधास्तस्य
भाषाङ्गाण्यप्युपाङ्गानि
भिद्यन्ते तास्तदा सप्त
भुक्तपीतरसान्सम्यक्
भूमेर्घाणेन्दियं गन्धं
भूरिलध्वक्षरपदा
मेदाः पञ्चदशैवैते
भैरवः कामदाख्यश्च
भ्रूमध्ये त्रिदलं चकं
भौतिकं वेदशब्देभ्यः
म
मतो यात्रिको दुर्गा मदन्ती रोहिणी रम्या मदो मानस्ततः स्नेहः मध्यं चेत्यथ वक्ष्यन्ते
मध्यमध्यममारभ्य
मध्यमः षड्जवद्वेधा मध्यमस्य श्रुतिं प्राप्य
मध्यमस्यापि गपयोः
मध्यमादिरिह ज्ञेया मध्यमे स्यात्तु सौवीरी
52
लोकानामनुक्रमणी
पुटसंख्या
१३
१७१
६३
३१
३८
१९
४९
४२
२८५
१७१
१४४
" मन्द्रः परस्ततस्तारः
५५
२९
१२
८६
* *
मध्यमे सप्तकेशः स्यात्
मध्यमो ऽंशो प्रहो न्यासः
मध्यमो ऽंशो निरिगपाः मध्यमोदीच्यवेत्येताः
मध्यमो रक्तगांधार्या मध्यस्थानस्थषड्जेन मध्यस्थानस्थितादंशात् मध्ये कुद्दूयशस्विन्योः
मनवेल्लीयते प्राणे
मन्दा च रतिका प्रीति:
१०५
८९
मयूरचातकच्छाग ०
५४ महाभूतान्यमून्येषा
"
१४९
२३२
१०४
मन्द्रः प्रकरणे ऽत्र स्यात्
मन्द्रतार प्रसन्नाख्यं
मन्द्रद्वयात्परे तारे
मन्द्रर्षभस्य बाहुल्यं
मन्द्रस्तारस्तु दीप्तः स्यात
मन्द्रादष्टममुत्प्लुत्य
मन्द्रादिर्मन्द्रमध्यश्च
मन्द्रे प्रसन्नमध्याख्यं
४३ मागधी प्रथमा ज्ञेया
मागधी संभाविता च
मातुर्यद्विषयालाभः
मातू रसवहां नाड
मातृजं चास्य हृदयं
मात्राभिरष्टभिर्युक्तं
मार्गाः क्रमावित्रवृत्ति •
४०९
पुटसंख्या
१८४
२७६
"3
१७५
१८८
१०५
१८६
६०
૪૬
८६
१५३
33
१६७
१५३
२६४
१५३
१६६
१५९
१५५
९१
२८
२८.
२७१
३४
३६
३४
२८६
२७१
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
संगीतरनाकरः
पुटसंख्या
पुटसंख्या
मार्गो देशीति तद्वेधा माहिषे शुकरक्ताक्षं मिथः संवादिनौ तौ स्तः मिथश्च संगतास्ते स्युः मुखेन्दुना ऽष्टमी त्वस्यां मूत्रस्य चाश्रयाः सप्त मूर्च्छनाः कूटताना स्युः मूर्च्छना तावतिथ्येव मूर्च्छना धैवतादि: स्यात् मूर्छना पच्चमादिश्च मूर्च्छना मध्यमादि: स्यात् मूर्च्छनादि तु पूर्वावत् मूर्छनादेः स्वरात्तुर्य मूर्छनादेः स्वराद्यत्र मूर्छनेत्युच्यते ग्राम मूर्छनोत्तरवर्णा ऽऽद्या मूलक्रमकमात्पृष्ठे मृदवः शोणितं मेदः मृदुर्मध्या ऽऽयता ख्या च मेधावितां तथा ऽऽदत्ते मैत्री चान्द्रमसी पित्र्या मोक्षोपायमभिध्यायन्
१५८
१४ यत्रर्षभो इंशो ऽपन्यासः ३४ यत्र खरद्वयं गीत्वा
१६४ ९२ यत्राद्यः स्याद्विद्वितीय.
१६५ २२८ यत्रायपञ्चमौ गीत्वा २३० यत्रान्यास्तादृशः स स्यात् १६३ यत्राल्पा: सरिगा लोपात्
२७६ ११७ यत्रासौ क्रम इत्युक्तः
१६३ ११२ यत्रैकैकोज्झिता गीताः १६२ २०६ यत्रैकोत्तरवृद्धाभिः
१५७ २०३ यद्यज्ञनामा यस्तानः
१४५ २४८ यदा ऽऽरोहे ऽवरोहे च १६५ २१४ यदा तदा प्रसादं तं
१६१ १६२ यदा तदा संप्रदानं
१६७ १५६ यदाद्यायनिरावृत्तः १०४ यदान्दोलितमारोहेत् ११२ यदा वर्षति वर्षेण १३० यद्वा धस्त्रिश्रुतिः षड्जे १०० ३८ यद्वा यथाक्षरे युग्मे
२८६ ८५ यस्मादामविभाग.
२ यस्मिन्धाइजीकपालं तत् २७५ ११२ यस्यां यावतिथौ षड्ज.
११२ ३६ यासां नाम स्वरो न्यासः युगं तादृक्समारोहेत्
१६० युग्ममेकान्तरितयोः
१६७ १८१ येषामाद्यन्तयोरेकः ।
१५३ ११२ यैर छैनष्टसंख्या स्यात्
१० योक्का ऽस्माभिः कला संख्या . २७२ २७७ योगानन्दश्च तत्र स्यात्
१
१
१६९
यः खयं यस्य संत्रादी यक्षरक्षो नारदाब्ज. यज्वभिर्धर्मधीधुर्यैः यत्र ग्रहो ऽशो ऽपन्यासः
१४०
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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--------------------------------------------------------------------------
________________
यो द्विजेन्द्रैरलंचके
यो रक्तिव्यञ्जको गेये
यो मार्गितो विरिच्याद्यैः
यो विदारी भागरूप •
यौवने ताः प्रवर्धन्ते
रक्तश्लेष्मामपित्तानां
रक्तस्याष्टौ पुरीषस्य
रतिलाभः स्वरज्ञानं
र
रजनीति समाख्याता
रञ्जितो ऽथ भवेदेषः
रम्या च क्षोभिणीत्या सां
रसजा आत्मजाः सत्व ०
रसनं घ्राणमित्याहुः
रागा जनकजातीनां
राजसः षड्विधो यश्च
रिगधन्यादयो ऽष्टौ स्युः
रिधयोः संगतिज्ञेया
रिधयोरेव वा स्यातां
रिधाभ्यां द्विश्रुतिभ्यां च
रिधौ तु क्षत्रियौ यो
रिपावंशौ तु पञ्चम्यां
रिपौ गांधारपञ्चम्यां
रिमतिक्रम्य सगयोः
रिमयोः श्रुतिमेकैकां
रिमयोः संगतिर्गच्छेत् रिरल्पो निपबाहुल्यं
श्लोकानामर्धानुक्रमणी
पुटसंख्या
१०
१८१
१४
१८९
૪૮
रिलोपरिधलोपाभ्यां
रिलो परिधलोपेन
रिलोपात्षाडवं ज्ञेयं
रिवर्ज्याः षट् च कैशिक्यां रुदन्गीतामृतं पीत्वा रुद्रटो नान्यभूपालः
रोमकूपेषु सत्य सां
४५ रोहिताभिधमत्स्यस्य
५०
रौद्री क्रोधा च गांधारे
१६८
११२
१६४
८६
३८
३९
२७५
४३
१२२
ल
लक्षद्वयं सहस्राणि
लक्षत्रयं सप्तदश
लक्षाणां संहितामानं
लक्ष्म शेषं विजानीयात्
लज्जा भयं घृणा मोहः
ललनाssख्यं घण्टिकायां
लीयन्ते हृदि जागर्ति
२३६
लुब्धो लुब्धकसंगीते
९२ लूतेव तन्तुजालस्था
११५
९६
२१३
१८८
२४०
१००
२१३
२४४
लोष्टचालनमन्त्यात्स्यात्
लोष्टाक्रान्ताङ्कसंयोगात् लौल्यप्रणाशः प्रकटः
वचनं विधिरप्राप्तौ
वचनादानगमन ०
वसो व्यवहारो ऽयं
४११
पुटसंख्या
२०६, २४०
२४४
२३६
१८८
१६
१३
५०
**
८६
११८
१२७
५०
२४८
५३
५४
४६
१६
५८
१३७
11
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
५३
१९४
३९
२२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
संगीतरत्नाकरः
पुटसंख्या
पुटसंख्या
१२
१५२
१४२
१३४
१४४
वनस्पत्योषधीर्जाताः
३१ विशाखिलो दत्तिलव वने चरस्तृणाहारः
विशिष्ट वर्णसंदर्भ वर्णाद्यलंकृतागान.
विशुद्धेरष्टमादीनि वलयानि कपालानि
विश्वजिद्रह्मयज्ञश्च वसाया मेदसो द्वौ तु
विश्वोदरा मध्यदेशे वहिब्रह्मसरस्वत्यः
९६ विश्वोदरा शङ्खिनी च वहिर्वेधाः शशाङ्कश्च
विहाय श्मश्रुदन्तादीन् वाकराज्रिगुदोपस्थान्
वीणाद्वये स्वराः स्थाप्याः वाग्गेयकारो गान्धर्वः
वेद्यतानस्वरमितान् वातं पित्तं कर्फ रक्तं
४९ वैनतेयोच्चाटनौ च वातादिधातुप्रकृतिः
व्यक्तये कुर्महे तासां वान्ति यान्त्युडवो ऽत्रेति
व्यवहारे त्वसौ त्रेधा वामपार्थस्थिता नारी
व्याख्यातारो भारतीये वायुर्विश्वावसू रम्भा
१२ व्यानो अक्षिश्रोत्रगुल्फेषु वायोधूमं ततश्चानं वारुणश्चाथ कौबेरः वार्तिके द्विगुणा झेया
२७२ शक्त्या सुजन्नभिन्नो ऽसौ विकृता एव तत्रापि
१७७ शङ्खचूडो गजच्छायः विकृता न्यासवर्जेतत्
१७० शङ्खनाभ्याकृतिर्योनिः विकृतानां तु संसर्गात् १७३ शलिनी सव्यकर्णान्तं विदार्यो बहुलौ यस्मात्
१८१ शतानि सप्ताष्टषष्टया विनियोगश्च षाड्वीवत् २१६ शब्दं श्रोत्रं सुषिरता विनियोगो द्वादशात्र
शब्दः स्पर्शस्तथारूपं विनियोगो ध्रुवागाने २०६, २११, शब्दं रूपं रसं गन्धं
२३६, २६४ शब्दोच्चारणनिःश्वास० विप्रकीर्णास्ततच्छाया.
२० शरीरं नादसंभूति: विमुञ्चतो द्वे स्रोतांसि
शरीरोपचयो वर्णः विवादी विपरीतत्वात्
९३ शाश्वताय च धर्माय
१४४
४८
20
०
०
०
>
V
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुक्लर्तवप्रवेशिन्यः शुद्धजातिसमुद्भूत•
शुद्धमापीतरक्तं च
शुद्धषड्जा मत्सरीकृत्
शुद्धाः स्युर्जातयः सप्त
शुद्धार्तवाया योषायाः
शूद्रावन्तरकाकल्यौ
शून्यादधो लिखेदेकं
शेषाः स्युर्मध्यमग्रामे शेषाणामनुवादित्वं
शैत्यं स्नेहं द्रवं स्वेदं
शैलेऽक्षराभ्यां प्रथमा
श्मश्रुकेशनखं दन्तान्
श्मश्रुलोमकचाः स्नायु •
श्रवणे नयने नासे
श्रीमत्सिङ्घणदेव एव श्रुतयो द्वादशाष्टौ वा
श्रुतिद्वयं चेत्षड्जस्य श्रुतिद्वयलयादस्यां
श्रुतिद्वाविंशतावेवं
श्रुतिभ्यः स्युः स्वराः षड्ज० श्रुतीनां पञ्च तासांच
श्रुत्यनन्तरभावी यः
श्रोत्रयोः शब्दवाहिन्यां
षट् कूर्चाः करयोरङ्घ्रयोः षट्पञ्चाशच्छतं च स्युः
लोकानामधानुक्रमणी
पुटसंख्या
re
२७५
३६
१०४
१६९
३१
९६
१३५
१७५ षङ्ग्रामे पृथक्तानाः
९३
षड्जग्रामे मूर्च्छनानां
४२
२३०
४३
३८
षट्पञ्चाशन्मूर्च्छनास्थाः षट्स्वरं तेषु जातत्वात्
षडन्यास्तदधो ऽधःस्थ ०
वन्ति प्रयोगं ये
७७
षड्जः प्रधानमाद्यत्वात्
षड्जकाकलिनौ यद्वा
षड्जगाः सप्त हीनाश्चेत्
षड्जग्रामः पञ्चमे स्व•
४७
षड्जादेः शुद्धमध्यायाः
१० षड्जाद्यौ मध्यमाद्यौ च
"
९२
षड्जेतूत्तरमन्द्राऽऽदौ
१११ षड्जो प्रहो ऽंशो ऽपन्यासः
षड्जोदीच्यवतीं जातिं
७८
षड्जमध्यमबाहुल्यंं षड्जर्षभौ भूरितारौ
षड्जस्थान स्थितैर्न्याद्यैः
षड्जादीन्मध्यमादींश्च
षष्ठे ऽस्थिस्नायुनखर
षष्ठे नानाविधं वाद्यं
८५
षाडवं षड्जलोपेन ८२ षाडवौडुवयोः स्यातां ४९ षाडवौडवलङ्घया स्युः षाडवौडुविते क्वापि
saौडुविद्विष्टः
४७
षाजिका मध्यमाभ्यां तु
३२ षाड्जी गांधारिका तद्वत्
४१३
पुटसंख्या
११८
१९१
१०५
१९१
१०२
१४८
११५
९९
११५
११२
२११
२२८
१०५
१०७
१२३
१२१
१०४
२७५
१७४
३५
२१
२०३, २६०
२३२
२२०
१८०
२४४
१७४
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"
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--------------------------------------------------------------------------
________________
संगीतरत्नाकरः
पुटसंख्या
पुटसंख्या
१११ १६५ १६८ १९६
षाड्जीगांधारिकायोगात् पाजी च नन्दयन्स्यान्ध्री पाइजीत्येताश्चतस्रः स्युः पाड्जीवद्गीततालादि षाड्जीवत्पञ्चपाण्यादि षाड्या इव कपालं तत् षाच्यादीनां तु सप्तानां षाज्यामंशाः स्वराः पञ्च पाडज्यापभी च गांधारी
mm
१६९
१८८ ११५
२८४
१७३ स काकली मध्यमस्य १७५ सकृत्कलान्याश्चैकैक. १७९ सकृद्रायेद्यत्कलायां २२८ सगयोः सधयोश्चात्र २४४ स चेदुपरि तत्पूर्व: २७६ सतृतीयपदे तेच १८७ सत्त्वं रजस्तम इति १९६ सत्वात्तु राजसादावाः
सदाशिवः शिवा ब्रह्मा सनिपाः षड्जकैशिक्यां सपाभ्यां द्विश्रुतिभ्यां च
सप्त क्रमाद्यदा तानाः २३२ सप्तत्रिंशत्परे ते च २६. सप्तधा सात्त्विको यश्च १४४ सप्तमे नर्तनं नाना. १४३ सप्त स्युस्तत्र चोक्का त्वक्
८५ सप्तांशा सूरिभिः षड्ज. १५९ समयः प्रसवस्य स्यात् १८९ समानं गानमार्यास्तत् १७१ समानो व्याप्य निखिलं १९३ सरस्वती कुहुश्चास्ते १७५ सरस्वत्यूर्ध्वमाजिहं २८. सरी वीरे ऽइते रौद्रे २८८ सणामयनः षष्ठः ९३ सर्वजातिषु जानीयात् ८५ सर्वशक्ति च सर्वज्ञ २५ सर्वस्वदक्षिणो दीक्षा ३ सर्वे चतुरशीतिः स्युः
३६
संक्षेपितपदा भूरि. संगच्छन्ते निरल्पो इंशात् संगतियासपर्यन्तं संज्ञा निषादगांधार. संज्ञा निषादहीनानां संदीपनी रोहिणी च संनिवृत्तप्रवृत्तो ऽथ संन्यासो ऽशाविवायेव संपूर्णत्वग्रहांशाप. संपूर्णत्वदशायां स्तः संपूर्णषाडवाः प्राह संभाविता च पृथुला संभाविता भूरि गुरुः संवादी त्वनुसारित्वात् संस्थिता करुणा मध्या स आत्मा परमात्मा च स एव द्विगुणस्तारः
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श्लोकानामर्धानुक्रमणी
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पुटसंख्या
पुटसंख्या
११
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सविंशतिः सप्तशती सविंशतौ शते तैश्च सविनोदैकरसिकः सव्यदक्षिणनासाऽन्तं सहवासप्रिया शश्वत् सहस्रांशुरिति प्रोक्ताः सहार्तवेन शुद्धं चेत् सा कला ऽन्याश्च तादृश्यः सा द्वितीया पञ्चमाद्याः साधारणं भवेद्वेधा साधारणं मध्यमस्य साधारणः काकली हि साधारणे काकलीत्वे साधारणे कैशिके ते साधारणे त्रिःश्रुतिः स्यात् साधारणे श्रुतिं षाड्जी माधारण्यमतस्तस्य सान्तरस्तद्वयोपेताः सामगीतिरतो ब्रह्मा सामवेदादिदं गीतं सामुद्रा मण्डलाः शङ्ख सार्धकोटित्रयं रोम्णां सार्धानि स्युर्नवशती सावित्री चार्धसावित्री सिराधमनिकानां तु सीमभूताश्च धातूनां सीवन्यः पञ्च शिरसि सुखं दुःखं च विषयौ
१२१ सुखदुःखप्रदैः पुण्य. १२२ सुषिरं स्यादधो वक्त्रं
सुषुप्तिरत्र तृष्णा स्यात्
मुषुम्णां परितो नाज्यः ११ सुषुम्णा तिसृषु श्रेष्ठा
सुषुम्णया ब्रह्मरन्ध्र ३१ सुषुम्णेडा पिङ्गला च १६५ सूक्ष्म लिङ्गशरीरं तत् १५५ सूक्ष्मभूतेन्द्रियप्राण. १४७ सूर्यकान्तो गजकान्तः १४९ सृजत्यविद्ययेत्यन्ये १४७ सैका कला ऽथ चेन्मध्ये ८८ सो ऽयं प्रकाशते पिण्डे
सो ऽत्यल्पो ऽष्टकलं तत्स्यात् ८९ सो ऽपि रक्तिविहीनत्वात् ८८ सो न्यासो मधगांधाराः १४७ सौत्रामणी तथा चित्रा १०७ सौभाग्यकृच्च कारीरी १६ स्तो धैवत्यां रिधावंशी १५ स्त्रीणां त्रीण्यधिकानि स्युः ४८ स्थाप्यस्तन्त्र्यां तुरीयायां ५. स्थाय्यारोह्यवरोही च ४८ स्थायी वर्णः स विज्ञेयः १४३ स्थित्वा स्थित्वा प्रयोग: स्यात् ४८ स्थित्वा स्थित्वा स्वरैर्दीधैः ४४ वायुः स्रोतांसि रोहन्ति ४७ स्पर्शनं शब्दबोधध ३९ स्मरन्पूर्वानुभूताः सः
२७७ १४३ १४४
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________________ संगीतरत्नाकरः पुटसंख्या पुटसंख्या 39 स्वाधिष्ठानं लिङ्गमूले 156 स्वाहाकारस्तनूनपात् 104 स्वाहा नमो ऽमृतं सप्त 173 स्विष्टकृच्च वषट्कारः 69 स्विष्टकृद्वहुसौवर्णः 12. स्वेदं समर्पयन्त्यष्टौ 16. स्वेदोद्भेदजराय्वण्ड. 112 स्वोपान्त्यतन्त्रीमानेयाः स्वोपान्त्यश्रुतिसंस्थे ऽस्मिन् 143 54 144 142 ह 129 स्मृतिभ्रान्तिविकल्पाद्याः स्यातां विस्तीर्णनिष्कर्षों स्यात्कलोपनता शुद्ध स्यात्षड्जकैशिकीषड्ज. स्यान्निरन्तरता श्रुत्योः स्युः षाडवानां विंशत्या स्युः संचारिण्यलंकाराः स्युरिमा मध्यमग्राम स्रोतः सिरा श्मश्रुकेशैः स्वतो रञ्जयति श्रोतृ. स्वप्नो रसोपभोगश्च स्वमपीतः परात्मानं स्वरं द्वितीयमुज्झित्वा स्वरद्वयं समुच्चार्य स्वरसाधारणं प्रोकं स्वरसाधारणं तत्र स्वरांश्चतुर आरोहेत् स्वरान्मूलक्रमस्यान्त्यात स्वराणां बहवो मेदाः स्वराणां या विचित्रत्व. स्वरैरेकोतरं वृद्धैः स्वरैश्च पार्वतीकान्तः स्वस्वकोशामिना पक्कैः स्वातिर्गणो बिन्दुराजः 61 105 115 46 हते पूर्वेण पूर्वेण 161 हसितप्रेलिताक्षिप्त. 158 हस्तिजिह्वा सर्वगा तु 176 हारिणाश्वादिका गाद्यैः 147 हास्यं रोमाञ्चनियमः 184 हीनाश्चतुर्दशैव स्युः 137 हुंकारो ह्रादमानश्च 278 हृझूलनाडीसंलग्ना 191 हृन्नाभीत्येवमाद्यास्तु 165 हृष्यकेत्यथ तासां तु 276 हेमन्तप्रीष्मवर्षासु 45 ह्रस्वैः स्वरैः सनिष्कर्षः 13 हादमाने प्रसन्नान्ताः 104 1.2 157 165 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute