Book Title: Kalplatavatarika
Author(s): Amrutsuri
Publisher: Jain Sahityavardhak Sabha
Catalog link: https://jainqq.org/explore/004491/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवृद्धि-नेमि-अमृत-ग्रन्थमाला, ग्रन्थाङ्कः = 34 श्री कल्पलता व तारि का - रचयिता - शास्त्रविशारद-कविरत्न-पीयूषपाणिभट्टारकाचार्यप्रवरश्रीविजयामृतसूरीश्वरजिन महाराजा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री-वृद्धि-नेमि-अमृत-ग्रन्थमाला=अन्थाङ्कः 34 अहम् श्री कल्पलतावतारिका [सा चेयम् आचार्यपुरन्दरश्रीहरिभद्रसूरीश्वरोपज्ञ-शास्त्रवातासमुच्चय-तदीयमहोपाध्याय-श्रीयशोविजयजिद्गणिराजरचित-स्याद्वादकल्पलतावृत्तिरूपमहाग्रन्थद्वयंप्रवेशाय शास्त्रविशारद-कविरत्न-पीयूषपाणिपूज्यपादाचार्यश्रीविजयामृतसरिवरै रचिता ] - प्रकाशिका - श्री जैनसाहित्यवर्धक सभा शिरपुर (पश्चिम खानदेश) श्री वीर नि. संवत् / 2484 मूल्यम् रूप्यकाणि पश्च, 5) विक्रम संवत् / / 2014 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक:-. श्री जैनसाहित्य-वर्धक सभा, श्रेष्ठि चम्पालाल देवचन्द शिरपुर (प० खानदेश) - प्राप्तिस्थान - . [1] श्री अमृतसूरीश्वरजी ज्ञानमन्दिर, ... दौलतनगर, बोरीवली (पूर्व) [2] [3] श्री सरस्वती जैन पुस्तक भण्डार, शाह बालूभाई रुगनाथ, पण्डित भूरालाल कालीदास अम्बाजी वड पासे झवेरीवाड, अहम्मदाबाद... भावनगर (सौराष्ट्र ) मुद्रक:-- पं० परमेष्ठीदास जैन जैनेन्द्र प्रेस, ललितपुर (उ० प्र०) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय आ पुस्तकनी महत्ता तथा उपयोगिता साथेना परिचयमा सुन्दर समजावी छे. अमने तो आवा गौरवान्वित ग्रन्थ प्रकाशन _ करवा गौरव प्राप्त थयुं छे, एज महत् पुण्य समजाय छे, आ प्रकाशनमा अनेकनी सहाय उपयुक्त बनी छे - ते सर्वनो अमे हार्दिक आभार मानीए छीए. आ प्रसंगे अमोने सं०.१९९७ मां पूज्यपाद आचार्य महाराजश्रीए अत्रे करेल चातुर्मास याद आवे छे. ते वृत्तान्त अमोए 'इन्दुदूत' खण्डकाव्य पुस्तकमा जणाव्युं छे. आ समानी उपस्थिति ते प्रसंगे थई छे. आवा प्रकाशनो अनेक अमारे हाथे थाय एवी अभिलाषा साथे ए . प्रकाशनोथी विश्व सन्मार्गाभिमुख ...बने एम. - इच्छीए छीए. -प्रकायक। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय आत्मा अनन्त ज्ञानादि गुण युक्त छे, परन्तु अनादिकाळ्थी कर्मना सम्बन्धने कारणे ए जड जेवो, पराधीन, दु:खी अने अबळ भासे छे. आत्माने कोई कोई समय कर्मनुं बळ ओछं थतां निजगुणनी झाँखी थाय छे-पोताना ए विशिष्ट गुणोनो आछो अनुभव पण तेने कोई अपूर्व आनन्द उपजावे छे. एवा अनुभवोनी सरवाळो बधतां-आत्माने निजगुणो प्राप्त करवा अने प्राप्त गुणो कायमी स्थिर रहे, ए माटे प्रबळ इच्छा जागे छे. आत्मानी ए अभिलाषा सफळ थाय ते माटे अनेक आत्माओए विविध प्रकारे मार्गदर्शन कराव्यु छे. आत्मा ए भिन्न भिन्न मार्गे धीरे धीरे आगळ वधतो जाय छे-पण तेने कोई एवो मार्ग नथी मळ्तो के जे मार्गे पागळ वधता ते पूर्णताने प्राप्त करे, एवो मार्ग नथी एम नथी, पण तेनी प्राप्ति सुलभ नथी. एवा शुद्धमार्गने दर्शावनारा करतां ऊंधे मार्गे दोरी जनारा विश्वमा घणां होय छे, एथी पण शुद्धमार्गनी प्राप्तिमां विषमता वधे छे. आ स्थितिमां शुद्धमार्गर्नु स्पष्ट दर्शन कराववा माटे श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराजे प्रबळ पुरुषार्थ कर्यो. मार्ग-उन्मार्ग अने कुमार्गर्नु दर्शन करावतो तेओश्रीनो 'शास्त्रवार्ता-समुच्चय' ग्रन्थ ते पूज्यश्रीना प्रबळ पुरुषार्थनी साक्षी पूरतो चिरंजीव जीवे छे. तेश्रोश्रीना विरचित अनेक प्रन्थो छे, पण आ ग्रन्थर्नु महत्त्व कोई जुदुज छे. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [5] प्रस्तुत ग्रन्थ 701 श्लोक प्रमाण छे, तेना पर सबा.बे हजार श्लोकप्रमाण स्वोपज्ञवृत्ति छे. ते ग्रन्थ वि० सं० 1985 मां मुंबईगोडीजी जैन उपाश्रये प्रसिद्ध कर्यो छे. आ ग्रन्थ ऊपर महोपाध्याय श्रीयशोविजयजीमहाराजे सङ्क्रयाबंध दार्शनिक शास्त्रार्थोथी भरपूर 'स्याद्वादकल्पलता' नामे लगभग पन्दर हजार श्लोकप्रमाण विस्तृत वृत्ति रची छे. ए ग्रन्थ संवत् 1670 मां श्रेष्ठि देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धारना 16 मां ग्रन्थाङ्करूपे प्रकट थयो छे. मूळ ग्रन्थकर्ताए सातसो ये श्लोको एक साथे राख्या छे-तेमां ते ते दर्शननी मीमांसानी शरूपात तथा समाप्ति समजी शकाय छे, पण श्लोकाङ्क जूदा कर्या नथी. ज्यारे पूज्य उपाध्यायजी महाराजे ते ते दर्शनोनी विविध विचारणाने अनुरूप विभागो करीने ग्रन्थने 11 स्तवकमां विभक्त कर्यो छे. तेमां स्तवकदीठ श्लोकसंख्या आ प्रमाणे छ :1-112, 2-81, 3-44, 4-137, 5-36, 6-63, 7-66, 8-10, 6-27, 10-64, अने 11-58, एम सर्व मळीने 701 थाय छे. . पूज्य उपाध्यायजी महाराजनी वृत्ति विशिष्ट होवा छतां दार्श. निक विचारोना गंभीर समागमरूप होवाने कारणे तेना वाचनअध्ययन माटे विशिष्ट योग्यतानी आवश्यक रहे छे. एथीज एना मुद्रण पछीथी पण तेनो उपयोग करनारा गणत्रीना नीकल्या छे. भंडारोमा केटलीक प्रतिश्रो पत्रो तेनी यथावत् स्थितिमा रह्या होयएवी पडी छे. या धृत्तिमा प्रवेश करवा माटे जो काइक प्रयत्न करवामां आवे तो तेनो उपयोग वधे एवा श्राशयथी प्रस्तुत 'कम्पलतावतारिका' रघवामां आवी छे. आ वृत्तिमां स्तवकना Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [6] विभागो स्वीकार्या छे. ज्यारे प्रथम अमे स्याद्वादकल्पलता वांची त्यारे तेमा आवता प्रासंगिक सूक्तोए अमारा चित्तनुं खूब आकर्षण कयु हतुं. ते सूक्तोने जूदा तारवीने तेने सटीक करवा-अने ए द्वारा कल्पलतामा प्रवेश थाय एवो प्रयत्न करवो ए प्रमाणे विचार को हतो. ए विचारने अनुसार सूक्तोने पृथक् तारवीने ढूंक आलेखन कर्यु हतुं. पण पछीथी जे रूपे आ प्रसिद्ध थाय छे ते प्रकारर्नु लेखन व्यवस्थित करवामां. ते ते सूक्तो साथे मूळ्यन्थना उपयुक्त श्लोको अने प्रासङ्गिक दार्शनिक विचारो पण उमेर्या; एम करवाथी स्याद्वादकल्पलतामा प्रवेश करवानुं सुलभ थशे- ए स्पष्ट छे. १-स्तवक:-प्रारम्भमां ग्रन्थकार अने वृत्तिकारना माल वगेरे विषयोने वर्णवता विशद सूक्तो छे, तेमां पण ऐन्द्रश्रेणिनताय' ए कल्पलताकारनो मङ्गलश्लोक उदात्त अने प्रासादिक छे, जे कण्ठस्थ कर्या बाद वारंवार पाठ करवानुं मन थया करे एवो छे. मूळ्यन्थ मङ्गलश्लोक परनी लतामा मङ्गलवादनी विधारणा सूक्ष्म अने नवीन तर्कयुक्तियोथी भरपूर छे, केटलीक युक्तियो तो अहीज जोवा मळे छे. द्वितीय श्लोकमां मोक्षपुरुषार्थनी सिद्धि छे. शास्त्रवार्ताना-बीजा श्लोकथी 26 मा श्लोक सुधी सुन्दर उपक्रम को छ, जे उपदेशरूपे पण उपयोगी छे, तेमांथी चार श्लोक नहीं उधृत कर्या छे. __30 मा श्लोकथी चार्वाक (नास्तिक) मतनो प्रारम्भ थाय छे. चार्वाको आत्माने मानता नथी, शरीरादिमां-जे चैतन्य जणाय छे ते पृथिवी मादिना संयोगथी जन्मे छे अने ते महाभूतो विखराता चैतन्य नाश पामे छे. प्रत्यक्ष सिवाय अन्य कोई प्रमाणने चार्वाको Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [7] . मानता नथी: जो केवळ प्रत्यक्षज प्रमाण मानवामां आवे अने अनुमान-आगम आदिने प्रमाणस्वरूपे स्वीकारवामां न आवे-तो व्यवहारमा पण भनेक अपरिहार्य दोषो आवे, ए माटे अनुमानादिने प्रमाण मानवा आवश्यक छे. आ चर्चामां प्रासङ्गिक अन्धकारने स्वतंत्र द्रव्य नहिं माननारा नैयायिकनी पण सारी खबर लई लोधी छे. नैयायिकना वचमां प्रवेश माटे जणाव्युं छे जे-'पारकी वातमां माथु मारीने विलम्ब करावता नैयायिकने शुं यथार्थ शास्त्रथी संस्कारितमतिवाळो हुँ शिक्षा न करूं ! अर्थात् करूंज. - लताकारनो ए श्लोक आ प्रमाणे छे:'यथा कथायां प्रविशन् परस्य, नैयायिकः कारयति प्रतीक्षाम् / तथा यथार्थागमबद्धबुद्धिर्दास्यामि मास्यापि किमेष शिक्षाम् // 1 // . .. आम नैयायिकने चूप करीने तर्क-युक्ति-प्रमाणथी आत्मा छे ए सिद्ध कयुं छे. आत्मसिद्धि थई एटले पराजय पामेला चार्वाकर्नु वदन शोकथी श्याम पडी गयुं छे-खरी वात जणावता जूठाजनने दुःख थाय एथी शुं ? ए प्रमाणे चार्वाकमतनो.उपसंहार करतां लताकारनो नानो पण ध्वनिभर्यो श्लोक स्मरण राखवा जेवो छे, ते भा आत्मसिद्धः परं शोकाल्लोका: ? लोकायताननम् / ... - समालोकामहे म्लान, तत्र नो कारणं वयम् // 2 // चार्वाकनी चर्चाना अनुसन्धानमा ज धर्माधर्म-पुण्यपाप कर्म वगेरे शब्दोथी समजाता अदृष्टनी सिद्धि साधी छे. ए प्रमाणे प्रथम रसवक परिपूर्ण कर्यो छे. . २-स्तवक-आत्मा अने अदृष्ट सिद्ध थया एटले विश्वतन्त्रना सञ्चालक वे महत्त्वना अङ्ग सिद्ध थया. विश्वतन्त्रर्नु Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [8] . सञ्चालन कोण करे छे ? भने केवी रीते करे छ ? ए सम्बन्धमा जुदा जुदा दार्शनिको निज मति प्रमाणे अनेक विचारणा करे छे, अने छेवटे थाकीने कोई एक तत्त्वने आगळ करीने तेमां मतिने विश्राम करावे छे. काळ-स्वभाव-नियति-कर्म अने पुरुषार्थ एम पांच विश्वतन्त्रना सञ्चालक छे. (1) काळ-जगत् कानाधीन छे, कोई कार्य एवं नथी के अनु सञ्चालन काळ न करतो होय. काळ वस्तुने जन्म प्रापे छे, काळ वस्तुने फेरवे. छे अने काळ वस्तुने नष्ट करे छे. जिनपति-नरपति वगेरे पण काळे थया अने काळे गया, ऋतुना फेरफारो कान्नु महत्त्व जणावे छे. आरानी व्यवस्था भने युगनी विचारणा कानधीन छे ए स्पष्ट छे. बाल्यादि अवस्थामां काळ प्रधान छे. श्राम केटलाक दार्शनिको काळ्ने सर्व कार्यनो कर्ता मानीने विरमी नाय छे. . . ___(2) स्वभाव-स्वभाव, प्रकृति एज सर्व कार्य करे छे एम माननारा कहे छे-के गमे तेटलुं करो पण जेनो जेवो स्वभाव होय एवुज कार्य थाय छे, कलाको सुधी अग्नि उपर राखो पण कोरडु मग सीझशे नहिं कारणके तेनो ते स्वभाव नथी. माटीमाथी घट थाय छे अने वस्त्र तन्तुओथी थाय छे, ते स्वभावने कारणेज. मोरना पीछाने कोण चीतरे छे ? स्त्रीने दाढीमूछ केम ऊगता नथी ? हथेलीमां के कपाळमां वाळ केम नथी ? पक्षीमो आकाशमां अविरत ऊडी शाथी शके छ ? माछलीश्रो शाथी पाणीमा विहरे के ? आ सर्व स्वभावाधीन छे. ए प्रमाणे स्वभावषादी सर्वत्र स्वभावने ज भागळ करे छे. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ] - (3) नियति-नियति, भवितव्यता, भाविभाव, जे थवार्नु होय तेज थाय, इत्यादि विचार धरावनारा कार्यमात्रमा नियतिने कारण माने छे. गमे तेटलुं करवामां आवे पण होनहार मिथ्या थाय नहिं, ए एमनो मुद्रालेख छे. कोई पण कार्य माटे नियतिवादीने पूछो तो कहेशे के ए तो एमज थवानुं हतुं, कार्य न थाय तो कहेशे. के एतो थवानुज न हतुं, ए रीते भवितव्यतावादीओ मतिनो सर्व निचोड भवितव्यताने अर्पण करी दे छे. (4) कर्म-कर्म, भाग्य, अदृष्ट, पुण्य-पाप, पूर्वकृत वगेरे समानार्थक शब्दो छे. कर्मवादीओ कमवश कार्यमात्र थाय छे, कर्मथी दुःखी सुखी बने छे .अने सुखी दुःखी थाय छे. रक राजा थाय अने राजा रङ्क बने, ए कर्मनी बलहारी छे. कर्म नचावे ए प्रमाणे सर्वे नाचे छे. श्राम कर्मवादीओ कर्मनेज प्रधान माने छे. (5) पुरुषार्थ-यत्न, उद्यम, पुरुषार्थनेज कार्यमां कारण माननारा कहे छे के काळ-भाविभाव-स्वभाव के कमने आगळ करीने हाथ जोडीने बेसी रहेQ ए•मूढता छे. असाध्य पण प्रयत्नथी साध्य बने छे. कल्पनामां पण न आवी शके एवा क यो उद्यमथी सिद्ध थया छे, ए हकीकत छे. इत्यादि कहीने उद्यमवादीओ पुरुषार्थ उपरज निर्भर रहे छे. ___ काळादि पांचेमा आंशिक कर्तृत्व छे अने पांचे एकत्रित थाय त्यारेज तेमां पूर्ण कर्तृत्व छे ए सिद्धान्त छे. कोई पण कार्यने सूक्ष्मदृष्टिए विचारतां तेमां पांचेनो यथायोग्य अंश स्पष्ट जणाशे. - केरी आपवानो स्वभाव आंबानो छे-लिंबडामा केरी आवती नथी. आंबो पण योग्य काळे फळे छे. फळेला आंबामां पण भवितव्या-... Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [10] नुसार मंजरी आदि आवे छे, पूर्वकृत सुकृतानुसार फळरूपे ते परिणमे छे. अने उद्यम न करवामां तो कांई पण ऊपजतु नथी, रक्षणादि उद्यम पण श्रावश्यक छे.. - सम्मतितर्क महाग्रन्थमा श्रीसिद्धसेनदिवाकरे प्रौढशब्दमा श्रा हकीकत जणावी छ- ते आ प्रमाणे- कालो सहाव णियई, पुवकयं पुरिसकारणेगन्ता / मिच्छतं ते चेव उ, समासनो हुन्ति सम्मत्तं // आ पंच समवायवादने विशदरीते समजावतो द्वितीय स्तवक छे. ३-स्तवक-त्रीजा स्तवकमां मुख्यत्वे सांख्यमतनी विचारणा छे. सांख्य अने योग बहुधा सर्व विचारोमा मळ्ता छे, फक्त सांख्ये ईश्वरनुं जगत्कर्तृत्व स्वीकार्यु नथी अने योगे स्वीकार्य छे. काळादिनी विचारणाना अनुसन्धानमा केटलाक ईश्वरनेज जगत्ना कर्ता-नियन्तारूपे माने छ, ए चर्चा अहिं गम्भीरपणे करी छे. श्रा चर्चा खूबज महत्त्वनी छे. श्रा स्तवकनी ए रीते अति उपयोगिता छे. ईश्वरना कर्तृत्वने स्थापित करनारा वादीओमां पतञ्जलि अने अक्षपाद (नैयायिक) मुख्य छे. पूर्वपक्षमा ईश्वर जगत्कर्ता होवोज जोईए ए वात जणावी छे. तेमां ते ते ग्रन्थोना प्रमाणो पण रजू कर्या छ. उदयनाच यनो कुसुमाञ्जलि ग्रन्थ आ विषयमां खूबज विशिष्ट छे. तेमां कार्यायोजनधृत्यादेः, पदात् प्रत्ययतः श्रुतेः / . वाक्यात संख्याविशेषाच्च, साध्यो विश्वविदव्ययः॥ _____ ए श्लोक प्रधान छ, तेनुं उपपादन करीने पछी क्रमशः तेनु खण्डन कर्यु छे. ईश्वरनु कर्तृत्व उपपादान करवामां जैनदर्शनने Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 11 ] बाध न आवे एवी केटलीक विचारणाओ पण दर्शावी छे, तेमां ज्ञातृत्वने कर्तृत्व मानवु ए एक छे अने बीजी आत्माने कर्ता मानवो. वास्तविकता पण एज छे-आ रीते जगत्कर्तृत्वने सङ्गत करवामां ते ते विचारणा दर्शावनारानुं गौरव जळ्वाई रहे छे. साङ्लयदर्शनकार कपिल अने पतञ्जलि पक्षपात जन्मावे एवा विशिष्ट महात्माओ छे, तेमनां कथनने सङ्गत करवु ए समुचित छे. श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज पण आ चर्चाने अन्ते उपसंहार मां कहे छे शास्त्रकारा महात्मानः, प्रायो वीतस्पृहा भवे / / सत्त्वार्थसम्प्रवृत्ताश्च, कथं तेऽयुक्तभाषिणः // 2 // 15 // सर्वभावेषु कर्तृत्वं, ज्ञातृत्वं यदि सम्मतम् / मतं नः सन्ति सर्वज्ञा, मुक्ता:कायभृतोऽपि च // ए श्रीहेमचन्द्राचार्य- वचन पण सुन्दर समन्वयप्रेरक छे. ईश्वरवादनी समाप्ति पछो साङ्क्षय जे प्रकृतिजन्य जगत्ने माने छे, ते पञ्चीस तत्त्वोनी मीमांसा करी छे. प्रकृतिथी महान, महत्तत्त्वथी अहङ्कार, अहङ्कारथी पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय, पांच तन्मात्रा अने मन एम सोळ. पांच तन्मात्राथी पांच भूत, अने स्वतन्त्र आत्मा आ पचीस सालथाभिमत तत्त्वो छे. सालय सत्कार्यवादने माने छे. आत्मा कर्ता नथी पण भोक्ता छे इत्यादि विचारो केवा विसङ्गत छे अने ते कई रोते सङ्गत करी शकाय ए दर्शाव्यु छे. .. ..... प्रकृति ए कर्मप्रकृति छ, तेथीज सर्व काई जन्मे छे. निश्चयनयथी श्रात्मा अलिप्त छे, इत्यादि विचार-भूमिकाओ द्वारा साङ्खथने पोता तरफ खेंची लईने श्रीहरिभद्रसूरिजी सुन्दर समन्वय साधे छे. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [12] एवं प्रकृतिवादोऽपि, विज्ञेयः सत्य एव हि / कपिलोक्तत्वतश्चैव, दिव्यो हि स महामुनिः // 31 // 44 // पूज्य उपाध्यायजी आना अनुसन्धानमा व्यङ्गय करतां कहे छे के-'हे सांख्य ! तु जगत्ने प्रकृतिजन्म माने छ, अने अमे पण एमज-संसार कर्मप्रकृतिजन्य-मानीए छीए, एमां आपणे बनेने सख्य-मैत्री छे, पण आत्मा धर्मी नथी ए जे तु कहे छे तेमां तो. अमारे तारी साथे संख्य-लड़ाईज छे. ते सूक्त आ प्रमाणे लेसांख्य ? सख्यमिदमेव केवलं, मन्यसे प्रकृतिजन्म यज्जगत् / आत्मनस्तु भणितौ विधर्मिणः, संख्यमेव भजदेवमात्रयोः / / ए प्रमाणे त्रीजो स्तवक समाप्त थाय छे.. 4-5-6 स्तवक-चार-पांच ,अने छ ए त्रण स्तवकमां बौद्धदर्शनना गंभीर विचारो विवेच्या छे. श्रीहरिभद्रसूरिजीना समयमा बौद्धोर्नु बळ अतिशय हतुं. अनेक दर्शनो साथे बौद्धोने अथडामणमां ऊतरवू पडतु. नवी नवी तर्क विचारणाओ बौद्धो विचारता हता. विजय वरवानी तेओने प्रबळ तमन्ना हती. बौद्धदर्शनमा अर्थमीमांसा अंगे चार भूमिका छे. केटलाक बौद्धो पदार्थने माने छे अने तेनुं ज्ञान थाय छे, एम पण माने छे. श्रा प्रकारनी मान्यता वाळा वैभाषिक कहेवाय छे. सौत्रान्तिक नामे प्रसिद्ध बौद्धो बाह्य पदार्थो प्रत्यक्ष नथी, एम कहे छे. ज्ञानज अर्थाकारे परिणत थई जाय छे, एवी मान्यता योगाचार नामना बौद्धोनी छे. माध्यमिक बौद्धो केवळ ज्ञानज छे, अन्य काई नथी, ए प्रमाणे समजावे छे. आ विचारणाने व्यक्त करतो एक प्रसिद्ध श्लोक पाछे Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [13] अर्थो ज्ञानसमन्वितो मतिमता, वैभाषिकेणेष्यते / . प्रत्यक्षो नहि बाह्यवस्तुविसरः, सोत्रान्तिकैराश्रितः // योगाचारमतानुगैरभिमता, साकारबुद्धिः परा / मन्यन्ते किल मध्यमाः कृतधियः, स्वस्थां परां संविदम् // बौद्धदर्शननी मुख्य बे विचारणाओ छे. एक क्षणिकवाद अने बीजो विज्ञामवाद. 'यत् सत् तत् क्षणिकम् जे काई सत् छे ते सर्व क्षणिक छ, ए तेश्रोनो मुख्य सिद्धान्त छे. आ क्षणिकवादने सिद्ध करवा माटे तेओ पारावार प्रयत्न करे छे. एकान्ते जो सर्व क्षणिक छे ए मानवामां आवे तो विश्वतन्त्रनी सर्व व्यवस्थानो विनाश थाय, कांई करवा जेवू न रहे. सापेक्षभावे क्षणिक मानवु ए सत्य छे. क्षणिकवादनी जेवी-जे कांई छे ते सर्व विज्ञानस्वरूप छे-विज्ञानज पदार्थाकारे परिणमन पामे छे अने पदार्थनी भ्रान्ति जन्मावे छे. ए पण बौद्धोनी विचित्र-विचारणा छे. आम जो पदार्थमात्रने विज्ञानरूप मानवामां आवे तो सर्व एकज थई जाय अने सर्व एकस्वरूप छे ए कदी जमातुं नथी, भिन्न भिन्न स्वरूप छे ए तो स्पष्ट जणाय छे. ए भ्रम छे एम कहेवु बराबर नथी. भ्रम सनातन सर्वने न होय, भ्रममा फसाएला भ्रम छे एम कहे. ए सत्य केम मनाय ! आ त्रण स्तवकोमा ते ते विचारणाओ उपपादन करीने तेनुं खण्डन कयुं छे. उपाध्याय जी महाराज तो प्रसङ्गे प्रसङ्गे विनोद पण एवो सुन्दर करे छे-जे आपणे जोयाज करीए, सौत्रान्तिकनो उपहास करतां तेओश्रीए का छे जे-सर्व क्षणिक छे ए प्रमाणे सिद्ध करवाना आग्रहमां आसक्त थयेल सौत्रान्तिक 'इत एकनवतौ कल्पे' 'कप्पट्ठाइ पुहई' एवा बुद्धना सूत्रोनो विनाश Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 14 ] करनार अन्तक छे अर्थात् सूत्रान्तक छे पण सौत्रान्तिक ए तो लिपिदोषथी प्रसिद्ध थयेल छे. ए सूक्त आ प्रमाणे छे. . रक्त: प्रसक्तः क्षणिकत्वसिद्धौ, यदुक्तसूत्रं हतवान् स्वकीयम् / सूत्रान्तकोऽप्येष लिपिभ्रमेण, सौत्रान्तिको लोक इति प्रसिद्धः / / श्राम त्रण स्तवकोमा अनेक सूक्ष्म विचारो तर्कबद्ध निरूप्या छे. स्याद्वादकल्पलतामा विस्तारथी बौद्धमतनी गंभीर मीमांसा आलेखी छे. बौद्धदर्शनना ते ते विशिष्ट दार्शनिक ग्रन्थोना द्वार जो आ टीकार्नु व्यवस्थित अध्ययन कयु.होय तो खुली जाय छे. बौद्धदर्शननी विशिष्ट विचारणा माटे उदयनाचार्यना 'आत्मतत्त्वविवेक'ने अने पू० उपाध्यायजी महाराजना 'न्यायखण्डनखाद्य'नु परिशीलन कर आवश्यक छे. बौद्धोने परास्त करवामां जैनाचार्योनी जेम उदयनाचार्ये पण सारी जहमत ऊठावी छ. उदयननो एक प्रसिद्ध श्लोक आ अंगे साक्षी पूरे छे, ते आ-, - ऐश्वर्यमदमत्तोऽसि, मामवज्ञासि दुर्मते 1 उपस्थितेषु बौद्धेषु, मदधीना तव स्थितिः // . ... जो के पराभूत थएला बौद्धोनुं भारतमा छेल्ला शतदशकाथी विशिष्ट अस्तित्व नथी देखातुं छतां भविष्यमा पुन: प्रवेश थवाना चिन्हो देखाय छे. एटले तेमना मन्तव्योर्नु अध्ययन विशेष उपयोगी थशे. . आ रीते 4-5-6 स्तवको गहन छतां उपयुक्त छे. . ७-स्तवक-सातमा स्तवकमां जैनदर्शनना सिद्धान्तो निरूप्या छ. स्याद्वादकल्पलताना आदि त्रण सूक्तो श्रीशान्तिनाथ-श्रीपार्श्वनाथ अने श्रीवर्धमानस्वामीनी स्तुतिरूप कण्ठस्थ राखवा योग्य छे. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [15] आहेतसिद्धान्तनु अहिं करेलु निरूपण टूकमां आ प्रमाणे छे. (1) जगत् जीवाजीवात्मक छे. (2) उत्पादव्ययध्रौव्यस्वरूप सत् छे. ... (3) स्याद्वादथी सत्नी यथावत् विचारणा सङ्गत बने छे. (4) सप्तभङ्गीथी स्याद्वादनु स्वरूप स्थिर थाय छे. (5) नयवाद विसङ्गतिरोने दूर करवा समर्थ छे. आ सर्व सातमा स्तवकमां सारी रीते समजाव्युं छे. ८-स्तवक-आठमा स्तवकमां वेदान्तदर्शननी विचारणा छे. वेदान्तीओ 'ब्रह्म सत् , जगन्मिथ्या' ए सूत्रने प्राधान्य आपे छे. ब्रह्म सिवाय अन्य कोई छेज नहिं, देखातुं जगत् एतो प्रपञ्च छे. माया छे. स्वप्नमां जेम देखाय छे तेना जेतुं छे. अद्वैतवादना निरसन माटे आ एक सरल तर्क याद राखवा जेवो छे. मायाने वेदान्तीओ माने छे. ए माया सत् छे के असत् ? जो सत् छे तो ब्रह्म ए एकज सत् छे, ए रहेतुं नथी. अने जो माया असत् छे तो माया छे एम केम कही शकाय ? ए तो वदतो व्याघात छे. पदार्थ मात्र कूटस्थ नित्य छे एवी पण वेदान्तीनी मान्यता छे. बौद्धोथी तद्दन ऊलटी दिशानी ए विचारणा छे. सापेक्षभावे पदार्थो नित्य छे एम मानवु ए सङ्गत छे. वेदान्ती ज्यां त्यां भ्रमनेज जोया करे छे, ते माटे पू० उपाध्यायजीम. तेने सारी शिक्षा करे छे. ते आप्रमाणे मुक्तौ भ्रान्तिभ्रान्तिरेव प्रपञ्चे, भ्रान्तिः शास्त्रे भ्रान्तिरेव प्रवृत्तौ। कुत्र भ्रान्तिास्ति वेदान्तिनस्ते, क्लृप्ता मूर्ति न्तिभिर्यस्य सर्वा॥ ___aa पछीना बे सूत्रो ते ते दर्शनोनी खासीयतो समजवा माटे याद राखवा जेवा छे. ते श्रा Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 16 ] चार्वाकीयमतावकेशिषु फलं, नैवास्ति बौद्धोक्तयः / कर्कन्धूपमितास्तु कण्टकशतै - रत्यन्तदुःखप्रदाः // उन्मादं दधते रसैः पुनरमी, वेदान्ततालमा / गीर्वाणद्रम एष तेन सुधिया, जैनागमः सेव्यताम् // 1 // न काकैश्चार्वाकैः सुगततनयैर्नापि शशकैबकैर्नाद्वैतज्ञैरपि च महिमा यस्य विदितः // . मरालाः सेवन्ते तमिह समयं जैनयतयः / सरोजं स्याद्वाद-प्रकरमकरन्दं कृतधियः // 2 // छेवटे स्याद्वादनी स्तुति करवापूर्वक आठमो स्तवक समाप्त कर्यो छे. ९-स्तवक-नवमा स्तवकमां मोक्षवादनी चर्चा छे. आत्माने मान्या छतां जो मोक्ष-सिद्धि न थाय तो आत्माने मानवो के न मानवो ए बन्ने बराबर छे. मोक्ष शुं छे ? क्यां छे ? केवी रीते ते प्राप्त थाय ? वगेरे विचारोमां ते ते दर्शनो मार्ग-भूल्या मुसाफरनी माफक जेम फावे तेम चलावे जाय छे. या स्तवकमां ते ते सर्वे क्या भूल्या छे ते विचारणा करी छे. तेमां ते ते दर्शनोनी मोक्षविषयक मान्यता केवी छे, ते सङ्गत कई रीते नथी, मोक्षप्राप्तिना साधनोमां केवी विसङ्गतिमो तेओना मते आवे छे वगेरे दर्शाव्युं छे. आज स्तवकमां सम्यग-ज्ञानदर्शनचारित्र ए मोक्षमार्ग छे ए समजाव्युं छे. अने तेमां प्रासङ्गिक दिगम्बरो जे वसधारीने मुक्ति नथी, स्त्रीने मुक्ति नथी, ए प्रमाण माने छे-ते सचोट निरसन कयुं छे. मोक्षनी ते ते दर्शनकारोनी मान्यताप्रोनो श्रा स्तवकमां अपूर्व संग्रह छे. ते मान्यताओ जाणवानी इच्छावालाने माटे आ स्तवक अतिशय उपयोगी के. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [17] १०-स्तवक-दशमा स्तवकमां मीमांसकोनी मान्यता संबंधी मीमांसा मुख्यत्वे करी छे. ए विचारणाने अनुरूप प्रारंभना त्रण सूक्तो रोचक अने भावपूर्ण छे. ____ मीमांसको सर्वज्ञने स्वीकारता नथी. ए मान्यतानी सिद्धि माटे तेओए घj घणुं लख्यु छे. श्लोकवार्तिक वगेरे ग्रन्थोमां विस्तारथी आ विचारणा आवे छे. अहिं तेनुं संकलन करीने प्रथम तेओ 'सर्वज्ञ नथी' ए विषय केवी रीते रजू करे छे, ए जणाव्यु छेउत्तरपक्षमा 'सर्वज्ञ छे' ए वातनी सिद्धि करी छे. _आ विचारणा करता प्रासङ्गिक-वेद पौरुषेय छे. ए पण विवेच्य छे. प्रमाणपञ्चकनी विवेचना करी छे. वेदविहित हिंसा करणीय छे, ए प्रमाणेना मीमांसकना मन्तव्यनु सखत शब्दोमां खंडन कर्यु छे. सर्वज्ञवादमा अनुरूप केवलभुक्तिनी विशद विचारणा करी छे. दिगम्बरो केवलीने भोजन स्वीकारता नथी, ए मान्यता मिथ्या छे, ए समजाव्यु छे. ए प्रमाणे दशमस्तवक पूर्ण कर्यो छे. . ११-स्तवक- अगीयारमा, स्तवकमां शब्द अने अर्थना सम्बन्धनी विचारणा छे. बौद्धो वगेरे अपोहादिनी जे स्थिति जणावे छे, तेमां केवा दोषो आवे छे, ते सर्व समजाव्यु छे. छेवटे मुक्तिमा जे परमानन्दस्वरूप सुख छे, ते केवु छे, कई रीते छे, इत्यादि तर्कयुक्तिथी सिद्ध कयुं छे. छतां ए अनिर्वचनीय छे, ए पण कयं छे. ___लेवटे ग्रन्थ समाप्त करतां आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिजीमहाराजे गभीरश्लोक रच्यो छ, जे वारंवार पठनीय छे. ते आ.. यं बुद्धं बोधयन्तः शिखिजलमरुतस्तुष्टवुर्लोकवृत्त्य, . ज्ञानं यत्रोदपादि प्रतिहतभुवनालोकवन्ध्यत्वहेतुः // Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [18] सर्वप्राणिस्वभाषापरिणतिसुभगं कौशलं यस्य वाचा तस्मिन् देवाधिदेवे भगवति भवता धीयतां भक्तिरागः // 1 // आवा सुन्दर प्रन्थ वारंवार अध्ययन करीने मति निर्मल करवी ए जन्मनु परम सौभाग्य छे. स्थल श्री करमचंद जैन पौषधशाला ईरलाब्रीज, मुंबई-२४ - विजयामृतसरि / चैत्र धवल पञ्चमी, दि०२३-५-५८ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशुद्धि-पत्रकम् . पत्राः अशुद्धम् ध्वंस इत्याकार, शब्दानृतएवकार शुद्धम् ध्वंसस्य इत्याकरशब्दादनृत एवकारः . हेतेषु .. क्रोधादीनां ज्ञानादावव निहता. क्रोधादिनां ज्ञानादाव. निहिता तत्तथा . यद्वाशात् विस्तारोनस्यात् निजमन तन्तथा प्रीतिनाम् नयतिजा. यद्वशात् विस्तारः निजमत प्रीतीनाम् नियतिजा हेतुत्व श्रयते हेतुत्वे अयते सानाद्य ज्ञानाचा Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [20] पत्राः / अशुद्धम् स्यानुच्छेद स्वभाववद वसानो स्वीकारणम् स्वभाव शुद्धम् स्याप्युच्छेद स्वभाववद् / वसाने स्वीकरणम् स्वाभाव n नेय रूपप्य ऽऽदि रूप्य ऽऽरोग्यादि स ननव सेन धातौ मानव सेनः घाती .. योग योगि .... द्वार मज्जनम् अनम् तवा तव -भाव अभाव -द्वार मतमा मता रचनैः, रचनेभ्यः एक एव रायत्व रान्यत्व. .. 112 प्रत्यान्तराण्यर्थोलम्भ- प्रत्ययान्तराण्यर्थोपलम्भ 112 . 112 1m .. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [21] पत्राङ्कः पंक्तिः शुद्धम् सात गतो 115 अशुद्धम् सज्जातगातो मुमोदसन्ध भता मुमुदे 126 133 . सन्धा भूता ज्ञाना विशीर्ण साश्च विनाश्यते / प्रादेशि विशीर्ण सश्वविनश्यते प्रदेशि कायभा 135 gm 66 x nem 545 148 काभा काश्चि वृत्त्यार्थक्लुप्रसप्तभङ्गस्वाविहितघटारदे स्वध्यायस्त भ्रातिः स्वाध्व ताज्ञा . .. कश्चि वृत्यर्था. क्लृप्तसप्तभङ्गेष्व विहितस्य घटादे स्वाध्यायाध्यस्त % भ्रान्तिः त्वाद्ध्व 204 207 208 208 तज्ञा 6.6 प्रकारो कारी प्रकरो Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [22] पंक्तिः अशुद्धम् वलनामिन्द्रि शुद्धम् वलानामिन्द्रिय श्वरण पत्राः 208 212 वर ... नागत 213 नागन जातो स्तुजातयल्यी 217 जाती स्तुल्यजातीय w 246 250 तन्त्रि विभूत द्रश्यतभावस्व शव्य विकल्प्यो त्तस्त्रि विर्भूत दृश्यत भावस्य शब्द विकल्पयो 251 *ew 267 266 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कल्पलतावतारिका - Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / (1) श्रीमच्छास्त्रकलाकलापकलितो, हर्षप्रकर्षाञ्चितो, . रिक्तो नैव कदापि तर्कनिकरैर्भट्टारको धीमताम् / द्रव्याणां गुणपर्ययः स्थितिभृतां, सूर्यस्तमोदारणैरिन्दु नवचोऽम्बुधौ विजयत्रे, श्रीभद्रसूरिहरिः // जग्रन्थे ग्रन्थरत्नानां, नान्मवर्णविराजितः / आचार्य्यहरिभद्रेण, हारस्तर्कगुणोज्ज्वलः / / (3) यशोऽधिगन्तुकामेन, यशोवाचकवाचिकम् / यशस्विचेतसा चिन्त्य, सत्तर्कभरसंभृतम् // Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . * ओं ह्रीं अहँ नमः ॐ सकललब्धिसम्पन्नाय श्रीगौतमस्वामिने नमः / शासनसम्राट -श्रीविजयनेमिसूरीश्वरसद्गुरुभ्यो नमः / / 1444 ग्रन्थसूत्रणसूत्रधार-सूरिपुरन्दर-स्याद्वादमतमण्डन-मण्डनभूत श्रीहरिभद्राचार्यविरचितस्यशास्त्रकातासमुच्चयस्य महामहोपाध्याय-महातार्किकश्रीयशोविजयजिद्गणिवरविरचितायाः कल्पलताया अनुसारिणी शास्त्रविशारद-कविरत्न-पीयूषपाणिभट्टारकाचार्यश्रीविजयामृतसूरीश्वरप्रणीता श्री कल्पलतावतारिका टीका -- प्रथमः स्तवकः - सर्वे नया विघटिता निरपेक्षभावा . दन्योऽन्यरोधचरणादहितं चरन्ति / स्याद्वादपक्षसरणाद्धितचारिणः स्युः, - स्याद्वादसन्मतमनन्तनयं नमामि // 1 // भयाक्रान्तं विश्व निजनिजमतोन्मादकलिलं, भयोन्मुक्तं तत् स्या-दविरतमनेकान्तसरणात् / यथा स्याद्वादात् तद् भवति तदवोचजिनपति र्नुमः सत्स्याद्वाद-प्रवरवचनं वीरमभयम् // 2 // Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ प्रथमः सर्वान् नयान् समीकतुं, हारिभद्रं वचः शुचि / उचितं वर्तते प्रौढं, शास्त्रवासिमुच्चये // 3 // गभीरं तद्वचो वेत्तु, स्वोपज्ञां विवृति व्यधात् / नातिशब्दां न चाव्यक्तां, श्रीहरिभद्रसूरिराट् // 4 // नव्यन्यायपरिष्कार-परिष्कृता बुधोचिता / / कल्पलता-महावृत्तिः, श्रीयशोवाचकैः कृता // 5 // तां गभीरार्थगूढार्थां, वगाहितुमभीप्सया / विधीयते शुचिस्पष्टा, कल्पलतावतारिका // 6 // कल्पलता कृपा यस्य, शं ददाति पदे पदे / नमस्तस्मै मुनीशाय, श्रीमते नेमिसूरये // 7 // तत्कृपालेशमाहात्म्यं, कृत्येन कारणं महत् / / तद्विना चेतनो मूढः, स्याजडोऽपि ततः सुधीः // 8 // शास्त्रोदधि विगायेदं, शास्त्रं चक्रुश्चिरन्तनाः / तत्रावतारिका बद्धा, विजयामृतसूरिणा // 9 // शास्त्रवार्तासमुच्चयाभिधानं ग्रन्थरत्नमन्यमतमीमांसापूर्वक स्याद्वादसिद्धान्तसमर्थनं विधातुं साङ्गोपाङ्गं व्याख्यातुकामो न्यायविशारद-न्यायाचार्यः श्रीमान् यशोविजयवाचक: प्रत्यूहव्यूह विघटनक्षम चरमतीर्थकृन्नमस्कारात्मकं मङ्गलं निबध्नाति-ऐन्द्रश्रेणिन तायेत्यादि। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] . कल्पलतावतारिका ( कल्पलता ) . ऐन्द्रश्रेणिनताय दोषहुतभुग-नीराय नीरागता धीराजद्विभवाय जन्मजलधेस्तीराय धीरात्मने // गम्भीरागमदेशिने मुनिमनो-माकन्दकीराय स नासीराय शिवाध्वनि स्थितिकृते वीराय नित्यं नमः॥१॥ अन्वयः-ऐन्द्रश्रेणिनताय, दोषहुतभुग्-नीराय, नीरागताधीराजद्विभवाय, जन्मजलधे: तीराय, धीरात्मने, गम्भीरागमदेशिने, मुनिमनोमाकन्दकीराय, सन्नासीराय, शिवाध्वनिस्थितिकृते, वीराय नित्यं नमः // 1 // ( कल्पलतावतारिका) ऐन्द्रश्रेणिनताय-इन्द्रस्य देवाधिपतेरियमैन्द्री सा चासौ श्रेणिः पङ्कितरैन्द्रश्रेणिः, तया नताय नमस्कृताय, देवेन्द्रकदम्बकप्रणतायेत्यर्थः / दोषहुतभुगनीराय-दोषा दूषणान्येव हुतभुजो वह्नयो दोषहुतभुजस्तेषां कृते नीराय जलरूपाय, दोषानलशमनस लिलस्वरूपायेत्यर्थः / अत्रालकृति: परम्परितरूपकम् / नीरागताधीराजद्विभवाय. रागाद् अनुरागात्, द्वेषात्, रागद्वेषाभ्याश्च निर्गतो नीरागः, तस्य भावो नीरागता, तया संवलिता धी:- बुद्धिर्नीरागताधी: 'मयूरव्यंसकत्यादयः' 3 / 1 / 126 // इत्यनेन शाकपार्थिवादेराकृतिगणत्वान्मध्यमपदलोपी समासः / 'रागोऽनुरागे क्लेशादौ, मात्सर्ये लोहितादिषु' इति शाश्वतः, तया राजमानो दीप्यमानो विभव ऐश्वर्यं यस्य स नीरागताधीराजद्विभवस्तस्मै तथा-'विभवो रैमोक्षैश्वर्ये' इति मेदिनी / यद्वानीरागता रागाभावः, वीतरागतेति, धीः सम्यग्बुद्धिः केवलज्ञानं वा, नीरागता च धीश्च नीरा. गताधियौ ताभ्यां राजमानोविभवो यस्य तस्मै तथा, सम्यग्बुद्धि केवल Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ प्रथमः ज्ञानं वाप्रति रागाभावस्य कारणतया ततोऽभ्यर्हिततया तत्प्रतिपादकस्य नीरागतापदस्य पूर्वनिपातोऽनुसंधेय: / जन्मजलधेः - भवसागरस्य तीराय-अपरतटात्मकाय, जन्ममरणरूपसंसारसमुद्रपारकत्रे इति भावः / 'भवः क्षेमेशसंसारे, सत्तायां प्राप्तिजन्मनोः' इति मेदिनी। धीरात्मने-धीरो धैर्यगुणसम्पन्न आत्मा मनो मनीषारूपस्वभावो यस्य स धीरात्मा तस्मै तथा। 'आत्मा पुंसि स्वभावेऽपि, प्रयत्नमनसोरपि / धृतावपि मनीषायां, शरीरब्रह्मणोरपि' इति मेदिनी / गम्भीरागमदेशिने--गम्भीरो गूढाभिप्राययुक्तो य: आगमः शास्त्र गम्भीरागमस्तं देशितुं शीलो गम्भीरागमदेशी 'अजाते: सुपि' / 212154 इत्यनेन तच्छीले णिन्प्रत्ययस्तस्मै तथा / अनन्तनयगमभङ्गगभीरागमदेशनसमर्थायेति भावः / मुनिमनोमाकन्दकीरायमुनीनां महाव्रतधारिणां मनांस्यन्तःकरणानिमुनिमनांसि तान्येव माकन्दाः सहकारतरवः तत्र कीराय कीररूपाय कीरा यथा रसालपादपेष्वानन्दसन्दोह विकसितमनसा निवसन्ति तथैव मुनिजनानां चित्तेषु हर्षेण स्थितिशालिने, मुनिवृन्दान्तःकरणानन्ददायिने इति भावः / सनासीराय-सत्सु सजनेषु नासीरोऽग्रगण्यः सन्नासीरस्तस्मै तथा 'नासीर त्वग्रयानं स्यात्' / 3 / 464 / इत्यभिधानचिन्तामणिः / शिवाध्वनि-मोक्षमार्गे, स्थितिकृते- निवासशीलाय / वीराय-- भगवते वर्द्धमानस्वामिने महावीरायाहते इति / नित्यं-सर्वदा / नमः नमस्कारः, अस्तु / नमःशब्दयोगे चतुर्थीविभक्तिरवसेया, तेनास्मि तं प्रति प्रणत इत्यर्थो व्यज्यते / नमस्कारश्च स्वावधिकोत्कृष्टत्वज्ञानानुकूलकरशिरःसंयोगाद्यात्मकव्यापारादिरूपोऽवसेयः / वृत्तं शार्दूल Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवक्रः ] कल्पलतावतारिका [5 विक्रीडितम् / तल्लक्षणन्तु 'सूर्याश्वैर्मसजास्तत: सगुरवः, शार्दूलविक्रीड़ित मिति / अलङ्कारस्त्वनुप्रासः स्पष्ट: / श्रीवर्धमानमहावीरस्वामिविषयककविनिष्ठरत्याख्यो भावश्चाभिव्यज्यते इति ध्वनिकाव्यमिदम् / अनुप्रासाधिक्येऽपि कविशक्तिप्रौढिवशात् प्रसादगुणा-- भिव्यञ्जनद्वारेण तस्याप्यत्र भावध्वनिपोषकतैवावसेया // 1 // विद्याधिष्ठातृतया शारदायास्तत्प्रदत्वेन गुरूणाञ्चापि नमस्कारो ग्रन्थकर्तुर्नानुचित इत्याशयेनाह(कल्पलता प्रणम्य शारदां देवीं, गुरूनपि गुणैर्गुरून् / विवृणोमि यथाशक्ति, शास्त्रवार्तासमुच्चयम् // 2 // अन्वयः-शारदाम् , देवीम् , गुणैः, गुरून् , गुरून् अपि, प्रणम्य, यथाशक्ति, शास्त्रवार्ता समुच्चयम् , विवृणोमि // 2 // (कल्पलतावतारिका) शारदाम् - सरस्वतीम् / देवीम्-देवताम् / गुणैः--ज्ञानादिभिः, कृत्वेतिशेषः, गुरुन्-श्रेष्ठान , गुरुन्-धर्मोपदेशकान विद्यादातून वा, अपि-समुच्चये "अपि सम्भावनाप्रश्नशङ्कागाँसमुच्चये” इति मेदिनी। प्रणम्य-प्रकर्षेण नत्वा / यथाशक्ति-स्वशक्त्यनुसारेण / शास्त्रवार्तासमुच्चयम्-शास्त्राणां बौद्धवैशेषिकादिदर्शनानां या वार्ताः सिद्धान्तप्रवादास्तासां समञ्चय एकत्र सङ्कलनम् शास्त्रवार्तासमुच्चयः, "कृदभिहितो भावो द्रव्यवत्प्रकाशते” इति न्यायाश्रयणात् समुच्चिताः शास्त्रवार्ता इत्यर्थः, तन्तथा / विवृणोमि-व्याख्यानादिना प्रकाशयामि / ___ स्वकीयमौद्धत्यं परिहरति कल्पलताकारः हारिभद्रमित्यादिना Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ प्रथमः (कल्पलता) हारिभद्रं वचः क्वेदं, बहुतर्कपचेलिमम् / . क चाहं शास्त्रलेशज्ञस्तादृक्तन्त्राविशारदः // 3 // - अन्वयः-इदं, हारिभद्रं, बहुतर्कपचेलिमं, वचः, क्व ? शास्त्रलेशशः, ताकतन्त्राविशारदः, अहं, च, क्व 1 . (कल्पलतावतारिका) इदम्-शास्त्रवार्तासंग्राहकमेतत् प्रत्यक्षदृश्यमानम् / हारिभद्रम्स्वनामधन्यस्य सूरिचक्रचक्रवर्तिन इदं हारिभद्रम् / तदुदीरितमित्यर्थः / बहुतर्कपचेलिमम्-नानाविधयुक्तिपरिपूर्णम् / तर्कनिवहपरिपक्कमिति यावत् / वचः-श्लोकात्मकं वचनं वाक्यं वा / क-कुत्र, अतिगहनमित्यर्थः। शास्त्रलेशज्ञः-शास्त्राणां सिद्धान्तानां लेशो लवः शास्त्रलेशस्तं जानातीति तथा अल्पविषयज्ञातेति यावत् / अत एव तादृक्तन्त्राविशारदः-तादृशसिद्धान्तावबोधनापटुः। अहम्-मल्लक्षणो जनः। च-पुनः। क-कुत्र / मादृशः सर्वर्था तदीय सिद्धान्तप-लोचनाक्षम इति भावः / तथापि तत्र प्रवृत्तिनिदानमहन्मतानुरागमाह-श्रमो ममेत्यादिना(कल्पलता) श्रमो ममोचितो भावी, तथाप्येष शुभायतिः / अर्हन्मतानुरागेण, मेघेनेव कृषिस्थितिः // 3 // अन्वयः-तथापि, मेघेन, कृषिस्थितिः, इव, महन्मतानुरागेण, उचितः, .. मम, एषः, श्रमः, शुभायतिः, भावी // (कल्पलतावतारिका) तथापि-पूर्वकथितप्रकारेण तदीयसिद्धान्तपOलोचन. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका सामर्थ्य विरहेऽपि / मेघेन-जलदेन / कृषिस्थिति:-गार्हस्थ्यपरि. स्थितिः / इंव - यथा / अर्हन्मतानुरागेण- जिनसिद्धान्तप्रेम्णा / उचित:-युक्तः / मम-मल्लक्षणस्य जनस्य / एषः-सिद्धान्तनिरूपणात्मकः / श्रमः-प्रयास: / शुभायतिः-समीचीनोत्तरकालः / "आयतिस्तूत्तरः कालः" 2 / 76 / / इत्यभिधानचिन्तामणिः / भावी-भविष्यतीत्याशास इति भावः। मेघेन कृषिस्थितियथा शुभोत्तरकाला भवति तथा ममापि श्रमो जिनसिद्धान्तानुरागेण सफलो भविष्यतीति हृदयम् , उपमालङ्कारः / “हृद्यं साधर्म्यमुपमा” इति काव्यानुशासने तल्लक्षणम् ! "श्रमो ममो” इत्येतदंशावच्छेनानुप्रासः शब्दालङ्कारश्च / / इह खलु समस्त जगदज्ञानान्धकारनिरस्ताऽऽलोकमवलोकमानस्तदुपचिकोषुभंगवान् हरिभद्रसूरिः शास्त्रवार्तासमुच्चयं नाम प्रकरणमारब्धुकामस्तदारम्भे प्रारिप्सितग्रन्थस्य निर्विघ्नपरिसमाप्तये मङ्गलमाचरम् प्रेक्षावत्प्रवृत्तयेऽभिधेयमाह, प्रणम्येत्यादिना(शास्त्रवार्तासमुच्चयः) . प्रणम्य परमात्मानं, वक्ष्यामि हितकाम्यया / सत्वानामल्पबुद्धीनां, शास्त्रवातासमुच्चयम् // 1 // अन्वयः-परमात्मानं प्रणम्य अल्पबुद्धीनां सत्त्वानां हितकाम्यया शास्त्रवार्तासमुच्चयं वक्ष्यामि || परमात्मानम्-परमेष्ठिनम् / प्रणम्य-प्रकर्षण नत्वा / अन्पबुद्धीनाम्-सुकुमारमतीनाम् / यत्किश्चिद्विषयकज्ञानशालित्वेऽपि शास्त्रीयसिद्धांतज्ञानरहितानामिति यावत् / सत्त्वानाम्-जीवानाम् Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य प्रथमः शास्त्रीय ज्ञान विना केवलं पशुपक्ष्यादितुल्यानां मनुजानामितियावत् / इदमेव "नराणामित्येतदनुल्लिख्य सत्त्वानामिति लेखे बीजमवगन्तव्यम् / हितकाम्यया-शुभकामनया / शास्त्रवार्तासमुच्चयम्पूर्वदर्शितस्वरूपं ग्रन्थात्मक वाक्यम् / वक्ष्यामि-अभिधास्ये / / अथैतावता ( “निर्विघ्नपरिसमाप्तये मङ्गलमाचरन्" इत्येतावता ) निर्विघ्नग्रन्थपरिसमाप्ति प्रति मङ्गलस्य कारणत्वमुक्त भवति परं तन्न सङ्गच्छते समाप्ति प्रति मङ्गलस्यान्वयव्यतिरेकाभ्यां व्यभिचारात् तत्सत्त्वे तत्सत्त्वम् तदभावे तदभावः” इत्यन्वयव्यतिरेकस्वरूपम् तयोरेव कार्यकारणभावग्राहकत्वम् दण्डादिसत्त्वे घटसत्त्वस्य तदभावे तदभावस्य दर्शनात् घटदण्डाद्यो: कार्यकारणभावः सम्पद्यते, घटे कार्य्यता दण्डादौ च कारणता स्वीक्रियते, मङ्गलसमा प्त्योः परस्परमन्वयव्येतिरेको न स्तो यतो मङ्गलसत्त्वेऽपि प्रन्थ-- समाप्त्यभावः किरणावल्यादौ नास्तिकग्रन्थे च मङ्गलविरहेऽपि समाप्तिदृश्यते, अतो हेतोरन्वयव्यतिरेकव्यभिचारान्मङ्गलं न समाप्तिमात्रे कारणम् // न च स्व (मङ्गल ) समसंख्यकविघ्नस्थलीयसमाप्तित्वावच्छिन्न प्रति स्वस्य कारणतोच्यते, कादम्ब-दौ मङ्गलाधिकविघ्नसत्त्वान्न समाप्तिः किरणावल्यादौ च जन्मान्तरीयमङ्गलादेव समाप्ति: स्वीकरिष्यते तथा च नान्वयव्यतिरेकाभ्यां व्यभिचार इति वाच्यम् / एवंविधकार्यकारणभावस्वीकारे समसंख्यकत्वाभावात् विघ्नाधिकसंख्यमङ्गलस्थलेऽपि समाप्त्यभावप्रसङ्गात् / न च स्वानधिक-न्यूनसंख्यविघ्नस्थलीयसमाप्ति प्रति मङ्गलस्य कारणता स्वीकारान्न तादृशस्थले समाप्तिविरहप्रसङ्ग, इति वाच्यम् / यत्र दश विघ्नाः पश्च Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका च प्रायश्चित्तेन नाशिता, पञ्च च मङ्गलानि तत्र समाप्त्यभावप्रसङ्गात् / न च प्रायश्चित्ताधनाश्यस्वानधिकसंख्यविघ्नस्थली.. यत्वं समाप्तौ निवेश्यते तथा च नोक्त दोष इति वाच्यम् / बलवतो विघ्नस्य बहुभिरपि मङ्गलैरनाशात् , बलवता मङ्गलेन बहूनामपि विघ्नानां नाशाच्च / तथा च मङ्गलं व्यर्थमेव, न चाऽऽवश्यकत्वाद् विघ्नध्वंस एव मङ्गलफलमस्तु समाप्तिस्तु कारीरीतोऽवग्रह निवृत्ती वृष्टिरिव प्रतिबन्धकनिवृत्तौ स्वकारणबुद्धिप्रतिभादिकारणकलापादेव भविष्यतीति वाच्यम्, मङ्गलं विनापि विघ्नध्वंस प्रायश्चित्तादितो भावेन व्यभिचारात् "विघ्नो मा भूत्" इति कामनया प्रवृत्तेर्विघ्नप्रागभाव एव फल मित्यादि नो मनोरमं वचनम् प्रागभावस्यासाध्य. त्वात् , स्वत आगन्तुकस्य समयविशेषस्य सम्बन्धरूपस्य तत्परिपालनस्यापि मङ्गलासाध्यत्वात् , तस्मान् मङ्गलं निष्फलमिति चेत् अत्रोपाध्यायाः- विघ्नध्वंस एव मङ्गलं हेतु: / अर्थात् विघ्नध्वंसं प्रत्येव मङ्गलस्य कारणता स्वीका- / न च मङ्गलं विनापि विघ्नध्वंसस्य प्रायश्चित्तादितो भावेन पूर्वोक्तव्यभिचार इति वाच्यम् , प्रायश्चित्तादीनामपि मङ्गलत्वात् , प्रारिप्सितप्रतिबन्धक दुरितनिवृत्त्यसाधारणकारणं मङ्गलमिति तल्लक्षणं परैरुच्यते, तत्र चास्माभिर्लाघवात् "प्रारिप्सितप्रतिबन्धक" इति दुरितविशेषणं त्यज्यते, "स्वाध्यायादेरपि मङ्गलत्वाविरोधात्" इत्याकारग्रन्थोऽत्र प्रमाणम् / तादृशविशेषणत्यागे लाघवश्च कार्यकारणभावेऽव्यवहितो. त्तरत्वनिवेशाभावमूलकमवगमनीयम्, अन्यथा प्रायश्चित्तादीनां मङ्गलत्वास्वीकारे यत्र केवलं मङ्गलेन विघ्नध्वंसस्तन प्रायश्चित्तादि / कारणविरहेऽपि कार्यसत्त्वात् “तदभावे तदभावः” इति व्यतिरेकस्य Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ प्रथमः व्यभिचारः, यत्र च केवलेन प्रायश्चित्तादिना विघ्नध्वंसस्तत्र मङ्गलात्मककारणविरहेऽपि कार्यजननादव्यतिरेकव्यभिचारस्तस्य च कारणताग्रहविघटकत्वं सर्वसम्मतमतः मङ्गलाव्यवहितोत्तरजायमान विघ्नध्वंसत्वावच्छिन्नं प्रति मङ्गलं कारणम् , एवं प्रायश्चित्ताद्यव्यवहितोत्तरविघ्नध्वंसत्वावच्छिन्नं प्रति प्रायश्चित्तादिः कारणमित्येवं कार्यकारणभावेऽव्यवहितोत्तरत्वनिवेशे परेषां मते महद्गौरवमापत. तोत्यवसेयम् // 1 // ( शास्त्रवार्ता० ) . यं श्रुत्वा सर्वशात्रेषु, प्रायस्तत्त्वविनिश्चयः / जायते द्वेषशमनः स्वर्गसिद्धिसुखावहः // 2 // अन्वयः-यं श्रुत्वा सर्वशास्त्रेषु प्रायः तत्त्वविनिश्चयः द्वेषशमनः स्वर्गसिद्धिसुखावह: जायते // 2 // , यं-शास्त्रवार्तासमुच्चय, श्रुत्वा-तात्पर्यत: परिज्ञाय, सर्वशास्त्रेषु- सकलदर्शनेषु, प्रायो-- बाहुल्येन, तत्त्वविनिश्चयः- प्रमाण्याप्रामाण्यविवेको जायते / ___ नन्वेवमितरदर्शनेष्वप्रामाण्यज्ञानात् तत्रानिष्टसाधनत्वज्ञाने द्वेषोदयात् संसारानुषन्ध्येव बहुशास्त्रज्ञानमापतितम्, इत्यत आह द्वेषशमन इति / स हि तत्त्वविनिश्चयः स्वर्गसिद्धिसुखावहो द्वेषशमनो जायते / अयमाशयः-प्रामाण्यनिश्चयस्योपादेयेऽर्थे निष्कम्पप्रवृत्तिजनकतयैवोपयोगोऽनुपादेयेऽर्थेऽप्रामाण्यनिश्चयस्तु तदर्थप्रवृत्तिप्रतिबन्धकतयैव, द्वेषस्तु माध्यस्थ्येन प्रतिबन्धादेव नोदेतुमर्हति तस्मान्न कोऽपि दोषः प्रत्युत दानसंयमादौ शुद्धप्रवृत्या सुखावहत्वमेव तस्येति / Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] . कल्पलतावतारिका [11 अथ "स्वर्गे सुखम्" इत्यत्र कस्यचनापि काचन विप्रतिपत्तिर्नास्ति, परन्तु सिद्धौ सुखे किमपि प्रमाणं नास्ति, सामानाधिकरण्यसम्बन्धेन समवायसम्बन्धावच्छिन्नसुखत्वावच्छिन्नकार्य्यतानिरूपित. कारणताया एव धर्मे स्वीकरणात, न च विलक्षणादृष्टानां विलक्षणसुखहेतुत्वात्, अदृष्टरूपव्यापारसम्बन्धेन तद्धेतुत्वस्वीकाराद्वा सामान्यत: सुखत्वावच्छेदेन हेतुत्वे प्रमाणाभाव इति वाच्यम् तथापि विशेषसामग्रीविरहेण मोक्षसुखानुत्पत्तेः / न च "नित्यं विज्ञानमानन्द ब्रह्म' इति श्रुतिरेवात्र मानम् / नित्यसुखे सिद्धे ब्रह्माभेदबोधनम् , ब्रह्माभेदबोधने च नित्यसुखसिद्धिरिति परस्पराश्रयो नाशङ्कनीयः / स्वर्गत्वमुपलक्षणीकृत्य स्वर्गविशेषे यागकारणताबोधवत् सुखत्वमुपलक्षणीकृत्य सुखविशेषे ब्रह्माभेदोपपत्तेः / "अानन्दमित्यत्र नपुंसकत्वं छान्दसत्वात् समाधेयम् / "आनन्द ब्रह्मणो रूपं तच्च मोक्षे प्रतिष्ठितम्" इति भेदपरषष्ठ्या अनुपपत्तिरपि नाशङ्कथा-"राहो: शिरः" इतिवदभेदेऽपि षष्ठी दशनात् इति वाच्यम् / आत्मनोऽनुभूयमानत्वेन नित्यसुखस्याप्यनुभवप्रसङ्गात् / सुखमात्रस्य स्वगोचरसाक्षात्कारजनकत्वनियमात् / नचात्माऽभिन्नतया सुखमनुभूयत एव, सुखत्वन्तु तत्र नानुभूयते, देहात्माऽभेदभ्रमवासनादोषात्, प्रात्यन्तिकदुःखोच्छेदरूपव्यञ्जकाभा. वाद् वेति वाच्यम् / आत्मसुखयोरभेदे सुखत्वस्याऽऽत्मत्वतुल्यव्यक्तिकत्वेनाऽऽत्मत्वान्यजातित्वासिद्धेरिति चेदत्रोपाध्यायाः॥ ___प्रेक्षावत्प्रवृत्यन्यथानुपपत्तिरेव सिद्धिसुखे मानम् / यदि सिद्धिसुखं न स्यात्तदा तदुद्दिश्य प्रेक्षावतां प्रवृत्तिरेव न भवेत्, भवति च तत्र प्रवृत्तिरतः सिद्धिसुखमस्तीति भावः / न च क्षुदादिदुःख Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाखवार्तासमुच्चयस्य [ प्रथमः निवृत्त्यर्थमन्नपानादिप्रवृत्तिवदुःख-निवृत्त्यर्थमेव सिद्धौ प्रेक्षावतां प्रवृत्ति: सेत्स्यतीति प्रेक्षावत्प्रवृत्तेरन्यथोपपत्तौ न तदनुपपत्तिस्तत्र मानमिति वाच्यम्, अन्नपानादावपि सुखार्थमेव प्रवृत्तेः। अन्यथाऽस्वादुपरित्यागस्वादूपादानानुपपत्तेः / पर्यालोचनया वस्तुतः सर्वत्र सुखार्थमेव प्रवृत्तिरिति / न च बहुदुःखप्रस्तानां मरणादावपि प्रवृत्तिदर्शनात् कथं सुखार्थमेव प्रवृत्तिरिति वाच्यम् / विवेकिप्रवृत्तेरेवाऽत्राधिकृतत्वात् / अत: साधूच्यते दुःखाभावोऽपि. नांवेद्यः, पुरुषार्थतयेष्यते / नहि मूर्छाद्यवस्थार्थ, प्रवृत्तो दृश्यते सुधीः // इति "दुःखं मे माभूत्" इत्युद्दिश्य प्रवृत्तेदु:खाभाव एव पुरुषार्थः / तज्ज्ञान त्वन्यथासिद्धमिति चेत्-सत्यम्; अवेद्यस्य तस्य (क्षुदादेः) ज्ञानादिहानिरूपाऽनिष्टानुविद्धतया प्रवृत्त्यनिर्वाहकत्वात् / अतएव- सुखमात्यन्तिकं यत्र, बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् / तं वै मोक्षं विजानीयाद्, दुष्प्रापमकृतात्मभिः / / इत्यादि वचनमप्युपपद्यते, इति संक्षेपः / / वक्तव्ये शास्त्रबार्तासमुच्चये पूर्व सर्वविप्रतिपत्त्यविषयां शास्त्रवार्तामाह( शाखवार्ता) दुःखं पापात् सुखं धर्मात्, सर्वशास्त्रेषु संस्थितिः। न कर्तव्यमतः पापं, कर्तव्यो धर्मसञ्चयः // 3 // अन्वयः-पापात् दुःखं, धर्मात् सुखं (इयं) संस्थितिः सर्वशास्त्रेषु, अतः पापं न कर्तव्यं, धर्मसञ्चयः कर्तव्यः / Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [13 पापात्--अधर्मात् , दुःख--भवति। धर्मात् सुखं-भवति / इयं सर्वशास्त्रेषु,सं-समीचीना-अविप्रतिपत्तिविषया, स्थितिः-मर्यादा / अतो-दुःखहेतुतया, पापमशुभकर्महेतु, न कर्तव्यम् , सुखहेतुतया संचितोऽङ्गवैकल्यादिविरहितो धर्मः धर्मसञ्चयः कर्तव्यः // 3 // शुभाऽशुभहेतूनाह( शास्त्रवार्ता) हिंसाऽनृतादयः पञ्च, तत्त्वाश्रद्धानमेव च / क्रोधादयश्च चत्वार, इति पापस्य हेतवः॥४॥ अन्वयः-हिंसानृत्तादयः पञ्च, तत्त्वाश्रद्धानम् एव च, चत्वारः क्रोधादयश्च, इति पापस्य हेतवः / . . हिंसानृतादयः पञ्च- हिंसाऽनृताऽदत्तादानाऽब्रह्मपरिग्रहपञ्चकम् / तत्र प्रमादयोगेन प्राणव्यपरोपणं हिंसा / धर्मविरुद्धं वचनमनृतम् / धर्मविरोधेन स्वामिजीवाद्यननुज्ञातपरकीयद्रव्यग्रहणमदत्तादानम् / स्त्रीपुंसव्यतिकर (संसर्ग ) लक्षणमब्रह्म / सर्वभावेषु मू लक्षणः परिग्रहः / "हिंसादयः” इत्येतावतैव आदिशब्दानृत. ग्रहणसम्भवात् पुनरनृतग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थमवसेयम् / कथिताः पश्चाऽविरतिरूपा उच्यन्ते। तत्त्वस्य यथास्थितवस्तुनोऽश्रद्धानं यस्मादिति बहुव्रीह्याश्रयणात् तत्त्वाऽश्रद्धानं मिथ्यात्वम् / एवकार प्रसि. द्धयर्थः। च-पुनरर्थः / क्रोधमानमायालोभात्मकाश्चत्वारः क्रोधादयश्च / इति-एतावन्तः, पापस्याशुभकर्मणो, हेतवः-कारणानि कथितानि // 4 // Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [प्रथमः ___धर्मस्य हेतून व्यतिरेकेण व्यनक्ति( शाखवार्ता ) विपरीतास्तु धर्मस्य, एत एवोदिता बुधैः / एतेषु सततं यत्नः, सम्यक् कार्यः सुखैषिणा // 5 // अन्वयः-तु विपरीताः एते एव बुधैः धर्मस्य ( हेतवः ) उदिताः, सततं सुखैषिणा एतेषु सम्यक् यत्नः कार्य्यः / तु-विशेषणे। विपरीता:-अहिंसा सत्या.ऽन्तेय-ब्रह्मा-ऽपरिग्रह-सम्यग्दर्शन-क्षान्ति-मार्दवा-ऽऽर्जवाऽनीहारूपा:, एत एव बुधैरहद्वचनानुसारिगीतार्थैः, धर्मस्य गुणा: शुभाशयलक्षणस्य हेतव उदिताः प्रतिपादिताः, अत एतेषु धर्मकारणेषु सतत-निरन्तर सुखैपिणा- कल्याणेच्छुना सम्यक्-विधिना यत्नः कार्यः सुखोपाये प्रवृत्तेरेव सुखोत्पत्तेः / स्वभावत: सुखदुःखेच्छाद्वेषवतामपि प्राणिनां सुखोपाये धर्मेऽनिच्छा दुःखोपाये चाधर्म एवेच्छा खलु मोहमहागजनिदेशविलसितम् / तदुक्तम् धर्मस्य फलमिच्छन्ति, धर्म नेच्छन्ति मानवाः / फलं नेच्छन्ति पापस्य, पापं कुर्वन्ति सादगः // उक्तहेतेषु प्रवृत्त्या च, अहिंसादिनाऽविरतेः, सम्यग्दर्शनेन च मिथ्यात्वस्य, क्षमादिना च क्रोधादिना निवृत्तेस्तन्मूलकदुःखविरहात् अप्रतिहत: सुखावकाशः / “अहिंसया क्षमया क्रोधस्य, ब्रह्मचर्येण वस्तुविचारेण कामस्य, अस्तेयाऽपरिग्रहरूपेण सन्तोषेण लोभस्य, सत्येन यथार्थज्ञानरूपेण विवेकेन मोहस्य, तन्मूलानां च सर्वेषां निवृत्तिः / " इति तु पातञ्जलमतानुसारिणः / . Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः] कल्पलतावतारिका [ 15 तत्रेदं विभावनीयम्-अहिंसादिना मूलगुणघातिकोधादिनिवृ. त्तावपि संज्वलनादिरूपकोधनिवृत्तिः क्षमाद्युत्तरगुणसाम्राज्यादेव।।।। // एतन्मूलश्लोकपञ्चकं प्रसङ्गादावश्यकत्वाच्चोदृङ्कितमवसेयम् / / (शास्ववाती अथ चार्वाकपूर्वपक्षः पृथिव्यादिमहाभूत-मात्रकार्यमिदं जगत् / न चात्मा,दृष्टसद्भाव, मन्यन्ते भूतवादिनः॥३०॥ अन्वयः- इदं जगत् पृथिव्यादि-महाभूतमात्रकायं च आत्मा न भूतवादिनः दृष्टसद्भावं मन्यन्ते / इदं प्रत्यक्षोपलभ्यमानं जगत् चराचरं विश्वम् पृथिव्यादिमहाभूतमात्रकाय्य॑म् पृथिवी आदिर्येषां तानि पृथिव्यादीनि पृथिवीज लतेजोवायुलक्षणानि यानि चत्वारि महाभूतानि, पृथिव्या दिमहाभूतानि, तेषामेव तन्मात्रम् तस्य कार्यान्तथा, एवकारार्थकमात्रपदेनाऽऽकाशादिव्यवच्छेदः / ननु जगदन्तर्गतस्याऽऽत्मनो न पृथिव्यादिमहाभूतमात्र कार्यत्वम्, तथा च यस्य कस्यचिदेकस्यापि तन्मात्र कार्य त्वाभावे प्रतिज्ञाभङ्ग इति चेत् सत्यम् -"चैतन्यविशिष्टः कायः पुरुषः" इतिवचनात् शरीर!तिरिक्तस्याहं प्रत्ययालम्बनस्यासत्त्वाभ्युपगमात्, भूतवादिभिः प्रत्यक्षवस्तुन एव पारमार्थिकत्वस्य स्वीकारात्, मानाभावात् , "अदृष्टस्य" तत्त्वानभ्युपगमाच्च / प्रत्यक्षातिरिक्तस्य वस्तुन: पारमार्थिकत्वाभ्युपगमेऽनुमानमस्ति प्रमाणमिति चेत् तैरनुमानस्य प्रामाण्यानङ्गीकारात्, व्यभिचारिसाधारण्येन तस्य (अनुमानस्य ) अप्रमाणत्वात्, पर्वतादौ धूमादिदर्शनेन Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ प्रथमः वह्नयादौ न प्रवृत्तिरिति चेत् वयादिसम्भावनयैव तत्र प्रवृत्त्युपपत्तेः। आप्तवाक्यात्मकशब्दस्यापि प्रामण्यं न स्वीकरणीयम् , परस्परविरुद्धार्थाभिधायकानामागमानां विनिगन्तुमशक्यत्वात् , शब्दस्य बासनामात्रप्रभवत्वात् , तन्मात्रजनकत्वाच्च / अन्यथाऽसदर्थप्रतिपादकशब्दप्रयोगो दुर्घट: स्यात् , तर्हि चार्वाकस्याऽऽगमो निष्प्रयोजनः स्यादिति चेत्-न, परं प्रति दूषणपर्यनुयोगात्, परस्य तदनुत्तरमात्रेण निग्रहे च तत्सार्थक्यात् / अत एव "सर्वत्र पर्यनुयोगपराणि सूत्राणि बृहस्पतेः" इत्यभिहितम् / ततोऽदृष्टे वस्तुनि मानाभावान्नास्त्यात्मेति लोकायतिकप्रवादः। आत्मवादिनां मतमुपन्यस्यति 'अचेतनानीति'-.. ( शास्त्रवार्ता) अचेतनानि भूतानि, न तद्धर्मो न तत्फलम् / चेतनास्ति च यस्येयं, स एवात्मेति चापरे // 31 // अन्वयः-अपरे च भूतानि अचेतनानि, चेतना तद्धर्मः न, तत्फलं न, इयं च यस्य स एव आत्मा इति ( मन्यन्ते)। . अपरे च-आत्मवादिन: पुन:, भूतानि-पृथिव्यादीनि, अचेतनानि चैतन्याभाववत्त्वेन प्रमितानि, अतश्चेतना-तों न, भूतस्वभावभूता न, अत एव च तत्फलं न-भूतोपादान कारणजन्या न, मृदो घटस्येव तत्स्वभावस्यैव तदुपादेयत्वात् अस्ति च चेतना, प्रति प्राण्यनुभवसिद्धत्वात्, अतो यस्येयं चेतना स्वभावभूता, फलभूता च, स एवाऽऽत्मा, परिशेषात्, / इति-मन्यन्ते इति शेषः / Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] . कल्पलतावतारिका [17 न चैकत्र भेदाभेदोभयाविरोधसम्पादनाथ कालोऽवश्यमाश्रयणीयः, कथमन्यथा पक्वतादशायां घटादौ "अयं न श्यामः” इत्यादि धी: ? कालस्वीकारे च कालभेदेनैकत्रोभयसमावेशः सम्भवतीति / "इदानी घटः” इत्यादि-प्रतीतो सम्बन्धघटकतया परत्वादिलिङ्गेन वा कालसिद्धिस्तथा च लोकसिद्धत्वात् काल एव स्वीक्रियताम् , लोकासिद्धत्वादात्मस्वीकारो वृथैवेति वाच्यम् / जातिस्मरणस्य भवान्तरानुभूतार्थविषयस्य मतिज्ञानविशेषस्य लोकेन संश्रयादात्मनोऽपि लोकसिद्धत्वात् / तथाहि-न हि भवान्तरानुभूतार्थस्मरणमन्वय्यात्मद्रव्यं विनोपपद्यते, शरीरस्य भवान्तराननुयायित्वात् / न चैवं भवान्तरादागमनाऽविशेषेऽपि केषाश्चिदेव जातिस्मरणं न सर्वेषामिति विशेष: कथमिति वाच्यम् , सर्वेषामभिमतव्यतिरिक्तानां जातिस्मरणाभावस्य नानाविधकर्मविपाकतः सिद्धत्वात् / तथा चोक्तं हरिभद्रसूरिवय्य:"लोकेऽपि नैकतः स्थानादागतानां तथेक्ष्यते / अविशेषेण सर्वेषामनुभूतार्थसंस्मृतिः" // इति // .. . एवञ्च लोकसिद्धत्वाऽविशेषेऽपि सकलप्रयोजनहेतोरनन्य. साधारणगुणस्याऽऽत्मनोऽनङ्गीकारस्तत्तद्वस्तु परिणामान्यथासिद्धस्य कालस्य चाङ्गोकार इति पुरः परिस्फुरतोर्मणिपाषाणयोर्मध्ये मणित्याग पाषाणग्रहणवदतिशोचनीयं, विलसितं देवानांप्रियस्य लोकायतिकस्येति / उपाध्यायास्तु-- . वस्तुत: स्मरणान्यथाऽनुपपत्त्याऽपि लोकसिद्ध एवाऽऽस्मा, शरीरस्य चैतन्ये बाल्येऽनुभूतस्य तारुण्येऽस्मरणप्रसंगात्, चैत्रेणानुभतस्येव मैत्रेण, बालयुवशरीरयोर्भेदात् , परिणामभेदे द्रव्यभेदा Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] शाखवार्तासमुच्चयस्य [ प्रथमः वश्यकत्वात्। न चोपादानेनानुभूतस्योपादेयेन स्मरणादुपपत्तिः, छिन्नकरादेरनुपादानत्वेन च्छिन्नकरादेः पूर्वानुभूतास्मरणप्रसंगात् / न च करेण यदनुभूतं तत् खण्डशरीरोपादानापर-किश्चिदवयवेनाप्यनुभूतम इति तद्गतवासनासंक्रमाद् न काचिदनुपपत्तिरिति वाच्यम् , प्रत्यवयवगतविज्ञानबहुत्वेऽनेकपरामर्शप्रसंगात् / यावदवयवेषु व्या. सज्यवृत्तित्वे च चैतन्यस्य यत्किञ्चिदाश्रय-विनाशे बहुत्वसंख्याया इव विनाशप्रसंगात् / पूर्वचैतन्यविरह-उत्तरचैतन्यानुत्पादात्, परमाणुगतत्वे तद्गतरूपादिवच्चैतन्याऽतीन्द्रियत्वप्रसंगाच्च, रूपस्कन्धवद् विज्ञानस्कन्धैक्योपगमाद् न दोष इति चेत्- न, तथापि “योऽहमनुभवामि”, “सोऽहं स्मरामि'' इत्यभेदाऽवमर्शानुपपत्तेः / सादृश्येन वैसादृश्यतिरस्कारात् तथाऽवमर्शो भवेदेवश्च क्षणभंगे स्मृतिकुर्वद्रूपपरमाणुपुञ्जानामेव स्मृतिनियामकत्वात् न कोऽपि दोष इति चेत् न, स्थैर्यप्रत्यभिज्ञाप्रामाण्ययोरुपपादयिष्यमाणत्वात्। अत्र नव्यनास्तिका:-अवच्छेदकतया ज्ञानादिकं प्रति तादा-- त्म्येन कल्प्यकारणताकस्य शरीरस्यैव समवायेन ज्ञानादिकं प्रति हेतुत्वकल्पनमुचितम् न चैवमात्मत्वं जातिर्न सिद्धयेत् पृथिवीत्वादिना साङ्कर्यात् “व्यक्तरभेदस्तुल्यत्वं सङ्करोऽथानवस्थितिः। रूपहानिरसम्बन्धो जातिवाधकसंग्रहः // " इत्यभियुक्तोक्त्या परस्परसमानाधिकरणात्यन्ता. भावप्रतियोगित्वरूपस्य साङ्कर्यस्य भूतत्वमूर्तत्वयोरिव प्रकृतेऽपि पृथिवीत्वादिना साङ्कादात्मत्वस्य जातित्वबाधात् इति वाच्यम्, उपाधिसाङ्कर्य्यस्येव जातिसाङ्कर्य्यस्याप्यदोषात् / न च तथापि पृथिव्यादिभूतचतुष्कप्रकृतित्वेन शरीरमतिरिच्यते, स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन गन्धाद्यभावस्य गन्धादिकप्रतिबन्धकत्वेन तस्य भूतचतुष्कप्रकृतित्वा Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 16 योगात , पार्थिवादिशरीरे जलादिधर्मस्यौपाधिकत्वात् / न चैवं परात्मरूपस्पर्शादीनामिव तत्समवेतज्ञानादीनामपि चाक्षुषस्पार्शनप्रसङ्गः, रूपादिषु जातिविशेषमभ्युपगम्य रूपाऽन्यतद्वत्त्वेन चाक्षुषं प्रति, स्प र्शान्यतद्वत्त्वेन च स्पार्शनं प्रति प्रतिबन्धकत्वकल्पनात् / इत्थमेव रसादीनामचाक्षुषस्पार्शनत्वनिर्वाहात् / न चोक्तस्मरणानुपपत्तिः, पूर्वघटनाशानन्तरं खण्डघटे कारणगुणक्रमेण तद्गुणसंक्रमवत् पूर्वशरीरनाशोत्तरमुत्तरशरीरे पूर्वशरीरगुणसंक्रमात् / न चैवमवयविज्ञानादावयवज्ञानादिहेतुता कल्पने गौरवं, फलमुखत्वात् / फलमुखगौरवस्य दोषानाधायकत्वनियमात् , मास्तु वाऽवयवी,विजातीयसंयोगेनैव तद्न्यथासिद्धेः। तथा च शरीरान्तरोत्पादेऽपि शरीरत्वघटकविजातीयसंयोगविशिष्टाणुवृत्तिसंस्कारात् तादृशस्मरणोपपत्तिः / न च परमात्मनोऽपि योग्यत्वात् स्वात्मन इव प्रत्यक्षत्वप्रसङ्गः, तत्तदात्ममानसे तत्तदात्मवेन हेतुत्वात् / परेषान्तु तत्तदात्मप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नं प्रति हेतुत्वे विनिगमनाविरहः / किश्चैव संयोगस्य पृथक् प्रत्यासत्तित्वाऽकल्पने लाघवम् / न च द्वथणुकपरमाणुरूपाद्यप्रत्यक्षत्वाय चक्षुःसंयुक्तमहदुद्भूतरूपवत् समवायत्वादिना प्रत्यासत्तित्वे त्रुटिग्रहार्थं संयोगस्य पृथक्प्रत्यासत्तित्वकल्पनमावश्यकमिति वाच्यम्, द्रव्यतत्समवेतप्रत्यक्षे उद्धृतरूपमहत्वयोः समवायसामानाधिकरण्याभ्यां स्वातन्त्र्येण हेतुत्वे दोषाभावात्, अपि चैवमुद्भूतरूपकार्य्यतावच्छेदक द्रव्यप्रत्यक्षत्वमेव,नत्वात्मेतरत्वमपि तत्र निविशत इति लाघवमित्याहुस्तत्रेदमुक्त सूरिवर्यै:( शास्त्रवार्ता . ) मृतदेहे च चैतन्य-मुपलभ्येत सर्वथा / देहधर्मादिभावेन, तद् न धर्मादि नान्यथा॥६५॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य - [प्रथमः अन्वयः-मृतदेहे च सर्वथा, देहधर्मादिभावेन, चैतन्यम् उपलभ्येत, भन्यथा न तद् (तद्-) धर्मादि न / / मृतदेहे च सर्वथा-सर्वप्रकारैः, यथा सजीवशरीरे सर्व प्रकारैः चैतन्योपलब्धिस्तथेति भावः / देहधर्मादिभावेन-देहधर्मत्व-देहकार्य त्वाभ्याम्। चैतन्यमुपलभ्येत-देहत्व-देहरूपादिवत् / अन्यथा-योग्यानुपलम्भे, न-तदभाव एव स्यात् , तथा च तच्चैतन्यं, तद्धर्मादि न-तद्धमभूतं तत्कार्य्यभूतं च न, तद्भावेऽपि (देहभावेऽपि) तदभावात् (चैतन्याभावात् ), घटत्वघटरूपादिवत् / विशेषजिज्ञासुभिः शास्त्रवार्तासमुच्चय आलोकनीयः // . “योऽहं बाल्येऽन्वभूवम् सोऽहं स्मरामि” इत्यादिप्रतीत्या शरीरातिरिक्तस्य सत्तया प्रतीतस्याऽऽत्मनः सिद्धिर्भवति, सतश्चाभावाप्रतीतेः / तथाहि "नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः / उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः / " इत्यादिनाऽसतो भावस्य सतश्चाभावस्य निषेधप्रतिपादनात् / एवश्वाभावः पारमार्थिकत्वं न प्रतिपद्यते शशशृङ्गे भावत्वेनाऽपरिच्छेदात् एवमेव भावस्तुच्छस्वभावं नाप्नोति / नन्वभावोऽपि भावरूपतामापद्यत एव भावरूपस्य दीपस्याऽऽलोकाभावात्मकान्धकारस्वरूपताप्रतिपत्तेरितिचेन्न, दीपसम्बन्धिनोऽन्धकारपरिणामस्य सर्वथाऽभावरूपत्वाभावात् / भास्वरपरिणामत्यागेऽपि द्रव्यत्वापरित्यागात् / नैयायिकैः स्वीकृतमन्धकारस्य तेजोऽभावरूपत्वमपि न / “तमो नीलम्" इति प्रतीतेः सार्वजनीनत्वेन तमो द्रव्यं रूपवत्त्वात् घटवत्, इत्यनुमानेन तत्र- द्रव्यत्वसाधनात् / तथा चोपाध्याया: Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [21 (कल्पलता) . तेजसोऽतिविनिवृत्तिरूपता, स्वीकृता तमसि या कणाशिना / द्रव्यतां वयममी समीक्षिण-स्तत्र पत्रमवलम्ब्य चक्ष्महे // 5 // अन्वय:-कणाशिना, या, तमसि, तेजसः, अतिविनिवृत्तिरूपता, स्वीकृता, समीक्षिणः, अमी, वयम्, पत्रम्, अवलम्ब्य, तत्र, द्रव्यताम्, चक्ष्महे / (कल्पलतावतारिका) कणाशिना-कणादेन मुनिना। या तमसि-अन्धकारे। तेजसः-वह्नः। अतिविनिवृत्तिरूपता-अत्यन्ताभावस्वरूपता / स्वीकृता-अङ्गीकृता। समीक्षिणः-समीचीनतया पर्यवेक्षकाः / अमी-वयम् आर्हताः / पत्रम् अवलम्ब्य-पत्रावलम्बनं कृत्वा / तत्र- तमसि / द्रव्यताम्-द्रव्यस्वभावताम् / चक्ष्महे-ब्रूमः / अत्र पत्रमवलम्ब्येति विशेषणं वक्तु रनुपमप्रतिभाभिव्यञ्जनात् काव्यस्य ध्वनित्वं प्रयोजति / तत्र पत्रेत्येतदशेच्छेकानुप्रासोऽलङ्कारः / अथ "तमो नीलम्" इति प्रतीत्या तमसो नीलरूपवत्त्वे तस्य पृथिवीत्वापत्तिः नीलत्वावच्छिन्नं प्रति पृथिवीत्वेन हेतुत्वादिति चेन्न, आईतानां स्वभाव विशेषस्यय विशिष्टनीलनियामकत्वात्, कणादमतानुयायिनोऽपि अवयवनीलादिनैवाऽवयविनि नीलाद्युत्पत्तौ पृथिवीवेन तत्समवायिकारणत्वाभावात् / न च तमसो द्रव्यत्वे आलोकनिरपेक्षचक्षुह्यत्वं न स्यात्, द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रत्यालोकसंयोगत्वेन हेतुत्वात्, इति वाच्यम् / आलोक विनापि घूकादीनां द्रव्यचाक्षुषोदयाद् व्यभिचारात् / किश्चैवं तमसोऽभावत्वे तेजोज्ञानं विना ज्ञान न स्यात्, अभावज्ञाने प्रतियोगिज्ञानस्यान्वयव्यतिरेकाभ्यां हेतु Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य - [प्रथमः त्वावधारणात् / आलोकं जानतामेव तमः प्रत्यक्षस्वीकारादिष्टापत्ति: कर्तुमशक्या,तेजसोऽप्रतिसन्धानेऽपि तमोऽनुभवस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वात्। अधिक कल्पलतायामालोकनीयम् / तथा चोपाध्याया:(कल्पलता) इमां गिरं समाकर्ण्य, सकर्णा जाङ्गलीमिव / उद्वमन्तु सुखं ध्वान्ते-ऽत्राभावत्वभ्रमं विषम् // 6 // तस्मान्न जायते किश्चि-देकान्ताद् न च नश्यति / प्रसिद्धं निखिलार्थानां, चैलक्षण्यं हि लक्षणम् // 7 // अन्वयः-सकर्णाः, जाङ्गुलीमिव, इमाम, गिरम्, समाकर्ण्य, अत्र, ध्वान्ते, अभावत्वभ्रमम् , विषम , सुखम् , उद्वमन्तु, / तस्मात् , किञ्चित् , एकान्तात् , न च, जायते, न च, नश्यति, हि, निखिलानाम् , त्रैलक्षण्यम् , प्रसिद्धम् / (कल्पलतावतारिका.) ___ सकर्णाः -विद्वांसः। जाङ्गलीम् - विषापनयनविद्यामिव / इमाम्-प्रत्यक्षमनुभूयमानाम् / गिरम्-वाणीम् / समाकर्ण्य-श्रुत्वा / अत्र-सभायाम् / ध्वान्ते-अन्धकारे, तद्विषय इत्यर्थः / अभावत्वभ्रमम्-अभावत्वभ्रान्तिरूपम् / विषम्-गरलम् / सुखं-यथा स्यात्तथा / उद्वमन्तु-प्रतिकर्षन्तु / रूपकोपमयोः संसृष्टिरत्रालङ्कारः / तस्मात् - "नाभावो भावतां याति" इत्यस्य सिद्धत्वात् / किञ्चित्-किमपि वस्तु। एकान्ताव- एकान्ततः / न-नहि / जायते-उत्पद्यते / च-पुनः / न-नहि / नश्यति-विनश्यति / हि-यस्मात् / निखिलानाम् Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [23 सर्वेषां पदार्थानाम् / लक्षण्यम्-उत्पत्तिव्ययध्रौव्यात्मकम् / लक्षणम्असाधारणधर्मः / प्रसिद्धम्-प्रख्यातम् / एवञ्चोक्तयुक्त्या चैतन्यवान् अनादिनिधनत्वात् शरीरभिन्नः सिद्धः परलोक्यपि युक्तमार्गानुसारिभिरात्मा विज्ञेयः। सतो घटस्य यथा प्रत्यक्षेण दर्शनं तथा आत्मनोऽपि कथं न प्रत्यक्षेण दर्शन मिति चेत्, "अहमस्मीति प्रत्ययस्यानुभवसिद्धत्वात्तस्यापि निर्बाधं दर्शनात् / न चेदं न प्रत्यक्षमिति वाच्यम् , व्याध्यादिप्रतिसन्धानविरहेऽपि जायमानत्वात् / आत्मत्वविशिष्टस्यायोग्यत्वे साध्याऽप्रसिद्धथाऽनुमानासम्भवाच्च / एतेन "तत्राऽऽत्मा तावत् प्रत्यक्षतो न गृह्यते” इति न्यायभाष्योक्तमप्यपास्तम् / अधिकं तु लतायामालोकनीयम् / तथा चोपाध्याया:(कल्पलता) यथा कथायां प्रविशन् परस्य, नैयायिकः कारयति प्रतीक्षाम् / तथा यथार्थाऽऽगमबद्धबुद्धि-र्दास्यामि नास्यापि किमेष शिक्षाम्॥८॥ अन्वयः-यथा, परस्य, कथायाम् , प्रविशन् , नैयायिकः, प्रतीक्षाम् , कारयति, तथा यथार्थागमबद्धबुद्धिः, एषः, अस्यापि, शिक्षाम् , न, दास्यामि, किम् ? (कल्पलतावतारिका) यथा-येन प्रकारेण / परस्य-अन्यस्य चार्वाकैः सह स्याद्वादिन इत्यर्थः / कथायाम्-चर्चायाम् / प्रविशन्-प्रवेशं लभमानः। नैयायिकः-तार्किकः / प्रतीक्षाम्-उत्तरदानप्रतीक्षाम् , कालक्षेपमिति यावत्, स्याद्वादिनेति शेषः / कारयति-सम्पादयति / तथा-तेन प्रकारेण / Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ प्रथमः यथार्थागमबद्धबुद्धिः-यथार्थाऽऽहंतागमाभ्यासपरिपक्कमतिः / एषःप्रत्यक्षदृश्योऽहम् / अस्य-नैयायिकस्यापि / शिक्षाम्-दण्डम् / ननहि / दास्यामि-करिष्यामि, अपि तु करिष्याम्येवेति यावत् / अनुप्रासोऽत्रालङ्कारः / चार्वाकादीनुपहसन्त्युपाध्यायाः. (कल्पलता) बोधः स्वार्थावबोधक्षम इह निहताऽशेषदोषेण दृष्टस्तस्मादस्माकमन्तर्बिरचयति चमत्कारसारं विलासम् / येषामेषाऽपि वाणी मनसि न रमते स्वाऽऽग्रहग्रस्ततत्त्वाऽऽलोका लोकास्त एते प्रकृतिशठधियो हन्त हन्ताऽनुकम्प्याः // 9 // ___ अन्वयः तस्मात्, इह, निहिताऽशेषदोषेण, दृष्टः, स्वार्थावबोधक्षमः, बोधः, अस्माकम् , अन्तः, चमत्कारसारम् , विलासम् , रचयति, येषाम् , मनषि, एषाऽपि, वाणी, न, रमते, स्वाग्रहग्रस्ततत्त्वालोकाः प्रकृतिशठधियः, ते, एते, लोकाः, अनुकम्प्या, हन्त ! हन्त ! (कल्पलतावतारिका) तस्मात्-पूर्वोक्तहेतोः। इह-लोके। निहिताशेषदोषेण-विनाशितसमस्तदोषजातेन, वीतरागादिनेति भावः / दृष्ट:-अनुव्यवसितः / अनुव्यवसायविषयीकृत इति यावत् / स्वार्थावबोधक्षमः-स्व विषयावबोधनसमर्थः / "अर्थो विषयार्थनयोर्धनकारणवस्तुषु। अभिधेये च शब्दानां निवृत्तौ च प्रयोजने"इति मेदिनी। बोधः-ज्ञानम् / अस्माकम्आर्हतानाम् / अन्त:-अन्त:करणमध्ये / चमत्कारसारम्-चमत्कार आनन्दविशेषः सारः श्रेष्ठो यस्मिन् तत्तथा / विलासम्-विभ्रमविशे. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 25 षम् / विरचयति-समुत्पादयति / येषाम्-चार्वाकादीनाम् / मनसिहृदये / एषा-इयम्। अपि-सम्भावनायाम् / वाणी-वीतरागवचनम्। न-नहि / रमते-आनन्द लभते / स्वाऽऽग्रहग्रस्ततत्त्वालोकाः-स्वाऽऽ. ग्रहैर्निजाभिनिवेशविशेषैर्यस्तो दूषितस्तत्त्वस्य याथार्थ्यस्य आलोकः प्रकाशो यैस्ते तथा। प्रकृतिशठधियः-स्वभावतो दुष्टबुद्धयः / ते-ताहशदुष्टबुद्धित्वेन प्रसिद्धाः / एते-इमे / लोका:-चार्वाकादयो जनाः। हन्त हन्त-अव्ययद्वयमत्यन्तखेदं सूचयति / अनुकम्प्या:-दयनीयाः / तेषां कृतेऽन्या कापि गतिर्नास्तीति भावः / एवं समीचीनयुक्तिततिभिरात्मानं प्रसाध्य चार्वाकानुपहंसति, वाचकप्रवर: आत्मसिद्धेरिति - ( कल्पलता) आत्मसिद्धेः परं शोका-ल्लोकाः ! लोकायताननम् / समालोकामहे म्लानं, तत्र नो कारणं वयम् // 10 // अन्वयः-लोकाः ! परम् , आत्मसिद्धेः शोकाद् , लोकायताननं, म्लान, समालोकामहै, तत्र, वयं, कारणं, नो / ( कल्पलतावतारिका ) लोकाः-अयि भव्यजना: ! परम्-केवलम् / आत्मसिद्धेः-युक्तिततिकरणकदेहातिरिक्ताऽऽत्मसिद्धितः / पञ्चम्यर्थो जन्यत्वम्, तथा च आत्मसिद्धिजनितादित्यर्थः / शोकात्-हार्दिकशुचः / लोकायताननम्-चार्वाकवदनम् / म्लानम्-वैलक्ष्यमलिनम् / समालोकामहेपश्यामः / तत्र-चार्वाकवदनम्लानतायाम् / वयम्-आईताः / कारणम् Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [प्रथमः निदानम् / न-नहि / किन्त्वस्मदीयाप्रतिहतयुक्तिततिकरणकाऽऽत्मसिद्धिजनितशोक एव कारणमिति भावः / अनुप्रासालङ्कारः / लोकायताननमालिन्ये वयमेव कारणमिति स्फुटतया प्रतीतेर्वस्तुध्वनिरूपमुत्तमं काव्यम् अनुष्टुप्छन्दः / “श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं, सर्वत्र लघु पञ्चमम् , द्विचतुष्पादयोर्हस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः।" इति. तल्लक्षणात् / / // इति चार्वाकमतनिरासः // अथादृष्टसिद्धिप्रकार:( शास्त्रवार्ता० ) यः कर्ता कर्मभेदानां, भोक्ता कर्मफलस्य च / संसर्ता परिनिर्वाता, स ह्यात्मा नान्यलक्षणः॥९॥ अन्वयः-यः कर्मभेदानां कर्ता, कर्मफलस्य च भोका, संसर्ता, परिनिता, स हि आत्मा, भन्यलक्षणः न / यः कर्मभेदानां-ज्ञानावरणादीनां कर्ता, कर्मफलस्य-सुखदुःखादेश्च भोक्ता, तथा संसर्ता-स्वकृतकर्मरूपनरकादिगतिगामी, तथा परिनिर्वाता-कर्मक्षयकारी, हि-निश्चितम् / स आत्मा, नान्यलक्षण:पराभिमतकूटस्थादिरूपः न / ___ कर्तृत्वादिकं च सर्वथाऽनित्यस्य न कथमप्युपपद्यते, कार्यसमये नश्यतो हेतोः कार्यजनकत्वात् / अन्यथा कालान्तरेऽपि कार्योत्पत्तेः प्रसङ्गात् / इति मनो नैवाऽऽत्मा भवितुमर्हति, किन्त्वन्य एव विज्ञानघनः शाश्वत, इति सिद्धम् / तथा च क्लेशविशिष्टस्याऽबाह्याकारस्य मनस आत्मत्वाभावोऽवसेयः / यतो हि तादृशस्य मनसो नित्यत्वे केवलं नामभेदः, अनित्यत्वे यथोक्तात्मलक्षणाभावः / Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [27 आत्मनो नित्यत्वे कस्यचिदेव सुख कस्यचिदेव दुःखमिति वैचित्र्यमनुपपन्नमिहेति / तद्वारयति( शास्त्रवार्ता० ) आत्मत्वेनाविशिष्टस्य, वैचित्र्यं तस्य यद्वाशात् / नरादिरूपं तचित्र-मदृष्टं कर्मसंज्ञितम् // 91 // अन्वयः-आत्मत्वेनाविशिष्टस्य, तस्य, नरादिरूपं वैचित्र्यं, यवशात्, तत् चित्रं, कर्मसंज्ञितम् अदृष्टम् // ___ आत्मत्वेनाविशिष्टस्य-एकजातीयस्य, तस्य-आत्मनः,नरादिरूपं वैचित्र्यं-वैलक्षण्यम् , यद्शात्-यस्माद्धेतोः, तत् चित्रम्-कार्यवैचित्र्यनिर्वाहकविचित्रशक्तिकलितम्, कर्मसंज्ञितं-कर्मापरनामकम् , अदृष्ट-सिद्धथति / तथा समानेऽपि हिं कृष्यादिप्रयत्ने सदुपायेऽपि-अकुण्ठितशक्तिकतदितरयावत्कारणसहितेऽपि-चैत्रमैत्रादीनां धनसम्पत्त्यसम्पत्तिरूपः स्वल्पबहुधान्यसम्पत्तिरूपो यः फलभेदः स युक्तथा विचा र्यमाणः क्लृप्तकारणातिरिक्तकारणमदृष्टं विना न युक्तः, सामग्रीवैषम्यस्यापि हेत्वन्तराधीनत्वमेवाभ्युपगन्तव्यम् / / एवमेव-एकजातीयदुग्धपानादौ पुरुषभेदेन सुखदुःखादितारतम्यलक्षणो य: फलभेदः सोऽतिरिक्तहेतुतारतम्य विना न युक्तोऽत. स्तुल्यारम्भेऽपि फलभेददर्शनात् चार्वाकैरनायत्या कारणान्तरमेष्टव्यम् / तदेवाध्ययनभावनागृहीतशास्त्रतात्पर्य्या आस्तिका अदृष्टं कथयन्ति / - अत्र चार्वाकाः प्रत्यवतिष्ठन्ते-ननु नरत्वादिवैचित्र्यं नरगत्याधर्जकक्रिययैव प्राम्भवीययोपपत्स्यतेऽन्तर्गडुनाऽदृष्टेन किमपि प्रयोजन Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 281 शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ प्रथमः नास्तीति चेन्न,- व्यवहितहेतोः फलपर्यन्तव्यापारव्याप्यत्वावधारणात् / तदिदमुक्तं कुसुमाञ्जलिनामकस्वग्रन्थप्रथमस्तवके न्यायाचायरुदयनमहानुभावैरपि--"चिरध्वस्तं फलायालं न कर्मातिशयं विना"इति / न च नरादिशरीरं तदुपादानवैचित्र्यादेव भोगवैचित्र्यश्च शरीरवैचित्र्यात्, शरीरसंयोगश्चाकाशादाविवाऽऽत्मन्यपीत्यदृष्टस्य क उपयोग, इति वाच्यम् -शरीरसंयोगस्याकाशादावपि सत्त्वेन तत्रापि भोगापत्तेः, उपष्टम्भकसंयोगेन शरीरस्य भोगनियामकत्वे तु तादृश. संयोगप्रयोजकतयैवादृष्टसिद्धः / . न चैवमपि राजादिपरिणतभूतानां विचित्रभोगहेतुस्वभावत्वात् , फलभेदोपपत्तौ न तदर्थं हेत्वन्तरस्यावश्यकतेति वाच्यम् / "भूतात्मक एवाऽऽत्मा न" इत्येतस्य पूर्वप्रघट्टके व्यवस्थापितत्वात् / __ अथैवमपि भोगनिर्वाहकस्याऽऽत्मधर्मस्यैवाऽदृष्टस्य कल्पनात् सर्वमिदमसङ्गतम् / “संभोगो निर्विशेषाणां न भूतैः संस्कृतैरपि” इति स्मरणात् / किश्च-चित्रस्वभावमप्यदृष्टस्याऽनुपपन्नम्,- तद्वैजात्ये मानाभावात्, तत्सत्त्वे कर्मणां विशिष्याऽदृष्टहेतुत्वे गौरवाच्च / न च कीर्तननाश्यतावच्छेदकतया तत्सिद्धिः / तत्र दृष्टत्वस्य स्वाश्रयजन्यता विशेषसम्बन्धेनाऽश्वमेवत्वादिघटितस्य वा तथात्वात् / “अन्यथा मयाऽश्वमेधवाजपेयौ कृतौ", "मया वाजपेयज्योतिष्टोमौ कृतौ' इत्यादि कोर्तननाश्यतावच्छेदकजातिसिद्धौ साङ्कर्य्यस्यापि सम्भवात् / अस्तु वा तत्कीर्तनाभावविशिष्टतत्तत्कर्मत्वेन हेतुत्वम्। अतो न समूहालम्बनहरिगङ्गास्मरणजन्याऽपूर्वस्य गङ्गास्मृतिकीर्तनादनाशे हरिस्मृतेरपि फलानापत्तिः, तज्जन्यापूर्वयोरेकस्य नाशेऽप्यपरस्य सत्त्वे गङ्गास्मृतेरपि वा फलापत्तिरिति चेदत्रोच्यते Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [26 पारगतागमवेदिभिः कर्मणोऽदृष्टस्य वा आत्मभिन्नद्रव्यतया फलवैचित्र्यनिर्वाहकवैचित्र्यशालितया चाङ्गीकरणादुक्तदोषानवकाशात् / तत्र पौद्गलिकत्वे इदमनुमानम्--"अदृष्टं पौद्गलिकम् आत्मानुग्रहोपघातनिमित्तत्वात् शरीरवत् / न चाप्रयोजकत्वम् , कार्यैकार्थप्रत्यासत्त्या तस्य सुखादिहेतुत्वे त्वन्नीत्याऽसमवायिकारणत्वप्रसङ्गात् / " वस्तुतो धर्माधर्मयोर्मानसप्रतिबन्धकत्वादिकल्पनापेक्षया नात्मधर्मत्वमेव कल्पनीयम् इत्यादिकं ज्ञानार्णवेऽनुसन्धेयम् / तद्वैचित्र्यमपि बन्धहेतुत्ववैचित्र्येऽपि संक्रमकरणादिकृतपरिणतप्रवचनानां सुज्ञानमेव / परेषामपि कीर्तनादिनाश्यतावच्छेदकं वैजात्यमावश्यकमेव, अश्वमेधवाजपेयादिघटितस्य गुरुत्वात् , सुखवैजात्यघटितत्त्वेनाऽवि. निगमाञ्च, समूहालम्बनकीर्तनाच्चोभयोरेव वैजात्यावच्छिन्नयोर्नाशः, अन्यथा प्रत्येकनाश्यनाशप्रसङ्गात् / तत्र किञ्चित् प्रतिबन्धकादिकल्पने गौरवाच्चेत्यलमप्रकृतपरिगृह विचारप्रपञ्चेन ? किञ्च-प्राग्जन्मकृतानां नानाकर्मणां न योगोद्देश्यत्वमस्ति, न च ततस्तजन्यफलम् , इति योगरूपप्रायश्चित्तस्याऽदृष्टनाशकत्वं विना न निर्वाहः। न च योगात् कायव्यूहद्वारा भोग एवेति साम्प्रतम् . नानाविधानन्तशरीराणामेकदाऽसम्भवादिति सुस्पष्टं न्यायालोके / न च योगस्य प्रायश्चित्तत्वस्वीकारे भवतामपसिद्धान्त इति वाच्यम् / "सव्वा वि.य पव्वजा पायच्छित्तं भवंतरकडाणं, पावाणं कम्माणं" इति प्रन्थकृता हरिभद्रसूरिणवाऽन्यत्रोक्तत्वात् / अपि च कर्मक्षयार्थितयैव मोक्षोपाये प्रवृत्तिाय्या, न तु दुःखध्वंसार्थितया, दुःखध्वंसस्य पुरुष. प्रयत्न विनैव भावात् / अतोऽपि कर्मसिद्धिः। अपि च लोकस्थिते Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [प्रथमः रपि कर्माधीनतैव अन्यथा ज्योतिश्चक्रादेर्गुरुत्वादिना पातादिप्रसङ्गात्। न चेश्वराधीनतैव, तस्य (ईश्वरस्य) निरस्यत्वादिति किमतिविस्तरेण ? इति स्वपक्षसिद्धथा समधिगताऽनिर्वचनीयानन्दो महोपाध्यायश्चार्वाकानुपहसति, मरीचिरिति-- (कल्पलता) मरीचिरुच्चौः समुदश्चतीयं, जैनोक्तभानोर्यददृष्टसिद्धिः। . निमील्य नेत्रे तदसौ वराक-श्चार्वाकघूकः श्रयतां दिगन्तम् // 11 // अन्वयः-तत् , जैनोक्तभानोः, मरीचिः, इयम् , अदृष्टसिद्धिः, उच्चैः, समुदञ्चति, तत्, वराकः, असो, चार्वाकघूकः, नेत्रे, निमील्य, दिगन्तम् , श्रयताम् / (कल्पलतावतारिका) यत्-यस्माद्धेतोः। जैनोक्तभानो:-जिनस्य सर्वज्ञस्य ऋषभादेरिदं जैनम्, तच्च तदुक्तं तदुपदिष्टम् जैनोक्तम् , तदेव भानुः जैनोक्तभानुस्तस्य तथा। मरीचिः-किरणरूपा / इयम्-एषा / अदृष्टसिद्धिःवादिविप्रतिपत्तिपिशाचीकवलितस्यादृष्टस्य कर्मापरपर्यायस्य सिद्धि. निष्पत्तिस्तथा। उच्चैः-सातिशयम् / समुदञ्चति-समुल्लम त / तत्-तस्माद्धेतोः / वराक:-मूर्खः / असौ-एषः। चार्वाकघूकः - चार्वाक एव घूक उलूकः चार्वाकधूकः, सूर्यकिरणमसहमान उलूक इव जैनोक्ततेजोऽसहमानश्चार्वाक इति भावः / नेत्रे-नयने। निमील्यसंकोच्य / दिगन्तम् - दिक्प्रान्तभागम् / श्रयताम् - श्राश्रयतु / रूपकमलङ्कारः। सादृश्यातिशयमहिम्नोपमानोपमेययोरभेदस्यैव रूप. कालङ्कारात् / अदृष्टे दर्शनान्तरसम्मतिं दर्शयति,-अदृष्टमिति Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः / कल्पलतावतारिका [31 (शास्त्रवार्ता० ) . अदृष्टं कर्मसंस्कारः, पुण्यापुण्ये शुभाशुभे / . धर्माधर्मों तथा पाशः, पर्यायास्तस्य कीर्तिताः॥१०७॥ अन्वयः-अदृष्टम् , कर्म, संस्कारः, पुण्यापुण्ये, शुभाशुभे, धर्माधर्मों, तथा पाशः, तस्य, पर्यायाः, कीर्तिताः / "अदृष्टम्" इति वैशेषिकाः / “कर्म" इति जैनाः / “संस्कारः" इति सौगताः / “पुण्यापुण्ये" इति वेदान्तिन: / "शुभाशुभे" इति गणकाः / “धर्माधर्मों" इति सांख्याः / “पाशः" इति शैवाः / एवमेते तस्य-अदृष्टस्य पाया:-प्रतिशब्दाः, मनीषिभिः कीर्तिताः / तदेवमदृष्टं भिन्नभिन्नेन नाम्ना सर्वेऽपि दार्शनिकाः स्वीकुर्वन्तीति / ___ अथानेनादृष्टेनाऽऽत्मनः कथं संयोग इति चेत्, अत्रोच्यतेअस्यादृष्टस्य हिंसाऽनृतादयो ये हेतवः पूर्वमुक्तास्तक्रियाध्यवसायपरिणत आत्मा, तेन कर्मणाऽन्योन्यसम्बन्धेन बन्धनप्राप्तेः / अमूतस्यापि मूर्तेन सहाऽऽकाशादौ संयोगस्य दर्शनात् , आत्मनोऽपि कर्मसंयोगे स्वीक्रियमाणे क्षत्यभावाच्च / अतश्च हेतोर्मुमुक्षुभिः सूक्ष्मे क्षिभिश्च क्लिष्कर्मसमूहकारणं, यथार्थपदार्थज्ञानप्रतिकूलमज्ञानविवर्धनं लोका. यतमतं विज्ञेयं, त्याज्यश्च / अत एवोक्तमुपाध्यायप्रवर :,-युक्तिरिति(कल्पलता) . युक्तिर्मुक्तिप्रसरहरणी. नास्ति का नास्तिकानां, सर्वा गर्वात् किमु न दलिता सा नयैरास्तिकानाम् // ध्वस्तालोका किमु न जगति ध्वान्तधारा बत स्यात्, किं नोच्छेत्री रविकरततिर्दुःसहोदेति तस्याः // 12 // Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य प्रथमः अन्वयः-नास्तिकानाम् , का युक्तिः, मुक्तिप्रसरहरणी, नास्ति, सा, सर्वा, आस्तिकानाम् , नयैः, गर्वात् , न, दलिता, किमु / बत, ध्वस्तालोका, ध्वान्तधारा, जगति, न स्यात्, किमु, तस्याः, उच्छेत्री, दु:सहा, रविकरततिः, न उदेति किमु ? (अवतारिका) नास्तिकानाम्-नास्त्यदृष्टं परलोको वेति मतिर्येषान्ते नास्तिका- . श्चार्वाकास्तेषान्तथा / का युकि:-कीदृशी विचारणा,कीदृशस्तों वा। मुक्तिप्रसरहरणी-मुक्तेर्मोक्षस्य प्रसरः प्रवाहो मार्गो वा मुक्तिप्रसरस्तस्य हरणी दूरीकी अपहारिका विनाशिकेति यावत्तथा / न-नहि / अस्तिवर्तते / अपितु सर्वापि तदीया युक्तिर्मुक्तिप्रसरावरोधिकैवेति भावः परन्त्विति शेषः / सा-प्रसिद्धा पूर्ववर्णिताः सर्वा निखिलाऽपि तदीया युक्तिः। आस्तिकानाम्-अस्त्यदृष्टं परलोक: सिद्धिश्चेति मतिर्येषां त आस्तिका, आर्हतादयस्तेषान्तथा / नयैः-न्यायैः सप्तनयादिभिरिति यावत् / गर्वात्-मदात् , अभिमानादिति यावत् / न-नहि / दलिता-प्रच्याविता / किमु-प्रश्नार्थकमव्ययम् / कलसे निजहेतुदण्डजः किमु चक्रभ्रमकारिता गुणः / स तदुच्चकुचौ भवन्प्रभाझरचक्रभ्रममातनोति यत् // इति नैषधीयचरित-द्वितीयसर्गस्थ-सप्तविंशतमे श्लोके प्रश्नार्थकस्य किमु शब्दस्य दर्शनात् / बत-खेदार्थकमब्ययम् / ध्वस्तालोका-ध्वस्तो विनाशित आलोक: प्रकाशो यया सा तथा / ध्वान्तधारा-अन्धकारपरम्परा / जगति-संसारे / न-नहिं / स्यात्भवेत् / किमु-सम्भावनायाम् / तस्या:-ध्वान्तधारायाः / उच्छेत्त्रीउच्छेदनकर्ती, समुन्मूलयित्रीति यावत्। दुःसहा-दुःखेन सोढुं योग्या। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 33 रविकरतति:-सूर्यकिरणविस्तारो न स्यात् / न-नहि / उदेति-उदयं लभते, प्रकाशते इति यावत् / किम्-प्रश्नार्थकमव्ययम् / अपि तु प्रकाशत एवेति तात्पर्य्यम् / सूर्यकिरणसन्ततिर्यथा जगति ध्वान्तनिवृत्तिपुरस्सर प्रकाशते तथैवाऽऽस्तिकनयाः मुक्तिप्रसरहरणी नास्तिकानां युक्तिं गर्वदुर्विधामासादयन्तीति भावः / अत्र काव्यप्रकाशादिरीत्या दृष्टान्तालङ्कारः / काव्यानुशासनोक्तप्रकारेण दृष्टान्तस्य निदर्शनायामन्तर्भावान्निदर्शनैवालङ्कारः / श्रार्हतमताश्रयणाय प्रेरयति, वार्तामिति(कल्पलता) वार्तामिमामत्र निशम्य सम्यक् , त्यक्त्वा रसं नास्तिकदर्शनेषु / ऐकान्तिकात्यन्तिकशर्महेतुं, श्रयन्तु वादं परमाहतानाम् // 13 // 'अन्वयः-अत्र, इमां, वार्ता, सम्यक् , निशम्य, नास्तिकदर्शनेषु, रसं, स्यक्रवा, ऐकान्तिकात्यन्तिकशर्महेतु, परमाहतानां (आर्हतानां परं ), वादं, श्रयन्तु / (कल्पलतावतारिका) - अत्र-शास्त्रवार्तासमुच्चयात्मग्रन्थे / इमाम्-पूर्वप्रकाशिताम् / वार्ताम् - दर्शनसिद्धान्तम् / सम्यक्- अविकलम्, समीचीनतयेति यावत् / निशम्य-समाकर्ण्य / नास्तिकदर्शनेषु-चार्वाकादिदर्शनेषु / रसम्-अनुरागम् स्पृहामिति यावत् / त्यक्त्वा-सन्त्यज्य / ऐकान्तिकात्यन्तिकशर्महेतुम्-नियमेनात्यन्तकल्याणकारणम्। परमार्हतानाम्अर्हतो जिनस्येमे पाहताः, परमाश्च ते आर्हताः परमार्हतास्तेषान्तथा। यद्वा आहेतानाम्-अर्हत्सम्बन्धिनाम् / परम्-उत्कृष्टम्, परमश्रेयस्करम् / Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ प्रथमः वादम्-सिद्धान्तवादम् / श्रयन्तु-आश्रयन्तु / संसेवन्तामिति यावत् / ऐकान्तिकात्यन्तिकशर्महेतु-परमाहतवादाश्रयणे पूर्वोक्तवार्ताश्रवण-ना. स्तिकदर्शनानुरागत्यागयोर्हेतुत्वात्काव्यलिङ्गमलङ्कारः / (कल्पलता) अभिप्रायः सूरेरिह हि गहनों दर्शनततिनिरस्या दुर्धर्षा निजमनसमाधानविधिना / . तथाप्यन्तः. श्रीमन्नयविजयविज्ञाहिभजने, .. न भग्ना चेद्भक्तिनं नियतमसाध्यं किमपि मे // 14 // अन्वयः-हि, इह, सूरेः, अभिप्रायः, गहनः, निजमतसमाधानविधिना, दुर्धर्षा, दर्शनततिः, निरस्या, तथापि, चेत्, श्रीमन्नयविजयविशांहिभजने, अन्त:, भक्तिः, न, भग्ना, मे, किमपि, असाध्यम् , न, नियतम् / (कल्पलतावतारिका) हि-निश्चयेन / इह-शास्त्रवार्तासमुच्चयात्मकग्रन्थे / सरेः-सूरि. पदभाजनमनीषिप्रवरस्य,हरिभद्रसूरेरिति यावत्। अभिप्राय:-आशयः / "आशयः स्यादभिप्राये पनसाधारयोरपि” इति मेदिनी। गहनः-कठिनः / निजमनसमाधानविधिना - स्वमतसाधकसमाधानप्रकारेण / दुर्धर्षादुःखेन धर्षितुं योग्या। दर्शनततिः-परदर्शनकदम्बकम् / निरस्यानिराकरणीया / तथापि-तादृशदर्शनततिनिराकरणरूपकार्यसत्त्वेऽपि / चेत्-यदि / श्रीमन्नयविजयविज्ञाहिभजने-उपाध्यायश्रीनयविजयजिद्गुरुप्रवरचरणसेवायाम् / अन्तः-अन्तःकरणे / भक्ति:-भजनम्। भाव इति यावत् / न-नहि / भग्ना-विनष्टा / त_ति शेषः / Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] ... कल्पलतावतारिका .[35 मे-मम यशोविजयस्य / कृते इति शेषः / किमपि-किश्चिदपि / असाध्यम्-साधनानहम् / न-नहि। सर्व सुसाध्यमिति यावत् / एतेन श्रीमन्नयविजयजिदभिधाननिजगुरौ दृढा भक्तिय॑ज्यते / तथा च वस्तुध्वनिः / . . . (कल्पलता) यस्यासन् गुरवोऽत्र जीतविजयप्राज्ञाः प्रकृष्टाशया, भ्राजन्ते सनया नयादिविजयप्राज्ञाश्च विद्याप्रदाः / प्रेम्णां यस्य च सम पद्मविजयो जातः सुधीः सोदरस्तेन न्यायविशारदेन रचिते ग्रन्थे मतिर्दीयताम् // 15 // , अन्वयः- यस्य, प्रकृष्टाशयाः, जीतविजयप्राज्ञाः, गुरवः, च, सनया, नयादिविजयप्राज्ञाः, विद्याप्रदाः, (गुरवः), भ्राजन्ते, च, यस्य, प्रेम्णाम्, सद्म, सुधीः, सोदरः, पद्मविजयः, जातः, न्यायविशारदेन, तेन, रचिते, अत्र, ग्रन्थे, मतिः, दोयताम् / . ... (कल्पलतावतारिका) यस्य-श्रीयशोविजयोपाध्यायस्य / प्रकृष्टाशया: उत्तमाभिप्रायाः। जीतविजयप्राज्ञा:-जीतविजयनामानो मनीषिणः / गुरवः-पितृव्यगुरवः / “भ्राजन्ते" इति पदस्य देहलीदीपन्यायेनोभयत्र सम्बन्धात् / भ्राजन्ते-दीप्यन्ते / च-पुनः / सनया:-नयविवेकशालिनः / नयादिविजयप्राज्ञाः-श्रीनयविजया मनीषिणः / विद्याप्रदा:-ज्ञानदातारो गुरवः / भ्राजन्ते-विराजन्ते / एतद्विशेषणं निजगुरुभिर्वाराणस्यादिस्थले स्वं नीत्वा सह स्थित्वाऽऽन्वीक्षिक्यादिविद्याः पाठिता इति व्यनक्ति। च-पुनः। यस्य-महोपाध्यायस्य / प्रेम्णाम्-प्रीतिनाम् / Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य - [प्रथमः - सम-सदनम् / सुधी:-समीचीनबुद्धिः / सोदर:-सगर्भः / पअविजयः-पद्मविजयनामा / जात:-समजनि / तेन-तादृशेन विशुद्धगुरुसम्प्रदायप्रयोज्य शुद्धविद्याभाजनेनेत्यर्थः / न्यायविशारदेन-न्यायविशारदेतिकाशीविद्वत्प्रदत्तविरुदेन, तथा च तेषामेवोक्ति:-“यस्मै न्यायविशारदत्वबिरुदं, काश्यां प्रदत्तं बुधै" रिति / महोपाध्याययशोविज. येन / रचिते-विरचिते / अत्र ग्रन्थे-कल्पलताभिधपश्चाङ्गकवाक्ये / "पश्चाङ्गक वाक्यं ग्रन्थः / " "विशयो विषयश्चैव पूर्वपक्षस्तथोंत्तरम् / निर्णयश्चेति पञ्चाङ्गं शास्त्रेऽधिकरणं स्मृतम् / " अथवा-सम्बन्धप्रयोजनज्ञानाहितशुश्रूषाजन्यश्रुतिविषयशब्दसन्दर्भो प्रन्थः / मति:-बुद्धिः / दीयताम्-न्यस्यताम् / सावधानेन विदुषा ग्रन्थोऽयमालोचनीय इति भावः / ___अन्थोऽयं विशुद्धंगुरुसम्प्रदायप्रयोज्य शुद्धविद्याभाजनन्यायवि. शारदविवेचितो नहि येन केनापि सुप्रवेश, इति व्यङ्ग यस्यैवार्थस्यभङ्गथाऽभिधानात्पर्य्यायोक्तनामाऽलङ्कारः / पर्यायोक्तस्य च वैशधेन प्रतीयमानार्थतया ध्वनावेवाऽन्तर्भाव आलोकनीयो ध्वन्यालोकादौ / "पर्यायोक्तं तु गम्यस्य वचो भङयन्तराश्रयम्" बहुत्र लक्षणश्रवणात् / अनुप्रासश्च शब्दालङ्कारो विज्ञेयः / कविनिष्ठसुधीवरगुरुवरजीतविजयनयादिविजय-सोदरपद्मविजयविषयकरत्याख्यभावस्य पर्यायोक्तान तया प्रेयोऽलङ्कारश्चाप्यवसेयः / / चरमसूक्तद्वयं प्रतिस्तवकप्रान्तेऽवतार्यम् / . आत्मसिद्धिन्तथाऽदृष्टसिद्धिं चार्वाकखण्डनम् / मङ्गलं साधयित्वा च, प्रथमः स्तवकोऽभवत् // 1 // Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका - - इति शासनसम्राट-तपागच्छाधिपति-स्वतन्त्रस्वतन्त्र-जगद्(गुरु-बालब्रह्मचारिभट्टारकाचार्यमहाराजश्रीविजयनेमिसूरीश्वरमहाराज। पट्टालङ्कारशास्त्रविशारदकविरत्नपीयूषपाणिपूज्यपादाचायश्रीविजयामृतमरिवरसन्दृब्धायां महोदधिकल्पशास्त्रवार्तासमुच्चय-कल्पलानु-7 सारिण्यां-कल्पलतावतारिकायां प्रथमः स्तवकः / * अथ द्वितीयः स्तवकः * द्वितीयस्तवकादिममङ्गल निबध्नाति अप्रतीपायेति(कल्पलता) . अप्रतीपाय दीपाय, सतामान्तरचक्षुषे / नमः स्याद्वादितन्त्राय, स्वतन्त्राय विवस्त्रते // 1 // अन्वय:--अप्रत पाय, दीपाय, सताम् , आतरचक्षुषे, स्वतन्त्राय, विवस्वते, स्याद्वादितन्त्राय, नमः / . (कल्पलतावतारिका) अप्रतीपाय-न प्रतीपं प्रतिकूलं किमपि पवनादिक यस्य तस्मै, अप्रतिहतायेति यावत् / द पाय-प्रदीपाय हृत्कन्दरावभासनपदीपात्मने / सताम्-सत्याभिलाषलसितात्मनाम् / आन्तरचक्षुषे-आभ्यन्तरनेत्रस्वरूपाय। स्वतन्त्राय-यथेच्छकरणसमर्थाय। विवस्वते-सूर्यस्वरूपाय विश्वदीगयेति यावत् / स्याद्वादितन्त्राय-अर्हच्छासनाय, जिनागमायेति यावत् / “अहंजिनः पारगतस्त्रिकालवित्, क्षीणाष्टकर्मा फमेष्ठ्यघीश्वरः / शम्भुः स्वयम्भूर्भगवाञ्जगत्प्रभुस्तीर्थङ्करस्तीर्थकरो जिने Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [द्वितीयः श्वरः // 1 // स्याद्वाद्यभयदसार्वाः, सर्वज्ञः सर्वदर्शिकेवलिनौ / देवाधिदेवबोधदपुरुषोत्तमवीतरागाप्ताः // 2 // " इत्यभिधानचिन्तामणिः / नमःनमस्कारोऽस्तु। अनुप्रास-व्यतिरेक-रूपकालङ्कतयः / (शास्त्रवार्ता० ) कालादीनां च कर्तृत्वं, मन्यन्तेऽन्ये प्रवादिनः / केवलानां तदन्ये तु, मिथः सामग्र्यपेक्षया॥५२॥ अन्वय:-अन्ये, च, प्रवादिनः, कालादीनां, केवलानां, कर्तृत्वं, मन्यन्ते, तदन्ये, तु, मिथः, सामप्रथपेक्षया ( मन्यन्ते ) / . . ____ (अव०) अन्ये च- एकान्तवादिनः / प्रवादिनः कालादीनां केवलानां-परक्लुप्तहेतुरहितानामन्यनिरपेक्षाणामिति यावत् / कर्तृत्वम्-असाधारणत्वेन हेतुत्वं / मन्यन्ते तदन्ये तु-अनेकान्तवादिनः परमाईता इति यावत् / सामग्रथपेक्षया-सामग्रीप्रविष्टत्वेन / मथ:-परस्परम्, सहकारिलक्षणं कर्तृत्वं मन्यन्ते, इत्यर्थः / तथा च सम्मतिसूत्रम्-"कालो सहाव-णियई पुवकयं पुरिसकारणेगन्ता। मिच्छत्तं ते चेव उ, समासो हुँति सम्मत्तं / ( काल: स्वभावनियती पूर्वकृतं पुरुषकारणमे कान्तात् / मिथ्यात्वं त एव तु समासतो भवन्ति सम्यक्त्वम् ) इति / तत्र केवलकालकर्तृत्ववादिनामभिप्राय:, तथाहि-कालव्यतिरेकेण स्त्रीपुंससंयोगादिजन्यत्वेन पराभिमतस्यापि गर्भस्य जन्म न भवति / नहि तज्जन्मनि गर्भपरिणतेहेतुत्वम् .अपरिणतस्यापि कदाचिजन्मदर्शनात् / तथा कालोऽपि शीतोष्णवर्षाद्युपाधिः, तद्व्यतिरे Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [36 केण न भवति / तथा शुभादिकम् -स्वर्गादिकम् लोके यत्किश्चित् घटादिकायं दृश्यते, तदपि कालव्यतिरेकेण न भवति / कर्मदण्डादिसत्त्वेऽपि कालान्तर एव स्वर्गघटाद्युत्पत्तेः। तस्मात् असौ कालः स्वातन्त्र्येण कर्तेति / किश्च-काल उत्पन्नानां प्रकृतपर्यायोपचयं करोति। तथा कालः प्रकृतपर्यायान्तरपर्यायभाज: करोति / तथा कालः-अजनितकारणेषु पराभिमतकारणेषु सत्सु विवक्षितकार्यमुपदधाति, अतश्च हेतोः कालःसृष्टिस्थितिप्रलयहेतुतयाऽनपलपनीयकारणताकः / ___ एवं स्थाल्यादिसन्निधाने सत्यपि कालाहते शुद्धानां विलक्षणरूपरसादिरूपविक्लितिपरिणामोऽपि न दृश्यतेऽतोऽपि कालस्य कर्तृत्वमुपपद्यते / किं बहुना-कालाभावे गर्भादि सर्वं कार्यजातमव्यवस्थयाऽनियमेनैव स्यात् / पराभिमतमातापित्रादिहेतुसन्निधानमात्रादेवाऽविलम्बन गर्भाधुत्पत्तिप्रसङ्गात् / ___ ननु कालोऽपि यद्येक एव सर्वकार्यहेतुस्तदा युगपदेव सर्वकार्योत्पत्तिः। तत्तत्काये तत्तदुपाधिविशिष्टकालस्य हेतुत्वे चोपाधीनामेवाऽऽवश्यकत्वात् / कार्यविशेषहेतुत्वमिति गतं कालवादेनेति चेत् . अत्र नव्या:-क्षणरूपः कालोऽतिरिच्यत एव, स्वजन्यविभागप्रागभावविशिष्टकर्मणस्तथात्वे जाते विभागे तदभावापत्तेः। तदाऽन्यविशिष्टकर्मणस्तथात्वेऽननुगमात् / तस्य च तत्क्षणवृत्तिकार्ये तत्पूर्वक्षणत्वेन हेतुत्वम् तत्क्षणवृत्तित्वञ्च तत्क्षणस्याप्यभेदेऽपि “इदानी क्षणः” इति व्यवहारात कालिकाऽऽधाराधेयभावसिद्धेः / अतस्तत्तत्क्षणतन्नाशानां तत्तत्पूर्वक्षणजन्यत्वाद् न क्षणिकत्वानुपपत्तिः / एवञ्च क्षणिकेनैव क्षणेन कार्यविशेषजननात् नातिरिक्तहेतुसिद्धिरिति / .. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 ]. शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ द्वितीयः केवलस्वभावकारणतावादिनामभिप्राय:(शास्त्रवार्ता) न स्वभावातिरेकेण, गर्भबालशुभादिकम् / यत्किञ्चिजायते लोके, तदसौ कारणं किल॥५७॥ अन्वयः-लोके, गर्भबालशुभादिकं, यत्किञ्चित् , स्वभावातिरेकेण, न जायते, तत्, असो, कारणं, किल / (अव०) यस्मात् स्वभावमतिक्रम्य, गर्भबालशुभादिकं-किश्चिदपि कार्य / लोके न जायते-तस्मादसौ स्वभावः / कारणम्-कादाचित्कत्वनियामक इत्यर्थः / आकाशादीनां कादाचिंतकत्ववद् घटादीनां कादा चित्कत्वस्येतरानियम्यत्वात् / . किञ्च सर्वे भावाः स्वभावेन विशिष्टसंस्थानादिप्रतिनियतरूपेण स्वीयस्वीयसत्तायां वर्तन्ते, नाशकाले निवर्तन्ते च, अनियतभावनिरपेक्षा भवन्ति / . ___ जगति स्वभावेन विना प्रतिनियतकालव्यापारादिसामग्रीसमवधानेऽपि मुद्गपक्तिरपि नेष्यते, यतोऽश्वमाषस्य कङ्कदुकस्य पक्तिर्न भवति / न ह्यश्वमाषे विलक्षणाग्निसंयोगादिकं नास्तीति वक्तुं शक्यते एकयैव क्रियया तत्तदन्यवह्निसंयोगात्, नचादृष्टवैषम्यात् तदपाकः, दृष्टसाद्गुण्ये तवैषम्याऽयोगात् / अन्यथा दृष्टदण्डनुन्नमपि चक्र न भ्राम्येत् / तत्स्वभावरहितादपि चेदधिकृतकार्योत्पादः स्वीक्रियेत तदाऽनिष्टप्रसंगोऽनिवारितः स्यात् / अतत्स्वभावस्य तुल्यतया मृदा कुम्भ एव जन्यते न पटादीति नियमो न स्यात् / Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] . कल्पलतावतारिका [ 41 ननु नातत्स्वभावत्वं सज्जननप्रयोजकमुच्यते येनेयमापत्तिः सम्भ. वेत् / किन्तु सामग्रीमेव कार्यजनिकां ब्रूमः अश्वमाषस्य च पक्तिं प्रति स्वरूपयोग्यतैव नेति को दोष इति चेत् अत्र स्वभाववादिनः अन्तरङ्गत्वात् स्वभाव एव कार्यहेतुर्न बाह्यकारणम् / न च मृत्स्वभावाविशेषाद् घटादिका-विशेषप्रसङ्गः। "स्वस्य भावः कार्यजननपरिणतिः” इति स्वभावार्थत्वात् / तस्याश्च काय्र्यैक्यव्यङयत्वात्। नचेदेवमङ्कुरजननस्वभावं बीजं प्रागेवाङ्करं जनयेत् / सहकारिलाभा. ऽलाभाभ्यां हेतोः कार्यजननाजनने उत्पत्स्येते इति चेत् न, सहकारिचक्रानन्तर्भावेन विलक्षणवीजत्वेनैवाङ्करहेतुत्वौचित्यात् / ____ न च सहकारिचक्रस्याऽतिशयाधायकत्वं त्वयाऽपि कल्पनीयमिति तस्य तत्कार्यजनकत्वकल्पनमेवोचितमिति वाच्यम् / पूर्वपूर्वोपादानपरिणामानामेवोत्तरोत्तरोपादेयपरिणामहेतुत्वात् / अत एव कालवादाप्रवेशात् / न च चरमक्षणपरिणामरूपबीजस्यापि द्वितीयादिक्षणपरिणामरूपाङ्घराजनकत्वात् व्यक्तिविशेषमवलम्ब्यैव हेतुहेतुमद्भावो वाच्योऽन्यथा व्यावृत्तिविशेषानुगतप्रथमादिचरमपर्यन्ताकरक्षणात् प्रतिव्य वृत्तिविशेषानुगतानां चरमबीजक्षणादिकोपान्त्याकुरक्षणानां हेतुत्वे कार्यकारणतावच्छेदककोटावेकैकक्षणप्रवेशाप्रवेशाभ्यां विनिगमनाविरहप्रसङ्गात् / तथा च तज्जातीयात् कार्यात् तज्जातीयकारणानुमानभङ्गप्रसङ्ग इति वाच्यम् / सादृश्य तिरोहितवैसादृश्यनाङ्करादिना तादृशबीजादीनामनुमानसम्भवात् / प्रयोज्य. प्रयोजकमावस्यैव विपक्षबाधकतर्कस्य जागरूकत्वात् / अधिकमध्या. ममतपरीक्षायाम् / ततः स्वभावहेतुकमेव जगदिति स्थितम् / तथा चोक्तम् Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ द्वितीयः कः कण्टकानां प्रकरोति तैदण्यं, विचित्रभावं मृगपक्षिणाञ्च / स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं, न कामचारोऽस्ति कुतः प्रसङ्गः / / // उक्तः स्वभाववादः // अथ नियतिवादिनामभिप्रायमाह( शास्त्रवार्ता० ) नियतेनैव रूपेण, सर्वे भावा भवन्ति यत् / ततो नयतिजा ह्येते, तत्स्वरूपानुवेधतः // 61 // . अन्वयः- यत् , सर्वे, भावाः, नियतेनैव, रूपेण, भवन्ति, ततः, तत्स्वरूपानुवेधतः, एते, हि, नयतिजाः / (अव०) नियतेनैव-सजातीयविजातीयव्यावृत्तेन स्वभावानुगतेनैव / रूपेण-यस्माद्धेतोः। सर्वे भावा भवन्ति ततस्तस्माद्धेतोहिनिश्चितम् / एते-भावाः / नियतिजा:-नैयत्यनियामकतत्त्वान्तरोद्भवाः / तत्स्वरूपानुवेधतः-नियतिकृतप्रतिनियतधर्मोपश्लेषात् / दृश्यते हि तीक्ष्णशस्त्राद्युपहतानामपि मरणनियतताभावेन मरणम् / जीवनियततया च जीवनमेवेति / किञ्च पटघटादिकं वस्तु विवक्षितकाल एव दण्डादेः विवक्षिताल्पबहुदेशव्यापि जायमानं दृश्यते तद् घटादिक वस्तु विवक्षितकाल एव ततो दण्डादेस्तावद्देशव्यापि जगति नियतं जायते, तस्माद्धेतोस्तोत् को नियतिं बाधितुं क्षमः / प्रमाणसिद्धेऽर्थे बाधाऽनवतारात् / नियतरूपावच्छिन्नं प्रति नियतेरेव कारणत्वात् / अन्यथा नियतरूपस्याप्याकस्मिकतापत्तेः, न च तावद्धर्मकत्वं न जन्यतावच्छे. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 43 दकम् / किन्त्वर्थसमाजसिद्धमिति वाच्यम् / नियतिजन्यत्वेनैवोपपत्तावार्थसमाजाकल्पनात् / भिन्नसामग्रीजन्यतयैकवस्तुरूपव्याघातापतेश्च / तदुक्तम्प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः, सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा। भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः / / किञ्च जगति नियतिं विना मुद्गपक्तिरपि न दृश्यते / यतो मुद्गपक्तिजनकस्वभावव्यापारादिसत्त्वेऽपि मुद्गपक्तिर्नानियता किंतु स्वरूपनियता / न चैतद् नैयत्यं स्वभावप्रयोज्यम् / स्वभावस्य कायॆकजात्यप्रयोजकत्वात् / अतिशयरूपस्यापि तस्य विशेष एव प्रयोजकत्वात् / अन्यथाऽनियतत्वेन हेतुना सर्वभावः प्रसज्यते व्यक्त्यविशेषात् / घटपटाद्यविशेषापत्तेः। // इति नियतिवादः // अथ कर्मवादः- . ( शास्त्रवार्ता०) . न भोक्तव्यतिरेकेण, भोग्यं जगति विद्यते / न चाकृतस्य भोक्ता स्यान्मुक्तानां भोगभावतः॥६५॥ अन्वयः-भोक्तृव्यतिरेके, भोग्यं, न, विद्यते, न, चाकृतस्य, भोक्ता, स्यात् , मुक्तानां, भोगभावतः / (अव०) “भोक्तव्यतिरेकेण-चराचरे / जगति भोग्यं न विद्यते-भोग्यपदस्य ससम्बन्धिकत्वात् / नचाकृतस्य भोक्ता स्यात्-- स्वव्यापारजन्यस्यैव स्वभोग्यत्वदर्शनात् / अन्यथा मुक्तानामपि भोगभावतः Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [द्वितीयः भोगप्रसङ्गात् / अतो जगहेतुत्वं कर्मण्येव नान्यत्र / पराभिमतहेतूनां व्यभिचारादिति भावः / किश्च तत्कर्मवैधुर्ये मुद्गपक्तिरपि न स्यात् / अतएव दृष्टकारणानाम दृष्टव्यञ्जय त्वम्' इति सिद्धान्तः / तदुक्तम् - यथा यथा पूर्वकृतस्य कर्मणः फलं निधानस्थमिवाऽवतिष्ठते / तथा तथा तत्प्रतिपादनोद्यता, प्रदीपहस्तेव मतिः प्रवर्तते // न च विपाककालापेक्षणात् कालवादप्रवेशम्तस्य कर्मावस्थाविशेषरूपत्वात्। नच कर्महेत्वपेक्षया वैयग्रथम् अनादित्वात् कर्मपरम्परायाः। एवञ्च केवलानां कालादीनां जगद्धेतुत्वं न तु समुदितानामिति तेषां तात्पर्य्यम् / // इति कर्मवादः // अथ सिद्धान्तवादः(शास्त्रवार्ता) तत्तकालादिसापेक्षो, विश्वहेतुः स चेन्ननु / मुक्तः स्वभाववादः स्यात्, कालवादपरिग्रहात्॥७६॥ अन्वयः- तत्तत्कालादिसापेक्षः, स:, विश्वहेतुः, चेत्, ननु, मुक्तः, स्वभाववादः, स्यात् , कालवादपरिग्रहात् / (अव०) तत्तत्कालादिसापेक्षः-तत्तत्क्षणादिसहकृतः / सः-स्वभावः / विश्वहेतुः-कालक्रमेण कार्यक्रमोपपत्तेरिति चेत् ननु-हत्याक्षेपे / स्वभाववादो मुक्तः-स्यात् / कालवादपरिग्रहात्-काल हेतुत्वाश्रयणात्। ननु क्षणकस्वभ वेनायं दोष इत्युक्त मेवेति चेत् उत्तम्, परं न युत्तम्। एकजातीयहेतु विना काय्यकजात्याऽसम्भवात् / कुर्वद्रूपत्वस्य च जातित्वाभावेन घट प्रति घटकुर्वपत्वेन हेतुत्वस्य वक्तुमशक्यत्वात् / Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [45 सामग्रीत्वेन कार्यव्याप्यत्वस्य वास्तविकत्वेन गौरवस्याऽदोषत्वात्, प्रत्यभिज्ञादिबाधेन क्षणिकत्वस्य निषेत्स्यमानत्वाञ्च / किश्चैकत्र घटकुर्वद्रूपसत्त्वेऽन्यत्र घट नुत्पत्तेर्देशनियामकहेत्वाश्रयणे स्वभाववादत्यागः / दण्डादौ घटादिहेतुत्वं प्रमायैव प्रेक्षावत्प्रवृत्तेश्च / अन्यथा दण्डादिकं विनापि घटादिसम्भावनया निष्कम्पप्रवृत्त्यनुपपत्तेरिति दिक् / न च निर्हेतुकाभावा इत्यभ्युपगमेनापि स्वभावधादसाम्राज्यम्। तत्र हेतूपन्यासे वदतो व्णघातात् / तदुक्तम्न हेतुरस्तीति वदन् सहेतुक, ननु प्रतिज्ञा स्वयमेव बाधते / अथापि हेतुप्रलयादसौ भवेत्, प्रतिज्ञया केवलयाऽस्य किं भवेत् // न च ज्ञापकहेतूगन्यासेऽपि कारकहेतुप्रतिक्षेपवादिनो न स्वपक्ष. बाधेति वाच्यम्, ज्ञानजनकत्वेनैव ज्ञापकत्वात् . अनियतावधित्वे कादाचिकत्वव्याघातात्, नियतावधिसिद्धौ तत्त्वस्यैव हेतुत्वात्मकत्वाच्च / अत्यथा “गर्दभात् 'धूमः" इत्यपि प्रमीयेत / ___अत एव केवलकालवादोऽपि न साधीयान् / अन्यानपेक्षात् केवलात् कालात् कस्यचिदपि कार्यस्यांनुत्पत्तेः / यदि केवलात् कालात् कार्यस्योत्पत्ति: स्यात्तदा तेन कारणेन भवितव्यम् / सैव नास्तीति कुतस्तस्य जगद्धेतुत्वम् / विवक्षितसमये कार्यान्तरस्याप्युत्पत्तिप्रसङ्गात् / न च तत्क्षणवृत्तिकार्ये तत्पूर्वक्षणहेतु वे कथनान्न दोष इति पूर्वमुक्तमेवेति वाच्यम् / अग्रे भाविनस्तत्क्षणवृत्तित्वस्यैव फलत पापाचत्वात् / तत्क्षणवृत्तिकार्ये तत्पूर्वक्षणेन हेतुत्वम् / तदुत्तरक्षणविशिष्टे कार्ये तत्क्षणत्वेन वा ? इति विनिगमनाविरहाच्च / किश्च यस्माद्धेतोः समयादावविशिष्टेऽपि तत्कालजन्य घटादि सर्वत्रैव नोत्पद्यते तन्त्वादौ तदनुपपत्तेरतस्तत्फलं विचक्षणैः कालाति Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46] शाम्नवार्तासमुच्चयस्य [ द्वितीयः रिक्तदेशादिहेतुजन्य विज्ञेयम् / न च मृदोऽन्यत्र घटस्यानापत्तिरेव, काले हेतुसत्त्वेऽपि देशे कार्यानापत्तेरिति वाच्यम् / मृदजन्यत्वेन मृदवृत्तित्वस्याऽऽपाद्यत्वात्, मृदजन्यत्वञ्च जन्यतासम्बन्धेन मृद्भिन्न. त्वम् / अतो न तर्कमूलव्याप्त्यसिद्धिः / न च तत्स्वभावादेव तस्य काचित्कत्वम्. फलतस्तत्स्वभावत्वस्यैवाऽऽपाद्यत्वात् / .. तथा चोक्त सूरिपादैः अतः कालादयः सर्वे समुदायेन कारणम् / गर्भादेः कार्यजातस्य' विज्ञेया न्यायवादिभिः // 79 // न चैकैकत एवेह क्वचित्किञ्चिदपीक्ष्यते / तस्मात् सर्वस्य कार्यस्य सामग्री जनिका मता // 80 // इह जगति नियत्यादेरेकैकतः कापि किञ्चिद् घटादिकायं जायमानं न प्रतीयते / तस्माद्धतो: सर्वस्य घटादेः कार्यस्य सामग्री कार्यो पधायिका मता। सामग्या कारणकूटेनैव कार्य्यजातस्य जनननियमात् / एवं ये केवलं पुरुषार्थस्य कार्यमानहेतुत्वं वदन्ति तेऽपि भ्रान्ता एव। सत्यपि पुरुषार्थे बहुशः कार्यानुत्पादस्य दर्शनादिति सर्व सुस्थम्। सामग्रया एव हेतुत्वं, कालादेन पृथक् पृथक् / इतीदं साधयित्वाऽयं, द्वितीयः स्तवको गतः // 2 // / इति शासनसम्राट-तपागच्छाधिपति-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-जगद्गुरु-बालब्रह्मचारिभट्टारकाचार्यमहाराजश्रीविजयनेमिसूरीश्वरमहाराजपट्टालङ्कारशास्त्रविशारदकविरत्नपीयूषपाणिपूज्यपादाचार्यश्रीविजयामृतसूरिवरसन्हन्धायां महोदधिकल्पशास्त्रवार्तासमुच्चय-कल्पलानुसारिण्यां-कल्पलतावलारिकायां द्वितीयः स्तवकः / Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका / 47 " अथ तृतीयः स्तवकः ॐ तृतीयस्तवकादिममङ्गलमाविर्भावयति लताकृत् सर्व इति(कल्पलता) सर्वः शास्त्रपरिश्रमः शमवता-माकालमेकोऽपि यत्,साक्षात्कारकृते धृते हृदि तमो, लीयेत यस्मिन् मनाक् / यस्यैश्वर्यमपङ्किलं च जगदु-त्पादस्थितिध्वंसनैस्तं देवं निरवग्रहग्रहमहा-ऽऽनन्दाय वन्दामहे // 1 // अन्वयः-यत्साक्षात्कारकृते, शमवताम् , आकालम् , एकोऽपि, शास्त्रपरिश्रमः, सर्वः, यस्मिन् , मनाक् (अपिं), हृदि, धृते (सति), तमः, लीयेत, च, यस्य, ऐश्वर्यम् , जगदुत्पादस्थितिध्वंसनैः, अपङ्किलम् , निरवग्रहग्रहमहाऽऽनन्दाय, तम् , देवम् , वन्दामहे / ( कल्पलतावतारिका ) यत्साक्षात्कारकृते-यदीयसाक्षात्कारार्थम् / “अथें कृते च तादर्थे” इति कोष: / शमवताम्-शान्तिशालिनाम् योगीश्वराणामिति यावत् / आकालम्-कालमभिव्याप्येत्यर्थः। भूतभविष्यद्वर्तमानकाल. सम्बन्धिपदार्थज्ञानपुरस्सरमिति यावत् / एकोऽपि–एकत्वसंख्याविशिष्टोऽपीत्यर्थः / शास्त्रपरिश्रमः-शास्त्रविषयकव्यवसायः / सर्व:समस्तशास्त्रविषयक इत्यर्थः / यस्मिन्-यादृशे देवे / मनाक-ईषत् / (अपि सम्भावनायाम् ) 'अपि सम्भावना प्रश्न-शङ्का गर्दा समुच्यते" इति मेदिनी / हृदि-अन्तःकरणे। धृते-अवस्थापिते। (सति ) तमः-अज्ञानान्धकारः / लीयेत-विनश्येत् / च-पुनः / यस्य Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ तृतीयः - - यादृशम्य-भगवतः सर्वज्ञस्य। एश्वर्यम्-माहात्म्यम् / जगदुत्पादस्थितिध्वंसन:- संसारोत्पत्त्यवस्थितिविनाशनैः / अपङ्किलम्-पहिलं कलङ्कितं न / निर्दुष्टमित्यर्थः / निरवग्रहग्रहमहाऽऽनन्दाय-निरवग्रहो निरर्गलोऽप्रतिहत इति यावद् ग्रहो ज्ञानम् निरवग्रहप्रहः, तेन यो महाऽऽनन्द आनन्दातिशयो ब्रह्मसाक्षात्कारस्वरूपानन्द इति यावन्निरवग्रहग्रहमहानन्दस्तस्मै तथा / तम् - तादृशम् / देवम्-देवाधिदेवं प्रभु जिनेश्वरमिति यावत् / वन्दामहे-वन्दनक्रियानिरूपितकर्मताभाजनं कुर्म इत्यर्थः / प्रणमाम इति यावत् / जिनेश्वरविषयकरत्याख्यो भावः कविनिष्ठोऽभिव्यज्यते इति भावध्वनिः, अनुप्रासश्चालङ्कारः। द्वितीयस्तवके स्वतन्त्रस्य प्रत्येक कालादेर्जगत्कृर्तृत्वं निरस्य सामग्रयास्तत् समर्थितम् / अथेदानी सामग्रथामीश्वरोऽपि नित्यशुद्धबुद्धमुक्ताचिन्त्यचिच्छक्तियुतोऽनादिसिद्धश्च निक्षिप्यते कैश्चित् तं निक्षेपमसहमानाः सूरिचकचक्रवर्तिहरिभद्रसूरिपादास्तदीयपक्षव्युत्पादनपूर्वक तं निराकरिष्णवः कारिकामवतारयन्ति ईश्वरःप्रेरकत्वेनेत्यादिना(शास्त्रवार्ता) ईश्वरः प्रेरकत्वेन, कर्ता कैश्चिदिहेष्यते / अचिन्त्यचिच्छक्तियुक्तोऽनादिसिद्धश्च सूरिभिः॥१॥ अन्वयः-इह, कैश्चित् , सूरिभिः, अचिन्त्यचिच्छक्तियुक्तः, अनादिसिद्धश्च, प्रेरकत्वेन, ईश्वरः, कर्ता, इष्यते / (अव०) इह-सामग्रथाम् / कैश्चित्-सरिभिः-पातञ्जलाचार्यैः / Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] . कल्पलतावतारिका [46 प्रेरकत्वेन-परप्रवृत्तिजनकत्वेन / ईश्वरः कर्तेष्यते-कीदृशः ? इत्याह. अचिन्त्यचिच्छक्तियुक्तः- अचिन्त्या इन्द्रियादिप्रण लिकां विनापि यथावत् सर्वविषयावच्छिन्ना या चिच्छक्तिश्चेतना तया युक्तस्तदाश्रयः तथा। अनादिसिद्धश्च-कदापि बन्धाभावात् / त्रिविधो हि तैर्बन्ध उच्यते / प्राकृतिक-वैका रिकदाक्षिणभेदात / तत्र प्रकृतावात्मताज्ञानाद् ये प्रकृतिमुपासते तेषां प्राकृतिको बन्धः, यान प्रतीदमुच्यते"पूर्ण शतसहस्रं तु तिष्ठन्त्यव्यक्तचिन्तकाः / " इति। ये तु विकारानेव भूतेन्द्रियाहङ्कारबुद्धी: पुरुषबुद्धयोपासते, तेषां वैकारिको बन्ध: यान् प्रतीदमुच्यते "दशमन्वन्तराणीह, तिष्ठन्तीन्द्रियचिन्तकाः / भौतिकास्तु शतं पूर्ण, सहस्रं त्वाभिमानिकाः॥ बौद्धाः शतसहस्राणि, तिष्ठन्ति विगतज्वराः / " इष्टापूर्ते दाक्षिणो बन्धः, पुरुषतत्त्वानभिज्ञो हि कामोपहतमना बध्यत इति / इयञ्च त्रिविधाऽपि बन्धकोटिरीश्वरस्य मुक्ति प्राप्यापि भवे पुनरेष्यतां प्रकृतिलीनत्वज्ञानानां योगिनामिव नोत्तरा न वा पूर्वा, संसारिमुक्तात्मनामिव, इति निर्बाधमना दिसिद्धत्वम् / तथा चाह पतञ्जलि:-"क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः" इति / क्लेशा:-अविद्या-ऽस्मिता-रागद्वेषाभिनिवेशाः, कर्माणिशुभाशुभानि, तद्विपाको-जात्यायु गाः, आशया:-नानाविधास्तद. नुगुणा: संस्काराः / तैरपरामृष्टोऽसंस्पृष्टः, सर्वज्ञतया भेदाग्रहनिमित्त. काऽविद्याभावात् / तस्या एव च भवहेतु सर्वक्लेशमूलत्वात् / तथा च सूत्रम् - "अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोवाराणाम्" इति / अनभिव्यक्तरूपेणावस्थानं सुप्तावस्था, अभिव्यक्तस्यापि सहकार्यभावात् Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [तृतीयः का-जनन तन्ववस्था, अभिव्यक्तस्यापि जनितकार्य्यस्य केनचिद् बलवता सजातीयेन विजातीयेन वा लब्धवृत्तिकेनाऽभिभवाद् भवि. ध्यत्तिकत्वेनावस्थानं विच्छिन्नावस्था / अभिव्यक्तस्य प्राप्तसहकारिसम्पत्तेरप्रतिबन्धेन लब्धबृत्तिकतया स्वकार्यकरत्वमुदारावस्था। तत्राद्यमवस्थाद्वयं प्रतिप्रसवाख्येन निर्बीजसमाधिना. हीयते / अन्त्यं तु शुद्धसत्त्वमयेन भगवद्ध्यानेनेति / अविद्याभावात् तन्नाशजन्य कथं तत्त्वज्ञान तस्य ? इति चेत्-अत एव नित्यं तत् नित्यज्ञानवत्वादेव चायं कपिलप्रभृतिमहर्षीणामपि गुरुः। / यस्य जगत्पतेर्ज्ञानमप्रतिघम्-नित्यत्वेन सर्वविषयत्वात् कचिदप्यप्रतिहतम् / वैराग्यं माध्यस्थ्यं च रागाभावादप्रतिघम् , ऐश्वर्य च बाधाभावादप्रतिघम् / तच्चाष्टविधम्-अणिमा, लघिमा, महिमा, प्राप्तिः, प्राकाम्यम् , वशित्वम् , ईशित्वम् , कामावसायित्वश्चेति / __यतो महानणुर्भवति सर्वभूतानामप्यदृश्यः सोऽणिमा / यतो लघुर्भवति सूर्य्यरश्मीनप्यालम्ब्य सूर्यलोकादिगमनसमर्थः स लघिमा। यतोऽल्पोऽपि नागनगादिमानो भवति स महिमा / यतो भूमिस्थस्याप्यङ्गल्यग्रे गगनस्थादिवस्तुप्राप्तिः सा प्राप्तिः / प्राकाम्यमिच्छानभिघातः, यत उदक इव भूमावुन्मज्जति निमजति च वशित्वम् / यतो भूतभौतिकेषु स्वातन्त्र्यम् ईशित्वम् / यतस्तेषु प्रभवस्थितिव्ययानामीष्टे, यत्र कामावसायित्वं, यतः सत्यसङ्कल्पता भवति, यथेश्वरसङ्कल्पमेव भूतभावादिति / ___धर्मश्च प्रयत्नसंस्काररूपोऽधर्माभावादप्रतिषः। एतच्चतुष्टयमन्यानपेक्षतयाऽनादित्वेन व्यवसितम्। अत एव नेश्वरस्य कूटस्थताव्याघातः, जन्यधर्मानाश्रयत्वादिति बोध्यम् / Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [51 अयं संसारी जीवो हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्त्युपायानभिज्ञत्वात् आत्मनः सुखदुःखयोरकर्ता, अत: स्वर्ग नरकं वा परमेश्वरप्रेरितो * गच्छेत् / अज्ञानां प्रवृत्तौ परप्रेरणाया हेतुत्वावधारणात् पश्वादिप्रवृत्ती तथा दर्शनात् / अचेतनस्यापि चेतनाधिष्ठानेनैव व्यापाराच्च। अतएव भगवद्गीतायाम् -- "मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः, सूयते सचराचरम् / ____ तपाम्यहमहं वर्ष, निगृह्णाम्युत्सृजामि च // " इत्यनेन सर्वाधिष्ठानत्वं भगवतः श्रयते / तथा च प्रेरकत्वेन कर्ता परमेश्वरोऽभ्युपगन्तव्य एवेति पाताञ्जलाः / अत्राहताः( शास्त्रवार्ता० ) अन्ये त्वभिदधत्यंत्र, वीतरागस्य भावतः। इत्थं प्रयोजनाभावात्, कर्तृत्वं युज्यते कथम् // 4 // अन्वयः-अन्ये, तु, अत्र, इत्थम् , अभिदधति, वीतरागस्य, प्रयोजनाभावात् , भावतः, कर्तृत्वं, कथं, युज्यते / . (अव०) अन्ये तु-जैनाः / अत्र-ईश्वरविचारे। इत्थं-परीक्षन्ते। वीतरागस्य-वैराग्यवत ईश्वरस्य पातञ्जलैरभ्युपगतस्य, प्रेरकत्वे प्रयोजनाभावात् भावतः-इच्छातः / कर्तृत्वं कथं युज्यते। यो हि परप्रेरको दृष्टः स स्वप्रयोजनमिच्छन्निष्टः। ततोऽत्र व्यापिकायाः फलेच्छाया अभावाद् व्याप्यस्य परप्रेरकत्वस्याभावः सिद्धयति / व्यापकाभावस्य व्याप्याभावसाधकत्वनियमात् / निखिलेऽपि हि वह्नयभावाधिकरणे जलहृदादौ धूमाभावस्य दृष्टत्वात् / - यत्र यत्र परप्रेरकत्वं तत्र तत्र फलेच्छेति नियमात् / अनयो. ाप्यव्यापकभावाभ्युपगमात् / Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ तृतीयः अथ च पातञ्जलाभिप्रेत ईश्वरः काँश्चिजन्तून् नरकादिफले ब्रह्महत्यादौ काँश्चित् स्वर्गादिसाधने यमनियमादौ वा शीघ्र केन हेतुना प्रेरयति। क्रीडादिप्रयोजनाभ्युपगमे रागद्वेषाभ्यां वैराग्यव्याहतिः / प्रयोजनानभ्युपगमे च तन्मूलकप्रेरणाभावात् सिद्धान्तव्याघात:, इत्युभयतः पाशारज्जुरिति / ... न च सत्त्वाः ब्रह्महत्यायमनियमादिचित्रकर्मणि स्वयमेव तमः सत्त्वोद्रेकेण तथाविधबुद्ध वंशव्यापागवेशेनैव कर्तृत्वे न प्रवर्तन्ताम्, प्रयोजनज्ञानार्थं केवलमीश्वरापेक्षा भविष्यतीति वाच्यम् / ईश्वरगत. कर्तृत्वस्य निरर्थकत्वात् / अयमाशय:-प्रयोजनज्ञानं हि प्रवर्तनार्थमुपयुज्यते / प्रवृत्तिश्च यदि स्वत एवोपपन्ना तदेश्वरसिद्धिव्यसनं गृहलब्ध एव धने विदेशगमनप्रायमिति / अचेतनस्य चेतनाधिष्ठितस्यैव कार्य्यजनन-नियमात् / ईश्वरेणाधिष्ठितं सदेव चित्रं कर्म जगत्यस्मिन् सुखदुःखादिकं फल दद्यात्तथा च भवेदेवेश्वरसिद्धिरिति चेत्, अत्रोच्यते ___ स्वतश्चित्रफल दानासमर्थे कर्मण्यभ्युपगम्यमाने स्वर्गनरकादिफलानियम दोषः स्यात् स्वत श्चत्र फलदानलमर्थे कमण्यभ्युपगम्यमाने तु हरीतकीरेकन्यायात् ईश्वरे भक्तिमात्रतासिद्धिः / अचेतनं चेतनाधिष्ठितमेव कार्यजनकमिति नियमस्य चेतनानधिष्ठितस्या प वनबीजस्याङ्करजननत्वदर्शनाद् व्यभिचारः / न च तत्रापि वनबाजं चेतनाधिष्ठितम् अचेतनत्वेऽपि कार्य जनकत्वात् अन्याचेतनवत्, इत्येवं प्रकारेण वनबीजस्यापि पक्षतायामुक्तनियमे न व्यभिचार इति वाच्यम् / Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः / कल्पलतावतारिका [53 अन्यत्रापि व्यभिचारिणः ( व्यभिचारनिरूपकाधिकरणस्य ) अयोगोलकादेः पक्षतायां निवेशेऽनै कान्तिकदोषोच्छेदापत्तिप्रसङ्गात् / एवमप्यादिसर्गे तस्यैव ( परमेश्वरस्यैव ) स्वातन्त्र्यमस्त्वित चेत् कृतकृत्यस्य वीतरागस्य तस्य प्रयोजनाभावादादिसर्गनिर्माणेऽप्यप्रवृत्तः / अथेदशः परमेश्वरस्य स्वभाव एव यत्प्रयोजनाभावेऽप्यादिसर्ग स्वातन्त्र्येणैव करोति / अन्यदा त्वदृष्टाद्यपेक्षयवेति चेन्न धर्मिणः परमेश्वरस्यासिद्धी स्वभावकल्पनाधाराप्रसिद्धः प्रागुक्तस्य स्वभावस्यैवाप्रमाणत्वात् / अथैवमपि विश्वहेतुनया धर्मि-( परमेश्वर ) ग्राहकमानेन पूर्वोक्तम्वभाव एव भगवान स्वीकरणीय इति चेत् , अत्रोच्यते ईश्वरमनपेक्ष्य कर्मादेर्जगजननस्वभाव वे विभोः किश्चिन्न बाध्यते। विभोस्तु स्वातन्त्र्येण, अन्यहेतुसापेक्षतया वा जगजननम्व. भावत्वे वीतरागत्वव्यावातात् / कारणतया प्रकृतित्वप्रसङ्गाच्च कृतकृत्यत्वबाधनम् / , - न च कारण वेऽपि परिणामित्वाभावात् न प्रकृतित्वम् / प्रयोजनाभावेन जन्येच्छाया अभावेऽसि नित्येच्छासत्त्वात् न वीत. रागत्वव्याघातः / जन्येच्छाया एव रागपदार्थत्वात् / सर्गादौ रजःप्र. भृ युदेकोऽपि तत्र तत्कायंहा रतयैव गं.यते इति न कूटस्थताहानिरिति वाच्यम् / अत्रोपाध्यायाः(कल्पलता) .. . जन्यता गिारेशसाधो गिरं, न्यायदर्शननिवेशपेशलाम् / / साक्ष्य ! सम्प्रति निजं कुलं त्वया, हन्त ! हन्त ! सकलं कलङ्कितम् // 2 // Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य. [ तृतीयः अन्वयः-साङ्क्षय ! गिरिशसाधने, न्यायदर्शननिवेशपेशलां, गिरं, जल्पता, त्वया, हन्त, हन्त, सम्प्रति, निजं, सकलं, कुलं, कलङ्कितम् / (कल्पलतावतारिका) सालय !-कपिलानुयायिन् सालथाचार्य्य ! गिरिशसाधनेगिरौ पर्वते शेते इति गिरिशः शङ्करः, उपलक्षणतया परमेश्वरः, तत्साधनविधौ / न्यायदर्शननिवेशपेशलाम्-न्यायदर्शनसम्बन्धिशैली. विशेषनिवेशेन सुकोमलाम् / गिरम्-वाणीम् / जल्पता-निगदता / त्वया-भवता साङ्लयेनेति यावत् / हन्त ! हन्त!- अत्यन्तखेदसूचनार्थमव्ययम् / सम्प्रति- नैयायिकरीत्यनुसरणकालेऽधुनेत्यर्थः / सकलम्-समस्तम् / निजम्-आत्मीयम् / कुलम्-वंशः / कलङ्कितम्कलङ्कयुक्तं विहितम् / नैयायिकमतप्रवेशात् / येन ते शाश्वतिको विरोधस्तन्मतप्रवेशे तवैव पराजय इति ध्वन्यते / यस्मादेवं कार्यजनकज्ञानादिसिद्धौ तदाश्रयतया बुद्धिरेव नित्या सिद्धयेत् , नत्वीश्वरः बुद्धित्वस्यैव ज्ञानाद्याश्रयतावच्छेदकत्वात् / आत्मत्वमेव ज्ञानाद्यश्रयतावच्छेदकं कुतो नेति चेत् ,-जन्यज्ञानादी. नामप्यात्माश्रिततया प्रकृत्यादिप्रक्रियाविलोपापत्तेरिति संक्षेपः / ____ इति पातञ्जलमतखण्डनप्रकारः / अथेश्वरसिद्धौ नैयायिकानां पूर्वपक्षःनैयायिकास्तु-का-योजनधृत्यादेः, पदात् प्रत्ययतः श्रुतेः / . वाक्यात् संख्याविशेषाच्च, साध्यो विश्वविदव्ययः / / इति कुसुमाञ्जलिपञ्चमस्तवकप्रथमकारिकोक्तप्रकारेण परमेश्वर साधयन्ति / Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [55 अस्यार्थः-का-दीश्वरसिद्धिः-कारिकायां कार्यपद भावप्रधाननिर्देशपरम् / तथा च कार्यात्-कार्य्यत्वहेतुकानुमानादीश्वरसिद्धिः / "कायं सकर्तृकम् कार्यत्वाद् घटवत्" इत्यनुमानादीश्वरसिद्धिः / न च कार्यत्वस्य कृतिसाध्यत्वलक्षणस्य क्षित्यादावसिद्धिरिति वाच्यम् / कालवृत्त्यत्यन्ताभावप्रतियोगित्वे सति प्रागभावप्रतियोगित्वे सति ध्वंसप्रतियोगित्वे सति वा सत्त्वस्य हेतुत्वात् / / पक्षतावच्छेदकावच्छेदेन साध्यसिद्धरुद्देश्यत्वाञ्च न कार्य्यस्य घटादेः सकर्तृकत्वसिद्ध यांऽशतः सिद्धसाधनम् / न वा पक्षतावच्छेदकस्य हेतुत्वं दोषः / “कार्यत्वं साध्यसमानाधिकरणम्" इत्येवं सहघारग्रहेऽपि “कार्य सकर्तृकम्" इति बुद्धेरभावाच्च / ___ अथ तथापि सकर्तृकत्वं यदि कर्तृसाहित्यमात्रम् तदाऽस्मदादिना सिद्धसाधनम् / यदिच कर्तृजन्यत्वम् तदा बाधोऽपि ज्ञानादेरेव जनकतया कर्तुर्जनकत्वाभावात् इति चेत्,-न, प्रत्यक्षजन्यत्वेच्छाजन्यत्वादिना साध्यतायां पूर्वोक्तसिद्धसाधनबाधादिदोषभावात् / अहष्टाद्वाराजन्यत्वस्य विशेष्यतासम्बन्धावृच्छिन्नकारणताप्रतियोगिकसमवायावच्छिन्नजन्यत्वस्य वा साध्यत्वाच्च नादृष्टजनकास्मदादिज्ञानजन्यत्वेन सिद्धसाधनम् / ___ अथात्र शरीरजन्यत्वमुपाधिः अङ्कुरादौ साध्यव्यापकतासन्देहे सन्दिग्धोपाधितासाम्राज्यात् , तदाहितव्यभिचारसंशयेनानुमानप्रतिरोधात् / लाघवाद् व्यभिचारज्ञानत्वेनैव व्याप्तिधीविरोधित्वात् / पक्षतत्समयोरपि व्यभिचारसंशयस्य दोषत्वादिति चेत्-न, प्रकृते ज्ञानत्वादिकार्यत्वाभ्यां हेतुहेतुमद्भावनिश्चयात् / लाघवतर्कावतारे तदुपाधिसंशयस्याविरोधित्वात् / अनुकूलतर्कानवतार एव सन्दिग्धोपाधे Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ तृतीयः र्व्यभिचारसंशयाधायकत्वात / अन्यथा पक्षेतरत्वोपाधिशङ्कया प्रसि. द्धानुमानस्यानुच्छेदप्रसङ्गात् इति प्रधानाचार्य्याः / / अन्ये तु द्रव्याणि ज्ञानेच्छाकृतिमन्ति, कार्य्यत्वात् कपालवत् / साध्यता विशेष्यतासम्बन्धेन, हेतुता च समवायेन / पक्षतावच्छेदकावच्छेदेन साध्यसिद्धेरुद्देश्यत्वाद् नांशत: सिद्धसाधनम् / न च ज्ञानेच्छाकृत्यात्मसाध्यव्यापकत्वात् / कार्य्यत्वात्मकसाधनाव्यापकतया "पर्वतो धूमवान् बढेरित्यत्र" “आन्धनसंयोग इवात्रापि" बहिरिन्द्रियाग्राह्यत्वमुपाधिः / तस्माच स्वभाववदवृत्तित्वेन हेतौ साध्याभाववद्वृत्तित्वात्मकव्यभिचारनिश्चयात्कुतोऽनुमितिरिति वाच्यम्.--अनुकूल. तर्केण हेतोळप्यतानिर्णये तदनवकाशात् / न च ज्ञानादित्रितयस्य मिलितस्य साध्यत्वेऽप्रयोजकत्वम् / मिलितत्वेनाहेतुत्वात् , प्रत्येकं सांध्यत्वे ज्ञानेच्छावत्त्वेन साधने सर्गान्तरीयज्ञानादिना सिद्धसाधनमिति वाच्यम्। मिलितत्वेन साध्यत्वेऽपि कार्यकारणभावत्रयस्य प्रयोजकत्वात् / "सर्गाद्यकालीनं द्रव्यं ज्ञान. वत् कार्यत्वात् , पक्षतावच्छेदकावच्छेदेन साध्यसिद्धः” इत्यप्याहुः / __केचित्तु-"क्षित्यादिकं सकृर्तृकं कायंत्वात्" इत्येवानुमानम् / प्रकृतविचारानुकूलविवादविषयत्वेन च क्षित्यादीनामनुगमः / सकर्तृकत्वं च प्रतिनियतकर्तृनिरूपितः सम्बन्धो व्यवहारसाक्षिकः घटादिदृष्टान्तदृष्टः, नित्यवर्गव्यावृत्त इति नानुपपत्तिरिति वदन्ति / / आयोजनादपीश्वरसिद्धिस्तथाहि-आयुज्यन्ते संयुज्यन्तेऽन्योन्य द्रव्याण्यनेनेति व्युत्पत्तेरायोजनपदं कर्मपरम् / भावप्रधाननिर्देशाञ्च कर्मत्वपरमवगन्तव्यम् / एवञ्च सर्गद्यकालीनद्वयणुककर्म प्रयत्नजन्यम् , कर्मत्वात् अस्मदादिशरीरकर्मवत् / तादृशकर्मजनकप्रयत्न. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका शालिताया अस्मदादौ बाधात्ताशप्रयत्नशालितया परमेश्वरसिद्धिरिति। न च. परमाणूनां नित्यत्वात्तेषु सर्गाद्यकालीनद्ववणुककर्मजनकप्रयत्नशालितास्वीकारानेश्वरम्यातिरिक्तस्य सिद्धिरिति वाच्यम् - तेषां तादृश्यप्रयत्नवत्त्वस्वीकारे उडताहानिप्रसङ्गात् / / एवं धृतेरपीश्वरसिद्धिस्तथाहि-ब्रह्माण्डादिपतनाभाव: पतनप्रतिबन्धकप्रयोज्यः धृतित्वात् उत्पतत्पतत्त्रिपतनाभाववत, उत्पतत्पतत्रिसंयुक्तृण दिधृतिवद् वा / एतेन (धारकप्रयत्नधृतत्वव्युत्पादनेन) इन्द्राग्नियमादिलोकपालप्रतिपादका आगमा अपि व्याख्याताः / तेषां तदधिष्ठानदेशानामीश्वरावेशेनैव पतनाभाववत्वात् / तथा च श्रुतिः "एतस्य चाक्षरस्य प्रशासने गार्गि द्यावापृथिवी विधृते तिष्ठतः" इति प्रशामने दण्डभूतः प्रयत्नः, आवेशम्तच्छरीरावच्छिन्नप्रयत्नवत्वमेव / सर्वावेशनिबन्धन एव च सर्वतादात्म्यव्यवहार इति / आत्मैवेदं सर्वम् ब्रह्मैवेदं सर्वम् इत्यादिकम्। कारिक यामादिपदेन नाशादपि परमेश्वरसिद्धिः, ब्रह्माण्डनाशः प्रयत्नजन्यः नाशत्वात , पाट्यमानपटनाशवत् / पदादपं श्वरसिद्धिः। पद्यते गम्यतेऽनेनेति पदं, व्यवहारः, ततः घटादिव्यवहारः स्वतन्त्र पुरुषप्रयोज्य: व्यवहारत्वात् , आधुनिककल्पित लिप्यादिव्यवहारवत् इत्यनुमानात् / न च पूर्वपूर्वकुलालादिनैवान्यथा. सिद्धि', प्रल येन तद्विच्छेदात् / प्रत्ययतः प्रमाया अपीश्वरसिद्धिः। वेदजन्यप्रमा वक्तृयथार्थवाक्यार्थज्ञानजन्या शाब्दप्रमात्वात् , आधुनिकवाक्यजशाब्दप्रमावत् / श्रुतेर्वेदादपीश्वरसिद्धिः। वेदोऽसंसारिपुरुषप्रणीतः, वेदत्वात् . इति व्यतिरेकिणः / न च परमते साध्या प्रसिद्धिः, आत्मत्वमसंसारिवृत्ति, जातित्वात, इत्यनुमानेन पूर्व साध्यसाधनात् / Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ तृतीयः वाक्यादपीश्वरसिद्धिस्तथाहि-वेदः पौरुषेयो वाक्यत्वात् , भारतवत्, इत्यन्वयिनः। यत्र यत्र वाक्यत्वं तत्र तत्र पौरुषेयत्वं पुरुषप्रणीतत्वमिति नियमात् / एवञ्च वेदेऽपि पौरुषेयत्वं ( पुरुषप्रणीतत्वं ) सिद्धयति / तत्प्रणयनश्चास्मदादीनामप्रसिद्धथा न संभवतीति तत्प्रणयनकर्ता परमेश्वरः सिद्धयति / .: . कारिकायां संख्याविशेषः-द्वयणुकपरिमाणजनिका संख्या, ततोऽपि परमेश्वरसिद्धिर्भवतीत्यवसेयम् / तथाहि-इयं (द्वथणुकपरिमाणजनिका) संख्या अपेक्षाबुद्धिजन्या एकत्वान्यसंख्यात्वात् / यायैकत्वान्यद्वित्वादिसंख्या साऽपेक्षाबुद्धिजन्येतिव्याप्तेः / इत्यस्मदाद्यपेक्षाबुद्धधजन्यत्वादतिरिक्तापेक्षाबुद्धिसिद्धौ तादृशापेक्षाबुद्धथाश्रयतयेश्वरसिद्धः। न चासिद्धिः, द्वथणुकपरिमाणं संख्याजन्यम् जन्यपरिमाणत्वात्, घटादिपरिमाणवत् / न च दृष्टान्तासिद्धिः द्विकपालादिपरिमाणात् त्रिकपालादिघटपरिमाणोत्कर्षादिति संक्षेपः / अथवा परमेश्वरसाधिका कारिकेयमन्यथा व्याख्येया, तथाहि कार्य तात्पर्य वेदे, तत् यस्य स एवेश्वरः / आयोजनं सदया. ख्या वेदाः केनचिद् व्याख्याता महाजनपरिगृहीतवाक्यत्वात् / अव्याख्यातत्वे / तदर्थानवगमेऽननुष्ठानापत्तेः, एकदेशदर्शिनोऽस्मदादेश्च व्याख्यायामविश्वास इति तद्वयाख्ययेश्वरसिद्धिः / धृतिर्धारणं मेधाख्यं ज्ञानम् आदिपदार्थोऽनुष्ठानम् ततोऽपीश्वरसिद्धिः। वेदा वेदविषयकजन्यधारणान्यधारणाविषया, धृतिवाक्यत्वात् लौकिकवाक्यवत् / यागादिकं यागादिविषयकजन्यज्ञानान्यज्ञानवदनुष्ठितम् , अनुष्ठितत्वात् , गमनवत् , इति प्रयोगपदं प्रणवेश्वरादिपदम् तत्सार्थक्यात् / Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [56 न चेश्वरार्दिपदस्य स्वपरता-“सर्वज्ञतातृप्तिरनादिबोधः, स्वतन्त्रता नित्यमलुप्तशक्तिः / अनन्तशक्तिश्च विभो विधिज्ञाः षडन्तरङ्गाणि महेश्वरस्य // " इत्यादिवाक्यशेषेण "ईश्वरमुपासीत्" इत्यादि विधिस्थेश्वरादिपदशक्तिग्रहात् / तथा चाभियुक्ताः-शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानकोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च / वाक्यस्य शेषाद् विवृतेर्वदन्ति, सान्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः // " इति / एवञ्च यथा यवादिपदस्य “वसन्ते सर्वशस्यानां, जायते पत्रशातनम् / मोदमानाश्च तिष्ठन्ति, यवाः कणशशालिनः // " इत्यादिवाक्यशेषाच्छक्तिग्रहेण न कङ्ग्वादिपरता, तथेश्वरादिपदस्य न स्वपरतेत्यवसेयम् / प्रत्ययो विधिप्रत्ययस्ततोऽपीश्वरसिद्धिः "प्राप्ताभिप्रायस्यैव विध्यर्थत्वात् , नहीष्टसाधनत्वमेवविध्यर्थत्वात् / “अग्निकामो दारूणि मथ्नीयात्" इत्युक्तौ 'कुतः” इति प्रश्ने “यतो दारुमथनमग्निसाधनम्" इत्युत्तरेऽग्निसाधनत्वेन विध्यर्थवत्त्वानुमानानुपपत्तेः, अभेदे हेतुत्वेनोपन्यासानौचित्यात् / “तरति मृत्युम्" इत्यादौ विधिवाक्यानुमानानुपपत्तेश्चेष्टसाधनताया: प्रागेवबो. धात् " कुर्य्याः" "कुर्याम्" इत्यादौ वक्तसंङ्कल्पस्यैव बोधात् तत् आप्ता. भिप्रायस्यैव विध्यर्थत्वात् तादृशाभिप्रायवदीश्वरसिद्धिः / श्रुति:-ईश्वरविषयो वेदः ततोऽपीश्वरसिद्धिः / “यज्ञो वै विष्णुः” इत्यादेविध्येकवा. च्यतया “यन्न दुःखेन सम्भिन्नम्" इत्यादिवत् तस्य स्वार्थ एव प्रामाएयात् / कारिकायां वाक्यपदं वैदिकप्रशंसानिन्दावाक्यात् इत्यनुमानेनेश्वरसिद्धिः / तस्य तदर्थज्ञानपूर्वकत्वात् / संख्या "स्यामभूवम् भविष्यामि" इत्याद्युक्ता, ततोऽपीश्वरसिद्धिः, स्वतन्त्रोच्चारयितृनिष्ठाया एव तस्या अभिधानात् / अत्रोपाध्यायाः-- Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60] शासवार्तासमुच्चयस्य [ तृतीयः (कल्पलता) श्रुत्वैवं सकृदेनमीश्वरपरं, सांख्याऽऽक्षपादागम, लोको विस्मयमातनोति न गिरो, यावत् स्मरेदाहतीः / . किं तावद् बदरीफलेऽपि न मुहुर्माधुर्यमुन्नीयते, यावत्पीनरसा रसाद् रसनया, द्राक्षा न साक्षात्कृता // 3 // अन्वयः- लोकः, एवम्. ईश्वरपरम्, सांख्यानपादामम् , सद् श्रुत्वा ( तावत् ) विस्मयम् , आतनोति यावत्. आर्हती:, गिर, न स्मरेत् . यावत् पीनरसा, द्राक्षा, रसात् . रसनया. साक्षात्कृता, न ( भवेत् ), तावत्, बदरीफलेऽपि, मुहुः, माधुर्य्यम् , न, उन्नीयंते, किम् / ( कल्पलतावतारिका ) लोका-दर्शनतत्त्व बुभुत्सुर्जनः / एवम्-पूर्वोक्तप्रकारेण। ईश्वरपरम्-परमेश्वरास्तित्वप्रतिपादकम् / सांख्याक्षपादागमम्-सांख्यनैया यिकसिद्धान्तनिरूपकशास्त्रम् / सकृत्-एकवारम्, श्रुत्वा-आकर्ण्य, ( तावत्- तावत्कालपर्यन्तम् ) / विस्मयम्-आश्चर्यम् / आतनोतिविस्तारयति, करोति, समधिगच्छति वा धातूनामुपसर्गयोगादन्यथाऽपि वाऽनेकार्थबोधकत्वात् / तादृशी तदीय पतिपादनशैल ति भावः / यावत्-यावत्कालपर्यन्तम् / आहती:-जनसम्बन्धिनीः, जिनप्रतिपादिता इति यावत। गिरः-सिद्धान्ततत्त्वप्रतिपादनपरा वाचः / न-नहि / स्मरेत्-स्मरणपथे समानयेत् / एतदेव दृष्टान्तेन समर्थयति किं ताव दित्यादिना / यावत्-यावत्कालपर्यन्तम् पीनरसा-परिपुष्टरसवती। द्राक्षा-गोस्तनी स्वनामप्रसिद्ध प्राधुर्य्यपरिपूर्णफल विशेषो वा / रसात्अनुरागात् / रसनया-रसनेन्द्रियेण, जिह्वयेति यावत् / साक्षात्कृता Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ]. कल्पलतावतारिका [61 साक्षात्कार ( प्रत्यक्ष ) विषयतानापन्ना / न-नहि / भवेदिति शेषः / बावत्-सनेन्द्रियकरणकद्राक्षासाक्षात्कारात्पूर्वमित्यर्थः। बदरीफलेऽपिकर्कन्धूफल विषयः खलु मुहुः-व.रवारम् / माधुर्यम्-मधुरताप्रकर्षः। न-नहि / उन्नीयते-सम्यगनुभूयते / किम्-वितर्कार्थकमव्ययम् / किं कुत्सायां वित च, निषेधप्रश्नयोरपि-इति मेदिनी। अपि तूनीयते इति भावः / यथा कश्चिद्राक्षाफलास्वादात्पूर्व बदरीफलमतिक्षुद्रमपि बहुमन्यते, द्राक्ष साक्षात्कारात्परं तदेव बदरीफनमवमन्यते / तथैव लोक आर्हतसिद्धान्ततत्त्वाकलनात् पूर्वमेव सांख्याक्षपादागममतिसमीचीन मन्यते,तदाकलनादनन्तरन्तु तमसमीचीनमवबुध्यते इति। अत्र काव्यानुशासनात्या निदर्शनालङ्कारः, तथा च तत्सूत्रम् - "इष्टार्थसिद्धथै दृष्टान्तो निदर्शनम्" इष्टस्य सामान्यरूपस्य विशेषरूपस्य वा प्राकरणिकस्यार्थस्य सिद्ध यै. यो दृष्टान्तः स निदर्श्यते प्राकरणिकोऽर्थोऽत्रेति निदर्शनम् इति सूत्रार्थः। अन्येषामालङ्कारिकाणां मते पुनदृष्टान्तना. मालङ्कारः / तैनिदर्शनायां दृष्टान्त न्तर्भावस्यानभ्युपगमात् ते च "दृष्टान्तस्तु सधर्मस्य वस्तुन. प्रतिबिम्बनम् / " "दृष्टान्तः पुनरेतेषां, सर्वेषां प्रतिबिम्बनम् / " इत्थं लक्षयन्ति उदाहरन्ति च / “अविदितगुणाऽपि सत्कविरिणतिः, कर्णेषु वमते मधुब राम् / अनधिगतपरिमलाऽपि हि, हरति दृशं मालतीमाला / " इत्येवं निदर्शनोदाहरणात् पार्थक्येन / तत्र तदन्तर्भावप्रकार काव्यानुशासने विशदमवलोकनीयः / नैयायिकोक्तेश्वरसिद्धिखण्डनप्रकार: . तथाहि-क्षित्रादि सकर्तृकं कार्यत्वात् घटवत्, इत्यनुमानेन क्षित्यङ्कुरादिकर्तृतयेश्वरसिद्धिः साधिता, परं तन्न स्यात्, क्षित्यकुरादिकं Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य . [ तृतीयः कर्तीजन्यं शरीराजन्यत्वात् आकाशवत् इति विरुद्धमाध्यसाधकहेत्वात्मकसत्प्रतिपक्षदोषेणानुमानस्याप्रमाणत्वात् व्यभिचारशङ्कानिवर्तकानुकूलतर्करहितत्वरूपमप्रयोजकत्वमपि तुल्यमेव / ईश्वर साधकानुमानस्थलेऽप्यनुकूलतर्काभावात् / कर्तृत्वेन कार्यत्वेन कार्यकारणभाव एव तत्रानुकूलतर्क इति तु नाशङ्कथम् , कुलालकृतिसत्त्वे घट: कुलालकृत्यभावे घटाभाव इति विशिष्यवान्वयव्यतिरेकग्रहेण विशिष्यैव कुलाल. त्वेन घटत्वेन कार्यकारणभावग्रहात् , सामान्यतः कृतित्वेन कार्यकारणभावग्रहे मानाभावात् / न च विशेषतः कार्यकारणभावग्रहेऽपि यद्विशेषयोः कार्यकारणभावस्तत्सामान्ययोरपीति न्याय एव सामान्यत: कृतित्वेन कार्यत्वेन कार्यकारणभाव ग्रहे मानमिति वाच्यम् / उक्तन्याये मानाभावेन सामान्यतः कार्यकारणभावग्रहे मानाभावात् / न च कुलालकृतित्वेन घटत्वेन कार्यकारणभावस्वीकारेऽपि प्रलयात्परं सर्गाद्यकालीनो घट: कुलालकृतिजन्यो घटत्वात् इत्यनुमानेन सर्गःद्यकालीनकुलालात्मकेश्वरसिद्धिः / ईश्वरस्य कुलालत्वापत्तिस्तु नमः कुलालेभ्यो नमः कर्मकारेभ्यः" इति श्रुत्येष्टैवेतिवाच्यम् / प्रलये मानाभावात् / तथा चोक्तमुपाध्यायपादैः-तथाहीत्यादिना कार्येण तत्साधने आद्यानुमाने नानुकूलस्तर्कः / तत्तत्पुरुषीयपटाद्यर्थिप्रवृत्तित्वावच्छिन्नं प्रति तत्तत्पुरुषीयपटादिमत्त्वप्रकारकोपादानप्रत्यक्षत्वेन हेतुत्वावश्यकत्वात् प्रत्यक्षत्वेन कार्यसामान्यहेतुत्वे मानाभावात् / चिकीर्षाया अपि प्रवृत्तावेव हेतुत्वात् कृतेरपि विलक्षणकृतित्वेनैव घटत्वपटत्वाद्यवच्छिन्नहेतुत्वात् / तथा चोक्तं हेमसूरिभिः- . सर्वभावेषु कर्तृत्वं, ज्ञातृत्वं यदि सम्मतम् / मतं नः सन्ति सर्वज्ञा, मुक्ता कायभृतोऽपि हि / / Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [63 युक्तं चैतत् "जं जहा भगवया दिष्ट्रं तं तहा विपरिणमइ” इति भगवद्वचनस्यापीत्थमेव व्यवस्थापितत्वात् / अत एव * समालोच्य क्षुद्रेष्वपि भुवननाथस्य भुवने, नियोगाद् भूतानां मितसमयदेशस्थितिलयम् / अये ! केयं भ्रान्तिः सततमपि मीमांसनजुषां, व्यवस्थातः कार्ये जगति जगदीशाऽपरिचयः॥ इति पद्येऽपि प्रतिपद्यमाहुरुपाध्यायाः पिनष्टीयं पिष्टं भवनियमसिद्धिव्यवसितिः, स्वभावाद् भूतानां मितसमयदेशस्थितिरिति / श्रये ! केयं भ्रान्तिः सततमपि तर्कव्यसनिनां, वृथा यद्वयापारो जगति जगदीशस्य कथितः॥ * ( टिप्पणं )-प्रथमः श्लोक ईश्वरस्य जगत्कर्तृत्वमङ्गीकुर्वताम् / श्लोकस्यान्वयमुखोऽर्थश्चेत्थमनुसन्धेयः / अये- अनीश्वराः, ईश्वरस्य जगत्कर्तृत्वमनङ्गीकुर्वाणाः / भुवने-जगति / भुवननाथस्य-जगतोपतेः / नियोगात्-अनुशासनतः / भूतानाम्, ( मध्ये )-प्राणिजातानां मध्ये / क्षुद्रेध्वपि- कीटपतङ्गादितुच्छतमेष्वपि / मितसमयदेशस्थितिलयम् - परिमितकालक्षेत्रावस्थानावसानौ। समालोच्य- सम्यक् समीक्ष्य / स्थितानामितिशेषः / मीमांसनजुषाम्-विचारतत्पराणां मीमांसकानाम् , भवतामिति यावत् / सततम् - सन्ततम् / अपि इयं भ्रांन्तिः का ?- केयं भ्रमचक्रचारिता 1 यत् व्यवस्थात:- व्यवस्थितिपूर्वकम् / कार्ये जगति-विधेयात्मके विश्वे / जगदीशापरिचय:- जगन्नियन्तुरीश्वरस्यास्वीकारणम् / नित्यकुरादिक, सकर्तृकं, कार्यत्वात् , घटवत् , इत्यनुमानेन क्षित्यङ्घरादेर्विधातुः परमेश्वरस्य सिद्धावपि तदपलापः प्रष्ठधियां मीमांसामांसलमतीनां भवतामनुभवविरुद्ध इति / Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [तृतीयः एवमायोजनादपि नेश्वरसिद्धिः- ईश्वराधिष्ठानस्य सर्वदा सत्त्वेऽप्यदृष्ट विलम्बादेवाद्याणुक्रियाविलम्बात् / तत्रादृष्टहेतुत्वावश्यकत्वात् / दृष्टकारगणसत्त्वे एवाऽदृष्टविलम्बन कार्याविलम्बात् / अदृष्टम्य दृष्टाघातकत्वात् / चेष्टात्वस्यानुगतत्वेनोपाधित्वाच्च स्वभाव. ववृत्तित्वेन हेतोर्व्यभिचारित्वानुमापकत्वात् तदवच्छिन्न एव हि जीवनयत्नव्यावृत्तेन प्रवृत्तित्वेन गमनत्वादिव्याप्यत्वे तु विलक्षण-.. यत्नत्वेनेय हेतुत्वात् क्रियासामान्ये यत्नत्वेन हेतुत्वे मानाभावात् / एवं धृतेरपि नेश्वरसिद्धिः--गुरुत्ववत्पतनाभावमात्रस्य गुरुत्वेतरहेत्वभावप्रयुक्तस्याऽऽम्रफलादावेव व्यभिचारित्वात् हेतौ प्रतिबन्धकाभावेतरसामग्रीकालीनत्वविशेषणेऽपि वेगवद् बागपतनाभावे व्यभिचारात् वेगाप्रयुक्तत्वस्यापि विशेषणत्वे मन्त्रविशेष युक्तगोलकपतनाभावे तथात्वात् अदृष्टाप्रयुक्तत्वस्या प विशेषणत्वे च स्वरूपा. अथोपाध्यायोपज्ञोक्तसूत्रप्रतिसूक्तार्थः। अये- जगत्कर्तृपरमेश्वरप्रतिपादनपराः ! भूतानाम्-जन्तुजातानां / मितसमयदेशस्थिति:- परम्तिकालदेशावच्छिन्नावस्थानम् / स्वभावात्-निसर्गत एव भवति / इति-अतः कारणात् ।इयं भवनियमसिद्धिव्यवसिति:- ईश्वरस्य जगत्कर्तृत्वेन साधनाय व्यवसायायास: / पिष्टं पनिष्टि-सिद्धं साधयति / तथा च तर्कव्यसनिनाम्-तर्ककर्कशधियां भवतां नैयायिकसांख्यमुख्यानाम् / सततम्- अनवरतम् / अपि-पुनः। इयं भ्रान्तिः का-काऽसौ भ्रमजालविलासिता / यत्यतो हेतोः / जगति-भुवने / जगदीशस्य-महेश्वरस्य / कथित:-विविधवचनरचनाप्रपञ्चप्रपञ्चितः / व्यापार:-प्रयत्नः / वृथा- विफल: / विश्वव्यवस्थाविधानाय परमेश्वरस्य वैरूपप्यकल्पनमनर्थकमिति भावः / Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] . कल्पलतावतारिका सिद्धिः, ब्रह्माण्डधृतेरप्यदृष्टप्रयुक्तत्वात् / तथाचोक्तम्• निरालम्बा निराधारा, विश्वाधारा वसुन्धरा / यच्चावतिष्ठते तत्र, धर्मादन्यद् न कारणम् // युक्तमेवैतत् , ईश्वरस्य व्यापकत्वेन समरेऽपि शरपाताऽनापत्तेः। पतनाभावावच्छिन्नेश्वरप्रयत्नस्य तथात्वे तादृशज्ञानेच्छाभ्यां विना विनिगमनाविरहात् , क्लप्तजातीयस्यादृष्टस्यैव ब्रह्माण्डधारकत्वकल्पनौचित्यात् / नचाऽऽत्माऽविभुत्ववादिनः (कायप्रमाणात्मवादिनः ) जैनस्य सम्बन्धानुपपत्तिः असम्बद्धस्यापि तत्का>जननशक्तस्य तत्कायंकारित्वात् अयस्कान्तस्याऽसम्बद्धस्यापिलोहाकर्षकत्वात्। प्रयत्नस्य तु विलक्षणप्रयत्नत्वेन पतनप्रतिबन्धकसंयोगविशेष एव हेतुत्वमिति / ब्रह्माण्डनाशकतयाऽपि नेश्वरसिद्धिः। यदि प्रलयः स्यात्तदा तजनकप्रयत्नशालितयेश्वरसिद्धिः सम्भाव्येत, स एव नास्ति प्रलयानभ्युपगमात् / कुत: पुनरीश्वरसिद्धिः / कुतः प्रलयानभ्युपगम इति चेत्, अहोरात्रस्याऽहोरात्रपूर्वकत्वव्याप्यत्वात् / यदि प्रलयः स्यात् तदाऽनायाससिद्धो मोक्षः, किं पुनर्ब्रह्मचर्यादिक्तेशानुभवेन / ___ एतेन “श्राद्यव्यवहारादीश्वरसिद्धिः, प्रतिसगै मन्वादीनां बहूनां व्यवहारप्रवर्तकानां कल्पने गौरवादेकस्यैव भगवतः सिद्धेः” इत्यपास्तम्। सर्गादेरेवाऽसिद्धः / इदानीमिव सर्वदा पूर्वपूर्वव्यवहारेणैवोत्तरोत्तरव्यवहारोपपत्तेः / यदि तु सर्गादि: स्वीक्रियते तदा तदानी प्रयोज्य. प्रयोजकवृद्धयोरभावात् कथं व्यवहारस्तदीयव्यवहारदर्शनेनैव च तटस्थबालकानां सङ्केतग्रहस्य व्यवस्थितत्वात्, व्यवहारस्यैव च शक्तिग्राहकशिरोमणित्वात् / अथ यथा मायावी सूत्रसंवाराधिष्ठितदारपुत्रकं “घटमानय" Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ तृतीयः "गां नय” इत्यादि नियोज्य घटाद्यानयनादि संपाद्य बालकस्य व्युत्पत्ती प्रयोजकः, तथेश्वरोऽपि प्रयोज्यप्रयोजकवृद्धीभूय व्यवहार कृत्वाऽऽद्यव्युत्पतिं कारयति / ____ न चात्र चेष्टया प्रवृत्तिम् , तया ज्ञानम् , तज्ज्ञाने उपस्थितवाक्य. हेतुत्वम्, तज्ज्ञानविषयपदार्थे चावापोद्वापाभ्यां तत्तत्पदज्ञानहेतुत्वमनुमाय तत्तत्पदे तत्तदर्थज्ञानानुकूलत्वेन तत्तदर्थवत्त्वसम्बन्धवत्त्वमनुमेयम् / एवञ्चायं सम्बन्धग्रहो भ्रमः स्यात्, जनकज्ञानस्य भ्रमत्वात् इति वाच्यम् / तत्त्वेऽपि विषयाऽबाधेन प्रमात्वात् चरमपरामर्शस्य प्रमात्वसम्भवाच्च / एवमीश्वर एव कुलालादिशरीरं परिगृह्य घटादिसम्प्रदायप्रवर्तकः, अत एव श्रुति:- . "कुलालेभ्यो नमः, कर्मारेभ्यः" इत्यादीति चेत्, अत्रोपाध्यायाःईश्वरस्थादृष्टाभावेन प्रयोज्यादिशरीरपरिग्रहस्यैवायुक्तत्वम् / अन्यदीयमदृष्टमादाय शरीरपरिग्रह इति चेत्-अन्यादृष्टेनाऽन्यस्य शरीरपरिग्रहे चैत्रादृष्टाकृष्टं शरीरं मैत्रोऽपि. परिगृहीयात् / प्राण्य. दृष्टेन घटादिवत् तच्छरीरोत्पत्ति: तत्परिग्रहस्तु भगवतस्तदावेश एवेति न दोष इति चेत् न, घटादावतथात्वेऽपि तदीयशरीरे तदीयादृष्टत्वेनैव हेतुत्वात् , अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् / तस्माद् मायाविवत् समयग्राहकत्वम् घटादिसम्प्रदायप्रवर्तकत्वश्च पराभिमतेश्वरस्य मायावितामेव विद्याधरविशेषस्य व्यञ्जयति, पितुरिव पित्रादेर्युगादौ युगादीशस्य जगतः शिक्षया तु तथात्वं युक्तिमत् , स्वभावत एव तीर्थकृतां परोपकारित्वात् , अत एव "कुलालेभ्यो नमः" इत्याचा श्रुतिः सङ्गच्छत इति युक्तमुत्पश्यामः / / Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः 1 कल्पलतावतारिका [ 67 प्रत्ययादिनेति कारिकोक्तेन हेतुनाऽपि वेदप्रामाण्यवादिनामाप्त. तद्वक्तृसिद्धावपि नेश्वरस्य सिद्धिः, अतस्तदुपन्यासेनालम् / एतेन कार्यादिपदानामर्थान्तरमपि प्रयासमात्रम् / “जन्यतत्प्रमासामान्ये तत्प्रमात्वेन गुणतया हेतुत्वात् आद्यप्रमाजनकप्रमाश्रयतयेश्वरसिद्धिः" इति तु वचनं युक्तिशून्यम् / घटत्वादिमद् वृत्तिविशेष्यतया तत्र घटत्वादिविषयतत्वेनैव हेतुतयासंस्कारेणैव घटत्वादिसम्बन्धहेतुतयैव वा नैयायिकस्यापि निर्वाहात् / अस्माकमाईतानान्तु सम्यग्दर्शनस्यैव गुणत्वात् / संख्याविशेषादपि नेश्वरसिद्धिः, द्वथणुकपरिमाणजनिकायां संख्यायां नैयायिकस्यापि लौकिकापेक्षाबुद्धेरेव कारणत्वात् ममाऽऽर्हतस्यापि लौकिकापेक्षाबुद्धेरेव तथान्यवहारनिमित्तत्वात् तज्जन्याति. रिक्तसंख्यासिद्धिसम्भवात् / परिमाणेऽपि संघातभेदादिकृतद्रव्यपरिमाणविशेषरूपे संख्याया अहेतुत्वाच / द्विकपालात् त्रिकपालघटपरि. माणोत्कर्षस्य दलोत्कर्षादेवोपपत्तेः / अत्रत्यमधिकं तत्त्वमाहतवार्ताया. माकलनीयम् / तस्मादीश्वरसिद्धौ न किमपि साधीयः प्रमाणम् , न वा तदभ्युपगमेनापि तस्य सर्वशत्वम् उपादानमात्रसिद्धावप्यतिरिक्तज्ञानासिद्धेः, कारणाभावात् मानाभावाच्चेति नैयायिकानुपहसन्त्युपाध्यायाःसन्तुष्येति(कल्पलता) मन्तुंम्प नैयायिकमुख्य ! तस्मादस्माकमेवाश्रयपक्षमप्रथम् / सवोचकैरीश्वरकर्तृताया मनोरथं सम्प्रति पूरयामः // 4 // अन्वयः-नैयायिकमुख्य ! तस्मात् , सन्तुष्य, भप्रथम् , भस्माकम् , Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ तृतीयः एव, पक्षम् , आश्रयः, सम्प्रति, तव, ईश्वरकर्तृतायाः, मनोरथम् , उच्चकैः, पूरयामः / ( कल्पलतावतारिका ) नैयायिकमुख्य!-मुखं वदनमिव प्रधानत्वान्मुख्यः प्रथम:, नैयायिकेषु मुख्यो नैयायिकमुख्यस्तदामन्त्रणे तथा, नैयायिकप्रवरेति यावत् / उदयनाचार्येतितात्पर्य्यम् / तदीयकारिकाया एक विवरणपूर्वकखण्डनात्। तस्मात्-स्वपक्षस्थ खण्डितत्वात् / सन्तुष्यसन्तोषमाधाय / सन्तोषं धेहीति वा / सन्तुष्येति पदस्य क्त्वाप्रत्ययेन पञ्चमीमध्यमपुरुषैकवचनात्मकप्रत्ययेन चोभयथासाधनात् / अग्रथमअग्रगण्यम् , श्रेष्ठमित्यर्थः / अस्माकम्-आर्हतानाम् / एव-अवधारणार्थकमव्ययम् / तेनान्यस्य व्यवच्छेदः / पक्षम्-मतम् , सिद्धान्तवादं वा / आश्रय-अवलम्बस्त्र / सम्प्रति-अधुना / तब-नैयायिकस्य ईश्वरकर्तृतायाः-ईश्वरकर्तृकजगत्कर्तृत्ववादस्य / मनोरथम्-अभिलाषम् / उच्चकैः-सातिशयम् / पूरयामः-परिपूर्णीकुर्मः / ईश्वरकर्तृत्वविषयकनैयायिका भिलाषस्य वक्ष्यमाणरीत्या प्रपूरणात् / अत्र "तस्मादस्मा" इत्यत्र च्छेकानुप्रासो नामालङ्कारः। ईश्वरकर्तृत्ववादस्वीकारेऽपि भवेदस्माकं पक्षस्यैव संसिद्धिर्न तु नैयायिकपक्षस्येति वस्तु ध्वन्यते। (कल्पलता) नयैः परानप्यनुकूलवृत्तौ, प्रवर्तयत्येव जिनो विनोदे / उक्तानुवादेन पिता हितात् किं बालस्य नालस्यमपाकरोति // 5 // अन्वय:-जिनः, नयैः, परान् , अपि, अनुकूलवृत्तौ, विनोदे, प्रवर्तयति, एव, पिता, हितात् , उक्तानुवादेन, बालस्य, आलस्यम् , न, अपाकरोति, किम् / Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [66 (कल्पलतावतारिका) - जिनः-भगवान् अर्हन् / नय:-द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकप्रसिद्धनयः, नीतिभिश्च / परान्-अन्यान् किं पुनः स्वानितिभावः / अपि-अपि: समुच्चयार्थकः / “अपि सम्भावनाप्रश्नशङ्कागर्दासमुच्चये" इति मेदिनी / अनुकूलवृत्तौ-अनुकूला धर्मादिसहकारिणी वृत्तिर्वतनं व्यवहारो वा यस्मिन् सोऽनुलवृत्तिस्तस्मिँस्तथा / विनोदे-आनन्दे / प्रवर्तयतिप्रेरयति / एव-अवधारणार्थ कमव्ययम् / वास्तविकानन्दप्रवर्तको भगवान् जिन इति भावः / विषयमिमं दृष्टान्तेन समर्थति-- उक्तानुवादेन पितेत्यादिना / पिता-जनकः / हितात्-कल्याणात् , हित. बुद्धयेति यावत् / उक्तानुवादेन-उक्तस्य बालेन कथितस्य अनुवादः पुनरुच्चारणम् , उक्तानुवादस्तेन तथा / बालस्य-बालकस्य स्वपुत्रस्येति यावत् / आलस्यम्-विनोदादिप्रतिबन्धकमलसभावं मन्दतामिति यावत् , विच्छायत्वमिति हृदयम् / न-नहि / अपाकरोति-दूरीकरोति / किम्-प्रश्नार्थकमव्ययम् / 'किं कुत्सायां वितर्के च निषेधप्रश्नयोरपी'. तिमेदनी / यथा कश्चित्पिता बालकप्रसन्नताहेतवे तदुदीरितमेव वचः पुन: पुनरुच्चारयति तथैव जिनः परदर्शनिप्रसन्नताहेतवे तत्स्वीकृतमीश्वरकर्तृत्ववादं स्वीकरोति वक्ष्यमाणप्रकारेण स्वमतसंरक्षकमिति भावः / तदिदमाह-ततश्चेश्वरेत्यादि(शास्त्रवार्ता) ततश्चेश्वरकर्तृत्ववादोऽयं युज्यते परम् / सम्यग्न्यायाविरोधेन, यथाहुः शुद्धबुद्धयः॥१०॥ अन्वयः-ततश्च, अयम् , ईश्वरकर्तृत्ववादः, परं सम्यग , न्यायाविरोधेन, युज्यते, यथा, शुद्धबुद्धयः, आहुः / Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ तृतीयः (अव०) ततश्च-पातञ्जलनैयायिकमतनिरासाच / अयम्तथाविधलोकप्रसिद्धः / ईश्वरकर्तृत्ववादः, परम्-उक्तविपरीतरीत्या / सम्यग्न्यायाविरोधेन-प्रतितर्काप्रतिहततर्कानुसारेण / युज्यते, यथा शुद्धबुद्धयः-परमर्षयः। आहुः-कथयन्ति / ... ____शुद्धबुद्धिपरमर्षीणां वचनमनुवदति ईश्वर इति(शास्त्रवार्ता) ईश्वरः परमात्मैव, तदुक्तव्रतसेवनात् / यतो मुक्तिस्ततस्तस्याः,कर्ता स्याद्गुणभावतः॥११॥ ___ अन्वयः-ईश्वरः, परमात्मैव, तदुक्तव्रतसेवनात्, यतः, मुक्तिः, ततस्तस्याः, गुणभावतः, कर्ता, स्यात् / (अव०) ईश्वरः-परमात्मा-अनन्तज्ञानदर्शनसम्पदुपेतो वीतराग एव / वीतराग एवेश्वरपदेनोच्यते परमात्मेत्यर्थः / तदुक्तव्रतसेवनात्-परमाप्तप्रणीताऽऽगमविहितसंयमपालनात् / यतः-कर्मक्षयरूपा मुक्तिर्भवति / ततस्तस्या गुणभावतः-राजादिवदप्रसादनियतप्रसादाभावेऽप्यचिन्त्यचिन्तामणिवद्वस्तुस्वभावबलात् फलदोपासनाकत्वेनोपचारात् / कर्ता स्यात् / अत एव भगवन्तमुद्दिश्याऽऽदिप्रार्थना। अथैवमप्यस्तु मुक्तिकर्तृत्वम् / भवकर्तृत्वन्तु कथमुपपद्यते इत्ति चेत् , उच्यते यस्माद्धेतोस्तदुक्तव्रतपालनाभावात् परमार्थत: संसारोऽपि जीवस्य भवति, तस्याऽविरतिमूलत्वात् / तेन हेतुना संसारकर्तृत्वस्याप्युपपत्तेः। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिफा [71 ईदृशकल्पनायां को गुण इति चेत्तदुच्यते-अयमीश्वरः कर्ता इतीश्वरवाक्ये यत: केषाश्चित्तथाविधभद्रकविनेयानामादरो भवत्यतस्तदानुगुण्येन परमात्मनः कर्तृत्वोपदेशस्याऽऽवश्यकत्वम् / यतः श्रोतृभावाभिवृद्धयर्थो हि गुरोरुपदेशः सा च कल्पितोदाहरणेनापि निर्वापते किं पुनरुपचारेणेति भावः / __साक्षादपि कर्तृत्वं समर्थयति परेत्यादिना(शास्त्रवार्ता०.) परमैश्वर्ययुक्तत्वाद्, मत आत्मैव वेश्वरः / स च कर्तेति निर्दोषः, कर्तृवादो व्यवस्थितः // 14 // - अन्वयः-वा, परमैश्वर्ययुक्तत्वात् , भात्मा, एव ईश्वरः, मतः, स च, कर्ता, इति, निर्दोषः, कर्तृवादः, व्यवस्थितः / (अव०)वा-अथवा / परमैश्वर्ययुक्तत्वात्-सर्वातिशयितसम्पत्तिसम्पन्नत्वात् / आत्मा एव-चेतनः खलु / ईश्वरः-ईशः। मतःसम्मतः। स च-आत्मा एव / कर्ता-विधाता / इति-एवञ्च / निर्दोषःदोषकलापरहितः / कर्तवादः-जगत्कर्तृविचारः / व्यवस्थितः-सङ्गतः / एवं कर्तृवादव्यवस्थायां- "उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः, परमात्मेत्युदाहृतः / यो लोकत्रयमाविश्य, बिभर्त्यव्यय ईश्वरः // " इत्यादिकमप्युपपत्तिमद्भवति / आवृतस्वरूपत्वादनावृतस्वरूपस्य भिन्नत्वात्, चैतन्यात्मकमहासामान्येन लोकत्रयावेशाद् ग्राह्याकारक्रोडीकृतत्वेन तद्भरणाच, इत्यादिरीत्या पराभिप्राय आगमानुसारेण यथावदुपपादनीयः / इतरग्रन्थकृतामप्यभिप्राय उपपादनीय इत्यत्र हेतुमाह शाखेति Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ तृतीयः ( शास्त्रवार्ता० ) शास्त्रकारा महात्मानः, प्रायो वीतस्पृहा भवे / सत्त्वार्थसम्प्रवृत्ताश्च, कथं तेऽयुक्तभाषिणः।।१५॥ अन्वयः- शास्त्रकाराः, प्रायः, महात्मानः, भवे, वीतस्पृहाः, सत्त्वार्थसम्प्रवृत्ताश्च, कथं, ते, अयुक्तभाषिणः / (अव) शास्त्रकारा:-दर्शनप्रवर्तकाः कपिलप्रमुखाः / प्राय:बहुशः चार्वाकादीन् पापप्रवर्तकान् त्यक्त्वा। महात्मानः-धर्मवृत्तितः प्रकृष्टपुरुषाः / भवे-संसारे / वीतस्पृहा:-गताभिलाषाः, न तु धनमानप्रसिद्धि लिप्सान्विताः। सत्त्वार्थसम्प्रवृत्ताश्च-यथानुभवं परहिता. र्थप्रवृत्ताश्च / ततः कथं ते अयुक्तभाषिणः-ज्ञात्वा विरुद्धार्थोपदेशिनः / परहितार्थप्रवृत्तेविरुद्धार्थोपदेशित्वस्य च परस्परं न साहचर्यं जलज्वलनवत् / एवमीश्वरविचारणायामुपाध्याया उपसंहरन्ति इत्येवमिति(कल्पलता) इत्येवं पटुरीश्वरव्यतिकरः, सतर्कसम्पर्कभाग , येषां विस्मितमातनोति न मनस्ते नाम वामाशयाः। अस्माकं तु स एक एव शरणं, देवाधिदेवः सुखाम्भोधौ यस्य भवन्ति बिन्दव इव, स्वःसद्मनां सम्पदः॥६॥ अन्वयः- इत्येवम् , सत्तर्कसम्पर्कभाक् , पटुः, ईश्वरव्यतिकरः, येषां, मनः, विस्मितम् , न, आतनोति, नाम, ते, वामाशयाः, तु. अस्माकम् , एकः, स:, देवाधिदेवः, एव, शरणम् , यस्य, सुखाम्भोधौ, बिन्दवः इव, स्वःसद्मना, सम्पदः, भवन्ति / Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तबकः ] कल्पलतावतारिका [73 (कल्पलतावतारिका) ___ . इत्येवम्-पूर्वकथितप्रकारेण / सत्तर्कसम्पर्कभाक्-सन्तः समीचीनाश्च ते तर्का ऊहाः सत्तास्तैः सम्पर्कः सम्बन्ध: सत्तर्कसम्पर्कस्तं भजते सेवते इति सत्तर्कसम्पर्कभाक् / पटुः-समर्थः / ईश्वरव्यतिकरः-परमेश्वरसम्बन्धः, वीतरागतीर्थङ्करात्मपरमेश्वरसाधनं वा / येषाम्-यादृशानां जनानाम् / मनः-चित्तम् / विस्मितम्विस्मययुक्तम् आश्चर्य्यरसाविष्टमिति यावत् / न-नहि / तनोतिकरोति, सम्पादयतीति यावत् / नाम-कोमलामन्त्रणे / ते-तादृशाः / वामाशया:-कुटिलाभिप्रायाः, दुष्टचेतस इति यावत् / तु-किन्तु / अस्माकम्-आर्हतानाम् ; वीतरागप्रणीताऽऽगमपरिपक्कबुद्धीनां जैनानामिति यावत् / एक:-अद्वितीयः / सः-प्रसिद्धः / देवाधिदेवः-देवश्रेष्ठः, जिनेश्वर इति यावत् / एव-अवधारणार्थकमव्ययम् / शरणम्रक्षकः, गतिरिति यावत् / "शरणं गृहरक्षित्रोर्वधरक्षणयोरपि" इति मेदिनी / यस्य-तीर्थकृतो जिनेश्वरस्य / सुखाम्भोधौ-सम्मदसिन्धौ / बिन्दवः-पृषत: / इव-यथा / स्वःसद्मनाम्-स्वः- स्वर्गः सद्म- गृहं येषान्ते स्वःसद्मानस्तेषान्तथा देवानामित्यर्थः / सम्पदः-सम्पत्तयः / भवन्ति-जायन्ते / देवानां सम्पदो यदीयशर्मसमुद्रबिन्दुतुल्या इति भाव: / उपमालङ्कारः / / .. // समाप्ता च नैयायिकवार्ता // अथ वार्तान्तरमाह-प्रधानोद्भवमित्यादि Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 ] शासवार्तासमुच्चयस्य . [ तृतीयः (शास्त्रवार्ता०) प्रधानोद्भवमन्ये तु, मन्यन्ते सर्वमेव हि / भहदादिक्रमेणेह.कार्यजातं विपश्चितः॥१८॥ अन्वयः- अन्ये, तु, विपश्चितः, इह, सर्वम् , एव, कार्य्यजातम् , महदादिक्रमेण, प्रधानोद्भवम् , मन्यन्ते, हि। (अव०) अन्ये-अपरे / तु-पुनः / विपश्चित:-विद्वांसः, सांख्यमतावलम्बिनो मनीषिण इति यावत् / इह-कार्यत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपितकारणताविचारणायाम् / सर्वम्-निखिलम् / एवअवधारणार्थकमव्ययम् / कार्यजातम्-कार्यकदम्बकम् / महदादिक्रमेण-'प्रकृतेर्महाँस्ततोऽहङ्कारः" इत्यादिरीत्या महत्तत्वादिद्वारेण / प्रधानोद्भवम्-प्रकृत्युत्पन्नम् / मन्यन्ते-स्वीकुर्वन्ति / हि-निश्चयेन / "हि हेताववधारणे" इत्युक्तेः // 18. तथाहि-पुरुषः, प्रकृतिः महत्त. त्वम् (बुद्धितत्त्वम्) अहङ्कारः, उदात्तादिविशेषरहित--सूक्ष्म-शब्द-रूप. रस-गन्ध स्पर्शात्मक-पञ्चतन्मात्राणि, ज्ञानेन्द्रियपञ्चककर्मेन्द्रियपञ्चकमनोरूपाण्येकादशेन्द्रियाणि पश्चभूतानि चेति पश्चविंशतिस्तत्त्वानि सांख्यैः स्वीकियन्ते / तथा चोक्तं सांख्यकारिकायाम् प्रकृतेमहांस्ततोऽहङ्कारस्तस्माद्गुणश्च षोडशकः / तस्मादपि षोडशकात्, पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि // 22 // मूलप्रकृतिरविकृतिमहदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त / षोडशकस्तु विकारो, न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः // 3 // तत्र कारणतारहितः कार्य्यतारहितः पुष्करपलाशवनिर्लेपः कूट Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका स्थनित्यचैतन्यरूप आत्मा पुरुषः / महत्तत्त्वाद्युत्पादकसमस्तशक्तिसंवलिता, आदिकारणरूपा परिणामवती चाचेतना प्रकृतिः प्रधानमु. च्यते। तादृशप्रधानोद्भवं सर्वमिदं जगदिति सांख्या मन्यन्ते / अथाव्यक्तस्य प्रधानस्य सिद्धिरेव दुर्लभा, अप्रत्यक्षत्वादिति चेदत्रोच्यते / प्रत्यक्षप्रमाणप्रमेयत्वाभावेऽपि प्रधानस्यानुमानप्रमाणसिद्धत्वं म्यादेव। अनुमानाकारश्च एते महदादयो व्यक्ता अव्यक्तकारणवन्तः परिमाणात् समन्वयात् शक्तिसंप्रवृत्त्यारेश्च, इत्येवं बोध्यः / अयमाशय:व्यक्ताद्वस्तुजातादितरदव्यक्त प्रधानं न स्वीक्रियेत, तदा व्यक्तेषु परिमि. तता न स्यादेवञ्च परिमितान्येव न कानिचिद्व्यक्तान्युत्पद्येरन् परिमि. तोत्पादककारणानुपलब्धेः / तज्जातीयकार्य प्रति तज्जातीयेन कारणेन भवितव्यमन्यथा तज्जातीयकार्योत्पत्तिर्न स्यादतो महदादिकार्यजातीयं किश्चित्कारणं स्वीकरणीयमेव, तच्च प्रधानमेवेति, न च महत्तत्त्वमेव कार्यधर्मानुविधायकमस्तु कार्यधर्मानुविधानार्थमव्यक्तं प्रधानश्च मास्त्विति वाच्यम् / तस्य साधारणत्वाभावादनित्यत्वाच्च। प्रधानस्यास्वीकारे महादादिहेतुशक्तिप्रवृत्तिरपि न स्यात् , पटाद्युत्पादिकायाः शक्तस्तन्तुवायादिकमाधार विना प्रवृत्तेरदर्शनात् / किञ्च कारण कार्यविभागोऽपि न सिद्धयति, महदादिनिष्ठं कार्यत्वं किन्निरूपितमिति-तत्र कार्यत्वव्यवहारस्यापरसम्बन्धिसापेक्षत्वात् / एवं तदनभ्युपगमे दुग्धावस्थायां दुग्धं यथा दध्नो न विभक्तमेवं प्रलयावस्थायां भूतादीनां तन्मात्रादिक्रमेणाऽविवेकात्माऽविभागो न सिद्धयतीति सर्वथास्वीकरणीयं प्रधानमिति प्रकृतिसिद्धिः / तथा चोक्त सांख्यकारि. कायामोश्वरकृष्णेन भेदानां परिमाणात्, समन्वयाच्छक्तिसंप्रवृत्तेश्च / कारणकार्यविभागादविभागाद् वैश्वरूप्यस्य // 15 // Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ तृतीयः नचाऽसदेव महदादिकं कार्यमुत्पद्यमानं स्वीक्रियताम् , तत्समन्वयार्थ प्रधानानुसरणेन न किमपि प्रयोजनमिति वाच्यम् / असतः कार्य्यस्यानुत्पत्तेस्तथाहि असत: शशविषाणादिकस्य कार्यस्य सत्त्वं केनापि कर्त्तमशक्यम् , अतो हेतोः सत एव कार्य्यस्य सत्कारणमनुसरणीयम् , तद्धमत्वात्तस्य / लोकेऽपि तिलेषु सत एव तैलस्य निष्पीडनेन सम्पादनं दृश्यते यथा न तथाऽसत: कार्यस्य कुत्रचित् केनापि सम्पादनमिति / न च सत्कार्यवादे विद्यमानप्रागभावप्रतियोगित्वरूपायाऽसत्त्वस्य विद्यमानत्वरूपम्य सत्त्वस्य च न विरोध इतिवाच्यम्। अविद्यमानत्वस्यैव लाघवादसत्त्वरूपतास्वीकारात् तस्यैवानुगताऽसत्त्वव्यवहार. प्रयोजकत्वात् / एवं कार्यमानं प्रति तदुपादानापेक्षणादपि कार्य सदिति मन्तव्यम् / अन्यथा शालिबीजकोद्रवबीजयोरुभयत्रापि शालिफलात्मककार्यायोगस्याऽविशेषेऽपि शालिफलार्थिनः शालिबीजस्यैवोपादानम् न तु कोद्रवबीजादेरिति प्रतिनियमानुपपत्ति: स्यात् / एवं सर्वस्मात् सर्वस्यानुत्पत्तेश्चापि कार्य सदिति. स्वीकार्य्यम् , असतः कार्य्यस्य सम्पादनेऽसम्बद्धत्वाविशेषेण सर्वं सर्वस्माद् भवेत् , तस्मा. दुत्पत्तेः प्राक् कार्य कारणेन सह सम्बद्धमवसेयम् / तथा चाहु रभियुक्ताः असत्वाद् नास्ति सम्बन्धः, कारणैः सत्त्वसङ्गिभिः / असम्बद्धेषु, चोत्पत्ति-मिच्छतो न व्यवस्थितिः / / एवमशक्तस्य वस्तुनः कारणत्वस्वीकारे पूर्ववदतिप्रसङ्गाच्छ. क्तस्य तस्य कारणत्वं वक्तव्यम् / शक्तत्वश्च शक्तिमत्वम्, शक्तिश्च न सार्वत्रिकी स्वीकर्तुं शक्या, तथैवातिप्रसङ्गात् / एवञ्च कचिदेव Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [77 - - - - शक्तिः स्वीकरणीयतामर्हति / ततश्च कार्येऽसति कारणस्य शक्तिः कथं नियता स्यात् / असतो वस्तुनो विषयत्वायोगात् , तस्मात् कार्य प्रागपि सदेव / एवं कारणतारतम्यादपि सदेव कार्यमित्यभ्युप. गन्तव्यम् / कारणरूपेभ्योऽवयवेभ्योऽवयविरूपं कार्यं न भिद्यते तथाप्रतीतेरभावात् / 'कपालं घटीभूतम् तन्तुः पटीभूतः सुवर्णं कुण्डलीभूतम् " इति तयोरभेदप्रतीतेश्च / तस्माद् महदादिकार्यस्योत्पत्तेः प्रागपि यत्र सत्त्वं सा प्रकृतिरवगन्तव्येति / एतत्सङ्ग्रहाकत्वेनोक्तं यथा-"असदकरणादुपादान-ग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात्। शक्तस्य शक्यकरणात, कारणभावाच्च सत्कार्यम्॥६॥ . (सालयकारिका) ततश्च प्रकृतेः सकाशाद् बुद्धयपरनामकं महत्तत्त्वमुत्पद्यते / यतश्चैतन्यं स्वभावतो विषयावच्छिन्नं प्रकृत्यधीनं वा स्वीकरणीयतामहति / विषयावच्छिन्नत्वेऽनिर्मोक्षप्रसङ्गः, प्रकृत्यधीनत्वेऽपि तस्यानित्यतया तदोषानुद्धार •एवेत्यतो यत्सम्बद्धेन्द्रियस्य विषयचैतन्यावच्छेदनियामकत्वम् , यद्वयापाराच सुषुप्राविन्द्रियव्यापारविरतावपि श्वास-प्रश्वासादि-तन्महत्तत्वम् / तस्य धर्मा ज्ञानाऽज्ञानै-श्व-नैश्वर्य-वैराग्यावैराग्य-धर्माधर्मरूपा अष्टौ, बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्ना अपि, भावनायास्तैरनङ्गीकारात् / अनुभवस्यैव स्मृतिपर्यन्तं सूक्ष्मरूपतयाऽवस्थानात् / तस्य ज्ञानरूपपरिणामेन सम्बद्धो विषयः पुरुषस्य स्वरूपतिरोधायकः / एवञ्च बुद्धितत्त्वनाशादेव पुरुषस्य विषयावच्छेदाभावाद् मोक्ष: / भेदाग्रहाच्च चेतनोऽहं करोमीत्यध्यवसायः / अचेतनप्रकृतिका-या बुद्धेश्चैतन्यानुपपत्त्यैव स्वाभाविकचैतन्यरूपस्य पुरुषस्य सिद्धिः / आलोचनं व्यापार इन्द्रियाणाम्, विकल्पस्तु Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ तृतीयः मनसः, अभिमानोऽहकारस्य,कृत्यध्यवसायो बुद्धापारोऽनुसन्धेयः / ___सा हि बुद्धिरंशत्रयवती, पुरुषोपरागः विषयोपरागः, व्यापारावेशश्चेत्यशाः / भवति हि ममेदं कर्तव्यम् इति बुद्धेरध्यवसायः / तत्र 'मम' इति पुरुषोपरागः, दर्पणस्येव मुखोपरागः, भेदाऽप्रहादतात्त्विकः / 'इदम्' इति विषयोपरागः इन्द्रियप्रणालिकया परिणतिभेदो मुखनिःश्वासहतस्य दर्पणस्येव मलिनिमोपरागस्तात्त्विकः तदुभयोपपत्तौ व्यापारावेशोऽपि / तत्र विषयोपरागलक्षणज्ञाने पुरुषोपरागस्यातात्विकसम्बन्धो दर्पणप्रतिबिम्बितस्येव मुखस्य तन्म लिनिम्नेति / ततो महत्तत्त्वादहकारोत्पत्तिः, भवति हि स्वप्नावस्थायां 'व्या. घोऽहम्' वराहोऽहम् इत्यभिमानः, न तु नरोऽहमित्यभिमानः / अस्ति च नरत्वं सन्निहितमिन्द्रियसम्बन्धश्च / अतोऽनियतविषयाभिमानव्यापारकाहकारसिद्धिः / अग्रेतनतत्त्वनिचयस्तु प्रकटसिद्धः / विश्वे पुरुषस्य पुष्करपलाशवन्निर्लेपत्वात्तजन्य न किमपि दरीदृश्यते, दृश्यमानं घटाद्यखिलं तु पृथिव्यादिपरिणामजन्यमेवेति सालचाः / ___अत्र नैयायिकाः प्रत्यवतिष्ठन्ते,अन्यइति( शास्त्रवार्ता० ) अन्ये तु ब्रुवते ह्येतत्, प्रक्रियामात्रवर्णनम् / अविचायैव तद्युक्तया, श्रद्धया गम्यते परम् // 21 // अन्वयः-अन्ये, तु, एतत्, प्रक्रियामात्रवर्णनम् , ब्रुवते, हि, युक्तथा, अविचार्य, एव, परम् , श्रद्धया, तत् , गम्यते / .. (अव०) अन्ये-प्रपरे विद्वांसः, नैयायिका इति यावत् / Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्सवकः ] कल्पलतावतारिका [ 76 तु-पुनः / एतत्-अनुपदमुक्तम् / प्रक्रियामात्रवर्णनम्-स्वेच्छाकल्पितपरिभाषामात्रोपदर्शनम्, न तात्तिकमितिशेषः / ब्रवते वदन्ति / हि-निश्चयेन / युक्तथा-सत्तर्केण / अविचार्य-विचारणामकृत्वा / एव-अवधारणार्थकमव्ययम् / परम्-केवलम् / श्रद्धमा-परमवृद्धकपिलोक्तसमादरेण। तत्-प्रकृत्यादिपरिभाषोपवर्णनम् / गम्यतेउपादीयते। साजथानामितिशेषः / सत्यां विचारणायां तन्मतं सर्वथा हेयमेवेति भावः / ननु कथं साडयमतस्य सर्वथा हेयतेति चेत्, सत्यम् तैर्जगत्का. रणत्वेन मन्यमान प्रधानमप्रच्युताऽनुत्पन्नस्थिरैकम्वभावमिष्यते / एवं सति पूर्वस्वभावपरित्यागाऽपूर्वस्वभावोपादानाभ्यामेव हेतुहेतुमद्भावनियमात् प्रधानस्य प्रधानत्वाप्रच्युतौ सत्यां ततो महदादि कथं भवेत् / अङ्गदादिपरिणामनाशेनैव कुण्डलादिपरिणामोत्पाददर्शनात् / ___ अथास्माभिरपूर्वस्वभावोत्पत्त्या हेतुहेतुमद्भावो नाभ्युपगम्यते, रूपभेदादनित्यताप्रसङ्गात् / किन्त्वपरित्यक्तसर्पभावस्य सर्पग्य कुण्डलावस्थावदपरित्यक्तप्रधानभावस्यैव प्रधानस्य महदादिपरिणामाभ्युपगम इति को दोष: ? युवत्ववृद्धत्वपरिणामयोरप्यवस्थित एव धर्मिणि पूर्वोत्तरभावनियमेनावस्थासाङ्कादिति चेदत्रोच्यते-प्रधानस्य महदादिजननस्वभावत्वात् प्रधानत्वाऽप्रच्युतावपि महदाधुत्पत्तिस्वीकारे समर्थस्य कालक्षेपायोगात् प्रकृतिसन्निधानस्य सर्वदा सत्त्वात् सर्वदैव महदाधुत्पत्तावेकहेलयैव जगदुत्पत्तिप्रसङ्गात् / कदाचिजननस्वभाव. त्वादेव न सर्वदोत्पत्तिरितिचेत्, तस्य प्रधानस्य नियतस्वरूपाविकतत्वे कदाचिजननस्वभावत्वायोगात् / Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ तृतीयः एकरूपा हि प्रकृतिः सदैव महदादि जनयेत् कदापि वा न जनयेत् / तत्तत्कालावच्छिन्नजननाऽजननोभयनिरूपितैकस्वभावत्वादयमदोष इति चेत्, जननाऽजननयोस्तत्कालावच्छिन्नत्वे तत्स्वभावत्वम् तत्स्वभावत्वे च तयोस्तत्त्वमित्यन्योन्याश्रयः। स्वभावादेव च तयोस्तत्त्वमित्यन्योन्याश्रयः / स्वभावादेव च तयोस्तत्त्वे विलीन प्रकृत्यादिप्रक्रिययेतिभावः / एवमेव प्रधानस्य महदाधुपादानकारणत्वाङ्गीकारे एकान्तनित्यता न स्यात्, अनित्यमहदाद्यभिन्नत्वात् / यद्यदनित्याभिन्नं तत्तदनित्यमितिध्याप्तः / महदाद्यभिन्नत्वमेव कथमिति चेत्, तन्मते कार्यकारणयोरभेदात् सत्कार्य्यवादसिद्धान्तात् / महदाद्यपि सर्वदा सत्त्वान्नित्यमेवेति चेत, तर्हि प्रकृतिविकृत्यादिप्रक्रियैव समुच्छिद्यते / मुक्तावपि महदादिसत्त्वेऽपसिद्धान्तश्च / महदादेः प्रकृतिपरिणामित्वेन प्रकृत्यभिन्नत्वेऽप्यनित्यत्वादिना भेद एवेति चेत्, तर्हि भेदाभेदप्रसङ्ग इति / ____ स्थूलकार्यजातं घटादिकमपि कुलालादिसापेक्षं जायमानं दृश्यते कुलालादीनां तत्रान्वयव्यतिरेकानुविधानदर्शनात् / अतो हेतोस्तत् पृथिव्यादिपरिणामैकहेतुकं न भवति / नियतान्वयव्यतिरेको विना तादृशपरिणामेऽपि हेतुताग्रहाभावात् / तयोश्च कुलालादाववि शेषात् / कारणस्य कार्यगतयावद्धर्मानुविधायित्वात् कुलालादीनां न घटादिहेतुत्वमिति चेत्, तर्हि बुद्धिगतानां रागादीनामपि प्रकृतौ स्वीकारात् प्रकृतिरेव बुद्धिः भावाष्टकसम्पन्नत्वात् न तु प्रकृतिः प्रथक् स्वीकार्या। स्थूलरूपतामपहाय ते रागादयः सूक्ष्मरूपतया प्रकृतौ सन्तीति चेत्, लयाद्यवस्थायां सूक्ष्मतया बुद्धावपि सत्त्वात्तत्रैव तेषामवस्थानात्, सूक्ष्मतया घटादिगतधर्माणां कुलालादौ कल्पने बाधकाभावाच / घटा Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तबकः ] . कल्पलतावतारिका [81 दावपि देहः कर्ता स्थूलरूपावच्छिन्नस्य तस्य कुलालादिचेष्टयैवोत्पादादिति चेत्, असौ देहो नैगऽऽत्मनः पृथक् सर्वगतत्वान्निष्क्रियत्वाच / असर्वगतसकियदेहादात्मा प्रथगेवेति चेत्, आत्मनो भोगानुपपत्तेः / सर्वथा देहाद् भेदे तस्य मुक्तिस्वीकारात् क्षीरनीरन्यायेन देहाभिन्नस्यैवाऽऽत्मनो देहोपनीतभोगसम्भवात् / - प्रात्मनो देहद्वारेण वस्तुनो नेष्यते भोगः किन्तु प्रतिबिम्बोदयात्। याप्येवमपि सुखदुःखाद्यन्तःकरणधर्मानुविद्धस्य महत एव स्वतोऽचे. तनस्य चेतनोपरागेण 'चेतनोऽहं सुखी' इत्यांद्यभिमानरूपश्चैतन्यांशेऽतात्त्विको भोगः, न तु पुरुषस्य, तथापि भोक्तृबुद्धिसन्निधानात् तत्र भोक्तृत्वव्यवहारः। तथाचोक्तं पतञ्जलिना "शुद्धोऽपि पुरुषः प्रत्ययं बौद्धमनुपश्यति तमनुपश्यन्नतदात्माऽपि तदात्मक इव प्रतिभासते” इति / . पप्रच्युतस्वभाव एव पुरुष: सान्निध्यात् अचेतन मन: स्वोपरक्त करोति यथोपाधिः पद्मरागादिः स्फटिकं स्वधर्मसक्रमेण स्वोपरक्त करोति / न चैतावता सः (पद्मरागादिः ) विकरोति किन्तु स्फटिक एव विकियते तथाऽऽस्मापि बुद्ध युपराग जनयन् न विकरोति, किन्तु बुद्धिरेव विक्रियते इति बोद्धयम् / आत्मभिन्नाभिहितपुरुषोपरागपरिणामायामन्त:करणलक्षणायां बुद्धावस्यात्मनो भोग: सांख्याचारासुरिप्रभृतिभिः कथ्यते वास्तवचन्द्रस्य निर्मले जले प्रतिबिम्बपरिणाम इव / किश्चास्याऽऽत्मन एकान्ततो देहपृथक्त्वेऽभ्युपगम्यमाने कचिद्धिंसादयो नैव भवेयुः। नहि ब्राह्मणशरीरहत्यैव ब्रह्महत्या मृतब्राह्मणशरीरदाहेऽपि तत्प्रसङ्गात् / नच मरणोद्देश्याभावादयमदोष: मरणोद्देश्येनाप्यदोषप्रसङ्गात्, ब्राह्मणा. स्मनस्तु नाश एव न, नित्यत्वात् / एवञ्च ब्राह्मणं नतोऽपि ब्रह्महत्या Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ तृतीयः न स्यात् / ब्राह्मणशर रावच्छिन्नज्ञानजनकमन: संयोगविशेषनाशानु. कूलो व्यापार एव ब्रह्महत्येति चेत् न, तादृशमनःसयोगस्य स्वत एवं नश्वरत्वात, साक्षाघातानुपपत्तेश्च / ब्राह्मणशरीरावच्छिन्नदुःखविशेषानुकूलव्यापार एव ब्रह्महत्येति चेत्, शरीराच्छरीरिणः सर्वथा भेदे तच्छेदादिना सम्य दुःखमपि कथम् ? परम्परासम्बन्धेन तदात्मस. म्बन्धादिति चेत्, साक्षादेव कथं न तत्सम्बन्धः ? शरीरावयवच्छेदादात्मावयवच्छेद एव हि शरीरात्पृथग्भूतावयवस्य कम्पोपलब्धिरुपपद्यते, नान्यथा, प्राणक्रियाया अपि तन्मात्रोपग्रहं विनाऽभावात् / अथैवं छिन्नावयवानुप्रविष्टस्य पृथगात्मत्वप्रसक्ति: स्यादिति चेत्, न, यस्माच्छरीरावयवः पृथग्भूतस्तस्मिन् शरीर एवच्छिन्नावयवस्य पश्चात् प्रवेशात्, छिन्ने हस्तादौ कम्पादितल्लिङ्गादर्शनादित्थंकल्पनात् / न चैकत्वे आत्मनो विभागाभावाच्छेदाभाव इति वाच्यम् / शरीरद्वारेण तस्यापि सविभागत्वात् / अन्यथा सावयवशरीरव्यापिता तस्य न स्यात्। छिन्नाच्छिन्नयोः कथं पश्चात संघटनमिति चेत्, न, एकान्तेनाच्छिन्नत्वात, पद्मनालतन्तुवदच्छेदेऽपि च्छेदाभ्युपगमात् / संघटनमपि तथाभूतादृष्टवशादविरुद्धमेव / हन्त ! एवं शरीरदाहेऽप्यात्मदाहः स्यादिति चेत्, न, क्षीरनीरयोरिवाभिन्नत्वेऽपि भिन्नलक्षणत्वेन तद्दोषाभावात् / तस्मादेहात्मन एकान्तपृथक्त्वे हिंसाद्यभावः, तदभावे च निमित्तसन्निधानाभावात कथं शुभाशुभबन्ध इति / शुभाशुभबन्धादिकं विना देवनार कादिरूपः संसारो मुक्तिश्चास्य नोपपद्यते। मुक्तः कर्मक्षय. रूपत्वात् / मुक्त्यभावे च सर्वमेव यमनियमादिघोरानुष्ठानं व्यर्थ स्यात् / कः खलु फलमनभिलषन्नेव दुष्करक्लेशैरात्मानमवसादयेत् / स्यादेतद्-श्रात्मा न बध्यते, नापि कदाचन मुच्यते, तस्य च Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - स्तमकः ] . कल्पलतावतारिका [83 सर्पदाबद्धत्वात् / किन्तु प्रकृतिरेव स्वपरिणामलक्षणेन बन्धेन बध्यते तेनैव मुच्यते च / प्रकृतावेव बन्धविश्लेषौ / पुरुषे तु बन्धमोक्षायपु. चयेते, भृत्यगताविव जयपराजयौ स्वामिनि / तदुक्तम् तस्माद् न बध्यते नापि मुच्यते नापि संसरति कश्चित् / ... संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः // 1 // इतिचेदत्रोच्यते-सर्वथैकस्वभावायाः सर्वथा नित्यायाश्च प्रकृते. निवृत्तिक्रियाया अभागत् सन्न्यायाद् बन्धमोक्षौ न प्रकृतिपुरुषान्यता. ख्यातिरूपो हि व्यापारः पुरुषस्यैवे त तस्यैव मोक्ष उचितो न तु प्रकृतेः, तस्याः प्रवृत्त्येकरूपत्वात् , पुरुषार्थमचेतनत्वेन व्यापारायोगाश्च / - अपि च प्रकृतेर्मुतौ पुरुषस्य स्वरूपावस्थाने तस्याः साधारणत्वादेकमुक्ती संसारोच्छेदः, प्रकृतिवदात्मनोऽपि सर्वगतत्वेन "एका. वच्छेदेन मुक्तिर्नान्यावच्छेदेन" इत्यपि वक्तुमशक्यत्वात् , तबुद्धयवच्छेदेन मुक्तत्वम् , नान्यबुद्धयवच्छेदेन इत्यपि वक्तुमशक्यम् बुद्धः क्षीणत्वात् , बुद्धियोगेन पुरुषस्य संसारित्वे तस्यैव मोक्षप्रसङ्गाच / "प्रकृतिवियोगो मोक्षः” इति वचनात् प्रकृतेर्मोक्षः कथं भवेत् ? प्रकृतिस्वरूपनिवृत्तिप्रसङ्गात् , पुरुषे तु प्रकृतिनिवृत्तिद्वारा तभिवृत्तियुज्यते, न तु स्वस्मिन् स्वनिवृत्तिः संभवति, घटे घटनिवृत्त्यदर्शनात् अप्रसकस्य प्रतिषेधभावात्, प्रकृतेर्मोक्षे तन्त्रविरोधाश्च / इत्थञ्चोक्त. प्रकारेणोपपादिता पुरुषस्य मुक्तिः कथमपि न संघटत इति हेतोः सालयोक्तं सर्वमयुक्तम् / - प्रार्हताः पुनः साङ्थवादेऽपि पुरुषस्य प्रकृतिवियोगलक्षणा मुक्तिमिच्छन्ति प्रकृतिमपि समीचीनतर्कात् कर्मप्रकृतिमेवेच्छन्ति, बुद्धथावीनां निमित्तत्वात् , तत्समन्व्यश्व कथञ्चिदात्मादावेवोपपद्यते, सर्वथा Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4] शासवार्तासमुच्चयस्य [ तृतीयः सत्कार्य्यवादे तु सत: सिद्धत्वेनाकरणात् साध्यार्थितयैवोपादानग्रहणात नियतादेव क्षीरादेः सामग्रथा दध्यादिदर्शनात् सिद्धे शक्यव्यापारात् तादात्म्ये स्वस्मिन्निव कार्यकारणभावाद् विपरीतं हेतुपश्चकम् / यदि कारणब्यापारात् प्रागपि पटस्तन्तुषु घटः कपालेषु वा सन्नेव तदा किमि. त्युपलब्धिकारणेषु सत्सु सत्यामपि जिज्ञासायां नोपलभ्यते, अनावि. र्भावादिति चेत्, कोऽयमनाविर्भाव: ? उपलब्धेरभावश्चेन सैव कथम् ? इत्याक्षेपे तदेवोत्तरमिति घट्टकुट्यां प्रभातम् / अथोपलब्धियोग्यस्यार्थस्यार्थक्रियाकारिरूपम्य विरहोऽनाविर्भाव इति चेत्, असत्कार्य्यवादः, तादृशरूपस्य पूर्वमविद्यमानम्य पश्चाद्भावात् / विजातीयसंयोगस्य तदवच्छेदेन सन्निकर्षस्य वा व्यञ्जकस्याऽभावाद् न प्रागुपलब्धिरिति चेत्, तर्हि तस्यैव प्रागसत्त्वेऽसत्का उपात:, प्राक् सन्नेवाऽविभूतो व्यञ्जक इति चेत् न, आविर्भावस्यापि सदसद्विकल्पग्रासात् / स्थूलरूपावच्छिन्नस्य प्रागसत्त्वानोपलब्धिः, धर्मधर्मियोः सौम्यस्थौल्ययोश्चैकत्वान्ननवस्थेति चेत् तर्हि सूक्ष्मरूपा. वच्छिन्नस्याऽहेतुकत्वेऽतिप्रसङ्गः, प्रकृतिमात्रहेतुकत्वे च स्थूलतादशायामपि तदापत्तिरिति न किञ्चिदेतत् / तस्माच्छवलस्यैव वस्तुनः कथञ्चित् सत्त्वमसत्त्वश्चाप्युचितम्, तथा च बुद्धयादीनामहन्त्वसामानाधिकरण्येनाध्यवसीयमानत्वात् तद्धर्मतया तत्रैव समन्वयः कर्मप्रकृतिस्तु तत्र निमित्तमात्रमिति प्रतिपत्तव्यम् / ननु रूपादिसन्निवेशरहितममूर्त मूर्ततां (रूपादिमत्परिणतिम् ) न याति, आकाशादौ तथा दर्शनात्, एवं मूर्तममूर्तपरिणतिं नाऽऽयाति परमाण्वादिषु तत्सद्भावाऽप्रसिद्धः, यस्मादेवं न स्वरूपविपर्ययो भवति सतो नियमात् कर्मप्रकृत्याऽऽत्मनो बन्धाद्यसङ्गतम् इति चेद् आह Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * स्तबकः] कल्पमतावतारिका [85 - देहेत्यादि- . (शासवार्ता) देहस्पर्शादिसंवित्या, न यात्येवेत्ययुक्तिमत् / अन्योऽन्यव्याप्तिजाचेयमितिबन्धादिसङ्गतम् // 42 // ___ अन्वयः-देहस्पर्शादिसंवित्त्या, न, यात्येव, इति, अयुक्तिमत् , इयम्, च, अन्योन्यव्यातिजा, इति, बन्धादि, सङ्गतम् / - (अव०) देहस्पर्शादिसंविच्या-देहे शरीरे यःस्पर्शः कण्टकादिस्पर्शः उपघातहेतूपनिपात इति यावत् , देहस्पर्शादिस्तदादिस्तत्प्रमुखः अनुग्रहहेतूपनिपात इति. यावत् देहस्पर्शादिस्तस्य संवित्तिः-तजनितसुखदुःखानुभूतिस्तया तथा / न यात्येवेति-अमूर्त मूर्ततां न यात्येवे. त्यादि पूर्वोक्तम् / अयुक्तिमत्-अनुभवबाधितम् अत एवानुचितमित्यर्थः। इयम्-देहस्पर्शादिसंवित्तिः / च-पुनः / अन्योन्यव्याप्तिजा-परस्पर. व्याप्तिजनिता गुडशुण्ठीद्रव्योरिव शरीरात्मनोर्जात्यन्तरतापत्तिप्रभवा। प्रतिप्रतीकं तदनुभवात् / इति-हेतोः / बन्धादि-प्रागुदीरितं बन्धमोक्षादि / सङ्गतम्-युक्तिमत् , इति / ___युक्तबैतत्-अविभागदर्शनात्, नरत्वादेरेकनिष्ठत्वेऽतिप्रसङ्गात् / एकत्वानवच्छेद्यपर्याप्तिप्रतियोगित्वरूपव्यासज्यवृत्तित्वे च सांख्यस्य भवेदपसिद्धान्तः / व्यासज्यवृत्तिजात्यनभ्युपगमात्, एकाश्रयत्वानुभव. विरोधात्, शरीराप्रत्यक्षेऽप्यन्धकारे नरत्वप्रतीत्यनुपपत्तेश्च / एवं तर्हि मानादयोऽपि. भवेयुः शरीरे, रूपादयोऽपि जीव इति चेत्-इष्टापत्तिस्वदाह सम्मती मीसिद्धसेन Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "86] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य / तृतीयः रूवाईपज्जवा जे देहे जीवदवियम्मि सुद्धम्मि / ते अण्णोण्णाणुगया पण्णवरिणज्जा भवत्थम्मि / गौरोऽहं जानामि कृशोऽहं जानामि इत्यादिधियस्तथैवोपपत्ते: रूपादिज्ञानादीनामन्योन्यानुप्रवेशेन कथश्चिदेकत्वाऽनेकत्वमूर्तत्वाऽमूतत्वादिसमावेशात् / अत एव दण्डादीनामेकत्ल मनेकत्वश्च स्थानाले व्यवस्थितम् / नन्वेवमन्तहर्षविषादाद्यनेकविवर्तात्मकमेकं चैतन्यम् / बहिर्बालकुमारयौवनाद्यनेकावस्थात्मकमेकं शरीरमध्यक्षतः संवेद्यत इत्यस्य विरोधः। बाह्याभ्यन्तरविभागाभावादिति चेत्, सत्यम् आत्मभिन्नत्वा. ऽभिन्नत्वाभ्यां तदभावेऽपि मानसत्वाऽमानसत्वाभ्यां तद्व्यपदेशात् / सर्वस्यैव मूर्तामूर्तादिरूपतयाऽनेकान्तात्मकत्वात् अयं बाह्यः, अय चाभ्यन्तरः इति समये न वास्तवो विभागः, अभ्यन्तर इति व्यपदेशस्तु मनः प्रतीत्य, तस्याऽऽत्मपरिणतिरूपस्य पराप्रत्यक्षत्वात् . शरीरवा. चोरिव / न च तद्वदेव तस्य परप्रत्यक्षत्वापत्तिः इन्द्रियज्ञानस्याशेषपदार्थस्वरूपग्राहकवायोगात , एवञ्च स्याद्वादोक्तिरेव युक्ता, न तु परस्परनिरपेक्षनयोक्तिर्विनाश्रोतृधीपरिकर्मणानिमित्तम् , वस्तुनोऽनेकान्तात्मकत्वात् / तस्माद्देदात्मनोऽन्योन्यव्याप्तिजन्यैव देहस्पर्शादिसंवि. त्तिरितिसिद्धम् / मूर्तयाऽपि प्रकृत्या आत्मनो योग: संभवति, यथा मूर्तेनामूर्तस्य नभसः, घटेन संयुक्तमपि नभो न घटस्वभावतां यातीति न दोष... इतिचेत्-स संयोगः किं घटस्वभावः, नमःस्वभावः, उभयस्वभावोऽनु- .. भयस्वभावो वा ? आद्ययोरुभयनिरूप्यत्वानुपपत्तिः, तृतीये च वदतो व्याघात:, घटस्वभावसंयोगवत्तया नभसो घटस्वभावत्वात, चतुर्थे त्व. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तषक: ] कल्पलतावतारिका - नुपाख्यत्वापत्तिरिति न किमप्येतत् / न च नभसो घटादिनेव कर्मणा जीवस्य सम्बन्धो जायताम् , ततोऽनुग्रहोपधातौ तु तस्य नभस्वदेव न म्यादिति वाच्यम् / सुराब्राह्मीघृतादिना ज्ञानस्येव मूर्ताया अपि कर्मप्रकृतेः सकाशात् जीवस्योपघातानुग्रहभावस्य युक्तत्वात् उपघातानुग्रहमावस्याऽङ्गाङ्गिभावलक्षणसम्बन्धप्रयोज्यत्वात् / . अथैवमपि सर्वमिदमात्मनोऽविभुत्वे संभवति, तदेव चेदानीमपि न सिद्धमिति चेत्, न, शरीरनियतपरिमाणवत्त्वेनैवाऽऽत्मनोऽनुभवात्, मूर्तत्वसंशयस्य ज्ञानप्रामाण्यसंशयादिनैवोपपत्तेः / न च द्रव्यप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नहेतोमहत्त्वस्याऽत्मनि सिद्धौ तस्यावयवमहत्त्वाद्यजन्यत्वेन नित्यतया आत्मा विभुः नित्यमहत्त्वात् आकाशवत् इत्यनुमानात् तस्य विभुत्वमेव युक्तमिति वाच्यम् / नित्यमहत्त्वेऽप्यपकृष्टपरिमाणवत्त्वे बाधकामावेनाप्रयोजकत्वात् / नचापकृष्टत्वे तस्य जन्यत्वापत्तिर्बाधिका, गगनमहत्त्वायधिकापकर्षस्य बहुत्वजन्यतावच्छेदकत्वादितिवाच्यम् परमाणुपरिमाणसाधारणतयाऽस्य कार्यतावच्छेदकत्वाभावात् , त्रुटिमहत्त्वावधिकोत्कर्षेण समं साङ्क-त् तादृशजात्यसिद्धेश्च / एवं सति कथमात्मनो विभुत्वे स्वस्मिन् क्रियादिप्रतीतिः, तीर्थगमनादेरदृष्टहेतुत्वश्रवणादिकम्योपपादनीयम् ? कथं वाऽऽत्मन: सर्वगतत्वात स्वशरीरादन्यत्रापि न ज्ञानाद्युत्पादः ? शरीराभावादन्यत्र न ज्ञानाद्युत्पाद इति चेत् , न, अन्य शरीरस्य सत्त्वात् / स्वशरीराभावादितिचेत् ? स्वसंयुक्तत्वेन तस्यापि स्वीयत्वात् / स्वादृष्टोपगृहीतशरीराभावादिति चेत् तर्हि उप जीव्यत्वात् तददृष्टस्यैव तदज्ञानादिहेतुत्वात् , तस्य शरीरव्यापितयाऽऽत्मनस्तथास्वसिद्धिः / तदुक्तम् यत्रैव यो दृष्टगुणः स तत्र, कुम्भादिवन्निष्प्रतिपक्षमेतत्।। तथापि देहाद बहिरात्मतत्त्व-मतत्त्ववादोपहता वदन्ति / / Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88] शास्त्रवार्तासमुख्यस्य [तृठीमः अपि चाऽऽत्मविभुत्ववादे ज्ञानादीनामप्यन्याप्यवृत्तित्वादिकल्पने गौरवमिति न किश्चिदेतत् / तदाहुः सूरिप्रवराः एवमित्यादि(शास्त्रवार्ता) एवं प्रकृतिवादोऽपि, विज्ञेयः सत्य एव हि / कपिलोक्तत्वतश्चैव, दिव्यो हि स महामुनिः॥४४॥ ___ अन्वयः-एवम् , च, कपिलोक्तस्वतः, प्रकृतिवादः, अपि, सत्यः, एव, विज्ञेयः, हि, सः, महामुनिः, दिव्यः, एन, हि / (अव.) एवम्-पूर्वकथितप्रकारेण। च-पुन: / कपिलोक्तत्वतःद्रव्यार्थिकनयावलम्बि--कपिलप्रणीतत्वात् / प्रकृतिवाद:-प्रकृतिकारणतावादः। अपि-सम्भावनायाम् / सत्यः-समीचीनः / एव-खलु / विज्ञेयः-बोद्धव्यः / हि-निश्चयेन। सः-अद्भुतशीलाचरणत्वेन प्रसिद्धः / महामुनिः-मुनिपुङ्गवः / दिव्यः-अलौकिकप्रभावः / एव-खलु / हि-निश्चयेन / ततश्च तादृशः स महामुनिः कथमनृतं ब्रूयात् , इति तस्याप्ययमेवाऽभिप्राय इति भावः। . अन्ते साङ्ख थमुपहसन् ब्रवीति महोपाध्यायः साहयेति(कल्पलता) साङ्खय ! सख्यमिदमेव केवलं, मन्यसे प्रकृतिजन्म यजगत् / आत्मनस्तु भणितौ विधर्मणः, संख्यमेव भजदेवमावयोः // 7 // अन्वयः- साङ्ख्य ! यत् , (त्वम्) जगत् , प्रकृतिजन्म, मन्यसे, इदम् , एव, केवलम् , आवयोः, सख्यम् / तु, एदम् , विधर्मणः, आत्मनः, भगिती, (आवयोः) संख्यम् , एव, भजत् (वर्तते)। .. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तबकः ] कल्पलतावतारिका [86 (कल्पलतावतारिका) सालय ! कपिलप्रमुखसांख्याचार्य / यत्-यस्मात् / (त्वम्) जगत्-भुवनम् / प्रकृतिजन्म-रकृते:-प्रकृतिशब्दवाच्यात् गुणत्रयात्मप्रकृतेः कर्मप्रकृतेश्च जन्म यस्य तत्तथा / मन्यसे-स्वीकुरुषे / इदम्-एतत् / एव-खलु / केवलम्-तन्मात्रम् / आवयोः-त्वं सांख्यवाहमाईतश्च आवाम् परत्वादस्मच्छब्दस्यैकशेषे “य. शिष्यते स लुप्य. मानार्थाभिधायी" इत्यभियुक्तोक्त्या द्वित्वविवक्षायां द्विवचनविभक्तिः तयोस्तथा / सख्यम्-मैत्रीभावः / तु-पुनः / एवम्-अनेन प्रकारेण। विधर्मणः-विगतो धर्मो ज्ञानादिर्यम्मादसौ विधर्मा तस्य तथा / भणितीकथने, निरूपणे इति यावत् / (आवयोः) संख्यम्-युद्धम् / एवअवधारणार्थकमव्ययम् / केवलं संख्यमेवेत्यर्थः / भजत्-प्राप्नुवत् / वर्तते इति शेषः / भवचक्रपरिभ्रमणात्मकस्य जगत: प्रकृतिजन्यत्वविपये भवता सह विवादो नाम्ति, कर्मप्रकृतिकस्य जगतोऽस्माभिरपि स्वीकारात , केवलमात्मस्वरूपविषये विवादो यतस्त्वया विधर्माऽऽत्मा मन्यते मया तु सधर्मेतिभावः / पूर्वोक्तमेव स्पष्टयति भगवन्स्तुतिमुखेन आत्मानमित्यादि(कल्पलता) आत्मानं भवभोगयोगसुभगं, विस्पष्टमाचष्ट यो, यः कर्मप्रकृति जगाद जगतां, बीजं जगच्छर्मणे / नद्योऽब्धाविव दर्शनानि निखिलान्यायान्ति यदर्शने, * तं देवं शरणं भजन्तु भविनः, स्याद्वादविद्यानिधिम् // 8 // अन्वयः-जगच्छर्मणे, यः, भवभोगयोगसुभगम् , आत्मानम् , बिपष्टम् , भाचर, यः, कर्मप्रकृतिम् , जगताम् , बीजम् , जगाद, नद्यः, भब्धी Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1.] ::-- शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य .. [ तृतीयः इव, निखिलानि, दर्शनानि, यदर्शने, भायान्ति स्याद्वादविद्यानिधिम् , तम् , देवम् , भविनः, शरणम् , भजन्तु / . (कल्पलतावतारिका) .. जगच्छर्मणे-लोककल्याणाय / य:-यादृशो देवः। भवमोगयोगसुभगम्-भवे जगति, भोगेन सुखदुःखसाक्षात्कारेण योगः सम्ब. न्धो भवभोगयोगस्तेन सुभग: सुन्दरो भवभोगयोगसुभगस्तन्तथा / . आत्मानम्-चैतन्यवन्तं जीवमित्यर्थः / विस्पष्टम्-अतिम्फुटतया / आचष्ट-कथयामास / यः-(पुन:)। कर्मप्रकृतिम्-कर्मात्मिकां प्रकृतिम् / जगताम्-लोकानाम्, भुवनानामितियावत् / बीजम्-निदानकारणम् / जगाद-प्रतिपादयामास नद्यः सरित: / अन्धौ-समुद्रे / इव-यथा। निखिलानि-समस्तानि / दर्शनानि-परमात्मतत्त्वनिरूपकागमाः / यदर्शने-यदीयाऽऽगमे / आयान्ति-प्रविशन्ति, सम्मिलन्तीति यावत् / स्याद्वादविद्यानिधिम्-अनेकान्तात्मककांन्ततत्त्वज्ञाननिधानम् / तम्तादृशत्वेन प्रसिद्धम् / देवम्-देवाधिदेवम् / भविन:-मोक्षगमनयोग्या भव्यात्मानः / शरणम् रक्षकम् / भजन्तु-समाश्रयन्तु / दृष्टान्तोऽलङ्कारः। जगत्कर्तृत्वमीशस्य, वैधर्म्यश्चात्मनः पुनः / खण्डयित्वा तृतीयोऽयं, स्तवकः पूर्णतामितः // 3 // 1 इति शासनसम्राट-तपागच्छाधिपति-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-जगद्गुरु बालब्रह्मचारिभट्टारकाचार्यमहाराजश्रीविजयनेमिसूरीश्वरमहाराजपट्टा-1 / लङ्कारशास्त्रविशारदकविरत्नपीयूषपाणिपूज्यपादाचार्य श्रीविजयामृत। रिवरसन्डब्धायां महोदधिकल्पशास्त्रवार्तासमुच्चय-कल्पलतानुसा-1 रिण्यां-कल्पलतावतारिकायां तृतीयः स्तवकः / Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] ... कल्पलतावतारिका [11 ॐ अथ चतुर्थः स्तवकः * ' अथ चतुर्थस्तवका दिममङ्गलमभिष्टौति यस्येति(कल्पलता) यस्याभिधानाजगदीश्वरस्य, समीहितं सिद्धयति कार्य्यजातम् / सुरासुराधीशकृताहिसेवः, पुष्णातु पुण्यानि स पार्श्वदेवः // 1 // ... ___ अन्वय - यस्य, जगदीश्वरस्य, अभिधानात् , समीहितम् , कार्यजातम् , सिद्धथत, सुराऽसुराधीशकृताहिसेवः, सः, पार्श्वदेवः, पुण्यानि, पुष्णातु | (कल्पलतावतारिका) / यस्य-बुद्धिविषयीभूतस्य / जगदीश्वरस्य-त्रिभुवनाधीशस्य / अभिधानात्-नामोच्चारणमात्रतः समीहितम्-अभीप्सितम् / कार्यजातम्-निखिलकार्यम् / सिद्धयति-निष्ठामधिगच्छति, संपद्यते वा। सुराऽसुराधीशकृतांह्रिसेवः-सुराऽमुगधीशैः-देवदानवाधीश्वरैः, कृताविहिता, अंहिसेवा चरणशुश्रूषा यम्य स तथा / सः-यत्तदोनित्यसम्बन्धाद्यत्पदाभिधेयः सः / पार्श्वदेवः-भगवान पार्श्वनाथः। पुण्यानिसुकृतानि / पुष्णातु-पोषयतु / कविनिष्ठः श्रीपार्श्वनाथविषयको रत्याख्यभावोऽभिव्यज्यते इति भावध्वन्यात्मकमुत्तमं काव्यमिदम् / सुराऽसुराधीशकृत श्रीपार्श्वनाथचरणसेवायां तदीयनामस्मरणकरणक समीहितकार्यजातसफलीभवनस्य हेतुतया काव्यलिङ्गमलङ्कारः। श्रीमन्महावीरजिनवरमभिष्टोत्यङ्केत्यादि-, Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 ] ' शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [चतुर्थः (कल्पलता) अवारूढमृगो हरिन भुजगा-तङ्काय साऽसुहृद्, निःशङ्काश्च सुराऽसुरा न च मिथो-ऽहङ्कारभाजो नृपाः / यद्व्याख्याभुवि वैरमत्सरलवाशङ्काऽपि पवावहा, श्रीमद्वीरमुपास्महे त्रिभुवनालङ्कारमेनं जिनम् // 2 // अन्वय:- यद्वयाख्याभुवि, हरि', अङ्कारूढमृगः सर्पाऽसुहत् , भुजगातङ्काय, न, च. सुराऽसुराः, निःशङ्काः, च, नृपाः, मिथः, अहङ्कारभाज:, न. ( अतएव ) वैरमत्सरल वाशङ्का अप, पङ्कावहा. त्रिभुवनालङ्कारम् एनम् , श्रीम.रम् , जिनम , उपास्महे / (कल्पलतावतारिका) यद्वयाख्याभुवि-यदीयसमवसरणभूमौ। हरिः-सिंहः / अहासहमृगः-अङ्कमुत्मङ्गमारूढोऽधिरूढो मृगो हरिणो यस्य स तथा, स्वा. भाविकवरत्यागात् / सर्पाऽसुहृत्-सर्पाणां भुजगानाम् - सुहृत्अमित्रम् , शत्रुभूत इति यावत , सर्पाऽसुहृत् गरुड इत्यर्थः / भुजगाऽऽतङ्काय-सर्पसाध्वसाय / न-नहि / च-पुनः / सुराऽसुरा:देवदानवाः / निःशङ्काः-भयरहिताः, अपगतशका इति यावत् / च-पुन: / नृपाः-राजान / मिथ:-परम्परम् / अहङ्कारभाज:अभिमानवन्तः / न-नहि / (अतएव ) वैरमत्सरलवाशका-वैर स्वाभाविकविरोधश्च मत्सरोऽन्यशुभद्वेषश्च वेरमत्सरो तयोर्लयों लेशो वैरमत्सरलवस्तस्य आशङ्का-शङ्कालेशस्तथा / अपि सम्भाकनायाम् / "अपिः सम्भावनाप्रश्नशङ्काग समुच्चये' इति मेदिनी / पढावहा-पापकारिणी दुष्टेति यावत् / विश्वनालङ्कारम्-भुरना.य Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तक्कः ] कल्पलतावतारिका [ 3 भूषणम् / एनम्-यत्पदवर्णितम् / यद्यप्यत्र यत्तदोनित्यसम्बन्धनियमात् यच्छब्दार्थपरामर्शकतया तच्छब्देनैव भाव्यम् , तथापि 'आनन्दयति ते नेत्रे योऽधुनाऽसौ समागतः', 'योऽविकल्पमिदमर्थमण्डलं, पश्यतीश ! निखिलं भवद्वपुः / आत्मपक्षपरिपूरिते जगत्यस्य नित्यसुखिनः कुतो भयम्' इत्यादाविदमादीनामपि तच्छब्दसमानार्थकतया दर्शनात् न कश्चिद्विरोध इति / श्रीमद्वीरम् षड्विधैश्वर्यशालिनं वर्द्धमानस्वा. मिनम् / जिनम्-तीर्थकरम् / उपास्महे-समाराधयामः / अत्र "वैर. मत्सरलवाशकाऽपि पकावहा" इत्यत्र पूर्वार्द्धस्य हेतुतयाऽभिधानात् काव्यलिङ्गमलकारः / समवसरणभूमौ कामक्रोधाधन्तरङ्गारीणामप्य. विरोधित्वं ध्वन्यते, तस्य च प्राधान्येन स्फुटतया प्रतीतेरुत्तमं काव्यमिदमवसेयम् / तदुक्तं ध्वन्यालोके राजानकाऽऽनन्दवर्द्धनाचार्य: सर्वेष्वेव प्रभेदेषु स्फुटत्वेनावभासनम् / यद्वथड्यस्याङ्गिभूतस्य, तत्पूर्ण ध्वनिलक्षणम् // ____ वार्तान्तरमाह-मूलकन्मन्यन्त इति(शाखवार्ता.) मन्यन्तेऽन्ये जगत्सर्वं. केशकर्मनिबन्धनम् / क्षणक्षयि महाप्राज्ञा, ज्ञानमात्र तथा परे // 1 // अन्वयः-अन्ये, सवम् , जगत् , क्लेशकर्मनिबन्धनम् , क्षणक्षयि, तथा, महाप्राशाः, परे, ज्ञानमात्रम् , मन्यन्ते / (अव०) अन्ये-सौत्रान्तिकाः सौगताः / सर्वम्-चराचर निखिलम् / जगत्-भुवनम् , संसारमिति यावत् / क्लेशकर्मनिबन्धनम्-रागादिनिमित्तम् / क्षणक्षयि-प्रतिक्षणनश्वरम् / मन्यन्ते इत्य. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य / _ [ चतुर्थः नेन सम्बद्धम् / तथा-किञ्च / महाप्राज्ञा:-सुगततनयेभ्य: मौत्रान्तिकेभ्योऽपि सूक्ष्मबुद्धिशालिनः / परे-योगाचाराः / ज्ञानमात्रम् क्षणिः कविज्ञानमात्रम् ( जगत्-भुवनम् ) मन्यन्ते-अवबुद्धयन्ते / ...." - तदेव जगतः क्षणिकत्वं हेतुचतुष्टयेन समर्थयति तयेत्यादि( शास्त्रवार्ता) तयाहुः क्षपिकं सर्व, नाशहेतोर योगतः / अर्थक्रियाममर्थत्वात् परिणामात् क्षयेक्षणात्॥२॥ अन्धयः- ते, नाशहेतोः, अयोगतः, अर्थक्रियासमर्थत्वात् , परिणामात्, क्षयेक्षणात् , सवम् , क्षणिकम् , आहुः / / (अव०) ते-सौत्रान्तिकाः सुगततनयाः / नाशहेतोः-विनाशकारणम्य / अयोगतः-असम्बन्धात, वस्तुन इतिशेषः / अर्थक्रियासमर्थत्वात्-अर्थक्रियाधरितानिर्वाहकत्वात् / परिणामात्-परिणमनात्, श्रतादवस्थ्यादितियावत् / क्षयेक्षणात्-पार्यन्तिकक्षयदर्शनात, एभिहेतुभिरितियावत् / सर्वम्-चराचर जगत् / क्षणिकम्-प्रतिक्षणनश्वरम् / आहुः-कथयन्ति / अयमाशया-वस्तुनः स्थायित्वासिद्धी साध्यस्य (क्षणिक.. त्वस्य ) सिद्धिर्भवितुमर्हति / तत्सिद्धिप्रकारमेव हेतुचतुष्टयोपन्या. सेन ग्रन्थकदाह- तथाहि-नाशहेतुभिर्नश्वरम्वभावो भावो नाश्येत अतादृशो वा ? अाद्ये प्रयासवैफल्यम् , द्वितीये तु स्वभावपराकरणस्य कर्तुमशक्यत्वादनाशप्रसङ्गः / कियकालावस्थायित्वम्वभावस्यैव क र्यस्य हेतुभिर्जनने च तादृशस्वभावस्योदयकाल इवान्तकालऽपि Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तनकः / कल्पलतावतारिका [ 65 सत्त्वात् पुनस्तावन्तं कालमभिव्याप्यावम्भानापत्ति: / द्वितीयहेतुरपि बस्तुनः स्थायित्वेऽनुपपद्यमान क्षणिकत्व एव विश्राम्यति, तथाहिस्थायीभावः क्रमेण कार्य कुय्यात ? अक्रमेण वा ? द्वितीयकल्पे युगपदेव मर्वकार्योत्पत्तिः स्यात ! प्रथमकल्पे च अर्थक्रियाजननस्वभावत्वे पूर्वमेव कुतो न कुर्यात् ? पूर्व सहकारिविरहात काय म कुर्य्यादिति चेत् ? किं सहकारित्वम् ? अतिशयाधायकत्वम् ? एककार्यप्रतिनियतत्व वा ? आधे अतिशयधानेनैव कारणोपक्षयः, अतिशयस्य च भेदे सहकार्यानुपकार:, अभेदे. च बलाद् भिन्नस्वभावत्वम् / द्वितीये साहित्येऽपि पररूपेणाहेतुत्वादकारकावस्थात्यागात् / कार्यानुत्पत्तिरेव / इतरहेतुसन्निधान एव का जनयतीति हेतोः स्वभाव इति चेत् तद्युत्पत्त्यनन्तरमेव स्वभावानुप्रविष्टत्वादितरहेतून मेलयेदिति / तृतीये परिणामस्यान्यथाभावरूपम्य पूर्वरूपपरित्याग विनाऽभायात् , तस्य चानुभव सिद्धत्वात क्षणकत्वसिद्धिः / चतुर्थेऽप्यन्ते क्षयदर्शनात् तदन्यथाऽनुपपत्त्या प्रागपि तत्सिद्धिः / इह (क्षयेक्षणरूपचतुर्थहेतौ प्रत्यक्षानुपपत्तिर्मूलम् / श्राद्ये नाशहेत्वयोगरूपे प्रथमे हेतो ) तु स्वभावानुपपत्तिर्मूलमित्येव विशेषः / ___ योगाचाराम्तु ज्ञानमात्रं जगत् क्षणिक क्षेत्याहुः, यतो लोके ज्ञानमेवानुभूयते तस्य जडत्वाभ्युपगमात . ज्ञानविषयतायाज्ञानाभेदनियतत्वात , ततोऽसौ कल्पनासिद्धोऽर्थो नैव पारमार्थिक इति / अत्र सिद्धान्तिन:-.. अत्रेति(शासवार्ता) .. अत्राप्यभिदधत्यन्ये, स्मरणादेर संभवात् / बाह्यार्थवेदनाच्चैव, सर्वमेतदपार्थकम् // 4 // Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाखवार्तासमुश्वस्य . [चतुर्थः . अन्वयः-अत्रापि, अन्ये, स्मरणादेः, असंभवात् , च, बालार्थवेदनात् , सर्वम् , एतत् , अपार्थकम् , एव, अभिदधति / ... (अव०) अत्रापि-बौद्धवादेऽपि / अन्ये-सिद्धान्तिनो जैनाः / स्मरणादेः असम्भवात्-क्षणिकत्वे स्मरणादेरसम्भवतः। च-पुनः / बाह्यार्थवेदनात-बाह्यार्थप्रमाऽन्यथानुपपत्त्या ज्ञानमात्रासिद्धेः। सर्वम्निखिलम् / एतत्-दिङ्मात्रेण निर्दिष्टम् सौगतमतद्वयम् / अपार्थक्रम्निष्प्रयोजनम् / एव-अवधारणार्थकमव्ययम् / अभिदधति-समुत्तरयन्ति / अयमाशयः-ज्ञातार्थविषयकमागोपालादिसिद्ध स्मरणं यस्मात् अनुभवाम्यवहितोत्तरकाले प्रतिनियतरूपेण निरन्वयनश्वरेऽनुभवितरि मुख्यमेव,एतत् स्वसंवेदनसिद्धं स्मरणं नोपपद्यते, अन्येनानुभवेऽन्यस्य स्मरणायोगात् , “योऽहमन्वभवं सोऽहं' स्मरामि" इत्युल्लेखानुपपत्तेश्च / “सोऽयमन्तेवासी" "सोऽयं गुरुः” इतिप्रत्यभिज्ञाऽपि क्षणिकत्वपक्षेऽसङ्गता, तत्ताविशिष्टाभेदस्येदन्ताविशिष्टेऽनुपपत्तेः / न च प्रत्यभिज्ञा न प्रमाणम्, 'सैवेयं गुर्जरी' इत्यादी विषयषाधदर्शनादिति वाच्यम् , एवं सति हेत्वाभासादिदर्शनात्, सदनुमानादीनामप्यप्रामा. ण्यप्रसङ्गात् / न चाध्यक्षे पूर्वकालसम्बन्धिताया असन्निहितत्वात् परामर्शानुपपत्तिः, अन्त्यसंख्येयग्रहणकाले "शतम्" इति प्रतीते: क्रमगृहीतसंख्येयाध्यवसायतत्संस्कारवशादुपपत्तेः / न च नीलपीतयोरिव वर्तमानत्वाऽवर्तमानत्वयोर्विरुद्धत्वादेकत्र तत्परिच्छेदरूपत्वादयं भ्रमः, अत एव तस्य तादृशापरापरविषयसमिधानदोषजन्यत्व. मिति वाच्यम् , एकत्र नानाकालसम्बन्धस्याविरुद्धत्वात् , अन्यथा बोलसंवेदनस्यापि स्थूराकारावभासिनो विरुद्धविकसम्बन्धात् प्रति. Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [7 परमाणुभेदप्रसक्तेस्तदवयवानामपि भेदापत्तितोऽनवस्थाप्रसक्तेः / न च क्षणिकत्वानुमानेन प्रत्यभिज्ञाया बाध इति शङ्कनीयम् , निश्चितप्रामाण्यकत्वेन प्रत्यभिज्ञयैव क्षणकत्वानुमानबाधात् / अपि च क्षणिकत्वस्वीकारे तद्वयक्तिविषयिणी प्रवृत्तिरपि सङ्गता न स्यात् , ज्ञाताया व्यक्तेर्नष्टत्वात् , अज्ञातायाञ्चाप्रवृत्तेः / किञ्चेच्छाविषयव्यक्ते: प्राप्तिरप्यसङ्गता स्यात् / अस्याः प्रागेव नाशात् / अपि च स्वकृतशुभादेविपाकानुभवो दूरोत्सारित एव प्रवृत्तेभ्रमादिना यथाकथञ्चिदुपपत्तावपि स्वकृतभोगोपभोगोपपादने कस्यचिदुपायस्यामा. वात् , यतो हि य: शीलानुष्ठानहेतुः क्षण: स तदैव निरन्वयनाशभाग् भवति। .. यद्यपि भूतवर्तमानभविष्यत्क्षणप्रवाहापेक्षयैवास्माकं (बौद्धानाम् ) ऐहिकामुष्मिकादिरखिलो व्यवहारः सम्मतः, स च प्रवाह एक एव। . तस्मिंश्च सति स्मृत्यादिरैहिकतयोपपद्यत एव,प्रामुष्मिकत्वेऽपि यस्मिन् क्षणप्रवाहे कर्मवासना कर्मणा जनिता, तस्मिन्नेव शुभाशुभादिकं जनयति यथा कर्पासे लाक्षारसाद्याहिता रक्तता कर्पास एव स्वोपरक्तबुद्ध थादिकं स्वफलं जनयति, तथा च न क्षणिकत्ववादेऽपि कश्चन दोष इति / तथाप्येतन्न युक्तम्-पूर्वापरक्षणहेतुहेतुमद्भावतः सन्तानान्तरस्यैवाभावात् / नचैवमपि न काचिदनुपपत्तिः, स्वजन्यतासम्बन्धेनानुभवादेः स्मृत्यादिनियामकत्वात् / प्रत्यभिज्ञाया अपि स एवायं गकारः' इत्यादाविव तज्जातीयाभेदविषयकतयोपपत्तेः / इच्छादेरपि समानप्रकारकतयैव प्रवृत्यादिहेतुतयोपपत्तेरिति वाच्यम् , क्षणिकहेतुहेतुमद्धावस्यासत्कार्यवादिनो मतेऽयुक्तत्वात् / तथाहि-अभावो भावतां न याति शश-शृङ्ग-कूर्मवीर-वन्ध्यास्तनन्धय-गगनेन्दीवरादिषु भाव Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ चतुर्थः त्वेनापरिच्छेदात् / भावोऽप्यभावतां नैव प्रयाति, अभावोत्पत्त्यादि. दोषप्रसङ्गात् / यतः क्षणिकभावस्य द्वितीयादिक्षणेऽसत्त्वे सति भवेद. सत्त्वोत्पादोऽपि, कादाचित्कत्वात् , उत्पादाच्च तस्यासत्त्वस्य स्याद्विनाशोऽपि, कृतकत्वात्। ततो नष्टस्य सत: पुनर्भाव: स्यात् , नष्टस्य नित्यत्वात् न दोष इति चेत्- तर्हि सदानाशे प्रथमदणेऽपि भावस्यानवस्थानात् / न च भावनाशो भावस्थितिधर्माभाव एव विनाशस्य सांव्यवहार्य तात्त्विकत्वेन द्वैविध्यात्, आद्यस्य भावनिवृत्तिरूप. त्वेऽपि द्वितीयस्य भावरूपत्वादिति वाच्यम् , क्षणस्थितिधर्मकत्व. स्यापि द्वितीयादिक्षणास्थितौ सत्यामेव सम्भवादुक्तदोषापरिहारात् / __ नाभावो भावतां यातीत्याद्युपसंहरन्ति सूरिपादाः सतोऽसत्त्वमित्यादिना / ( शास्त्रवार्ता) सतोऽसत्त्वं यतश्चैवं; सर्वथा नोपपद्यते / नाभावो भावमेतीह, ततश्चेतद्वयवस्थितम् // 38 // अन्वयः-यतश्च, एवम् , सतः, असत्त्वम् , सर्वथा न उपपद्यते, ततश्च, इह, अभावः, भावम् , न, एति, इति, एतद् , व्यवस्थितम् / (अव०) यतश्च-यतः कारणात् ख्लु / एवम्-पूर्वोक्तप्रकारेण / सतः-भावस्य / असत्त्वम्-अभावत्वम् / सर्वथा-सर्वैः प्रकारविचार्य माणम् / न उपपद्यते-भावोन्मजनप्रसङ्गान्न सङ्गतिमङ्गति / ततश्चतस्मात्खलु / इह-प्रस्तुतविचारप्रस्तावे। अभावः, भावम्-सत्ताम् , भावप्रधाननिर्देशः। न एति- नाधिगच्छति। इति एतद्, व्यवस्थितम्पूर्वकथितमुपपन्नम् / भावविच्छेदेनाभावानुपपत्तेः. तंदविच्छेदे च द्रव्यांशान्वयादिति / Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - स्तबकः ] कल्पलतावतारिका [E अत्र सौगतार्हतविचारप्रसङ्गे नैयायिका निजसम्मतमभावमतमाविर्भावयन्ति तथोपपादितं कल्पलतायां यथा___अत्र नैयायिका-नन्वेवं वराकस्य सौगतस्य तूष्णींभावेऽपि न वयमिदं मृषाभाषितं सहामहे, भावभिन्नस्यैवाभावस्य घटमानत्वात् ; तथाहि-अभावो भावातिरिक्त एव, अधिकरणस्याप्रतियोगिकत्वात् , तस्य च सप्रतियोगिकतयाऽनुभूयमानत्वेन तद्रूपत्वायोगात् / अथ सप्रतियोगिकत्वं प्रतियोग्यविषयकबुद्धिविषयत्वं, तच्च तवापि (नैयायिकस्य ) नामावस्य, इदंत्वादिनाप्यभावप्रत्यक्षात् , किन्त्वभावत्वस्य, तस्य च ममापि ( आर्हतस्य ) तथात्वमेव, घटवद्भिन्नत्वरूपस्य तस्यघटवीसाध्यत्वादिति चेन्, न, तद्भिन्नत्वस्यापि स्वरूपानतिरेकेणाप्रतियोगिकत्वात् , वस्तुत: प्रतियोग्यवृत्तिरनुयोगवृत्तियों धर्मस्तज्ज्ञानस्य प्रतियोगिवृत्तित्वेन, अज्ञातधर्मग्रहस्य चाभेदप्रहहेतुत्वेन, तस्य चात्र भेदरूपस्यैव संभवेनान्योन्याश्रयाच्च / नचाभावव्यवहारार्थमेव प्रति. योगिज्ञानापेक्षा, अभीवस्त्वप्रतियोगिक एवेति वाच्यम् , व्यवहर्तव्य. ज्ञाने सति, सत्यां चेच्छायां व्यवहारोदयेन तत्राधिकस्यानपेक्षणात् / नचाभाववृत्त्यभावस्याधिकरणानतिरेकेण सर्वमिदं प्रतिबन्दिकचलितमिति वाच्यम् , अभाव सिद्धयुत्तरमुपस्थितायास्तस्याः फलमुखगौरववददोषत्वात् / नचाभावग्रहसामप्रथैव तदुपपत्तेः किमन्तर्गडुनाऽभा. वेनेति वाच्यम् , 'नास्ति' इति धीविषयस्य तस्यान्तर्गडुत्वायोगात् / किश्च, अभावप्रत्यक्षस्य विशिष्टावैशिष्टयप्रत्यक्षरूपत्वेन मम विशेष. णतावच्छेदकप्रकारकनिश्चयमुद्रयैव प्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नप्र. तियोगिज्ञानस्य हेतुत्वं, नतु स्वातन्त्र्येण, तव (नैयायिकस्य ) तु तद्व्यवहारे तस्य स्वातन्त्र्येण हेतुत्वं कल्पनीयमिति गौरवम् / Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ चतुर्थः किञ्च, अधिकरणानामननुगतत्वात् , कथमनुगतव्यवहार: ? मम (आईतस्य ) तु समवाय-स्वाश्रयसमवायान्यतरसंबन्धेन सत्तात्यन्ताभाव एवानुगतमभावत्वम्, तच्च स्ववृत्त्यपि, इति न किञ्चिदनुपपन्नम् / नचातिरिक्ताभावस्याधिकरणेन सम संबन्धानुपपत्तिः, सम्बन्धान्तरमन्तरेण विशिष्टप्रतीतिजननयोग्यत्वस्यैव तत्संबन्धत्वात् / नन्वेवं घटाभावभ्रमानुपपत्तिः, योग्यतायाः प्रत्ययाविषयत्वेन विभागाभावाच / अथ योग्यतालिङ्गित स्वरूपमेव संबन्धः, भ्रम-प्रमयोश्च वस्तुगत्या घट-तदभावतव्यक्त्यवगाहित्वेनैव विभाग इति चेत् / न अतीन्द्रि याभाव-स्वरूपसम्बन्धेऽव्याप्तेः / तस्य विशिष्टज्ञानाभावादिति चेत्, न योग्यतावच्छेदकावच्छिन्नस्वरूपद्वयस्यैव सम्बन्धत्वात् , योग्यतावच्छेदकं च कचित् प्रतियोगिदेशान्यदेशत्वम् , कचित् प्रतियोगिदेशत्वे सति प्रतियोगिकालान्यकालत्वम् , कचित् प्रतियोगितावच्छे. दकाभाववत्त्वम् / नचात्रापि मत्वर्थसम्बन्धानुयोगः, तत्रापि तादृश. योग्यतावच्छेदकानुसरणात् / नचैवमनवस्था, वस्तुनस्तथात्वात् / प्रत्ययानवस्था तु नास्त्येव, उक्तावच्छेदकवत्त्वस्य स्वरूपपरिचाय. कत्वात् / एवं च तादृशस्वरूपाभावे यत्राभावधीस्तत्र भ्रमत्वम् , इति किमनुपपन्नम् ? वस्तुतः स्वसम्बन्धप्रकारावच्छेदेन यत्र ज्ञाने धर्मिसम्बन्धः स्वसम्बद्धधर्म्यवच्छेदेन वा प्रकारसम्बन्धः, तत्र प्रमात्वम् , अन्यत्र भ्रमत्वम् / अत एव विशिष्टज्ञाने प्रकारधर्मिणोः संयोगादिवदज्ञानस्यापि परस्परसम्बन्धतया भासमानत्वात् 'इदं रजतम्' इति भ्रमे रजत्वस्य शुक्तौ वैज्ञानिकसम्बन्धेन प्रमात्वम् , संयोगेन च भ्रमत्वमिति दिक् / " नैयायिकमुपहसन्त्युपाध्याया. नैयायिकेति Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 101 (कल्पलता) नैयायिकास्मिन् नयवाददीपे, पतन् पतङ्गस्य दशां नु मा गाः / बौद्धस्य बुद्धिव्ययजं कुकीर्ति-विसृत्वरं कजलमस्य पश्य // 3 // _अन्वयः-नैयायिक ! अस्मिन् , नयवाददोपे, पतन् , नु, पतङ्गस्य, दशाम्, मा गाः, अस्य, बौद्धस्य, बुद्धिव्ययजं, कुकीर्तिविसृत्वरम् , कजलम् , पश्य / / (कल्पलतावतारिका) नैयायिक ! कृतन्यायशास्त्रपरिश्रम ! अस्मिन्-पूर्वोक्तप्रकारे / नयवाददीपे-सप्तनयविचारस्वरूपप्रदीपे। पतन्-अन्तर्निवेशमाचरन् / नु-ननु / पतङ्गस्य-प्रदीपशिखायामाविश्य प्राणपरित्यजनस्वभावस्य शलभनामजन्तुविशेषस्य / दशाम्-अवस्थाम् / मा गा:-नाधिगच्छ / अस्य-सपरिकरं खण्डितसिद्धान्तस्य, पुरः स्थितस्य / बौद्धस्यसौत्रान्तिकसौगतविशेषस्य / बुद्धिव्ययजम्-विचारेऽत्र व्यर्थमतिव्यापारजनितम् / कुकीर्तिविसृत्वरम्-अपयशःप्रसरणशीलम् / कजलम्-श्याममजनम् , दोषदूषितवादाविष्करणोत्पन्न-मूढोऽयमितिकलकम् / पश्य-लोचनगोचरीकुरु / अनुपासरूपकालङ्कारौ प्रसादश्वगुणः / नैयायिकस्य पतङ्गस्य नयवाददीपे यथा विलयो भवति तदुपपादितं कल्पलतायाम्-यथा- "तथाहि अभावस्य लाघवात् क्लुप्ताधिकरणस्वभावत्वे सिद्धे सत्र सप्रतियोगिकत्वं कल्प्यमान तवा-नैयायिकस्य-भाववृत्त्यभावेऽन्यप्रतियोगिकत्वमिव तत्काले तबुद्विजनितव्यवहारविषय Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 ] . शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य . [चतुर्थः त्वादिरूपं न बाधकम् / नचाधिकरणस्वरूपत्वेऽननुगमो बाधकः, तथासत्यभावाभावस्यापि प्रतियोग्यात्मकत्वविलयेऽपसिद्धान्तात् / तत्र तदभावाभावत्वमेकमेवेति चेत् , किं तत् ? घटत्वादिकमिति चेत्, कथमस्य तत्त्वम् ? तेन रूपेण घटादिमत्ताप्रतीतौ घटाद्यभावाभावव्यवहारादिति चेत्, कथं तर्हि तदसाधारणधर्मान्तराणामपि न तथात्वम् ? किश्च, एवं घटत्वादिज्ञान प्रतियोगिज्ञान विना न स्यात् , अभावप्रत्यक्षे योग्यधर्मावच्छिन्नज्ञानत्वेन हेतुत्वात्, अन्यथा तनिर्विकल्पकप्रसङ्गात् / यदि च निर्विकल्पकीयविषय. तया घटत्वादिनाऽभावस्य प्रत्यक्षस्याभावत्वांशे निर्विकल्पकस्य स्वीकारे विशेष्यतानवच्छिन्ननिर्विकल्पकीयविषयतया वा प्रत्यक्षेऽभावत्वभेदस्य कारणत्वात् तन्निर्विकल्पक वार्यते तदा घटत्वादेरपि निर्विकल्पकाप्रसङ्गात् , भावावृत्तितयोक्तविषयतया विशेषणे चाप्रसिद्धेः / अस्तु तर्हि अभावाभावोऽप्यतिरिक्त एव, तृतीयाभावादेः प्रथमाभावादिरूपत्वेनानवस्थापरिहारादिति चेत् / तर्खनन्ताभावानां तत्राभावत्वस्य कल्पनामपेक्ष्य क्लुप्राधिकरणेष्वेव वरमेकोऽभावत्वपरिणामोऽनुभूयमान: श्रद्धीयताम् / नायमभावः इति स्वातन्त्र्येण कस्याप्यनुभवोऽस्ति, किन्त्वधिकरणस्वरूपमेव तत्तदारोपंतत्तत्प्रतियोगिग्रहादिमहिम्ना तत्तदभावत्वेनानुभूयत इति / " अधिक लतायामेवावलोकनीयम् / तथा चाभावो भावत्व नैति, भावश्चाभावतां न यातीति भावानां क्षणिकत्वं न युक्तिसङ्गतम्। रूपादीनामपि कार्यबोधजनकत्वं विचार्यमाणं नोपपद्यते / वास्यवासकभावाद्यपि विक ल्पानुपपत्तितः सङ्गतिं नैवाश्चति / एवश्व सतां कथञ्चिद् ध्रौव्यमङ्गी. करणीयम् / सतां ध्रौव्यस्वीकारे सत्यार्षवचनविरोधो परिहृतो भवति Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका . [ 103 - नान्यथा / क्षणिकत्ववादे तु 'इत एकनवते कल्पे, शक्त्या मे पुरुषो हतः। तेन कर्मविपाकेन, पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः 1 // 1 // इति बुद्धस्य कंटकेन पादे विद्वे भिक्षुभिः पर्यनुयोगे विहितेऽनुयोगरूपं सौगतोक्त विरुध्येत / सन्तानापेक्षादि पुरस्कृत्योक्तवचनविरोधपरिहारः क्रमेलकप्रवेशन्यायमनुसरतीति सन्तानापेक्षादिमीमांसा नैव मतिमांसला / अपि च भगवता सौगतेन भिक्षून् आमन्त्र्य स्वयमेव पृथिव्याः कल्पस्थायित्वं यदुपदिष्टं 'कप्पट्ठाइ पुहइ अभिक्खाया' इत्यादि तन्न सङ्गतिमङ्गति क्षणिकत्ववादे / रूपादयः पञ्च बाह्या द्विविज्ञेया इत्यप्याएं क्षणिकत्वाभावे एव सङ्गच्छते, क्षणिकत्वे तु रूपादीनामिन्द्रियमनो. विज्ञानग्राह्यत्वात्मकं द्विविज्ञेयत्वं न स्यात् / द्विविज्ञेयत्वशब्दार्थो हि भिन्नकालग्रह एवोपपद्यते / एककालग्रहे त्वेकस्यानर्थक्यादप्रमाणत्वं भवेदिति / एवमनेकदोषदूषितमेकान्तेन क्षणिकत्वं भावानामपाकररणीयमेव / नो चेत् कदाग्रहग्रहग्रस्तस्य सौगतस्य वादसमरे यथा विनिगतो भवति तथान्यस्यापि स्यादेव / अतः साधूपहस्यते वाचकवरैबौद्धः सरम्भमित्यादिना-.. (कल्पलता) संरम्भमस्मासु वितत्य सत्य-मतो बतोचैर्निपपात बौद्धः / अनेन शोच्यां तु दशां सहायी-कृतोऽपि यौगो यदसौ जगाम // 4 // अन्वयः- अतः, बौद्धः, अस्मासु, संरम्भम् , वितत्य, उच्चैः, निपपात, सत्यम् , बत, यत् , तु, अनेन, सहायीकृतः, अपि, असौ, योगः, शोच्याम् , दशाम् , जगाम / (कल्पलतावतारिका) अत:-क्षणिकत्ववादखण्डनाद्धेतोः। बौद्धः-बुद्धमतानुयायी Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य . [ चतुर्थः / सौत्रान्तिकः ।अस्मासु-आर्हतेषु / संरम्भम्-वादसंग्रामम् / वितत्य-.. विस्तार्य, चिरं कृत्वेति यावत् / उच्चैः-अतिशयेन, अत्यन्तं यथा स्यात्तथा / निपपात-विनिपातमधिगतवान् , पराजयमाप्त इति यावत् / सत्यम्-तथ्यमेतत् / बत-खेदोद्वारसूचकम् / यत्-यतः / तु-पुनः / अनेन-सुगतसुतेन सहायीकृतः-निजपक्षपोषणाय साहाय्यं याचितः / अपि-सम्भावनायाम् / असौ-एषः, पुरोवर्ती / यौगः-योगाचारः। : शोच्याम्-खेदजननीम् / दशाम्-अवस्थाम् / जगाम-प्राप्तवान् / पर्यायोक्तमलङ्कारः प्रस्तुतसूक्ते / बौद्धो यौगश्च पराजिताविति व्यङ्गयस्य भङ्ग यन्तरेण कथनात् / 'पर्यायोक्तं तु गम्यस्य, वचो भङ्गयन्तराश्रयम्' इति तल्लक्षणात्। ___ उक्तमेव भङ्ग यन्तरेणोपपादयन्ति- ताथामतानामिति(कल्पलता) ताथागतानां समयं समुद्र, तर्कोऽयमौर्वानलवददाह / पश्यन्तु नश्यन्ति जवेन भीताः, दीना न मीना इव किं तदेते // 5 // अन्वय-और्वानलवत् , अयं, तर्कः, ताथागतानाम् , समयम् , समुद्रम् , ददाह, तत् , मीनाः, इव, भीताः, दीनाः, एते, जवेन, न, नश्यन्ति, किम् -पश्यन्तु / (कल्पलतावतारिका) और्वानलवत्-वडवाग्निरिव / अयम्-प्रत्यक्षीक्रियमाण एषः / तर्कः-युक्तियुक्त आर्हतमतविचार: / ताथागतानाम्-यथातथवादिनां तथागततनयानां बौद्धानाम् / समयम्-क्षणिकत्वादिसिद्धान्तम् / Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तनकः ] कल्पलतावतारिका [ 105 समुद्रम्-पारावारप्रतिमम् / ददाह -अदहत् / तत्-तस्मात् / मीनाः इव-मल्यवत् / भीताः-साध्वसमापन्नाः / दीनाः-दैन्यान्विताः / एते-सौगताः / जवेन-शीघ्रं / न नश्यन्तिकिम् ?-किमु न पलायन्ते ? अपि तु नश्यन्त्येव / तत्पलायनं पश्यन्तु-विलोकयन्तु, भवन्त इति शेषः / पर्यायोक्ति-रूपकानुप्रासा अलङ्कारः / सौत्रान्तिकं सौगतविशेषमुपहसन्नाह रक्त इति / (कल्पलता) रक्तः प्रसक्तः क्षणिकत्वसिद्धौ, यदुक्तसूत्रं हतवान् स्वकीयम् / सूत्रान्तकोऽप्येष लिपिभ्रमेण, सौत्रान्तिको लोक इति प्रसिद्धः // 6 // अन्धयः-क्षणिकत्वसिद्धौ, रक्तः, प्रसक्तः, एषः, यत्, स्वकीयम् , उक्तसूत्रम् , हतवान् , (इते ) सूत्रान्तकः, अपि लिपिभ्रमेण लोके, सौत्रा. . न्तिक., इति, प्रसिद्धः / (कल्पलतावतारिका) क्षणिकत्वसिद्धौ- यत् सत् तत् क्षणिकम्' इति व्याप्तेः साध. नार्थम् / रक्त:-रागवान् , तदेकरस: / अत एव प्रसक्त:-क्षणिकता. साधनाय संलग्नः,अन्योद्योगमात्रमपहायात्रैव दत्तदृष्टिः / एषः-प्रत्यक्ष दृश्यमानः सौत्रान्तिकाभिधानः सौगतः / यत्-यतः / स्वकीयम्नैजम् , बुद्धसम्बन्धीति यावत् / उक्तसूत्रम्-पूर्वप्रतिपादितं वचनम्, 'इत एकनवते कल्पे-' 'कप्पट्ठाइ पुहइ-' इत्यादिसूत्रम् / हतवान्-नष्टं चकार, असङ्गतं विदधे, क्षणिकत्वे सिद्धे उक्तसूत्रं नैव तथ्यं स्यादिति भावः। इति अयं सूत्रान्तकः-सूत्रमन्तयतीति सूत्रान्तक इत्यन्व. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [चतुर्थः - - - र्थाभिधेयः / अपि-तथापि / लिपिभ्रमेण-अक्षरविन्यासविपर्यासेन, 'सू' इत्यत्र सौ, 'न्त' इत्यत्र न्ति इति करणान् / लोके-नने / सौत्रान्तिक इति-तथाविधाभिधानेन / प्रसिद्धः-ख्यातिमाप्तः अत्र सूत्रान्तक इति निर्णये स्वकीयसूत्रहननस्य हेतुतयाभिधानात् हेतोर्वाक्यपदार्थत्वे, कालिङ्गं तदुच्यते' इतिलक्षणलक्षितं काव्यलिङ्गमलङ्कारः / क्षणिकत्वखण्डनसमर्था समर्थामाहती गिरमनुसृ-याहतमतमाश्रयणाय प्रेरयति क्षणेति(वल्पलता) क्षणक्षयक्षेपकरीं सकर्णाः 1, कर्णामृतं वाचमिमां निपीय / जैनेश्वरं सिद्धिकृते प्रवादि-प्रशासनं शासनमाश्रयन्तु // 7 // अन्वयः-सकर्णाः 1 क्षणक्षयक्षेपकरीम् . इमाम, वाचम् , कर्णामृतम् , निप य, सिद्धिकृते, प्रवादि प्रशासनम् , जैनेश्वरम् शासनम् , आश्रयन्तु / (कल्पलतावतारिका) सकर्णाः ?-कर्णाभ्यामाकर्ण्य आकर्णितं सफलं विदधानाः सज्जनाः साक्षरा: 1 / समेषामपि कर्ण तत्त्वेऽपि सार्थककर्णानामेव सकर्णत्वं नान्येषाम् / क्षणक्षयक्षेपकरीम्- यत् सन् तत् क्षणिक' मिति सौगतसिद्धान्तान्तकरणशीलाम् / इमाम्-कल्पलतापल्लवितां हारिभद्रीम् / वाचम्-गिरम् / कर्णामृतम्-श्रवणयोः पीयूषं यथास्यात्तथा / निपीय-पीत्वा / सिद्धिकृते-सकलार्थसाधनार्थम् , मुक्तिप्रापणाय वा / प्रवादिप्रशासनम्-सदर्पमिथ्यादर्शनिदर्शननियन्त्रणापादकम् / जैने Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका / 107 श्वरम्-जिनेश्वरोपज्ञम्, आर्हतम् / शासनम्-सदर्शनम। आश्रयन्तु- संसेवन्ताम् / काव्यलिङ्गम् , अनुप्रासविशेषश्चालङ्कारौ। कविनिष्ठो जैनेश्वरशासनविषयको रत्याख्यो भाववाभिव्यज्यते इति भावध्वनितयोत्तम काव्यमिदमवसेयम् / सौगतमतमिथ्योक्त-क्षणिकत्वविखण्डनः / प्रासङ्गिकान्यसन्न्याय-श्चतुर्थः स्तवकोऽभवत् // 4 // / इति शासनसम्राट्-तपागच्छाधिपति-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-जगद्गुरुबालबमचारिभट्टारकाचार्यमहाराजश्रीविजयनेमिसूरीश्वरमहाराजपट्टालङ्कार शास्त्रविशारदकविरत्नपीयूषपाणिपूज्यपादाचार्यश्रीविजयामृतम्ररिवर। सन्दब्धायां महोदधिकल्पशास्त्रवार्तासमुच्चय -- कल्पलतानुसारिण्यांकल्पलतावतारिकायां चतुर्थः स्तवकः / PISORDER Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [पञ्चमः / * अथ पञ्चमः स्तवकः * पश्चमस्तवकादिममङ्गलं सूक्तत्रितये नाभिदधाति स्वामीत्यादि। (कल्पलता) स्वामी सतामीहितसिद्धयेऽन्तर्यामी स चामीकरकान्तिराप्तः / वामीभवन्तोऽपि परे बतामी, क्षमा न यदर्शनलङ्घनाय // 1 // अन्वयः- यदर्शनलङ्घनाय, बत, वामीभवन्तः, अपि, परे, अमी, न, क्षमाः, सः, अन्तर्यामी, चामीकरकान्तिः, आप्तः, स्वामी, सताम् , ईहितसिद्धये, (स्तात्)। (वल्पलतावतारिका) ___ यद्दर्शनलङ्घनाय-यस्य प्रभोः शासनं लङ्घयितुम् , अहंदुपदिष्टस्याद्वाददर्शनापाकरणाय / बत-खेदे, अहो अमी वराका एतादृश सर्वजनश्रेयस्करमर्हच्छासन विघटयितुं यतन्ते इति खेदोद्गारसूचा, एवञ्च दुरितभरभृता एते दुर्गतिं गमिष्यन्तीति अनुकम्प्यास्ते इति बत अनुकम्पाज्ञापकम्, कृतेऽपि प्रबलप्रयत्ने नार्हच्छासनं स्वल्पमपि विलचयितुमीशास्ते इति सन्तोषव्यञ्जकमिदम् / अहो अर्हच्छासनस्याद्भुतं सामर्थ्य यन्न केऽपि तदभिद्रवन्तीति विस्मयापादकं बताव्ययम् / खेदानुकम्पःसन्तोष-विस्मयामन्त्रणे बत' इत्यमरः / वामीभवन्तः-अवामा वामा भवन्त इति वामीभवन्त:, वकतामाचरन्त: / वामाशब्दस्य स्त्रीवाचक त्वमपि, तथा च वामीभवन्त इत्यनेन स्त्रैणमनुसरन्त इति व्यज्यते, स्त्रीप्राया नि:सत्त्वा न कमपि विलवयितुं प्रभवन्ते किं पुनरर्हच्छासनं प्रबलम् / अपि-तथापि / परे अमीपुरोवर्तिनः शत्रुपाया: सौगताद्याः / न-नैव / क्षमा:-अलम् ; समर्था Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [106 इति यावत् / सः-यच्छब्दाक्षिप्तः सः / अन्तर्यामी-अन्त:करणचर. * णशीलः, मनस्तत्त्ववेदीतिभावः। चामीकरकान्तिः-चामीकरस्य सुब र्णस्य कान्तिश्च्छायेव कान्तिर्यस्य स तथा, उष्ट्रमुखादित्वाद्बहुव्रीहिसमासः कान्तिपदलोपश्च / कनकच्छ विरितियावत् / आप्तः-रागद्वेषयोरात्यन्तिकक्षय प्राप्तिः, सा यस्यास्तीति प्राप्तः, प्रामाणिकपुरुष इति / स्वामी-नाथः / सताम्-भव्यात्मनाम् / इहितसिद्धये-अभिलषितार्थनिष्पत्तये / स्तात-भूयादिति शेषः / प्रकृतसूक्ते स्वामी-तामीयामी-चामी-वामी- तामीतिसदृशवर्णसंयोजनाद्रम्योऽनुप्रासः / (कल्पलता) अनाकलितमन्यथा-कलितमन्यतीर्थेश्वरैः, स्वरूपनियतं जगद् , बहिरिवान्तरालोक्यते / य एष परमेश्वर-श्चरणनम्रशक्रस्फुरत् किरीटमणिदीधितिस्नपितपादपद्मः श्रिये // 2 // अन्वयः- यः, अन्यतीर्थेश्वरैः, अनाकलितम् , अन्यथाकलितम् , स्वरूपनियतम् , बहि , इव, अतः, जगत्, आलोकते, चरणनम्रशक्रस्फुरकिरीटमणिदी. घितिस्नपितपादपद्मः, एषः, परमेश्वरः, श्रिये, (अस्तु) / (कल्पलतावतारिका) . यः-यत्पदबोध्यः / अन्यतीर्थेश्वरी-परदर्शनप्रवर्तकपुरुषप्रधानैः। अनाकलितम्-अनिर्धारितम्, अनवबुद्धम् / अन्यथाकलितम्अन्यप्रकारेण निर्धारितम् , अयथार्थं विचारितम् इति यावत् / स्वरूपनियतम्-स्वस्वभावस्थितम् , नियतनिजरूपमिति यावत् / बहिः इव अन्तः-यथा बाह्यम् तथैवाभ्यन्तरम् / जगत्-विश्वम् / आलो Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य . [पञ्चमः कते-प्रत्यक्षविषयीकरोति। चरणनम्रशक्रस्फुरतकिरीटमणिदीधितिस्नपितपादपद्मः-चरणयोः पादयोः नम्रस्य नमनशीलस्य शकस्य सुरराजस्य स्फुरतो देदीप्यमानस्य किरीटमणेः मुकुटमणेः दीधितिभिः प्रभाभिः स्नपिते पादपद्मे यस्य स तथा, पादप्रणतेन्द्रराजमानमुकुटरत्नकान्तिस्न पितक्रमाब्ज इति यावत् / एषः-यत्पदाक्षितः स एषः / परमेश्वरः-जिनराजपरमात्मा / श्रिये - बाह्यान्तरसम्पत्तये / अस्तुभवत्विति शेषः / पृथ्वीवृत्तम् / / (कल्पलता) . समीहितं कल्पतरूपमश्चेत्, शर्केश्वरः पार्श्वजिनः पिपर्ति / तदाऽसदालापसमुद्भवेभ्योः, भयं न किञ्चिद् मम दुनयेभ्यः // 3 // अन्वयः-चेत् , कल्पतरूपमः, शङ्खश्वरः, पार्श्वजिनः, समीहितम् , पिपति तदा, असदालापसमुद्भवेभ्यः, दुर्नयेभ्यः, मम, किञ्चिद् , भयम् , न / (कल्पलतावतारिका) चेत्-यदि / कल्पतरूपम:-अभिमतफलदायकसुरपादपकल्पः / शर्केश्वरः-शङ्खश्वरेतिपरमपवित्रमन्त्ररूपानुपमाभिधानपवित्रितभुवनत्रय: पार्थजिन:-त्रयोविंशस्तीर्थेश्वरः / समीहितम्-मनोवाञ्छितम्। पिपर्ति-पूरयति / तदा-तर्हि / असदालापसमुद्भवेभ्यः-असमीचीनशास्त्रवार्ताजनितेभ्यः, असजनजनजनितयत्तत्प्रलापसमुत्थितेभ्यः, इति वा / दुनयेभ्यः-दुष्टवचनरचनैः / मम-मल्लक्षणस्याहतमतानुरक्तस्य जनस्य / किश्चिद्--किमपि, स्वल्पमपीति यावत् / भयम्-- भीतिः / न--नास्ति / 'विज्ञानमात्रमेव जगद्' इति योगाचाराख्यसौगतविशेषस्याभिमत मतमपाकरोति शास्त्रवार्ताकृद् विज्ञानेति Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः / कल्पलतावतारिका [111 (शास्त्रवा०) विज्ञानमात्रवादोऽपि, न सम्यगुपपद्यते / मानं यत्तत्त्वतः किञ्चि-दर्थाभावे न विद्यते // 1 // अन्वयः--विज्ञानमात्रवाद', अपि, सम्यग् , न, उपपद्यते, यत्, तत्त्वतः, अर्थाभावे, किञ्चित् , मानम् , न, विद्यते / (अव० )विज्ञानमात्रवादः-सर्वमिदं दरीदृश्यमानं ज्ञानस्वरूपमेव, ज्ञानातिरिक्तं न किश्चिद् वर्तते सदितिस्वरूपो विज्ञानमात्रवादः / अपि-योगाचारपरिकल्पितोऽपि / सम्यग-विचारणापथमापादितः / न उपपद्यते--सङ्गतो न भवति / यत्-यतः / तत्त्वतः-स्वतन्त्रनीत्यैव, वास्तवरूपेण वा / अर्थाभावे-ज्ञ नातिरिक्तपदार्थानामत्यन्तासत्तायाम् / किश्चित्-किमपि / मानम्-प्रमाणम् , प्रत्यक्षाद्यन्यतरद् / न विद्यते-- नैव विजृम्भते / अर्थाभावनिश्चयापादकप्रमाणविरहात ज्ञानमात्रमेवेद. मित्यवधारणं नैव युज्यते / तदुक्तम् अयमेवेति यो ह्येष, भावे भवति निर्णयः / / नैष वस्त्वन्तराभाव-संवित्त्यनुगमाहते // 1 // इति / तथाहि-प्रत्यक्षमर्थाभावे नैव प्रमाणं भवितुमर्हति, अभावालम्बनस्य तस्यास्वी क्रियमाणत्वात् / अर्थाभावस्य तुच्छत्वात् , अध्यक्षम्य च स्वलक्षणालम्बनत्वात् / अत एवानुमानमपि न तत्र मानम् / अनुमानस्य प्रत्यक्षमूलकत्वेन प्रत्यक्षाभावेऽर्थाभावप्रतिबद्धसमीचीनलिङ्गानुपलम्भात् / न च येन कारणेन बाह्यघटादिरूपोपलब्धिलक्षणप्राप्तोऽर्थः परनीत्योपलभ्यते / ततश्चादर्शनरूपयाऽनुपलब्ध्यैव बाह्यार्थाभावो ज्ञायतेति वाच्यम्, उपलब्धिलक्षणप्राप्तेरिह प्रतियोगिप्रतियोगिव्याप्ये Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य . [ पञ्चमः तरयावत् प्रतियोग्युपलम्भकसमवधानरूपाया एक स्वीकृतत्वेनापरा. भिमतघटाद्युपलम्भकानां तत्स्थानाभिषिक्तपत्ययान्तराणां वा बाह्यार्थी पलम्भजननम्वभावत्वे त्वयाऽप्यभ्युपगम्यमाने बाह्यासिद्धेरसम्भ. वात् , तदुपलम्भजननस्वभावहेतुसाकल्यविरोधात् , बाह्यार्थस्य ज्ञानजनकत्वापत्त्या योगाचारेण प्रतियोगिप्रतियोगिव्याप्येतरत्वस्य निवे. शयितुमशक्यत्वात् / तत्स्थाने तदुपलम्भजनकसमनन्तरायत्वनिवेशेऽपिसामग्रथननुप्रविष्टानां हेतुत्वोपगमेऽपसिद्धान्तापातात् / अथ परपरिकल्पतेनार्थेन सह प्रत्यान्तराण्यर्थोलम्भजननस्वभावानि, तथा चोक्तं न्यायवादिना-'स्वभावविशेषश्च यः स्वभावः सत्स्वन्येषूपलम्भ प्रत्ययेषु सन् प्रत्यक्ष एव भवतीति, एवश्वार्थस्य क्लुप्तत्वात् / तत्साहित्येनार्थोपलम्भजननस्वभावत्वं विशिष्टं क्लृप्तमित्याशय इति चेत् न एवं क्लुप्तेऽप्यर्थे तेषामर्थोपलम्भजनकत्वापत्तेः तत्साहित्यघटितस्वभावात् , अन्यथा सहार्थेन तजननस्वभावविलयः स्यादिति / ननु 'यदाऽर्थो भवति तदा तदुपलम्भं जनयन्ति' इति योग्यतामधिकृत्य तत्स्वभावत्व कल्पना स्यादिति चेत् सत्यम् , एवमपि यस्मिन् किस्मिश्चित्काले उपलम्भसम्भवात् बाह्यघटादेः पदार्थस्य सिद्धिसम्भवात् / अन्यथा ( कदापि तदुपलम्भाजनने ) अभिमतप्रत्ययान्तरांणां बाह्यार्थोपलन्भजननयोग्यता न्यायेन कथमुपपद्येत, कारणान्तरवैकल्यप्रयुक्तकार्याभावस्यैव कारणान्तरे योग्यताया व्यवह्रियमाणत्वात् ? लोकेऽश्वमाषादेः (कङ्कदुकादेः) कदापि पक्त्याद्यजनकत्वस्य पक्त्यादियोग्यताया अदर्शनात् / ___ अथ बाह्यार्थवादिनैयायिकाद्यभिप्रायत: "उपलब्धिलक्षणप्राप्तोऽर्थो नोपलभ्यते” इत्येतदुच्यत इति चेत् ? अत्र किं तदभिमतानुप Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तबकः ] कल्पलतावतारिका [ 113 लब्ध्यङ्गीकारेण तदभावः साध्यते, उत घटज्ञानात् प्रागपि घटसत्ताभ्युपगमे तदा तदुपलम्भप्रसङ्गापादनं परं प्रति क्रियते इति ? आये तदभिमतेश्वराद्यनुमानाङ्गीकारेणेश्वरादेरभ्युपगमप्रसङ्ग इति दोषः स्फुट एव / अन्त्योऽपि पक्षोऽसमीचीन एव, यस्मात् तस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तोऽर्थस्तेनोपलभ्यत एव, अन्यस्य तु न तदुपलम्भप्रसङ्गात् सद्ग्राहकेन्द्रियसन्निकर्षाद्यभावादिति। अतत्स्वभावत्वपक्षेऽपि बाह्यार्थाग्रहणस्वभावैः प्रत्ययान्तरैर्यदि नाम न गृह्यते बाह्योऽर्थस्ततः ( एतावता हेतुना ) न तस्यासत्त्वम्, पीतासंवेदनस्वभावेन तदसंवेदने पीतसंवेदनाभावप्रसङ्गात् / / ___ अथ यतो विज्ञानं स्फुरद्रूपम्, तदनुभवात, नत्वर्थः स्फुरद्रूपो युक्त्यभावात्, सर्वस्यं सर्वज्ञताद्यापत्तेः, अतो विज्ञानानुभवे परपरिकल्पितस्यार्थस्य ज्ञानं नोपपद्यते तथाहि "ज्ञानविषयताया इन्द्रियसन्निकर्षादिनियम्यत्वाज्ज्ञानस्यार्थस्य च परतः प्रकाश एव" इति नैयायिकमतं न युक्तम्, स्वसंवेदनस्य प्रसाधितत्वात् प्रत्यक्षव्यवहारे प्रत्यक्षत्वस्य प्रयोजकत्वात् , कचित् प्रत्यक्षत्वस्य कचिच्च प्रत्यक्षविषयत्वस्य तथात्वे गौरवात् ; नीलज्ञानत्वाद्यपेक्षया नीलत्वादेरेव चाक्षुषादिजन्यतावच्छेदकत्वे लाघवाच्च / एवञ्च 'घटादिर्न ज्ञानभिन्नः प्रत्यक्षत्वात् , तत्स्वरूपवत्', इत्यनुमानेन बाह्यार्थाभावोऽवसीयते ततश्च अर्थाभावे मान न विद्यते इति नीलादौ ज्ञानाभिन्नस्वाहे समीहितसिद्धिर्ममेति चेत्-अत्राहुः सिद्धिान्तिन; अर्थेति(शास्त्रवार्ता.) अर्थग्रहणरूपं यत्, तत् स्वसंवेद्यमिष्यते / तद्वेदने ग्रहस्तस्य, ततः किं नोपपद्यते // 12 // Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य अन्वयः-यत् , तत् , अर्थग्रहणरूपम् , स्वसंवेद्यम् , इभ्यते, तद्भेदने, तस्य, ग्रहः, ततः, किम्, न, उपपद्यते। .. ... (अव०) यत्-यस्मात्कारणात् / तत्-बुद्धिविषयतामापन्नं विज्ञानम् / अर्थग्रहणरूपम्-बाह्यवस्तुपरिच्छेदात्मकं सत् / स्वसंवेद्यम्निजसंवेदनविषयताविशिष्टम्। इष्यते-इच्छाविषयीक्रियते, "नीलमह वेमि” इति विच्छिन्नार्थग्रहणरूपतयाऽनुभवात् / तद्वेदने-एवम्भूत-- . विज्ञानानुभवे / तस्य-बाह्यार्थस्य / ग्रहः-ज्ञानम् / भवतीति शेषः / ततः-तस्मात्कारणात् / किम्-किमात्मक वस्तु, क: पदार्थ इति यावत् / न-नहि / उपपद्यते-उपपत्तियुक्तं भवति, उपयुक्तं भवतीति यावत् , अपि तु सर्व वस्तूपपद्यत एवेति भावः / तथा चोपाध्यायाः-खलस्येति(कल्पलता) . खलस्य योगाचारस्य, ज्ञात्वार्थद्वेषितामिव / सभायामधुना संभ्याः , अनर्थ उपतिष्ठते // 4 // अन्वयः-सभ्याः, खलस्य, योगाचारस्य, अर्थद्वेषिताम् , ज्ञात्वा, इव, अधुना, सभायाम्, अनर्थः, उपतिष्ठते, / (कल्पलतावतारिका) सभ्या:-हे सज्जनाः ! सदस्याः ! खलस्य-दुर्जनस्य / योगाचारस्य-तदभिधानसुगतशिष्यस्य / अर्थदेषिताम्-बाह्यपदार्थद्वेषम् , ज्ञानातिरिक्तबाह्यपदार्थास्वीकरणमितियावत् / ज्ञात्वा-विज्ञाय / इव-उत्प्रेक्षायाम् / 'मन्ये शङ्के ध्रुवं प्रायो, नूनमित्येवमादिभिः / Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तबकः ] कल्पलतावतारिका [115 उत्प्रेक्षा व्यज्यते शब्दै-रिव शब्दोऽपि तादृशः' / इत्यभियुक्तोक्तः / अधुना-इदानीम् / सभायाम्-विद्वत्परिषदि / अनर्थः-अर्थः पदार्थः, न अर्थोऽनर्थः / उपतिष्ठते-उपस्थितो भवति, पदार्थाभाव उपस्थितो भवतीत्यर्थः, अर्थो नोपतिष्ठते इति वा / सभायामधुना योगाचारस्य पदार्थस्फुरणं न भवतीति भावः / योगाचार: पराजितः सज्जात इति व्यज्यते, स प्रतीयमानोऽर्थ एव प्रधानमिति ध्वनिकाव्यमिदम् / स्वतःसिद्धस्य पदार्थास्फुरणस्थ बाह्यार्थद्वेषिताहेतुकत्वेन सम्भावनादुत्प्रेक्षालङ्कारः, प्रकृतस्य परात्मना सम्भावनस्यैव तत्त्वात् / तथाहि यत्तावत्तैरुक्तम्-'ज्ञालभिन्नस्य ज्ञानाविषयत्वाद् न बाह्यार्थः' इति तद्विपरीतम् , तद्विषयताप्रयोगस्य भेदगर्भत्वात् ग्राह्यग्राहकाकारस्वरूपभेदस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वाच्च / . यदपि “सहोपलम्भनियमात्" इत्याद्युक्तम्, सदपि न युक्तम्, यतः सहोपलम्भो युगपदुपलम्भः, क्रमेणोपलम्भाभावः, एकोपलम्भो वाऽभिप्रेतः ? आद्ये बुद्धचित्तसन्तानान्तरचित्तानां सहोपलम्भनियमेऽपि तदभेदाभावेन व्यभिचारः, द्वितीये तुच्छस्य तस्य न प्रतीतिः, तृतीये साध्याविशेषः / किश्चैकान्तैक्ये सहशब्दार्थानुपपत्तिरिति न किश्चिदेतत् / एवञ्च "नीलमहं वेद्मि" इत्यत्र कर्मकर्तृभावप्रत्ययस्याविद्यकत्वं परास्तम्, बाधाभावात, अन्यथा नीलादिप्रत्ययानामपि सथात्वापत्या 'शून्यतायां पर्यवसानप्रसङ्गात्, न च "स्वातन्त्र्योपलम्भो बाधकः". इत्युक्तं युक्तम्, परस्परोपरागेणैव प्रतीतेः / न च समकालयोर्भिन्नकालयोर्वा प्राह्यग्राहकभावासम्भवात् "अर्थानाहिज्ञानम्" इति युक्तम्, Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116] शासवार्तासमुच्चयस्य [ पञ्चमः अनुमानोच्छेदप्रसङ्गात्, तत्रापि लिङ्गानुमानयोः कार्यकारणभावे उक्तविकल्पदोषानतिवृत्तेः / एवञ्च “यया प्रत्यासत्त्या ज्ञानं स्वरूपं गोचरयति तयैव चेदर्थ (गोचरयेत् ) तदा तयोरैक्यापत्तिः, अन्यया चेत्, स्वभावद्वयापत्तिः, तदपि चापरेण स्वभावद्वयेन, तदपि चान्येन तेन ग्राह्यमित्यनवस्था, स्वसंविदितस्यासंविदितरूपायोगात्” इत्यपि निरस्तम् लिङ्गस्य समानक्षणानुमानकरणेऽप्यस्य पर्यनुयोगस्य समानत्वात् / लिङ्गं तदुभय. करणैकस्वभावं चेत् "ज्ञानमपिं स्वपरग्रहणैकस्वभावम्" इति स्वीकारे कस्तव कर्णशूलनिवारणोपायः 1 एवं ज्ञानाद् ग्रहणक्रियाया अर्थान्त. रत्वानन्तरत्वपक्षदोषेऽप्यनुमाने लिङ्गादुत्पत्तेस्तत्पक्षदोषतौल्यं विभावनीयम् / परमार्थतो लिङ्ग नानुमानकारणम्, व्यवहारास्तु तथेष्यत इति चेत्, अर्थस्यापि तत एव ज्ञानग्राह्यत्वं किन्नेष्यते ? व्यवहाराप्रामाण्याल्लिङ्गमप्यनुमानकारणं नेष्यत एव ग्राह्यग्राहकभाववत् कार्यकारणभावस्यापि निषेधात्, समारोपव्यवच्छेदकरणात् त्वनुमान प्रमाणमिष्यत इति चेत् न, तत्र समारोपव्यवच्छेदस्य तन्मते कथमपि कर्तुमशक्यत्वात्, नाशस्य निर्हेतुकत्वप्रसङ्गात्, तत्कारणानां सामर्थ्यऽसामर्थे वा तदुत्पत्तिप्रतिबन्धकस्यापि वक्तुमशक्यत्वात् / यदि च सुखादयो ज्ञानात् सर्वथाऽप्यभिन्नास्तर्हि तद्वदेवैषामप्यर्थप्रकाशकत्वं स्यात् / न चात्र तदस्ति, सुखादीनामपि स्वज्ञानप्रकाश्य. वेन बहिराविशिष्टत्वात्, घटादेर्शानाकारत्वे "भूतले न घट:" इत्यादेनियताऽऽधाराधेयभावानुपपत्तिः, आधाराधेयभावाभ्यां कथश्चित् पृथग्भूतस्याधाराधेयभावस्याबाधितानुभवसिद्धत्वेनाकल्पिकत्वात्, अन्यथा नीलादावप्यनाश्वासात् / न चार्थाभावेऽपि धियामन्तर्बहिर्वि Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तबकः ] कल्पलतावतारिका [117 भागः स्वरूपभेदादेवेति वाच्यम् व्यक्तिभेदस्यातिप्रसङ्गित्वात्, जातिभेदस्य चानभ्युपगमात्, नचान्तर्बहिर्विभागो मिथ्या, सुखनीलाद्यनुभवानामन्तर्बहिर्भावस्याऽऽगोपालाङ्गनं प्रसिद्धत्वात् / एतेनाहमिदमा. कारभेदव्याख्यानमपि सुप्रत्याख्यातम्, अहमाकारस्य शरीरालम्बनत्वे "इदं गौरम्" इत्यनुपपत्तेः निरालम्बनत्वे च भ्रान्तत्वापत्तेः दानाचाकारकालेऽहमाकारानुपपत्तेश्च नचेदन्ताया अन्यस्या अनुपपत्तेर्ज्ञानाकारमात्रत्वं युक्तम् तस्याः प्रत्यक्षसमानकालीनार्थपर्यायविशेषरूपत्वात्, अनन्तधर्मात्वात्मकवस्त्वभ्युपगमे दोषलेशस्याप्यभावात् / तथा चाहुरुपाध्यायाः- इत्थमित्यादि(कल्पलता) इत्थं विलक्षीभूतस्य, तूष्णीम्भावमुपेयुषः / योगाचारस्य योगाय-च्छलमद्य विजृम्भते // 5 // अन्वयः-इत्थम् , विलक्षीभूतस्य, तूष्णीम्भावम् , उपेयुषः,योगाचारस्य, भद्य, योगाय, छलम् , विजृम्भते / . (कल्पलतावतारिका) इत्यम्-अनेन तन्मतखण्डनात्मकप्रकारेण / विलक्षीभूतस्यवैलक्ष्यमापन्नस्य / ( अत एव ) तूष्णीम्भावम्-मौनिताम् / उपयुषःप्राप्तवतः / योगाचारस्य-तदभिधानप्रसिद्धसुगततनयस्य / अद्यअधुना / अव्ययानामनेकार्थकत्वात् / योगाय-समाधये / छलम्व्याजः / मौनात्मकमितिभावः / विजम्भते-प्रकाशते / अपहृत्यलद्वारः, 'नायं योगः' इति प्रकृतं प्रतिषिध्याप्रकृतस्य च्छलस्य संस्थापनात् , नायं योगः किन्तु स्वपक्षखण्डनजनितवैलक्ष्यहेतुर्क मौन Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [पञ्चमः मितिप्रतीतेः। स्वतःसिद्धस्य योगस्य तादृशबैलक्ष्यहेतुकमौनहेतुकत्वेन सम्भावनात् हेतूत्प्रेक्षा चालङ्कारः / प्राधान्येन तत्पराजयध्वननात् ध्वन्यात्मकं काव्यमिदमवसेयम् / तथाहि-'घदमहं जानामि' इत्याद्यन्तर्बहिर्मुखसांशानुभवात् विमुखज्ञानमात्रस्यावेदनात् अनुभवालापे निराकारस्यैव दर्शनस्य सिद्धेः, आकारव्यवस्थायाः कल्पनयोपपत्तेरतिप्रसङ्गात् , ज्ञानमात्र जगन्न भवितुमर्हति, घटादावेव प्रवृत्तिदर्शनात् बहिरर्थाभावे तु बहिप्रवृत्तिर्न स्यादिति न ज्ञानमात्रं जगत् स्वीकार्यम् , घटज्ञानात् प्रवृत्तस्य घटोपलम्भात् न ज्ञानमात्र जगत् / ' एतेन ‘घटाकारज्ञानस्य स्वभावतो घटप्रवृत्तिहेतुत्वात् शुक्ती रजतज्ञानादिव बहिष्प्रवृत्तिः' इति निरस्तम् , प्रवृत्तिसंवादासंवादनिर्वाहार्थं प्राप्याप्राप्य घटविषयकज्ञानभेदस्वीकारस्यावश्यकत्वात् / अथ प्राप्तिरपि प्रवृत्तस्य सतो घटोपलम्भ एव, तथा च घटप्राप्तौ सत्यघटाकारज्ञानस्य हेतुत्वाद् न दोष इति चेत्- न, सत्यघटज्ञानोत्तर घटभङ्गेऽपि तत्प्राप्तेः प्रसङ्गात्, मम (जैनस्य ) त्वर्थासन्निधानाधीनत्वात्तदप्राप्तेः / न च तव योगाचारस्यापि घटाभावज्ञानात् तदप्राप्तिः, तदज्ञानेऽपि तत्र प्राप्तेरयोगात् , न च घटाकारज्ञानमात्रात् तत्प्राप्तिः, भूतले घटज्ञानात् पर्वते तत्प्राप्तिप्रसङ्गात् न च विशिष्टज्ञान तव ( योगाचारस्य ) अस्ति / न चागृहीतासंसर्गकज्ञानद्वयं प्रापकम् भ्रमादपि प्राप्तिप्रसङ्गात् , सत्यत्वस्य चार्थाभावेऽव्यवस्थानात् / एवं जलानयनादिसिद्धेश्च न ज्ञानमात्रं जगत् , यदि च ज्ञानाकार एव घटो जलानयनसमर्थः स्यात् तदा घटं बुद्ध्वैव जनो जलमानयेत्, इति हता देवानांप्रियेण कुम्भकारादीनामाजीविका ? गृहीतस्य घटादेः Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ]. कल्पलतावतारिका / 116 'स घटः' इत्यादिस्मरणात् ' 'सोऽयं घटः' इति प्रत्यभिज्ञायाश्च न ज्ञानमात्रं जगत् , बुभुत्सादिरूपकौतुकयोगाच्च न ज्ञानमात्र जगत् , न चासत्यर्थे तुरङ्गश्रृङ्गादाविव बुभुत्सादिकमित्यवसेयम् / किश्चान्यथापि योगाचारमतं न युक्तिसङ्गतम् ज्ञानमात्रे जगत्यभ्युपगम्यमाने "विज्ञानं ज्ञानमेव घटादि" इत्येतत् स्यात्, परिच्छेचान्तराभावात्, ततश्च लोकशास्त्रयोः प्रसिद्धं घटार्थिस्वर्गार्थियत्नादि नोपपद्येत, ज्ञानान्यघटादिग्रहणे चाभ्युपगम्यमाने ज्ञानस्यार्थेऽनभ्युपगमलक्षण: प्रद्वेषो निनिमित्त: स्यात्, ज्ञानान्तरेऽपि तदसंवेदनादेस्तुल्यत्वात्, अर्थस्य युक्त्ययोगश्च ग्राह्यादिभावविकल्पेन ज्ञानवादेऽपि तुल्यः, तत्पक्षनिराकरणव्यापाराविशेषात्, तथाहि ज्ञानं हि माझमात्रस्वभावम्, प्राहकमात्रस्वभावम् , उभयस्वभावम् अनुभयस्वभाव वा तत्र नाद्यः पक्षो युक्तः, भुवि ग्राहकस्वभावस्य कस्याप्यभावात्, सम्बन्धिशब्दस्य सम्बन्ध्यन्तरमन्तरेण प्रवृत्त्ययोगात् / न द्वितीयः पक्षोऽपि, भुवि ग्राह्यस्वभावस्य कस्याप्यभावात्, सम्बन्धिशब्दस्य सम्बन्ध्यन्तरमन्तरेण प्रवृत्त्ययोगात् / नापि तृतीयः पक्षोऽपि सङ्गतः, विरोधात्, एकस्य ग्राह्यग्राहकाकारोभयविमिश्रणेन द्वित्वविरोधादिति यावत् / नापि चतुर्थोऽपि स्वभावसामान्याभावादसत्त्वापत्तेरितिपूर्वोतप्राह्मादिभावविकल्पोऽवसेयः / अथ प्रकाशैकस्वभावं ( गगनतलवृत्त्यालोककल्पम् ) विज्ञानं परमार्थतो विचाराक्षमत्वेन ग्राह्यस्याभावात् तदपेक्षाप्रकल्पितग्राहकस्वाभावात् कर्तृकर्मभावोपरागरहितं मन्यताम्, एवञ्च तद्विज्ञानं स्वसं. विदितमेव प्रकाशते, तदुक्तम् नीलपीतादि यज्ज्ञानं, बहिर्वदवभासते / तद् न सत्यमतो नास्ति, विज्ञानं तत्त्वतो बहिः॥१॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य तदपेक्षा च संवित्त-मता या कर्तृरूपता / साप्यतत्त्वमतः संवि-दद्वयेति विभाव्यते // 2 // न चाकर्मको न कश्चित् प्रयोग इष्ट इति वाच्चम् 'आस्ते शेते' इत्यादावासनाक्रियाणामकर्मकत्वेन प्रयोगस्य दर्शनात् , इति चेदत्रो. च्यते-गगनतलवालोककल्पनायां प्रकाशैकस्वभावत्वानिर्विषय तदात्मानमपि न प्रकाशयेत्, अतो विज्ञानस्य प्रकाशैकस्वभावताया अयुक्तत्वात् / किञ्च जगतो विज्ञानमात्रत्वेऽभ्युपगम्यमाने संसारापवर्गयोः कश्चन विशेषो नोपपद्यत, ज्ञानमात्रस्योभयदशयोरविशेषात्, अधिकस्यापवर्गावस्थायां प्राप्यस्य कस्यचिद्वस्तुनोऽभावात् भावे वाऽद्वैतव्याघातात्, रागादिक्लेशवासितचित्ततद्विनिर्मुक्तचित्तयोः संसारापवर्गरूपत्वात्, यस्माद्रागादिक्लेशवर्गो विज्ञानात् पृथग् न मतो द्वैतापत्तेः, एकान्तैकस्वभावे च तस्मिन् विज्ञाने किं केन वासितं स्यात् वासकाभावात् / अथ रागादिक्लेशवर्गो विज्ञानमेव न तु ततो भिन्नः एवश्वाक्लिष्टत्वं क्लिष्टभिन्नत्वं न तु पृथग्भूतक्लेशादिराहित्यमिति न दोषः, अक्लिष्टस्य प्राप्यस्य सत्त्वाच नापवर्गप्रवृत्त्यनुपपत्तिरिति चेदत्रो. च्यते-नीलीद्रव्याद्युपरागात् पटादिक्लिष्टतावत् संसारचित्ते यद्वशात् क्लिष्टता, असौ ( चित्तक्लिष्टतापादकः ) ज्ञानवदेव पृथग्यस्त्वापद्यते क्लिष्टताया उभयजनितत्वात्, तथा पटशुद्धिवत् ( यथा पटादेर्नील्यादिद्रव्यसंसर्गापगमे प्राक्तनम्वरूपाविर्भावस्तद्वत् ) क्लिष्टतापादकस्य मुक्ती भेदेन स्वरूपाविर्भावलक्षणो भावः स्यात्, ततो भवदनभिमता बाह्यार्थतासिद्धिः . संप्रसज्येत, तेनाक्लिष्टत्वं क्लेशराहित्यं क्लिष्टभिन्नत्वं वोच्यताम्, नोभयथापि विशेषः, प्रतियोगिनस्तदवच्छेदकस्य वा पृथग्भावावश्यकत्वेऽद्वैताऽसाम्राज्यात् / न च पटादेः क्लिष्टताव न Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तबकः ] . कल्पलतावतारिका [ 121 चित्तक्लिष्टता, येन तजनकबाह्यार्थसिद्धिः स्यादितिवाच्यम्, तस्य शानादन्यूनानतिरिक्तत्वे मुक्तेरनुपपत्ते / तथा च सूरिप्रवरा:(शास्त्रवार्ता०) मक्त्यभावे च सर्वैव. ननु चिन्ता निरर्थिका / भावेऽपि सर्वदा तस्याः, सम्यगेतद्विचिन्त्यताम् // अन्वयः-मुक्त्यभावे, च, सर्वा, एव, चिन्ता, निरर्थिका, ननु, तस्याः, सर्वदा, भावे, अपि, एतत्, सम्यक, विचिन्त्यताम् / ___(अव०) मुक्त्यभावे-एकान्ततो मोक्षराहित्ये / च-त्वर्थकमव्ययम् / सर्वा-निखिला / एव-अवधारणार्थकम् / चिन्ता-तत्त्ववि. धारणा। निरर्थिका-निष्प्रयोजना,व्यर्थेतियावत् / तपरिवनामितिशेषः / समस्ताया एव तस्याः (तत्त्वविचारणायाः) मोक्षकपरमप्रयोजनत्वात् / ननु-ध्र वम् / तस्या:-बोधरूपाया मुक्तेः / सर्वदा-सर्वकालावच्छेदेन / भावे-सत्तायाम् / अपि-सम्भावनायाम् / चिन्ता निरर्थिक वेतिशेषः / साध्यस्य सिद्धत्वात् / एतत्-सर्वमिदम् / सम्यक्-समीचीन यथास्यात्तथा / विचिन्त्यताम्-विविच्यताम् / . . यस्मादुक्तरीत्या न्यायेन विचार्यमाणो विज्ञानवादो नोपपद्यते, तस्मादत्र विज्ञानवादेऽपि कल्पनानिपुणस्य पुंस: कदाग्रहो न युज्यते / तथा चाहुरुपाध्यायाः-हंस-इति(कल्पलता) हंसः किं सब पद्म श्रयति परिगलत्पर्णमणः पिबेद्वा / चाण्डालानां पिपासाकुलितमतिरपि, श्रोत्रियः किं कदाचित् // Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य . [पञ्चमः मतिः, आप परिगलपर्णम पिवेत, दुष्टानां हन्त ! गोष्ठीमनुसरति रसात्, सज्जनः किं गताओं, त्याज्यस्तज्जैनतकैरयमिह निहतो, विज्ञ ! विज्ञप्तिवादः // 6 // .. अन्वयः-हंसः, परिगलपर्णम् , सद्मपद्मम् , यति, किम् , वा, पिपासाकुलितमतिः, अपि, श्रोत्रियः, कदाचित् , चाण्डालानाम , अर्णः, पिबेत्, किम् , ? हन्त ! सज्जनः, गतार्थाम् , दुष्टानाम् , गोष्ठीम , अनुसरति, किम् , तत्, विज्ञ ! इह, जैनतकैः, निहतः, अयम् , विज्ञप्तिवाद:, त्याज्यः / (कल्पलतावतारिका) ___ हंसः-मराल: / परिगलत्पर्णम्-परिंगलन्ति सर्वतोभावेन निप. तन्ति पर्णानि पत्राणि यस्मात्तत्तथा / सद्मपनम्-सदनस्थितकमलम् / श्रयति-आश्रयति / किम्--वितर्कार्थकमव्ययम् / निषेधार्थकं वा / 'किं कुत्सायां वितर्के वा निषेधप्रश्नयोरपि' इतिमेदिनी। वा-अथवा / पिपासाकुलितमतिः-पिपासाव्याकुलितचेताः / अपि-सम्भावनायाम् / श्रोत्रियः-छन्दोध्यायी ब्राह्मणः / कदाचित्-कस्मिंश्चित्समयेऽपि / चाण्डालानाम्-पुलिन्दानाम् , अस्पृश्यानामितियावत / अर्णः-जलम् / 'नोरं... .. जीवनजीवनीयसलिलाणी-स्यम्बु ....4- 135 / इत्यभिधानचिन्तामणिः। पिवेत्-पीयेत / किम्-वितर्काद्यर्थकमव्ययम् / हन्त-खेदार्थकमव्ययम् / गतार्थाम्-गातोऽर्थः प्रयोजनं यत: सा गतार्था, तान्तथा, निष्फलामिति यावत् / दुष्टानाम्-दुर्जनानाम्. असत्पुरुषाणामिति यावत् / गोष्ठीम्-कथाम् / अनुसरति-अनुगचति / किम्-वितर्काद्यर्थकमव्ययम् / त्रिध्वपि “अपि तु न" इत्येवमवसेयम् / तत्-तस्मात् कारणात् / विज्ञ-विद्वम् ! इह-तत्त्व विचारणायाम् / जैनत-आईतयुक्तिभिः / निहतः-विशेषेण हतो Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्सवकः ]. कल्पलतावतारिका [ 123 विनाशितः, दूरीकृत इति यावत् / विज्ञप्तिवादः-विज्ञानमात्रवादः / त्याज्य:-मुक्त्यनुपयोगितया हेयः। सद्भिरिति शेषः / अत्र दृष्टान्तालङ्कारः / "इष्टार्थसिद्धचैदृष्टान्तो निदर्शना" इति काव्यानुशासने तल्लक्षणम् / यथा हंसैः समपद्म त्याज्यम्, यथा वा श्रोत्रियैश्चाएडालानां जलमपेयम्, यथा वा सज्जनैर्दुर्जनगोष्ठी त्याज्या तथा सद्भिर्विज्ञानमात्रवादस्त्याज्य एवेति दृष्टान्तस्य दर्शनात् / . विज्ञानमात्रमेवेदं, योगाचारप्रपञ्चितम् / मतं निर्मथ्य सत्सत्ता-बोधोऽसौ पञ्चमःस्तवः / / 5 / / / इति शासनसम्राट्-तपागच्छाधिपति-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-जगद्गुरुबालब मचारिभट्टारकाचार्यमहाराजश्रीविजयनेमिसूरीश्वरमहाराजपट्टालङ्कार-1 / शास्त्रविशारदकविरत्नप्रीयूषपाणिपूज्यपादाचार्यश्रीविजयामृतमरिवर। सन्दब्धायां महोदधिकल्पशास्त्रवार्तासमुच्चय - कल्पलतानुसारिण्यांकल्पलतावतारिकायां पञ्चमः स्तवकः / Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [षष्ठः * अथ षष्ठः स्तवकः *. तत्रादौ मङ्गलसूक्तयुगलम् / तत्रापि प्रथमं श्रीमहावीरस्वामिस्तुतिरूपं दृप्यदित्यादि(कल्पलता) दृप्यद्यन्नखदर्पणप्रतिफल-द्वक्त्रेण वृत्रद्रुहा, शोभा काऽपि दशावतारसुभगा, लब्धाऽनुजस्पर्धिनी / मुक्तिद्वारकपाटपाटनपटू, दौर्गत्यदुःखच्छिदौ, तावंही शरणं भजे भगवतो, वीरस्य विश्वेशितुः // 1 // अन्वयः-दृप्यद्यन्नखदर्पणप्रतिफलद्वक्त्रेण, वृत्रद्रुहा, दशावतारसुभगा, अनुजस्पर्धिनी, कापि, शोभा, लब्धा, मुक्तिद्वारकपाटपाटनपटू, दौर्गत्यदुःखच्छिदो, विश्वेशितुः, भगवतः, वीरस्य, तौ, अंही; शरणम् . भजे / (कल्पलतावतारिका) ___ दृप्यद्यन्नखदर्पणप्रतिफलद्वक्त्रेण-ययोः श्रीमहावीरचरणयोर्नखा नखरा यन्नखाः, दृप्यन्तः / अलौकिककान्तिनिचयप्रयोज्यपरमदर्पभावमापन्नाश्च ते यन्नखा हप्यद्यन्नखास्त एव दर्पणा श्रादर्शास्तेषु प्रतिफलत् प्रतिबिम्बायमानम्, यन्नखदर्पणप्रतिफलत, तादृशं वक्त्रं वदनं यस्य स दृप्यद्यन्नखदर्पणप्रतिफल द्वक्त्रः तेन तथा / यदीयचरणप्रणतेनेतिफलितम् / वृत्रQहा--वृत्रासुरवधकारिणा, तद्वधपापापचितकान्तिनाऽपीन्द्रेणेति यावत् / दशावतारसुभगा-एककालावच्छेदेन दशभिरवतारैः कमनीया / ( अत एव ) अनुजस्पर्धिनी-अनुजम्, विष्णुम्, इन्द्रानुजम्, स्पर्धते तच्छीला, अन्तर्भावितणिगर्थत्वादनुजस्पर्धाकारणस्वभावेत्यर्थः, "अजातेः शीले" 5-1-154 इत्नेन शीले Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 125 णिन्प्रत्यय / अनेन्द्रस्य प्रासङ्गिकत्वाद् अनुजेत्येवोक्तम् / विष्णोबलिनिग्रहार्थमिन्द्रमातु-रदितेगर्भे वामनरूपेणोत्पन्नत्वात्, यद् माघः 'दीप्तिनिर्जितविरोचनादयं, द्यां विरोचनसुतादभीप्सतः। आत्मभूरवरजाखिलप्रजः, स्वर्पतेरवरजत्वमायया' विति। कापि-अनिर्वचनीया / शोभा-सौन्दर्य्यम् / लब्धा-समासादि। मुक्तिद्वारकपाटपाटनपटूमुक्तिनगरीद्वारस्थितकपाटभेदनसमर्थो। दौर्गत्यदुःखच्छिदौ-दारिद्रय. जनितव्यथाच्छेदको। विश्वेशितुः-जगदीश्वरस्य / भगवतः षड्विधैश्वर्यशालिनः / वीरस्य-नामैकदेशेनामग्रहणात् वर्धमानमहावीरस्य / तौ-तथात्वेन प्रसिद्धौ / अंह्रो-चरणौ / शरणम्-रक्षणम् गतिरितियावत् / 'शरणं गृहरक्षित्रोर्वधरक्षणयोरपि” इति मेदिनी / भजेआश्रये / अत्र नखे दर्पणारोपाद्रूपकमलङ्कारः / मुक्तिद्वारकपाटपाटनपटुत्वस्य चरणगतशरणत्वहेतुतयाभिधानात्काव्यलिङ्गमलङ्कारः / . कविगतभगवन्महावीरविषयकरतौ सुरेन्द्रगततद्विषयकरतरङ्गत्वात्प्रे. योऽलङ्कारश्चावसेयः / अत्रोपेन्द्रेण निजावरजेन दशावताराः क्रमशः सम्पादिता विश्वविख्याता इति तत्स्पर्द्धयाऽऽत्मनाऽपि दशावताराः सम्पादनीया इत्याकूतेन सुरपतिना प्रभोश्चरणकमले यथावत् प्रणतिर्विहिता एवञ्च दर्पणसमाच्छक्रमाब्जदशनखे दश निजप्रतिविम्बानि दृष्टानि, तद् दृष्ट्वा सोऽतीव मुमोद युगपद्दशावतारावाप्त्येतिभाव प्राकलनीयः / ____ द्वितीयं यत्स्नात्रनीरेणेत्यादि(कल्पलता) यत्स्नात्रनीरेण नरायणस्य, जरा भटानां न पराभवाय / जाग्रत्प्रभावं भगवन्तमेतं, शह्वेश्वराधीश्वरमाश्रयामः // 2 // Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य ____ अन्वयः-जरा, यत्स्नात्रनीरेण, नरायणस्य, भटानाम् , पराभवाय, न, जाग्रत्प्रभावम् , भगवन्तम् , एतम् , शङ्खश्वराधीश्वस्म , आश्रयामः / (कल्पलतावतारिका) जरा-जरासन्धऽऽपादितवार्द्धक्यम् / यत्स्नात्रनीरेण-यदीया. भिषेकसम्बन्धिजलेन। नरायणस्य-नराः सकलजना अयनं निवास. स्थानं यस्य स नरायणो यद्वा 'आपो नरा इति प्रोक्ता अयनं गृहमुच्यते' इत्युक्तेर्जलेशयत्वान्नरायणो, नरायणः श्रीकृष्णावासुदेव इति यावत् तस्य तथा / भटानाम्-योधानाम् / पराभवाय-पराजयाय / न-नहि / अभूदितिशेषः / यदीयस्नात्रजलाभिषेकमात्रेण,कृष्णवासुदेव-योधजना जरासन्धसम्पादितजराप्रयोज्यपराभवजनितक्कैशलेशमपि नान्वभूवनितिभावः / जाग्रत्प्रभावम्-जाज्वल्यमानप्रतापम् / भगवन्तम्- षड्वि धैश्वर्य्यविलसितम्। एतम्-बिम्बत्वेन प्रत्यक्षमवलोक्यमानम्। शङ्खस्वराधीश्वरम्-श्रीशङ्केश्वरपार्श्वनाथम् / आश्रयामः-सेवामहे / वयमिति शेषः। द्वितीयवाक्यार्थ प्रति प्रथमवाक्यार्थस्य हेतुतयाऽभिधानात काव्यलिङ्गमत्रालङ्कारः / श्रीपार्श्वनाथविषयकः / कविगतो रत्याख्यो भावोऽभिव्यज्यते प्राधान्येनेतिध्वनिकाव्यमिदमवसेयम् / जरासन्धेन सह श्रीकृष्णस्य संख्ये सञ्जाते श्रीकृष्णस्य पराभवाय जरासन्धेन जराशमं मुक्तम् / तेन श्रीकृष्णभटा जराजर्जरीभूता अभवन् / तद् दृष्ट्वा शोकसागरनिमग्नोऽभव द्विष्णुः। अथ श्रीकृष्णेन जरापाकरणायोपार्य पृष्टः श्रीनेमिनाथः। भगवताऽऽषाढिश्राद्धेन गतोत्सर्पिण्यां कारितं भावि. श्रीपार्श्वजिनबिम्ब नागलोकस्थितमष्टमतपसाऽत्राकर्षणीयम् तत्स्नात्रवारिणा जरा भविष्यति जर्जरीभतेति कथितम् / तथैवविहितं विष्णुनेति भावः। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 137 .... चतुर्थस्तवकेऽन्तिमकारिकायां "सर्वमेतेन" इत्याद्यतिदिष्टमभिधित्सुराहसूरिवरः- यच्चोक्त मिति - ( शास्त्रवार्ता० ) यच्चोक्तं पर्वमत्रैव. क्षणिकत्वप्रसाधकम् / नाशहेतोरयोगादि, तदिदानी परीक्ष्यते // 1 // __ अन्वयः-यत्, च, पूर्वम् ; अत्र, एव, क्षणिकत्वप्रसाधकम् , नाशहेतो; अयोगादि, उक्तम्, इदानीम, तत्. परीक्ष्यते / / (अव०) यत्-बुद्धिविषयीभूतम् / च-पुन: / पूर्वम्-प्राक् / अत्र-अस्यां सुगतवार्तायाम् / एव-अवधारणार्थकम् , तेनेतरत्रोक्तत्वव्यवच्छेदः फलति / क्षणिकत्वप्रसाधकम्-वस्तुजाते क्षणमात्रवृत्तिध्वंसप्रतियोगित्वसाधनपरम् / नाशहेतोः-विनाशकारणस्य / अयोगादि-नाश्येनासम्बन्धादि / उक्तम्-"तयाहुः क्षणिकं सर्वम्" इत्यादिकारिकया पूर्वपक्षिभिः प्रोक्तम् / इदानीम्-प्रतिबन्धकजिज्ञासाविषयनिरूपणोत्तरमधुना। एतेन निरूप्यमाणेऽवसरसङ्गतिः सूचिता भवति / तत्-बुद्धिविषयीभूतनाशहेत्वसम्बन्धादि / परीक्ष्यते-परीक्षाविषयीक्रियते, परीक्ष्य खण्ड्यते इति भावः / _ तथाहि-हेतोः सकाशाद् नश्वरो भावः स्याद् अनश्वरो वा ? इति विकल्पयुगलमुत्थापयत् नाशहेतोरयोगित्वं क्षणिकत्वप्रसाधक परेणोच्यते, आद्ये स्वतो नश्वरे नाशहेतूनामकिश्चित्करत्वेन तथात्वात्। नचोत्पादेऽप्ययं पर्यनुयोग: ( प्रतिप्रश्नः ) शक्यः कर्तुम् , स्वभावतो ह्युत्पत्तिस्वभावे उत्पत्तिहेतुव्यापारवैयात् अनुत्पत्तिस्वभावस्य च Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [षष्ठः - वक्तुमशक्यत्वादिति वाच्यम् ' उत्पत्तिस्वभाव' इत्यस्याऽभूत्वा भवनलक्षणोत्पत्तिरेव स्वभावो यस्येत्त्यर्थेऽभूतस्य भवनायोगेनोक्तदोपनिवृत्तावपि उत्पत्तौ सत्तायां स्वभाव आभिमुख्यलक्षणो यस्य नियतहेत्व. न्तरभाविन इत्यर्थे दोषाभावात्, तथैव तदव्यपदेशोपपत्तेः, द्वितीयविकल्पस्य चानभ्युपगमादेव, अनुत्पत्तिस्वभावस्य सर्वसामर्थ्याभावलक्षणस्यानुत्पाद्यत्वादेव / नद्युत्पत्तिहेतवोऽभावं भावीकुर्वन्तीत्यभ्युपगम्यते, 'असदुत्पद्यते ' इत्यस्य -- उत्पद्यमानं प्राग्नास्ति' इत्येवार्थात् / स्वीकृतायाश्च प्राग्नास्तितायां भावाश्रयाणां विकल्पानां शशविषाण इव तीक्ष्णतादिविषयाणां सम्भवः / नच 'भावधर्मत्वाविशेषात् नाशवदुत्पत्तेरपि किं न निर्हेतुकत्वम् ? इति शङ्कनीयम्, उदयापवर्गिणो भावाद् व्यतिरिक्तस्य नाशस्याभावात् / तस्य च स्वहेतोरेव तथाभूतस्योत्पन्नत्वेन तद्धर्मस्यानिमित्तत्वाभावात्, केवलमस्य तं स्वभाव न विवेच. यति मन्दधी:, दर्शनपाटवाभावात् , विसदृशकपालादिक्षणोत्पत्तावेव भ्रान्तिकारणविगमेन प्रत्यक्षनिबन्धनतन्निश्चयोत्पादात् विषयल्प. दर्शनेऽप्यतत्कारिपदार्थसाधर्म्यविप्रलब्धस्य प्राकारणशक्त्यविवेच. नेऽपि विकारदर्शनानन्तरं तन्निश्चयवदिति, एवञ्च क्षणिकत्वप्रसाधक नाशहेतोरयोगित्वं समायातमेव / एतद् न युक्तम् / तथा च सिद्धान्तिनः हेतुमिति(शास्त्रवार्ता) हेतु प्रतीत्य यदसौ, तथा नश्वर इष्यते / यथैव भवतो हेतु-विशिष्टफलसाधकः // 3 // अन्वयः-यत्, हेतुम् , प्रतीत्य, असो, तथा, नश्वरः, इष्यते, यथा, . एव, भवतः, हेतुः, विशिष्टफलसाधकः / .. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्पलतावतारिका [ 126 (अव) पत्-यस्माद्धेतोः। हेतुम्-कारणम्, मुद्गरादिकमितियावत् / प्रतीत्य-प्रतीतिं विधाय / असौ-भावः / तथानश्वर:-प्रायोगिकादिनाशापेक्षया नश्वरस्वभावः / इष्यते-इच्छाविषयीक्रियते / दृष्टान्तेन समर्थयति-यथैवेति, यथा-येन प्रकारेण / एव-अवधारणर्थकम् / भवतः- सुगततनयस्य / हेतु:-घटादिः / विशिष्टफलसाधक मुद्ररादिकं प्रतीत्य विजातीयकपालादिक्षणजननस्वभाव इष्टः / एवञ्च तथास्वभाव एवासो घटादिः स्वहेतोरेव सकाशाज्जायते, यः सहकारिणं मुद्रादिकमासाद्य विजातीयकपालादिकार्यकारी भवति सहकारिमुद्राद्यपेक्षस्यैव हि घटक्षणस्य समानक्षणोत्पादनासमर्थाऽसमर्थतराऽसमर्थतमादिक्षणान्तरोत्पादनप्रकमेण 'घटसंततिनिवृत्तौ कपालादिक्षणोत्पत्तेरभ्युपगमात् / तेन मुद्गरादिना सहकारिणा घटस्य किश्चिदतिशयाधान न क्रियते, द्वयोः सहकार्यसहकारिणोरेककालोत्पत्तिकत्वात् / अतिशयस्य च सहकार्यगतस्य तत्स्वरूपत्वात्, कार्यकारणभावस्य च पौर्वापर्य्यनियतत्वात् , तथा च तव शास्त्रे"उपकारी विरोधी च, सहकारी च यो मतः / प्रबन्धापेक्षया सर्वो नैककाले कथञ्चन" इति, एवञ्च तव मते स्वसभागक्षणोत्पत्तिर्हि उपकारः स्वविसभागक्षणोत्पत्तिश्च विरोधः स्वोत्पत्तिरेव च सहकार इति चोच्यते / सहकार्यसहकारिणोः समानकालत्वात् यद्यपि घटस्य सहकारिकतो विशेषो नास्ति तथापि फलम्य कपालादेः सहकारि. कतातिशयप्राविलक्षणक्षणाभिन्नाया विशेषो विद्यत एव, तदपेतयैव घटक्षण मुद्ररक्षणयोः सहकार्यसहकारिभावादिव्यवह रात्, इदं चोक्त पभोलस्वभावाभ्युपगम विना न निर्वहेदिति "तथास्वभाव एवासौ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ षष्ठः - घटादिः स्वहेतोरेव सकाशाज्जायते” इत्येतत्स्वीकरणीयमेवः। किश्च नाशस्य निर्हेतुकत्वस्वीकारे हिंसकस्य हिंसकत्वं न युज्यते, केनचिल्लुब्धकादिना कचिदरण्यादौ कस्यचिच्छूकरादेापादनस्याभावात्, अहिंसादशायामिव हिंसादशायामपि प्राणिक्षणानां स्वत एव नश्वरत्वात् सांवृत (काल्पनिक ) नाशस्य च गगनकमलिनीवदनुत्पाद्यत्वात् / शूकरादिविसभागसन्तानोत्पादस्य कारणत्वात, तस्य शूकरादिव्यापादकस्य हिंसकत्वं न स्यादिति चेत् सन्तानसमुत्पत्तेस्त्वदभिप्रायेण सम्भवात्, तस्य ( सन्तानस्य ) गगनकुसुमवदपरमार्थत्वात् व्ययोत्पादाभावात् उत्पादस्य सन्तानाधर्मत्वात् सन्तानविशेषप्रभवेऽहेतुत्वा. दित्यधिक स्याद्वादकल्पलतायामवलोकनीयं जिज्ञासुभिः / यच्च क्षणिकत्वे " अर्थक्रियासमर्थत्वात् " इति द्वितीय कार. णमुपन्यस्तं तदपि खण्डयते तावदार्हतैस्तथाहि यत्तैः क्षणिके (निरन्वयनश्वरे वस्तुनि ) अर्थक्रियासमर्थत्वमुक्तम्, तन्न युक्तम् , तदुत्पत्यनन्तरं नाशात्, ततः किमायातमिति चेत्, यतोऽसावर्थक्रियाजनकत्वाभिमतः पदार्थ एव वा स्यात्, तदनन्तरभावी पदार्थ एव वा स्यात् , द्वाविमौ प्रकारावत्र सम्भवतस्तत्र नाद्यः पक्ष: समीचीन: अर्थक्रियायास्तदात्मकत्वेऽर्थक्रियायां सामर्थ्यायोगः, अखिलस्वधर्मान्वितस्य तस्य स्वहेतोः समुद्भवात् / नापि द्वितीयः अर्थक्रियायाः स्व भिन्नत्वेऽभ्युपगम्यमानेऽन्यस्य हेतोरन्यत्रार्थक्रियायां सामर्थ्यमित्य. युक्तम्, सामर्थ्यसामर्थ्यवतोरभेदात् , सामर्थ्यवदन्यत्र तदभावात् , दण्डादेः सकाशात् घटाद्युत्पाद एव सामर्थ्यमिति चेन्न, उपादानमन्तरेणान्यभावस्यान्याय्यत्वात् / कुतोऽन्याय्यत्वमिति चेदत्रोच्यतेयस्मादन्यसत्त्वस्थितावपि किमुत तन्निवृत्तौ असत् सद् न जायते, Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 131 तच्छक्त्यभावनातिप्रसङ्गात, पूर्वक्षणस्यैव चोत्सरक्षणरूपतया भवनेऽ. न्त्रयः कथम सिद्धः, भावाविच्छेदस्यैवान्वयात् ? किश्च प्रस्तुतभावानां क्रियात्मिका भूतिर्भवतोक्ता सा भूतियायतः कचिद् न युज्यते, कर्तृभोक्तृस्वभावत्वविरोधात् , सा किं कर्तृ: स्वभावा वा स्याद् भोक्तृस्वभावा वा ? कर्तृस्वभावत्वे न भोक्तृस्वभावत्वम् , भोक्तृस्वभावत्वे न कर्तृत्वं स्यात् / नच कर्तृस्वभावत्वमेव भोक्तृस्वभावत्वम्, घटकलशादिपदानामिव कर्तृभोक्तृपदयोरभिन्नप्रवृत्तिनिमित्तकत्वेन पर्यायत्वापातात् चरमस्य कर्तृत्वाभावाच्च भावे, वा चरमत्वविरोधात् नचादौ कर्तृस्वभावैव अन्ते च भोक्तृस्वभावा मध्ये तूभयस्वभावेतिवाच्यम् द्वैरुप्यविरोधात् / एवञ्च क्षणिकत्वसाधको द्वितीयोऽपि हेतुर्निरस्तः / . क्षणिकत्वसाधकस्तृतीयोऽपि परिणामात्मको हेतुः पूर्वप्रदर्शितः सुगततनयैरयुक्तस्तथाहि - अतादवस्थ्यलक्षण: परिणामोऽपि क्षणिकत्वसाधने (निरन्वयनाशसाधने) न समर्थः सर्वकालमेव बालकुमारादि भावेन घटशरावादिभावेन च विभिन्नरूपत्वेऽपि देहमृदादिभावो. पलब्धेः / अयमाशयः चित्रज्ञाने नानाकारोपलम्भेऽप्येकरूपोपलम्भात् यथा चित्रैकरूपताऽविरोधस्तथा परिणामित्वेन भेदसिद्धावपि सोऽयं देहः' इत्याद्यभेदोपलम्भाद् न स्थैर्यबाधः, अनुभवसिद्धयोर्भेदाभेदयोरपि समावेशात् / एवञ्च यस्मात्कारणात् न सर्वथाऽर्थान्तरगमनम् नचैकान्तेनार्थान्तरागमनम् एतादृशः परिणामः पण्डितैः स्वीकरणीयः - "तद्भावः परिणामो यत् तत्तेन तथाभूयते” इतिवचनात् / युक्तमेतत् सुवर्ण हि कुण्डलतया परिणममानं न सर्वथैव कुण्डलभावं भजते, सुवर्णरूपस्यापि परित्यागापत्तेः, नच सर्वथा न भजतेऽपि अकुण्ड. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132] शाखवार्तासमुच्चयस्य [षष्ठः लत्वप्रसङ्गात् / येन रूपेण यत्र स्वकालीनस्वाभिन्नोत्पादप्रतियोगित्वं तेन रूपेण तत्र तत्परिणामित्वव्यवहारः यथा 'कुण्डलं सुवर्णपरि. णामः' इति. न तु सुवर्णं कुण्डलपरिणामः इति।। , इत्थं च गोरसान्वितं दध्येव समुत्पद्यमानं क्षीरनाशाभिन्नम् , न तु तैलादि, तस्यात्यन्तभिन्नस्वभावत्वात्, अतश्च परिणामोऽन्वयाक्षेपक: सिद्धः, उत्पादस्य व्ययस्थित्यविनाभूतत्वात् , दध्न उत्पाद अद्यक्षणसम्बन्धरूपो भाव इति कथं स एव दुग्धनाशः ? इति केषाश्चिदविचारिताभिधानम्, स्वयमेव प्रागभावनाशस्य प्रतियोगि रूपस्याभ्युपगमात् / एकान्ततुच्छ वस्तु कदाचिदतुच्छ न जायते तुच्छस्य प्रतिनियतातुच्छजननशक्त्यभावेन तदभावाविशेषात् , तद्व. दन्यभवनापत्तेः सच्च सर्वथैवासद् न जायते, असद्भवनस्वभावस्य सद्भवनस्वभावस्य विरोधात्, सद्भावस्याप्यप्राप्तः, अतश्च ( असदादेः सदाद्यनापत्तेश्च ) निश्चितं तस्यैव वस्तुनस्तथाभवनेन तदेव वस्तु परिणामेन प्रतीतिसचिवात् न्यायतो नित्यमनित्यञ्च गम्यते / ____ अत्र वैशेषिकादयः प्रत्यभिज्ञया तत्तेदन्ताविशिष्टयोरभेदलक्षणे स्थैर्ये सिद्धेऽपि कथमेकस्य नित्यानित्यरूपस्य वस्तुन: सिद्धिः, घटप्रतियोगिकत्वेन ध्वंसानुभवकाले समानसंवित्संवेद्यतया घटे ध्वंसप्रतियो गत्वतदप्रतियोगित्वलक्षणयोर्नित्यत्वानित्यत्वयोर्विरोधाच्च / अथ वृक्षे शाखामूलाद्यवच्छेदेन कपिसंयोगतदभाववदेकत्रापि द्रव्यतया पर्यायतया च नित्यानित्यत्वमुपपत्स्यते गुञ्जाफलादौ श्यामतारक्ततयोविभिन्नदेशावच्छेदरूपाया खण्डशो व्याप्ते_लक्षण्येनैवान्योन्यव्याप्तिव्यवस्थितेविभिन्नदेशानवच्छिन्नापृथग्भावस्येव तदर्थत्वादिति चेन्न आश्रयन्यूनवृत्तेरेवाच्छेदकत्वेन घटत्वेन घटेऽनित्यताया द्रव्याबेन Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तषकः ]. कल्पलतावतारिका [ 133 व नित्यताया असम्भवात् , न हि भवति शाखायां शाखात्वावच्छे. देन कपिसंयोगाभावः, वृक्षत्वावच्छेदेन कपिसंयोग इति किश्चैवं नित्यत्वादिज्ञानम्यानित्यत्वादिध प्रतिबन्धकताया अव्याप्यवृत्तित्वज्ञा. युत्तेजकत्वं वाच्यमिति गोरवमिति कथयन्ति / अत्राहुः सिद्धान्तिन: प्रत्यभिज्ञैव वस्तुनो नित्यानित्यत्वे मानम्, पूर्वोत्तरतत्तेदन्तास्व. भावभेदानुविद्धस्यैवोलतामामान्याख्याभेदस्य तया विषयीकरणात् / नच तत्तेदन्तोभयनिरूपित कस्वभावमेव तत्, भिन्न काले तदभावादेव च तदननुभव इति युक्तम् , "इदानीं तत्रास्वभाव मिदम्” इति व्यवहारप्रामाण्यप्रसङ्गात् / किञ्च विशिष्टात्यन्ताभाववद् विशिष्टध्वंसोऽपि परेणाकामेनापि स्वीकर्तव्यः, " शिखी विनष्टः" इति प्रतीतेरन्य. थाऽनुपपत्तेः / प्रतियन्ति च लोका अपि नित्यानित्यत्वं वस्तुन:"घटरूपेण मृद्रव्यं नष्टं, मृद्रूपेण न नष्टम्' इति घटरूपेण घटो नष्टः न तु मृद्रूपेण इत्यादि, अधिकं स्याद्वादकल्पलतायामवलोकनीयम् / : क्षणिकत्वसाधकं "क्षयेक्षणात्" इति पूर्वमुपन्यन्त. तुरीयं हेतुमधुना निराकरोति सिद्धान्तशिरोमणिराहतमुख्य: सूरिराट्। तथाहि -यत्पूर्व क्षणिकत्ववादिभिः अन्ते क्षयदर्शनं प्रथमक्षणे वस्तुनः सर्वथा नाशस्यानुमापक मति प्रोक्तम्, तन्न समीचीनम् , तस्यैव वस्तुनोऽन्त एव क्षयस्वभावत्वात् , अन्ते क्षयदर्शनम्य प्रथमक्षणनाशानुमापकत्वाभावात् , अन्यथाऽतत्स्वभावत्वात् / यदि प्रथमक्षण एव नाशस्वभावं वस्त्वभ्युपगम्यते, तर्हि अन्त एव क्षयदर्शनं कथम् , पादावेष फुतो न तदर्शनं स्यात्, न च भवति ततः प्रथमक्षणे क्षयस्वभावता नाभ्युपगन्तव्येति / न च सदृशोत्तरोत्तरक्षणप्रतिरोधात् Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य . [ षष्ठः अन्त एव तदर्शनं भवति नादौ प्रतिबन्धकसद्भावात घटोत्पत्तिक्षणो घटध्वंसाधिकरण: घटध्वसाधिकरणक्षणपूर्वक्षणत्वादित्यनुमानाचेति वाच्यम् घटोत्पत्तिप्राच्यक्षणेऽपि हेतोः सत्त्वेन साध्यस्याऽसत्त्वात् हेतोय॑भिचरितत्वात् , सादृश्यम्य भेदघटितत्वात , तद्भिन्नत्वे सति तद्गतधर्मवत्त्वस्यैव सादृश्यत्वात्, भेदप्रतीतेरभावे च त्वदुत्तस्यायुक्तत्वादिति संक्षेपः। अत्राहुरुपाध्यायप्रवरा:(कल्पलता) इतस्ततो नोड्डयनं विधातुं, पक्षी समर्थः सुगतात्मजोऽयम् / विसृत्वरस्तार्किकतर्कशक्त्या, यतो विलूनः क्षणिकत्वपक्षः // 3 // अन्वयः-अयम् , सुगतात्मजः, पक्षी; इतस्ततः, उड्डयनम् , विधातुम् , समर्थः, न, यतः, तार्किकतर्कशक्त्या, विसृत्वरः, क्षणिकत्वपक्षः, विलूनः / (कल्पलतावतारिका) अयम्-एष: / सुगतात्मजः-बुद्धतनयः / पक्षी-क्षणिकत्वरूपपक्षवान् विहगः / इतस्ततः-स्थानात्स्थानान्तरम् / उड्डयनम्उत्प्लवनम् / विधातुम्-कर्तुम् / समर्थः-शक्त: प्रभुरिति यावत् / न-नहि / भवितेति शेषः। यतः-यस्मात्कारणात् / तार्किकतर्कशक्त्यानैयायिकसम्बन्धितकरूपास्त्रेण / क्षणिकत्वपक्षः-क्षणिकत्वरूपं पतत्रम् / विलूनः-विच्छिन्नः, विच्छेदमापादितः / यथा मृगयुप्रहितबाणादिच्छिन्नपक्षो विहग एकस्मात् स्थानात् स्थानान्तरमुड्डीय गन्तुं न समर्थो भवति तथा नैयायिकतर्करूपशक्ति (शस्त्र) विशेषविच्छन्नक्षणिकत्वसहायः सुगततनयो निवेशप्रवेशादिना शास्त्रार्थमहा Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 135 र्णवमुत्तरीतुं न शक्नोति शक्ष्यति वेति भावः / अत्र सुगततनयपक्षिणोः क्षणिकत्वपक्षयोश्वामेदारोपाद्रूपकमलङ्कारः / पूर्वार्द्धवाक्यार्थे उत्तरार्द्धवाक्यार्थस्य हेतुतयाऽभिधानात् काव्यलिङ्गञ्चालङ्कारः / अनयोर्निर. पेक्षतयैकत्रावस्थानात्संसृष्टिः। किश्च(कल्पलता) ... निरीक्ष्य साक्षादवलम्ब्यमानं, परैविशीणं क्षणिकत्वपक्षम् / स्थाद्वादविद्यामवलम्बनं भोः,श्रयन्तु विज्ञाः! सुदृढं हिताय // 4 // __अन्वयः-भोः विज्ञाः ! परैः, अवलम्ब्यमानम् , क्षणिकत्वपक्षम् , विशीणम् , साक्षात् , निरीक्ष्य, हिताय, अवलम्बनम् , स्याद्वादविद्याम् , सुदृढम् , अयन्तु / . (कल्पलतावतारिका) .... भो विज्ञाः !. अयि विद्वित्प्रवराः ! परैः-बौद्धैस्तद्विशेषैर्वा / अवलम्ब्यमानम्-सम्मश्रीयमाणम् / क्षणिकत्वपक्षम्-वस्तुजातसम्बधिक्षणिकतावादपतत्त्रम् / विशीर्णम्-विदारितम् विनाशितमिति यावत् / साक्षात्-प्रत्यक्षं यथास्यात्तथा / निरीक्ष्य-अवलोक्य / हिताय-कल्याणाय / अवलम्बनम्-श्राश्रयरूपम् / स्याद्वादविद्याम्अनेकान्ततन्त्रम् / सुदृढम्-सुनिश्चलं यथास्यात्तथा / श्रयन्तु-समवलम्वन्ताम् / रूपकं काव्यलिङ्गञ्चालङ्कारः / स्याद्वादविद्यैव सर्वथा मोक्षोपयोगिनी नत्वेकान्तविद्येति ध्वन्यते, तस्य च वाच्यार्थापेक्षयाऽ. धिकचमत्कारितया प्राधान्येनाश्रयणादुत्तम ध्वनिकाव्यमिदमवसेयम् / - माध्यमिका बौद्धविशेषा एवमभिदधति यदुत रागनिबन्धन. विषयनित्यत्ववासनापरित्यागाय 'सर्व क्षणिकम्' इति बुद्धेनोक्तम् , न Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 ] शासवार्तासमुषपस्य [ षष्ठः तु यथाश्रुततत्त्वबोधनाभिप्रायेण अनित्यतामावनाभावनायैवमस्मदीये. रुच्यते तदुक्तम् “यत्प्रातस्तद् न मध्याहे, यद् मध्याहेन तनिशि। निरीक्ष्यते भवेऽस्मिन् हि, पदार्थानामनित्यता।" इति एतत्तात्पर्येण क्षणिकत्ववादः समीचीन: प्रतिभातीव / एवञ्चायमुपदेशः सम्यगेव बुद्धस्य / एवं क्षणिकत्ववादवत् विज्ञानमात्रवादोऽपि धनधान्यादिबाह्यपदार्थपरिष्वङ्गत्यागाय ज्ञाननयावधारणयोग्यान् भतिनिपुणान् विनेयान् काँश्चिदाश्रित्य वा विज्ञानमात्रवाददेशनेति विज्ञेयम् / विदि. ताखिलतत्वस्य निरुपधिपरदुःखप्रहाणेच्छामूलकदेशनाप्रवृत्तिशालिनः परैरिष्यमाणस्य बुद्धस्य सुवैद्यवत् परहितानुबन्धिप्रयोजनं विना द्रव्यासत्यमभाषिणोऽनन्तरमुक्तं न साम्प्रतमिति न किन्तु साम्प्रतमेवावसेयम् / यथाहि सुवैद्यः कटुकमप्यौषधं कटुकौषधपानभीतस्य परस्य प्रवृत्तयेऽकटुकमपि वदन् नाऽनाप्तः स्यात् , तथा बुद्धोऽप्यक्षणिकैकरूपं ज्ञप्तिमात्रास्वभावं च विनेयमतिपरिष्काराय तथावदन्नपि नानाप्तः स्यात् , अन्यथा तु स्यादेव तथा च तदाप्तत्वे तहे. शनाया अत्र तात्पर्यम् , अन्यथा तु तस्यानाप्तत्वमेवेति / शून्यवार्तामाह(शास्त्रवार्ता) ब्रुवते शून्यमन्ये तु, सर्वमेव विचक्षणाः / न नित्यं नाप्यनित्यं यद्, वस्तु युक्त्योपपद्यते // 54 // अन्वयः-अन्ये, विचक्षणाः, तु, सर्वम् , एव, शून्यम् , त्रुपते, यत्, युक्त्या , वस्तु, न, नित्यम् , अनित्यम् , अपि, म, उपपयते / (अव) अन्ये-अपरे। विचषणा:-विद्वांसः / वितण्डापण्डिता Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः / कल्पलतावतारिका - माध्यमिका इति यावत् / तु-पुनः / सर्वम्-निखिलम् / एव-अवधारणार्थकम् / शून्यम्-शून्यतामभावमापन्नम् / अवते-अभिदधति / यत्-यस्माद्धेतोः / वस्तु-पदार्थजातम् / युक्त्या-न्यायेन / विचार्यमाणं सदिति शेषः / न-नहि / नित्यम्-उत्पत्तिविनाशरहितम् / अनित्यम्-उत्पत्तिविनाशवत् / अपि-सम्भावनायाम् / न-नहि / उपपद्यते-युक्तियुक्तं भवतीत्यर्थः / - तथाहि -क्रमवद्विज्ञानादिकार्यकारित्वे भेदप्रसङ्गात् अक्रमवद्विज्ञानादिकार्यकारित्वे चैकदेव सर्वकार्योत्पत्तेः अथक्रियाकारित्वाञ्च नित्यं किमपि वस्तु न युक्तम् , अनित्यमपि कदाचित् किमपि न युक्तम्, उत्पादव्ययाभावात् नहि तौ ( उत्पादव्ययौ ) स्वत: परतः उभाभ्याम् अनिमित्तौ वा संभवतः आद्य कारणापेक्षाभावेन देशादिनियमाऽप्रसक्ते:, द्वितीयेऽपि सत्त्वे कारणवदुत्पत्तिविरोधात , असत्त्वे खरविषाणवदुत्पादनाशायोगात् उभयम्वभ वत्वे च विरोधात् / तृतीये चोभयदोषानुषङ्गात् "प्रत्येकं यो भवेदोषो द्वयोर्भावे कथं न सः" इत्युक्तत्वात् चतुर्थे, चानभ्युपगमात् / तदुक्तम् न स्वतो नापि परतो, न द्वाभ्यां नाप्यहेतुतः / . उत्पन्ना जातु विद्यन्ते, भावाः वचन केचन // 1 // इतिनागार्जुनविरचिते माध्यमिककारिकाग्रन्थे प्रत्यक्षपरीक्षा. प्रकरणे / नचैवं कथं पुत्रोत्पादज्ञाने सुखम् तद्ध्वंसे च ज्ञाते दुःखमितिवाच्यम् स्वापदशायामकृतसम्भोगायाः कन्यायाः सम्भो. गानुभववत् लौकिक्या उत्पादव्ययबुद्धेः परमार्थेन भ्रान्तत्वात् , ईदृश्या अपि बुद्धेरानन्दादिकारणत्वस्य स्वापदशायां फुमार्याः पुत्रजन्मादिबुद्धिवदनुभवसिद्धस्वात् / Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138] शासवार्तासमुच्चयस्य [ षष्ठः - - अत्रायममीषां सम्प्रदायः-नीलादयो न परमार्थसद्व्यवहागनुपातिनः, विशददर्शनावभासित्वात, तिमिरपरिकरितगवभासीन्दु, द्वयवत् / नच चन्द्रद्वयज्ञानं बाध्यत्वाद् भ्रान्तम् . नीलादिज्ञानं त्व. बाध्यत्वाद् न तथेति साम्प्रतम् , बाध्यत्वानुपपतेः, तथाहि-बाधकेन न विज्ञानस्य तत्कालभाविस्वरूप वाध्यते, तदानीं तस्य स्वरूपेण प्रतिभासनात् नाप्युत्तरकालम् , क्षणिकत्वेन तस्य स्वयमेवोत्तरकाले. ऽभावात् / नापि प्रमेयं प्रतिभासमानेन रूपेण बाध्यते तस्य विशद. प्रतिभासादेवाभावासिद्धः अप्रतिभासमानेन तु रूपेण म्वत एव बाधः / ना पे प्रवृत्तिरुत्पन्ना बाध्यते, उत्पन्नत्वादेवासत्तायोगात्, अनुत्पन्नायान्तु स्वत एव बाधः / किञ्च बाधकं न बाध्यापेक्षया भिन्नसन्तानम् , अति. प्रसङ्गात् , एकसन्तामपि न तदेककालम् , असम्भवात् / न पि भिन्नकालमेकार्थम् , उत्तरघटज्ञानम्य पूर्वघटज्ञानबाधकतापत्तेः / नापि भिन्नार्थम् , उत्तरपटज्ञानस्य तथात्वापत्तेः, नाप्यनुपलव्धर्बाध्यज्ञानसमानकाला तद्वाधिका, तस्या असिद्धः / नाप्युत्तरकालभाविनी बान्यज्ञानै कार्थविषया एकविषयकस्य तदर्थसाधकत्वेनाबाधकत्वायात् , नापि विभिन्न विषया, तस्यास्तदानीं स्वविषयसाधकत्वेन बाध्यज्ञानविषयाभावासाधकत्वात् / नच दुष्टकारणप्रभवत्वेनेन्दुद्वयधिशेऽसत्या. र्थविषयत्वावगमो बाध्यत्वम् असद्धः, इन्द्रियेण दोषाग्रह त् / नच समानसामग्रीकस्य नरान्तरस्य तदग्रहणादितरत्र दुष्टकारणानुमानम् तिमिराभावात् , नरान्तरे सामग्रीसाम्यासिद्धः / नच मिथ्यारूपत्वेन तत्र दुष्टकारण जन्यत्वानुमानम् , इतरेतरानयात् / नचेन्दुद्वयज्ञानस्य विसंवादित्वादस्त्यत्वम् , समानजातीयतद्विज्ञानानुत्पन्तिरूपविसंवादस्य यावत्तिमिरमसिद्धेः, विजातीयज्ञानोत्पत्तेविसंगदत्वे च स्तम्भा Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 136 दिप्रतिभासेऽतिप्रसङ्गात , ततो न नीलद्विचन्द्रादिज्ञानयोः कश्चिद् विशेष:, नीलस्य विचार्यमाणस्यानुपपन्नत्वात् / अत्राहुः सिद्धान्तिनः स्याद्वादिन: - शून्यतातत्त्वसाधनं किञ्चित प्रमाणं विद्यते श्राहोस्वित शून्यमेव शून्यतासाधनं प्रमाणम् / शून्यं चेत् शून्यतायां प्रमाणम्, तदा सम्यग् व्यवस्थितं तत्त्वं शून्यवादिना, अवस्तुसता प्रमाणेन प्रमेयव्यवस्थितेः / अस्ति चेत प्रमाणं तत्साधकन्तदा शून्यतैव कथम् ? प्रमाणस्य तत्त्वरूपत्वात् , सकलपदार्थाभावसिद्धेरिति माध्यस्थ्यदृशा. सुधीभिर्विचारणीयम् / अधिकं स्याद्वादकल्पलतायां जिज्ञासुभिरवलोकनीयम्। तथा चोपसमहापुमहोपाध्यायाः श्लोकद्वयेन(कल्पलता) सौगत ! प्रणयिनीव नितान्तं, शून्यता तब न मुञ्चति चित्तम् / प्राज्ञपर्षदि न कधन हर्ष-स्तेन शून्यहृदयस्य तवास्ति // 5 // अन्वयः- सौगत ! प्रणयिनी, इंव, शून्यता. तव चित्तम् , नितान्तम् , 'न, मुञ्चति, तेन, शून्यहृदयस्य, तव, प्राज्ञपर्षदि, कश्चन. हर्षः, न, अस्ति / * (कल्पलतावतारिका) : सौगत ! शून्यवादिन् ! सुगततनय ! प्रणयिनी-प्रेमोद्रेकवती कान्ता / इव-यथा / शून्यता त्वदभिलषितपदार्थजातशून्यता / तवसुगतान्तेवासिनो भवत: / चित्तम्-अन्तःकरणम् / न-नहि / मुञ्चति-त्यजति / तेन तेन हेतुना। शून्यहृदयस्य-शून्यतासंवलितचेतसः / तव-सुगतशिष्यस्य भवतः / प्राज्ञपषदि-विद्वत्सभायाम् / कश्चन-कोऽपि / हर्षः-प्रमोदः / न-नहि / अस्ति-वर्तते / Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य . [षष्ठः यथा कयाचित्प्राणवल्लभया कान्तया क्षणमप्यपरिक्तचेतसः कुत्र. चिदन्यत्र गतस्यापि तया समासक्तमानसस्य चेतसि हर्षो न संलक्ष्यते तथैव शून्यतया नितान्तमपरित्यक्तचित्तस्य सतत शून्यतां भावयतः प्राज्ञसभायामपि शून्यतासंवलितस्य ते चेतसि काचन प्रीतिर्नावलो. क्यत इति प्रकृते उपमानोपमेययोः साधारणधर्माभिसम्बन्धादुपमा. लङ्कारः / सभायां किश्चिद्वक्तुमशक्यतया तदीयः पराजयो ध्वन्यते प्राधान्येन चमत्कारितयेति ध्वनिकाव्यमिदमवसेयम। (कल्पलता) मुग्ध ! माध्यमिक ! मध्यमसंवित्, किं सता बत समाश्रयणीया / उत्तमां सुविदितामिह * चित्रां, तामनाप्य न हताश ! हतः किम् ? // 6 // अन्वयः-मुग्ध ! माध्यमिक ! बत, सता, मध्यमसवित् , समाश्रयणीया, किम् , इह, उत्तमाम् , सुविदिताम् , चित्राम , ताम, अनाप्य, हताश ! (त्वम् ) हतः न असि किम् / (कल्पलतावतारिका) मुग्ध ! अयि मूढ ! 'मुग्धः सुन्दरमूढयोः" इत्यभिधानात् / माध्यमिक ! तदभिधानसुगततनयविशेष ! बत! खेदेऽव्ययम् / सता-सज्जनेन, सत्पुरुषेणेत्यर्थः / बुद्धिमतेति यावत् / मध्यमसंवित्मध्यमा बुद्धिः। समाश्रयणीया-संसेवनीया। किम्-प्रश्नार्थकमव्ययम् / "किं कुत्सायां वितर्के च निषेधप्रश्नयोरपि" इति मेदनी / अपि तु समीचीनबुद्धिना मध्यमसंवित नैव समाश्रयणीयेतिभावः / इह Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तमकः ] कल्पलतावतारिका [141 अस्मिन् लोके, अस्यां प्राज्ञपर्षदि वा / उत्तमाम्-उत्कृष्टाम् / सुविदिताम्-नितान्त ख्याताम्। (अत एव) चित्राम्-आश्चर्यकारिणीम् / ताम्-उत्तमसंविदम् / अनाप्य-अलब्ध्वा / हे हताश ! हता भग्ना आशाऽभिलाषो यस्य तत्सम्बोधने तथा। (त्वम् ) हतः-मारितः कुत्सितो वा / न-नहि / (असि-भवसि ) किम्-प्रश्नार्थकमव्ययम् / अपि तु हत एवासीति भावः / तदीयस्य पराजयस्य प्राधान्येन चमकारितया ध्वननादुत्तमं ध्वनिकाव्यमिदम् / हतत्वे तादृशसंविदनापनस्य हेतुत्वाकाव्यलिङ्गमलङ्कारः / हेतोर्वाक्यपदार्थत्वे काव्यलिङ्ग निगद्यते' इति तल्लक्षणश्रवणात् / तथा चाहुः सूरिपादाः -- (शास्त्रवार्ता० ) एवं च शून्यवादोऽपि, सद्विनेयानुगुण्यतः। अभिप्रायत इत्युक्तो, लक्ष्यते तत्त्ववेदिना // 63 // अन्वयः-एवं, च, शून्यवादः, अपि, सद्विनेयानुगुण्यतः, तत्त्ववेदिना, अभिप्रायतः, उक्तः, ( इति ) लक्ष्यते / (अव०) एवञ्च-उक्तरीत्याऽघटमानत्वे चेत्यर्थः / शून्यवादःशून्यताबोधकवादः / तद्विनेयानुगुण्यतः-शून्यताविषयविभागावधारणप्रवण शिष्यहितानुरोधात् / तत्त्ववेदिना-पदार्थतत्त्वविज्ञेन, बुद्धेनेति यावत् / अभिप्रायतः-तत्प्रयोजनाभिप्रायान् / उक्त:-निगदितः / नतु तत्त्वाभिधित्सयेति / लक्ष्यते-सम्भाव्यते / विना तूपकारक Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ षष्ठः - - कारणं द्रव्यमृषाभाषित्वे बुद्धस्यानातत्वप्रसङ्गादिति भावः / संक्षेपतः पूर्ण सुगतमतवार्ता / तथा चोक्तं सूक्तमुपाध्यायप्रवरैः - .. ( कल्पलता) श्रमो ममोच्चैरियता कृतार्थः सन्तोऽत्र सन्तोषभृतो यदस्मात् / खलैः किमस्मिन् भ्रमरस्य योग्य, सौभाग्यमन्जस्य न. वायसस्य // 8 // अन्वयः-- इयता. अत्र, मम, उच्चैः, श्रमः, कतार्थः, यत्, सन्तः, अस्मात्, सन्तोषभृतः, अस्मिन् , खलै:, किम, अब्जस्य सौभाग्यम, भ्रमरस्य, भोग्यम्, वायसस्य, न। (कल्पलतावतारिका) इयता-एतावता प्रबन्धेन / अत्र-त्याद्वादकल्पलतायाम् सुगत मतविचारणायां वा / मम-श्रीमद्यशोविजयस्य / उच्चैः-अतिशयितः / श्रमः-प्रयासः। कृतार्थः-सफलः / समजनीति शेषः / यत्यस्माद्धेतोः / सन्त:-प्राज्ञा:, सुधिय इति यावत् / अस्मात्-कार्यात् / सन्तोषभृतः-सतुष्टाः प्रमोदवहा इति यावत् / अस्मिन्-सन्तोषासन्तोषविषये / खल-अप्रसन्नैरपि दुर्जनैः। किम् निषेधार्थकमव्ययम् / अन्जस्य-पद्मस्य / सौभाग्यम्-सौगन्ध्यमकरन्दादिसमृद्धिजातम् / भ्रमरस्य-मधुकरस्य। जात्येकवचनम्। भोग्यम्-उपभोगयोग्यम् / वायसस्य-काकस्य / न-नहि उपभोगयोग्यमितिशेषः / परिसङ्घया. लङ्कारः। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [143 स्तवकः ] कल्पलतावतारिका - सौगतोक्तक्षणिकत्व-विज्ञानवादविप्लवम् / अपाकृत्य स्तवः षष्ठोऽलंकृत: सद्विचारतः // 6 // इति शासनसम्राट-तपागच्छाधिपति-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-जगद्गुरुबालबमचारिभट्टारकाचार्यमहाराजश्रीविजयनेमिसूरीश्वरमहाराजपट्टालङ्कार शास्त्रविशारदकविरत्नपीयूषपाणिपूज्यपादाचार्यश्रीविजयामृतम्ररिवर। सन्डब्धायां महोदधिकल्पशास्त्रवार्तासमुच्चय - कल्पलतानुसारिण्याकल्पलतावतारिकायां षष्ठः स्तवकः / Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144] शाखवार्तासमुच्चयस्य [ सप्तमः * अथ सप्तमः स्तवकः ॐ अथाऽऽर्हतसिद्धान्ततत्त्वं प्रतिपादयिषुः सप्तमस्तव के प्रथम मङ्गलतया श्लोकत्रयं निर्दिशति कल्पलताकृत-चञ्चत्काञ्चनेत्यादि(कल्पलता) चश्चत्काञ्चनकान्तकान्तिरनिशं, गीर्वाणजुष्टान्तिको, विक्रान्तिक्षतशत्रुरस्तजनन-भ्रान्तिः सतां शान्तिभूः / शान्तिस्तान्तिमपाकरोतु भगवान् कल्याणकल्पद्रुमो, धीरो यस्य सदा प्रयान्ति शरणं, पादौ शुभप्रार्थिनः // 1 // अन्वयः- चञ्चत्का इनकान्तकान्ति:, अनिशम् ; गीर्वाणजुष्टान्तिकः, विक्रान्तिक्षतशत्रुः, अस्तजननभ्रान्तिः, सताम, शान्तिभूः, कल्याणकल्पद्रुमः, धीरः, भगवान् , (स:) शान्तिः, तान्तिम् , अपाकरोतु, शुभप्रार्थिनः, यस्य, पादौ, सदा, शरणम्, प्रयान्ति / (कल्पलतावतारिका) चञ्चत्काञ्चनकान्तकान्तिः-चश्चद् विलसत्, शोभमानमितियावत, यत् काश्चन सुवर्णम, तद्वत् कान्ता मनोहरा कान्तिद्युतिश्छविरिति यावद्यस्य स तथा / अनिशम्-सततम् / गीर्वाणजुष्टान्तिकःगीर्वाणैर्देवैर्जुष्टं सेवितं समाश्रितमिति यावत्, अन्तिकं सविधं पार्श्वमिति यावद्यस्य स तथा / विक्रान्तिततशत्रु:-विक्रान्त्या विक्रमेण शौर्येणेति यावत्, क्षता व्रणाङ्किता विनाशिता इति यावत् शत्रवो बाह्याभ्यंतरप्रतिपक्षा येन स तथा / अस्तजननभ्रान्ति:-अस्ता निरस्ता दूरीकृतेति यावत् जननभ्रान्तिर्जन्मभ्रमो येन स तथा। यद्वा अस्ता जननभ्रान्तिः अननप्रयुक्त भ्रमणं संसरणमिति यावयस्म स तथा, Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः / कल्पलतावतारिका [145 - मुक्त इत्यर्थः। सताम्-सजनानाम्, भव्यात्मनामिति यावत् / शान्तिभूः-शमनिलयः शान्त्युत्पादक इति यावत् / कल्याणकल्पद्रुमःकल्याणाय शर्मणे महानन्दायेति यावत् / कल्पद्रुमः कल्पवृक्षस्तथा / धीरः-धीरतागुणसम्पन्नः / भगवान्-षड्विधैश्वर्य्यशाली / (सः) शान्तिः शान्तिनाथशुभाभिधान: षोडशोऽर्हन् / तान्तिम्-सन्तापम्। अपाकरोतु-दूरीकरोतु / शुभप्रार्थिन:-कल्याणकामाः, भव्यात्मानो जना इत्यर्थः / यस्य-घुद्धिविषयीभूतस्य भगवतः शान्तिनाथस्य / पादौ-चरणौ / सदा-सर्वदा। शरणम्-गतिम् / प्रयान्ति-गच्छन्ति प्राप्नुवन्तीति यावत् / अत्र कविगत: श्रीशान्तिनाथतीर्थंकृद्विषयको रत्याख्यो भावः प्राधान्येनाभिव्यज्यते इति भावध्वनिः, प्रेयोरूपकानुप्रासश्च तत्परिपोषकत्वेनालङ्काराः समवसेयाः / (कल्पलता) आसीद्यत्पदयोः प्रणामसमये, शक्रस्य चक्रभ्रमो / लोलन्मौलिमयूखमांसलरुचां, विस्तारिणीनां रयात् // श्रीवामातनयस्य तस्य हृदये, धत्तः पदौ चेत्पदं / तत्कि नाम सुरद्रु-कामकलश-स्वर्धेनवो नान्तिके // 2 // .. अन्वयः-यत्पदयोः, प्रणामसमये, शक्रस्य, विस्तारिणीनाम् , लोलन्मौलिमयूखमांसलरुचाम् , रयात् , चक्रभ्रमः, आसीत् , तस्य, श्रीवामातनयस्य, पदो, चेत् , हृदये, पदम् , धत्तः, तत् , सुरद्रु-कामकलश-स्वर्धेनवः, अन्तिके, न, नाम, किम्। (कल्पलतावतारिका) . ___ यत्पदयोः यस्य बुद्धिविषयीभूतस्य भगवतः पार्श्वनाथस्य पदे चरणौ यत्पदे, तयोस्तथा / प्रणामसमये-प्रणमनावसरे। अर्थ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ षष्ठः तः शकस्यैवेत्यवसेयम् / शक्रस्य -शक्नोति जेतुमरीनिति शक इन्दस्तस्य तथा विस्तारिणीनाम्-विस्तारवतीनाम्। सर्वतः प्रसरणशीलानामिति यावत् / लोलन्मौलिमयूखमांसलरुचाम्-लोलन कम्पमानो मौलिमस्तकम् , लोलन्मौलिस्तस्य मयूखाः किरणानि तेषां मांसलाः परिपुष्टा या रुचो दीप्तयो लोलन्मौलिमयूखमांसलरुचस्तासान्तथा / रयात्-वेगात् / चक्रभ्रमः-चक्रवद् भ्रमणम् / आसीत्अभवत् / लोकानामितिशेष: / कान्तिप्रवाहे चक्रभ्रमो भवत्येव / तथाच नैषधीयचरिते-- "कलशे निजहेतुदण्डजः क्रिमु चक्रभ्रमकारितागुणः / स तदुच्चकुचौ भवन् प्रभाझरचक्रभ्रममातनोति यत् / " तस्य-बुद्धिविषयीभूतस्य महामहिमशालिन: / श्रीवामातनयस्यवामायास्तन्नामकश्रीमदश्वसेननृपमहिष्याः क्षत्रियाण्याम्तनयः पुत्रो वामातनयः पार्श्वनाथप्रभुः, श्रिया शोभया सम्पत्त्या लक्ष्म्या वा सहितो वामातनयः श्रीवामातनयस्तस्य तथा / भगवतः श्रीपार्श्व. नाथस्य / पदौ-चरणौ। चेत्-यदि / हृदये-अन्तःकरणे / पदम्स्थानम् / धत्तः-धारयतः / तत्-तर्हि / सुरद्रु-कामकलश-स्वर्धेनवःकल्पवृक्ष-मनोरथपूरकपूर्णकुम्भ-सुरभय: / अन्तिके-समीपे / ननहि। वर्तन्ते इति शेषः। किम्-प्रश्नार्थकमव्ययम् / अपि तु वर्तन्त एवेति भावः / 'किं कुत्सायां वितर्के च निषेधप्रश्नयोरपी' तिमेदिनी / भगवच्छीपार्श्वनाथविषयककविगतरतेः प्राधान्येनाभिव्यज्यमानत्वाद्भावध्वनिर्वेदितव्यः अनुप्रासश्चालङ्कारः / (कल्पलता) आगच्छत्रिपदीनदीसमुदयद्भङ्गभ्रमप्रोच्छलतर्को मिप्रसरस्फुरन्नयरयस्याद्वादफेनोच्चयः / . Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [147 यस्याद्यापि विसृत्वरो विजयते, स्याद्वादरत्नाकरस्तं वीरं प्रणिदध्महे त्रिजगता-माधारमेकं जिनम् // 3 // अन्वयः-अद्यापि, यस्य, आगच्छत्रिपदीनदीसमुदयद्भङ्गभ्रमप्रोच्छलत्तकार्मिप्रसरस्फुरन्नयरयस्याद्वादफेनोच्चयः, विसृत्वरः, स्याद्वादरत्नाकरः, विजयते, त्रिजगताम्, एकम , आधारम्, तम्, वीरम्, जिनम्, प्रणिदध्महे / (कल्पलतावतारिका) . अद्यापि-अद्यत्वेऽपि / यस्य-बुद्धिविषयीभूतस्य चरमतीर्थकृतो वर्द्धमानस्य / आगच्छत्रिपदीनदीसमुदयद्भङ्गभ्रमप्रोच्छलत्तोंमिप्रसरस्फुरन्नयरयस्याद्वादफेनोच्चयः-त्रयाणां पदानां समाहारस्त्रिपदी सैव नदी तरङ्गिणी / 'उप्पन्नेइ वा विगमे इ वा धुवे इ वा' इत्यात्मिका आगच्छन्ती भिन्नभिन्नप्रदेशादायान्ती चासौ त्रिपदी नदी आगच्छत्रिपदीनदी तत: समुदयन्तः समुत्पद्यमानाः भङ्गाः सप्तभङ्गी एव भ्रमा आवर्तास्तत: प्रोच्छलन्तः प्रकर्षणोद्गच्छन्तस्तळ विचारणा एवोर्मयस्तरङ्गास्तेषां प्रसरः प्रसरणन्ततः स्फुरन्तो विजृम्भमाणा विलसन्त इति यावत् नया: सद्वचनरचनप्रकारा एव रया वेगास्तेभ्यः ( समुत्पद्यमानः ) स्याद्वादः- स्यात्पदलाञ्छितवाद एव फेनोचयो डिण्डीरसमूहो यस्य यस्मिन् वा स तथा / विसृत्वरः-विस्तारयुक्तः / स्याद्वादरत्नाकरः-स्याद्वादोऽनेकान्तदर्शनमेव रत्नाकरः समुद्रस्तथा। विजयते-सर्वोत्कर्षेण वर्तते / त्रिजगताम्-त्रिभुवनानाम् / एकम्-मुख्यम्। आधारम्-आश्रयस्वरूपम् / तम्-बुद्धिविषयीभूतम् / वीरम्-नामैकदेशे नामग्रहणात् महावीरम् / जिनम्-तीर्थकृतम् / Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [षष्ठः - प्रणिदध्महे-सम्यग्ध्यानविषयीकुर्मः / सावयवरूपकमलङ्कारः / अनु. पन्धचतुष्टयसूचनश्चाप्यनुसन्धेयम् / प्रस्तुतविषयमवतारयन्ति-पीत इति। . (कल्पलता) पीतेऽन्यवार्ताकलुषोदकेऽपि, नोच्छिद्यते तत्त्वपिपासया वः। आकर्णयन्त्वाईतशास्त्रवाता, कर्णामृतं सम्प्रति तत् सकर्णाः // 4 // अन्वयः अन्यवार्ताकलुषोदके; पीते, अपि, वः, तत्त्वपिपासया, न, उच्छिद्यते, तत्. सकर्णाः ? सम्प्रति. कर्णामृतम, आईतशास्त्रवार्ताम् , आकर्णयन्तु / (कल्पलतावतारिका) अन्यवार्ताकलुषोदके-अन्येषां चार्वाकादीनां वार्ताः सिद्धान्ता अन्यवार्ताः, ता एव कलुषोदकम्-कालुष्ययुक्त जलम् अन्यवार्ताकलुषोदकम् , तस्मिंस्तथा / पीते-पानकर्मीकृते पानक्रियानिरूपितकर्मतामापादिते इति यावत् / अपि-सम्भावनायाम् / वः-युष्माकम् , सकर्णानामितिशेषः। तत्त्वपिपासया-तत्त्वं याथार्थ्यमेवामृतम् तस्य पिपासा पातुमिच्छा तत्त्वपिपासा, तया तथा / न-नहि / उच्छिद्यतेसमुच्छेदः प्राप्यते विनश्यते इति यावत् / तत्-तस्माद्धेतोः / सकर्णाः!-सज्जकर्णेन्द्रिया भवन्तो भवन्त विबुधाः ! सम्प्रति-अधुना / कर्णामृतम्-श्रवणसुखकरम् / आईतशास्त्रवार्ताम्-जैनाऽऽगमसिद्धा. न्तम् / अमृतपदस्याजहल्लिङ्गतया वार्ताविशेषणत्वेऽपि नपुंसकतैव / आकर्णयन्तु-शृण्वन्तु / यथा सातिशयपिपासुना. कालुष्याकुलित सलिलं, निपीयाऽपि तृप्तिमलमलभमानेन समीचीनममृतं . ( जलम् ) Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तबकः ] कल्पलतावतारिका [146 पातुकामेन सुसजितेन भूयते तथैव तत्त्वबुभुत्सुभिरन्यदीयं दूषित सिद्धान्त समाकाऽपि सन्तोषमलभमानैर्भवद्भिराहतैः श्रवणेऽपि सुखदं जैनागमसिद्धान्तामृतं पातुकामैस्तत्परैर्भूयतामितिभावः / अज्ञानतिमिरध्वंसदीपिका परमतत्त्वोपनिषद्भूतां हितसुखनिःश्रेयसकरीमाईतमतवार्तामाह शास्त्रवार्तासमुच्चयकारो भगवान हरिभद्रसूरिराज: अन्य इति(शास्त्रवार्ता) अन्ये वाहुरनाद्येव, जीवाजीवात्मकं जगत् / सदुत्पादव्ययध्रौव्य-युक्तं शास्त्रकृतश्रमाः॥१॥ अन्वयः-- शास्त्रकृतश्रमाः, अन्ये, तु, जीवाजीवात्मकम् , सदुत्पादव्ययप्रौव्ययुक्तम् , जगत् . अनादि, एव, आहुः / (अव०) शास्त्रकृतश्रमाः-शास्त्रेषु प्रवचनोपनिषदादिषु कृतो विहितः भमो यैस्तादृशाः कृतप्रवचनोपनिषदध्ययनभावाः / अन्येचार्वाकादिभ्यः परे आहेलाः। तु-पुनः / जीवाजीवात्मकम्-जीवाश्वेतनाश्चाजीवा अचेतनाश्वाऽऽत्मानः समुदायिनो यस्य तत्तथा / तेन चिन्मात्रादिषादनिरासः / सदुत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तम्-सन्ति पारमार्थिकसत्तावन्ति न तु प्रातिभासिकसत्तावन्ति उत्पादव्ययध्रौव्याणि सदुत्पादव्ययध्रौव्याणि तैर्युक्तम् विशिष्टं तथा पारमार्थिकोत्पादव्ययप्रौव्यमयमित्यर्थः / जगत्-जगत्पदप्रतिपाद्यम् , विश्वम् / अनादिप्रवाहापेक्षया सदातनम् / एव-व्यवस्थायाम् / तेन नेश्वरादिकृतं नवा प्रधानपरिणामादिकृतमिति लभ्यते / आहु:-कथयन्ति / Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य . [ सप्तमः सूरिवरैर्जगत उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तत्व व्यवस्थापितन्तत्रोत्पाद:"उत्पन्नमिदम्” इति बुद्धिसाक्षिको धर्मविशेषः, सद्विविधः, प्रयोगजनितो विस्रसाजनितश्च, तयोः पुरुषव्यापारजन्यः प्रथमः, स च मूर्तिमद्दव्यारब्धावयवकृतत्वात् समुदयवादः, अत एवासावपरिशुद्ध इति गीयते, तदुक्तम् | उप्पाओ दुवियप्पो, पोगजणिो अ वीससा चेव / __ तत्थ य पोगजणिो , समुदयवानो अपरिसुद्धो // 3 // 32 // . इति सम्मतिसूत्रे गाथा / अत्रापरिशुद्धत्वं स्वाश्रययावदवयवोत्पादापेक्षया पूर्णस्वभावत्वम्, अपूर्णावयवस्य घटस्योत्पद्यमानस्य साकल्येनोत्पन्नत्वव्यवहाराभावात् / ननूत्पादस्य भवदुक्तं प्रयोगजन्यत्वमनुपपन्नम्, प्रयत्नजन्यत्वस्य घटादावेव सत्त्वात्, उत्पादस्य पुनराधक्षणसम्बन्धरूपस्य तजन्यवाभावात् इतिचेन्न “मुद्गरपाताद् नष्टो घटः” इति विश्वजनीनव्यवहारतो नाशे मुद्गरपातजन्यत्ववत् "पुरुषव्यापारादुत्पन्नो घटः" इति सर्वजनीनव्यपदेशतः पुनरुत्पादेऽपि पुरुषव्यापारजन्यत्वस्यावश्यकत्वात्, विविच्याननुभूयमानत्वेनोत्पादापलापे स्वीकृते च नाशस्याप्यपलापप्रसङ्गात् , उत्पत्तेराद्यक्षणसम्बन्धेनान्यथासिद्धौ नाशस्यापि चरमक्षणसम्बन्धनाशेनान्यथा सिद्धेः सुवचत्वात्, अन्यत्र तदाधारताप्रत्ययस्योत्पत्त्याधारताप्रत्ययस्येवावच्छेदकत्वेनोपपत्तेः / यदि च घटप्रतियोगिकत्वेन नाशो विलक्षण एवानुभूयत इति चेत् तदा तथोत्पादोऽपि विलक्षण एवेति तुल्यम् / किञ्चैवमाद्यक्षणे ' आद्यक्ष* उत्पादो द्विविकल्पः प्रयोगजनितश्च विस्रसा चैव। .. तत्र च प्रयोगजनितः समुदयवादोऽपरिशुद्धः / / 3 / 32 / Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ].. कल्पलतावतारिका [ 151 णसम्बन्धवान् घट: "इतिवत् आद्यक्षण उत्पन्नो घट." इति प्रयोगो न सूपपादः स्यादिति न किञ्चिदेतत् / पुरुषव्यापाराजन्य उत्पादो द्वितीयः, पुरुषतरकारकव्यापारजन्यत्वं तु स्वरूपकथनमेव, न तु लक्षणम्, प्रायोगिकेऽतिव्याप्तेः / सद्विविधः-समुदयजनित ऐकत्विकश्च। तत्र मूर्तिमद्व्यावयवारब्धः समुदयजनित: इतरश्चैकत्विकः, आद्योऽभ्रादीनामुत्पादः, घटादीनामप्यप्रथमतया विशिष्टनाशस्य विशिष्टोत्पादनियतत्वात् / न हि मूर्तावयवसंयोगकृतत्वं समुदयजनितत्वम् विभागकृतपरमाण्वाद्युत्पादेऽव्याप्तः, किन्तु मूर्तावयवनियतत्वम् / द्वितीयस्तु, गगनधर्माधर्मास्तिकायानामवगाहकगन्तृस्थातृद्रव्यसन्निधानतोऽवगाहनगतिस्थितिक्रियोत्पत्तेरनियमेन स्यात् परप्रत्ययः, मूर्तिमदमूर्तिमदवयवद्रव्यद्वयोत्पाद्यत्वात् / अवगाहनादीनां स्यादैकत्विकः स्यादनकत्विकश्चेति भावः / तदुक्तम् / साभाविओ वि समुदयकउव्व एगत्तिउव्व होजाहि / . आगासाईआणं तिण्हं . परपच्चोऽणिमा // 3 // 33 // ___ इति सम्मतिगाथायाम् / .. व्ययोऽपि स्वाभाविकः प्रयोगजनितश्चेति द्विविधः, तद्वयातिरिक्तस्य वस्तुनोऽभावात्। पूर्वावस्थाविगमव्यतिरेकेणोत्तरावस्थोत्पत्त्य. नुपपत्तेः / न हि बीजादीनामविनाशेऽङ्कुरादिकार्य्यप्रादुर्भावो दृष्टः / नचावगाहगतिस्थित्याधारत्वं तदनाधारत्वस्वभावप्राक्तनावस्थाध्वंसमन्तरेण संभवतीति। . स्वाभाविकोऽपि समुदयकृतो वैकल्पिको वा भविष्यति / आकाशादिकानां त्रयाणां परप्रत्ययोऽनियमात् // 3 // 33 // Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य . [पष्ठः तत्र समुदय जनित उभयत्रापि द्विविधः, एकः समुदयविभागरूपः, यथा पटादेः कार्य्यस्य तन्त्वादिकारणपृथक्करणम्, अन्यश्वार्थान्तरभावगमनरूपः, यथा मृत्पिण्डस्य घटार्थान्तरभावः, नाशत्वं चास्याजनकस्वभावाऽपरित्यागे जनकत्वायोगात्, नचैवं घटविनाशे मृत्पिण्डप्रादुर्भावप्रसक्तिः, पूर्वोत्तरावस्थयोः स्वभावतोऽसङ्कीर्णत्वात् , वस्त्वन्तररूपे वस्त्वन्तररूपस्योत्पादयितुमशक्यत्वात् / ऐकत्विकनाशश्चैकत्विकोत्पादवत् वैस्रसिकभेद एवेति / तदुक्तं सम्मतिगाथायाम् + विगमस्स वि एस विही, समुदयजणिअम्मि सो उ दुविअप्पो। ____ समुदयविभागमेत्तं, अत्यंतरभावगमरणं वा // 3 // 34 // स्थितिश्चाविचलितस्वभावरूपत्वाद् न विभज्यते, तद्युक्तत्वं च जगतः कथश्चित्तद्रूपत्वात् , तथाहि त्रयोऽप्युत्पादादयो भिन्नरूपावच्छेदेन भिन्नकालाः, घटोत्पादसमये घटविनाशस्य घटविनाशसमये घटोत्पादस्य तदुत्पादविनाशयोरुत्पत्तिविनाशानवच्छिन्नकालसम्बन्धरूपायास्तस्थितेर्घटविनाशविशिष्टघटरूपमृत्स्थित्योर्वा विरोधात्, तथा प्रत्येकमपि देशकात्याभ्यां भिन्नकालता, उत्पद्यमानस्यापि पटस्य देशेनोत्पन्नत्वात् , देशेन चोत्पत्स्यमानत्वात्, प्रबन्धेन चोत्पद्यमानत्वात् / विगच्छतोऽपि देशेन विगतत्वात्, देशेन च विगमिष्यत्त्वात् , प्रबन्धेन च विगच्छत्वात् , तिष्ठतोऽपि देशेन स्थितत्वात् , देशेन च स्थास्यत्त्वात्, प्रबन्धेन च तिष्ठत्त्वादिति / एकरूपाद् द्रव्यादर्थान्तरभूतादभिन्नकालाश्चैतेऽविशिष्टाः सन्तोऽभिन्नप्रतियोगिविशिष्टा वा कुशूल नाशघटोत्पाद-मृत्स्थितीनामेककाल+ विगमस्याप्येष विधिः समुदयजनिते स तु दिविकल्पः / / समुदयविभागमा त्रमर्थान्तरभावगमनं वा // 3 // 34 // Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तबकः / कल्पलतावतारिका [ 153 त्वादिति, ततोऽनन्तरभूता अपीति मन्तव्यम् / एवञ्चोत्पादादि. त्रयेण त्रैकाल्येन भेदाभेदाभ्यां भङ्गसङ्गतिर्द्रव्यस्य सूक्ष्मधिया भावनीया / ठ्यात्मकत्रिकालात्मकतयैकवस्तुनोऽनन्तपर्यायात्मकत्वात् / ___ न चैवमनन्ते काले भवतोऽनन्तप-यात्मकैकद्रव्यस्योत्पत्तावपि कथमेकक्षणे तदुपत्तिः ? इति परिशङ्कनीयम्। एकक्षणेऽप्यनन्ताना. मुत्पादानां तत्समानां विगमानां तन्नियतस्थितीनाश्च सम्भवात् / तथाहि- यदैवानन्तानन्तप्रदेशिकाहारभावपरिणतपुद्गलोपयोगोपजातरसरुधिरादिपरिणतवशाविर्भूतशिरोऽङ्गुल्याद्यङ्गोपाङ्गभावपरिणतस्थूलसूक्ष्मसूक्ष्मतरादिभिन्नावयव्यात्मकस्य कायस्योत्पत्ति:, तदैवानन्तानन्तपरमाणूपचितमनोवर्गणापरिणतिलभ्यमनउत्पादोऽपि भवति / तदैव च वचनस्यापि कायांकृष्टान्तरवर्गणोत्पत्तिप्रतिलब्धवृत्तिरुत्पादः, तदैव च कायात्मनोरन्योन्यानुप्रवेशाद् विषमीकृतासंख्यातात्मप्रदेशे कायक्रियोत्पत्तिः, तदैव च रूपादीनामपि प्रतिक्षणोत्पत्तिनश्वराणामुत्पत्तिः, तदैव च मिथ्यात्वाऽविरतिप्रमादकषायादिपरिणतिसमुत्पादितकर्मबन्धनिमित्तागामिगतिविशेषाणामप्युत्पत्तिः, तदैव चोत्सृज्यमानोपादीयमानानन्तानन्तपरमाण्वापादिततत्प्रमाणसंयोगविभागानामुत्पत्ति:, किंबहुना ? यदैवैकद्रव्यस्योत्पत्तिः, तदैव त्रैलोक्यान्तर्गतसमस्तद्रव्यैः सह साक्षात् पारम्पर्येण वा सम्बन्धानामुत्पत्तिः, सर्वद्रव्यव्याप्तिव्यवस्थिताऽऽकाशधर्माधर्मादिद्रव्यसम्बन्धात् , ईदृशप्रतिपत्यभावश्चास्माद्यध्यक्षस्य तथा तथोल्लेखेन निरवशेषधर्मात्मकवस्त्वप्राहकत्वात् / त्रैलोक्यव्यावृत्तस्वलक्षणान्यथाऽनुपपत्याऽनुमीयते तु निर्षाधमेव तथात्वम् / इतरप्रतियोगिकत्वेनेतराप्तिपृथग्भूतानां ध्यावृत्तीनां स्ववृत्तित्वेन स्वापृथग्भूतत्वात् / नचैवं घटे स्वोत्पादादितदन्यो. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ षष्ठः त्पादादिकमपि प्रमीयेतेति वाच्यम् , व्यावृत्तिद्वारेष्ठत्वात् / अनुवृत्या तु तदभावादेव / अत एव "स्वपरविभागोऽप्येवमुच्छिद्येत" इति निरस्तम् / स्ववृत्त्यनुवृत्तिप्रतियोगित्वेन च परत्वस्य व्यवस्थितेः / अत एव परत्रापि स्वसम्बन्धितामात्रव्यवहारो व्युत्पन्नानामबाध एव / तथा चोक्तं भाष्यकृता विशेषावश्यकभाष्ये * जेसु अणाएसु तो ण णजए णजए अगाएमु / किह ते ण तस्स धम्मा घडस्स रूवाइधम्म व्व // ___ तत्र विसदृशैः पटत्वादिभिः परंपर्यायैर्नास्ति घटद्रव्यम् सदृशैस्तु सत्वद्रव्यत्वपृथिवीत्वादिभिर्व्यञ्जनप-यैरस्त्येव तत् / साधारणासाधारणस्य सामान्यविशेषरूपम्य वस्तुनो गुणप्रधानभावेन सदादिशब्दवाच्यत्वात् / .. ___ अर्थपर्यायैस्तु ऋजुसूत्राभिमतैः सदृशैरपि नास्ति अन्योन्यव्यावृत्तस्वलक्षणग्राहकत्वात्तस्य, स्वपर्यायैरपि प्रत्युत्पन्नैतत्समयेऽन्त्येव, विगतभविष्यद्भिन्तु यथाकथश्चिदस्ति, कथश्चिद् नास्ति तत्काले तच्छक्त्या तस्यैकत्वात् , तद्रूपव्यक्त्या च भिन्नत्वादिति / प्रत्युत्पन्नैरप्येकगुणकृष्णत्वादिभिरनेकगुणैर्भजनेति / एवं स्वत: परतो वाऽनुवृत्ति. व्यावृत्त्याद्यनेकशक्तियुक्तोत्पादादित्रैलक्षण्यलक्षणमनेकान्तात्मकं जगदिति विभावनीयम्। जगत उत्पादादित्रयात्मकत्वं कथमुत्पद्यत इति चेच्छ्रयताम्लोकः प्रत्येकं सौवर्णघटमुकुटस्वर्णान्यभिलषन्नेकदा तन्नाशोत्पादस्थितिषु सतीषु शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं सहेतुकं याति, तदैव घटार्थिनो घटनाशा * येष्वज्ञातेषु ततो न ज्ञायते ज्ञायते च ज्ञातेषु / .. . कथं ते न तस्य धर्मा घटस्य रूपादिधर्मा इव / / . Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [155 च्छोकः, मुकुटार्थिनस्तु तदुत्पादात्प्रमोदः, सुवर्णार्थिनस्तु पूर्वनाशापूर्वो त्पादाभावान्न शोको न वा प्रमोदः किन्तु माध्यस्थ्यमिति दृश्यते / इदश्च वस्तुनस्त्रलक्षण्यं लक्षणं विनाऽनुपपन्नम्, घटनाशकाले मुकुटोत्पादानभ्युपगमे तदर्थिनः शोकानुपपत्तेः, घटादिविवर्तातिरिक्तसुवर्णद्रव्यानभ्युपगमे च सुवर्णार्थिनो माध्यस्थ्यानुपपत्तेः / न च सुवर्णसामा. न्यार्थिनो यत्किश्चित् सुवर्णनाशेऽपि शोकाभावात् अपूर्वेच्छाभावेन च प्रमोदाभावादर्थादुत्पद्यते माध्यस्थ्य मिति वाच्यम् तथापि घटनाशानन्तरमेव मुकुटोत्पादाभ्युपगमेऽन्तरा - यावत्सुवर्णभावे शोकस्यैव प्रसङ्गात् , दोषविशेषात्तदननुभवेन शोकाभावोऽपि विशेषदर्शिनो दुर्घटः / न च सुवर्णसामान्याभावोऽपि सुवर्णसामान्येच्छाविघातकज्ञानविषय एकः परस्य युज्यते, अनुभवेन तदैक्याभ्युपगमे च तत्तद्विवर्तानुगतसुवर्णसामान्यस्याप्यनुभवसिद्धस्य प्रत्याख्यातुमशक्यत्वात् , गौ. णीकृतविशेषायास्तद्विषयकेच्छाया एव तद्विषयकप्रवृत्तिहेतुत्वात् / नच शोकादिकं निर्हेतुकमिति वक्तु शक्यम् , सर्वदा सत्त्वस्याऽसत्त्वस्य वा प्रसङ्गात् / नच युष्माकमपि तत्र घटमुकुटोभयार्थिनो युगपच्छोकप्रमोदोत्पादः इति वाच्यम्, एकत्रोभयार्थिप्रवृत्त्ययोगात् / एकत्र देशे तत्प्रवृत्तौ चोभयस्य कथञ्चित्प्रत्येकातिरेकेण दोषाभावात् / येन रूपेण यत्रेच्छा तेन रूपेण तन्नाशोत्पादस्थितिज्ञानानामेव शोकप्रमोदमाध्य. स्थ्यहेतुत्वात् , अनेकान्तस्याप्यनेकान्तानुविद्धैकान्तगर्भत्वात् / . . एतेन "उत्पादस्थितिभङ्गाना-मेकत्र समवायत.। प्रीतिमध्यस्थताशोकाः स्युर्न स्युरिति दुर्घटम्" इत्यभिप्रायापरिज्ञानविजृम्भितं मण्डनमिश्रकृतखण्डनमपास्तम् , नहि घटमुकुटरूपापेक्षावुत्पादनाशावेव सुवर्णरूपापेक्षावपि येनाव्यवस्था भवेदिति / Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ षष्ठः - ___ नचानेकान्तवादे तत्सत्त्वेऽपि तदभाषज्ञानात् प्रवृत्त्यध्यस्थया श्रीत्याद्यव्यवस्थापि येन रूपेणेच्छा तेन रूपेण तदभावज्ञानस्यैव प्रवृत्ति विघातकत्वात्। एतेनापि "नैकान्तः सर्वभावानां, यदि सर्वविधागतः / अप्रवृत्ति निवृत्तीदं, प्राप्तं सर्वत्र ही जगत् // " इति .. सर्वस्वहानिजनित इव महान मण्डनमिश्रगृहशोको निवारितः / अन्यथाप्येतदुत्पादस्थितिध्रौव्यं प्रत्येक वस्तूनामभ्युपगन्तव्यम्। तथाहि क्षीरभोजनव्रतो दधि न भुक्ते, यदि च दन: पयस एकान्ततोऽभेदः स्यात्तदा तस्य दधि भुञ्जतोऽपि व्रतभङ्गो न स्यात् , ततो दधिपयसोः कश्चिद् भेदोऽङ्गोकरणीयः / एवं दधिव्रतोऽपि पयो न भुक्त। तथाऽ. गोरसत्रतः (बालनालादिभोज नव्रतः) दुग्धदधिनी नात्तीति गोरसभावेन द्वयोरभेदः, अन्यथा कृतगोरसप्रत्याख्यानस्य दुग्धाद्यकैकभोजनेऽपि न प्रतभङ्गः स्यादिति, तस्माद् द्रव्यपर्यायोभयात्मकत्वात् , सर्व वस्तु ध्यात्मकं ( उत्पादव्ययध्रौव्यापृथग्भूतम् ) मन्तव्यम्। ननु दुग्धदध्नोरेकान्तेन भेद एवेति तस्योत्पादव्ययौ युक्ती, धौव्यं तु गोरसत्वसा. मान्यस्यैव न तु गोरसस्येति चेन्न - इदमेव गोरसं दुग्धभावेन नष्टम् , दधिभावेन चोत्पन्नम् इत्येकस्यैकदोत्पादव्ययाधारत्वलक्षणध्रौव्यभागितया प्रत्यभिज्ञायमानस्य पराकर्तुमशक्यत्वात् / तथा चोक्तम् - “पयोव्रतो न दध्यत्ति, न पयोऽत्ति दधिव्रतः / अगोरसवतो नोभे, तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् // " भत्र पूर्वपक्षिण: सौगतादयः प्रत्यवतिष्ठन्ते, तथाहि-उत्पाद. व्ययादित्रयं परस्पर विरुद्धमेव, तस्मादेकत्र वस्तुन्ये कस्मिन् काले कदाचिदपि त्रयं नैवावस्थातुं शक्नोति यतः प्रागसतः सामग्रीबलादा Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 157 - - - - त्मलाभ उत्पादः, भूतस्यानन्तरमभावो विनाशः, उत्पादविनाशरहित ध्रौव्यमिति नियमात् सर्वेषां भिन्नभिन्नत्वात् / शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यमपि वासनाहेतुकम् , वस्तुदर्शनेनान्तरशोकादिवासनाप्रबोधादेव घटनाशादिविकल्पात् शोकाद्युत्पत्तेः, यदि च वस्तुनिमित्तमेव शोकादिक स्यात्तदा राजपुत्रादिवदन्यस्याप्यविशेषेण तत्प्रसङ्गः, अतः शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जगतस्त्र्यात्मकत्वेन साधनमिति मन्तव्यम् / किञ्च स्याद्वादिनः कचिदप्यधिकृते वस्तुनि निश्चयो नैव युज्यते यतस्तदीयसिद्धान्तापेक्षया प्रमाणं प्रमाणमेव न स्याद्वादव्याघातात् / एवञ्चानेकान्तानुरोधादप्रमाणीभूतं प्रमाणं न निश्चायक घटादिवत् किञ्च संसार्यपि संसार्येव न एकान्तप्रसङ्गात् , मुक्तोऽपि न मुक्त एव एकान्तप्रसङ्गादेव, एवश्व निखिलमेव तत्त्वं तदतद्रूपभावेनाव्यवस्थितम् / अत्राहु: सिद्धान्तिनो जैना:- मुफुटोत्पादो न घटनाशास्वभावस्तुल्यहेतुप्रभवयोईयोस्तयो. रेकस्वभावत्वात्, न च स्वाधारभूतात् स्वर्णात् अन्य एव, तस्मादुत्पादादित्रयं मिथो विरुद्धम् एकत्रैकदैवप्रमीयमाणत्वात् , कल्पितत्वाद्धेतो. रुत्पादव्ययौ न विद्यते इति न वाच्यम् ध्रौव्यबुद्धया ध्रौव्यवत् उत्पादव्ययबुद्धथा तयोः परिच्छेदात् नास्तित्वे एव तयोरभ्युपगम्यमाने ध्रौव्यं परमार्थतोऽस्तीति न प्रमा उत्पादव्ययप्रतीतितुल्ययोगक्षेमत्वाद् ध्रौव्यधियः / एतेन द्रव्यास्तिकमतं निराकृतं वेदितव्यम् / अथ ( केवल ) पर्यायास्तिकमतखण्डनम् - उत्पादव्ययवद् ध्रौव्यपरिच्छेदात् यदि च ध्रौव्यबुद्धिरियं भ्रमात्मिकेति न ततो ध्रौव्यसिद्धिरित्युच्यते तर्हि जगत्यभ्रान्तताप्रकार . एव विलुप्येत / ननु यद्येवं द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकयोयोरपि प्रत्येक Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ षष्ठः मिथ्यात्वन्तदा सिकतासमुदाये तैलवत् तत्समुदायेऽपि सम्यक्त्वाभावात् कथं 'प्रमाणनयैरधिगमः' इति चेत् सत्यम् , नह्यत्र दलप्रचयलक्षणः समुदाय उच्यते पर्यायस्यादलत्वात् , इतरेतरविषयापरित्यागवृत्तीनां ज्ञानानां समुदायाभावात् / तदिदमुक्तं सम्मतिग्रन्थे* तम्हा सव्वे वि णया मिच्छदिछी सपक्खपडिबद्धा / / अण्णोण्णणिस्सिया उण हवंति सम्मत्तसब्भावा // 1 // 21 // ननु यथा बहुमूल्यान्यपि रत्नान्यननुस्यूतानि "रत्नावली” इति व्यपदेशं न लभन्ते, अनुस्यूतानि च तान्येव “रत्नावली” इति व्यपदेशं लभन्ते त्यजन्ति च प्रत्येकसंज्ञाः, तथा नया अपि प्रत्येक सम्यक्त्वव्यपदेशं न लभन्ते समुदितास्तु तं लभन्ते, जहति च दुर्नयसंज्ञाः इति कथं दृष्टान्त इति चेत् , निमित्तभेदेन व्यपदेशभेद एवार्य दृष्टान्तो न तु प्रत्येकसमुदायभाव इति दोषाभावात् / ___ ननु "घट उत्पन्न एव" इति स्यादेशविनिर्मुक्तस्य दुर्नयस्यापि नयवत् स्वविषयावधारकत्वमस्त्त्येव, एवकारेणानुत्पन्नत्वाभावज्ञापनेऽप्युत्पन्नत्वप्रकाशनव्यापारापरित्यागात् , अनेकान्तबलादुभयोपपत्तेः, रक्ततादशायां घटे "न श्यामः" इतिबुद्धिवदिति चेत् सत्यम्, इतर. नयविषयविरोधावधारणे भजनां विना स्वविषयावधारणस्यैवाप्रवृत्तः, प्राक् श्यामत्वेन ज्ञाते इदानीम् इति विनिर्मोकेण "न श्यामः" इति बुद्धिवत् प्रवृत्तस्यापि च तस्यान्यथाविषयत्वरूपमिथ्यात्वोपस्थितेः / तदिदमुक्तं सम्मतिसूत्रगाथायाम् ॐ तस्मात् सर्वेऽपि नया मिथ्यादृष्टयः स्वपक्षप्रतिबद्धाः। अन्योन्यनिश्रिताः पुनर्भवन्ति सम्यक्त्वसद्भावाः // 1 / 21) Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तक्कः ] कल्पलतावतारिका [156 / णिययवयणिजसच्चा सव्वणया परविनालणे मोहा / - ते उण ण दिट्रसमको विभयइ सच्चे व अलिए वा // 1 / 28 / अस्यार्थ:- निजकवचनीये-स्वविषये परिच्छेद्ये / सत्या:सम्यग्ज्ञानरूपाः / सर्वनया:-संग्रहादयः, तद्वति तदवगाहित्वात् / परविचालने-परकीयविषयोत्खनने / मोहा:-मुह्यन्तीति तथा असमर्था इंति परविषयस्यापि सत्यत्वेनोन्मूलयितुमशक्यत्वात् , तदभावे स्व विषयस्याप्यव्यवस्थिते:, परस्परं नान्तरीयकत्वात्, अतः परविषयस्याभावे म्वविषयायाप्यसत्त्वात् तत्प्रत्ययस्य मिथ्यात्वमेवेत्यवधारयन् दृष्टसमयो ज्ञाताऽनेकान्तः पुनस्तान् नयान् न विभजते सत्यानलीकान् वा किन्वितरनयविषयसव्यपेक्षतया 'अस्त्येव द्रव्यार्थतः” इत्येवं भजनया स्वनयाभिप्रेतमर्थं सत्यमेवावधारयति, यद् यत्र यदपेक्षयाऽस्ति तस्य तत्र तदपेक्षया ग्राहकत्वेन नयप्रामाण्यात् / अत एव च द्रव्यास्तिकादेः प्रत्येकमित्थंरूपतया सत्त्वमनित्थरूपतया चासत्त्वं परिभाषितम् - / दवट्रिउत्ति तम्हा णत्थि णो णियमसुद्धजातीओ। _ न य पज्जवट्रिनो णाम कोइ भयणाइ उ विसेसी // 1 / 6 / सम्मतिग्रन्थे / प्रागनुभूतरूपाविर्भवनमुत्पादः स्वनान्तरीयकप्राक्प-यनाश निजकवचनीयसत्याः सर्वनयाः परविचालने मोहाः / ___तान् पुनर्न दृष्टसमयो विभजते सत्यान् वाऽलीकान् वा / / 1 / 20 / / द्रव्यार्थिक इति तस्मान्नास्ति नयो नियमशुद्धजातित: / न च पर्यायास्तिको नाम कोऽपि भजनया तु विशेषः / / 1 / 9 / . Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. ] शास्त्रवातासमुच्चयस्य [षष्ठः रूपहेत्वन्तरस्वभावः, अधिकृतरूपोत्पाद एव प्राक्तनरूपनाशप्रतीतेर्युतत्वात् , तदजनकस्वभावपरित्यागसमनियतत्वात् तज्जननस्वभावत्वस्येति / विनाशश्च भूताभवनरूप उत्पादविपर्यय: स्वीकरणीयः, प्रकृतरूपनाशस्येतररूपोत्पादानान्तरीयकत्वानुभवात, दीपादिविनाशेऽपि तमःपर्यायोत्पादानुभवस्य जागरूकत्वात् तदतद्रूपनाशोत्पादयो. रेकसामग्रीप्रभवत्वाच्च / एवं ध्रौव्यमप्युपादव्ययाधारस्वभावात्मकं तथा. प्रतीतेस्तदुभयाविनाभूतं स्वीकार्य नत्वन्यथाभूतम् , अन्यथोत्पादव्ययध्रौव्यत्रितयमपि कथाशेषतामापद्येत, परस्परानुविद्धरूपत्वात् , अधिकृतान्यतराभावे तदितराभावनियमात्, तथाहि-ध्रौव्यव्यतिरेकेणो. त्पादव्ययौ न सङ्गती, सर्वदा सर्वस्यानुस्यूताकारव्यतिरेकेण विज्ञानपृथिव्यादिकस्याप्रतिभासनात् , एवमुत्पादव्ययव्य तिरेकेण ध्रौव्यमप्यसङ्गतम् , तथाहि-"दुग्धादौ दध्यादिकं सदेव" इति सांख्यः, दुग्धादेरेव दध्यादिरूपेण व्यवस्थितत्वात् / “तदव्यतिरिक्त विकारमात्रमेव कार्यम्” इति सांख्यविशेष: / "न कार्य कारणे प्रागस्ति किन्तु ततः पृथग्भूतमेव सामग्रीतो भवति न तु कारणमेव कार्यरूपेण व्यव तिष्ठते परिणमते वा" इति वैशेषिकादयः / न च कायं कारणं वाऽस्ति व. मद्वैतमात्रमेव तत्त्वम् इत्यपरः / तत्र "दुग्धादौ दध्यादिकं सदेव" इति सांख्यमतं न युक्तम्, कारणब्यापारवैफल्यात् , न हि तेन कार्योत्पत्तिः तदभिब्यक्तिः, पावरणविनाशो वा कर्तुं शक्यते, तदुत्पत्त्यभिब्यक्त्योरपि सत्त्वे कारक. न्यापारवैफल्यात् , असत्त्वेऽपसिद्धान्तात् , आवरणविनाशेऽपि न तत्साफल्यम् असतो भावस्योत्पादवत् सतो भावस्य नाशाभावात्। नपान्धकारषत् तदावारक किश्चिदुपलभ्यते / Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तकः कल्पलतावतारिका [161 - अपि च कारणकाले कार्यस्य सत्त्वे स्वकाल इव कथमसौ तेनाब्रियते ? कथं च मृत्पिण्डकार्य्यतया घटो व्यपदिश्यते न त्वन्यथापटादिवत् / असत्त्वे च नावृतिः, अविद्यमानत्वादपसिद्धान्तश्च, विवेचितं चेदं चार्वाकवार्तायाम्, निरस्तश्च सांख्यवार्तायां सत्कार्यवादोऽपीति न किञ्चिदेतत् / ___यदपि "कारणात् कार्य्यमत्यन्तं पृथग्भूतमेव तदानितत्वेव तस्यो. त्पत्तेश्च न पृथगुपलम्भः” इति वैशेषिकादीनां मतम्, तदपि समवायनिषेधात् अन्यस्य च सम्बन्धस्याभावादनुपपन्नमेव / किश्चावयवेभ्योऽवयविन एकान्तभेदे एकदेशरागे सर्वस्य रागः स्यात् , एकदेशावरणे च सर्वस्यावरणं भवेत्, रक्तारक्तयोरावृतानावृतयोश्च भवदभ्युपगमेनैकत्वात् / ... योऽप्याह "कार्यकारणातिरिक्त ध्रुवमद्वैतमात्रं तत्त्वम्" इति तन्मतमपि नो समीचीनम् , कार्यकारणोभयशून्यस्याद्वैतस्य गगनकमलसब्रह्मचारित्वात्। किञ्च "अद्वैतम्" इति पर्युदासः, प्रसज्यप्रति. षेधो वा ? प्रसज्यपक्षे प्रतिषेधमात्रपर्यवसानाद् नाद्वैतसिद्धिः, प्रधानो“पसर्जनभावनाङ्गाङ्गिभावकल्पनायां द्वैतप्रसक्तः। प्रयुंदासपक्षेऽपि द्वैत‘प्रसक्तिरेव प्रमाणप्रतिपन्ने द्वैते तत्प्रतिषेधेनाद्वैतसिद्धेः / अपि च द्रव्या द्वैते रूपादिभेदाभावप्रसङ्गः / नच चक्षुरादिसम्बन्धात् तदेव द्रव्यं 'रूपादिप्रतिपत्तिजनकमिति वाच्यम् सर्वात्मना तत्सम्बन्धे सर्वदा तथैव प्रतीतिप्रसक्तः, रूपान्तरस्य तद्व्यतिरिक्तस्याभ्युपगमे चाद्वैतव्याघातात् / अत एकत्रैवाधिकृतघटादिवस्तुनि विवक्षितकाले उत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणमुक्तरीत्या भिन्नापेक्षत्वात् ( अभूतभवनभूताभवनतदुभयाधारस्वभावत्वभेदाद्वा) न्याय्यमेव, निमित्ताभेदे त्रयमेकत्र न युज्यते भिन्नापेक्षाणामेकापेक्षत्वायोगात् , एकस्य भेदायोगाद्वा / Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 ] शाखवातासमुच्चयस्य [सप्तमः यञ्च पूर्व शोकप्रमादादिवासनाहेतुक परिकीर्तित पूर्वपक्षिणा नतु भिन्नवस्तुनिमित्तकमिति तद्युक्तम् - यतो हि शोकादिजनकत्वेन सम. नन्तरज्ञानक्षणलक्षणा सा वासना न कदाचिनिहेतुका भवितुमर्हति, निर्हेतुकत्वे तस्या उत्पत्तिशीलत्वे च सदाऽनुत्पत्त्यापत्तिरिति / व्यवस्थापितश्चायमर्थः यतः स्वभावतो जातमेकं नान्यत्ततो भवेत् / . कृत्स्नं प्रतीत्यते भूतिभावत्वात्तत्स्वरूपवत् // 1 // अन्यच्चैवंविधं चेति यदि स्यात् किं विरुध्यते / तत्स्वभावस्य कात्स्न्ये न हेतुत्वं प्रथम.प्रति // 2 // इत्यादिना ग्रन्थेन श्रीहरिभद्रसूरिणाऽनेकान्तजयपताकादौ / स्याद्वादिनः कचिदप्यधिकृते वस्तुनि निश्चयो न युज्यते इति यत्पूर्वपक्षिणोदीरितम् तदपि न समीचीनम् , तस्य निश्चयस्यैकान्तनिबन्धनत्वात् / तथाहि-न तावदस्माकमाईतानां माने कथञ्चिदमा. नत्वसमावेशादप्रामाण्यसंशयादानिश्चयः, मानत्वाऽमानत्वयोः कथश्चिदविरोधात् अवधृतविरोधयोधर्मयोरेकत्र धर्मिणि प्रतिभासस्यैव संश. यत्वात् , प्रत्यक्षं मानमेवेति कथम् , अनुमानमानत्वाभावात् , प्रत्यक्षस्य स्वमानत्वेनैव मानत्वात्, अनुमानमानत्वेन चामानत्वादिति / __ अत्र नैयायिकादयः-"ननु प्रत्यक्षस्यानुमानान्यत्वेऽपि प्रत्यक्ष मानमेव' इति प्रयोगो न दुर्घट:," 'न हि मानमेव' इत्यत्र कात्स्न्यमेव. कारार्थः, कस्याप्येकस्य कृत्स्नमानरूपत्वाभावात् , किन्त्वयोगव्यव. च्छेदः, तत्र च व्युत्पत्तिवशाद् मानत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकायोगो. पस्थितेर्न दोषः, प्रत्यक्षेऽनुमानत्वावच्छिन्नायोगसत्त्वेऽपि मानत्वावच्छिन्नायोगाभावात्। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 163 अत्रेयमेवकारमर्यादाऽवसेया, तथाहि-विशेष्यसङ्गतैवकारस्यान्ययोगव्यवच्छेदोऽर्थः, यथा “पार्थ एव धनुर्धरः” इत्यादौ, विशे. षणसङ्गतैवकारस्यायोगव्यवच्छेदोऽर्थः, यथा "शङ्खः पाण्डुर एव" इत्यादौ, क्रियासङ्गतैवकारस्यात्यन्तायोगव्यवच्छेदोऽर्थः, यथा “सरोज नीलं भवत्येव" इत्यादौ / अत्र तत्तद्विशेष्यसङ्गतैवकारादेस्तत्तदन्ययोगव्यवच्छेदादौ शक्तिरिति / अपरे पुनः एवकारस्यात्यन्ताभावः, अन्योन्याभावश्चार्थः / "पृथिव्यां गन्धः” इत्यत्र पृथिवीपदे पृथिव्यन्यस्मिल्लक्षणया गन्धे प्रकृत्यान्वितविभक्त्यर्थस्य लाक्षणिकार्यान्वितविभक्त्यान्वितस्यैवकारार्थव्यवच्छेदस्य वाऽन्वयः / “पार्थ एव धनुर्धरः" इत्यत्र शक्ये पार्थे विशेषणस्य धनुर्धरस्य तादात्म्येन, लक्ष्ये च पार्थान्यस्मिन् धनु. धरान्योन्याभावस्याधाराधेयभावेन / "शीत एव स्पर्शो जलवृत्तिः" इत्यत्र शीतपदोपस्थापितयोः शीततदन्ययोरभेदेन स्पर्शेऽन्वयः, शीता. न्वितस्पर्शे जलवृत्तितादात्म्यम्, शीतान्यस्पर्शे च जलवृत्तेरन्योन्या. भाववत्त्वं प्रतीयते” इति वदन्ति / ' - अन्ये च-अन्यो व्यवच्छेदश्च तदर्थः, व्यवच्छेदोऽपि द्वयी अत्यन्ताभावश्च अन्योन्याभावश्च / एवकारे च प्रायेण समभिव्याहृतप्रातिपदिकसमानविभक्तिकत्वम् ; विभक्तिश्रवणन्तु न लुप्तत्वात् , स्वभाववैचित्र्याच। तदर्थेऽन्यस्यान्वयो न व्यवच्छेदस्य समभिव्याहृतप्रातिपदिकार्थस्य चैवकारोपस्थितेऽन्यस्मिन्नप्यन्वयः, एवमन्वयान्तरनियमोऽपि स्वीयैकार्यान्वितार्थान्तरबोधकत्वमपि तस्य स्वभाववैचि. त्र्यादेव / एवं "पृथिव्यामेव गन्धः' इत्यत्र पृथिव्यां गन्धः, पृथिव्यन्यस्मिन् न गन्धः इत्यन्वयः। "चैत्रो जलमेव भुक्ते" इत्यत्र चैत्रो जन Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [सप्तमः भुंक्ते जलान्यद् न भुक्ते इति। "पार्थ एव धनुर्धरः" इत्यत्र पार्थो धनुर्धरः, पार्थान्यो न धनुर्धरः / “शङ्खः पाण्डुर एव" इत्यत्र शङ्खः पाण्डुरः, न पाण्डुरान्यः इति निगदन्ति। - अत्रोपाध्यायाः-"प्रत्यक्ष मानमेव" इत्यत्र मानत्वायोगव्यवच्छेदोऽस्तु, मानान्ययोगव्यवच्छेदो वा, तथापि प्रत्यक्षेऽनुमानत्वेन न मानत्वम् प्रत्यक्षमनुमानत्वेन न मानम्' इति प्रतीत्या विशेषरूपेण सामान्याभावस्य विशेषरूपेण सामान्यभेदस्य वा सिद्धौ न सर्वथा तद्वयवच्छेदः शक्यः, शक्य एव मानत्वत्वपर्यावावच्छिन्नप्रतियोगिताकोऽयोगः, मानत्वत्वपर्याप्तावच्छिन्नप्रतियोगिताको वाऽन्ययोगो व्यव. च्छेत्तम् , विशेषरूपेण सामान्याभावस्यातिरेके तस्य विशेषरूपपर्याप्तावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वात्, अनतिरेके च विशिष्टरूपपर्याप्तावच्छिन्नप्रतियोगिकत्वादिति चेत्- न, तव विशिष्टानतिरेकेण शुद्धापर्याप्तस्य विशिष्टापर्याप्तत्वात् , अतिरिक्तपर्याप्तिकल्पने तत्र विशिष्टनिरूपितत्वतत्सम्बन्धादिगवेषणायामनवस्थानात् , "अनुमानत्वेन न मानत्वम्" इत्यत्रामानत्वस्य मानत्वाऽवृत्तितया व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकामावपर्यवसानात् , अनुमानेऽपि तथाप्रयोगप्रसङ्गात् / __किञ्च व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभावस्य प्रामाणिकत्वाद् मानत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्य घटाभावस्य प्रत्यक्षे सत्त्वात् कथं तद्व्यव. च्छेदः ? मानत्वावच्छिन्नमाननिष्ठप्रतियोगिताकस्य सामान्यरूपेण विशेषाभावसत्त्वे वा तादृशतत्सामान्यनिष्ठप्रतियोगिताकस्याभावस्य व्यवच्छेद्यत्वाद् न दोष इति चेत् न, मानत्वेन मानघटोभयाभावस्य तयात्वात् / मानमात्रनिष्ठप्रतियोगितोपादानाद् न दोष इति चेत न, तथापि "प्रत्यक्षघटौ न मानम्" इति प्रतीतेः / प्रत्यक्षघटोभयत्वावच्छे. Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः / कल्पलतावतारिका [ 165 देन तादृशमानत्वावच्छिन्नाभावस्य सत्त्वात् तत्र तव्यवच्छेदायोगात् , प्रत्यक्षत्वावच्छिन्नाधिकरणताकस्य च तादृशाभावस्य सिद्धथसिद्धिपराहतत्वेन व्यवच्छेत्तमशक्यत्वात् / अथ वैशिष्यव्यासज्यवृत्तिधर्माव. च्छिन्नाधिकरणताकाभावसत्त्वे तदन्यत्वमप्युपादेयमिति चेत् न, य एव हृदे वह्नयभावः स एव हृदपर्वतयोः इत्येकत्वप्रत्ययात् , व्यधिकर. णधर्मावच्छिन्नाधिकरणताकायभावस्य सत्त्वाञ्च, शुद्धाधिकरणताकत्वविशिष्टविशेषणतया तदन्यत्वस्य व्यवच्छेत्तु शक्यत्वाद् न दोष इति चेत् न, “मानत्वेन घटौ मानमेव” इति प्रतीतिप्रसङ्गात् / तत्र निरुक्त. विशेषणतयाऽपि मानान्यत्वमस्तीति चेत् तयैव तर्हि प्रत्यक्षेऽपि तदिति दोषस्तदवस्थ एव तदधिकरणवृत्तित्वान्तर्भावे च भावाभावकरग्वितैकवस्त्वापात इति दिक। तस्मात्तत्तदपेक्षागर्भतत्तदनेकपर्यायकरम्बितत्वाद् वस्तुनस्तथाप्रयोगे तत्तदपेक्षालाभार्थ स्यात्कारमेव प्रयुञ्जते प्रामाणिकाः, अन्यथा निराक क्षमे सर्व वाक्यं प्रसज्येत / इत्थश्च स्यात्प्रत्यक्षं मानमेव "स्याद् न मानमेव" इत्याद्येव प्रयुज्यमानं शोभते, अनेकान्तद्योतकेन स्यात्पदेन तत्तदपेक्षोपस्थितेः,अन्यथा मानत्वस्य मानान्यत्वव्यवच्छेदस्य च सकलमानव्यक्त्यपृथग्भूतस्य सापेक्षप्रत्यक्षापृथग्भावप्रतीतौ तदपेक्षाऽविषयत्वरूपाऽप्रामाण्यापातात् / न चेदेवम् पाकरक्ते घटे "अयं श्याम एव" इति कुतो न प्रयोगः ? कथश्चैतदप्रामाण्यं सकलसिद्धम् ? नह्यत्र न श्यामत्वाभावस्य श्यामान्यत्वस्य वा व्यवच्छेदः, श्यामान्यत्वस्याव्याप्यवृत्तित्वेऽपि प्राक् तदभावात्, व्याप्यवृत्तित्वे च सुतराम् / “श्याम एव" इत्यत्र श्यामान्यरूपवान् व्यवच्छेद्यः, व्यवच्छेदश्चात्रान्योन्याभावः, सचाव्याप्यवृत्तिरिति न दोष इति चेत् न, प्राक् श्याम एव इत्यस्य Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ सप्तमः साधुत्वापत्तेः, श्यामान्यरूपवत्त्वस्य व्यवच्छेद्यत्वे च साधुत्वापत्तिरेव "अयं श्याम एव" इत्यस्य / नचात्रैतवृत्तिश्यामान्यरूपे एतत्कालवृत्ति. त्वव्यवच्छेदं लक्षणादिना प्रतियतोऽप्रामाण्यम्, अन्यस्य तु प्रामाएयमेवेति वाच्यम् , स्वरसत एव तत्राऽप्रामाण्यव्यवहारात् / अथ च चित्रे घटेऽव्याप्यवृत्तिनानारूपसमावेशवादिनाम् "प्रय नील एव" इति कथन्न प्रयोगः ? न च नीलान्यसमवेतत्वस्यैवान व्यवच्छेद्यत्वाद् नायं दोष इति चेन्न "गगनं नीलमेव" इति प्रतीतिप्रसङ्गात् / न च नीलसमवेतत्वस्यापि प्रत्ययात् गगने च तदभावान्न तथाप्रतीतिप्रसङ्ग इति वाच्यम् तथापि "रूपं नीलमेव" इति प्रत्ययप्रसङ्गात् , जायत एव नील नीलमेवेति चेत् जायते तदा गुणवृत्तिना नीलपदेन, न तु द्रव्यवृत्तिना, आपाद्यते तु द्रव्यवृत्तिना तेनेति / नीलसमवेतद्रव्यत्वमप्यत्र प्रतीयत इति चेत् न, अन्यत्र "नील एव" इत्यतोऽनीलत्वव्यवच्छेदमात्रस्यैव प्रतीतेः / प्रकृतेऽपि नीलावयवमधिकृत्य "इह नील एव" इत्यप्रत्ययप्रसङ्गाच्च, तस्मात् तत्तत्कालदेशाचशापेक्षयैव विधिर्व्यवच्छेदो वा प्रतीयते इति सम्यगवहितैः परिभावनीयम् / यदि कश्चित् "प्रत्यक्ष स्वमानत्वमेवाऽनुमानत्वमिति न सर्वथा मानत्वक्षतिरिति ब्रूयात्, तदपि नो समीचीनम्, यतो हि सर्वभावानां स्वसत्त्वं परासत्त्वं वा नाभ्युपगन्तव्यम् किन्तु कथञ्चिदन्यत्, अभिन्ननिमित्तस्वे सत्त्वस्यैवासत्त्वविरोधात् , भिन्ननिमित्तत्वे तु कथञ्चिद्भिप्रमुभयमेकरूपतामासादयेदपि, यथैकापेक्षयाऽणुरेवाऽपरापेक्षया महा. निति / तथाचोक्तं प्रतीत्यसत्याधिकारे भाषारहस्ये * भिन्ननिमित्तत्तणो ण य तेसिं हंदि भण्णइ विरोहो / वजयघडयाई होइ णिमित्तं पि इह चित्तम् // 1 // भिन्ननिमित्तत्वतो न च तेषां हन्त भण्यते विरोधः / व्याकघटकातीतं भवति निमित्तमपीह चित्रम् // 1 // Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवका ] कल्पलतावतारिका [ 167 अन्ये त्याहुः-दृष्टान्त एवायमसिद्धः, भिन्नापेक्षयोरणुत्वमहत्व. योरेवाभावात् , महत्यपि महत्तमादणुव्यवहारस्यापकष्टमहत्वनिबन्धनत्वेन भाक्तत्वात् , नित्यानित्ययोरणुत्वयोः परमाणुद्वथणुकयोरेव भावात् , एतत्त्रुटावेव विश्रामाद् नास्त्येवाणुत्वम् , त्रुटौ चापकृष्टं महत्वमेवाणुत्वव्यवहारनिवन्धनम् , तच्च नित्यमेव, गगनमहत्त्वावघिकस्त्वपकर्षो न बहुत्वजन्यतावच्छेदकः, त्रुटिमहत्वावधिकोत्कर्षण सांक-पत्त्या तस्यानुगतस्याभावात् , त्रुटिमहत्त्वावधिकोत्कर्षस्य तज्जन्यतावच्छेदकत्वात् , गगनमहत्त्वादेरपि जन्यत्वापातात् , व्यञ्जकत्वं च जातिविशेषेण शक्तिविशेषेण वा "इति नेन्धनादिसंसर्गिणां सूक्ष्मवहन्यादीनां महतां सतामन्धकारे इन्धनादिव्यञ्जकत्वापत्तिः" इति तु मीमांसकानुसारिण:-ते खलु भ्रान्ता एव, "अयमितो महान् इतवाणुः” इति बुद्ध चैकत्र भिन्नापेक्षयोरणुत्वमहत्वयोर्विलक्षणयोरेवानुभवात् "इतोऽणुः" इति प्रयोगम् "एतदपकृष्टमहत्त्ववान्" इत्युपचारेण विवृत्यैतदपेक्षयाऽणुत्वपर्यायापलापे "इतो महान्" इत्यपि "एतदपकृष्टाणुत्ववान्" इति विवृत्य समर्थयतो महत्त्वमेव चापलपतः क: प्रतीकारः 1 महत्त्वमपेक्षां विनैव स्वरसतोऽनुभूयत इति चेत् / सोऽयं स्वरस: परस्परमस्वरसपरिमाणमात्रमेव निरपेक्षमनुभूयते, महत्वाणुत्वे तु सापेक्षे एवेति पुनरनेकान्तेऽनुभवसिद्धो विवेकः / अथ महत्त्वापलापे तदाश्रयस्य प्रत्यक्षत्वं दुर्घटम् , महदुद्भूतरूपवद्द्रव्यस्यैव चाक्षुषत्वनियमात् , अणुत्वापलापे तु न किञ्चिद्वाधकमिति चेत् न, लाघवादुद्भूताणुत्वस्यैव द्रव्यचाक्षुषहेतुत्वात् , उत्कर्षापकर्षावपि परस्याऽऽपेक्षिकाणुत्वमहत्त्वातिरिक्तौ दुर्वचौ, जातिरूपयोस्तयोतुमराक्यत्वात् / एतत् परासत्त्वं परिकल्पितमतो न स्वसत्त्वव्या Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य . [ सप्तमः घातकमिति चेत्, एतादृशस्य परासत्त्वस्य तत्त्वतोऽभावात्, शशशृङ्गवत् , परासत्वस्य तत्त्वत इह ( स्वस्मिन् ) अभावात् को दोष इति चेत् परसत्त्वस्याऽऽपत्तिरेवेति विज्ञेयम् / - अथात्र नैयायिकाः प्रत्यवतिष्ठन्ते ननु वयं 'शृङ्गे शशीयत्ववत् सत्त्वाऽसत्त्वयोः स्वपरापेक्षत्वं कल्पितम्' इत्येव ब्रूमः, न हि सत्त्वे स्वापेक्षत्वं पृथक्त्वादाविव सावधिकत्वरूपम् , निरवधिकत्वात् सत्तायाः / नापि घटाभावे घटापेक्षत्ववत् सप्रतियोगिकत्वरूपम् , निष्प्रतियोगिकत्वात् , भावस्य सत्ताभावस्य च सप्रतियोगिकत्वेऽपि सत्ताप्रतियोगिकत्वमेव न तु परप्रतियोगिकत्वम् इति न परापेक्ष. त्वमस्ति / नापि वृक्षे संयोगतदभावयोर्मूलशाखाद्यवच्छिन्नत्ववद् घटे सत्त्वाऽसत्त्वयोः स्वपरावच्छेद्यत्वरूपं स्वपरापेक्षत्वम् जांतेरेवाव्याप्यवृत्तित्वाभावात् , किं पुन: सत्तायाः ? इति ततः कथं स्वापेक्षया सत्त्वम् , परापेक्षया चासत्त्वमित्याहतानामयं प्रवाद इति / .. अत्रोपाध्यायाः(कल्पलता) / रूपं यदध्यक्षमवैति लोको, वाचाट ! वाचा किमपढ्षे तत् / वक्तुं न शक्तः किमुतासि मन्दो, गुडस्य माधुर्य्यमिवातिमूकः॥ - अन्वयः-- वाचाट ! लोकः, यत् , रूपम् , अध्यक्षम् , भवैति, तत्, वाचा, किम् , अपहुषे, किमुत, अतिमूकः, गुडस्य, माधुर्यम् , इव मन्दः, (स्वम् ) वक्तुम्, न, शक्तः, असि / (कल्पलतावतारिका) . .. वाचाट !-बहुगमुभाषिन् नैयायिकपाश ! लोकः-साधारणी. ऽपि जनः / यत्-बुद्धिविषयीभूतम् / रूपम्-स्वापेक्षसत्त्वपरापेक्षा Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तबकः ] कल्पलतावतारिका - ऽसत्त्वरूपमित्यर्थः / अध्यक्षम्-प्रत्यक्षं यथा स्यात्तथा / अवैतिजानाति / तत्-सर्वसाधारणजनैः प्रत्यक्षी क्रियमाणमपि तादृशं रूपम् / वाचा-वचनमात्रेण / किम्-कथम् / अपहषे-अपलपसि / किमुतआहोस्वित्। अतिमूकः-अत्यन्तं वाक्छक्तिविवर्जितो जनः / गुडस्यशर्करायाः। माधुर्य्यम्-मधुरिमाणम् / इव-यथा / मन्दः-स्वल्पधीः / (त्वम्-नैयायिकपिशुन: ) वक्तुम्-निगदितुम् / न-नहि / शक्त:समर्थः / असि-भवसि / छेकानुप्रासो दृष्टान्तश्चालङ्कारी। ___ तथाहि-नैयायिकाङ्गीकृता सत्ता तावत् समीचीनाऽऽहंततर्कसन्ताडिता दूरमेव पलायिता, नहि स्वरूपसतां भावानां कयाचिदतिरिक्तसत्तया काश्चिदुपकारोऽस्ति स्वतो मधुराया इव सुधाया मधुरद्रव्यान्तरसंयोगेन / नापि स्वरूपामतां तेषां तया कश्चिदुपकारः, खलानामिव सकलार्थसिद्धिहेतुना विपश्चित्प्रपश्चितकलालापेन / कथं च तस्य ( नैयायिकस्य ) जात्यादिषु सद्व्यवहार: तन्मते सत्ताया द्रव्यादित्रये एव स्वीकारेण तत्र सत्ताया अभावात् , एकार्थसमवायेन जात्यादिषु सद्व्यवहार इति न, “इदं सत्” “इदं सत्” इति प्रतीतेः सर्वत्र समानाकारत्वात् / सम्बन्धांशे तस्याः ( प्रतीतेः ) वैलक्षण्य. मेवेति चेत् / हन्त ! प्रकारांशेऽपि तथात्वे बाधकाभाव एवास्तु / अथवा "हरिः" "हरिः" इत्यादौ हरिपदवाच्यत्वमिव सत्पदवाच्यत्वमेव सर्वत्रानुगतमस्तु / सत्पदसङ्केतविषयतावच्छेदकतयैव तत्सिद्विरिति चेत् न, तान्त्रिकाणां परस्परं तत्सङ्केतभेदात् , स्वसङ्केतमात्रस्य चार्थाव्यवस्थापकत्वात् / “घट: सन्" इत्यादावनुभवसिद्धैव सत्तेति चेत् सिद्धैव सा, केवलं तस्या अतिरेक: साधारण्यं च न Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य . [सप्तमः / सिद्धम् "द्रव्यजन्यतावच्छेदकतया तत्सिद्धिरपि कल्पलतायां निरस्ता वेदितव्या, तस्मादुत्पादव्ययध्रौव्ययोगरूपैव सत्ता युक्ता, नान्येति / नचैवमपि" यधुत्पादव्ययध्रौव्ययोगादसतां सत्त्वम् , तदा शशशृङ्गा. देरपि स्यात् / स्वतश्चेत् , स्वरूपसत्त्वमायातम् / तथा "उत्पादव्यय. धौव्याणामपि यद्यन्यतः सत्त्वम् , अनवस्थाप्रसङ्गो दुर्वारः। स्वतश्चेत् , भावस्यापि स्वत एव तद् भविष्यति, इति व्यर्थमुत्पादादिकल्पनम्" इत्यादिप्रश्नानामवकाश: पर्याप्तः, एकान्तपक्षोदीरितदोषस्य जात्यन्त. रात्मके वस्तुन्यप्रसरात् / नहि भिन्नोत्पादव्ययध्रौव्ययोगाद् भावस्य सत्त्वमस्माभिः ( आर्हतैः ) स्वीक्रियते, किन्तूत्पादव्ययध्रौव्ययोगात्म. कमेव सत् स्वीक्रियते, तत्र सत्त्वं सकलव्यक्त्यनुगतं व्यञ्जनप-- यताम् प्रतिव्यक्त्यनुगतं चार्थपर्यायतामास्कन्दति, इत्थमेव सादृश्या. स्तित्व स्वरूपास्तित्व मित्यपि गीयते / तञ्च सत्त्वं सापेक्षमेव सर्वैरनुभूयते, मार्तत्वादिना घट: सन् नतु तन्तुजनितत्वादिना "इदानी घट: सन् नतु प्राक्" इत्याद्यनुभवात् / बुद्धिविशेषकृतापेक्षयाप्यादेशापरा. भिधानया सापेक्षमेव तत् , यथा "अयमेकः अयं चैकः” इति कल्प. नाकृतापेक्षया द्वित्वादीति / एवञ्चेह सप्तभङ्गी प्रवर्तते, तथाहि-स्यादस्त्येव, स्यानास्त्येव, स्यादवक्तव्यमेव, स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव, स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमेव, स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेव, स्यादस्त्येव स्यानास्त्येव स्यादवक्तव्यमेव / एषु सप्तस्वपि प्रकारेष्वेवकारप्रयोगोऽनभिमतार्थव्या. वृत्यर्थम् , अन्यथा प्रतिनियतस्वार्थानभिधानेनानभिहिततुल्यतापत्तः / तथाचोक्तम् वाक्येऽवधारणं तात्र-दनिष्टार्थनिवृत्तये / कर्तव्यमन्यथाऽनुक्त-समत्वात्तस्य कुत्रचित् / / Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 171 ___ स्यात्कार प्रयोगश्च सापेक्षप्रतिनियतस्वरूपप्रतिपत्तये यत्रापि चासो -(स्यात्कारः) न प्रयुज्यते तत्रापि व्यवच्छेदफलैवकारवदर्थात् प्रतीयते, तदुक्तम् "सोऽप्रयुक्तोऽपि वा तज्ज्ञैः, सर्वत्रार्थात् प्रतीयते / यथैवकारोऽयोगादि-व्यवच्छेदप्रयोजनः // 1 // ... तत्र स्वरूपेण घटादिनाऽस्तित्वविवक्षयाऽसत्त्वोपसर्जनसत्त्वप्रतिपादनपर: प्रथमो भङ्गः। पररूपेण पटत्वादिना नास्तित्वविवक्षया च सत्त्वोपसर्जनाऽसत्त्वप्रतिपादनपरो द्वितीयो भङ्गः / शब्दशक्तिस्वा. भाव्यादेकोपसर्जनेतरप्रधानभावेनैव शान्दया: प्रतीतेर्भावात् / यदा तु तद्वस्तु द्वाभ्यामपि धर्माभ्यां युगपदभिधातुमिष्टन्तदा तृतोयो भङ्गः, नहि द्वयोधर्मयोयुगपत् प्राधान्येन गुणीभावेन वा प्रतिपादने किश्चिद्वस्तु समर्थमस्ति, तथाहि-न तावत् समासो द्वयोधर्मयोर्युगपत् प्राधान्येन गुणीभावेन वा प्रतिपादने कश्चित् समर्थः, बहुव्रीहेरन्यपदार्थप्रधानत्वात् , अव्ययीभावस्य विषयाभावात्, द्वन्द्वस्यापि द्रव्यवृत्तेः प्रकृतार्थप्रतिपादकत्वाभावात् ,गुणवृत्तेरपि द्रव्याप्रितगुणप्रतिपादकत्वेन प्रध-नभूतयोर्गुणयोरप्रतिपाद्यत्वात् , तत्पुरुषस्याप्युत्तरपदार्थप्रधानत्वात् , द्विगो: संख्यावाचिपूर्वपदकत्वात् , कर्मधारयस्य गुणाधारद्रव्यविषय. स्वात्,एकशेषस्य चासम्भवात्, द्वन्द्वतुल्यत्वाच / न च समासान्तरसद्भावोऽस्ति येन युगपद् गुणद्वयं समासपदवाच्यतामारकन्देत् , मत एव न विग्रहवाक्यमपि तथा तस्यापि वृत्त्यार्थवबोधकत्वेन वृत्त्यभिन्नार्थ. त्वात् , नच केवलं पदं वाक्यं वाऽन्यल्लोकप्रसिद्धं तथा, तस्यापि पर. स्परापेक्षद्रव्यादिविषयतया तथाभूतार्थप्रतिपादकत्वायोगात् / नच सूर्याचन्द्रमसोः पुष्पदन्तपदवत् शतृशानयोः सत्पदवद् Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ सप्तमः - - - वा साङ्केतिकमेकं पदं तथा वक्तुं शक्यम् , तस्यापि क्रमेणार्थप्रत्याय. कत्वात्, “सकृदुच्चरितं पदं सकृदथं बोधयति" इत्येतन्न्यायार्थः, तेन. नानार्थकशब्दस्थले एकपदादुभयोपस्थितावपि नोभयबोधः / ___यदा च देशोऽस्तित्वे नियम्यते, देशश्च नास्तित्वे, तदाऽवयवाषयविनोः कथञ्चिदभेदादवयवद्वारा "कुण्ठो देवदत्तः' इत्यत्रेव तद्धमर्माणामवयविनि व्यवदेशाच्चतुर्थभङ्गप्रवृत्तिः, एकत्रावयविनि तथाविविक्षायामवक्तव्यतायामेव पर्यवसान स्यादिति नातिप्रसङ्गः, अव. : यवत्वेन च विशिष्टधर्मेण विभज्यैकमादिश्यमानं सुप्रसिद्धमेव, यथैक एव पुरुषो विवक्षितपर्यायेण बालादिना परिणतः कुमारादिना चापरिणत इति, तदिदमुक्तं द्वितीयसम्मतिप्रकरणे ३७तमायां गाथायाम् * अह देसो सम्भावे देसोऽसन्भावपज्जए णियो। तं दवियमत्थि णत्थि य आएस विसेसि.जम्हा // 1 // यदा च देशोऽस्तित्वे वक्तव्यत्वानुविद्धस्वभाव आदिश्यते अप. रश्चदेशोऽस्तित्वनास्तित्वाभ्यामेकदैव विवक्षितोऽस्तित्वानुविद्ध एवावक्तव्यत्वस्वभावे तदा पञ्चमभङ्गप्रवृत्तिः, प्रथमतृतीयकेवलभङ्गव्युदासोऽत्र विवक्षाभेदकृतो द्रष्टव्यः, प्रथमतृतीययोः परस्परानुपरक्तयोः प्रतिपाद्येनागन्तुमिष्टत्वात् , प्रतिपादकेनापि तथैव विवक्षितत्वान् , अत्र तु तद्विपर्ययात् , अनन्तधर्मात्मकस्य धर्मिण: प्रतिपाद्यानुरोधेन तथाभूतधर्माकान्तत्वेन वक्तुमिष्टत्वात् , तदिदमुक्तं सम्मतिप्रकरणे चतुर्थसम्मतावष्टात्रिंशत्तमायां गाथायाम् * अथ देश: सद्भावे देशोऽसद्भावपर्यवे नियतः / . . तद् द्रष्यसस्ति नास्ति चादेश विशेषितं यस्मात् // 1 // . Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 173 - * सब्भावे आइट्रो देसो देसो अ उभयहा जस्स / - तं अस्थि अवत्तन्वं च होइ दवि विअप्पवसा // 1 // यदा च वस्तुनो देश एकोऽसत्त्वेऽवक्तव्यात्वानुविद्धे निश्चितोऽपरश्वासत्वानुविद्धो युगपदुभयथा विवक्षितस्तदा तथा व्यपदेश्यावयववशादवयविनि षष्ठभङ्गव्युदासः प्राग्वत् प्रतिपाद्यजिज्ञासावशात् / तदिदमाह- सम्मतिगाथायाम् x आइटोऽसब्भावे देशो देशो य उभयहा जस्स / तंत्थि अवत्तब्वं च होइ दवियं विअप्पवसा // 1 // - यदा च वस्तुनो देश एकः सत्त्वे नियतः, द्वितीयश्चासत्त्वे, तृतीयस्तूभयथाऽभिधित्सितस्तदा तथाभूतविशेषणाध्यासितस्यानेनैव प्रकारेण प्रतिपादनादीदृशेऽर्थेऽपरभङ्गविषयताप्रसक्तेः सप्तमभङ्गप्रवृत्तिः। तदिदमाह-द्वितीयसम्मतिप्रकरणे चत्वारिंशत्तमायां गाथायाम्- . | सम्भावासम्भावे देसो देसो अउभयहा जस्स / / तं अत्थि णत्थवत्तव्वयं च दवि विअप्पवसा // 1 // नन्वनन्तधर्मात्मके वस्तुनि तत्प्रतिपादकवचनस्य सप्तधापरिकल्पनेऽष्टमोऽपि विकल्पः कथन स्वीक्रियत इति चेन्न पर्यालोचनया फ्लुप्रसप्तभङ्गध्वातिरिक्तस्यान्तर्भावात , तत्परिकल्पनानिमित्ताभावात् , * सद्भाव आदिष्टो देशो देशश्चोभयथा यस्य / तदस्त्यवक्तव्यं च भवति द्रव्यं विकल्पवशात् // 1 // x. आदिष्टोऽसद्भावे देशो देशश्चोभयथा यस्य / तद् नास्त्यवक्तव्यं च भवति द्रव्यं विकल्पवशात् // 11 // / सद्भाव.सद्भावे देशो देशश्चोभयथा यस्य / तदस्ति नास्त्यवतव्यं च द्रव्यं विकल्पवशात् / / 1 / / Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [सप्तमः सावयवात्मकस्य निरवयवात्मकस्य चान्योन्यनिमित्तस्य जिज्ञासायां चतुर्थादिप्रथमादिविकल्पानामेव प्रवृत्तिः। किञ्च मेण धर्मद्वयं गुणप्रधानभावेन प्रतिपादयन् प्रथमद्वितीयावेवभङ्गावाददीत युगपत्तु द्वयमभिधित्सुस्तृतीयमेव, क्रमेण प्राधान्येन द्वयमभिधित्सुराधद्वितीयसंयो. गनिष्पन्नं चतुर्थमेव, एकं विभज्यापरं चाविभज्याभिधित्सुः प्रथमतृतीयसंयोगनिन्दन्नं पश्चमम् , द्वितीयतृतीयसंयोगनिष्पन्नं षष्ठं वा, द्वौ देशौ विभज्य तृतीयं चाविभज्याभिधित्सुराद्यद्वितीयतृतीयसंयोग. निष्पन्नं सप्तममेवेति चतुरादिदेशोपादानेऽपि द्वित्र्यादीनामेकविभाजकोपरागविश्रामाद् न सप्तमाद्यतिक्रमः, एककरदण्डसंयोगे करद्वयदण्ड. संयोगे वा दण्डित्वाविशेषात् / इयं सप्तभङ्गी प्रतिभङ्ग द्विविधा भवति सकलादेशस्वभावा, विकलादेशस्वभावाच, तत्र प्रमाणप्रतिपन्नानन्तधर्मात्मकवस्तुनः काला. दिभिरभेदवृत्तिप्राधान्यात् अभेदोपचाराद्वा यौगपान प्रतिपादकं वचः सकलादेश: तद्विरीतो विकलादेशः / तत्र द्रव्यार्थिकनयगृहीतसत्ताद्यभिन्नानन्तधर्मात्मकवस्तुशक्तिकस्य सदादिपदस्य कालाद्यभेदविशेषप्रतिसन्धानेन पर्यायार्थिकनयपर्यालोचनप्रादुर्भवच्छक्यार्थबाधप्रतिरोधोऽ. भेदवृत्ति प्राधान्यम् , अभेदोपचारश्च पर्यायार्थिकनयगृहीतान्यापोहपर्यवसितसत्तादिमात्रशक्तिकस्य तात्पर्य्यानुपपत्त्या सदादिपदस्योक्तार्थे, लक्षणात्मकः / तत्र कालादय इमेऽष्टौ कथिता:- कालः, भास्मरूपम् , अर्थः, सम्बन्धः, उपकारः, गुणिदेशः, संसर्गः, शब्द इति च तत्र केन कथं तेषामभेदवृत्तिरिति चेत् , अत्रोच्यते यत्कालमस्तित्वं तत्काला: शेषानन्तधर्मा वस्तुन्येकडेति तेषामनन्तधर्माणां कालेनाभेदवृत्तिः / यदेव चास्तित्वस्य तद्गुणत्वमात्म Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका / 175 रूप तदेवान्यगुणानामपीत्यात्मरूपेणाभेदवृत्तिः / य एव चाधारोऽर्थो व्याख्योऽस्तित्वस्य स एवान्यपर्यायाणामित्यर्थेनाभेदवृत्तिः। य एव चासमन्ताद्भावः सम्बन्धोऽस्तित्वस्य स एवान्येषामपि घटवृत्तिधर्माणामिति सम्बन्धेनाभेदवृत्तिः। य एव चास्तित्वेन वस्तुन: स्वप्रकारक. प्रतीतिविषयत्वलक्षण उपकारोऽस्ति स एवान्येषामपीत्युपकारेणाप्य. भेदवृत्तिः / य एव च गुणिन: (घटात्मकद्रव्यस्य) सम्बन्धी देशः क्षेत्रलक्षणोऽस्तित्वस्य स एवान्येषामिति गुणिदेशेनाभेदवृत्तिः। य एव च वस्तुनः संसर्गोऽस्तित्वस्याऽऽधाराधेयभावलक्षण: स एवान्येषामिति संसर्गेणाभेदवृत्तिः / य एव च "अस्ति" इति शब्दोऽस्तित्वधर्मात्मकस्य वस्तुनो वाचकः स एवाशेषानन्तधर्मात्मकस्यापीतिशब्देनाभेदवृत्तिः / अतो हेतोरनेकान्तमतमवलम्ब्यैव सम्यग्मानव्यवस्थानात् , केवलं स्याद्वादिनो नियमेन निश्चयो युज्यते, तथाहि-न तावदध्यचादेकान्तसिद्धिः अनेकान्तस्यैव सर्वैरध्यक्षमनुभवात् , एकस्यैव वस्तुनो वस्त्वन्तरसम्बन्धाविर्भूतानेकसम्बन्धिरूपत्वात् , पितृपुत्रभ्रातृभागिनेयत्वादिविशिष्टैकपुरुषवत.। ____ अत एव परदर्शनाभिमतेऽर्थे स्यात्कारमात्रेण स्वावधारणसम्भवात् कर्मदोषादज्ञाननिमग्न परं पश्यतः स्याद्वादिनो भवति साम्यसम्पत्तिः, परेषान्तु स्वपक्षसिद्धावन्योन्य कलहायमानानां यावज्जीवमपि वक्तृविकल्पानुपरमेण द्वेषानुच्छेदान्नास्त्येव साम्यवार्ताकणिकापीति संसारहेतुत्वात्तेषां ज्ञानमप्यज्ञानमिति परमप्रावचनिकाः परिभापन्ते। ततो मिध्यादर्शनगरलव्यथानिवृत्तये स्याद्वादामृतपानमेव विधेय विवेकिना। तथा चाहुरूपाध्यायाः Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य ( कल्पलता) . ..व्यालाश्चेद् गरुडं प्रसर्पिगरल-ज्वाला जयेयुजवाद् , .. गृह्णीयुर्द्विरदाश्च यद्यतिहठात्, कण्ठेन कण्ठीरवम् // सूरं चेत् तिमिरोत्कराः स्थगयितुं, व्यापारयेयुर्बलं, बध्नीयुर्बत दुर्नयाः प्रसृमराः, स्याद्वादविद्यां तदा // 6 // अन्वय-प्रसर्पिगरलज्वाला:, व्याला:, चेत्, जवात् , गरुडम् , जयेयुः, च, यदि, द्विरदाः, अतिहठात् , कण्ठेन, कण्ठीरवम् , गृहणीयुः, चेत्, तिमिरोत्कराः, सूरम् , स्थगयितुम् , बलम् , व्यापारयेयुः, बत ! तदा, प्रसृमराः दुर्नयाः, स्याद्वादविद्याम् , बध्नीयुः / (कल्पलतावतारिका) प्रसर्पिगरलज्वाला:-प्रसर्पिण्यो विस्फुरन्त्यो गरलज्वालाविषज्वाला येषान्ते तथा / व्याला:-सर्पाः / चेत्-यदि / जवात्वेगात् / गरुडम्-वैनतेयम् खगेश्वरमिति यावत् / जयेयु:-परिभावयेयुः / च-पुन: / यदि-चेत् / द्विरदाः-द्वौ रदौ दन्तावेषामिति द्विरदा हस्तिनः,दन्तादीनां द्वित्वविशिष्टजातिवाचकत्वात्। अतिहठातअत्यन्तं प्रसह्य / कण्ठेन-कण्ठावच्छेदेन / कण्ठीरवम्-सिंहम् / गृह्णीयुः-धरेयुः / चेत्-यदि / तिमिरोत्करा:-अन्धकारनिकरा: / सूरम्-सूर्य्यम् / स्थगयितुम्-आच्छादयितुम् / बलम्-सामर्थ्यम् / व्यापारयेयुः-प्रकाशयेयुः / बत-खेदार्थकमव्ययम् / तदा-तर्हि / प्रसृमराः-प्रसरणशोला: / दुर्नयाः-परदर्शनिस्वीकृतकुत्सितनयाः / स्याद्वादविद्याम्- अनेकान्तविद्याम् , आहेतदर्शनमिति यावत् / Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तबकः ] कल्पलतावतारिका [ 177 बघ्नीयु:-प्रतिबध्नीयुः वाधेरन्नितियावत् / विषज्वालाभयङ्कराः पन्नगा यथा गरुत्मन्तं नो जयन्ति, प्रचुरबलशालिनो मतङ्गजा यथा केसरिण नाकामन्ति घनान्धकारनिकरा अपि यथा सूयं स्थगयितुं न प्रभवन्ति तथैवान्येषां विस्तृता दुर्नया अपि स्याद्वादविद्यां बाधितुं न शक्नुवन्तीति व्यङ्ग यस्यैवार्थस्य प्रकारान्तरेण प्रतिपादनात् पर्यायोक्तमलङ्कारः, तस्य ध्वनावन्तर्भावो ध्वन्यालोकादौ द्रष्टव्यः / अनुप्रासः शब्दालङ्कारो निदर्शना चार्थालङ्कारो द्रष्टव्यः। “अनुप्रास: शब्दसाम्यं वैषम्येऽपि स्वरस्य यत्" "अभवन्वस्तुसम्बन्ध उमापरिकल्पकः” इति तयोर्लक्षणतः / “सर्वेष्वेव प्रभेदेषु स्फुटत्वेनावभासनम् / यद् व्यङ्ग यस्याङ्गिभूतस्य तत्पूर्ण ध्वनिलक्षणम्" इतिध्वन्यालोके श्रीमदानन्दवर्धनाचार्य्याः / (कल्पलता) नयाः परेषां पृथगेकदेशाः, क्लेशाय नैवाहतशासनस्य / सप्तार्चिषः किं प्रसृताः स्फुलिङ्गा, भवन्ति तस्यैव पराभवाय // 7 // अन्वयः-पृथगेकदेशाः, परेषाम् , नयाः, आर्हतदर्शनस्य, कशाय, नैव, सतार्चिषः, प्रसृताः, स्फुलिङ्गाः; तस्य, एष, पराभवाय, भवन्ति, किम् / (कल्पलतावतारिका) ... पृथगेकदेशाः-पृथग्भूताः स्याद्वावाद्यंशरूपाः। परेषाम्-अन्य. दर्शनिनाम् / नया:-स्वस्वसिद्धान्ततत्त्वप्रतिपादकवचनप्रकाराः / आहेतदर्शनस्य-स्याद्वादविद्यायाः / क्लेशाय-परिक्लेशाय, पराभवादिहेतवे इति यावत् / नैव-नहि खलु / भवन्तीतिशेषः / दृष्टान्तेन समर्थयति- सप्तेत्यादि-सप्त-सप्तत्वसंख्याकानि अर्चीषि ज्वाला यस्य स सप्ताचिरग्निस्तस्य तथा / प्रस्ताः-प्रसरणशालिनः / स्फुलिङ्गा: Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 ] . शास्त्रवातासमुच्चयस्य [ सप्तमः कणाः / “त्रिषु स्फुलिङ्गोऽग्निकणः” इत्यमरः / तस्य-अग्नेः / एष-खलु / पराभवाय-पराजयाय / भवन्ति-जायन्ते / किम्प्रश्नार्थकमव्ययम् / "किं कुत्सायां वितर्के च निषेधप्रश्नयोरपि” इति मेदिनी / यथाऽग्नेः सकाशादुत्पन्नास्तदंशभूताः स्फुलिङ्गा न तस्यैव * पराभवाय भवन्ति प्रत्युत तत्सहायभूता एव जायन्ते तथैव स्याद्वाददर्शनस्य पृथगेकदेशभूता एव परेषां नयाः (अंशतः स्याद्वादप्रतिपादकाः साकल्येन तदप्रतिपादकाः) अंशिभूतस्य स्याद्वाददर्शनस्यैव परिक्लेशाय नैव भवितुमर्हन्ति, उपजीव्यर्विरोधादिति भावः। दृष्टान्तालङ्कारः "दृष्टान्तस्तु सधर्मस्य वस्तुनः प्रतिबिम्बनम्" इति तल्लक्षणम् / (कल्पलता) एकश्छेदधिया न गम्यत इह, न्यायेषु बाह्येषु यो, देशप्रेक्षिषु यश्च कश्चन रसः, स्याद्वादविद्याश्रयाः ? यः प्रोन्मीलितमालतीपरिमलो-गारः समुज्जम्भते, स स्वैरं पिचुमन्दकन्दनिकर-क्षोदान मोदावहः // 8 // अन्वयः-इह, देशप्रेक्षिषु, बाह्येषु, न्यायेषु, यः, च, यः, कश्चन, . स्याद्वादविद्याश्रयः, रस: (स:) छेकधिया, एकः, न, गम्यते, यः, प्रोन्मीलितमालतीपरिमलोद्गारः, (मोदावहः) समुज्जृम्भते, सः, स्वैरम् , पिचुमन्दकन्दनिकरक्षोदात्, मोदावहः, न / (कल्पलतावतारिका) इह-एषु / देशप्रेक्षिषु-देशमेकदेशम् , कञ्चिदेवांशमिति यावत् प्रेक्षन्ते तच्छीला देशप्रेक्षिण: "अजातेः शीले" 5 / 1 / 154 // इत्य. नेन शीलेऽर्थे णिन् प्रत्ययः, तेषु तथा / बाह्येषु-अनेकान्तबहिर्भूतेषु / Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 176 - न्यायेषु-अन्यदर्शनेषु / यः-बुद्धिविषयीभूतः, (रस:- आस्वादः, मानन्द इति यावत् ) च-पुनः / य:-बुद्धिविषयीभूत: / कश्चनअनिर्वचनीयः, अपूर्व इति यावत् / स्याद्वादविद्याश्रयः-अनेकान्तविद्यालम्बनः। रसः-आनन्दः / (सः रस:) छेकधिया-विदग्धबुद्धया। एक:-समानः / न-नहि / गम्यते-ज्ञायते / एकान्तविद्यालम्बनो रसोऽन्यः (अपकृष्टत्वाश्रयः ) एव स्याद्वादविद्यालम्बनस्तु लोकोत्तरो विलक्षण एव तयोः साम्यलेशो नास्ति, अनेकान्तविद्याया एकान्त. विद्यासम्मिश्रणासहिष्णुत्वात्, एतदेव दृष्टान्तेन समर्थयति-यः प्रोन्मीलितमालतीत्यादिना-य:-बुद्धिविषयीभूतः / प्रोन्मीलितमालतीपरिमलोद्गारः-प्रस्फुटितमालतीकुसुमविमर्दोत्थसौगन्ध्योल्लासः / विजम्भतेविशेषेण स्फुरति, निरतिशयमोददायको भवतीत्यर्थः / सः-तादृश. परिमलोद्गारः / पिचुमन्दकन्दनिकरक्षोदात्-निम्बकन्दकदम्बचूर्णसम्मिश्रणात् / मोदावहः-प्रमोदसम्पादकः / न-नहि / भवतीतिशेषः / यथा-प्रोन्मीलितमालतीपरिमलोद्गार: स्वापकृष्टनिम्बकन्दनिकरसम्मिश्रणादशोभनो भवतीति तयोः साम्यं दुर्घटन्तथैव स्याद्वादविद्यालम्बनोऽपि रस: स्वापेक्षयाऽपकृष्टबाह्यदर्शनालम्बनरससम्मिश्रणादशोभन एव भवेदिति स्याद्वादविद्यायाः परम उत्कर्षोऽनेन ध्वन्यते / ( कल्पलता) अभ्यास एका प्रसरद्विवेकः, स्याद्वादतत्त्वस्य परिच्छिदाप्यः / "कपोपलान्नैव परः परस्य, निवेदयत्यत्र सुवर्णशुद्धिम् // 9 // ... अन्वयः- स्याद्वादतत्त्वस्य, प्रसरद्विवेकः, एकः, अभ्यासः, परिच्छिदा, आण्यः, अत्र, कषोपलात् , पर:, परस्य, सुवर्णशुद्धिम् , नैव, निवेदयति / Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18.] शाखवातासमुच्चयस्य [ सतमः (कल्पलतावतारिका) स्याद्वादतत्त्वस्य-अनेकान्तविद्यातत्त्वस्य / प्रसरद्विवेक:विस्फुरमाणविचारः / एक:-अद्वितीयः, अपूर्व इति यावत् / अभ्यासः-परिचयः, परिशीलनमिति / परिच्छिदा-प्रमात्मकज्ञानेन / आप्यः-गम्यः, विषयीकरणीय इति यावत् / अत्र-इहलोके / कषोपलात्-निकषपाषाणात् / पर:-अन्यः / परस्य-अन्यस्य / सुवर्णशुद्धिम्-काश्चनसंशुद्धिम् , पक्षे सुन्दरवर्णसंशुद्धिम् / कषोपलात् , निकषपाषाणात् / नैव-नहि खलु / निवेदयति-बोधयत्ति, बोधयितुं शक्नोतीति / अत्र तृतीयपादे "पर: परस्मै" इति पाठो विशेषतोऽनुकूलः / केवलं कषोपलादेव सुवर्णशुद्धिः कश्चित्प्रति केनचिद्यथा निवेदयितुं शक्यते तथा स्याद्वादतत्त्वाभ्यास: केवलं परिच्छिदैव ज्ञातुं शक्यते नान्यथेति भावः / शब्दश्लेषालङ्कारः, सुवर्णशुद्धिपदपरिवर्तनाक्षमत्वात् / स्याद्वादतत्त्वमतिदुरूहमितिध्वननाद् ध्वनिकाव्यं विज्ञेयम्। (कल्पलता) माध्यस्थ्यमास्थाय परीक्षमाणाः, क्षणं परे लक्षणमस्य किश्चित् / जानन्ति तानन्तिमदुर्नयोत्था, कुवासना द्राक् कुटिलीकरोति // 10 // अन्वयः-परे, क्षणम् , माध्यस्थ्यम् , आस्थाय, परीक्षमाणाः, किश्चित्, अस्य, लक्षणम् , जानन्ति, अन्तिमदुर्नयोत्या, कुवासना, तान् , द्राक् , कुटिलीकरोति / (कल्पलतावतारिका) परे-अन्यदर्शनिनः / क्षणम्-तदात्मकसूक्ष्मकाल विशेष Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्सवकः ]. कल्पलतावतारिका [181 याबदपि / माध्यस्थ्यम्-औदासीन्यम्, तटस्थताम्, पक्षपातराहित्यमिति यावत् : आस्थाय-समवलम्व्य / परीक्षमाणाः-सदसद्विवेक तारतम्यविचारणां वा विदधानाः सन्तः / किश्चित्-किमपि. अत्यल्प. मिति यावत् / अस्य-'याद्वादतत्त्वस्य / लक्षणम्-वरूपम् / जानन्तिअवबुध्यन्ते / ( परन्तु ? अन्तिमदुर्नयोत्था-स्यात्पदवञ्चितैवम्भूतात्मकदुर्नयजनिता / कुवासना-कुसंस्कारः। तान्-ज्ञातकिश्चित्तत्त्वानपि परदर्शनिनः / द्राक्-झटिति कुटिलीकरोति-सविकारान् विदधाति / सतः परं हातमपि स्याद्वादतत्त्वमन्यथयन्ति परदर्शनिनस्ते इति भावः / ध्वनिकाम्यमिदम् / अनुप्रासालङ्कारः / (कल्पलता) .. अतो गुरूणां चरणार्चनेन, कुवासनाविघ्नमपास्य शश्वत् / स्याद्वादचिन्तामणिलब्धिलुब्धः, प्राज्ञः प्रवर्तेत यथोपदिष्टम् // 11 // अन्वयः- अतः, शश्वत् , गुरूणाम् , चरणार्चनेन, कुवासनाविघ्नम्, अपास्य, स्याहादचिन्तामणिलब्धिलुब्धः, प्राशः, यथोपदिष्टम् , प्रवर्तेत / (कल्पलतावतारिका) अत:-अन्तिमदुनयोत्था कुवासना यतो द्राक् तान् कटिलान् करोति तस्माखेतोः / शश्वत्-भूयोभूयः / गुरूणाम्-धर्मोपदेशकानामाचार्योपाध्यायादीनाम् / चरणार्चनेन-पादपङ्कजपूजनेन / कुवासनाविघ्नम्-कुसंस्कारात्मकमन्तरायम् / अपास्य-दूरीकृत्य / स्याद्वादचिन्तामणिलब्धिलुब्धः-स्याद्वादोऽनेकान्तवाद एष चिन्तामणिःस्याबादः चिन्तामणिरिष वा स्याद्वादचिन्तामणिस्तस्य लब्धिः प्राप्तिस्तत्र लुब्धो लिप्सुस्तथा / प्राज्ञा-विद्वान् / यथोपदिष्टम्-गुरूणामुपदेशानु. Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य . [ सप्तमः सारम् / प्रवर्तेत-प्रवृत्तिमान भवेत् / उपमारूपकसन्देहसकरालकारः, तयोरन्यतरस्य साधकबाधकप्रमाणविरहात् / छेकानुप्रासश्च। . . . स्याद्वादतत्त्वपीयूष--पानेन विषवारकः / सद्भिरुपाश्रितः पूर्णः, सत्तमः सप्तमः स्तवः // - / इति शासनसम्राट्-तपागच्छाधिपति-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-जगद्गुरुबालन-1 ह्मचारिभट्टारकाचार्यमहाराजश्रीविजयनेमिसूरीश्वरमहाराजपट्टालङ्कारशास्त्रबिशारदकविरत्नपीयूषपाणिपूज्यपादाचार्यश्रीविजयामृतम्ररिवरसन्दब्धायां महोदधिकल्पशास्त्रवार्तासमुच्चय - कल्पलतानुसारिण्या-1 कल्पलतावतारिकायां सप्तमः स्तवकः / Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका * अथाष्टमः स्तवकः ॐ अथ वेदान्ततत्त्वं प्रेक्षावत्समक्ष प्रतिक्षेप्तुमष्टमे तावछलोकत्रयमुपन्यस्यते महोपाध्यायैः। (कल्पलता) समवसरणभूमौ यस्य गीर्वाणकीर्णा, सुमततिरतिशोमा जानुदघ्नी ततान / जितकुसुमशरास्त्र - त्यागमर्थापयन्ती, स जयति यतिनाथः शङ्करो वर्धमानः // 1 // अन्वयः- घस्य, समवसरणभूमी, गीर्वाणकीर्णा, जानुदध्नी, जितकुसुमशरास्त्रत्यागम् , अर्थापयन्ती, सुमततिः, अतिशोभाम् , ततान, शङ्करः, यतिनाथः, स, वर्धमानः, जयति। (कल्पलतावतारिका) यस्य-बुद्धिविषयीभूतस्य महामहिमशालिनो भगवतो महा. वीरस्य / समवसरणभूमौ-देवविरचितसमवसरणस्थाने / गीर्वाणकीर्णा-देवकदम्बकप्रक्षिप्ता / जानुदघ्नी-जानुप्रमाणा। जितकुसुमशरास्त्रत्यागम्-कुसुमानि अरविन्दादीनि पञ्चपुष्पाणि शरा बाणा यस्य स कुसुमशरः कन्दर्पः तस्य पराजयहेतुकोऽस्त्रत्यागस्तन्तथा / तथाचोक्तम्- "अरविन्दमशोकञ्च-चूतञ्च नवमल्लिका / नीलोत्पलञ्च पबैते, पञ्चवाणस्य सायकाः” इति, अर्थापयन्ती-सूचयन्ती, सार्थकी. कुर्वन्तोति यावत् / सुमततिः-पुष्पकदम्बकम् / अतिशोभाम्-अत्यन्तरमणीयताम् / ततान-विस्तारयामास / शङ्कर:-कल्याणकारकः / Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 ] शासवार्तासमुच्चयस्य [अष्टमः शं करोतीति योगार्थतः स्पष्टम्-'त्वं शङ्करोऽसि भुवनत्रयशङ्करत्वा' दिति भक्तामरस्तोत्रवचनमपि / यतिनाथ:-योगीन्द्रः। सः-चरमतीर्थपरत्वेन प्रसिद्धः / वर्धमानः-वर्धमानमहावीरस्वामी / जयति-विज. यते। प्रसिद्धः शङ्करः कामेन जित: कामश्चानेन विजित इति तादृश. शहरापेक्षयाऽस्योत्कर्षप्रतीतेवर्धमानयतिनाथपदपोषितो व्यतिरेकालकारः, उपमानादुपमेयस्याऽऽधिक्ये व्यतिरेक इत्यालङ्कारिकसिद्धान्तात् / देवकदम्बकविहितजानुप्रमाणकुसुमततेः प्रक्षेपस्य पराजितकामदेव. कर्तृकनिजामत्यागहेतुकत्वेन संभावनादुत्प्रेक्षाऽप्यलङ्कारः, अन्यधर्मस. म्बन्धनिमित्तेनान्यस्यान्यतादात्म्यसम्भावनस्यैव तत्त्वात् / अत्र स्तव के वेदान्ततत्त्वविचारणा प्रासङ्गिकीति- ब्रह्मसूत्रभाष्यप्रणेतुः शङ्करस्यापि स्मरणं 'शङ्करो वर्धमानः' इति व्यज्यते / (कल्पलता) स्मरणमपि यदीयं, विघ्नवल्लीकुठारः, श्रयति यदनुरागात्, सम्भिधानं निधानम् / तमिह निहतपाप-व्यापमापद्भिदाया मतिनिपुणचरित्रं, पार्श्वनाथं प्रणौमि // 2 // अन्वयः-यदोयम् , स्मरणम् , अपि, विघ्नवल्लीकुठारः, यदनुरागात्, निधानम् , सन्निधानम् , अयति, इह, निहतपापव्यापम् , आपद्भिदायाम् , अतिनिपुणचरित्रम् , तम् , पार्श्वनाथम् , प्रणौमि / (कल्पलतावतारिका) यदीयम्-यस्य-बुद्धिविषयीभूतस्य भगवतः पार्श्वनाथस्येदं यदीयम् , यत्सम्बन्धीत्यर्थः / स्मरणम्-स्मरणात्मक ज्ञानम्। अपिसम्भावनायाम् / विघ्नवल्लीकुठारः-विघ्नमन्तराय एव वल्ली वल्लरी Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तबकः ] कल्पलतावतारिका [185 विघ्नवल्ली "मयूरव्यसकेत्यादयः” 3 / 1 / 116 इत्यनेन रूपककर्मधारयः, तत्र कुठारस्वरूपम् / यदनुरागात्-यस्मिन् बुद्धिविषयीभूते भगवति पार्श्वनाथेऽनुराग: स्नेहः हेम वा यदनुरागस्तस्मिंस्तथा, यत्कर्मकानुरागवशादितिभावः / निधानम् -निधिः / सन्निधानम्-सामीप्यम्। श्रयति-अधिगच्छति प्राप्नोतीति यावत् / इह-अस्मिँल्लोके / निहतपापव्यापम्-विनाशितपादकदम्बकम् / आपद्भिदायाम्-विपत्तिभञ्जने / अतिनिपुणचरित्रम्-अत्यन्तविशुद्धचरित्रम् / तम्-श्रापत्तिभञ्जकत्वेन त्रयोविंशतीर्थकृत्त्वेन च प्रसिद्धम् / पार्श्वनाथम्तद भिधानतीर्थकृतम् / प्रणौमि-प्रकर्षण स्तवीमि। अत्र परम्परित. रूपकमलङ्कारः स्मरणे कुठारत्वारोपे विघ्ने वल्लीत्वारोपस्य कारणत्वात् / यमकश्च / (कल्पलता) .. . .... ... हंसीव बदनाम्भोजे, या जिनेन्द्रस्य खेलति। ... बुद्धिमाँस्तामुपासीत, न का शुद्धां सरस्वतीम् // 3 // अन्वयः- यः हंसी, इध, जिनेन्द्रस्य वदनाम्भोजे, खेलति, शुद्धाम् , ताम् , सरस्वतीम् , कः, बुद्धिमान् , न, उपासीत / (कल्पलतावतारिका) या-बुद्धिविषयीभूता सरस्वती। हंसी-मराली। इव-यथा। जिनेन्द्रस्य-जिनवरस्य / वदनाम्भोजे-मुखकमले। खेलति-क्रीडति / शुद्धाम्-जिनेन्द्रवदनसंसर्गात् शुद्ध-वरूपाम् / ताम्-बुद्धिविषयी. भूताम् / सरस्वतीम्-तदभिधानां वागधष्ठात्री देवीम् / क-कीरशः / बुद्धिमान-पण्डितः, प्रज्ञाशाली वा / न-नहि। उपासीत-सेवेत, Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य . [अष्टमः अपि तु सर्वोऽपि विद्वान् तामुपासीतैव / उपमालङ्कारः / उपमानोपमेययोर्बदनाम्भोजक्रीडनात्मकसाधारणधर्माभिसम्बन्धात् , “साधर्म्यमुपमाभेदे” इतितल्लक्षणात् / वार्तान्तरं (वेदान्तवार्ताम् ) प्राहुः सूरिवाः / (शास्त्रवार्ता) अन्ये त्वद्वैतमिच्छन्ति, सद्ब्रह्मादिव्यपेक्षया। सतो यद्भेदकं नान्य-तच्चं तन्मात्रमेव हि // 1 // अन्वयः- अन्ये, तु, सद्ब्रह्मादिव्यपेक्षया, अद्वैतम् , इच्छन्ति, यत् , सतः, अन्यत्, भेदकम् , न, हि, तत् , च, तन्मात्रम् , एव / (अव०) अन्ये-परे वेदान्तिन इत्यर्थः / तु-पुनः। सद्ब्रह्मादिव्यपेक्षया-सत्-परब्रह्मैव. आदिः सकलव्यवहारकारणं तद्वधपेक्षया-तदाश्रयणेन / अद्वैतम्-द्वाभ्यामितं गत द्वीतम् , तत्र भवं द्वैतम् , न द्वैतमद्वैतम् , एकमेव तत्त्वम् / इच्छन्ति-अभिलषन्ति / यत्-यस्माद्धेतोः। सतः-सद्रूपस्य परब्रह्मणः / अन्यत्-स्वातिरिकम् / भेदकम्-भेदप्रयोजकम् / न-नहि। हि-निश्चयेन / तत्-बुद्धिविष. यीभूतं भेदकत्वाभिमतं नीलादितत्त्वम् / च-त्वर्थकमव्ययम् / तन्मात्रम् -ब्रह्ममात्रम् / एव-अवधारणार्थकमव्ययम्। तथाच-अनवच्छिन्नस्याऽऽकाशाय घटपटाद्युपाधिभिरिवानवच्छिन्नस्य ब्रह्मणो नीलादिभिर्भेदायोगात् / किञ्च भेदस्य वस्तुस्वभावत्वे तस्यैकस्यानेकवृत्तित्वात् , वस्तूनामपि भेदो न स्यात्, नैकरमादभिन्नमभिन्नस्वभाव भिन्नं युज्यते, अर्थान्तरत्वे च तस्य वस्त्वरूपस्वात् स्व.. Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवक.) कल्पलतावतारिका [ 187 रूपेण भावा न व्यावृत्ताः स्युः, कल्पितात्तु भेदात् कल्पितमेव नोलादिनानात्वं न तु पारमार्थिकम् / अथ परापेक्ष वस्तुनो भिन्नत्वं स्वरूपेण त्वेकस्वमिति न दोष इति चेत् न, नहि पदार्थः ( वस्तु ) स्वहेतुबलो. 'दितः स्वभावव्यवस्थितये परमपेक्षते इति पुरुषप्रत्ययधर्म एव परापे. . क्षत्वमिति न ततो वस्तुभेदः। कि चैकस्य द्वयात्मकस्याभावात् भेदाभेदयोरेकतरस्य मिथ्यात्वनियमे भेदानामेव तत्त्वकल्पनमुचितं न तु वस्तुमात्रस्य / अपि च गन्धसमवायिकारणतावच्छेदकं यथा पृथिवी. त्वमेवेति तत्रैव गन्धस्तत्सम्बन्धादेव च जलादौ गन्धवत्त्वव्यवहारस्तथा सस्वाश्रयतावच्छेदकमपि चित्त्वमेवेति चिदेव सती, सर्वव्यवहारस्य तदधीनत्वात् , तत्सम्बन्धादेव च प्रपञ्चे सत्त्वव्यवहारः / अपि च पराभिमताऽऽत्मविशेषादर्शनान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् प्रपञ्चप्रतिभासस्य भ्रमत्वमङ्गीकरणीयम् / नचात्मविशेषादर्शनान्वय. ध्यतिरेकयोदेहतादात्म्यप्रतिभासे नान्यथासिद्धिः, विनिगमकाभावात् मुक्ती देहतादात्म्याप्रतिभासवत् प्रपञ्चाप्रतिभासनात् संसारदशायां देहतादात्म्यप्रतिभासवत् प्रपद्धप्रतिभासनाञ्च / वस्तुत आत्मविशेषादर्शनजन्यतावच्छेदकम् आत्मदेहतादात्म्यभ्रमत्वं न स्वीकरणीयम, गौरवात् , किन्तु दृश्यदर्शनत्वमेव लाघवात् , अतएव ब्रह्मणः सकलप्रपञ्चविषयत्वं संयोगादिसम्बन्धानिरूपणात् स्वरूपस्य सम्बन्धत्वाभावात् काल्पनिकज्ञेयतादात्म्याश्रयणेनोपपद्यत इति युक्तम् / .. किच परैरपि विशेषादर्शनम्य भ्रमहेतुत्वमुपेयते, तत्र तैरभावत्वं कलप्यते, अस्माभिः (वेदान्तिभिः ) तु लघुभूतं भावत्वमेव तैश्च निमित्तत्य कलप्यतेऽस्माभिस्त्वन्तरङ्गमुपादानत्वमिति स्वाश्रयनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरूपं मिथ्यात्वं सर्पस्य कथम् ? स्वाभावसामा Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाखबार्तासमुच्चयस्य नाधिकरण्यविरहात् इति चेत् न, पृथिव्यां रूपे गन्धसामानाधिकर. ण्याविरोधवत् रज्जो सर्प स्वाभावसामानाधिकरण्यस्याप्यविरोधात् / ' कथं तर्हि भ्रान्तित्वमिति चेत् स्वाभावाश्रये सत्त्वात् / परेषां स्वा. भावाश्रये सत्त्वावगाहित्वं भ्रान्तित्यप्रयोजकम् अम्माकं तु स्वाभावा. श्रये सत्त्वमिति लाघवम् / पुरोवर्तिनि सर्पसत्त्वे व्यवहारः स्यादिति चेत् भ्रमदशायां स्यादेव, बाधदशायान्तु बाधस्य प्रतिबन्धकत्वादेव न स्यात् , अन्यदा च सामग्रीविग्हादेव, न स्यादिति, तदेवमनिर्वचनी. यस्य सर्पस्य रज्जुरिवानिर्वचनीयस्य प्रपन्नस्य ब्रह्मैव तत्वमिति / तच्च ब्रह्म सर्वथैवाद्वितीयम् प्रपञ्चासिद्धथा विजातीयभेदशून्यस्थात् अखण्डमपि भवति सजातीयभेदशून्यत्वात्, तथाहि-न तावत् चेतनभेदः प्रत्यक्षसिद्धः चेत्तनानां घटादीनामिव भेदेनानुभवाभावात् , तत्तच्छरीरप्रवृत्त्याभिन्नाः कल्प्यन्त इति चेत् न, एकेनैव तत्तच्छरीर. प्रवृत्त्युपपत्तावनेककल्पनानुपपत्तेः / सुखदुःखादिवैचित्र्यादनेकत्वमिति चेत् न, तस्याप्युपाधिभेदत एकोपपत्तेः / सृष्टं हि गगनस्यैकस्यैव भेरीकर्णाधुपाधिभेदेन शब्दविशेषहेतुत्व-शब्दग्राहकत्वादिवैचित्र्यम् , अभ्युपगम्यत एवानेकात्मवादिभिरपि प्रतिधेतनमन्त:करणेन्द्रियादिभेदः ततस्तदुपाधित एष सुखदुःखादिवैचित्र्योपपतिः, भानामान. व्यवस्थापि तेनैवोपपद्यते / किन घटादयः शरीरादय: बुद्धचादयस्त. दाधारश्च स्फुरन्तीत्यत्राविषादम्, स्फुरण घोपाधिभेदं विनाऽविभाव्य. मानभेदतया लाघवेन चैकम्, ततश्च परेषामनुष्यवसायशब्दाभिधेयं - स्फुरण नित्यमेकमात्मेत्युच्यते / सच्च न सुखादिमत् तद्विषयस्थात, अननुभवाच, एवञ्च सुखादिवचित्रग्रेण तदाधारभेदेऽपि न कुरणभेदः, इष्यते च नैयायिकैरपि व्यापको निस्वमीश्वरनामम् / Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तककः 11 कल्पलतावतारिका [18 . बस्तुतः कार्यमात्रोपादानतया नित्यैकज्ञानस्यैव सिद्धिः, न तु तदाश्रयस्यापि तस्यैव च तत्तदुपाधिप्रतिभासम्भवे सुखादिवैचित्र्य. बन्धमोक्षादि व्यवस्थोपपत्तौ न पारमार्थिकभेदकल्पनावकाशः, जीवे. श्वरादिविभागस्याप्यज्ञानोपाधिकत्वात् / अज्ञानञ्च मायाऽविद्याशब्दाभिधेयम् / तत्र प्रमाणञ्च "अहमज्ञः” “मामन्यं च न जानामि" "स्व. दुक्तमर्थ न जानामि" "शास्त्रार्थं न जानामि" इत्याद्यनुगतः प्रत्ययः अनुगतविषय विना तदनुपपत्तेः, अन्यथा सत्तादिसामान्योच्छेदापत्तेः / ज्ञानसामान्याभावोऽत्र विषय इति चेत् न, आत्मनि तस्याभावात्, अर्थेन सहानुभवाच्च, "अंथ न जानामि" इत्यर्थगतसंख्याज्ञानाभावो विषय इति चेन्न शास्त्रार्थं न जानामि" इत्यत्रा. नुपपत्तेः / कचित्संख्याज्ञानाभावः, कचिदपरोक्षज्ञानाभावः, कचिनिस्चयाभावो विषय इति चेत् न, अननुगमात् / तञ्च चिन्मात्राश्रयविषयमिति विवरणाचार्याः, आश्रयविषयभेदकल्पनायां गौरवात् / कल्पित दम् , तेनाखण्डत्वादेर्वस्तुतश्चिद्रूपत्वात् , चिद्रूपस्य चाना. वृतत्वाद् नानुपपत्तिः, “चैतन्यं स्फुरति नाखण्डत्वादि” इत्येवं तेनावरणेन भेदकल्पनात् / आश्रयमेव कथमावृणोति तत् ? इति चेत्, सत्यम्, अन्धकारे तथादर्शनात् / - अथ चैतन्यनिष्ठावरणे मानसत्त्वे तदसत्वे वाऽऽवरणानिवृत्ति तदसिद्धिप्रसङ्ग इति चेत् न, तस्य साक्षिसिद्धत्वात् "अहं मां न जानामि" इत्यनुभवात्, अत्र च "माम्' इति द्वितीयाविभक्त्यर्थस्य विषयत्वस्याझानजन्याऽऽवरणरूपातिशयशालित्वस्योल्लेखात् / ननु चि. मात्रनिष्ठ प्रावरणे "घटोऽज्ञातः” इति कथं प्रत्यय: ? "अस्ति" "प्रकाशवे' इति स्वतः स्फुरति चैतन्थे अक्षण्यपि तथा व्यवहार Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [अष्टमः . प्रसक्तौ "नास्ति' "न प्रकाशते" इतिव्यवहारार्थमेवावरणफल्पनातु, घटादौ तु स्वतोऽप्रकाशे तस्य व्यर्थत्वादिति चेत्-. अत्राहुः-विषयैः सहाज्ञानस्य साक्षिचैतन्येऽध्यासात् प्रतिभास: इति, अस्यार्थः-ईश्वरस्योपाधिवशाद् विष्ण्वादिबैविध्यवत् साक्षिण एव ततो जीवेश्वरभानेन द्वैविध्यात् , साक्षिणीश्वरत्वावच्छेदेन विषयाणामध्यासात्, अज्ञानावरणयोरपि चिन्मात्राश्रयत्वेन तत्र सत्वात्, विषयनिष्ठतयाऽज्ञानावरणप्रतीति: "अज्ञातो घटः” इति, यथा लौहित्यमुखयोः स्फटिकाचलप्रतिबिम्बितयोः “लोहित मुखम्" इति परस्परसंसर्गो भासते / तेन कुसुमादिनिष्ठलौहित्य. संसर्ग इव मुखे चिन्निष्ठाऽऽवरणसंसर्गो घटादावनिर्वचनीयः अन्यथाऽन्यथाख्यात्यापत्तेः, अत एव पटारदेरप्यज्ञानविषयत्वम्, अज्ञानजन्यावरणसंसर्गरूपातिशयशालित्वात् / स चायमावरणसंसर्गो घट. ज्ञानेन नश्यति, घटज्ञानदशायाम् "अज्ञातो घटः” इत्यनुभवात्, अस्मिन् पक्षे मूलाज्ञानादेवोक्तरीत्या शुक्तिविषयाद् रजतोत्पत्तिः, शुक्तिज्ञानेन चावरणसंसर्गनाशे शुक्ति विषयता मूलाज्ञानस्य नष्टेति विशिष्टज्ञाननाशात् सविलासाज्ञाननिवृत्तिरूपपबाधव्यवहारो नत्वज्ञाननिवृत्तिरिति निरूपितमज्ञानतत्त्वम् / अथ जीवेश्वरादिप्रपञ्चः / तत्र "अविद्याप्रतिबिम्बित चैतन्य जीवः” इति विवरणाचार्याः / युक्तमेवैतत् , "रूपं रूप प्रतिरूपी बभूव" इति श्रुतेः “एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत्" इत्यादि स्मृतेश्च / नचामूर्तपदार्थस्य प्रतिविम्बासम्बन्ध इति वा. च्यम्, आकाशादेरमूर्तस्य प्रतिबिम्बदर्शनात् / नन्वविद्यावच्छिन्नं चैत. न्यमेव जीवोऽस्तु, एवं सति सर्व नियन्तृत्वं परमेश्वरस्य न स्या Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [161 दिति चेत्सत्यम् बिम्बं तु शुद्धमेव चैतन्यम् , अज्ञानप्रतिबिम्बित चैतन्यं साक्षी आवरणशक्तिप्रतिबिम्बभूतश्चेश्वर इति न किमपि दूषणम् :उपाधिभूतस्य शक्तिद्वयस्य व्यापकतया तत्प्रतिबिम्बयोर्जी. वेश्वरयोरपि व्यापकत्वात् , जीवान्तर्यामित्वस्य ब्रह्मण: श्रुतिसिद्धस्याव्याहतत्वात् / . . अज्ञानावच्छिन्नं चैतन्य जीवः इति भामतीकारा वाचस्पतिमिश्राः / नचैतन्मते ईश्वरस्य सर्वान्तर्यामित्वानुपपत्तिरिति वाच्यम् 'अज्ञानोपाध्यवच्छिन्नं चैतन्यं जीवः' "अज्ञानविषयतोपाध्यवच्छिमें चैतन्यं चेश्वरः' इत्युपाधेापकत्वेन तदुपहितस्येश्वरस्यापि व्यापकत्वात् / अथैवमपि तन्मतेऽज्ञानचैतन्यस्येश्वरत्वे "अहं मां न जानामि" इत्यनुभवादीश्वरस्य प्रत्यक्षत्वापातः / नचाज्ञानतया सर्व स्य साक्षिभास्यत्वादिष्टापत्तिरिति वाच्यम्, अनुभूयमानस्य "अहम". इत्यज्ञानचैतन्यस्येश्वरस्य स्वरूपतः प्रत्यक्षत्वापत्तेः इष्यते च "ईश्वर न जानामि” इत्येतावन्मात्रमेवेति चेत् न, “अहं मां न जानामि" इत्यत्राखण्डस्यैव भ्रमाधिष्ठानस्य चैतन्यस्यावभासनात, अज्ञाततो. पहितचैतन्यस्येश्वररूपस्यानवभासात्, अज्ञाततारूपोपाधिस्फुरणेऽप्य. योग्यत्वेन तदुपहितास्फुरणात, घटस्फुरणे घटोपहिताऽऽकाशस्फुरणवत् / स च जीवोऽज्ञानबहुत्ववादे हिरण्यगर्भविराडादिभेदेन नाना तदैक्येऽपि तच्छक्तिभेदात , तज्जान्तःकरणभेदाद् वा नानेतिमन्तव्यम्, अज्ञानभेदे प्रत्यज्ञानमावरणविक्षेपशक्तिकल्पने गौरवम् , तदैक्ये 'वेकत्रैव तावच्छक्तिकल्पनाल्लाघवम् / न च तावत्यः शक्तय एव स्वीक्रियन्तां किमज्ञानेनेति वाच्यम् शक्तीनां साश्रयत्वनियमात्, ततः शक्तिभेदेन तदुपहितजीवभेदः, तत्तज्जीवगततत्वज्ञानेन जीवो. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [अष्टमः पधिशक्तिनाशाद् मुक्त्युपपत्तेः / एवमन्तःकरणभेदेऽपि भाव्यम्, केवलमत्र "तन्मनोऽकुरुत” इति श्रुतेरन्त.करणस्य जन्यत्वाज्जीवस्य सादिस्वप्रसङ्ग इति नातीव विदुषामादरः। . . जीवभेदे स्वीक्रियमाण एव क्रममुक्तिफलानां हिरण्यगर्भाधुपासनावाक्यानामुपत्पत्तिरपि जायते, तथाहि-कश्चिद् वेदार्थाभिज्ञो नित्यादिकर्म यथाविध्यनुतिष्ठन्नामस्मरणमभ्यस्यमानकेवलहिरण्यग र्भोपासनायाः परिपाके 'अहं हिरण्यगर्भः' इति प्रतीत्युद्रेके देह परित्याज्याचिरादिमार्गेण ब्रह्मलोकं गतो हिरण्यगर्भसायुज्यं गच्छति। ___ अन्यस्तूपासनाया अपरिपाके हिरण्यगर्भसालोक्यादि गच्छति, परस्त्विहैव श्रवणादिपरिपाकोत्पन्नज्ञानो मुच्यते, अपरन्तु श्रवणादिपरिपाकेऽपि प्रारब्धप्रतिबन्धेनानुत्पन्नज्ञानस्तन्नाशे शरीरनाशाद् योग्यन्तरगतो गर्भस्थदेहाभिव्यक्तौ प्रथममेव 'अहं ब्रह्मास्मि' इति प्रत्यय लभते वामदेववत् / अन्यः पुन: साधनसम्पन्नश्रवणाद्यभ्यासे क्रियमाणे मध्ये मृतः श्रवणाद्यभ्याससामोबुद्धपूर्वशुभकर्मफलानि बहु. कालं भुक्त्वा शुचीनां श्रीमतां योगिनां वा कुले उत्पन्नः पूर्वाभ्यासवशेन पुनः प्रारब्धश्रवणाद्यभ्यासपरिपाकलब्धज्ञानो विमुच्यत इति। एवमेव विराडाद्युपासकानां विराडादिसायुज्यप्राप्तिः, प्रतीकोपासकानांश्च विद्यु. लोकप्राप्राप्तिद्रष्टव्या / अन्ये त्वज्ञानक्यात्तदुपहितं जीवमे कमेवाभ्युपगच्छन्ति, तेषामुपासकानां क्रममुक्तिश्रवणं श्रुतावर्थवादमात्रमेव मन्तव्यम् , चित्त. काग्रतायान्तूपासनोपयोग: कर्मानुष्ठानवन् / केषाश्चित्प्रमातृणामनुष्टितोपासनापरिपाके ब्रह्मलोक गतानां यावत्कल्पमवस्थाय कल्पान्तर भायुसे। "इम मानवमावत नावर्तते" इति श्रुतौ "इमम्" इति Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [163 - विशेषणादेतत्कल्प एवानावृत्तिपर्यवसानात् , अन्यथैतद्विशेषणवैय र्थ्यात्, वामदेवादोनां मुक्तत्वश्रवणं काल्पनिकाभिप्रायम् , नित्यमुक्तत्वाभिप्राय वा मन्तव्यम् / नच कश्चनानाश्वासः, श्रुतेः प्रामाण्यात् , अनेकजीववादेऽद्य यावत् कस्यचिदमुक्तत्ववत् , एकजीववादे सर्वस्य तत्त्वोपपत्तः। ___ एतावता प्रबन्धेन, जीवतत्त्वं निरूपितम् / केचित्तदैक्यमिच्छन्ति, नानात्वं चापरे बुधाः // 1 // तथाविधजीवेऽन्तःकरणमध्यस्यते "अहम्" इति, यथा रज्जयां सर्पोऽध्यस्यते, उपाधेर्निरूपणाभावात्, प्रकृतोऽध्यासो निरुपाधिकः / "अहमज्ञः' इति त्वहताराज्ञानयोरेकचैतन्याध्यासात् एवं वह्निसम्बन्धाद् दग्धृत्वायसोरिव "अयो दहति” इति प्रत्ययः / तच्चान्तकरणं स्मृति. प्रमाणवृत्तिसंकल्पविकल्पाहवृत्त्याकारेण परिणतं चित्तबुद्धिमनोऽहकारशब्दैर्व्यवह्रियंते, आत्मतादात्म्येनाध्यस्यमानमिदमन्तःकरणमेवाऽऽत्मनि सुखदुःखादिस्वधर्माध्यासे उपाधिर्भवति, स्फटिके जपाकुसुमधर्मलौहित्यावभासे जपाकुसुममिव, एवं प्राणादयस्तद्धर्माश्चाशनीया पिपासादयः, तथा श्रोत्रादयो वागादयश्च तद्धर्माश्च बधिरत्वान्धत्वादयश्चाध्यस्यन्ते, एवं देहस्तद्धर्माश्च स्थूलत्वकृशत्वादयः। तत्रेन्द्रियाणां न तादात्म्याध्यास: "अहं श्रोत्रम्" "अहं नेत्रम्" इतीन्द्रियालम्बनप्रतीतेरभावात् , देहस्तु तादात्म्येनाध्यस्यते "मनुष्योऽहम्" इति प्रतीतेः प्रामाणिकत्वात् / - ननु कथमज्ञानादीनामध्यस्ततया प्रतीतिः न तावत् प्रत्यक्षा, इन्द्रियाजन्यत्वात्, नाप्यनुमितिः लिङ्गाद्यननुसन्धानेऽपि भावादिति चेत्-उच्यते, चिदात्मनोऽज्ञानोपहितस्य साक्षित्वेन तस्य भास्यसंस Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [अष्टमः र्गमात्रमपेक्ष्याज्ञानादीनामाध्यासिकसंसर्गभासकत्वात् तदवभासः, तेन यावद् विषयसत्त्वम् "अहमज्ञः" सुखी दुःखी मनुष्यः इति भासमानत्वात् न कदापि सन्देहः / सचापरोक्षकस्वभावः, अध्यस्ताधिष्ठानयोरभेदेन संविदभिन्नत्वात् संविदभेदो ह्यपरोक्षता नाम स च नानिर्वचनीयतादात्म्यस्वरूपः, तादात्म्यसंसर्गादीनामपरोक्षत्वाभावप्रसङ्गात्, तत्र तादात्म्यान्तराभावात्, किन्तूक्तलक्षण एवेति / अथैवं घटस्य संविदभिन्नत्वाभावात् परोक्षत्वापत्ति: स्यादिति चेत् ? किमीश्वरस्य जीवस्य वा ? नाद्यः, घटादीनामभेदेन ब्रह्मएयध्यस्तत्वात्, द्वितीयोऽपि न, तथाहि-परिच्छिन्नजीवपक्षे तावदिन्द्रियद्वारा निःसृतान्तःकरणवृत्या संसृष्टो घटः, घटसंसृष्टा वा वृत्तिः प्रमातृचैतन्यस्य घटावच्छिन्नब्रह्मचैतन्यावरणानिवृत्तौ तदज्ञाननिवृत्तौ वा तदुभयाभावपक्षेऽनिवृत्तौ वा विषयचैतन्याभेदेनाभिव्यक्तिहेतुः सम्पद्यते, ततः स्वाध्यस्तो घटः सुखवदपरोक्षः, केवलं सुखं साक्ष्यपरोक्षम्, घटः प्रमाणापरोक्ष: इत्येतावान् भेदः / अपरिच्छि. नजीवपक्षेऽपि असङ्गस्य जीवचैतन्यस्य घटोपरागार्था वृत्तिः / उपरागस्तु न संयोगादिः मानाभावात् किन्तु स्वाध्यायस्तत्वमेव, तच्चाअपने व्यवहारसौक-य घटावच्छिन्नचैतन्येष्वावरणान्तराबानान्तरास्वीकाराद् वृत्तेस्तन्निवृत्त्यर्थत्वाभावेऽपि जीवचैतन्यस्यासङ्गत्वात् घटानधिष्ठानत्वाच्च न वृत्तेः प्राक् घटसम्बन्धः, अन्त.करणवृतिस्तु जीवेऽध्यस्तेति तया सह सम्बन्ध एवेतीन्द्रियद्वारा नि.सृतान्तःकरणवृत्त्या संसृष्टे घटे घटसंसृष्टायां वा वृत्तौ जीवचैतन्यक्षियाधिष्ठानचैतन्याभेदापत्त्येति / तदेवं केवलसाक्षिवेद्यत्वे तुल्येऽपि रजतादौ वृत्तिरपेक्षिता, नत्वज्ञानादौ देहपर्यन्ते। ननु कथं देहस्य केवलसाक्षि Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः / कल्पलतावतारिका [ 165 वेद्यत्वम् , घटादिवच्चक्षुर्ग्राह्यत्वेन तस्यापि प्रमाणवेद्यत्वात् ? न च तत्र स्वप्नवचक्षुर्पाद्यत्वम्, घटादावप्यनाश्वासात् / न च देहस्य प्रमाणवेद्यत्वमेव, अज्ञानविषयत्वेन कदाचिद् "अहं मनुष्यो न वा” इति सन्देहापत्तेः, किश्वास्य ब्रह्मण्यध्यस्तस्तत्वे घटादिवन्न केवलं साक्षिवे. द्यत्वम् , जीवाध्यस्तत्वे च सुखादिवदन्यापरोक्षत्वभङ्ग इति चेत्अत्रोच्यते-एक एवार्य जीवो देहत्वेन ब्रह्मण्यध्यस्तो न जीवे "अहं देहः” इत्यप्रतीतेः, तेनैव च रूपेण केवलसाक्षिवेद्यत्वम् , प्रमाणवृत्त्यनपेक्षत्वात् , देहत्वेन तु प्रमाणवेद्यत्वम् , एवमन्त:करणादिरपि तत्त्वादिना (अन्तःकरणत्वादिना) ब्रह्मण्यध्यस्तः, अहन्त्वादिना जीव इति सिद्धमज्ञानोपहितचैतन्यरूपसाक्षिवेद्यत्वं देहस्य / . ननु साक्षित्वेऽज्ञानं नोपाधिर्भवितुमर्हति सुषुप्तावज्ञानसुखसाक्षिस्फूर्तेः पुरुषान्तरस्य "सुखमहमस्वाप्सम्” इतिस्मरणप्रसङ्गात् , किन्त्व. न्त:करणमेव यदन्त:करणोपहिते संस्कारस्तत्रैव स्मरणनियमेनानतिप्रसङ्गात् इति चेन्न, सुषुप्तावज्ञानाद्याकारवृत्त्या परिच्छिन्नयाऽन्तःकररणादिसंस्कारावच्छेदेनोत्पद्यनश्यन्त्यातदरच्छेदेन संस्काराधानात्तदबच्छेदेन स्मरणादनतिप्रसङ्गात् , जीवेश्वरसाधारण्येनाज्ञानस्य साक्षि. त्वोपाधित्वात् / यथा वस्तुतोऽसङ्कीर्ण विशुद्धमप्याकाश तिमिरदुष्टलोचनो जनो विचित्राभिः केशमक्षिकादिरूपादिभिः सङ्कीर्णमिवाभि. मन्यते, निजदोषात्तथा साक्षादपरोक्षं सजातीयभेदरहितं निर्विकल्प (विजातीयभेदविकल्परहितम् ) ब्रह्महेतुभूतयाऽविद्यया सजातीयभेदभागिव विजातीयभेदभागिव प्रकाशते, अविद्यानिवृत्तौ च शुद्धब्रह्म प्रतिपत्तिः, तथाहि-कश्चित् खलु नित्याध्ययनविधिना सम्यगधीतवेदा. न्तो वेदान्तवाक्यानामापाततोऽर्थमवगच्छति / Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 ] शासवार्तासमुच्चयस्य [अनमः साधनचतुष्टयसम्पन्नः प्रमाता वेदान्ताध्ययने ब्रह्मजिज्ञासायां वाऽधिकारी प्रोच्यते, साधनचतुष्टयश्च " नित्यानित्यवस्तुविवेकः , इहामुत्रार्थभोगविरागः, शमदमादिसाधनसम्पत् , मुमुक्षुत्ववेति / नित्यानित्यवस्तुविवेकस्तावत् नित्यानित्ययोर्वसतीति नित्यानित्यवस्तु तद्धर्मः, नित्यानित्ययोधर्मिणोस्तद्धर्माणाश्च विवेकस्तथा / तदेतेष्वनुभूयमानेषु युष्मदस्मत्प्रत्ययगोचरेषु यदृतं नित्यं सुखं व्यवस्थाप्यते तदास्थागोचरो भविष्यति, यत्त्वनित्यमनृतं भविष्यति तापत्रयपरीस तत्यक्ष्यत इति सोऽयं नित्यानित्यवस्तुविवेकः प्राग्भवीयादैहिकाद्वा कर्मणो विशुद्धसत्त्वस्य भवत्यनुभवोपपत्तिभ्याम् ; न खलु सत्यं नाम न किश्चिदस्तीति वाच्यम् , तदभावे तदधिष्ठानस्यानृतस्याप्यनुपपत्तेः शून्यवादिनामपि शून्यताया एव सत्यत्वात् / अथास्य पुरुषधौरेयस्यानुभवोपपत्तिभ्यामेवं सुनिपुणं निरूपयतः, आ च सत्यलोकादाचावीचे: “जायस्व म्रियस्व” इति विपरिवर्तमानं क्षणमुहूर्तयामाहोरात्रार्धमासमासत्वयनसंवत्सरयुगचतुर्युगमन्वन्तरप्रलयमहासर्गावान्तरसर्गसंसारसागरोमि भिरनिशमुह्यमानं तापत्रयपरीतमात्मानञ्च जीवलोक चावलोक्यास्मिन् संसारमण्डलेऽनित्याशुचिदुःखात्मक प्रसंख्यानमुपावर्तते, ततोऽस्यैतादृशान्नित्यानित्यवस्तुविवेकल क्षणात् प्रसंख्यानात् "इहामुत्रार्थभोगविरागो" भवति / इह-अस्मिँल्लोके अमुत्र-परलोके, अर्थ्यते प्रायते इत्यर्थः, फल मिति यावत् , तस्मिन् विरागोऽनाभोगात्मिकोपेक्षाबुद्धिः। - शमदमादिसाधनसम्पत्-रागादिकषायमदिरामत्तं हि मनस्तेषु तेषु विषयेषूच्चावचमिन्द्रियाणि प्रवर्तयत् विविधाश्च प्रवृत्ती: पुण्यापुण्यफला भावयत् पुरुषमतिघोरे विविधदुःखज्वालाजटिले संसार Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पलतावतारिका [ 167 हुतभुजि जुहोति, प्रसंख्यानाभ्यासलब्धवैराग्यपरिपाकभग्नरागादिकपायमदिरामदं तु मनः पुरुषेण वशीक्रियते, सोऽयमस्य वैराग्यहेतुको मनोविजयः शम इति वशीकारसंज्ञ इति चाख्यायते, विजितं च मनस्तत्वविषयविनियोगयोग्यतां नीयते, सेयमस्य योग्यता दमः। यथा दान्तोऽयं वृषभयुवा हलशकटादिवहनयोग्यः कृत इति गम्यते / आदिग्रहणेन विषयतितिक्षा-तदुपरम-तत्त्वश्रद्धाः संगृह्यन्ते, अत एव श्रुतिः "तस्माच्छान्तो दान्त उपरतस्तितुक्षुः श्रद्धावित्तो भूत्वाऽऽत्मन्येवात्मानं पश्येत् सर्वमात्मनि पश्यति इति / अधिकारिणां श्रवणमनननिदिध्यासनादित आत्मज्ञानमुत्पद्यते, तदिदमात्मज्ञानमुत्पन्नमात्रमेवानन्तजन्मार्जितकर्मराशि विनाशयति "क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे' इति श्रुतेः। तेन कर्मक्षयार्थं न कायव्यूहकल्पना “स एकधा भवति" "स त्रेधा" इत्यादिवाक्यानामुपासकविषयत्वात् / न च देहनाशप्रसङ्गः, तस्य प्रारब्धप्रतिबन्धात् , नचेदेवं चिरं यावद् न विमोक्षः, "अथ सम्पत्स्ये". इति श्रुत्या कर्मविपाकेन प्रारब्धनिवृत्तावपि तस्य ज्ञानानिवर्त्यत्वाभिधानात् , तस्यां चावस्थायां प्रारब्धफलं भुञ्जान: सकलसंसार बाधितानुवृत्त्या पश्यन् स्वात्मारामो विधिनिषेधाधिकारशून्यः संसारमात्रात् सदाचारः प्रारब्धक्षयं प्रतीक्षमाणो जीवन्मुक्त इत्युच्यते, अस्य च प्रारब्धतो जन्मान्तरमपि / अत एव सप्तजन्मविप्रत्वप्रदे कर्मणि प्रारब्धे उत्पन्नतत्त्वज्ञानस्य पुनर्देहान्तरम्, प्रारब्धस्य ज्ञानानावश्यकत्वादिति केचित् / ततश्च ज्ञानदेहारम्भकेष्वनेकजन्मप्रदेशेष्वनेकेषु सुकृतदुष्कृतेषु सत्स्वपि न जन्मान्तरमेतस्य सुवचम् , सति देहे देहान्तरायोगात् / तन्नाशानन्तरं तदुपगमे च " यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्" इति स्मृतेदेहान्तरविषयान्तिमप्रत्य Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198] शाबवातासमुच्चयस्य . [ अष्टमः यास्यवश्यकत्वाज्ज्ञानिनामपि तदापातात् / ततः प्रायणकाले उत्पादित. देहान्तरविषयान्तिमप्रत्ययत्वं प्रारब्धत्वम् / न चेदेवम्-उत्क्रमणस्याव. श्यकत्वात् 'न तस्य प्राणाः उत्क्रामन्ति" इति श्रुतिसङ्कोच इति न शानिनो जन्मान्तरम् , किन्तु प्रारब्धक्षयेऽज्ञाननिवृत्तौ चिन्मात्रमेवाव. शिष्यते इति, तथा चोपसमहापुरुपध्यायाः(कल्पलता) अयं वेदान्तिनां सर्वः सम्प्रदायो निरूपितः। स्वैरं यत्राग्रहप्रस्ताः पतन्त्येते तपस्विनः // 4 // अन्वयः-अयम् , वेदान्तिनाम्, सर्वः, सम्प्रदायः, निरूपितः, एते, तपस्विनः, भाग्रहग्रस्ताः, यत्र, स्वैरम् , पतन्ति / (कल्पलतावतारिका) अयम्-अनन्तरोपदर्शितः / वेदान्तिनाम्-उपनिषत्कानाम् / सर्ग:-निखिलः / सम्प्रदाय:-गुरुपरम्परागतमतम् / निरूपित:निरूपणविषयीकृतः / एते-इमे / तपस्विनः-अज्ञानमूलतपस्यामाचरन्त:, दयनीया इत्यर्थः / आग्रहप्रस्ता:-आवेशनिविष्टचेतसः / अग्रहग्रस्ताः इतिच्छेदे अज्ञानोपहता इत्यर्थो विधेयः / यत्र-बुद्धिविषयीभूते सम्प्रदाये / स्वैरम्-यथेच्छम् / पतन्ति-निपतन्ति / अन्धानां कूपपतनमिव तेषां तत्र पतनं ध्वन्यते / वेदान्तिमतनिराकरणवार्तामाह(शास्त्रवार्ता.) अत्राप्यन्ये वदन्त्येव-मविद्या न सतः पृथक् / तच तन्मात्रमेवेति, भेदाभासोऽनिबन्धनः // 4 // Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 166 अन्वयः-भत्र, भपि, अन्ये, एवम्, वदन्ति, भविद्या, सतः, पृथक , न, च, तत् , तन्मात्रम् , एष, इति, मेदाभासः, अनिबन्धनः / (अव०) अत्र-अस्मिन् अद्वैतपक्षे। अपि-खलु / अन्ये-अपरे, आईता इति यावत् / एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण / वदन्ति-ब्रुवन्ति / तमेव प्रकारं दिशन्ति- अविद्ये-त्यादिना, अविद्या-प्राक्प्रतिपादितस्वरूपाऽज्ञानात्मिका / सतः-सद्रूपाद् ब्रह्मणः / पृथक्-अतिरिक्तम् , तत्त्वान्तरमिति यावत् / न-नहि / अस्तीतिशेषः, तत्त्वान्तरत्वस्वीकारे द्वैतापत्तेः / च-पुनः। तत्-सत् / तन्मात्रम्-सन्मात्रम् / एव-अवधारणार्थकम् / इति-अस्माद्धेतोः / भेदाभासः-भेदाध्यवसायः / अनिवन्धनः- न निबन्धनं कारणं यस्मिन् स तथा, जनकविषयाभावादकारण इत्यर्थः / तथाहि-सन्मात्राऽभिन्नाप्यविद्याऽविद्यमाननीलपीतादिप्रतिभासकारणमुच्यते / तत् प्रमाणान्तरेण नावगन्तुं शक्यते, प्रमेयव्यव. स्थायाः प्रमाणाधीनत्वात्, प्रमेयभिन्नमतिरिक्त प्रमाणं स्वीक्रियते चेत् प्रमाणप्रमेयद्वैविध्यव्यवस्थानात्, अद्वैततत्त्वं नोपपद्यते, प्रमाणानभ्युपगमेऽद्वैततत्त्वमप्रमाणकं स्यात् , तथाचोन्मत्तं विना को नाम वेदान्तिम श्रद्धामादधीत ? एवञ्च वेदान्तिमतं सर्वथाऽनुपपन्नमिति / ___ नन्वयमनुक्तोपालम्भः, अविद्यायाः पृथक्त्वस्य, प्रमाणप्रमेयादि. विभागेन व्यावहारिकभेदस्य च प्रागुक्तरीत्याऽभ्युपगमादेव, परमार्थतस्तु " तत्त्वमसि " इत्यादिनोक्तमखण्डमेव सदिति चेत्रोच्यतेविद्याऽविद्यादिभेदात् स्वाभ्युपगतप्रामाण्येन शास्त्रेणैवाद्वैततत्त्वस्य बाधात् / तथाहि-"विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सहाविद्यया मृत्यु Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [अष्टमः तीवा "विद्ययाऽमृतमश्नुते" इति श्रुतौ विद्याऽविद्ययोरमृताप्ति-मृत्युतरणफलयोः स्फुटमेव भेद उक्तः सचाद्वैतेन विरुध्यते। .. नन्वत्राविद्यया श्रवणादिलक्षणया मृत्यु तीवोऽविद्यामेव निवर्त्य, विद्ययोपलक्षितममृतमश्नुते / स्वयं च जीर्य्यति यथा विर्ष विषान्तरं शमयति, स्वयं च शाम्यति, यथा वा कतकक्षोदादिरजो रजोऽन्तराणि विनाशयत् स्वयमपि विनष्टं भवति तथेति / नचासत्यान्न किश्चित्का य॑म्, मायायाः प्रीतेर्भयस्य रेखाङ्कादेश्च सत्यप्रतिपत्तेर्दर्शनादिति चेदत्रोच्यते-किमत्रोक्तार्थेन "तत्त्वमसि” इत्याद्युक्ताद्वैतबाधः, उत विद्याऽविद्यापदार्थाभ्यां ज्ञानकर्मभ्यामतिरिक्तमुक्तिसाधनत्वबोधात्तद्वा. ध: ? इति संशयात् “द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये परं चापरमेव च" इत्याद्युक्तो भेदः सत्य उत प्रागुक्तोऽभेद इति संशयाच्च "परं चापरं च ब्रह्म यदोङ्कारः” इत्याद्युक्तं शब्दब्रह्माद्वैतं प्रागुक्तं निर्गुणब्रह्माद्वयं वा ? इत्यपि संशयाच्च। नच “परं च” इत्यादावुपासनार्थ सामानाधिकरण्यम् , निर्गुणब्रह्मण उपासितुमशक्यत्वात्, एतदालम्बने "ब्रह्मोपासितव्यम्” इति प्रतीकोपदेशात्, यथा देवताया. साक्षात् पूजाया असम्भवात् तल्लाञ्छने दारुण्यश्मनि वा पूजाविधानं तबुद्धचेति वाच्यम् “तत्त्वमसि' इत्यादावेव समुपासनाथं तद् भविष्यति जीवेश्वरयोरभेदश्रुतेरिति संशयाविगमात्। एवं “तेनेदं पूर्ण पुरुषेण सर्वम्” इति श्रुतेः सर्वस्य ब्रह्मात्मकत्वं वा “सर्वगन्धः स्वरस:" इत्यादिश्रुतेब्रह्मण: सर्वात्मकत्वं वा ? इत्याद्यूह्यम् , किश्चानाकलितनयानां न क्वापि निश्चायिका श्रुतिस्तत्र 2 प्रदेशे विरुद्धार्थाभिधानात् , नानासम्प्रदायाभिप्रायव्याकुलतयैकव्याख्यानाव्यवस्थितेश्च / Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तबकः ] कल्पलतावतारिका [ 201 ननु युक्तिसिद्ध एवार्थे सुसंप्रदायेन श्रुतिशक्तितात्पर्य निर्णीयते / अन्यत्र “यजमान: प्रस्तरः” इतिवदुपचार एव युक्तिश्च प्रपञ्चासत्य. तायामेवोपदर्शितदिशेत्यद्वैतश्रुतीनां प्रामाण्यमिति चेन्न-अनुभवस्या. द्वैतस्य बाधात् , तथाहि-अनुभूयन्ते तावदविगानेन घटादयो भावा मृदुघटादिरूपेण भेदाभेदात्मका अवग्रहाद्यात्मनोपयोगेन, तत्र च स्वयमेकमेव चैतन्यं प्रमाणफलरूपम् , एकामेव च पदशक्तिं पदार्थाशे ज्ञातामन्वयांशे चाज्ञातां स्वीकुर्वाण: कथमेकमर्थं द्विरुपमनुभवन्नपि प्रत्याचक्षीत ? यदि च त्रपां परित्यज्य "अभेदस्यैवालोचनम्" इति परोक्षतया भेदस्य मिथ्यात्वं ब्रूयात् तदा प्रत्यक्षं चक्षुर्व्यापारसमनन्तर. भाविवस्तुभेदमधिगच्छदेवोत्पद्यते यतो भेदो भावस्वभाव इति भावमधिगच्छता कथं नाधिगम्येत ? नच भेद: "इदमस्माद् व्यावृत्तम्" इति कल्पनाविषय एव, अभेदस्यैव "इदमनेन समानम्" इति कल्पनाविषयत्वात् भेदस्य विवक्तपदार्थस्वरूपस्य परासंमिश्रितत्वात्, स्वस्वरूपव्यवस्थितानां भावानां कल्पनाज्ञानमन्तरेण योजनाभावात् , अन्यथा व्यवहारानिर्वाहात् / तदुक्तम् - "अनलार्थ्यनलं पश्यन् न तिष्ठेत् नापि प्रतिष्ठेत्” इति / तदेवं व्यवस्थितमेतत्, प्रतीत्यनुरोधेन नाद्वैतमेव तत्त्वम् , किन्तु प्रपञ्चोऽपि ब्रह्मवत् परमार्थसन्नेवेति / एतद्वादविषयविभागवार्ताम ह(शास्त्रवार्ता०) * * अन्ये व्याख्यानयन्त्येवं, समभावप्रसिद्धये / / अद्वैतदेशनाशास्त्रे, निर्दिष्टा न तु तत्त्वतः॥८॥ अन्वयः-अन्ये, एवम् , व्याख्यानयन्ति, ( यत् ) शास्त्रे, अद्वैत Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202] शास्त्रवातासमुच्चयस्य . [ अष्टमः देशना, समभावप्रसिद्धये, निर्दिशा, तु, तत्त्वतः, न / ( अव० ) अन्ये-आईतदर्शनिनः / एवम्-अनेन प्रकारेण / . . व्याख्यानयन्ति-व्याख्यानं कुर्वन्ति / यत् , शास्त्रे-आगमे / श्रावक. प्रज्ञप्तिवेद इति यावत् / समभावप्रसिद्धये-प्रपञ्चस्याविद्याविलसितत्वमात्रप्रदर्शनेन स्वात्मन्येव प्रतिबन्धस्थैर्यात् शत्रुपुत्रादौ द्वेषरागादिभावविच्छेदात् परमचित्तप्रसादरूपसाम्यसिद्धयर्थम् / अद्वैतदेशना"आत्मैवेदं सर्वम् , ब्रह्मैवेदं सर्वम्" इत्यादिकाद्वैततत्त्वोपदेशना / निविष्टा-निवेशं नीता। तु-पुनः। तत्त्वतः-अद्वैतमेव तत्त्वमित्यभिप्रायेण / न-नहि / निविष्टेति शेषः / - अत एव द्वितीयगणधरवादप्रकरणे “पुरुष एवेदं सर्व ग्निम्" इत्यादिश्रुतीनामापातार्थदर्शनजनितो गणधरसंशयस्तासां श्रुतीनामा. त्मार्थवादत्वेन तदीयसमीचीनाशय वृद्धये प्रपञ्चसत्यतावेदकश्रुत्यन्तर. प्रकटीकरणेन स्वयमेव भगवता चरमतीर्थकृता निरस्त: / स्पष्टं चैततत्त्वं विशेषावश्यकादौ द्रष्टव्यम्। जैनानां पुनरेतद् व्याख्यानं न्यायेनापि न बाध्यते, घटादि सत्त्वग्राहिणां शास्त्रानुमानादीनां प्रामाण्योपपत्तेः, संसारमोक्षविभागस्य तात्त्विकत्वात , मोक्षार्थ प्रेक्षावतां यमनियमादिव्यापारोपपत्तेश्च / तथाहि-जैनोक्तविपरीतव्याख्याने संसारमोक्षयोर्वस्तुतोऽद्वैते सति यमनियमादेः सर्वानुष्ठानस्य वैयर्थ्यरूपमनिष्टं प्रसज्यते, संसारनिवृत्यर्थो मोक्षार्थो वा मुमुक्षूणां निखिलोऽपि व्यापारो भवति, सचाद्वैतवादे नोपपद्यते, संसारस्यानित्यत्वेन नित्यनिवृत्तत्वात् मोक्षस्यापि सञ्चिदान दरूपब्रह्मात्मकस्य नित्यत्वेन नित्यावाप्तत्वात् , अविद्यानिवृत्त्यर्थो मुमुक्षूणां यत्न इति चेन्न, यतो न तनिवृत्तिः सती नाप्यसती नापि सदसती द्वैतप्रसङ्गोद्देश्यत्वविरो Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 203 धेभ्यः, ज्ञानजन्यत्वाच / अस्तु त_निर्वचनीया, जन्यत्वात् , तदुक्तम्"जन्यत्वमेव जन्यस्य मायिकत्वसमर्पकम्" इति चेत् न, अनिर्वचनीयस्य ज्ञाननिवर्त्यत्वनियमाङ्गीकारेण तन्निवृत्तिपरम्पराप्रसङ्गात् / अथ सदद्वैतव्याकोपादस्त्येव सा, असत्त्वेऽपि तस्या उद्देश्यत्वज्ञानजन्यत्वादि कल्पयिष्यते इति चेत् , एवं सत्यविद्यापि कल्पयिष्यतेऽसत्येव कार्य्यजननीतिसिद्धान्तव्याकोपः / कल्प्यादर्शनसंशयस्तूभयत्र समानः / पञ्चमप्रकारत्वाश्रयणन्त्वत्यन्ताप्रसिद्धम् / / अथ नाज्ञानस्य निवृत्तिर्नामध्वंस:, रूपान्तरपरिणतोपादानस्यैव तद्रूपत्वात् , घटध्वंसो हि चूर्णाकारपरिणता मृदेव, नच चैतन्यस्य रूपान्तरमस्ति, तस्मान्नास्त्येवाज्ञानध्वंस: किन्त्वज्ञानस्य कल्पितत्वात् तदत्यन्ताभाव एव तन्निवृति: / किन्तर्हि तत्त्वज्ञानस्य साध्यमिति चेत्, नास्त्येवाज्ञानात्यन्ताभावबोधात्मकत्वबाधव्यतिरेकेण ? तदुक्तम् तत्त्वमस्यादिवाक्योत्थ-सम्यग्धीजन्ममात्रतः / अविद्या सहकार्येण, नासोदस्ति भविष्यति // स चायमधिष्ठानात्मक एव मिथ्याभूतस्य च बाध एव ध्वंस इत्यभिधीयते, अत एव शुक्तिबोधे रजतध्वंसव्यवहारः, न तु शुक्तिबोधेन रजतध्वंस: सम्भवति, रजतात्यन्ताभावबोधात्मको बाधस्तु शुक्तिज्ञानात्मक एव भवतीति / कथं तर्हि सर्वदा सत इच्छा, तदर्थप्रयत्नविशेषो वा ? इति चेत् , अस्माकं (वेदान्तिनाम् ) परेषामिव मुक्तिभिन्ना न, किन्तु चिद्रूपैव नित्यावाप्तव च, इच्छाप्रयत्नविशेषौ तु कण्ठगतचामीकरन्यायेनानवाप्तत्वभ्रमात् , तन्निमित्तश्चाज्ञानमेव / न चैवं मुक्तेः पुरुषार्थत्वहानि:, तद्धि न पुरुषकृतिसाध्यत्वम् , विषभक्षणादेरपि तथात्वापत्तेः / नाप्यभिलषितत्वे सति कृति साध्वत्वं Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 ] शासवार्तासमुच्चयस्य (एम: - तत् गौरवात् , लाघवेनाभिलषितत्वमात्रस्यैव पुरुषार्थत्वौचित्यात् / चन्द्रोदये पुरुषार्थत्वमिटमेव, प्रवृत्तिविलम्बस्तु कृतिसाध्यताधीविलम्बात् , तत: सिद्धं नित्यावाप्तस्यैव कण्ठगत चामी करवच्चैतन्यस्य पुरुषार्थत्वम् , इत्यस्माकं वेदान्तविवेकसर्वस्वमिति चेत् / .. अत्राहुरुपाध्याया:(कल्पलता) मुक्तौ भ्रान्तिन्तिरेव प्रपञ्चे, भ्रान्तिः शास्त्रे भ्रान्तिरेव प्रवृत्तौ / कुत्र भ्रान्तिर्नास्ति वेदान्तिनस्ते,क्लप्सा मूर्तिन्तिभिर्यस्य सर्वा // 5 // अन्वयः- यस्य, सर्वा, मूर्तिः, भ्रान्तिभिः, क्लप्ता, (तस्य) वेदान्तिनः, ते, कुत्र भ्रान्तिः, नास्ति, ( यतः ) मुक्ती, भ्रान्ति:, प्रपञ्चे, भ्रान्तिः, एव, शास्त्रे, भ्रान्तिः, प्रवृत्ती, भ्रान्ति:. एव / ... (कल्पलतावतारिका) यस्य-बुद्धिविषयीभूतस्य वेदान्तिन: / सर्वा-निखिला। मूर्तिःतनु: / पदार्थजातमितिभावः / भ्रान्तिभिः-भ्रमैः / क्लप्ता-रचिता, कल्पितेति यावत् / तस्य-यत्तदोर्नित्यसाकांक्षवाद्यपदार्थाभिन्नस्य / वेदान्तिनः-उपनिषत्प्रमाण कस्य / ते-तव / कुत्र-कस्मिन् विषये / भ्रान्तिः-भ्रमः / नास्ति-न वर्तते, अपि तु सर्वत्रैवेति भावः / (यतः-यस्माद्धेतोः ) मुक्तौ-मोक्षे, सप्तम्या विषयत्वार्थकत्वाद् मोक्षविषये इत्यर्थः / भ्रान्तिः-भ्रमः, मुक्तित्वाभाववति मुक्तित्वप्रकारक ज्ञानमिति यावत्, तदभाववद्विशेष्य कृत्वावच्छिन्नतत्प्रकारताकज्ञानस्यैव भ्रान्तिपदार्थत्वात् , अमोक्षमेव मोक्षत्वेनावगच्छसीति व्यज्यते / प्रपश्ये-संसारे / एव-अध्यकर्थमव्ययम् / भ्राति:-भ्रमः, भ्रम एष Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पलतावतारिका [ 205 संसारप्रयोजक इति भावः / शास्त्रे-आगमे , अप्यर्थो गम्यतेऽत: शामविषयेऽपीत्यर्थः / भ्रान्तिः-भ्रमः / शास्त्रमपि भ्रमजनितमेक, मिथ्याज्ञानजनकमेव तवेति व्यज्यते / प्रवृत्ती-प्रवृत्तिविषये / एव-अप्यर्थकम् / प्रवृत्तिविषयेऽपि तव भ्रम एवेति भावः / एवश्व कथमस्य भ्रान्तस्य शास्त्रश्रवणाद् नित्यावाप्ते चैतन्येऽनसत्वभ्रमो न निवर्तते ? कथं वा विदितवेदान्तः स्वयं निवृत्तानवासस्वभ्रमः परमुपदेशेन प्रवर्तयन् प्रतारको न स्यात, अपि तु प्रतारक एव स्यात् / - अपि च स्वमतेऽपि परस्य श्रवणादिजन्यप्रतिबन्धकादृष्टनिधत्तिरूपनिर्दोषत्वमहिमा न शब्दात् शुद्धब्रह्मबोधे हेतुः, उत्पत्तौ प्रामा ण्यस्य स्वतस्त्वभङ्गापत्तेः / ज्ञानसामान्यसामग्रीजन्यत्वं हि तत् / न चोकवाक्यार्थप्रमाया निर्दोषत्वजन्ये युज्यत एतत् , श्रवणादेः प्रतिबन्धक निवर्तकत्वात् , प्रतिबन्धकाभावस्य च तुच्छतया हेतुत्वादेव गेहेमर्दिभिः परैरेतदोषपरिहारादिति स्वगृहतत्त्वमेव न प्रेक्षितं क्षतक्षामकुक्षिणा तपस्विना, तत: सम्यगुत्प्रेक्षितं. शाक्यसिंहविनेयेन यत् प्रबलदोषमाहात्म्यात् “खरविषाणम्" इत्यादिवाक्यादलीकस्याखण्ड स्य खरविषाणस्येव वेदान्तवाक्यात् परेषां कुवासनादोषमाहात्म्यादलीकस्याखण्डस्य ब्रह्मणो बोधः इति / एवञ्च सर्वस्य स्वरूपसत्तादिधर्मसङ्कीर्णस्यैव चोपलम्भात् व्यवहारस्य च प्रतियोगिप्रतिपत्तौ तथैवोदयात् सदसदात्मकमेव जगत् / तथाचोक्तं वृद्वैः . सर्वमस्ति स्वरूपेण, पररूपेण नास्ति च / .. अन्यथा सर्वसत्त्वं स्यात् , स्वरूपस्याप्यसंभवः / / Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ अष्टमः न तु सदाद्यद्वैतमेवेति शम् / तथा चाहुरुपाध्यायाः(कल्पलता) चार्वाकीयमतावकेशिषु फलं, नैवास्ति बौद्धोक्तयः, कर्कन्धूपमितास्तु कण्टकशतै-रत्यन्तदुःखप्रदाः / उन्मादं दधते रसैः पुनरमी, वेदान्ततालद्रुमा, गीर्वाणद्रुम एव तेन सुधिया, जैनागमः सेव्यताम् // 6 // अन्वयः-चार्वाकीयमतावकेशिषु, फलम् , नैव, अस्ति, तु, बौद्धोकयः, कण्टकशतैः, अत्यन्तदुःखप्रदाः, कर्कन्धूपमिताः, पुनः, अमी, वेदान्ततालद्रुमाः, रसैः, उन्मादम् , दधते, तेन, सुधिया, जैनागमः, एव, गीर्वाणद्रुमः, सेव्यताम् / (कल्पलतावतारिका) ___ चार्वाकीयमतावकेशिषु-चार्वाकस्येमानि चार्वाकीयानि तानि घ मतानि सिद्धान्ता: चार्वाकीयमतानि, तानि एव अवकेशिनो बन्ध्य (फलरहित ) वृक्षास्तेषु तथा चार्वाकसम्बन्धि-भत (सिद्धान्त) रूप-बन्ध्य ( फलरहित ) वृक्षेषु / फलम्-मोक्षादिरूपं प्रयोजनम् / नैवं-न खलु / अस्ति-वर्तते / तु-पुनः / बौद्धोक्तयः-सौगतसिद्धान्ताः / कण्टकशतैः-अनन्ततीक्ष्णकण्टकैः। (करणैः) अत्यन्तदुःखप्रदः-अतीवदुःखदायिनः। (अत एव ) कर्कन्धूपमिता:-बदरीवृक्षतुल्याः / पुनः-किश्च : अमी-इमे / वेदान्ततालद्रुमाः-वेदान्तसिद्धान्तरूपतालतरवः / रसैः-स्वफलभवरसैः, तदास्वादैश्च / उन्मादम्-मदमत्तताम् , मोहाधिक्यश्च / दधते-धारयन्ति / यथा तालफलसमुद्भतरसास्वादेन जना उन्मत्ता भवन्ति तथा वेदान्तसिद्धान्त Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तक्कः ] कल्पलतावतारिका [ 207 श्रवणमननादिना मोहमत्ता भवन्तीति भावः / तेन तेन हेतुना / सुधिया-विदुषा जनेन, आत्मकल्याणार्थिनेति यावत् / जैनागमएव-महत्प्रणीताऽऽगमरूपः / गीर्वाणद्रमः-कल्पवृक्षः / सेव्यताम्समाश्रीयताम् / कल्पवृक्षो यथा स्वसेवकायाभिमतं फलं प्रयच्छति तथा जैनागमोऽपि भविकसेवकाय मोक्षात्मकमभीष्टं फलं ददातीति भावः / रूपकमत्रालङ्कारः / जैनागम एव मुक्तिमार्गप्रदर्शको न वेदान्तादिदर्शन मिति प्रतीयमानस्यैवार्थस्य चमत्कारोत्कर्षनिबन्धनत्वाध्वनिकाव्यमिदमवसेयम् / (कल्पलता) न काकैश्चार्वाकः सुगततनयैर्नापि शशकैकैर्नाद्वैतज्ञैरपि च महिमा यस्य विदितः / मरालाः सेवन्ते तमिह समयं जैनयतयः, सरोजं स्याद्वादप्रकरमकरन्दं कृतधियः // 7 // अन्वयः- इर, यस्य, महिमा, काकैः चार्वाकैः, न, विदितः, शशकः, सुगततनयः, अपि, न, च, बकैः, भदैतज्ञैः, अपि, न, (विदितः) कृतधियः, मरालाः, जैनयतयः, स्याद्वादप्रकरमकरन्दम् , सरोजम् , तम् , समयम् , सेवन्ते / (कल्पलतावतारिका) - इह-अत्र समयविचारे / यस्य-बुद्धिविषयीभूतस्य स्याद्वादीयसमयस्य / महिमा-माहात्म्यम् / काकैः-काकरूपैः / चार्वाक:तत्त्वेन प्रसिद्ध हस्पतिशिष्यैर्नास्तिकैः / न-नहि / विदितः-अवगतः / शशकैः-शशरूपैः / सुगततनयैः-बौद्धैः / अपि-सम्भावनायाम् / Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [अष्टमः - न-नहि / विदित इति शेषः / च-पुन: / बकैः-बकरूपैः / अद्वैतज्ञैः-अद्वैत द्वैताभावमद्वितीयमितियावजानन्त्यवगच्छन्तीत्यद्वैताज्ञास्तैस्तथा वेदान्तिभिरित्यर्थः। ध्यानमग्ना बका यथा लक्ष्यमेकं मत्स्यमेव पश्यन्ति न त्वन्यं कश्चन पदार्थविशेषन्तथा केवलमेक ब्रह्मैव पश्यद्भिरिति भावः / अपि-सम्भावनायाम् / न-नहि / विदित इति शेषः। कृतधियः-बुद्धिमन्त: / मरालाः-हंसरूपाः / जैनयतयः आर्हतमुनयः / स्याद्वादप्रकरमकरन्दम् - स्याद्वादप्रकारोऽनेकान्तन्त्रात एव मकरन्दः पुष्परसो यस्य तत्तथा, सरोजविशेषणमेतत् / सरोजकमलम् / तद्रूपमित्यर्थः / तम्-बुद्धिविषयीभूतम् / समयम्--स्याद्वाद सिद्धान्तम् / “समयः शपथाचारसिद्धान्तेषु' इति मेदनी / सेवन्तेसमाश्रयन्ति / अत्र चार्वाकाणां धीमालिन्यात्मकं कायं सद्विचाररूपाच्छलिलमलिनीकरणस्वभावञ्च तथा ताथागतानां बाह्यधवलनामिन्द्रिसौकुमार्यच, वेदान्तिनां पुनर्मिथ्याध्याननिमग्नत्वमार्हतानाञ्च विदशता-नित्यानित्यादिपक्षद्वयदृढताविवेककरणपाटवादिकमनुसन्धाय क्रमशः काक-शशक-बक-मरालैः साकं साम्यमनुसन्धेयमिति / अत्रानेके व्यस्तरूपकालङ्काराः / अन्यैातमपि न शक्यते किं पुनः खण्डयितुं शक्य: स्याद्वादसिद्धान्त इतिश्लोकवाच्यार्थात्मना वस्तुनाऽर्थापत्यलङ्कारस्य व्यङ्ग यतयाऽलङ्कारध्वन्यात्मकं काव्यमिदमवसेयम् / (कल्पलता) कचिद्भेदच्छेदः क्वचिदपि हताऽभेदरचना, क्वचिनात्मख्यातिः कचिदपि कृपास्फातिविरहः / / कलङ्कानां शङ्का न परसमये कुत्र तदहो, . श्रिता यत् स्याद्वादं, सुकृतपरिणामः स विपुलः // 8 // Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तककः ] कल्पलतावतारिका [21 अन्वयः-क्वचित् , मेदच्छेदः, क्वचित् , अभेदरचना, अपि, हता, क्वचित् , आत्मख्यातिः, न, क्वचित् , कृपास्फातिविरहः, अपि, तत् , परसमये, कुत्र, कलकानाम् , शङ्का, न, अहो, यत्, स्याद्वादम् , श्रिताः, सः, विपुलः, सुकृतपरिणामः / (कल्पलतावतारिका) क्वचित्-कुत्रचित्, वेदान्तदर्शन इति यावत् / भेदच्छेदः-भेदोन्मूलनम् , अद्वैतस्यैव तत्र स्वीकारात् / क्वचित्-कुत्रचित् , न्यायादिदर्शने इति यातत् / अभेदरचना-अभेदस्थापना / अपि-सम्भावनायाम् / हता-विनाशिता, खण्डितेति यावत् / अनेकात्मवादस्यैव तत्र तत्र स्वीकारात् / क्वचित्--मीमांसादर्शने / कृपास्फातिविरहः-दयाबाहुल्याभावः, तस्य यज्ञादिप्रवर्तकत्वात् तस्य च हिंसादिबहुलत्वात् / अपि-सम्भावनायाम् / तत्-तस्माद्धेतोः / परसमये-अन्यदर्शनिसिद्धान्ते / क-कुत्रं / कलङ्कानाम्-अपवादात्मकदूषणविशेषाणाम् / शा-त्रामः, वितर्को वा / "शङ्का त्रासे वितर्के च" इति मेदिनी / न-नहि / वर्तते इति शेषः / अपि तु सर्वत्रैव परसिद्धान्ते तच्छका वर्तत एवेति भावः / अहो-वितर्केऽव्ययम् / “अहो प्रश्ने वितर्के च" इतिमेदिनी। यत्-यस्मात् / (वयम् ) स्याद्वादम्-अनेकान्तवादम् / श्रिताः-आश्रिताः / सः-अस्मत्कर्तृकस्याद्वादाश्रयः / विपुल:-महान् / सुकृतपरिणामः-पुण्यपरिपाकः / अन्यथा कल्पद्रुमतुल्यस्याद्वादाश्रयणं न स्यादितिभावः / अनेकान्तदर्शनं सर्वोत्कृष्टमिति ध्वननाद् ध्वनिपाध्यमिदमिति शम् / Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ अष्टमः - सप्तभङ्गादिवैशद्य, विचार्यकान्तखण्डनः / कर्माष्टकप्रतिस्पर्धी, संस्तुतः स्तवकोऽष्टमः // . / इति शासनसम्राट्-तपागच्छाधिपति सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-जगद्गुरुबालनह्मचारिभट्टारकाचार्यमहाराजश्रीविजयनेमिसूरीश्वरमहाराजपट्टालङ्कार-1 / शास्त्रविशारदकविरत्नपीयूषपाणिपूज्यपादाचार्यश्रीविजयामृतसरिवरसन्दब्धायां महोदधिकल्पशास्त्रवार्तासमुच्चय - कल्पलतानुसारिण्यांकल्पलतावतारिकायां अष्टमः स्तवकः / யைமையலையமையாமையையலையேன் Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [211 * नवमः स्तवकः - तत्रादौ मङ्गलार्थ श्लोकत्रयं निर्दिशन्त्युपाध्याया:(कल्पलता) प्रणतान् प्रति निर्वृतिश्रिया, स्वहृदो राग इव स्फुटीकृतः / त्रिशलातनयस्य सम्पदे, पदयोः पाटलिमा नखत्विषाम् // 1 // अन्वयः-प्रणतान् , प्रति, निर्वृतिश्रिया, स्फुटीकृतः, स्वहहः, रागः, इव, त्रिशलासनयस्य, पदयोः, नखत्विषाम् , पाटलिमा, सम्पदे, (भूयात् ) / (कल्पलतावतारिका) प्रणतान्-प्रकर्षेण कृतनमस्कारान् , भक्तजनान्। त्रिशलातनयचरणयोरित्यर्थाद्विज्ञेयम् / प्रति-लक्ष्यीकृत्य / निवृतिश्रिया-मुक्तिलक्ष्म्या / स्फुटीकृतः-प्रकटीकृतः / स्वहृदः-स्वहृदयस्य / राग:अनुरागः / इव-उत्प्रेक्षायाम् / त्रिशलातनयस्य-चरमतीर्थकृतो भगवतो महावीरस्य / पदयोः-चरणयोः, पादपद्मयोरिति यावत् / नखत्विषाम्-नखकान्तीनाम् / पाटलिमा-लोहितिमा,रक्तिमेति यावत् / सम्पदे-सद्भाग्यसम्पत्तये / भूयादितिशेषः / त्रिशलातनयचरणप्रणतान् जनान् प्रति मुक्तिलक्ष्म्याः पूर्णानुरागो भवतीति भावः / अत्र भगवञ्चरणकमलनखकान्तिपाटलिमनि मुक्तिलक्ष्मीहृदयानुरागतादात्म्यसम्भावनादुत्प्रेक्षालङ्कारः / अन्यधर्मसम्बन्धनिमित्तमन्यस्यान्यतादात्म्यसम्भावनस्यैव तत्त्वात् / इव शब्दस्यात्र सम्भावनावाचकत्वात् / नचे. वशब्दस्य यथादिशब्दवदुपमावाचकत्वात्कथमुत्प्रेक्षेति वाच्यम् “मन्ये शके ध्रवं प्रायो नूनमित्येवमादिभिः / उत्प्रेक्षा व्यज्यते शब्दैरिव. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ नवमः शब्दोऽपि तादृशः" इत्यभियुक्तवचनादिवशब्दस्याप्युत्प्रेक्षावाचकत्वात् ताशपाटलिमा न भवति किन्तु "मुक्तिलक्ष्मीहृदयानुरागः" इत्यपहृत्यलङ्कार उत्प्रेक्षालङ्कारेण व्यज्यते इति विवक्षितान्यपरवाच्यानुस्वानाभसंलक्ष्यक्रमार्थशक्त्युद्भवस्य ध्वनेरलङ्कारेणालङ्कारव्यङ्गयात्मकः प्रकारोऽवसेयः / अपह्नतेरस्य व्यङ्ग यस्यालङ्कारत्वञ्च ब्राह्मणश्रमणन्यायेन समर्थनीयम् / 'निर्वृतिश्रिया' इत्यनेन मोक्षसिद्धिः स्तवकस्यास्य विषयोऽपि सूचितोऽवसेयः। (कल्पलता) अपि स्वपिति विद्विषां ततिरपायरात्रिञ्चरः, प्रणश्यति यदाख्यया पठितसिद्धया विद्यया / स्तवप्रवणता स्वतः सततमस्य शद्धेश्वर प्रभोश्वरपङ्कजे भवति कस्य धन्यस्य न // 2 // अन्वयः- यदाख्यया, पठितसिद्धया, विद्यया, विद्विषाम् , ततिः, अपि, स्वपिति, अपायरात्रिञ्चरः, प्रणश्यति, अस्य, शङ्केश्वरप्रभोः, चरणपङ्कजे, कस्य, धन्यस्य, स्वतः, स्तवप्रवणता, न, भवति / (कल्पलतावतारिका) ___ यदाख्यया-यदीयाऽऽहया यन्नाम्नेति यावत् / पठितसिद्धयापठितोच्चारिताऽपि सिद्धा सिद्धिप्रदा, पठितसिद्धा तया तथा। विद्ययाविद्यारूपया। विद्विषाम्-शत्रूणाम् / ततिः-समुदाय: / अपि-सम्भावनायाम् / स्वपिति-शेते / यन्नामोच्चारप्रभावत: शत्रवो विद्वेषभावनाविरहिताः शान्तिमवलम्बमाना भवन्तीति यावत् / अपायरात्रिश्चर:-अपायो विघ्न एव रात्रिञ्चरो राक्षसस्तथा / प्रणश्यति-प्रकर्षण Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 213 विनाशमभिगच्छतीति यावत् / अस्य-तस्य / “इदम् शब्दस्यात्र लच्छब्दार्थकत्वात्" अन्यथा “यत्तदोर्नित्यसम्बन्धः” इति नियमात् साकांक्षता स्यादिति भावः / शह्येश्वरप्रभोः-श्रीशङ्गेश्वरपार्श्वनाथभग. वत: / चरणपङ्कजे-पादपद्मे। कस्य-कीदृशम्य / धन्यस्य-भाग्यशालिनो जनम्य / स्वतः-स्वयमेव / स्तवप्रणवता-स्तवनतत्परता / न-नहि / भवति-जायते / अपि तु सर्वस्यापि धन्यस्य भवत्येवेति भावः / अत्र "अपायरात्रिश्चरः" इत्यशे रूपकमलङ्कारः, प्रकाशितवैधय॑तयोपस्थितयोरुपमानोपमेययोः सादृश्यातिशयमहिम्नाऽभेदारोपस्यैव रूपकालङ्कारत्वात् / “चरणपङ्कजे" इत्यंशे तूपमैव नतु रूपकम् , स्तवप्रवणताया रूपकाननुकूलत्वात् / एवञ्च संसृष्टिरलकारस्तयोनिरपेक्षभावेनात्र समावेशात् / (कल्पलता) हेतुयुक्तिविलसत्सुवासनं, निर्मितोरुकुनयव्यपासनम् / भतभाविभवदर्थभासनं, शासनं जयति पारमेश्वरम् // 3 // अन्वयः-हेतुयुक्तिविलसत्सुवासनम् , निर्मितोरुकुनयव्यपासनम् , भूतभाविभवदर्थभासनम् , पारमेश्वरम् , शासनम् , जयति / . (कल्पलतावतारिका) हेतुयुक्तिविलसत्सुवासनम्-हेतुयुक्तिभ्यां विशेषेण लसत् शोभमानं सुवासन सुवासः सौगन्ध्यविशेष इति यावत् यम्य तत्तथा / निर्मितोरुकुनयव्यपासनम्-निर्मितं विहितमुरूणां महतां कुनयानां दुर्नयानां व्यपासनं विशेषेण निरासनं येन तत्तथा / भूतभाविभबदमासनम्-प्रतीतानागनवर्तमानकालिकपदार्थप्रकाशनसमर्थम् / Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य ... [ नवमः पारमेश्वरम्-परमेश्वरसम्बन्धि / शासनम्-साम्राज्यम् / जयतिविजयते / परमेश्वरसम्बन्धिशासनस्य विजये हेतुतया पादत्रयार्थस्याभिधानात् काव्यलिङ्गमलङ्कारः, "वपुःप्रादुर्भावादनुमितमिदं जन्मनि पुरा, पुरारे न कापि क्वचिदपि भवन्तं प्रणतवान् / नमन्मुक्त: सम्प्रत्यहमतनुरग्रेऽप्यनतिमानितीश ? क्षन्तव्यं तदिदमपराधद्वयमपि" इत्यादावपराधद्वये जन्म द्वयाधिकरणकनमनभावद्वयस्य हेतुतयाऽभिधानात् काव्यलिङ्गमिव / अन्त्यानुप्रासश्च शब्दालङ्कारोऽवसेय: // 3 // ___ननु वेदान्तिमतेऽद्वैते मोक्षार्थानुष्ठानवैयर्थ्यं दोषतया समुपस्थापितम्, मोक्ष एव चोपायाभावान्नास्तीति वेदान्तिमतमदुष्ट मति केषाश्चिद्वार्तान्तरमाह शास्त्रवार्तासमुच्चयकार:( शास्त्रवार्ता.) अन्ये पुनर्वदन्त्येवं, मोक्ष एव न विद्यते / उपायाभावतः किं वा, न सदा सर्वदेहिनाम् // अन्वयः- अन्ये, पुन:, एवम् , वदन्ति, मोक्षः, एव, न, विद्यते, उपायाभावतः वा, सर्वदेहिनाम् , किम् , न // (अव०) अन्ये-परे नास्तिकप्राया इत्यर्थः / पुनः-तु। एवम्वक्ष्यमाणप्रकारेण / वदन्ति-निगदन्ति / तमेव प्रकारमाह “मोक्ष एव न विद्यते” इति / मोक्षः-मुक्ति: / एव - अवधारणार्थकम् / न-नहि। विद्यते-अस्ति / एवञ्च न तदर्थानुष्ठानवैययं वेदान्तिनामिति भावः / मोक्षाभावे कारणमाह उपायाभावत इत्यादि / उपायाभावतः-मोक्षप्राप्तिहेत्वभावात् / नित्यावाप्तत्वेऽपि तदभिव्यक्तिकारणाभावात् / Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तबकः ] कल्पलतावतारिका [ 215 वा-अथवा / उपायम्वीकारपक्ष इति यावत् , सदा-सर्वदा / सर्वदेहिनाम्-नि'खलजीवानाम् / किम्-कथम् / न-नहि, स मोक्षो भवतीति शेषः / एवञ्च मोक्षवत नदुपायस्यापि काचिकत्वकादाचित्कत्वयोन्तुल्यः पर्य्यनुयोग इत्यवधेयम् // // यद्यसौ मोक्षोपाय: कर्मादिपरिणत्यादिसापेक्षतर्हि कर्मादेरना. दित्वात्कर्मादिपरिणत्यादि कि कादाचित्कम् ? अनादेः कर्मादेः स्वपरिणत्यादावन्यापेक्षाभावात् नचाधिकृतस्यैव कर्मणो विचित्र. स्वभावत्वात् तत्परिणत्यादिकं कादाचित्कमिति वाच्यम् कर्मण उत्कृष्टाद्यायाः ( ग्रन्थ्य राप्त्यवच्छिन्नाया अपकर्षवत्याश्च / स्थितेर्बहुवार निश्चयेन जातत्वात् / तथाचापकृष्टस्थितिकास्विभावत: कर्मणो मोक्षोपायजननपरिणतिशालित्वेऽभव्यादीनामपि तल्लाभप्रसङ्गः, तेषामपि तीर्थकरादिविभूतिं दृष्ट्वा ग्रन्थ्यवाप्तौ श्रुतसामयिकलाभश्रवणात् / एवं दर्शनादेः स्वभावजनितत्वेन मोक्षः पुरुषप्रकृतिसाध्यो न स्यादिति पर प्रत्युक्तं तदर्थानुष्ठानवैययं स्वयमप्यनिवारितम् / अपि च प्रथम निर्गुणस्यैव सतो गुणावाप्तावनेऽपि किं गुणापेक्षया ? अपि च सर्वमुक्तिसिद्धान्तो नास्ति जैनानाम् , तदभावे चायोग्यत्वशङ्या कथं मोक्षोपाये प्रेक्षावतां निराकुलप्रवृत्त्युपपत्तिः / न च शमदमभोगान. भिषङ्गा दना मुमुक्षुचिह्न तच्छङ्कानिवृत्तिः शमादिमत्त्वनिश्चयानन्तर प्रवृत्तिः प्रवृत्त्युत्तरं च शमादिसम्पत्तिरित्यन्योन्याश्रयात् // अत्र समाधानवातामाह सूरिराज:(शास्त्रवार्ता) अत्रापि वर्णयन्त्यन्ये, विद्यते दर्शनादिकः / उपायो मोक्षतत्त्वस्य, परः सर्वज्ञभाषितः // Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ नवमः .. अन्वयः-अत्र, अपि, अन्ये, वर्णयन्ति, मोक्षतत्त्वस्य, परः, सर्वशभाषितः, दर्शनादिकः, उपायः, विद्यते / . (अव०) अत्र-मोक्षाभाववादे / अपि-सम्भावनायाम् / अन्येपरे मोक्षवादिनो जैना इत्यर्थः। वर्णयन्ति-निरूपयन्ति / यत्-मोक्ष. तत्त्वस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदेन शुद्धात्मस्वरूपावस्थानरूपस्य / पर:श्रेष्ठः, उत्कृष्ट इति यावत् / सर्वज्ञभाषितः-वीतरागभणित: न तु पुनरसर्वज्ञभाषितोऽभाषितो वा / दशनादिका-दर्शन-ज्ञान-चरित्ररूपः / उपायः-प्राप्तिहेतुः / विद्यते-अस्तीति / __ अत्र श्लोके मोक्षतत्त्वस्य इति तत्त्वपदेनान्याभिमतमोक्षस्या भावादेव तदुपाय: शशश्रङ्गोपायतुल्य इति ध्वनितम् / तथाहिसमानाधिकरणदुःखप्रागभावासहवृत्तिदुःखध्वंस एव मोक्ष इति नैयायिकमतं न रमणीयम् अतीतदुःखवद् वर्तमानदुःखस्यापि स्वत एव नाशादपुरुषार्थत्वप्रसङ्गात् / न च हेतुविनाशार्थ पुरुषव्यापारः प्रायश्चित्तवदिति वाच्यम् तथा सति दुःखानुत्पादस्य दुःखसाधनध्वंसस्यैव वा प्रयोजनत्वप्रसङ्गात् / न च चरमदुःखध्वंसेऽन्वयव्यतिरेकाभ्यां तत्त्वज्ञानस्य प्रतियोगिवद् हेतुत्वम् प्रतियोगिनमुत्पाद्य तेन तदुत्पा. दनात् , पुरुषार्थसाधनतया दु:ख तत्साधनयोरपि प्रवृत्तिदर्शनादिति वाच्यम्, चरमत्वस्याऽऽर्थसमाजसिद्धत्वेन कार्यतानवच्छेदकत्वात् , अन्त्यदुःखे उपान्त्यदुःखस्यैव हेतुत्वेन तस्य तत्त्वज्ञानेनोत्पादयितुमशक्यत्वात् , भोगेनैव कर्मणां नाशे नानाभवभोग्यकर्मणामेकभवे भोक्तुमशक्यत्वात , तत्कर्मभोगस्य चापूर्वकर्माजकत्वेनानिर्मोक्षापातात् , न च तत्त्वज्ञानबलार्जितेन कायव्यूहेन तत्तत्कर्मभोगाद् नानिर्मोक्ष इति Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तनकः ] कल्पलतावतारिका [217 समीचीनम्, मनुजादिशरीरसत्त्वे शूकरादिशरीरोत्पादायोगात् , देवा. दीनां तु वैक्रियशरीगदिकर्मोदयमहिम्नैव नानाशरीरश्रवणोपपत्तेरिति / __"दुःखेनात्यन्तविमुक्तश्चरति" इतिश्रुतिस्वरसाद् दुःखात्यन्ताभाव एव मुक्ति', दुःखसाधनध्वंस एव च स्ववृत्तिदुःखस्यात्यन्ताभावपम्वन्धः, स च साध्य एव" इति नैयायिकैकदेशमतमपि न समीचीनम्, दुःखसाधनध्वंसस्य दुःखात्यन्ताभावसम्बन्धत्वे मानाभावात् / "दुःखध्वंसस्तोम एव मुक्तिः” इति केषाश्चित्तदेकदेशिनां मतमपि नो वार्तम् , स्तोमस्य कथमप्यसाध्यत्वात् / "आनन्दमयपरमात्मनि जीवात्मलयो मुक्तिः” इति त्रिदण्डि- . मतमपि न पेशलम्', एकादशेन्द्रियसूक्ष्ममात्रावस्थित पञ्चभूतात्मकलिङ्गशरीरापगमरूपलयस्यं नामान्तरेण नामकर्मक्षयरूपत्वादेव यदि चोपाधिशरीरनाशे औपाधिकजीवनाशो लय इत्युच्यते तदा तेन रूपेणाकाम्यत्वादपुरुषार्थत्वात् / "अनुपप्लवा चित्तसन्ततिर्मुक्तिः” इति बाद्धबुद्धिरपि न सूक्ष्मा सन्ततेरवस्तुत्वेनासाध्यत्वात् / न च सन्ततिपतितक्षणानामेव पूर्वोत्तरभावेन हेतुहेतुमद्भावात् तत्साध्यत्वम् , संसारानुच्छेदप्रसङ्गात् सर्वज्ञ ज्ञानचरमक्षणस्यापि मुन्नज्ञानप्रथमक्षणहेतुत्वेन तत्सन्ततिपतितत्वात् / अथ न हेतुफलभावमात्रादेकसन्ततिव्यवस्था, अपि तूपादानहेतुफलभावात , न च सर्वज्ञज्ञ नस्य चरमक्षण उपादानम्, आलम्बनप्रत्ययो हि स: समनन्तरप्रत्ययश्चोपादानमिति चेत् न तुल्यजातोयस्योपादानत्वे मुक्तचित्तसर्वज्ञज्ञानयोस्तु जातयल्यीतानपायात् , सर्वज्ञज्ञानचरमक्षणस्याऽऽद्यमुक्तचित्तानुपादानवे तस्यानुपादानस्यैवोत्पत्ते Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 ] शास्त्रवातासमुच्चयस्य . [ नवमः जर्जागराद्यप्रत्ययेऽप्युपादानानुमानोच्छेदात् , अन्वयिद्रव्याभावे बद्धमुक्तव्यवस्थानुपपत्तेरिति / ___“स्वातन्त्र्यं मुक्ति" रत्यपरेषां मतमपि न विचारसहम् , तद्यदि कर्मनिवृत्तिरेव तदा सिद्धान्तसिन्धावेव निमन्जनात् , यदि च तत् (स्वातन्त्र्यम् / तदाभिमानाधीनतया तम्य संसारविलसितत्वात् / "प्रकृतितद्विकारोपधान वलये पुरुषम्य स्वरूपेणावस्थानं मोक्षः" इति साडयमतमपि न निर्मलसंख्यासमुज्जृम्भितम् स्वरूपावस्थानस्य कूटस्याऽऽत्मम्वरूपम्याऽसाध्यत्वात् प्रकृत्यादिप्रक्रियायां प्रमाणभावाच्च "प्रकृतेमहाँस्तनोऽहङ्कारस्तस्माद्गणश्च षोडशकः तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्चभूतानि" इत्यादिप्रक्रियाया असर्वज्ञप्रणीतत्वाच्च / "अग्रिमचित्तानुत्पादे पूर्वचित्तनिवृत्तिर्मोक्षः" इत्यन्येषां मतमपि कुबासनाविलसितमेव, अग्रिमचित्तानुत्पादस्य प्रागभावरूपस्यासाध्य. स्वात्, चित्तनिवृत्तेरनुद्देश्यत्वाच्च। ____ "आत्महानं मुक्तिः” इति पापिष्ठमतमपि पिष्टमेन वीतराग. जन्मादर्शनन्यायेन नित्यतया सिद्धस्यात्मनः सर्वथा हातुमशक्यत्वात् / "नित्यनिरतिशयसुखाभिव्यक्तिर्मुक्तिः” इति तौतातिकमतमपि नातिचतुरस्रम् एकान्ततः सुखम्य नित्यत्वे संसारदशायामपि तदभिव्यक्तिप्रसङ्गात्, सुखमात्रस्य स्वगोचरसाक्षात्कारजनकत्वनियमात , तज्ज्ञानस्याप्यभिव्यक्तिरूपस्य, नित्यत्वात् , “नित्यं विज्ञानमानन्द ब्रह्म" इति श्रुत्या ज्ञानसुखयोरभेदबोधनात् अनित्यज्ञानरूपतदभिव्यक्तर्दोषाभावसाध्याया उपगमे तस्या नाशनियमेन मुक्तस्य पुनराधृत्तिप्रसङ्गात्, तदभिव्यक्तिप्रवाहस्य व शरोरादिहेत्वपेक्षां विनाऽनुपपत्ते, उपपत्तो वा Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 216 - एकस्या एव तदभिव्यक्तेोषाभावजन्यायाः, सुखस्य च तादृशस्य तावदरमवस्थानौचित्यात् / एतेन ‘अविद्यानिवृत्तौ विज्ञानसुखात्मकः केवल आत्मैवापवर्ग," इति वेदान्तिमतमपि निरस्तम् ज्ञानसुखात्मकब्रह्मणो नित्यत्वे मुक्तसंसारिणोरविशेषापातात , अविद्याया असत्त्वेन नित्यनिवृत्तत्वाच्चेति संक्षेपः / पातञ्जल स्तु योगपदाभिधेयां क्रियामेव मोक्षहेतुत्वेनोपयन्ति परमार्थभूतस्य चित्तस्यादर्शनेन साक्षिदर्शने निरोधातिरिक्तोपायाभादिति कथयन्ति तदपि न समीचीनम् सर्वज्ञस्य चित्तदर्शनार्थं समाधिव्यापारायोगात् , अन्यथा सर्वज्ञस्वभावपरित्यागादचेतनादविशेषापत्तेः। अथ निस्तरङ्गमहोदधिकल्पो ह्यात्मा, तत्तरङ्गकल्पाश्च महदादिपवनयोगतो वृत्तय इति तन्निराकरणेनैवात्मनः स्वरूपप्रतिष्ठेति चेन्न, आत्मन: प्राक् तदतत्स्वभावत्वयोरनुष्ठानवैयात् , विषयग्रहणपरिणामरूपाऽऽकारसंपृक्तज्ञानस्य मुक्तावप्यनपायाच्च, तस्मात् न चित्त. दर्शनार्थं योगिनां समाधौ व्यापार:, किन्तु चित्तपृथक्करणर्थमेव, तत्र च क्रियाया इव ज्ञानस्यापि हेतुबमव्याहतमेव, केवलाभोगपूर्वक एवं हि योगनिरोधव्यापार इति विभावनीयम् / इत्थश्च द्वौ क्रमौ चित्तनाशस्य योगो ज्ञानञ्च भारत ! . योगश्चित्तनिरोधो हि ज्ञानं सम्यगवेक्षणम् // इति वशिष्ठोक्तमपि ज्ञानकर्मसमुच्चयानुरोध्येवेति मन्तव्यम् / अथ दिगम्बराक्षेपः(कल्पलता) अत्र केचन दिगम्बरडिम्भास्तककर्कशमिदं निगदन्ति / हन्त!दन्तिन इवातिमदान्धा, अङ्कशं गुरुमनाइतवन्तः // 1 // Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220] शाखवार्तासमुच्चयस्य [नवमः चेत् त्रयं शिवपथः श्लथ एव प्रेक्ष्यतेऽद्य भवतामभिलाषः / वाससा चरणहानिमुपेता न त्रयं सितपटा घटयन्ति // 2 // . ' अन्वयः-भत्र, केचन, दिगम्बरडिम्भाः, तर्ककर्कशम् , इदम् , निगदन्ति हन्त ! अतिमदान्धाः, दन्तिनः, इव, अङ्कशम , गुरुम् , अनादृतवन्तः, वाससा, चरणहानिम् . उपेत:, सितपटा: त्रयम् , न, घटयन्ति, चेत्, त्रयम् , शिवपथः अद्य भवताम् अभिलाषः इलथः, एव, प्रेक्ष्यते / (कल्पलतावतारिका) अत्र-मोक्ष विषयेऽस्मिन् / केचन-कतिपये। दिगम्बरडिम्भाःदिगम्बरबालका: / डिम्भत्वे नाप रणतबुद्धित्वं तेषां व्यज्यते / तर्ककर्कशम्-तकैः कर्कशं कठोर यथास्यात्तथा / इदम्-वक्ष्यमाणप्रकारम् / निगदन्ति-ब्रुवन्ति / प्रकारमेव तमाह हन्तेत्यादिना - हन्त ! खेदेऽव्ययम् / अतिमदान्धाः-नितान्तं मदोन्मत्ताः / दन्तिनः-मतअजाः / इव- यथा / अङ्कशम्-उन्मार्गनिवर्तकत्वादकुशरूपम् / गुरुम्-धर्मोपदेशकम् / अनादृतवन्तः-तिरस्कृतवन्तः / वाससावस्त्रेण, तद्ग्रहणेनेत्यर्थः / चरणहानिम्-चारित्रत्यागम् / उपेता:प्राप्ताः / सितपटाः-श्वेताम्बरत्वेन प्रसिद्धा: श्रमणसाधवः। त्रयम्ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकरत्नत्रयम् / न-नहि घटयन्ति - पालयन्ति / चेत्-यदि त्रयम्-दर्शन दित्रितयम् / शिवपथः-मोक्षमार्गः / स्व'. क्रियते भवद्भिरितशेषः / अद्य-इदान म् / भवताम्-सितपटानाम् / अभिलाष:-मोक्षविषयकमनोरथः / श्लथः-शिथिल: / एव-खलु / प्रेक्ष्यते-अवलोक्यतेऽस्माभिरिति शेषः / मोक्षत्वावच्छिन्नंकायता. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तक्कः ] कल्पलतावतारिका [ 221 निरूपितकारणतावच्छेदकत्वस्य ज्ञानदर्शनचारित्रत्वपर्याप्तत्वात् / अयं भावः - मोक्षरूपं कार्य प्रति न तणारणिमणिन्यायेन ज्ञानादीनां हेतुत्वम् , तन्त्रितयान्यतमस्य यस्य कस्यचिदेकस्याधिगमेऽपि मोक्षप्रसङ्गात् , किन्तु दण्डचक्रादिन्यायेनैव, यथा वा काव्यनिर्माणे शक्तिनिपुणताभ्यासैतत्समुदितम्यैव हेतुत्वमत एव “शक्तिनिपुणतालोकशास्त्रकाव्याद्यवेक्षणात् / काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे" इत्यत्र काव्यप्रकाशे मम्मटेन हेतुरित्येवोक्तं न तु हेतव इति / एव च प्रकृते ज्ञानदर्शनचारित्रान्यतमस्य चारित्रस्याभावे श्वेताम्बराणां मोक्षानुपपत्तिरिति भावस्तथाहि-रागाद्यपचयनिमित्तनैर्ग्रन्थ्यविपक्षभूतत्वेन तदुपचयहेतुवनादिग्रहणं विशिष्टशृङ्गारानुषक्ताङ्गनाङ्गसङ्गादिवत् कथ न मुक्तिप्रतिकूलम् ? कथश्च द्रव्यतः क्षेत्रत: कालतो भावतो वा कृतपरिग्रहप्रत्याख्यानस्य वस्रोपादाने न पश्चममहाव्रतभङ्गः / कथवैवं परद्रव्यरतिसाम्राज्ये स्वात्मप्रतिबन्धमात्रविश्रान्तश्रामण्यसमृद्धिः? कथश्च न तस्करादिभ्यो वमादेः संगोपनानुसन्धानेन संरक्षणानुबन्धिरौद्रध्यानावकाशः ? कथं चैवमाचेलक्यपरीषहविजयः कृतः स्यात् ? न हि सचेलकत्वमचेलकत्वं च न विरुद्धमिति। यदि च सचेतकत्वमप्याचेलक्यमूलगुणावगुण्ठितश्रामण्यं न विरुन्ध्यात् तदा कथं जिनेन्द्रजिनकल्पिकादयः परमश्रमण अचेला एव श्रुते प्रसिद्धाः ? असङ्गताथमेव हिते वस्त्रादिकं परित्यक्तवन्त: तस्मात्तद्विनेया अपि तल्लिङ्गानुकारिण एवोचिताः ततो न श्वेताम्बरा महाव्रतपरिणामवन्तः, तत्फत्तसाधका वा, वसपात्रादिपरिग्रहयोगित्वात् महारम्भगृहस्थव.. दिति / अत्रोपाध्यायाः Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ नवमः (कल्पलता) दिक्पटाः ! सितपटैः सह सिंहैारणा अपि रणाय न सज्जा / दर्शयन्तु वदनानि कथं ही तेन ते परिगलनिजलजाः // 4 // ___ अन्वयः-वारणा:, अपि, दिक्पटाः, सिंहे:, सितपटैः, सह, रणाय, सजाः, न, तेन, परिगलन्निजलज्जाः, ते, वदनानि, कथम् , दर्शयन्तु, हो / (कल्पलतावतारिका) वारणा:-परपक्षनिवारका, गजाः / अपि-सम्भावनायाम् / दिक्पटा:-दिगम्बराः / सिंहै:-पञ्चाननरूपैः। सितपटैः-श्वेताम्बरैः / सह-साकम् / रणाय-युद्धाय, तत्त्वनिर्णयात्मकवादायेति यावत् / सज्जा:--सन्नद्धाः, प्रस्तुता इति यावत् / न-नहि / भवितुं शक्नुवन्तीति शेष: / तेन-तेन हेतुना / परिगलनिजलज्जाः-निस्त्रपाः / ते-दिगम्बराः / वदनानि-मुखानि / कथम्-केन प्रकारेण / दर्शयन्तुप्रकाशयन्तु, श्वेताम्बरानन्यान् वेति शेषः। हीति विस्मयार्थक विषादार्थकं वाऽव्ययम्, विस्मयेन विषादेन वा ते स्ववदनानि कथं दर्शयन्त्विति भावः / "ही दुःखे हेतावाख्यातौ विषादे विस्मयेऽपि च" इति मेदिनी। अत एव माघकवेः शिशुपालवधाख्ये स्वकाध्ये “हत विधिलसितानां ही विचित्रो विपाकः” इति श्लोकपादे हीशब्दो विषादार्थको दृश्यत इति। तथाहि-यत्तावद्रागाद्यपचयनिमित्तनैन्थ्यविपक्षभूतत्वेन तदुपचयहेतुत्वं वस्त्रादेरुक्तम् , तत्र नैर्ग्रन्थ्यं सर्वतो देशतो वोपात्तम् / आये-अष्टविधकर्मसम्बन्धरूपग्रन्थात्यन्तिकाभावरूपस्य तस्य मुक्तेवेव सम्भवात् कथं तस्य रागाद्यपचयहेतुता ? नहि तदा रागादि. Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 223 कमेवान्तीति किं तेनापचेयम् ? इति विशेषणासिद्धो हेतुः / द्वितीयेऽपि किं सम्यग्ज्ञानादितारतम्येनोपचीयमानं भावनैर्ग्रन्ध्यं विव. क्षितम् ? आहोस्विद् बाह्यवस्त्राद्यभावरूपम् ? आये तथाभूतसम्यग्ज्ञानादिविपक्षत्वेन वस्त्रादिग्रहणग्रहणम्या सिद्धेहेतोर्विशेष्यासिद्धता, द्वितीये वस्त्राद्यभावस्य गगाद्यपचयनिमित्ततासिद्धेहेंतोर्विशेषणासिद्धता / नच वस्त्राद्यभावो रागाद्यपचयनिमित्तत्वेन सिद्ध एवेति वाच्यम् / अतिशयितरागवद्भिः पारापतादिभिर्व्यभिचारात् / न च पुरुषत्वे सतीतिविशेषणीयम् वस्त्रविकलैरनाHदेशोत्पन्नैर्व्यभिचारात् / नचाऽऽर्यदेश त्पन्नपुरुषत्वे सतीति विशेषणाद् न दोषः, तथाभूतपाशुपतैर्व्यभिचारात्। न च जैनशासनप्रतिपत्तिमत्तथाभूतपुरुषत्वे सतीति विशेषणोपादानाद् न दोष इति वाच्यम् उन्मत्तदिगम्बरैर्व्यभिचारात् / नचानुन्मत्तत्वे सतीत्यपि विशेषणीयम् मिथ्यात्वोपेतद्रव्यालङ्गावलम्बिदिग्वाससा व्यभिचारात्। न च सम्यग्दर्शनादिसमन्वितपुरुषत्वेसतीति वनाभावो हेतु: विशेषणस्यैव तत्र समर्थत्वेनासमर्थविशेध्यत्वात्। किञ्च वस्त्रादिधर्मोपकरणाभावे यतियोग्याहारविरह इव विशिष्टश्रुतसंहननविकलानामेतत्कालभाविपुरुषाणां विशिष्टशरीरस्थितेरेवाभावाद् न सम्यग्दर्शनादिसमन्वितत्वविशेषणत्वोपपत्तिरिति विशेष्यसद्भाव एव विशेषणसद्भाव बाधते / एवञ्च "वनादिकं ग्रन्थः मू_हेतुत्वात् कनकादिवत्" इत्यनुमानमपि जाल्मानां प्रतिक्षिप्तम् प्रन्थत्वं यदि मूछोहेतुत्वम् तदा हेतोः साध्याविशेषात्, यदि च 'प्रन्थव्यवहारविषयत्वम् तदा व्यवहारस्य लौकिकस्योपादाने तृणादौ व्यभिचारात् अलौकिकस्य चोपादाने बाधात् , दृष्टान्तस्य साध्यवै Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य अथ क्रय-पितृमरणप्रतिग्रहादिजन्य स्वत्व धनवबादौ पायविशेषरूपं विक्रयादि बनाश्यमवश्यमभ्युपेयम् अन्यथा स्वपरविभागाभाने स्तेयाऽस्तेयादि व्यवस्थोत्सीदेत् , न च स्वमूविषयत्वमेव स्वत्वम् परकीयेऽपि स्वमूछोविषये दीयमाने प्रत्यवायाप्रसङ्गात् / न च क्रयाद्युपायविषयत्वम् , तत्क्रयादीनामिच्छाविशेषरूपतया क्रीतादौ तद्विषयत्वसम्भवेऽपि पितृमरणादेनिर्विषयत्वेन पैतृकादौ तदनुपपत्तेः, क्रयादेः स्वत्वगर्भवाच्च / न च शास्त्रानिषिद्धविनियोगोपाययोग्यत्वम्, यावदुपायव्यतिरेके विनियोगे प्रत्यवायस्तावदन्यतमत्वं वा तत् प्रत्यवायप्रतिपादकस्य शास्त्रस्य 'परस्वं नाददोत" इत्यादेः स्वत्वानवगमेऽप्रतीतेः / न च कचिद् विक्रयप्रागभावविशिष्टः क्रयविनाशः, कचिदानादिप्रागभावविशिष्टः प्रतिग्रहध्वं श्वेत्येवमनुगतं स्वत्वं वाच्यम्, अनुगतव्यवहारोच्छेदात् / अतिरिक्तधर्मेण तावदनुगमे चातिरिक्तस्वत्वपर्यायस्यैव वक्तुमुचितत्वात् / तथा च स्वनिरूपितस्वत्ववत्त्वेनैव वस्त्रादेः कनकादिवद् ग्रन्थत्वं व्यवतिष्ठत इति चेत् न, यतिप्रतिगृहीतवस्त्रादौ धर्म्यविनियोग्यतारूपस्यातृष्णामूलस्य स्वाश्रयभिन्नाभिन्नस्य स्वत्वपर्यायस्य सत्त्वेऽपि ग्रन्थव्यवहारनिबन्धनसृष्णामूलप्रतिग्रहादिजन्यस्वत्वपर्यायाभावात् / अत एव "स्वपरिभोग्यमिदं वस्त्रादि" इति यतीनां भाषा न तु स्वमेवेदम् इति / ये तु मूढाः संगिरन्ते-असहिष्णोराहारकालेऽपि प्रमादसद्भावात् न यथावदात्मभावना, वस्त्रादेन्तु सर्वदा सन्निधाने सर्वदा प्रमादो. दयाद् महदनिष्टम् , इति ते समयलेशम पि न ज्ञातवन्त:-प्रमत्त. गुणस्थानवर्तिनामपि शुभयोग प्रत्यात्मानारम्भत्वादिप्रतिपादनात् , विधिना भुञ्जानस्य प्रमादाभावात् , प्रमादोपलक्षिताध्यवसाय विशेष Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [225 स्यैव प्रमत्तगुणस्थानप्रवृत्तिनिमित्तत्वात् / शश्वद्वस्त्रादिसन्निधानेन प्रमाद्रोदये शश्वदतिसन्निहितेन कायेनापि तदुदये तनुच्छेदप्रसङ्गात् / एतेन "शश्वत्परद्रव्यसन्निधाने तदर्शनात्मदर्शनप्रतिरोधः” इत्यपि प्रलपितमपास्तम् , कायेऽप्यस्य समानत्वात् / कायदर्शनं प्रतियोगिज्ञानीभूय ध्यायिनः स्व भिन्नत्वज्ञानोपकार्ये वेति चेत् वस्त्रादिदर्शनमपि किं न तथा अपेक्षाकारणानां प्रधानकारणायत्तत्वात् "जे जित्तिा य हेऊ भवस्स ते तित्तिया य मुक्खस्स" इतिवचनप्रामाण्यात् / (कल्पलता) अथ तनुर्महतामपि दुस्त्यजा, ननु तदर्थमपीह भुजिक्रिया / इति ततो महतां न पथक्षतिर्भवति यदलतः सकला स्थितिः // 5 // ... अन्वयः-अथ, महताम् , अपि, तनुः, दुस्त्यजा, ननु, तदर्थम् , अपि, इह, भुजिक्रिया, ततः, महताम् , पथक्षतिः, न, भवति, यद्बलतः, सकला, स्थितिः, इति / (कल्पलतावतारिका) : अथ-संशयार्थमानन्तर्य्यार्थकं वाऽव्ययम् , 'अथाथो संशये स्याता'मिति मेदिनी। महताम्-महात्मनाम् / अपि-खलु / तनु:मूर्तिः / दुस्त्यजा- दुःखेन त्यक्तु योग्या / ननु-सम्भावनार्थकमव्ययम् / तदर्थम्-शरीरसंरक्षणकृते / अपि-खलु / इह-आचारे / भुजिक्रिया-अभ्यवहारव्यापारः / ततः-भुजिक्रियातः / महताम्महात्मनाम् / पथक्षति:-मार्गोल्लङ्घनम्। न-नहि / भवति-जायते / यदलतः-यत्सामर्थ्यत: / सकला-समस्ता / स्थितिः-मर्यादा, सम्पद्यते, इति शेषः / इति-एवमुच्यते चेत् / Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 ] शास्त्रवातासमुच्चयस्य [नबमः - (क्ल्प लता) शृणु गुणान् वहतां सुकृतस्पृशां, किमुपधेर्बत दुस्त्यजताऽपि न / अभिनिवेशमपास्य विमृश्यतामिदमुदीरितमुज्ज्वलभावतः // 6 // अन्वयः- शृणु, गुणान् , वहताम् , सुकृतस्पृशाम् , उपधेः, अपि, दुल्यजता, न, किम् , अभिनिवेशम् , अपास्य, उन्न्वलभावतः, इदम् , उदीरितम् , विमृश्यताम् / (कल्पलतावतारिका) शृणु-समाकर्णय / पुणान्-दयादाक्षिण्यपरोपकारित्वादीन् / वहताम्-संसेवमानानाम् , महात्मनामिति यावत् / उपधेः-वनाग्रुपकरणस्य / अपि-खलु / दुस्त्यजता-दुःखेन त्यक्तु योग्यता / न-नहि / किम्-प्रश्नार्थकमव्ययम्, अपि तु दुस्त्यजतेतिभावः / अभिनिवेशनम्-दुराग्रहम् / पक्षपातमिति यावत् / अपास्य-अपनीय / उज्ज्वलभावतः-विशुद्धभावनातः / इदम्-प्रत्यक्षम् / उदीरितम्निगदितम् / मयेति शेषः / विमृश्यताम्-विचार्य्यताम् / (कल्पलता) दीर्घदेहस्थितेहेंतो-राहारो दुस्त्यजो यथा / तथोपकरणं धाष्टर्यमुभयत्र समोक्तिकम् // 7 // अन्वयः-दीर्घदेहस्थिते:, हेतोः, आहार:, यथा, दुल्यजः, तथा, उपकरणम् , धाष्र्टयम् , उभयत्र, समोतिकम् / (कल्पलतावतारिका) दीर्घदेहस्थिते-सुचिरकालपर्यन्तशरीरावस्थानात् / हेतो:कारणात् / आहारः-भोजनम् / यथा-येन प्रकारेण / दुस्त्यजः Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तबकः . कल्पलतावतारिका [ 227 दुःखेन त्युक्त योग्यः / तथा-तेन प्रकारेण / उपकरणम्-आचारसाधनं वस्त्रादि। दुस्त्यजमिति शेषः / धाष्टर्थम्-आहारस्य दुस्त्यजत्वं न तूपकरणस्येति वैयात्यम् / उभयत्र-स्थलद्वये / समोक्तिकम्समा तुल्या उक्ति: कथनं यस्य तत्तथा। उपकरणं सर्वथा दुस्त्यज. मित्यस्यास्माभिरपि निगदितुं शक्यत्वात् / (कल्पलता) क्षुत्पीडितार्तध्यानस्य, यथा ह्यशनमौषधम् / तथा शीतादिभीताना-मपि वस्त्रादिसेवनम् // 8 // अन्वयः-क्षुत्पीडितार्तध्यानस्य, हि, यथा, अशनम , औषधम् , शीतादिभीतानाम् , वस्त्रादिसेवनम्, अपि, तथा / (कल्पलतावतारिका) . क्षुत्पीडितार्तध्यानस्य-क्षुत्पीडितानां बुभुक्षाव्यथितानां यदातध्यानन्तस्य तथा / हि-निश्चयेन / यथा-येन प्रकारेण / अशनम्भोजनम् / औषधम्-भेषजम् , भवतीतिशेषः / शीतादिभीतानाम्शीतादिवस्तुप्रयोज्यभयवताम् / वस्त्रादिसेवनम्-वस्त्रादिधारणम् / अपि-खलु / तथा-तेन प्रकारेण / औषधरूपमेवेति भावः / क्षुत्पीडितातध्याननिवारणार्थमशनमिव शीतादिभयापनयनाथ वनादिसेवनमप्यौषधरूपमिति वस्त्रादिधारणमावश्यकम् / (कल्पलता) कामिनीविरहसंभवदुष्टध्यानसन्ततिमपासितुमेवम् / कामिनीमपि किं न कमनीयां स्त्रीकुरुध्वमिति चेत्सममेतत् // 9 // अन्वयः-एवम् , कामिनीविरहसंभवदुष्टध्यानसन्ततिम् , अपासितुम् कमनीयाम् , कामिनीम् , अपि, किम् , न, स्वीकुरुध्नम् , इति, चेत् , Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ नवमः एतत् , समम् / (कल्पलतावतारिका) एवम्-अनेन शीतादिभीतसम्बन्धवस्त्रादिसेवनादिप्रकारेण / कामिनीविरहसम्भवदुष्टध्यानसन्ततिम्-लल नाविप्रयोगजनितदुष्टध्यानपरम्पराम् / अपासितुम्-अपनेतुम् , दूरीकर्तुमिति यावत् / कमनीयाम्-मनोरमाम् / कामिनीम्-अङ्गनाम् / अपि-खलु / किम्-कथम् / न-नहि / स्वीकुरुध्वम्-अङ्गीकुरुध्वम् / इति एवं प्रकारेण, कथ्यते इति शेषः / एतत्-कामिनीसंसेवनापादनम् / समम्-तुल्यम् , श्वे. ताम्बरदिगम्बरयोरिति शेषः / तामेव तुल्यतामाह-अन्यथेत्यादि(कल्पलता) अन्यथा पलभुजो न कुतः स्युर्दिक्पटा उचितपिण्डभुजश्वेत् / प्रत्युत प्रकटतामसवृत्त वनं, तत इहापि समानम् // 10 // अन्वयः-अन्यथा, उचितपिण्डभुजाः, दिक्पटाः, पलभुजः, कुतः, न, स्युः, प्रत्युत, प्रकटतामसवृत्तेः, भावनम् , चेत् , ततः, इह, अपि, समानम् / (कल्पलतावतारिका) अन्यथा-कामिनीसंसेवनस्योभयत्र तुल्यत्वाभावे / उचितपिण्डभुजः-समुचितप्रासाशनशीलाः / दिक्पटा:-दिगम्बराः / पलभुजःमांसभक्षकाः / कुतः-कस्मात्कारणात् / न-न ह / स्युः-भवेयुः / इत्येवं श्वेताम्बरैर्दीयमानायामापत्तौ दिगम्बरैरित्थं समादधीरन् , समाधिप्रकारमाह-प्रत्युतेत्यादिना-प्रत्युत-विपरीतं यथास्यात्तथा / मांसभक्षणमिति शेषः / प्रकटतामसवृत्तेः-समुत्कटतमोगुणाजनितवृत्तेः / Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 226 भावनम्-भावनाजनकम् / भवद्भिः कामिनी विरहसंभवदुर्ध्याननिवारणार्थ कामिनीसेवनस्यावश्यकत्वेऽपि मांसभक्षणस्य दुर्भावनाजनकतया नास्माभिस्तत्सेवनमिति / चेत्-यदि / ततः-तरमात् / इहअस्मिन् , कामिनीसंसेवने / अपि-खलु / समानम्-तुल्यम् / कामि. नीसेवनस्यापि व्यामोहादिजनकतयाऽस्माभिस्त्याज्यत्व मिति भावः / कामिनीसेवनस्य व्यामोहजनकत्वमुपपादयत- सङ्गमङ्गेत्यादिना(कल्पलता) सङ्गमङ्ग ! समवाप्य तरुण्याः, कस्य नाम न मनः कलुषं स्यात् / , निर्मलान्यपि जलानि न किं स्युः, पङ्कसङ्करवशाद् मलिनानि // 11 // अन्वयः- अङ्ग ! तरुण्याः, सङ्गम् , समवाप्य, कस्य, नाम, मनः, कलुषम्, न, स्यात्, निर्मलानि, अपि, जलानि, पङ्कसङ्करवशात् , मलिनानि, न, स्युः, किम् / (कल्पलतावतारिका), अङ्ग!- आमन्त्रणार्थकमव्ययम् / तरुण्या:-लावण्यशालिन्या अङ्गनाया: / सङ्गम्-सम्पर्कम् / समवाप्य-समधगत्य / नामकोमलामन्त्रणे / कस्य-यस्य कस्य / मनः-हृदयम् / कलुषम्कालुष्यकरम्बितम् , व्यामोहापन्नमिति यावत् / न-नहि / स्यात्भवेत् / अपि तु सर्वस्यापीति भावः / दृष्टान्तेन समर्थयति निर्मलान्यपीत्यादि-निर्मलानि-स्वच्छानि / अपि-खलु / जलानिसलिलानि / पङ्कसङ्करवशात्– कर्दमसम्मिश्रणाधीनत्वात् / मलिनानि-मलीमसानि, कलुषाणीति यावत् / न-नहि / स्युः-भवेयुः / किम्-प्रश्नार्थकमव्ययम् / अपि तु भवन्त्येवेति भावः / तामसवृत्ति Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230] शास्त्रनार्तासमुच्चयस्य [ नवमः सम्पादकतया भवद्भिः पलमिव मन:कालुष्यजनकतया कामिन्यायस्माभिरपि त्याज्यमिति हृदयम् / दृष्टान्तालकारः / .. (कल्पलता) व्याधयोऽरसभुवो विषवल्ल्योऽभूमिका अशनयोऽगगनोत्थाः / मूर्तिमत्य इव मारणविद्याः किं न ता निगदिताः श्रुतवृद्धः॥१२॥ अन्वय:- अरसभुवः, व्याधयः, अभूमिकाः, विषवल्ल्यः, अगगनोत्थाः, अशनयः, ताः, श्रुतवृद्धः, मूर्तिमत्यः, मारणविद्याः, इव, न, निगदिताः, किम् / (कल्पलतावतारिका) . ___ अरसभुवः-अमधुरादिरसजनिताः। व्याधयः-रोगाः, तद्रूपा इत्यर्थः / अभूमिका:-अभूम्युत्पन्नाः / विषवल्ल्य:-गरलवल्लरीरूपाः / अगगनोत्था:-अनाकाशोत्पतिताः / अशनयः वज्वरूपाः / ता:-बुद्धिविषयीभूताः कामिन्यः / श्रुतवृद्धैः-शास्त्रकारप्रवरैः / मूर्तिमत्य:शरीरधारिण्यः / मारणविद्या:-तदाख्यविद्याः / इव-यथा / न-नहि। निगदिता:-प्रतिपादिताः / किम्-प्रश्नार्थकमव्ययम् / अपि तु निगदिता एवेति तास्त्याज्या: सर्वैरिति भावः / उपमाधिकारूढवैशिष्टय. रूपकालङ्कारौ। ___तस्माद् विहिताहारवत् विहितस्योपकरणस्यापि दुनिहतिशुभध्यानोत्पत्तिहेतुत्वाद् युक्तं यतीनां तत्परिशीलनम् / विधिश्वात्र * "तिहिं ठाणेहिं वत्थं धरेज्जा, हिरिवत्तियं दुगंछावत्तियं परीसहवत्तिय तथा• त्रिभिः स्थानैर्वस्त्र धारयेत् , हीप्रत्ययम् जुगुप्साप्रत्ययम् परीषह प्रत्ययम् / Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तबकः ]. कल्पलतावतारिका [231 * जंपि बत्थं च पायं वा कंबल पायपुंछणं / तं पि संजमलजला धारति परिहरति अ॥ एवञ्चादग्धदहनन्यायेन यावदप्राप्त तावद् विधेयम्, इति वनधारणस्य लोकत एव प्राप्तत्वात् होकुत्सापरीषहनिमित्तं तद्ग्रहणं नियम्यते, तत्र च निमित्तत्रयमपि जिनकल्पायोग्यानां निरतिशयानामधिकारिणामावश्यकम् / अथ ज्ञानादिपुष्टालम्बनेनादुष्टाहारग्रहणे न दोषः, वस्त्रादेस्तु मलादिदिग्धस्य यूकादिसंमूर्च्छनानेकसत्त्वहेतुतया तद्ग्रहणे तव्यापत्तेरवश्यं भावात् तद्ग्रहणमपौष्टालम्बनिकत्वाद् न न्याय्यमिति चेत् न पाहारग्रहणेऽज्यस्य दोषस्य समानत्वात् संभवन्त्येव यागन्तु काः संमूर्च्छनजाश्चानेकप्रकारास्तत्र जन्तवः, तत्परिभोगे चावश्य भावी तेषां विनाशः, मुक्तस्य च कोष्ठगतस्य संसक्तिमत्त्वात् तदुत्सर्गेऽनेककम्यादिव्यापत्तिरवश्यंभाविनीति / ___ यदपि च कथं द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतो वा कृतपरिग्रहप्रत्याख्यानस्य वस्रोपादाने न पश्चममहाव्रतभङ्गः ? इत्युक्तम् , सदपि मूर्छापरित्यागे भावतः परिग्रहप्रत्याख्यानोपपत्तावपि द्रव्यत: परिग्रहप्रत्याख्यानभङ्गाभिप्रायेणावगन्तव्यम् / . . यदपि च "कथं चैवं परद्रव्यरतिसाम्राज्ये स्वात्मप्रतिबन्धमात्रविश्रान्तश्रामण्यसमृद्धिः ?" इत्युक्तम् तदप्ययुक्तम् परद्रव्यसनिधानमात्ररूपाया रतेर्मुक्तावप्यनुच्छेदात् अभिष्वङ्गरूपाया रतेस्तु धर्मोपकरणेऽभावात् अभिष्वङ्गविषयस्य सतः शरीरादेरप्यधर्मोपकरणत्वात्। * यदपि वस्त्रं च पात्रं वा कम्बलं पादप्रोच्छनम / ... तदपि संयमलज्जार्थं धारयन्ति परिहरन्ति च ॥इति।। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 ] शाखवार्तासमुच्चयस्य [ नवमः न च शरीरेऽप्यप्रतिबद्धानां विदितवेद्यानां साधूनां वस्त्रादिषु "ममेदम्" इत्यभिनिवेशः / तथा वोक्तं वाचकमुख्येन यद्वत्तुरङ्गः सत्स्वप्यारम्भविभूषणेष्वनभिषक्तः / तद्वदुपग्रहवानपि न सङ्गमुपयाति निर्ग्रन्थः // 1 // इति / परेणाप्येतदवश्यमभ्युपेयम् , अन्यथा शुक्लध्यानाग्निना कर्मेन्धनं भस्मसात् कुर्वत: परित्यक्ताशेषसङ्गस्य केनचित् तदुपसर्गकरणबुद्धथा भक्त्या वा वस्त्रादिनावृतशरीरस्य परद्रव्यरतिप्रतिबन्धात् स्वात्ममात्रप्रतिवन्धो न स्यात् / / / यदपि कथं वा न तस्करादिभ्यो वस्त्रादेः संगोपनानुसन्धानेन संरक्षणानुबन्धिरौद्रध्यानावकाशः ? इत्युक्तम् , तदपि न समीचीनम् जल-ज्वलन-मलिम्लुचश्वापदा हि विषकण्टकादिभ्यःसंरक्षणानुबन्धस्य शरीरेऽपि समानत्वात् धर्मनिर्वाहार्थं शरीरसंरक्षणानुबन्ध: प्रशस्त इति चेत् इदमन्यत्रापि सुवचम् / यदपि कथं चैवमाचेलक्यपरीषह विजयः कृत: स्यात् ? न हि सचेलकत्वमचेलकत्वञ्च न विरुद्धम् इत्युक्तम् तदपि तुच्छम् यथाहि तीव्रक्षुद्वेदनोदयेऽप्येषणादिदोषदुष्टमाहारमगृहृतस्तहोषरहितमाहारमु . पलभ्य विधिना क्षुद्वेदनां कुर्वतः क्षुत्परीषह विजयो न तु सर्वथाऽऽहाराग्रहणेन निरुपमधृतिसंहननानां जिनानामपि तदजेतृत्वप्रसङ्गात् , तथा शीतादिवेदनाभिभूतेनापि दोषदुष्टोपधित्यागेन दोषरहितोपधिपरिभोगेन च तत्प्रतीकारे आचेलक्यपरीषहविजयोपपत्तेर्न तु सर्वथा तत्परित्यागेन / न च जिनेन्द्रजिनकल्पिकादीनामपि सर्वथाऽचेलकत्वं सिद्धमस्ति, जिनकल्पकादीनां सर्वदैव जघन्यतोऽप्युपधिद्वयस्य सद्भावात् जिनेन्द्राणामपि प्रव्रज्याप्रतिपत्तिसमये Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 233 देवदूध्यवस्त्रग्रहणश्रवणात् “सव्वे वि एगदूसेण णिग्गया जिणवरा च उठवीस" इत्याद्यागमप्रामाण्यात् / नचास्यान्यार्थत्वम् , आचाराद्यङ्गेषु तैस्तैः सूत्रैर्भगवत्येकवस्त्रग्रहणस्य श्रामण्यप्रतिपत्तिसमये प्रतिपादितत्वात् / न चैवं तदा सर्ववस्त्रपरित्यागावेदकः कश्चितागमः श्रूयते / योऽपि. "वोसट्टचत्तदेहो विहरइ गामाणुगामं तु" इत्यागमः, सोऽपि न श्रामण्यप्रतिपत्तिपमयभाविभगवन्नग्नत्वावेदकः किन्तु तदुत्तरकाल रागादिदोषविप्रमुक्तत्वमेव भगवत्यावेदयतीति / यस्त्विदानी प्रामाण्यानुपपत्त्याद्युद्भाक्यन् आचारागादिसद्भावमेव न स्वीकुरुते सोऽतिबाह्यः, स्वक्लुप्रशास्त्रमूलप्रवृत्तावन्धपरम्पराशङ्काया दुर्निवारत्वात् “जो भणइ नत्थि धम्मो” इत्यादिना महाप्रायश्चित्तोपदेशात् , तस्यासम्भाष्यत्वाच्च / एवञ्च तद्विनेया अपि तल्लिङ्गानुकारिण एवोचिताः” इत्यपि निरन्तम् , “यादृशं गुरुलिङ्ग तादृशमेव शिष्यलिङ्गादिकम्" इति वदतां पिच्छिकादिपरिग्रहरयान्याय्यत्वात, भगवता तदपरिग्रहात् , “गुरुकृतमेव कर्माचरणीयम्" इति व्यामोहवतां छद्मस्थावस्थायां भगवतोपदेशशिष्यदीक्षागुरुवचनाद्यनुपग्रहाद् दिग्वाससामपि तदनुपग्रहापत्त्या म्वतीर्थोच्छेदापत्तेः, तस्माच्चतुरातुरेण यथा वैद्योपदिष्टमेव क्रियते न तु तत्कृतमनुक्रियते व्याध्यनुच्छेदप्रसङ्गात् तथा भव्येनापि धर्माधिकारिणा भगवदुक्तमार्गो यथाशक्त्याचरणीयो न तु तच्चरितमाचरणीयम्, चक्रवर्तिभोजनलुब्धविप्रवद् विपरीतप्रयोजनप्रसङ्गादिति विभावनोयम् / .' इत्थञ्च " न सितपटा महाव्रतपरिणामवन्त:" इत्याद्यनुमाने हेत्वसिद्धि: मूर्छाभावेन परिग्रहयोगित्वाभावात् "मुच्छापरिग्गहो वुत्तो” इति भगवद्वचनान , वस्त्रादियोगित्वस्य श्रेण्यारूढे व्यभिचारित्वादिति स्मरणीयम् / Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ नवमः तथाचाहुरुपाध्यायाः (कल्पलता) इदं प्रकटनाटकं प्रकटमय वो दिक्पटाः / सभासु विदितं सतामिति किमत्र भूयः श्रमः॥ इतो जयति शासनं जगति चारु जैनेश्वरम् / सिताम्बरसमाश्रितं कृतधियां हितं शाश्वतम् // 13 // अन्वय:- दिक्पटा. ! अद्य इदम् , व: कपटनाटकम् , सभासु, सताम् . प्रकटम् , विदितम् . इति, अत्र, भूय:श्रमैः, किम् , इत:, जगति, कृतधियाम्, शाश्वतम् , हितम् , सिताम्बरसमाश्रितम् , चारु, जैनेश्वरम् , शासनम् , जयति / (कल्पलतावतारिका) दिक्पटाः!- दिगम्बरा: ! अद्य-अव्ययानामनेकार्थकत्वादि. दानोमित्यर्थः / इदम्-एतत् / कः युष्माकम् , दिगम्बराणामिति यावत् / कपटनाटकम् - छलमयं नृत्यम् , कपटप्रपश्चजातमिति यावत् / सभासु-परिषत्सु / सताम्-सज्जनान म् , विदुषामति यावत् / प्रकटम्-स्पष्टं यथास्यात्तथा / विदितम्-ज्ञातम् / इति-अस्माद्धेतोः। "इति हेतुप्रकरणप्रकारादिसमाप्तिषु” इत्यमरकोशात् / अत्र-एतद्विषये। भूयाश्रमः - समधिक प्रयासैः / किम् - निषेधार्थकमव्ययम् / "किं कुत्सायां विकल्पे च निषेधप्रश्नयोरपि” इति मेदिनी। इतः-अस्मिन् / सार्वविभक्तिकस्तस् / जगति--जोके / कृतधियाम्बुद्धिमताम् / शाश्वतम्-सार्वदिकम् / हितम्-कल्याणकरम् / Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवक्रः ] कल्पलताबतारिका / 235 सिताम्बरसमाश्रितम्-श्वेताम्बरसंसेवितम् / चारु-मनोहरम् / जैनेघरम्-जिनेश्वरभाषितम् / शासनम्-शास्त्रम् / जयति-विजयते, सर्वोत्कर्षेण वर्तते इति भावः / अनुप्रासालङ्कारः / (कल्पलता) यः साक्षात्कृतमोक्षसाधनविधिस्तीव्र तपस्तप्तवान् , यः कर्माण्यपनीतवान् परिणमत्संज्ञानयोगाशयः / नित्यज्ञानचरित्रदर्शनसुखं मोक्षं च यो लब्धवान् , अस्माकं शरणं स एव भगवान् स्वप्नेऽथवा जागरे॥१४॥ अन्वयः- साक्षात्कृतमोक्षसाधनविधिः, यः, तीव्रम् , तप, तप्तवान् , परिणमर्क्सशानयोगाशयः, यः, कर्माणि, अपनीतवान् , च, यः, नित्यशानचरित्रदर्शनसुखम् , मोक्षम , लब्धवान् , सः, भगवान् , स्वप्ने, अथवा, . जागरे, अस्माकम् , शरणम् // 14 // (कल्पलतावतारिका) ____ साक्षात्कृतमोक्षसाधनविधिः-साक्षात्कृत: प्रत्यक्षीकृतो मोक्षसा. धनविधिर्मुक्तिसाधनोपायो येन स तथा / य:-बुद्धिविषयीभूतो भग वान् / तोत्रम्--दुःसहम् / तपः-तपस्याम् / तप्तवान्-तताप। परिणमत्संज्ञानयोगाशयः-परिणमता परिपाक गच्छता संज्ञानयोगेन तदाख्ययोगविशेषेण विशिष्ट आशयोऽन्तःकरणं यर' स तथा / य:-बुद्धिविषयोभूतो भगवान् / कर्माणि - ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मकलापानि / अपनीतवान्-दूरीकृतवान् / च-पुन: / य:-बुद्धिविषयीभूतो भगवान् / नित्यज्ञानचरित्रदर्शनसुखम्-दर्शनज्ञान Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 ] शास्त्रवातासमुच्चयस्य नवमः चारित्रजनितनित्यसुखरूपम् / मोक्षम्-महानन्दम् / लब्धवान्प्राप्तवान् / सः-तादृशो बुद्धिविषयः / भगवान् - ज्ञानवैराग्यादिषड्विधैश्वर्यसंवलितः प्रभुः / एव-अवधारणार्थकमव्ययम् / स्वप्नेस्वप्नावस्थायाम् / अथवा जागरे-जाग्रदवस्थायाम् / अस्माकम् आहतानाम् / शरणम्-गतिः / भवत्विति शेषः / तीर्थकृदेवपरमकल्याणकारको नान्य इति ध्वन्यते / मोक्षश्च तदुपायश्च, वर्तते श्रीजिनोदितः / स्तवके नवमें प्रोक्तो. दूरीकृतदिगम्बरः // 6 // / इति शासनसम्राट्-तपागच्छाधिपति सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-जगद्गुरुबालब्र ह्मचारिभट्टारकाचार्यमहाराजश्रीविजयनेमिसूरीश्वरमहाराजपट्टालङ्कार। शास्त्रविशारदकविरत्नपीयूषपाणिपूज्यपादाचार्यश्रीविजयामृतसरिवर सन्दृब्धायां महोदधिकल्पशास्त्रवार्तासमुच्चय - कल्पलतानुसारिण्या-1 / कल्पलतावतारिकायां नवमः स्तवकः / Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवक: ] कल्पलतावतारिका [ 237 * दशमस्तवकः .. व्याचिख्यासितस्तवक-स्याद्वादकल्पलतासमाप्तिप्रतिबन्धकप्रत्यूहव्यूहोपशमनाय मङ्गलार्थ श्लोकत्रयं निर्दिशन्त्युपाध्यायाः- ..... (कल्पलता) यज्ज्ञानोज्ज्वलदर्पणे प्रतिफलत्येतज्जगद् यत्पदाम्भोजे नम्रसुपर्वनाथमुकुटश्रेण्या मरालायितम् / वाणी सर्वशरीरिवाक्परिणता यस्यागपूर्वार्थमू- . दोषा नस्म समाश्रयन्ति यमिमं श्रीवर्धमानं स्तुमः // 1 // अन्वयः- यज्ज्ञानोज्ज्वलदर्पणे, एतत् , जगत् , प्रतिफलति, यत्पदाम्भोजे, नम्रसुपर्वनाथमुकुटश्रेण्या, मरालायितम् , अङ्गपूर्वार्थसूः, यस्य, वाणी, सर्वशरीरिवाक्परिणता, यम् , दोषाः, न, समाश्रयन्ति, इमम् , श्रीवर्धमानम् , स्तुमः / (कल्पलतावतारिका) यज्ज्ञानोज्ज्वलदर्पणे-यदीयकेवलज्ञानरूपसमुज्ज्वलमुकुरे / एतत्प्रत्यक्षं दृश्यमानम् / जगत्-भुवनम् / प्रतिफलति--प्रतिबिम्बतामासादयति / यत्पदाम्भोजे-यदीयचरणकमले। नम्रसुपर्वनाथमुकुटश्रेण्यानम्रीभूतदेवेन्द्रकिरीटपकृत्या। मरालायितम्-मराल(हंस)वदाचरितम् / अङ्गपूवार्थसूः-अङ्गसूत्राणां पूर्वाणाञ्च चतुर्दशसंख्यानामर्थस्य प्रसूः जन्मदात्री। भगवतोऽर्थमधिगत्य गणधरा रचन्ति द्वादशाङ्गीमिति यावत् / यस्य--बुद्धिविषयीभूतम्य भगवतो महावीरस्य / वाणी--देशनावाक् / सर्वशरीरिवाक्परिणता - समस्तजीववचनरूपेण परिणता / अथवा समस्तजीवानां कृतेऽर्थबोधकशब्दतामापन्ना, समस्तप्राणिनां तत्त्वार्थ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [दशमः बोधदायिनीति यावत् / यम्-बुद्धिविषयीभूतं चरमतीर्थकृतम् / दोषा:कामक्रोधादिदूषणानि / न-नहिं / समाश्रयन्ति स्म-समाशिश्रियुः। इमम्-तम् / इदमस्तच्छन्दार्थत्वमवसेयम् / श्रीवर्धमानम्-श्रिया ज्ञानवैराग्यादिलक्ष्या सहितो वर्धमानः श्रीवर्धमानस्तन्तथा / स्तुम:स्तवीमः, वर्णयाम इति यावत् / अत्र महामहोपाध्यायगत-भगवन्महावीरविषयकरत्याख्यो भावो ध्वन्यते इति ध्वन्यात्मकमुत्तमं कान्य- . मिदम् / उपमा चालङ्कारः / (कल्पलता) फणिपतिफणरत्नप्रान्तसंक्रान्तमूर्तियुगपदिव दिधक्षुः स्पष्टमष्टापि बन्धान् / जगति विधृतरूपो दित्सुरष्टार्थसिद्धी दलयतु जिनभास्वानष्टधा कर्मधाराम् // 1 // अन्वयः - फणपतिफणरत्नप्रान्तसंक्रान्तमूर्तिः, युगपत् , स्पष्टम् , अष्ट, अपि, बन्धान् , दिधक्षुः, इव, (स्थित: ) अष्ट, अर्थसिद्धीः, दित्सुः, जगति, विधृतरूपः, जिनभास्वान् , अष्टधा, कर्मधाराम्, दलयतु / (कल्पलतावतारिका) फणिपतिफणरत्नप्रान्तसंक्रान्तमूर्तिः-फरिण पतेः शेषनागस्य फण. रत्नानां सटामणीनां प्रान्तः पर्यन्तभागैः संक्रान्ता सम्बद्धा मूर्तिः कलेवर यस्य स तथा / युगपत-एककालावच्छेदेन / स्पष्टम् प्रकटम् / अष्ट-अष्टत्वसंख्याभाज: फणिपतेः सप्तफणास्तत्रस्थितमणिप्रतिविम्बितसप्तमूर्तय एका च स्वीया इत्यष्टौ / अपि-समुच्चये / बन्धान-कर्मबन्धनानि / दिधा--दग्धुमिच्छुः / इव-उत्प्रेक्षायामव्ययम् / (स्थितः) Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तक्कः ] कल्पलतावतारिका [236 अष्ट-प्रष्टत्वसङ्घयाकाः। अर्थसिद्धीः-अणिमाद्यर्थसिद्धीः / लधिमावशितेशिव, प्राकाम्यं महिमाऽणिमा / यत्रकामावसायित्वं, प्राप्तिरैश्वर्यमष्टधा // 2.2 / / ( अ. चि० ) इत्युक्ताः। दित्सुः-दातुमिच्छुः / जगति-संसारे / विधृतरूपः--धृतशरीरः / जिनभास्वान्-तीर्थकद्रूपो दिवाकरः / अथवा जिनो भास्वान् सूर्य इवेतिविग्रहे "उपमेय व्याघ्राद्यैः साम्यानुक्तौ” 3 / 1 / 102 / / इत्यनेनोपमितसमासः, सूर्यसमानतेजस्वी जिन इत्यर्थः / अष्टधा--अष्टप्रकाराम् / कष्टधाराम्कष्टपरम्पराम् / दलयतु-विनाशयतु / रूपकोपमोत्प्रेक्षालङ्काराः / कविनिष्ठजिनवरपार्श्वनाथविषयकस्य रत्याख्यभावस्याभिव्यञ्जनाद्रावध्वन्यात्मकं काव्यमिदम् / (कल्पलता) लब्धोदयायां हृदये, यस्यां प्रक्षीयते तमः। पुण्यप्राग्भारलभ्यां तां कलां कामप्युपास्महे // 3 // अन्वयः-हृदये, यस्याम् , लधोदयाम् , तमः, प्रक्षीयते, पुण्यप्राग्भारलभ्याम् , छामपि, ताम् , कलाम , उपास्महे / (कल्पलतावतारिका) . हृदये-अन्तःकरणावच्छेदेन / अवच्छेदकत्वं सप्तम्यर्थः, शरीरे. आत्मेतिवत् / यस्याम्--बुद्धिविषयीभूतायां सरस्वत्याम् / लब्धोदयायाम्--कृतावस्थानायाम् / (सत्याम् ) तमः-अन्धकारात्म. कमज्ञानम् / प्रक्षीयते-प्रकर्षण क्षीयते, विनिश्यतीति यावत् / पुण्यप्राग्भारलभ्याम्-पुण्यकदम्बकप्राप्याम्। कामपि-अनिर्वचनीयाम् . अनिर्वचनीयस्वरूपां वा / ताम्-बुद्धिविषयीभूतां सरस्वतीम् / कलाम--तीर्थकृत्कलारूपाम् , सरस्वती देवीम् / उपास्महे. पूजयामः / Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ दशमः सर्वज्ञाभाववादिना मीमांसकेन सह वार्तान्तरमाह ग्रन्थकार:(शास्त्रवार्ता) अत्राप्यभिदधत्यन्ये, सर्वज्ञो नैव विद्यते / तद्ग्राहकप्रमाभावादिति-न्यायानुसारिणः॥१॥ ___ अन्वय: - अत्र, अपि, तद्ग्राहकप्रमाभावादितिन्यायानुसारिणः, अन्ये, सर्वशः, नैव, विद्यते (इति) अभिदधति / / (अव०) अत्र-मोक्षवादे / अपि--खलु / तद्ग्राहकप्रमाभावादितिन्यायानुसारिणः-सर्वज्ञग्राहकप्रमाणाभावादित्यात्मकन्यायानुसरणशीला: / अन्ये--मीमांसकाः / सर्वज्ञः-सर्वज्ञपदवाच्यः / नैवन खलु / विद्यते-वर्तते / कचिदपि कश्चिदिति शेषः / इति-इत्येवम्) अभिदधति-निगदन्ति / प्रमाणाधीनतयैव प्रमेयसिद्धः सर्ववादिभिः स्वीकारादिति भावः। ____ न च सर्वज्ञे प्रत्यक्षस्य प्रमाणस्यैव सत्त्वात् कथं प्रमाणाभाव इति वाच्यम् इन्द्रियसन्निकर्षाभावात् , तत्रैवेन्द्रियं प्रमाणं भवति यत्र तत्सग्निकर्षषट्कान्यतमं तिष्ठति यथा “अयं घट:' इत्याकारकघटप्रत्यक्षे चक्षुःसन्निकर्षस्य सत्त्वात् द्रव्यवृत्तिलौकिकविषयतासम्बधेन चाक्षुषत्वाद्यवच्छिन्न प्रति चक्षुरादिसंयोगस्य हेतुत्वात् / एवमविना. भावि लिङ्गमपि सर्वज्ञगमकत्वाभिमतं न किश्चनात्र विद्यते, यथा वह्नयविनाभावी धूमः पर्वते दृष्टः सन् वह्निमवगमयति तथा न कश्चन सर्वज्ञाविनाभावी हेतुरूपलक्ष्यते येन सर्वज्ञावगम: स्यात् , इदश्च ज्ञायमानलिङ्गस्यानुमितिकरणत्वाभिप्रायेण / वस्तुतस्तु "इयं शाला भाविवहिमती भाविधूमात्" इयं शालाऽतीतवह्निमती अतीत Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तमकः ] कल्पलतावतारिका [241 धूमात् इत्यादौ ज्ञायमानलिङ्गस्यासत्त्वादनुमित्यनुपपत्त्या व्याप्तिज्ञानाम्यैवानुमितिकरणत्वं स्वीकरणीयम् , अत एवोक्तं कारिकावल्यां विश्वनाथपश्चाननेन "अनुमायां ज्ञायमान लिङ्गं तु करणं न हि / अनागतादि लङ्गेन, न स्यादनुमितिम्तदा" इति। एवञ्च सर्वज्ञानुभितिकरणस्य व्याप्तिज्ञानस्याभावान्न सर्वज्ञेऽनुमान प्रमाणं भवितुमर्हतीति। भागमेनापि प्रमाणेन सर्वज्ञो नैव ग्रहीतुं शक्यते, तम्य विधि नषेधबोधकत्वात् / आगमेन यदि सर्वज्ञसिद्धिः स्यात् सा नित्यादागमादनित्याद्वा ? नाद्यः सर्वज्ञसिद्धौ सत्यां हि कृत्रिमस्याऽऽगमम्य तत्प्रणीतत्वेन प्रामाण्य सिद्धिः, तत्सिद्धौ च ततस्तमिद्धिरित्यायोन्याश्रयात् , नचासर्वज्ञप्रणीत आगमः प्रमाणं युज्यते अः यथा स्ववचनादेव तत्सिद्धिः स्यादिति / नापि द्वितीय: पक्ष:- नित्यस्याऽऽगमस्य / बद्धादयो ह्यवेदज्ञास्तेषां देदादसम्भवः / उपदेशः कृतोऽतस्तै-मोहादेव कल्पनात् // 10 // ये तु मन्वादयः सिद्धा: प्राधान्येन त्रयीविदाम् / त्रयीविदाश्रितग्रन्थास्ते वेदप्रभवोक्तयः // 11 // एवञ्च पश्चानामपि प्रमाणानां विधिप्राहिणामप्रवृत्तेः, सर्वज्ञे. ऽभावनिश्चय एवेति / तथाचोक्तम् प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते / वस्तुपत्तावबोधार्थं तत्राभावप्रमाणता // नचाभावस्य पृथक् प्रमाणत्वमसिद्धम् , अभावग्राहिणस्तस्य पार्थक्यावश्यकत्वात् , नहीन्द्रियेणाभावज्ञानं जनयितुं शक्यम् , भावांशे. नैवेन्द्रियस्य संयोगात् / नच धर्म्यभेदाद् भावांशेन सहाभावांशम्या. भेदे सतीन्द्रियसंयोगोपपत्तिः, अभिन्ने धर्मिणि रूपरसयोरिव भावा. : भाषांशयोरन्योन्य भेदात् / तदुक्तम् Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 ] शास्त्रवासिमुच्चयस्य [ दशमः नतावदिन्द्रियेणैषा नास्तीत्युत्पाद्यते मतिः / भावांशेनैव संयोगो योग्यत्वादिन्द्रियस्य हि // 1 // ननु भावादभिन्नत्वात् संप्रयोगोऽस्ति तेन च / नह्यत्यन्तमभेदोऽस्ति रूपादिवदिहापि नः // 2 // नचैवं तदभावज्ञानमनुमानम् , लिङ्गाभावात् / तथाचोक्तम् नचाप्यस्यानुमानत्वं, लिङ्गाभावात् प्रतीयते / भावांशो ननु लिङ्गं स्यात् , तदानीमजिघृक्षणात् // 1 // अभावावगतेर्जन्म, भावांशे ह्यजिघृक्षिते / तस्मिन् प्रतीयमाने तु नाभावे जायते मतिः // 2 // तस्मात् " नास्ति" इति ज्ञाने फले प्रतियोगिग्रहणपरिणामा. भावरूपम् , हानादिबुद्धिरूपे च फलेऽन्यवस्तुज्ञानरूपमभावाख्यं प्रमाणमेष्टव्यम् / तदुक्तम् प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिः प्रमाणभाव उच्यते / सात्मनोऽपरिणामो वा, विज्ञानं वान्यवस्तुनि // 1 // नचैवमभावज्ञानं इन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वं न स्यादिति भ्रमितव्यम् , तस्याधिकरणग्रहणापेक्षणीयत्वात् अधिकरणग्रहणप्रतियोगिस्मरणयोस्तत्र हेतुत्वात् / तदुक्तम् -- गृहीत्वा वस्तुसद्भावं, स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् / / मानसं नास्तिताज्ञानं, जायतेऽक्षानपेक्षया // नचाधिकरण ज्ञानस्य हेतुत्वेऽन्धस्यापि त्वगिन्द्रियोपनीते घटादौ नीलाद्यभावग्रहः स्यादिति वाच्यम् , प्रतियोगिग्राहकेन्द्रियजन्याधिकरणज्ञानस्य तथात्वात् / नचैवं त्वगिन्द्रियोपनीले वायौ रूपाभावप्रतीत्यनुदयप्रसङ्गः-रूपानुपलम्भेन तदभावानुमानात / नच हेतोरपि Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [243 दुर्घहत्वम् , उपलम्भस्य तावदतीन्द्रियतया तदभावस्याज्ञातानुपलब्ध्यगम्यतया ज्ञातानुपलब्धिगम्यत्वेऽनवस्थापातात् , प्राकट्याभावस्यापि रूपाभावतुल्यतया तेन तदनुमानायोगात्, कायवागव्यवहाराभावे. ऽप्युपेक्षाज्ञानसत्त्वात् व्यवहाराभावेनापि तस्याननुमेयत्वादिति वाच्यम् मनोजन्यवायुज्ञानसत्त्वात् , प्राकट्याभावेन मनोग्राह्येण रूपानुपलम्भानुमानसम्भवात् , “वायौ रूपाभावं पश्यामि” इति बुद्धिस्तु भ्रमात्मिकैव / अथानुपलम्भे विशेषाभावाच्चक्षुषाऽभावग्रहे आलोको हेतुर्नतुत्वचेति कुत: ? इति चेत् सत्यम् , चक्षुरादेरिवाऽऽलोकादेरप्यधिकरणज्ञानविशेष एवोपयोगात् / अथ सर्वज्ञाभावस्वीकारे धर्माधर्मव्यवस्था कथमुपपद्यतेति चेत् - "यागादि धर्मसाधनम्" "ब्रह्महत्याद्यधर्मसाधनम्" इत्यादिज्ञानजन्यप्रवृत्तिनिवृत्त्यादिरूपायास्तस्या: (धर्माधर्मादिव्यवस्थायाः) वेदाख्यादागमादेव संघटमानत्वात् / न च वेदस्यापि सर्वज्ञप्रणीतस्यैवोक्तव्यवस्थानिबन्धनत्वात् सर्वज्ञमूलैवेयं व्यवस्था स्यादिति वाच्यम् , वेदस्यापौरपेयत्वात् , चक्षुर्गतभ्रमप्रमादविप्रलिप्साकरणापाटवादिदोषविकलत्वाच्च / ____ अथाप्रमायामिव प्रमायामपि ज्ञानसामान्यहेत्वतिरिक्तहेत्वपेक्षरणाद् नैतद्युक्तमिति चेन्न-अप्रमायां दोषापेक्षणात् , प्रमायां तदभावापेक्षणेऽविरोधात् / विशेषादर्शनाद्यभावभूतदोषाभावस्य भावभूतस्य प्रमायामधिकस्यापेक्षणीयत्वाद् विरोध एवेति चेत् न तथापि शब्दे विप्रलिप्पादिदोषाणां भावभूतत्वात् समष्टया प्रमायां तदभावमात्राधीनायां वक्तृगुणानपेक्षणात् / नचाप्तोक्तत्वनिश्चयस्य शाब्दबोधसामान्ये हेतुतया वेदे तदभावात् कथं ततः शाब्दबोध इति वाच्यम् Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ दशमः अनातोक्तत्वशङ्काया एव शाब्दसामान्य विरोधिन्या व्युदासार्थमाप्तोक्तत्वनिश्चयापेक्षणात् वेदे तु नित्यतया निर्दोषत्वेनैव तच्छकाव्युदासात् / एवश्च चाक्षुषहेतुप्रकाशवत् , नित्यनिर्दोषतया वंदे सर्वप्रम तृतुल्यप्रमाजनके सति धर्माधर्मपरिज्ञात: मनुष्य: किमर्थं कल्पनीयः ? चोदनैव हि धर्माधर्माववगमयन्ती प्रवृत्तिनिवृत्त्यादिव्यवहारं स्वर्गापर्वागादिफलं च ज नयतीति किमजागलस्तनायमानेन सर्वज्ञेनेति, चोदनाप्रामाण्यार्थं सर्वज्ञः कल्प्यते इति चेत् न, उपजीव्यत्वेन महाजनपरिग्रहस्यैव तःप्रामाण्यव्यवस्थापकत्वात् / इष्टापूर्तादित्र्यात्मककर्मव्यवस्था वेदादेवोपपादनीया। वर्णाश्रमव्यवस्थापि वेदप्रभवैवावगन्तव्याऽतश्चातीन्द्रियार्थद्रष्ट्रा सर्वज्ञेन पुंसा नामित किश्चित्प्रयोजनमिति / तत्साध्यस्य पर कोकादिसाधनस्य वेदादेव सिद्धेः, मुक्तिश्च न सार्वश्यगर्भा, दुःखनिवृत्तिरूपाया नित्यनिरतिशयसुखाभिव्यक्तिरूपायास्तदगर्भवादिति निगर्वः / तत्राहुरूपाध्यायाः(कल्पलता) इत्यमापतति जैमिनिशिष्ये, नास्तिकत्वमिह यत् खलु गूढम् / दर्शयन्ति तदनेकसमक्षं, वेदनैपुणपटापगमेन // 4 // अन्वय:- इत्थम् , इह, जैमिनिशिष्ये, यत् , खलु, गूढम् , नास्तिकत्वम्, आपतति, वेदनैपुणपटापगमेन, अनेकसमक्षम् , तत्, दर्शयति / (कल्पलतावतारिका) इत्यम्-अनेन पूर्वोकेन प्रकारेण। इह-सर्वज्ञाभावनिरूपणप्रस्तावे / जैमिनिशिष्ये-जैमिन्यन्तेवासिना, मीमांसकहतकेनेति यावत् / यत्-बुद्धिविषयीभूतम् / खल-निश्चयेन.. गूढम्-समाच्छ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तबकः ] कल्पलतावतारिका [245 मम् / नास्तिकत्वम्-सर्वज्ञाभावस्वीकरणजनिताऽऽस्तिकत्वाभावः / आपतति-समागच्छति / वेदनैपुणपटाऽपगमेन-वेदे नैपुणं प्रावीण्यमेव नास्तिकत्वाच्छादक वात् पटो वस्त्रम् तस्यापगमो दूरीकरणम् वेदनैपुणपटावगमस्तेन तथा / अनेकसमक्षम् - बहुजनप्रत्यक्षम् / तत्-तारान.स्तिकत्वम् दर्शयन्ति- कटीकुर्वन्ति सिद्धान्तिन आर्हता इति शेषः / ___ अथ मीमांसकाक्षेपसमाधानम् (शास्त्रवार्ता) अत्रापि त्रुवते केचिदित्थं सर्वज्ञवादिनः / प्रमाणपञ्चकाऽवृत्तिः, कथं तत्रोपपद्यते // 12 // ___ अन्वयः- अत्र, अपि, सर्वज्ञवादिनः, केचित् इत्थम् . ब्रुवते, तत्र, प्रमाणपञ्चकावृत्तः, कथम् , उपपद्यते, इति / ___ (अव) अत्र-मीमांसकानां सर्वज्ञाभाववादे / अपि-खलु / सर्वज्ञवादिनः-सर्वज्ञास्तित्वमन्तार: / केचित्-अनिमतसामान्या:, जैना इति यावत् / इत्थम्-एवम् / ब्रुवते-निगदन्ति / यत्, तत्रबुद्धिविषयीभूते सर्वज्ञे। प्रमाणपश्चकावृत्तिः-अभावप्रमाणोत्थापिका प्रमाणपश्चकाऽविषयता / कथम्-केन प्रकारेण / उपपद्यते-संगच्छते, उपपन्ना भवतीति यावत् , नैवोपपद्यते इति भावः / __ तथाहि-सर्वज्ञनिषेधकारिप्रत्यक्षं चेद्विश्वगोचरम् तदा सर्वज्ञाभावोऽमिद्धः, विश्वगोचरज्ञानाश्रयस्यैव सर्वज्ञत्वात्, न चेत्तत्प्रत्यक्षं सर्वार्थविषयम् तदाऽपि सर्वज्ञाभावोऽसिद्ध एव, प्रत्यक्षेण सतोऽप्यर्थ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ दशमः स्यातिदूरत्वादिनाऽग्रहणात् तदभावाऽसिद्धः, अन्यथा धर्मादेरप्यभावप्रसङ्गात्। अनिष्टं चैतत् मीमांसकस्याप्यास्तिकताभिमानिन: / चार्वाकस्तु वराकोऽतीन्द्रियमात्रोच्छेदमिच्छन्ननुपलब्धिमात्रादर्थाभावं साध. यन् स्वगृहान्निर्गतः स्वगृहे पुत्रादीनामप्यभावमवगच्छेत् , अधिकरणासन्निकर्षाद् न तदवगम इति चेत् तीतीन्द्रियाश्रयस्याप्यसन्निकर्षे तदभावासिद्धेर्हत चार्वाकमतम् , अधिकरणज्ञानमात्रादतीन्द्रियाभाव. सिद्धौ च प्रकृतेऽप्यधिकरणस्मृतिसत्त्वात्तदापत्तिः। तदुपलम्भकस्वभावेनानुपलब्धेस्तदभावसाधकत्वं त्वसम्भवदुक्तिकम् , स्वभावविरोधा. दिति न किञ्चिदेतत्, तदेवं प्रत्यक्षं न बाधकमित्युक्तम् / अनुमानमपि सर्वज्ञसाधकमेव, तथाहि-"सर्वे धर्मादयोऽध्यक्षाः ज्ञेयत्वात्, घटवत्" इत्यनुमानेन धर्मादीनामतीन्द्रियाणामपि प्रत्यक्षत्वसाधनात् तत्प्रत्यक्षवान् सर्वज्ञ एव स्वीकार्यः / साध्यहेतुविकल्पकतदोषस्तु प्रसिद्धपर्वतादिपक्षकवह्नयाद्यनुमानेऽपि समान एव, तथाहियदि पर्वतीयो वह्निः साध्यते तदा साध्यविकलो दृष्टान्तः, अथ महानसीयस्तदा बाध एव, एवं धूमोऽपि यदि पर्वतीयो हेतुस्तदाऽनन्वयः, यदि च महानसीयस्तदाऽसिद्धता, सामान्यलक्षणयोपग्रहोऽप्यतिविलक्षणव्यक्त्योरसम्भवीति विज्ञेयम् / यदि च वह्नयनुमाने पक्षदृष्टान्तहेतुसाध्यव्यक्त्योरत्यन्तवैलक्षण्याननुभवात् सामान्योपग्रहेणैव दोषोद्धारः, व्याप्तिबलात् सामान्यसिद्धावपि पक्षधर्मताबलान्नियत विशेषसिद्धेरित्युपगम्यते तदा प्रकृतेऽपि तुल्यम्, नचात्राप्रयोजकत्वम् विपक्षबाधकतर्काभावादिति वाच्यम् "ज्ञानं साश्रयं गुणत्वात् रूपादिवत्" इत्यादाविव बाधकामावे निरुपाधिसहचाररूपस्यैव तर्कस्य सत्त्वात् / अन्यथेदृशानुमानसहस्रोच्छेदात् , यदि चात्रगुणाश्रययोः कार्यकारण Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तबकः ] कल्पलतावतारिका [ 247 भाव एव परम्परया तर्कम्तदा प्रकृतेऽपि धर्माद्यध्यक्षज्ञानयोः स एवाश्रीयताम्, विना सर्व धर्मादेरपरिज्ञानात्, अस्मदादीनां बुद्धादीनाश्च च्छद्मस्थत्वाद् दृष्टेष्टविरुद्धभाषित्वाच्चाहत्येव धर्मादिसाक्षात्कर्तृत्वविश्राम:, तेन न साध्यासिद्धिरिष्टासिद्धिर्वा, साध्यकोटौ विशिष्यानिवेशात् परिशेषस्य विशेषपर्यवसायित्वाच्चेतिद्रष्टव्यम्, सर्वज्ञवादिभिरपि कैश्चित् सर्वज्ञः कतिपयेष्टार्थविज्ञातैवाभ्युपगम्यते, न तु विश्वद्रष्टा, तथाचोक्तम् सर्वं पश्यतु वा मा वा, तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु / कीटसंख्या परिज्ञानं, तस्य नः कपयुज्यते // 1 // कार्य एवार्थे प्रामाण्यव्यवस्थापनेन सर्वज्ञप्रतिपादने तस्याऽप्रमाणत्वात्, यश्च हिरण्यगर्भ प्रकृत्यं य: सर्ववित् स लोकवित्" इत्यादिरागमः, तम्यापि कर्मार्थवादप्रधानत्वेन सकलज्ञविधायकत्वानुपपत्तेः / नापि सकलज्ञस्यानुवादकोऽसौ पूर्वमन्यैः प्रमाणैरबोधितस्य तस्यानुवदितुमशक्यत्वात् / अप्रत्यक्षत्वत: कारणादुपमानेनापि नैव गम्यते सर्वज्ञः, तस्य सादृश्यविषयकत्वात्, उपमितौ सादृश्यज्ञानस्य करणत्वादिति, सादृश्याश्रयदर्शननान्तरीयकत्वाच्च, पदवाध्यत्वविषयकत्वे चात्र तस्यानुपयोगाच। अर्थापत्त्याख्यप्रमाणेनापि सर्वज्ञो नैव ग्रहीतुं शक्यते धर्मदेशनादीनां सर्वेषामर्थानां सर्वज्ञ विनाप्युपपत्तेः, बुद्धादीनां स्वप्नोपलब्धार्थोपदेशतुल्यस्य व्यामोहपूर्व कस्य मन्वादीनाञ्च साङ्गाध्ययनममासादितव्युत्पत्तिविशेषाकलितनिखिलवेदार्थानां सम्यग्ज्ञानपूर्वकस्योपदेशस्योपपत्तेः / तथाचोक्त भट्टी: सर्वज्ञो दृश्यते तावन्नेदानीमस्मदादिभिः / दृष्टो न चैकदेशोऽस्ति, लिङ्गं वा योऽनुमापयेत् // 1 // Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248] शाखवातासमुच्चयस्य . [ दशमः नचागमविधिः कश्चिद्, नित्यः सर्वज्ञबोधकः / न च मन्त्रार्थवादानां, तात्पर्य्यमवकल्प्यते // 2 // .. तच्चान्यार्थप्रधानैस्तैस्तदस्तित्वे विधीयते / नचानुवदितुं शक्यः , पूर्वमन्यैरबोधितः // 3 // अनादिरागमस्याओं, न च सर्वज्ञ आदिमान् / कृत्रिमेण त्वसत्येन, स कथं प्रत गद्यते // 4 // अथ तद्वचनेनैव, सर्वज्ञोऽज्ञैः प्रतोयते / प्रकल्प्येत कथं सिद्धिान्योन्याश्रययोस्तयोः // 5 // सर्वज्ञोक्तठया वाक्यं, सत्यं तेन तदस्तिता / कथं तदुभयं सिद्धयेत्, सिद्धमूलान्तगहते // 6 // असर्वज्ञपणीतात्त, वचनाद् मूलवर्जितात् / सर्वज्ञमवगच्छन्त:, स्ववाक्यात् किन्न जानते // 7 // ... स्वज्ञसदृश कञ्चिद्, यदि पश्येम सम्प्रति / उपमानेन सर्वज्ञ, जानीयाम ततो वयम् // 8 // उपदेशो हि बुद्धादेधर्माधर्मा दगोचरः / अन्यथा नोपपद्येत, सावैश्यं यदि नो भवेत् // 6 // तथासर्व पश्यतु वा मा वा, इष्टमर्थ तु पश्यतु / प्रमाणं दूरदर्शी चेदेतान् , गृध्रन प्रपूजय // 1 // / तदभिमानिरासपूर्वकस्वाभिमतसिद्धयर्थ सर्व एवेति पक्षवि. शेषणम् / न चैवं घटादेः पक्षप्रविष्टत्वे सपक्षत्वानुपपत्ति:, तदप्रवि. ष्टत्वे च “सर्व एव" इत्यसिद्धमिति वाच्यम् पक्षप्रविष्टत्वेऽपि निश्चित. साध्यधर्मत्वेन सपक्षत्वागिरोधात्, तत्र गौरवेण पक्षातिरिक्तत्वानिवेशात् / न च तथाप्यंशत: सिद्धसाधनम् पक्षसामान्ये साध्यासिद्धथा Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्तवक: ] कल्पलतावतारिका [ 246 तस्यादोषत्वात् / वस्तुगत्या तत्त्वत एकाथदर्शनमपि सर्वदर्शनाविना. भावि; तदुनम् –'जे एर्ग जाणइ से सव्वं जाणइ" इत्यादि एतद. नुमारिभिः पूर्वाचाय्रस्यायमर्थः प्रतिज्ञात: एको भावस्तत्वतो येन दृष्टः, सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टः / सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टा, एको भावस्तत्त्वतस्तेन दृष्टः // येन-पुरुषेण येन / तत्त्वतो-यथार्थतः / एको भावो दृष्टःएक वस्तु साक्षात्कृतम् तेन-पुरुषेण तेन / सर्वे भावाः-निखिला: पदार्थाः / सर्वथा-सर्वप्रकारेणैव / दृष्टाः-पाक्षात्कृताः। येन सर्वथा सर्वे भावा दृष्टास्तेनैव तत्त्वतः वस्तुत: / एको भावो दृष्ट:-रकं वस्तु साक्षत्कतम् , मवथा सर्वान् भावान् द्रष्टैव पुरुषस्तत्त्वत एक भावं द्रष्टुं शक्नोती त भावः / ____ नचैतदयुक्तम् एक या पदार्थस्यानुगतव्यावृत्तधर्मद्वारेण सर्वपदा. र्थसम्बधि वभावत्वात् तदवेदने तत्त्वतोऽधिकृतवन्त्ववेदनात् / _एवमागमादपि सर्वज्ञसिद्धिर्भवत्येव तस्य, विध्युद्देश्यत्वात् "स्वर्गकेवलार्थिना तप: कर्तव्यम्" इत्यादि तप प्रभृतिकर्मविधीनां स्वर्गाश इव केवलांशेऽपि फले प्रामाण्यात् अथवा चोदनैकवाक्यागमबोधि. तत्वान् स्वसिद्धिः, "स्वर्गकामो यजेत" इत्यादिविध्येकवाक्यतया "यन्न दुःखेन सम्भिन्नम्" इत्यादेरिव "आत्मानं पश्येत्” इत्या'द. विध्येकवाक्यतया “स सर्वज्ञः” इत्यादेरपि स्वार्थे प्रामाण्यमविरुद्धम् तस्य च सर्वज्ञम्य श्रुनेरिव स्वातिरिक्तानपेक्षयोत्पत्तकत्वात् प्रामा- . एयम्. दोषक्षयाविभूनत्वान्नित्यत्वञ्चाभ्युपगन्तव्यम् / - वातुन उत्पत्ती सर्वत्र परत एव प्रामाण्यम् "प्रामाण्यं ज्ञानहे. . त्वतिरिक्तहेत्वधीनम् ज्ञानत्वे सति कार्यत्वात् , अप्रमाण्यवत्" इत्य Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [दशमः - - नुमानात् / यदि पुन: प्रामाण्यं ज्ञानसामान्यहेतुमात्राधीनं भवेत् तदाऽप्रमाऽपि प्रमा स्यात् / न खलु तत्र (अप्रमायाम् ) ज्ञानसामान्यहेतुर्न विद्यते तदनुत्पत्तिप्रसङ्गात् / अथ तत्र ज्ञानहेतुसम्भवेऽप्यतिरिक्तदोषानुप्रवेशादप्रमाण्यमिति चेत् तर्हि दोषाभावमधिकमासाद्यप्रामाण्यमुपजायते नियमेन तदपेक्षणात् / भावहेतुमधिकं नापेक्षते प्रामाण्य मिति चेत् न, विशेषादर्शनाद्यभावस्य प्रत्यक्षेऽनुमाने च विपर्यासादिदोषाभावातिरिक्तस्य नियमगुणस्यापेक्षणात , अन्यथा "शब्दो नित्यः प्रमेयत्वात्" इत्यादौ प्रमानुमि तिप्रसङ्गात् , अन्यत्र तथाऽस्त्वपि शब्दे तु विप्रलिप्सादिदोषाभावे वक्तगुणापेक्षा प्रामाएयस्य नास्तीति चेत् अंवद्यमेतत , वक्तृगुणाभावे तत्राप्रामाण्यस्य वक्तृदोषापेक्षा नास्तीति विपर्ययस्यापि सुवचत्वात् / अप्रामाण्यं प्रति दोषाणामन्वयव्यतिरेको न स्त इति चेत , प्रामाण्यं प्रति गुणानामपि किन्न तौ ? (अन्वयव्यतिरेको)। अननुगतानां गुणानां प्रमासामान्ये न हेतुत्वमिति चेत् अननुगतानां दोषाणामप्रमासामान्येऽपि न हेतुत्वमिति समानम् , ' यावद्विशेषेऽतिरिक्तिहेत्वपेक्षत्वं यद्विशेषे” इत्यादिन्यायोऽपि चोभयत्र तुल्यः न च शङ्खश्वैत्या दप्रमाविशेषे पित्ताभावाद्यनिरिक्तिगुणादर्शनान्न तुल्य इति वाच्यम् / अदशनेऽपि तत्र सम्यगुपयोगादिरूपगुणकल्पनात् , अन्यथा देहात्माभेदभ्रमेऽपि सम्यग्दर्शनरूपगुणाभावातिरिक्तदोषादर्शनात् , मिथ्याज्ञानवासनारूपं दोषकल्पनं न स्यादिति द्रष्टव्यम् , वस्तुतो द्रश्यत एवेन्द्रिये पित्तादिदोषवद् नैर्मल्यादिको गुणोऽपि / न च नैर्मल्यमिन्द्रियम्वरूपमेव, दोषेध्वेवं सुवचत्वात् / इत्थं च “अस्तु पौरुषेयविषयेयं व्यवस्था अपौरुपेये तु दोषनिवृत्त्यैव प्रामाण्यम्" इत्यपहस्तितम् , गुणनिवृत्त्याऽप्रा. माण्यस्यापि सम्भवात्। तस्याप्रामाण्यं प्रति सामर्थ्य नोपलब्धमिति Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 251 चेत् , दोषनिवृत्तेः प्रामाण्य प्रति क सामर्थ्यमुपलब्धम् ? लोकवशादुपलब्धमिति चेत् , तदितरत्रापि तुल्यम्। लोकवचसामप्रामाण्ये दोषा एव कारणम् , गुणनिवृत्तेस्त्वसामर्थ्य मिति चेत , प्रामाण्य प्रति गुणेष्वपि तुल्यमेतत् / गुणानां दोषोत्सारणाप्रयुक्तः सन्निधिरिति चेत् , दोषाणामपि गुणोत्सारणप्रयुक्तोऽसावित्यन्तु / अथैवं वेदा. नामपौरुषेयतया गुणदोषयोरुभयोरप्यभावे तद्धेतुकयोः प्रामाण्याप्रा. माण्ययोरभावान्निःस्वभावत्वं स्यादिति चेत् , पामर ! हन्त ! एवं मिथ्यामतिसन्निपातग्रस्तमात्मानमुपालभस्व, यदमीषामकतृकत्वं प्रलपसि, करिष्यामोऽत्र निपुणं चिकित्साम् / अतश्च “यथाक्रमं द्वेषाभावस्व रागाभावस्य चाविनाभावेऽपि यथा प्रवृत्तिनिवृत्तिप्रयत्नयो रागद्वेषयोरेव हेतुत्वं तथा दोषाभावस्य रागाभावस्य चाविनाभावेऽपि प्रामाण्याप्रामाण्ययोर्गुणदोषयोरेव हेतुत्वम्" इति वदन्ति / एवञ्च सर्वज्ञप्रमायां सम्यग्दर्शनादिगुणापेक्षणादुत्पत्तौ परतस्त्वम्, ज्ञप्तौ तु सर्वज्ञज्ञानप्रामाण्यस्य स्वाश्रयेणैव ग्रहणात् स्वतस्त्वमेव / ___ अत्र प्रामाण्यज्ञप्तौ स्वतस्त्वंपरतन्त्वयोर्वा दिनां विप्रतिपत्तिः। तत्र प्रामाण्यं स्वाश्रयेणैव गृह्यते” इति प्राभाकगः / अनुव्यवसायेनेति मुरारिमिश्राः / स्वजन्यज्ञाततालिङ्गकानुमित्येति भाट्टाः। इत्थश्च स्वत. म्त्ववादिनामप्रामाण्याग्राहकयावज्ज्ञानग्राहकसामग्रीग्राह्यत्वमभिमतम् / परतस्त्ववादिनां तु नैवम् , अधिकमत्रत्यं विचारजातं कल्पलतायां द्रष्टव्यम् / तत्सिद्धमेतत्(कल्पलता) प्रामाण्यं स्वत एव केवलदृशां, ज्ञप्तौ गुणापेक्षणादुत्पत्तौ परतः, स्वतश्च परतश्छामस्थ्यभाजां पुनः / Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य . [ दशमः अभ्यासे च विपर्यये च विदितं, ज्ञप्तौ समुत्पद्यते वन्यस्मादिति शासन विजयते, जैनं जगजित्वरम् // 5 // अन्वयः- केवलदृशाम् , शप्ती, स्वतः, एव, प्रामाण्यम् , उत्पत्ती, गुणापेक्षणात् . परतः, पुनः, छाद्मस्थ्यभाजाम् . अभ्यासे, च, विपर्याये, च, शप्तो, स्वतः, परतश्च, विदितम् . तु. अन्यस्मात् , समुत्पद्यते, इति, जगजि. स्वरम् , जैनम् , शासनम् . विजयते / (कल्पलतावतारिका) .. केवलदृशाम् -केवलिनां तीर्थकुनाम् / ज्ञप्तौ-ज्ञाने / स्वत एवआत्मनैव / प्रामाण्यम्-प्रमात्वम् / उत्पत्तौ आद्यक्षणसम्बन्धे / च-पुन: / गुणापेक्षणात्-गुणाऽपेक्ष करणात् / परत:-परस्मात् , प्रामाण्यमिति शेषः / छामस्थ्यभाजाम्-छद्मन्थावस्थाविशिष्टानाम् / पुन: / अभ्यासे क्षयोपशमात्मका सदशायाम् / च पुनः / विपर्यये-अनभ्यास दशायाम् / ज्ञप्तौ स्वत: परतोऽपि विदितम्प्रसिद्धम् , प्रामाण्यम् / तु-पुनः / अन्यस्मात्-एतदतिरिक्तात् / समुत्पद्यते - उत्पन्नं भवत इति-अस्माद्धतो: / जगजित्वरम्-जगद्विजयकारकम् / जैनम्-जिनसम्बन्धि / शासनम्-साम्राज्यम् , शास्त्र वा / विजयते-सर्वोत्कृष्टतया वर्तते इत्यर्थः / एवं स्वहृदयगताखिनसन्देहापनयनाद्धेतोः सर्वज्ञग्रहे सति तदनन्तर तथाविधान्योपलब्धौ सत्यां गृहीते सबज्ञे 'अनेन सदृशोऽसौ" इत्युपमानं प्रमाणम् / गोगवयादावपि उभयदर्शनःभावे उपमासम्भ. वात् / एवं वेदाद धर्माधादि परिच्छेदात परमार्थनीत्याऽर्थापत्त्यापि Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 253 - ज्ञायते सर्वजः, न हि तद्वाच्यवाचकसाक्षात्कारिव्यतिरेकेण सम्यक्शास्त्रादतीन्द्रियार्थगतिरित्यर्थान तत्सिद्धिरिति, अन्यथाऽक्षीणावरणस्य च्छद्मस्थस्य प्रमातुरतीन्द्रियार्थे * इदमिथमेव" इत्येवं विश्वासो नोपजायते, शक्तितात्पर्य निश्चयाभावात , निश्चितेऽप्यावरणदोषात् संशयाद्युत्पत्तेश्च, ज्ञानावरण प्रकृतिकत्वाज्ञानावरणकर्मण: सर्वज्ञमूलकत्वनिश्चयाच्च तन्निवृत्तिः सुघटा, ‘तमेव सच्च" इत्याद्यागमप्रामाण्यात् वेदमूलकत्वेन तु न तन्नवृत्ति: वेदमूलकत्वेऽव्यभिचारित्वव्याप्यत्वस्य वेदेनावेदनात् अन्यतश्चानाश्वासादिति विशदं स्याद्वादकल्प. लतायां द्रष्टव्यम् / एवं वचनविशेषान्यथानुपपत्तिरूपयाऽर्थापत्त्याऽपि सर्वज्ञसिद्धिर्भावनीयेति संक्षेपः / ततश्चेदमायातम् - (शास्त्रवार्ता) सर्वज्ञेन ह्यभिव्यक्तात्सर्वार्थादागमात् परा / धर्माधर्मव्यवस्थेयं, युज्यते नान्यतः क्वचित्॥४७॥ अन्वयः-हि, सर्वशेन, अभिव्यक्तात् , सर्वार्थात्, आगमात्, परा, इयम् , धर्माधर्मव्यवस्था, युज्यतें, अन्यतः क्वचित् न / . (अव०) हि-निश्चयेन। सर्वज्ञेन-सर्वपदार्थ वषयकज्ञानवता तीर्थकता / अभिव्यक्तात्-प्रकाशितात् / सर्वार्थात् सर्वविषयात्, अथशब्दस्य विषयवाचित्वम् "अर्थो विषयार्थनयोधनकारणवस्तुषु" इति मेदिनोकोशबलादवगन्तव्यम् / परा-मुमुक्षुसत्साधुपरिग्रहा दुत्कृष्टा। इयम्-प्रत्यक्षलक्ष्यमाणा। धर्माधर्मव्यवस्था-धर्माधर्मनिय.. मनम् युज्यते-उपपद्यते। अन्यतः-अपौरुषेयत्वाभिमतादन्यस्मात् / कचित् -कदाचिदपीत्यर्थः / न-नहि / युज्यते इति शेषः / .. Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [दशमः तथाचोक्तमुपाध्यायेन(कल्पलता) 'धर्माधर्मव्यवस्थेयं कृतविश्वपरिग्रहा / यतः प्रवर्तते शश्वत् , तं सर्वज्ञमुपास्महे // 6 // अन्वयः- कृतविश्वपरिग्रहा. इयम् , धर्माधर्मव्यवस्था, यतः, प्रवर्तते, शश्वत्, तम् , सर्वशम्, उपास्महे / (कल्पलतावतारिका) कृतविश्वपरिग्रहा-विश्वस्य जंगतः परिग्रहो विश्वपरिग्रहः, कृतो विश्वपरिग्रहो यया सा कृतविश्वपरिग्रहा, * जगद्वयापिनीत्यर्थः / इयम्-प्रत्यक्ष लक्ष्यमाणा / धर्माधर्मव्यवस्था-धर्माधर्मनियमः / यतः-यस्मात् तीर्थकृत इति यावत् / प्रवर्तते-प्रचलति / शश्वत्भूयः / तम्-बुद्धिविषयीभूतम् / सर्वज्ञम्-तीर्थकृतम् / उपास्महेउपासनाविषयीकुर्मः / अत्र सौगता: -- "सर्वज्ञेन ह्यभिव्यक्तादित्यादिनोक्तोऽर्थः शक्येत ज्ञातुं यदि सोऽथः, अयं सर्वज्ञः, अयं च तदभिव्यक्तार्थ आगम इत्येवं विभक्तस्वभावो गुणविशेष: स्यात् , अयमेव सर्वज्ञ: न चायं सर्वज्ञः "इत्येवमन्यदोषस्य निर्दोषताया अपि वा प्रमाणानां दुर्लभत्वेन दुर्ज्ञानवात्" इति वदन्ति, तन्न समीचीनम् - लोके सिद्धस्य नियमवतोऽपि गुणदोषविज्ञानस्य सामान्यतो दृष्टानुमानरूपप्रज्ञया समुत्पन्नत्वात् / तथाचोपाध्यायाः(कल्पलतावतारिका) सत्तकै निशितैः शरैरिव वर-र्मीमांसके दुर्जये, लुण्टाके सुपथस्य मुष्णति धनं, सर्वज्ञमस्तौजसि। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तबकः ] कल्पलतावतारिका [ 255 - तस्यैवावगमं च लुम्पति परे, बाद हते सौगते, . साम्राज्यं जिनशासनस्य जयति, न्यायश्रिया सुन्दरम् // 7 // अन्वयः-- सुपथस्य. सर्वज्ञम् , धनम् , मुष्णाति लुण्टाके, दुर्मये, मीमांसके, वरैः, निशितैः शरैरिव, सत्तः, अस्तौजसि, च, तस्य, एव, अवगमम् , लुम्पति, परे, सौगते, वाढम् , हते, न्यायश्रिया, सुन्दरम् , जिनशासनस्य, साम्राज्यम् , जयति / (कल्पलतावतारिका) सुपथस्य-शोभनमार्गस्य, आहतस्येति यावत् / सर्वज्ञम्-- सर्वज्ञरूपम् / धनम्-सर्वस्वम् / मुष्णति-चोरयति / लुण्टाके-लुएटनशीले / दुर्जये-दु.खेन जेतुं योग्ये / मीमांसके-जैमिनिमुनिशिष्ये / वरैः-समीचीनैः / निशितैः-तीक्ष्णैः / शरैः-बाणैः / इव--यथा / सत्तकैः-व्यभिचारादिशङ्का निवर्तकानुकूलतः / अस्तौजसि-नष्टतेजसि / सतीतिशेष: / च -पुनः / तस्यैव-बुद्धिविषयीभूतस्य खलु, आहतस्य सुपथस्येति यावत् / अवगमम्-ज्ञानम् , सर्वज्ञविषयकनिश्चयमिति यावत् / लुम्पति-लोपयति / परे-अन्यस्मिन् / सौगतेबाद्धे / बाढम्-नितान्तम् / हते-मारिते, पराजिते इति यावत् / न्यायश्रिया-नयसम्पत्त्या। सुन्दरम्--शोभमानम् / जिनशासनस्यअर्हदागमस्य / साम्राज्यम्--शास्त्रचक्रचक्रवर्तित्वम् / जयति--सर्वोत्कघेण वर्तते / अत्र जिनशासनं सर्वजित्वरं दुरभिभवनीयं सर्वथानमस्कार्यमिति च ध्वन्यते / रूपकोपमसंसृष्टिश्लङ्कारः / (कल्पलता) - विश्वस्यापि दृशोर्मुदं वितनुते, यः प्रातिहार्यश्रिया, धर्मास्था यदुपज्ञमज्ञमनसामधाप्यवद्यापहा / Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [दशमः दुायोत्यकुवासनां नयशतै ठुम्पन्ति यस्यागमाः, सर्वज्ञो गतिरामहोदयपदं, सोऽयं कृतार्थोऽस्तु नः // 8 // अन्वयः- यः, प्रातिहार्यत्रिया, विश्वस्य, अपि, दृशोः, मुदम् , वितनुते, यदुरशम् , धर्मास्था. अद्य वि, अशमनसाम् , अवद्यापहा, यस्य, आगमाः, नयशतैः, दुायोत्थकुव सनाम , लुम्पन्ति, कृतार्थः, सः, अयम् , सर्वशः, आमहोदयपदम् , नः, गतिः, अस्तु / (कल्पज्ञतावतारिका) .. य:-बुद्धिविषयीभूतो जिनेश्वरः / प्रातिहार्याश्रिया -प्रतिहार्यलक्ष्म्या अशोकवृक्षाद्यष्टगतहार्यसम्पदेतियावत् / विश्वस्त्र-सर्वम्य / अपि-खलु दृशो:-नयनयोः। मुदम्-हर्षम् वितनुते-विस्तारयति / यदुपज्ञम्-यद यप्राथमिकज्ञानविषयरूपा / धर्मास्था-धर्मरक्षा, धर्मविश्वास इति वा / अद्यापि-घोरतरे कलिकालेऽपि / अज्ञानसाम्स्वल्पबोधवताम्, प्राणिनामिति शेषः / अवद्यापहा-पापविनाशिका / प्रथमतो धर्मरक्षां स एव ज्ञातवान् , अथवा सं एव धर्मरक्षोचितज्ञानवानासीत्ततोऽन्योऽपि धर्मरक्षां विधाय पापरहितो भवतीति भावः। यस्य-बुद्धिविषयीभूतस्य तीर्थकृत: / आगमाः-तत्त्वनिर्णयकशा. खाणि / नयशतैः-नयानां शतैः / दुर्यायोत्यकुवासनाम्-दुर्नयज. नितकुसंस्कारम् / लुम्पन्ति-लोपयन्ति, दूरीकुर्वन्तीति यावत् / कृतार्थ:-सफलमोक्षात्मकप्रयोजन: / सः-बुद्धिविषयीभूत: - अयम्एषः / सर्वज्ञः-तीर्थकृत् , जिनेश्वर इति यावत् / आमहोदयपदम्मोक्षपदप्राप्तिपर्यन्तम् / न:-अस्माकम् / गतिः-उप्रायः, मोक्षोपा. Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तक्कः ] कल्पलतावतारिका [257 यदर्शक इति यावत् शरणं वा / अस्तु-जायताम् / कविगतजिनेश्वरविषयकरत्याख्यभावाभिव्यञ्जनादुत्तमं काव्यमिदम् / ननु "सर्वज्ञेनाभिव्यक्तादागमात् सम्पद्यते धर्माधर्मव्यवस्थेति पूर्वमुक्तम् , परन्तु कवलाहारित्वे त्वस्मदादिवत् सार्वश्यमेव नोपपद्यते, इति कथं श्वेताम्बराणां सर्वज्ञमूला व्यवस्था ? न च च्छद्मस्थे भुजिक्रिया दर्शनात् केवलिनि तद्विजातीये तत्कल्पना युक्ता अन्यथा चतु ानित्वाकेवलित्वसंसारित्वादयोऽपि तत्र स्युः / न च देहित्वमात्र तस्य भुक्तिसम्पादकम् मैथुनसम्पादककर्मसत्त्वेऽपि सुषुप्त्यादौ वृषस्याभावेन मैथुनविरहवत् कैवल्ये हतमोहतया बुभुक्षाभावेन भुक्त्यनुपपत्तेः / एवञ्च तथाभूतशक्त्याऽऽयुष्यकर्मणोः सत्त्वेऽपि न क्षतिः / न च मोहाभावात् शरीरानुरागनिमित्तबुभुक्षाभावेऽपि शरीरं स्थापयितुमिच्छरश्नातीति वाच्यम् अनन्तवीर्यस्य भगवत: शरीरस्थितिमिच्छोः प्रकृताहारमन्तरेणापि तत्स्थापनसामर्थ्याविरोधात् , इति चेदरोच्यते-घातिकर्मक्षयापेक्षयाऽस्मदादिविजातीयत्वेन भगवति चतुझानित्वाद्यनुपपत्तावपि भुक्तिनिमित्तककर्मक्षयापेक्षया विजातीयत्वा. सिद्धेर्न तत्र भुक्त्यनुपपत्तिः / न च भुक्तिसम्पादकं कर्मेच्छां विना तदनिष्पादकम् , अनिच्छतामपि कर्मविपाककृतफलोपनिपातदर्शनात् / न च भुक्तिप्रवृत्ते रागनिमित्तकत्वाद् वीतरागे तदभावः, शरीरतिष्ठापविषयोपवे रानादिप्रवृतेरिव भुक्तिप्रवृत्तेरपि तत्रातयात्वात् , अनन्तवीर्य्यत्वञ्च तत्र विघ्नपरिपन्थि न परमाहारमन्तरेणैव शरीरस्थितिसम्पादकम् , अन्यथाच्छद्मस्थावस्थायां भगवत्यपरिमितबलश्रवणात् कर्मक्षयार्थमनशनाद्यभ्यवहरणमसङ्गत स्यात् / न च तदा क्षायोपशमिक तस्य वीर्यम् , केवल्यवस्थायां तु क्षायिकं तत् इति विशि Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [दशमः ष्टाहारमन्तरेणापि शरीरस्थितिनिबन्धनमिति वाच्यम् तत्सद्भावेऽपि शरीरस्थितिनिमित्तशयनोपवेशनादिवत् प्रकृताऽऽहारस्याप्यविरोधात् / नचोपवेशनादिकमपि शरीरस्थित्यर्थं तत्रासिद्धम् समुद्घातावस्थानन्तरकालं पीठफलकादिप्रत्यर्पणश्रुतेः, तद्ग्रहणमन्तरेण तत्प्रत्यर्पणस्यासम्भवात् , तद्ग्रहणस्य च यथोक्तप्रयोजनमन्तरेणाभावात् , अधिकं स्याद्वादकल्पलतायां दृष्टव्यम् / तेन सिद्धमेतत् कवलाहारित्वेऽपि घातिकर्माकलङ्कितेन भगवता व्यक्तादस्माकमागमाद्धर्माधर्मव्यवस्थेति / अत्रोपाध्यायाः-- (कल्पलता) दिगम्बर ! परस्परं, मतविरोध मत्सरं, निरस्य हृदि भाव्यतां यदिदमुच्यते तत्त्वतः / स्थिता परिणतिर्यथाक्रममघातिनां कर्मणां , न किं कवलभोजिनं गमयति त्रिलोकीगुरुम् // 9 // अन्वयः-दिगम्बर ! परस्परम् , मतविरोधजम् , मत्सरम् , निरस्य, तत्त्वतः , यत् , इदम् , उच्यते, (तत् ) हृदि, भाव्यताम् , अघातिनाम् , कर्मणाम् , यथाक्रमम् , स्थिता, परिणतिः, त्रिलोकीगुरुम् , कवलभोजिनम् , किम् , न , गमयति / (कल्पलतावतारिका) दिगम्बर ! - दिक् दिशैवाम्बरं वस्त्रं यस्य स .दिगम्बरस्तदामन्त्रणे तथा / जात्यभिप्रायेणैकवचनम् / परस्परम्-अन्योन्यम् / मतविरोधजम्-सिद्धान्तविरोधजनितम् / मत्सरम्-भन्यशुभद्वेषम् / Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 256 निरस्य-दूरीकृत्य / तत्त्वतः-यथार्थतः। यत्-बुद्धिवषयीभूतम् / इदम्-प्रत्यक्षविषयतामापन्नम् / उच्यते-निगद्यते / (तत्) हृदिहृदये / भाव्यताम्-विचार्य्यताम् / अघातिनाम्-वेदनीयायुनीमगोत्रात्मकानामघातिवचनवाच्यानाम् / कर्मणाम्-कर्मतया प्रसिद्धानाम् / यथाक्रमम्-क्रमशः / स्थिता-अवस्थिता / परिणतिः-परिणाम:, परिपाक इति यावत् / त्रिलोकीगुरुम्-भुवनत्रयश्रेष्ठम् / कवलभोजिनम्कवलाशिनम् / किम्-कथम् / न-नहि / गमयति-बोधयति, अपि तु बोधयत्येवेति भावः / अघातिकर्मणा कवलाहारभोजित्वेऽपि न तीर्थकृत्त्वहानिरितिभावः / सर्वज्ञः सर्वदा भोजी, साधितो दशमे स्तवे / जैमिनीयास्तथा ताथा-गता गता दिगम्बराः // 6 // / / इति शासनसम्राट-तपागच्छाधिपति-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-जगद्गुरुबालब मचारिभट्टारकाचार्य महाराजश्रीविजयनेमिसूरीश्वरमहाराजपट्टालङ्कारशास्त्रविशारदकविरत्नपीयूषपाणिपूज्यपादाचार्यश्रीविजयामृतसरिवर- / सन्दृब्धायां महोदधिकल्पशास्त्रवार्तासमुच्चय -- कल्पलतानुसारिण्यांकल्पलतावतारिकायां दशमः स्तवकः / / A Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [एकादशः * अथैकादशः स्तवकः ॐ तत्रादौ चिकीर्षितसमाप्तिप्रतिबन्धकदुरितोपशमनाय मङ्गलाथ श्लोकत्रयं निर्दिशन्त्युपाध्यायाः(कल्पलता) . अपापायामायानुसृतमतिरभ्येत्य सदनं, क्षमाया निर्मायापहृतमदमायान् गणभृतः / सभायामायातान् य इह जनतायां मुदमदा दपायात्पायाद्वो जिनवृषभवीरः स सततम् // 1 // अवन्यः- आयानुसृतमति:, अपापायाम् , क्षमायाः, सदनम् , अभ्येत्य, सभायाम् / आयातान् , गणभृतः, अपहृतमदमायान् , निर्माय, यः, इह, जनतायाम् , मुदम् , अदात् , सः, जिनवृषभवीरः, सततम् , वः, अपायात् , पायात् / (कल्पलतावतारिका) आयानुसृतमतिः - आयं शिष्यसम्पत्तिलाभमनुसृताऽनुगता मतदुद्धिर्यस्य स तथा / शिष्यसम्पत्तिलाभमनुसन्दधान इत्यर्थः / अपापायाम् -तदभिधानायां नगर्याम् , अधुना “पावापुरी"तिख्यातायाम् / क्षमाया:-तितिक्षायाः। सदनम्-सद्म। अभ्येत्य-गत्वा / समवसरणं कृत्वेत्यर्थः / सभायाम्- गोष्ठयाम् , समवसरणे इति यावत् / आयातान्--समागतान् / गणभृतः-इन्द्रभूत्यादीन् एकादश गणधरान् / अपहृतमदमायान्-दूरीकृतगर्वदम्भान् / निर्माय-विधाय / य:-बुद्धिविषयीभूतः / इह-लोके / जनतायाम्-जनकदम्बके / मुदम् Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 261 सदुपदेशगणधरप्राप्त्युभयप्रयोज्यं हर्षम् / अदात्--व्यतरत् / सःतादृशः / जिनवृषभवीरः - अर्हन्छेष्ठो भगवान् वर्द्धमानो महावीरस्वामी। सततम्--अनिशम् / वा-युष्मान - श्रद्धासम्पन्नान्-भक्तजनानिति यावत् / अपायात्-विनाशात् / पायात--रक्ष्यात् / अनुप्रास: शब्दालङ्कारः / स चैकवर्णस्यानेकश आवृत्त्या वृत्त्यनुप्रासास्मकः, छेकानुप्रासश्च / श्रीमच्चरमतीर्थकृद्विषयकः कविनिष्ठो रत्याख्यो भावश्चाभिव्यज्यते इति ध्वनिकाव्य मदम् / (कल्पलता) प्रत्यूहापोहमन्त्रः सकलजनवशीकारकृत्सिद्धविद्यो, दुर्नीतिव्याधिदिव्यौषधमधमजनव्यालपारीन्द्रनादः / अज्ञानध्वान्तधारारविकिरणभरो यस्य नामार्थसिद्धि, दत्ते विश्वस्य शाश्वत् स भुवि विजयतामाश्वसेनिर्जिनेन्द्रः॥२॥ अन्वयः-सकलजनवशीकारकृत्सिद्धविद्यः, प्रत्यूहापोहमन्त्रः, दुतिव्या विदिव्योषधम् , अधमजनव्यालपारोन्द्रनादः, अज्ञानध्वान्तधारारविकिरणभरः, यस्य, नाम, शाश्वत् , विश्वस्य, अर्थसिद्धिम् , दत्ते, सः, आश्वसेनिः, जिनेन्द्रः, भुवि, विजयताम् / (कल्पलतावतारिका) सकलजनवशीकारकृत्सिद्धविद्यः-सकलजनानां निखिललोकानां वशीकारो वशीकरणम् सकलजनवशीकारकृत् तथा सिद्धा निष्पन्ना विद्या ज्ञान यतः स तथा / प्रत्यूहापोहमन्त्रः-विघ्ननिवारणमन्त्ररूपम्, नामविशेषणवाचकत्वेऽपि मन्त्रशब्दस्य नित्यपुल्लिङ्गतया तथा Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य . [एकादशः प्रयोगः, विशेषणविशेषणवाचकतया च सिद्धविद्य इत्यत्रापि पुल्लिङ्गताऽवसेया अथवा सकलजनवशीकृत् इत्येव नाम विशेषणवाचकम् "सिद्धविधः" इति पदमाश्वसेनिविशेषणवाचकमित्यवसेयम् / दुर्नीतिव्याधिदिव्यौषधम्-दुर्नीतिरेव व्याधी रोगस्तत्र दिव्यौषधरूपम्। अधमजनव्यालपारीन्द्रनादः-अधमजना नीचलोका एव व्याला दुष्टगजास्तत्र पारीन्द्रनाद:-सिंहनादरूपम् / “व्यालो दुष्टगजे सर्प श्वापदे नान्यवत् खले" इतिमेदिनी / अज्ञानध्वान्तधारारविकिरणभरःअज्ञानमविद्यैव ध्वान्तमन्धकारोऽज्ञानध्वान्तम् तस्य धारा परम्परा तत्र रविकिरणभर:- सूर्य्यमयूखातिशयरूपम् / ' यस्य-बुद्धिविषयीभूतस्य भवगत: पार्श्वनाथस्य / नाम-अभिधानम् / शश्वत्-पुन: पुन: / विश्वस्य-जगतः, सर्वलोकस्य वा / अर्थसिद्धिम्-प्रयोजन. निष्पत्तिम् / दत्ते-ददाति / सः-बुद्धिविषयीभूत: / आश्वसेनिःअश्वसेनस्यापत्यं पुमानाश्वसेनिः पार्श्वनाथः। जिनेन्द्रः-जिनेश्वरः / भुवि-लोके / विजयते-सर्वोत्कृष्टतया राजते / परम्परितरूपकमलङ्कारः / जिनेन्द्रनामनि दिव्यौषधत्वाद्यारोपे दुर्नीतीत्यादौ व्याधिस्वाद्य रोपस्य साधारणधर्मसम्पादकतया कारणत्वात् / “यत्र कस्यचिदारोप: परारोपणकारणम् / तत् परम्परितम्" इति साहित्यदर्पणे तल्लक्षणात् / (कल्पलता) येषां गिरं समुपजीव्य सुसिद्धविद्यामस्मिन् सुखेन गहनेऽपि पथि प्रवृत्तः। ते सूरयो मयि भवन्तु कृतप्रसादाः, .. श्रीसिद्धसेनहरिभद्रमुखाः सुखाय // 3 // Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [263 अन्वयः-सुसिद्धविद्याम् , येषाम्, गिरम् , समुपजीव्य, गहने, अपि, अस्मिन् , पथि, सुखेन, प्रवृत्तः, ते, श्रीसिद्धसेनहरिभद्रमुखाः, सुखाय, मयि, कृतप्रसादाः, भवन्तु / (कल्पलतावतारिका) सुसिद्धविद्याम्-सु-सम्यक् सिद्धा निष्पन्ना विद्या दर्शनादिविद्या यतः सा सुसिद्धविद्या तान्तथा / येषाम्-बुद्धिविषयीभूतानाम्, श्रीसिद्धसेनहरिभद्रप्रमुखाणामिति यावत् / गिरम्-वाणीम् / तदीयप्रन्थात्मकवचनमिति यावत् / समुपजीव्य-निर्वाहकीकृत्य / गहनेदुर्गमे / अपि-खलु / अस्मिन्-प्रत्यक्षलक्ष्यमाणशास्त्रवार्ताव्याख्यानात्मके / पथि-मार्गे / सुखेन-अनायासेन / प्रवृत्तः-प्रवृत्तिमान , भभवमिति शेषः / ते-बुद्धिविषयीभूताः / श्रीसिद्धसेनहरिभद्रमुखाःतत्तत्प्रसिद्धाभिधाना सूरीश्वराः / सूरयः-प्राचार्यपदप्रतिष्ठिताः, विद्वांसः। सुखाय-अानन्दाय / मयि-मल्लक्षणे जने / कृतप्रसादाः-प्रसन्नाः। भवन्तु-जायन्ताम् / अत्र श्रीसिद्धसेनहरिभद्रप्रभृतिसूरिवर्यविषयक: कविनिष्ठो रत्याख्यो भावोऽभिव्यज्यत इति भावध्वन्यात्मक काव्यमिदमवसे यम् / ननु सर्वज्ञोपज्ञादागमाद् धर्माधर्मव्यवस्थेति पूर्वोक्तमयुक्तम् शब्दस्य कस्तितार्थविषयत्वात् , शब्दार्थयोर्वास्तवसम्बन्धाभावाच्चेति मनसि कृत्य वार्तान्तरमाह सूरिराज:(शास्त्रवार्ता) अन्ये त्वभिदधत्येवं, युक्तिमार्गकृतश्रमाः / शब्दार्थयोर्न सम्बन्धो, वस्तुस्थित्येह विद्यते // 1 // Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य . [एकादशः अन्वयः-युक्तिमार्गकृतश्रमाः, अन्ये, तु, एवम् , अभिदधति, इह, शब्दार्थयोः, वस्तुस्थित्या, सम्बन्धः, न, विद्यते, इति / . .. ___(अव०) युक्तिमार्गकृतश्रमाःयुक्तिमार्गे तर्कपरम्परायां कृतो विहित: श्रम आयासो यैस्ते तथा, अनुभवाद्युत्सृज्य जातियुक्तिमात्रनिष्ठा इत्यर्थः / अन्ये-अपरे, बौद्धा इति यावत् / तु-पुन: / एवम्वक्ष्यमाणप्रकारेण अभिदधति-निगदन्ति / तमेव प्रकारमपरार्द्धमाह इह-अस्मिँल्लोके / शब्दार्थयो:-लोकप्रसिद्धयोर्नामनामवतोः / वस्तुस्थित्या-परमार्थेन / सम्बन्धः-कञ्चन संसर्गः। न-नहि / विद्यतेवर्तते / सम्बन्धान्तरनिषेधात् तादात्म्यतदुत्पत्स्योरयोगाच्चेति / तथाहि-तादाम्यं न शब्दार्थयोः सम्बन्ध:, शब्दार्थयोरेकत्वेन भेदनिबन्धनद्वित्वाभावप्रसङ्गात् , स्वस्वरूपवत् , घटादिशब्दघटायर्थयोः श्रावणचाक्षुषादिबुद्धिभेदात् भेदसिद्धावभेदासिद्धेः, घटपवनादिवत् , करवालानलाद्यभिधाने वदनच्छेददाहादिप्रसङ्गात् , करवालानलादिनिवेशवत् , सङ्केतव्यवस्थानात् नह्यगृहीतसङ्केतः शब्दोऽर्थ प्रत्याययति घटपदशक्तिपरिज्ञानविकलानां पामराणां विपरीतव्युत्प. नानाञ्च घटपदश्रवणमात्रात् घटार्थप्रत्ययप्रसङ्गात् , किन्तु यः शब्दो यत्र गृहीतसङ्केतः स तमेवार्थं प्रत्याययतीति नचेदमर्थतादात्म्ये युज्यते / एवं घटाद्यसन्निधानेऽपि घटादिशब्दोत्पत्त्या व्यतिरेकव्यभिचारात् , देवदत्ताद्यर्थदृष्टौ गोत्रस्खलनादिदशायां यज्ञदत्तादिशब्देनोक्तितो देवदत्तादिशब्दानुत्पत्त्याऽन्वयव्यभिचारात् , घटादौ पटादिशब्दस्य सङ्केत. करणाच्च यद् यतो नोत्पत्तिस्वभावं तस्य तत्र नियोगवैयर्थ्यात् , शब्दोत्पत्तिरपि न शोभते इति / शब्दानां वास्तवार्थत्वेऽभ्युपगम्यमाने दर्शनान्तरभेदिषु प्रधानेश्वरादिष्वर्थेषु प्रवृत्तिनिमित्तविकला शक्तिर्न Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 265 स्यात् , तथा च प्रधाना दपदानामप्रत्यायकत्वं स्यात् न चैतदिष्टम् , न च सखण्डप्रधानत्वादिविशिष्टे शक्तिभ्रमादुपपत्ति: गवादिपदानाभिव प्रधानादिपदानामखण्डधर्मविशिष्ट एव शक्त्यनुभवात् , विनष्टानुत्पन्नयोरर्थयोरसत्त्वेन तत्र प्रवृत्तिनं स्यात् , तथा कस्यचित् प्रतारकादेर्वाचोऽसत्यार्थता नैव भवेत्, अतः शब्दार्थविद्भिः सौगतैः शब्दो बौद्धार्थविषयो मन्यते / एतेन यदुक्तमुद्योतकरेण -"अवाचकत्वे शब्दानां प्रतिज्ञाहेतुव्याघात:" इति तत्प्रत्युक्तम् , नयागोपालप्रतीत: शब्दार्थो निषिध्यते किन्तु तत्र सांवृतत्वमभ्युपगम्य तात्त्विकत्व निषिध्यते इति, तन्निषेधश्च स्वलक्षणस्य व्यवहारकालाननुयायित्वेनाकृतसमयत्वात्तत्र शब्दस्य ।अयमेवाभिप्राय: "न जातिशब्दो भेदानां वाचकः, आनन्त्यात्' इति वदतो दिङ्नागाचार्य्यस्य / तेन यदुक्तमुद्योतकरेण “यदि शब्दं पक्षय सि तदाऽनन्तस्य वस्तुधर्मत्वाद् व्यधि. करणो हेतुः , अथ भेदा एव पक्षी क्रियन्ते तदा नान्वयी न व्यतिरेकी दृष्टान्तोऽस्ति, इत्यहेतुरानन्त्यम्” इति तन्निरस्तम्। न च जातिविशेषणभेदेषु सङ्केत सम्भवादनमदोषः, जातेनिरस्तत्वात् , अनन्तभेदविषयनि:शेषव्यवहारोपलम्भस्य कस्यचिदसम्भवेनादृष्टेषु भेदेषु समयासम्भवाच्च, विकल्पबुद्धया हृतेषु तत्प्रतिपत्त्यभ्युपगमे च विकल्पसमारो पतार्थविषय एव सङ्केतः प्राप्तः / अथ समयक्रियाकाले क्षणान्तरसन्निधानात् कथं न स्वलक्षणे समयकरणसम्भवः ? इति चेत् न, तस्याभोगाविषयीकृतत्वेनाश्वाभोगाविषयीकृते सन्निहिते गवाश्वादावश्वपदस्येव समयस्य दुग्रहत्वात् , सादृश्येनैक्यमध्यवस्य समयग्रहे च तस्यास्वलक्षणत्वेन स्वलक्षणस्य वाच्यत्वासिद्धः ? इत्यमर्थस्य तात्त्वि. कत्वाभावेऽतव्यावृत्तिरूपोऽपोह एव शब्दप्रतिपाद्यः , पारमार्थिकी Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य . [एकादशः गोत्वाविरूपा जातिर्न प्रतिपाद्या. गोत्वादिजातेर्भेदाऽभेदादिविकल्पेनाघटमानत्वात्, तथाऽश्वादिव्यक्तिविशेषेभ्यो गोव्यक्तीनां स्वभावत एव गोत्वाधारस्वभावलक्षणम् , भिन्नत्वाव्यवस्थितेः, गोत्वस्य व्यापकत्वात् / न च स्वभावभेदे गवादिशब्दात् विशिष्टभेदवद् व्यक्तिप्रतीतेः किं गोत्वादिना कल्पितेन, गोत्वाभावे न गोत्वाधारस्वभावभेदवत्त्वम् , तत एव तदोपपत्तेरिति वाच्यम्, तस्य भेदस्य भ्रान्तत्वेन तथाध्यवसायबलेन कल्पिततद्वत्त्वे बाधकाभावात् , वास्तवस्व. भावभेदे एव दोषसङ्गतेः / . अकल्पितजातिवाच्यत्वपक्षे तु दण्डाभिधानाद् दण्डनीव जातिमति गतिर्न स्यात् , न च प्रथमं जातिरवसीयते ततस्तताँल्लक्ष्यते तेन विना तस्या अयोगादिति लक्षणया तद्वतो गतिरिति वाच्यम् क्रमवत् प्रत्ययादर्शनात् , न च जातिव्यक्त्योः सङ्कीर्णैव प्रतिपत्तिः स्यादिति वाच्यम् जातिव्यक्तिसङ्कीर्णतायां स्वीक्रियमाणायां युष्माकमप्यध्यवसीयमानाभेदविरोधात् , अभ्रान्ततद्वत्त्वायोगात् / . ननु भ्रान्ततद्वत्त्वस्य वाच्यत्वे कथमपोहः शब्दार्थ इति चेत् सत्यम्। द्विविधो ह्यस्माकमपोहः, पर्युदासलक्षणः प्रसज्यप्रतिषेधलक्षणश्च / श्राद्यो द्विविधः , अर्थेऽनुगतैकरूपत्वेनाध्यवसितो बुद्धिप्रतिभासो बुद्ध यात्मा, विजातीयव्यावृत्तस्वलक्षणार्थात्मा च। तत्र यथा हरीतक्यादयो बहवोऽन्तरेणापि सामान्यलक्षणमेकमर्थं ज्वरादिशमनं कार्यमुपजनयन्ति तथा शाबलेयादयोऽप्यर्थाः सत्यऽपि भेदेऽधिकृतकाकारपरामर्शमन्तरेणापि वस्तुभूतं सामान्यम् , तदनुभवबलेन यदुत्पन्नं विकल्पज्ञानन्तत्र यदाकारतयाऽर्थप्रतिबिम्बकं ज्ञानादभिन्नमाभाति तत्रान्यापोह इति व्यपदेशः, अन्यव्यावृत्तवस्तुप्राप्तिहेतुत्वादि Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तबकः ] कल्पलतावतारिका [ 267 नोपचारात् / अर्थस्तु विजातीयव्यावृत्तत्वाद् मुख्यतस्तव्यपदेशभाक् / प्रसज्यप्रतिषेधस्तु गौरगौन भवत्ययम् / इति विशिष्ट एवायमन्यापोहोऽवगम्यते / तत्रार्थप्रतिबिम्बात्माऽपोहः शब्दजन्यत्वात् साक्षात् शब्यवाच्यः, शब्दार्थयो: कार्यकारणभाव एव च याच्यवाचकभावः, तदुक्तम् न तदात्मा परात्मेति, सम्बन्धे सति वस्तुभिः / व्यावृत्तवस्त्वधिगमोऽप्यर्थी देव भवत्यत: // 1 // एतेन यदुक्तं कुमारिलभट्टन नन्वन्यापोहकृच्छब्दो, युष्मत्पक्षे तु वर्णितः / निषेधमात्रतेवेह , प्रतिभासेऽवगम्यते // 1 // किन्तु गौर्गत्रयो हस्ती, वृक्ष इत्यादि शब्दतः / विधिरूपावसेयेन, मतिः शाब्दी प्रवर्तते // 2 // यदि गौरित्ययं शब्दः, समर्थोऽन्यनिवर्तने / जनको गवि गोबुद्धेम॒ग्यतामपरो ध्वनिः // 3 // ननु ज्ञानफलाः शब्दा; नचैकस्य फलद्वयम् / अपवादविधिज्ञानं, फलमेकस्य वः कथम् // 4 // प्रागगौरितिविज्ञानं , गोशब्दश्रावणे भवेत् / येनागो: प्रतिषेधाय, प्रवृत्तो गौरितिध्वनिः // 5 // तदपास्तम्-प्रागर्थप्रतिबिम्बरूपविध्यर्थस्यैवावसायात् , अन. न्तरश्च सामर्थ्यतो निषेधप्रतीति:, एकस्यापि रात्रिभोजननिषेधार्थापकदिवाभोजनवत् क्रमिक विधिनिषेधज्ञानद्वयफलकत्वाविरोधात् / / / यद्यपि च तेनैवोक्तम् - अगोनिवृत्ति: सामान्यं, वाच्यं यत्परिकल्पितम् / गोत्ववस्त्वेव नैरुक्तमगोऽपोहगिरा स्फुटम् // 1 // Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य . [एकादशः भावान्तरात्मको भावो, येन सर्वो व्यवस्थितः / तत्राश्वादिनिवृत्तत्मा, भावः क इति कथ्यताम् // 2 // . . नेष्टो साधारणस्तावद् , विशेषो निर्विकल्पनात् / तथा च शाबलेयादेरसामान्यप्रसङ्गतः // 3 // .. तस्मात् सर्वेषु यद्रूपं, प्रत्येकपरिनिष्ठितम् / .. . गोबुद्धिस्तन्निमित्ता स्याद् , गोत्वादन्यच्च नास्ति यत् // 4 // तदपि प्रत्युक्तम् - बाह्यरूपतयाऽध्यम्ताय बुद्धयाकारम्यैव सवत्र शाबलेयादौ "गौ!:” इति समानरूपतयाऽवभासनात , तत्रैव भ्रान्तप्रतिपत्तृवशेन सामान्यव्यवहारात मुख्यसामान्यसामर्थ्यदर्शनेऽन्तरूपप्लवात् , द्विचन्द्रज्ञानवत् तत्र सामान्यभ्रान्त्युपपत्तेः, बुद्धेरव्यतिरिक्तत्वेनार्थान्तरानुगमाभावात् , परमार्थतोऽसामान्यरूपवत्त्वेन तस्यापोहवाच्यतायां सिद्धसाधनानवकाशात् / अधिकं, कल्पलतायां खण्डन. मण्डनादिकमालोकनीयम् / अथोत्तरपक्ष:- . (शास्त्रवार्ता०) अन्ये त्वभिदधत्येवं, वाच्यवानकलक्षणः / अस्ति शब्दार्थयोर्योगस्तत्प्रतीत्यादि तत् ततः॥९॥ - अन्वयः-- अन्ये. तु, एवम् , अभिदधति, शब्दार्थयोः, वाच्यवाचकलक्षणः, योगः, अस्ति, तत् , ततः, तत्प्रतीत्यादि / (अव०) अन्ये-अपरे, आर्हता इति यावत् / तु-पुनः / एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण / अभिदधति-निगन्ति / यदुत-शनार्थयो:शब्दश्वार्थश्च शब्दार्थों तयोस्तथा / वाच्यवाचकलक्षण:-अर्थे शब्द Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तबक: ) कल्पलतावतारिका [266 वाच्यतास्वभावरूपः, शब्दे चार्थवाचकतारूप: / योगः-सम्बन्धः / अस्ति-वर्तते / तत्त्वत इति शेषः / संवृत्त्या तदस्तित्वस्य परेणाप्यभ्यु. पगमात् / तत्-तस्मात्कारणात् / ततः-बुद्धिविषयीभूतात् शब्दादिति यावत् / तत्प्रतीत्यादि-वाच्यप्रतीति-प्रवृत्ति-प्राप्ति-निवेदनाद्यागोपालाङ्गन प्रसिद्ध युज्यते इति / ____ विकल्प्येऽर्थे दृश्याथै क्याध्यवसायेन शब्दाद् वाच्यप्रतीत्यादि न युज्यते, दृश्यविकल्प्यार्थयोर्भेदात् , तदभेदाध्यवसायायोगात् / न च मुख्यभेदस्य सांवृतभेदधियोऽविरोधित्व मिति वाच्यम् , मुख्यभेदशालित्वे विकल्प्यस्य दृश्यत्वापत्तेः स्वलक्षणवत्, दृश्यविकल्प्यप्रमातृक्षणयोरेकत्वाभावाच, दृश्यविकल्प्योरैक्याप्रसिद्धेश्च / अथ दृश्यविकल्प्याथैकीकरणं नामाबाह्मालम्बनस्य विकल्प्यस्य बाह्यालम्बनत्वेन प्रतीतिर्न तु वस्तुगत्या भिन्नयोस्तयोरेकीकरणमिति चेत् शब्दज्ञानाद्विशिष्टविकल्प्यवासनाबोध:, विशिष्टविकल्पश्च यस्माद् विशिष्टवासनाबोधादेव तस्मादृश्यविकल्प्यावर्थावेकीकृत्येत्येवमभिधी. यतेऽस्माभिः, विकल्प्यवैशिष्टयाद् गवाद्यर्थप्रतीतेर्गवाद्यर्थप्रवृत्तेः, भ्रमात्प्रवृत्तस्यापि स्वलक्षणप्रतिबन्धेन प्राप्तेर्गवादिबोधनाद्यर्थ निवेदनादे. श्वोपपत्तेः, न तु शब्दाद् विशिष्टवासनाबोधासिद्धेः / तथाविधविकल्पजननस्वभावो वासनोत्पाद एव प्रकृतवासनाबोधो वाच्यः, तच्च ( विशिष्टवासनाजन्म ) न कदाचिद् युज्यते, यस्माद् अन्यस्मात् तुल्यकालादेः सहकारिणो विशिष्टीभावोऽन्यस्य ( विशेषस्य ) नैव भवतोति / तुल्यकालात् सहकारिणो न विशेषः, विशेष्यस्य तदानीमनाधेयातिशयत्वात् , विशेषस्य चातिशयत्वात् , तुल्यकालादपि सह Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 ] ___ शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [ एकादशः कारिणो न विशेष:, तदा तस्यासत्त्वात , असतश्चोपकारकरणायोगादितिभावः / न चोपादानसहकारिभ्यां विशिष्टापरोत्पादः स विशेष इति वाच्यम्, पूर्ववदविशिष्टकार्यजननस्वभावत्वातिरस्कारेणान्योदय. स्यैवासिद्धेः / एवञ्च शब्दार्थयोस्तादात्म्याद्यनभ्युपगमात् तादात्म्यतदुत्पत्तिविकल्पप्रभवा अस्माकं मते नानिष्टापादका भवन्ति / “परमाथै कतानत्वे" इत्यादिनोक्ता अपि दोषा नैवानिष्टोत्पादकाः, कारणभेदेन शब्दभेदात् अतीताजातयोश्च विद्यमानवत् स्वकाले सत्त्वेन तत्र शब्दप्रवृत्तेरविरोधाच्च / दर्शनान्तरभदिनां प्रधानादिपदानां प्रवृत्तिनिमित्तवैकल्ये गवादिपदानां तदापादनस्यायुक्तत्वात् , तथाहि-यस्मादर्थान्तरभूतवस्तुदोषो न कदाचिदर्थान्तरस्य युक्तियुक्तः, बुद्धानां भिक्ष्वादिशबगदिपदवत् , तथाच शबरादिभिक्ष्वादिपदानां जातिभेदादवर्णव्यञ्जकाऽव्यञ्जकलवत् प्रधानगवादिपदानामपि प्रवृत्सिनिमित्त. वैकल्यावैकल्ये नायुक्ते इति भावः / नचैवं प्रधानादिपदजनितविकल्प्यस्याखण्डप्रधानत्वादिविशिष्टविषयकत्वेऽसत्ख्यात्यापत्तिः। विक. ल्पस्यापि कस्यचिदखण्डैकविषयत्वाननुभवात् , निरंशेऽर्थे संशयधीप्रसरायोगात् , प्रकृते यथान्यसमयसङ्केतानुसार शशविषाणादिसङ्केतिततदादिपदार्थवद् वाक्यार्थमयत्वात् पदार्थस्य सत्सद्भावतात्पर्य्यादसद्भूतोद्भावनरूपमृषावादोपपत्तेः। अत एव परसमयाभिधानपराणां चासत्यभाषावर्गणाप्रसूतवाक्यस्थानां प्रकृत्यादिपदानां सद्भावानभिप्रायाद् न मृषात्वम्, अत एव च पाण्डुरपत्रकिसलयादिवृत्तान्तार्थानामुपमावाचकानां स्वार्थबाधेऽपि तात्पर्ये प्रामाण्याद् न तथात्वमिति / न च शब्दभेदसिद्धौ तस्य ( शब्दभेदस्य ) हेतुभेदनियम्यत्वाद् हेतुभेदसिद्धिः, तत्सिद्धौ च शब्दभेदसिद्धिरित्यन्योन्याश्रय इति वाच्यम्, Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तबकः ) कल्पलतावतारिका [271 संवादासंवादनिरूपणादिभ्यः प्रमाणतदाभासयोरिव सत्येतरभेदस्य लोके दर्शनात् / नचैकान्ततुल्ययोः संवादासंवादसम्भव इति विभावनीयम् / अथ स्वातिरिक्तगुणदोषसम्बन्धादेव तेषामेकान्ततुल्यत्वं न भविष्यतीति किं स्वरूपभेदेन ? अन्यथा कालभेदेन भ्रमप्रमाजनकचक्षुरादेरपि स्वरूपभेदः स्यादिति चेत् न सत्येतरादिशब्दानां सर्वथा स्वरूपाभेदे संवादेतराद्यनापत्तेः, कार्य्यभेदे स्वभावभेदस्य प्रयोजकत्वात् , सहकारिभेदस्याप्यजनकस्वभावपरित्यागौपयिकत्वात् , निर्मलानिर्मलचक्षुरादेरपि स्वरूपभेदाभ्युपगमात् इष्यते च सत्येतरादिव्यवहारस्यापि प्रमाणत्वात् स च हेतुभेदमाक्षिपतीति कान्योन्याश्रयः ? ___अथैवमपि शब्दार्थयोः स्वाभाविकसम्बन्ध-सत्येतरादिभेदसाम्राज्ये सङ्केतवैयर्थ्यम् स्वत एव शब्दस्यार्थप्रतिपादनयोग्यतायां सङ्केतादर्शिनोऽपि स्वतोऽर्थप्रतिपत्त्य विरोधादिति चेदत्रोच्यते। इह (शब्दस्थले) सङ्केतप्रतिसन्धानाध्ययव्यतिरेकानुविधानं शब्दार्थसम्बन्धज्ञानावरणक्षयोपशमं विना तारशक्षयोपशमकर्तृत्वेन सफलम् , शाब्दबोधे शक्तिप्रहस्यैव हेतुत्वेऽपि सङ्केतस्य तदभिव्यञ्जकत्वेनोपयोगात् / यत्तु अतिरिक्तशक्त्यभावज्ञानेऽपि शाब्दबोधोदयात् सङ्केतज्ञानमेव शाब्दबोधप्रयोजकम् इति, तत्तु धर्मधर्मिणोर्भेदाभेदवादिनां न दोषावहम् , तत्पदबोध्यत्वप्रकारकेच्छाविषयत्वस्य गौरवव्यभिचाराभ्यामतन्त्र. त्वात् / एतेन "तत्तत्पदबोध्यत्वप्रकारतानिरूपितेश्वरेच्छाविशेष्यत्वं तत्तत्पदार्थमात्रवृत्तितत्तत्पदवाच्यत्वम्" इति नैयायिकादिमतमपास्तम्, लक्ष्यादावतिप्रसक्तत्वात् , ईश्वरमनङ्गीकुर्वतामपि वाच्यत्वव्यवहारात्, लाघवाच्च तत्पदबोध्यरूपस्यार्थधर्मस्यैव तत्त्वात् / नचैवं लक्षणाया उच्छेदापत्तिः, अर्थान्तरबोधार्थमाश्रीयमाणे सङ्केतान्तर एव तद्वयपदे Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 ] शास्त्रवातासमुच्चयस्य [ एकादशः शात् , शक्तिलक्षणान्यतरत्वेन प्रयोजकत्वापेक्षया शक्तित्वेनैव तत्त्वोचित्याच्च / नचैवं समयस्य क्षयोपशमार्थत्वे सर्वत्र गलितावरणानां योगिनां वाचकप्रयोगार्थं तदपेक्षा न. स्यादिति वाच्यम् इष्टत्वात् समयापेक्षणं विनैव स्वयमेव योगिनां वाच्यवाचकभावं ज्ञात्वा वाचक. प्रयोगात् / एवञ्च बौद्धपरिकल्पितस्यापोहस्य वाच्यत्वं युक्त्या नोप. पद्यते, वस्तुभिन्नतया तस्याऽसत्वात् , विजातीयव्यावृत्तेरपि समानपरिणतिरूपतया वस्तुवाच्यत्वपक्षप्रसङ्गात्, तुच्छस्य वस्तुना सम्बन्धायोगात् , विकल्पबुद्धचभिन्नस्यापि तस्यापोहम्य भेदेनासत्त्वादद्वयबोधात् / अपि च लिङ्गसंख्यादियोगोऽप्यनन्तधर्मात्मकबाह्यवस्तुसमाश्रित एवेति नापोहस्य वाच्यत्वम् , एकत्र स्त्रीपुन्नपुंसकाख्यभाव. त्रयस्य, एकत्व द्वित्वादिसंख्यायाश्चाविरोधात्, यथाविवक्षितमनन्तधर्माध्यासिते वस्तु न कस्यचिद्धर्मस्य केनचिच्छब्देन प्रतिपादनात् , प्रतिनियतीपाधिविशिष्ट वस्तुप्रतिभासस्य प्रतिनियतक्षयोपशमविशेषनिमितत्वेन शबलाभासानापत्तेः / अपि च शब्दस्य बहिरर्थाप्रतिपादकत्वे. ऽदृष्टेषु नदीदेशपर्वतद्वीपादिष्वाप्तप्रणीतत्वेन निश्चिताच्छब्दात् प्रतिपत्तिर्न स्यात् , अदृष्टे विकल्पानुपपत्तेरिति विस्तरेण स्याद्वादकल्पलतायामाकलनीयम् / अथ "ज्ञानक्रियाभ्यां मुक्तिः" इत्यत्र नयमतजनितं वार्तान्तरमुत्थापयति( शास्त्रवार्ता) ज्ञानादेव नियोगेन, सिद्धिमिच्छन्ति केचन / अन्ये क्रियात एवेति, द्वाभ्यामन्ये विचक्षणाः॥३०॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तबकः ] कल्पलतावतारिका [ 273 अन्वयः–केचन, ज्ञानात्, एव, नियोगेन, सिद्धिमिच्छन्ति, अन्ये, क्रियातः, एव, इति, अन्ये, विचक्षणाः, द्वाभ्याम् / (अव०) केचन-ज्ञानवादिनः / ज्ञानात्-तत्त्वज्ञानात् / एवखलु / नियोगेन-अवश्यम्भावेन / सिद्धिम्-मुक्तिम् / इच्छन्तिवाञ्छन्ति, स्वीकुर्वन्तीति यावत् / अन्ये-क्रियावादिनः / क्रियातःक्रियायाः / एव-खलु, मुक्तिः, इति-एवं प्रकारेण / इच्छन्तीतिशेषः। अन्ये-ज्ञानक्रियावादिनः / विचक्षणा:-विद्वांसः, उभयसमर्थनाद् यथावस्थितबुद्धयः इति यावत् / द्वाभ्याम्-समुदिताभ्यां ज्ञानक्रियाभ्याम् / इच्छन्ति सिद्धिमिति शेषः / . तथाहि-फलार्थिनां पुंसां ज्ञानमेव फलदं भवति, फलोपायं प्रमाय प्रवर्तमानानां फलाव्यभिचारदर्शनात् , उपायभ्रमात् (मिथ्याज्ञानात् ) प्रवृत्तस्य पुरुषस्य फलप्राप्तेरसंभवात् , न हि मृगतृष्णिकाजलज्ञानप्रवृत्तस्यापि तदवाप्तिरिति / आगमेऽप्युक्तम् “पढम नाणं तो दया" इत्यादि / ज्ञानोत्कर्षाभ्यां फलोत्कर्षापकर्षयोरपि ज्ञानस्यैव फलहेतुत्वम् , क्रियोत्कर्षापकर्षयोस्तत्रातन्त्रत्वात् / अत एव ज्ञानहीना महाक्रिया अपि अतिचिरकाल क्लेशायासपरायणा दृश्यन्ते, ज्ञानवन्तोऽल्प क्रिया अपि ज्ञानबलेन विशिष्टफलयोगेन सुखिनो भवन्ति, न तु क्रियापकर्षादपकृष्टफलभाजो भवन्ति / एवं केवलेऽपि ज्ञानभावे मुक्तिर्भवति, अन्यथा क्रियावतोऽपि यत्नेनापि न भवति, तस्मादपि मुक्तिझनादेव न तु क्रियात इति सिद्ध भवति / . क्रियावादिनश्च-प्रवृत्तिलक्षणा क्रियैव फलार्थिपुरुषाणां फलदा भवति, न तु ज्ञान फलदम् , यस्मात् स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो जनः स्त्रीभक्ष्य Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य . [ एकादशः भोगज्ञानमात्रान्न सुखितो भवति किन्तु न भक्ष्यभोगेनैवेति / अत एव व्यापारविरहिता ज्ञानिनोऽप्यालस्योपहता: सुखसम्पद्विवर्जिता लोके पश्यतां प्राणिनां करुणाभाजन दृश्यन्ते, व्यापारप्रवणा हि क्रियासामर्थ्यात् विशिष्टफलसिद्धेर्मूर्खा अपि सन्तो भूयांस: पण्डिताधिपतयोऽपापाश्च दृश्यन्ते, ततः फलसिद्धावतन्त्र ज्ञानम् , आगमेऽपि क्रियाया एव प्राधान्यमुक्तम् / तथाहि * सुबहु पि सुअमहीन, किं काही चरणविप्पहीणस्स। अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्स-कोडीवि // 1 // ज्ञानोत्कर्षादेव मुक्तिनतु क्रियोत्कर्षादिति पूर्वोक्तं न समीचीनम् , सर्वज्ञस्यापि शैलेशीकरणाख्यव्यापागेत्कर्षे सत्येव मुक्तिः, शैलेश्या अर्वा केवलित्वेऽपि सति मुक्तिर्न भवतीत्यतो मुक्तिः क्रियानिमित्तिकैव / उभयवादिनश्च सर्वमेव पुरुषार्थत्वेन व्यवह्रियमाणं ज्ञानक्रियायोगे एव समुत्पद्यते, विशिष्टफलमधिकृत्य प्रत्येक देशोपकारितायाः समुदाये सम्पूर्णतोपपत्तेः। उक्तं च भाष्यकृता+ वीसुंण सव्वहच्चिय, सिकतातेल्लं व साहणाभावो / देसोवगारिया जा सा, समवायम्मि संपुण्णा // अथ सम्पूर्णता फलोपहितहेतुत्वम् , देशोपकारिता च हेतुत्वमात्रम् तच्च न पृथक् ज्ञानक्रिययोः परस्परमुक्तदोषात् , तथा च कथं * सुबहपि श्रुतमधोतं किं करिष्यति चरणविप्रहीनस्य / - अन्धस्य यथा प्रदीप्ता दीपशतसहस्रकोटिरपि // + विष्वग् न सर्वथैव सिकतातैलमिव साधनाभावः / देशोपकारिता या सा समवाये सम्पूर्णा / / Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 275 समवाये पूर्णता ? इति चेन्न प्रत्येकमपि ज्ञानक्रिययोर्द्वयोरन्वयव्यतिरेकानुविधानाविशेषेण हेतुत्वात , असम्यग्ज्ञाने फलव्यभिचारस्य चासम्यक् क्रियायामपि तुल्यत्वादिति भावः / ज्ञानक्रिययोरपि निश्चयेन ज्ञानक्रियाव्यपदेशात् , फलानुपहितस्य सतोऽकारणत्वात् , कुशूलस्थबीजाबीजयोरविशेषात् , कारणस्य च सत: फलोपहितत्वात् क्षेत्रस्थबीजवत् / तथा चाभियुक्ताः साध्यमर्थं परिज्ञाय, यदि सम्यक् प्रवर्तते / ततस्तत् साधयत्येव, तथा चाह वृहस्पतिः // 1 // सम्यक् प्रवृत्तिः साध्यस्य प्राप्त्युपायोऽभिधीयते / तदप्राप्तावुपायत्वं न तस्या उपपद्यते // 2 // असाध्यारम्भिणस्तेन सम्यगज्ञानं न जातुचित् / साध्यानारम्भिणश्चेति द्वयमन्योन्यसङ्गतम् // 3 // अत एवाऽऽगमज्ञस्य या क्रिया सा क्रियोच्यते / आगमज्ञोऽपि यस्तस्यां यथाशक्ति प्रवर्तते // 4 // प्रज्ञापनासूत्रे तीर्थादिभेदात् पञ्चदशविधाः सिद्धाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तीर्थसिद्धाः, अतीर्थसिद्धाः, तीर्थकरसिद्धाः, अतीर्थकरसिद्धाः, स्वयंबुद्धसिद्धाः, प्रत्येकबुद्धसिद्धाः, बुधबोधितसिद्धाः, स्त्रीलिङ्गसिद्धाः, पुरुषलिङ्गसिद्धाः, नपुंसकलिङ्गसिद्धाः, स्वलिङ्गसिद्धा, अन्यलिङ्गसिद्धाः, गृहिलिङ्गसिद्धाः, एकसिद्धाः, अनेकसिद्धाः (15) इति / तत्र तीर्थे चतुर्वर्णश्रमणसंघरूपे वोत्पन्ने सति सिद्धास्तीर्थसिद्धाः, तीर्थस्याभावेऽनुत्पत्तिलक्षणे आन्तरालिकव्यवच्छेदलक्षणे वा सति सिद्धा अतीर्थसिद्धा मरुदेव्यादयः, सुविधिस्वाम्याद्यपान्तराले बिरज्याप्तमहोदयाश्च / Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य . [एकादशः तीर्थकरा अवाप्तजिननामोदयार्जितसमृद्धय: सन्तः सिद्धास्तीर्थकरसिद्धाः, अतीर्थकरसिद्धाः, सामान्यकेवलिन: सन्त: सिद्धा अतीर्थकरसिद्धाः / स्वयमेव बाह्यप्रत्ययमन्तरेणैव निजजातिस्मरणादिना बुद्धाः सन्त: सिद्धाः स्वयंबुद्धसिद्धाः, ते च तीर्थकरातीर्थकरभेदेन द्विविधाः / प्रत्येकं बाह्यं वृषभादिकारणमभिसमीक्ष्य बुद्धाः सन्त: सिद्धाः प्रत्येकबुद्धसिद्धाः / बुद्धैर्गुर्वादिभिर्बोधिताः सन्त: सिद्धा बुद्धबोधितसिद्धाः। स्त्रिया लिङ्ग स्त्रीलिङ्गम् , स्त्रीत्वस्योपलक्षणमित्यर्थः / तच्च त्रिधा वेदः, शरीरनिवृत्तिः, नेपथ्यश्चेति। इह च शरीरनिवृत्त्यैवाधिकारो न वेदनेपथ्याभ्याम् , तयोर्मोक्षानङ्गत्वात् , ततस्तमिल्लिङ्गे वर्तमानाः सन्त: सिद्धाः स्त्रीलिङ्गसिद्धाः, तथा पुंलिङ्गे पुंशरीरनिर्वृत्ति रूपे व्यवस्थिताः सन्त: सिद्धाः पुंल्लिङ्गसिद्धाः। एवं नपुंसकशरीरे व्यवस्थिताः सन्त: सिद्धा नपुंसकलिङ्गसिद्धाः / स्वलिङ्गे रजोहरणादि. रूपे व्यवस्थिताः सन्त: सिद्धाः स्वलिङ्गसिद्धाः / अन्यलिङ्गे परिव्राजकादिसम्बन्धिन्येव व्यवस्थिताः सिद्धा अन्यलिङ्गसिद्धाः / गृहि. लिङ्गे व्यवस्थिताः सिद्धा गृहिलिङ्ग सिद्धा मरुदेव्यादयः / एकस्मिन् समये एकका एव सन्तः सिद्धा एकसिद्धाः। एकस्मिन् समये अनेकैः सह सिद्धा अनेकसिद्धा, इति सम्प्रदायः / अत्र प्रत्यवतिष्ठन्तेऽभिनिवेशपेशलचित्ताः क्षपणका:-"स्त्रीलिङ्गसिद्धाः' इत्यत्र पूर्वं क्षीणस्त्रीवेदाः सन्त: सिद्धाः इत्यमर्थ आश्रयरणीय:, लिङ्गपदेन मोक्षानङ्गस्यापि वेदस्यात्रोपादानात् , अतीर्थकर. सिद्धादाविव मोक्षाङ्गोपाध्युपादाने नियमाभावात् , स्त्रीशरीरावस्थितास्तु न मुक्तिभाज: स्त्रीत्वात् व्यतिरेके पुरुषवत् / अथवा स्त्रियो मोक्षभाजो न भवन्ति विशिष्टपूर्वाध्ययनलब्ध्यभाववत्त्वात् , अभव्यवत्, इति ते Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [ 277 भ्रान्ताः लिङ्गपदेन वेदोपादानेऽपि प्रागुक्तार्थम्य स्त्रीमुक्तिं विनाऽनुपपत्ते, पूर्व स्त्रीवेदा दक्षयस्य शरीरनितिनियमनियतत्वात् / “स्त्रियो न मुक्तिभाजः" इत्यत्र सर्वासां स्त्रीणां पक्षीकरणेऽभव्यस्त्रीणां मुक्त्यनभ्युपगमात् सिद्धसाधनम् भव्यस्त्रीणामपि पक्षीकरणे भव्यानामपि सर्वासां मुक्त्यनभ्युपगमेन सिद्धसाधनमेव, "भव्वा वि ते अणंता जे सिद्धिसुहं ण पावन्ति” इति वचनप्रामाण्यात् अवाप्तसम्यग्दर्शनानामपि पक्षीकरणे परित्यक्तसम्यग्दर्शनादिभिः, अपरित्यक्तसम्यग्दर्शनानामपि पक्षीकरणेऽप्राप्ताविकलचारित्राभिरतदोषतादवस्थ्यात् / अथ चारित्राभावादेव स्त्रीणां न मुक्ति:, नन्वसावपि ( चारित्राभावोऽपि ) तासां कुत: सिद्धः ? स्त्रीत्वादिति चेत् , नन्वेवं पुरुषत्वात् पुरुषस्यापि तदभावः किन्न सिद्धयेत् ? तुल्ययुक्त्या स्त्रीष्वपि चारित्रस्वीकारस्याऽऽवश्यकत्वात् / अथ पुरुषे सकलसावद्ययोगनिवृत्तिरूपचित्तपरिणतः स्वसंवेदनाध्यक्षसिद्धत्वात् , अन्यैश्वानुमानाद् न तत्सिद्विरिति चेत् , ननु सा ( तादृशचित्तपरिणतिः) स्त्रियां तथैव किं नावसीयते ? अथ तासां भगवता नैर्ग्रन्थ्यस्यानभिधान द् न तत्प्राप्तिः, असदेतत्-तासां तस्य भगवता "णो कप्पदि णिग्गंथस्स णिग्गंथीए वा अभिन्नतालपलंबे पडिगाहित्तए" इत्याद्यागमेन बहुशः प्रतिपादनात् / अयोग्यायाः प्रव्रज्याप्रतिषेधस्य विशेषाभ्यनुज्ञापरत्वाच्च। अथ सलज्जतया तासां चारित्रमूलमचेलत्वं न सम्भवति, अप्रावृतानां तासां तिरश्चीनामिव पुरुषैरनभिभवनीयत्वात् , “नो कप्पइ णिग्गंथीए अचेलाए" इति भगवदागमेनापि निषिद्धमेव नान्यम् , इति न तासां चारित्रसम्भव इति चेन्न / नाग्न्यं हि न चारित्राङ्गम् , लज्जारूपसंयमविघातित्वात् , न च धर्मोपकरणधरणेन परिग्रहः, तस्य मूर्छारूपत्वात् / Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 ] शामावार्तासमुञ्चयस्य . [ एकादशः न च वीणां स्वभावत एव मायाप्रकर्षवत्त्वमुज्जृम्भते, न च तत्प्रकर्षे निष्कषायपरिणामरूपमुज्जीवतीति चेत् न, चरमशरीरिणामपि नारदादीनां मायादिप्रकर्षवत्त्वश्रवणात् / तेषां संज्वलनी माया न चारित्र. विरोधिनीति चेत् संयतीनामपि तादृश्येव सा किं न तथा ? न च सर्वासां मायाप्रकर्षनियमोऽपि,स्वभावसिद्धाया अपि तस्या (मायायाः) भूयसीषु विपरीतपरिणामेन निवृत्तिदर्शनात् / एतेन "त्रियो न चारित्रपरिणामवत्यः पुरुषापेक्षया तीव्रकामवत्त्वात् नपुंसकवत्" इत्यपास्तम् / तीब्रम्यापि कामम्य भूयसीसु तासु श्रुतपरिशीलन साधूपासनादिप्रसूतविपरीतपरिणामेन निवृत्तिदर्शनात् / न च मिथ्यात्वसहायेन महापापेन स्त्रीत्वस्य निवर्तनाद् न स्त्रीशरीरवर्तिन आत्मनश्चारित्रप्राप्तिरिति शङ्कनीयम् , सम्यक्त्वप्रतिपत्त्यैव मिथ्यात्वादीनां क्षयादिसम्भवात् , पास्त्रीशरीरं तदनुवृत्तौ तस्याः सम्यक्त्वादेरप्यपलापप्रसङ्गात् / उक्तश्च “सम्यक्त्वप्रतिपत्तिकाल एवान्त:कोटिस्थितिकानां सर्वकर्मणां भावेन मिथ्यात्वमोहनीयादीनां क्षयादिसम्भवात।" न च कक्षास्तनादिदेशेषु संसजनाद्यशुद्धेः प्राणातिपातबहुलत्वान्न तासां चारित्रमिति वाच्यम् , शुद्धशरीराया अपि भूयम्या दर्शनात, प्राणातिपातपरिणामाभावात् / यदि च स्त्रीणां चारित्रं न स्यात्सदा "साधुः साध्वी श्रावकः श्राविका" इति चतुर्विधसंघव्यवस्थोत्सीदेत् / श्रथाणुव्रतधारिणी श्राविकाऽपि साध्वीतिव्यपदेशं भजत इति न दोष इति चेत् हन्त ! तर्हि केवलसम्यक्त्वधारिण्येव श्राविकाव्यप. देशमासादयेत, एवञ्च श्रावके ध्वपि तथा द्वैविध्यप्रसङ्गेन संघश्य पञ्चविधत्वमापद्येत / अथ वेषधारिणी श्राविका साध्वीति व्यप. दिश्यते श्रावकस्तु तथाभूतो वस्तुतो यतिरेवेति चातुर्विध्यं व्यवतिष्ठते Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवकः ] कल्पलतावतारिका [274 इति चेन्नने गुण वना वेषधारणे विडम्बकचेष्टैव सेति / अथपुरुषानभिवन्धत्वात् घणां न मुक्तिरिति चेत् , भगरजनन्यादीनां जगद्वन्धत्वश्रवणात् / श्राचार्यानभिवन्द्यत्वेन शिष्ये साधुमात्रानभिवन्द्ये शैक्षे वा व्यभिचारात् , पुरुषानभिवन्द्यत्वस्य मुक्तिप्राप्त्यप्रतिबन्धकत्वेनाप्रयोजकत्वाच्च / यदि च तदनभिवन्द्यत्वेन तदपेक्षयाऽनुत्तमगुणत्वाद् न स्त्रीणां मुक्तिरितीष्यते तदा तीर्थकृद्गुणापेक्षया गणधरादेरप्यनुत्तमत्वाद् मुक्तिप्राप्तिनं भवेत् / . अथाशेषकर्मक्षयनिबन्धनस्याध्यवसायस्य गणधरादिषु तीर्थकदपेक्षया तुल्यत्वादयमदोष: तदा समानमेतदार्यकास्वपि / यदि च तीर्थस्य भगवदभिवन्द्यत्वात् प्रथमगणधरस्यापि तीर्थशब्दाभिधेयत्वेन तथात्वाद् न दोषः, तदा चातुर्वर्ण्यश्रमणसंघस्यापि तत्रान्तर्भावात् समानमेव / ___ अथाकल्याणभाजनत्वाद् त्रियो न मुक्तियोग्या इति चेत् न, तीर्थकरजननात् नह्यतः परं कल्याणमस्ति लोके / हीनबलत्वादेव स्त्रीणां न मुक्तिरिति चेन्न, ग्नत्रयसाम्राज्ये हीनबलवत्त्वस्याप्रयोजकत्वात् , अन्यथा स्त्रीभ्योऽपि होनबलाः पङ्गवादय: पुरुषा रत्नत्रय. साम्राज्येऽपि न मुच्येरन् / हीनबलानां विशिष्टच-रूपं चारित्रमेव न स्यादिति चेन्न, यथाशक्त्याचरणरूपस्य सत्त्वसाध्यस्य तस्य तासा. मप्यविरोधात् / न हि दुर्धरब्रह्मचर्यधारिणीनामसदभियोगादौ तृणवत्प्राणपरित्यागं कुर्वाणानां सत्त्वं तासां नातिरिच्यत इति वक्तु शक्यम् / नवानुपस्थाप्यतापाराञ्चितकानुपदेशेन तासु सत्त्वहीनता सिद्धयति सस्वापेक्षयैव शास्त्रे विशुद्धयनुपदेशात्, योग्यतापेक्षयैव तत्र तवैचित्र्योपदेशात् / उक्तन Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [एकादशः स्तवक्र: संवरनिर्जररूपो बहुप्रकारस्तपोविधिः शास्त्रे / योगचिकित्साविधिरिव, कस्यापि कथञ्चिदुपकारी // .. एवं व्यवस्थितेऽनुमानमपि प्रमाणम्, तथाहि-मनुष्यत्रीजातिमुक्त्युपहितव्यक्तिमती प्रव्रज्याधिकारिजातित्वात् पुरुषजातिवत् इति / न च तासां प्रव्रज्याधिकारस्य पारम्पर्येणैव मोक्षहेतुतया निर्वाहादप्रयोजकत्वम् ? नचैवमरूपायाससाध्ये तद्धेतुदेशविरत्यादावेव प्रवृत्तिः स्यान्नतु बह्वायाससाध्यसर्वविरताविति वाच्यम् देशविरत्यादिभूयोभवघटितपारम्पर्येण मोक्षहेतुत्वेऽपि चारित्रस्यैवाल्पभवघटितपारम्पर्येण मोक्षहेतुत्वात् , तादृशपारम्पर्येण मोक्षार्थितया तत्र प्रवृत्तेर्युक्तत्वात् कथमन्यथा दु:षमाकालवर्तिनो मुमुक्षवस्तत्र प्रवर्तिष्यन्ते ? इति वाच्यम् / तासां चारित्रस्य पारम्पर्येणैव मोक्षहेतुत्वाश्रवणात्, साक्षा. स्कारणस्य चारित्रस्यासति प्रतिबन्धके तद्भव एव मुक्तिप्रापकत्वोपपत्तेः, स्त्रीत्वस्य प्रतिबन्धकत्वे मानाभावात् , अन्यथा तत्र साक्षाचारित्रार्थितयैव प्रवृत्त्यापत्तेरिति, “मनुष्यस्त्री काचिद् निर्वाति, अविकलतत्कारणत्वात् पुरुषवत्" इत्यनुमानमपि प्रमाणम् / तदेवं स्त्रीमुक्तिसिद्धेः सिद्धाः पञ्चदशसिद्धभेदा इति शिवम् / . शब्दानामथ चार्थानां, सम्बन्धोऽस्ति परस्परम् / ___ मुक्तिभाजः स्त्रियः स्युस्तत्, सिद्धमेकादशे स्तवे // 11 // / इति शासनसम्राट्-तपागच्छाधिपति-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-जगद्गुरुबालब ह्मचारिभट्टारकाचार्यमहाराजश्रीविजयनेमिसूरीश्वरमहाराजपट्टालङ्कार। शास्त्रविशारदकविरत्नपीयूषपाणिपूज्यपादाचार्यश्रीविजयामृतसरिवर। सन्दब्धायां महोदधिकल्पशास्त्रवातीसमुच्चय - कल्पलतानुसारिण्यां-! कल्पलतावतारिकायां एकादशः स्तवकः / / கயமையைகலை மையமவமயையனையன் Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरमः उपसंहारः ] कल्पलतावतारिका [ 281 एवं समीचीनयुक्तिततिभिर्विमताना विमतीरपास्य तद्द्वारेण सिद्धान्तयन्तः स्वमत ग्रन्थान्ते प्रयोजन-श्लोकसलयाऽऽशीर्वादावश्यकर्तव्यतासूचक श्लोकचतुष्टयं निर्दिशन्ति सूरिवरा:-- (शास्त्रवार्ता.) एता वार्ता उपश्रुत्य, भावयन् बुद्धिमान नरः। इहोपन्यस्तशास्त्राणां, भावार्थमधिगच्छति // 55 // अम्वयः- बुद्धिमान् , नरः. एताः, वार्ताः, उपश्रुत्य, भावयन् , इह, उपन्यस्तशास्त्राणाम् , भावार्थम् , अधिगच्छति / .... (अव०) बुद्धिमान्-प्रेक्षावान् / न तु यः कोऽपीति भावः / नरः-मनुष्य: / एता:-समुपस्थापिता बुद्धिविषयीभूताः / वार्ता:सिद्धान्तप्रवादान् / उपश्रुत्य- श्रावणविषयतामापाद्य , आकर्येति यावत , भावयन्-चिन्तयन् , अनुसन्दधान इति यावत् / इहअस्मिन् प्रन्थे / उपन्यस्तशास्त्राणाम्-समुपस्थापितबौद्धवैशेषिकादिदर्शनानाम् / भावार्थम्-अभिप्रायतत्त्वम् / अधिगच्छति-प्राप्नोति, निश्चितमिति शेषः / (शास्त्रवार्ता.) शतानि सप्तश्लोकाना-मनुष्टुप्छन्दमां कृतः / आचार्यहरिभद्रेण, शास्त्रवार्तासमुच्चयः // 56 // अन्वयः-आचार्यहरिभद्रेण, अनुष्टुप्छन्दसाम् , श्लोकानाम् , सप्त, शतानि, शास्त्रवार्तासमुच्चयः, कृतः / Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य . [चरमः ( अव० ) आचार्यहरिभद्रेण-हरिभद्राभिधानेनाचार्येण / अनुष्टुप्छन्दसाम्-अनुष्टुवाख्यच्छन्दोलक्षणलक्षितानाम् / श्लोकानाम्पद्यानाम् / “पये यशसि च श्लोक.” इत्यमरः / सप्तशतानि-सप्तशती। सप्तशतानुष्टुप्छन्दश्लोकपरिमित इत्यर्थः / शास्त्रवार्तासमुच्चयःशास्त्रवार्तासमुच्चयाभिधानग्रन्थः / प्रस्तुत इति शेषः / कृतः-रचितः / (शास्त्रवार्ता.) कृत्वा प्रकरणमेतद्, यदवाप्तं किञ्चिदिह मया कुशलम् / भवविरहबीजमनघं, लभतां भव्यो जनस्तेन // 57 // अन्वयः-एतत् , प्रकरणम् . कृत्वा, मया, इह, किञ्चित् , यत् , कुशलम् , अवाप्तम् , तेन, भव्यः , जनः, अनघम् , भवबिरहबीजम् , लभताम् / ( अव ) एतत् - इदम् / प्रकरणम् - शास्त्रवार्तासमुच्चयाख्य प्रकरण विशेषम् / कृत्वा-रचयित्वा / मया-हरिभद्रसूरिणा / इहलोके / किश्चित्-किमपि / यत्-बुद्धिविषयीभूतम् / कुशलम्-क्षेमम् / अवाप्तम्-प्राप्तम् / तेन-कुशलेन / कृत्वेति शेष: / भव्यः-मोक्षगमनयोग्यतापनः / जनः-लोकः / अनघम्-निष्पापम् / भवविरहबीजम्-संसाराभावनिदानम् / लभताम्-प्राप्नोतु / अत्र श्लोके 'भवविरहे' तिपदं ग्रन्थम्यास्य याकिनीमहत्तरासूनुप्रसिद्धहरिभद्रसूरिकर्तृकत्वं सूचयति, तेनास्यान्यहरिभद्रकर्तृकत्वं निरा. कृतम् / तथाच श्रीराजशेखरसूरिविरचितप्रबन्धकोशे-एकदा भागि. नेयो हस-परमहंसौ पाठयति प्रभुः / निष्पन्नौ पर बौद्धतास्तम्मुखेन Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहारः] कल्पलतावतारिका [ 283 पिपठिषत: / गुरुण ज्ञानिना धाय॑माणावपि तत्पावं गतौ / जरतीगृहे उत्तारकः / बौद्धाचार्यान्तिके तद्वेषस्थौ पठतः / कपनिकायां रहस्यानि लिखतः / प्रतिलेखनादिसंस्कारवशाहयालू इव ज्ञात्वा. गुरुणाऽचिन्ति ध्रुवं श्वेताम्बरावेतौ / द्वितीयाहे सोपानश्रेणौ खट्या. ऽहद्विम्बमालिलिखे / तदासन्नायातौ तौ पादौ न दत्त: / ( यत: नरकफलमिदं न कुर्वहे श्रीजिनपतिमूर्धनि पादयोर्निवेशम् ) / रेखात्रयाकस्तत्कण्ठश्चके। बुद्धोऽयं जात इति कृत्वा उपरि पादो दत्तः। उपरि चटितौ। गुरुणा दृष्टौ। गुरो: समक्ष निषएणौ तौ गुर्वास्यच्छायापरावर्त दृष्ट्वा तत्कैतवं तत्कृतमेव मत्वा जठरपीडामिषेण ततो निरक्रामताम् / कपलिकां लात्वा गतौ / तो चिरान्नायातौ विलोकापितौ न स्त: / राजाने कथितम् -सितपटावुत्ककपटौ तत्त्वं लात्वा यात: / कपलिकामानायय / पृष्ठे सैन्यमल्पं गतम् / दृष्टिदृष्टिः। द्वावपि सहस्रयोधौ तौ। ताभ्यां निहतं राजसैन्यम् / उद्वृत्तनष्टैरुपराजं गत्वा कथितं तत्तेजः / पुनर्वहुसैन्यप्रैष: / दृष्टिमेलापकः / युद्धमेकः करोति / अपरः कपलिकापाणनष्टः / हंसस्य शिरश्छित्वा राज्ञे दर्शितं तैः / तेनापि गुरवे दत्तम् / गुरुगह-- किमनेन कपलिकामानय / गता भटा: / रात्रौ चित्रकूटे प्राकारकपाटयोर्दत्तयोग्तदासन्ने सुप्तस्य परमहंसस्य शिरश्छित्वा तैस्तत्रार्पितम् / तेषां बौद्धानां तत्सूरेश्च सन्तोषः / प्रातः श्रीहरिभद्रसूरिभिः शिष्य बन्धो दृष्टः / कोपः / तैलकटाहा: कारिताः / अग्निना तापितं तैलम् / 1440 बौद्धा होतुंखे आकृष्टाः / (शकुनिरूपेण पतन्ति ) गुरुभिर्वृत्तान्तो ज्ञाताः। प्रतिबोधाय) साधू प्रहितौ। ताभ्यां गाथा दत्ताः५६ गुणसेण-अग्गिसम्मा, सीहा-एंदा य तह पियापुत्ता / सिहि-जालिणि माइ-सुया, धण-घणसिरिमो य पइमज्जा // 4 // Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [चरम: 57 जय-विजया य सहोयर धरणो लच्छी य तह पईभजा। - सेण-विसेणा पित्तियउत्ता जम्ममि सत्तमए // 5 // 58 गुणचन्दवाणवंतर समराइच्च-गिरिसेण पाणो उ। एगस्स तओ मुक्खोऽणंतो बीयस्स संसारो // 6 // 56 जह जलइजलउ लोए कुसत्थपवणाहो कसायग्गी / तं चुज्जं जं जिणवयणअमियसित्तो वि पज्जलइ // 7 // बोधः / शान्तिः / 1440 ग्रन्थाः प्रायश्चित्तपदे कृताः। चित्रकूटतलहट्टिकाम्थेन तैलवणिजा प्रतयः कारिताः। तत्प्रथमं याकिनीधर्मसूनुरिति हारिभद्रग्रन्थेष्वन्तेऽभूत् / 1440 पुनर्भवविरहान्तता / "गुणसेणअग्गिसम्मा" इत्यादि गाथात्रयपतिबद्धं समरादित्यचरित्रं नव्यं शास्त्रं क्षमावल्लीबीज कृतम् / 1.0 शतक पञ्चाशत्षोडशकअष्टक-पञ्चलिङ्गी-अनेकान्तजयपताका न्यायावतारवृत्ति-वस्तुपश्चक-पञ्चसूत्रक-श्रावकप्रज्ञप्ति-नाणायत्तकप्रभृतीनि हारिभद्राणि इति / (शास्त्रवार्ता) यं बुद्धं बोधयन्तः शिखिजलमरुतस्तुष्टुवुर्लोकवृत्यै, ज्ञानं यत्रोदपादि प्रतिहतभुवनालोकबन्भ्यत्वहेतुः / सर्वप्राणिस्वभाषापरिणतिसुभगं कौशलं यस्य वार्चा, तस्मिन् देवाधिदेवे भगवति भवता धीयतां भक्तिरागः। अन्वयः- बुद्धम् , यम् . लोकवृत्त्यै, बोधयन्तः, शिखिजलमरुतः, तुष्टुवुः, यत्र, प्रतिहतभुवनालोकबन्ध्यत्वहेतुः, ज्ञानम् , उदपादि. यस्य, वाचाम् , कौशलम् , सर्वप्राणिस्वभाषापरिणतिसुभगम् , तस्मिन् , भगवति, देवाधिदेवे, भवता, भक्तिरागः, धीयताम् / Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहारः ] कल्पलतावतारिका [285 (अव) बुद्धम्-स्वयंबुद्धम् / “सयसंबुद्धाणं" इतिशक्रस्त. वोक्तः / यम्-बुद्धिविषयीभूतं तीर्थकृतम् / लोकवृत्त्यै-लोकानां जनानां वृत्ति विका तस्यै तथा / दीक्षा दिवसावर्षावधिकालात्प्रागेव नवलोकान्तिका देवा भगवन्तं लोकवृत्त्य प्रज्ञापयन्ति भगवाँश्च सूर्योदयादारभ्य कल्पवर्तसमयपर्यन्तं प्रतिदिनमष्टलक्षाधिकामेकां सौवर्णकोटिं ददाति, देवाश्च " वृणुत वरं वृणुत वरम्" इत्युद्घोषयन्ति, तदीयामुद्घोषणामाकर्ण्य यो यन्मार्गयति तस्मै तद्ददाति, तच्च सर्व देवा इन्द्रादेशेन पूरयन्ति, एवञ्च भगवान् दीक्षाप्राक्तनवर्षे वार्षिकदानरूपेण 18000000 दीनाराणां 4360 दिवसैर्गुणनात् 3888000000 अशोतिलक्षाधिकाष्टाशीतिकोटिसंवलितमब्जत्रयं दीनाराणां ददाति / तथाचोक्तम्-तिन्नेव य कोडिसया, अहरासीई य हुँति कोडीओ। असीई च सयसहस्सं, एयं संवच्छरे दिन्नं // 1 // " दानप्रभावाच्च दरिद्रा अपि धनाढ्याः सम्पद्यन्ते, लोकानामनायासं जीविका निर्वहतीति समायातम् / कवयोऽपि तदीयं दानमधिकृत्य वर्णयन्ति तत्तद्वार्षिकदानवर्षविरम- दारिद्रय दावानला:, सद्यः सज्जितवाजिराजिवसना-लङ्कारदुर्लक्ष्यभाः / सम्प्राप्ताः स्वगृहेऽर्थिनः सशपथं, प्रत्याययन्तोऽङ्गनाः, स्वामिन् ! षिङ्गजनैर्निरुद्धहसितैः, के यूयमित्यूचिरे // 1 // यद्वा-लोकानां वृत्तिरन्तर्जीवानात्मकधर्मः तस्यै तथा, स च धमस्तीर्थकृत्प्रवर्तिततीर्थादेव प्रभवति, नवलोकान्तिकदेवा आगत्य तीर्थस्थापनानिमित्तं प्रबोधयन्तीति / - यद्वा-लोकानां भुवनानां वृत्तिवर्तन परिवर्तनं स्वरूपप्रकाश. नादि वा लोकवृत्तिस्तस्यै तथा। नवलोकान्तिकैर्दैवैः प्रबोधितो दीक्षा. Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286] शासवार्तासमुषयस्य [घरमः मादाय केवलज्ञानोत्पादनद्वारेण जगतां स्थिति प्रकाशयतीति सर्वमागमवेद्यम् / बोधयन्त:-प्रज्ञापयन्तः, प्रबोधयन्त इति यावत् / यद्यपि स्वयं बुद्धो भगवाँस्तदुपदेशं नापेक्षते तथापि तेषामयमाचारो वर्तते / शिखिजलमरुतः अग्निसलिल प्रमुग्वा देवाः, नवलोकान्तिकदेवा इति यावत् / यदुक्तम्- "सारस्सय१माइच्चारवण्हो३बरुणा य४गद्दतोया य 5 तुडिआ६अव्वाबाहाअग्गिचायचेव रिट्रा य 6 // 1 // तुष्टुवु:-अभिष्टुतवन्तः। सर्वोऽप्ययं प्रथमपादप्रतिपाद्योऽर्थः कल्पसूत्राऽऽगमसम्मतः। तथाच कल्पसूत्रे- पुणरवि लोयंतिएहिं जीयकप्पिएहिं देवेहिं ताहिं इट्राहिं जाव वग्गृहि अणवरयं अभिनंदमाणा य अभिथुव्वमाणा य एवं वयासी // 110 // जय जय नंदा ! जय जय भद्दा ! भद्देते जय जय खत्तियवस्वसहा ! बुज्झाहि भगवं ! लोगनाशा ! सयल जगज्जोवहियं पवतेहि धम्मतित्थं हिअसुहनिस्सेयसकर सव्वलोए सव्वजीवाणं भविस्सइत्ति कट्ट जयजयसई पउंजति // 111 // यत्र-बुद्धिविषयीभूते देवाधिदेवे / प्रतिहतभुवनालोकवन्ध्यत्वहेतुः-भुवनं जगदालोकयन्ति प्रकाशयन्तीति भुवनालोकाः, प्रतिहताः कदाचित् कश्चिद्वाधिताश्च ते भुवनालोकाः प्रतिहतभुवनालोकाः, लौकिकसूर्यचन्द्रादिप्रकाशास्तेषां वन्ध्यत्वम् वैफल्यम् विफलीकरणम्, प्रतिहतभुवनालोकवन्ध्यत्वम्, तत्र हेतु: काररणम्, प्रतिहतभुवनालोकवन्ध्यत्वहेतुः, केवलज्ञानप्रकाशेन चन्द्रसूर्या. दिप्रकाशा वैफल्यमायान्तीति केवलज्ञानस्य भुवनालोकवन्ध्यत्वकारणत्वमवसेयम् / यद्वा अविसर्गान्त "प्रतिहतभुवनालोकवन्ध्यत्वहेतु" इत्येवपाठस्तथा च भुवनालोकवन्ध्यत्वे हेतवः कारणानि, भुवनालोकवन्ध्यत्वहेतवः, प्रतिहताः प्रतिबद्धाः विनाशिता इति यावत् भुवनालोकवन्भ्यत्वहेतवो येन तत्तथेति व्याख्येयम् / ज्ञानम्-केवल Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहारः] कल्पलतावतारिका [ 287 ज्ञानम् / उदपादि-समजनि / समुत्पन्न मिति यावन् / यस्य-बुद्धिविषयीभूतस्य देवाधिदेवग्य। वाचाम्-देशनावचनानाम् / कौशलम्कलामाहात्म्यमिति यावत् / सर्वप्राणिस्वभाषापरिणतिसुभगम-सर्व. प्राणिनां निखिजजीवानाम् स्वभाषायाम् परिणत्या परिणामेन सुभगं ललितन्तथा / समस्तजीवसम्बन्धिस्वस्वभाषापरिणमनललितम् / अभवदिति शेषः / तथाचोक्तं वीतरागस्तवे भगवता हेमचन्द्राचार्येण यद्योजनप्रमाणेऽपि, धर्म देशनसमनि / सम्मान्ति कोटिशस्तिर्यनृदेवाः सपरिच्छदाः // 1 // तेषामेव स्वस्वभाषा-परिणाममनोहरम् / अप्येकरूपं वचनं, यत्ते धर्मावबोधकृत् // 2 // स्वभाषयेव यदीयया वाचा देवतिर्यमनुष्या यथार्थं धर्मस्वरूपमवबुध्यन्ते इति भावः / एतेन भगवद्वाचां पञ्चत्रिंशद्वाणीगुणातिशयसाहित्य सूचितं भवति / तथाचोक्तमभिधानचिन्तामणी "संस्कारवत्त्वमौदात्त्य-मुपचारपरीतता / मेघगम्भीरघोषत्वं, प्रतिनादविधायिता // 1 // 65 // दक्षिणत्वमुपनीत-रागत्वं च महार्थता / अव्याहतत्वं शिष्टत्वं, संशयानामसम्भवः // 1 // 66 . निराकृतान्योत्तरत्वं, हृदयङ्गमताऽपि च / मिथः साक्रांचता प्रस्ता वौचित्यं तत्त्वनिष्ठता // 1 // 67 अप्रकोण प्रसृतत्वम-स्वश्लाघान्यनिन्दता / आभिजात्यमितिस्निग्ध-मधुरत्वं प्रशस्यता // 1 // 68 अमर्मवेधितोदार्य धमार्थप्रतिबद्धता / कारकाद्यविपर्यासो, विभ्रमादिवियुक्तता // 5 // 66 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 ] शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य [चरमः उपसंहारः चित्रकृत्वमद्भतत्वं, तथानतिविलम्बिता / अनेकजातिवैचित्र्य - मारोपितविशेषता // 1 // 70 सत्त्वप्रधानता वर्ण-पदवाक्यविविक्तता। . अव्युच्छित्तिरखेदित्वं, पञ्चत्रिंशञ्च वाग्गुणाः // 1 // 71 तस्मिन्-तादृशे बुद्धिविषयीभूते / भगवति-षड्विधैश्वर्यशालिनि / देवाधिदेवे-तीर्थङ्करे / भवता-त्वया / भक्तिराग:-सेवाविषयकानुरागः / धीयताम्-धार्य्यताम् / आधीयताम् इतिच्छेदे संस्थाप्यः तामित्यर्थोऽवसेय: / एवञ्च क्रमशः पादत्रयेण पूजा-ज्ञानवचनातिशयाः प्रतिपादिताः / अपायापगमातिशयं विनाऽनुपपनैस्तैराक्षिप्तोऽपायापगमातिशयोऽपि भगवति वेदितव्यो भवतीति / अत्र भगवत्तीर्थकृद्विषयक-कविगतरतिभावाभिव्यञ्जनाद्भवध्वनिकाव्यमिदमवसेयम् / // इति समाप्तोऽयं ग्रन्थः // Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ कृतिकृतू प्रशस्तिः [1] सिंहाको जन्मतोऽभूत सुरगिरिशिखरं स्नात्रकालेऽधवद् ओ, देवं मिथ्यात्विनं यो वरकरहनना-नामयामास बाल्ये / एवं मोहं मृगाभं मृगपतिरिव यः संजघानाप बोध, तं श्रीवीरं स्तवीमः सततविततसद्-बोधिबोधाय सिद्धम् // [2] पट्टे वीरजिनस्य पञ्चमगणी, स्वामी सुधर्माभिधो, जम्बूस्वामियमीश्वरः समभवत् , तत्पट्टभृन्मुक्तिवृत् / स्वामी श्रीप्रभवस्ततस्ततयशाः, शय्यंभवः पट्टमा, इत्येवं बहवो जिनेशवचन-व्याख्याकरा जज्ञिरे // .. [3] अष्टौ निर्ग्रन्थ नाम्नि प्रथमत उद्विताः सूरिराजोऽत्र गच्छे, रेजुः श्रीकोटिगच्छे तदनु मुनिमिताः सुस्थिताद्या मुनीन्द्राः / सूरिश्चन्द्र स्फुरद्भा-नुरजनि रजनीकान्तवञ्चन्द्रगच्छे, सामन्ताचार्यमुख्या अजनिषत वना-द्वासिगच्छे दश द्विः // . [4] गच्छेऽष्टौ वटनाम्नि धाम्नि महसां, श्रीसर्वदेवादयो, जाग्रत्तेजसि सद्यशोऽम्भसि तपा-गच्छे जगच्चन्द्रतः / श्रीसोमप्रभ-सोमसुन्दर-मुनि श्रीहीर-देवादयोऽनेके धर्मधुरन्धराः शुशुभिरे, श्रीवृद्धिचन्द्रास्ततः / / Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ वृत्तिकृत्-प्रशस्तिः [5] तीर्थोद्धारे लसदनुभवाः सत्तपासार्वभौमा, . . . दीव्यन्तोऽस्मिन् , जगति रविव-चक्रिण: सूरिचक्रे / तन्त्रं सौवं वरधिषणया विभ्रत: सर्वतन्त्रे, s-दीव्यन् दिव्याचरणनमिता नेमिसूरीशवर्याः / / तेषां पट्टे विशदविशदे पूर्णपुण्यप्रभावे, रत्नं रत्नान्तिमकविपदः शास्रवैशारदोऽसौ / काव्यन्यायागमनिगमवित्तत्त्वपीयूषपाणि : , सूरि म्नाऽप्यमृतपदभृद् राजते राजमानः / सम्यक्तत्त्वं समभिलषता शास्त्रवार्ताख्यग्रन्थे, धैर्य धृत्वा विततमतिना भद्रदं हारिभद्रम् / प्रौढप्रौढं वचनरंचनं चर्वणाचर्वणीयं, दुर्वृत्तानां रमयति मनो-हारि नो हारिभद्रम् / / [8] शास्त्राद्वार्ता- गहनगहनग्रन्थगूढार्थभागन् , व्यक्तीकर्तुं मुनिवरयशोवाचको लब्धवर्णः / वृत्तिं चक्र सुरतरुलता-कल्पकामार्थपूर्णा, स्याद्वादान्तां विबुधफलिनां कल्पपूर्वा लताख्याम् // सेयं तर्क-प्रकरविभवा पद्यलालित्यलीला | नव्यन्यायप्रकटघटना गद्यगाम्भीर्यशीला // तत्त्वप्राप्ति: कुमतिविमतेः खण्डनी मण्डनी वा। सद्भावानामधिगमयति श्रीयशोवागविलासम् // Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [3 वृत्तिकृत-प्रशस्तिः ] . [10] तस्यामस्यां प्रवेशाय, विदुषामुपकारिका / तरणिरिव ससिन्धौ, कल्पलतावतारिका / / [11] उपद्रङ्गे महारङ्गे, मोहमय्याः सदादरे / दादरे शान्तिनाथोपा-श्रये ज्येष्ठस्थितिस्थितैः // [12] श्रेष्ठिश्रीप्रेमचन्द्राख्य-तेजराजाभिधादिभिः / सद्वयवस्थापकैर्मुख्यै-विज्ञप्तैर्भूरिभक्तितः / / [13] वैक्रमेऽनलचन्द्रद्यो-नेत्रशरदि कार्तिके / राकार्कवासरेऽकारि, विजयामृतसूरिभिः / / - [14] इमामालम्व्य धोमन्तः, सन्तः सन्तु सुराजिताः। कल्पलताफल प्राप्तः, प्राप्तबोधाः सुराजिताः / / [15] सद्भिः पापठ्यमानेय-माचन्द्रार्कमबाधिता / विद्वद्भिः शोधिता कर्म-मोक्षमातनुतां सताम् / / [16] वृत्तयेऽत्र निरातङ्क, प्रवृत्तिः प्रथते नृणाम् / धर्म शास्त्रे पर वृत्तिर्विराजति विवेकिनाम् / [17] वृत्तिमिमां समारच्य, श्रेयो यत् समुपार्जितम् / दूरीभूयाद्भवभ्रान्ति - भूयाद्भुतिस्ततस्तता // ॥भेयोऽस्तु श्रीश्रमणसङ्घस्य // Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत् 2012 ना चातुर्मासप्रसंगे दादर-श्रीशान्तिनाथजी उपाश्रये आ ग्रन्थना अगाउथी ग्राहक थएला सद्गृहस्थोनी-- * नामावली* क्रमाङ्क नाम . प्रतिसंख्या १-श्री शान्तिनाथनी पेढी, दादर २-शेठ भगाजी रामाजी, दादर 3-" चुनीलाल केशवलाल बोटादवाला, दादर 11 4--" वरधीचन्दजी गंगारामजी, दादर 5- " मनसुखलाल देवसीभाई पारेख दादर (हा. अमृतलाल) 5 6-" मोहनलाल अजेराज महेता, 198 झवेरी बजार ..5 7---" जगजीवनदास केशवलाल बोटादवाला, दादर . (हा. प्रकाशभाई) . 8-" लीलाधर वीरचन्द महेता, दादर . -" नवनीतलाल अनोपचन्द शाह, दादर . 10-" गीसुलाल फोजमलजी, दादर ११-शेठ बाबुलाल तिलोकजीनी कुां, लालवाडी 12- " देवीचन्दजी वनेचन्दनी कां , नायगाम 13- " ताराचन्दजी पुखराजजीनी कु०, लालवाडी 14-" जुगराजजी जेराजजी, लालवाडी 15-" पोपटलाल सुरचन्द महुवावाला, दादर 16-" मन्नालाल शांतिलाल शाह, दादर x xxxx 6 x x x x Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -ख - नाम क्रमाङ्क प्रतिसंख्या - 17 - " मीठालाल देवीचन्दजी, दादर 18-" भेरूलालजी प्रेमचन्दजी, दादर - " कपूरचन्दजी कस्तूरचन्दजी, दादर 20-" देवीचन्दजी गमनाजी, दादर 21-" गणेशमलजी वनेचन्दजी, दादर 22-" पुखराजजी भूरमलजी दोवाजी, दादर " चुनीलालजी नवलाजी, दादर 24-" चन्दनमल धुलाजीनी कु०, दादर (हा. अमृतलाल) - " डाह्यालाल वाडीलाल रणूजवाला, दादर -" मूलचन्द मनसुखलाल एण्ड कुछ, लालवाडी 27-" गुलाबचन्दजी सुमरमलजी, दादर -" भूताजी वनाजी, दादर - " मगनलाल करसनजी, दादर : 30-" जे० हेमचन्दनी कुां , मस्जोदबन्दर 31-- " कुपाजी सदाजी, परेल 32 -- " फुलचन्द छोगमलनी कां• कालाचोकी ३३-शेठ ताराचन्दजी अमीचन्दजीनी कु०, कालाचोकी (हा. बाबूलालजी) 34-" चुनीलाल मांगीलालनी कुां, दादर 35- " मनसुखलाल मणीलाल अमदाबादवाला 36-" पदमशी प्रेमजी बोटाद जीनवाला - " भंवरलाल जेठमलजी, एल्फीस्टन रोड -" जयन्तीलाल रतनचन्द, लुहारचाल 36-" वसनजी रतनशी, शिव 47-" भोगीलाल बबलदास (हा. चम्पकलाल) xxx x x x x x x x x x.xkc xxxxxxxxx Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम xx x xon or x or क्रमाङ्क प्रतिसंख्या 41- " गांगजी वेलजी, तारदेव 42-" सरेमल चुनीलाल वालीवाला, डीलाइल रोड, परेल 5 (स्व० गुलाबचन्द--श्रेयः) 43 - " नानकजी रायचन्दजी, दादर (हा. जयरूपजी) 5 ४४-"हिम्मतलाल दीपचन्द, दादर 45 . " अनराजजी चोथमलजी, लालवाडी - " पुखराजजी चमनीरामजी, कुग्ला गणेशमल चेनाजी, लालवाडी | 5---" पुखराजजी सोहनराजनी कु. करीरोड 46 - " चीमनलाल वनमालीदास, दादर / 50-" अमृतलाल नाथालाल माणसावाला, दादर 51-- " सरेमल प्रतादचन्दजी, नायगाम 52 - " प्रतापमल कृष्णाजी परेल 53-" बाबूभाई मोहनलाल महेता, वलभीपुर ५४-शेठ सोमचन्द दलसुखराम अहमदाबादवाला, दादर 55- " मूलचन्दजी छेनाजी, दादर 56-" नेनमल. हिंमतमलजी, दादर 57 -" प्रतापचन्दजी आयदानजी चावाला, दादर 58-" जुहारमलजी हजारीमल जी वीजोवावाला, दादर 56-" फुलचन्दजी भभूतमलजी, दादर " नन्दरामजी जसराजजी, डालाइल रोड 61-- " हिंमतमलजी जवानमल जी, दादर 62-" जुहारमलजी गुलाबचन्दजी, दादर 63-" लालचन्दजी जुहारमलजी मुत्ता, पोइवावडी 64 -- " ताराचन्द वोरीदासजी, परेल . . . . . . . . . . . or r - Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F प्रतिसंख्या or or ~ ~ क्रमाङ्क नाम 65-- " जुहारमल उमेदमलजी, नायगाम 66-" फत्तेचन्द चमनीरामजी, दादर 67- " प्रवीणचन्द धनजी, तारदेव - " छगनराज भीखमचन्दजी वालीवाला, दादर -- " गुलाबचन्द मूलचन्दजी शिवरी 7.-" पोपटलाल वीरपाल महेता, दादर 71-" बनाजी धूलाजी, नवी हनुमान गली, मुम्बई 72-" झवेरचन्द रामाजी टोलीया, दादर 73.... " प्रेमचन्दजी भगाजी, एल्फीस्टन रोड (हा. शेषामलजी) 1 74-" रतनशी शिवजी, लोअर परेल 75-" कानजी रतनशी बोरा, दादर ~ ~ ~ * * कोटन ग्रेइन जैन संघ तरफथी अगाउथी थएला - ग्राहकोना शुभनामो - १-शेठ धारशी भाई ( हा० कुँवरबाई ) 2-" रमणलाल अमृतलाल शाह 3. " चीमनलाल नगीनदास (हा० हिंमतलाल चिमनलाल पालनपुरवाला) 4.-." छोटालाल गोदड़भाई, मुम्बई 5- " मोहनलाल त्रिभुवनदास, कुंभाराणवाला 6- " दलपतलाल माणेकलाल धानेरावाला 7. " जारेमल जोईतारामभाई पालनपुरवाला * * * * * Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिसंख्या wxx xxx क्रमाङ्क नाम - " कांतिलाल चिमनलाल पालनपुरवाला है- " चोथमलभाइ देवीचन्द 10- श्रीमती लक्ष्मीबहेन चुनीलालभाई (हा. नटवरलाल चुनीलाल पाटणवाला) 11- शेठ भोगीलाल अनराजभाई ढालोपवाला 12- " चीमनाजी उमाजी सांडेरावाला 13- " भभूतमलजी चुनीलाल कोशोलाववाला 14- " नगीनदास श्रोतमचन्द . 15- " भमराव गंगारामभाई ( हा. लक्ष्मीचन्दभाई ) 16- " पानाचन्द लालचन्दभाई 17- शेठ रिखवचन्द अनराजभाई 18-" गेमाजी दोनाजीभाई। 16- " जीवाभाई जोराजीभाई 20-" नालचन्द दीपचन्दभाई 21- " रसीकलाल मूलचन्दभाई 22- " मगनलाल मायाचन्दभाई तथा " गिरधरलाल मायाचन्दभाई " कचराभाई रवचन्दभाई ( हा. शांतिलाल के * शाह ) 24- " मंछाचन्द मेघराजभाई 25- " जोईताराम लालाचन्दभाई (हा. बाबूलाल जोईताराम) 26- " मोतीराम हीराचन्दभाई 27- " कालीदास ईश्वरभाई तथा शेठ रतिलाल चंदुलाल 28-" चंदुलाल दोलचन्दभाई 26- " बचुभाई ककलचन्द 30- " लक्ष्मीचन्द छगनलाल 31- " बाबुलाल कालीदास टोकड x x x ~ ~ rex x x x x x x Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनसाहित्यवर्धकसभा-प्रकाशिता ग्रन्थाः १-परमात्मसङ्गीतरसस्रोतस्विनी // ), २-सप्तसन्धानमहाकाव्यम् (सटीकम् ) 4), ३-साहित्यशिक्षामञ्जरी 2), ४-वैराग्यशतकम् (सविवेचनम् ) 1), श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ( अनुवाद - विवेचनान्वितम् ) 3), ६-श्रीआदिजिनपञ्चकल्याणकपूजा ), ७--श्रीगिरनारजी तीर्थनो परिचय / ), E-संगीतस्रोतस्विनी / ) ४-इन्दुदूतम् (खण्डकाव्यम्-सटीकम् ) 2), १०--निह्नववादः 3), ११-शिवभूति =), १२-नयवादः / ), १३-आत्मवादः // 8), १४-विचारसौरभः / ), १५-श्रीतत्त्वार्थस्वाध्यायः / ), १६-सिरिजंबूसामीचरितं 11), १७-सुपात्रदाननो महिमा // ), १८-श्री सिद्धचक्रनवपदाराधनविधि 3), १६-श्रीसिद्धचक्रस्वरूपदर्शन // ), २०-श्री अर्हत्-प्रार्थना / ), २१-स्वाध्यायरत्नावलि (खंड-१) 11) २२-श्रीब्रजस्वामि-आख्यान |-), २३–श्रीचन्द्रप्रभजिनपंचकल्याणक पूजा / ), २४-पुण्यप्रकाशस्तवनादि / ), २५-श्रीमोहनविजयजीकृत चोविशी (सार्थ) 11), २६-संस्कारर्नु वावेतर / ', २७-स्वाध्यायरत्नावलि (खण्ड-२) 11), २८-दर्शनरत्नरत्नाकर (भाग-१) 8), २६-स्नात्रपूजादि (सार्थ) 1-), ३०-अष्टापदजीनी पूजा (सार्थ), ३१-नव्वाणु अभिषेकनी पूजा (सार्थ), ३२-दर्शनरत्नरत्नाकर (भाग-२) 8), ३३–श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम् (सिद्धहेमसरस्वतीसमन्वितम् ) 5), ३४-श्रीकल्पलतावतारिका 5).