________________ . [5] प्रस्तुत ग्रन्थ 701 श्लोक प्रमाण छे, तेना पर सबा.बे हजार श्लोकप्रमाण स्वोपज्ञवृत्ति छे. ते ग्रन्थ वि० सं० 1985 मां मुंबईगोडीजी जैन उपाश्रये प्रसिद्ध कर्यो छे. आ ग्रन्थ ऊपर महोपाध्याय श्रीयशोविजयजीमहाराजे सङ्क्रयाबंध दार्शनिक शास्त्रार्थोथी भरपूर 'स्याद्वादकल्पलता' नामे लगभग पन्दर हजार श्लोकप्रमाण विस्तृत वृत्ति रची छे. ए ग्रन्थ संवत् 1670 मां श्रेष्ठि देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धारना 16 मां ग्रन्थाङ्करूपे प्रकट थयो छे. मूळ ग्रन्थकर्ताए सातसो ये श्लोको एक साथे राख्या छे-तेमां ते ते दर्शननी मीमांसानी शरूपात तथा समाप्ति समजी शकाय छे, पण श्लोकाङ्क जूदा कर्या नथी. ज्यारे पूज्य उपाध्यायजी महाराजे ते ते दर्शनोनी विविध विचारणाने अनुरूप विभागो करीने ग्रन्थने 11 स्तवकमां विभक्त कर्यो छे. तेमां स्तवकदीठ श्लोकसंख्या आ प्रमाणे छ :1-112, 2-81, 3-44, 4-137, 5-36, 6-63, 7-66, 8-10, 6-27, 10-64, अने 11-58, एम सर्व मळीने 701 थाय छे. . पूज्य उपाध्यायजी महाराजनी वृत्ति विशिष्ट होवा छतां दार्श. निक विचारोना गंभीर समागमरूप होवाने कारणे तेना वाचनअध्ययन माटे विशिष्ट योग्यतानी आवश्यक रहे छे. एथीज एना मुद्रण पछीथी पण तेनो उपयोग करनारा गणत्रीना नीकल्या छे. भंडारोमा केटलीक प्रतिश्रो पत्रो तेनी यथावत् स्थितिमा रह्या होयएवी पडी छे. या धृत्तिमा प्रवेश करवा माटे जो काइक प्रयत्न करवामां आवे तो तेनो उपयोग वधे एवा श्राशयथी प्रस्तुत 'कम्पलतावतारिका' रघवामां आवी छे. आ वृत्तिमां स्तवकना