________________ [7] . मानता नथी: जो केवळ प्रत्यक्षज प्रमाण मानवामां आवे अने अनुमान-आगम आदिने प्रमाणस्वरूपे स्वीकारवामां न आवे-तो व्यवहारमा पण भनेक अपरिहार्य दोषो आवे, ए माटे अनुमानादिने प्रमाण मानवा आवश्यक छे. आ चर्चामां प्रासङ्गिक अन्धकारने स्वतंत्र द्रव्य नहिं माननारा नैयायिकनी पण सारी खबर लई लोधी छे. नैयायिकना वचमां प्रवेश माटे जणाव्युं छे जे-'पारकी वातमां माथु मारीने विलम्ब करावता नैयायिकने शुं यथार्थ शास्त्रथी संस्कारितमतिवाळो हुँ शिक्षा न करूं ! अर्थात् करूंज. - लताकारनो ए श्लोक आ प्रमाणे छे:'यथा कथायां प्रविशन् परस्य, नैयायिकः कारयति प्रतीक्षाम् / तथा यथार्थागमबद्धबुद्धिर्दास्यामि मास्यापि किमेष शिक्षाम् // 1 // . .. आम नैयायिकने चूप करीने तर्क-युक्ति-प्रमाणथी आत्मा छे ए सिद्ध कयुं छे. आत्मसिद्धि थई एटले पराजय पामेला चार्वाकर्नु वदन शोकथी श्याम पडी गयुं छे-खरी वात जणावता जूठाजनने दुःख थाय एथी शुं ? ए प्रमाणे चार्वाकमतनो.उपसंहार करतां लताकारनो नानो पण ध्वनिभर्यो श्लोक स्मरण राखवा जेवो छे, ते भा आत्मसिद्धः परं शोकाल्लोका: ? लोकायताननम् / ... - समालोकामहे म्लान, तत्र नो कारणं वयम् // 2 // चार्वाकनी चर्चाना अनुसन्धानमा ज धर्माधर्म-पुण्यपाप कर्म वगेरे शब्दोथी समजाता अदृष्टनी सिद्धि साधी छे. ए प्रमाणे प्रथम रसवक परिपूर्ण कर्यो छे. . २-स्तवक-आत्मा अने अदृष्ट सिद्ध थया एटले विश्वतन्त्रना सञ्चालक वे महत्त्वना अङ्ग सिद्ध थया. विश्वतन्त्रर्नु