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卐 तो प्रमाण प्रत्यक्ष परोक्ष दोऊ मानिये हैं। सो आगमप्रमाण परोक्ष है, ताका भेद शुद्धनय है, प... सो इस शुद्धनयकी दृष्टिकरि शुद्धआत्माका श्रद्धान करना, केवल व्यवहार प्रत्यक्षहीकी एकान्त 15 न करना । इहां इस शुद्धनयकू मुख्य करि कलशरूप काव्य है।
मालिनीछन्दः न हि विदधति बहस्पृष्टभावादयोऽमो स्मु रितर तो पेश कर अतिमाम् ।
अनुभवतु तमेव द्योतमानं समन्ताज्जगदपगतमोहीभूय सम्यक्स्वभावम् ॥११॥ अर्थ-टीकाकार उपदेश करेहैं, जो जगतके प्राणिसमूह सो तिस सम्यक्स्वभावकू अनुभवन ' + करौ। जाविर्षे ए बद्ध स्पृष्ट आदि भाव हैं ते प्रगटपणे इस स्वभावके उपरि तरते हैं, तोऊ
प्रतिष्ठाकू नाहीं प्राप्त होय हैं, जाते द्रव्यस्वभाव तौ नित्य है एकरूप है अर ए भाव अनित्य हैं म अनेक रूप हैं। पर्याय है सो द्रव्यस्वभावमैं नाहीं प्रवेश करे है उपरि हि रहे है। कैसा यह शुद्ध . स्वभाव ? सर्व अवस्थामै प्रकाशमान है। कैसे होयकरि अनुभव करो? अपगतमोहीभूय कहिये । 9 दुरि भया है मोह जाका ऐसा होयकरि । जाते मोहकर्मक उदयजनित मिथ्यात्वरूप अज्ञान जेते हैं - तेते यह अनुभव यथार्थ नाहीं होय है।
भावार्थ-शुद्धनयका विषयस्वरूप आत्माका अनुभव करो यह उपदेश है। आगें इसही 15 अर्थक कलशरूप काव्य फेरि कहे हैं, जो ऐसा अनुभव कीये आत्मदेव प्रगट प्रतिभासमान है।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः। 卐 भूतं भान्तमभूतमेव रभसानिर्भिय बन्धं सुवीर्ययन्तः किल कोप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात् ।
आत्माऽऽत्मानुमबैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते ध्रुव, नित्यं कर्मकलपकविकलो देवः स्वयं शाश्वतः ॥१२॥ 卐 अर्थ-जो कोई सुबुद्धि, सम्यग्दृष्टि, भूत कहिये पहले भया अर भात कहिये वर्तमानका अर 1- अभूत कहिये आगामी होयगा ऐसा तीन कालसंबंधी कर्मका बन्धकू अपने आत्मा तत्काल शीघ्र " न्यारा करि, बहुरि तिस कर्मके उदयके निमित्ततें भया जो मिथ्यात्वरूप अज्ञान ताकू अपने "
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