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ज, कर्मके बंधनकू काटि आपहीविर्षे प्रकाशरूप प्रगटे है । तातें अपना हित चाहे हैं ते ऐसे करो। अव बंध अधिकार पूर्ण किया, ताके अंतमंगलरूप ज्ञानकी महिमाका अर्धरूप कलशकाव्य कहे हैं।
मन्दाक्रान्ताछन्दः रागादीनामुदयमदयं दारयत्कारणानां कार्य बन्धं विविधमधुना सद्य एव अणुध । ज्ञानज्योतिः क्षपिततिमिरं माध सन्नदतत नाइन्प्रसारमारः कोऽपि नास्या वृणोति ॥१७॥
इति बंधो निष्फ्रांता।
इति समयसारन्यातपायामात्मख्याती सप्तमोऽका । अर्थ-यह ज्ञानज्योति है सो क्षेप्या है-दरि किया है अज्ञानरूप अंधकार जाने सो तैसे सम्पप्रकार सज्या जैसे याका प्रसर कहिये फैलना अवर कोई आवरे नाहीं सो यह ऐसा पहले कहा करिके सज्या सो कहे हैं। पहले तो बंधके कारण जे रागादिकभाव, तिनिका उदय असे निर्दयी काहूकू विदारे तैसें तिनिकू विदारता संता प्रगटया, पीछे जब कारण दूरी भये, तब
तिनिका कार्य जो कर्मका ज्ञानावरण आदि अनेक प्रकार बंध ताकू अव तत्काल ही दूरि करिके 5 .- अर ज्या है।
भावार्थ-ज्ञान प्रगट होय है जब रागादिक न रहै, तिनिका कार्य बंध न रहै, तब फेरिः । 1- या आवरणेवाला कोई न रहै, सदाकाल प्रकाशरूप रहै । ऐसें रंगभूमिमें बंधका स्वांग प्रवेश+ किया था, सो ज्ञानज्योति प्रगट भया, तब बंध स्वांग दूरि करि निकसि गया।
सबैया तेईसा " जो नर कोय परै रजमाहि सचिक्कण अंग लगे वह गादै, त्यो मतिहीन जु राग विरोध लिये विचरे तब बंधन बाट । 卐 पाय समै उपदेश यथारथ रागविरोध तजै निज चाट, नाहि बंधै तल कर्मसमूह जु आप गहे परभावनि काट ॥१॥ ऐसें इस समयसारनाम ग्रंथकी आराख्याति नामा टीकाकी वनिकाविर्षे बंध नामा सातमा
अधिकार पूर्ण भया । यहाँ साई गाथा २८७ भई । कलश १७९ भये ॥
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