________________
55555555555555
卐
卐
卐 निश्चित जे अपने परिणाम तिनिकरि उपजता संता अजीव ही है, जीव नाहीं है । जातें सर्व फ
ही द्रव्यनिके अपने परिणामनिकरि सहित तादात्म्य है, कोई ही अपने परिणामनित अन्य नाहीं,
ऐसे परिणाम तिनिकूं छोडि अन्यमें जाय नाहीं । जैसे कंकणादि परिणाम निकरि सुवर्ण उपजे है, प्रभृत
* सो कंकणादिकर्ते अन्य नाहीं है तिनितें तादात्म्यस्वरूप है; हे सर्व द्रव्य हैं । ऐसें ही अपने परिणामनिकरि उपजता जो जीव, ताके अजीवकरि सहित कार्यकारणभाव नाहीं सिद्ध होय है । फ जाते सर्व द्रव्यनिकै अन्य द्रव्यकरि सहित उत्पाद्य अर उत्पादकभावका अभाव है अर तिस फ्र
कार्यकारणभावकी सिद्धि न होते अजीवकै जीवका कर्मपणा न सिद्ध होय है अर अजीवके
फ
卐
जीवका कर्मपणा न होते कर्ताकर्म के अनन्यापेक्षसिद्धपणातें जीवकै अजीवका कर्तापणा न 5 5 ठहरया । यातें जीव है सो परद्रव्यका कर्ता न ठहरथा अकर्ता ठहरथा । भावार्थ- सर्वद्रव्यनिके परिणाम न्यारे न्यारे हैं। अपने अपने परिणामनिके सर्व कर्ता हैं
1
5 ते तिनिके कर्ता हैं, ते परिणाम तिनिके कर्म हैं । निश्चयकरि कोईके काहूतें कर्ताकर्मसंबंध नाहीं है । तातें जीव अपने परिणामनिका कर्ता है, अपना परिणाम कर्म है । तैसें ही अजीव अपना फ परिणामनिका कर्ता है, अपना परिणाम कर्म है । ऐसें अन्यके परिणामनिका जीव अकर्ता है । अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं। अर जीव अकर्ता है, तौऊ याकै बंध होय है सो यह अज्ञानकी महिमा है, ऐसे कहे हैं ।
卐
फ
卐
फ्र
फफफफफफफफफफफफ
शिखरिणी छन्दः
अकर्त्ता जीवोऽयं स्थित इति विशुद्धः स्वरसतः स्फुर चिज्ज्योतिभिश्छुरितभुवनाभोगभुवनः ।
तथाऽप्यस्यासौ स्याद्यदिह किल बन्धः प्रकृतिभिः स खल्वज्ञानस्य स्फुरति महिमा कोऽपि गहनः ॥३॥
卐
卐
अर्थ-- ऐसें जीव है सो अपने निजरसतें विशुद्ध है। यातें परद्रव्यका तथा परभावनिका
5 अकर्ता ठहरथा । कैसा है जीव ? स्फुरायमान होता - फैलता जो चैतन्यज्योति, तिनिकरि व्यास 5
४६५
भया है भुवन कहिये लोकका आभोग कहिये मध्य जाकरि ऐसा है भवन कहिये होना जाता ।
५६
卐