________________
卐
++
+
सो इस दूषणके भयतें ऋजुसूत्रनयका विषय जो शुद्ध वर्तमानसमयमान क्षणिकपणा, तिस.मात्र जमानि आत्माकू छोडि दीया ।
भावार्थ-बौद्धमती आत्माकू समस्तपणे शुद्ध माननेका इच्छक होय अर विचारी-जोआत्मा 'नित्य मानिये तो नित्यमें तो कालकी अपेक्षा आये तातें उपाधि लागै, तब बड़ी अशुद्धता आवै, 卐 .. तब अतिव्याप्ति दूषण लागे. इस भयतें शुद्ध ऋजुसूत्रनयका विषय वर्तमान समयमात्र था, कतिसमात्र क्षणिक आत्मा मान्या तब आत्मा नित्यानित्यस्वरूप द्रव्यपर्यायस्वरूप था, म जतिसका ग्रहण ताकै न भया, केवल पर्यायमात्रविर्षे आत्माकी कल्पना भई, सो सत्यार्थ आत्मा । "नाहीं ऐसें जानना । अब फेरि इस ही अर्थ के समर्थनरूप वस्तूका अनुभवन करने... काव्य 卐 कहे हैं।
शार्दूलविक्रीडितछन्दः 卐 कत्तुर्वेदयितुश्च युक्तिवशतो भेदोऽस्त्वमंदोऽपि वा कर्ता वेदपिता च मा भवतु का वस्त्वेव संचित्यतां ।
प्रोता सूत्र इवात्मनीह निपुणभेत्तुं न शक्या काचिच्चिचिन्तामणिमालिकेयम भिलोप्येका चकास्त्वेव नः ॥१७॥ 1. अर्थ-कर्ता के अर भोक्ताके युक्तिके कशतें भेद होऊ अथवा अभेद होऊ, अथवा कर्ता भोका ,
दोऊ ही मति होऊ, वस्तुहीका चिंतवन करौ । जातें निपुण जे चतुर पुरुष, तिनिकरि सूत्रवि . "पोई हुई मणीनिकी माला जैसी भेदी न जाय, तैशी आत्मावि पोई हुई चैतन्यरूप चिंतामणीकी प्रमाला है, सो कहूं ही कोई करि भेदने समर्थ न हूजिये । ऐसी यह आस्मारूपी माला समस्त
पणे एक हमारे प्रकाशरूप प्रगट हो। 卐 भावार्थ-वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक अनंतधर्मा है । ताविक विवक्षाके वशते कर्ता भोक्तापणाका ॥ ._भेद भी है। अर भेद नाहीं भी है। अर कर्त्ता भोक्ता भी काहे कहना ? केवल शुद्ध वस्तु
मात्रका असाधारण धर्म के द्वारै अनुभवन करना। ऐसे आत्मा नामा वस्तु सो असाधारण का - चैतन्यमात्रभावके द्वारै अनुभवन करते चैतन्यके परिणमनरूप पर्यायके भेदनिकी अपेक्षा कर्ता
+ + +
+
+
+
+
+
+
म
+