________________
१४२। मैं नीचेोत्र. चैत ।१४३। मैं दानांतरायकर्म चैत ।१४ में लाभांतरायकर्म चैतन्य पर १४५। मैं भोगांतरायकर्मः गत १४६। मैं उपभोगांतरायकर्म चैत १४७। मैं वीर्या तराय
कर्मः चैतः ॥४८॥ ऐसो ज्ञानी सकलकर्मकी फलकी संन्यासकी भावना करे। इहां भावना नाम ", फेरि फेरि चितवनकरि उपयोगका अभ्यास करनेका है।
卐 ___सो जब सम्यग्दृष्टि होय, ज्ञानी होय है, तब ज्ञानश्रद्धान तो भया ही जो मैं शुद्धनयकरि 卐 समस्त कर्मत अर कर्मके फलते रहित हौं । परंतु पूर्वे बांधे कर्म उदय आवे तामें तिनि भावनिका
कापणा छोडि अर पूर्वे तीन काल संबंधी गुणधास मंगकरि मधेतनाका यागकी भावनाकरिबहुरि यह सर्वकर्म के फलका भोगवनेका त्यागको भावनाकरि एक शैतन्य स्वरूप आत्माहीका। भोगवना रह्या । सो अविरत देशविरत प्रमत्त अवस्थामें तो ज्ञानश्रद्धानमैं निरंतर भावना है ही। अर जब अप्रमत्तदशा होय एकाग्रचित्तकरि ध्यान करै तब केवल चैतन्यमात्र आत्माविर्षे उपयोग लगावै, अर शुद्धोपयोगरूप होय, तब निश्चयचारित्ररूप शुद्धोपयोग भावतें श्रेणी चढि केवल.'
ज्ञान उपजावै है । तब इस भावनाका फल कर्मचेतना अर कर्मफलचेतनाते रहित साक्षात् ज्ञान+ चेतनारूप होना है। सो फेरि अनंत काल ताई ज्ञानचेतना ही रूप भया संता आत्मा परमानंदमें। 1 मम रहे है । अब इस हो अर्थ के कलशरूप काव्य कहे हैं।
_ वसन्ततिलकाछन्दः निःशेषकर्मफलमन्न्यसनान्ममौवं सक्रियान्तरविहारनिवृत्तवृतेः ।।
चैतन्यलक्ष्म भजतो भृशमात्मतचं कालायलीयमचलस्य बहुत्वनन्ता ॥३८॥ अर्थ-सकल कर्म के फलका त्यागकरि ज्ञानचेतनाकी भावना करनेवाला ज्ञानी कहे है।卐 जो एवं कहिये पूर्वोक्त प्रकार सकल कर्मका फलका सन्न्यास करने में कैसा हौं ? चैतन्य है... म लक्षण जाका ऐसा आत्मतत्त्व, ताही अतिशयकरि भोगवता हौं। अर इस सिवाय अन्य जो
उपयोगको तथा बाह्यकी क्रिया, ताविर्षे विहार कहिये प्रवर्तना तातें रहित है वृत्ति जाकी ऐसा
5 $ 乐乐 乐乐 乐乐 乐乐 乐