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किछु ही आशंकारूप न करना । ऐसें होते ज्ञान है सो ही सम्यग्दृष्टि है, ज्ञान है सो ही संयम है, ज्ञान है सो हो अंगपूर्वगत सूत्र है । बहुरि धर्म अधर्म है सो भी ज्ञान ही है। बहुरि ज्ञान है सो प्रवज्या कहिये दीक्षा है, निश्चयचारित्र है। ऐसे जीवके पर्यायनिकरि सहित भी अव्य
सिरक अभेदका निश्चय साध्या हुवा देखना । अब कहे हैं । जो ऐसे सर्वपरद्रव्यनिकर तो व्यतिकारेक करि बहुरि जीवके सर्वदर्शन• आदि लेकरि स्वभावनिकरि अव्यतिरेक करि, तौ अतिव्याप्ति + अर अत्याप्ति दृषणकू दूरिकरता स्ता, अर अनादिकालतें बिभ्रम अविद्या मूल जाका ऐसा "धर्म अधर्म कहिये पुण्य पाप शुभ अशुभरूप परसमय ताकदूरि करि, अर आप प्रवज्या जो 5 卐 निश्चयचारित्ररूप दीक्षाकू पायकरि, दर्शनज्ञानचारित्रवि स्थितिरूप जो स्वतंयम ताकू व्याप्यकरि
आत्माहीवि मोक्षमार्गकू परिणामरूपकार, अर पाया है संपूर्ण विज्ञानयन स्वभाव जाने, अर हान उपादान कहिये त्याग ग्रहणकरि रहित साक्षात् समयसारभूत परमार्थ रूप शुद्ध एक ज्ञान - अवस्थित भया देखना, प्रत्यक्ष स्वसंवेदनकार अनुभवन करना।
भावार्थ-अर सर्व परद्रव्यनित ती न्यारा अर अपना पर्यायनित अभे ऐसा ज्ञान एक दि. खाया । सो यातें अतिव्याप्ति अर अव्याप्ति नामा लक्षणके दोष है ते दुम भये । जातें आत्माका
लक्षण उपयोग है । सो उपयोगमें ज्ञान प्रधान है । सो यह अन्य अचेतन व्यनिम नाहीं । तातें 5 + तो अतिव्याप्तिस्वरूप नाहीं । अर अपना अवस्था में सर्वमें है, तातें अव्याप्तस्वरूप नाहीं। अर ..
इहां ज्ञान कहनेत आत्माही जानना । जाते अभेदविवक्षामै गुणगुणीके अभेद है। ताते विरोध । 卐 माहीं । इहां ज्ञानहीकू प्रधानकरि आत्माका अधिकार है । या ही लक्षणते सर्वपरद्रव्यनित भिन्न र ... अनुभवगोचर होय है । यद्यपि आत्मामें अनंतधर्म हैं तथापि तिनिमें कई तौ छद्मस्थके अनुभवॐ गोचर ही नाही, तिनिकू कहे, छमस्थ ज्ञानी आत्माकू कैसे पहिचाने ? अर कई धर्म अनुभव-5 पर गोचर हैं तिनिमें कई अस्तित्व वस्तुत्व प्रमेयत्वादिक हैं ते अन्यद्रव्यनित साधारण हैं समान हैं। ..
तिनिकू कहे न्यारा आत्मा जान्या जाय नाहीं। बहुरि केई परद्रव्यके निमित्ततें भये, तिनिकू
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