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ग्येव घ्यायस्व | तथा सकलकर्मकर्मफलचेतनासंन्यासेन शुद्धज्ञानचेतनामयोभूत्वा दशनज्ञानचारित्राण्येव चेतयस्य । तया ॥ " द्रव्यस्वभावतः निशाणात्रिपरिणाप्रया तन्मयपरिणामो भूत्वा दर्शनज्ञानचारित्र वेव विहर | तथा ज्ञानके रूपमेकमेवाचलितमवर्लवमानो जयरूपेणोपाधितया सर्वत एव प्रधावत्स्वषि परद्रव्यधु सर्वेश्वपि मनागपि मा विहार्षीः। ॥ प्राभूत
अर्थ-हे भव्य ! तू मोक्षमार्गकेवि अपने आत्मा स्थापि। बहुरि तिसही• ध्याय । बहुरि ।। तिसहीकू चेति अनुभवगोचर करि । बहुरि तिस आत्माहीके विर्षे निरंतर विहार करि। अन्य. " 卐 द्रव्यनिविर्षे मति विहार करे। - टीका--आचार्य उपदेश करे हैं, जो हे भव्य ! तू अनादि संसारतें लगाय यह आत्मा .. " अपनी बुद्धि के दोषकरि परद्रव्यविथै रागद्वेषादिविर्षे नित्य ही निरंतर तिष्ठता संता प्रवतें है तौऊ ।
ताक अपनी बुद्धिहीके गुणकरि तिनि परद्रव्यनिविर्षे राग द्वेषते छुडाय अर दर्शनशानचारित्रविर्षे
निरंतर तिष्ठता अति निश्चल स्थापन करि तैसे ही समस्त अन्य चिंताका निरोध करि अत्यंत भएकाग्रचित्त होय दर्शनज्ञानचारित्रहीकू ध्याय ध्यान करि । तैसें ही समस्त कर्म अर कर्मका ॥ - फलरूप चेतनाका संन्यास करि, त्याग करि अर शुद्धज्ञानचेतनामय होयकरि, दर्शनज्ञानचारित्रहीकू चेति अनुभवन करि । तैसें ही द्रव्यके स्वभावके वशते क्षणक्षणप्रति उपजते उदय होते जे परिणाम, तिसपणाकरि तन्मयपरिणाम करि, दर्शनज्ञानचारित्रहीवि विहार करि । तैसें ही तू.
एकज्ञानरूपहीकू निश्चलरूप अवलंबन करता संता ज्ञेयरूपकरि ज्ञानके उपाधिपणाकरि सर्व तर+ फतें आय पडते जे सर्व ही परद्रव्य तिनिवि किंचिमात्र भी विहार मति करै।
भावार्थ-परमार्थरूप आत्माका परिणाम दर्शनशानचारित्र है। ते ही मोक्षमार्ग है । तिनिही... जविर्षे आत्माकू स्थापना । तिनिहीका ध्यान करना । तिनिका अनुभव करना। तिनिहीविर्षे प्रव. । तना । अन्य द्रव्यनिविर्षे नाही प्रवर्तना । यहु ही परमार्थकरि उपदेश है। केवल व्यवहारहीमें । मूढ न रहना । अब इस हो अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
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