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आचार्य कुन्द कुन्द-द्विसहस्राब्दी के अवसर पर सादर
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य कृत श्रा समयप्राभत
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श्रीमदाचार्य अमृतचन्द्र सूरिकृत
संस्कृत टीका (आत्मख्याति) तथा पंडित श्री जयचन्द जी कृत वचनिका
प्रकाशक:
अध्यक्ष, श्री मुसद्दीलगल जैन चेरीटेबल ट्रस्ट
२/४, अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२
न्योछावर स्वपर कल्याण वीर निर्वाण सम्वत् २५१४ विक्रम सम्वत् २०४५ ईस्वी सन् १९८८
प्रति-११००
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ॐ
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ॐ
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प्रकाशकीय
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संसार में तीर्थकरों का सर्वोच्च पद है और उसकी प्राप्ति में सोलह कारण भावनाओं का भाना परम निमित्त है। इन सोलह कारण भावनाओं में एक भावना अभीक्षण-ज्ञानोपयोग भावना है। अभीक्षण-ज्ञानोपयोग का भाव निरन्तर झानाराधन करना है और वह ज्ञानाराधन जिनवाणी के पठन-पाठन-श्रवण, चिन्तन और मनन से होता है। मेरी भावना ऐसी बनी कि जिनवाणी की प्रभावना भव्य जीवों को हितकारी है और इसीलिए मेरे पूज्य पिता श्री मुसद्दीलाल जी की स्मृति में स्थापित "श्री मुसद्दीलाल जैन चेरीटेबल ट्रस्ट" का उपयोग अन्य परमार्थिक कार्यों के अतिरिक्त जिनवाणी प्रकाशन में प्रमुखता से किया जाए। ट्रस्ट से निम्न ग्रन्थों का प्रकाशन हुआ है:--
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१- प्रमेयकमलमार्तण्ड प्रथम माग२- मोक्ष मार्ग प्रकाशक३- योगसार योगीन्दु आचार्य ४-समयसार सटीक
११०० प्रतियां ११०० प्रतियां ११०० प्रतिया ११०० प्रतियां (प्रस्तुत)
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हमें सन्तोष है कि स्वाध्याय प्रेमियों ने प्रकाशनों में पूर्ण रुचि दिखाई है और ग्रन्थों का सदुपयोग उचित मात्रा में हुआ है। ट्रस्ट ने भरसक प्रयास किया है और आवश्यकता और मांग के अनुसार आवश्यकता प्रकट करने वालों को बराबर ग्रन्थ मेंट स्वरूप मेरे सर और अब भी पत्रमा माये। मेग पागल मार्तण्ड की एक-एक कापी सभी यूनिवर्सिटियों में भेजी गयी। योगसार की १०० कापी अन्य समाज में वितरण की गयीं।
समय सार तो ग्रन्याधिराप है। भगवान कुंद कुंद की रचना जिस पर अमृतचंद्र स्वामी की संस्कृत टीका और कलस, पंडितवर जयचंद जी छावड़ा जयपुर की भाषा टीका का अभी प्रकाशन किया जा रहा है। समय सार जी ग्रन्थ तो उपलब्ध है, परन्तु पं. जयचंद जी की टीका जयपुरी भाषा में उपलब्ध नहीं हो रही थी, इसलिए भा. जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था द्वारा प्रकाशितवीर निर्वाण सं. २४६८ में समय सार जी की टीका के अनुसार यह प्रकाशन
किया गया है। पं. जयचंद जी छावड़ा की हिन्दी टीका सर्वोपरि रही है। नये विभागों को खोलकर यह टीका र सर्वसाधारण के कल्याण योग्य बनाई गई है। जैन समाज पर उनका महान् उपकार है।
यह ग्रन्याधिराज है। इसका स्वाध्याय करके आत्मा के अन्तस्तत्व को प्राप्त किया जा सकता है। यह तो जिनागमों का प्राण है। इसका प्रकाशन करना ट्रस्ट के लिए गौरव की बात है। ट्रस्ट अपना प्रयास सफल समझेगा,
अगर महानुभाव इसके स्वाध्याय के माध्यम से अपने आत्म स्वरूप की रुचि बढ़ाएंगे और अनुभव को प्राप्त करेंगे। ___ मैं श्री बाबूलाल जी का आभारी हूँ। वे सदा ज्ञानाभ्यास में लगे रहते हैं। उन्होंने प्रस्तावना लिख मार्गदर्शन किया है। श्री सुभाष जैन, शकुन प्रकाशन ने ग्रन्थ छपाने में हमें पूरा सहयोग दिया, हम उनके भी आभारी है।
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शान्तिलाल जैन
अध्यक्ष, श्री मुसहीलाल जैन चेरीटेबल ट्रस्ट २/४, अंसारी रोड दरियागंज, नयी दिल्ली-११०००२
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प्रस्तावना
कस्तूरी कुण्डल बसे-मृग ढूंढे वन माहि
श्री समय सार जी में द्रव्य-दृष्टि का प्रधानता से वर्णन किया गया है क्योंकि पर्याय दृष्टि का एकांत तो जीव के फ्र अनादि कालीन है। यह तो अग्रहीत मिथ्यात्व है। उसको मेटने के लिए द्रव्य दृष्टि की मुख्यता से उपदेश दिया गया है। पर्याय -दृष्टि रूप तो वह अपने को मान ही रहा है। द्रव्य-दृष्टि का ज्ञान नहीं । अगर द्रव्य दृष्टि का ज्ञान हो 5 जाता है तब पर्याय-दृष्टि का एकांत मिट कर द्रव्य-पर्यायात्मक जैसी वस्तु है उसका वैसा श्रद्धान हो जाता है। जहां आत्मा द्रव्य-दृष्टि से ज्ञान दर्शन रूप है वहां पर्याय-दृष्टि से रागादि रूप परिणमन भी कर रहा है। यह दोनों कार्य फ एक साथ एक समय में हो रहे हैं। यह आप अपने को देखने जानने वाला है। इसी को आचार्य सम्बोधन करते हैं। कि "तू अपने को पर्याय रूप अनुभव करेगा तो पर्याय तो अशुद्ध है, विकारी है और नाशवान है। उस रूप अनुभव करने से विकार बढ़ेगा। इसलिए तू अपने को द्रष्य दृष्टि के विषय रूप अनुभव कर ले। जैसा तू अनादि अनंत एक रूप पर से रहित ज्ञान दर्शन रूप है।" ऐसा अनुभव करने से शरीर से, रागादि से भेद होकर उसमें अपनापना मिट जाएगा और क्रम से इनका अभाव होकर जो पर्याय में अशुद्धता है वह मिट जायगी। द्रव्य दृष्टि में तो अशुद्धता
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हर एक वस्तु सामान्य विशेषात्मक है। सामान्य + विशेष = वस्तु अथवा द्रव्यार्थिक + पर्यायार्थिक
= वस्तु |
卐 यह वस्तु का पूरा स्वरूप है । सामान्य के बिना विशेष नहीं है और विशेष के बिना सामान्य नहीं। ऐसा होते हुए भी 5
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सामान्य विशेष नहीं और विशेष सामान्य नहीं है। वस्तु का सही ज्ञान तभी होता है जब द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक के विषय को अच्छी तरह समझा जाए। अगर द्रव्यार्थिक के ज्ञान के बिना मात्र पर्यायार्थिक का ज्ञान भी करें परन्तु द्रव्यार्थिक सापेक्ष न मानने से पर्याय रूप मानना भी मिथ्या है। इसी प्रकार द्रव्यार्थिक रूप अपने को जाने भी परन्तु पर्यायार्थिक सापेक्ष ज्ञान नहीं है तो वह भी सही नहीं है। एक रूपए के दो साइड हैं। एक को ऊपर करेंगे तब दूसरी साक्ष्य पीये जरूर रहेगी। उसका निषेध नहीं हो सकता। यह जरूर है कि द्रव्यार्थिक के कथन में पर्यायार्थिक 5 के विषय को नहीं कहा जा सकता। उसका विषय उस दृष्टि में नहीं है। इसको असत्यार्थ कहने का अर्थ ऐसा नहीं है कि उस दूसरी दृष्टि का विषय नहीं है, परन्तु वहां असत्यार्थ कहने का मतलब इतना ही है कि जिस दृष्टि का 5 वर्णन किया जा रहा है। उस दृष्टि का वह विषय नहीं है।
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थी ही नहीं। पर्याय की अशुद्धता मिट कर वस्तु पूर्ण रूप से शुद्ध ले जाएगी।
समय शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्य लिखते है कि "जो एक साथ ही (युगपद् जानना और परिणमन करना यह दोनों क्रियाएं एकत्व पूर्वक करें वह समय है। यह जीव नामक पदार्थ एकत्व पूर्वक एक ही समय में परिणमन मी करता है और जानता भी है। इसलिए समय है।" इससे साबित होता है कि इस आत्मा में एक ही समय में जाननापना और रागादिकरूप परिणमन दोनों हो रहे हैं। जाननापना स्वभाव से उठ रहा है। और रागाविक रूप परिणमन पर के सम्बन्ध से हो रहा है। इसको इस प्रकार समझना चाहिए जैसे चीनी को आग पर रख कर चासनी बनाई जाए वहां पर एक ही समय पर मीठापना भी है और गर्मपना भी है। मीठापना चीनी के स्वभाव से आ रहा है। उसके होने में ही चीनी का होना है जबकि गर्मपना अग्नि के सम्बन्ध से आ रहा है। मीठापना चीनी का स्वभाव है। वह दृव्य दृष्टि का विषय बनता है। जबकि इसी प्रकार गर्मपना अथवा ठण्डापना पर्याय दृष्टि का विषय है। मीठापना और गर्मपना दोनों काम एक साथ हो रहे हैं जबकि उसमें ठण्डे होने की शक्ति विद्यमान है इसी प्रकार आत्मा में मीठेपने की जगह ज्ञान दर्शन रूप है जो उसका स्वभाव है। वह त्रिकाल एक रूप है जिसके होने से आत्मा का होना है। चीनी के गर्भपने की जगह आत्मा में रागादिक हो रहे है जो विकारी भाव है पर के सम्बन्ध से हो रहे हैं। जबकि वीतराग रूप होने की शक्ति विद्यमान है। रागादिक होते हुए भी आत्मा ने अपने निज ज्ञानदर्शन स्वभाव को नहीं छोड़ा है जैसे चीनी कितनी ही गर्म क्यों न हो जाए, परन्तु अपने मीठेपने को नहीं छोड़ती है। जानने वाला आप ही चेतन है। आचार्य उसको सम्बोधन कर रहे है कि "तू अपने को रागादिक रूप तो। अनुभव कर रहा है, शरीर रूप तो अनुभव कर रहा है, तु अपने को वेतन रूप अनुभव क्यों नहीं कर लेता, जैसा तू अनादि अनंत रूप है। रागादिक बाहर से आए हुए है, तेरे स्वभाव में प्रवेश नहीं करते। आप ही अपने को अनुभव करने वाला है। ज्ञातापना और रागादिक एक साथ है, परन्तु अपने को रागादिक रूप अनुभव कर रहा है, अता रूप नहीं करता। यह कैसी विचित्रता है।"
"जैसा एकत्व शरीर और राग में तूने स्थापित कर रखा है वैसा अपनापना अपने ज्ञान स्वभाव में स्थापित कर ले। तब शान के स्तल पर आकर तू देखे तो अपने को ज्ञान रूप पाएगा और रागादिक शरीर आदि के होते हुए भी उसका कर्ता नहीं रहेगा। तू तो ज्ञान रूप है, रागादिक चाहे शुभ हो या अशुभ, तू तो उसका जानने वाला है, उस रूप नहीं है।" एक त्रिकोण बनाया जाए और उसके ऊपर के सिरे पर झान स्वभाव को रखें, सीधी लाइन के एक
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सिरे पर शुभ भाव, त्याग, व्रत आदि को रखें और दूसरे सिरे पर अशुभ भाव, अवतादि को रखें। अपने को ज्ञान में स्थापित करें तो वह पाता है। कि मैं तो शुभ का मी जानने वाला है और अशुभ का भी जानने वाला हूँ। न शुम रूप हूँ। और न अशुभ रूप। यह दोनों तो कर्म जनित है। इस प्रकार ज्ञान में अपनापना स्थापना करें तो पर का कापना एवं अहमपना मिटें।
रागादिक और शरीरादिक रूप अनुभव करने का फल अनन्त संसार और आकुलता, दुख रूप है जबकि ज्ञान रूप अनुभव करने का फल अनन्त आनन्द है, कर्म का अभाव है। दोनों चीज इसके पास है, यह आप अनुभव करने वाला है। यह इसकी स्वतन्त्रता है, चाहे अपने को ज्ञान रूप अनुभव करें, चाहे रागादिक रूप अनुभव करें। आत्मा की चर्चा करना ग्रन्थों का अध्ययन करना, चिन्तन करना यह सब विकल्प रूप है। आत्मा का अनुभव करना अलग ही कार्य है। समुद्र के किनारे बैठ कर समुद्र की चर्चा अलग बात है। और समुद्र में गोता लगाना अलग बात है। गोता लगाने का आनन्द अलग ही है। यहां समुद्र और गोता लगाने वाले दो नहा है. एक ही है।
इस ग्रन्याधिराज का मूल उद्देश्य है कि द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक दृष्टियों के विषयाको जानकर पर्यायाका अवलम्बन छोड़ कर द्रव्य स्वभाव के विषयभूत वस्तु का अनुभव करना। द्रव्य-दृष्टि का एकांत करेगा तो पर्याय में रागादिक होते हुए भी अपनी जिम्मेवारी नहीं समझेगा और पर्याय दृष्टि का एकांत करेगा तो अपने को रागादिक रूप ही मान लेगा, रागादिक का अभाव नहीं करेगा। दोनों ही मिथ्या है। अपने को झान-दर्शन स्वभावी जान कर रागादिक मेटने को निरन्तर अपने स्वभाव का आश्रय लेगा वह रागादिक का नाश करके परम पद को प्राप्त करेगा।
इस ग्रन्थराज का प्रकाशन भाई शान्तिलाल जी ने अपने ट्रस्ट से किया है। यह ग्रन्थराव आत्मकल्याण का मार्ग बताने वाला अदितीय चक्षु है। इसकी महिमा अपार है। इसका प्रकाशन करके जिज्ञासुओं में तत्व ज्ञान का प्रचार करना अपने आप में बहुत बड़ा काम है। धन का सही उपयोग यही है। इसके लिए माई शान्तिलाल जी प्रशंसा के
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-बाबूलाल जैन
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सन्मति विहार, . २/१०, अंसारी रोड़, नयी दिल्ली-११०००२
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विषयानुक्रमणिका
कलश
पृष्ठ
गाथा क्रम १-६८ १-७६ १-१९ १-१७
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४६-१९ १००-११२ ११३-१२४ १२५-१३२
गाथा
१-६८ ६९-१४४ १४५-१६३ १६४-१८० १८३-१९२ १९३-२३६ ૨૨૭-૨૮૭ २८८-३०७ ३०८-४१५
१-जीवाजीवाधिकार २-कर्ताकर्माधिकार इ-पुण्यपाप अधिकार ४-आम्रव अधिकार ५-संवर अधिकार इ-निर्जरा अधिकार ७-बन्ध अधिकार ८-मोक्ष अधिकार ९-सर्वविशुद्धि ज्ञान अधिकार १०-स्याद्वाद अधिकार ११-उपाय उपेय अधिकार
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ms $ $$ 乐 乐乐 乐乐 $ 55 $
१४४-२४५ २४५-२७० २७१-२५२ २९३-३०९ ३१०-३७५ ३७५-४३२ ४३३-४६१ ४६२-६०३ ६०३-६२८ ६२८-६३८
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१-५१ १-२० १-१०८
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१६३-१७९ १८०-१९२ ११३-२४६ २४७-२६५ २६६-२७८
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॥ नमः सिद्धम्यः ॥ श्रीमदाचार्य कुंदकुंदस्वामि विरचित्
समयप्राभूत श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि विचित आत्मल्याति संस्कृतीका,
स्व. पं० जयचन्द्रजीकृत हिन्दी वचनिका सहित दोहा-श्रीपरमातमकू प्रणमि, सारद सुगुरु मनाय ।
समयसारशासन करूं, देशवचनमय भाय ॥१॥ शब्दब्रह्म परब्रह्मकै, वाचकवाच्यनियोग ।
मङ्गलरूप प्रसिद्ध है, नेम धर्म धन भोग ॥२॥ चौपाई-नयनय लहइ सार शुभवार । पयपय दहइ मारदुखकार ॥
लयलय गहइ पारभवधार । जयजय समयसार आविकार॥३॥ ॥ छप्पय शब्द अर्थ अरु ज्ञान समयत्रय आगम गाये।
मत सिद्धान्त अरु काल भेद त्रय नाम बताये॥
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इनहि आदि शुभ अर्थ समय बचके सुनिये बहु। अर्थ समयमें जीवनाम है सार सुनहु सहु ॥ तातें जु सार विन कर्ममल शुद्ध जीव शुधनय कहै।
इस ग्रन्थमांहि कथनी सवै समयसार बुधजन गहै ॥४॥ __ दोहा-नामादिक छह ग्रन्थमुख, तामैं मंगल सारं ।
विघनटरन नास्तिक हरन, शिष्टाचार उचार ॥५॥ है. ऐसे मङ्गलपूर्वक प्रतिज्ञा करि, श्रीकुदकुंद नाम आचार्यकृत गाथाबंध समयप्राभूत नाम ग्रंथ ॥
है, ताकी संख्यात टीका भी अपृतनंद आचार्यकृत आत्मख्याति नाम है, ताकी देशभाषामय वच卐 निका लिखिये है। तहां इस प्रथका होनेका संबंध ऐसा है-जो श्रीवर्धमानस्वामी अंतिम ... तीर्थंकरदेव सर्वज्ञ वीतराग परम भट्टारककू निर्वाण पधारे पीछे पांच श्रुतकेवलि भये । तिनमें अंतके .. ॐ श्रुतकेवली श्रीभद्रयाहुस्वामी भये, तहांताई तो द्वादशांगशास्त्रके प्ररूपणते व्यवहारनिश्चयात्मक 1- मोक्षमार्ग यथार्थ प्रवर्तवो ही किया। पीछे कालदोष अंगनिका ज्ञानकी व्युच्छित्ति होती गई अर
केतेक मुनि शिथिलाचारी भये, तिनिमें श्वेताम्बर भये, तिनिने शिथिलाचार पोषनेकू न्यारे सूत्र जज बनाये । तिनिमें शिथिलाचार पोषनेकी अनेक कथा लिखि अपना संप्रदाय दृढ किया, सो तो
अवतांई प्रसिद्ध है। बहुरि जे जिनसूत्रकी आज्ञामें रहे तिनिका आचार भी यथावत् रहा, 卐 प्ररूपणा भी यथावत् रही, ते दिगम्बर कहाये । तिनिका सम्प्रदायमें श्री वर्धमानस्वामीकू निर्वाण ॥ .. पधारे पीछे छहसै तियासी वर्ष पीछे दूसरे भद्रबाहुस्वामी आचार्य भये । तिनिकी परिपाटीमें 9 केतेक वर्ष पीछे मुनि भये तिनिने सिद्धांतनिकी प्रवृत्ति करी सो लिखिये है। ज एक तो धरसेन नामा मुनि भये, तिनि• अग्रायणीपूर्वका पांचमा वस्तुका महाकर्मप्रकृति नामा
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चौथा प्राभृतका ज्ञान था। सो यह प्राभृत भूतवली अर पुष्पदन्त नाम दोऊ मुनीनिकुं पढाया। 5 पीछे तिनि दोऊ मुनीनिनें आगामी कालदोषतें बुद्धिकी मन्दता जाणि तिस प्राभृतके अनुसार
ग्राम
खंड सूत्र बांध पुस्तकों में लिखाय तिनिकी प्रवृत्ति करी । ता पीछें जे मान भये, तिननें तिनही फ 45 सूत्रनिक पढिकरि तिनिकी टीका विस्ताररूप करि घवल महाधयल जयधवल आदि सिद्धान्त रचे । तिनि पढिकर नेमिचन्द्र आदि आचार्यनिने गोमटसार, लब्धिसार, क्षपणासार आदि शास्त्रनिकी 5 फ प्रवृत्ति करी । यह तो प्रथम सिद्धान्तकी उत्पत्ति है । तिनिमें तो जीव अर कर्मके संजोगतें भया जो 卐 आत्माका संसारपर्याय, ताका विस्तार गुणस्थानमार्गणा रूप संक्षेपकरि वर्णन है । यह तो पर्यायार्थिक नय प्रधानकरि कथन है इसही नयकुं अशुद्ध द्रव्यार्थिक कहिए। तथा अध्यात्मभाषाकरि अशुद्धनिश्चय कहिये तथा व्यवहार भी कहिये ।
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बहुरि एक गुणधर नामा मुनि भये, तिनिकूं ज्ञानप्रवादपूर्वका दशम वस्तु तिसका तीसरा प्राभृतका ज्ञान था । तिस प्राभृतकुं नागहस्ती नामा मुनि पढ्या, तिनि दोऊ मुनीनितें यतिनायक नामा मुनि ति प्राभृतकूं पढि, तिसकी चूर्णिका रूप छह हजार सूत्रोंका शास्त्र रच्या । ताकी टीका 5 5 समुद्धरण नामा मुनि बारह हजार प्रमाण रची । ऐसें आचार्यनिकी परम्परातें कुन्दकुन्द मुनि तिनि सिद्धान्तनिके ज्ञाता भये । ऐसें इस द्वितीय सिद्धान्तकी उत्पत्ति है, या ज्ञानकं प्रधानकरि शुद्धद्रव्यार्थिकन्यकरि कथन है । तहां अध्यात्मभाषाकरि आत्माहीका अधिकार है। याकूं शुद्धनिश्चय फ कहिये परमार्थ कहिये । यामैं पर्यायार्थिकनयकूं गौणकरि व्यवहार कहि असत्यार्थ कया है, सो जहांपर्यायबुद्धिर, तहांतांई या जीवकै संसार है ।
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बहुरि जब शुद्धयका उपदेश पाय द्रव्यबुद्धि होय, अपने आत्माकूं अनादि अनन्त एक सर्वपरद्रव्यपर भावनिके निमित्ततें भये अपने भाव तिनितें भिन्न जाने, अपना शुद्धस्वरूपका अनुभवकरि 5 शुद्धोपयोग में लीन होय, तब कर्मका अभाव करि निर्वाण प्राप्त होय है। या प्रकार इस द्वितीय
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सिद्धान्तकी परम्परातें शुद्धनयका उपदेशके शास्त्र पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार, परमात्म
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इनहि आदि शुभ अर्थ समय बचके सुनिये बहु। अर्थ समयमें जीवनाम है सार सुनहु सहु॥ तातें जु सार विन कर्ममल शुद्धजीव शुधमय कहै।
इस ग्रन्थमांहि कथनी सबै समयसार बुधजन गहै ॥४॥ दोहा-नामादिक छह ग्रन्थमुख, तामैं मंगल सारं।
विघनटरन नास्तिक हरन, शिष्टाचार उचार ॥५॥ ॐ ऐसे मङ्गलपूर्वक प्रतिज्ञा करि, श्रीकुदकुंद नाम आचार्यकृत गायाबंध समयप्राभूत नाम ग्रंथ
है, ताकी संस्कृत टीका श्री अमृतचंद्र आचार्यकृत आत्मख्याति नाम है, ताकी देशभाषामय वचमनिका लिखिये है। तहां इस ग्रंथका होनेका संबंध ऐसा है जो श्रीवर्धमानस्वानी अंतिम ॥ ... तीर्थंकरदेव सर्वज्ञ वीतराग परम भट्टारककू निर्वाण पधारे पीछे पांच श्रुतकेवलि भये। तिनमें अंतके .. 5 श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहुस्वामी भये, तहांताई तो द्वादशांगशास्त्रके प्ररूपणते व्यवहारनिश्चयात्मक
मोक्षमार्ग यथार्थ प्रवर्तवो ही किया। पीछे कालदोषते अंगनिका ज्ञानकी व्युच्छित्ति होती गई अर - । केतक मुनि शिथिलाचारी भये तिनिमें श्वेताम्बर भये, तिनिने शिथिलाचार पोषनेकू न्यारे सूत्र
बनाये । तिनिमें शिथिलाचार पोषनेकी अनेक कथा लिखि अपना संप्रदाय दृढ किया, सो तो " अबताई प्रसिद्ध है। बहुरि जे जिनसूत्रको आज्ञामें रहे तिनिका आचार भी यथावत् रहा, 卐 प्ररूपणा भी यथावत् रही, ते दिगम्बर कहाये । तिनिका सम्प्रदायमै श्री वर्धमानस्वामीकू निर्वाण' ... पधारे पीछे छहसै तियासी वर्ष पीछे दूसरे भद्रवाहुस्वामी आचार्य भये । तिनिकी परिपाटीमें 卐 केतेक वर्ष पीछे मुनि भये तिनिने सिद्धांतनिकी प्रवृत्ति करी सो लिखिये है।
卐 + एक तो धरसेन नामा मुनि भये, तिनि• अग्रायणीपूर्वका पांचमा वस्तुका महाकर्मप्रकृति नामा ।
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चौथा प्राभूतका ज्ञान था । सो यह प्राभृत भूतबली अर पुष्पदन्त नाम दोऊ मुनीनिकूं पढाया । 5
पीछें तिनि दोऊ मुनीनें आगामी कालदोषतें बुद्धिकी मन्दता जाणि तिस प्राभृतके अनुसार
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षट्खंड सूत्र बांधि पुस्तकों में लिखाय तिनिकी प्रवृत्ति करी । ता पीछें जे मान भये, तिननें तिनही 5
5 सूत्रनिपढिकरि तिनिकी टीका विस्ताररूप करिं धवल महाघवल जयधवल आदि सिद्धान्त रचे । aaj परिन्द्र आदि आचार्यनिने गोमटसार, लब्धिसार, क्षपणासार आदि शास्त्रनिकी फ 5 प्रवृत्ति करी । यह तो प्रथम सिद्धान्तकी उत्पत्ति है । तिनिनें तो जीव अर कर्मके संजोगतें या जो आत्माका संसारपर्याय, ताका विस्तार गुणस्थानमार्गणा रूप संक्षेपकरि वर्णन है । यह तो पर्यायार्थिक नय प्रधानकरि कथन है इसही नयकुं अशुद्ध द्रव्यार्थिक कहिए । तथा अध्यात्मभाषाकरि अशुद्ध निश्चय कहिये तथा व्यवहार भी काहेये ।
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बहुरि एक गुणधर नामा मुनि भये, तिनिकं ज्ञानप्रवादपूर्वका दशम वस्तु तिसका तीसरा 5 5 प्राभृतका ज्ञान था । तिस प्राभृतकुं नागहस्ती नामा मुनि पढ्या, तिनि दोऊ सुनीनितें यतिनायक नामा मुनि तिस प्राभृतकूं पढि, तिसकी चूर्णिका रूप छह हजार सूत्रोंका शास्त्र रच्या। ताकी टीका फ 5 समुद्धरण नामा मुनि बारह हजार प्रमाण रवी । ऐसें आचार्यनिकी परम्परातें कुन्दकुन्द मुनि तिनि सिद्धान्तनिके ज्ञाता भये । ऐसें इस द्वितीय सिद्धान्तकी उत्पत्ति है, या ज्ञानकं प्रधानकरि शुद्धद्रव्यार्थिकन्यकरि कथन है । तहां अध्यात्मभाषाकरि आत्माहीका अधिकार है। याकूं शुद्धनिश्चय
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कहिये परमार्थ कहिये । यानें पर्यायार्थिकनयकूं गौणकरि व्यवहार कहि असत्यार्थ का है, सो जहांताई पर्यायवृद्धि रहै, तहांतांई या जीवकै संसार है ।
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बहुरि जब शुद्धनयका उपदेश पाय द्रव्यबुद्धि होय, अपने आत्माकूं अनादि अनन्त एक सर्व
परद्रव्यपर भावनिके निमित्ततें भये अपने भाव तिनितें भिन्न जाने, अपना शुद्धस्वरूपका अनुभवकरि
5 शुद्धोपयोग में लीन होय, तब कर्मका अभाव करि निर्वाणकं प्रात होय है। या प्रकार इस द्वितीय
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सिद्धान्तकी परम्परातें शुद्धनयका उपदेशके शास्त्र पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार, परमात्म
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15 ++ +
। प्रकास आदि प्रवतें हैं। सिनिमें समयप्राभूतनाम शास्त्र है सो प्राकृतभाषामय गाथावध है, ताकी ..
आत्मख्याति नामा संस्कृतटीका अमृतचन्द्र आचार्य करी है । सो कालदोपते जीवनिकी बुद्धि मन्द । होती आवे है, साके निमित्ततें प्राकृत संस्कृतके अभ्यास करनेवाले विरले रहि गये। अर गुरुनिकी परम्पराका उपदेश भी विरल हो गया। तातें मेरो बुद्धिसार ग्रन्थनिका. अभ्यास करि इस ग्रन्धकी । देशभाषामय वचनिका करनेका प्रारंभ किया है। सोभव्यजीव बाचेंगे, पढेंगे, सुनेंगे सिसका तात्पर्य
धरेंगे सिनिमा विद्यात्मका असाच होयगा, सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होयगी ऐसा अभिप्राय है। किछु 1- पंडिताईका तथा मान लोभ आदिका अभिप्राय है नहीं। यामें कही बुद्धिकी मन्दतातें तथा ॥
प्रमादतें हीनाधिक अर्थ लिखू तो बुद्धिके धारक जन मूलग्रन्थ देखि शुद्धकरि बांचियो, - हास्य मति करियो। सत्पुरुषनिका स्वभाव गुणग्रहग करनेहीका होय है। यह मेरी परोक्ष प्रार्थना है।
इहां कोई कहे इस समयसारग्रन्थकी तुम वचनिका करो हो सो यह अध्यात्मग्रन्थ है, यामें , शुद्धनयका कथन है, अशुद्धनय व्यवहारनय है, सो ताकू गौणकार असत्यार्थ कहा है, तहां - 卐 व्यवहारचारित्रकू अर ताके फल पुण्यबन्धकं अत्यन्त निषेध किया है, मुनित्रतभी पाले ताकै मोक्ष... मार्ग नाहीं ऐसे कहा है, सो ऐसे ग्रन्थ तो प्राकृत संस्कृत ही चाहिये, इनिकी क्चनिका भये सर्वही
प्राणी बांचे, तामें जो व्यवहारचारित्रकू निष्प्रयोजन जाणे अर अरुचि आवै तो अंगीकार न करे, 1- पहले किछु अंगीदार किया होय तो भ्रष्ट हो जाय, स्वच्छंद होय, प्रमादी होय, श्रद्धानका विपर्यय ॥ "होय तो बड़ा दोष उपजे । यह अन्य तो-जो पहले मुनि भये होय दृढ चारित्र पालते होय अर ..
शुद्ध आत्मस्वरूपके सन्मुख न होय अर व्यवहारमात्रहीतें सिद्धि होनेका आशय आगया होय तिनिक शुद्धामाकै सन्मुख करनेक है तिनिहीका सुननेका है, तातें देशभाषामय वचनिका करना युक्त । नाहीं । ताकू कहिये है___ जो यह तो सत्य है यामें कथन शुद्धनयहीका है। परंतु जहां जहां अशुद्धनय रूप व्यवहारनयका
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क गौणताका कथन है, तहां आचार्य ऐसे भी कहते गये हैं- जो पहिली अवस्था में यह व्यवहारनय क हस्तावलंबरूप है, उपरि चढनेकूं पैडीरूप है, तातें कथंचित् कार्यकारी है। इसकूं गौण करनेते ऐसा,
यो, जो आचार्य व्यवहारकं सर्वथाही छुड़ाये हैं। आचार्य तौ उपरि चढनेकूं नीचली क 5 पैड़ी छुडावे है, अर जब अपना स्वरूपकी प्राप्ति होयगी, तब तौ शुद्ध अशुद्ध दोऊही नयका आलंबन छूटेगा । नयका आलंबन तो साधक अवस्था में है । ऐसें ग्रन्थ में जहां तहां कथन है । ताकूं यथार्थ समझे श्रद्धानका विपर्यय नाहीं होयगा । जे यथार्थ समझेंगे तिनकै व्यवहारचारित्रतें अरुचि नहीं आवेगी अर जिनका होनहारही खोटा होयगा ते तौ शुद्धनय सुणं तथा अशुद्धनय सुणूं विपर्यय ही समझेंगे, तिनिकूं तो सर्वही उपदेश निष्फल है ।
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बहुरि इहां तीन प्रयोजन मनमें धारि प्रारंभ किया है। प्रथम तो अन्यमती वेदांती तथा सांख्या - 5 मी आत्मा सर्वथा एकांतपक्षतें शुद्ध, नित्य, अभेद, एक ऐसें विशेषण करि कहे हैं। अर कहे हैं- जो जैनी कर्मवादी हैं इनिकै आत्माकी कथनी नाहीं । आत्मज्ञानविना वृथा कर्मका क्लेश 5 करे हैं। आत्माकूं जाने विना मोक्ष नाहीं । जे कर्महीमें लीन हैं तिनिकेँ संसारका दुःख कैसे मिटे ? बहुरि ईश्वरवादी नैय्यायिक कहे हैं जो ईश्वर सदा शुद्ध है, नित्य है, एक है, सर्वकार्यनिप्रति निमित्तकारण है । ताकूं जाने विना अर ताकू भक्तिभावकरि ध्याये बिना संसारी जीवके मोक्ष नाहीं । ईश्वरका शुद्धध्यानकरि तासू लय लगावै तब मोक्ष होय, जैनी ईश्वरकूंतो माने नाहीं अर 5 जीवहीकूं माने, सो जीव तो अज्ञान है असमर्थ है। आपही अहंकारकरि प्रस्त है । सो अहंकार छोडि ईश्वरका ध्यावना जैनीनिकें नाहीं, तातें इनिकै मोक्ष नाहीं इत्यादिक कहे हैं । सो लौकिकजन तिनिके मत के हैं । तिनमें यह प्रसिद्ध करी राखी है। सो ते जिनमतकी स्याद्वादकथनी में तो 5 समझे नाहीं । अर प्रसिद्ध व्यवहार देखी निषेध करे हैं । तिनिका प्रतिषेध शुद्धनयकी कथनी प्रगट 5 भयेविना होय नाहीं । जो यह कथनी प्रगट न होय तो भोले जीव अन्यमतीनिकी सुनै सब भ्रम 卐
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उपजी आवै । तब श्रद्धानतें विगिजाय । तातें यह कथन प्रगट होय तौ श्रद्धानतें चि नाहीं । एक प्रयोजन तौ यह है ।
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बहुरि दूजा यह है - जो इस ग्रन्थकी वचनिका पहले भी भयी है, ताके अनुसारि वाणारसीदासनें कलसाके कवित्त बांधे हैं, ते स्वमतपरमतमें प्रसिद्ध भये हैं । परंतु तिनिमें अर्थ सामान्यही 5 लोक समझे हैं। तार्मे विशेष समझा विना कोईकै पक्षपात भी उपजि आवे है । तथा तिनि कवित्तनिकूं अन्यमती पढि अपना मतका अर्थ में भेले हैं, सो विशेष अर्थ समझाविना यथार्थ होय नाहीं, 卐 5 भ्रम मिटे नाहीं । तातें इस कवनिका में जहां तहां नयविभागका अर्थ स्पष्ट खोलियेगा, तातें भ्रम न रहेगा ।
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卐 बहुरि तीसरा प्रयोजन यह है- जो कालदोषतें बुद्धिकी मंदता प्राकृतसंस्कृतके पढनेवाले तौ 5 विरले होय हैं । तिनिमें भी स्वमतपरमतका विभाग समझी यथार्थ तस्वार्थ समझनेवाले विरले होय हैं । बहुरि गुरुआम्नाय जैनग्रन्थनिकी कमि रहि गई, स्याद्वादके मर्मकी बात कहने वाले फ फ गुरुनिकी व्युच्छित्ति ही दीखे है तातें शुद्धनयका मर्म स्याद्वादविद्याकूं समझिकरि समझें, तब यथार्थ होय । सो इस ग्रन्थकी वचनिका विशेष अर्थरूप होय ते सर्वही बाचें पढें तो पहिली वचनिकाके फ
5 सामान्य अर्थ में किछू भ्रम उपजे तो मिटिजाय, इस शास्त्रका यथार्थज्ञान होय, तौ अर्थमें विपर्यय न होयगा । ऐसें तीन प्रयोजन मनमें धारि वचनिकाका प्रारंभ कीया है ।
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बहुरि एक प्रयोजन यह भी है-जौ जैनमत में मोक्षमार्गका वर्णन में मुख्य पहलै सम्यग्दर्शन प्रधान 5 कया है, सो व्यवहारनयकरि तो सम्यग्दर्शन भेदरूप अन्यग्रन्यनिमें अनेक प्रकार कया है, सो प्रसिद्ध है । बहुरि इस ग्रन्थ में शुद्धनयका विषय जो शुद्ध आत्मा ताहीका श्रद्धानकूं सम्यग्दर्शन एकही प्रकार फ 5 नियमकरि का है। सो लोकमैं यह कथनी प्रसिद्ध बाहुल्यताकरि नाहीं है । तार्ते व्यवहारहीकू लोक जाने हैं। जैसें पहले अशुभका व्यवहार लोककै है ताकू निषेधकरि व्यवहारनव शुभ प्रवर्तावें है, 卐 फ सो लोक अशुभकी पक्ष छोडि शुभमें प्रवर्ते । अर कदाचित् शुभहीका पक्ष पकडी याहीका एकांत फ्र
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करे तो पहले अशुभकी पक्षका एकांत तथा अब शुभका एकांत भया याही मोक्षमार्ग " R卐 मान्या तव मिथ्यात्वही दृढ भया । तातें शुभकी पक्ष छुडावने• शुद्धनयका आलंबनका उपदेश है,'
याहीकू निश्चनय कहि सत्यार्थ कथा है । अशुद्धनयकू व्यवहार कहि असत्यार्थ कह्या है जाते व्यवहार । 卐 शुभाशुभरूप है, वंधका कारण है । सो या तो प्राणी अनादिसंहि प्रवत है। अर शुद्धनयरूप 1- कदे भया नाही, तातें याका उपदेश सुणि यामें लीन होय, व्यवहारका आलंबन छोडे तब बंधका .. अभावकरै।
बहुरि स्वरूपको प्राप्ति भये पीछे शुद्ध अशुद्धका दोऊही नयका आलंबन नाहीं रहे हैं । नयका , आलंबन तो साधक अवस्थामें प्रयोजनवान् है । सो या अन्यतें ऐसा वर्णन है, तातें या खोलीकरि स्पष्ट अर्थ वचनिकारूप लिखिये तो सर्वथा एकान्तकी पक्ष मिटे, स्याद्वादका मर्म यथार्थ समझे,' यथार्थश्रद्धान होय मिथ्यात्व कटै । यह भी वचनिका करनेका प्रयोजन है । वहुरि ऐसा जान्नाजो स्वरूपकी प्राप्ति दोय प्रकार है, प्रथम तौ यथार्थ ज्ञान होय करि श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन होगा। सो यह तो अविरतसम्यग्दृष्टि चतुर्थगुणस्थानवर्तीक भी होय है। तहां बाह्यव्यवहार तो अविरत-1 रूप ही रहै। तहां व्यवहारका आलंबन है ही । अर अन्तरंग सर्व नयका पक्षपातरहित अनेकांत-" तत्वार्थकी श्रद्धा होय है । बहुरि जब संयम धारि प्रमत्ताप्रमत्तस्थानगुणवर्ती मुनि होय अर जहांताई ॥ साक्षात् शुद्धोपयोगकी प्राप्ति न होय श्रेणी न चढे, तहां शुभरूपव्यवहारका भी बाह्य आलम्बन
॥ बहुरि दूजा साक्षात् शुद्धपयोगरूप वीतराग चारित्रका होना सो अनुभवमें शुद्धोपयोगकी ... साक्षात् प्राप्ती होय तामै व्यवहारका भी आलम्बन नाहीं । अर शुद्धनयका भी आलम्बन नाहीं।। - जातें आप साक्षात् शुद्धपयोगरूप भया, तब नयका आलम्बन कहैका ? नयका आलम्बन तो जेते ।।
राग अंश था। तेतहि था । ऐसें अपने स्वरूपकी प्राप्ति भये पीछे पहले तो श्रद्धामैं नयपक्षमिटै है। 卐 पीछे साक्षात् वीतराग होय तब चारित्रसम्बन्धी पक्षपात मिटै है । पेसा नाहीं, जो साक्षात् वीत.
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राग तो भया नाहीं अर शुभत्र्यवहारकू छोडि स्वच्छन्दप्रमादी होय प्रवर्ते। ऐसे होय तौ नयसम विभागमें समझा नाहीं उल्टा मिथ्यात्र ही भया । ऐसें मंदबुद्धीनिईके यथार्थज्ञान होनेका प्रयो-5
जन जानि इस प्रन्यकी पचनिकाका प्रारम्भ कीया है ऐसें जानना ।
आगें इस प्रन्यकी पीठिका लिखिये हैं। तहां इस ग्रन्थमै अधिकार नव हैं । तिनिके नाम-5 जीवाजीव १, कतृकर्म २, पुण्यपाप ३, आस्त्रव १, संवर ५, निर्जरा ६, बंध ७, मोक्ष - सर्वविशुद्ध ९, ऐसें । तहां प्रथम जीवाजीव अधिकारकी गाथा अडसठि हैं। तहां पहले तो टीकाकार रंगभूमिका स्थल बांध्या है । ताकी गाथा अडतीस हैं। तहां प्रथम ही एक गाथामें मालाचरण करी । बहुरि दूजी गाथामें जीवनामा पदार्थका स्वरूप का है। यह जीवाजीवरूप षड्द्रव्या-" त्मक लोक है। तिनिमें धर्म, अधर्म, आकाश, काल से चारि हुए तो स्वभावपरिणतिस्वरूपही है। अर जीव अर पुदलद्रव्यके अनादिसंयोगते विभावपरिणति भी है। तातें पुद्गल स्पर्शरसगंध
वर्णशब्दरूप मूर्तिक हैं। ता जीव देखिकरि रागद्बषमोहरूप परिणम है। अर इसके निमित्तते) + पुगलकर्मरूप होय जीवत बंधे है । ऐसें इनिकें अनादिहीतें बंधावस्था है। सो जब निमित्त पाय...
रागादिक रूप न परिणमै तब नवीन कर्म बंध नाहीं। पुरातनकर्म झडिजाय तब मोक्ष होय ।। ऐसें जोवकै स्वसमयपरसमयकी प्रवृत्ति होय है। सो जब जीव सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रस्वभावरूप अपना स्वभावरूप परिणमै तब स्वसमय होय । अर मिथ्यादर्शनशानचारित्ररूप परिणम है तेते" पुगलकर्मकेविर्षे तिष्ठ्या परसमय है, ऐसे कहा है। ___आगें तीसरी माथामें कही है, जो जीवके पुद्गलकर्मके बंधते परसमयपणा है,. सो यह सुन्दर नाही, यामें जीव संसारमें भ्रमता अनेक प्रकार दुःख पाये है। तातें स्वभावमें तिष्ठे न्यारा होय एकला तिष्ठे तब सुन्दर । आगें चौथा गाथामैं कही है, जो यह जीवका न्यारापणाका अर एक
पणाका पावना दुर्लभ है। जातें बंधकी कथा तौ सर्वप्राणी करे हैं । अर यह कथा विरलै जाने हैं,। + तातें दुर्लभ हैं । आगे कहे हैं जो यह कथा हमारा ज्ञानका विभवका सर्वस्वकरि हम कहे हैं, सो॥
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卐 अन्य भी अपना अनुभवतें परीक्षा करि ग्रहण फिजियो । आगें जीवकूं शुद्धन्य करि देखिये तब 卐 प्रमत्त अप्रमत्त दोऊ दशातें न्यारा एक ज्ञायकभावमात्र देखिये, जो जाननेवाला है सोही जीव है
फ ऐसें कहा है ।
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आगे इस ज्ञायकभावमात्र आत्माके दर्शनज्ञानचारित्रका भेदकर भी अशुद्धपणा नाहीं है, ज्ञायक है सो ज्ञायक ही है ऐसें कया है । आगें आत्माकूं व्यवहारनय अशुद्ध कहे हैं । ताके उपदेशका प्रयोजन गाथा तीनमें कया है । आगे शुद्धनयकुं सत्यार्थ कया है व्यवहारनयकुं असत्यार्थ का है। आगे का हैं, जो, जे स्वरूपका शुद्ध परमभावकू पहुंच गये तिनिकै तौ शुद्धयही प्रयो जनवान है। अर जे साधक अवस्था में हैं तिनके व्यवहारनय भी प्रयोजनवान् हैं ऐसें कया है । आगे कहा है जीवादितानि शुद्धनयकरि जानना यह सम्यक्त्व है। आगे शुद्धयका विषयभूत आत्माकं बध्द स्पृष्ट, अन्य, अनियत, विशेषसंयुक्त इनि पांच भावनित रहित का है। आगेनया विषय आत्मा जाने सो सम्मान है ऐसे कहा है । आगे सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वक चारित्र' साधूकरि सेवर्नेयोग्य है ऐसें दृष्टांत सहित कया है । आगें शुद्धन्यके विषयभूत आत्माकूं न जाने जे जीव ते अज्ञानी हैं ऐसें कया है । आगे अज्ञानी समझावनेकी रीति कही है। आगे अज्ञानी जीवदेहकूं एक देखि तीर्थंकरकी स्तुतिका प्रश्न किया, ताकै प्रश्नका उत्तर है । आगें इस 15 उत्तर में जीवदेहकी भिन्नता दिखाई है। आगे शिष्यका प्रश्न जो चारित्र में प्रत्याख्यान झा, सो प्रत्याख्यान कहा है, ताका उत्तर है, जो ज्ञानही प्रत्याख्यान है ।
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आगे दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप परिणया आत्माका स्वरूप कहिकरि रंगभूमिकाका स्थल गाथा
अठतीसमें पूर्ण किया है। आगे जोव अजीव दोऊ बंधपर्यायरूप होय एकप्रतिभासमें आवै हैं, तिनिमें'
फ जीवका स्वरूप न जानते अज्ञानी हैं, ते जीवकी कल्पना अध्यवसानादिक भावरूप अन्यथा करें हैं
तिनका प्रकार गाथा पांचमें कहा है। आगे जीक्का स्वरूप अन्यथा कल्पे हैं तिनिका निषेधकी
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गाथा एक है। आगे अध्यवसानादिकभाव पुद्गलमय हैं जीव नाहीं हैं ऐसें कहा है। आगे अध्यक- फ्र
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सानादिकभावकू व्यवहारनय जीव कहे हैं ऐसें कहा है। आगें परमार्थरूप जीवका स्वरूप कहा है। आगें वर्णको आदि लेकरि गुणस्थाहात जो जाप हैं रो जीयक नाहीं हैं ऐसें छह गाथामें ,
कया है। आगें ए वर्ण आदिक भाव जीवके व्यवहारनय कहे है निश्चयनय न कहै है ऐसे दृष्टांत । 卐 सहित कया है। आगें वर्णादिभावनिके जीवके तादात्म्य कोई अज्ञानी माने तो ताका निषेध ।
किया है। ऐसे अडसठि गाथामें जीवाजीव अधिकार पूर्ण किया । यामैं टीकाकारकृत कलशरूप काव्य पैंतालीस हैं। ____ आगे कर्तृकर्म' नामा दूसरा अधिकारका प्रारंभ है । ताकी गाथा छिहत्तरी हैं । तहां प्रथमही, गाथा दोयमें यह कहा है जो यह अज्ञानी जीव क्रोधादिकविर्षे वर्ते हैं तेते कर्मका बंध करे हैं। आगें कह्या है आस्रवका अर आत्माका भेदज्ञान भये बंध न होय है। आगें आस्रवनितें निवृत्तहोनेका , विधान कह्या है । आगें आस्रवनितें निवृत भया आत्माका चिह्न कया है। आगे आस्रवका अर 卐 आत्माका भेदज्ञान भये आत्मा ज्ञानी होय, तब, कर्तृकर्मभाव भी याकै न होय ऐसें कहा है । आगें !
कहा है, जो जीवपुद्गलकर्मके परस्पर निभित्तनैमित्तिकभाव है, तो कर्तृकर्मभाव न कहिये। अाँगें. + कया है, यह निश्चयनय है जो जैसे आत्माकै अर कर्मके कतृकर्मभाव नाहीं है, तैसें भोक्तृभोग्य
भाव भी नाहीं है। आपका आपहीके क कर्मभाव भोक्तृभोग्यभाव है। आगें व्यवहारनय है सो.. " आत्माकै अर पुद्गलकर्मके कतकर्मभाव अर भोक्तभोग्यभाव कहै है ऐसा कहा है।
आगें आत्मा पुद्गलकर्मका कर्ता मानिये, तौ, तामें बडा दोष आवे है। दोय कियाका कर्ता। " आत्मा ठहरे, तो यह जिनमत नही । ऐसें माननेवाला मिथ्यादृष्टि है ऐसे कया है। आगें मिथ्या-- ॐ त्वादि आस्रवनिक जीव अजीव भेदकरि दोय प्रकार कहे हैं अर दोय प्रकार कहनेका हेतु कया है।"
आगें आत्माकै मिथ्याव अज्ञान अविरति ए तीन परिणाम अनादि हैं, तिनिका कपणा दिखाया फ़ है, अर तिस निमित्ततें पुद्गल कर्मरूप होय है ऐसे कया है। आगें आत्मा मिथ्यात्वादिभावरूप न" .. परिणमै तब कर्मका कर्ता नाहीं है ऐसे कया है । आगें शिष्यका प्रश्न है, जो अज्ञान्तें कर्म कैसें ..
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卐 होय है, ताका उत्तर है। आगे कहा है, कर्मका कापणाका मूल अज्ञानहीं है, तातें अज्ञानका
अभाव होय, ज्ञान होय, तब कापणा नाहीं है। आगे कह्या है, जो व्यवहारी जीव पुद्गलकर्मका। कर्ता आत्माकू कहै है सो यह अज्ञान है। आगें कया है, जो आत्मा पुद्गलकर्मका कर्ता निमित्तनैमित्तिकभावकरि भी नाहीं है। आत्माके योग उपयोग हैं ते निमित्तनैमित्तिकभावकरि कर्ता हैं। अर' योग उपयोगका आत्मा कता है । आगे कहा है, जो अज्ञानी भी अपने अज्ञानभावका तो कर्ता है,卐 अर पुद्गलकर्मका तौ कर्ता निश्चयकरि नाहीं है, जाते परद्रव्यकै तौ परस्पर कर्तृ कर्मभाव निश्चयकरि.. नाहीं है ऐसे कया है। आगें कहा है, जो जीवकू परद्रव्यका कर्तृ पणाका हेतु देखि उपचारकरि, कहिये है, जो यह कार्य जीव कीया सो यह व्यवहारनयका वचन है । आगे कह्या है, जो मिथ्यात्वा-.. दिक तो सामान्य आस्रव अर विशेषभेद गुणस्थान ए बंधका कर्ता हैं, तातें निश्चयकरि इनिका। जीव कर्ता भोका नाहीं है।
आगें जीवके अर आस्रवनि के भेद दिखाया है, अभेद कहने में दूषण दिखाया है। आगें सांख्यः । मती पुरुषकू अर प्रकृतीकू अपरिणामी कहे हैं, ताका निषेध करि पुरुष तथा पुद्गल• परिणामी कहा है । आगें ज्ञानकरि तौ ज्ञानभाव ही निपजे है, अर अज्ञानकरि अज्ञानभाव ही निपजे है ऐसे कया है। आगें कहा है अज्ञानी जीव द्रव्यकर्म बंधनेकू निमित्त होय है। आगे कहा है, पुगलका
परिणाम तो जीवतें न्यारा है, अर जीवका परिणाम पुद्गलते न्यारा है। आगें शिष्यका प्रश्न है जो.. __ कर्म जीवविर्षे बद्धस्पृष्ट है की अबद्धस्पृष्ट है ? ताका उत्तर निश्चयव्यवहारनयकरि दीया है। आगें" 卐 कया है, जो नयनिका पक्षकरिरहित है, सो कतृ कर्मभावकरि रहित समयसार शुद्ध आत्मा है, 1- ऐसें कहिकरि कर्तृकर्म अधिकारकू पूर्ण किया है । गाथा छिहत्तरीमैं । अर या अधिकारमें टीका." कारकृत कलशरूप काव्य चोवन ५४ हैं।
आगें पुण्यपापका अधिकार है। तहां प्रथमही शुभाशुभकर्मका स्वभावका वर्णन है। पीछे दोऊही कर्मबंधके कारण कहे हैं । याहीतें दोऊ कर्मकू निषेष हैं । ताका दृष्टांत है, अर आगमकी 5
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卐 साक्षी है । आर्गे मोक्षका कारण ज्ञानकू कहा है, नताविक पाले तौऊ ज्ञानविना मोक्ष न होय !
ऐसें कहा है। आगें मोक्ष साधनेवालाका स्वरूप कहा है। आगें परमार्थस्वरूप मोक्षका कारण ... समय कहि, अन्यका निषेध करि अर कर्म है सो मोक्षका कारणकू घाते है, ताका दृष्टांत करि घातना
दिखाया है। अर कहा है, सो कर्म आप वंधस्वरूपही है। अर सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र मोक्षका , ' कारण है । तिनिका प्रतिपक्षी घातक कहे हैं । सम्यक्त्वका प्रतिपक्षी मिथ्यात है। ज्ञानका प्रति--
पाशी अज्ञान है। पानिकता प्रतिपक्षी कषाय है। ऐसें कहा है। ऐसें तीसरा पुण्यपापाधिकार । ._ उगणीस गाथामे पूर्ण कीया है । यामें कलशरूप काव्य टीकाकारकृत तेरा हैं।
आगें चौथा अधिकार आस्त्रबका है । तहां प्रथम ही आत्रका स्वरूप कहा है। मिथ्यात्व, अविरत, योग, कषाय हैं ते जीव अजीवकरि दोय प्रकार हैं । ते कर्मबंधकू कारण हैं ऐसे कहा है। पीछे ज्ञानीकै तिनिका अभाव का है। आगे कह्या है, जो रागद्वेषमोहरूप जीवकै अज्ञानमय परिणाम हैं ते ही आस्त्रव हैं । आर्गे रागादिकविना जीवका भाव है ताका संभवना दिखाया है।। आगें ज्ञानीक द्रव्यभाव आस्त्रक्का अभाव दिखाया है। आर्गे शिष्यका प्रश्न है, जो ज्ञानी निरालव
कैसे ? ताका' उत्तर है, जैसें अज्ञानीकै अर ज्ञानीकै आस्त्रक्का सद्भाव अर असद्भाव है ताका ! ___ युक्तिकरि वर्णन है, तहां रागद्वेषामोह ही अज्ञानपरिणाम है, सो ही बंधका कारणरूप आलव . म है, सो ज्ञानीकै नाहीं है, यातें ज्ञानीकै कर्मबंध भी नाहीं है। ऐसा निश्चय करि अधिकार पूर्ण : 4 कीया है। ताकी गाथा सतरा है। याम टीकाकारकृत कलशरूप काव्य चारा हैं।
__ आगें पांचमा अधिकार संवरका है। तहां संवरका मूल उपाय भेदविज्ञान है। ताकी रीति + तीन गाथामें कही है । पीछे शिष्यका प्रश्न है, जो भेदविज्ञानही संवर कैसे होय ? ताका दृष्टांतजन पूर्वक उत्तर है। आगें भेदज्ञानतें शुद्धात्माकी प्राप्ति होय, तिसतें संवर होय है, ताका विधान कह्या ।
है। आगें संवर होनेका प्रकार तीन गाथामें कया है । आगें संवर होनेका अनुक्रम कह्या है गाथा
ॐ +5555555 卐卐
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तीनमें । ऐसें गाया बारहमें संवरका अधिकार पूर्ण कीया है। यामें टीकाकारकृत कलशरूप काव्य ॥ आठ हैं। आगें निर्जराका अधिकार है। । तहां प्रथम ही द्रव्यनिर्जराका स्वरूप कहा है। पीछे भावनिर्जराका स्वरूप कया है। आगे
ज्ञानका सामध्ये दिखाया है। आगें वैराग्यका सामर्थ्य दिखाया है। पीछे ज्ञानवैराग्यसामग्रंकू प्रगके टकर दिखाया है। आरौं सम्यग्दृष्टिकै आपपरका जाननेका सामान्यविशेषका विधान कह्या है।
आगे तिसही विधानतें वैराग्य होय है ऐसे कया है । आर्गे शिष्यका प्रश्न है, जो सम्यग्दृष्टि रागी " 卐 कैसे न होय है, ताका उत्तर है। आगे उपदेश किया है जो अज्ञानी रागी प्राणी रागादिककू
अपना पद जाने है तिस पदकू छोडि, अपना वीतराग एक ज्ञायकभावपदवि तिष्ठो। आगें आत्माका पद ज्ञायकस्वभाव है, सो ज्ञानविय भेद हैं ते कर्मके क्षयोपशमके मिमित्तते हैं। ऐसें कया है। आगे कह्या है, जो ज्ञान है सो ज्ञानही पाइये है। आगें शिष्यका प्रश्न है, जो ज्ञानी परकू काहेते
ग्रहण न कर हैं, ताका उत्तर है । आगे ज्ञानी परिग्रहका त्याग करे, ताका विधान कह्या है। आगें F कह्या है, जो इस विधानतें परिग्रहकू त्यागै, तो कर्मसूं न लिपे है। आगें कह्या है, जो कर्मका
फलकी वांछा करि कर्म करे, सो, कर्मकरि लिपे, विना वांछा कर्म करै, तोऊ कर्मत लिपे नाही, 卐 ताका दृष्टांतकरि कथन है। । आगे कहा है, जो सम्यक्त्वके आठ अंग हैं, सो प्रथम तो सम्यष्टि निशंक होय है। सात .. 卐 भयनिकरि रहित होय है । बहुरि निष्कांक्षिता, निर्विचिकित्सा, उपगृहन, अमूढत्व, वात्सल्य, स्थि. .. तिकरण, प्रभावना इनिका निश्चयनयकू प्रधानकरि वर्णन है। ऐसे गाथा ४४ चवालीसमें निर्जरा - अधिकार पूर्ण किया है। यामें टीकाकारकृत कलशरूप काव्य तीस हैं। - आगें बंधका अधिकार है। तहां प्रथमही बंधका कारण कहा है गाथा पांचमें। पीछे कया है "है; जो ऐसे कारणरूप आत्मा न प्रवर्ते, तो, बंध न होय गाथा पांचौं । आगें मिथ्यादृष्टिक बंध होय .. 'हे ताका आशयकू प्रगट करि कहा है । आर्गे शिष्य पूछे है, मिथ्यादृष्टिका आशयकू प्रगट अज्ञान
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कथा, सो यह अज्ञान कैसा, ताका उत्तर है। आगे कह्या है, यह मिथ्यादृष्टीका आशय अज्ञानभाव卐 रूप है सो ही बंधका कारण है। आगे बाह्यवस्तुकै निश्चनयकरि बंधका कारणपणाका निषेध किया है । 15 आगें कया है, जो मिथ्यादृष्टि अज्ञानरूप अध्यवसायतें अपने आत्माकूं अनेक अवस्थारूप करे है, आगें कया है, जो यह अज्ञानरूप अध्यवसाय जाकै नाहीं, ताकै कर्मबंध नाहीं होय है। आगे शिष्यका प्रभ 卐 5 है, जो यह अध्यवसाय कहा है ताका उत्तर है। आगे का है, जो यह अध्यवसान है याका निषेध है, सो व्यवहार यहीका निषेध है । आगें कया है, जो केवलव्यवहारहीकूं आलंबे है, सो मिध्यादृष्टि है, जातें याका आलंबन अभव्य भी करे है, व्रत, समिति, गुप्ति पार्ले है, ग्यारह अंग पढे है, तोऊ मोक्ष फ न पावै । अभव्य धर्मकी भी सामान्य श्रद्धा करे है, तोऊ ताकै भोगके निमित्त है, तार्ते मोक्षके निमित्त न होय । आगे निश्चयव्यवहारका स्वरूप कया है। आगे शिष्यका प्रश्न है, जो रागादिक- 5
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155 भावनिका निमित्त आत्मा है, कि परद्रव्य है ? ताका उत्तर है । ऐसें बंधाधिकार पूर्ण कीया है गाथा एकावन । यामैं टीकाकारकृत कलशरूप काव्य सतरा हैं ।
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आगें मोक्षाधिकार है । तहां, प्रथमही मोक्षका स्वरूप कर्मबंधन छूटना है। सो कोई बंधका 5
स्वरूपही जानि संतुष्ट होय, जो ऐसेंही बंधतें छूटियेगा ताका निषेध है, जो बंध छेदेविना छूटे
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नाहीं ऐसें कया है । आगे बंधकी चिंता किये भी न छूटे है ऐसें कहा है। बंध छेदे ही मोक्ष है। फ्र
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आगे बंधतें छुटनेका कारण कया है । आगे शिष्य पूछधा है, जो बंधका छेद काहिकरि कीजिये ताका उत्तर हैं, जो कर्मबंधक छेदनेकूं प्रज्ञा करण है, शस्त्र है। आगे कया है, जो प्रज्ञारूप करणतें
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आत्मा अर बंध दोऊकूं न्यारे न्यारे करि आत्माकूं प्रज्ञाहिकरि ग्रहण करना, बंधकूं छोड़ना । आगे का है, जो आत्मा चैतन्यमात्र ग्रहण करना, तहां चेतना दर्शनज्ञानरूप है, तिनिविना नाहीं है । आगे का है, जो आत्माशिवाय अन्यभावका त्याग करना, ऐसा पंडित कौन है ? जो परके 5 rai जाणिक ग्रहण करें, अर्थात् परके भावकूं नाहीं ग्रहण करें। आगे का है, परद्रव्यकूं ग्रहण करे है सो अपराधी है, बंधन में पडे है । अपराध न करे सो बंधन में न पडे है। आगे अपरा
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धका स्वरूप कया है। आगे शिष्यका प्रश्न है, जो शुद्धमाका ग्रहण करि मोक्ष करा, सो ... 5 आत्मा प्रतिक्रमणादिकरि दोषनितें छूटे है, शुद्ध आत्माका ग्रहण करि कहां होय है ताका 1. उत्तर है, जो प्रतिक्रमणाप्रतिक्रमणते रहित तीसरी अप्रतिक्रमणादिस्वरूप अवस्था शुद्ध आत्मा
हीका ग्रहण है, सो याहीत आत्मा निर्दोष होय है। ऐसें गाथा वीसमें मोक्षाधिकार संपूर्ण किया है। यामें टीकाकारकृत कलशरूप काव्य तेरा हैं।
- आगें सर्वविशुद्धज्ञानरूप आत्माका अधिकार है। तहां प्रथम ही आत्माकै परद्रव्यका कर्ता । 卐 भोक्तापणाका अभाव दिखाया है । तहां पहले तो कापणाका अभाव दृष्टांतपूर्वक चारि गाथामें फ़ कहा है। पीछे कर्तापणा जीव अज्ञानतें माने हैं, सो अज्ञानकी सामर्थ्य दिखाई है गाथा दोयमैं। आर्गे अज्ञानीकू मिथ्यादृष्टि कह्या है गाथा दोयमें । आगें परद्रव्यका आत्माकै भोकापणाकाम भी स्वभाव नाहीं है ऐसे कया है, अर अज्ञानीकू भोक्ता कहा है, गाथा दोयमें। आगे
ज्ञानी कर्मफलका भोक्ता नाहीं हैं ऐसे कया है गाथा दोयमै । आर्गे जे आत्माकू कर्ता । - माने हैं तिनिकै मोक्ष नाहीं है ऐसे तीन गाथामें कहा है। आगें अज्ञानी अपने भाषकर्मका " कर्ता है ऐसें युक्तिकरि साध्या है गाथा चारिमें । आगें आत्माकै कर्तापणा अर अकर्तापणा जैसें है, . म तैसें स्याद्वादकरि साध्या है गाथा तेरामें आगे बौद्धमती ऐसे माने हैं, जो कर्मकू करे और है ॥
भोगवै और है ताका निषेध युक्तिकरि चारि गाथामें कीया है । आगें क कर्मके भेद अभेद जैसें ।। 卐है तैसें नयविभागकरि साध्या है, दृष्टांतपूर्वक गाथासातमें, आगें निश्चयव्यवहारके कथनकू खडीका .. दृष्टांतकरि स्पष्ट कहा है दश गाथा मैं । आगे कहा है, जो रागद्वेषमोहकरि अपना दर्शनज्ञान
चारित्रकाही घात होय है छह गाथामें । आगें कहा है, अन्यद्रव्यकै अन्यद्रव्य किछु करिसके
नाहीं, गाथा एकमैं । आगें कहा है, जो स्पर्श आदि पुद्गलके गुण हैं ते आत्माकू किछु कहै नाही, -"जो हमळू ग्रहणकरि अज्ञानी जीव इनितें वृथा राग, द्वेष, मोह कर है, ऐसे दश गाथाकरि ॐ वर्णन है।
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आगें चारित्रका विधान कया है । तामें ज्ञानयेतनाका तौ अनुभवन अर कर्मचेतना कर्मफलवेतनाका त्याग कैसे करे ताकी रीति कही है गाथा चारिमैं। आगे जो कर्मकूं अर कर्मफलकुं
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5 वेदता संता आपकूं तिलरूप करे है, सो नवीन कर्मकूं बांधे है ऐसें कया है गाथा तीनमें । इहां टीकाकार इस कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाका विधान स्पष्ट किया है। तहां कर्मचेतनाका 5 तो अतीत वर्तमान अनागत कर्मके त्यागके कृत कारित अनुमोदनाके मन वचन कायकरि गुणचास फ गुणवास भंग करि त्यागका विधान दिखाया है। अर कर्मफलचेतनाका त्यागका एकसो अठताली कर्मप्रकृतिनिके नाम लेकर त्यागका विधान दिखाया है। आगे कर्मभावतें ज्ञानकुं 5 5 न्यारा दिखाय अर अब समस्त अन्यव्यतितें न्यारा दिखाया है गाथा पंधरामैं। आगे कहा है, 卐 जो आत्मा अमूर्तिक है, तातें याकै पुगलमयी देह नाहीं है गाथा तीनमैं। आगे कहा, द्रव्यलिंग फ है सो देहमयी है, सो आत्मा के मोक्षका कारण नाहीं है, दर्शनज्ञानवारित्र अपना भाव है, सोही मोक्षका कारण है ऐसें गाथा तीनमें वर्णन है ।
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卐 आगे उपदेश किया है, जो मोक्षका अर्थी दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप मोक्षमार्गविषे ही आत्माकूं 5 प्रो । आगे द्रव्यलिंगहीविवें जे ममय करे हैं तिनिकै मोक्ष नाहीं होय है, ऐसें कहा है। आगे का है, जो व्यवहारय तो मुनि श्रावककै लिंगकूं मोक्षमार्ग कहे है, अर निश्चय काढू
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5 ही लिंगकूं मोक्षमार्ग कहै नाहीं है । आगे इस ग्रंथ पूर्ण किया है, ताका पढनेका अर्थ जाननेका 卐 फलकी गाथा एक कहि ग्रंथ पूर्ण किया है। आगे टीकाकार के वचन हैं, जो इस ग्रंथमैं आत्माकूं ज्ञानमात्र कहि अनुभव कराया, अर आत्मा अनंतधर्मा है, सो स्याद्वादतें साधे है, सो ज्ञानमात्र फ मैं स्याद्वाद विरोव आये, तार्के परिहारके अर्थि तथा एकही ज्ञानमैं उपाय भाव अर उपेयभाव 5 कैसे बने, ताके साधनेके अर्थ स्याद्वादाधिकार अर उपायोपेयाधिकार इस सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार- 5 व्याख्यान किया है। तहां एकही ज्ञानविषै " तत् अतत् । एक अनेक । सत् असत् । नित्य 卐 5 अनित्य" इनि भावनिकै १४ भंगकरि तिनिके १४ काव्य कहि अर स्याद्वादर ज्ञानमात्रभावविषै
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अनेकांतात्मक वस्तुपना दिखाया है अर झाममात्र कहनेका प्रयोजन दिखाया है, जो लक्षणकी
प्रसिद्धिकरि लक्ष्य प्रसिद्ध होय है, तातें ज्ञान लक्षण है, आत्मा लक्ष्य है ऐसा वर्णन है। बहुरि " 卐 एक ज्ञानक्रियाही रूप परिणमति (मिति ) आत्मा, अनंतशक्ति प्रगट है। तिनिमसू सैंतालीस ॥
शक्तिके नाम लक्षण कहे हैं । आगें उपायोपेयभावका वर्णन है, तहाँ आत्मा परिणामी है, तातें । साधकपणा अर सिद्धपणा दोऊ भाव भलेप्रकार बने हैं, ऐसे कहि स्याद्वादकी महिमा करि, इस ॥ समयसार शुद्ध आत्माका अनुभवकी वढाई करि, ग्रंथ पूर्ण किया है। इस सर्वविशुद्धज्ञानके
अधिकारमैं गाथा एकसौ सात है अर कलशरूप काव्य तीयासी ८३ हैं। सर्व अधिकारनिकी : # गाथा चारसौ चौदा ४१४ हैं अर कलशरूप काव्य दोयसौ सतहत्तर हैं २७७ । अब ग्रंथकी - वनिकाका प्रारंभ है। दोहा- समयसार जिनराज है, स्यावाद जिनवैन ।
मुद्रा जिन निरग्रंथता, नमूं करै सब चैन ॥१॥ ___ अयानंतर संस्कृतटीकाकार श्रीमान् अनृतचंद्र नामा आचार्य ग्रंथको आदिके विषे मंगलके : 9 भर्थि इष्टदेवकू नमस्कार करे हैं।
नमः समयसाराय, स्वानुभत्या चकासते।
चित्स्वभावाय भावाय, सर्वभावान्तरच्छिदे ॥१॥ 卐 याका अर्थ-समय कहिये जीव नामा पदार्थ, ताविर्षे सार जो द्रव्यकर्मभावकर्मनोकर्मरहित . शुद्ध आत्मा, ताके अर्थ मेरा नमस्कार होऊ। कैसा है ? 'भावाय' कहिये शुद्ध सत्तारूप
वस्तु है। इस विशेषणकरि सर्वथाअभाववादी जो नास्तिकताका, परिहार है। बहुरि कैसा है!卐 'चिस्वभावाय कहिये घेतनागुणरूप है स्वभाव जाका । इस विशेषणकरि गुणगुणिक सर्वभाभेद .. माननेवाला जो नैयायिक, ताका निषेध है। बहुरि कैसा है ? 'स्वानुमूल्या चकासते कहिये अपनी
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ही अनुभवनरूप क्रिया, ताकरि प्रकाश करता है-आपकू आफ्हीकरि जाने है, प्रगट करे है। इस ।। विशेषणकरि आत्माकू तथा ज्ञानकू सर्वथापरोक्ष ही माननेवाले जे जेमिनीय भह प्रभाकर मतके ।
मीमांसक तिनिका व्यवच्छेद है,तथा ज्ञान अन्यशानकरि जान्याजाय है आप आपकू जाने नाहीं 卐 ऐसें मानते जे नैयायिक तिनिका प्रतिषेध है । बहुरि कैसा है? 'सर्वभावांतरच्छिवे' कहिये सर्व ._ जीव अजीव जे आपतें अन्य चराचरपदार्थ,तिनिकू सर्वक्षेत्रकालसंबंधी सर्व विशेषणनिकरि सहित ' एककाल जाननेवाला है। इस विशेषणकरि सर्वज्ञका अभाव माननेवाले जे मीमांसक आदि .- तिनिका निराकरण है। ऐसे विशेषणनिकरि अपना इष्ट देव सिद्ध करि नमस्कार किया है। '
भावार्थ इहां मंगलके अर्थ शुद्ध आत्माकू नमस्कार किया है, सो कोई पूछे है-इष्टदेवका .. - नाम ले नमस्कार क्यों नहीं किया ? ताका समाधान-जो यह अध्यात्मग्रंथ है, तातें जो इष्ट" देवका सामान्यस्वरूप सर्वकर्मरहित सर्वज्ञ वीतराग शुद्ध आत्माही है। सो समयसार कहने में इष्टप्र देव आयगया, एक ही नाम लेने में अन्यवादी मतपक्षका विवाद करेंहैं, तिनि सर्वका निराकरण विशे
पणनित जनाया । अन्यवादी अपने इष्टदेवका नाम लेहैं, ताका तौ अर्थ बाधासहित है। बहुरि 卐 स्याद्वादी जैनीनिकै सर्वज्ञ वीतराग शुद्ध आत्मा इष्ट है, ताके नाम कथंचित् सर्व ही सत्यार्थ .. संभव है । इष्टदेवकू परमात्मा भी कहिये, परमब्रह्म कहिये, परमज्योति कहिये, परमेश्वर कहिये, म + शिव कहिये, निरंजन कहिये, निष्कलंक कहिये, अक्षय कहिये, अव्यय कहिये, शुद्ध, कहिये, बुद्ध कहिये, - - अविनाशी कहिये, अनुपम कहिये, अच्छेद्य, अभेद्य, परमपुरुष, निराबाध, सिद्ध, सत्यात्मा,चिदानंद, क "सर्वज्ञ, वीतराग, अहंत, जिन, आप्त, भगवान, समयसार इत्यादि हजारा नामकरि कहिये। किछू . म विरोध नाहीं। सर्वथा एकांतवादीनिकै भिन्न नाममें विरोध है । अर्थ यथार्थ समझना ऐसें जानना। दोहा- प्रगटै निज अनुभव करै, सत्ता चेतनरूप।
सर ज्ञाता लरिखकै नमो. समयसार सबभप ॥२॥
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___ आगें सरस्वतीकू नमस्कार करे हैं।
अनन्तधर्मणस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः ।
अनेकान्तमयी मूर्तिनित्यमेव प्रकाशताम् ॥२॥ याका अर्थ-अनेक है अंत कहिये धर्म जामें ऐसा जो ज्ञान तथा वचन तिसमयी मूर्ति है सो । भनित्य कहिये सदा ही प्रकाशतां कहिये प्रकाशरूप होऊ । कैसी है ? अनंत है धर्म जामें ऐसा अर'
प्रत्यक् कहिये परद्रव्यनितें तथा परद्रव्यके गुणपर्यायनित भिन्न अर परद्रव्यके निमित्ततै भये अपने " 卐 विकारनितें कथंचित् भिन्न एकाकार जो आत्मा ताका तत्त्व कहिये असाधारण सजातीय विजा-卐
तीय द्रव्यनित विलक्षण निजस्वरूप ताही पश्यंती कहिये अवलोकन करती है। ग भावार्थ-इहां सरस्वतीकी मूर्तिकं आशीर्वचनरूप नमस्कार किया है, सो लौकिकमें सर- 7 +स्वतीकी मूर्ति प्रसिद्ध है, परतु यथार्थ नाही, तात ताका यथार्थ वर्णन किया है। जो यह सम्यग्ज्ञान ।
है सो सरस्वतीकी सत्यार्थ मूर्ति है, तहां संपूर्णज्ञान तो केवलज्ञान है, जामें सर्वपदार्थ प्रत्यक्ष । 5 प्रतिभासे हैं, सोही अनंतधर्मनिसहित आरमतत्त्व... प्रत्यक्ष देखे है । बहुरि ताहीके अनुसार श्रुत- ... ज्ञान है सो परोक्ष देखे है, तातें यह भी ताहीकी मूर्ति है । बहुरि द्रव्यश्रुत वचनरूप है, सो यह
5 भी ताहीकी मूर्ति है, जाते वचनद्वारकरि अनंतधर्मा आत्माकू यह जनावे है। ऐसें सर्वपदार्थनिके ॥ 1- तत्त्वकू जनावती ज्ञानरूप तथा वचनरूप अनेकांतमयी सरस्वतीकी मूर्ति है, याहीते सरस्वतीका
नाम वाणी, भारती, शारदा, वाग्देवी इत्यादि अनेक कहिये है। अनंतधर्मनिकू स्यात्पदतें एक । धर्मीविय अविरोधरूप साधे है, तातें सत्यार्थ है । अन्यवादी कोई सरस्वतीको मूर्ति अन्यथा थापेज
हैं, सो पदार्थकू सत्यार्थ कहनहारी नाहीं। इहां कोई पूछे-आत्माका अनंतधर्मा विशेषण किया, " ॐ सो ते अनंतधर्म कौन कौन हैं ? तहां कहिये-जो वस्तुमैं सत्पणा, वस्तुपणा, प्रमेयपणा, प्रदेशपणा, 卐
चेतनपणा, अचेतनपणा, मूर्तिकपणा, अमूर्तिकपणा इत्यादि तौ गुण हैं । बहुरि सिनि गुणनिका
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परिणमनरूप पर्याय तीनकालसंबंधी समयसमवर्ती अनंत हैं । बहुरि एकपणा, अनेकपणा, नित्य- 5 पणा, अनित्यपणा, भेदपणा, अभेदपणा, शुद्धपणा, अशुद्धपणा आदि अनेकधर्म हैं, ते सामान्यरूप
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मय तो वचनगोचर हैं, अर विशेषवचनते अगोचर हैं, ते अनंत हैं ज्ञानगम्य हैं । ऐसें आत्मा भी वस्तु है, तामें भी अपने अनंत धर्म हैं । तिनिमें चेतनपणा असाधारण हैं, अन्य अवेतनद्रव्यमें 5 नाहीं । अर सजातीय जीवद्रव्य अनंत हैं, तिनिमें हैं तोऊ अपना अपना जुदाजुदा निजस्वरूपकरि
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का है । जातें द्रव्यद्रव्यनि के प्रदेशभेद हैं, तातें काहूका काहूमें मिलता नाहीं । सो यह चेतन्नपणा अपने अनंतधर्मनिमें व्यापक है, तातें याहीकूं आत्माका तत्त्व का है, ताकूं यह सरस्वतीकी 5 मूर्ति देखे है, अर दिखावे हैं, तातैं या आशीर्वादरूप वचन कया है— जो सदा प्रकाशरूप रहो, 5 सर्वप्राणीका कल्याण होय है ऐसें जानना । आगें टीकाकार इस ग्रंथका व्याख्यान 5 करनेका फलकूं चाहतासंता प्रतिज्ञा करे हैं ।
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परपरिणतिहेतो महनाम्नोऽनुभावादविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषितायाः । मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्तेभवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः
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॥३॥
याका अर्थ - श्रीमान अमृतचंद्र आचार्य कहे हैं, जो इस समयसार कहिये शुद्धात्मा तथा 卐 5 यह ग्रंथ, ताकी व्याख्या कहिये कथनी तथा टीका, ताहीकरि मेरी अनुभूति कहिये अनुभवनकियारूप परिणति, ताके परमविशुद्धि कहिये समस्त रागादिविभावपरिणतिर हित उत्कृष्ट निर्मलता
होऊ । कैसी है यह मेरी परिणति ? परपरिणतिकूं कारण जो मोहनामा कर्म, ताका अनुभाव
कहिये उदयरूप विपाक, तातैं अनुभाव्य कहिये रागादिक परिणाम तिनिको जो व्याप्ति ताकरि 5 निरंतर कल्माषित कहिये मैली है । बहुरि मे कैसा हूं ? द्रव्यदृष्टिकरि शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति हूं ।
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____ भावार्थ-आचार्य कहे हैं, जो शुद्धद्रव्याधिकनयको दृष्टिकरि तो मैं शुद्धचेतन्यमात्र मूर्ति , मय जहूँ। परंतु मेरी परिणति मोहकर्म के उदयके निमित्तकरि मलिन है, रागादिरूप होय रही है।
सो इस शुद्ध आत्माकी कथनीरूप जो यह समयसार ग्रंथ, ताकी टीका करनेका फल यह चाई। महूं, जो मेरी परिणति रागादिकर्ते रहित होयकरि शुद्ध होऊ, मेरे शुद्धस्वरूपकी प्राप्ति होऊ,5 1- अन्य किछु ख्याति, लाभ, पूजादिक नाहीं चाहूं हूं। ऐसें आचार्यनें टीका करनेकी प्रतिज्ञा- ..
गर्भित याका फलकी प्रार्थना करी है। आगें मूलगाथासूत्रकार श्रीकुदकुंदाचार्य, सो ग्रंथकी । आदिविर्षे मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करे हैं।
वंदित्त सवसिद्धे, धुवमचलमणोवमं गईं पत्ते। वोच्छामि समयपाहुड, मिणमो सुयकेवलीभणियम् ॥१॥
वन्दित्वा सर्वसिद्धान्ध्रुधामचलामनौपयां गति प्राप्तान ।
___ वक्ष्यामि समयप्राभृतमिदं श्रुतकेवलिभणितम् ॥ १॥ आत्मख्याति:-अथ सूत्रावतारः वंदित्तु इत्यादि1. अथ प्रथमत एष स्वभावभावभूत्ततया ध्रु घत्वमबलंबमानामनादिभाषांतरपरपरिवृत्तिविश्रांतिवशेनाचलत्वमुपगताम- 1. " खिलोपमानविलक्षणा तमाहात्म्यत्वेनाविद्यमानौरम्यामपवर्गसंज्ञकां गतिमापन्नान् भगवतः सर्वसिद्धान् सिद्धत्वेन । - साध्यस्यात्मनः प्रतिच्छंदस्थानीयान् भारद्रव्यस्तवाभ्यां स्वात्मनि परात्मनि च निघायानादिनिधनश्रुतप्रकाशितत्वेन .
निखिलार्थसार्थसाक्षात्कारिश्रतक्रेवलिप्रणीतत्वेन अतकेवलिभिः स्वयमनुभवद्भिरभिहितत्वेन च प्रमाणतामुपगतस्यास्थ " जज समयप्रकाशकस्य प्राभृताहयस्याहत्त्रवचनावयस्य स्वपरबोरनादिमोहग्रहाणाय भाववाचा द्रव्यवाचा च परिभाषणमुप- 4 क्रम्यते ॥१॥ तत्र तावत्समयएवाभिधीयते--
याका अर्थ-आचार्य कहे हैं, मैं सर्व सिद्धनिळू वंदिकरि, यह समयसार नाम प्राभृत है "ताही कहूंगा। कैसे हैं सिद्ध ? ध्रव अर अचल अर अनौपम्य, इनि तीन विशेषणकरि युक्त गतीकू" + प्राप्त भये हैं । बहुरि कैसा है यह समयप्राभूत ? श्रुतकेवलीनिकार कया है।
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टीकाकारके वचन-- तहां, अथशब्द तो मंगलके अर्थ में है । बहुरि प्रथमत एव कहिये ग्रंथकी 5 आदिही सिद्ध भगवान् हैं, तिनि सर्वहीकू, भावद्रव्यस्तवन कर अपने आत्माविषे अर परके आत्मावि स्थापि करि, इस समय नाम प्राभृतका भाववचन अर द्रव्यवचनकरि परिभाषण जो आत्मा, 卐 आरंभिये है, ऐसें श्रीकुंदकुंदाचार्य कहे हैं। कैसे हैं सिद्ध भगवान् ? सिद्धनामतें साध्य
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5 ताकै प्रतिच्छंदके स्थान हैं, जिनिका स्वरूप संसारी भव्य जीव चितवन करि तिनिसमान अपना 卐 सारूपकं ध्याय तिरिसारिखे होय हैं । बहुरि चारीगति विलक्षण जो पंचमगति मोक्ष, ताही 5 पाइये हैं। कैसी है पंचमगति ? स्वभावतें उपजी हैं, तातें ध्रु वपणाकूं अवलंबे हैं, इस विशेषणकरि वारी गति परिनिमित्ततें होय हैं, तातें ध्रुव नाहीं-विनाशीक है, ताका व्यवच्छेद भया । बहुरि कैसी है ? अनादितें अन्यभाव जे पर, तिनिके निमित्त भई परविषै परिवृत्ति कहिये भ्रमण, ताकी 5 15 विश्रांति कहिये अभाव ताका वशकरि अचलपणाकूं प्राप्त भई है । इस विशेषणकरि चारी गतीकै परनिमित्ततें भया भ्रमण है, ताका व्यच्छेद भया । बहुरि कैसी है ? समस्त जे जगतमें उपमान 5 5 पदार्थ तिनितें विलक्षण अद्भुत माहात्म्यकरि नाहीं विद्यमान है काहूकी उपमा जाकै ऐसी है। इस विशेषण करि चारी गतीकै परस्पर कथंचित् समानयणा पाईये है, ताका व्यवच्छेद भया । 5 बहुरि कैसी है ? अपवर्ग है नाम जाका । इस विशेषणतें धर्म, अर्थ, काम, इनिकं त्रिवर्ग कहिये हैं; सो मोक्षगति इस वर्ग में नाहीं, यातें अपवर्ग नाम पाया है। ऐसी पंचमगतीकूं सिद्ध भगवान् प्राप्त 5 भये हैं ।
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बहुरि कैसा है यह समयप्राभृत ? अन्नादिनिधन जो श्रुत कहिये परमागम शब्दब्रह्म, ताकरि प्रकाशितपणाकरि, बहुरि समस्तपदार्थनिका सार्थ कहिये समूह, ताके साक्षात्करणहारे जे केवली फ भगवान् सर्वज्ञ, तिनिकरि प्रणीतपणाकरि, तथा तिनि केवलीनिके निकटवर्ती साक्षात् सुननेवाले जे श्रुतवली गणधरदेव आप आप अनुभव करते तिनिकरिभाषितपणाकरि प्रमाणताकूं प्राप्त भया है, 5. अन्यवादीनिके आगमकीज्यों छद्मस्थहीका कल्या नाहीं है, जातें अप्रमाण होय । बहुरि समय
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5 सर्वपदार्थ तथा जीव नामा पदार्थ ताका प्रकाशक है । बहुरि अरहंत भगवानका प्रवचन जो समय परमागम ताका अवयव है अंश है। ऐसा समयप्राभृतका मैं अपना अर परका अनादिकालतें भया फ्र जो मोह अज्ञान मिथ्यात्व ताका नाश होनेके अर्थि परिभाषण करूंगा ।
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सूत्र आचार्यनें वक्ष्यामि क्रिया कही, ताका अर्थ टीकाकार वच परिभाषणे 45 धातु परिभाषण अर्थ लेकर कया है, सा याका ऐसा आशय सुचे है, जो चौदहपूर्व में ज्ञानप्रवाद फ नामा छट्टा पूर्व है, तामें बारह वस्तु अधिकार हैं, तिनिमें एक एक वस्तुमै वीस वीस प्रामृत 5 अधिकार हैं, तिनिमें दशमावस्तुमें समय नामा प्राभृत है, ताका परिभाषण आचार्य करें हैं, सूत्र卐 foot दश जाति कही है। तिनिमैं एक जाति परिभाषा भी है, तहां जो अधिकारके यथास्थान 5 अर्थ में सूचै सो परिभाषा कहिये, सो इस समय नामा प्राभृतके मूल सूत्रनिका शब्दनिका ज्ञान तो पहिले बडे आचार्य निकै था, अर तिसके अर्थका ज्ञान आचार्यनिकी परिपाटीके अनुसार क श्रीकुंदकुंद आचार्यको भी था, सो तिनिलें यह समयप्राभृतके परिभाषा सूत्र बांधे हैं । सो तिस प्रातके अर्थ ही सूचे है ऐसा जानना ।
卐 बहुरि मंगल अर्थ सिद्धनि नमस्कार किया अर तिनिका सर्व ऐसा विशेषण किया, सो सिद्ध क 5 अनंत हैं, अन्यमती शुद्ध आत्मा एक कहे हैं, तिनिका व्यवच्छेद जानना । बहुरी संसारीकै शुद्ध आत्मा साध्य है, सो साक्षात् शुद्ध आत्मा सिद्ध है, तिनिकं नमस्कार उचित है । अर काहू 15 इष्टदेवका नाम न लिया ताकी चरचा टीकाकारके मंगलपरी करी है, सो इहां भी जाननी
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बहुरी श्रुतकेवलीशब्दका अर्थ में श्रुत तो अनादिनिधनप्रवाहरूप आगम कह्या, अर केवलीशब्द
5 करि सर्वज्ञ अर परमागमके जाननहारे श्रुतकेवली कहे । तिनितें समयप्राभृतकी उत्पत्ति कही, प्रमाणता कही, अर अपनी ही बुद्धिकल्पित कहनेका निषेध भया, अन्यवादी छद्मस्थ अपनी बुद्धितें 5 पदार्थका स्वरूप जैसेतैसे कह करी विवाद करे हैं सिनिका असत्यार्थपना जनाया । बहुरि अभिषेय, संबंध, प्रयोजन इस ग्रंथके प्रगट ही हैं । अभिषेय तो शुद्ध आत्माका स्वरूप है, अर संबंध ताके 卐
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वाक या ग्रंथ में शब्द हैं तिनिकै वाच्यवाचकरूप है ही, बहुरि प्रयोजन शुद्धात्माका स्वरूपकी
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प्राप्ति होना है। ऐसा प्रथमगाथासूत्रका तात्पर्यार्थ जानना । .
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आगे प्रथमगाथा में समयका प्राभुत कहनेकी प्रतिक्षा करी, तहां आकांक्षा उपजी है, जोसमय कहां ? तहां प्रथम ही समयकूं कहे हैं। गाथा
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जीवो चरित्तदंसणणाणदि तं हि ससमयं जाण । पुग्गलकम्मुवदेसठ्ठिदं च तं जाण परसमयं ॥ २ ॥ जीवश्चरित्रदर्शनज्ञानस्थितस्तं हि स्वसमयं जानीहि ।
पुद्गलकर्मप्रदेशस्थितं च तं जानीहि परसमयम् ॥ २ ॥
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आत्मख्यातिः - योयं नित्यमेव परिणामात्मनि स्वभावे अवतिष्ठमानत्वात् उत्पादन्ययीव्यैक्यानुभूति लक्षणया सत्त - यातुस्यूतदचैतन्यस्वरूपत्वानित्योदितविशदृशिश भिज्योतिरनं तधर्माधिरूढैकधर्मित्वादुद्योतमानद्रव्यत्वः क्रमाक्रमप्रवृत्तवि- 5 45 चित्र भावस्वभावत्वादुत्संगितगुणपर्यायः स्वपराकारावभासनसमर्थत्वादुपात्तवैश्वरूपवैकरूपः प्रतिविशिष्टावगाहगतिस्थितिवर्चनानिमित्तरूपत्वाभावादसाधारणचिद्रूपतास्त्र भावसद्भावाच्चाकाशधर्माधर्मकालपुद्गलेभ्यो भिन्नोऽत्यंतमनंतद्रव्यसंकरोषि स्वरूपा 5 5 दप्रच्यवनाद टंकोत्कीर्णचित्स्वभावो जीवो नाम पदार्थः स समयः । समयत एकत्वेन युगपजानाति गच्छति चेति निरुक्तेः । अयं खलु यदा सकलस्वभावभावनममर्थविद्यासमुत्पादक विवेकज्योतिरुद्गमनात्समस्तपरद्रव्यात्प्रच्युत्य दृशिश क 5 प्तिस्वभावनियत वृचिरूपात्म तचैकत्वगतत्वेन वर्त्तते तदा दर्शनज्ञानचारित्रस्थितत्वात्स्वमेकत्वेन युगपञ्जानन् गच्छंथ स्वसमव इति । यदा त्वनाद्यविद्याकंदली मूलकंदायमान मोहानुवृत्तितया दृशि इतिस्वभावनियतवृत्तिरूपादात्मवच्चात्प्रच्युत्य परद्रव्यप्रत्ययमोहरागद्वेषादिभावैकगतत्वेन वर्त्तत तदा पुलकर्मत्र देश स्थितत्वात्परमेकत्वेन युगपज्जानन् गच्छंश्च परसमय इति प्रतीयते । एवं किल समयस्य द्वैविध्यमुद्धावति ॥ २ ॥ यथैाध्यते
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याका अर्थ- हे भव्य, जो निश्चयकरि जीव है, सो दर्शनज्ञानचारित्रविषै तिष्ठया होय ताहि तू स्वसमय जान । बहुरि पुद्गलकर्म के प्रदेशनिवि तिष्ठया होय ताहि परसमय जान । टीका - जो यह जीवनामा पदार्थ है सो ही समय है । जाते समयशब्दका ऐसा अर्थ है,
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卐 जो-सम् ऐसा तो उपसर्ग है, बहुरि अय गतौ धातु है ताका गमन अर्थ भी है अर ज्ञान अर्थ भी
है, उपसर्गका एकपणा अर्थ है, तातें एककाल जानना अर परिणमना दोऊ क्रिया होय सो समय, सोही जीव नामा पदार्थ है। एकैकाल परिणमै भी है अर जाने भी है, ऐसे दोऊ क्रिया एककाल जाननी । सो कैसा है ? नित्य ही परिणामस्वभावविर्षे तिष्ठनेते उत्पादव्ययधौव्यकी
एकतारूप जो अनुभूति सो है लक्षण जाका ऐसी जो सत्ता, ताकरि अनुस्यूत है-सहित है। इस + विशेषणकरि नास्तिकवादी जीवकी सत्ता माने नाहीं ताका निराकरण भया, तथा सांख्यमती -
पुरुषकू अपरिणामी माने हैं, ताका परिणामस्वभाव कहनेते व्यवच्छेद भया, तथा नैयायिक वैशे । प्रषिकमती सत्ताकू नित्य ही माने हैं, तथा बौद्धमती सत्ताकू क्षणिक ही माने हैं तिनिका उत्पाद- व्ययधौव्यरूप कहनेते निराकरण भया।
बहुरि कैसा है ? चैतन्यस्वरूपपणातें नित्य उद्योतरूप निर्मल स्पष्ट दर्शनज्ञानज्योतिःस्वरूप + है, चैतन्यका परिणामन दर्शनज्ञानरूप है। इस विशेषणकरि सांख्यमती चैतन्यकुं ज्ञानाकारस्वरूप
नाहीं माने हैं, ताका निराकरण भया । बहुरि कैसा है ? अनंतधर्मनिविर्षे अधिरूढ़ तिष्ठथा जो॥ 卐 एकधर्मीपणा तातें प्रगट भया है द्रव्यपणा जाका, अनंतधर्मनिका एकपणा लो ही द्रव्यपणा है।..
इस विशेषणकरि वस्तुकू धर्मनिते रहित माननेवाला बौद्धमती ताका निषेध भया । बहुरि कैसा 卐 है ? क्रमरूप अर अक्रमरूप प्रवते जे अनेअभाव तिस स्वभाषपणातें अंगीकार करे हैं गुणपर्याय । .. जाके । पर्याय तो क्रमवर्ती हैं अर गुण सहवर्ती हैं तिनि• अक्रमरूप कहना। इस विषेशणकरि" पुरुषकू निर्गुण माने ऐसे सांख्यादिक तिनिका निरास है।
बहुरि कैसा है ? अपना अर अन्यद्रव्यनिका आकारके प्रकाशनेवि समर्थपणातें पाया है ... समस्तरूप जामें झलके ऐसा एकरूपपणा जाने, अनेकवस्तुनिका आकार जामें झलके ऐसा एकक ज्ञानका आकाररूप है। इस विशेषणकरि ज्ञान आपहीकू जानै परकून जाने ऐसा एकाकार माननेवालाका तथा आपकून जानै परहीकू जाने ऐसा अनेकाकार ही माननेवालाका व्यवच्छेद।
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9 भया । बहुरि कैसा है ? न्यारे न्यारे द्रव्यनिके गुण जे अवगाहनगतिस्थिति वर्तना हेतुपणा
तथा रूपीपणा तिनिके अभावतें अर असाधारणचैतन्यरूपपणास्वभावके सदावतें अन्यद्रव्य ।। जे आकाश, धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल इनितें भिन्न है। इस विशेषणते एकही ब्रह्मवस्तु । माननेवालाका व्यवच्छेद भया। बहुरि कैसा है ? अनंत अन्यद्रव्यनितें अत्यंत संकर कहिये एकक्षेत्रावगाहरूप होतें भी अपने स्वरूपते न छूटनेते टंकोत्कीर्ण चैतन्यस्वभावरूप है। इस विशेषगत वस्तुस्वभावका नियम जनाया है। ऐसा जीव नामा पदार्थ समय है। सो यह जिस काल' सकलपदार्थ निके स्वभाव भासनेवि समर्थ ऐसी विद्या जो केवलज्ञान ताका उपजावनहारा जो.. भेदज्ञानज्योति ताका उदय होनेरौं समस्त परद्रव्यनितें छुटिकरि दर्शनज्ञानविर्षे निश्चितप्रवृत्तिरूपक
जो आत्मतत्व तिसते एकपणारूप लीन होय प्रवर्ते, तिसकाल दर्शनज्ञानचारित्रवि तिष्टनेतें अपने " स्वरूपकू एकतारूप करि एककाल जानता तथा परिणमता संता स्वसमय कहावे है।
बहुरि जिस काल अनादिअविद्यारूप कंदली है मूल जाका ऐसा कंदज्यौं पुष्ट भया जो मोह, म ताके उदयके अनुसार प्रवृत्तिके आधीनपणाकरि दर्शनज्ञानस्वभावविर्षे निश्चितवृत्तिरूप जो आत्म卐 तख, तातें छुटिकरि, अर परद्रव्य है निमित्त जाकू ऐसा जो मोहरागद्वेषादिभाव तिनिविर्षे एकता-:
रूप लीन होय प्रवर्ते, तिस काल पुद्गलकर्म के प्रदेश जे कार्मणस्कंध तिनिविर्षे तिष्ठनेते, परद्रव्यकू..
आपते एकपणा करि एककाल जाणता तथा रागादिरूप परिणमतासंता, परसमय ऐसा प्रतीतिरूप - कीजिये है । ऐसें इस जीव नामा पदार्थके स्वसमय परसमय ऐसा दोय प्रकारपणा प्रगट होय है।
__भावार्थ-जीव नामा वस्तूकू पदार्थ कह्या, सो पद तो जीव ऐसा अक्षरसमूहरूप है और 卐 इस पदकरि द्रव्यपर्यायरूप अनेकांतात्मकपणा निश्चित कीजिये सो पदार्थ है। सो ऐसा पदार्थ के
उत्पादव्ययधौव्यमयी सत्तास्वरूप है । बहुरि दर्शनज्ञानमयी चेतनास्वरूप है । बहुरि अनंतधर्मस्वरूप.. द्रव्य है । बहुरि द्रव्य है सो वस्तु है । बहुरि गुणपर्यायवान् है । बहुरि स्वपरप्रकाशकज्ञान अनेका-5 काररूप एक है । बहुरि आकाशादिकते भिन्न असाधारण चैतन्यगुणस्वरूप है। बहुरि अन्यद्रव्य...
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5 नितें एक क्षेत्रावगाहरूप तिष्ठे है तोऊ अपने स्वरूपतें नाहीं छूटे है। ऐसा जीव नामा पदार्थ समय है सो यह जब अपने स्वभावविषै तिष्ठे, तब तो स्वसमय है, अर परस्वभाव रागद्वेषमोहरूप 5 होय तिष्ठे तब परसमय है, ऐसें याकै द्विधापणा आवे है ।
आगें आचार्य कहे हैं, जो यह समय के द्विविधपणा सुंदर नाहीं, जातें यह बाधासहित है सो वाघिये है । गाथा
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एयत्तणिच्छयगओ समओ सव्वत्थ सुंदरी लोए । कहाएयत्ते तेण विसंवादिणी होदि ॥ ३ ॥ एकत्वनिश्चयगतः समयः सर्वत्र सुन्दरो लोके ।
बन्धकथा एकत्वे तेन विसंवादिनी भवति ॥ ३ ॥
आत्मख्यातिः—समयशब्देनात्र सामान्येन सर्वएवार्थोऽभिधीयते । समयत एकीभावेन स्वगुणपर्यायान् गच्छतीति 5 निरस्ततः सर्वत्रापि धर्माधर्माकाश कालपुद्गलजीवद्रव्यात्मनि लोके ये यावंतः केऽप्यर्थास्ते सर्वएव स्वकीयद्रव्यांतर्मग्नानंतस्व धर्मचक्रचुं विनोपि परस्परमचुंचतोत्यंत प्रत्ययासत्तावपि नित्यमेव स्वरूपादपर्वतः पररूपेणापरिणभनाद विनष्टानंतव्यक्ति फ स्वाट्टोत्कीर्ण इव तिष्ठतः समस्तविरुद्धाविरुद्धका हेतुतया शश्वदेव विश्वमनुगृहतो नियतमेकत्वनिश्चयगतत्वेनैव सौंदय卐 मापद्यन्ते । प्रकारांतरेण सर्वसंकरादिदोषापत्तेः । एवमेकत्वे सर्वार्थानां प्रतिष्ठिते सति जीवाह्वयस्य समयस्य बंधकथाया एव 15 विसंवादत्वापतिः । कुतस्तन्मूरबुद्गल कर्मप्रदेश स्थितत्वमूलपरसमयोत्पादितमेतस्य द्वैविध्यं । अतः समयस्येकत्वमेवावतिg || ३ || वथैव सुलभत्वेन विभाव्यते
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अर्थ - समय है सो एकत्वनिश्चयविषै प्राप्त है, सो सर्वलोकविषे सुंदर है, तिस कारणकरि
एकत्वविषै अन्य बंधकी कथा है सो विसंवादिनी कहिये निंदा करावनहारी है ।
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टीका - इहां समयशब्दरि सामान्यकरि सर्व ही पदार्थ कहिये । जातें समवशब्दकी ऐसी फ
5 निरुकि है - जो 'समय' कहिये एकीभावकरि अपने गुणपर्यायनिकं प्राप्त होय परिणमे सो समय है । तातें सर्व ही धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल, जीव द्रव्यस्वरूप लोकविदें जे जितने कोई
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पदार्थ हैं, ते सर्व ही अपने द्रव्यविर्षे अंतर्मम जे अपने अनंतधर्म, तिनिके समूहळू चूंवते स्पर्शते हैं,
तोऊ परस्पर अन्यकू अन्य नाहीं स्पर्शते हैं। परि अल्पतनिधान एकाक्षेत्रावसाहरूप तिष्ठे हैं, तोऊ । 'सदाकाल निश्चयतें अपने स्वरूपतें नाहीं चिगते हैं याते पररूप नाहीं परिणमनतें अविनष्ट जे अपनी 卐 व्यक्ति तिनिकरि जैसी टाकीकी उपरी मूर्ति होय तैसे शाश्वत तिष्ठते है । याहीतें विरुद्धकार्य जे!
स्वभावतें:विपरीतकार्य अर विरुद्ध जे स्वभावरूपकार्य, तिनिका हेतुपणाकरि निरंतर समस्त....
परस्पर उपकार करे हैं, परंतु निश्चयकरि एकत्वनिश्चयपणाकं प्राप्त भये ही संदरपणाकं पावे हैं।' 1. जो अन्यत्रकार होय, तौ संकरव्यतिकरादि दोष हैं ते सर्वही आय पडें । ऐसें सर्वपदार्थनिकै भिन्न-1,
भिन्न एकपणा ठहरता संता जीव नामा जो समय, ताके बंधकी कथात विसंवादकी आपत्ति ।। 卐 होय है । काहेत ? जातें बंधकथाका मूल जो पुद्गलकर्म के प्रदेशनिमें तिष्ठना सो ही है मूल जाका, ___ ऐसा जो परसमयपणा, ताकरि उपजाया जीवकै परसमयस्वसमयरूप द्विविधपणा आया है। याते " 卐 समयकै एकपणा ही ठहरे हैं, यह ही सराहने योग्य है।
फ़ भावार्थ-निश्चततै सर्वपदार्थ अपने अपने स्वभावमैं ही तिष्ठते शोभा पावे हैं, यात जीव ... नामा पदार्थकै पुद्गलकर्मके निमित्तरूप अनादित बंधावस्था है, ताकरि याकै विसंवाद उपजे है,। - यातें शोभा न पावे है, तातें निश्चयकरि विचारियो, तो एकपणा ही सुंदर है, याहीते शोभा - "पावे है। ____ आगे कहे हैं, जो यह एकपणाका पावना दुर्लभ है । ताका गाथासूत्र
सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा। एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलभो विभत्तस्स ॥४॥
श्रुतपरिचितानुभूता सर्वस्यापि कामभोगबंधकथा । एकत्वस्योपलंभः केवलं न सुलभो विभक्तस्य ॥ ४ ॥
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7 आत्मख्याति:-इह सकलस्यापि जीवलोकस्य संसारचक्रकोडाधिरोपितस्याश्रांतमनंतद्रव्यक्षेत्रकालभवभावपरावर्तः । - समुपकांतश्रांतरेकत्रीकृतविश्वतया महता मोहग्रहेण गोरिव बाधमानस्य असभोभिततृष्णांतकत्वेन व्यक्तांतराधेरुत्म्यो - . - सम्य मृगतृष्णायमानं विषयग्राममुपरुंधानस्य परस्परमाचार्यत्वमाचरंतो नंतशः श्रुतपूर्वानंतशः परिचितपूर्वाऽनंतशोऽनुभूत• पूर्वाचैकत्वविरुद्धत्वेनात्यंत विसंवादिन्यपि कामभोगानुयला कथा । इदं तु नित्यव्यक्ततयांतः प्रकाशमानमपि कषायचक्रण " सहेकी क्रियमाणत्वादत्यंततिरोभूतं सत्स्वस्थानात्मन्नतगा पणामात्मज्ञानामनामनाम न कदाचिदपि श्रुतपूर्व न कदाचिदपि : परिचितपूर्व न कदाचिदप्यनुभूतपूर्व च निर्मलविवेकालोकविविक्तं केवलमेकत्वं अतएकत्वस्य न सुलभत्वं ।। ४ ॥ अथ । " एतस्य उपदयते- .
अर्थ--सर्व ही लौकके कामभोगसंबंधी बंधकी कथा तो सुननेमें आई है, परिचयमैं आई है, " अनुभवमैं आई है, तातें सुलभ है । बहुरि यह भिन्न आरमाका एकपणा कबहू श्रवणमें न आया, तथा परिचय, न आया, तथा अनुभवमैं न आया, यातें केवल एक यहही सुलभ नाही है।
टीका-इस समस्त ही जीवलोकके कामभोगसंधी कथा है सो एकपणाकरि विरुद्धपणातेंF अत्यंत विसंवाद करावनहारी है, आत्माका अत्यंत बुरा करनहारी है, तोऊ अनंतबार पहले ॥ - सुनने में आई है, बहुरि अनंतवार पहलें परिचयमै आई है, बहुरि अनंतवार पहलै अनुभवमें आई
है। कैसा है जीवलोक? संसार सो ही भया चक्र, ताका क्रोड कहिये मध्य, ताविर्षे आरोपण - किया है स्थाप्या है । बहुरि कैसा है ? निरंतर अनंतवार द्रव्य क्षेत्र काल भव भावरूप परावर्त जो " पलटना तिनिकरि प्राप्त भया है भ्रमण जाकै । बहुरि कैसा है ? समस्तलोककू एकछत्रराज्यकरि के क्शी किया तिसपणाकरि महान् बडा जो भोहरूप पिशाच ताकरि गऊकीज्यों वाह्यमान है, वलध卐 " कीज्यौं वाया है । बहुरि बलात्कारकरि उठी जो तृष्णा सो ही भया रोग, ताके दाहपणाकरि .. 5 प्रगट भई है अंतरंगविर्षे पीडा जाकै। बहुरी मृगकीज्यौं तृष्णाकरि जैसे भाडलीपरी दौडे, तैसें । - उछलि उछलि अर इंद्रियनिका दाह विषयके ठिकाणेकू आपणे करे है । बहुरि कैसा है ? परस्पर ।
आचार्यपणाकू आचरता है, वह वाकू कहिकरि अंगीकार करावे है। यातें कामभोगसंबंधी कथा ॥ - तौ सर्वकै सुलभ है । बहुरि यह भिन्न आमाका एकपणा है सो सदा प्रगटपणाकरि अंतरंगविः ॥
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- प्रकाशमान है, तोऊ कषायके समूहकरि एकरूपसा होय रखा है, तातें अत्यंततिरोभाव होय रह्या
है, आच्छादित है, सो आपके तो अनात्मज्ञपणाकरि कदे आप आप जान्या नाही, अर पर जे ! " आमाके जाननेवाले तिनिके सेवन विना न तो करे सुननेमैं आया, न कदाचित् परिचयमैं आया, ..
न कदाचित् अनुभवमें आया। कैसा है यह ? निर्मल भेदज्ञानरूप प्रकाशकरि प्रगट देखनेमें , 卐 आवै है, तौऊ पूर्वोक्तकारणनिकरि इस भिन्न आत्माका एकपणा पावना दुर्लभ है। .. .. भावार्थ-या लोकमें सर्व ही जीव संसाररूप चक्र चढ़े पांच परावर्तनरूप भ्रमण करे हैं,
तहां मोहकर्मका उदय सो ही भया पिशाच, ताकरि वाहिये है, ताकरि विषयनिकी तृष्णारूप
दाहकरि पीडें, तिसका इलाज इंद्रियनिके विषयनिकू जानि, तिनिपरि दौडे हैं। अर आपसमें " विषयनिहीका उपदेश परस्पर करे हैं, यातें काम कहिये विषयनिकी इच्छा अर भोग कहिये तिनिका
भोगना, यह कथा तौ अनंतवार सुणी, परिचयमै करी, अनुभवमें आई, तातें सुलभ है। बहुरि सर्व ..
परद्रव्यनित भिन्न एक चैतन्यचमत्कारस्वरूप अपना आत्माकी कथा अपने तौ स्वयमेव ज्ञान कदे । 卐याका भया नाही, अर जिनिकै भया, तिनिकी उपासना कदे करी नाहीं। यातें याकी कथा कदे - .. न सुनी, न परिचई, न अनुभवमें आई । ताते याका पावना दुर्लभ भया। 卐 अब आचार्य कहे हैं, इस भिन्न आत्माका एकपणा हम आत्माके पासि ही दिखावे
तं एयत्तविभत्तं दाएहं अप्पणो सविहवण। . जदि दाएज पमाणं चुकिज्ज छलं ण चित्तव्वं ॥५॥
तमेकत्वविभक्त दर्शयेऽहमात्मनः स्वविभवेन ।
यदि दर्शयेयं प्रमाणं स्वलितं छलं न गृहीतव्यम् ॥ ५ ॥ आत्मख्यातिः-इह किल सकलोद्भासिस्यात्पदमुद्रितशब्दब्रह्मोपासनजन्मा समस्तविपक्षोदक्षमातिनिस्तुपयुकयवलं. 1 नजन्मा निर्मलविज्ञानधनांतर्निमग्नपरापरगुरुप्रसादीकृतशुद्धात्मतत्स्वानुशासनजन्मा अनवरतस्यंदिसुन्दरानंदमुद्रितामंदसंवि
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हैं। गाथा
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दात्मकस्वसंवेदनजन्मा च यः कश्चनापि ममात्मनः स्त्रो विभवस्तेन समस्तेनापि यमेकत्वविभक्तमात्मानं दर्शयेहमिति बद्ध-" र व्यक्सायोस्मि । किंतु यदि दर्शयेयं तदा स्वयमेव स्वानुमवप्रत्यक्षंण परीक्ष्य प्रमाणीकर्तव्यं । यदि तु स्खलेयं तदा सुन ' छलग्रहणजागरुकैर्भवितम्यं ॥ ५ ॥ कोऽसौ शुद्ध आत्मेति चेत्
अर्थ-सो आत्मा एकत्वविभक्त है, ताहि मैं अपने आत्माके विभवकरि दिखाऊँ हूं। जै में है - दिखाऊँ तो प्रमाण करना । अर जो कहूं चूक, तो छल नाहीं, ग्रहण करना। " टीका-आचार्य कहे हैं, जो कछु मेरा आत्माका निजविभव है, तिस समस्तकरि यह मैं एकक खविभक्त आत्मा है ताही दिखा है, ऐसा उद्या बांया है। कैसा है मेरा आत्माका निजविभव ? " इस लोकविर्षे प्रगट समस्तक्स्तुका प्रकाश करनहारा अर स्यात्पदकरि चिह्नित जो शब्दब्रह्म ।
कहिये अरहंतका परमागम ताका उपासनाकरि है जन्म जाका । इहां 'स्यात्' ऐसा पदका तो __ कथंचित् अर्थ है, कोई प्रकार कहना । बहुरि सामान्यधर्मकरि जे वचनगोचर धर्म हैं, तिनिका 5 सर्वका नाम पावे है। अर जे केई विशेषधर्म वचनके अगोचर हैं तिनिका अनुमान करावै, ऐसें ॥ .. सर्ववस्तुका प्रकाशक है। यातें सर्वव्यापी कहिये, याहीत अरहंतके परमागमकू शब्दब्रह्म कहिये, ..
तिसकी उत्पत्ति, उपासनाकरि ज्ञानविभव उपज्या है। बहुरि कैसा है ? समस्त जे विपक्ष कहिये, । - अन्यवादीनिकरि ग्रही सर्वथैकांतरूप नयपक्ष, तिनिका क्षोद कहिये निराकरण तिसविर्षे समर्थ " जो अतिनिस्तुष निर्बाध युक्ति ताका अवलंबनकरि है जन्म जाका । बहुरि कैसा है ? निर्मल-" प्र विज्ञानधन जो आत्मा ताविष अंतनिमम जे परमगुरु सर्वज्ञदेव, अपरगुरु गणधरादिकतें लगाय॥
हमारे गुरुपर्यंत, तिनिकरि प्रसादरूप कीया दीया जो शुद्धात्मतत्त्वका अनुशासन अनुग्रहकरि .. 5 उपदेश, तथा पूर्वाचार्यनिके अनुसार उपदेश ताकरि है जन्म जाका । वहुरि कैसा है ? निरंतर " ... झरता आस्वादमै आवता अर सुंदर जो आनंद ताकरि मिल्या हुवा जो प्रचुरसंवेदनस्वरूप जो th स्वसंवेदन, ताकरि है जन्म जाका । ऐसा जो क्यों त्यौं मेरा ज्ञानका विभव है, ता समस्तकरि । कर दिखाऊँ है। सो जो यह दिखाऊँ तो स्वयमेव अपने अनुभवप्रत्यक्षकरि परीक्षा करि प्रमाण ॥
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... करना । बहुरि जो काई अक्षर मात्रा अकार युक्ति आदि प्रकरणनिमैं चिगि जाऊँ, तौ छला.
हणविर्षे सावधान न होना, जाते प्रकरण शास्त्रसमुद्रके बहुत हैं, तातें इहां स्वसंवेदरूप अर्थ प्रधान , है, तातें अर्थको परीक्षा करना।
भावार्थ-आचार्य आगमका सेवन, युक्तिका अग्लंबन परापरगुरुका उपदेश, स्वसंवेदन इनि प्रचारि बातनिकरि उपज्या जो अपना ज्ञानका विभव, ताकरि, एकत्वविभक्त शुद्ध आत्माका स्वरूप ..दिखावे हैं। सो सुननेवाले अपना स्वसंवेदनप्रत्यक्षकरि प्रमाण करो। कहूं कोई प्रकरणमैं चुकू, कतौ तिसमात्र छलग्रहण मति करौ । इहां अपना अपना अनुभव प्रधान है, तिसते शुद्धस्वरूपका ॥ - निश्चय करि ल्यौ, ऐसा कहनेका आशय है। " आगें प्रश्न उपजे है, जो ऐसा शुद्ध आत्मा कौन है ? ताका स्वरूप जान्या चाहिये । ऐसें ॥ 卐 प्रश्नका उत्तररूप गाथासूत्र कहे हैं
णवि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो दु जो भावो। एवं भणति सुद्धा णादा जो सो दु सो चेव ॥ ६॥
नापि भवत्यप्रमत्तो न प्रमतो ज्ञायकस्तु यो भावः ।
एवं भणन्ति शुद्धा ज्ञाता यः स तु स चैव ॥६॥ आत्मख्यातिः–यो हि नाम स्वतःसिद्धत्वेनानादिरनंतोनित्योद्योतिविशदज्योतिर्शायक एको भावः स संसारावस्था卐 यामनादिबंधपर्यायनिरूपणया क्षीरोदकवकर्मयुद्गलैः सममेकत्वेपि द्रव्यस्वभावनिरूपणया दुरंतकषायचक्रोदयवैचित्र्यवशेन
प्रवर्त्तमानानां पुण्यपापनिर्वतकानामुपात्तवैश्वरूप्याणां शुभाशुभभावानां स्वभावेनापरिणमनात्प्रमत्तोऽप्रमत्तश्च न मवस्येप एवा+ शेषद्रव्यांतरभावग्यो भिन्नत्वेनोपास्यमानः शुद्ध इत्यभिलप्यते । न चास्य शेयनिष्ठत्वेन ज्ञायकत्वप्रसिद्धः दायानिकनिष्ठद
हनस्येवाशुद्धत्वं यतो हि तस्यामवस्यायां ज्ञायकत्वेन यो ज्ञातः स स्वरूपप्रकाशनदशायां प्रदीपस्येव कर्तृकर्मणोरनन्यत्वात् 卐 ज्ञायक एव ॥ ६ ॥ दर्शनज्ञानचारित्रवत्वेनाशुद्धत्वमिति चेत्
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____ अर्थ—जो ज्ञायकभाव है, सो अप्रमत्त नाहीं है बहुरि प्रमत्त भी नाहीं है। ऐसें याकू शुद्ध 卐 - कहे हैं। बहुरि जो ज्ञायकभाक्करि जाण्या, सो, सो ही है। अन्य दूसरा कोई नाहीं है।
टीका--जो ज्ञायक एक भाव है, सो आपहीतें सिद्ध है, काहकरि भया नाहीं है। तिसभाव- हरि तो अनादिसत्तारूप है। बहुरि कबहू याका विनाश नाहीं है, ताते अनंत है। नित्य उद्योत
रूप है, तातें क्षणिक नाहीं है। ऐसा स्पष्ट प्रकाशमान ज्योति है। सो संसारको अवस्थामैं - म अनादिबंधपर्यायकी निरूपणाकरि कर्मरूप पुद्गलद्रव्यकरि सहित क्षीरनीरकीज्यों एकपणा होते भी है .. द्रव्यका स्वभावकी निरूपणाकरि देखिये, तब कठिन है मिटना जाका ऐसा जो कषायसमूहका + उदय, ताका विचित्रपणाकार प्रवर्ते जे पुण्यपापके उपजावनहार समस्त अनेकरूप शुभाशुभभाव, + । तिनिके स्वभावकरि नाहीं परिणमे है। ज्ञायकमावते जडभावरूप नाहीं होय है। याते प्रमत्त भी
" नाहीं है, अर अप्रमत्त भी नाहीं है। यह ही समस्त अन्यद्रव्यनिके भावनिकार भिन्नपणाकरि ॥ 4 सेया हुवा शुद्ध ऐसा कहिये है। बहुरि याकै ज्ञेयाकार होनेते ज्ञायकपणा प्रसिद्ध होय है। " जैसे दाहनेयोग्य दाह्य जो इंधन, तिस आकार अग्नि होय है, तातें अग्नीकू दहन कहिये है, तथापि
अग्नि तौ अग्नि ही है, दाहनेयोग्य वस्तु इंधन अग्नि नाहीं है। तैलें ज्ञेयरूप आप नाहीं है, आप .
तौ ज्ञायक ही है । ऐसें तिस शेयकरि किया हुवा भी याकै अशुद्धपणा नाहीं है। जातें ज्ञेयाकार । 卐 अवस्थाविर्षे भी जो ज्ञायकभावकरि जाण्या जो अपना ज्ञायकपणा, सो ही स्वरूप प्रकाशनेकी .. जाननेकी अवस्थामैं भी ज्ञायक ही है, शेयरूप न भया, जातें अभेदविवक्षातें कर्ता तो आप
ज्ञायक, अर कर्म, आपकू जाण्या, सोए दोऊ एक आपही है, अन्य नाहीं है। जैसे दीपक घट-卐 - पटादिककू प्रकाशे है, तिनिके प्रकाशनेकी अवस्थामै भी दीपक ही है, सो ही अपनी ज्योतीरूप " लोय, ताकै प्रकाशनेकी अवस्थामें भी दीपक ही है, किछु अन्य नाही, तैसें जानना।
भावार्थ-अशुद्धपणा परद्रव्यके संयोग” आवे है। तहां जो मूल द्रव्य तौ अन्यद्रव्यरूप होय नाहीं । अर किट परद्रव्यके निमित्तते अवस्था मलिन होय, तहां द्रव्यदृष्टिकरि तौ द्रव्य जो है।
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"सो ही है। अर अवस्थाका दृष्टि पर्यायदृष्टि है, ताकरि देखिये तब मलिन ही दीखे। तैसे नय卐 आत्माका द्रव्यस्वभाव ज्ञायकपणामात्र है, अर ताकी अवस्था पुद्गलकर्मके निमित्तते रागादिरूप
मलिन है । सो यह पर्याय है ताकी दृष्टिकरि देखिये, तब मलिन ही दीखे अर द्रव्यदृष्टिकरि .. 5 देखिये तब ज्ञायकपणा तो ज्ञायकपणा ही है, किछू जडपणा न भया । सो इहां द्रव्यदृष्टिकू प्रधान , .. करि का है। जो प्रमत्त अप्रमत्तका भेद है, सो तो परद्रव्यके संयोगजनितपर्याय है। सो यह 7 अशुद्धता है, सो द्रव्यदृष्टि में यह गौण है, व्यवहार है, अभूतार्थ है, असत्यार्थ है, उपचार है।" - द्रव्यदृष्टि शुद्ध है, अभेद है, निश्चय है, भूतार्थ है, सत्यार्थ है, परमार्थ है। तातें आत्मा ज्ञायक , " है, यामैं भेद नाहीं याते प्रमत्त अप्रमत्त न कहिये । बहुरि ज्ञायक ऐसा भी नाम ज्ञेयके जाननेकरि + कहिये है, तातें शेयका प्रतिबिंब झलके तब, वैशा ही अनुधाव जाये । सो वह भी अशुद्धपणा,
याकै नाहीं कहिये, जातें जैसें ज्ञेय ज्ञानमें प्रतिभास्या, तैसें ज्ञायकहीका अनुभवन करतें ज्ञायक ही 卐 है। यह मैं जाननहारा हं, सो मैं ही हूंदूजा कोई नाहीं है, ऐसा आपका आपकै अभेदरूप अनुभव हुवा, म
तब तिस जाननक्रियाका कर्ता आप ही है, अर जाकू जाण्या सो कर्म भी आप ही है। ऐसे एक
ज्ञायकपणामात्र आप शुद्ध है, यह शुद्धनयका विषय है । अन्य परसंयोगजनित भेद हैं; ते सर्व .. भेदरूप अशुद्धद्रव्यार्थिकनयके विषय हैं । सो शुद्धद्रव्यको दृष्टि में यह भी पर्यायार्थिक ही है, सो 1 व्यवहारनय ही है, ऐसा आशय जानना । । बहुरि इहां ऐसा भी जानना, जो-जिनमतकी कथनी स्थाद्वादरूप है। सो शुद्धता अर " अशुद्धता दोऊ वस्तुधर्म हैं, सो अशुद्धनयकू सर्वथा असत्यार्थ ही मानना। जो वस्तुधर्म है, सो 卐 वस्तुका सत्त्व है, परद्रव्यके संयोगते भये यह ही भेद है। इहां अशुद्धनयकू हेय कह्या है, सोज
अशुद्धनयका संसार विषय है, तामें आत्मा क्लेश भोगवे है, सो आप परद्रव्यतें भिन्न होय, तब .. प्र संसार मिटे, तब क्लेश मिटे, । ऐसें दुःख मेटनेकू शुद्धनयका प्रधान उपदेश है। अर अशुद्धनयकू
असत्यार्थ कहनेतें ऐसा तो न समझना, जो-यह वस्तुधर्म सर्वथा ही नाही, आकाशके फूलकीज्यों के
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का है। ऐसे सर्वथा एकांत समझे मिथ्यात्व आधे है। तातें स्याद्वादका शरण ले शुद्धनयका आलंबन के 4 करना, स्वरूपकी प्राप्ति भये पीछे शुद्धनयका भी अवलंबन नाहीं है, जो वस्तुस्वरूप है, सो है,
यह प्रमाणदृष्टि है, याका फल वीतरागता है। ऐसा निश्चय करना । बहुरि इहां गाथामें प्रमत्त फ़ अप्रमत्त नाहीं है, ऐसें कहा है । सो गुणस्थानकी परिपाटीमें चारणस्थानताई तो प्रमत है, 11- अर सातमति लगा अप्रमत्त है । सो ए सर्व ही गुणस्थान अशुद्धनयकी कथनीमें हैं। शुद्धनयमें
आत्मा ज्ञायक ही है । आगे फोरि प्रश्न उपजे है, जो-दर्शन ज्ञान चारित्र ए आत्माके धर्म कहे - हैं, सो तीन भेद भये, सो इनि भावनिकरि याकै अशुद्धपणा आवे है। ऐसा प्रश्न होते " याका उत्तरका गाथासूत्र कहे हैं। गाथा
ववहारेणुवदिस्सदि, णाणिस्स चरित्तदंसणं णाणं । णविणाणं ण चरित्तं ण दसणं जाणगो सुद्धो॥७॥
व्यवहारेणोपदिश्यते ज्ञानिनश्चरित्र दर्शनं ज्ञानम् ।
नापि ज्ञानं न चरित्रं न दर्शनं ज्ञायकः शुद्धः ॥७॥ 5 आत्मख्यातिः—आस्तां तावबंधप्रत्ययात् ज्ञायकस्याशुद्धत्वं दर्शनचारित्राण्येव न विद्यन्ते । यतीनंत धर्मण्येकस्मिन्
धर्मिणि निष्णातस्यांतेवासिजनस्य तदवबोधायिभिः कैश्विमैस्तमनुशासतां घरीणां धर्मधर्मिणां स्वभावतोऽभेदेपि व्यप-म प्रदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेणेव ज्ञानिनो दर्शनं ज्ञानं चारित्रमित्युपदेशः । परमार्थतस्त्वेकद्रम्पनिम्मीतानंतपर्यायतयैकं
किंचिन्मिलितास्वादमभेदमेकस्वभावमनुभवतो न दर्शनं न शानं न चारित्रं झायक एवैकः शुद्धः ॥ ७॥ तर्हि परमार्थ 卐 एवैको वक्तव्य इति चेद--
___अर्थ-ज्ञानीकै चारित्र, दर्शन, ज्ञान ये तीन भाव हैं, ते व्यवहारकरि उपदेशिये हैं। निश्च । + यकरि ज्ञान भी नाहीं है, चारित्र भी नाहीं है, दर्शन भी नहीं है। ज्ञानी तो एक ज्ञायक ही है,
पाहीतें शुद्ध कहिये।
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टीका-इस ज्ञायक आत्माके बंधपर्यायके निमित्ततें अशुद्धपणा है, सो तौ दूरि हि तिष्ठौ, .. __ याके दर्शन ज्ञान चारित्र हैं ते भी विद्यमान नाही हैं। ज्यात निश्चयकरि अनंतधर्मा जो एक
धर्मी वस्तु, ताकू जानें न जाण्या, ऐसा जो निकटवर्ती शिष्यजन, सात तिस अनंतधर्मस्वरूप .. 4 धर्मीका जनावनहारे जे केई धर्म, तिनिकरि तिस शिष्यजनकू उपदेश करते जे आचार्य, तिनिका ।
धर्मनिके अर धर्मीके स्वभावथकी अभेद है। तौऊ नामथकी भेद उपजाय करि व्यवहारमात्र 卐 हीकरि, ज्ञानीकै दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है ऐसा उपदेश है। बहरि परमार्थते देखिये तब एक"
द्रव्यनें पीये जे अनंतपर्याय, तिसपणाकरि एकज्यौं मिल्या हुवा आस्वादरूप अभेदस्वभाव वस्तूकुंभ
अनुभव करते जे पंडित पुरुष तिनिकै दर्शन नाही, ज्ञान नाहीं, चारित्र नाही, एक ज्ञायक ही है, 1 सो ही शुद्ध है।
भावार्थ-या शुद्ध आत्माकै कर्मबंधके निमित्ततें अशुद्धपणा आवे है, सो तौ दूरि ही रहो। - याकै दर्शन ज्ञान चारित्रका भी भेद नाहीं है, जाते वस्तु है सो अनंतधर्मरूप एकधर्मी है। सोज " व्यवहारी जन धर्मनिहीकू समझे हैं, अर धर्मीकू नाहीं जाने हैं। तातें वस्तूका केई असाधारण ।
धर्मनिळू उपदेशमें लेकरि, ययपि वस्तू अभेद है, तथापि धर्मनिका नामरूप भेदकू उपजाय ऐसा
उपदेश करे हैं ।जो, ज्ञानीके दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है, यह अभेदवि भेद किया, तातें 5 卐 व्यवहार है। परमार्थ विचारिये तब अनंतपर्यायनिकू एकद्रव्य अभेदरूप पीये बैठा है, तातें भेद ... नाहीं। इहां कोई कहै, पर्याय भी तो द्रव्यहीके भेद हैं, अवस्तु ती नाही, ताकू व्यवहार कैसे म कहिये ? ताका समाधान-जो, यह तो सत्य है, परंतु इहां द्रव्यदृष्टिकरि अभेदकू प्रधान करि 1- उपदेश है । तातें अभेददृष्टि में भेद गौण कहें ही, अभेद स्पष्ट दीखे, तातें भेदकू गौणकरि ॥ " व्यवहार कहा है । इहां प्रयोजन ऐसा-जो, भेददृष्टिमें निर्विकल्पदशा होय नाही, अर सरागीके म विकल्प रहै । जेतें रागादिक मिटे नाहीं तातें भेदकू गौणकरि अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव , .- कराया है, वीतराग भये भेदाभेदरूप वस्तूका ज्ञाता होय है तहां नयका आलंबन है नाहीं। आगें ।
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5 फेरि प्रश्न उपजे है, जो, ऐसें है तो एक परमार्थहीका उपदेश क्यों न करिये ? व्यवहार काहे• 5 प, कहना ? ताका उत्तरका गाथासूत्र कहे हैं । गाथा
जह णवि सक्कमणजो अणजभासं विणा दु गाहेहूँ। तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसकं ॥८॥
यथा नापि शक्योऽनार्योऽनार्यभाषां विना तु ग्राहयितुम् ।
तथा व्यवहारेण विना परमार्थोपदेशनमशक्यम् ॥ ८॥ 卐 आत्मख्यातिः—यथा खलु म्लेच्छ स्वस्तीत्यभिहिते सति तथाविधवाच्यवाचकसंबंधामोधवहिष्कृतत्वाम किंचदपिक .. प्रतिपद्यमानो मेप इवानिमेपोन्मपितचक्षुः प्रेक्षत एव । यदा तु स एव तदेतद्भापासंबंधैकार्थनान्येन तेनैव या म्लेच्छमाष म समुदाय स्वस्तिपदस्याविनाशो भवतो भवतित्यभिधेयं प्रतिपाद्यते तदा सधएवोद्यदमंदानंदमयाबृजलझलज्मललोचनपात्र
स्तत्प्रतियत एव । तथा फिल लोकोप्यात्मेत्यभिहि ते सति यथावस्थितात्मस्वरूपपरिज्ञानरहितत्वान किंचिदपि प्रति। पद्यमानो मष इवानिमेवोन्भेषितचक्षुः प्रक्षेत एव । यदा तु म एव व्यवहारपरमार्थपथप्रस्थापितसम्यन्योधमहारथरथिनान्येन - तनेर वा व्यवहारपथमास्थाय दर्शनशानवारित्राण्यततोत्यात्मेत्यात्मपदस्याभिधेयं प्रतिपाद्यते तदा सद्य एवोधदमंदानंदतः " सुन्दरखंधुरखोधतरंगस्तत्प्रतिपद्यत एव । एवं म्लेच्छभापास्थानीयत्वेन परमार्थप्रतिपादकत्वादुपन्यसनोयोऽथ च ब्राह्मणो - न म्लेच्छितव्य इति वचनावधाहारनपो नानुसर्सपः ।। ८ । कथं व्यवहारस्य प्रतिपादकत्वमिति चेत्" अर्थ-जैसे अनार्य कहिये म्लेच्छ है सो म्लेच्छभाषा विना कि वस्तूका स्वरूप ग्रहण करा." " बनेकू असमर्थ हजिये, तैसें व्यवहार विना परमार्थका उपदेश करनेकू समर्थ न हृजिये है।
टीका-जैसे प्रगटपणे कोई म्लेच्छवं काह ब्राह्मण स्वस्ति होऊ ऐसा शब्द कह्या, सो, म्लेच्छ 5 तिस शब्दका वाच्यवाचकसंबंधका ज्ञान बाह्य है, तातें ताका अर्थ किछू भी न पावता संता॥ ... ब्राह्मणकी तरफ मीढाकोज्यों नेत्र उघाडि टिमकारें। विना देखता रह्या जो याने कहा कया, .. +तब तिस ब्राह्मणकी भाषा तथा म्लेच्छकी भाषा वोऊका एक अर्थ जाननेवाला सो ही ब्राह्मण + तथा अन्य कोई तिस म्लेच्छभाषाकू लेकर स्वस्तिशब्दका अर्थ ऐसा कह्या-जो, तेरा अविनाश
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.. कल्याण होऊ, ऐसा याका अर्थ है, तब सो म्लेच्छ तत्काल उपज्या जो बहुत आनंद, तिसमयी गजो अश्रुपात, तिसकरि झलकते भरि आये हैं लोचनपात्र जाके, ऐसा हुवा संता, तिस स्वस्ति-:
शब्दका अर्थ समझे ही है। तैसें ही व्यवहारी है, सोऊ आत्मा ऐसा शब्द कहते संते जैसा .. आत्मशब्दका अर्थ है, ताका ज्ञान बाह्य वतें है । तात याका अर्थ किछू न पावता संता मींढे.. की ज्यों नेत्र उघाडि टिमकारै विना देखताही रहै। अर जब व्यवहारपरमार्थमार्गविर्षे चलाया । है सम्यग्ज्ञानरूप महारथ जाने, ऐसा सारथीसारिखा सो ही आचार्य तथा अन्य कोई आचार्य । व्यवहारमार्गमैं तिष्ठिकरि दर्शनज्ञानवारित्रनिकू निरंतर प्राप्त होय सो आत्मा है, ऐसा आत्मशब्दका अर्थ कहै, तब तत्कालही उपज्या प्रचुर आनंद जामें पाईये ऐसा अंतरंगविर्षे सुन्दर अर बंधुर
कहिये प्रबंधरूप ज्ञानरूप तरंग जाके, ऐसा व्यवहारी जन, सो तिस आत्मशब्दका अर्थ पावै॥ 卐 ही । ऐसें जगत् तो म्लेच्छस्थानीय जानना बहुरि व्यवहारनय म्लेच्छभाषास्थानीय जानना। __ यातें व्यवहारकू परमार्थका कहनहारा मानि स्थापना योग्य है । अथवा ब्राह्मणकू म्लेच्छ न होना 卐 इस वचन व्यवहारनपकू सर्वथा उपादेय ही मानि अंगीकार करना। । भावार्थ-लोक शुद्धनयकू जाने नाही, जाते शुद्धनयका विषय अभेद एकरूप वस्तु है, बहुरि । " अशुद्धनयहीकू जाने है, जाते याका विषय भेदरूप अनेकप्रकार है। तातै व्यवहारके द्वारे ही
शुद्धनयरूप परमार्थकू समझे है । तातें व्यवहारनय परमार्थका कहनहारा जानि, याका उपदेश ।
करे है । इहां ऐसा न जानना, जो व्यवहारका आलंबन करावे है। इहां तो व्यवहारका आलंबन, म छुडाय, परमार्थकू पहुंचा है ऐसा जानना । आगें प्रश्न उपजे है जो, व्यवहारनयकै परमार्थका .. प्रतिपादकपणा कैसे है ? ताका उत्तरका सूत्र कहे है । गाथा
जो हि सुदेणभिगच्छदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं । तं सुदकेवलिमिसिणो भणति लोगप्पदीवयरा ॥९॥
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जो सुदणाणं सव्वं जाणदि सुदकेवलिं तमाहु जिणा । गाणं अप्पा सव्वं जह्मा सुदकेवली तया ॥१०॥
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यो हि श्रुतेनाभिगच्छत आत्मानमिमं तु केवलं शुद्धम् । तं श्रुतलियो भणन्ति लोकप्रदीपकराः ॥ ९ ॥ यः श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति श्रुतकेवलिनं तमाहुजिनाः । ज्ञानमात्मा सर्वं यस्माच्छ्र, तकेवली तस्मात् ॥ १० ॥
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भ्रात्मख्यातिः:--- यः श्रुतेन केवलं शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतीति तावत्परमार्थे यः श्रुतज्ञानं सर्व जानाति स फ 5 श्रुतकेवलीति व्यवहारः । तदत्र सर्वमंत्र तावत् ज्ञानं निरूप्यमाणं किमात्मा किमनात्मा, न तावदनात्मा समस्तस्याप्यनात्मनश्येतनेतरपदार्थपंचतयस्य ज्ञानादात्म्यानुपपत्तेः । ततो गत्यंतराभावाद ज्ञानमात्मेत्यायात्यतः श्रुतज्ञानमप्यात्मैव 5 5 स्यात् । एवं सति यः आत्मानं जानाति स श्रुतकेबलीत्यायाति स तु परमार्थ एव । एवं ज्ञानज्ञानिनो मेदेन व्यपदिश्यता व्यवहारेणापि परमार्थमात्रमेव प्रतिपद्यते न किंचिदप्यतिरिक्तं अथ च यः श्रुतेन केवलशुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीसि 5 परमार्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वाद्यः श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति स श्रुतकेवलीति व्यवहारः परमार्थप्रतिपादकत्वेनात्मानं प्रतिष्ठापयति ॥ ६-१० ॥ कुतो व्यवहारनयो नानुसर्त्तव्य इति चेत्
अर्थ - जो जीव निश्चयकरि श्रुतज्ञानकरि इस अनुभवगोचर केवल एक शुद्ध आत्माकं सन्मुख होयकरि जाने, तिसकूं लोकके प्रगट जाननेवाले ऋषीश्वर हैं ते श्रुतकेवली ऐसा कहे हैं। बहुरि 5 जो जीव सर्वश्रुतज्ञानकूं जाने है, ताकूं जिनदेव श्रुतकेवली कहे हैं। काहतें, जातें ज्ञान है सो सर्व आत्माही है, तातें आत्माही जान्या यातें श्रुतकेवली कहे हैं ।
टीका - जो श्रुतकरि केवल शुद्ध आत्माकूं जाने है सो श्रुतकेवली है, यह तो प्रथम परमार्थ क है | बहुरि जो श्रुतज्ञान सर्वकूं जाने है सो श्रुतकेवली है, यह व्यवहार है। सो इहां परीक्षा दोब पक्षकार कहे है। जो यह कया हुवा सर्व ही ज्ञान आत्मा है कि अनात्मा है ? तहां प्रथमपक्ष 5 लीजिये, जो अनात्मा है तो अनात्मा तौ नाहीं है । जातें समस्त ही जे जड़रूप अनात्मा आका
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.. शादि पांच द्रव्य हैं, तिनिकै ज्ञानते तादात्म्यकी अनुपपत्ति है, तत्स्वरूपपणा बने नाहीं । तातें अन्यसमय पक्षके अभावते ज्ञान है सो आत्मा है, ऐसा दूजा पक्ष आया । याते श्रुतज्ञान भी आत्मा ही है,
ऐसे होते जो आत्माकू जानें है सो श्रुतकेवली है ऐसा हि आबे है, सौ परमार्थही है। ऐसे ज्ञान " अर ज्ञानीभेदकरि कहता जो व्यवहार, तिसकरि भी परमार्थमात्रहि कहिये है, तिसते जुदा ' ' अधिक तौ कछु भी न कहे है। अथवा जो श्रुतकरि केवल शुद्ध आत्माकू जाने है सो श्रुतकेवली ॥ _ है । ऐसें परमार्थका लक्षणके कहेविना कहनेका असमर्थपणा है तातें जो सर्वश्रुतज्ञानकू जाने है । फ़ सो श्रुतकेवली है ऐसा व्यवहार है सो परमार्थ के प्रतिपादकपणेतें आत्माकू प्रतिष्ठारूप करे है, 卐 - प्रगटरूप स्थापे है।
भावार्थ-जो शास्त्रज्ञानकरी अभेदरूप ज्ञायकलात्र शुद्ध आत्मा जाने, सो श्रुतकेबली है, + यह तो परमार्थ है । बहुरि जो सर्वशास्त्रज्ञानकुंजानै सो श्रुतकेवली है, यह ज्ञान है सो ही आत्मा ।
है, सो ज्ञानकू जाण्या सो आत्माहीकू जान्या सोही परमार्थ है, ऐसें ज्ञान ज्ञानीकै भेद कहता । 卐 जो व्यवहार तिसने भी परमार्थ ही कह्या, अन्य तो किछु न कहा। बहुरि ऐसा भी है जो
परमार्थका विषय तौ कथंचित् वचनगोचर नाहीं भी है तातें व्यवहारनय ही प्रगटरूप आत्माकू ॐ कहे हैं ऐसें जानना । आगे फेरि प्रश्न उपजे है, जो पहलै कह्या था जो व्यवहारकू अंगीकार' - न करना । सो जो परमार्थका कहनहारा है, तो ऐसा व्यवहारकू अंगीकार क्यों न करना ? ताका । उत्तरका सूत्र कहे हैंके नीचे लिखी दो गाथाओंकी आत्मख्याति संस्कृत और हिन्दी टोका उपलब्ध नहीं है इसलिये नहीं छापी गई । तात्पर्यवृत्ति टीका मिलती है वह छापी है। ___णाणहमि भावणा खलु कादव्या दंसणे चरित्ते य ।
ते पुण तिण्णिवि आदा तहमा कुण भावणं आदे॥
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ववहारो मृदत्थो, मृदत्थो देसिदो दु सुद्वणओ | भूदत्थमस्सिदो खलु, सम्मादिट्ठी हवदि जीवो ॥११॥ व्यवहारोऽभूतार्थो, भूतार्थी दर्शितस्तु शुद्धनयः ।
भूतार्थमाश्रितः खलु सम्यग्दृष्टिर्भवति जीवः ॥ ११ ॥
आत्मख्यातिः---व्यवहारनयो हि सर्व एवाभूतार्थत्वादभूतमर्थ प्रद्योतयति । तथा हि यथा प्रबलपं कसंवलनतिरोहित5 सहजैकार्थभावस्य पयसोनुभवितारः पुरुषाः पंकपयसोर्विवेकमकुर्वतो बहवोनर्थमेव तदनुभवंति । केचित्तु स्वकर विकीर्णकतकनिपातम त्रोषजनितपंकपयोश्क्तिया स्वपुरुषाकाराविर्भावितसहजैकार्थभावत्वादर्थमेव तदनुभवति । तथा प्रचलकर्मफ संवलनतिरोहितसहजै कज्ञायकभावस्यात्मनोऽनुभवितारः पुरुषा आत्मकर्मणोर्विवेकमकुर्वतो व्यवहारविमोहितहृदपाः प्रयोज्ञाने भावना खलु कर्त्तव्या दर्शने चारित्रे च ।
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तानि पुनः त्रीण्यपि आत्मा तस्मात् कुरु भावना आत्मनि ॥
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तात्पर्यवृत्तिः -- सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रत्रयभावना खलु स्फुटे कर्त्तव्या भवति । पुनखीण्यपि निश्चये नात्मैव यतः
कारणात् तस्मात् कुरु भावनां शुद्धात्मनीति । अथ भेदाभेदरलत्रयभावनाफलं दर्शयति
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जो आदभावणमिणं णिच्चुवजुत्तो मुणी समाचरदि । सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेन ॥
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यः आत्मभावनामिमां नित्योद्यतः मुनिः समाचरति । सः सर्वदुःखमोक्षं प्राप्नोत्यचिरेण कालेन ॥
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तात्पर्यवृतिः -- : - यः कर्ता आत्मभावनामिमां नित्योद्यतः सन् मुनिः तपोधनः समावरित सम्यगाचरति भावयति स
सबदुःखमोक्षं प्राप्नोत्यचिरेण स्तोककालेनेत्यर्थः । इति निश्चयव्यवहाररसत्रयभावनाभावनाफलव्याख्यानरूपेण गाधाद्वयेन
चतुर्थस्थलं गतं । अथ यथा कोपि ब्राह्मणादिविशिष्टोजनो म्लेच्छाप्रतिबोधनकाले एव म्लेच्छभाषां मतेन च शेषकाले 5 तथैव ज्ञानी पुरुषोप्यज्ञानिप्रतिबोधनकाले व्यवहारमाश्रयति न च शेषकाले । कस्मादभूतार्थत्वादिति प्रकाशयति--- 卐
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卐 तमानभाववैश्यरूण तमनुभवति । भूतार्थदर्शिनस्तु स्वमतिनिपाविवशुद्धनयानुबोधमात्रोपजनितात्मकर्मविवेकतया स्वपुरुषा
काराविर्भाक्तिसहजैकनायकस्वभावत्वात् प्रयोतमानकज्ञायकभावं तमनुभवति । तदत्र ये भूतार्थमाश्रयंति तएवं सम्यक् । 卐 पश्यंत सम्यग्दृष्टयो भवंति न पुनरन्ये कतकस्थानीयत्वात् शुद्धनयस्यातः प्रत्यगात्मदर्शिभिर्व्यवहारमयो नानुसव्यः ॥१३॥ अथ च केचित्कदाचित्सोपि प्रयोजनवान् । यतः
अर्थ-व्यवहारनय है सो अभूतार्थ है । बहुरि शुद्धनय है सो भूता है। यह ऋषीश्वर-5 निने दिखाया है। तहां जो जीव भूतार्थ· आश्रित भया है सो जीव निश्चयकरि सम्यग्दृष्टि - होय है।
टीका-व्यवहारनय है सो सर्व ही अभूतार्थ है तातें अविद्यमान असत्य अभूतार्थ है ताहि " प्रगट करे है । बहुरि शुद्धनय है सो एकहीं है सो भृतार्थ है। तातें विद्यमान सत्यरूप अर्थ
प्रगट करे है । सो ही दृष्टांतकरि दिखाये है। जैसे प्रबलकर्दमके मिलनेकरि तिरोहित कहिये ।। आच्छादित भया है स्वाभाविक एक निर्मलभाव जाका ऐसा जो जल ताके पीवनेवाले पुरुष हैं । ते घणे तौ जलका अर कर्दमका भेद नाहीं करते संते तिस जलकू मलिनहीकू पीवै है। बहुरि केई जीव अपने हस्ततें बखेर डारया जो कतक कहिये निर्मली ताकै पटकनेमात्रेकरी ही भया जो कर्दमका अर जलका भेद तिसपणाकरि जामें अपना पुरुषाकार दिखाई है ऐसा प्रगट भया जो5 स्वाभाविक जलस्वभावरूप निर्मलभाव ताहीकू पीवे है। तैसें ही प्रबलकर्मका संवलन कहिये ... मिलना संयोग होना ताकरि आच्छादित भया है स्वाभाविक एक ज्ञायकभाव जाका ऐसा जोक - आत्मा ताकै अनुभव करनेवाले पुरुष हैं, ते आत्माका अर कर्मका भेद नाहीं करते व्यवहारविर्षे ।।
लिमोहित भया है हृदय जिनिका ते प्रगटमान है भावनिका विश्वरूपपणा अनेकरूपपणा जाकै । 卐 ऐसा जो अशुद्ध आत्मा तिसहीकू अनुभवे है । बहुरि भृतार्थ जो शुद्धनय ताके देखनेवाले हैं। तेज
अपनी बुद्धिकरि पातन करी जो शुद्धनय ताकै असनार ज्ञान होनेमात्रकरी भया जो आत्माका "
अर कर्मका भेद, तिसपणाकर अपने पुरुषाकाररूप स्वरूपकरि प्रगट भया जो स्वाभाविक एक) 1- ज्ञायकभाव तिसपणाकरि प्रद्योतमान है, प्रकाशमान है, एक ज्ञायकभाव जाम, ऐसा शुद्ध आत्माकू ...
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+ अनुभवे है । तातें इहां जो पुरुष भूतार्थ जो शुद्धनय ताकू आश्रय करे हैं, तेही सम्यगवलोकन प करते संते सम्यग्दृष्टि होय हैं अन्य जे अशुद्धनयकू सर्वथा आश्रय करे हैं, ते सम्यग्दृष्टि न होय" प्रा
卐 हैं। इहां शुद्धनयके कतकनिर्मलीस्थानीयपणा है । तातें कर्मत भिन्न आत्माके देखनेवालेनिकरिक 1- व्यवहारनय अंगीकार नाहीं करना।
भावार्थ-इझ जावहाननगर्नू अभूतार्थ कहा । अर शुद्धनयकू भूतार्थ का । सो जाका विषय卐 विद्यमान नाहीं होय, असत्यार्थ होय ताकू अभूतार्थ कहिये । सो ऐसा आशय जानना-जो,.
शुद्धनयका विषय अभेद एकाकाररूप नित्यद्रव्य है। याकी दृष्टिमैं भेद दीखे नाहीं। याते दृष्टिमैं , 卐 भेद अविद्यमान असत्यार्थही कहिये । ऐसा तो नाहीं, जो, भेदरूप किछु वस्तुही नाहीं। ऐसा..
मानिये तो वेदांतमतवाले जैसे भेदरूप अनित्यकू देखि अवस्तु मायास्वरूप कहे हैं अर सर्वव्यापक एक अभेद नित्य शुद्धब्रह्मकू वस्तु कहे हैं, तेसै ठहरै। तात सर्वथा एकांतशुद्धनयकी पक्षरूप, मिय्यादृष्टिकाही प्रसंग आवै है । तातें जिनवाणी स्याद्वाद है, प्रयोजनके वशतें नयकू मुख्य" गौणकरी कहे है । तातें इहां ऐसा समझना जो भेदरूप व्यवहारकी तो प्राणीनिकै अनादिहीते॥ पक्ष है। तथा याका उपदेश भी बाहुल्यताकरि सर्वही प्राणी परस्पर करे हैं । जिनवाणीमें व्यव
हारका उपदेश शुद्धनयका हस्तावलम्ब ज़ानि बहुच कीया है परंतु ताका फल संसार ही है। 3 बहुरि शुद्धनयकी पक्ष कदे आई नाही, तथा याका उपदेश भी विरला है। तातै श्री गुरु उपकारी
या शुद्धनयका ग्रहणका फल मोक्ष जाणि याहीका उपदेश प्रधानकरि दिया है, जो शुद्धनय -
भूतार्थ है सत्यार्थ है याकू आश्रयकीये सम्यग्दृष्टि होय है । याकू विनाजाने व्यवहारमैं मग्न है: 4 जेतें:आत्माका ज्ञान श्रद्धानरूप निश्चय सम्यक्त्व नाहीं होय है ऐसा जानना। आगें कहे हैं जो 1यह व्यवहारनय है सो भी केईकनिकू कोई कालविर्षे प्रयोजनवान् है, सर्वथाही निषेधने योग्य -
नाहीं है । जातें ऐसा उपदेश है । गाथा
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सुद्धोसुद्धादेसो णादवो परमभावदरिसीहिं। ववहारदेसिदो पुण जे दु अपरमे हिदा भावे ॥१२॥
शुद्धः शुद्धादेशो ज्ञातव्यः परमभावदर्शिभिः ।
व्यवहारदेशितः पुनयें वपरमे स्थिता भावे ॥१२॥ ____ आत्मख्याति:-ये खलु पर्यतपाकोत्तीर्णजात्यकारीस्वरस्थानीयपरमं भावमनुभवंति तेषां प्रथमद्वितीयाधनेकपाकपरंपरापच्यमानकार्तस्वरानुभवस्थानीयापरमभावानुभवनशून्यत्वाच्छुद्रध्यादेशितया समुद्योतिसास्खलितकस्वभावकभावः । शुद्धनय एवोपरितानेकप्रतिवर्णिकास्थानीयत्वात्परिज्ञायमानः प्रयोजनवान् । अन्ये तु प्रथमद्वितीयाघनेकपाकपरंपरापन्य- .. "मानकासस्वरस्थानीयमयरमं भावमनुभवंति तेषां पर्यतपाकोत्तीर्ण जात्यकार्तस्वरस्थानीयपरमभावानुभवनशून्यत्वादशुद्ध
द्रन्यादेशितयोपदर्शितप्रतिविशिष्टैकभावानेकभावोव्यवहारनयो विचित्रवर्णमालिकास्थानीयत्वात्परिज्ञायमानस्तदात्वे प्रयो- । "जनवान् तीर्थतीर्थफलयोरित्थमेव व्यवस्थितत्वात् । उक्तं च "जइजिणमयं पवज्जह तामा ववहारणिच्छए मुपह । एकेण : + विणा छिज्जा तित्थं अण्णेण उण तच्चं"
_अर्थ-परमभावदर्शी जे शुद्धनयताई पहुंचि श्रद्धावान् भये तया पूर्ण ज्ञानचारित्रवान् भये । प्रतिनिकरि तौ शुद्धका है आदेश कहिये आज्ञा, उपदेश जामें ऐसा शुद्धनय जानने योग्य है। इहां । .प्रकरण शुद्ध आत्माका है, सो शुद्ध नित्य एक ज्ञायकमात्र आत्मा जानना । बहुरि जे पुरुष अप- - 卐 रमभाव कहिये श्रद्धाके तथा ज्ञानवारित्रके पूर्णभावकू नाहीं पहुंचे हैं साधक अवस्थामैं तिष्ठ हैं, ..तिनिकें व्यवहारका देशीपणा है अथवा ते व्यवहारकरि उपदेशने योग्य हैं। 9 टीका-इहां दृष्टांतद्वारकरि कहे हैं, जे पुरुष अंतके पाककरि उतरथा जो शुद्धसुवर्ण तिस" - स्थानीय जो वस्तुका उत्कृष्ट असाधारणभाव तिनिफू अनुभवे हैं । तिनिके प्रथम, द्वितीय अनेक- .. "पाककी परंपराकरि पच्यमान जो अशुद्धसुवर्ण तिसस्थानीय जो अनुत्कृष्टमध्यमभाव तिसके अनु.. प्रभवकरि शुद्धपणातें शुद्धद्रव्यका आदेशीपणाकरि प्रगट कीया है अचलित अखंड एकस्वभावरूप ।
एकभाव जानै ऐसा शुद्धन्य है। सोही उपरि ही उपरिका एक प्रतिवणिका स्थानीयपणातें -
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- जान्याहूया प्रयोजनवान है। बहुरि जे कई पुरुष प्रथम, द्वितीय आदि अनेक पाकको परंपराकरि ग पच्यमान जो वह ही सुवर्ण तिसस्थानीय जो वस्तुका अनुकृष्ट मध्यनभाव ताकू अनुभवे हैं। तिनिके卐
अंतके पाककरी उतरथा जो शुद्ध सुवर्ण तिस स्थानीय वस्तुका उत्कृष्टभाव ताका अनुभवकरि .. शून्यपणातें अशुद्धद्रव्यका आदेशोपणाकरि दिखाया है, न्यारा न्यारा एकभावस्वरूप अनेकभाव। जानें ऐसा व्यवहारनय है। सो ही विचित्र अनेक जे वर्णमाला तिसस्थानीयपणातें जान्याहुवा ।। तिसकाल प्रयोजनवान है, जाते तीर्थ अर तीर्थका फल इनि दोऊनिका ऐसा ही व्यवस्थितपणा । है। तीर्थ तौ जाकरि तरिये ऐसा व्यवहारधर्म । बहुरि जो पार होना सो व्यवहारधर्मका फलक अपना स्वरूपका पावना सो तीर्थफल है । इहां उक्त च गाथा-जो जिगमयं पवजह, ता मा
क्वहार णिच्छये मुयह । एकण विगा छिन्नइ, तित्यं अपगेग उगतवं । अर्थ-आचार्य कहे हैं॥ - जो हे पुरुष हौ ! तुम जो जिनमतकू प्रवर्तावो हौ तौ व्यवहार अर निश्चय इनि दोऊ नयनिकू मति ..
छोडौ। जाते एक जो व्यवहारनय ताविना तो तीर्थ कहिये व्यवहारमार्ग ताका नाश होयगा। 卐 बहुरि अन्येन कहिये निश्चयनय विना तत्वका नाश होयगा।
टीका-लोकमैं सोनाके सोलहवान प्रसिद्ध है। तहां पंवरहबानताई तो तामैं चूरी आदि +परसंयोगकी कालिमा रहे है। तेतें अशुद्ध कहिये हैं। बहुरि ताव देते देते अंतका तावतें उतरे तव ॥ 1 सोलहवान शुद्ध सुवर्ण कहावै है। तहां जिनिकै सोलहवानका सुवर्णका ज्ञान श्रद्धान तथा प्राप्ति .. " भई तिनिकै तौ पंधरैवानताई का किछु प्रयोजनवान् है नाहीं। बहुरि जिनिकै सोलहवानका शुद्ध । 4 सुवर्णकी प्राती जेते न होय तेते पंधरेवानताईकाभी प्रयोजवान् है। तैसँही यह जीवनामा - " पदार्थ है सो पुद्गलके संयोगमैं अशुद्ध अनेकरूप होय रह्या है। ताका सर्वपरद्रव्यतें भिन्न एक ज्ञायक卐 मात्रका जिनिकै ज्ञान श्रद्धान तथा ताका आचरणरूप प्राप्ति भई, तिनिकै तौ पुद्गलसंयोगजनित 1- अनेकरूपपणाके कहनहारा जो अशुद्धनय सो किछू प्रयोजनवान् है नाहीं। बहुरि जेते शुद्धभावकहीकी प्राप्ती न भई तेतें जेती अशुद्धनयकी कथनी है तेती यथोपदवी प्रयोजनवान है। तहाँ जेते ,
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पर यथार्थज्ञानश्रद्धानको प्राप्तीरूप सम्यग्दर्शनको प्राति न भई होय, तेते तो यथार्थ उपदेश जिनितें
"पायीये ऐसें जिनवचनका सुनना, धारना तथा जिनवचनके कहनेवाले श्रीजिनगुरु तिनिकी भक्ति 卐 जिनबिंबका दर्शन इत्यादि व्यवहारमार्ग में प्रवर्तना प्रयोजनवार है। .. बहुरि जिनिके श्रद्धान, शान तो भया अर साक्षात्प्राप्ति न भई तेतें पूर्वोक्तकार्यभी अर जपरद्रव्यका आलंबन छोडनेरूप अणुव्रत महावतका ग्रहण तथा समिति गुप्ति पंचपरमेष्ठीका ध्यान- + - रूप प्रवर्तना तथा तैसें प्रवर्त्तनेवालेकी संगति करना विशेषज्ञान करनेकू शास्त्रनिका अभ्यास "करना इत्यादि व्यवहारमार्गविर्षे आप प्रर्वतना अर अन्य प्रवर्त्तावना ऐसा व्यवहारनयका उपदेश'
तथा अंगीकार करना प्रयोजनवान् है। बहुरि व्यवहारनय कथंचित् असत्यार्थ कहनेते सर्व सत्यार्थ "जानि छोडें तौ शुभोपयोगरूप व्यवहार छोडे अर शुद्धोपयोगकी साक्षात् प्राप्ती न भई तातें : 卐 अशुभोपयोगहीमें उलटा आय भ्रष्ट हुवा सन्ता यथाकचित् स्वेच्छा प्रवर्ते तव नरकादिगति प्राप्त ।. होय परंपरा निगोद प्राप्त होय संसारहीमें भ्रमै। तात साक्षात् शुद्धनयका विषय जो शुद्ध 卐 आत्मा ताकी प्राप्ति न होय तेते व्यवहारभी प्रयोजनवान है। ऐसा स्याद्वादमत में श्री गुरुनिका 1- उपदेश है । इस अर्थका कलशरूप काव्य टीकाकारका कह्या है।
मालिनीछन्दः उभयनयविरोधध्यंसिनि स्यापदांके, जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः ।
सपदि समयसारं तं परंज्योतिरुच्चै, रनवमनयपक्षाक्षुष्णमीक्षत एव ॥१॥ 卐 अर्थ-निश्चयव्यवहाररूप जे दोय नय तिनिके विषयके भेदतें परस्पर विरोध है, तिस ॥
विरोधका दूर करनहारा स्यात्पदकरि चिन्हित जो जिनभगवानका वचन तिसविर्षे जे पुरुष रमे हैं .... ॐ प्रचुरप्रीतिसहित अभ्यास करे हैं ते स्वपं कहिये स्वयमेव विनाकारण आपआप वम्या है मोह कहिये 5 1. मिथ्यात्वकर्मका उदय जिनि ते पुरुष इस समयसार जो शुद्ध आत्मा अतिशयरूप परमज्योति
प्रकाशमान ताहि शीघ्र ही अवलोकन करे हैं। कैसा है समयसार ? अनव कहिये नवीन उपज्या ।
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नाहीं है, कर्म आच्छादित था सो प्रगट व्यक्तिरूप भया है । बहुरि कैसा है ? अन्य जो सर्वथा
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एकांतरूप कुनय ताकी पक्षताकरि अक्षुण्ण कहिये खंडया न जाय है निर्वाध है ।
भावार्थ – जिनदचन स्याद्वादरूप है । सो जहां दोय नयकै विषयका विरोध है, जैसे-सदूप
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होय सो असद्रूप न होय, एक होय सो अनेक न होय, नित्य होय सो अनित्य न होय, भेदरूप फ होय सो अभेदरूप न होय, शुद्ध होय सो अशुद्ध न होय इत्यादि नयनिके विषयनिवि विरोध 卐 है। तहां जिनवचन कथंचित् विवक्षात सत् असद्रूप, एक अनेकरूप, नित्य अनित्यरूप, भेद अभेदरूप शुद्ध अशुद्धरूप जैसें विद्यमान वस्तु है तेसें हिकरे विशेष पिरे है, झूठो कल्पना नाहीं करे 5 है । तातें द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक दोय नय प्रयोजन के बरातें शुद्ध द्रव्यार्थिक मुख्यकरी निश्चय कहे हैं । अर अशुद्ध द्रव्यार्थिकरूप पर्यायार्थिककूं गौणकार व्यवहार कहे हैं। ऐसें जिनवचनविष 5 15 जे पुरुष रमे हैं ते इस शुद्ध आत्माकूं यथार्थ पावे हैं । अन्य सर्वथैकान्ती सांख्यादिक नाहीं पावे हैं। जातै सर्वथा एकान्तपक्षका वस्तु विषय नाहीं । एक धर्ममात्रही ग्रहणकर वस्तुकी असत्य कल्पना करे हैं । सो असत्यार्थही है, बाधासहित मिथ्यादृष्टि है ऐसें जानना । ऐसें बारह गाथामें पीठबन्ध है । आगें आर्य शुद्धनयकूं प्रधानकरि निश्arararaar स्वरूप कहे हैं । जातें 卐
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अशुद्धनय
जो व्यवहारनय ताकी प्रधानता में जीवादितत्त्वनिका श्रद्वानकूं सम्यक्व का है।
तहां तिनही जीवादिककं भूतार्थ जो शुद्धनय तिसकरि जाने सम्यक्त्व होय है ऐसें कहे हैं । तहां 卐 टीकाकार ताकी सूचनिकारूप तीन काव्य कहे हैं । तिनिमैं पहले काव्यमें कहे हैं जो व्यवहार
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5 नयकूं कथंचित् प्रयोजनवान् कह्या तौऊ यह कछू वस्तूभूत नाहीं है ।
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मालिनी छन्दः
व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदव्यामिह निहितपदानां हन्त हस्तावलंबः ।
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तदपि परममर्थं चिचमत्कारमात्रं परविरहितमन्तः पश्यतां नैप किंचित् ॥ २ ॥
अर्थ — व्यवहारनय है सो यद्यपि इस पहिली पदवी जो शुद्धस्वरूपकी प्राप्ति जेतें न होय
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तें तिविष स्थाप्या है अपना पद जानें ऐसे पुरुषनिकूं हस्तावलंवतुल्य कया । सो "हन्त " कहिये यह बड़ा खेद है । तथापि जे पुरुष चैतन्यचमत्कारमात्र परम अर्थ शुद्धनयका विषयभूत 5 परद्रव्य भावनिसं अतरङ्गविरहित जवलोकन करे हैं, ताका श्रद्धान करे हैं, तथा तिसस्वरूपलीन होय चारित्रभावकूं प्राप्त होय हैं । तिनिकैं यह व्यवहारनय किमी प्रयोजनवानू नाहीं है । 卐 भावार्थ- शुद्धस्वरूपका ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरण भये पोछें अशुद्धनय किछूभी प्रयोजनकारी नाहीं है । अब दूसरा काव्यमैं निश्वयसम्यक्त्वका स्वरूप कहे हैं।
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शार्दूलविक्रीडित छन्दः
एकत्वे नियतस्य शुद्धनषतो व्यार्यस्यात्मनः पूर्णज्ञानयनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् । सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं तन्मुक्ला नायसन्ततिमिमामात्मायमेकोऽस्तु नः ॥३॥ अर्थ -- जो इस आत्माका अन्यद्रव्यनितें न्यारा देवरा श्रद्वान करना सोही यहू नियमतें सम्यग्दर्शन है । कैसा है आत्मा ? अपने गुणपर्याय निचिषै व्यापनेवाला है । बहुरि कैसा है ? करणाविषे निश्चित कीया है। बहुरि कैसा है ? पूर्ण ज्ञानवन है । बहुरि जेता यह फ सम्यग्दर्शन है तेताही आत्मा है । तातें आचार्य प्रार्थना करे हैं जो इस तस्वको परिपाटीकूं छोडि यह आत्माही हमारे प्राप्त होहू ।
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भावार्थ - सर्व जे स्वाभाविक तथा नैमित्तिक अपनी अवस्थारूप गुणपर्यायभेद तिनिमैं व्यापनेवाला जो यह आत्मा शुद्धपकरि एकपणाविषै निश्चित कोया, शुद्धयतें ज्ञायकमात्र एक
5 आकार दिखाया, ताका सर्व अन्यद्रव्य अर अन्यद्रव्यनिके भाव तिनितें जो न्यारा देखना श्रद्धान करना सो यह नियम सम्यग्दर्शन है। व्यवहारनय आत्माका अनेकभेदरूप कहि सम्यग्दन 5 अनेकभेदरूप कहे हैं तहां व्यभिचार आवै, या नियम न रहै। शुद्वनयकी हद पहुंचे व्यभिचार क
नाहीं है, तातें नियमरूप है । कैसा है ? शृद्वनयका विषयभूत आत्मा पूर्णज्ञानवन है। सर्व 卐 5 लोकालोकका जानवद्वारा जानस्वरूप है । बहरि याका श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन है । सो किछु
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कन्यारा पदार्थ नाही है आत्माहीका परिणाम है। तातें आरमाही है, तातें सम्यग्दर्शन है सोही , + आत्मा है, अन्य नाहीं है।
___ भावार्थ-इहां एता और जानना, जो नय है ते श्रुतप्रमाणके अंश हैं यातें यह शुद्धन्य है सोऊ श्रुतप्रमाणहीका अंश है। अर श्रुतप्रमाण है सो परोक्षप्रमाण है, वस्तुकू सर्वज्ञके आगमके वचनते जान्या है। सो यह शुध्दनय है सो यह परोक्ष सर्वव्यनित न्यारा असाधारण चैतन्यधर्म सर्व आत्माकी पर्यायनिवि व्यात पूर्ण चैतन्य केवलज्ञानरूप सर्व लोकालोकका जाननहारा दिखावै । तिसकू यह व्यवहारी छद्मस्थजीव आगमकू प्रमाण करि पूर्ण आत्माकाश्रद्धान करै सोही श्रद्धान निश्चयसम्यग्दर्शन है। जेते व्यवहारन्यके विषयभूत जीवादिकभेदरूप तत्वनिका केवल , श्रद्धान रहै, तत निश्चयसभ्यग्दर्शन नाही, यातें आचार्य कहे हैं, जो इस तत्त्वनिकी सन्तति परि-..
पाटीकू छोडिकरि यह शुध्दनयका विषयभूत एक आत्मा है सोही हमकू प्राप्त होऊ अन्य किछु न 卐 चाहे हैं। यह वीतराग अवस्थाकी प्रार्थना है, किछु नयपक्ष नाहीं है। जो सर्वथानयनिका पक्ष
पात होऊही करे तो मिथ्यात्वही है। इहां कोई पूछे यह अनुभवमैं चैतन्यमात्र तो नास्तिकविना 5 सर्वही मतके आत्माकू माने हैं, सो एताही श्रद्धानकू सम्यक्त्व कहिये तो सर्वहीकै सम्यक्त्व ठहरै ... तातें सर्वज्ञकी वाणीम जैसा पूर्ण आत्माका स्वरूप कया है तैसा श्रद्धान भये निश्चयसम्यक्त्व होय
है। अब तीसरा काव्यमें कहे हैं जो सूत्रकार आचार्य ऐसे कहे हैं जो याके आगे शुद्धनयके फ़ प, आधीन जो सर्वद्रव्यनितें भिन्न आत्मज्योति है सो प्रगट होय है।
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अतः शुद्धनयाय, प्रत्यग्ज्योतिश्वकास्ति तद् ।
नयतवगतत्वेऽपि, यदेकत्वं न मुञ्चति ॥३॥ अर्थ-इहातें आगें जो शुद्धनयके आधीन भिन्न आत्मज्योति है सो प्रगट होय है। जो नव-卐 तत्त्वमें गत होय रहा है, तोऊ आपना एकपणाकू नाहीं छोडे है।
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भावार्थ-जो नवतत्त्वमें आत्मा प्राप्त हुवा अनेकरूप वीखे है, सो याका भिन्नस्वरूप विचारिये तो अपना चैतन्यचमत्कारमात्र ज्योतिकू छोडे नाही है, सोही शुद्धनयकरि जाणिये है सोही सम्यक्त्व है। ऐसे सूत्रकार गाथामैं कहे हैं। गाथा
भूदत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्यपावं च । आसवसंवरणिज्जरवन्धोमोख्खो य सम्मत्तं ॥१३॥
भूतार्थेमाभिगता जीवाजीव च पुण्यपापं च ।
आस्रक्संवरनिर्जरा बन्धो मोक्षश्च सम्यक्त्वम् ॥१३॥ ___ आत्मख्यातिः–अमूनि हि जीवादीनि नवतत्वानि भूतार्थेनाभिगतानि सभ्यग्दर्शनं सपद्यंत एवामीषु तीर्थप्रवृत्ति-म निमिचमभूतार्थनयेन न्यपदिश्यमानेषु जीवाजीवपुण्यपापासवसंबरनिर्जराबंधमोक्षलक्षणेषु नघतत्वेष्वेकत्वद्योतिना भूतार्थ-... नयेनैकत्वमुपानीय शुद्धनयत्वेन व्यवस्थापितस्यात्मनोनुभूतरात्मत्यातिलक्षणायाः संपद्यमानत्वाचतो चिकार्यविकारकोभयं 5 पुण्यं तथा पापं । आसान्यास्रावकोभयमासवः, संवार्यसंवारकोभयं संवरः निर्जनिर्जरकोभयं निर्जरा बंध्यबंधकोभयं . बंधः मोच्यमोचकोमयं मोक्षः । स्वयमेकस्य पुण्यपापानवसंवरनिर्जराबंधमोक्षानुपपत्तेः । तदुभयं च जीवाजीवाविति ॥ चहिया नवतच्चान्यमूनि जीवपुद्गलयोरनादिबंधपर्यायमुपेत्यैकत्वेनानुभूयमानतायां भृतार्थानि अथवैकजीवद्रव्यस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थानि। ततोऽमीषु नवतत्त्वेषु भूतार्थनयेनैको जीव एवं प्रद्योतते । नथांत प्या ज्ञायको भावो 5 जीवो जीवस्य विकारहेतुरजीवः केवलजीवविकाराच पुण्यपापासवसंबरनिर्जराबंधमोक्षलक्षणाः । केवलाजीवविकारहेतवः । पुण्यपापानवसंवरनिर्जराबंधमोक्षा इति । नवतत्वान्यमून्यपि जीवद्रव्यस्वभावमपोध स्वपरप्रत्ययकद्रव्यपर्यापत्वेनानुभूप-卐 मानतायां भृतार्थानि अथ च सकलकालमेवास्वलंतमेकं जीवद्रव्यस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभृतार्थानि । ततोऽमीष्वपि ... नवतत्वेषु भूतार्थनयेनैको जीव एव प्रद्योतते एवमसावेकत्वेन द्योवमानः शुद्धनयत्वेनानुभूपतऐव । यात्वनुभूतिः सात्मख्यातिरेवात्मख्यातिस्तु सम्यग्दर्शनमेवेति समस्तमेव निरवा । ____ अर्थ-भूतार्थनयकरि जान्या हवा जीव, अजीव बहुरि पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, ।
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टीका-जीवादिक नवतत्त्व हैं ते भूतार्थनयकरि जाणेसंते सम्यग्दर्शनही है यह नियम कह्या । जाते ये नवतत्त्व जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्त्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष है लक्षण जिनिका ऐसे तीर्थ जो व्यवहारधर्म ताकी प्रवृत्तिके अर्थ अभूतार्थनय जो व्यवहारनय ताकरि कहे हुये हैं। तिनिविर्षे एकपणा प्रगट करनहारा जो भूतार्थनय ताकरि एकपणाकू प्राप्त करी शुद्धपणाकरी स्थाप्या जो आत्मा ताकी आत्मख्याति है लक्षण जाका ऐसी अनुभूतिका प्राप्तपणा ॥ है। शुद्धनयकरि नवतत्त्वकू जाणे आत्माकी अनुभूति होय है इस हेतुतें नियम है । तहां विकार्य जो विकारी होनेयोग्य अर विकार करनेवाला विकारक एक दोऊ तौ पुण्य हैं। बहुरि ऐसेही विकार्य विकारक दोऊ पाप हैं। बहुरि आस्त्राव्य कहिये आस्रव होनेयोग्य अर आस्रावक कहिये आस्रव ।।
करनेवाला ए दोऊ आस्रव हैं। बहुरि संवार्य कहिये संवररूप होनेयोग्य अर संवारक कहिये 卐 संवर करनेवाला ए दोऊ संवर हैं। बहुरि निर्जरनेयोग्य अर निर्जरा करनेवाला ए दोऊ निर्जरा ,
हैं। बहुरि बन्धनेयोग्य अर बन्धनकरनेवाला ए दोऊ बन्ध हैं। बहुरि मोक्ष होनेयोग्य अर मोक्ष करनेवाला ए दोऊ मोक्ष हैं । जाते एकहीके आपहीतें पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध मोक्षकी उपपत्ति बने नाहीं। ____ बहुरी ते दोऊ जीव अर अजीव हैं ऐसे ए नवतत्त्व हैं। इनिळू बाह्यदृष्टिकरि देखीये तब 5 जीवपुद्गलकी अनादिबन्धपर्यायकू प्राप्तकरि एकपणाकरि अनुभवन करते सन्ते तो ए नवही भूतार्थ । हैं सत्यार्थ हैं। बहुरि एक जीवद्रव्यहीका स्वभावकू लेकर अनुभवन करते सन्ते अभूतार्थ हैं।
असत्यार्थ हैं। जीवके एकाकार स्वरूपमें ये नाही हैं । तातें इनिका तत्त्वनिविर्षे भृतार्थनयकरिए __ जीव एकरूपही प्रकाशमान है, तैसें ही अन्तष्टिकरि देखीये तब ज्ञायकभाव तो जीव है। बहुरि
जीवकै विकारका कारण अजीव है । बहुरि पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष है 卐 लक्षण जाका ऐसा केवल एकला जीवका विकार नाहीं है। बहुरि पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, .. निर्जरा, बन्ध, मोक्ष ये सात केवल एकला अजीवके विकारतें जीवके विकारकू कारण हैं। पेमें
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1- ये नवतत्त्व है ते जीवद्रव्यका स्वभावकू छोडिकरि आप अर पर है कारण जाकू ऐसा एक द्रव्य- 5 - पर्यायपणाकरि अनुभवन करते सन्ते तो भूतार्थ हैं । बहुरी सर्वकालमैं नाहीं चिगता एक जीव-"
द्रव्यका स्वभावकू लेकरि अनुभवन करते संते ए अभूतार्थ हैं असत्यार्थ हैं। तातें इनि नवतत्त्वनि" वि भूतार्थनयकरि देखीये तब जीव हे सो तौ एकरूपही प्रकाशमान है ऐसें यह जीवतत्त्व एक+ पणाकरि प्रगट प्रकाशमान हुवा सन्ता शुद्धनयपणाकरि अनुभवन कीजिये है । सो यह अनुभवन
है सो आत्मख्याति है आत्माहीका प्रकाश है । बहुरि आत्मख्याति है सोही सम्यग्दर्शन है। ऐसे 9 यह समस्त कहना निर्दोष है बाधारहित है। . भावार्थ-इनि नवतत्त्वनिकेविर्षे शुद्धनयकरि देखिये तब जीव है सो एक चैतन्यचमत्कार
मात्रही प्रकाशरूप प्रगट है । इसविना न्यारेन्यारे नवतत्त्व देखिये तो किछु है नाहीं। जबताई " - ऐसे जीवतत्त्वका जाणपणा नाही, तबताई व्यवहारदृष्टिमैं है। न्यारेन्यारे नवतत्त्वनिकू माने हैं।
जोवपुद्गलकी बधार्यायरूप दृष्टिकरि न्यारे न्यारे सत्यार्थ दीखे हैं। बहुरी जब जीवपुद्गलका निजस्वरूप न्यारान्यारा शुद्धनयकरि देखीये तब ये पुण्यपाप आदि सात तत्त्व किभी वस्तु नाहीं ॥ "दीखे हैं। निमित्तनैमित्तिकमावतें भये थे सो निमित्तनैमित्तिकभाव मिटै । जीवपुद्गल न्यारेन्यारे फ़ होय तब किछू वस्तु न रहै । वस्तु तो द्रव्य है, सो द्रव्य के निजभाव तौ द्रव्यकी लार है अर
नैमित्तिकभावका तौ अभावही होय, तातें शुद्धनयकरि जीवकू जान्या हुवा ही सम्यम्हष्टिको 卐 प्राप्ति करे है, न्यारे न्यारे जाने जेते आत्माकू जान्या नाही पर्यायबुद्धि है। इहां इस अर्थका + कलशरूप काव्य है।
मालिनीछन्दः चिरमिति नवतच्यछन्नमुन्नीयमानं, कनकनिव निमग्नं वर्णमालाकलापे ।
अथ सततविविक्तं दृश्यतामकरूपं, प्रतिपदमिदमात्मज्योतिस्थोतमानम् ॥ ४ ॥ ॥ ऐसें नवतत्त्वनिविर्षे बहुतकालतें छिप्या हुवा यह आत्मज्योति शुद्धनयकरि निकासि प्रगट 5
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कीहैया, जैसें वर्णकी माला के समूहमें सुवर्णका एकाकार छिप्याकूं निकासे तैसे, सो अब भव्यसमग्र जीव याकों निरन्तर अन्यद्रव्यनितें तथा तिनितें भयो नैमित्तिकभावनितें भिन्न एकरूप अवलोकन करो । यहू पदपदप्रति कहिये पर्यायपर्यायप्रति एकरूप चिचमत्कार मात्र उद्योतमान है ।
भावार्थ - यह आत्मा सर्व अवस्थामै नानारूप दीखे था, सो शुद्धनय एक चैतन्यचमत्कारमात्र 5 दिखाया है । सो अब सदा एकाकारही अनुभवन करो पर्यायबुद्धिका एकान्त मति राखो यह श्रीगुरुनिका उपदेश है । अब टीकाकार फेरि कहे हैं, जो जैसें नवतत्वमें एक जीवहीका जानना क भूतार्थ का, तेही एकपणाकरि प्रकाशमान जो आत्मा ताका अधिगमके उपाय ये प्रमाणनयनिक्षेप हैं तेभी निश्चतें अभूतार्थ हैं। तिनिविषेभी यह एक आत्माही भूतार्थ है । जाते ज्ञेयके 5 अर वचनके भेद ते अनेक भेदरूप होय हैं। तहां प्रथमही प्रमाण दोयप्रकार है परोक्ष अर प्रत्यक्ष । तहां उपात्त कहिये इन्द्रियन्नितें भिडिकरि प्रवर्ते अर अनुपात कहिये बिना भिडे मनकरि 5 प्रवर्ते ऐसें दोय परद्वारकरि प्रवर्त्तमान सो परोक्ष । बहुरी केवल आत्माही कार प्रतिनिश्चितपणाकरि प्रवर्त्तमान होय सो प्रत्यक्ष है ।
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भावार्थ - प्रमाण ज्ञान है, सो ज्ञान पांचप्रकार है, मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवल । तिनिमैं तौ परोक्ष हैं । अर अवधि, मन:पर्यय विकलप्रत्यक्ष हैं । केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष है। सो
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ये दौकी प्रमाण हैं । ते प्रमाता प्रमाण प्रमेयके भेदकूं अनुभवन करते सन्ते तौ भूतार्थ हैं,
卐 5 सत्यार्थ हैं । बहुरी गौण भये हैं। समस्त भेद जानें ऐसा जो एक जीवका स्वभाव ताका अनुभव करते सन्ते अभूतार्थ हैं असत्यार्थ है । बहुरि नय है सो द्रव्यार्थिक है, पर्यायार्थिक है। तहां वस्तु
है सो द्रव्यपर्यायस्वरूप है । तामैं द्रव्यकूं मुख्यपण करि अनुभवन करावे ऐसा तौ द्रव्यार्थिक है। 5 बहुरि पर्याय मुख्यपणाकरि अनुभवन करावे सो पर्यायार्थिक है । सो ए दोऊही नय द्रव्यपर्यायकू
5 भेदरूप पर्यायकार अनुभवन करते सन्ते तो भूतार्थ है सत्यार्थ है । बहरी द्रव्यपर्याय दोऊहीकू क नाहीं आलिंगन करता ऐसा शुद्ध वस्तुमात्र जो जीवका स्वभाव चैतन्यमात्र ताकूं अनुभवन, 卐
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करते संत भेद अभूतार्थ असत्यार्थ है । बहुरी निक्षेप है सो नाम स्थापना द्रव्य भाव भेदकार । चारिप्रकार है। तहां जामें जो गुन तौ न होय अर तिसके नाम वस्तुकी संज्ञा करीये सो तौ॥ नामनिक्षेप है। बहुरी अन्यवस्तुविर्षे अन्यकी प्रतिमारूप स्थापना करना जो यह वह वस्तु है सो .. यह स्थापनानिक्षेप है । वहुरी वर्तमानपर्यायतें अन्य अतीत, अनागत पर्यायरूप वस्तु होय ताकू वर्तमानवस्तुमैं कहिये सौ द्रव्यनिक्षेप है । बहुरी वर्तमानपर्यायरूप वस्तूकूही वर्तमान कहिये सो भावनिक्षेप है । सो ए चारोंही निक्षेप अपने अपने लक्षणभेदतें न्यारे न्यारे विलक्षणरूपकरि । अनुभवनकरि करते सन्ते भूतार्थ हैं सत्यार्थ हैं । वहुरि भिन्नलक्षण रहित एक अपना चैतन्य लक्षणरूप जीवके स्वभाव अनुभवन करते सन्ते चारोंही अभूतार्थ हैं असत्यार्थ हैं। ऐसे इनि" प्रमाणनयनिक्षेपनिविर्षे भूतार्थपणाकरि एक जीवही प्रकाशमान है। . भावार्थ-इहां इनि प्रमाणनयनिक्षेपनिका विस्ताररूप व्याख्यान इनिके प्रकरणके ग्रंथनिमें
है, तहांतें जानना । इनितें वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक साधिये है। सो साधक अवस्थामैं तौ ए. ॥ सत्यार्थही है, जातें ए ज्ञानहीके विशेष हैं, इनिविना वस्तूकू यथाकथंचित् साधे तब विपर्यय होय
है । अवस्थाके व्यवहारके अभावकी तीन रीति हैं । एक तो यथार्थवस्तूकू जानि ज्ञानश्रद्धानकी, सिद्धि करना, सो ज्ञानद्धान सिद्ध भये पीछे इनि प्रमाणादिकतें श्रद्धानके अर्थि तो किछु ।
प्रयोजन नाहीं । बहुरि दूजी अवस्था, विशेषज्ञान अर रागद्वेषमोहकर्मका सर्वथा अभावरूप + यथाख्यातचारित्रका होना है, । याही केवलकी प्राप्ति है। सो यह भये पीछे प्रमाणादिकका 1- आलंबन नाहीं है । तापीछे तीसरी साक्षात् सिद्ध अवस्था है, सो तहां भी किछु आलंबन नाहीं है । ऐसें सिद्ध अवस्था में प्रमाणनयनिक्षेपनिका अभावही है । इस अर्थका कलशरूप काव्य है।'
मालिनीछन्दः उदयति न नयश्रीरस्तमति प्रमाणं क्वचिदपि च न विद्यो याति निक्षेपचक्रम् । किमपरममिदमो धाम्नि सर्वोऽस्मिन्ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव ॥ ६ ॥
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अर्थ-आचार्य शुद्धनयका अनुभवकरि कहे हैं, जो इस सर्वभेदनिका गौण करनहारा जोक 卐 शुद्धनयका विषयभूत चैतन्यचमत्कारमात्र तेजःपुंज आत्मा ताके अनुभव आये सन्ते नयनिकी प.
लक्ष्मी है सो उदयकू नाहीं प्राप्त होय है। बहुरि प्रमाण है सो अस्तफँ प्राप्त होय है। बहुरि - . निक्षेपनिका समूह है सो कह जाता रहै है सो हम नाहीं जाने हैं। इस सिवाय और कहां कहे ॥
द्वैतही नाहीं प्रतिभासे है। ____ भावार्थ-भेदकू अस्थत गौण करि कह्या है जो प्रमाणनयादिकका भेदकी कहां चली है ? म ॐ शुद्ध अनुभव होते द्वैतही नाहीं भासे है, एकाकार चिन्मात्रही दीखे है। इहां विज्ञानाद्वैतवादी ।।
तथा वेदांती कहैं जो परमार्थ तौ अद्वैतहीका अनुभव भया सोही हमारा मत है, तुमने विशेष ॥ कहा कह्या ? ताकू कहिये जो तुमारा मतमैं सर्वथा अद्वैत माने है, सो सर्वथा माने तो बाह्यवस्तुका के अभाव होय है, सो ऐसा अभाव प्रत्यक्षविरुद्ध है । बहुरि हमारे नयविवक्षा है सो बाह्यवस्तुका लोप
नाहीं करे है । शुद्ध अनुभवतें विकल्प मिटे है, तब परमानंद• आत्मा प्राप्त होय है, तातें अनुभव ॥ 45 करावने ऐसा कह्या है । अर बाह्यवस्तुका लोप कीये तो आत्माकाभी लोप आवै तवशून्यवादका ..
प्रसङ्ग आवे है, सो तुम कहो तैसे वस्तुस्वरूप सधै नाही, अर वस्तुस्वरूपकी यथार्थश्रद्धा विना : जो शुद्ध अनुभवभी करे तो मिथ्यारूप है, शून्यका प्रसङ्ग आया तब आकाशके फूलका अनुभव . है । आर्गे शुद्धनयका उदय होय है ताकी सूचनिका काव्य कहे हैं।
उपजातिछन्दः। ___ आत्मस्वभावं परभावभिन्नमापूर्णमाद्यन्तविमुक्तमेकम् ।
विलीनसङ्कल्पविकल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोभ्युदेति ॥ १० ॥ __ अर्थ-शुद्धन्य है सो आत्माके स्वभावकं प्रगट करता सन्ता उदय होय है। कैसा प्रगट
करे है ! परद्रव्य तथा परद्रव्य के भाव तथा परद्रव्यके निमित्त भये अपने विभाव ऐसे परभाव+ नितें भिन्न प्रगट करे है। बहुरि कैसा प्रगट करे है ? आपूर्ण कहीये समस्तपणाकरि पूर्ण स्वभाव -
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समस्त लोकालोकका जाननहारा ऐसा स्वभावकूं प्रगट करें है । जाते ज्ञानमें भेद तो कर्मसंयोग' बमय है, शुद्धनयमें कर्म गौण हैं । बहुरि कैसा प्रगट करे है ? आदि अंतकरि रहित, जो कछू हू आदि 45 लेकर कार्ते भया नाहीं तथा कबहूं काहूकरि जाका विनाश नाहीं ऐसा पारिणामिक भावकू अगट करे है । बहुरि कैसा प्रगट करे है ? एक है, सर्व भेदभावतें द्वैतभाव रहित एकाकार है, क बहुरि विलय भये हैं समस्त सल्प अ विकल्प समूह जायें । सङ्कल्प तो द्रव्यकर्म, भावकर्म, नौकर्म आदि द्रव्यनिविषै आपा कल्पै सो लेणे अर विकल्प जे ज्ञेयनिके भेदतें ज्ञानमें भेद क फ दिखे ते लेणे । ऐसा शुद्धनव प्रकाशरूप होय है । सो इस शुद्धनयकूं गाथासूत्रकरि कहे हैं । गाथा卐 जो पस्सदि अप्पाणं अवद्धपुढं अणण्णयं णियदं ।
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अविसेसम संजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि || १४ ||
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यः पश्यति आत्मानं अस्पृष्टमनन्यकं नियतं । अविशेषसंयुक्तं तं शुद्धन विजानीहि ॥ १४ ॥
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आत्मख्यातिः– या खल्वबद्धस्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्याविशेत्रस्यासंयुक्तस्य चात्मनोऽनुभूतिः स शुद्धयः सत्यातुफ 5 भूतिरात्मैवेत्यात्मैकएव प्रद्योतते कथं यथोदितस्यात्मनोनुभूतिरिति चेद्वद्धस्पृष्टत्वादीनामभूतार्थत्वात्तथाहि - यथा खलु विसिनीपत्रस्प सलिलनिमभस्य सलिलस्पृष्टवपर्यायेषानुभूयमानतायां सलिलम्पृष्टस्वार्थमध्येकांततः सलिलास्पृश्यं विसि 5 नीपत्रस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थं । तथात्मनोनादिवद्धस्पृष्टत्त्वपर्यायेणानुभूयमानतायां बद्धस्पृष्टत्वं भूतार्थमप्येकांतलः 卐 पुद्गलास्पृश्यमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थं । यथा च मृत्तिकायाः कस्ककरीरकर्करी कपालादिपर्यावेणानुभूयमा5 नतायामन्यत्वं भूतार्थमपि सर्वतोप्यस्खलंतमकं मृत्तिकास्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थं तथात्मनो नारकादिपर्यायणानुभूयमानतायामन्यस्त्रं भूतार्थमपि सर्वतोप्यस्खलंतमेकमात्मस्वभावसुपत्यानुभूयमानतायामभूतार्थं । तथा च वारि5 द्विहानिपर्यायेणानुभूयमानतायामनियतत्वं भूतार्थमपि नित्यव्यवस्थितं वारिधिस्वभावमुपेत्यानु भूयमानतायामभूतार्थं तथात्मनो वृद्धिहानिपर्यायेणानुभूयमानतायामनियतत्वं भूतार्थमपि नित्यव्यवस्थितमात्मस्वभावमुपत्यानुभूयमानताया5 मभूताथ । यया च कांचनस्य स्निग्धपीतगुरुत्वादिपर्यायेणानुभयमानतायां विशेषत्वं भूतार्थमपि प्रत्यस्तमितसमस्तविशेष
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कांचनस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थं तथात्मनो ज्ञानदर्शनादिपर्यायेणानुभूयमानतायां विशेषत्वं भूतार्थमपि प्रत्यस्त 5 मित समस्त विशेषमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थ । यथा बापां सप्तार्चिः प्रत्ययोष्णसमाहितत्वपर्यायेणानुभूयमान
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तायां संयुक्तत्वं भूतार्थमप्येकांततः शीतस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थं तथात्मनः कर्मप्रत्ययमोहसमाहितत्त्वपर्यायेणानुभूयमानतायां संयुक्तत्वं भूतार्थमप्येकांततः स्वयंवोधवीजस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थं ।
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अर्थ -- जो नय आत्मा अबद्धस्पृष्ट कहिये बंध्या अर स्पर्शा नाहीं, बहुरि अनन्य कहिये अन्य नाहीं, बहुरि नियत कहिये चलाचल नाहीं, बहुरि अविशेष कहिये जानें विशेष नाहीं, बहुरि 5 असंयुक्त कहिये अन्यके संयोगरहित ऐसा पांच भावरूप अवलोकन करै, ताहि हे शिष्य तू शुद्धन्य जाणि ।
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टीका--जो खलु कहिये निश्चयतें अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष, असंयुक्त, ऐसी 5 5 आत्माकी अनुभूति कहिये अनुभवन सोही शुद्धनय है । सो यह अनुभूति निश्वयतें आत्माही है । ऐसें आत्मा ही एक प्रकाशमान है। 卐
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भावार्थ- शुद्धय कहो तथा आत्माकी अनुभूति कहो तथा आत्मा कहो एकही है, न्यारा
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कछू नाहीं है । इहां शिष्य पूछे है, जो जैसा कया तैसें आत्माकी अनुभूति इन पांच भावनिमें 5 कैसी है ? ताका समाधान करे हैं। जो, बद्धस्पृष्टत्व आदि पांच भाव हैं तिनिकै अभूतार्थपणा है, असत्यार्थपणा है, तातैं शुद्धनयही आत्माकी अनुभूति है सोही दृष्टान्तकरि प्रगट दिखावे हैं। जैसें बिसिनी कहिये कमलिनी ताका पत्र जलमें डुब्या होय ताके जलके स्पर्शनेरूप अवस्थाकरि अनु- फ 15 भवन करते सन्ते जलका स्पर्शनपणा भूतार्थ है सत्यार्थ है । तौऊ एकान्ततें जल के स्पर्शनेयोग्य नाहीं, ऐसा कमलिनीका पत्रका स्वभावकूं लेकरि अनुभवन करते सन्ते जलका स्पर्शनपणा अभूतार्थ 5 है असत्यार्थ है, तैसें आत्माकूं अनादिपुद्गलकर्मतें वद्धस्पर्शपणाकी अवस्थाकरि अनुभवन करते सन्ते 卐 कद्वस्पृष्टपणा भूतार्थ है सत्यार्थ है । तौ एकान्ततें पुहलके स्पर्शनेयोग्य नाहीं ऐसा आत्मस्वभावकू 5 लेकरि अनुभवन करते सन्ते बद्धस्पृष्टपणा अभूतार्थ है असत्यार्थ है ।
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बहुरि जैसे मृत्तिकाका ? खा, कणा, कोंडी, कपाल आदि पर्यायभेवनिकरि अनुभवन करते 5
सन्ते अन्य अन्यपणा भूतार्थ है सत्यार्थ है । तौऊ सर्वपर्यायभेदनितें नाहीं चिगता भेदरूप न होता
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15 जो एक मृत्तिकास्वभाव ताकू लेकरि अनुभवन करते सन्ते पर्यायभेद अभूतार्थ है असत्यार्थ है। फ्र
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तैसे आत्माकूं नारक आदि पर्यायभेदनिकरि अनुभवन करते सन्ते पर्यायनिका और औरपणारूप अन्यपणा भूतार्थ है सत्यार्थ है । तौऊ सर्व पर्यायभेदनितें नाहीं चिगता एक चैतन्याकार आत्म
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5 स्वभावकूं लेकर अनुभवन करते सन्ते अन्यपणा अभूतार्य है असत्यार्थ है । बहुरि जैसें समुद्रकूं 5 वृद्धि हानि अवस्थाकरि अनुभवन करते सन्ते अनितपणा जो अनिश्चितपणा सो भूतार्थ है । तौऊ 5 नित्य ठहरचाहुवा समुद्रस्वभावकू लेकर अनुभवन करते सन्ते अनियतपणा अभूतार्थ है असत्यार्थ है । तैसें आत्मा वृद्धिहानिपर्यायभेद निकार अनुभवन करते सन्ते अनियतपणा भूतार्थ है सत्यार्थ है । तौऊ नित्य ठहर बाहुवा निश्चल आत्माका स्वभावकूं लेकर अनुभवन करते सन्ते अनियतपणा 5 अभूतार्थ है असत्यार्थ है ।
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बहुरि जैसे सुवर्णकू चीकणा, भारी, पीला आदि गुणरूप भेदनिकरि अनुभवन करते सन्ते 5 विशेषषणा भूतार्थ है सत्यार्थ है । तौऊ विलय भये हैं समस्त विशेष जामैं ऐसा स्वर्णस्वभावकूं लेकर अनुभवन करते सन्ते विशेषपणा अभूतार्थ है असत्यार्थ है । तैसें आत्माकूं ज्ञानदर्शन 5 आदि गुणरूप भेदनिकरि अनुभवन करते सन्ते विशेषपणा भूतार्थ है सत्यार्थ है । तौऊ विलय भये हैं समस्त विशेष जामें ऐसा चैतन्यमात्र आत्मस्वभावकूं लेकर अनुभवन करते सन्ते विशेषपण अभूतार्थ है असत्यार्थ है । बहुरि जैसे जलकै अभि है निमित्त जाकूं ऐसा जो उष्ण मिल्या 5 तप्तपणारूप अवस्था तिसकरि अनुभवन करते सन्ते जलके उष्णपणारूप संयुक्तपणा भूतार्थ है सत्यर्थ है । तौऊ एकान्ततें शीतल जो जलका स्वभाव ताकू लेकर अनुभवन करते सन्ते 5 उष्णसंयुक्तपणा अभूतार्थ है असत्यार्थ है । तैसें आत्माकै कर्म है निमित्त जाऊं ऐसा मोहसमा - 卐 हितपणारूप अवस्था तिसकरि अनुभवन करते सन्ते संयुक्तपणा भूतार्थ है सत्यार्थ । तोऊ
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+ एकान्तते आपबोधका बीजरूपस्वभाव जो चैतन्यभावरूप ताकू लेकरि अनुभवन करते सन्ते प्रय संयुक्तपणा अभूतार्थ है असत्यार्थ है। 卐 भावार्थ-आत्मा पांचप्रकारकरि अनेकरूप दीखे है प्रथम । तौ अनादिही कर्मपुद्गलके सम्बन्धते
बंध्या कर्मपुद्गलसूं स्पर्शरूप दीखे है । बहुरे कर्म के निमित्तते भये जे नरनारकादिपर्याय तिनिमें " 9 औरऔररूप दीखे है। बहुरि शक्तिके अविभागप्रतिच्छेद घटे हैं वधे हैं यह वस्तुस्वभाव है तातें 5
नित्यनियत एकरूप नाहीं दीखे है । बहुरि दर्शनज्ञान आदि अनेक गुणनिकरि विशेषरूप दीखे है।
बहुरि कर्मके निमित्ततें भये मोह, राग, द्वेषादिक परिणाम तिनिकरि सहित सुखदुःखरूप दीखे 卐 + है। सो यह तो सर्व अशुद्धद्रव्यार्थिकरूप जो व्यवहारनय ताका विषय है, सो ताकी दृष्टिकरि
देखीये तो सर्वही सत्यार्थ है, परंतु आत्माका एक स्वभाव या नयकरि ग्रहण होय नाही, अर एक+ स्वभाव जानेविना यथार्थ आत्माकू कैसे जाने ? तातें दूजा नय याकै प्रतिपक्षी जो शुद्ध द्रव्यार्थिक ।। 1. ताकू ग्रहणकरि एक असाधारण ज्ञायकमात्र आत्माका भाव लेकरि सर्व परद्रव्यनितें भिन्न सर्व ।
पर्यायनिमें एकाकार, हानिवृद्धि” रहित, विशेषनितें रहित नैमित्तिकभावनिते रहित, शुद्धनयकी - 1 दृष्टिकरि देखिये तब सर्वही पांचभावनिकरि अनेकप्रकारपणा है सो अभूतार्थ है असत्यार्थ है।
इहां ऐसा जानना, जो वस्तुका स्वरूप अनंतधर्मात्मक है, सो स्याद्वादतें यथार्थ सधे है। तहां 4 आत्माभी अनंतधर्मा है । ताके केतेक धर्म तौ स्वभाविक हैं अर केतकधर्म पुद्गलके संयोगते
होय हैं । तहां कर्म के संयोगते होय तिनिकरि आत्माके संसारकी होय, तिससंबंधी सुखदुःखादिक 卐 होय हैं, तिनिळू भोगवे है, सो याकै अनादि अज्ञानतें पर्यायबुद्धि है। अनादि अनंत एक आत्माका ।।
जान नाही, ताका जनावनहारा सर्वज्ञका आगम है, तामैं शुद्धद्रव्यार्थिकनयकरि जनाया है जो । 卐 आत्माका एक असाधारण चैतन्यभाव है सो अखंड है नित्य है अनादिनिधन है सो याकू जाने 1- पर्यायबुद्धिका पक्षपात कटे है । परद्रव्यनितें तथा तिनिके भावनितें तथा तिनिके निमित्ततें भये+ अपने विभावनितें आपाळू भिन्न जानि याका अनुभवन करे तव परद्रव्यके सम्बन्धी भावनिरूपण के
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परिणमें तत्र कर्म न बंधे, संसारतें निवृत्ति होय, तार्तें पर्यायार्थिकरूप व्यवहारनयकूं गौणकरि अभूतार्थं असत्यार्थ कहिकरि शुद्धनिश्वयनयकं सत्यार्थ कहि आलंबन पकडाया है, वस्तुस्वरूपकी 5 प्राप्ति भयेपीछें याका आलंबन नाहीं है । ऐसा मति जानो, जो शुद्धनयकूं सत्यार्थ का सो अशुद्ध सर्वथा ही असत्यार्थ है । ऐसें माने, वेदान्तमतवाले संसारकुं सर्वथा अवस्तु माने हैं 5 तिनिकी सर्वथा एकान्तपक्ष आवै, तब मिथ्यात्व आये है, तब इस शुद्धयकाभी आलंबन तिन 5 मिथ्यादृष्टि होय है । तातें सर्वही नयनिकूं कथंचित्प्रकार सत्यार्थका श्रद्धा कीयेही सम्यम्हणि होरा है । ऐसें स्याद्वाद समझ जिनमतका सेवन करना मुख्य गौण कथन सुनि
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सर्वथा एकान्तपक्ष न पकडना । ऐसेंही इस गाथाका व्याख्यान टीकाकार कीया है। जो आत्मा व्यवहारनयकी दृष्टि में बद्ध स्पृष्ट आदिरूप दीखे है, सो इस दृष्टि मैं तो सत्यार्थही है ।
5 परंतु शुद्धनयकी दृष्टिमैं बद्ध स्पृष्ट आदिरूप असत्यार्थ है । इस कथनमें स्याद्वाद जनाया है
ऐसें जानना ।
बहुरि ऐसें जानना, जो ए नय हैं ते श्रुतज्ञानप्रमाणके अंश हैं । सो श्रुतज्ञान है सो वस्तुकं क परोक्ष जना है, सो ए नयभी परोक्षही जनायें हैं। सो वद्धस्पृष्ट आदि पांच भाव रहित आत्मा शुद्धद्रव्यार्थिकका विषय चैतन्यशक्तिमात्र है । सो शक्ति तौ परोक्ष है ही । बहुरि याकी 5 व्यक्ती कुर्मसंयोगतें मतिश्रुति आदि ज्ञानरूप हैं ते कथंचित् अनुभवगोचर हैं ते प्रत्यक्षरूपभी कहिये हैं । अर संपूर्णज्ञान जो केवलज्ञान जो छद्मस्थके प्रत्यक्ष नाहीं तथापि यह शुद्धनय है सो आत्माका केवलज्ञानरूप परोक्ष जनावे है । जे इस नयकूं न जाणे तेतैं आत्माका पूर्णरूपका 557 ज्ञान, श्रद्धान होय नाहीं, तातें श्रीगुरु या शुद्धनयकूं प्रगटकरि दिखाया है । जो बद्ध स्पृष्ट आदि 5 पांच भावनितें रहित पूर्णज्ञानघनस्वभाव आत्माकं जाणि श्रद्धान करना पर्यायबुद्धि न रहना यह उपदेश है। तहां कोई कहै — ऐसा आत्मा प्रत्यक्ष तो दीखे नाहीं अर विनादीखे श्रद्धान करना 5 तौ झूठा श्रद्धा है। ताकूं कहिये दीखेहीका श्रद्धान करना यह तो नास्तिकमत है । जिनमतमें
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卐 तो प्रमाण प्रत्यक्ष परोक्ष दोऊ मानिये हैं। सो आगमप्रमाण परोक्ष है, ताका भेद शुद्धनय है, प... सो इस शुद्धनयकी दृष्टिकरि शुद्धआत्माका श्रद्धान करना, केवल व्यवहार प्रत्यक्षहीकी एकान्त 15 न करना । इहां इस शुद्धनयकू मुख्य करि कलशरूप काव्य है।
मालिनीछन्दः न हि विदधति बहस्पृष्टभावादयोऽमो स्मु रितर तो पेश कर अतिमाम् ।
अनुभवतु तमेव द्योतमानं समन्ताज्जगदपगतमोहीभूय सम्यक्स्वभावम् ॥११॥ अर्थ-टीकाकार उपदेश करेहैं, जो जगतके प्राणिसमूह सो तिस सम्यक्स्वभावकू अनुभवन ' + करौ। जाविर्षे ए बद्ध स्पृष्ट आदि भाव हैं ते प्रगटपणे इस स्वभावके उपरि तरते हैं, तोऊ
प्रतिष्ठाकू नाहीं प्राप्त होय हैं, जाते द्रव्यस्वभाव तौ नित्य है एकरूप है अर ए भाव अनित्य हैं म अनेक रूप हैं। पर्याय है सो द्रव्यस्वभावमैं नाहीं प्रवेश करे है उपरि हि रहे है। कैसा यह शुद्ध . स्वभाव ? सर्व अवस्थामै प्रकाशमान है। कैसे होयकरि अनुभव करो? अपगतमोहीभूय कहिये । 9 दुरि भया है मोह जाका ऐसा होयकरि । जाते मोहकर्मक उदयजनित मिथ्यात्वरूप अज्ञान जेते हैं - तेते यह अनुभव यथार्थ नाहीं होय है।
भावार्थ-शुद्धनयका विषयस्वरूप आत्माका अनुभव करो यह उपदेश है। आगें इसही 15 अर्थक कलशरूप काव्य फेरि कहे हैं, जो ऐसा अनुभव कीये आत्मदेव प्रगट प्रतिभासमान है।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः। 卐 भूतं भान्तमभूतमेव रभसानिर्भिय बन्धं सुवीर्ययन्तः किल कोप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात् ।
आत्माऽऽत्मानुमबैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते ध्रुव, नित्यं कर्मकलपकविकलो देवः स्वयं शाश्वतः ॥१२॥ 卐 अर्थ-जो कोई सुबुद्धि, सम्यग्दृष्टि, भूत कहिये पहले भया अर भात कहिये वर्तमानका अर 1- अभूत कहिये आगामी होयगा ऐसा तीन कालसंबंधी कर्मका बन्धकू अपने आत्मा तत्काल शीघ्र " न्यारा करि, बहुरि तिस कर्मके उदयके निमित्ततें भया जो मिथ्यात्वरूप अज्ञान ताकू अपने "
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5 बलपुरुषार्थतें न्यारा करि अंतरंगविर्षे अभ्यास करे देखे तो यह आत्मा अपने अनुभवही करि जाननेयोग्य है प्रगट महिमा जाकी ऐसा व्यक्त अनुभवगोचर निश्चल शाश्वत नित्य कर्मकलंककर्दम रहित ऐसा आप स्तुति करनेयोग्य देव तिष्ठे है ।
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भावार्थ -- शुद्धनकी दृष्टिकरि देखीये तौ सर्वकर्मनितें रहित चैतन्यमात्र देव अविनाशी आत्मा अंतरंग विषै आप विराजे है । यहू प्राणी पर्यायबुद्धि बहिरात्मा याकूं बाह्य हेरे है सो बडा 5 अज्ञान है । आगे शुद्धयका विषयभूत आत्माकी अनुभूति है सोही ज्ञानकी अनुभूति है ऐसा आगली गाथाकी सनिकाके अर्थरूप काव्य कहे हैं ।
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वसन्ततिलका छंद
आत्मानुभूतिरिति शुद्वनयात्मिका या, ज्ञानानुभूतिरियमेव किलेति बुबुध्वा ।
आत्मानमात्मनि निवेश्य सुनिन्प्रकम्प मे कोऽस्ति नित्यमवबोधधनः समन्तात् ॥ १३ ॥
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अर्थ -- ऐसें जो पूर्वोक्तशुद्वनयस्वरूप आत्माकी अनुभूति कहिये अनुभव है सोही यह ज्ञानकी अनुभूति है ऐसें प्रगट जानकारि, बहुरि आत्माविषै आत्माकूं निश्चय स्थापिकरि, अर सदा सर्वतरफ एक ज्ञानघन आत्मा है ऐसा देखना ।
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भावार्थ — पहलें सम्यग्दर्शन प्रधानकरि कया था अब ज्ञानकूं प्रधानकरि कहे हैं। जो यह 5 शुद्धयका विषयस्वरूप आत्माकी अनुभूति है सोही सम्यग्ज्ञान है। इस अर्थरूप गाथा
कहै हैं गाथा -
जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढं अणण्णमविसेसं ।
अपदेससुतमज्यं पस्सदि जिणसासणं सव्वं ॥ १५॥ यः पश्यति आत्मानं अवद्वस्पृष्टमनन्यमविशेषं । अपदेश सूत्रमध्यं पश्यति जिनशासनं सर्वं ॥ १५ ॥
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आत्मख्यातिः-येयमवहस्पृष्टस्यानन्यस्प नियतस्य विशेषस्थासंयुक्तस्य चात्मनोनुभूतिः सा सल्व खिलस्य जिनशासनस्यानुभूतिः श्रुतज्ञानस्य स्वयमात्मत्वात्ततो ज्ञानानुभूतिः खात्मानुभूतिः किंतु तदानीं सामान्य विशेषाविर्भाव-भा तिरोभावाभ्यामनुभूयमानमपि ज्ञानमबुद्धलुब्धानां न स्वदते । तथाहि-पया विचित्रव्यंजनसंयोगोपजातसामान्य विशेष- .. तिरोभावाविर्भावाभ्यामनुभयमान लवणं लोकानामधान धानां बदते न पुनरन्यसंयोगशून्यतोपजातसामान्य विशेषाविर्भावतिरोभावाम्यां । अथ च यदेव विशेषाविर्भावनानुभूयमानं लवणं तदेव सामान्याविभावेनापि तथा विचित्र- .. झयाकारकरक्तित्वोपजातसामान्यविशेषतिरोभावाविर्भावाभ्यामनुभयमानं ज्ञानमत्रुद्धानां ज्ञेयलुब्धानां स्वदते न पुनरन्यसंयोगशून्यतोपजातसामान्य विशेषाविर्भावतिरोभावाभ्यो। अथ च यदेव विशेषाविर्भावनानुभूयमानं ज्ञानं तदेव सामान्या. विर्भावनाप्यलुब्धवृद्धानां यथा सैंधवखिल्योन्यद्रव्यसंयोगाव्यच्छेदेन केवल एवानुभयमानः सर्वतोप्येकलवणरसत्वाल्लवणत्वेन 1 स्वदते तथात्मापि परद्रव्यसंयोगन्यवच्छेदेन केवलएवानुभूयमानः सर्वतोप्येक विज्ञानघनत्वात् ज्ञानत्वेन स्वदते। ___ अर्थ-जो पुरुष आत्माकू अवद्धस्टष्ट अनन्य अविशेष इहां उपलक्षणतें पूर्वोक्त नियत असंयुक्त ए॥ दोऊ विशेषणभी लेना ऐसा देखे है, सो सर्वजिनशासनकू देखे है। कैसा है जिनशासन ? अपदेश कहिये वाह्यद्रव्य श्रुत बहुरि सान्त कहिये ज्ञानरूप अभ्यन्तर भावभुत ए दोऊ हैं मध्य जाके ऐसा है। ___टीका-जो यह अबद्धस्पृष्ट अनन्य नियत अविशेष असंयुक्त ऐसे पांचभावस्वरूप आत्माकी
अनुभूति सोही निश्चयकरि समस्त जिनसासनकी अनुभूति है। जाते श्रुतज्ञान है सो आपके __ आत्माही है , तातें यह आपा जो आत्माकी अनुभूति है सोही ज्ञानकी अनुभूति है। इहां यह ।।
विशेष है, जो, सामान्यज्ञानका तो आविर्भाव कहिये प्रगटपणा अर विशेष ज्ञेयाकारज्ञानका + तिरोभाव कहिये आच्छादितताकरि ज्ञानमात्रही जब अनुभवकरिये तब ज्ञान प्रगट अनुभवमैं - आवे है। तोऊ जे अज्ञानी हैं अर शेयनिविषे लुब्ध कहिये आसक्त हैं तिनिकू स्वादरूप न होय । 卐 है, सोही प्रगट दृष्टांतकरि दिखावें । जैसे अनेकप्रकारके व्यञ्जन कहिये तरकारी आदि भोजन,' - तिनिके संयोगकरि उपना सामान्य लूणका तौ तिरोभाव अर विशेष लूणका आविर्भाव, ताकरि ..
अनभव आषता जो सामान्यलणका तिरोभाव लण, सोही जे अज्ञानी अर व्यजनविलुब्ध ऐसें ।
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मनुष्य, तिनिकू लूणका विशेषभावस्प जे ध्यान रिपन्तिकाही स्वाद आवेहै। बहुरि अन्यके संयोग के - रहितपणातें उपजा सामान्यका तौ जामें आविर्भाव अर विशेषका जामै तिरोभाव ऐसा भाक्करि " एकाकार अभेदरूप लूणका स्वाद नाहीं आवे है। बहुरि परमार्थकरि देखिये तब जो विशेषका ॥ " आविर्भावकरि अनुभवमै आवता क्षाररसरूप लूण है सो ही सामान्यका आविर्भावकरि अनुभवमें ।
आवता क्षाररसरूप लूण है। तैसे ही अनेकाकार शेयनिका आकारकरि करंबित कहिये मिश्ररूप । 5 सारिखापणाकरि सामान्यका तौ जामै तिरोभाव अर विशेषका जामें आविर्भाव ऐसा भावकरि ।
अनुभवमै आवता जो ज्ञान, सो, जे अज्ञानी हैं अर ज्ञेयनिविवे लुब्ध हैं आसक्त हैं, तिनिकू विशेष । म भावरूप भेद अनेकाकाररूप स्वादमै आवे है। वहुरि अन्यज्ञेवाकारके संयोगते रहितपणातें उपजा 1- सागन्यका जामें आविर्भाव अर विशेषका जामै तिरोभाव ऐसा एकाकार अभेदरूप ज्ञानमात्र 1 सो अनुभवमै स्वादरूप नाहीं आवे है । अर परमार्थ विचारिए तब जो विशेषके आविर्भावकरि
ज्ञान अनुभवमैं आवे है, सोही सामान्यका आविर्भावकरि ज्ञेयवि. आसक्त नाहीं है अर ज्ञानी हैं तिनिके अनुभवमें आवे है । बहुरि जैलें लूगकी डली अन्यद्रव्यके संयोगका अभावकरि केवल एक लूणमात्र अनुभवन करते सन्ते एक लूगरस क्षारसगाकरे लुगरणाकरि स्वादमैं आवे है । तेसैं - आत्माभी परद्रव्यके संयोगते न्यारा भावकरि एक भावकरि अनुभवन करते सन्ते सर्वतरफतें विज्ञानवन स्वभावतें ज्ञानपणाकरि स्वादमें आवे है।।
भावार्थ-यहां आत्माको अनुभूति सोही ज्ञानको अनुभूति कही, तहां अज्ञानीजन हैं ते .. - ज्ञेय जे इन्द्रियज्ञान के विषय तिनहिवि लुब्ध हैं, सो तिनित अनेक आकाररूप भया ज्ञान, ताकू
ही ज्ञेयमात्र आस्वादे हैं. । बहुरि ज्ञेयनित भिन्न ज्ञानमात्रका आस्वाद नाहीं ले हैं । यातें जे ज्ञानी - " हैं अर ज्ञेयनित लुब्ध नाहीं हैं ते एकाकार ज्ञेयनितें न्यारा ज्ञानहीका आस्वाद करे हैं। जैसे 5 व्यञ्जननितें न्यारी लूणकी डलीका क्षारमात्र स्वाद आवे तैसें आस्वादे हैं। याते जो ज्ञान है प्र " सोही आत्मा है अर आत्मा है सोही ज्ञान है । ऐसें गुणीगुणकी अभेददृष्टिमैं आया, जो सर्व
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परद्रव्यते न्यारा अपने पयोनिविर्षे एकरूप निश्चल अपने गुणनिवियें एकरूप परनिमित्त भये ,
भावनितें भिन्न अपना स्वरूपकी अनुभवन है सोही ज्ञानका अनुभवन है। अर यह अनुभवन है 15 सो भावश्रुतज्ञानरूप जो जिनशासन ताका अनुभवन है। शुद्धन्यकरि यामैं किछू भेद नाहीं है। अब इसही अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
पृथ्वीछन्दः अखंडितमनाकुलं ज्वलदनन्तमंत हिमहः परममस्तु नः सहजमुद्विलासं सदा ।
चिदुच्छलननिर्भरं सकलकालमालम्बते यदेकरसमुल्लसल्लघपाखिल्यलीलायितम् ॥१४॥ अर्थ-आचार्य कहे हैं, जो तत् कहिये सो परम उत्कृष्ट मह कहिये तेज प्रकाशरूप हमारे होऊ, जो सदाकाल चैतन्यका उच्छलन कहिये परिणामान ताकार भया जैसे लूणकी डली एक क्षाररसकी लीलोकू आलम्बन करे है, तैसें एक ज्ञानसस्वरूपकू आलंबन कर है। बहुरि सो तेज कैसा है ? ' अखंडित है, जामें शेयनिका आकाररूप नाहीं खंडते है। बहुरि फैसा है ? अनाकुल है, जामैं कर्मके निमित्तते भये रागादक तिनिकरि भई जो आकुलता सो नाहीं है। बहुरि कैसा है ? ' 'अन्तर्बहिरनन्तं ज्वलत् कहिये अंतरहित अविनाशी जैसे होय तैसें । अंतरंग तो चैतन्यभावकार
दैदीप्यमान अनुभवमें आवे है अर बाह्य वचनकायकी क्रियाकरि प्रगट देदीप्यमान हो है, जान्या । ॥ जाय है। बहुरि सहज कहिये स्वभावकरि भया है, काहूने रचा नाहीं है बहुरि 'सदा उद्विलास कहिये निरंतर उदयरूपहै विलास जाका एकरूप प्रतिभासन है।
भावार्थ-आचार्य ने प्रार्थना करी है, जो यह स्वरूप ज्योतिर्ज्ञानानन्दमय एकाकार हमारे ॥ सदा प्राप्त रहो, ऐसा जानना । आगें आगिली गाथाकी सुचनिकाका श्लोक है।
___ अनुष्टुप्छन्दः एष ज्ञानपनो नित्यमात्मसिद्धिमभीप्सुभिः । साध्यसाधकमादेन द्विधैकः समुपास्यताम् ॥ १५॥
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अर्थ-यह पूर्वोक्त ज्ञानस्वरूप नित्य आत्मा है, सो सिद्धि जो स्वरूपका प्राप्ति साके इच्छक पुरुषनिकरि साध्यसाधकभावके भेदकरि दोय प्रकारकरि एकही सेवनेयोग्य है, सो सेवो।
भावार्थ-आत्मा तौ ज्ञानस्वरूप एकही है, परंतु याका पूर्णरूप साध्यभाव है अर अपूर्णरूप 5 साधकभाव है, ऐसें भावभेदकरि दोय प्रकारकरि एकही सेवना। तहां दर्शनज्ञानचारित्ररूप साधकभाव है, सोही गाथामैं कह्या है । गाथा
दसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्छ।
ताणि पुण जाण तिण्णिवि अप्पाणं चैव णिच्छयदो॥१६॥ नीचे लिखी एक गाथाकी आत्मख्याति संस्कृत और हिन्दी टीका उपलब्ध नहीं है इसलिये नहीं छापी गई। म तात्पर्यदृचि टीका मिलती है यह छापी है।
आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दसणे चरित्ते य। आदा पञ्चक्खाणे आदा में संवरे जोगे।
आत्मा स्फुटं मम ज्ञाने आत्मा में दर्शने चारिने छ।
आत्मा' प्रत्याख्याने आत्मा मे संवरे योगे ॥ तात्पर्यवृत्तिः-आदा शुद्धात्मा सु स्फुटं मज्झ मम भवति का विषये णाणे आदा मे दंसणे चरिते य आदा पञ्चखाणे आदा मे संवरे जोगे सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रप्रत्यारूपानसंबरयोगभावनाविषये। योगे कोः निविकल्पसमाधौ . परमसामायिके परमध्याने चैत्येको भावः भोगाकांक्षानिदानबंधशल्यादिभावरहिते शुद्धात्मनि ध्याते सर्व सम्यग्नानादिक लम्यत इत्यर्थः एवं शुद्धनयव्याख्यानमुख्यत्वेन प्रमथस्यले गाथात्रयं गतं । इत ऊर्ध्व भंदाभेदरत्नत्रयमुख्यत्वेन गाथा- 4 प्रयं कथ्यते तद्यथा-प्रथम गाथायां पूर्वार्द्धन भेदरत्नत्रयभावनामपरार्द्धन चाभेदरत्नायभावनां कथयति ।
भाषा-अर्थ--सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र प्रत्याख्यान संवर योग भावना में मेरे शुद्ध आत्मा हो 卐s जाती है अर्थात् भोगाकांक्षा निदान बंध शल्य आदि रहित शुद्ध आत्माका ध्यान करनेसे सम्य
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दर्शनज्ञानचारित्राणि सेवितव्यानि साधुना नित्यं ।
तानि पुनर्जानीहि त्रीण्यप्यात्मानमेव निश्चयतः ॥ १६ ॥
आत्मख्यातिः — वेनैव हि भवेनात्मा साध्यं साधनं च स्यात्तवायं नित्यमुपास्य इति स्वयमाय परेषां व्यवहारेण 5.
" साधुना दर्शनज्ञानचारित्राणि नित्यमुपास्यानीति प्रतिपाद्यते । तानि पुनस्त्रीण्यपि परमार्थेनात्मैक एव वस्त्वंतराभावात् यथा देवदत्तस्य कस्यचित् ज्ञानं श्रद्धानमनु वरणं च देवदत्तस्य स्वभावानतिक्रमाद्देवदत्त एव न वस्त्वंतरं तथात्मन्यप्यात्मनो ज्ञानं श्रद्धानमनुचरणं चात्मस्वभावानतिक्रमादात्मैव न वस्त्वंतरं तत आत्मा एक एवोपास्य इति स्वयमेव प्रद्योतते स किल ।
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टीका - यह आत्मा जिसभात्रकरि साध्य तथा साधन होय, तिसही भावकरि नित्य उपासन करने योग्य है सेवने योग्य है । ऐसें आप विचारि बहुरि पर निक्कू व्यवहारकरि प्रतिपादन करे हैं, साधुपुरुषनिकरि दर्शनज्ञानचारित्र हैं ते सदा सेवनेयोग्य हैं । बहुरि परमार्थकरि देखिये तब
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तीनो हि एक आत्माही है, जातैं ए अन्य वस्तु नाहीं है आत्माहीके पर्याय हैं। जैसें कोई देवदत्तनाम पुरुषका ज्ञान, श्रद्धान, आचरण है, ते तितके स्वभावकूं नाहीं उल्लंघते वतें हैं । तातें ते देवदत्त पुरुषही है अन्य वस्तु नाहीं है । तैसें आत्माविषैभी आत्माका ज्ञान, श्रद्वान, आचरण हैं ते आत्माके स्वभावकूं नाहीं उल्लंघि वतें है । तातें आत्माही है अन्यत्रस्तु नाहीं है । तातें यह सिद्ध 5 15 भया, जो एक आत्माही सेवन करनेयोग्य है । यह आप आपही प्रकाशमान हो है ।
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भावार्थ --- दर्शन, ज्ञान, चारित्र तीन कहे ते आत्माही के पर्याय हैं किछू न्यारे वस्तु नाहीं हैं । 5 तातै साधुपुरुषनिकूं एक आत्माहीका सेवन करना यह निश्चय है। बहुरि व्यवहारकरि अन्यकूं 45 यह ही उपदेश करना। आगे इसही अर्थका कलशरूप श्लोक कहे हैं ।
5
दर्शनज्ञानचारित्रैस्त्रित्वादेकत्वतः स्वयं 1
मेको मेचकश्चापि सममात्मा प्रमाणतः ॥ १६॥
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अर्थ - साधुपुरुषकरि दर्शनज्ञानवारित्र हैं ते निरंतर सेवने योग्य हैं, बहुरि तीन हैं तौऊ निश्चयनयतें एक आत्माही जानूं ।
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अर्थ - यह आत्मा प्रमाणदृष्टिकरि देखीये सब एकैकाल मेचक कहिये अनेक अवस्थारूप भी है समय अर अमेचक कहिये एक अवस्थारूप भी है । जातें याकै दर्शन-ज्ञान-वारित्रकरि तौ तीनपणा है। बहुरि आपकरि आपके एकपणा है ।
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भावार्थ — प्रमाणदृष्टि त्रिकालात्मक वस्तु द्रव्यपर्यायरूप देखिये है, तातें आत्मका भी युगपत् एकानेकस्वरूप देखना । आमैं नयविवक्षा कहे हैं।
दर्शनज्ञान चारित्रैस्त्रिभिः परिणतत्वतः ।
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एकोऽपि त्रिस्वभावत्वादव्यवहारेण मेचकः ॥ १७॥
अर्थ-व्यवहारदृष्टिकरि देखिये तब आत्मा एक है, तौऊ तीन स्वभावपणाकरि मेचक कहिये
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अनेकाकाररूप है । जातें दर्शन ज्ञान चारित्र इनि तीन भावनिकरि परिणमे है ।
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भावार्थ — शुद्धद्रव्यार्थिकनयकरि आत्मा एक है इस नयकूं प्रधानकरि कहिये तब नय गौण
भया, सो एक तीनरूप परिणमता कहना सोही व्यवहार भया, असत्यार्थ भी भया, ऐसें व्यव
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सर्वभावान्तरध्वंसिस्वभावत्वादमेचकः ॥ १८ ॥
अर्थ - परमार्थ जो शुद्धनिश्चयनय ताकरि देखिये तब प्रगट ज्ञायकज्योतिर्मात्रकरि आत्मा एक 5 स्वरूप है । जातैं याका शुद्धद्रव्यार्थिकनयकरि सर्वही अन्यद्रव्य के स्वभाव तथा अन्य निमित्ततें भये 5 विभाव, तिनिका दूर करनेरूप स्वभाव है, यातें अमेचक है, शुद्ध एकाकार है I
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भावार्थ - भेददृष्टिकं गौण कहि अभेददृष्टिकरि देखीये तब आत्मा एकाकार ही है, सो ही अमेचक है। आगे प्रमाणनयकरि मेचक अमेचक कह्या सो इस चिंताकू मेटि जैसे साध्यकी सिद्धि
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हारनयकरि दर्शनज्ञानचारित्रपरिणामकरि मेचक कह्या है । अब परमार्थनयकरि कहे हैं । परमार्थेन तु व्यक्तन्नाद्दत्वज्योतिषैककः ।
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होय तैसें करना यह कहे हैं ।
आत्मचिन्तयैवालं मेचकामेचकत्वयोः ।
दर्शन वारित्रः सिद्धिर्न चान्यथा ॥ १६ ॥
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अर्थ -- यह आत्मा मेचक है, भेदरूप अनेकाकार है, तथा अमेचक है, अभेदरूप एकाकार है। फ
समय ऐसी चिंताकरि तो पूरि पडो, साध्य आत्माकी तो सिद्धि है सो दर्शन ज्ञान चारित्र इनि तीनि भावनिकर ही है, अन्यप्रकार नाहीं है यह नियम है ।
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भावार्थ- आत्माकी शुद्धद्रव्यार्थिकनयकरि सिद्धि भई ऐसा शुद्धस्वभाव साध्य है, सो पर्या
यार्थिकस्वरूप व्यवहारनयहीकरि साधिये है, तातें ऐसें कया है, जो भेदाभेदकी कथनी करि,
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कहा? जैसे साध्यकी सिद्धि होय तैसें करना व्यवहारी जन पर्यायहीमैं समझे हैं तातें दर्शनज्ञान फ
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चारित्र तीन परिणाम हैं सोही आत्मा है । ऐसें भेदप्रधानकरि अभेदकी सिद्धि करनी कही । आगे इसी प्रयोजन गाथा दोय दृष्टांतकार कहे हैं। गाथा
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जह णाम को वि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि । 卐 तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण ॥१७॥
एवं हि जीवराया णादव्वो तह य सद्दहे दव्यो ।
अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण ॥ १८ ॥ फ्र
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यथानाम कोपि पुरुषो राजानं ज्ञात्वा श्रद्दधाति । ततस्तमनुचरति पुनरर्थार्थिकः प्रयत्नेन ॥ १७॥ एवं हि जीवराजो ज्ञातव्यस्तथैव श्रद्धातव्यः । अनुचरितव्यश्च पुनः स चैत्र तु मोक्षकामेन ॥ १८॥
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आत्मख्यातिः—यथा हि कश्चित्पुरुषोऽर्थार्थी प्रयत्नेन प्रथममेव राजानं जानीते ततस्तमेव श्रद्धचे ततस्तमेवानुचरति ।
तथात्मना मोक्षार्थिना प्रथममेवात्मा ज्ञातन्यः तत स एव श्रद्धावन्यः ततः स एवानुचरितन्यश्च साध्यसिद्धेस्तथान्यथोप
पत्त्यनुपपत्तिभ्यां । तत्र यदात्मनोनुभूयमानानेकभावसंक रेपि परमविवेककौशलेनायमहमनुभु तिरित्यात्मज्ञानेन संगच्छ
मानमेव तथेविप्रत्ययलक्षणं श्रद्धानं चरणमुत्प्लवमानमात्मानं साधयतीति साध्यसिद्धेस्तथोपपत्रेः यदात्वाबालगोपालमेव
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सकलकालमेव स्वयमेवानुभूयमानेपि भगवत्यनुभूत्यात्मन्पनादिबंधवशात् परैः सममेकत्वाव्यवसायेन विमूडस्यायमहमनुभूतिरित्यात्मज्ञानं नोलवते तदभावादनानखरगश्रद्वानसमानत्वाच्छ्रद्धानमपि नोत्ववते तदा समस्तभावांतरविदेकेन 卐. निःशंकमेव स्थातुमशक्यत्वादात्मानुचरणमनुत्युवमानं नात्मानं साधयतीति साध्यसिद्धरन्यथानुपपचिः।
अर्थ-जैसे कोई पुरुष धनका अर्थी राजाकू जाणिकरि श्रद्धान करे, तापीछे ताकू बहुत यसकरि । अनुचरे, ताकी नीकै सेवा करै। ऐसे ही मोक्षका अर्थी पुरुषकरि जीवनामा राजापू जानना, पीछे तैसे ही ताका श्रद्धान करना, पीछे ताका अनुचरण करना, अनुभवकरि तन्मय होना।
टीका-निश्चयकारे जैसे कोई धनकी अर्थी पुरुष बडा उद्यमकरि प्रथम तो राजाकू जाने, जो ॥ यह राजा है। पीछे तिसहीका श्रद्धान करै, जो यह अवश्य राजा ही है, याका सेवन कीये अवश्य धनकी प्राप्ति होयगी। पीछे तिसहीका अनुचरण करे, सेवन करे, आज्ञामै प्रवर्ते, वाकू प्रसन्न ॥ करै । तैसें ही मोक्षका अर्थी पुरुषकरि प्रथम तौ आत्माकू जानना, पीछे तिसका श्रद्धान करना, जो यहही आत्मा है, याका आचरण कीयें अवश्य कर्मनितें छुटियेगा, पीछे तिसहीका अनुचरण, करना, अनुभवकरि तामें लीन होना । जाते साध्य जो निष्कर्मावस्थारूप अभेदशुद्धरूप, ताकी ।। ऐसेंही सिद्धि है अन्यथा अनुपपत्ति है। तहां जिसकाल आत्माके अनुभवमें आवते जे अनेक । पर्यायरूप भेदभाव, तिनिकरि संकर कहिये मिश्रितपणा होते भी, परमविवेक कहिये सर्वप्रकार के भेदज्ञान, प्रवीणपणाकरि यह अनुभूति है, सो ही मैं हूं। ऐसा आत्मज्ञानकरि प्राप्त होता यह " आत्मा जैसें जाण्या तैसा ही है, ऐसी प्रतीति है लक्षण जाका ऐसा श्रद्धान उदय होय है।' तिस ही काल समस्त अन्यभावका भेद होनेकरि निःशंक ठहरनेकू समर्थ होनेते आस्माका आचरण उदय होता संता आत्माकू साधे हैं। ऐसे तौ साध्य आत्माकी सिद्धि की, तथा उपपत्ति है तैसें ही होय ताकू तथा उपपत्ति कहिये । बहुरि जिस काल ऐसा अनुभूतिस्वरूप भगवान् आत्मा बाल (गोपाल)ताई सदाकाल आपही अनुभवमैं आवतै संते भी अनादि बंधके । कशते परद्रव्यनिसहित एकपणाके अध्यवसाय कहिये निश्चयकरि मूढ जो अज्ञानी ताके यह अनुज
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9 भूति है । सो मैं हूं ऐसा आत्मज्ञान नाहीं उदय होय है। ताके अभावतें विना जाणेका श्रद्धान मया- गधाके सिंगसारिखे होय है । ऐसें श्रद्धान भी नाहीं उदय होय है । तिस काल समस्त अन्यभाव
निका भेद न होनेकरि निशंक आत्मावि तिष्ठनेका असमर्थपणातें आत्माका आचरण न होता. संता आत्माकू नाहीं साधे है ऐसे साध्यआत्माकी सिद्धिकी अन्यथाअनुपपत्ति है । और प्रकारकरि ..
न होय ताकू अन्यथानुपपत्ति कहिये। 9 भावार्थ-साध्य आत्माकी सिद्धि दर्शनज्ञानचारित्रहीकरि है, अन्यप्रकार नाहीं है जातें
पहले तो आत्माकू जाणै, जो यह जाननहारा अनुभवमें आवे है सो में हूं पीछे याकी प्रतीतिरूप " श्रद्धान होय विनाजाणे श्रद्धान काहेका ? बहुरि पीछे समस्त अन्यभावनित भेदकर आपवित्रं । थिर होय ऐसी सिद्धि है। बहुरि जब जाणे नाहीं तब थिरता कौनमें करें ? तातें अन्यप्रकार सिद्धि नाहीं है, ऐसा निश्चय है । अब इसही अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
मालिनीछन्दः कथमपि समुपानत्रित्वमप्येकताया अपतितमिदमात्मज्योतिरगच्छदच्छम् ।
सततमनुभवामोनन्नचैतन्यचिद न खलु न खलु यस्मादन्यथा साध्यसिद्धिः ।। २०॥ ननु ज्ञानतादात्म्यादात्मात्मानं नित्यमुपास्त एव कुतबदुपास्यत्वेनानुशास्यत इति चेन्न यतो न खल्वात्मा ज्ञानतादा卐 त्म्येपि क्षणमपि ज्ञनमुपास्ते स्वयं चुबोधितयुद्धत्वकारणपूर्वकत्वेन ज्ञानस्योत्पत्त: । तर्हि तत्कारणात्पूर्वमज्ञानएवात्मा !
नित्यमेवाप्रतिबुद्धत्वादेवमेतत् । तर्हि कियंतकालमयमप्रतिबुद्धो भवतीत्यभिधीयतां। ____ अर्थ-आचार्य कहे हैं, जो यह आत्मज्योति है, ताहि हम निरंतर अनुभवे हैं। कैसा है ? अनंत अविनश्वर जो चैतन्य सो है चिह्न जाका, काहेते अनुभवे हैं ? जाते याके अनुभवविना ..
अन्यप्रकार साध्य आत्माकी सिद्धि नाहीं है। कैसा है यह आत्मज्योति ? कथंचित्प्रकार अंगीकार । 卐 किया है तीनपणा जानें, तौऊ एकपणातें च्युत न भया है। बहुरि कैसा है ? निर्मल जैसे होय
तैसें उदयकू प्राप्त होता है।
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____ भावार्य-आचार्य कहे हैं, कोईप्रकार पर्यायदृष्टिकरि जाकै तीनपणा प्राप्त है, तोऊ शुद्धद्रव्य .. " दृष्टिकरि जो एकपणातें नाहीं च्युत भया है, ऐसा आत्मज्योति अनंत चैतन्यस्वरूप निर्मल उदयकू , " प्राप्त होता, ताहि सम निरंतर अनुभवे हैं। ऐसे कहनेते ऐसा भी आशय जानिये, जो सम्यम्दृष्टि ७२" पुरुष हैं, ते ऐसे ही अनुभव करौ, जैसें हम अनुभवे हैं ऐसे जानना। आगें कोऊ तर्क करे है, जो । 卐 आत्मा तो ज्ञानते तादात्म्यस्वरूप है, जुदा नाही, तातें ज्ञानको नित्य सेवे ही है। जानका
उपासनेयोग्यपणाकरि याकू काहेते शिक्षा दीजिये है ? तहां आचार्य कहे हैं, जो यह ऐसें नाहीं ।
है, तातें आत्मा ज्ञानकरि तादात्म्यरूप है, तौऊ एक क्षणमात्र भी ज्ञानकू नाहीं से है। जाते है 1- स्वयंबुद्धत्व कहिये आपहीकरि जाननेते तथा बोधितबुद्धत्व कहिये परके जनावनेकरि याकै ज्ञानकी
उत्पत्ति होय है। के तौ काललब्धि आवै तब आप ही जाणि ले, कै कोई उपदेश देनेवाला ॥ मिले तब जाणे, जैसे सूता पुरुष के तो आप ही जागै कै कोई जगावै तब जगेगा? ऐसे इहां फेरि पूछे हैं, जो ऐसे है, तो, जान्नेका कारण पहली आत्मा अज्ञानी ही है। जातें सदा ही याकै अप्रतिबुद्धपणा है। तहां आचार्य कहे हैं, यह ऐसे ही है, अज्ञानी ही है। बहुरि फेरि पूछे हैं, जो यह आत्मा कैतै एककाल अप्रतिबुद्ध है सौ कही। तहां आचार्य कहे हैं । गाथा
कम्मे णोकम्मीि य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्म । 卐 जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव ॥१९॥
कर्मणि नोकर्मणि चाहमित्यहकं च कर्म नोकर्म।
__यावदेषा खलु बुद्धिरप्रतिबुद्धो भवति तावत् ॥१९॥ तात्पर्यवृत्तिः–कम्मे कर्मणि ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मणि रागादिभावकर्मणि च णोकम्मलि य शरीरादिनोकर्मणि च का अहमिदि अहमिति प्रतीतिः अहकं च कम्म णोकम्मं अहकं च कर्म नोकर्मेति प्रतीतिः यथा घटे वर्णादयो मुणा घटा- ' 1- कारपरिणतपुद्गलस्कंधाश्च वर्णादिषु घट इन्यभेदेन जा यावंतं कालं एसा एषा प्रत्यक्षीभूता खलुस् फुटं बुद्दी कर्मनोकर्मणा । सह शुचुईकस्वभावनिजपरमात्मवस्तुनः एका बुद्धिः अप्पडिबुद्धो अप्रतिबुद्धः स्वसंवित्तिशून्यो बहिरात्मा इददि भवति ॥
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ताव तावत्कालमिति । अत्र भेदविज्ञानमूलं शुद्धात्मानुभूतिः स्वतः स्वयंयुद्धापेक्षया परतो घा बोधितयुद्धापेक्षया य लभंते ते पुरुषाः शुभाशुभबहिर्द्रव्येषु विद्यमानेपपि मुकरूंदवदविकरा भवंतीति भावार्थः । अथ शुद्धजीवे यदा रागादिरहितपरिणामस्तदा मोक्षो भवति । अजीवे देहादौ यदा रागादिपरिणामस्तदा धंधो भवतीत्याख्याति। ___आत्मख्याति:---यथा स्पर्शरसगंधवर्णादिभावेषु पृथवनोदराद्याकारपरिणतपुद्गलस्कंधेषु घटोयमिति घटे च स्पर्शरसगंधवर्णादिभावाः पृथुचुनोदराद्याकारपरिणतपुद्गलस्कंधाश्चामी इति वस्त्वभेदेनानुभूतिस्तथा कर्मणि मोहादिष्वंतरंगे', है नोकर्मणि शरीरादिषु बहिरंगेषु चात्मतिरस्कारिषु पुद्गलपरिणामेष्वहमित्यात्मनि च कर्ममोहादयोऽतरंगा नोकर्मशरीरादयो बहिरंगाश्चात्मतिरस्कारिणः पुद्गलपरिणामा अमी इति वस्त्वभेदेन यावंतं कालमनुभूतिस्तावंतकालमात्मा भवत्यप्रतिबुहः । यदा कदाचिद्यथारूपिणो दर्पणस्य स्वपराकारावभासिनी स्वच्छतेव बन्हेरौष्ण्यं ज्वाला च तथा नीरूपस्यात्मनः स्वपराकारावमासिनी ज्ञातृत्व पुद्गलानां कर्मनोकर्म चंति स्वतःपरतो वा भेदविज्ञानमूलानुभूतिरुत्पत्स्यति तदैव प्रतिबुद्धो + भविष्यति । ___ अर्थ-जेते या आत्माकै कर्म जे ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म भावकर्म बहुरि नोकर्म जे शरीरादिक तिनिविर्षे यह कर्म नोकर्म हैं, ते में हूं अर ए कर्मनोकर्म हैं ते मेरे हैं ऐसी बुद्धि है, तेते यह आत्मा अप्रतिबुद्ध है-अज्ञानी है। ___टीका-जैसे स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि भावनिमें अर पृथु कहिये चौडा अर बुध्न कहिये नीचे
अवगाहरूप ऐसा उदर आदिका आकाररूप परिणये जो पुद्गलके स्कंध, तिनिविर्षे यह घट है अरघट कर विस्पर्श, रस, गंध, वर्णादि भाव हैं अर पृथुबुघ्नोदरादिके आकार परिणये पुद्गलस्कंध हैं,ऐसें वस्तु अभेदकरिअनुभूति है। तैसें कर्म जे मोह आदि अंतरंगपरिणाम अर नोकर्म शरीर आदि बाह्यवस्तु,ते केसे हैं ? पुद्गलके परिणाम हैं अर आत्माके तिरस्कार करनेवाले हैं। तिनिविर्षे यह कर्मनोकर्म में हूं, बहुरि मोहादिक अंतरंगकर्म अर शरीरादि बहिरंग, ते आत्माके तिरस्कार करनेवाले पुद्गलपरिणाम
ते र आत्माविर्षे हैं । ऐसे वस्तु अभेदकरि जेते काल अनुभूति है, तेरौं काल आत्मा अप्रतिबुद्ध है अज्ञानी है, बहुरि जिस कोई कालविर्षे जैसें रूपी दर्पणकी स्वपरके आकारका प्रतिभास करने वाली स्वच्छता ही है, अर उष्णता अर ज्वाला अग्निकी है, तैसें अरूपी जो आत्मा ताकी तौ ।
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मामलासीरसाद जैन, सराफ
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5 आपपरके जाननहारी ज्ञातृता ही है ज्ञातापणा ही है अर कर्मनो कर्मपुद्गलके ही हैं ऐसी आपहीतें 5 तथा परके उपदेशादिकर्ते भेदविज्ञान है मूल जाका ऐसी अनुभूति उपजसी तिसही काल प्रतिबुद्ध होसी ज्ञानी होसी ।
मय फु
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भावार्थ ---यहु आत्मा जनताई ऐसें जाने है, जो स्पर्श आदिक तौ पुद्गलमें है अर पुद्गल
स्पर्शादिभ्य है। से ही जीव तो कर्मनीकर्म है, अर कर्मनोकर्ममय जीव है तबताई तो अज्ञानी
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5 है। अर जब यह जाने, जो आत्मा तो ज्ञाताही है अर कर्मनो कर्मपुद्गलकेही है तबही ज्ञानी होय है । जैसे आरसे में अग्निकी ज्वाला दीखे तहां ऐसा जानिये, जो ज्वाला तो अग्निविषै ही है। आरामै पैठी नाहीं । अर आरसा दीखे है, सो आरसाकी स्वच्छता ही है । ऐसें कर्म नोकर्म आपमें पैठे नाहीं । आत्माकी ज्ञानस्वच्छता ऐसे ही है, जामैं ज्ञेयका प्रतिविंव दीखे ऐसें कर्मनोर्म ज्ञेय हैं ते प्रतिभासे हैं, ऐसा अनुभव आत्माकै भेदज्ञानरूप के तो स्वयमेव होय के 5 देशतें होय, तिसही काल ज्ञान्दी होय है । अब याही अर्थ के कलरूप काव्य कहे हैं । मालिनी छन्दः
उप
३४
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कथमपि हि लभन्ते भेदविज्ञानमूचलितमनुभूति ये स्वतो वान्यतया । फिलन निमभानसभायस्वभाव कुरवदविकारा संततं स्युस्त एव ॥ २१॥
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ननु कथमयमप्रतिबुद्धो लक्ष्
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अर्थ – ये पुरुष आपहीतैं तथा परके उपदेशतें कोई प्रकारकरि भेदविज्ञान है मूल उपत्तिकारण
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जाका ऐसी अविचल निश्चल अपने आत्मा अनुभूति पाये हैं, तेही पुरुष आरसेकी ज्यों
आप मैं प्रतिबिंबत भये जे अनंतभावनिके स्वभाव तिनिकरि निरंतर विकाररहित होय हैं, ज्ञानमें
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ज्ञेयनिके आकार प्रतिभा तिनिकरि रागादिविकारकूं नाहीं प्राप्त होय है ।
卐 मैं शिष्य प्रश्न करे है, जो यह अप्रतिबुद्ध अज्ञानी कैसे लखिये ताके चिन्ह कहौ । ताका फ
उत्तररूप गाथा कहे हैं। गाथा
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अहमेदं एदमहं अहमेदस्सेव होमि मम एदं।
अण्णं जं परदव्वं सचित्ताचित्तमिस्सं वा ॥२०॥ __ नीचे लिखी दो गाथाओंकी आत्मख्याति संस्कृत और हिन्दी टीका उपलब्ध नहीं है इसलिये नहीं छापी गई। तात्पर्यवृत्ति टीका मिलती है वह छापी है।
जीवेव अजी वे वा संपदिसमयह्मि जत्थ उवजुत्ता। तत्थेव बंधमोक्खो होदि समासेण णिद्दिठो ।
जीवे वा अजीवे वा संप्रतिसमये यत्रोपयुक्तः ।
तौर बंधः मोक्षो भवति समासेन निर्दिष्टः॥ ___तात्पर्यवृत्तिः--जीवेव स्वशुद्धजीवे वा अजीवे वा देहादी वा संपदिसमयनि वर्तमानकाले जत्थ उवजुत्तो यत्रोपयुक्तः तन्मयत्वेनोपादेयव दया परिणतः तत्थेव तत्रैव अजीवे जीदे वा बंधमोक्खो अजीवहादी बंधो. जीवे शद्धात्मनि मोक्षः हादि भवति समासेण णिदिलो संक्षपेण सर्वज्ञनिर्दिष्ट इति । अत्रैव ज्ञात्वा सहजानंदैकस्वभावनिजात्मनि रतिः कर्तव्या । तद्विलक्षणे परद्रव्ये विरतिरित्यभिप्रायः । अथाशुनिश्चयेनात्मा रागादिभावकर्मणां कर्ता अनुपचरितास तव्यवहारनपेन में द्रन्यकर्मणामित्यावेदयति । ____ अर्थ-जब यह आत्मा देहादि परद्रव्यमें लीन होता है तब इसके कर्मोका बंध होता है और " जब शुद्धामस्वरूपमें लीन होता है उस समय कोंसे मुक्त होता है।
जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स। णिच्छयदो ववहारा पोग्गलकम्माणकत्तारं ॥
यं करोति भावं आत्मा कर्त्ता स भवति तस्य भावस्य ।
निश्चयतः व्यवहारनयात् पुद्गलकर्मणां कर्ता ॥ तात्पर्यवृत्तिः--जं कृणदि भावमादा कचा सो होदि तस्स भावस्स-यं करोति रागादि भावमात्मा स तस्य मावस्य
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आसि मम पुत्वमेदं अहमेदं चावि पुवकालसि । होहिदि पुणोवि मज्झं अहमेदं चावि होस्सामि॥२२॥ एयत्त असंमृदं आदवियप्पं करेदि संमूढो। भूदत्थं जाणंतो ण करेदि दु तं असंमूढो ॥२२॥
अहमेतदेतदहमेतस्यास्मि ममैतत् । अन्यद्यत्परद्रव्यं सचित्ताचित्तमिजं वा ॥२०॥ आसीन्मम पूर्वमेतदेतत् अहमिदं च पूर्वकाले । भविष्यति पुनरपि मम अहमिदं चैव पुनर्भविष्यामि ॥२१॥ एतत्वसद्भूतमात्मविकल्पं करोति संमूढः ।
भूतार्थं जानन करोति तु तमसंमूढः ॥२२॥ 1 परिणामस्य कर्ता भवति । णिच्छ पदो-अशुद्धनिश्चयनयेन अशुद्धभावानां शुद्वनिश्चयनयेन शुद्धभावानां कति भावानां
परिणमनमेव क त्वं । ववहारा-अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयात्, पोग्गलकम्माण-पुद्गलद्रव्यकर्मादीनां, कर्तारं कचेति । कर्तारं इति कर्मपदं कत्तेति कथं भवतीति चेत् प्राकृते क्वापि कारकव्यभिचारोलिंगव्यभिचारश्च । अत्र रागादीनां । जीवः कति भणितं ते च संसारकारणं रातः संसारभयभीतेन मोक्षाधिना समस्तरागादिविभावरहिते शुद्धद्रव्यगुमपर्याये स्वरूपे निज परमात्मनि भावना कर्तव्येत्यभिप्रायः । एवं स्वतंत्रव्याख्यानमुखत्वेन तृतीयस्थले गाथात्रयं गतं । अथ यथा- " कोप्यप्रतिवुद्धः अग्निरिंधनं भवति इंधनमग्निर्भवति अग्निरिवनमासीत् इंधनमग्निरासीत् अग्निरिंधनं भविष्यति इंधनम- .. निर्भविष्यतीति वदति तथा यः कालत्रयेपि देहरागादिपरद्रव्यमात्मनि योजयति सोऽप्रतिबुद्धो पहिरात्मा मिथ्याज्ञानी ।
भवतीति प्ररूपयति । म अर्थ—यह आत्मा निश्चयनपसे जिन भावोंको करता है उनका कर्ता होता है और व्यवहार- +नयसे पुद्गलकर्मोका कर्त्ता होता है।
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प्रभू
आत्मख्यातिः --- यथाग्निरिंधनमस्तीं धनमग्रिरस्त्यग्न रिघनमस्तधनस्याप्रिरस्त्यग्नेरिंघनं पूर्वमासीदिधनस्याभिः पूर्वव मासीद्ग्नेरिंधनं पुनर्भविष्यतींचनस्याग्निः पुनर्भविष्यतीतींधन एवासद्धू ताग्रियिकल्पत्वेनाप्रतिबुद्धः कथिताहतदस्म्येतदहमस्मि ममैतदस्त्येतस्याहमस्मि ममेतत्पूर्वमासीदेतस्याहं पूर्वमासं ममैतत्पुनर्भविष्यत्येतस्याहं पुनर्भविष्यामीति 15 परद्रव्यएवासभूतात्म त्रिकल्पत्वेनाप्रतिबुद्धो लक्ष्येतात्मा । नाभिरिंधनमस्ति धनमग्निरस्त्यग्निरग्निरस्तधनर्मिधनमस्ति । 卐 नाग्नेरिधनमस्ति नैवनस्याधिरस्त्यग्नेरनिरस्तोधनस्यें धनमस्ति । नाग्नेरिंघनं पूर्वमासीन्धनस्याग्निः पूर्वमासीदग्नेरभिः 5 पूर्वमासीदिधनस्यैधनं पूर्वमासीन्नाग्नेधिनं पुनर्भविष्यति वनस्याग्निः पुनर्भविष्यत्यग्नेरग्निः पुनर्भविष्यतींधनस्यैधनं पुनर्भविष्यतीति कस्यचिदग्नावेव सद्भूताग्निविकल्पवन्नाहमेतदस्मि नैतदहमस्त्यहमहस्वेतदत्तदस्ति न मतदस्ति 5 नैतस्याहमस्मि ममाहमस्म्येतस्यैतदस्ति न ममैतत्पूर्वमासीन्नैतस्याहं पूर्वमासं ममाहंपूर्वमासमेतस्यैतत्पूर्वमासीन्न ममैतत्पुनर्भविष्यति नैतस्याहं पुनर्भविष्यामि ममाहं पुनर्भविष्याम्येतस्यैतत्पुनर्भविष्यतीति स्वद्रव्य एवं सद्भूतात्मविकल्पस्य प्रतिबुद्धलक्षणस्य भावात ।
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अर्थ- जो पुरुष आपतें अन्य जे परद्रव्य-सचित्त कहिये स्त्रीपुत्रादिक, अचित्त कहिये धनवान्यादिक, मिश्र कहिये दोऊ जामैं ऐसें ग्रामनगरादिक, तिनिकुं ऐसें जाने कीं, मैं एहूं, तथा मै इनका हूं, तथा ए मेरे हैं, तथा ए मेरे पूर्वे थे, तथा इनिका मै पूर्वै था, तथा ए मेरे आगामी होंगे, तथा मै भी इनका आगामी होऊंगा। ऐसा झूठा असत्यार्थ आत्मविकल्प करे है, सो पुरुष मूढ है, मोही है, अज्ञानी है । बहुरि जो पुरुष भूतार्थ जो परमार्थं वस्तुस्वरूप ताकूं जाणता संता है, सो ऐसा झूठा विकल्प नाहीं करे है, सो मूढ नाहीं है, ज्ञानी है।
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टीका- पहले दृष्टांत कहे हैं, जैसे कोई पुरुष इंधन अग्निकू मिल्या देखि ऐसा झूठा विकल्प 5 करे, जो अग्नि है सो इंधन है, तथा इंधन है सो अग्नि हैं, तथा अम्निका इंधन पूर्वे था, इंधनका अग्नि पूर्वे था । तथा अग्निका इंधन आगामी होयगा अर इंधनका अग्नि आगामी 5 होयगा । ऐसें इंधन के विषे ही अग्निका विकल्प करै सो झूठा है, तिसकरि अप्रतिबुद्ध अज्ञानी 5 कोई लख्या जाय है। तेसे ही दात है, जैसे जो कोई परद्रव्यविर्षे असत्यार्थ आत्मविकल्प करे जो मैं यह परद्रव्य हूं । अर वह परद्रव्य है सो मैं हूं । तथा यह मेरा परद्रव्य है । इस परद्रव्यका 5
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हूं तथा मेरा यह पूर्वे था । मैं इसका पूर्वै था । तथा मेरा यह आगामी होयगा । मै इसका
आगामी हंगा । ऐसें झूटै विकल्पकरि अप्रतिबुद्ध अज्ञानी लख्या जाय है । बहुरि अग्नि है सो फ
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इंधन नाहीं है। अग्नि है सो अग्नि ही है, ईंधन है सो इंधन ही है। तथा अनिका इंधन नाहीं है, इनका नहीं है। अम्निका ही अग्नि है, इंधनका इंधन है। तथा अग्निका ईंधन पूर्वे 5 भया नाहीं, इंधनका अग्नि पूर्वै भया नाहीं । अग्निका अग्नि पूर्वे भया, इंधनका इंधन पूर्वे भया । तथा अन इंधन आगामी नाहीं होगा, इंधनका अग्नि आगामी नाहीं होगा | अग्निका 卐 ही अग्नि आगामी होगा, इंधनका इंधन आगामी होयगा । ऐसें कोई अग्निविषे ही सत्यार्थ aftaar froल्प जैसे होय, तैसें हो, में यह परद्रव्य नाहीं है, सो परद्रव्यका परद्रव्य ही है । तथा यह परद्रव्य मोस्वरूप नाहीं है । मैं तो मैं ही हूं, परद्रव्य है सो परद्रव्य ही है। तथा मेरा यह परद्रव्य नाहीं इस परद्रव्यका मै नाहीं हूं। मेरा ही मैं हूं, परद्रव्यका परद्रव्य हैं । तथायां परद्रव्यका में पूवें नाहीं भया, यह परद्रव्य मेरा पूर्वे नाहीं भया । बेरा में ही पूर्व 5 भया, परद्रव्यका परद्रव्य पूर्वे भया । तथा यह परद्रव्य मेरा आगामी न होयगा, वाका मै आगामी नाही होंगा। मेरा मै ही आगामी होंगा, याका यह आगामी होयगा । ऐसें स्वद्रव्य 5 हीवि सत्यार्थ आत्म विकल्प होय है । यातें यह हो प्रतिबुद्धज्ञानीका लक्षण है, याहतें ज्ञानी लक्ष्या जाय है |
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भावार्थ- जो परद्रव्यविषै आत्माका विकल्प करे है, सो तो अज्ञानी है । बहुरि अपने आत्मा5 विषै ही आपा माने है सो ज्ञानी है । ऐसा अग्नि इंधनका दृष्टांतकरि दृढ किया है । आगे याही अर्थ कलशरूप काव्य कहे हैं ।
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मालिनी छन्दः
त्यजतु जगदिदानों मोहमाजन्मलीनं, रसयतु रसिकानां रोचनं ज्ञानमुद्यत् ।
st कथमपि नात्मानात्मना साकयेकः किल कलयति काले क्यापि तादात्म्यवृत्तिम् ||३२||
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जथाप्रतिबुद्धबोधनाय व्यवज्ञायः
अर्थ-जगत् कहिये लोक है सो अनादिसतारतें लेकर आखाद्या अनुभूया जो मोह, ताही , __ आवतो छोडो । बहुरि रसिकजनको रुचनेवाला उदय होता जो शान, नाही आस्वादो, जातें प्रभू
इस लोकवि आत्मा है सो अनात्मा जो परद्रव्य, ताकार सहित काहूही कालविक प्रगटकरि नाहीं प्राप्त होय है, जातें, आला एक है, लो, अनात्मा जो दूना अन्यद्रव्य, ताकर एकतारूप नाहीं होय है।
भावार्थ-आत्मा परद्रव्यते काहू प्रकार कोई कालविर्षे एकताका भाकू नाहीं प्रात होय है। तातें आचार्यनें ऐसी प्रेरणा करी है, जो, अनादित लग्या जो परद्रव्यते मोह, ताका भेदज्ञान बताया है, सो या एकपणारूप मोहकू अबही छोडो, अर ज्ञानकू आस्वादो, मोह है सो वृथा है, झूठा है, दुःखकारण है । आगें अप्रतिबुद्धके प्रतिवोधनेके अर्थी व्यवसाय कहिये व्यापार उपाय कहे हैं। गाथा
अण्णाणमोहिदमदी मज्झमिण भणदि पुग्गलं दव्वं । बद्धमबद्धं च तहा जीवो बहुभावसंजुत्तो॥२३॥ सव्वण्हुणाणदिछो जीवो उवओगलक्षणो णिचं । किह सो पुग्गलदवीभूदो जं भणसि मज्झमिणं ॥२४॥ जदि सो पुग्गलदव्वीभूदो जीवत्तमागदं इदरं । तो सत्ता चुत्तुं जे मज्झमिणं पुग्गलं दव्वं ॥२५॥
अज्ञानमोहितमतिर्ममेदं भणति पुद्गलद्रव्यं । बद्धमवद्धं च तथा जीवो बहुभावसंयुक्तः ॥२३॥
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सर्वज्ञज्ञानदृष्टो जीव उपयोगलक्षणो नित्यं । कथं स पुगलद्रव्यीभूतो वज्रणसि ममेदं ॥ २४ ॥ यदि स पुद्गलद्रव्यीभूतो जीवत्वमागतमितरत् । तच्छक्तो वक्तुं यन्ममेदं पुद्गलं द्रव्यं ॥२५॥
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मात्मख्यातिः --- युगपदनेकविधस्य बंधनोपाधेः सन्निधानेन प्रधावितानामस्वभावभावानां संयोगवशाद्विशेषाश्रयोप卐 रक्तः स्फटिकोपल इवात्यंततिरोहितस्वभावभावतया अस्तमित समस्त विवेकज्योतिर्महता स्वयमज्ञानेन विमोहितहृदयों 15 भेदमकृत्वा तानेवास्वभावभावान् स्वीकुर्वाणः पुद्गलद्रव्यं ममेदमित्यनुभवति किलाप्रतिबुद्धो जीवः । अथायमेव प्रतिबोध्यते 卐 रे दुरात्मन् ! आत्मप॑सन् । जहीहि जहीहि परमाविवेकषम्मरसतॄणाभ्यवहारित्वं । दूरनिरस्तसमस्तसंदेह विपर्यासानभ्यव 5 सायेन विश्वैकज्योतिषा सर्वज्ञज्ञानेन स्फुटीकृतं किल नित्योपयोगलक्षणं जीवद्रव्यं । तत्कथं पुद्गलद्रन्यीभूतं येन पुल फ्र द्रव्यं ममेदमित्यनुभवसि यतो यदि कथंचनापि जीवद्रव्यं पुद्गलद्रव्यीभूतं स्यात्, पुद्गलद्रव्यं च जीवद्रवीभूतं स्यात् 15 तदैव लवणस्योदकमिव ममेदं पुद्गलद्रव्यमित्यनुभूतिः किल घटेत तत्तु न कथंचनापि स्यात् तथा हि---यथा क्षारत्वलक्षणं 卐 लवणमुदकीभवत् द्रव्यत्वलक्षण मुदकं च लवणी भवात् क्षारत्यद्रवत्वसहनृत्य विरोधादनुभूयते न तथा नित्योपयोगलक्षणं 5 जीवद्रव्यं पुद्गलद्रव्योभवत् नित्यानुपयोगलक्षणं पुद्गलद्रव्यं च जीवद्रव्यभवत् उपयोगानुपयोगयोः प्रकाशतमसोरिव 57 सहवृत्तिनिरोधादनुभूयते । तत्सर्वथा प्रसीद विबुध्य स्वद्रव्यं ममेदमित्यनुभव |
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अर्थ — अज्ञानकरि मोहित है मति जाकी ऐसा जीव है सो ऐसें कहे है जो यह बद्ध कहिये
卐
शरीरादि, अबद्ध कहिये बाह्य धनधान्यादि परद्रव्य है सो मेरा है। कैसा है जीव? बहुभाव कहिये मोह राग द्वेषादि बहुतभाव, तिनिकरि संयुक्त है । आचार्य कहे हैं - सर्वज्ञके ज्ञानकरि देख्या जो नित्य उपयोग है लक्षण जाका ऐसा जीव है सो पुद्गलद्रव्यरूप कैसे होय ? जो तूं 卐 कहे है यह पुद्गलद्रव्य मेरा है। बहुरि जो जीवद्रव्य पुद्गलवव्यरूप होय जाय, तौ पुद्गलद्रव्य भी
卐
5 जीवपणाकूं प्राप्त होय ऐसा आया । जो ऐसें होय, तो यह पुद्गलद्रव्य मेरा है ऐसें कहनेकूं तुम 5 भी समर्थ होऊ, सो ऐसें है नाहीं ।
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टीका - अप्रतिबुद्ध कहिये अज्ञानी जीव है, सो पुद्गलद्रव्य है ताही यह मेरा है ऐसा अनुभवे 5
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卐 है। कैसा है अज्ञानी जीव ? अत्यंत आच्छादित भया जो अपना स्वभावभाव तिसपणाकरि ॥
अस्त भया है समस्त विवेक कहिये भेदज्ञानरूप ज्योति जाका । बहुरि कैसा है? बडे अज्ञानकरि आपहीकरि विमोहित है हृदय जाका । बहुरि कैसा है ? भेदज्ञानविना अपना अर परका 卐" भेद नाहीं करी अर जे अपने स्वभाव नाहीं ऐसे विभाव, तिनिळू अपने करता है । जाते जे अपने
स्वभाव नाहीं ऐसें जे परभाव, तिनिके संयोगके वशतें अपना स्वभाव अत्यंत तिरोहित भयो है ' छिप्या है । कैसे हैं परभाव ? एककाल अनेकप्रकारका जो बंधनका उपाधि, तिसके सन्निधान ।
कहिये अतिनिकटता ताकरि प्राप्त भये हैं। जैसे स्फटिकपाषाणकै अनेकप्रकारके वर्णको निकटताकरि अनेकवर्णरूपपणा दीखे, स्फटिकका निजश्वेतनिर्मलभाव दीरले नाही, तैसें ही कर्मका प उपाधिकरि शुद्धस्वभाव आत्माका आच्छादित होय रह्या है, सो दीखै नाहों, इस प्रकारकरि " पुद्गलद्रव्यकू अपना करी माने है। ऐसें अज्ञानीः प्रतिबोधिये हैं। रे दुरालन् आत्माका घात करनहारा तूं परम अविवेककरि जैसें तृणसहित सुंदर आहारकू हस्ती आदि पशु खाय, तैसे खानेका स्वभावपणाकू छोडि छोडि । जो सर्वज्ञज्ञानकरि प्रगट कीया नित्य उपयोगस्वभावरूप जीवद्रव्य, सो कैसें पुद्गलरूप भया ? जाकरि तूं यह पुद्गलद्रव्य मेरा है ऐसा अनुभव है। कैसा है सर्वज्ञका ज्ञान ? दूरि किये है समस्त संदेह विपर्यय अनव्यवसाय जाने । बहुरि कैसा है ? विश्व कहिये समस्तवस्तु ताकै प्रकाशनेको एक अद्वितीय ज्योति है। ऐसें ज्ञानकरि दिखाया ।
है। बहुरि जो कदाचित् कोई प्रकार जैसे लूण तो जलरूप होय जाय है, जल तृणरूप होय जाय 卐 है। तैसें जीवद्रव्य तौ, पुद्गलद्रव्यरूप होय, अर पुद्रलद्रव्य जीवरूप होय, तो तेरी “पुद्गलद्रव्य' - मेरा है ऐसी" अनुभूति वने सो तौ कोई प्रकार भी द्रव्यस्वभाव पलटै नाहीं। सो ही दृष्टांतकं
स्पष्ट करे हैं। जैसे क्षारपणा है लक्षण जाका ऐसा तृण है सो तौ जलरूप होता देखिये है।' बहुरि द्रवत्व है लक्षण जाका ऐसा जल है सो लूणरूप होता देखिये है । जाते तृणका क्षारपणाकै अर जलका द्रवपणाकै सहवृत्तिका अविरोध है । यह होना विरोधरूप नाहीं है। तैसें नित्य उप
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योगलक्षण तो जीवद्रव्य है, सो तो पुद्गलद्रव्य होता न देखिये है । बहुरि नित्य अनुपयोग नट 5 लक्षण पुद्गलद्रव्य है, सो जीवद्रव्यरूप होता न देखिये है । जातें प्रकाशतमकी ज्यों उपयोग अनुप्रयोगकै सहवृत्तिका विरोध है । जड चेतन कदाचित् भी एक होय नाहीं । तातें तूं सर्वप्रकार 5 करि प्रसन्न होऊ, तेरा चित उज्ज्वल करी संवाधान होऊ । अपने ही द्रव्यकूं अपना अनुभवरूप 5 करी । ऐसा श्रीगुरुनिका उपदेश है ।
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अयि कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतूहली सन्, अनुभव भवभूतेः पार्श्ववतीं मुहूर्त्तम् । पृथगथ विलसन्तं स्वं समालोक्य येन, त्यजसि झगति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम् || २३ ॥
भावार्थ - यह अज्ञानी जीव पुद्गलद्रव्यकूं अपना माने है, ताकू उपदेश करी सावधान किया 5 है। जो सर्वज्ञने ऐसा देख्या है - जो जड वेतनद्रव्य सर्वथा न्यारे न्यारे हैं कदाचित् कोई प्रकार भी 5 एकरूप होय नाहीं । तातें हे अज्ञानी तूं परद्रव्यकूं एकपणाकरि मानना छोडि वृथा मानि करि 5 परि पडौ । अब इसही अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
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5 आत्मानुभवका ऐसा माहात्म्य है तो मिथ्यात्वका नाशकरि सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होना तो सुगम है । तातें श्रीगुरुनिनें यह ही प्रधानकरि उपदेश कीया है। आगे अप्रतिबुद्ध जो अज्ञानी जीव, 5 सो कहे है, ताका वचनकी पहली गाथा है । गाथा
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अर्थ - अयि ऐसा कोमल आमन्त्रण संबोधन अर्थ में अव्यय है, ताकरि कहे हैं, भाई ! तू
कथमपि कहिये कोई ही प्रकारकरि बड़ा कष्टकरि तथा मरिहूकरि तस्वनिका कौतुहली हुवा संता,
फ इस शरीरादि मूर्तद्रव्यका एक मुहूर्त दोय घडी पाडोसी होऊ, अर आत्माका अनुभव करी । 5
जाकर अपने आत्माकूं विलासरूप सर्व परद्रव्यतें न्यारा देखिकरि इस शरीरादिमूर्तिक पुगलद्रव्यफ करि सहित एकपणाका मोहकूं शोधही छोड़ेगा ।
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भावार्थ- जो यह आत्मा दोय घडी पुद्गलद्रव्यर्ते भिन्न अपना शुद्धस्वरूपकूं अनुभवै तामें लीन
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होय परीषह आये चि माहीं, तौ घातिकर्मका नाशकरि केवलज्ञान उपजाय मोक्षकूं प्राप्त होय ।
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जदि जीवो ण सरीरं तित्थयरायरियसंथुदी चैव। सव्वावि हवदि मिच्छा तेण दु आदा हवदि देहो ॥२६॥ ...
यदि जीवो न शरीरं तीर्थकराचार्यसंस्तुतिश्चैव ।
___सर्वापि भवति मिथ्या तेन तु आत्मा भवति देहः ॥२६॥ आत्मख्यातिः–यदि य एवात्मा तदेव शरीरं पुद्गलद्रव्यं न भवत्तदा । ...
अर्थ-अप्रतिबुद्ध कहे हैं, जो जीव है सो शीर नाहीं है, तो तीर्थकर अर आचार्य इनिकी 5 + स्तुति करी है सो सर्वही मिथ्या होय है झूठी होय है। तिस कारणकरि हम जाने है आत्मा यह .. ऊ टीका-जो ही आत्मा है सोही पुद्गलद्रव्यस्वरूप यह शरीर है। ऐसें नाहीं होय तो तीर्थकर आचार्यनिकी ऐसी स्तुति करी है सो सारी मिथ्या होय । सो स्तुति कैसी है ताका काव्य है। "
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः कान्त्येव स्नपयन्ति ये दशदिशी धाम्ना निरुन्धन्ति ये धामोदाममहस्विनां जनमनो मुष्णन्ति रूपेण ये।। दिम्येन धनिना सुखं श्रवणयोः साक्षात्क्षरन्तोऽमृतं बन्धास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः सूरयः॥
इत्यादिका तीर्थकराचार्यस्तुतिः समस्तापि मिथ्या स्पात ततो य एवात्मा तदेव शरीरं पुद्गलद्रन्यमिति ममैकातिकी 卐 प्रतिपत्तिः नैवं नयविभागानभिज्ञोसि ।
अर्थ-ते तीर्थकर आचार्य वंदिवे योग्य हैं । केसे हैं ते ? अपनी देहकी कांतिकरि तौ दशदिशानिकू स्नपन करे हैं, धोवे हैं, निर्मल करे हैं। बहुरि अपने तेजकरि तेजते उत्कृष्ट जो सूर्या-卐 दिक तेजस्वी तिनिका तेजकू रोके हैं। बहुरि ते रूपकरि लोकनिक मनकू हरे हैं । बहुरि दिव्य
ध्वनिवाणीकरि काननविर्षे साक्षात् सुख अमृत वर्षावे हैं। बहुरि एक हजार आठ लक्षणनिको " ए धारे हैं ऐसे हैं । इत्यादिक तीर्थकर आचार्यनिको स्तुति है। सो सर्वही मिथ्या ठहरे है। ताते ।।
हमारे तो यह ही एकांतकरी निश्चयप्रतिपत्ति है, जो आत्मा है सोही शरीर है पुगलद्रव्य है, ऐसा ।
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- अप्रतिबुद्धने कया। तहां आचार्य कहे हैं, जो ऐसें नाहीं है। तूंनपविभागका जाननेवाला नाहीं । है। नयविभाग ऐसा है, सोही गाथामैं कहै हैं । गाथा
वहहारणयो भासदि जीवो देहो य हवदि खलु इक्वो। ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदावि एकठो ॥२७॥
व्यवहारनयो भाषते जीवो देहश्च भवति खल्वेकः ।
न तु निश्चयस्य जीवो देहश्च कदाप्येकार्थः ॥२७॥ मात्मख्यातिः-इह खलु परस्परावगादावस्थायामात्मशरीरयोः समवर्तितावस्थायां कनककलधौतयोरेकस्कंधन्य- पर वहारवयवहारमात्रणेवैकत्वं न पुननिश्चयतः। निश्चयतो छात्मशरीरयोरुपयोगानुपयोगस्वभावयोः बनकलधौतयोः पीतपांडुरत्वादिस्वभावयोरिवात्यंतव्यतिरिक्तत्वेनैकार्थत्वानुरपः नानात्वमेव हि किल नयविभागः। ततो व्यवहारनयेनैव शरीरस्तवनेनात्मस्तवनमुपपन्न । तथाहि___ अर्थ-व्यवहारनय है सो तौ, जीव अर देह एकही है ऐसा कहे है । बहुरि निश्चयनयके जीव ॥
अर देह कदाचित् भी एकपदार्थ नाहीं हैं। _____टीका-जैसें इस लोकविर्षे सुवर्ण अर रूपाकू गालि एक कीये एकपिंडका व्यवहार होय है, 卐 तैसें आत्माकै अर शरीरकै परस्पर एकक्षेत्रावगाहकी अवस्था होते एकपणाका व्यवहार है, ऐसे .. व्यवहारमात्रहीकरि आत्मा अर शरीरका एकपणा है। बहुरि निश्चयतें एकपणा नाहीं है, जातें पीला अर पांडुर है स्वभाव जिनिका ऐसा सुवर्ण अर रूपा है, तिनिके जैसे निश्चय विचारिये तब त
अत्यंत भिन्नपणाकरि एकपदार्थपणाकी अनुपपत्ति है, तात नानापणा ही है। तैसे ही आत्मा अर 15 शरीर उपयोग अनुपयोग स्वभाव हैं। तिनिक अत्यंतभिन्नपणातें एकपदार्थपणाकी प्राप्ति नाही
ताते नानापणा ही है। ऐसा यह प्रगट नयविभाग है । तातें व्यवहारनयही करि शरीरके स्तवन
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भावार्थ-व्यवहारनय तो आत्मा अर शरीरकू एक कहे है अर निश्चयनय भिन्न कहे है, तातें व्यवहारनपकरि शरीरका स्तवन करी आत्माका स्तन जानिये है । सोही आगें माथामैं कहे हैं। गाथा
इणमण्णं जीवादो देहं पुग्गलमयं थुणित्तु मुणी। मण्णदि हु संथुदो वंदिदो मए केवली भयवं॥२८॥
इदमन्यत् जीवाद हे पुद्गलमयं स्तुत्वा मुनिः।
मन्यते खलु संस्तुतो वन्दितो मया केवली भगवान् ॥२८॥ आत्मख्यातिः-यथा कलधौतगुणस्य पांडरत्वस्य व्यपदेशेन परमार्थतोऽतत्स्वभावस्यापि का स्वरस्य व्यवहारमात्रेगैव पांडुरं कार्यस्वरमित्यस्ति उपपदेशः । तथा शरीरगुणस्य शुक्ललोहितत्वादेः स्तवनेन परमार्थतोऽतत्स्वभावस्यापि ॥ तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य व्यवहारमात्रेणेव शुक्ललोहितस्तीर्थकरकेवलिपुरुष इत्यस्ति स्तवनं । निश्चयनयेन तु शरीरस्त.
वैननात्मस्तवनमनुपपन्नमेव तथाहि___ अर्थ-मुनि है सो यह जीवते अन्य पुद्गलमय देह ताकी स्तुति करी अर यह माने है, जो, मैं केवली भगवानकी स्तुती करी वंदना करी।
टीका-जैसे रूपाका गुण जो पांडुरपणा, ताका नामकरि सुवर्णकू पांडुर ऐसा नामकरि कहिये सो व्यवहारमात्रकरि कहिये है। परमार्थ विचारिये तव सुवर्णका स्वभाव पांडुर नाहीं है, पीत" है । तेसे ही शुक्लरक्तपणा आदिक शरीरके गुण हैं, जाके स्तवनकरि, तीर्थकर केवलीपुरुषकूम कहिये शुक्ल हैं रक्त हैं ऐसा स्तवन करीये हैं, सो यह स्तवन व्यवहारमात्रकरि है। परमार्थ विचारिये तब शुक्लरक्तपणा तीर्थंकर केवली पुरुषका स्वभाव है नाहीं। तातें निश्चयनयकरि卐 शरीरका स्तवन करि आत्माका स्तवन नाहीं बने है सोही गाथाकरि कहे हैं। इहां कोई ... पूछे, जो, व्यवहारनय तौ असत्यार्थ कया है अर शरीर जड है, सो व्यवहारके आश्रय जडकी, स्तुतीका कहां फल ? ताका उत्तर-जो, व्यवहारनय सर्वथा असत्यार्थ नाहीं हे, निधया ।
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- प्रधानकरि असत्यार्थ कह्या है अर छद्मस्थकू आपापरका आत्मा साक्षात् दीखे नाहीं अर शरीर .
दीखे, ताकी मुद्रा शांतरूपकू देखि अपने भी शांतभाव होय । ऐसा उपकार जानि शरीरके आश्रय भी स्तुति करे है, तथा शांतमुद्रा देखि अंतरंग वीतरागभावका निश्चय होय है यह भी उपकार है। गाथा
तं णिच्छये ण जुज्जदि ण सरीरगुणा हि होति केवलिणो। केवलिगुणो शुणदि जो सो तच्चं केवलिं शुणदि ॥ २९॥
तन्निश्चयेन युज्यते न शरीरगुणा हि भवन्ति केवलिनः।
केवलिगुणान् स्तौति यः स तत्त्वं केवलिनं स्तौति ॥२९॥ आरमख्याति-यथा कार्तस्वरस्य कलधौतगुणस्य पांडुरत्वस्याभावाम निश्चयतस्तद्वधपदेशेन व्यपदेशः । कार्तस्वरगुणस्य व्यपदेशेनैव कार्तस्वरस्य न्यपदेशात् तथा तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य शरीरगुणस्य शुक्ललोहितत्वादेरभावान्न निश्चयतस्तत्स्तवनेन स्तवनं तीर्थकरकेवलिपुरुषगुणस्य स्तवनेनैव तीर्थकरकेवलि पुरुषस्य स्तवनात् । कयं शरीरस्तवनेन तद्पिष्टावृत्वादान्मनो निश्चयेन स्तवनं न युज्यते इति चेद. अर्थ-सो स्तवन निश्चयवि युक्त नाहीं है जातें शरीरके गुण हैं ते केवली नाहीं हैं। जो केवलीके गुणनिक स्तवे है सोही परमार्थकरि केवलिकूस्तवे है।
टीका-सुवर्णके रूपेका गुण पांडुरपणा ताका अभाव है, तातें :पांडुरपणा नाककरि सुवर्णका नाम नाही बने है, सुवर्ण के गुण जे पीतपणा आदि, तिसहीके नामकरि सुवर्णका नाम होय है।) सेसेंही तीर्थकर केवली पुरूषके शरीरके गुण जे शुक्लरक्तपणा आदि, तिनिका अभाव है, तातें
निश्चयतें शरीरके गुणके स्तवनकरि तीर्थंकर केवलीपुरुषका स्तवन नाहीं होय है, तीर्थकर केवली " म पुरुषके गुणके स्तवनकरि ही साका स्तवन होय है । आगे शिष्यका प्रश्न है, जो, आत्मा तो
शरीरहीकै आधार है, तातें शरीरके स्तवनकरि आत्माका स्तवन निश्चयकरि कैसें नाहीं युक्त 卐 है ! ऐसा प्रश्नका उत्तररूप दृष्टांतसहित गाथा कहे हैं। गाथा
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यरम्मि वणिदे जह ण वि रण्णो वण्णणा कदा होदि । देहगुणे शुव्वते पण केवलिगुणा शुदा होंति ॥ ३०॥ नगरे वर्णित यथा नापि राज्ञो वर्णना कृता भवति ।
卐
देहगुणे स्तूयमाने न केवलिगुणाः स्तुता भवन्ति ॥ ३० ॥
आत्मख्यातिः – तथाहि
अर्थ — जैसे नगरका वर्णन करते संते राजाका वर्णन नाहीं किया होय है, तैसा बेहका
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नित्यमविकारसुस्थितसर्वाङ्गगमपूर्वसहजलावण्यम् । अक्षोभमिव समुद्रं जिनेन्द्ररूपं परं जयति ||२||
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गुणकूं स्तवते संते केवलीके गुण नाहीं स्तवनरूप कीये होय हैं। इसही अर्थका टीकाविर्षे प्रथम 卐
काव्य है ।
आर्याछन्दः
प्राकारकवलिताम्बरमुपवनराजीनिगीर्णभूमितलम् । पिवतीव हि नगरमिदं परिखावलयेन पातालम् ॥ १ ॥
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इति नगरे वर्णितेपि राज्ञः तदधिष्ठातृत्वेपि प्राकारोपवन परिखादिमत्वाभावाद्वर्णनं न स्यात् तथैव
अर्थ -- यह नगर है सो कैसा है ? प्राकार कहिये कोट, ताकरि तो मस्या है आकाश जाने क 5 ऐसा है। भावार्थ-कोट ऊंचा बहुत है. बहुरि उपवन कहिये बाग, तिनिकी राजी कहिये पंक्ति, 卐 तिनकरि निगल्या है भूमितल जाने ऐसा है । भावार्थ --सर्वतरफ वागनितें पृथ्वी छाय रही है. फ बहुरि कैसा है ? कोटके चौगिरद खाईका वलयकरि मानू पातालकूं पीवै ही है, ऐसा है । 卐 भावार्थ - खाई ऊडी बहुत है । ऐसें नगरका वर्णन करते संते राजा याकै आधार है तौऊ, कोट
卐
बाग खाई आदि सहित राजा नाहीं है । तातें राजाका वर्णन याकरि नाही होय है । तैसैंही
तीर्थंकरका स्तवन शरीरका स्तवन कीये नाहीं होय है, ताका भी काव्य है ।
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इति शरीरे स्तूयमानेपि तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य तदधिष्ठातृत्त्वेपि सुस्थितसर्वागत्वलावण्यादिगुणाभावात्स्तवनं न + स्यात् । अप निश्यस्तुतिमाह वा झेपलायकसंकरदोषपरिहारेण तावत्पर अर्थ-जिनेंद्रका रूप है सो उत्कृष्ट जैसा होय तैसें जयवंत वर्ते है। कैसा है ? नित्य ही ८"" अविकार अर भलेप्रकार मुखरूप तिष्ठथा है सर्वांग जामैं । बहुरि कैसा है? अपूर्व स्वाभाविक 卐 है अर जन्महीतें लेकर उपजा है लावण्य जाम । भावार्थ---सर्वकू प्रिय लागे है, बहुरि कैसा है ?
समुद्रकी ज्यों क्षोभ रहित है, चलाचल नाहीं है। ऐसें शरीरका स्तवन करते भी तीर्थंकर केवली ॥ । पुरुषके शरीरका अधिष्ठातापणा है, तौऊ सुस्थित सर्वांगपणा अर लावण्यपणा आत्माका गुण
नाहीं। तातें तीर्थकर केवलीपुरुषके इनि गुणनिका अभावतें याका स्तवन न होय। अब जैसे तीर्थकर केवलोकी निश्चयस्तुति होय तैसें कहे हैं। तहां प्रथम ही ज्ञेयज्ञायककै संकरदोष आवे ॥ ताका परिहार करि स्तुति कहे हैं। गाथा
जो इंदिये जिणत्ता णाणसहावाधिअं मुणदि आई। तं खलु जिदिदियं ते भणति जे णिच्छिदा साहू ॥३१॥ यः इन्द्रियाणि जिवा ज्ञानस्वभावाधिकं जानात्यात्मानम् ।
तं खलु जितेन्द्रियं ते भणन्ति ये निश्चिताः साधवः ॥३१॥ आत्मरूयातिः-यः खलु निरवधियंधपर्यायवशेन प्रत्यस्तमिवसमस्तस्परविभागानि निर्मलभेदाभ्यासकौशलोष- 5 लब्धांतःस्फुटातिसूक्ष्मचित्स्वभावावष्ट भक्लेन शरीरपरिणामापन्नानि द्रव्येद्रियाणि अतिविशिष्टस्वस्वविषयव्यवसायितया " खंडशः आकर्षति प्रतीयमानाखंडैकचिच्छक्तितया भावेंद्रियाणि ग्राह्यग्राहक लक्षगसंबंधप्रत्यासत्तिवर्शन सह संविदा परस्परमेकीभूतानि च चिच्छक्त स्वयमेवानुभूयमानासंगतया भार्वेद्रियावगृह्यमाणान् स्पर्शादीनिंद्रियाश्चि सर्वथा स्वतः पृथकारणेन विजित्योपरतसमस्तरं यत्रायकसंकरदोषस्वेनैकत्वे टंकोत्कीण विश्वस्याप्युस्पोपरितरता प्रत्यक्षोधोततया ८८
नित्यमेवांतः प्रकाशमानेनानपायिना स्वतः सिद्ध न परमार्थसता भगवता ज्ञानस्वभावेन सर्वेभ्यो द्रव्यांतरेभ्यः परमार्थ卐 तोतिरिक्तमात्मानं संचेतयते स खलु जितेंद्रियो जिन इत्येका निश्चयस्तुतिः । अथ भाव्यभावकसंकरदोषपरिहारेण- 卐
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म ___अर्थ-जो इंद्रियनिकू जीतिकरि ज्ञानस्वभावकरि अन्यद्रव्यत अधिका आत्माकू जाने है. उप... ता जितेंद्रिय ऐसा; जे निश्चवनयवि तिष्ठे साधु हैं, ते कहे हैं।
____टीका--जो मुनि द्रव्येंद्रिय तथा भावेदिय तथा इंद्रियनिक विषयनिक पदार्थ इनि तीनीहीकू 5 आपते न्याराकरि अर समस्त अन्यद्रव्यनितें भिन्न आत्माकू अनुभव है, सो निश्चयकरि जितेंद्रिय " है। कैसे हैं द्रव्येंद्रिय ? अनादि अमर्यादरूप जो बन्धपर्याय, ताके कशकरि, अस्त भया है समस्त
स्वपरका विभाग जिनिकरि । बहुरि कैसे हैं ? शरीरपरिणाम प्राप्त भये हैं । भावार्थ-आत्माते । ऐसे एक होय रहे हैं, जो भेद नाही दीखें है। तिनिळू तो निर्मल जो भेदका अभ्यासका प्रवीणपणा, ताकरि पाया जो अंतरंगविर्षे प्रगट अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभाव, ताका अवलंबन, ताके बल-ज करि आपते न्यारे किये है, यह ही जीतना । बहुरि कैसे हैं भावेंद्रिय ? न्यारे न्यारे विशेषनिकू
लिए जे अपने विषय तिनिविर्षे व्यापारपणाकरि विषयनिक खंड-खंड ग्रहण करते हैं। भावार्थ-4 म ज्ञानकू खंड-खंडरूप जगावे हैं । तिनि प्रतीतिमैं आवती जो अखंड एक चैतन्यशक्ति, ताकार
आपते न्यारे जाने है, इनिका एही जीतना । बहरि कैसे है इंद्रियनिक विषयभूत पदार्थ ? ग्राह्य卐 ग्राहकलक्षण जो संबंधी ताकी निकटताके वशकार अपने संवेदन अनुभवकार सहित परस्पर एकले ।।
होय दीखे हैं, तिनिकू अपनी चैतन्यशक्तिके आपही अनुभवमैं आवता जो असंगपणा अमिलमिलाप ताकरि भावेंद्रियनिकरि ग्रहे हुये जे स्पादिकपदार्थ, तिनि... आपते न्यारे किये हैं, इनिका एही जीतना । ऐसें इंद्रियज्ञानकै अर विषयभूत पदार्थनिक यज्ञायकका संकरनामा दोष आवै था, ताके दूरि होनेकरि आत्मा एकपणावि टंकोत्कीर्ण ठहयां । जैसे टाकीकार उकीरी पाषा-5 पविक मूर्ति एकाकार जैसीकी तैसी ठहरै, तैसें ठहरथा। सो यह काहै करि ऐसा जान्या ? .. समस्तपदार्थ निके तो उपरि तरता जानता संता भी तिनिरूप नाहीं होता अर प्रत्यक्ष उद्योतपणा- ht और नित्य ही अंतरगविर्षे प्रकाशमान र अनपायी अविनश्वर अर. आपहीते सिद्ध भया अर, परमार्थरूप ऐसा भगवान् जो ज्ञानस्वभाव ताक़रि-सर्व अन्यद्रव्यते परमार्थ से जुदा जान्या, जात
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5 ऐसा मानस्वभाव अन्य अपतनद्रव्यनिमें नाहीं, तातें सर्वते अधिक न्यारा ही है। ऐसे मालाम
माणे मोजितेंद्विय जिन है। ऐसे एक तो यह निश्चयस्तुति भई । इहां शेष तौ इंद्रियनिके ... विषयभूत पदार्थ अर सायक आप आमा, इनि दोऊनिके विषयनिकी आसकताकरि अनुभवनमा एकसा होय था, सो भेदझानकार भिन्नपणा जान्या, तब ज्ञेयज्ञायक संकरदोष हरि भया ऐसे मानना । आगें भाव्यभावक संकरदोष परिहार करि स्तुति कहे हैं। गाया
जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाघियं मुणइ आदं तं जिदमोहं साहुं परमवियाणया विति॥३२॥ यो मोहं तु जिवा ज्ञापर ववाधिष मालालकिला !
तं जितमोहं साधु परमार्थ विज्ञायका विंदन्ति ॥३२॥ आख्याति:-यो हि नाम फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकत्वेन भवंतमपि दूरत एव तदनु पुरात्मनो भावस्य ,.. ब्यावर्तनेन हठान्मोई न्यकृत्योपरतसमस्तभाव्यभाक्कसंकरदोषत्वेनैकत्वे टंकोत्कीर्ण विश्वस्याप्यस्योपरितरता प्रत्यक्षी, पोतितया नित्यमेवांतः प्रकाशमानेनानपायिना स्वतः सिरन परमार्थसता भगवता ज्ञानस्वभावेन द्रव्यांतरस्वभावमाविम्यः - सर्वेभ्यो भावांतरेभ्यः परमातोतिरिक्तमात्मानं संचेतयते स खलु जितमोहो जिन इति द्वितीया निश्चयस्तुतिः । एवमेव , च मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वपक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायसूत्राण्येकादश पंचानां प्रोत्रचक्षुणरसनस्पर्शनसूत्राणामिद्रियसूत्रेण पृयग्न्याख्यातत्वाद्वयाख्येयानि ! अनया दिशान्यान्यप्लानि । अथ भाम्पमावकभावाभावेन। " ____ अर्थ-जो मुनि मोहकू जीतिकरि अपने आत्माकू ज्ञानस्वभावकरि अन्यद्रव्यभावनित अधिकाजाने तिस मुनीकू परमार्थ के जाननेवाले जितमोह ऐसा जाने हैं, कहे हैं।
टीका-जो मुनि है सो फल देनेकी सामर्थ्यकरि प्रगट उदयरूप होय अर भावकपणाकरि प्रगट होता जो मोहकर्म, ताही, तिसके अनुसार है प्रवृत्ति जाकी, ऐसा जो अपना आत्मा भाव्य, ताकू भेवज्ञानके बलतें दूरिहीतें न्यारा करनेकरि मोहकू न्यारा करि, अर तिरस्कार करनेतें दूरि॥ भया है समस्त भाव्यभावक संकरदोष जामैं, तिसपणाकरि एकपणा होते, टंकोत्कीर्ण निश्चल
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5 एक अपने आत्माकूं अनुभव है । सो जीत्या है मोह जानें ऐसा जिन है । कैला है आत्मा ? समस्तलोक उपरि तरता अर प्रत्यक्ष उद्योतपणाकरि नित्यहि अंतरंगविषै प्रकाशमान अविनाशी 5 अर आपहीतें सिद्ध भया परमार्थरूप भगवान ऐसा जो ज्ञानस्वभाव ताकरि अन्यद्रव्यके स्वभावकरि होनेवाले जे सर्व ही अन्यभाव, तिनितें परमार्थकरि अतिरिक्त कहिये अधिका है, न्यारा है । 卐 ऐसा ज्ञानस्वभाव 'अन्यभावनि मैं नाही' है ऐसा ज्ञानस्वरूप आत्माकूं अनुभवे है ।
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भावार्थ - ऐसें अपना आत्मा, भावक जो मोह, ताके अनुसार प्रवृत्ति भाव्यरूप होय, ताकूं भेदज्ञानके चलतें न्यारा अनुभवे सो जितमोह जिन है । ऐसें भाव्यभावकभावके संकर दोषपरिहार क फ करि, दूसरी निश्चयस्तुति है । इहाँ आशय ऐसा- जो, श्रेणी चढतें मोहका उदय अनुभव न 卐 रहै, अपने बलतें उपशमादि करि आत्माकूं अनुभवे है, ताकूं जितमोह कया है । इहां मोहकूं 15 जीत्या है ताका नाश न भया । इहां गाथामैं एक मोहहीका नाम लिया, तातें मोहका पद पलटिकरि, ताको जायगा राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन्द, वचन, काय ए ग्यारह इस सूत्रकरि, अर श्रोत्र, चक्षु, घाण, रसन, स्पर्शन ए पांच इंद्रियसूत्रकरि, ऐसें सोलह पद 5 पलटनेते, सोलह सूत्र न्यारे न्यारे व्याख्यानरूप करने, अर इस ही उपदेशकरि अन्य भी विचारणे । आगे भाव्यभावकभावके अभावकरि निश्चयस्तुति कहे हैं। गाथा
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जिदमोहस्स दु जइया खीणो मोहो हविज्ज साहुस्स ।
तइया हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविदूर्हि ॥ ३३ ॥ जितमोहस्य तु यदा क्षीणो मोहो भवेत्साधोः ।
तदा खलु क्षीणमोहो भण्यते स निश्चयविद्भिः ॥३३॥
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आत्मख्यातिः - इह खलु पूर्वप्रकान्तेन विधानेनात्मनो मोहं न्यक्कृत्य यथोदितज्ञानस्वभावानं तिरिचात्मसंचेतनेन
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15 जितमोहस्य ससो यदा स्वभावभावभावनासौष्ठवाचष्टंभात्तत्संवानात्यंत विनाशेन पुनरप्रादुर्भावाय भावकः क्षीणो मोहः 卐
स्याचदा स एव भाव्यभावकभावाभावेनैकत्वे टंकोत्कीर्णपरमात्मानमवाशः क्षीणमोहो जिन इति तृतीया निश्चयस्तुतिः ।
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5 एकमेव च मोहपदपरिवर्तनेन रामद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनो कर्ममनोव चनकापश्रोत्रचक्षुणिरसनस्पर्शनस्त्राणि षोडश 5 व्याख्येयानि । अनया दिशान्यान्ययुद्धानि ।
अर्थ -- जीत्या है मोह ज्यानें ऐसें साधुके, जिसका मोह है सो क्षीण होय सत्तामै नाश होय, तिसकाल, जे निश्चयनयके जाननेवाले हैं, ते निश्चयकरि तिस साधूकूं क्षीणमोह ऐसा नाम कहे हैं।
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टीका - इस निश्चयस्तुतिविषै जो पूर्वोक्तविधानकरि मोहकूं तिरस्कार करि, जैसा कहा
तैसा ज्ञानस्वभावकरि अन्यद्रव्यर्ते अधिक आत्माका अनुभव करनेकरि, जितमोह भया, तार्के
5 जिसकाल अपने स्वभावभावकी भावनाका भलैप्रकार अवलम्बन करनेते मोहका सन्तानका अत्यंत 5 विनाश ऐसा होय, 'जो फेरि ताका उदय नाहीं होय है' ऐसा भावरूप मोह, जिसकाल क्षीण होय, तिसकाल भावकमोहका क्षय होतें, आत्माक विभावरूप Horror भी अभाव हो । ऐसें भाव्यभावकभावका अभाव करि एकपणा होतें, टंकोत्कीर्ण निश्चल परमात्मा प्राप्त हुवा 卐 संता 'क्षीणमोह जिन' ऐसा कहिये । यह तीसरी निश्चयस्तुति है ।
भावार्थ -- जिसका साधु पहले अपने बलतें उपशमभावकरि मोहकूं जीत्या पीछें जिसकाल 5 अपनी बडी सामर्थ्य मोहका सत्तामैंसूं नाशकरि, ज्ञानस्वरूप परमात्मा प्राप्त होय, तब क्षीण5 मोह जिन कहिये । इहां भी पूर्वे कहै तेलें ही मोक्षपदकूं पलटिकरि, तहां राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, प्राण, रसन, स्पर्शन ये पद स्थापि फ्र सोलहसूत्र पढ़ने अर व्याख्यान करना अर इसही प्रकार उपदेश करि अन्य भी विचारणे । अब 卐 इहां इस निश्चयव्यवहाररूपस्तुती के अर्थ के कलशरूप काव्य कहे हैं ।
शार्दूलविक्रीडित छन्दः
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एकत्वं व्यवहारतो न तु पुनः कायात्मनोर्निश्चयान्नुः स्तोत्रं व्यवहारतोऽस्ति वपुषः स्तुत्या न तत्तन्त्रतः । स्तोत्रं निश्वयतश्चितो भवति चित्स्तुत्यैव सैवं भवेन्नातस्तीर्थकरस्तव चरवलादेकत्वमात्मांगयोः ||२७|| 卐 अर्थ - कायकै अर आत्माकै व्यवहारनयकरि एकपणा है । वहरि निश्चयनयकरि एकपणा
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.. नाहीं है। याहीतें शरीरके स्तवनतें आत्मापुरुषका स्तवन व्यवहारनयकरि भया कहिये, अर + निश्चयतें न कहिये । निश्चयतें तौ चैतन्यके स्तवनते ही चैतन्यका स्तवन होय है। सो चैतन्यका - स्तवन इहाँ जितेंद्रिय, जितमोह, क्षीणमोह ऐसे कया सें होय है। तातें यह सिद्ध भया-जो
अज्ञानितें तीर्थंकरके स्तवनका प्रश्न कोया था ताका यह नय विभागकरि उत्तर दिया, ताके चलते + आत्माकै अर शरीरकै एकपणा निश्चयतें नाहीं है। फेरि याही अर्थ के जाननेकरि भेदज्ञानकी सिद्धि होय है ऐसे अर्थरूप काव्य कहे हैं।
मालिनीछंदः इति परिचिततत्त्वैरात्मकायैकतायो नयविभजनयुक्त्यात्यंतमुच्छादितायां ।
अवतरति न बोधो बोधमेवाधकस्य स्वरसरभसकृष्टः प्रस्फुटन्नेक एत्र ॥२८॥ . अर्थ-ऐसे परिचयरूप कीया है वस्तुका यथार्थस्वरूप जिनि। ऐसे मुनीने आत्मा अर ..
शरीरके एकपणाकू नयके विभागके युक्तिकरि अत्यंत उच्छादन किया निषेध्या है। याके होते, म तत्कालज्ञान है सो यथार्थपणाकू कौन पुरुषकै अवतार न धरै ? अवश्य अवतार घरे ही घरे । कैसा +
होयकरी? अपना निज़रसका वेगकरि खेंच्या हवा प्रगट होता एकस्वरूप होयकरि। 9 भावार्थ-निश्चयव्यवहारनयके विभाग करि आत्माका अर परका अत्यंत भेद दिखाया, '
सो याकू जानिकरि, ऐसा कौन पुरुष है ? जाके भेदज्ञान न होय ! होय ही होय । जातें ज्ञान .. है सो अपना स्वरसकरि आप अपना स्वरूप जाने, तब अवश्य आप न्यारा ही अपने आत्मा जनावै है। इहां कोई दीर्घसंसारी ही होय तो ताका कछु कहना है नाहीं। ऐसें अप्रतिबुद्धने ।
कया था, जो "हमारे तो यह निश्चय है, जो वेह है सोही आत्मा है" ताका निराकरण किया। 15 आगें कहै हैं, जो, ऐसे यह अप्रतिबुद्ध अज्ञानी जीव अनादिके मोहके संतानकरि निरूपण ज.. " किया जो आत्माका अर शरीरका एकपणा, ताका संस्कारपणाकरि अत्यंत अप्रतिबुद्ध था, सो
अब प्रगट उदय भया है तत्त्वज्ञानस्वरूप ज्योति जाकै "जैसे कोई पुरुषके नेत्र में विकार था, तब +
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वर्णादिक अन्यथा दीखे थे, अर जब विकार मिटे, तब जैलाका तैसा दोख्या तैसें प्रगट उघडचा
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है” पटलस्थानीय आवरणकर्म जाका, ऐसा भया संता प्रतिबुद्ध भयो, तब साक्षात् देखनेवाला
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३४
" आपके आप ही करि जानि अर श्रद्वान करिअर तिसकूं आचरण करनेका इच्छक भया संता पूछे है, जो इस आत्मारामके अन्यद्रव्यनिका प्रत्याख्यान कहिये त्यागना, सो कहा होय ? ऐसें 卐 5 पूछते संते आचार्य कहै हैं । जो ऐसें कहना । गाथा
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णाणं सव्वे भावे पञ्चक्खादि परेत्ति णादूण | ता पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेदव्वं ॥ ३४॥ ज्ञानं सर्वान् भावान् यस्मात्प्रत्याख्याति च परानिति ज्ञाला । तस्मात्प्रत्याख्यानं ज्ञानं नियमात् ज्ञातव्यम् ॥ ३४ ॥
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आत्मख्यातिः—यतो हि द्रभ्यांतरस्वभावभाविनोऽन्यानाखलानपि भावान् भगवदज्ञातृद्रव्यं स्वस्वभावभावाम्याप्य
तया परत्वेन ज्ञात्वा प्रत्याचष्ट ततो य एवं पूर्व जानाति स एव पश्चात्प्रत्याचष्ट े न पुनरन्य इत्यात्मनि निश्चित्य प्रत्याख्यानसमये प्रत्याख्येयोपाधिमात्रप्रवर्त्तितकर्तृ स्वन्पपदेशत्वेपि परमार्थेनाव्यपदेश्य ज्ञानस्वभावादप्रच्यवनात्प्रत्याख्यानं ज्ञानमेवेत्यनुभवनीयं । अथ ज्ञातुः प्रत्याख्याने को दृष्टांत इत्यत आह ।
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नियमतें
अर्थ - जाकारण सर्वही जे भाव कहिये पदार्थ आप सिवाय हैं, ते पर हैं, ऐसें जानिकरि 5 प्रत्याख्यान करे हैं, त्यागे हैं। तातें जो पर है यह जानना है सोही प्रत्याख्यान है। जानना । अपने ज्ञानमैं त्यागरूप अवस्था सोही प्रत्याख्यान है । अन्य किछू नाहीं है । टीका -- जानें यह ज्ञाताद्रव्य आत्मा भगवान् है, सो अन्यद्रव्यके स्वभावतें भये ऐसें जे अन्य समस्त परभाव, तिनिफूं अपने स्वभावभावकरि नाहीं व्यापनेकरि परपणाकरि जानि अर त्यागे है । तातें जो पहले जानें जान्या है सोही पीछे त्यागे है । अन्य तौ कोई त्यागनेवाला फ्र नाहीं है । ऐसें त्यागभाव आत्माही विषै निश्चय करि अर त्यागके समये प्रत्याख्यान करनेयोग्य 5 जे परभाव, तिनिकी उपाधिमात्र प्रवर्त्य जो त्यागका कर्तापणाका नाम ताके होतें भी परमार्थकरि 5
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देखिये, तब परभावका त्याग कर्तापणाका नाम आपको नाहीं है। आप तौ या नामते रहित है, .. ज्ञानस्वभावतें छूटया नाहीं है, ताते प्रत्याख्यान ज्ञानही है ऐसा अनुभवन करना। ___ भावार्थ-आत्माकै परभावका त्यागका कर्तापणा है सो नाममात्र है। आप तो ज्ञानस्वभाव प्रामा है, परद्रव्यकू पर जान्या फेरि परभावका ग्रहण नाहीं, सोही त्याग है, ऐसे यह जाननाही प्रत्याख्यान है। ज्ञानसिवाय किछु अन्यभाव नाहीं है। आगें पूछे है, जो "ज्ञाताके प्रत्याख्यान ज्ञानही ॥ कया" याविर्षे हटोत कहा है ? ताका उत्तररूप दृष्टांतदाोतकी गाथा कहे हैं। गाथा
जह णाम कोवि पुरिसो परदव्वमिणति जाणिदुं चयदि। तह सवे परभावे पाऊण विमुंचदे णाणी ॥३५॥ यथानाम कोपि पुरुषः परद्रव्यमिति ज्ञात्वा त्यजति ।
तथा सर्वान् परभावान् ज्ञात्वा विमुचति ज्ञानी ॥३५॥ 卐 बात्मरूपाति:-यथाहि कश्चित्पुरुषः संभ्रांत्या रजकात्परकीयं चीवरमादायात्मीयप्रतिपल्या परिधाय शयानः ____ स्वयमझानी सन्नन्येन वदंचलमालय वलान्नग्नीक्रियमाणो मंक्षु प्रतिबुध्यस्वार्पय परिवर्तित भेतवस्त्र मामकमित्यसक+वायं मृण्वन्नखिलैचिन्हेः सुठु परीक्ष्य निश्चितमेतत्परकीयमिति झावा झानी सन्मुंचति तचीवरमचिरात् तथा मातापि
संश्रोस्या परकीयान्मावानादायात्मीयप्रतिपश्यात्मन्यध्यास्य शयानः स्वयमज्ञानी सन् गुरुणा परभावविवेकं कृत्वैकी क्रियप्रमाणो मंधु प्रतिबुभ्यस्वैकः सत्वरमात्मेत्यसकच्छौतं वाक्यं शृण्वन्नखिलैश्चिन्हैः सुष्टु परीक्ष्य निश्चितमेते परमाना इति ___पात्वा मानी सन् मुंचति सर्वान्मावानपिरान् । 卐 अर्थ- जैसे लोकमैं कोई पुरुष परवस्तुकू ऐसें जाने, जो यह परवस्तु है, तब ऐसें जानि पर. - वस्तू त्यागे है। तेसही ज्ञानी है सो सर्वही परद्रव्यनिके भावनिकुंए परभाव हैं ऐसा जानि
तिन त्यागे है। 卐 टीका--जैसे कोई पुरुष धोवीकेस पेलेका वस्त्र ल्याय, तिसकू भ्रमकार अपना जानि वोडि.
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5 करि सूता, आप ऐसें न जान्या “जो यह पैलेका है,” पीछे पैलेनें तिस वस्त्रका पल्ला पकडि किरि उाडि नागा किया, अर कही, “जो शीघ्र जागी, सावधान होऊ, मेरा वस्त्र बदले 5 समय आया है सो मेरा मोकूं देऊ,” ऐसा वारंवार वचन कया सो सुणता संता, तिस वस्त्र चिह्न समस्त देखि परीक्षा करि ऐसा जान्या, 'जो यह वस्त्र तौ पैलेका ही हैं ऐसा जानिकरि ज्ञानी भया फ संता तिस परके कूं शीघ्र ही त्यागे है। ते ज्ञानी भी जमकर परद्रव्यके भावनिकं ग्रहण करि अपने जानि, आत्माविषै एकरूपकरि सुता है, बेखवरी हुवा थका आपहीतें अज्ञानी होय रह्या है। जब गुरु या सावधान करें, परभावका भेदज्ञान कराय, एक आत्मभावरूप करै, कहै, जो "तं शीघ्र आगी, सावधान होऊ, यह तेरा आत्मा है तौ एक ज्ञानमात्र है, अन्य सर्व परद्रव्यके भाव हैं" तब वारंवार यह आगनके वाक्य सुणता संता समस्त अपने परके चिह्निकरि भलैप्रकार फ परीक्षा करि, ऐसा निश्चय करै, जो मैं एक ज्ञानमात्र हूं, अन्य सर्वं परभाव हैं, ऐसें ज्ञानी होयकरि सर्व परभावनि तत्काल छोडे है
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भावार्थ - जेतें परवस्तू भूलिकर अपनी जाने, तेतैं ही ममत्व रहै अर परकूं परकी जाने यथार्थज्ञान होय, तब पैलेकी वस्तु काका ममत्व रहे ? अर्थात् न रहै यह प्रसिद्ध है। अब इस ही अर्थका कलशरूप काव्य कहे I मालिनी छन्दः
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अवतरति न यावद्वृचिमत्यंतवेगाद्नवमपरभावत्यागदृष्टांतदृष्टिः ।
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झटिति सकलभावैरन्यदीयैर्विमुक्ता स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविर्बभूव ॥ २६ ॥
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अर्थ - यह परभाव त्यागके दृष्टांतकी दृष्टि है सो "पुरानी न पडे ऐसें जैसें होय तेसे" 5 अत्यंत वेगतें जेतें प्रवृत्तिकं नाहीं प्राप्त होय है तापहले ही तत्काल सकल अन्यभावनिकरि रहित 5 आपही यह अनुभूति तौ प्रगट होती भई ।
भावार्थ-यह परभावका त्यागका दृष्टांत कला, तापरि दृष्टि पडे ते पहले समस्त अन्यभावतितें 5
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卐 रहित अपना स्वरूपका अनुभवन तो तत्काल होय गया, जातें यह प्रसिद्ध है-जो वस्तूकू परकी
जाने पीछे ममत्व रहै नाहीं। आगें या अनुभूतिः परभावका भेदज्ञान कौन प्रकार भया? ऐसी आशंका करि, प्रथम तो भावक जो मोहक का उदयरूप भाव ताका भेदज्ञानका प्रकार कहे हैं । गाथा
णत्थि मन को विमोहो बुज्झदि उवओग एव अहमिको । तं मोह णिम्ममत्तं समयस्स वियाणया विति ॥३६॥
नास्ति मम कोपि मोहो कुच्यते उपयोग एवाहलेकः ।
तं मोहनिर्ममतं समयस्य विज्ञायकाः विदति ॥३६॥ आत्मख्याति:-इह खलु फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकेन सता पुद्गलद्रव्येणाभिनियमानष्टंकोत्कीर्णकज्ञायकस्वभावभावस्य परमार्थतः परभादेन भावयितुमशक्यत्वात्कतमोपि न नाम मम मोहोस्ति किंचतत्स्वयमेव च विश्वप्रकाशचंचुरविकस्वरानवरतप्रतापसंपदा चिच्छक्तिमागेण स्वभावभावेन भगवानात्मैवाक्थुध्यते । यत्किलाई खल्वेकः ततः समस्तद्रव्याणां परस्परसाधारणावगाहस्य निवारयितुमशक्यत्वान्मज्जितावस्थायामपि दधिखंडावस्थायामिव परिस्फुट
स्वदमानस्वादभेदतया मोहं प्रति निर्ममत्वोस्मि । सर्वदेवात्मकत्वगतत्वेन समयस्यैवमेव स्थिततत्वात् इतीत्यं भावकभाव' विवेको भूतः ।
अर्थ-जो ऐसा जानना होय, जो यह मोह है सो मेरा कछू भी सम्बन्धी नाहीं है, मैं ऐसा 卐 जान ई, जो एक उपयोग है सोही मैं हूं, ऐसे जाननेकू मोहतें निर्ममत्वपणा सिद्धांतके तथा अपने म परफे स्वरूपरूप समयके जाननेवाले जाने हैं कहे हैं।
टीका-नाम ऐसा सत्यार्थ मैं अव्यय है। तहां कहे हैं, मैं सत्यार्थपणे ऐसा जानूं हूं, जो यह है मोह है, सो मेरा कळू भी लागता नाहीं। कैसा है यह ? इस मेरे अनुभवनमैं फल देनेकी सामर्थ्यकरि प्रगट होय, भावकरूप होता जो पुद्गलद्रव्य, ताकरि रच्या हुवा है, सो मेरा नाहीं
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है । जाते मैं तो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभाव हूं। यह गड है, सो परमार्थते परके भावको _5 परका भावकरि भावनेका असमर्थपणा है, तो इहां कहां जाणिये है? जो स्वयमेव सास्त ॥
.... वस्तूका प्रकाशनेवि चतुर विकासरूप भई अर निरंतर शाश्वती प्रतापसंपदा जामें पाईये ऐसी १८ चैतन्यशक्ति, तिसमात्र स्वभावभावकरि भगवान् आत्माहीकू जाणीये है-जो मैं हूं सो पारमार्थकार .. एक चिच्छक्तिमात्र हूं। तात समस्तद्रव्यनिके परस्पर साधारण एकक्षेत्रावगाहका निवारण करनेका
असमर्थपणातें “जैसे दही अर. खांड मिली शिखरणी होय, तब दही खांड एकसे होय रहे हैं तोऊ प्रगट खाटा मीठा स्वादके भेदते न्यारे न्यारे जाने जाय हैं, तैसें" द्रव्यनिके लक्षणभेदतें जड ,
चेतनका न्यारा न्यारा स्वादतें प्रगट जान्या है। जो मोहकर्मका उदयका स्वाद रागादिक है, सो ५ चैतन्यके निजस्वभावके स्वादतै न्यारे ही हैं, तातै मोहप्रती मै निर्मम ही हूं। जाते यह आत्मा,
सदाकाल ही आपणे एकरूपपणाकू प्राप्त हुवा अपना स्वभावरूप समय, सोही भया महल, 'तावि तिष्ठे है। ऐसें भावकभाव जो मोहका उदय, तातें भेदज्ञान भया।
भावार्थ-यह मोहकर्म है सो जड पुद्गलद्रव्य है, याका उदय कलुष मलिनभावरूप है, सो 5 याका भाव है सो भी पुद्गलविकार है। सो यह भावकका भाव है, सो जब यह चैतन्यके उप
योगके अनुभवमें आवै, तब उपयोग भी विकारी होय रागादिरूप मलिन दीखें । सो जव . याका भेदज्ञान होय, जो चैतन्यकी शक्तिकी व्यक्ति तौ ज्ञानदर्शनोपयोगमात्र है अर यह कलुषता - रागद्वेषमोहरूप है, सो तिस द्रव्यकर्मरूप जडपुद्गलद्रव्यकी है। ऐसा भेदज्ञान होय तब भावक
भाव जो द्रव्यकर्मरूप मोहके भाव, तिनितें भेदभाव क्यों न होय ? होय ही होय । आमा अपने चैतन्यके अनुभवनरूप ठहरै ही ठहरै, ऐसा जानना। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
स्वागताछन्दः सर्वतः स्वरसनिर्भरभावं चेतये स्वयमहं स्यमिहकम् । नास्ति नास्ति मम कश्चन मोहः शुद्धचिदनमहोनिधिरस्मि ॥३०॥
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एवमेव मोहपदपरिवर्त्तनेन , रागद्वेषक्रोधमानमा गलोमकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचधुर्घाणरसनसनस्त्राणि । षोडश व्याख्येयानि अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि । अथ शेयभावविवेकप्रकारमाह ।
अर्थ-मैं इस लोकमें आपहीकरि अपने एक आत्मस्वरूपकू अनुभवू ई। कैसा मेरा स्वरूप! - 'सर्वतः' कहिये सर्वांगकरि अपने निजरस जो चैतन्यका परिणमन, ताकरि पूर्ण भरथा ऐसा है 5 भाव जामैं, याहीतें यह मोह है सो मेरा किछू भी लागता नाहीं है, याके अर मेरे किछु भी
नाता नाहीं है। मै तो शुद्ध चैतन्यका 'घन' कहिये समूहरूप तेजःपुंजका निधि हूं। भावक-" भावका भेदकरि ऐसे अनुभवन करे। ऐसे ही गाथामैं मोहपद है ताकू पलटिकरि राग, द्वेष, ॥ क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काथ, श्रोत्र, चक्षु, प्राण, रसन, स्पर्शन ए सोलह पद न्यारे न्यारे सोलह गाथासूत्रकरि व्याख्यान करना अर इसही उपदेशकरि अन्य भी विचारने। आगें ज्ञेयभावतें भेदज्ञान करनेका प्रकार कहे हैं। गाथा
णत्थि मम धम्म आदी बुज्झदि उवओग एव अहमिको। तं धम्मणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया विति ॥३७॥
नास्ति मम धर्मादिबुध्यते उपयोग एवाहमेकः ।
तं धर्मनिर्ममत्वं समयस्य विज्ञापका विन्दन्ति ॥३७॥ ___ आत्मख्यातिः–अमूनि हि धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवांतराणि स्वरसविज्र भितानिवारितप्रसरविश्ववस्मरप्रचंड-म चिन्मात्रशक्तिकवलिततयात्यंतमंतर्मग्नानोवात्मनि प्रकाशमानानि टंकोत्कीर्णज्ञायकस्वभावत्वेन तस्तोतस्तत्त्वस्य तदतिरिक्तस्वभावतया तवतो वहिस्तत्त्वरूपता परित्यक्तमशक्यत्वास नाम मम संति। किंचतत्स्वयमेव च नित्यमेवोप-5 युक्तस्तत्वत एवैकमनाकुलमात्मानं कलयन भगवानात्मवावबुध्यते यत्किलाई खल्वेकः ततः संवेद्यसंवेदकभावमानोपजाते
तरेतरसंबलनेपि परिस्फुटस्वदमानस्वभावभेदतया धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवांतराणि प्रति निर्ममत्वोमि । सर्वदेवात्मै- - कत्वगतत्वेन समयस्यैवमेव स्थितत्वात् इतीत्थं ज्ञयभावविवेकोभूतः।।
अर्थ-जो ऐसा जानना होय-जो ए धर्म आदिक द्रव्य हैं ते मेरे किछू भी लागते नाही ,
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है। मैं ऐसा जानू हूं, जो एक उपयोग है सोही मैं हूं । ऐसें जाननेकूं धर्मद्रव्यतें निर्ममत्वपणा समय सिद्धांत तथा अपना परका स्वरूपरूप समयके जाननेवाले पुरुष हैं ते जाने हैं, कहे हैं । टीका- --ए धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल अन्य जीव बेलें सर्वही परद्रव्य हैं, ते आत्मा- 5 वि प्रकाशमान हैं। कैसें सो कहे हैं-अपने निजरसकरि प्रगट भया अर निवारया न जाय
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कर एक ही हूं, तातें ज्ञेयज्ञायकभावमात्रतें उपज्या जो परद्रव्यनित परस्पर मिलना, ताके होते
भी, प्रगट स्वादमैं आवता जो स्वभावका भेद, तिसपणाकरि धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल
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ऐसा है फैलना जाका, अर समस्त पदार्थसमूहके ग्रसनेका है स्वभाव जाका, ऐसी जो प्रचंड 55 चिन्मात्रशक्ति, ताकरि ग्रासीभूत करनेकरि मानू अत्यंत निमग्न होय रह्या है, ज्ञानमें तदाकार होय डूबी रहे है ऐसें । तौऊ टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभावपणाकरि परमार्थतें अंतरंगतत्त्व सो 5 तौ मैं हूं अर ते परद्रव्य, तिस मेरे स्वभावतें भिन्नपणाकरि परमार्थतें बाह्यतपणाकू छोडने असमर्थ हैं, धर्म आदि मेरे संबंधी नाहीं हैं। इहां ऐसा जानिये जो यह आत्मा चैतन्यते आप ही उपयुक्त हुवा संता, परमार्थतें अनाकुल जैसे होय तेसैं, सर्व आकुलतासृ रहित होयकर, आत्माहीका अभ्यास करता संता है, सो आत्माकरि आत्मा ही जानिये है, जो मैं प्रगट निश्चय
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अन्यजीव, तिनिप्रति में निर्मम हो । जातें सदा ही काल आपविषै एकपणाकरि प्राप्त होनेकरि फ
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समय कहिये पदार्थनिकी याही व्यवस्था है, अपने स्वभावकूं कोई छोडता नाहीं हैं, ऐसें अनुभव
* करने ज्ञयभावनितें भेदज्ञान भया कहिये । इहां इस ही अर्थका कलशरूप काव्य है ।
मालिनी छन्दः
इति सति सह सर्वैरन्यभावैविवेके स्वसमयमुपयोगो विदात्मानमेकं ।
प्रकटितपरमार्थदर्शनज्ञानवत्तैः कृत्परिणितिरात्माराम एव प्रवृत्तः ॥ ३१ ॥
दर्शनज्ञानचारित्रपरिणतस्यात्मनः कीदृक स्वरूपसंचेतनं भवतीत्यावेदयन्नुपसंहरति ।
अर्थ - ऐसें पूर्वोकप्रकार भावकभाव अर ज्ञेयभावनितें भेदज्ञान होतें, सर्वही जे अन्यभाव 5
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15 तिन्नितें भिन्नता भई, तब यह उपयोग है सो, आपही अपने एक आत्माहीकूं धारता संता प्रगट 5 भया है परमार्थ जिनिका, ऐसें जे दर्शनज्ञानचारित्र तिनिकरकरी है परिणति जाने, ऐसाहूवा संता, अपना आराम आत्मारूपी बाग कोडायन, ताहिवियें प्रवर्ते है, अन्य जायगा न जाय हैं । भावार्थ- सर्वपरद्रव्य तथा तिनितें भये जे भाव तिनितें भेद जान्या तब उपयोगकूं रमनेकुं आत्मा ही रह्या, अन्य ठिकाणा नाहीं रह्या । ऐसें दर्शनज्ञानचारित्रतें एकरूप भया आत्माहीफ विषै रमे है ऐसा जानना । आगे ऐसें दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप परिणया जो आत्मा ताके स्वरूपका 5 संचेतन कैसा होय है ? ऐसें कहता संता आचार्य इस कथन्नकूं संकोचे है समेटे हैं। गाथाअहमिको खलु सुद्धो दंशणणाणमइओ सदारुवी ।
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वि अस्थि मज्झ किंचिव अण्णं परमाणुमित्तंपि ॥ ३८ ॥ अमेकः खलु शुद्ध दर्शनज्ञानमयः सदारुपी | नाप्यस्ति मम किं चिदप्पयत्परमाणुमात्रमपि ॥ ३८ ॥
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आत्मख्यातिः -- यो हि नामानादिमोहोन्मत्तत्यात्यंतमत्र तिबुद्धः सन् निर्विण्णेन गुरुणानवरतं प्रतिबोध्यमानः कथं- 55 चनापि प्रतिबुध्य निजकरतलविन्यस्त विस्मृतचामीकरावलोकनन्यायेन परमेश्वरमात्मानं ज्ञात्वा श्रद्धायानुचर्य च सम्यगे5 कात्मारामो भूतः स खल्यहमात्मात्मप्रत्यक्षं चिन्मात्रं ज्योतिः । समस्त क्रमाक्रमप्रवर्त्तमान व्यावहारिकभावैश्विन्मात्राकारेणा- 5 मिद्यमानत्वादेको नारकादिजीव विशेषाजीव पुण्यपापासत्र संवर निर्जरावं धमोक्ष लक्षण व्यावहारिकनवतच्चेभ्यष्टं कोरकीर्णेकशा5 यकस्वभावभावेनात्यं तविविक्तत्वाच्छुद्धः । चिन्मात्रतया सामान्यविशेषोपयोगात्मकतानतिक्रमाणादर्शनज्ञानमय: स्पर्शरस- फ्र गंधवर्णनिमित्त संवेदनपरिणतत्वेपि स्पर्शादिरूपेण स्वयमपरिणमनात्परमार्थतः सदैवारूपीति प्रत्यगयं ] स्वरूपं संचेतयमानः 15 प्रतयामि । एवं प्रत्ययतश्च मम वहिर्वि चित्रस्वरूपसंपदा विश्वे परिस्फुरत्यपि न किंचनाप्यन्यत्परमाणुमात्रमप्यात्मीयत्वेन प्रतिभाति । यद्भावकत्वेन ज्ञयत्वेन चैकीभूय भूयो मोहमुद्भावयति स्वरसतएत्रापुनः प्रादुर्भावाय समूलमोहमुन्मूल्य महतो फ ज्ञानोद्योतस्य प्रस्फुरितत्वात्
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अर्थ- जो दर्शनज्ञानचारित्ररूप परिणया आत्मा, सो ऐसा जाने है, जो मैं एक हूं, शुद्ध हूं,
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दर्शनशानमय है, अरूपी ई, निश्चयकार सदाकाल ऐसा हूं, अन्य परद्रव्य परमाणुमात्र भी मेरा किछू नाहीं है यह निश्चय है।
टोका-नाम कहिये सत्यार्थपणे निश्चयकरि ऐसा है। जो यह आत्मा अनादि मोहरूप ॥ ..२- अज्ञानते उन्मत्तपणाकरि अत्यंत अप्रतिबुद्ध अज्ञानी था, सो यापरि असुरागी जो गुरु ताकरि निरं
तर प्रतिबोध्या हुवा, कोई प्रकार बडा भाग्यतै समस्या सावधान भया, तब “जैसे काहूके हातविर्षे ॥ मुठीमै धरया हुआ सुवर्ण था सो भूलि गया फेरि यादिकरि देखें" तिस न्यायकरी अपना परमेश्वर .. सर्वसामथ्र्यका धरानेवाला आत्माकू भूलि रहा था, सो जाणिकरि, ताका श्रद्धानकरि,अरताहीका आचरणरूप तिसते तन्मय होयकरि भलैप्रकार आत्माराम हवा, तब ऐसे जोन्या-जो मैं चैतन्य- - मात्र ज्योतीरूप आत्मा हूं, सो मेरे ही अनुभवकार प्रत्यक्ष जानूं हं, जो साल काल्प अर अक्रम
रूप प्रवर्तते जे व्यावहारिक भाव तिनिकरि चिन्मात्र आकारकारे तो भेदमन भया हूं तात मै - 1- एक है। बहुरि नर नारक आदि जीवके विशेष अर अजोत्र, पुज्य, पाप, आत्रक, संवर, 'निर्जरा,
बंध, मोक्षलक्षण जे व्यावहारिक नवतत्त्व, तिनितें टंकोत्कीर्ण जो एक ज्ञायकस्वभावरूप भाव, + ताकरि अत्यंत जुदापणातें मैं शुद्ध हूं। बहुरि चिन्मात्रपणातें सामान्य विशेष जो उपयोग, ताकूनाही उल्लंघनेते, मैं दर्शनज्ञानमय हूं। बहुरि स्पर्श, रस, गंध, वर्ण हैं निमित्त जाकू ऐसा जो संवेदन,' तिसरूप परिणम्या हूं। तौऊ स्पर्श आदि रूप ससा आगहो परिग में परमात सदा ही अरूपी .. हूं। ऐसे सर्वते न्यारा ऐसा स्वरूपकू अनुभवता संता में प्रतापसहित है। ऐसें प्रतापरूप होतेके । मेरे वाह्य अनेकप्रकार स्वरूपकी संपदाकरि समस्त परद्रव्य स्फुरायमान हैं। तौऊ मोकू परद्रव्य + परमाणुमात्र भी किछु अपने भावकरि नाहीं प्रतिभाले हैं, जो मेर भावकरमाकर तथा शेषपगा- " करि मोते एक होयकरि फेरि मोह उपजावें । जातें मेरे निजरलने हो ऐला महान् ज्ञान प्रगट है भया है, जानें मोहकू मूलते उपाडिकरि दुरि किया है, जो फेोरे जाका अंकुर नाहीं उपजे ऐसा नाश किया है।
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भावार्थ- आत्मा अनादितें मोहके उदयतें अज्ञानी था, सो श्रीगुरुनिके उपदेशर्तें अर अपनी काललब्धीतें ज्ञानी भया, अपना स्वरूपकूं परमार्थते जान्या - जो मैं एक हूं शुद्ध हूं अरूपी हूं ० दर्शनज्ञानमय हं ऐसें जाननेतें मोहका समूहतें नाश भया भावकमात्र अज्ञेयभाव तिनतें ज्ञ ज्ञान भया, अपनी स्वरूपसंपदा अनुभवमें आई, अब फेरि काकूं जोड़ उपजेगा ? नाहीं उपजेगा। 5 अब ऐसा आत्माका अनुभव भया ताका आचार्य महिमा कही प्रेरणारूप काव्य कहे हैं - जो ऐसें ज्ञानस्वरूप आत्मा समस्तलोक मग्न होऊ ।
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वसन्ततिलका छन्दः
मज्जंतु निर्भरममी सममेव लोका आलोकमुच्छ्वलति शांतरसे समस्ताः । आप्लाव्य विभ्रमतिरस्करिणीभरेण प्रोन्मत्र एप भगवानवबोधसिंधुः ||३२|| इति श्रीसमयसारव्याख्यायामात्मख्याती पूर्वरंगः समाप्तः ।
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अर्थ -- यह ज्ञानसमुद्र भगवान् आत्मा है सो विभ्रमरूप आडी चादर थी ताकूं समूलतें डबोय- 5 करि दूरि करि, आप सर्वांग प्रगट भया है । सो अब समस्त लोक हैं ते याके शांतर सविषै एकैकाल ही अतिशयकरि मन होऊ । कैसा है शांतरस ? समस्त टोकर्तााई उझल्या है ।
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भावार्थ- जैसे समुद्र आडा किछू आवै तब जल दीखे नाहीं, अर जब आड दूरी होय तब फ प्रगट होय, तब लोककूं प्रेरणा योग्य होय, जो या जलविषै सर्व लोक स्नान करो। तैसें यह आत्मा विभ्रमकरि आच्छादित था, तब याका रूप न दीखे था, अत्र विभ्रम दूरि भया तब यथा- फ स्वरूप प्रगट भया, अब याके वीतराग विज्ञानरूप शान्तरसविषै एकाकाल सर्व लोक मग्न होऊ । ऐसें आचार्य प्रेरणा करी है । अथवा ऐसा भी अर्थ है, जो आत्माका अज्ञान दूरि होय तब केवलज्ञान प्रगट होय है, तब समस्त लोकमें तिष्ठते पदार्थ एकैकाल ज्ञानविषे आय झलके हैं ताको देखो । ऐसें इस समयप्राभृतग्रंथविषै पहला जीवाजीवाधिकारविर्षे टीकाकार पूर्वरंगस्थल
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कथा ।
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झहां टीकाकारका आशय ऐसो-जो इस प्रथकू अलंकारकरि नाटकरूप वर्णन किया है, ... सो नाटकविः पहले रंगभूमि आखाडा रचिये हैं । सहां देखनेवाला नायक तथा सभा होय है,5 अर नृत्य करनेवाले होय हैं ते अनेकस्वांग धरे हैं। तथा शृगारादिक आठ रसका रूप दिखावे.... हैं। तहाँ श्रृंगार, हास्य, रौद्र, करुणा, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत ए आठ रस हैं ते लौकिकरस हैं । नाटकमें इनिहीका अधिकार है। नवमा शांतरस है सो आलौकिक है। सो नृत्यमें। ताका अधिकार नाहीं है । इनि रसनिके स्थायीभाव, सात्त्विकभाव, अनुभाविभाव व्यभिचारिभाव। तथा इनिकी दृष्टि आदिका वर्णन रसग्रंथनिमें है सो तो तहांते जान्या जाय। अर सामान्यपणे रसका यह स्वरूप है-जो ज्ञानमें जो ज्ञेय आया, तिसते ज्ञान तदाकार भया, तातें पुरुषका भाव" लीन होय जाय, अन्य ज्ञेयकी इच्छा न रहै लो रस है । सो आठ रसका रूप नृत्यमें नृत्य करने वाले दिखावे हैं । अर इनिका कवीश्वर वर्णन कर जब अन्य रसकू अन्यरसके समान करी भी वर्णन करै तब अन्यरसका अन्यरस अंगभूत होनेते, तथा रसनिके भाव अन्यभाव अंग होनेते,म रसवत् आदि अलंकारकरि नृत्यका रूप करि वर्णन किया है।
तहां प्रथम ही रंगभूमिस्थल किया, तहां देखनेवाला तो सम्यग्दृष्टि पुरुष है, तथा अन्य। मिथ्यादृष्टि पुरुष हैं तिनिकी सभा है, तिनिकू दिखावे है। अर नृत्य करनेवाले जीव अजीव पदार्थ हैं । अर दोऊका एकपणा तथा कतृकर्मपणा आदि तिनिके स्वांग हैं। तिनिमें परस्पर" अनेकरूप होय हैं । ते आठ रसरूप होय परिणमे हैं। सो नृत्य है। तहां सम्यग्दृष्टि देखने-' वाला जीव अजीवका भिन्नस्वरूपकू जाणे है। सो तो इनि सर्व स्वांगनिकू कर्मकृत जाणि शांतरसहीमैं मग्न है, अर मिथ्यादृष्टि जीवाजीवका भेद न जाणे हैं। यात इनि स्वांगनिहीकूफ सांचे जाणि इनिविर्षे लीन होय हैं। तिनिळू सम्यग्दृष्टि यथार्थ दिलाय तिनिका भ्रम मेटिशांतरसमें तिनिकू लीन करी सम्यग्दृष्टि करे है ताकी सूचनारूप रंगभूमिके अंत आचार्यने । “मजन्तु निर्भर० इत्यादि यह काव्य रचा है। सो आगें जीव अजीवका स्वांग वर्णन करी, सो
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ताकी सूचनारूप यह काव्य है ऐसा माशय सूने है ! सो इहांतांइ तो रंगभूमिका वर्णन भया ।
दोहा-नृत्य कुतूहलतत्त्वको मरियविदेखो धाय । निजानंदरसमें छको आन सवे छिटकाय ॥१॥
इति जीवाजीचाधिकारे पूर्वरङ्गः ।
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आगें जीवद्रव्य अर अजीवद्रव्य ए दोऊ एक होय करी रंगभूमीमें प्रवेश करे हैं। तहां卐 आदिविर्षे मंगलका आशय लेकरि आचार्य ज्ञानकी महिमा करे हैं। जो सर्ववस्तुका जाननहारा ..
यह ज्ञान है सो जीव अजीवके सर्वस्वांगनिको नीके पहिचाने है, ऐसा सम्यग्ज्ञान प्रगट होय है, 卐 इस अर्थरूप काव्य कहे हैं।
शार्दूलविक्रीडितच्छंदः जीवाजीवविवेकपुस्कलदृशा प्रत्याययत्पार्षदानासंसारनिवबंधन विधिध्वंसाद्विशुद्ध स्फुटत् ।।
म आत्माराममनंतधामसहसाध्यक्षेण नित्योदितं धीरोदात्तमनाकुलं विलसति ज्ञानं मनो ल्हादयत् ॥१॥ अर्थ-ज्ञान है सो मनकू आनंदरूप करता संता प्रगट होय है। कैसा है ? 'पार्षदे' कहिये जीवाजीवके स्वांग देखनेवाले महंत पुरुष तिनिकुं, जीव अजीवका भेद देखनेवाली जो बडी
उज्वल निर्दोष दृष्टि, ताकरि भिन्नद्रव्यकी प्रतीति उपजावता संता है। बहुरि अनादिसंसारते ॥ - हर बंध्या है बंधन जाका ऐसा जो ज्ञानावरण आदि कर्म, ताके नाशतें विशुद्ध भया है, स्फुट ..
भया है। जैसे फूलकी कली फूल तैसें विकासरूप है । बहुरि कैसा है ? आत्मा ही है आराम । 卐 कहिये रमनेका क्रीडावन जाकै, अनंतज्ञयनिके आकार जानि झलके है, तौऊ आप अपने स्वरूप __ हीमें रमे है । बहुरि अनंत है धाम कहिये प्रकाश जाका । बहुरि प्रत्यक्ष तेजकरि नित्य " + उदयरूप है। बहुरि कैसा है ? धीर है, उदात्त कहिये उत्कट है, याहीत अनाकुल है सर्ववांछातें ॥
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रहित निराकुल है। इहां धीर उदात्त अनाकुल विशेषण हैं, सो ए शांतरूप नृत्यके मामूषण जानने, ऐसा ज्ञान विलास करे है। ___भावार्थ-यह ज्ञानकी महिमा करि, सो जीव अजीव एक होय रंगभूमिमें प्रवेश करे हैं। तिनि• यह ज्ञान ही भिन्न जाने है। जैसे कोई नृत्यमें स्वांग आवै ताकू यथार्थ जाने ताकू स्वांग । करनेवाला नमस्कार करी, अपना रूप जैसाका तैसा करी ले, तैसें इहां भी जानना। ऐसा ज्ञान सम्यम्दृष्टि पुरुषनिके होय है, मिथ्यादृष्टि यह भेद जाने नाहीं। आगें जीव अजीवका एकरूप वर्णन करे हैं। ताकी गाथा
अप्पाणमयाणंता मूढा दु परप्पवादिणो केई। जीवं अज्झवसाणं कम्मं च तहा परूविति ॥३९॥ अवरे अज्झवसाणे सुतिव्वमंदाणुभावगं जीवं । मण्णंति तहा अवरे णोकम्मं चावि जीवोत्ति ॥४०॥ कम्मस्सुदयं जीवं अवरे कम्माणुभागमिच्छति। तिव्वत्तणमंदत्तण गुणहिं जो सो हवदि जीवो वा ॥४॥ जीवो कम्म उहयं दोण्णिवि खलु केवि जीवमिच्छति। अवरे संजोगेण दु कम्माणं जीवमिच्छति ॥४२॥ एवंविहा बहुविहा परमप्पाणं वदंति दुम्मेहा । ते ण दु परप्पवादी णिच्छयवादीहिं णिदिठा ॥४॥
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आत्मानम जानतो मूढास्तु परात्मवादिनः केचित् । जीवमध्यवसानं कर्म च तथा प्ररूपयंति ॥ ३९ ॥ अपरेध्यवसानेषु तोत्रमंदानुभागगं जीवं । मन्यते तथाऽपरे नोकर्म चापि जीव इति ॥ ४० ॥ कर्मण उदयं जीवनपरे कर्मानुभागमिच्छति । तीमंदत्वगुणाभ्यां यः स भवति जीवः ॥४१॥ tear द्वे अपि खल केचिज्जीवमिच्छति । अपरे संयोगेन तु कर्मणां जीवमिच्छति ॥ ४२ ॥ एवंविधा बहुविधाः परमात्मानं वदंति दुर्मेधसः । ते न परात्मवादिनः निश्चयवादिभिर्निर्दिष्टाः ॥ ४३ ॥
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आत्मख्यातिः - इह खलु तदसाधारणलक्षणाकलनात्क्लीत्रत्वेनात्यंतविमूढाः संतस्तान्विकमात्मानमजानं तो बहवो बहुधा परमप्यात्मानमिति प्रलयंति । नैसर्गिकरागद्वेषकल्माषितमध्यवसानमेत्र जीवस्तथाविधाध्यवसानात् अंगारस्येव कायदतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । अनाद्यनंतपूर्वापरीभूतावयवैकसंसरण क्रियारूपेण क्रीडत्कर्मैव जीवः कर्मणोतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । तीव्रमंदानुभव विद्यमानदुरंत रागरसनिर्भराध्यवसानसंतान एव 15 जीवस्ततोतिरिक्तस्यान्यस्यानुपभ्यमानत्वादिति केचित् । नवपुराणावस्थादिभावेन प्रवर्त्तमानं नोकर्मैव जीवः शरीरादविरिक्कत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । विश्वमपि पुण्यपापरूपेणाक्रामन् कर्मविपाक एव जीवः शुभाशुभभावादति5 रिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । सातासातरूपेणाभिव्याप्तसमस्ततीवमंदत्वगुणाभ्यां भिद्यमानः कर्मानुभव एव जीवः सुखदुःखातिरिक्तत्वेनान्यस्सानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । मज्जितावदुभयात्मकत्वादात्मकर्मोभयमेव जीवः फ कार्त्स्यतः कर्मणौतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । अर्थक्रियासमर्थः कर्मसंयोग एव जीवः कर्मसंयोगा- 157 त्खट्वाया इवाष्टकाष्ठसंयोगादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । एवमेवंप्रकारा इतेरेपि बहुप्रकारा परमाकस्मेति व्यपदिशति दुर्मेधसः किंतु न ते परमार्थवादिभिः परमार्थवादिनः इति निर्दिश्यते । कुतः
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अर्थ--- जे आस्माकं न जानते परकुं आत्मा कहते मूढ मोही अज्ञानी हैं, ते केई तौ अध्यवसा
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यनिळू जीव कहे हैं । बहुरि केई कर्मकू जीव कहे हैं। बहुरि अन्य केई अध्यवसाननिवि तीव्र मंद अनुभागगतकू जीव माने हैं। बहुरि अन्य केई नोकर्मक जीव माने हैं। बहुरि और कई कर्मका उदयकू जीव माने हैं । बहुरि और कई कर्मके अनुभागकू जीव इष्ट करे हैं। कैसा है ॥ अनुभाग ? तीवमंदपणारूप गुणकरि जो भेदकू प्राप्त होता है। बहुरि केई जीव अर कर्म दोऊ .... मिले ही जीव है ऐसे इष्ट करे हैं। बहुरि अन्य केई कर्मनिका संयोगकरि ही जीव माने हैं। या :
प्रकार तथा और भी बहुतप्रकार दुर्बुद्धि मिथ्यादृष्टि परकू आत्मा कहे हैं, ते परमार्थ सत्यार्थवादी ।। " नाही हैं। ऐसे निश्चयवादी जे सत्यार्थवादी तिनिकरि कहे हैं।
टीका-या जगतवि तिस आत्माके असाधारण लक्षण नाहीं जाननेते नपुंसकपणाकरि॥ अत्यंतविमूह भये संते, अनानी जन हैं ते, तात्त्विक परमार्थभूत आत्माकू नाहीं जानते संते, बहुत .. हैं। ते बहुतप्रकार परहीकू आत्मा ऐसा प्रलाप बके हैं । तहां केई तो स्वाभाविक स्वयमेव भया :
ऐसा रागद्वेषकरि मैला जो अध्यवसान कहिये आशयरूप विभावपरिणाम सोही जीव है ऐसें कहे ।। " हैं। याका हेतु कहे हैं, जो जैसे अंगारकै कालिमा है तैसें अध्यवसानते अन्य कोई जीव दीखे ।
नाहीं, ऐसे हेतुते साधे हैं ॥१॥ बहुरि केई कहे हैं, जो पूर्वं तौ आनादितै लेकरि अर आगामी
अनंतकालतांई ऐसा है अन्यत्र जाका ऐसा जो एक संसरण कहिये भ्रमणरूप क्रिया, तिसरूपकरि 卐 क्रीडा करता जो कर्म, सोही जीव है । जातें इस कर्मत अन्य न्यारा किछू जीव देखनेमें आया है
नाहीं ऐसें माने हैं ॥२॥ बहुरि केई कहे हैं, जो जीव मंद अनुभवकरि भेदरूप भया अर दूरि है 卐 अंत जाका ऐसा रागरूप रसकरि भरया जो अध्यवसानका संतान परिपाटी सोही जीव है। जातें +
इसते अन्य कोई न्यारा ही जीव देखनेमें आया नाहीं, ऐसें माने हैं ॥३॥ बहुरि केई कहे हैं, जो,
नवीन अर पुरातन जो अवस्था इत्यादि भावकरि प्रवर्तमान जो नोकम सोही जीव है । जाते इस - शरीरतें अन्य न्यारा ही किछ जीव देखनेमें आया नाहीं ऐसैं माने हैं ॥४॥
बहुरि केई ऐसैं कहे हैं, जो समस्तलोककू पुण्यपापरूपकरि व्यापता कर्मका विपाक है सोही
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जीव है । जातें शुभाशुभभावतें अन्य न्यारा ही किछु जीव देखनेमैं आया नाहीं, ऐसे माने हैं।५।
बहुरि केई कहे हैं, जो साता अलाताका रूपकरि व्यात जो समस्त तोत्रमंदरगागुग, ताकरि भेद+ रूप भया जो कर्मका अनुभव, सोही जीव है। जातें सुखदुःखते अन्य न्यारा ही किछू जीव देख- -
नेमैं आया नाहीं ।६। बहुरि केई कहे हैं, जो सिखरिगोको ज्यों दोयरून मियाजोआत्मा अर कर्म,
ते दोऊ मिले ही जीव है । जातें समस्तपणाकरि कर्यते न्यारा किछू जोव देखने में आया नाही, + + ऐसें माने हैं ॥७॥ बहुरि केई कहे हैं, जो कर्मका संयोगरूप अर्थक्रियाविबें समर्थ होय है सोही
जीव है । जातें कर्म के संयोगते अन्य न्यारा किछू जीव देखनेमें आया नाहीं, जैसें आठ काठ 5 卐 मिली खाट भया तब अर्थ क्रियाविर्षे समर्थ भया ऐसें माने हैं ॥८॥ ऐसें आठप्रकार तौ ए कहैं। 1. बहुरि और भी अनेकप्रकार ऐसे ही पर आत्मा कहे हैं, ते दुधुद्धि हैं। तिनि परमार्थ के
जाननेवाले हैं ते सत्यार्थवादी नाहीं कहे हैं। # भावार्थ-जीव अजीव दोऊ अनादितें एकक्षेत्रावगाहसंयोगरूप मिलि रहे हैं अर अनादिहीतें - । जीवके पुद्गल के सँयोगते अनेकविकारसहित अवस्था होय है। अर परमार्थदृष्टिकरि देखिये तब
जीव तो अपना चेतन्यपणा आदि भावकू नाहीं छोडे है। अर पुद्गल अपना मूर्तिक जडपणा ; आदिकू नाहीं छोडे है। परंतु जे परमार्थ नाहीं जाने हैं, ते संयोगते भये भावनिहीकू जीव कहे .
हैं। जातें परमार्थजीवका रूप पुद्गलते भिन्न सर्वज्ञकू वीच तया सर्वज्ञकी परंपराके आगमतें 卐 जान्या जाय, सो जिनिक मतमैं सर्वज्ञ नाही, ते अपनी बुद्धित अनेककल्पना करि कहे हैं। ते 5 1- वेदांती, मीमांसक, सांख्य, बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक, चार्वाक आदि मतनिके आशय ले, आठ तौ .
प्रगट कहैं। और अपनी अपनी बुद्धितें अनेक कल्पना करि कहे हैं, सो कहांताई कहै। ऐसें । 卐 कहनेवाले सत्यार्थवादी नाहीं है, सो काहेते ? सो ही कहे हैं। गाथा
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एदे सव्वे भावा पुग्गलदव्वपरिणामणिप्पणा । केवलिजिणेहिं भणिदा कह ते जीवो ति उच्चति ॥४४॥ एते सर्वेभावाः पुद्गलद्रव्यपरिणामनिष्पन्नाः । केवलिजिनैर्भणिताः कथं ते जीव इत्युच्यते ॥४४॥
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आत्मरूपाविः -- यतः एतेऽध्यवसानादयः समस्ता एव भावा भगवद्भिर्विश्वसाक्षिभिरर्हद्भिः पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वेन प्रज्ञप्ता: संतश्चैतन्य शून्याद्रव्यादतिरिक्तत्वेन प्रज्ञाप्यमानं चैतन्यस्वभावं जीवद्रव्यं भवितु नोत्सहंते ततो न खल्वामधुक्तिस्वानुभवैवधितपक्षत्वात् तदात्मवादिनः परमार्थवादिनः एतदेव सर्वज्ञवचनं वावदागमः । इयं तु स्वानुभवगर्मिता 5 युक्तिः न खलु नैसर्गिक रागद्वेष कल्मावितमध्यवसानं जीवस्तथाविधःध्यवसानात्कार्तस्वरस्येव श्यामिकायातिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खखनाद्य तपभूतात्रय कसंसरणलक्षण क्रियारूपेण क्रीडत्कर्मेव फ जीवः कर्मगोतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खलु तीव्रमंदानुभव भिद्यमानदुरंतरागरस निर्भराध्यवसानसंतानो जीवस्ततोतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खलु नवपुराणत्रस्थादिभेदेन प्रवर्तमानं नोकर्म जोनः शरोरादतिरिक्तत्वेनान्यस्यचित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । फ्र न खलु विश्वमपि पुण्यपापरूपेणाक्रामत्कर्म विपाको जीवः शुभाशुभभावादतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकः 5 स्वमुपलभ्यमानत्वात् । न खलु साता सातरूपेण भिन्या त समस्ततोत्र मंदत्वगुणाय मिद्यमानः कर्मानुभावो जीवः सुखदुःखा- फ तिरिक्तस्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्त्रात् । न खलु मज्जितावदुभयात्मवत्वादात्नकर्मोभयं जीवः 5 कार्यतः कर्मणोतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः समुपलभ्यमानत्वात् । न खल्वर्थक्रियासमर्थः कर्मसंयोगो 5 जीवः कर्मसंयोगात्खट्वाशायिनः पुरुषस्येवाष्टकष्टसंयोगादतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यफ मानत्वादिति । इह खलु पुद्गल भिन्नात्मोपलब्धि प्रतिविप्रतिपन्नः साम्नैवैवमनुशास्त्रः ।
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अर्थ - ए पूर्वै कहिए अध्यवसानादिकभाव, ते सर्व ही पुद्गल के परिणामकरि निपजे हैं। 5 ते केवली सर्वज्ञ जिनदेवने कहे हैं । तिनिकं जीव ऐसा कैसे कहिये ?
टीका - जातें ए अध्यवसानादिक भाव हैं, ते सर्व ही, सर्व पदार्थनिकूं साक्षात् देखनेवाले 5
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भगवान् वीतराग सर्वज्ञ अरिहंतदेव, तिनहि पुद्गलद्रव्यके परिणाममयपणाकरि कहे हैं। ताते । 5 चैतन्यभावकरि शून्य जो पुलद्रव्य, तातें भिन्नपणाकरि कहा जो चैतन्यस्वभावमय जीवद्रव्य, +
सो होनेकू नाहीं समर्थ है। तातें निश्चयतें आगम अर युक्ति अर स्वानुभव इनि तीननिकरि प्राम+ बाधितपक्षपणातें जे इनि अध्यवसानादिकळू जीव कहे हैं, ते परभार्थवादी सत्यार्थवादी नाहीं है।' - तहां यह ही सर्वज्ञका वचन है, जो ए जीव नाही सो तो आगम है। बहुरि यह स्वानुभवग
भिंत युक्ति है सो कहे हैं । जो नैसर्गिक कहिये स्वयमेव उपज्या ऐसा रागद्वेषकरि कल्माषित कहिये + मलित अध्यवसान है सो जीव नाही है। जाते ऐसे अध्यवसानते न्यारा जैसे सुवर्ण कालिमातें
न्यारा है तैसें चित्स्वभावरूप जीवभेद ज्ञानीनिकरिपाइए है, ते प्रत्यक्ष चैतन्यभावकू न्याराअनुभवे के हैं। बहुरि अनाद्यनंत पूर्वापरीभूत एक संसरणक्रियारूप क्रीडा करता कर्म है सो भी जीव नाहीं ..है। जातें कर्मत न्यारा अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीवका भेद ज्ञानीनिकरि प्राप्यमानपणा है ते
प्रत्यक्ष अनुभवे हैं ॥२॥ बहुरि तोत्र मंद अनुभवकरि भेदरूप भयादुरंत रागरसकरि भरया अध्यव- 卐 सानकासंतान भी जीव नाहीं है । जात तिस संतानतें अन्य न्यारा चैतन्यस्वभावरूपजीवका भेद ज्ञानीनिकरि प्राप्यमानपणा है ते प्रत्यक्ष अनुभवे हैं ॥३॥ बहुरि नई पुरानी अक्स्थादिकका भेदकरि प्रवर्तता जो नोकर्म, सोभी जीव नाहीं है। जातें शरीरतें अन्य न्यारा चैतन्यस्वभावरूप जीवका भेद ज्ञानीनिकरि स्वयमेव प्राप्यमानपणा है ते आए प्रत्यक्ष अनुभवे हैं ॥४॥ बहरि " समस्त जगत• पुण्यपापरूपकरि व्यापता कर्मका विपाक है, सो भी जीव नाहीं है। जातें शुभा.' शुभभावते अन्य न्यारा चैतन्यस्वभावरूप जीवका भेद ज्ञानीनिकरि प्राप्यमानफ्णा है ते आप
प्रत्यक्ष अनुभवे हैं ॥५।। बहुरि साता असाता रूपकार व्यास जे समस्त तीत्रमंदपणारूप गुण, 1-तिनिकरि भेदरूप होता जो कर्मका अनुभव, सोभी जीव नाहीं है। जातें सुखदुःखते न्यारा + अन्य चेतन्यस्वभावरूप जीवका भेद ज्ञानीनिकरि स्वयं प्राप्यमानपणा है ते आप प्रत्यक्ष अनुभवे 卐 हैबहुरि सिखरिणीकी ज्यौं दोय स्वरूपपणाकरि मिले आत्मा अर कर्म वोऊही जीव नाही
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म है। जातें समस्तपणे कर्मते न्यारा अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीवका भेद ज्ञानीनिकरि स्वयं प्राप्य-5
मानपणा है ते प्रत्यक्ष आप अनुभवे हैं ॥१॥ बहरि अर्थक्रियाविर्षे समर्थ कर्मका संयोग भी जीव
नाही है। जातें कर्मसंयोगते न्यारा “जैसे आठ काठरूप खाटते खाटका सोवनेवाला पुरुष 15 अन्य है, तैसे" अन्य चैतन्यस्वभारूप जीवका भेद्र ज्ञानीनिकरि स्वयं प्राप्यमानपणा है ते आप प्रत्यक्ष अनुभवे ॥८॥ ऐसे ही अन्य कोई और प्रकार कहें, तहां भी यह ही युक्ति जाननी ।।
भावार्थ-चैतन्यस्वभवरूप जीव सर्व परभावनितें न्यारा भेदज्ञानीनिके अनुभवगोचर है, तातें अज्ञानी माने हैं तैसें नाहीं है। अब इर्हा पुद्गलतें भिन्न जो आत्माको उपलब्धी, ताप्रति 卐 विप्रतिपन्न कहिये अन्यथा ग्रहण करनेवाला पुद्गलहीकू आत्मा जानता जो पुरुष, ताकू साम
कहिये ताके हितरूप मिलापको वार्ता कहिकार, समभावहीतें उपदेश कहना सोही काव्यमें 卐 कहे हैं।
विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन स्वयमपि निभृतः सन् पश्य षण्मासमेकं ।
हृदयसरसि पुंसः पुनलाभिन्नधानो ननु किमनुपलब्धिर्भाति किंचोपलब्धिः ॥२॥ ___ कथंचिदन्वयप्रतिभासेप्यध्यवसानादयः पुद्गलस्वभावा इति चेत् ।
___ अर्थ हे भव्य ! तेरे अन्य जे विनाकार्य निकम्मा कोलाहलकरि कहा साध्य है? तिस कोलाए हलतें तू विरक्त होऊ अर एक चेतन्यमात्र वस्तुकू आप निश्चल लीन होय देखि । ऐसें छह महिना +
अभ्यास करि । ऐसें कोये, अपना हृदयसरोवरविर्षे पुदगलते भिन्न है तेज प्रताप प्रकाश जाका " 卐 ऐसा जो पुरुष आत्मा, ताकी कहा प्राप्ति न होय है ? ऐसा नियम है, जो प्रासि होय ही होय। 卐
__ भावार्थ-जो अपने स्वरूपका अभ्यास करें, तो ताकी प्राप्ति होय ही होय । जो परवस्तु .. 卐 होय, तौ ताकी तो प्राप्ति न होय । अपना स्वरूप तौ विद्यमान है, भूलि रहा है सो चेतकरि का
देखे तो पासिही है । इहां छह महिना अभ्यास करा सो ऐसा न जानना, जो एतेहीमैं होय, - का याका होना तौ मुहूर्तमात्रमें ही है। परंतु शिष्यकू बहुत कठिग भास तो ताका निषेश है, जो ।
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ऊ पाहतशाल साह लाहोगा, तो रूह महिना सिवाय न लागेगा । तातें अन्य निष्प्रयोजन कोलाहल 卐
छोडि यामै लागै शीघ्र रूपकी प्राप्ति होयगी ऐसा उपदेश है। आर्गे शिष्य पूछे है, जो ए अध्यवसानादिकभाव जीव न बताये, अन्य चैतन्यस्वभावजीव बताया, सोए भाव भी तौ चैतन्यहीते अन्वयी प्रतिभासे हैं, चैतन्यविना जडकै तौ दीखै नाही, इनिळू पुद्गलके स्वभाव कैसे ? ऐसे पूछे उत्तरका सूत्र कहे हैं । गाथा
अट्ठविहं पि य कम्मं सव्वं पुग्गलमयं जिणा विति। जस्स फलं तं वुच्चदि दुक्खं ति विपञ्चमाणस्य ॥४५॥
अष्टविधमपि च कर्म सर्व पुद्गलमयं जिना विंदति ।
यस्य फलं तदुच्यते दुःखमिति विपच्यमानस्य ॥४५॥ आत्मख्याति:-अध्यवसानादिभावनिवर्तकमष्टविधमपि च कर्म समस्तमेव पुद्गलमयमिति किल सकलज्ञज्ञप्तिः । + तस्य तु यद्विपाककाष्ठामधिरूढस्य फलस्वेनाभिलप्यते । तदनाकुलत्वलक्षणसौख्याख्यात्मस्वभावविलक्षणत्वात्किल दुःखं .
उदंतःपातिन एव किलाकुलत्वलक्षणा अध्यवसानादिभावाः । ततो न ते चिदन्वयविभ्रमेप्यात्मस्वभावाः किंतु पुद्गल. ॐ स्वभावाः । यद्यध्यवसानादयः पुद्गलस्वभावास्तदा कथं जीवत्वेन सूचिता इति चेव। . ____ अर्थ-आठप्रकार कर्म ज्ञानावरणादिक हैं, ते सर्व ही पुद्गलमय हैं यह जिनभगवान् सर्वज्ञ
देव कहे हैं । बहुरि याका फल है सो दुःख है। यह कर्म पचिकरि उदय आवे है, सो दुःख है। - टीका-जाकारण" ए अध्यवसान आदि समस्त भाव हैं तिनिका उपजावनेवाला आठप्रकार " ज्ञानावरण आदि कर्म है, सो समस्तही पुद्गलमय है, पेसैं सर्वज्ञका वचन है। तिस कर्मका उदय 5 + हदकू पहुंचे ताका फल है सो यह अनाकुलस्वरूप जो सुखनामा आत्माका स्वभाव, तातें विलक्षण
है, आकुलतामय है, तातें दुःख है। तिस दुःखके मांही आप पडे जे अनाकुलतास्वरूप अध्यवसान 卐 आदिक भाव, ते भी दुःखही हैं । तातें ते चैतन्यतें अन्वयका विभ्रम उपजावै हैं, तौऊ ते आत्माके के
स्वभाव नाहीं हैं, पुद्गलस्वभाव ही हैं।
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ववहारस्स दरीसणमुवएसो वण्णिदो जिणवरेहिं । जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावाः ॥४६॥ व्यवहारस्य दर्शनमुपदेशो वर्णितो जिनवरैः । जीवा एते सर्वेऽध्यवसानादयो भावाः ॥४६॥
आत्मख्यात्तिः– सर्वे एवैते ऽध्यवसानादयो भावाः जीवा इति यद्भगवद्भिः सकलज्ञैः प्रशतं तदभूतार्थस्यापि व्यव
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भावार्थ - यह आत्मा कर्मका उदय आवे तब दुःखरूप परिणमे है अर दुःखरूप भाव है सो 45 अध्यवसान है । तातें दुःखरूप भावविषै वेतनताका भ्रम उपजे है, परमार्थतें नाहीं है, कर्मजन्य है, यातें नड ही है। आगे पूछे है, जो ए अध्यवसानादिभाव हैं ते स्वभाव हैं तो सर्वज्ञके आगममें इनिकं जीवभावकरि कैसें कहे हैं ? ऐसें पूछे याका उत्तरका 5 सूत्र कहे हैं। गाया
दुःखरूपभाव चेतन 5
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व्यवहारी जीवन परमार्थका कहनहारा है। जैसें म्लेछकी भाषा है सो म्लेच्छनिकूं वस्तुस्वरूप जन्नावे है तैसे है । तातें अपरमार्थभूत है तौऊ धर्मतीर्थप्रवृत्ति करनेकुं व्यवहारनयका वर्णन न्याय्य है । तातें तिस व्यवहारकूं कहे बिना परमार्थ तो जीव शरीरतें भिन्न कहे है। सो याका एकांत
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हारस्यापि दर्शनं । व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थोपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं 15 दर्शयितुं न्याय्य एव । तमंतरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो मेददर्शनात् सस्थावराणां भस्मन् इव नि:शंकपमर्दनेन हिंसाभावाद्भवत्येव बंधस्याभावः । तथारक्तद्विष्टविमूढो जीवो बध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो 15 भेददर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभाव: । अथ केन दृष्टांतेन प्रवृत्ती व्यवहार इति चेदअर्थ- जो ए अध्यवसानादिक भाष हैं ते जीव हैं ऐसें जिनवरदेवने उपदेश वर्णन किया हैं, फु सो यह व्यवहारनयका दर्शन है, मत है ।
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टीका - सर्व ही ए अध्यवसानाविक भाव हैं ते जीव हैं, ऐसें जो भगवान् सर्वज्ञदेव कया, 5 सो अभूतार्थ असत्यार्थरूप जो व्यवहारनय, ताका दर्शन कहिये मत है।
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5 करिये तौ, सस्थावरजीवनिका घात निःशंकपणे करना ठहरथा । जैसे भस्मके मर्दन करनेमें
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हिंसाका अभाव है, तैसें तिनिके घातने में भी हिंसा न ठहरै अर हिंसाका अभाव ठहरे तब तिनिके 5 घालतें बंधा भी अभाव ठहरे। तैसे ही रागी द्वेषी माही जीव कर्मतें बंधे है ताकूं छूडावना, ऐसें 5 प्राद का है सो राग द्वेष मोहतें जीव जीवकूं भिन्न दिखावनेकरि मोक्षका उपाय करनेका अभाव होय तब मोक्षका भी अभाव ठहरै, ऐसे व्यवहारनय कहिये, तब बंधमोक्षका अभाव ठहरे है। भावार्थ- परमार्थनय तो जीवकू शरीर अर राग द्वेष मोहते भिन्न कहे हैं। सो याहीका एकांत करिये तब शरीर तथा राग द्वेष मोह पुद्गलमय ठहरै, तब पुद्गलके घातनेतें हिंसा नाहीं अर राग द्वेष मोहर्ते बंध नाहीं । ऐसें परमार्थतें संसारमोक्ष दोऊका अभाव कहे हैं, सो यह ठहरे, सो ऐसा एकांतस्त्ररूप वस्तुका स्वरूप नाहीं, अवस्तुका श्रद्वान ज्ञान आचरण मिथ्या अवस्तुरूप ही है । तातें व्यवहारका उपदेश न्यायप्राप्त है । ऐसें स्याद्वादकरि दोऊ नयनिका विरोध मेटि 5
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दान करना सम्यक्त्व है। आगे पूछे है, जो यह व्यवहारनय कौन दृष्टांतकरि प्रवर्त्य है ? साका उत्तर कहे हैं। गाथा
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राया हु णिग्गदो त्तिय एसो वलसमुदयस्स आदेसो । ववहारेण दु उच्चदि तत्थेको णिग्गदो राया ॥४७॥ एमेव यववहारो अज्झवसाणादि अण्णभावाणं ।
जीवो त्ति कदो सुत्ते तत्थेको णिच्छिदो जीवो ॥४८॥ राजा खलु निर्गत इत्येष बलसमुदयस्यादेशः ।
व्यवहारेण तूच्यते तत्र को निर्गतो राजा ॥४७॥ एवमेव च व्यवहारोध्यवसानायन्यभावानां । जीव इति कृतः सूत्र तत्र को निश्चितो जीवः ॥४८॥
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आत्मख्याति:-यथैव राजा पंच योजनान्यभिव्याप्य निष्क्रामतीत्वेकस्य पंचयोजनान्यभिव्याप्तुमशक्यत्वाद् व्य 卐 वहारिणां बलसमुदाये राजेवि व्यवहारः। परमार्थतस्त्वेक एव राजा । तथैव जीवः समन रागग्राममभिव्याध्य प्रवर्तित
इत्येकस्य समग्र रामग्राममभिव्याप्तुमशक्यत्वाद् व्यवहारिणामध्यबसानादिष्वन्पभावेषु जीव इति व्यवहारः। परमार्थम तस्त्वेक एव जीवः । यद्येवं तर्हि कि लक्षणोसावेकर्षकोत्कीर्णः परमार्थजीव इति पृष्टः प्राह
___ अर्थ-डेसै कोई राजा सेनासहित निसरया तहां व्यवहारकरि सेनाके समुदायकू ऐसा 卐 कहिये है, जो यह राजा निसा , तहां निश्चयतें विचारिये तब सेनावि राजा तो एक ही है।।
तैसे ही यह अध्यवसान आदि अन्यभाव हैं तिनिकू जीव है ऐसा सूत्रविर्षे कया है, सो व्यवहार- - भनयका वचन है। निश्वयतें विचारिये तो तिनिविर्षे जीव तो एक ही है।।
____टीका—जैसे कहिये हैं, जो यह राजा पांच योजनमें व्यापिकरि नीसरे है, तहां निश्चयकरि विचारिये तो एक राजाके पांच योजन व्यापनेका असमर्थपणा है, तौऊ व्यवहारी लोकनिका" सेनाका समुदायविर्षे राजा ऐसा कहनेका व्यवहार है। परमार्थतें तो राजा एक ही है, सेना
राजा नाहीं । तैसे ही यह जीव समस्त जे रागका ठिकाना हैं तिनिळू व्यापिकरि प्रवर्ते है, # निश्चयकरि विचारिये तक एक साल के ठिकाने व्यापने का अलमर्थपणा है। तौऊ व्यव- 5
हारी लोकनिके अध्यवसानादिक अन्यभावनिविर्षे ए जीव हैं ऐसा व्यवहार प्रवर्ते है। परमार्थत 卐 तो जीव एक ही है। अध्यवसानादिभाव हैं ते जीव नाहीं हैं। आगें पूछे है, जो ए अध्यवसा
नादिक भाव हैं ते जीव नाहीं हैं, तो जीव एक टंकोत्कीर्ण परमार्थस्वरूप कैसाक है ? याका लक्षण + कहा है ? ऐसे पृछ उत्तर कहे हैं । गाथा
अरसमरूवमगंधं अञ्चत्तं चेदणागुणमसह। जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिदिसंठाणं ॥४९॥
अरसनरूपमगंधमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दं । जानीहि अलिंगग्रहणं जीवमनिर्दिष्टसंस्थानं ॥१९॥
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आत्मख्यातिः—यः खल' पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानरसगुणत्वात् पुद्गलद्रव्यगुणेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमरसगुणन्वात् । परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावात् द्रव्येद्रियावष्टं भेनारसनात स्वभावतः क्षायोपशमिकभावाभावाद् भायेंद्रियादलवेनारस- - नात, सकलसाधारणकसंवेदनपरिणामस्वभावत्वारकेवलरसवेदनापरिणामापनत्वेनारसनात्, सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य । निषेधाद्रसपरिच्छेदपरिणतत्वेपि स्वयंरसरूपेणापरिगमनाचारसः । तथा पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानरूपगुणत्वात् पुद्गलद्रव्यगुणेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमरूपगुणत्वात् परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामिन्वाभावात् द्रव्येद्रियावष्टंभेनारूपणात्, स्वभावतः क्षायोपशमिकभावाभावाद् भावेंद्रियावलंबेनारूपणात्सकलसाधारणकसंवेदनपरिणामस्वभावत्वात्केवलरूपवेदनापरिणामापन्नत्वे-45 नारूपणात, सकलज्ञ यज्ञायकतादात्म्यम् । निषेधाद्रुपपरिच्छेदपरिणतत्वेपि स्वयं रूपरूपेणापरिणमनाचारूपः । तथा पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानगंधगुणत्वात पुदगलद्रव्यगुणेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमगंधगुणत्वात् परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वा- LE भावाद् द्रव्ये द्रियावष्टंभेनागंधनात्, स्वभावतः क्षायोपशामकभावाभावाद् भावद्रियाव बनानधनान् सकलसाधारणकसंवेदनपरिणामस्वभावत्वात्केवलगंधवेदनापरिणामापन्नत्वेनागंधनात् सकलज्ञ यज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाद् गंधपरिच्छेदपरिण- 4 तत्वेपि स्वयं गंधरूपेणापरिणमनाचागंधः। तथा पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानस्पर्शगुणत्वात् पुद्गलद्रव्यगुणेम्यो भिन्नत्वेन स्वयमस्पर्शगुणत्वात् परमार्थतः पुदगलद्रव्यस्वामित्वाभावाद् द्रव्येद्रियावष्टंभनास्पर्शनात् स्वभावतः क्षायोपशमिकभावाभावात् भावेंद्रियावलंबनास्पर्शनात्मकलसाधारणैकसंवेदनपरिणामस्वभावत्वात् केवलस्पर्शवेदनापरिणामापन्नत्वेनास्पर्शनात् सकलज्ञ यज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधात् स्पर्शपरिच्छेदपरिणतत्वपि स्वयं स्पर्शस्वरूपेणापरिणमनाच्चास्पर्शः। 5 तथा पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानशब्दपर्यायत्वात् पुद्गलद्रव्यपर्यायेभ्यो भिन्नत्वन स्वयमशब्दपर्यायत्वात् परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावात् द्रव्यंद्रियावष्टंभन शब्दाश्रयणात स्वभावतःक्षायोपशमिकभावाभावाद् भावंद्रियावलंबन शन्दा- श्रवणात सकलसाधारणकसंवानपरिणामस्वभावत्वात केव शब्दबदनापरिणामापन्नत्वन शब्दाश्रवणात सकलश यन्नायक तादात्म्यस्य निषेधाच्छब्दपरिच्छेदपरिणतत्वपि स्वयं शब्दरूपेणापरिणमनाच्चाशब्दः । द्रव्यांतरारब्धशरीरसंस्थानेनैव ॥ संस्थान इति निर्देष्टुमशक्यत्वात् नियतस्वभावेनानियत्तसंस्थानानंतशरीरवर्तित्वात्संस्थाननामकर्मविपाकस्य पुद्गलेषु निर्दिश्यमानत्वात् प्रतिविष्टसंस्थानपरिणतसमावस्जुतायसवलितसहजसंवेदनशक्तित्वेपि स्वयमखिललोकसंवलनशून्योप- ॥ जायमाननिर्मलानुभूतितयात्यंतमसंस्थानत्वाच्चानिर्दिष्टसंस्थानः। षद्व्यात्मकलोकाद् न याद्वयक्तादन्यत्वात्कषायचक्राद् भावकाद्वयक्तादन्यत्वाच्चित्सामान्यनिमानसमस्तव्यक्तित्वात् क्षणिकव्यक्तिमात्राभावात् व्यक्ताव्यक्तविमित्रप्रतिभासेपि ॥ व्यक्तास्पर्शत्वात् स्वयमेव हि वहिरंतः स्फुटमनुभूयमानत्वेपि व्यक्तीपेक्षणेन प्रद्योतमानत्वाच्चान्यक्तः । रसरूपगंधस्पर्भ-..
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शब्दसंस्थानध्यक्तत्वाभावपि स्वसंवेदनबलेन नित्यमात्मप्रत्यक्षत्वे सत्यनुमेयमात्रत्वाभावादलिंगग्रहणः । समस्तविप्रतिपतिप्रमाथिनी विवेचकजनसमर्पितसर्वस्वेन सकलमपि लोकालोकं कवलीकृत्यात्यंतसौहित्यमंथरेणेव सकलकालमेव मनागप्य-5 विचलितानन्यसाधारणतया स्वभावभूतेन स्क्यमनुभूयमानेन चेतनागुगेन नित्यमेवांतःप्रकाशमानत्वात् चेतनागुणश्च स .. खलु भगवानमलालोक इहैकप्टंकोत्कीर्णः प्रत्यग्ज्योतिर्जीवः ।
अर्थहे भव्य ! तू जीव ऐसा जानि । अरस कहिये रसरहित है, अरूप कहिये रूपरहित है, . अगंध कहिये गंधरहित है, अव्यक्त कहिये इंद्रियनिके गोवर व्यक नाहीं है, बहुरि चेतना है गुण। जाके, बहुरि अशब्द कहिये शब्दरहित है. बहुरि अलिंगग्रहण कहिये काहू चिन्हकरिहो जाका ग्रहण नाहीं होय है, बहुरि अनिर्दिष्ट संस्थान कहिये जाका आकार किछू कया जाता नहीं, ऐसा जीव जानो। ____टीका-जो जीव है सो निश्वयकरि पुद्गलद्रव्यतें अन्य है, ताते यामैं रसगुण विद्यमान .. नाहीं, तातें अरस है ॥१॥ बहुरि पुगलद्रव्यका गुगनि भी भिन्न है, यातें आप भी रसगुण नाहीं । है, तातें भी अरस कहिये ॥२॥ बहुरि परमार्थत पुद्गलद्रव्यका स्रामीपणा भी याकै नाहीं है, तातें द्रव्येद्रियका अवलंबन करि आप रसरूप नाहीं परिणमे है, ताते भी अरस कहिये ॥३॥ बहुरि अपने स्वभावकी दृष्टिकरि देखिये तब क्षायोपशमिक भाक्का भी याकै अभाव है, याते ॥ भावेंद्रियके अवलंबनकरि भी याके रसरूप परिणामका अभाव कहिये, तातें भी अरस कहिये । ॥४॥ बहुरि याका संवेदनयरिणाम तो एक ही है सो सकलविषयनिक विशेषनिमैं साधारण है, . तिस स्वभावतें केवल एकरसवेदनापरिणामकी प्राप्तिरूप ही न कहिये, तातें भी अरस कहिये ॥५॥ बहुरि याके समस्तही शेयका ज्ञान होय है; परन्तु ज्ञेपशायककै सादाम्य कहिये एकरूप । होनेका निषेध ही है, यातें रसका ज्ञानरूप परिणमे है, तोऊ आप तो रसरूप परिणम नाही, प. तातें भी अरस कहिये ॥६॥ ऐसें छह प्रकारकरि रसका निषेवते अरत है। ऐसे ही अरूप,अगंध, अस्पर्श, अशब्द चारों विषयनिका छह छह हेतुकरि निषेध है, सो कहे तैसे ही जानलेने। '
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___ बहुरि अनिर्दिष्टसंस्थानकू कहे हैं । द्रव्यांतर कहिये पुद्गलद्रव्य, ताकरि रचा जो शरीर,ताके की संस्थान जो आकार तिनिकरि कहा न जाथ है, याका ऐसा आकार है ॥१॥ बहुरि आपका नियतस्वभाव है ताकरि अनियतसंस्थानरूप जे अनंत शरीर तिनिमें वर्ते है, यातें भी आकार " कहा जाता नाहीं ॥२॥ बहुरि संस्थान नामकर्मका विपाक है सोभी पुद्गलद्रव्यहो विर्षे कहिये ॥ है, ताके निमित्ततें आकार न कहिये ॥३॥ बहुरि न्यारे न्यारे आकाररूप परिणमते जे समस्तवस्तु, तिनिके स्वरूपते तदाकार भया जो अपना स्वभावरूप संवेदन, तिस शातरूपपणा याकै होते भीम आप तौ समस्त लोकके मिलापकरि शून्य होती जो अपनी निर्मल ज्ञानमात्र अनुभूति तिसपणाकरि किछु भी आकाररूप नाहीं है, तातें अनिर्दिष्टसंस्थान है ॥४॥ येसै चारि हेतु संस्थानका कहना निषेध्या । ___बहुरि अव्यक्तविशेषणकू साधे हैं । तहां पद्मव्यस्वरूप लोक है सो ज्ञेय है, व्यक्त है, ऐसें । व्यक्तरूपते जीव अन्य है, तातें अव्यक्त है ॥१॥ बहुरि कषायका समूह जो भावकभाव सो व्यक्त) है, तातें भी जीव अन्य है, तातें अव्यक्त है ॥२॥ बहुरि चित्सामान्यविर्षे चैतन्यकी व्यक्ति है। ते सर्व अंतर्भूत है, तातें अव्यक्त है ॥३॥ बहुरि क्षणिकव्यक्तिमात्रही नाहीं है, तातें भी अव्यक्त कहिये ॥४॥ बहुरि व्यक्त अर' अव्यक्त अर दोऊ भाव मिले हुये मिश्ररूप याके प्रतिभासमें आवे ।। है, तौऊ व्यक्तभावही केवल नाहीं स्पर्श है, तातें भी अव्यक्त कहिये ॥५॥ बहुरि आपही बाह्य आभ्यन्तर प्रगट अनुभूयमान है तोऊ व्यक्तभावतें उदासीन दूर वति प्रयोतमान है, तातें भी न अव्यक्त कहिये ॥६॥ ऐसे छह हेतुकरि अव्यक्तभाव साध्या ।
बहुरि ऐसे रस, रूप, गंध, स्पर्श, शब्द, संस्थान व्यक्तम्गाका अभावस्वरूप होते भी स्वसंवे-' वेदन केवलकरि आप प्रत्यक्षगोचर होतें अनुमानगोचरमात्रपणाका अभावते अलिंगग्रहण कहिये। बहुरि आपके अनुभवनमें आवे ऐसा चेतनागुणकरि सदा अंतरंगविर्षे प्रकाशमान है, तातें चेतना-5 गुण है । कैसा है चेतनागुण ? समस्त जे विप्रतियत्ति कहिये जीवकू अन्य प्रकार मानना ताका ..
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फ सर्वही मूलतें छोडिकरिअर प्रगटपणे अपने fचच्छक्तिमात्र भावकूं अवगाहन करि अर यह समस्त पदार्थ समूह जो लोक ताकै उपरि प्रवर्तता संता है, ताका साक्षात् अनुभव करो। कैसा है 5 5 यह ? अनंत है, अविनाशी है ।
भावार्थ - यह आत्मा परमार्थतें समस्त अन्यभावनि रहित चैतन्यशक्तिमात्र है, ताका अनु
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ataraरण करनारा है। बहुरि भेदज्ञानी जीवनिकं सोप्या है अपना सर्वस्व जानें ऐला है । बहुरि समस्त ही लोकालोककूं ग्राही (सी) भूतकरि अर अत्यंत सुखिया मंथर होय, तैसें सर्व कालमें किंचिन्मात्र भी चलायमान नाहीं होता है। बहुरि अन्य दुव्यनित साधारण नाहीं है, तातें असाधारण स्वभावभूत है । ऐसा चैतन्यरूप परमार्थस्वरूप जीव है, सो यह भगवान् निर्मल है प्रकाश जाका ऐसा इस लोकमें टंकोत्कीर्ण भिन्न ज्योतीरूप विराजमान है। अब इसही अर्थका 15 कलशरूप काव्य कहि याके अनुभवनकी प्रेरणा करे हैं ।
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मारिनोछन्दः
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Reef farmar चिच्छतिरिक्त स्फुटतर नवगाथ स्वं च चिच्छक्तिमात्रं । sageरि चरतं चारुविश्वस्य साक्षात् कव्यतु परमात्मात्मानं ॥३॥
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अर्थ-भव्य आत्मा है सो अपने एक केवल आत्माकूं आताही विषै अभ्यास करो, अनुभव
करो । कैसा आत्माका अनुभव करो ? जो सकल ही चिच्छक्तितें रीतै रहित अन्यभाव हैं तिनिकूं 45
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भवका अभ्यास करौ, ऐसा उपदेश है। आगें चिच्छक्तितें अन्य जे भाव हैं, ते सर्व पुगलद्रव्यसंबंधी हैं। ऐसी अगिली गाथाकी सूचनिकारूप श्लोक कहे हैं ।
अनुष्टुप् छन्दः
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चिच्छतिव्याप्तसर्वस्वस्वसारो जीव इयानयं । अतोतिरिक्ताः सर्वेषि भावाः पौद्गलिकाअमी ||४|| अर्थ-यह जीव है सो चैतन्यशक्तिकरि व्याप्त है सर्वस्वसार जाका ऐसा एतावन्मात्र है,
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इस चिच्छक्त ते जे भाव हैं ते सर्वही पुद्गलजन्य हैं ते पुद्गलके ही हैं । ऐसें तिनिभावनिका व्याख्यान छह गाथामें करे । गाथा
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जीवस्स णत्थि वण्णो णविगंधोणविरसोणविय फासो। णवि रूवं ण सरीरं ण वि संठाणं ण संहणणं ॥५०॥ जीवस्त गत्थि रागो णवि दोसो णेव विजदे मोहो। णो पच्चया ण कम्मं णोकम्मं चावि से णत्थि ॥५१॥ जीवस्स णत्थि वग्गो ण वग्गणा व फड्ढया केई । णो अज्झप्पठाणा व य अणुभायठाणाणि ॥५२॥ जीवस्स णत्थि केई जोयट्ठाणा ण बंधठाणा वा । णो व य उदयट्ठाणा ण मग्गणठाणया केई ॥५३॥ णो ठिदिबंधठाणा जीवस्स ण संकिलेसठाणा वा। व विसोहिट्ठाणा णो संजमलद्धिठाणा वा ॥५४॥ णेव य जीवठ्ठाणा ण गुणट्ठाणा य अस्थि जीवस्स। जण दु एदे सव्वे पुग्गलदवस्स परिणामा ॥ ५५ ॥
जीवस्य नास्ति वर्णों नापि गंधो नापि रसो नापि च स्पर्शः। नापि रूपं न शरीरं नापि संस्थानं न संहननं ॥५०॥ जीवस्य नास्ति रागो नापि द्वषो नैक विद्यते मोहः । नो प्रत्यया न कर्म नोकर्म चापि तस्य नास्ति ॥११॥ जीवस्य नास्ति वर्गों न वर्गणा नैव स्पर्द्धकानि कानिचित् । नो अध्यात्मस्थानानि नैव चानुभागस्थानानि ॥५२॥
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जीवस्य न संति कानिचिद्योगस्थानानि न बंधस्थानानि वा। देव बोदपश्यालागि मार्गणास्थानानि कानिचित् ॥५३॥ नो स्थितिबंधस्थानानि जीवस्य न संक्लेशस्थानानि वा । नैव विशुद्धस्थानानि नो संयमलब्धिस्थानानि वा ॥५४॥ नैव च जीवस्थानानि न गुणस्थानानि वा संति जीवस्य ।
येन वेते सर्वे पुद्गलद्रव्यस्य परिणामाः ॥५५॥ आत्मख्यातिः–यः कृष्णो हरितः पीलो रक्तः बेसो वर्णः स सर्वेपि नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्त्वे ॥ सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यः सुरभिदुरभिर्वा मंधः स सर्कपि नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिनत्वात् । यः कटुकः कषायः तिक्तोऽम्लो मधुरो का रसः स सर्वापि नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममवत्वे सत्यनु-卐 भूतेभिन्नत्वात् । यः स्निग्धो रूक्षः शीतः उजो गुरुलघुमदुः कठिनो वा स्पर्शः स सर्योपि नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्य परिणाममयत्वे सत्यनुभृतेभिन्नत्वात् । यत्स्पादिसामान्यपरिणाममात्रं रूपं तन्नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्त्वेज सत्यनुभतेभिन्नत्वात । यदीदारिक क्रियामाहारकं तैजसं कार्मणं वा शरीरं तत्सर्थमपि मास्ति जीवम्य प्रगलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभृतेभिन्नत्वात । यत्समचतुरस्र न्यग्रोधपरिमंडलं स्वाति कुन्नं वामनं हुण्डं वा संस्थानं तत्सर्वमपि4 नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभृतेभिन्नत्वात् । यद्वजर्षभनाराचं वजनाराचं नाराचमईनाराचं कीलिका असंप्राप्तामृपाटिका वा संहननं नन्सर्वमपि नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्पनुभूतैमिन्नत्वात् । यः प्रीतिरूपो रामः स सर्कोपि नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सस्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यो प्रीतिरूपो द्वेषः स सर्कोपि नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतभिन्नत्वात् । यस्तच्याप्रतिपत्तिरूपो मोहः स सर्वापि नास्ति जीवस्य पुगल-卐 द्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभनेभिन्नत्वात्। ये मिथ्यात्वाविरतिकपाययोगलक्षणाः प्रत्ययास्ते सर्वेपि न संति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतभिन्नत्वात् । यद् ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीयवेदनीयमोहनीयापुर्नामगोत्रांतरायरूपं कर्म तत्सम मपि नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यरषट्पर्याप्तित्रिशरीरयोग्यवस्तुरूपं नोकर्म तत्सर्वमपि नासि। जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यः शक्तिसमूहलक्षणो वर्गः स सर्वोपि नास्ति जीवस्य ॥ पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । या वर्गसमूहलक्षणा वर्गणा सा सर्वापि नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रन्यपरि-...
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णाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि मंदती रसकर्मदलविशिष्टन्यासलक्षणानि स्पर्द्धकानि तानि सर्वाण्यपि न संति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेचित्वात् । थानि स्वपरैकत्वाभ्यासे सति विशुद्धचित्परिणामातिरिक्तत्व5 लक्षणान्यध्यात्मस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न संति जीवस्य पुत्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि प्रतिविशिष्टप्रकृतिरसपरिणामलक्षणान्यनुभागस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न संति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यानि कायवाङ्मनीवर्गणा परिस्पदलक्षणानि योगस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न संति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि प्रतिविशिष्टप्रकृतिपरिणामलक्षणानि बंधस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न संति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतैर्भिन्नत्वात् । यानि स्त्रफलसंपादनसमर्थ कर्मावस्थालक्षणान्युदयस्थानानि तानि 卐 सर्वाण्यपि न संति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यानि गतींद्रियकाययोगवेदकषायज्ञानसंयमदर्शनलेश्याभव्यसम्यक्त्वसंज्ञाहारलक्षणानि मार्गणास्थानानि तानि सर्वाण्यपि न संति जीवस्य पुद्गल परिणाममयस्त्रे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि प्रतिविशिष्टप्रकृतिकालांतर सहत्व लक्षणानि स्थितिबंधस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न संति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यानि कपायविपाकोद्रेकलक्षणानि संक्त रास्थानानि तानि सर्वा 卐 यपि न संति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि कपायविपाकानुद्रक लक्षणानि विशुद्धस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न संति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि चारित्रमोहविषा - 455 कक्रमनिवृत्तिलक्षणानि संयमलब्धिस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न संति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नस्वात् । यानि पर्याप्तापर्याप्तवादर सूक्ष्मैकेंद्रियही द्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रियसंज्ञघसंज्ञिपंचेद्रियलक्षणानि जीवस्थानानि तानि सर्वा ण्यपि न संति जीवस्था पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वं सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि मिध्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिसम्पग्मिध्यादृष्टिअसंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयत्प्रमत्तसंयताप्रमत्तसंयतापूर्वकरणपशमकक्षपकानिवृत्तिवादरसां परायोपशमकक्षपकसूक्ष्म 5 सांपरा योपशमकक्षपकोपशांत कषाय क्षीणकषायस योगकेवल्पयोगकेवलिलक्षणानि गुणस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न संति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्ये सत्यनुभूते भिन्नत्वात् ।
अर्थ - जीवके वर्ण नाहीं है, गंध भी नाहीं है, रस भी नाहीं है, बहुरि स्पर्श भी नहीं है,
रूप भी नाहीं है, शरीर भी नाही है, संस्थान भी नाहीं है, संहनन भी नाहीं है, बहुरि जीवकै राग भी नाही है, द्वेष भी नाही विद्यमान है, मोह भी नाही हैं, प्रत्यय कहिये आस्व
भी नाही हैं, कर्म भी नाही' है, नोकर्म भी ताके नाही है, बहुरि जीवकै वर्ग नाही है, कर्मणा
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नाहीं है, केई स्पर्द्धक भी नाहीं है, अध्यात्मस्थान भी नाहीं है, बहुरि अनुभागस्थान भी नाहीं है, ५ बहुरि केई योगस्थान हैं ते भी जीवके नाहीं हैं, अथवा बंधस्थान भी नाहीं है, बहुरि उदयस्थान ,
भी नाही है, बहुरि केई मार्गणास्थान हैं ने भी नहीं हैं, दुरि जीवक स्थितिबंधस्थान हैं ते १३४ भी नाही है, अथवा संक्लेशस्थान भी नाहीं है, विशुद्धिस्थान भी नाही है, अथवा संयमस्थान ५
भी नाही है, बहुरि जीवके जीवस्थान भी नाहीं है, अथवा गुणस्थान भी नाही है। जा कारणकरि ए सर्वही पुद्गलद्रव्यके परिणाम हैं।
टीका-जो कृष्ण, हरित, पीत, रक्त, श्वेत, वर्ण हैं सो सर्व ही जीवकै नाहीं हैं। जाते .. पुदलद्रव्यका परिणाममयपणाकू होते अपनी अनुभूसित ए वर्ण भिन्न हैं ॥१॥ बहुरि जो सुरभि । दुरभि गंध है सो सर्वही जीवकै नाहीं है । जातें ए पुद्गलपरिणाममय हैं, ऐसे होते अपनी अनु- - भूतिते भिन्न हैं ॥२॥ वहुरि जो कटु, कषाय, तिक्त, आम्ल, मधुर रस हैं सो सर्वही जीवकै नाहीं हैं। जाते ए पुद्गलपरिणाममय हैं, ऐसें होतें अपनी अनुभूतिते भिन्न है ॥३॥ बहुरि जो स्निग्ध, म
रूक्ष, शीत, उष्ण, गुरु, लघु, मृदु, कठिन, स्पर्श हैं ते सर्वही जीवकै नाहीं हैं । जाते ए पुद्गल卐 परिणाममय हैं, ऐसे होते अपने अनुभतित भिन्न हैं ॥४॥ वहरि जो स्पर्शादि सामान्यपरिणाम'
मात्ररूप है सो जीवकै नाहीं है । जाते यह पुद्गलपरिणाममय है, ऐसे होते अपनी अनुभूतिते .. भिन्न है ॥५॥ बहुरि जो औदारिक बैंक्रियिक, आहारक, तैजस, कार्मण, शरीर है सो सर्वही जीवकै नाहीं है । जाते ए पुद्गलपरिणाममय हैं, ऐसे होतें अपनी अनुभूतिते भिन्न हैं ॥६॥ बहुरि जो समचतुरस्त्र, न्यग्रोधपरिमंडल, सातिक, कुञ्जक, बामन, हुंडक, संस्थान हैं सो सर्वही " जीवके नाहीं है । जाते ए पुद्गलपरिणाममय हैं, ऐसे होतें अपनी अनुभूतिते भिन्न हैं ॥७॥
बहुरि जो वर्षभनाराच, वजनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलक, असंप्राप्तासपाटिका, संहनन, " 卐 हैं ते सर्वही जीवकै नाहीं हैं। जातें ए पुद्गलपरिणाममय हैं ऐसे होते अपनी अनुभूतिते ॥
भिन्न हैं ॥८॥
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बहुरि---जो प्रीतिरूप राग है सो सर्वही जीवक नाही है। जातें यह पुद्गलपरिणाममय म है, ऐसे होते अपनी अनुभूतितें भिन्न है ॥९॥ बहरि जो अप्रीतिरूप द्वेष है सो सर्वही जीवकै ॥ 1 नाही है। जातें यह पुद्गलपरिणाममय है, ऐसे होतें अपनी अनुभूति भिन्न है ॥१०॥ बहुरि " जो यथार्थतखकी अप्रातिरूप मोह है सो सही जीवकै नाहीं है। जाते यह पुद्गलपरिणाममय :
है, ऐसे होते अपनी अनुभूति भिन्न है ॥११॥ बहुरि जे मिथ्यात, अविरति, कषाय, योग है ..
लक्षण जिनिका ऐसे प्रत्यय हे ते सर्वही जीवक नाही हैं। जातें ए पुद्गलपरिणाममय हैं, ऐसे 卐 होतें अपनी अनुभूतिते भिन्न हैं ॥१२॥ बहुरि जो ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोह
नीय, आयु, नाम, गोत्र, अंतरायरूप कर्म है सो सर्वही जीवकै नाही है। जाते० ॥१३॥ बहुरि जो छह पर्याप्ति तीन शरीरयोग्य वस्तुरूप पुद्गलस्कंध नोकर्म है सो सर्वाही जीवके नाहीं है।' जाते० ॥१४॥ बहुरि जो कर्मके रसकी शक्तिके अविभागप्रतिच्छेदका समूहरूप वर्ग है सो सर्वही जीवके नाहीं है। जाते. ॥१५॥ बहरि जो वर्गनिका समूहरूप वर्गणा है सो सर्व ही जीवकै : नाहीं है । जाते॥१६॥ बहुरि जे मंद, तीव्र रसरूपकर्मका समूहकरि विशिष्टवर्ग तिनिका ..
वर्गणाका स्थापन, सो है लक्षण जिनिका ऐसे स्पर्द्धक हैं ते सर्ग ही जीवके नाहीं हैं। जाते. ॐ ॥१७॥ बहुरि जे स्वपरका एकपणाका निश्चय आशय होते विशुद्ध चैतन्यपरिणामते न्यारापणा ,
है लक्षण जिनिका ऐसे योगस्थान, ते सर्व जीवके नाही है। जाते. ॥१८॥ बहुरि जे न्यारे " 卐 न्यारे विशेषरूप प्रकृतिनिके रसरूपपरिणाम है लक्षण जिनिका ऐसे अनुभागस्थान हैं ते सर्वही० ॥
॥१९॥ बहुरि जो काय, वचन मनोरूप वर्गणाका चलना सो है लक्षण जिनिका ऐसे योगस्थान ते सर्व० ॥२०॥ बहुरि जे न्यारे न्यारे विशेषकू लिये प्रकृतिनिके परिणाम है लक्षण जिनिका ऐसें ॥ बंधस्थान हैं ते सर्गः ॥२१॥ बहुरि जे अपने फलके उपजावनेवि समर्थ कर्मकी अवस्था सो है -
लक्षण जिनिका ऐसे उदयस्थान हैं ते सर्व० ॥२२॥ 卐 बहुरि जे. गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व,
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5 संज्ञा, आहार है लक्षण जिनिका ऐसे मार्गणास्थान हैं ते सर्व० ॥२३॥ बहुरि जे न्यारे न्यारे विशेषनिकू लिये प्रकृतिनिके कालांतर विषै साथि रहना है लक्षण जिनिका ऐसे स्थितिबंध के क स्थान हैं ते सर्वही जीवके नाहीं हैं। जातें ए पुद्गलद्रव्य के परिणाममय हैं, ऐसें होतें अपनी अनुभूतितें भिन्न हैं ||२४|| बहुरि जे कषायका विपोकका उत्कृष्टपणा है लक्षण जिनिका ऐसे संत शस्थान हैं ते सर्व ० ||२५|| बहुरि जे कबायके विपाकका मंदा है लक्षण जिनका ऐसें विशुद्धिस्थान हैं ते सर्व० ||२६|| बहुरि जे चारित्रमोहका उदयकी अनुक्रमतें निवृत्ति है लक्षण farer ऐसे संस्थान हैं ते सर्व० ||२७|| बहरि जे पर्याप्त, अपर्याप्त, बादर, सुक्ष्म, 5 5 एकेंद्रिय, द्वी द्रिय, श्री द्रिय, चरिंद्रिय संज्ञी असंज्ञी पंचेंद्रिय है लक्षण जिनिका ऐसे जीवस्थान हैं ते सर्व० ||२८|| बहुरि जे मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्पग्मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि क 5 संपता संपत, प्रससंयत, अप्रमत्तसंपत, अपूर्णकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली, अयोगकेवली ए है लक्षग जिनिके ऐसे गुणस्थान हैं ते सर्गही जीव फ नाही हैं, जातें ए पुद्गद्रव्यपरिणाममय हैं । ऐसें होतें अपनो अनुभूतितें भिन्न हैं ||२९|| ऐसें फ्र ए सही पुद्गलद्रव्य परिणाममय भाव हैं ते सर्वही जीवके नहीं हैं। जीव तौ परमार्थ5 चैतन्यशकिमात्र है। अब इसही अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं ।
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मालिनी छन्दः
error मोह्रादयो वा भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः |
तेनैवान्तस्ततः पश्वतोऽमी नो दृष्टाः स्युर्दष्टमेकं परं स्यात् ||१४||
ननु वर्णादयो यद्यपी न संति जीवस्य तदा तत्रांतरे कथं संतोति प्रज्ञाप्यते इति चेत्-
अर्थ-वर्णादिक अथवा रानोहादिक सर्वही भाव कड़ें से सर्वही या पुरुष के भिन्न हैं । तिसही
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कारणकर अंतः ष्ठिकर देखते ए सर्वही नाहीं दोखे । केवल एक चैतन्यभावस्वरूप अभेदरूप पुरुषही दीख्या ।
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भावार्थ-परमार्थनय अभेद ही है, तात तिसदृष्टिकरि देखतें भेद नाही दीखे है, तिसनयकी दृष्टिमैं चैतन्यमात्रही पुरुष दीखै है । तासे ते सर्वही वर्णादिक तथा रागादिक पुरुषके भिन्नही पर हैं। अर इन वर्गकू आदि लेकरि गुणस्थानपर्यंत भाव हैं, तिनिका स्वरूप विशेषकर जान्या " चाहै, सो गोम्मटसार आदि ग्रंथनि” आणियो। भागें पूछे है, जो वर्गादिक भाव ए कहे तेजीवकै 卐 नाहीं हैं, तो अन्यसिद्धांतविर्षे ए जीवके हैं ऐसे कैसा कया है ? ताका उत्सर गाथामैं कह्या है। माथा
यवहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया। गुणठाणंताभावा ण दु केई णिच्छयणयस्स ॥५६॥
व्यवहारेण स्वेते जीवस्य भवंति वर्णाद्याः।
गुणस्थानांता भावा न तु केचिनिश्चयनयस्य ॥५६॥ म आत्मख्यातिः-इह हि व्यवहारनयः किल पर्यायाधिवत्वा जोवप प्रदरतं गोगपशादनादिप्रसिद्वबंधपर्यायस्य
कुसुमरक्तस्य कार्यासिकासस वीपाधिक मालमत्रव्योत्तमान परमात्र परस्त्र विदधाति । निश्चयनयस्तु द्रव्याधि卐 तत्वात्केवलस्य जीवस्य स्वाभाविकं भावमत्रलंम्पोत्सवमानः परमात्र परस्य लयमेव प्रतिवमाते । तमो व्याहारेण वर्णा
दयो गुणस्यानात मावा जीवस्य संसि विश्वयेव तुन संसोति गुका प्राप्तिः। कुतो जोवस्य वीदयो निश्चयेन न 'संतीति चेत् । .. अर्थ-ए वर्ण आदि गुणस्थान अंत जे मात्र कहे ते जोके व्यवहारनपकार होय हैं, तातें + सूत्रमैं कहे हैं। बहुरि निश्चयनयके मतों तौ इनि का केई जीवके नाहीं हैं।
टीका-हां व्यवहारनय है सो पर्यायाश्रित है, सो पुद्गलके संयोगके वशते अनादितें प्रसिद्ध के है बंपर्याय जाके ऐसा जीवकै "जैसे कयासके शेतको कुनुभाका लालरंग औयाधिक होय 卐 है तैसें" औपाधिकभाव जीवके वर्णादिक होय हैं । तिनिकू आलंबनकरि व्यवहारनय प्रवर्ते है,
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सों पर भावकूं परके कहे हैं। बहुरि निश्चयनय है सो द्रव्यके आश्रय है, सो केवल एक जीवका स्वाभाविक भावकूं अवलंबन कर प्रवतें है, सो सर्व ही परभावकू परके नाहीं कहे है प्रतिषेध करे 5 फ है, तातें वर्णकूं आदि लेकरे गुणस्थान तांई जे नाव हैं, ते जावक हैं ऐसे व्यवहारकरि कहिये है । बहुरि निश्चयनयकरि जीवके एनाही हैं ऐसें कहिये है । ऐसें भगवानकी कथनी स्याद्वादकरि युक्त है। आगे फेरि पूछे है, जो ए वर्णादिक जीवके निश्चयकरि काहेतें नाही हैं ? ताका हेतु 45 कहो । ऐसें पूछे उत्तर कहे हैं । गाथा
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एदेहिय संबंधो जहेव खीरोदयं मुणेदव्वो । णय हुंति तस्स ताणि दु उवओग गुणाधिगो जम्हा ॥५७॥ एतैश्च संबंधो यथैव क्षीरोदकं ज्ञातव्यः ।
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न च भवति तस्य तानि तूपयोगगुणाधिको यस्मात् ॥५७॥
आत्मख्यातिः - यथा खलु सलिलमिश्रितस्य क्षीरस्य सलिलेन सह परस्परावगाहलक्षणे संबंचे सत्यपि स्वलक्षणभूतक्षीरत्वगुणन्याप्यतया सलिलादधिकत्वेन प्रतीयमानत्वादग्नेरुष्णगुणेनेव सह तादात्म्यलक्षण संबंधाभावान्न निश्वयेन फ सलिलमस्ति । तथा वर्णादिपुद्गलद्रव्यपरिणाममिश्रितस्यास्यात्मनः पुद्गलद्रव्येण सह परस्परावगाद्दलक्षणे संबंधे सत्यपि स्वलक्षणभूतोपयोगगुणण्याप्यतया सर्वद्रव्येभ्योधिकत्वेन प्रतीयमानत्वात् अग्नेरुष्णगुणेनैव सह तादात्म्यलक्षणसंबंधाभावान्न निश्चयेन वर्णादिपुद्गल परिणामाः संति । कथं तर्हि व्यवहारो विरोधक इति चेत् ।
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अर्थ-इनि वर्णादि भावनिकरि जीवके जैसा डालके अर दूधकै एकक्षेत्रावगाह संयोग संबंध है 5 15 तैसा संबंध जानना । बहुरि ते तिस जीवकै नाहीं है । तातें जीव इनितें उपयोग गुणकरि अधिक है, इस उपयोग गुणकर न्यारा जाणिये है 卐
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'टीका -- जैसे जलकर मिश्रित जो दूध ताकै जलकर सहित परस्पर अवगाह है लक्षण जाका ऐसा संबंध होतें भी दूध अपना स्वलक्षणभूत दूधपणा गुण है व्याप्य जार्के तिसपणाकरि 5 जलतें अधिकपणाकरि प्रतीयमान है। तिसके अर दूधकै तादात्म्यस्वरूपसंबंधका अभाव है। जैसे
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卐 अनिका अर उष्णपणाका तादात्म्यसंबंध है ते इनिका नाही है, तातें निश्चयकरि दूध जल 卐 नाही है, तेसे ही aणादिक पुद्गलद्रव्य के परिणाम निकरि मिश्रित जो आत्मा ताके पुद्गलद्रव्य फ सहित परस्पर अवगाहलक्षण संबंध होतें भी अपना लक्षणयुत उपयोग गुण सो है, व्याप्य जाकै, 卐 तिसपणाकरि सर्वद्रव्यनितें अधिकपणाकरि प्रतीयमान है। सो जैसे अग्नीका अर उष्णपणाका तादात्म्यस्वरूप है, तैसें आत्माका अर वर्णादिकनिका तादात्म्यसंबंध नाहीं है । तातें निश्चयनयकरि वर्णादिक पुद्गलके परिणाम हैं ते जीवके नाहीं हैं। आगे फेरि पूछें है, जो, ऐसें तो व्यव卐 हारनयका अर निश्चयनयका विरोध आया, अविरोध कैसे कहिये ? ताका उत्तर दृष्टांतकरि गाथा तीनमें कहे हैं । गाथा
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पंथे मुस्तं पस्सिदूण लोगा भणति ववहारी । सुस्सदि एसो पंथो णय पंथो मुस्सदे कोई || ५८ ॥ तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदुं वराणं । जीवस्स एस वण्णो जिणेहि ववहारदो उत्तो ॥ ५९ ॥ एवं रसगंधफासा संठाणादीय जे समुदिठ्ठा । सब्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्ड ववदिसंति ॥६०॥ पथि मुष्यमाणं दृष्ट्वा लोका भणति व्यवहारिणः । ते एष पंथा न च पंथा मुध्यते कश्चित् ॥५८॥
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तथा जीवे कर्मणां नोकर्मणां च दृष्ट्वा वर्ण 1
जीवस्यैष वर्णो जिनैर्व्यवहारत उक्तः ॥ ५९ ॥
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एवं गंधरसस्पर्शरूपाणि देहः संस्थानादयो ये च ।
सर्वे व्यवहारस्य च निश्चयदृष्टारो व्युपदिशन्ति ॥६०॥ आत्मख्याति:- यथा पथि प्रस्थित कंचितार्थ सुष्यमाणमक्लोक्य तात्स्ध्यात्तदुपचारेण मुम्पत एष पंथा इति म्यव-_ २. हारिणां व्यपदेशेपि न निश्चयतो विशिष्टाकाशदेशलक्षणः कश्चिदपि पंथा सुष्येत । तथा जीवे बंधपर्यायेणावस्थितकर्मणो 卐
नोकर्मणो वर्णमुत्प्रेक्ष्य तास्थ्यात्तदुपचारेण जीवस्यैष वर्ण इति व्यवहारतोईई वानां प्रज्ञापनेपि न निश्चयतो नित्यमेवामूस्विभावस्योपयोगगुणाधिकस्य जीवस्य कश्चिदपि वर्णोस्ति । एवं गंधरसस्पर्शरूपशरीरसंस्थानसंहननरागद्वेषमोहप्रत्यय- 5
कर्मनोकर्मवर्गवर्गणास्पर्द्धकाध्यात्मस्थानानुभागस्थानयोगस्थानधस्थानोदयस्थानमार्गणास्थानस्थितिबंधस्थानसंक्लेशस्थान4. विशुद्धिस्थानसंयमलब्धिस्थानजीवस्थाननुणस्थानान्यपि व्यवहारत्तोहदेवानां प्रज्ञापनेपि निश्चयतो नित्यमेवामूर्चस्वमा
चस्पोपयोगगुगेनाधिका जीवस्य खण्यिपि न संति तादात्म्यलक्षणसंबंधाभावात् । कुतो जीवस्य वर्णादिमिः सह + तादात्म्यलक्षणः संबंधो न सीति चेत् ।
___ अर्थ-जैले मानविय चालतेकू लूटता देखि, व्यवहारी लोक कहैं, यह मार्ग लुटे है। तहां 卐 परमा विचारिये तब, कोई शार्ग तो नाहीं लुटे है, चालते लोक ही लुटे हैं । तैसें जीवविर्षे कर्मनिका तया नोकर्मनिका वर्णकू देखिकरि जिनदेव व्यवहारतें कहा है, जो यह वर्ण जीवका है। ऐसे ही गंध, रस, स्पर्श, रूप, देह, संस्थान आदिक जे सर्वही हैं ते व्यवहारका उपदेश है। ऐसें निश्चयनयके देखनेवाले को हैं।
टीका—जैसें मार्गकि चालता साथकू लूटता देखि अर कोई कहे, जो यह मार्ग लुटे है। " - तहां तिल मार्ग:वर्षे लुटनेते मार्ग लुटनेका उपचारकरि कहे हैं। ऐसा व्यवहारी लोकनिका कहना है होते भी, निश्चयतें देखिये सब, लार्ग आकाशके प्रदेशका विशेष है, सो मार्ग तो कोई लुटे है नाहीं। ..
तैसें जीववि. बंधपर्यायकरि अवस्थित जो कर्मका अर नोकर्मका वर्ण, ताहि देत्रिकरि जीवविर्षे . .. तिष्ठनेकरि तिजमा उपचार करे जीवका यहे वर्ग है, ऐसे व्यवहारतें भगवान् अरहंतदेव प्रज्ञापन करे ।।
है, जनावे है, तो निश्चय जीव है सो नित्यही अमूर्तस्वभाव है, अर उपयोगगुणकरि अन्य द्रव्यते ॥ 17 अधिक है, भिन्न है, ताते ताले कोई वर्ण नाहीं है। ऐसे ही गंध रस. स्पर्मा, रूप, संस्थान, संहनन, 17
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卐 राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गगा, स्पर्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योग- 卐 स्य... स्थान, बंपत्यान, उदयस्थान, मार्ग गास्थान, स्थितिबन्धस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान, संयम
लब्धिस्थान, जीवस्यान, गुगस्थान र सर्व ही व्यवहारते जीवकै अरिहंतदेव कहे हैं। तोऊ निश्चयतें = जीव है, सो निस्य हा अनूतवभाव है । अर उपयोग गुणकारे अन्यतें अधिक है, भिन्न है, तातें ताके " ए सर्वही नाही हैं जातें छान वर्णादिक भावनिकै अर जीवके तादाम्यलक्षणसम्बन्धका अभाव है। "
भावार्थ-ए वर्णतें लगाय गुणस्थानपर्यंत भाव कहे, ते सिद्धान्तभं जावक कहे हैं, ते व्यव- 5 हारनयकार कहे हैं । निश्चयनयकरि जीवकै नाहीं हैं जाते जीव तो परमार्थकरि उपयोगस्वरूप है बहुरि इहां ऐसा जानना-जो पहले व्यवहारनयकू असत्यार्थ कह्या है, तहाँ ऐसा तो नाहीं, जो सर्वथा ही असत्यार्थ है ; कथंचित् असत्यार्थ जानना । जातें जहां एक द्रव्यकू न्यारा पर्यायनितें अभेद असाधारण गुणमात्रकू प्रधानकरि कहिये, तब परस्परद्रव्यनिका निमित्तनैमित्तिकभाव तथा ) निमित्ततें भये पर्याय, ते सर्व गौण भये, तिस एक अभेदद्रव्यकी दृष्टिमैं तिनिका प्रतिभास
नाहीं । तातें ते सर्व तिसद्रव्यमैं नाहीं हैं। ऐसे कथंचित् निषेध करिये। बहुरि तिस द्रव्यमैं म कहिये तव व्यवहारनयकरि कहिये, ऐसा नयविभाग है। सो इहां शुद्धद्रव्यकी दृष्टिकरि कथन ।
है। तातै तिनि सर्वहीकू जीवकै व्यवहारनयकरि कहा है, ऐसें सिद्ध किया है। अर निमित्त. 卐 नैमित्तिकभावकी दृष्टिकरि देखिये तब कथंचित् सत्यार्थ भी कहिये। सर्वथा असत्यार्थ ही कहिये,
तो सर्व व्यवहारका लोप होय । तब परमार्थकाभी लोप होय । तातें जिनदेवकी देशना स्याद्वाद + रूप ही समझै सम्यग्ज्ञान है, सर्वथैकांत मिथ्यात्व है। आगें पूछे है, जो वर्णादिककरि जीवकै 5 5 तादाम्यसम्बन्ध काहेते नाहीं ? ऐसे पूछे, उत्तर कहे हैं। गाथा--
तत्थभवे जीवाणं संसारस्थाण होंति वण्णादी। संसारपसुक्काणं णत्थि दु वण्णादओ केई ॥६१॥
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तत्र भवे जीवानां संसारस्थानां भवति वर्णादयः ।
संसारप्रमुक्तानां न संति खलु वर्णादयः केचित् ॥६१॥ आत्मख्याति:-यकिल सर्वास्वप्यवस्थासु यदात्मकत्वेन ब्याप्तं भवति तदात्मकत्वम्यातिशून्यं न भवति तस्य तैः ... ३२) सह तादात्म्पलक्षणः संबंधः स्यात् । ततः सर्वास्वप्यवस्थासु वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्य भवतो वर्णादात्मकत्वन्यातिशून्यस्या- 5
भवतश्च पुद्गलस्य वर्णादिभिः सह तादात्म्यलक्षणः संबंधः स्यात् । संसारावस्थायां कथंचिद्वर्णाघात्मकत्वव्याप्तस्य भवतो पर्याधात्मकत्वव्याप्तिशून्यस्याभवतश्चापि मोक्षायस्थायां सर्वथा वर्णावात्मकत्वव्याप्तिशून्यस्य मक्तो वर्णाद्यात्म
कत्वव्याप्तस्थामवतश्च जीवस्य वर्गादिभिः सह तादात्म्यलक्षणः संबंधो न कथंचनापि स्यात् । जीवस्य पणादिवादात्त्य卐 दुरभिनिवेशे दोपश्चायं ।
____ अर्थ-वर्णादिक हैं ते, जे जीव संसारविष तिष्ठे हैं, तिनिकै तिस संसारवि तो होय हैं। + बहुरि जे संसारतें छुढे हैं मुक्त भगे हैं, तिनिकै नदिक निश्चयकरि कोई भी नाहीं हैं। यातें 5 तादात्म्यसंबंध नाहीं है।।
टीका-जो निश्चयकरि सर्व ही अवस्थावियें तत्स्वरूपकरि व्याप्त होय अर तिस स्वरूपकी प्र व्याप्तिकरि रहित न होय, तिसवस्तुके तिनिभावनिकरि सहित तादात्म्यसंबंध होय, तातें सर्व
ही अवस्थाविर्षे वर्णादि स्वरूपपणाकरि व्याप्त होता, बहुरि वर्णादिककी व्याप्तिकरि शून्य न 卐 होता, जो पुद्गलद्रव्य ताके वर्णादिकभावनिकरिसहित तादात्म्यलक्षण संबंध होय है। बहुरि के
संसार अवस्थावि कथंचित् वर्णादि स्वरूपपणाकरि होता, अर वर्णादिस्वरूपपणाकी व्याप्तिकरि शन्य न होता जो जीव ताके मोक्ष अवस्थाविर्षे सर्व प्रकारकरि वर्णादि स्वरूपपणाकी व्याप्ति
करि शून्य होताकै अर वर्णादिस्वरूपपणाकरि व्याप्त न होताके वर्णादिभावनिकरि तादाल्यलक्षण - - कोई प्रकार भी नाहीं है। ___भावार्थ-जो वस्तु जिने भावनिकरि सर्व अवस्थामै च्यापै ताकै तिनिभावनिकरि तादाल्य संबंध कहिये, सो वर्णादिकतें पुद्गल तो सर्व अवस्थामें व्यापक है ।.अर जीवके संसारावस्थामैं तो
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वर्णादिक कोई प्रकार कहिये । अर मोक्षावस्थामैं सर्वथा ही नाहीं । तातें जीवकै वर्णादिककरि । मिया तादात्म्यसंबंध नाही है ऐसा न्याय है। आगें जीवकै वर्णादिककरि तादात्म्य है ऐसा कोई निश्या अभिप्राय करे, तो तामैं यह दोष है सो कहे हैं । गाथा
जीवो चेव हि एदे सव्वे भावत्ति मण्णसे जदि हि। जीवस्साजीवस्स य णत्थि विसेसोहि दे कोई ॥१२॥
जीवश्चेव येते सर्वो भावा इति मन्यसे यदि हि ।
जीवस्याजीवस्य च नास्ति विशेषस्तु ते कश्चित् ॥६२॥ आत्मख्यातिः-यथा वर्णादयो भावाः क्रमेण भाविताविर्भावतिरोभाषाभिस्ताभिस्ताभिर्व्यक्तिभिः पुद्गलगन्यमनु-' गच्छंतः पुद्गलस्य वर्णादिसादात्म्यं प्रथयति तथा वर्णादयो भावाः क्रमेण भाविताविर्भावतिरोभावाभिस्ताभिस्ताभिक्तिमिर्जीवमनुगर्छवो जीवस्य वर्णादितादात्म्यं प्रथर्मतीति यस्याभिनिवेशः तस्य शपद्रव्यासाधारणस्या वर्णा-卐 द्यात्मकत्वस्य पुदललक्षणस्या जीवेन स्वोकरणाजीवपुद्गलयोरविशेषप्रसक्तौ सत्यां पुद्गलेभ्यो भिन्नस्या जीवद्रव्यस्याभावाद् भवत्येव जीवाभावः । संसारावस्थायामेव जीवस्य वर्णादितादात्म्यामित्यभिनिवेशेप्यायमेव दोषः। ' . अर्थ-वर्णादिकतें जीक्कै तादात्म्य माननेवाला कहे हैं। हे मिथ्या अभिप्रायी जो तू, ऐसें माने। है, जो ए वर्णादिकभाव सर्व ही जीव हैं, तो तेरे मतमैं जीवके अर अजीवकै किछू विशेष नाहीं है। " ____टीका-जैसे वर्णादिकभाव हैं ते अनुक्रमतें भया है आविर्भाव कहिये प्रगट होना उपजना अर तिरोभाव कहिये छिपना नाश होना, ज्यां ऐसी जेतेते व्यक्ति कहिये पर्याय तिनिकरि पुद्गलद्रव्यहीकू अन्वयरूप प्राप्त होते पुद्गलद्रव्यहीके तादाल्यस्वरूपकू विस्तारे हैं । तैसे हि ए वर्णा-' दिकभाव क्रमकरि भया है आविर्भाव तिरोभाव ज्यां ऐसें जेतेते पर्याय अवस्था तिनिकरि जीवकू .. अन्वयरूप प्राप्त होते जीवकै वर्णादिकते तादात्म्य स्वरूपकू विस्तारे हैं, ऐसा जाका अभिप्राय है , ताके अन्य बाकी द्रव्यते असाधारण वर्णादि स्वरूपपणा होऊ । जो पुदगलद्रव्यका लक्षण ताका
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भावार्थ- जैसे वर्णादि पुद्गल द्रव्यसू तादाम्यस्वरूप है, तेसें जीवसूं भी तादात्म्य 5 स्वरूप होय तो जीव पुद्गलमै भेद न ठहरे, तब जीवका अभाव होय ६५ यह बडा दोष आवे । आगे संसारावस्थाविर्षे ही जीवके वर्णादिकर्ते तादात्म्य है, ऐसा अभिप्राय होतें भी यह ही दोष आवे है, ऐसें कहे हैं। गाथा
जदि संसारत्थाणं जीवाणं तुज्झ होंति वण्णादी । ता संसारत्था जीवा रूवित्तमावण्णा ॥६३॥
जीवकरि अंगीकार करने जीव दगलकै अविशेषका प्रसंग होतें पुद्गलनितें न्यारा जीवद्रव्यका अभाव होनेते जीवका अभाव होय ही है ।
एवं पुग्गलदव्वं जीवो तह लक्खणेण मूढमदी । णिव्वाणसुवगदो वि य जीवत्तं पुग्गलो पत्तो ॥ ६४ ॥
अथ संसारस्थानां जीवानां तव भवन्ति वर्णादयः ।
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वति स जीवो भवति । रूपित्वेन लक्ष्यमाणं युगलद्रव्यमेव भवति । एवं पुद्गलद्रव्यमेव स्वयं जीवो भवति न पुनरित:: 5 कवरोषि । तथा च सति मोक्षावस्यायामपि नित्यस्वलक्षणलक्षितस्य द्रव्यस्य सर्वस्वप्यवस्थास्त्रनपायित्वादनादिनिध
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नत्वेन पुद्गलद्रव्यमेव स्वयं जीवो भवति न पुनरितरः कतरोषि । तथा च सति तस्यापि पुद्गलेभ्यो भिन्नस्य जीवद्रन्यस्याभावात् भवत्येव जीवाभावः । एवमेतत स्थितं राक्ष्णादियो कि ।
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तस्मात्संसारस्था जीवा रूपित्वमापन्नाः ॥ ६३ ॥ एवं पुद्गलद्रव्यं जीवस्तथालक्षणेन मूढमते । निर्वाणमुपगतोपि च जीवत्वं पुद्गलः प्राप्तः ॥ ६४ ॥
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आत्मख्यातिः– यस्य तु संसारावस्थायां जीवस्य वर्णादितादात्म्य मस्तीत्यभिनिवेशस्तस्य तदानीं स जीवो रूपित्व5 मवश्यमवाप्नोति । रूपित्वं च शेपद्रव्यासाधारणं कस्यचिद् द्रव्यस्य लक्षणमस्ति । तव रूपत्वेन लक्ष्यमाणं यत्किचित्र- 5
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अर्थ --अथ संसारवि तिष्ठे जीवनिकै तेरे मतमें वर्णादिक तादाम्यस्वरूप हैं, तौ इस ही हेतूतें संसारवि तिष्ठे जीव रूपीपणाकू प्राप्त भये । ऐसें होतें जलव्य ही जीव ठहरथा । जातें पुद्गलका लक्षण सोही जीवका लक्षण भया । ऐसें तो हे मूत्रबुद्धे, निर्वाण प्राप्तभया भी जीव पुद्गल ही है। सो पुन्नल ही जीवपणाकूं प्राप्त भया ।
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टीका - जाके मतमैं संसारावस्थावि जीवके वर्णादि भावना सहित तादाम्यसंबंध है ऐसा अभिप्राय है, ताके तिस संसारावस्थाके कालविषै सो जीव रूपीपणा अवश्य प्राप्त होय है। बहुरि रूपीपणा है सो काहू द्रव्यका असाधारण अन्यद्रव्यक्ति मारा लक्षण है, तातें रूपी- 5 पणाकरि लक्षणमात्र जो है सो ही जीव है, सो रूपोपणाकरि लक्षनाथ पुङ्गव्य ही है,
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ऐसें पुद्गलद्रव्य ही आप जीव है अन्य कोई नाहीं है, ऐसें होतें मोक्षावस्थाविषे भी पुद्गल द्रव्य ही आप जीव होय हैं, जातें जो द्रव्य है सो दिव्य अपना लक्षणकरि लक्षित है, सो सर्व 卐 ही अवस्थाविषै अविनाश स्वभाव है, या अनादिनिधन हैं, तो पुद्गल ही जीव है अन्य कोई अभाव जीवका अभाव 卐
न्यारा ही नाहीं है । बहुरि तैसे होतें पुद्गलनि भिन्न
भया ही । ऐसें यह निश्चय भया जो वर्णादिकभाव हैं तेजी नहीं हैं।
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भावार्थ -- जो कोई वर्णादि भावनिकरि जीवकै संसारावस्था में भी तादात्म्यसंबंध माने है,
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are भी जीवा अभावही आवे है, जातें वर्णादिक मूर्तिकद्रव्य के लक्षण हैं, ऐसा मूर्तिक पुद्गलद्रव्य है सो वर्णादिकरूप जीव ठहरे, तब जीव भी पुद्गल ही ठहरै । जब जीव मोक्ष होय तब 5 तहां भी पुद्गल ही ठहरै, तब पुद्गलतें न्यारा तो जीव न ठहरें । ऐसें जीवका अभाव आवै, वर्णादिक जीव नाहीं हैं, ऐसा निश्चय है । आगे इसही अर्थका विशेष कहे हैं। गाथा
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एकं च दोगिण तिरिण य चत्तारि य पंच इंदिया जीवा । वादरपज्जत्तिदरा पयडीओ णामकम्मस || ६५ ॥
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एदेहिय णिवत्ता जीवट्ठाणा दु करणभूदाहिं। पयडीहिँ पुग्गलमईहिं ताहिं कह भरणदे जीवो ॥६६॥
एक वा दे त्रीणि च चत्वारि च पंचेद्रियाणि जीवाः । वादरपर्याप्तेतराः प्रकृतयो नामकर्मणः ॥६५॥ एताभिश्च निवृत्तानि जीवस्थानानि करणभूताभिः ।
प्रकृतिभिः पुद्गलमयीभिस्ताभिः कथं भण्यते जीवः ॥६६॥ ___आत्मख्यातिः--निश्चयतः कर्मकरणयोरभिन्नत्वात् यधेन क्रियते तसदेवेति कन्या यथा कनकपत्रं कनकेन क्रिय-... माणं कनकमेव न त्वन्यत् । तथा जीवस्थानानि वादरमहद्रियद्वित्रिचतु:पंचेंद्रियपर्याप्तापर्याप्ताभिधानाभिः पुद्गल-क मयीमिः नामकर्मप्रतिभिः क्रियमाणानि कुदगल हन नातु जीया : बामकर्मप्रकृतीनां पुद्गलमयत्वं चागमप्रसिद्धं दृश्य-.. मानशरीराकारादिमूर्तकार्यानुमेयं च । एवं मंधरसस्पर्शरूपशरीरसंस्थानसंहननान्यपि पुद्गलमयनामझर्मप्रकृतिनिसत्वे सति तदन्यतिरेकाज्जीवस्थान रेवोक्तानि । ततो न वर्णादयो जीव इति निश्चयसिद्धांतः ।। ___ अर्थ-एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रिय जीव हैं, बहुरि चादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, । अपर्याप्त ए जीव हैं, ते नामकर्मकी प्रकृति हैं। इनि प्रकृतिनिकरि करणस्वरूप होयकरि जीवस्थान कहिये जीवसमास रचे हैं, ते ए प्रकृति पुलमय है, सो इनिकरि रचेकू जीव कैसे काहिये।
टीका-निश्चयनयकरि कर्म अर करण अभेदभाव है, इस न्यायकरि जो जाकरि कीजिये .. सो वह वही है। ऐसे करते जैसा सुवर्णका पत्र सुवर्णकरि किया सो वह पत्र सुवर्ण ही है, अन्य। तो किछू नाहीं । तेसैं ए जीवस्थान हैं ते आदर, सूक्ष्म, एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रिय ते सर्व पर्याप्त अपर्याप्त हैं, ते सर्वही है नाम जिनिका ऐसी पुद्गलमयी नामकर्मकी " प्रकृति है, ते करणरूप हैं, तिनिकरि किये हैं, तातें पुद्गल ही हैं, ते जोव नाहीं हैं। बहुरि ॥
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नामकर्मको प्रकृतिनिके पुद्गलमयपणा आगमविर्षे प्रसिद्ध है । अर प्रत्यक्ष देखनेमें आवे जे शरीर के आदि मूर्तिकभाव, ते पुद्गलकर्म प्रकृतिनिके कार्य है, तिनिकरि अनुमान प्रमाणकरि प्रसिद्ध है।" ऐसे ही गंध. रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान, संहनन एभी नामकर्मकी प्रकृतिनिकरि किये हैं, ताते तिस पुद्गलते अभेदरूप है, तातें जीवस्थान पुद्गलमय कहने तेही कहे जानने। तातेए । वर्णादिक जीव नाहीं हैं ऐसा निश्चयनयका सिद्धांत है। इहां इस अर्थका कलशरूप काव्य है।
उपजातिच्छन्दः निर्वयते येन यदत्र किंचित्सदेव तत्स्यान्न कथं च नान्यत् ।
कमेण निवृतमिहासिकोशं पश्यति रुक्मं न कथं च नासि ॥६॥ ___अर्थ---जिस वस्तुकरि जो कियो भाव वणे सो वह भाव वस्तु ही है, किछु अन्य वस्तु नाहीं है। जसें रूपे सोनकरि खड्ग का कोश बन्या, साही लोक रूपा सोना ही देखे हैं, तिसकू.. खड्ग तो कोई प्रकार भी नाही देखे है। भावार्थ-वर्णादिक पुद्गलतें बने हैं, ते पुद्गल ही हैं, ते जीन नाहीं हैं । पुनः
वर्णादिसामग्रयमिदं विदंतु निर्माणमेकस्य हि पुद्गलस्य ।
ततोस्त्विदं पुद्गल एव नात्मा यतः स विज्ञानधनस्ततोन्यः || शेषमन्यद् व्यवहारमात्रं
अर्थ-अहो ज्ञानी जन हो ! ए वर्णादिक गुणस्थानपर्यंत भाव हैं, ते समस्तही एक पुद्गलकै ॥ रचे तुम जाणू, तातें ए पुद्गल ही होहू, आत्मा मति होहू, जातें आत्मा तौ विज्ञानचन है, ज्ञानका पुंज है । तातै इनि वर्णादिकतै अन्यही है। आगे कहे हैं जो इस ज्ञानयन आत्मा सिवाय अन्य किछु हैं, तिनिळू जीव कहना सो सर्वही व्यवहारमात्र है । गाथा
पज्जत्तापज्जत्ता जे सुहुमा वादरा य जे चेव । देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता ॥६॥
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पर्याप्तापर्याप्ता ये सूक्ष्मा वादराश्च ये चैव ।
देहस्य जीवसंज्ञाः सूो व्यवहारतः उक्ताः ॥३७॥ आत्मख्यातिः–यत्किल बादरसमकेंद्रियद्वित्रिचतुःपंचद्रियपर्याप्तापर्याप्ता इति शरीरस्य संशाः शो जीसंवत्वेनोक्ताः का अप्रयोजनार्थः परप्रसिद्धथा पतघटयद् व्यवहारः। यथा हि कस्यचिदाजन्मप्रसिधैकवृतक भस्य सदितरकुभानमिझस्प प्रबोधनाय योयं घृतकुंभः स मृन्मयो न धृतस्य इति तसिधा कु में घृतकु भन्यवहारः तथास्याज्ञानिनो लोकस्या संसारपसिघ्याशुद्धजीवस्य शुद्धजीवानभिज्ञस्प प्रबोधनाय पोयं वर्णादिमान् जीवः स शानमयो न वर्णादिमयः इति । तत्प्रसिद्ग्या जीवे वर्णादिमद् व्यवहारः।
अर्थ जे सूक्ष्म बादर बहुरि पर्याप्त अपर्याप्त आदि जेती देहळू जीसंज्ञा कही है, ते सर्व ही , सूत्रवि व्यवहारनयकरि कही है।
टीका-निश्चयकरि यह जान, बादर, सूक्ष्म, एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रिय,卐 पर्याप्त, अपर्याप्त, ऐसे शरीरकू सूत्रविर्षे जीव संज्ञापणाकरि कहे हैं तहां परकी प्रसिद्धिकरि.. घृतके घटको ज्यों व्यवहार है । सो यह व्यवहार जामें प्रयोजनभूत बस्तु है सो नाहीं ऐसा है, . सो स्पष्ट कहे हैं, जैसे कोई पुरुष ऐसा जो जानै जन्म लगाय घृतका ही घट देख्या, घृतते रीता न्यारा घट देख्या नाही, ताकै समझावनेके अर्थि ऐसें कहिये, जो यहं घृतका घट है सो मांटीमय । है घृतमय नाहीं है, ऐसे तिस पुरुषकै धृतहीका घट प्रसिद्ध है, ताकरि समझावनेवाला भी घृतका 1 घट कहे है, ऐसा व्यवहार है। तैसे ही इस अज्ञानी लोककै अनादि संसारतें लगाय अशुद्ध जीव ही प्रसिद्ध है शुद्धजीवकू नाहीं जाने है, ताकै शुद्धजीवका ज्ञान करवानेके अर्थि ऐसे सूत्रमें कहे हैं, जो यह वर्णादिमान् जीव कहिए है सो ज्ञानमय है, वर्णादिमय नाहीं है। ऐसें तिस । अज्ञानी लोककै वर्णादिमान् प्रसिद्ध है, तिस प्रसिद्धकरि जीवविर्षे वर्णादिमानपणाका व्यवहार सूत्रमें किया है। अब इसही अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
धृतकुंभाभिवानेपि कुभो धृतमयो न चैत । जीवो वर्णादिमजीवजल्पनेपि न तन्मयः ॥८॥
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एतदपि स्थितमेव यद्रागादयो भावा न जीवा इति ।
अर्थ- जो घृतका कुंभ हैं ऐसें कहते भी, कुंभ है सो घृतमय नाहीं है, मृत्तिका हीका है । तौ तैसें जीव है सो वर्णादिमान् है ऐसें कहते भी, वर्णादिमान् नाहीं, ज्ञानघन ही है।
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भावार्थ- जो पहले घटहीकूं मृत्तिकाका जाण्या नाहीं अर घृतके भरे घटकूं लोक घृतका घट
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कहते सुर्णे, तहां यह ही जाण्या जो घट घृतहीका कहिये है, ताकूं समझावनेकू मृत्तिकाका घट फ जाननेवाला भी वृतका घट कह कर समझावे है । तैसें ज्ञानस्वरूप आत्माकूं जानें जान्या नाही, अर वर्णादि संरूप ही जीवकूं जाने, तार्के समझानेकूं सूत्रमैं भी कया है - जो यह दिमान् है सो जीव है ऐसा व्यवहार है, निश्चयतें वर्णादिमान् पुद्गल है, जीव है नाहीं, तो ज्ञानवन है ऐसा जानना । आगें कहे हैं, जो वर्णादिकभाव जीव नाहीं है, तैसें ही यह भी ठहरा ही, जो रागादिक भाव हैं ते भी जीव नाहीं हैं। गाथा
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मोहणकम्मस्सया दुवरिणदा जे इमे गुणट्ठाणा । ते कह हवंति जीवा ते णिच्चमचेदणा उत्ता ॥ ६८ ॥ मोहनकर्मण उदद्यात्तु वर्णितानि यानीमानि गुणस्थानानि ।
तानि कथं भवंति जीवा यानि नित्यमचेतनान्युक्तानि ॥ ६८ ॥
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शस्थान विशुद्धिस्थानसंयमलब्धिस्थानान्यपि पुद्गलपूर्वकत्वे सति नित्यमचेतनत्वात्पुद्गल एक न तु जीव इति स्वयमायातं । ततो रागादयो भावा न जीव इति सिद्ध । तर्हि को जीव इति चेत् !
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आत्मख्यातिः--- मिध्यादृष्ट्यादीनि गुणस्थानानि हि पौगलिकमोहकर्मप्रकृतिविपाकपूर्वकत्वे सति नित्यमचेतनत्वात् कारणानुविधानि कार्याणीति कृत्वा यवपूर्वका यवा यवा एवेति न्यायेन पुद्गल एव न तु जीवः । गुणस्थानानां नित्य-5 मचेतनत्वं चागमाच्चैतन्यस्वभाव व्याप्तस्यात्मनोतिरिक्तत्वेन विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वाच्च प्रसाध्यं । एवं रागद्वेषमोह
प्रत्यकर्म नोकर्म वर्गवर्गणास्पद्ध काध्यात्मस्थानानुभागस्थानयोगस्थानबंधस्थानोदयस्थानमार्गणास्थानस्थितिबंधस्थानसंक- 5
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1. अर्थ-जे ए गुणस्थान हैं ते मोहकर्म के उदयतें होय हैं, ऐसे सर्वज्ञके आगममें वर्णन किये हैं, की न ते जीव कैसे होय ? नाहीं होय, जात ए नित्य अचेतन कहे हैं। " टीका-जे ए मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान हैं ते पुद्गलरूप जो मोहकर्मकी प्रकृति ताका उदय। पूर्वक होतें सते नित्य ही अचेतन हैं जातें जैसा कारण होय ताहीका अनुसारी कार्य होय, जैसें
यवपूर्वक यव होय हैं, ते यव ही हैं। इस न्यायकरि ते पुद्गल ही हैं, जीव नाहीं हैं। इहां गुणस्थाननिके नित्य अचेतनपणा आगमते सिद्ध है अर चैतन्य स्वभावकरि व्याप्त जो आत्मा तातें ॥ भिन्नपणाकरि भेद ज्ञानी पुरुषनिकरि स्वयं प्राप्य है, इस हेतु आधना! चैतन्यमात्रआत्माके अनु- - भवत ए बाह्य हैं, तातें अचेतन ही हैं । ऐसें ही राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्गवर्गणा, " स्पर्द्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबंधस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान ए सर्व ही पुलकर्मपूर्वक होते संते नित्य " अचेतनपणातें पुद्गल ही हैं, जीव नाहीं है। ऐसा स्वयं आपै आप आया, तातें रागादिकभाव हैं ' ते जीव नाहीं है ऐसा सिद्ध भया।
भावार्थ--पुद्गलकर्म के उदयके निमित्तते चैतन्यके विकार भये ते भी पुद्गल ही हैं, जातें शुद्ध, द्रव्यार्थिकनयकी दृष्टिम तौ चैतन्य अभेद है अर याके परिणाम भी स्वाभाविक शुद्धज्ञानदर्शन हैं,
ताते जे परनिमित्त विकार भये ते तो चैतन्य सारिखे दीखे हैं, तोऊ चैतन्यकी सर्व अवस्थामैं र व्यापक नाही, तातें चैतन्यशून्य जड हैं, ऐसें जड है सो पुद्गल है ऐसा निश्चय है। आगें पूछे । है, जो वणादिक अर रागादिक जीव नाहीं तौ जीव कौन है ? ताका उत्तररूप श्लोक कहे हैं।
__ अनुष्टुप्छन्दः ___अनाद्यनन्तमचलं स्वसंवेद्यमिदं स्फुटम् । जीवः स्वयं तु चैतन्यामुच्चैश्चकचकायते ॥६॥
अर्थ-जीव है सो यह चैतन्य है, सो यह आपे आप अतिशयकरि चमत्काररूप प्रकाशमान है।” कैसा है ? अनादि है, काहू कालविर्षे नवीन नाहीं उपजा है । बहुरि अनंत है, जाका काहू काल- ..
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विषं विनाश नाहाँ है । अचल है, चैतन्यपणातें अन्यरूप चलाचल कबहू न होय है। बहुरि स्वसं4 वेध है, आपहीकरि जान्या जाय है । बहुरि स्फुट कहिये प्रगट है, छिप्या नाहीं है। आगें दूसरा लक्षणका अव्याप्ति अतिव्याप्ति दूषण दूरि करने• काव्य कहे हैं।
__ शाई लविक्रीडितच्छन्दः वर्णायः सहितस्तथा विरहितो द्वेधास्त्यजीवो यतो नापूर्तत्वमुपास्य पश्यति जगजीवस्य तत्त्वं ततः। इत्यालोच्य विवेचकैः समुचितं नाव्याप्यसिव्यापि वा व्यक्तं व्यंजितजीवतयमचलं चैतन्यमालंम्यतां ॥१०॥ अर्थ-जो जीवका लक्षण अमूर्तिकपणा कहिये, तो अजीव पदार्थ दोय प्रकार है। धर्म, अधर्म, प्र आकाश, काल, ए तो वर्णादिकभावरहित हैं, अर पुद्गल है सो वर्णादिसहित है। तातें अमूर्तिकपणाकू ग्रहणकरि लोक जीवका यथार्थ स्वरूपकू नाहीं देखे, यामैं अतिव्याप्तिदूषण आवै । बहुरि ॥ वर्णादिकमैं रागादिक भी आय गये, ते रागादिक जीवका लक्षण कहिये, तो तिनिकी व्याप्ति पुदगलहीते है, जीवकी सर्व अवस्थामै व्याप्ति नाहीं । तातें अव्याप्तिदूषण आवै । ऐसें भेदज्ञानी. पुरुष आलोचना करि परीक्षा करि अतिव्याप्ति अव्याप्ति दूषण रहित चेतनपणा लक्षण करा
है, सो भलैप्रकार योग्य है । प्रगट जीवका यथार्थस्वरूप जाने व्यक्त किया है। बहुरि कैसा है ? 卐 जीवतें कबहू चलाचल नाहीं है, सदा विद्यमान रहे है। सो जगत इसही लक्षणकू अवलंबो, के . याहीत यथार्थ जीवका ग्रहण होय है। आगें जो ऐसा लक्षणकरि जीव प्रगट है, सो तौऊ
अज्ञानी लोककै याका अज्ञान कैसा रहे है ? ताका आचार्य आश्चर्य तथा खेद सहित वचन 5
卐55
वसन्ततिलकं छन्दः जीवादजीवमिति लक्षणतो विभिन्न ज्ञानी जनोनुभवति स्वयमुलसन्तम् ।
___ अज्ञानिनो निरवधिप्रविजृम्भितोय मोहस्तु तत्कथमहो बत नानटीति ॥११॥ + · अर्थ-ऐसें पूर्वोकलक्षणते जीवतें अजीव भिन्न है, सो शानीजन है सो याळू आपे आप +
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+ प्रगट उघडता अनुभवन करे है। तोऊ अज्ञानीजनकै यह अमर्यादरूप मोह अज्ञान प्रगट फैलता के
संता कैसें अतिशयकरि नृत्य करे है ! हमारे बडा आश्चर्य है तथा खेद है !! फेरि याका प्रति5 षेध गरे । जो मोह अस्य को है, सौ सौ तथापि ऐसा है--
वसन्ततिलकच्छन्दः अस्मिन्ननादिनि महत्यविवेकनाट्ये वर्णादिमान्नटति पुद्गल एव नान्यः ।
रागादिपुद्गलपिकारविरुद्धशुद्धचैतन्यधातुमयमूर्तिरयं च जीवः ।।१२।। ___अर्थ यह अनादिकालका बड़ा अविवेकका नृत्य है तिसविर्षे वर्णादिमान् पुद्गल ही नृत्य 5 करे है, अन्य कोई नाहीं है। अभेदज्ञानमैं पुद्गल ही अनेकप्रकार दीखे है, किछू जीव सौ
अनेकप्रकार है नाहीं। यह जीव है सो तौ रागादिक जे पुद्गलत भये विकार तिनित विरुद्ध 卐 विलक्षण शुद्ध चैतन्य धातुमय मूर्ति है।
भावार्थ-रागादि चिद्विकारकू देखि ऐसा भ्रम न करना, जो एभी चैतन्य ही हैं, जाते ॐ चैतन्यकी सर्व अवस्थामैं व्यापै, तौ चैतन्यके कहिये । सो ऐसे हैं नाहीं, मोक्ष अवस्थामैं इनिका
अभाव है । तथा इनिका अनुभव भी आकुलतामय दुःखरूप है। चैतन्यका अनुभव निराकुल है, सोही जीवका स्वभाव है ऐसें जानना । आगें भेदज्ञानकी प्रवृत्तिपूर्वक यह ज्ञाताद्रव्य आप प्रगट होय है, ऐसे महिमा करि अधिकार पूरण करे हैं, ताका कलशरूप काव्य कहे हैं।
_ मन्दाक्रान्ताछन्दः इत्थं ज्ञानक्रकचकलनापाटनं नाटयित्वा जीवाजीवौ स्फुटविघटनं नैक यावत्प्रयातः।
विश्व व्याप्य प्रसभविकशद्वयक्तचिन्मात्रशक्त्या ज्ञातद्रव्यं स्वमतिरसात्तात्रदुच्चवचकाशे ॥१३॥ इति जीवाजीचौ पृथग्भूत्वा निष्क्रांती---
___ इति समयसारव्याख्यायामात्मख्याती प्रथमोंकः । अर्थ-याप्रकार ज्ञानरूप करोतकी कलनाका पाटन कहिये पारंवार अभ्यास करना, साकू
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५ नचायकरि जीव अर अजीव दोऊ प्रगटपणें जेते न्यारे न भये, तेतें यह ज्ञातृद्रव्य आत्मा है सो समस्त पदार्थनिवि व्याप्यकरि अर प्रगट विकासरूप व्यक्त होती जो चैतन्यमात्र शक्ति ताकरि 'फ आपआप अतिवेगतें अतिशयकरि प्रगट होता भया ।
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भावार्थ- जीव अजीव दोऊ अनादितें संयोगरूप हैं। सो अज्ञानतैं एकसे दीखे हैं । तहां भेदज्ञानके अभ्यासकरि जेते प्रगट न्यारे न भये, जीव कर्मनिर्तें छूटि मोक्ष प्राप्तन भया, तेतैं यह जीव 5 ज्ञातृद्रव्य है, सो अपनी ज्ञानशक्तिकरि समस्त वस्तूकूं जानिकरि अतिवेगतें आप प्रगट भया । इहां तात्पर्य यह, जो सम्यग्दृष्टि भये पीछे जेतें केवलज्ञान न उपजे है, तेतैं तौ सर्वज्ञके आममतें भया 5 श्रुतज्ञान ताकरि, समस्त वस्तूका संक्षेप तथा विस्तारकरि परोक्षज्ञान हो है, तिस ज्ञानस्वरूप आत्माका अनुभव होय है, सोही याका प्रगट होना है । बहुरि जब घातिकर्मका नाश केवलज्ञान उपजे है, तब समस्त वस्तूकं साक्षात् प्रत्यक्ष जाने है । ऐसें ज्ञानस्वरूप आत्माकूं साक्षात् अनु- 5 भवे है, सोही याका प्रगट होना है । ऐसें मोक्ष भये पहलेही आत्मा प्रकाशमान होहै, यह भी जीव अजीवका न्यारा होनेका प्रकार है । ऐसें जीव अजीवका पहला अधिकार पूर्ण भया । फ ari टीकाकार पहले रंगभूमिका स्थल न्यारा कहि पीछे कही थी, जो नृत्यके अखाडेमें जीव अजीव दोऊ एक प्रवेश करे हैं, दोऊ एकपणाका स्वांग रचा है। तहां भेदज्ञानी सम्यग्दृष्टिपुरुष अपने सम्यग्ज्ञान दोऊकूं लक्षणभेदतें परीक्षाकरि दोय जाणि लिये, तब स्वांग होय चुक्या, दोज 卐 न्यारे न्यारे होय अखाडामैंसूं बाहिर भये, ऐसा अलंकारकरि वर्णन किया ।
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ऐसें इस समयसार थकी आत्मरूपातिनामा टीकाकी वचनिकाविषै पहला जीवाजीवाधिकार पूर्ण भया ।
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जीव अजीव अनादि संयोग मिलै लखि मूढ न आतम पावें ।
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सम्यक् भेद विग्यान भये भिन्न गर्दै निजभाव सुदावें ॥
श्रीगुरुके उपदेश सुनैरु भले
दिन पाय अग्यान गमावें ।
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ते जगमांहि महंत कहाय व शिव जाथ सुखी निति थावें ॥१॥
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अथ कर्तृकर्माधिकारः ।
दोहा - कर्ता कर्मविभावकूं मेटि ज्ञानमय होय ।
कर्म नाशि शिवमैं बसे तिन्हें नम् मद खोय ॥१॥ मात्मख्यातिः– अथ जीवाजीवावेव कर्तृकर्मवेषेण प्रविशतः ।
अब टीकाकारके वचन हैं— जो जीव अजीव दोऊ एक कर्ताकर्मका वेष करी प्रवेश करे हैं । 5 जैसें दोय पुरुष आपसमें कि एक स्वांग करी, नृत्यके आखाडामैं प्रवेश करें, तैसें इहां अलंकार जानना । तहां प्रथम ही तिस स्वांग ज्ञान है सो यथार्थ जानी ले है, ताकी महिमा करता संता काव्य पढे हैं।
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मन्दाक्रान्ताछन्दः
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एक: कर्चा चिहमिह मे कर्म कोपादयोऽमी इत्यज्ञानां शमयदभितः कर्तृकर्मप्रवृचिम् । ज्ञानज्योतिः स्फुरति परमोदानमत्यन्तधीरं साक्षात्कुर्वन्निरुपधिपृथग्द्रव्य निर्मासि विश्वम् ॥ १॥ अर्थ — ज्ञान ज्योति है सो प्रगट स्फुरायमान हो है । कहा करता संता ? अज्ञानी जीवनिकै 5 ऐसी कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है, जो इस लोकविषे मैं चैतन्यत्ररूप आत्मा हूं सो तौ एक कर्ता हूं बहुरि एक्रोधादिक भाव हैं ते मेरे कर्म हैं, सो ऐसा कर्ता कर्मको प्रवृत्तिकू साक्षात् यह ज्ञान शमन फ करता संता है मेटता है । कैसा है ज्ञानज्योति ? उत्कृष्ट, उदात्त है काहूके आधीन नाही है। फ्र बहुरि कैसा है ? अत्यंत धीर है, काहू प्रकारकरि आकुलतारूप नाहीं है। बहुरि कैसा है ? विना परके सहाय न्यारे न्यारे द्रव्यकूं प्रतिभासनेका जाका स्वभाव है, याहीतें समस्त लोकालोककूं 5 साक्षात् प्रत्यक्ष करता है जानता है ।
૨
भावार्थ - ऐसा ज्ञानस्वरूप आत्मा है सो परद्रव्यका अर परभावनिका कर्तीकर्मपणाका 5 अज्ञानकूं दूरि करि आप प्रगट प्रकाशमान हो है । आगें कहे हैं जो यह जीव जेतें आसवके अर
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आत्माके विशेष... नाहीं जाने, तेतें अज्ञानी हुदा आलनिकवि आप लीन हुवा कर्मनिका 卐 1 बंध करे है। गाथा
जाव ण वेदि विसर्सतरं तु आदासवाण दोहणपि । अण्णाणी ताव दु सो कोधादिसु बटुदे जीवो ॥१॥ कोधादिसु वटुंतस्त तस्स कम्मरस संचओ होदी। जीवस्लेव बंधो भणिदो खलु सव्वदरसीहिं ॥२॥
यावन्न वेत्ति विशेषांतरं त्वारमानवयोयोरपि । अज्ञानी तायरस क्रोधादिषु वर्तते जीवः ॥१॥ क्रोधादिसु वर्तमानस्य तस्य कर्मणः संचयो अवति ।
जीवस्येवं बंधो भणितः खलु सर्वदर्शिभिः ॥२॥ आत्मख्यातिः--यथायमात्मा तादात्म्यसिद्धसंबंधयोरात्मज्ञायोर विशेषादभेदनपश्यन्त्रविशंकमात्मतया ज्ञाने वर्तते तत्र वर्तमानश्च ज्ञानक्रियायाः स्वभावभूतत्वेनालिभिदताम्गानाति तथा संयोगमित्रसंधारयात्मक्रोधाद्यास्त्वयोः स्वयमनानेन विशेषमजनन् यावर भेदं न पश्यति साशंगमात्माया कोनादौ वर्तते । तत्र पर्सनानश्च क्रोधादिक्रियाणां परभावभूतत्वात्प्रतिषित्वेपि स्वभावभूतत्वाध्यासापति ने मुखत देति । तत्र गोयमात्मा स्वयमज्ञानभवने ज्ञानभवनमात्रसहजोदासीनायस्थात्यानेन व्याप्रियमाणः प्रतिभातिमा कनो। यत्तु ज्ञानभवनव्या प्रियमाणत्वेभ्यो
भिन्न क्रियमाणत्वेनांतरुत्प्लवमानं प्रतिभाति क्रोधादि तत्कर्म । एवमियमनादिनानाजा कर्तृ कर्मप्रवृत्तिः। एवमस्यात्मनः + स्वयमज्ञानात्कर्त कर्मभावेन क्रोधादिषु वर्तमानस्य तमेव क्रोधादि नियनिरूपं परिणाम निमित्तमात्रीऋत्य स्वयमेव परिणम
मानं पौद्गलिक कर्म संघयमुपयाति । एवं जीवमुद्गलयोः परस्परावगाहलक्षणसंबंधात्मा बंधः सिद्धय त् । स चानेकात्मकैकसंवानत्वेन निरस्तेतरेतराश्रयदोषः कर्तृ कर्मप्रवृत्तिनिमित्तस्याज्ञानस्य निमित्तं । कदास्याः कर्तृ कर्मप्रसनिवृत्तिरिति चेत् ।
अर्थ-यह जीव जेतें आत्माके अर आस्रवके विशेष अंतर कहिये दोऊनिका भिन्त लक्षण
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- नहीं जाने है, तातें अज्ञानी भया संता क्रोधादिक आस्रवनिविर्षे प्रवर्ते है। बहुरि क्रोधादिकविर्षे 5 वर्ततके ताकै कर्मनिका संचय होव है । ऐसें या जीवकै सर्वज्ञदेवनिकरि कर्मका बन्ध कया है। ime
टीका-यह आत्मा है, सो आपके अर ज्ञानके तादात्म्य सिद्ध संबंध है, यातें आपविर्षे अर ज्ञानविर्षे विशेष नाही, यातें भेद नाहीं देखता संता निःशंक ज्ञानहीवि आत्मपणाकरि प्रवर्ते है। " - तहां प्रवर्तता संताकै ज्ञानकी कियारूप प्रवृत्तिकै स्वभावभूतपणा है, परनिमित्ततें न भई है, तातें
याका प्रतिषेध नाहीं। तातें तिस ज्ञानक्रियातें जाने है, यह विभावपरिणति नाहीं है। सो जैसे म ज्ञानक्रियारूप परिणमे है तैसे ही संयोगसिद्ध सम्बन्धरूप जे आत्मा अर क्रोधादिक आस्रव, तिनि-
विर्षे भी अपने अज्ञानभावकरि विशेष नाहीं जानता संता, जेते भेद नाहीं देखे, तेतें निःशंकपणे 卐 क्रोधादिविर्षे आत्मपणाकरि प्रवर्ते है । तहां वर्तता संताकै क्रोधादि क्रिया है सो परभावते भई
है तातें ते प्रतिषेध स्वरूप हैं तोऊ तिनि विर्षे स्वभावतें भईका याकै निश्चय है, तातें आप क्रोधरूप परिणमे है, रागरूप परिणमे है, मोहरूप परिणमे है । सो इहां जो यह आत्मा अपने अज्ञानभावकरि ज्ञानभवनमात्र जो स्वभावते भई उदासीन ज्ञाता द्रष्टा मात्र अवस्था ताका त्याग करि
क्रोधादि व्यापाररूप होय परिणमता संता प्रतिभासे है, प्रवर्ते है, सो कर्मनिका कर्ता होय है। - बहुरि जो ज्ञानभवन व्यापाररूप प्रवर्तनेते भिन्न किया हुआ अंतरंगविष उपजता क्रोधादिक प्रति
भासमें आवे हैं, सो तिस कर्ता के कर्म हैं । ऐसें यह अनादिकालतें भई या आत्माकी कर्ताकर्मकी - प्रवृत्ति है । ऐसें अपने अज्ञानभावतें कर्ताकर्मभावकरि क्रोधादिकविर्षे वर्तमान जो यह आत्मा, 卐 " ताके तिस क्रोधादिककी प्रवृत्तिरूप परिणाम... निमित्तमात्र करि अर आप अपने भावनिकरि परि5 णमता जो पुद्गलमय कर्म, सो संचयकू प्राप्त होय है । ऐसें जीवकै अर पुद्गलकै परस्पर अवगाह
लक्षण संबंधस्वरूप बंध सिद्ध होय है । सोही बंध अनेक वस्तुका एकरूप होय सन्तान चल्या, तिस सन्तानपणाकरि दूरि भया है इतरेतराश्रय दोष जामें ऐसा है, सोही बंध कर्ता कर्मकी प्रवृत्तिका निमित्त जो अज्ञान ताका निमित्त है।
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भावार्थ-यह आत्मा जैसे अपना ज्ञानस्वभावरूप परिणमै, तैसें क्रोधादिरूप परिणमै, ज्ञानमैं म अर क्रोधादिकमैं भेद न जाने तेते याके कर्ताकमकी प्रवृत्ति है । क्रोधादिरूप परिणमता तो आप । कर्ता है, अर ते क्रोधादिक याके कर्म हैं । बहुरि अनादि अज्ञानतें तौ कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है । अर मामृत कर्ताकर्मकी प्रवृत्तितें बंध हे । अर तिस बंधका संतानते अज्ञान है ऐसा अनादि सन्तान है । ऐसे
यामैं इतरेतराश्रय दोष भी नाहीं है । ऐसें जेते आत्मा क्रोधादिक कर्मका कर्ता होय परिणमे है, + तेते कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है, तेते ही कर्मका बंध होय है । आगें पूछे है-पाके तिस कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिका अभाव कोन कालमै होय है ? ऐसे पूछे उत्तर कहे हैं । गाथा--
जइया इमण जीवेण अप्पणो आसवाण य तहेव। णादं होदि विसंतरं तु तइया ण बंधो से ॥३॥
यदाऽनेन जीवेनात्मनः आत्रवाणां च तथैव ।
ज्ञातं भवति विशेषांतरं तु तदा न बंधस्तस्य ॥३॥ आत्मख्यातिः---इह किल स्वभावमात्रं वस्तु, स्वस्य भवनं तु स्वभावः । तेन ज्ञानस्य भवनं खल्वात्मा। क्रोधाॐ देवनं क्रोधादिः । अथ ज्ञानस्य यद्भवनं तत्र न क्रोधादेरपि भवनं यतो यथा ज्ञानभवने ज्ञानं भवद्विभाव्यते न तथा
क्रोधादिरपि । यत्तु क्रोधादेर्भवनं तत्र न ज्ञानस्वापि भवनं यतो क्रोधादिभवने क्रोधादयो भयंतो विभाव्यते न तथा ज्ञानमपि इत्यात्मनः क्रोधादीनां च न खल्वेकवस्तुत्वं इत्येवमात्मात्मास्रवयोविशेषदर्शनेन यदा भेदं जानाति तदास्या- + नादिरप्यज्ञानजा क कर्मप्रवृत्तिनिवर्त्तते तभिवृत्तावज्ञाननिमित्तं पुद्गलद्रव्यकर्मबंधोपि निवर्तते । तथा सति ज्ञानमात्रादेव बंधनिरोधः सिद्धय त् । कथं ज्ञानमात्रादेच बंधनिरोध इति चेत् । ___ अर्थ--जिसकाल इस जीवकरि आत्माका अर आस्रवनिका विशेषांतर कहिये भिन्न लक्षणपणा जाण्या होय, तिसही काल इसके बंध नाही है।
टीका-इस लोकविः वस्तु है सो अपने स्वभावमात्र है । बहुरि अपना भावका होना सो " स्वभाव कहिये । तिस कारणकरि यह निश्चय है, जो ज्ञानका होना परिणमना सो आत्मा है।
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卐 बहुरि कोधादिकका होना परिणमना सो कोधादिक है । ऐसें होते जो ज्ञानका परिणमना है 卐 5 सौ क्रोधादिकका परिणमना नाहीं है । जाते जैसे ज्ञान होते ज्ञान ही होता भाइये है, ते क्रोधादिक नाही भाइये हैं । बहुरि जो क्रोधादिकका होना परिणमना है सो ज्ञानका परिणमना 45 नाहीं है । जाते जैसे कोधादिक होतें कोधादिक होते ही भाइये हैं, तेसे ज्ञान भी होता नाहीं भाइये है । ऐसें कोeriesकै अर ज्ञानकै निश्चयतें एक वस्तुपणा नाही है । ऐसें या प्रकार फ्र म अर व विशेष देखनेकरि जिसका भेद जाने है, तिस काल इस आत्माकै अनादि कालतें भई जो परविवें कर्त्ताकर्मकी प्रवृत्ति सो निवृत्त होय हैं । बहुरि तिसकी निति हो अज्ञानके निमित्त होता जो पुद्गल द्रव्यकर्मका बंध सो भी निवृत्त होय है । तैसें होतें ज्ञानमात्रतेहि बंधका निरोध सिद्ध होय है ।
भावार्थ- क्रोधादिक अर ज्ञान न्यारे न्यारे वस्तु हैं, ज्ञानमें series नाही, क्रोधादिक फ्री ज्ञान नाहीं । ऐसा इनका भेदज्ञान होय तब एकपणाका अज्ञान लिये। तब कर्म का भी न होय । ऐसें ज्ञानही बंधा निरोध होय है । आगे पूछे हैं, ज्ञान
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णादण आसवाणं असुचित्तं च विवरीयभावं च ।
दुक्खस्स कारणं ति य तदो नियत्तिं कुणदि जीवो ॥ ४ ॥ ज्ञाला आत्रवाणामशुचित्वं च विपरीतभावं च ।
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दुःखस्य कारणानीति च ततो निवृत्तिं करोति जीवः ||१||
आत्मख्यातिः --- जले जग गोपलम्यमानत्वादः साः भगवामा तु नित्यमेवातिनिर्मउ
चिन्मात्रस्वेनोपलंमकत्वादसिदिपराः
साः भगवानमा दु आइलोसादकत्वाद् दुःखस्य कारणानि
frerna forcererna स्वयं चेदन्यस्वगल एप फ खल्लास्रवाः भगवानात्मा तु निल्यभैयानाकुलत्वस्वभावेनाकार्यकारणत्वात् दुःखस्याकारणमेव । इत्येवं विशेश्दर्शनेन यदे
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फ वायमात्मास्त्रययोर्भेदं जानाति तदैव क्रोधादिभ्य आस्रवेभ्यो निवर्त्तते । तेम्पोऽनियमानस्य पारमार्थिकतद्भेदज्ञानासिद्धेः । ततः क्रोधाद्याखव निवृत्यविनाभाविनो ज्ञानमात्रा देवाज्ञानजस्य पौद्गलिकम्य कर्मणो घनिरोधः स किं न यदिदमात्मावयोर्भेदज्ञानं ज्ञानं किंवा ज्ञानं १ यद्यज्ञानं तदा तदनेनात्र तस्य विशेषः । ज्ञानं चेतु किमासनिवृत्तं । स प्रवृत्तं तदिज्ञानान्न तस्य विशेषः । आसवेषु निवृनं चतहि 5 कथं न ज्ञानादेव वैधनिरोधः इति नि ज्ञातयः क्रियानयः । यचात्मानमपि नावे निवृत्तं भवति
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तज्ज्ञानमेव न भवतीति ज्ञानांशी ज्ञाननयोपि निरस्तः ।
नका अशुचिणा बहुरि विपरीतपणा बहुरि एदुःखके कारण हैं ऐसें जानि 5 यह 'जीव तिनि निवृत्ति करे हैं
अर्थ -
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टीका - ए आल हैं ते अनुचि नलिन हैं, जाते जैसे जलविरें जंवाल कहिये सेवाल है सो मलिन है, जलकूं मलिन दिखाये है। तेलें ए आल भी कम जोगिताकरि प्राप्यमाण हैं, आप नलिन हैं, आत्माकूं मलिन अनुभव करावे हैं । बहुरि आता है सो भगवान् है ज्ञानवान् है, सो जो चैतन्य भाव ताकरिता ज्ञायक है । तातें अत्यंत शुचि है 卐 पवित्र है उज्वल है । बहुरि आसूत्र हैं ते आता अन्य स्वभाव हैं, क्षेत्र हैं, जातें जडस्वभावपणा के 5 होते परकरि जानने योग्य हैं। जेड होय ते आपकू न जाने तिनिकू पैलाही जाने । अर आत्मा है 5
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सो सदा ही विज्ञान घन स्वभाव है तातें आप चेतक है, ज्ञाता है, आसूवनित अन्यस्वभाव है,
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5
आपकूं अर पर जाने है । बहुरे आसून हैं ते दुःखके कारण हैं, तातें ए आलाके आकुलताके उपजावनहारे हैं । बहुरि भगवान् आत्मा है सो सदाही निराकुप्रभाव है, तातें काहूका कार्य 卐 नहीं है तथा काहूका कारण भी नाहीं है, तातें दुःखका कारण नाहीं है । ऐसे आत्माकै अर 5 आसूत्रके तीन विशेषणनिकरि भेद देखनेकरि जिसकाल भेद जान्या तिसही काल क्रोधादिक आख卐 होय हैं । बहुरि तिनि आस्रवनित निवर्तमान न होय ताकै पारमार्थिक सांची भेदफ्र ज्ञानकी सिद्धि न होय है । तातें ऐसें है जो कोधादिक आस्रवनिकी निवृत्ति अविनाभावी जो ज्ञान तिसमात्रतें ही अज्ञानतें भया जो पौद्गलिककर्मका बंध, ताका निरोध सिद्ध होय है । इहीं
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ऐसा विशेष जानना जो यह आत्मा अर आस्रवका भेदज्ञान है, सो पूछिये है, जो अज्ञान है ... कि ज्ञान है ? जो अज्ञान है, तो आस्रवनित अभेद ज्ञान ही भया, विशेष नाहीं भया । बहरि जो ज्ञान है तौ पूछिये, आस्रवनिविर्षे प्रवर्तता है, कि तिनितें निवृत्तिरूप है ? जो आस्त्रव... निविर्षे प्रवर्तता है तौ सो ज्ञान आस्रवनितें अभेद ज्ञानरूप अज्ञान ही है, या में भी विशेष । नाहीं । बहुरि जो आअवनितें निवृत्तिरूप है तौ ज्ञानहीतें बंधका निरोध कैसा सिद्ध भया नाहीं - कहिये ? सिद्ध भया ही। ऐसे सिद्ध होनेते तो अज्ञानका अंश ऐसी क्रियानयका निराकरण" भया । बहुरि जो आत्मा अर आस्रवका भेदज्ञान है सो भी आस्त्रवनितें निवृत्त न भया तो वह ॥ ज्ञान ही नाहीं है, ऐसे कहनेते ज्ञानका अंश ऐसा ज्ञाननयका निराकरण भया। ___ भावार्थ-आस्रव अशुचि हैं, जड हैं, दुःखके कारण हैं । अर आत्मा पवित्र है, ज्ञाता है,5 सुखस्वरूप है । ऐसें दोऊनिकू लक्षणभेदतें भिन्न जानिकरि आस्रवनितें आत्मा निवृत्त होय है, .. तिसकै कर्मका बंध न होय है । जाते ऐसें जाने भी निवृत्त न होय तो वह ज्ञान ही नाही, अज्ञाना ही है। यहां कोई पूछे, अविरतसम्यग्दृष्टिकै मिथ्यात्व अनंतानुबंधी संबंधी प्रकृतिनिका तो - आस्रव नाहीं होय, अर अन्य प्रकृतिनिका तौ आस्रव होय बंध होय है। याकू ज्ञानी कहिये । की अज्ञानी ? ताका समाधान—जो याकै प्रकृतिनिका बंध होय है, सो याकै अभिप्रायपूर्वक नाहीं है । सम्यग्दृष्टि भये पीछे परद्रव्यका स्वामित्वका याकै अभाव है तातें जेतें चारित्रमोहका याकै उदय है, ताकै उदयके अनुसारि आस्रवबंध है, तिसका स्वामित्व नाही, याते अभि-म प्राय में निवृत्त होना ही चाहे है, तातें ज्ञानी ही कहिये। अर इहां बंध मिथ्यात्वसंबंधी अनंत .. संसारका कारण है, सोही प्रधानताकरि विवक्षित है। अविरतादिकतें बंध होय सो अल्पस्थिति- " अनुभागरूप है, दीर्घ संसारका कारण नाहीं, तातै प्रधान न गिणिये है । अथवा ज्ञान है सोबंधकाकारण नाहीं है, ज्ञानमें मिथ्यात्वका उदय था तब अज्ञान कहावै था अर मिथ्यात्व गये पीछे अज्ञान नाही ज्ञान ही है । सो यामैं किछु चारित्रमोह संबंधी विकार है, सो ज्ञानी ताका स्वामी ॥
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नाहीं । तातें ज्ञानीकै बंध नाहीं, विकार बंधरूप है, सो बंधकी पद्धति है, ज्ञानकी पद्धति में 5 समर्थ नाहीं है । या अर्थका समर्थनरूप कथन अगिली गाथामै होसी । इहां कलशरूप काव्य है । मालिनीछन्दः
=१
फ्र फ्रफ़ फ्रफ़ फ्र
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परपरणतिमुज्झत् खंडयद्भ देवादानिदमुदिनमखंडं ज्ञानमुचंडमुच्चैः । ननु कथमवकाशः कर्तृकर्मप्रवृत्तेरिह भवति कथं वा पौद्गलः कर्मबंधः ॥ ha विधिनामा वेभ्यो निवर्त्तत इति चेत् ।
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अर्थ -- यह ज्ञान है सो प्रत्यक्ष उदयकूं प्राप्त भया । कैसा भया ! अखंड कहिये जायें ज्ञेयके
5 निमित्ततें तथा क्षयोपशम के विशेषतें अनेक खंडरूप आकार प्रतिभासमें आवे थे तिनितें रहित 5 ज्ञानमात्र आकार अनुभवमैं आया, याहीतें ऐसा विशेषण है। कैसा है ज्ञान ? “भेदवादान् खण्ड卐 यत् " कहिये मति ज्ञानादि अनेक भेद कहावै थे, सो तिनिकं दृरि करता संता उदय भया, याहीतें "अखंड " विशेषण है । बहुरि कैसा ? परके निमित्त रागादिरूप परिणम था तिस परिकूं छोडता संता उदय भया । बहुरि कैसा है ? " उच्चैः उच्चड" कहिये अतिशयकरि प्रचंड 5 है, परका निमित्ततें रागादिरूप नाहीं परिणमे है, बलवान् हैं। तहां आचार्य कहे हैं जो अहो, ऐसा ज्ञानमें परद्रव्यकै कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिका अवकाश कैसा होय ? तथा पौगलिक कर्मबंध कैसा 5 होय ? नाहीं होय ।
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भावार्थ - कर्मबंध तौ अज्ञानतें भई कर्ताकर्मकी प्रवृत्तितें था । अब भेदभावकूं दूरि करि अर परपरिणतिकूं दूरि करि एकाकार ज्ञान प्रगट भया । तब भेदरूप कारककी प्रवृत्ति मिटी, तब काकूं बंध होय ? आगे पूछे हैं, कौन विधानकरि आस्रवनितें निवर्तन होय है ? ताका उत्तररूप गाथा कहे हैं। गाथा-
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अहमिको खलु सुद्धो य णिम्ममो णाणदंसणसमग्गो । त िठिदो तच्चित् सव्वे एदे खयं णेमि ॥५॥
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अहमेकः खलु शुद्धश्च निर्ममतः ज्ञानदर्शनसममः ।
तस्मिन् स्थितस्तच्चित्तः सर्वानेतान् क्षयं मयामि ॥५॥ आत्मख्यातिः-अहमयमात्मा प्रत्यक्षमक्षुण्णमनंतं चिन्मा ज्योतिरनाद्यनंतनित्योदितविज्ञानपनस्वभावभावत्वा-.. देकः । सकलकारकचक्रप्रतिक्रियोत्तीर्णनिर्मलानुभूतिमात्रत्वाच्छुद्धः । पुद्गलस्वामिकस्य क्रोधादिभावर्चश्वरूपस्य स्वस्य , स्वामित्वेन नित्यमेवापरिणमनादिधर्ममतः चिन्मात्रस्य महसो वस्तुस्वभावत एव सामान्यविशेषाभ्यां सकलत्वाद् ज्ञान-.. दर्शनसमग्रः । गगनादिवत्पारमार्थिको वस्तुविशेषोस्मि तदबमधुनास्मिन्नेवात्मनि निविलपरद्रव्यप्रवृत्तिनिवृत्या निश्चल-1 मत्रतिहमानः सकलपरद्रव्यनिमित्तकविशेषचेतनचंचलकल्लोलनिरोधेनेमनेव चंतवतानः स्वाज्ञानेनात्मन्युत्पवमानानेतान् - भावानखिलानेव क्षपयामीत्यान्मनि निश्चित्य चिरसंग्रहातमुक्तपातपात्रः समुद्रावल इव इणित्यपाहातसमस्तविकल्पोऽकल्पितमचलितममलमात्मानमालंचमानो विज्ञानधनभूतः खल्वयमात्मास्रवेभ्यो विर्तते । कयं ज्ञानास्त्रयनिवृत्त्योः सम-.. कालत्वमिति चेत् ? ____ अर्थ-ज्ञानी विचारे है, जो मैं निश्चयतें एक हूं, शुद्ध हूं, निर्ममत हूं, ज्ञानदर्शनकारि - पूर्ण हूं । ऐसें स्वभावतिटया लिस हो चैतन्य अनुभवमें लीन भया । ए क्रोधादिक आस्रव हैं । तिनि सर्वनिकू क्षयकू प्राप्त करूं हूं। ____टीका-यह मैं आत्मा हौं, सो प्रत्यक्ष अखंड अनंत चैतन्यमात्र ज्योति हो । कैसाही ? अनादि .. अनंत नित्य उदयरूप विज्ञान धनस्वभाव भावपणातें तो एक हौं । बहुरि समस्त कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, अधिकरण, स्वरूप जो कारकनिका समूह, ताकी प्रक्रिया, ताकरि पार 15 उतरथा दूरिवर्ति निर्मल चैतन्य अनुभूतिमात्रपणात शुद्ध हौं । बहुरि पुद्गलद्रव्य है स्वामी विनिका " ऐसा जो क्रोधादिभाव, तिनिका विश्वरूपपणा समस्तपणा ताका स्वामीपणाकरि सदा ही आपके नाहीं परिणमनेत तिनित निर्मनत हौं ! बहुरि वस्तुका स्वभाव सामान्य विशेषस्वरूप है। तात .. चैतन्यमात्र तेजःपुंज है । सो भी वस्तु है । तातें सामान्य विशेषस्वरूप जो ज्ञानदर्शन तिनिकरि卐 पूर्ण हौं । ऐसा आकाशादि द्रव्यकी ज्यों परमार्थस्वरूप वस्तु विशेष हौं। तातें में इस ही आत्म
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स्वभाववियें समस्त परद्रव्यते निवृत्तिकरि, निश्चल तिष्ठता संता समस्त परद्रव्यक निमित्ततें होती .. जे विशेषरूप चैतन्यविर्षे चंचल कल्लोल, तिसके निरोधकरि, इस चैतन्यस्वरूपकू ही अनुभवता । संता अपने ही अज्ञानकरि आत्माविर्षे उपजते जे ए क्रोधादिक भाव, तिनि समस्तनिकू क्षयकुंज प्राप्त करू हौं । ऐसा आरमावि निश्चय पारि । अर पगे कालका ग्रह्या था जो जिहाज, सो अब छोड्या जाने ऐसा समुद्रका आवर्तकी ज्यों शीघ्र ही उद्वांत कहिये दृरि डारे है समस्त विकल्प जाने, ऐसा निर्विकल्प अचलित निर्मल आत्माकू अवलम्बन करता संता, विज्ञानधन भया, यह आत्मा आस्रवनित निवृत्त होय है।
भावार्थ-शुद्धनयकरि ज्ञानी आत्माका ऐसा निश्चय किया, जो मैं एक हौं, शुद्ध हौं, परद्रव्यतें निर्ममत हौं, ज्ञानदर्शनकार पूर्ण वस्तु हौं । सो जब ऐसा अपना स्वरूपविर्षे तिष्ठं तिस ही का अनुभवनरूप होय, तब क्रोधादिक आश्रव क्षय होय जाय । जैसें समुद्रका आवर्त बहुत कालतें जिहाजकू पकडि राख्या, पोछे कोई कालमै आवर्त पलटै, लव जिहाजकू छोडे, तैसे आत्मा आश्रवनिकू छोडे है। आगें पूछे है-ज्ञान होनेके अर आस्रवनिकी निवृत्तिकै समकाल कैसा है? ताका उत्तररूप गाथा कहे हैं।
जीवणिबद्धा एदे अधुव अणिच्चा तहा असरणा य । दुक्खा दुक्खफलाणि य णादण णिवत्तदे तेसु ॥६॥
जीवनिवद्धा एते अध्रु वा अनित्यास्तथा अशरणाश्च ।
दुःखानि दुःखफलानि च ज्ञात्वा निवर्तते तेभ्यः ॥६॥ आत्मख्यातिः-जतुपादपवद्वध्यघातकस्वभावत्वाज्जीवनिबद्धवाः खल्बास्त्रवाः, न पुनरविरुद्धस्वभावत्वाभावाज्जीव एक। अपस्मारस्थवर्द्धमानहीयमानत्वाध्र वाः खल्यास्रवाः ध्रु वश्चिन्मात्रो जीव एव । शीतदाहज्वरावेशवत् क्रमेणोज्जभमाण- भी वादनित्याः खल्वासवाः, नित्यो विज्ञानघनस्वभावो जीव एव । बीजनिक्षिक्षणक्षीयमाणदारुणस्मरसंस्कारवद प्रातुमशक्यत्वादशरणाः खल्लासवाः, सधरणः स्वयं गुप्तः सहजचिच्छक्तिर्जीव एव । नित्यमेवाकुलस्वभावत्वा सानि卐
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अदुःखं नित्यमेवानाकुलस्वभाचो जीव एव । आपत्यामाकुलत्वोत्पादकस्य पुद्गलपरिणामस्य हेतुत्वा दुःख क फलाः खल्वास्रवाः, अदुःखफलः सकलस्यापि पुद्गलपरिणामस्याहेतुत्वाज्जीच एव । इति विकल्पानंतरमेव शिथिलितकर्मविपाको विघटितष नौघघटना दिगाभोग इव निरर्गलप्रसरः सहजबिज भमाणचिच्छक्तितया यथा यथा विज्ञानघनस्वभावो भवति तथा तथास्रवेभ्यो निवर्त्तते । यथा यथास्रवेभ्यश्च निवर्त्तते तथा तथा विज्ञानघनस्वभावो भवतीति । तावद्विज्ञान- 15 धनस्वभावो भवति यावत्सम्यगासवेभ्यो निवर्त्तते । तावदासूवेभ्यश्च निवर्त्तते यावत्सम्यग्विज्ञानघनस्वभावो भवदीति फ ज्ञानात्रनिवृत्योः समकालत्वं ।
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लाख उपजे है, ताकरि वृक्ष बंधे पीछे तिसके निमित्ततें वृक्षका घात होय, ऐसें बध्यघातक स्वभावक रूप जीवसहित निबद्ध हैं बंधे हैं अर विरुद्धस्वभाव हैं, तातें जीव ही नाहीं हैं । बहुरि आस्रव हैं 5 मृगीका रोग वेगकी ज्यों बघता जाय फेरि घटता जाय ऐसें अध्रुव हैं । बहुरि जीव है सो
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चैतन्यभावमात्र है, सो है । बहुरि आस्त्र हैं ते शीतदाह ज्वरका स्वभावकी ज्यौं अनुकमतें 5 उपजते हैं तातें अनित्य हैं । बहुरि जोव है सो विज्ञानघन स्वभाव है तातें नित्य है । बहुरि आस्व 卐 हैं ते अशरण हैं, जातें जैसें काम सेवनमें वीर्यका बंध छुटै तिस ही काल दारुण कामका संस्कार 4 है, सो क्षीण होय, काहूतें राख्या न जाय, तैसें उदयकाल आये पोछें, आलव क्षरि ही जाय 卐 राखे न जाय हैं, तातैं शरणरहित हैं । बहुरि जीव हैं सो अपनी स्वाभाविक चिच्छक्तिरूप आप
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ही करि रक्षारूप है, तातें शरणसहित है । बहुरि आस्रव 'सदा ही आकुलता स्वभावलिये हैं, तातैं दुःखरूप हैं । बहुरि जीव है सो सदा ही निराकुलस्वभावरूप है, तातें सुखरूप है। बहुरि फ आस्रव हैं ते आगामी कारमै आकुलताका उपजावनहारा पुद्गलपरिणाम के कारण हैं, तातें ते दुःखफल स्वरूप हैं । बहुरि जीव है सो समस्त पुद्गलपरिणामका कारण नाहीं है तातें दुःख फल
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अर्थ-ए आस्रव हैं ते जीवकरि सहित निबद्ध हैं, अधव हैं, अनित्य हैं तथा अशरण हैं, बहुरि दुःखरूप हैं दुःख ही जिनका फल है ऐसे ज्ञानी जानिकरि तिनि निवृत्ति करे है ।
टीका-ए आस्रव हैं ते लाक्षवृक्षको ज्यों वध्यघातक स्वभाव हैं। जैसें पीपल आदि वृक्षके 卐
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स्वरूप नाहीं है । ऐसा आश्रवका अर जीवका भेदज्ञान भया तिसतें लगता ही शिथिल भया है ॥ सम- कर्मका उदय जाका अर जैसे दिशाका मध्य वादलेकी रचनाका अभाव होय तब निर्मल होय जाय
तैसें अमर्याद फैलावरूप हुवा संता स्वभाव ही करि उदयमान भई जो चिच्छक्ति तिसपणाकरिफं: जैसे जैसे विज्ञानयन स्वभाव होय है तैसे तैसें आस्रवनितें निवृत्त होय है । बहुरि जैसे जैसे आस
वनितें निवृत्त होता जाय तैसे तैसें विज्ञानयन स्वभाव होता जाय ऐसें तहां ताईं विज्ञानधन स्वभाव । 卐 होय है-जेते सम्यक्प्रकार आसूवनितें निवृत्त होय है। बहुरि तहां ताई आसूवनितें निवृत्त होय ।
है-जहां तॉई सम्यविज्ञानवन स्वभाव होय है । ऐसें ज्ञानकी अर आस्रवनिकी निवृत्तिकै सम- । कालपणा है।
भावार्थ-आस्रवनिका अर आत्माका कथा तिस प्रकार भेद जानते ही जेता अंश जिस जिस प्रकार आस्त्रवनिते निवृत्त होय है, तिस तिप्त प्रकार तेता अंश विज्ञानवन स्वभाव होता जाय । जव समस्त आत्रवनि निवृत्त होय तव संपूर्ण ज्ञानवनस्वभाव आत्मा होय है । ऐसें आस्रवकी निवृत्तिकै अर ज्ञानकै एककाल होना जानना। इस आस्रवका अभाव अर संवरका होना गुणस्थाननिकी परिपाटीरूप तत्वार्थ सूत्रकी टीका आदि सिद्धांतनिमें वर्णन है तहांतें जानना । इहां सामान्य प्रकरण है तातें सामान्यकरि कया है । अर इहां विज्ञानयन स्वभाव होना करा, सो " जहां ताई मिथ्यात्व है तहांताई तो ज्ञानफू अज्ञान कहिये अर मिथ्यात्र गये पीछे अज्ञानसंज्ञा , नाही, विज्ञानसंज्ञा है । सो कर्मका क्षय तथा उपशमकी अपेक्षा ज्ञान हीनाधिक होय है। सो
ज्यों ज्यौं आस्त्रक्की निवृत्ति होय, त्यो त्यो ज्ञान वधता जाय ताकू विज्ञान नाम कहिये हैं, थोरेज + ज्ञानकू मिथ्यात्वविना अज्ञान न कहिये ऐसें जानना । अब इसही अ का कलशरूर तथा अगिले कथनकी सूचनिकारूप काव्य कहे हैं।
शार्दूलविक्रीडितछन्दः इत्येवं विरचय्य संप्रति परगन्यानिसि परां स्वं विज्ञानघनस्वभावमभयादास्तिनुवानः परं ।
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अज्ञानोत्थितक कर्मकलनात् क्ले शान्निवृत्तः स्वयं मानीभूत इतश्चकास्ति जगतः साक्षी पुराणः पुमान् ॥३॥ कथमात्मा ज्ञानी गूको लक्ष्यत इति ।
अर्थ-इहोते आगें पुराणपुरुष जो आत्मा सो जगतका साक्षी भूत, ज्ञाता, द्रष्टा आपही ज्ञानी भया संता प्रकाशमान होय है । सो पूर्वे कहाकार कैसा भया संता सो कहे हैं। ऐसें पहले कहा तिस विधानकरि, परद्रव्यतें उत्कृष्ट सर्वप्रकार निवृत्तिकरि, अर विज्ञानधन स्वभावरूप जो ॥ केवल अपना आत्मा, ताही निशंक आस्तिस्य भावरूप स्थिरीभूत करता संता, अज्ञानते भई थी जो कर्ता कर्मकी प्रवृत्ति, ताका अभ्यासतें भया था जो क्लश, तिसते निवृत्त भयासंता प्रकाशमान होय है। आगें पूछे हैं—ऐसा आत्मा ज्ञानी भया कैसे लखिये पहचानिये ? ताके चिन्ह कहे चाहिये । ताका उत्तररूप गाथा कहे हैं। गाथा
कम्मस्स य परिणाम णोकम्मस्स य तहेव परिणाम। ण करेदि एदमादा जो जाणदि सो हवदि णाणी ॥७॥
कर्मणश्च परिणाम नोकर्मणश्च तथैव परिणामं ।
न करोत्येनमात्मा यो जानाति स भवति ज्ञानी ॥७॥ आत्मख्यातिः- यः खलु मोहरागद्वेषसुखदुःखादिरूपेणांतरुपवमानं कर्मणः परिणाम स्पर्शरसगंववर्णशब्दबंधसंस्थानस्थौल्यसौक्षपादिरूपेण बहिरुप्लवमानं नोकर्मणः परिणामं च समस्तमपि परमार्थतः पुद्गलपरिणामपुद्गलयोरेव घटमृत्तिकयोरिव च्याप्यव्यापकभावसभावात्पुद्गलद्रव्येण का स्वतंत्रव्यापकेन स्वयं व्याप्यमानत्वात्कर्मत्वेन क्रियमाणं पुद्गलपरिणामात्मनोर्घटकुंभकारयोरिख च्याप्यव्यापकभावाभावात् क कर्मत्वासिद्धौ न नाम करोत्यात्मा । किं तु परमार्थतः पुद्गलपरिणामझानपुद्गलयोर्घटकभकारवयाप्यच्यापकभावाभावात् क कर्मवासिद्धावात्मपरिणामात्मनोर्घटमृनि-।कपोरिख च्याप्यन्यायकमावसभावादात्मद्रव्वेण क; स्वतंत्रव्यापकेन स्वयं व्याप्यमानत्वात्पुद्गलपरिणामज्ञानं कर्मत्वेन ॥
कुर्वतमात्मानं जानाति सोत्यंत विविक्तज्ञानीभूतो ज्ञानी स्यात् । न चैवं ज्ञातुः पुद्गलपरिणामो न्याप्यः पुद्गलात्मनो- - - शेयज्ञायकसंबंधन्यवहारमात्र सत्यपि पुद्गलपरिणामनिमित्तकस्य ज्ञानस्यैव ज्ञातुाप्पत्वात् ।
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अर्थ- जो इस कर्म के परिणामकुं बहुरि तेसें ही नाकर्मके परिणामकूं आत्मा न करे है जातें 5 जो तिनि परिणामनि जाने है है ।
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टीका ---जो निश्चयकरि मोह, राग, द्वेष, सुख, दुःख आदि पर आप उपजता,
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सो तो कर्मका परिणाम है । बहुरि, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, बंध, संस्थान, स्थौल्य, सूक्ष्म 卐 5 आदि रूपकरि वाहरि उपजता, सो नोकर्मका परिणाम है। सो ए समस्त ही परमार्थतें पुद्गल फ परिणामके अर पुद्गलके " जैसे घटके अर मृत्तिकाके व्याप्यव्यापक भावके सद्भावतें कर्ताकर्मपणा है” तैसें पुद्गलद्रव्य स्वतंत्र व्यापक होय कर्ता होयकरि किये हैं । अर ते आप अंतरंग व्याप्यरूप होय व्यापे हैं, तातें पुद्गलके कर्म हैं । अर पुद्गलपरिणामकै अर आत्माकै "घटकु
भकारक जैसा व्याप्यव्यापकभाव नाहीं है तैसा" व्याप्यव्यापकपणाका अभाव है, तातें कर्ताक- 5 मपणाकी असिद्धि है, तातैं कर्मनो कर्मपरिणामकू आत्मा नाहीं करे है। तहां यह विशेष है---
जो परमार्थ तैं पुद्गलपरिणामका ज्ञानकै अर पुद्गलके घट अर कुंभकारकी ज्यों व्याप्यव्यापक 5 भावका अभाव कर्त्ताकर्मपणाकी सिद्ध न होर्ते, आत्मपरिणामके अर आत्माकै घटमृत्तिकाकी ज्यों व्याप्यव्यापकभावके सद्भावतें आत्मद्रव्य जो कर्त्ता, ताकरि आप स्वतंत्र व्यापक होय करि, ज्ञाननामा कर्म किया है । तातैं सो ज्ञान आपही आत्मा व्याप्यरूप होय कर्मरूप भया है । तातें 5
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15 पुद्गलपरिणामको ज्ञानकुं कर्मपणाकरि कर्ता जो आत्मा ताहि आप जाने है। सो आत्मा पुद्गल- 45 परिणामरूप कर्मोकर्मतें अत्यंत भिन्न ज्ञानी भया संता ज्ञानीही होय है, कर्त्ता न होय है । 5 बहुरि ऐसें होतें ज्ञातापुरुषकै पुद्गलपरिणाम व्याप्यस्वरूप नाहीं है । जातैं पुद्गलकै अर आत्माकै क
ज्ञेयज्ञायक संबंध व्यवहारमात्रकरि होता संता भी पुद्गल परिणाम है निमित्त जाऊं ऐसा पुद्गलप
卐 रिणामका ज्ञान सो ही ज्ञाताकै व्याप्य है, तातें सो ज्ञान ही ज्ञाताका कर्म है। अब इस ही अर्थका 5 समर्थनका कलशरूपकाव्य है सो कहे हैं।
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शार्दूलविक्रीडितछन्दः न्याप्यन्यापकता तदात्मनि भवेन्नैरातदान्मन्यपि व्याप्यव्यापकभावसंभवमृते का कर्तृ कर्मस्थितिः।।
इत्युद्दामपिवेकघस्मरमहो भारेण मिदंस्तमो ज्ञानीभ्य तदा स एष लसितः कर्तृत्वशून्यः पुमान् ।।४॥ पुद्गगलकर्म जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन क कर्मभावः किं भवति किं न भवतीति चेत् ।
अर्थ-व्याप्यव्यापकपणा है सो तदात्मा कहिये तत्स्वरूप ही होय ताके होय, अतत्स्वरूप- - विर्षे नाहीं होय है। बहुरि व्याप्यव्यापक भावका सम्भवविना कर्ताकर्मकी स्थिति कोन सी कुछ भी नाहीं ऐसा उदार विवेकरूप अर घस्मर कहिये समस्तकू ग्रासीभूत करनेका जाका स्वभाव ' ऐसा जो ज्ञानस्वरूप तेज प्रकाश, ताका भारकरि अज्ञानरूप अंधकारकू भेदता संता पह आत्मा ज्ञानी होय, खिल काल पाएगावारि रहित भर सोभे है।
भावार्थ-जो सर्व अवस्थामैं व्यायै सो तो व्यापक, अर जे अवस्थाके विशेष ते व्याप्य । ऐसे होते द्रव्य तौ व्यापक हैं, अर पर्याय व्याप्य हैं । सो द्रव्यपर्याय अभेदरूप ही हैं। जो द्रव्यका 卐 आत्मा सो ही पर्यायका आत्मा, सो ऐसा व्याप्यप्यापकभाव तत्स्वरूपविय ही होय, अतत्स्वरूप
विर्षे नाहीं होय । तहां ऐसा सिद्ध होय है जो व्याप्यव्यापकमात्र विना कर्ताकर्मभाव न होय ऐसे जो जाने सो पुद्गलकै अर आत्माकै कर्ताकर्मभाव नाहीं जाने, तब ज्ञानी होय, कर्ताकर्मभावकरि ॥ रहित होय, ज्ञाता, द्रष्टा, जगतका साक्षीभूत होय है । आगें पूछे हैं, जो जीव पुद्गलकू जाने ताके पुद्गलकरि सहित कतृ कर्मभाव होय है, कि नाहीं होय है ? ऐसे पूछे उत्तर कहे हैं । गाथा
नीचे लिखी एक गाथाकी आत्मख्याति संस्कृत और हिन्दी टीका उपइन्ध नहीं है इसलिये नहीं छापी गई। म तात्पर्यवृत्ति टीका मिलती है वह छापी है।।
कत्ता आदा भणिदो ण य कत्ता केण सो उवाएण । धम्मादी परिणामे जो जाणदि सो हवदि णाणी ॥
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वि परिणमदि ण गिद्दह्णदि उपज्जदि ण परदव्वपज्जाये । गाणी जाणतो वि हु पुग्गलकम्मं अणेयविहं ॥ ८ ॥
नापि परिणमत न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये । ज्ञानी जानन्नपि खलु पुद्गलकर्मानेकविधं ॥८॥
आत्मख्यातिः--यतो यं प्राप्यं विकाय निर्वत्य व व्याप्यलक्षण पुद्गलपरिणामं कर्म पुद्गलद्रव्येण स्वयमं कर्याप फ्र
कत्वेन भूत्यादिमध्यांतेषु व्याप्य तं गृहता तथा परिणमता तथोत्पद्यमानेन च क्रियमाणं जानन्नपि हि ज्ञानी स्वयमं -
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को भूत्वा बहिःस्थस्य परद्रव्यस्य परिणामं मृचिकाकलशमिवादिमध्यांतेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति फ
न तथोत्पद्यते च । ततः प्राप्यं विकार्य निर्वत्यं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणामं कर्माकुर्वाणस्य पुद्गलकर्म जानतोषि
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ज्ञानिनः पुद्गलेन सह न कर्तृ कर्मभावः । स्वपरिणामं जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन कट कर्मभावः किं भवति किं न फ भवति इति चेत् ।
कर्त्ता आत्मा भणितः न च कर्त्ता केन स उपायेन ।
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धर्मादीन् परिणामान् यः जानाति स भवति ज्ञानी ॥
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तात्पर्य वृद्धिः - :--कचा आदा भणिदों कर्त्तात्मा भणितः ण य कता सो न च कर्त्ता भवति स आत्मा केण उवायेण
5 केनाप्युपायेन नयविभागेन । केन नयविभागेनेति चैव निश्चयेन अकर्त्ता व्यवहारेण कर्चेति । कान् धम्मादी परिणामे 55 पुण्यपापादिकर्मजनितोपाधिपरिणामान् जो जाणदि सो हवदि णाणी ख्यातिपूजालाभादिसमस्तरागादिविकल्पोपाधि15 रहित समाधौ स्थित्वा यो जानाति स ज्ञानी भवति । इति निश्चयrय व्यवहाराभ्यामकर्तृ त्वकथनरूपेण गाथा गता ।
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अथ पुलकर्म जानतो जीवस्य पुद्गलेन स तादाम्यसंबंधो नास्तीति निरूपयति ।
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अर्थ - आत्माको कर्त्ता और अकर्ता दोनों कहा है जो इस नय विभागको जानता है सो ही 5 ज्ञानी है अर्थात् आत्मा पुण्यपापादिका व्यवहारनयसे कर्ता है, करनेवाला है और निश्चयनयले अकर्ता है नहीं करनेवाला है जो इस प्रकार जानकर ख्याति पूजा लाभादि रहित हो आत्माका फ अनुभव करता है वह ज्ञानी है ।
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म अर्थ-ज्ञानी है सो अनेक प्रकार पुद्गल द्रव्यके पर्यायरूप ताके कर्म हैं तिनि जानता संता
है तौऊ निश्चयकरि परद्रव्यके पर्यायनिविर्षे तिनिस्वरूप परिणमे नाहीं है, बहुरि तिनीकू ग्रहण नाहीं करे है, बहुरि तिनिविर्षे नाहीं उपजे है।। ____टीका-जाते यह ज्ञानी है सो पुद्गलका परिणामस्वरूप जो कर्म ताकू जानता संता भी है। कैसा है पुद्गलकर्म ? सामान्यपणे कर्मका स्वरूप तीन प्रकार है। प्राप्य विकार्य निर्वयं । तहां प्राप्य कहिये जाकू सिद्ध भयेकू प्रहण करिये सो वहुरि विकार्य कहिये वस्तूकी अवस्था पलटना विकाररूप होना सो। बहुरि निर्वर्त्य कहिये जो अवस्था पहलै न थी सो उपजे सो। ऐसा कर्मका स्वरूप है सो पुद्गलका परिणाम तीनही स्वरूपकरि पुद्गलद्रव्यके व्यापने योग्य है। सो पुद्गल
द्रव्य आप अंदास होग पानि प्रा अन" ती भावनिविर्षे व्याप्यकरि ताकू ग्रहण करता फ़ है, बहुरि.तिसरूप परिणमता है, तिसस्वरूपकार उपजे है। ऐसे सो परिणाम पुद्गलद्रव्य ही करि क्रियमाण है ऐसेंकू ज्ञानी जानता है। तौऊ आप तिसविर्षे अंतर्व्यापक होयकार, बाह्य तिष्ठया जो परद्रव्य ताका परिणाम आदि मध्य अंतविर्षे व्याप्यकरि तिसरूप परिणमे नाहीं है। तिसकू' आप ग्रहण नाहीं करे हैं । तिसविवें उपजे नाहीं है। जैसे मृत्तिका घटरूप होय है, साकू ग्रहण करें है, ताकू उपजावे है, तैसें नाहीं है। ताते यह सिद्ध भया जोप्राप्यविकार्य निर्वय॑स्वरूप व्याप्यल- 5 क्षण परद्रव्यका परिणामस्वरूप कर्म, ताहि नाही करता संता, अर ताकू जानता संता जो ज्ञानी, - ताके पुद्गलकरि सहित कर्तृ कर्मभाव नाही है।
भावार्थ---पुद्गलकर्म... जीव जानता संता है, तोऊ ताके पुद्गलकरि सहित कर्तृ'कर्मभाव नाहीं है । जातें कर्म तीन प्रकारकरि कहिये है। के तो तिस परिणामरूप आप परिणमै, सो परिणाम । के आप काह• ग्रहण करे सो वस्तु । के काहूकू आप उपजावै सो वस्तु । सो ऐसें ॥१६॥ तीनही प्रकारकरि जीव है सो आपते न्यारा जो पुद्गलद्रव्य, तिसरूप परमार्थत परिणमे नाहीं । जाते आप चेतन है, पुद्गल जड है, चेतन जडरूप परिणमे नाहीं। बहुरि पुद्गलकू ग्रहण 7
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भी परमार्थतें नाहीं करे है जातें पुद्गल मूर्तिक है, आप अमूर्तिक है । अमूर्तिकका ग्रहण योग्य नाही । बहुरि पुद्गलकूं आप परमार्थते उपजावे भी नाही है । जातें चेतन जडकूं कैसे उपजावे ? 卐 ऐसें पुद्गल है तो जीवका कर्म नाही, जीव याका कर्ता नाहीं । जीवका स्वभाव ज्ञाता है, सो 卐 अपना ज्ञानरूप परिणमता खा सकूं जाने है। ऐसे जनता के परकरि सहित कतृ कर्मभाव काहे कूं होय ? आगे पूछे हैं, अपने परिणामनिकूं जानता संता जीवकै पुद्गलकर सहित कर्तृकर्म भाव है कि नाही है ? ऐसें पूछें उत्तर कहे हैं । गाथा-
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विपरिणमदि ण गिणदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाये । 卐 णाणी जाणतो विह सगपरिणामं अणेयविहं ॥९॥ नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये । ज्ञानी जानन्नपि खलु स्वकपरिणाममनेकविधं ॥९॥
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आत्मख्यातिः - यतो यं प्राप्यं विकार्य निर्वत्यं च व्याप्यलक्षणमात्मपरिणामं कर्म आत्मना स्वयमं तपकेन भूत्वादिमध्यांतेषु व्याप्य तं गृहणता तथा परिणमता तथोत्पद्यमानेन च क्रियमाणं जानमपि हि ज्ञानी स्वयमं तपपको 5 भूत्वा बहिःस्थस्य परद्रव्यस्य परिणामं मृत्तिकाकलश भिवादिमध्यांतेषु व्याप्य न तं गृणाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च । ततः प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्य च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणामं कमकुर्वाणस्य स्वपरिणामं जान5 तोपि ज्ञानिनः पुद्गलेन सह न कंतु कर्मभावः । पुद्गलकर्मफलं जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन कर्तु कर्मभावः किं भवति किं न भवतीति चेत् ।
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अर्थ - ज्ञानी है सो अपने परिणाम अनेकप्रकारनिकुं जानता संता प्रवर्तें हैं तौऊ परद्रव्य पर्यायविर्षे परिणये नाहीं है, ताकूं ग्रहण नाहीं करे है, ताविषै उपजै नाहीं है, तातें ताकरि 5 सहित कर्तृकर्मभाव नाहीं है ।
टीका - जातें ज्ञानी है सो - प्राप्य विकार्य निर्वत्य' ऐसें व्याप्य है लक्षण जाका ऐसा तीन
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卐 प्रकार कर्म, सो आत्माके अपना परिणाम ही है, ताही आपआप आपकरि अंतर्व्यापक होयकरि आदि फ्र 卐
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मध्य अंतविर्षे व्याप्यकरि तिसहीकू ग्रहण करे है, तिसहीरूप परिणमे है, तैसें ही उपजे है । याप्रकार तिसही अपना परिणामरूप कर्मकू करता संता है। तिसकूआप जानता संताभी बाघ तिष्ख्या - जो परद्रव्यका परिणाम ताकू "जैसें मृत्तिका कलशकू व्याप्यकरि करे है तेर्स" आप तिस पर-5 द्रव्यके परिणामविय आदि मध्य अंतविर्षे व्याप्यकरि न तो ताहि ग्रहण करे है, न तिसरूप परिणमे. है, न तैसे उपजे है। तातें प्राप्य, विकार्य, निवर्त्य तीन प्रकार व्याप्यलक्षण परद्रव्यका परिणाम-卐 रूप कर्म, ताहि न करता जो यह ज्ञानी, सो अपने परिणामकू जानता संता प्रवर्ते है। ताकै .. पुद्गलकरि सहित क कर्मभाव नाहीं है। ___ भावार्थ-पहली गाथामैं कह्या सो हो जानना। विशेष इतना--जो इहां अपना परिणामकू जानता संता जानी कहा है। बालों पूरे है, जो "इगलकर्म के फलकू जानता संता जीवकै पुद्गलकरि सहित कर्तृकर्मभाव है कि नाही?" ऐसें पूछे उत्तर कहे हैं। गाथा
णवि परिणमदि ण गिणदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए। णाणी जाणतो वि हु पुग्गलकम्मफलमणंतं ॥१०॥
नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये ।
ज्ञानी जानन्नपि खलु पुद्गलकर्मफलमनंत ॥१०॥ आत्मख्यातिः-यतो यं प्राप्यं चिकार्य नित्यं च व्याप्यलक्षणं सुखदुःखादिरूपं पुद्गलकर्मफलं कर्म पुलद्रव्येण स्वस्मंतापकेन भूत्वादिमध्यांतेषु व्याप्य तत्गृढ़ता तथा परिणमता तथोत्यधमानेन च क्रियमाणं जानन्नपि हि ज्ञानी ॥ " स्वयमंतापको भूत्वा बहिःस्थस्य परद्रव्यस्य परिणाम मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यांतेषु व्याप्य न तं गृहाति न तथा
परिणमति न तथोत्पद्यते च । ततः प्राप्य विकार्य निर्वयं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणामं कर्माकुर्वाणस्य सुखदुःखादिरूपं ॥१ पुद्गलकर्मफलं जानतोपि ज्ञानिनः पुद्गलेन सह न कई कर्मभावः । जीपरिणाम स्वपरिणाम सपरिणामफलं चाजानता पुद्गलद्रव्यस्य सह जोवेन क कर्मभावः किं भवति किं न भवतीति चेत्
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____ अर्थ-ज्ञानी है सो पुदगलकम के फल अनंत हैं तिनि जानता संता प्रवते है, तोऊ परमा- 卐 र्थत परद्रव्यके पर्याय विष नाहीं परिणमे है । तथा ताविर्षे कछू नाहीं ग्रहे है। तथा ताविय उप-.जे नाहीं है । ऐसें ताविर्षे याके कर्तृकर्मभाव नाहीं हे।
टीका-जातें प्राप्य, विकार्य, निर्वयं ऐसें व्याप्य है लक्षण जाका ऐसा तीनप्रकारका सुख- 5 दुःखादिरूप पुगलकर्मका फल, सो पुद्गलद्रव्य अंतापक होयकरि आदि, मध्य, अंतविर्षे व्याप्यकरि ताकू ग्रहण करता तथा तैसें परिणमता तथा तैसें ही उपजताकरि किया है, ताही + जानता संता जो यह ज्ञानी, सो आप अंतयापक होय करि बाह्य तिष्ठता परद्रव्यका परिणामकू "मृत्तिकाकलशकी ज्यौं” आदि, मध्य, अंत विर्षे व्याप्यकरि नाहीं ग्रहण करे है तथा तैसें परिणमे ॥ नाहीं है तथा तैसे उपजे नाहीं है । तौ कहा है ? प्राप्य विकार्य निर्वर्त्यरूप व्याप्यलक्षण अपना स्वभावरूप कर्म है, ताहि आप अंतापक होयकार, आदि, मध्य, अंतविष व्याप्य, तिसहीकू ग्रहण कर है, तैसे ही परिग है, ते ही उपजे है । सात प्राय विकार्य निर्वत्यरूप व्याप्यलक्षण परद्रव्यका परिणामरूप कर्म न करता संता सुखदुःखरूप पुद्गलकर्मका फल जानता संता । है तौऊ ज्ञानीक पुद्गलकरि सहित कतृ कर्मभाव नाहीं है।
भावार्थ-पहली गाथामैं कह्या सो ही जानना। आगें पूछे है, जो जीवके परिणामकू तथा अपने परिणामकू तथा अपने परिणामके फलकू नाहीं जानता ऐसा जो पुद्गलद्रव्य, ताकै जीवकरि 5 सहित कर्तृकर्मभाव है कि नाही है ? ऐसें पूछे उत्तर कहे हैं । गाथा
णवि परिणमदि ण गिणदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए। पुग्गलदव्वं पि तहा परिणमइ सएहिं भावेहिं ॥११॥
नापि परिणमति न गृह्मात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये । पुद्गलद्रव्यमपि तथा परिणमति स्वर्भावैः ॥११॥
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आत्मख्यातिः-यतो जीवपरिणाम स्वपरिणामं स्वपरिणामफलं चाप्यजानन् पुद्गलद्रव्यं स्वयमंतापकं भूत्वा । __परद्रव्यस्य परिणाम मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यांतेषु च्याप्य न तं गृहाति न तथा परिणमति न तथोत्पयते । किं तु प्राप्यं ॥
विकार्य निर्वत्यै च व्याप्यलक्षणं स्वभावं कर्म स्वपमतव्यापक भूत्वादिमध्यांतेषु व्याप्य तमेव गृहगाति तथैव परिण- शाम मति तथैवोत्पद्यते च । ततः प्राप्यं विकार्य निर्वयं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणाम कर्माकुर्वाणस्य जीवपरिणाम स्व.॥ परिणामं स्वपरिणामफलं चाजानतः पुद्गलद्रव्यस्य जीवेन सह न क कर्मभावः। ___ अर्थ-पुद्गलद्रव्य है सो भी परद्रव्य के पर्यायविर्षे तैसें नाहीं परिणमे है तथा तैसें ही (ताही)卐 ग्रहण नाही करे है तथा तैसें उपजे नाहीं है, जातें अपने ही भावनिकरि परिणमे है। ____टीका-जातें पुद्गलद्रव्य है सो जीवके परिणामकू बहुरि अपने परिणामकू तथा अपने परि। णामके फलकू नाहीं जानता संता वर्ते है। परद्रव्यके परिणामरूप कर्मकू मृत्तिकाकलशकी ज्यौं । आप अंतापक होयकरि आदिमध्यांतविर्षे व्याप्यकरि नाही ग्रहण करे है । तथा तैसें परिणमे " नाही है तथा तैसे उपजे नाही है। तो कहा है ! प्राप्य विकार्य निर्वर्त्यरूप व्याप्य लक्षण के अपना स्वभावरूप कर्मकू अंतर्व्यापक होयकरि आदिमध्यांतविष व्याप्य तिसहीकू ग्रहण करे है, तैसें ही परिणमे है तैसें ही उपजे है। तातें प्राप्यविकार्यनिर्वर्त्यरूप व्याप्यलक्षण परद्रव्यका ॥ परिणामस्वरूप कर्म न करता जो पुद्गलद्रव्य, सो जीवके परिणामकू तथा अपने परिणामकू .... तथा अपने परिणामका फलकू नाहीं जानता है । ताकै जीवकरि सहित कत कर्मभाव नाहीं है।
___ भावार्थ-कोऊ जानेगा, जो पुद्गल जड है, सो काहूकू जाने नाही, ताकै जीवकरि सहित ___ क कर्मभाव होगा । सो यह भी नहीं है । परमार्थते परद्रव्य साथी काहूहीकै कर्तृकर्मभाव नाही है। अब इसही अर्धका कलशरूप काव्य कहे हैं।
स्रग्धराछन्दः ज्ञानी जानन्नपीमा स्वपरपरिणति पुद्गलश्चाप्यजानन् व्याप्तृव्याप्यत्वमंतः कलयितुमसहौ नित्यमत्यंत मेदाद। अज्ञानात्क कर्मभ्रममतिरनयोर्माति तावन्न यावत् विज्ञानाश्चिश्चकास्ति नकचवददर्य भेदमुत्पाद्य सबः ॥५||
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जीवपुद्गल परिणामयोरन्योन्यनिमित्तमात्रत्वमस्ति तथापि न तयोः कर्तृ कर्मभाव इत्याह-
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अर्थ- ज्ञानी है सो तो अपनी अर परकी दोऊकी परिणतिकुं जानता संता प्रवर्ते है । बहुरि पुद्गल है सो अपनी अर परकी दोऊ ही परिणतिकूं नाहीं जानता संता प्रवर्ते है । तौऊ ते दौऊ परस्पर अंतरंग व्याप्यव्यापकभावकू प्राप्त होनेकू असमर्थ हैं । जातें दोऊ भिन्नद्रव्य हैं । सो सदाकाल तिनिकै अत्यंत भेद है । सो ऐसें होतें, इनिकै कर्तृकर्मभाव मानना भ्रमबुद्धि है । सो 卐 जेतें इनि दोऊनिकै करोतकी ज्यौं निर्दय होय तत्काल भेदकूं उपजाय भेदज्ञान है ज्वाला यहु 5 प्रकाश जाकै ऐसा ज्ञान प्रकाश न होय तेतें ही है ।
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भावार्थ-भेदज्ञान भये पीछे पुद्गलकै अर जीवकै कर्तृ कर्मभावकी बुद्धि न रहे। जातें जेतें
5 भेदज्ञान नाही होय तेतें ही अज्ञानतें कर्तृ कर्मभावकी बुद्धि है। आगे कहे हैं, जो जीवके परि- 455 णामके अर पुद्गल परिणामके परस्पर निमित्तमात्रपणा है, तौऊ तिनि दोऊनिकै कर्तृकर्मभाव
तौ नाहीं है । गाथा
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जीवपरिणामहेदुं कम्मतं पुग्गला परिणमति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमदि ॥ १२ ॥
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गवि कुव्वदि कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । अण्णोणणिमित्तेण द परिणामं जाण दोहणंपि ॥ १३ ॥
एदेण कारणेण दु कत्ता आदा सएण भावेण । पुग्गलकम्मकाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं ॥ १४ ॥ जीवपरिणामहेतु कर्मत्वं पुद्गलाः परिणमति ।
पुद्गलकर्मनिमित्तं तथैव जीवोपि परिणमति ॥ १२॥
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नापि करोति कर्भगुणान् जीवः कर्म तथैव जीवगुणान् । अन्योन्यनिमित्तेन तु परिणामं जानीहि द्वयोरपि ॥१३॥ एतेन कारणेन तु कर्ता आस्मा स्वकेन भावेन ।
पुद्गलकर्मकृतानां न तु कर्ता सर्वभावानां ॥१४॥ आत्मख्याति:-यतो जीवपरिणामं निमिचीकृत्य पुद्गलाः कर्मत्वेन परिणमंति पुद्गलकर्मनिमिगीकृत्य जीवोपिक परिणमतीति जीवपुद्गलपरिणामयोरितरेतरहेतुत्वोपन्यासेपि जीवपुद्गलयोः परस्परं व्याप्यन्यापकभावाभावाज्जीवस्य पुद्गलपरिणामानां पुद्गलकर्मणोपि जीवपरिणामानां कत कर्मत्वासिद्धौ निमिरानैमित्तिकभावमात्रस्याप्रतिषित्त्वादितरे-4 तरनिमित्तमात्रीभवनेनैव द्वयोरपि परिगामः । ततः कारणान्मृचिकया कलशस्त्रेव स्वेन भावेन स्वस्य भावस्य करणाज्जोवः स्वभावस्य कर्चा कदाचित्स्यात् । मृतिकया वसनस्येव स्वेन भावेन परमात्रस्य कतु मशक्यात्वात्सुद्गलभावानां तु कर्ता ॥ न कदाचिदपि स्यादिति निश्चयः । ततः स्थितमेतज्जीवस्य स्वारिगामेरेव सह का कर्ममावो भोक्तभोग्यभावश्च ।।
अर्थ-पुद्गल हैं ते जीवके परिणाम हैं निमित जाकू ऐसा कर्मवणारूप परिणमे हैं । तैसें ही 卐 जीव है सो भी पुद्गलकर्म है निमित्त जा• ऐसा कर्मपणारूप परिणमे है । बहुरि जीव है सो तो ..
कर्मके गुणनिकू नाही करे है। बहुरि तेसें ही कर्म है सो जीवके गुणनिकू नाही करे है। इनिज 卐 दौऊनिकै परस्पर निमितकरि परिणाम जानूं । इस कारणकरि आत्मा कर्ता कहिये है सो अपने , ही भावकरि है। बहुरि पुद्गलकर्मकरि किये भाव हैं तिनिका तो सर्व ही का कर्त्ता नाही है।
टीका-जाते जीवपरिणाम निमित्तमात्रकरि पुद्गल है सो कर्मभावकरि परिणमे है। ज बहुरि पुद्गलकर्मकू निमित्तमात्रकरि जीव भी परिणमे है। ऐसे जीवके परिणामकै अर पुद्गलके ...
परिणामकै परस्पर हेतुपणाका स्थापन होतें भी जीवकै अर पुद्गलके परस्पर व्याप्य व्यापकभावके फ़ + अभावते जीवके तौ पुदगलपरिणामनिका अर पुदगलकर्मके जीके परिणामनिका कर्ताकर्म
पणाकी असिद्धि होते निमित्तनैमित्तिक भावमात्रका प्रतिषेध नाहीं है । यातें परस्पर निमित्तमात्र + होनेही करि दोऊनिका परिणाम है, तिसकारणतें मृत्तिका कलशको ज्यौं अपने भावकरि अपने
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म भावके करणेते जीव है सो अपने भावका कर्ता सदाकाल होय है । बहुरि मृत्तिका जैसे कपडाका
कर्ता नाहीं तैसे अपने भावकरि परके भावका करनेका असमर्थपणातें पुद्गलके भावनिका तौ .. कर्ण कदाचित् भी नाहीं है ऐसा निश्चय है ।
भावार्थ-जीव पुद्गल परिणामनिकै परस्पर निमित्तमात्रपणा है, तोऊ परस्पर कर्तृकर्मभाव तौ नाही है। परके निमिरातें अपने भाव भये तिनिका तौ अज्ञानदशामें कदाचित् को कहिये " 卐 भी अर परभावका तो कत्र्ता कदाचित् भी नाही है। आर्गे कहे हैं, जो इस हेतुते यह ठहरीजीवके अपने परिणामनि ही करि सहित कतृ कर्मभाव अर भोक्तृभोग्यभाव है । गाथा
णिच्छयणयस्य एवं आदा अप्पाणमेव हि करेदि। वेदयदि पुणो तं चेव जाण अत्ता दु अत्ताणं ॥१५॥
निश्चयनयस्यैवमात्मात्मानमेव हि करोति ।
वेदयते पुनस्तं चैव जानीहि आत्मा त्वात्मानं ॥१५॥ आत्मख्यातिः-यथोचरंगनिस्तरंगावस्ययोः समीरसंचरणासंचरणनिमित्तयोरपि समीरपारावारयोाप्यन्यापकमावा- प्र भावात्कत कर्मवासिद्धौ पारावार एव स्वयमंतापको भूत्वादिमध्यांतेत्तरंगनिस्तरंगावस्थे च्याप्योत्तरंग निस्तरंगं 卐 वात्मानं कुर्वन्नात्मानमेकमेव कुर्वन् प्रतिभाति न पुनरन्यत् । यथा स एव च भाव्यभावकभावाभावात्परभावस्य परेमानु- फ़ • भवितुमशक्यत्वादुत्तरंग निस्तरंगं त्वात्मानमनुभवनात्मानमेकमेवानुभवन् प्रतिभाति न पुनरन्यत् । तथा संसारनिःसंसा
रावस्थयोः पुद्गलकर्मविपाकसंभवासंभवनिमित्तयोरपि पुद्गलकर्मजीवयोाप्यव्यापकभावाभावात्कट कर्मत्वासिद्धौ जीव ' ' एव स्वयमंतापको भूत्वादिमध्यांतेषु ससंसारनिःसंसाराबस्थे च्याप्प ससंसार निःसंसारं वात्मानं कुर्वन्नात्मानमेकमेव 卐 कुर्वन् प्रतिभातु मा पुनरन्यत् । तथायमेव च भाव्यभावकभावाभावात् परभावस्य परेणानुभवितुमशक्यत्वात्ससंसारं निःसं- 5 _____ सारं वात्मानमनुभवन्नात्मानमेकमेवानुभवप्रतिभातु मा पुनरन्यत् । अथ व्यवहारं दर्शयति ।
अर्थ-निश्चयनयका यह मत है, जो आत्मा है सो आपहीकू करे है बहुरि आपहीकू वेदे है ॥ भोगवे है, हे शिष्य, तू ऐसे जानि ।
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टीका-तहां प्रथम दृष्टांत-जैसें पवनका चालना न चालना है निमित्त जिनिक ऐसी जोर “समुद्रके विर्षे तरंगका उठना अर विलय होना रूप' दोऊ अवस्था तिनिके पवनके अर समुद्र के व्याप्यव्यापकभावके अभावतें कर्ताकर्मपणाकी असिद्धि होते, समुद्र है सोही आप 4 तिनि अक्स्थानिविर्षे अंतर्व्यापक होयकार आदिमध्यांतविबै तिनि अवस्थानिमें व्याप्यकरि उत्तरंग निस्तरंगरूप आपहीकू करता संता आपही एककू करता संता प्रतिभासे है। कोई फ़ औरकू तौ नाहीं करता है तैसें ही सोही समुद्र तिस पवनकै अर समुद्रके भाव्यभावक भावका अभावतें परभावके परकार अनुभक्न करनेका असमर्थपणातें उत्तरंगनिस्तरंगस्वरूप : आपहीकू अनुभवता संता प्रतिभासे है और कोई अनुभवै नाही है। तैसेंही दार्टात है-जो पुद्गलकर्मका उदयका संभव असंभव है निमिन जा ऐसी जो ससंसार अर निःसंसार ए दोऊ अवस्था ताका पुद्गलकर्मके अर जीवके व्याप्यव्यापकपणाका अभावतें कर्ताकर्मपणाकी असिद्धि है। यातें जीव है सो आप अंतापक होयकरि आदिमध्यांतविधैं ससंसारनिःसंसार " अवस्थामै व्याप्पकरि ससंसारनिःसंसाररूप आत्माकू करता संता आपहीकू करता प्रतिभासो, अन्यकू करता मति प्रतिभासो । तैसे ही यहही जीव भाव्यभावकभावके अभावतें परभावकें परकरि अनुभवन करनेका असमर्थपणा है, तातें ससंसारनिःसंसाररूप आमाही अनुभवता ॥ संता आपहीकू अनुभवन करता प्रतिभासो, अन्यकू करता मति प्रतिभासो।।
भावार्थ-आत्माके ससंसारनिःसंसार अवस्था है सो परद्रव्यपुद्गलकर्मके निमित्तते है। 卐 तहां तिनि अवस्थारूप आपही परिणमे है। तातें आपहीका कर्ता भोक्ता है, निमित्तमात्र 1 पुद्गलकर्म है, ताका तौ कर्ता भोक्ता नाहीं है । आगें व्यवहारकू दिखावे हैं । गाथा
ववहारस्स दु आदा पुग्गलकम्मं करेदि अणेयविहं। तं चेव य वेदयदे पुग्गलकम्मं अणेयविहं ॥१६॥
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व्यवहारस्य वात्मा पुद्गलकर्म करोति नैकविधं ।
तच्चेव पुनर्वेदयते पुद्गलकर्मानेकविधं ॥१६॥ आत्मख्यातिः-यथांताप्यव्यापकभावेन मृचिकया कलशे क्रियमाणे भाव्यभावकभावेन मृत्तिकयैवानुभूयमाने च पहिाप्यन्यापकभावेन कलशसंभवानुकूलं व्यापार कुर्वाणः कलशकृततोयोपयोगजां तृप्ति भाव्यभावकभावनानुभवंश कलालः कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूदोस्ति वावद् व्यवहारः, तांताप्यन्यापकभावेन पुद्गलद्व्येण कर्मणि क्रियमाणे भाव्यभावकभावेन पुगलद्रव्येणेवानुभूयमाने च यहिाप्यव्यापकभावेनाज्ञानात्युद्गलकर्मसंभवानुकूलं , परिणामं कर्मणः पुद्गलकर्मविपाकसंपादितविषयसनिधिप्रधावितां सुखदुःखपरिणति भाव्यभावकभावनानुभवंश्च जीवः । पुद्गलकर्मकरोत्यनुभवति चेत्यज्ञानिनामासंसारप्रसिद्धोस्ति तावद्वयवहारः। अथैनं दृष्यति ।
अर्थ-व्यवहारनयका यह मत है, जो आत्मा अनेक प्रकार पुद्गलकर्म करे है। बहरि तिसही" अनेक प्रकार पुद्गलकर्मकू वेदे है भोगवे है।
टीका-तहां प्रथम दृष्टांत कहे हैं-जैसें मृत्तिका कलशकू करे है अर भोगवे है सो अंतव्याप्यव्यापकभावकरि करे है, तथा भाव्यभावक भावकरि भोगवे है। तोऊ बाह्य व्याप्यव्यापक भावकरि ॥ कलश होनेवि संभवे तिसके अनुकूलव्यापारकू अपने हस्तादिककार करता अर कलशकरि किया । जो जलका उपयोगते भया तृप्तिभाव ताकू भाव्यभावकभावकरि अनुभवन करता भोगवता जो
भकार ताक लोक कहे हैं, जो इस कलशकू कुभकार करे है तथा भोगवे है, ऐसा लोकनिका 4 अनादित प्रसिद्ध भया व्यवहार प्रवर्ते है । तेसैं ही दाटीत है जो पुद्गलकर्म अंताप्यव्यापकभावकरि पुद्गलद्रव्य करे है अर भाव्यभावकभावकरि पुद्गलद्रव्य ही अनुभवे है भोगवे है। तोऊ ॥ वाद्य व्याप्यव्यापकभावकरि अज्ञानतें पुद्गलकमके होनेके अनुकूल अपना रागादिपरिणाम करता ..
अर पुदगलकर्मके उदयकरि निपजाई जो विषयनिकी समीपता तातें दोडी जो अपनी सुखदुःखम रूप परिणति ताक् भाव्यभावक भावकरि अनुभवता भोगवता जो जीव सो पुद्गलकर्म करे है भागवे है। ऐसे अज्ञानी लोकनिका अनादि संसारतें लेकरि प्रसिद्ध भया व्यवहार प्रवते है।
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9 भावार्थ-पुद्गलकर्मकू परमार्थत पुद्गलद्रव्य ही करे है, अर पुद्गलकर्मक होने मनुकूल है
अपना रागादि परिणामकू जीव करे है, तिसका निमित्त नैमित्तिभावकू देखिकरि अज्ञानीके यह भूम +है, जो पुद्गलकर्मक जीव ही करे है सो अनादि अज्ञानतें प्रसिद्ध व्यवहार है। जीवपुदगलका , भेदज्ञान नाही है, तेतें दोऊकी प्रवृत्ति एककीसी ही दीखे है । तातें जेतें भेदज्ञान न होये जेते
दीखे सो कहे, श्रीगुरु भेदज्ञान कराय परमार्थजीवका स्वरूप दिखाय अज्ञानीके प्रतिभास... व्यवहार कहै हैं । आगें इस व्यवहारकू दूषण दे है । गाथा
जदि पुागलकम्ममिणं कुव्वदि तं चेव वेदयदि आदा। दो किरियावादित्तं पसजदि सम्मं जिणावमदं ॥१७॥
यदि पुद्गलकर्मेदं करोति तच्चेव वेदयते आत्मा ।
द्विक्रियाव्यतिरिक्तः प्रसजति स जिनावमतं ॥१७॥ आत्मख्यातिः-इह खलु क्रिया हि तापदखिलापि परिणामलक्षणतया न नाम न परिणामतोस्ति भिमा, परिणा卐 मोपि परिणामपरिणामिनोरभिन्नवस्तुत्वात्परिणामिनो न भिन्नस्ततो या काचन क्रिया किल सकलापि सा क्रियावतो है
न भिन्नति क्रियाकौरव्यतिरिक्ततायां वस्तुस्थित्या प्रतपस्यां यथा व्याप्यन्यापकभावेन स्वपरिणामं करोति, भाज्य卐 भावकभावेन तमेवानुभवतिश्च जीवस्तथा व्याप्यच्यापकभावेन पुद्गलकर्मापि यदि कुर्यात् भाव्यभावकभावेन तदेशानु-卐
भषेञ्च ततो यं स्वपरसमवेतक्रियाद्वयाव्यतिरिक्ततायां प्रमजंत्यां स्वपरयोः परस्परविभागप्रत्यस्तममादनेकात्मकमेकमात्माफ्र नमनुभवन्मिध्यादृष्टितया सर्वज्ञावमतः स्यात् । कुतो द्विक्रियानुभावी मिध्यादृष्टिरिति चेत् ।
_ अर्थ--जो आत्मा इस पुद्गलकर्मकू करे है बहुरि तिसहीकू वेदे है भोगवे है, तौ सो आत्मा
दोय कियातें अभिन्न ठहरे ऐसा प्रसंग आवे है सो यह जिनदेवका मत नाहीं। पर टीका-इस लोकवि जो क्रिया है सो प्रथम तौ समस्तही परिणामस्वरूप है, तातें परिणाम
ही है, किछू भिन्न वस्तू नाहीं । बहुरि परिणाम है सो भी परिणाम अर परिणामी द्रव्य दोऊ
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5 अभिन्न वस्तु हैं, न्यारे न्यारे दोय वस्तु नाहीं । तातें परिणाम परिणामीर्ते भिन्न नाहीं । तातें 卐 यह ठहरथा, जो किछू किया है सो क्रियावान् द्रव्यतें भिन्न नाहीं है । ऐसें क्रियाका अर क्रियावान्का अभेदपणा है। ऐसी वस्तुकी मर्यादा होती संती, जैसा जीव व्याप्यव्यापक भावकरि, अपने परिणाम करे हैं, अर भाव्यभावकभावकरि तिसही अपने परिणाम अनुभवे है, भोगवे 5 है, तेसे ही व्याप्यव्यापकभावकरि पुद्गलकर्म भी करे तथा भाव्यभावभावकरि तिसहीकूं 57 अनुभवे भोगवे, तौ अपनी अर परकी मिली जो दोय क्रिया, तिनका अभिन्नपणा ठहरथा । ऐसा प्रसंग होते, अपना अर परका विभागका अभाव भया । तब ऐसे अनेक द्रव्यस्वरूप एक फ 5 आत्माकूं अनुभवता संता, मिध्यादृष्टि होय है, जातें ऐसा वस्तुस्वरूप जिनदेव कझा नाही, तातें जिनके मत बाह्य है।
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जह्मा दु अत्तभावं पुग्गलभावं च दोवि कुव्वंति ।
तेण दुमिच्छादिठ्ठी दोकिरियावादिणो हुंति ॥ १८॥ तस्मात्स्वात्मभावं पुद्गलभावं च द्वावपि कुर्वति ।
तेन तु मिथ्यादृष्टय द्विकियात्रादिनो भवति ॥ १८ ॥
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भावार्थ - दोय द्रव्यकी क्रिया भिन्न ही है । जडकी क्रिया चेतन करे नाहीं, चेतनकी किया जड करे नाहीं । जो पुरुष दोऊ क्रियाकूं एकद्रव्य करता माने, सो मिध्यादृष्टि है, जातें दोय aorat किया एक out मानना यहु जिनका मत नाहीं । आगें फेरि पूछे है, जो एकपुरुष दोय फ 5 क्रियाका अनुभवन करनेवाला मिथ्यादृष्टि कैसे ? ताका समाधान करे हैं। गाथा
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आत्मख्यातिः:--यतः किलात्मपरिणामं पुद्गउपरिणामं च कुर्वं तमात्मानं मन्यते द्विक्रियावादिनस्तवस्ते मिध्यादृष्टय १७
एवेति सिद्धांतः । भावैकद्रव्येण द्रव्यद्वयपरिणामः क्रियमाणः प्रतिभातु । यथा किल कुलालः कलशसंभवानुकूलमात्मन्या
卐 पारंपरिणाममात्मनो व्यतिरिक्तमात्मनोऽन्यतिरिक्ततया परिणतिमात्रया क्रियया क्रियमाणं कुर्वाणः प्रतिभाति न पुनः फ
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कलाकारणाहंकारनिर्मरोपि स्वव्यापारानुरूपं मृत्तिकायाः कलशपरिणामं मृत्तिकायाः अन्यतिरिक्कमृत्तिकायाः अन्यतिरिक्ततया परिणतिमात्रया क्रियया क्रियमाणं कुर्वाणः प्रतिभाति। तथात्मापि पुद्गलकर्मपरिणामानुकूलमज्ञानादात्मपरि- ..
पाममात्मनोऽव्यतिरिक्तमात्मनो व्यतिरिक्ततया परिणतिमात्रया क्रियया क्रियमाणं कुर्बाणः प्रतिभातु मा पुनः पुद्गल प्रा म परिणामकरणाहंकारनिर्भरोपि स्वपरिणामानुरूपं पुद्गलस्य परिणामं पुद्गलादय्यतिरिक्तं पुद्गलादव्यतिरिक्तया परिणति.
भावा किया किमान ः प्रतिभानु ! ___ अर्थ-जातें आत्माके भावकू अर पुद्गलके भावकू दोऊहीकू आत्मा करे है ऐसें कहे हैं, तिप्त कारणते दोय क्रिया एकहीकै कहनेवाले मिथ्यादृष्टि ही हैं।
टीका-जाते निश्चयतें आत्माके परिणामकू अर पुद्गलके परिणामकू करता आत्माकू जेज माने हैं, ते दोऊ क्रिया एकहीके कहनेवाले हैं ते मियादृष्टि ही हैं, ऐसा सिद्धांत है। सो एकद्रव्य
करि दोय परिणाम किये हुये भति प्रतिभासो। जैसे कुभकार है सो कलशके होनेके अनुकूल । 卐 अपना व्यापाररूय हस्तादिक क्रिया तथा इच्छारूप परिणाम आपते अभिन्न तथा आपतें अभिन्न म
परिणतिमात्र क्रियाकरि किया हुवाकू करता संता प्रतिभाते है, बहुरि कलश करनेके अहंकार म करि सहित है, तौऊ मृत्तिकाका मृत्तिका के व्यापारके अनुरूप कलशपरिगाम मृत्तिकातें अभेद-4
रूप तथा मृत्तिकातें अभिन्न मृत्तिकापरिगतिमात्र क्रियाकरि किया हुवा ताकू करता संता नाहीं प्रतिभासे है। तैसें ही आना भी अज्ञानतें पुद्गलकर्म के परिणामकै अनुकूल अपने परिणाम : आयतें अभिन्नकू, आपते अभिन्न जो अपनी परिगतिमात्र क्रिया, ताकरि किया हुबाकू करता संता प्रतिभासो। बहुरि पुद्गलके परिणामका करनेका अहंकारकरि सहित है तोऊ पुद्गलके परिणामके अनुरूप पुद्गलने अभिन्न जो पुद्गलका परिणाम, पुद्गलहीत अभिन्न जो पुगलकी परिणतिमात्र क्रिया, तिसकरि किया हुवा ताकू करता संता मति प्रतिभासो।
भावार्थ-आत्मा अपने ही परिणाम... करता संता प्रतिभालो। पुद्गलके परिणामकू तो 1. करता मति प्रतिभातो । याहीतें आत्माकी अर पुद्गलकी दोऊ क्रियाकू एक आत्माहीकी
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माननेवालाकू मिथ्यादृष्टि कहा है । जड चेतनकी एक क्रिया होय तो सर्वव्य पलटते सर्वका । फ़ लोप होय है, यह बडा दोष उपजे । अब इसही अर्थ के समर्थन कलारूप काव्य कहे हैं। '
___ आर्याछन्दः 5 यः परिणमति स का यः परिगामो भोत्तु तत्कर्म । या परिगतिः क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया ॥६॥ ॥ ____ अर्थ-जो परिणमे है सो करी है, वहुरि जो परिणया ताका परिणाम है सो कर्म है, बहुरि
जो परिणति है सो क्रिया है ए तीनू ही वस्तुपगाकर भिन्न नाहीं हैं। - भावार्थ ---- अन्यहतिकारि परिणाम र परिणाका अभेद है अर पर्यायष्टिकरि भेद है।।। " तहां भेददृष्टिकरि तौ कर्ता, कर्म, क्रिया तीन कहिये हैं । अर इहां अभेदष्टिकरि परमार्थ कहा "
है, जो कर्ता, कर्म, किया तीनू ही एक द्रव्यको अवस्था है प्रदेशभेदरूप न्यारे वस्तु नाहीं है।'
फेरि कहे हैं। 卐 एकः परिणमति सदा परिणामो जायते सदैकस्य । एकस्य परिगविः स्यादनेकमप्येकमेव यतः ।।७||
अर्थ-वस्तु एक ही सदा परिगमे है, बहुरि एकहोकै सदा परिणाम उपजे है, अवस्थासू अन्य अवस्था होय है । बहुरि एकहीके परिणति क्रिया होय है । जाते अनेकरूप भया तौऊ एक, ही वस्तु है भेद नाहीं है।
भावार्थ-एक वस्तके अनेकार्याय होय हैं, तिनि परिणाम भी कहिये अवस्था भी कहिये। । ते संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजनादिक करि न्यारे न्यारे प्रतिभासरूप हैं तौऊ एक वस्तु ही है, + " न्यारे नाहीं है, ऐसा ही भेदाभेद स्वरूप वस्तूका स्वभाव है। फेरि कहे हैं। 卐 नोमो परिणमाः खलु परिणामो नोभयोः प्रजायेत । उभयोन परिणतिः स्याद्यदनेकमनेकमेव सदा ॥८॥
अर्थ-दोय द्रव्य हैं सो एक होय परिगमे नाहीं है बहुरि दोय व्यका एक परिणाम नाहीं ।। होय है बहुरि दोय द्रव्यको परिणतिक्रिया एक नाही होय है । जाते जो अनेक द्रव्य है सो" अनेक ही है, पलटिकरि एक नाही होय है।
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9 भावार्थ-दोय वस्तू हैं ते सर्वथा भिन्न ही हैं प्रदेशभेदरूप ही हैं, दोऊ एक होय परिणमै ।
नाहीं, एक परिणाम उपजावे नाही, क्रिया एक होय नाहीं । ऐसा नियम है, जो दोय द्रव्य । एक होय परिणमे तो सर्व द्रव्यनिका लोप हो जाय । फेरि इस ही अर्थकू दृढ करे हैं।
आर्याछन्दः नैकस्य हि कर्तारी द्वौ स्तो द्वे कर्मणो न चैकल्प । नैकस्य च क्रिये द्वे एकमनेकं यतो न स्यात् ॥६॥ ___अर्थ-एक द्रव्यका दोय कर्ता न होय, बहुरि एक द्रव्यका दोय कर्म न होय, बहुरि एक द्रव्यकी दोय .क्रया न होय । जातें एक द्रव्य हे सो अनेक द्रव्य होय नाहीं।।
भावार्थ-यह निश्चयनयकरि नियम है सो शुद्धद्रव्याथिकनय करि का जानना । अब कहे हैं, जो आत्माकै अनादित परद्रव्यका कर्ताकर्मपणाका अज्ञान है सो जो यह परमार्थनयका पहणकरि एक बार भी विलय होय तो फार न आवै।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः आसंसारत एव धावति परं कुर्वेहमित्युच्चकैः दुर्वारं ननु मोहिनामिह महाहंकाररूपं तमः ।
सन् नार्थपरिग्रहेण विलयं पकवारं ब्रजेन् तरिक ज्ञानयनस्य बंधनमहो भूगो भोदात्मनः ॥१०॥
अर्थ-इस जगतविर्षे मोही अज्ञानी जीवनिका “यह मैं परद्रव्यकू करूं हूं" ऐसा परद्रव्यका॥ के कर्तृत्वका अहंकाररूप अज्ञानांधकार अनादि संसारतें लगाय चन्या आये है। कैसा है ? अति
शयकरि दुर्वार है निवारथा न जाय है। सो आचार्य कहे हैं, जो शुद्यार्थिक अभेदनय परमार्थ है सत्यार्थ है, ताका ग्रहणकरिके जो एक बार भी नाश हो जाय तो यह जीव ज्ञानयन है सो यथार्थज्ञान भये पीछे कहां ज्ञान जाता रहै ? नाहीं जाय, अर ज्ञान न जाय तर कहाँ फेरि अज्ञा-" नतें बंध होय ? कदाचित् नाही होय । __ भावार्थ-इहां तात्पर्य ऐसा, जो अज्ञान तौ अनादि हो का है, परन्तु दर्शनमोहका नाशकरि एक बार यथार्थज्ञान होयकरि क्षायिकसयक्व उपजे तौ फेरि मिथ्यात्व नाही आवे तबक
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मिथ्याखका बंध न होय अर मिथ्यात्र गये पीछे संसारका बन्धन काहेकू रहै ? मोक्ष हो पावै ऐसा जानना । फेरि विशेषकर कहे हैं।
अनुष्टुप छन्दः ___ आत्मभावान्करोत्यात्मा परभावान्सदा परः । आत्मैव ह्यात्मनो भायाः परस्य पर एव ते ॥११॥ ___ अर्थ-आत्मा है सो तो अपने भावनिकू करे है बहुरि परद्रव्य है सो परके भावनिकू करे है। - मासे अपने भाव है से सो आरही हैं बहुरि परभाव हैं ते पर ही हैं यह नियत है। आगें पर. द्रव्यका कर्ताकर्मपणाकै माननेकू अज्ञान कह करि कया, जो ऐसें माने सो मिथ्यादृष्टि है, तहां आशंका उपजे है, जो यह मिथ्यात्वादि भाव कहा वस्तु है ? जो जीवके परिणाम कहिये तो पूर्वेरागादिभावनिकू पुद्गलके परिणाम कहे हैं तातें विरोध आवे है बहुरि पुद्गलके परिणाम ॥ कहिये तो जीवका प्रयोजन नाही, याका फल जीव काहे पावै ? ऐसी आशंका दूर करने कहे हैं। गाथा
नीचे लिखी एक गाथाकी आत्मख्याति संस्कृत और हिन्दी टीका उपलग्ध नहीं है इसलिये नहीं छापी गई । तात्पर्यचि टीका मिलती है यह छपी है।
पुग्गलकम्मणिमित्तं जह आदा कुणदि अप्पणो भावं। पुग्गलकम्मणिमित्तं तह वेददि अप्पणो भावं॥
पुद्गलकर्मनिमित्तं यथात्मा करोति आत्मनः भावं । - पुद्गलकर्मनिमित्तं तथा वेदयति आत्मनो भावं ॥ वात्पर्यवृतिः—पुग्गलकम्मणिमिनं जह आदा फुणदि अप्पणी भावं-उदयागतं द्रव्यकर्मनिमिचं कृत्वा यथात्मा के निर्विकारस्वसंवित्तिपरिणामशून्यः सन्करोत्यात्मनः समधिन सुखदुःखादिमा परिणामं, पुमगलकम्मणिमिर तह वेददि अपणो भाव-तथैवोदयागवद्गम्यकर्मनिमिचं लग्बा स्वशुद्धात्ममावनोत्ववास्तवसुखास्वादमवेदयन्सन् तमेव कर्मोदयजनि ॥
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मिच्छत्तं पुण दुविहं जीवमजीवं तहेव अण्णाणं । अविरंदि जोगो मोहो कोषादीया इमे भाषा ॥ १९॥ मिथ्यात्वं पुनद्वविधं जीवोऽजीवस्त देवाज्ञानं । अविरतियोगो मोहः क्रोधाचा इमे भावाः ॥ १९ ॥
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जात्मख्यातिः - मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयो हि भावाः ते तु प्रत्येकं मयूरमुकरंदवज्जीवाजीवाम्यां भाग्य5 मानत्वाज्जीवाजीवौ । तथाहि- - यथा नीलकृष्णहरितीतादयो भावाः स्वद्रव्यस्वभावत्वेन मयूरेण भाग्यमानाः मयूर एवं 55
यथा च नीलहरितपीतादयो भावाः स्वच्छताविकारमात्रेण मुकुरंदेन भाव्यमाना मुकुरंद एव । तथा मिथ्यादर्शनमज्ञानम
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5 वितिरित्यादयो मात्रा: स्वद्रव्यस्वभावत्वेनाजीवेन मान्यमाना अजीव एव । तथैव च मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरविरित्या - 57 यो मावाश्चैतन्यविकारमात्रेण जीवेन भव्यमाना जीव एव । काविह जीवाजीवाविति चेत् ।
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अर्थ- पहली गाथामै दोय क्रियावादी मिथ्यादृष्टी कया था। ताका जोडकू पुनः शब्द है 5
सो कहे हैं। मिथ्यात्व कहा सो दोय प्रकार है, एक जीव मिध्यात्व, एक अजीव मिध्यात्व । बहुरि
5 तैसें ही अज्ञान भी दोय प्रकार, जीव अजीव । बहुरि तैसें ही अविरति, योग, मोह, क्रोधादि 5
कषाय जीव अजीव भेवकरि दोय दोष प्रकार ए सर्व ही भाव हैं।
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टीका - मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति, इत्यादिक जो भाव हैं ते प्रत्येक न्यारे न्यारे मयूर अर
5 दर्पणकी ज्यौं जीव अजीव करि भाये हुए हैं। तातें जीव भी हैं अजीव भी हैं । सो ही कहे हैं फ्र
5 तस्वकीयरागादिभावं वेदयत्यनुभवति । न च द्रव्यकर्मरूपपरभावमित्यभिप्रायः । अथ चिद्रूपानात्मभावानात्मा करोति 5
तथैवाचिद्रूपान् द्रव्यकर्मादिपरभावान् परः पुद्गलः करोतीत्याख्याति ।
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अर्थ - पुद्गल कर्मों के निमित्तसे आत्मा जिस प्रकार भाव करता है उसी प्रकार पुद्गल के निमित्त उसके फलको भोगता है ।
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है जैसे मयूरके नील, कृष्ण, हरित, पीत आदि वर्ण रूप भाव हैं ते मयूर निजस्वभावकरि भाये है
हुये मयूर ही हैं। बहुरि जैसे दर्पणविर्षे तिनि वर्णनिका प्रतिबिम्ब दीखे है ते दर्पणकी स्वच्छता
निर्मलताका विकारमात्रकरि भाये हुये ते दर्पण ही हैं । मयूरकी अर आरसाकी अत्यन्त भिन्नता ॥ 1- है। तैसें ही मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादिक भाव हैं ते अपने अजीवके द्रव्यस्वभावकरि ..
। अजीवपणेकरि भाये हुये ते अजीव ही हैं । बहुरि ते मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति आदि भाव ' ज, चैतन्यके विकारमात्रकरि जीवकरि भाये हुये जीव ही हैं।
भावार्थ-कर्म के निमित्ततें जीव विभावरूप परिणमे हैं ते तौ चेतनके विकार हैं, ते जीव हैं।" 卐 बहुरि जे पुद्गल मिथ्यात्वादि कर्मरूप परिणमे हैं ते पुद्गलके परमाणु है, तथा तिनिका विपाक उदय ,
रूप होय स्वादरूप होय हैं ते मिथ्यात्वादि अजीव हैं । ऐसें मिथ्यात्वादिभाव जीवाजीव भेदकरि । दोय प्रकार हैं । इहां ऐसा जानना, जो मिथ्यात्वादि कर्मकी प्रकृति हैं ते पुदलद्रव्यके परमाणू ' हैं। तिनिका उदय होय तब जीव उपयोग स्वरूप है, सो याके उपयोगकी ऐसी स्वच्छता है जो जिसका उदयका स्वाद आवै तर तिसकै आकार उपयोग होय तब अज्ञानते तिसका भेदज्ञान 5 होय नाही, तिस स्वादकू ही अपना भाव जाने है। सो याका भेदज्ञान होना जो जीव भावकं ..
जीव जाने, अजीवभाव... अजीव जाने तब मिथ्यात्वके अभाव होय, सम्यग्ज्ञान होय है। आगें । + पूछे है, जो ए मिथ्यात्वादिक जीव अजीव कहे ते कौन हैं ? ताका उत्तर कहे हैं । गाथा
पुग्गलकम्म मिच्छं जोगो अविरदि अणाणमज्जीवं। उवओगो अण्णाणं अविरदि मिच्छत्त जीवो दु॥२०॥
पुद्गलकर्म मिथ्यात्वं योगोऽविरतिरज्ञानमजीवः ।
उपयोगोऽज्ञानमविरतिर्मिथ्यात्वं च जीवस्तु ॥२१ आत्मख्यातिः-यः खलु मिध्यादर्शनमशानमविरतिरित्यादिरजीवस्तदमूच्चैितन्यपरिणामादन्यद मर्च पुद्गलकर्म, की
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यस्तु मिध्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादि जीवः स मूर्वात्पुद्गलकर्मणोऽन्यचैतन्यपरिणामस्य विकारः । मिथ्याइर्शनादि-.चैतन्यपरिणामस्य विकारः कुत इति चेत्
अर्थ-जे मिथ्यात्व, योग, अविरति, अज्ञान ए अजीव हैं, ते तौ पुद्गलकर्म हैं, बहुरि अज्ञान, अविरति, मिथ्यात्व ए जीव हैं ते उपयोग हैं। ____टीका-जो निश्चयकरि मिध्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि अजीव है सो तौ अमूर्तिक जो चैतन्यका परिणाम तातें अन्य है मूर्तिक है सो तौ पुद्गलकर्म है। बहुरि जो मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि जीव है सो मूर्तिक जो पुदगलकर्म तात अन् है चैतन्धपरिणामकाज विकार है। फेरि पूछे है, जो जीवमिथ्यात्वादि चैतन्य तातें अन्य है चैतन्यपरिणामका विकार .. है। फेरि पूछे है, जो जीवमिथ्यात्वादि चैतन्यपरिणामका विकार कौन हेतुतें है ? ताका उत्तर, कहे हैं। गाथा
उवओगस्स अणाई परिणामा तिण्णि मोहजुत्तस्स । मिच्छत्तं अण्णाणं अविरदिभावो य णादवो ॥२॥
उपयोगस्यानादयः परिणामात्यो मोहयुक्तस्य ।
मिथ्यात्वमज्ञानमविरतिभावश्च ज्ञातव्यः ॥२२॥ आत्मख्यातिः-उपयोगस्य हि स्वरसत एव समम्तवस्तुस्वभावभूतस्वरूपपरिणामसमर्थत्वे सत्यनादिवस्त्वंतरभूत-卐 मोहयुक्तत्वान्मिध्यादर्शनमज्ञानमविरतिरिति त्रिविधः परिणामविकारः स तु तस्य स्फटिकस्वच्छताया इव परितोपि प्रभ- .. वन् दृष्टः । यथाहि स्फटिकस्वच्छतायाः स्वरूपपरिणामसमर्थत्वे सति कदाचिन्नीलहरितपीततमालकदलीकांचनपात्रोपाश्रया युक्तत्वान्नीलो हरितः पीत इति त्रिविधः परिणामविकारी दृष्टस्तथोपयोगस्यानादिमिथ्यादर्शनाज्ञानाविरतिस्वभाववस्त्व- १६ तरभूतमोहयुक्तत्वान्मिध्यादर्शनमज्ञानमविरतिरिति त्रिविधः परिणामविकारो दृष्टव्यः । अथात्मननिषिधपरिणामविकारस्य
त्वं दर्शयति ।
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अर्थ - उपयोग अनादितें लेकरि तीन परिणाम हैं, जातें यह अनादिहीतें मोहयुक्त है, ताके निमित्त होय हैं। तहां मिथ्याल, अज्ञान, अविरतिभाव ए तीन जानने ।
टीका -- निश्चयकरि समस्त वस्तुनिके अपने स्वरसपरिणमनते स्वभावभूत स्वरूपपरिणाम विषै प्र समर्थपणा होतें भी आत्मा के उपयोग के अनादिही अन्य वस्तुभूत जो मोह तिसकरि युक्तपणातें मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति ऐसें तीन प्रकार परिणामके विकार है । सो यह जैसें स्फटिकम5 णीकी स्वच्छता के परके डंकतें परिणामविकार होता देखिये हैं तैसें ही है, सोही प्रगटकरि कहे हैं । 45 जैसे स्फटिककी स्वच्छता कै अपना स्वरूप जो उज्वलता तिस रूप परिणामकी समर्थता होतें भी कदाचित् काल काला, हरया, पीला जो तमाल कदली कंचनका पात्र ताका उपाश्रय समीप 4 युक्तपणातें नीला, हरा, पीला ऐसा तीन प्रकार परिणामका विकार दीखे हैं, तैसें ही आत्मा के उपयोग अनादि मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरतिस्वभाव जो अन्य वस्तुभूत मोह, ताकरि युक्तपणातें 5 5 मिध्यादर्शन, अज्ञान, अविरति ऐसे तीन प्रकार परिणाम विकार देखना ।
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भावार्थ--- आत्माके उपयोग में ए तीन प्रकारके परिणाम विकार अनादिकर्म के निमित्ततें हैं । फ ऐसा नाहीं, जो पहले शुद्ध ही था यह नवीन भया है । ऐसें होय तौ सिद्धनिकै भी नवीन भया फ चाहिये, सो यह है नाहीं ऐसें जानना । आगे आत्माके इस तीन प्रकारके परिणाम विकारका कर्त्तापणा दिखावे हैं | गाथा
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एदेय उवओगो तिविहो सुद्धो णिरंजणो भावो ।
जं सो करेदि भावं उवओगो तस्स सो कत्ता ॥ २२॥
एतेषु चोपयोगस्त्रिविधः शुद्धो निरंजनो भावः ।
यं स करोति भावमुपयोगस्तस्य स कर्त्ता ॥ २२ ॥
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आत्मख्याति:-अयत्यरमन्दारिपचंदर भूतमोहनलालवमानेषु मिध्यादर्शनासानाविरतिभावेषु परिणामविकारेषु त्रिवेतेषु निमित्तभूतेषु परमार्थतः शुद्धनिरंजनानादिनिधनबस्तुसर्वस्वभूतचिन्मात्रभावत्वेनेकविधोप्पयुद्धसांजना :
नेकभावत्वमापधमानस्त्रिविधो भृत्वा स्वयमज्ञानीभूतः कर्तृत्वमुपढौकमानी विकारेण परिणम्य यं यं भावमात्मनः 卐 करोति तस्य तस्य किलोपयोगः कर्ता स्यात् । अथात्मनस्त्रिविधपरिणामविकारकर्तृत्वे सति पुद्गलद्रव्यं स्वत एव कर्मत्वेन ।
परिणमतीत्याह" अर्थ-मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति इनि तीननिका अनादित निमित्त होते आत्माका उपयोग 卐 शुद्धनयकरि एक है, शुद्ध है, निरंजन है । तोऊ याकै मिथ्यादर्शन अज्ञान अविरति ऐसें तीन : .- प्रकार परिणाम हैं सो इनिमें जिस भावकू आप करे है ताका कर्ता होय है। - टीका-पहली गाथामैं कहे जे तीन प्रकारके उपयोगके परिणामते अब पूर्वोक्त प्रकार अनादि 5 अन्यवस्तुभूत जो मोह ताकरि युक्तपणातें आत्मावि उपजते जे मिथ्यादर्शन अज्ञान अविरतिभाव
रूप तीन परिणामविकार तिनि निमित्तभूत होते आत्माका स्वभाव परमार्थते देखिये तो शुद्ध म निरंजन एक अनादिनिधन वस्तूका सर्वस्वभूत चैतन्यमात्र भावपणाकरि एक प्रकार है। तौऊ :
अशुद्ध सांजन अनेक भावपणाकू प्राप्त हुवा संता तीन प्रकार होय करि आप अज्ञानी हुवा संता 卐 कर्तापणाकू प्रात होता संता विकाररूप परिणानकरि जिस जिस भावकू आपकै करे है, तिस तिस .. भावका उपयोग प्रगटपणे निश्चयकरि कर्ता होय है।
_ भावार्थ-पूर्वे कहा है, जो परिगमै सो कर्ता है । सो इहां अज्ञानरूप होय उपयोग परिणम्या है जिसरूप परिणम्या तिसका कर्ता कह्या, शुद्ध द्रव्यार्थिकनयकरि आत्मा कर्ता है नाहीं, इहां उप- :
योगकू कर्ता जानना । बहुरि उपयोग अर आत्मा एक ही वस्तु है तातें आत्माही• कर्ता कहिये। . 卐 आगें आत्माकै तीन प्रकार परिणाम विकारका कर्तापणा होते सतै पुद्गलद्रव्य है सो आफ्ही : .- कर्मपणारूप होय परिणमे है। ऐसें कहे हैं । गाथा
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जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स। प
कम्मत्तं परिणमदे तह्मि सयं पुग्गलं दव्वं ॥२३॥ ___ यं करोति भावमात्मा का स भवति तस्य भावस्य ।
कर्मस्वं परिगमते तस्मिन् स्वयं पुद्गलप्रव्यं ॥२३॥ आत्मख्याति:-आत्मा मात्मना तथापरिणमनेन यं भावं किस करोति तस्यायं कर्ता स्यात्साधकवत् तस्मिन्निमित्त । 5 सति पुद्गलद्रव्यं कर्मत्वेन स्वयमेव परिणमते । तथाहि-यथा साधकः किल तथाविधध्यानभावेनात्मना परिणममानो
ध्यानस्य कर्ता स्यात् । तस्मिंस्तु ध्यानभावे सकलसाध्यभाषानुकूलतया निमित्तमात्रीभृते सति साधकं कर्तारमंतरेणापि 卐 स्वयमेव बाध्यते विषव्याधयो, विडंब्यंते योपितो, ध्वंस्यंते बंधास्तधायमज्ञानादात्मा मिथ्यादर्शनादिभावेनात्मनो +
परिणममाने मिथ्यादर्शनादिभावस्य कर्ता स्यात् । तस्मिस्त मिथ्यादर्शनादी भावे स्वानुकूलतया निमित्तमात्रीभूते सत्या." ॐ त्मानं कर्तारमंतरेणापि पुद्गलद्रव्यं मोहनोयादिकर्मत्वेन स्वयमेव परिणमते । अज्ञानादेव कर्म प्रभवतीति तात्पर्यमाह। ' ____ अर्थ-आत्मा है सो जिस भावकू करे है ताका कर्ता आप होय है । बहुरि तिसकू' कर्ता होतें पुद्गलद्रव्य है सो आपै आप कर्मपणारूप परिणमे है।
टीका-आत्मा है सो निश्चयकरि आपही करि तैसें परिणमने करि प्रगटपणे जिस भावकू करे है, ताका यह कर्ता होय है, साधक कहिये मंत्र साधनेवालेकीच्यौँ । बहुरि तिस आत्माकू तैसें निमित्त होते पुद्गलद्रव्य है सो कर्मभावरूप आपही परिणमे है। सो ही प्रगटकरि कहे हैं, जैसे साधक जो मंत्र साधनेवाला पुरुष सो तिस प्रकारका ध्यानरूप भावकरि आपहीकरि परिण
मता संता तिस ध्यानका कर्ता होय है । बहुरि समस्त जो तिस साधकके साधने योग्य वस्तु 1- तिसका अनुकूलपणाकरि तिस ध्यानभावकू निमित्तमात्र होते संते, तिस साधकविना ही, अन्यस
" पदिककी विषकी व्याधि ते स्वयमेव मिटि जाय हैं, तथा स्त्रीजन हैं ते विडंबनारूप होय जाय 卐 हैं। बहुरि बंधन हैं ते खुलि जाय हैं । इत्यादि कार्य मंत्रके ध्यानकी सामर्थ्यतें होय जाय है।
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से ही यह आत्मा अज्ञानतें मिथ्यादर्शनादि भावकरि परिणमता संता, मिथ्यादर्शनादि भावका _ कर्ता होय, तब तिस मिथ्यादर्शनादिभावकू अपने करनेके अनुकूलपणे करि निमिसमात्र होते संत, - आस्मा जो कर्ता, तिस विना ही पुद्गलद्रव्य आपही मोहनीयादि कर्मभावकरि परिणमे है। .
भावार्थ-आत्मा तो अज्ञानरूप परिणमे है, काहुँसूममत्व करे है, काडंसू राग करे है, 卐 काहू सूदेष करे है, तिनि भावनिका आप कर्ता होय है । बहुरि तिसकू निमित्तमात्र होते पुद्ग
लद्रव्य आप अपने भावकरि कर्मरूप होय परिणमे है। परस्पर निमित्तनैमित्तिकभाव है। कर्ता 卐 दोऊ अपने अपने भालके हैं यह निश्चय है। आगे कर्म होय है सो अज्ञानहीत होय है यह । तात्पर्य कहे हैं । गाथा
परमप्पाणं कुम्वदि अप्पाणं पि य परं करंतो सो। अण्णाणमओ जीवो कम्माणं कारगो होदि ॥२४॥
परमात्मानं कुर्वन्नात्मानमपि च परं कुर्वन् सः ।
अज्ञानमयो जीवः कर्मणां कारको भवति ॥२४॥ आत्मख्यातिः-अयं किलाज्ञानेनात्मा परात्मनोः परस्पर विशेवानि ने सति परमात्मानं कुर्वन्नात्मानं च परं कुर्वन्स्वयमज्ञानमयीभूतः कर्मणां कर्ता प्रतिभाति । तथाहि-तथाविधानुभवसंपादनसमर्थायाः रागद्वेषसुखदुःखादिरू- जा पायाः पुद्गलपरिणामावस्थायाः शीतोष्णानुभवसंपादनसमर्थायाः शीतोष्यायाः पुद्गलपरिणामायस्थाया इव पुद्गलादभिन्न
स्वेनात्मनो नित्यमेवान्यंतभिन्नायास्तन्निमित्तं तथाविधानुभवस्य चात्मनो भिन्नत्वेन पुद्गलान्नित्यमेवात्यंतभिन्नस्या- " म ज्ञानात्परस्परविशेषानि ने सत्येकत्वाध्यासात् शीतोष्णरूपेणैवात्मना परिणमितुमशक्येन रागद पसुखदुःखादिरूपेणाक्षा
नात्मना परिणममानो ज्ञानस्याज्ञानत्वं प्रकटीकुर्वन्स्वयमज्ञानमयीभूत एपोहं रज्य इत्यादि विधिना रागादेः फर्मणः कर्ता र प्रतिभाति । ज्ञानातु न कर्म प्रभवतीत्याह । ..अर्थ-जीव है सो आप अज्ञानमयी भया संता परकू आप करे है, बहुरि आपकू पर करे है,
ऐसें कर्मनिका कर्ता होय है।
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टीका- यह आत्मा प्रगट अज्ञानकरि परकै अर आपके विशेषका भेदज्ञान न करते संते परकू समय तो आप करें है बहुरि आपकुं पर करें । ऐसें आप अज्ञानमयी भया संता कर्मनिका कर्ता होय हैं, सोही प्रगटकर कह हैं। जैसे शीतउष्णका अनुभव करावनेविषे समर्थ जो पुद्गलपरिणामकी उष्ण अवस्था पुद्गलते आस्मात नित्यही अ
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तिस प्रकारका अनुभव करावनेविषै समर्थ जो रागद्वेषसुखदुःखादिरूप पुद्गलपरिणामकी अवस्था, सो पुद्गलतें अभिन्नपणाकरि आत्मा नित्यही अत्यंत भिन्न है । बहुरि तिसनिमित्ततें भये तिस प्रकारका राग पादिकका अनुभवकै आत्मातें अभिन्नपणाकरि अर पुद्गलतें नित्यही अत्यंत भिन्नपणा है । तौऊ तिसरागढ़ पादिकका अर तिसका अनुभवका अज्ञानतें परस्पर भेदज्ञान नाहीं होतें एकपणाका निश्चयतें जैसें शीत उष्णरूपकरि आत्माकै परिणमनको असमर्थपणा है, तैसें रागद्वेष 5 सुखदुःखादिरूप भी आपही करि परणमनेका असमर्थपणा है, तौऊ रागद्र बादिक पुद्गल परिणामकी अवस्था तिसके अनुभवका निमित्तमात्र होतें अज्ञानस्वरूप रागद्व षादिरूप परिणमता संता अपने ज्ञानके अज्ञानपणाकू प्रगट करता संता आप अज्ञानमयी भया संता, यह मैं रागी हूं इत्यादि विधानकरि रागादिक कर्मका कर्ता प्रतिभासे है ।
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भावार्थ - रागद्रष सुखदुःखादि अवस्था पुद्गलकर्म के उदयका स्वाद है सो यह पुद्गल- 5 कर्म अभिन्न है, आत्मार्ते अत्यंत भिन्न है, जैसें शीत उष्णपणा है तैसें । सो आत्माके अज्ञानतें याका भेदज्ञान नाहीं । यातें ऐसा जाने है, जो यह स्वाद मेरा ही है, जातें ज्ञानकी स्वच्छता
5 ऐसी ही है, जो रागद्वेषादिकका स्वाद शीत उष्णकी ज्यों ज्ञानमें प्रतिबिंबित होय, तब ऐसा 卐 प्रतिभासे, जानू की ए ज्ञान ही है, तातें ऐसें अज्ञानतें या अज्ञानी जीवकें इनिका कर्तापणा भी फ्र आया, जाते या ऐसी मान्य भई, जो मैं रागी हौं, द्वेषी हौं, क्रोधी हौं, मानी हौं इत्यादि, ऐसें कर्ता होय है। आगे कहे हैं, जो ज्ञानतें कर्म नाहीं उपजे है । गाथा
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मात्मख्याविः ----अयं किल शानदात्या परतलो. परस्परविशेषनिर्ज्ञाने सति परमात्मान कुर्वन्नात्मानं च परम
कुर्वन्स्वयं ज्ञानमयीभूतः कर्मणामकर्ता प्रतिभाति । तथाहि-- तथाविधानुभवसंपादनसमर्थायाः रागद्वेषसुखदुःखादिरूपायाः पुद्गलपरिणामावस्थायाः शीतोष्णानुभवसंपादन समर्थायाः शीतोष्णायाः पुद्रलपरिणामावस्थाया इव पुद्गलादभिन्नत्वे - नात्मनो नित्यमेवात्यंत भिन्नायास्तन्निमित्तं तथाविधानुभवस्य चात्मनो भिन्नत्वेन पुद्गलान्नित्यमेवात्यंतभिन्नस्य 5
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5 ज्ञानात्परस्परविशेषनिर्ज्ञाने सति नानात्वविवेकाच्छीतोष्णरूपेणैवात्मना परिणमितुमशक्येन रागद्वेषसुखदुःखादिरूपेणाज्ञानात्मना मनागप्यपरिणममानो ज्ञानस्य ज्ञानत्वं प्रकटीकुर्वन् स्वयं ज्ञानमयीभूतः एषोहं जानाम्येव, रज्यते तु पुद्गल 卐 5 इत्यादिविधिना समग्रस्यापि रागादेः कर्मणो ज्ञानविरुद्धस्याकर्ता प्रतिभाति । कथमज्ञानात्कर्म प्रभवतीति चेत् ।
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अर्थ - जो जीव आत्माकूं पर नाहीं करता है, बहुरि परकूं आत्मा नाहीं करता है, सो जीव ज्ञानमय है, कर्मनिका कारक नाहीं है ।
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ranी अवस्था है सोशीत उष्ण अनुभवन करावनेकूं समर्थ है, सो पुद्गल अभिन्नपणाकरि 卐
5 आत्मा नित्य ही अत्यंत भिन्न है, तैसें ही राग द्वेष सुख दुःखादिरूप पुद्गल परिणामकी
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अवस्था है सो रागद्वेष सुखदुःखादिरूप अनुभवन करावने विषै समर्थ है, ऐसी अवस्था है निमित्त
5 जाकूं ऐसा बहुरि तिस प्रकारका अनुभव आत्मातें अभिन्नपणा करि पुद्गलतें अत्यंत सवा
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परमप्पाणमकुब्वी अप्पाणं पि य परं अकुव्वतो ।
सो णाणमओ जीवो कम्माणमकारगो होदि ॥ २५ ॥ परमात्मानमकुर्वन्नात्मानमपि च परमकुर्वन् ।
स ज्ञानमयो जीवः कर्मणामकारको भवति ॥२५॥
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टीका- यह जीव ज्ञानतें परका अर आपका परस्पर विशेषकरि भेदज्ञान होते परकूं आप
नाहीं करता संतावतें है, बहुरि आपकूं पर नाहीं करता संता प्रवतें है, तब आप ज्ञानी भया संता क
कर्मनिका अकर्ता प्रतिभाते है । सो ही प्रगटकरि कहे हैं जैसें शीत उष्ण स्वरूप पुद्गलपरि
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ही भिन्नताका ज्ञानतें परस्पर विशेषका भेद ज्ञान होते नानापणाका विवेकतें, जैसे शीत उष्ण मय रूप आत्मा आपकरि परिणमनेकू असमर्थ है, तैलें राग द्वेष सुख दुःखादिक तिनिरूपकरि नाही 卐 परिणमता संता ज्ञानके ज्ञानपणाकू प्रगट करता संता ज्ञानमय भया। ऐसें जाने है-यह卐
मैं राग द्वेषादिककू जानूंही हूं अर ए रागरूप पुद्गल है इत्यादि विधानकरि समस्त ही जे... का ज्ञानतें विरुद्ध रागादिक कर्म तिनिका कर्ता नाहीं प्रतिभासे है।
भावार्थ-जब राग द्वेष सुख दुःखावस्था ज्ञानते भिन्न जाने “जो जैसें पुद्गलकी शीत - उष्ण अवस्था है तैसें राग द्वेषादिक भी हैं ऐसा भेदज्ञान होय" तब आपकू ज्ञाता जाने रागादि। रूप पुदगलकू जाने, ऐसे होते इनिका कर्ता आत्मा नाहीं होय है, ज्ञाता ही रहे है। आगें पूछे है, जो अज्ञानतें कर्म कैसे निपजे है ? ताका उत्तर कहे हैं । गाथा
तिविहो एसुवओगो अप्पवियप्पं करेदि कोहोहं।। कत्ता तस्सुवओगस्स होदि सो अत्तभावस्स ॥२६॥
त्रिविध एष उपयोग आत्मविकल्पं करोति मोधोहं ।
कर्ता तस्योपयोगस्य भवति स आत्मभावस्य ॥२६॥ आत्मख्यातिः-एष खलु सामान्येनाज्ञानरूपो मिथ्यादर्शनासानाविरतिरूपस्त्रिविधः सविकारश्वतन्यपरिणामः ॥ परामनोरविशेषदर्शनेनाविशेषज्ञानेनाविशेषविरत्या च समस्तं भेदमपनुत्य भाव्यभावकभावापन्नयोश्चेतनाचेतनयोः सामान्याधिकारण्येनानुभवनात्क्रोधोहमित्यात्मनो विकल्पमुत्पादयति । ततोयमात्मा क्रोधोहमिति भ्रांत्या सविकारेण चैतन्यप-5 रिणामेन परिणमन् तस्य सविकारचैतन्यपरिणामरूपस्यात्मभावस्य कर्ता स्यात् । एवमेव च क्रोधपदपरिवर्तनेन मानमायालोभमोहरागदपकर्ममनोकर्मनोवचनकायश्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्श नसूत्राणि पोडश व्याख्येयान्यनया दिशान्यान्यप्यूमानि।'
अर्थ-यह उपयोग है सो तीन प्रकार स्वरूप आपके विकल्प करे है। जो मैं क्रोधस्वरूप । ऐसें । सो ऐसा अपना उपयोगभावका कर्ता होय है।
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__टीका-निश्चयकरि यह विकारसहित चैतन्यपरिणाम है सो सामान्यकरि अज्ञानरूप है। सो ही मिध्यादर्शन अज्ञान अविरतिरूप तीनप्रकार है । सो यह परिणाम परके अर आत्माके अविशेष ... अभेद देखनेकार, अविशेष अभेद जाननेकरि, अविशेषरूप रतिकरि, समस्त भेदकू छिपाय अर ) भाव्यभावक भावकू प्राप्त भवे जे चेतन अचेतन दोऊ तिनिका एक आधारकरि, अनुभवन करनेते, मैं क्रोध हूं ऐसा आत्माका विकल्प उपजावै है, क्रोध हीकू आपा जाने है। तातें यह आत्मा मैं " क्रोध है ऐसी भ्रांति करि विकारसहित चैतन्यपरिणाम तिसकरि परिणमता संता तिस विकारस-पुर हित चैतन्यपरिणामरूप अपने भावका कर्ता होय है। ऐसे ही जैसे क्रोध कया, तैसें ही क्रोधकी जायगा मान, माया, लोभ, मोह, राग, द्वेष, कर्म, नोकर्म, मन, बचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घाण, रसन, स्पर्शन ए पद पलटिकरि सोला सूत्र व्याख्यान करना । बहुरि इसही उपदेशकरि अन्य भी विचारणे।
भावार्थ-मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति ऐसे तीनप्रकार विकारसहित चेतन्यपरिणाम है, आपापरका भेद न जानिकरि ऐसैं माने है, जो में क्रोधी हूं मैं मानी हूं इत्यादि । सो ऐसा माननेतें अपना विकार सहित चैतन्यपरिणाम है, ताका यह अज्ञानी जीव कर्ता होय है। अर कर्ता भया तब ते अज्ञानभाव अपने कर्म भये । ऐसें अज्ञानहीतें कर्म होय है । आगे कहे हैं, जो ऐसे ही धर्मद्रव्य आदि अन्य व्यनिके विई आत्मविकल्प करे है । गाथा
तिविहो एसुवओगो अप्पवियप्पं करेदि धम्मादि । कत्ता तस्सुवओगस्स होदि सो अत्तभावस्स ॥२७॥
त्रिविध एष उपयोग आत्मविकल्पं करोति धर्मादिकं ।
कर्ता तस्योपयोगस्य भवति स आत्मभावस्य ॥२७॥ आत्मख्यातिः-एप खलु सामान्येनाज्ञानरूपो मिध्यादर्शनासानाविरतिरूपस्त्रिविधः सविकारश्चैतन्यपरिणामः
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卐 परस्परमविशेषदर्शनेनाविशेषज्ञानेनाविशेषविरत्या च समस्तं भेदमपनुत्य नेयज्ञायकभावापन्नयोः परात्मनोः सामान्या- १ प... धिकरण्येनानुभवनाद्धर्मोहमधर्मोहमाकाशमहं कालोहं पुद्गलोहं जीवांतरमहमित्यात्मनो विकल्पमुत्पादयति । नतोयमात्मा , धर्मोहमधर्मोहमाकाशमहं कालोहं पुद्गलोहं जीवांतरमहमिति भ्रांत्या सोपाधिना चैतन्यपरिणामेन परिणमन् तस्य ॐ सोपाधिचैतन्यपरिणामत्वरूपस्यात्मभावस्य का स्यात् । ततः स्थितं कत्वमूलमनानं ।
. अर्थ-यह उपयोग है सो तीन प्रकार भया संता धर्म आदिक द्रव्यरूप आत्मविकल्प करे
है तिनिकू आपा जाने है, सो तिस उपयोगरूप अपना भावका कर्ता होय है। म टीका-यह सामान्यकरि अज्ञानरूप सविकार चैतन्यपरिणाम सो ही मिथ्यादर्शन अज्ञान ... अविरतिरूप तीन प्रकार है, सो यह जीव परका अर आपका परस्पर विशेष नाहीं देखनेकरि तथा ?
अविशेष अधर्म द्रव्य हूँ मैं रतिकरि समस्त भेदनिकू लोपकरि ज्ञेयज्ञायकभावकू प्राप्त जे धर्म आदि * । द्रव्य तिनिकू अपना अर तिनिका एक आधारके अनुभवन करनेतें ऐसें माने है-जो मैं धर्मद्रव्य
है मैं अधर्म द्रव्य हूं मैं आकाशद्रव्य हूं मैं कालद्रव्य हूं मैं पुद्गलद्रव्य हूँ मैं अन्य जीव • भी हूं ऐसे भ्रमकरि उपाधि सहित अपना भया जो चैतन्यपरिणाम, तिसकरि परिणमता संता, - तिस उपाधिसहित चैतन्यपरिणामरूप जो अपना भाव, ताका कर्ता होय है। म भावार्थ-यह आत्मा अज्ञानतें धर्मादिद्रव्यवि भी आपा माने है, सो तिस अपना अज्ञानरूप । चैतन्यपरिणामका आप कर्ता होय है। इहां कोई पूछ-पुद्गल अर अन्य जीव तौ प्रवृत्तिमैं दीखें,
तिनिधि तौ अज्ञानतें आपा मानना समझे। बहुरि धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, काल। द्रव्य तौ दृष्टिगोचर नाही, तिनिविर्षे आपा मानना कया, सो कैसे ? ताका समाधान-जो धर्मा..... या दिकका भी लक्षण अनुभवनमै आवे है। तहाँ धर्म अधर्मका तौ गतिहेतुपणा स्थितिहेतुपणा, * है, तिनिफू गमन करना तिष्ठना जातें होय तिसविर्षे ममत्वबुद्धि होय है। बहुरि आकाशका अब-... ___गाहरूप क्षेत्रविर्षे ममत्व होय है । अर कालका समय मुहूर्त आदिमैं मरना जीवना आदि कार्य -
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卐 होय तिस विष ममत्वबुद्धि होय है, ऐसें जानना। आगे कहे हैं जो इस हेतुते कापणाका मूल .. अज्ञान ठहरया। गाथा
एवं पराणि दवाणि अप्पयं कुणदि मंदबुद्धीओ। अप्पाणं अवि य परं करेदि अण्णाणभावेण ॥२८॥
एवं पराणि द्रव्याणि आत्मानं करोति मंदबुद्धिस्तु ।
आत्मानमपि च परं करोति अज्ञानभावेन ॥२८॥ आत्मख्यातिः–यकिल क्रोधोहमित्यादिवशमोहमित्यादिवच्च परद्रव्याण्यात्मीकरोत्यात्मानमपि परद्रव्यीकरोत्येव- 4 मात्मा, तदयमशेषवस्तुसंबंधविधुरनिरवधिविशुद्धचैतन्यधातुमयोप्यज्ञानादेव सविकारसोपाधीकृतचेतन्यपरिणामतया तथाफ़ विधस्यात्मभावस्य कर्ता प्रतिभातीत्यात्मनो भूताविष्टध्यानाविष्टस्येव प्रतिष्ठितं कत्वमूलमज्ञानं । तथाहि-~-यथा खलु म
भूताविष्टोऽज्ञानाद् भृतात्मानावेकोकुर्वन्नमानुमोचितविशिष्टचेष्टावष्टंभनिर्भरभयंकरारंभगंभीरामानुषव्यवहारतया तथाविधका स्य भावस्य कर्ता प्रतिभाति । तथायमा प्रज्ञानादेवभागमार रारमानापविनविकारानुभूतिमात्रभावकानुचित-卐
विचित्रभाष्यक्रोधादिविकारकरंवितचैतन्यपरिणामयिकारतया नथाविधस्य भावस्य कर्ता प्रतिभाति । यथा वा परीक्षकाचार्यादेशेन मुग्धः कश्चिन्महिषध्यानाविष्टोऽज्ञानान्महिषात्मानावेकीकुर्वन्नात्मन्यभ्र कपविषाणमहामहिपत्वाध्यासात्प्रच्युतमा-5 नुशोचितापवरकद्वारविनिस्सरणतया तयाविवस्य भावस्य कर्ता प्रतिभाति । तथायमात्माप्यज्ञानाद् यज्ञायको परात्माना
वेकीकुर्वन्नात्मनि परद्रव्याध्यासान्नोइंद्रियविषयीकतधर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवांतरनिरुद्धचैतन्यधातुतया तथेद्रियवि-ज 1 पयीकृतरूपिपदार्थतिरोहितकेवलबोधतया मृतककलेवरमूच्छितपरमामृतविज्ञानघनतया च तथाविधस्य भावस्य कर्ता प्रति9 भाति । ततः स्थितमेतद् ज्ञानान्नश्यति कई त्वं ।।
अर्थ-ऐसे पूर्वोक्त प्रकार मंदबुद्धि अज्ञानी है सो अज्ञानभावकरि परद्रव्यनि कू आपा करे है " बहुरि आपकू पर करे है। 卐 टीका-जो प्रगटपणे यह आत्मा मैं क्रोध हूं इत्यादिवत् बहुरि मैं धर्मद्रव्य हूं इत्यादिवत् पूर्वोक्त
प्रकार परद्रव्यनिकू आपा करे है अर आत्माकू परद्रव्यरूप करे है । सो यह आत्मा यद्यपि सम
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स्तवस्तूका संबंध रहित अमर्यादरूप शुद्धचैतन्य धातुमय है तौऊ अज्ञानतें सविकार सोपाधिफ रूप किया जो अपना चैतन्यपरिणाम, तिसपणाकरि तिसप्रकारका अपना परिणामका कर्ता प्रति 5 भासे हैं । ऐसें आत्माकै भूताविष्टपुरुषकी ज्यों तथा ध्यानाविष्टपुरुषकीज्यौं कर्तापणाका मूल अज्ञान प्रतिष्ठित भया, प्रगटपणें ठहरथा । सोही प्रगट दृष्टांतकरि दिखावे हैं- जैसे कोई पुरुष भूताविष्ट क 5 भया अपना शरीरमैं भूत प्रवेश कीया, सो वह पुरुष अज्ञानतें भूतकुं अर आपकूं एकरूप करता 卐 संता जैसी मनुष्यके योग्य वेष्टा न होय तैसी करने लगा, तिस चेष्टाका आलंबनरूप अतिभय5कारी आरंभकरि भरया अमानुष व्यवहारपणाकरि तिसप्रकार चेष्टारूप भावका कर्ता प्रतिभासे है, ते ही यह आत्मा भी अज्ञानही पर अर आत्माकूं भाव्यभावरूप एक करता संता निर्विकार 卐 अनुभूतिमात्र भावकके अयोग्य अनेक प्रकार भाव्यरूप क्रोधादि विकारकरि मिल्या चैतन्यका विकारसहित परिणामपणाकारे तिसप्रकारके भावका कर्ता प्रतिभासे है । बहुरि जैसे कोई भोला 卐 पुरुष अपरीक्षक आचार्य का उपदेशकरि भैसेका ध्यान करने लगा, सो अज्ञानतें भैंसेकूं अर 5 आपकूं एकरूप करता आपकेविवें अभ्रकष कहिये बादल स्पर्शतें भेदतें सींग जाके ऐसा महान् 5 बड़ा भैंसापणाका अध्यासतें मनुष्यके योग्य जो ओवराकुटीका द्वारर्ते नीसरणा तिसतें च्युत भया 5 तिसप्रकारके भावका कर्ता प्रतिभासे है । तैसे ही यह आत्मा भी अज्ञानतें ज्ञेयज्ञायक जे पर अर 55 आत्मा तिनिकूं एकरूप करता आत्माकेविषै परद्रव्यके अध्यास निश्चयतें मनके विषयरूप किये धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल, अन्य जीवद्रव्य, तिनिकरि रुकी जो शुद्धचैतन्यधातु तिसप 5 करि तथा इंद्रियनि विषयरूप किये जे रूपी पदार्थ तिनिकरि तिरोहित किया ढक्या गया
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जो अपना केवल एकज्ञान तिसपणाकरि तथा मृतकशरीर विषै मूर्छित भया परम अमृतरूप विज्ञानघन आत्मा तिसपणा करि तिसप्रकारके भावका कर्ता प्रतिभासे है ।
भावार्थ --- यह आत्मा अज्ञानतें क्रोधादिककूं तौ भाव्यभावकसंबंधतें आप एक रूप माने 5 है। अर धर्मादि द्रव्य ज्ञेय रूप हैं, तिनिकूं आप एक करि माने है। सो जैसा आपका भाव
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होय है तिस भावका कर्ता होय है । तहां कोषादिकतें एक माननेका तौ भूताविष्ट पुरुषका दृष्टांत
है। बहुरि धर्मादि अन्य द्रव्यतें एकता माननेका ध्यानाविष्ट पुरुषका दृष्टांत है। आगे कहे हैं, जो - इस ही कारणतें यह ठहरथा जो ज्ञानतें कर्तापणाका नाश होय है। गाथा
एदेण दु सो कत्ता आदा णिच्छयविहिं परिकहिदो । एवं खलु जो जाणदि सो मुददि सब्दकलितं ॥२९॥
एतेन तु स कर्तात्मा निश्चयविद्भिः परिकथितः।
एवं खलु यो जानाति स मुचति सर्वकतृत्वं ॥२९॥ 5 आत्मख्यातिः-पेनायमनानात्परात्मनोरेकत्व विकल्पमात्मनः करोति तेनात्मा निश्चयतः कर्ता प्रतिभाति । यस्त्वेवं .. जानाति स समस्तं कर्तृत्वमुत्सृजति, ततः स खल्वकर्ता प्रतिभाति। तथाहि-इहायमात्मा किलाशानी सन्नज्ञानादासंप्रसारप्रसिइन मिलितस्वादस्वादनेन मुद्रित भेदसंबेदनशक्तिरनादित एव स्यात् ततः परात्मानावेकत्वेन जानाति ततः .. क्रोधोइमित्यादिविकल्पमात्मनः करोति ततो निर्विकल्पादकृतकादेकस्माद्विज्ञानधनात्प्रभ्रष्टो वारंवारमनेकरिकल्पैः परिणका मन कर्ता प्रतिभाति । ज्ञानी तु सन् ज्ञानात्तदादिप्रसिद्धथा प्रत्येकवादस्वादनेनोन्मुद्रित मेदसंवेदनशक्तिः स्यात् । ततो... नादिनिधनानवरतस्वदमाननिखिलरसांतरविविक्तात्यंतमधुरचैतन्यैकरसोयमात्मा भिन्नरसाः कषायास्तैः सह यदेकत्वजो विकल्पकरणं तदन्नानादित्येवं नानात्वेन परात्मानौ जानाति । ततोऽकृतकमेकं ज्ञानमेवाहं न पुनः कृतकोऽनेकः क्रोधादि.. रपीति क्रोधोहमित्यादि विकल्पमात्मनो मनागपि न करोति ततः समस्तमपि कर्तृत्वमपास्यति । ततो नित्यमेवोदासीनाअवस्थो जानन् एवास्ते । ततो निर्विकल्पोऽकृतक एको विज्ञानधनो भूतोऽत्यंतमकर्ता प्रतिभाति । 1. अर्थ-इस पूर्वोक्त कारणते निश्चयनयके जाननेवाले ज्ञानी हैं तिनिने सो पूर्वोक्त प्रकार "आत्माकू कर्ता कह्या तिस प्रकारकू जो जाने है सो ज्ञानी होय है, सो सर्व कर्तापणाकू छोड़े है। 4 टीका-जा कारण करि यह आत्मा अज्ञानतें परके अर आत्माके एकपणाका विकल्प करे है,
"तिस कारण करि निश्चयतें कर्ता प्रतिभासे है, ऐसें जो जाने है सो समस्त कर्तापणाकू छोडे है, 卐 तातें सो अकर्ता प्रतिभासे है । सो ही प्रगट करि कहे हैं। इस जगत विवें यह आत्मा प्रगट
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अज्ञानी भया संता अज्ञानतें अनादि संसारतें लगाय पुद्गल कर्मका अर आपका भावका मिल्या हुआ आस्वादका स्वाद लेने करि मुद्रित भई है अपना जुदा अनुभवनको शक्ति जाकी ऐसी 5 अनादि ही तें है । तातें परकू अर आपकू' एकपणाकरि जाने है । तातें मैं क्रोध हौं इत्यादिक 5 विकल्प आपके करे है । तातें निर्विकल्परूप अकृत्रिम एक जो अपना विज्ञानवन स्वभाव तातें भया संता, बारंबार अनेक विकल्पनिकरि परिणमता संता कर्ता प्रतिभासे है । बहुरि ज्ञानी 卐
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होय तब सम्यग्ज्ञान तिस सम्यग्ज्ञानकूं आदि लगाय करि प्रसिद्ध भया जो पुद्गलकर्म के स्वाद 5 अपना भिन्न स्वाद, far आस्वादकर उघडी है भेदके अनुभवकी शक्ति जाकी ऐसा होय
है, तब ऐसा जाने है, जो अनादिनिधन निरंतर स्वाद आता समस्त अन्य रस स्वादनितें
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विलक्षण भिन्न अत्यन्त मधुर मीठा जो एक चैतन्यस्वरूप रस तिस स्वरूप तौ यह आत्मा है । 45
* बहुरि कषाय यातें भिन्न रस हैं, कषायले वे स्वाद हैं तिनि करि सहित जो एकपणाका विकल्प करना है सो अज्ञानतें है । ऐसें इस प्रकार परकूं अर आत्माकू न्यारे न्यारे नानापणा करि जाने 5 है । तातें अकृत्रिम नित्य एक ज्ञान ही मैं हूं बहुरि कृत्रिम अनित्य अर अनेक जे ए क्रोधादिक ते मै नाहीं हौं ऐसें जाने तब क्रोधादिक मैं हौं इत्यादिक विकल्प आपके किंचिन्मात्र भी नाहीं करे है, तातें समस्त ही कर्तापणाकू छोडे है, तातें सदा ही उदासीन वीतराग अवस्था स्वरूप * होय जानता संता ही तिष्ठे है, तातें निर्विकल्पस्वरूप अकृत्रिम नित्य एक विज्ञानघन भया संता अत्यन्त अकर्ता प्रतिभासे है।
ॐ ॐ ॐ ॐ
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भावार्थ- जो पर द्रव्यका' अर पर द्रव्यके भावनिका अपने कर्तापणाकूं अज्ञान जाने तब आप * कर्ता काहेकूं बने ? अज्ञानी रहना होय तौ पर द्रव्यका कर्ता बने तातें ज्ञान भये पीछे पर द्रव्यका कर्तापणा न रहै। अब इस ही अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं ।
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अर्थ - ओ पुरुष आप निश्चयतें ज्ञानस्वरूप होता संता भी अज्ञानतें तृण सहित अन्नादिक 5 सुन्दर आहार मिल्या हुआ खानेवाला हस्ती आदि तिर्यचकी ज्यों होय प्रसन्न होय है, सो कहा करे है ताका दृष्टांत कहे हैं। जैसे कोई रसाल कहिये शिखरिणीकू पीयकरि तिसके दही 5 मीठेका मिल्या दुवा खाटा मीठा रस, तिसकी अति चाहि करि तिसका रस भेदकून जानि करि 5 दूधके अर्थि गऊ दोहे है ।
भावार्थ- कोई पुरुष शिखरिणी पीय करि ताके स्वादकी अति चाहितें रसका ज्ञान विना 5 ऐसा जान्या जो यह गऊका दूधमें स्वाद है । सो गऊकू अति लुब्ध होय दोहे है, तैसें अज्ञानी पुरुष आपा परका भेद न जानि विषयनिमें स्वाद जानि पुद्गल कर्मकू अति लुब्ध होय ग्रहण करे फ है, अपना ज्ञानका अर पुल कर्मका स्वाद भिन्न नाहीं अनुभव है । तिर्यचकी ज्यों अन्नकूं घास में मिल्या एक स्वाद ले है । फेरि कहे हैं, जो ऐसें अज्ञानतें पुद्गल कर्मका कर्ता होय है । शार्दूलविक्रीडित छन्दः
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बसन्ततिलकाछन्दः
अज्ञानतस्तु सवणाभ्यवहारकारी ज्ञानं स्वयं किल मवन्नपि रज्यते यः ।
पीत्वा दधीक्षमधुराम्लरसातिगृद्धथा गां दोग्धि दुग्धमिव नूनमसौ रसालं ॥ १२२॥
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अज्ञानान्मृगतृष्णको जलधिया थाति पातु मृगा अज्ञानात्तमसि द्रवंति भुजगाभ्यासेन रज्जौ जनाः ।
अज्ञानाच्च विकल्पचक्रकरणाद्वातोत्तरं गान्धिवत् शुद्धज्ञानमया अपि स्वयममी कर्त्री भवत्याकुलाः ॥ १३ ॥
अर्थ--ए लोकके जन हैं ते निश्चयकरि शुद्ध एक ज्ञानमय हैं, तौऊ आप अज्ञानतें व्याकुल
होय परद्रव्यका कर्तारूप होय हैं । जैसें पवनकरि कल्लोलनिसहित समुद्र होय है, तैसे विकल्पनिके
5 समूह करें है यातें कर्ता बने हैं। देखो - अज्ञानहीतें मृग हैं ते भाडलीकूं जल जानि पीवनेकूं दौडे ! हैं, बहुरि अज्ञानहीतें लोक अंधकार में जेवडेविषै सर्पका निश्चय करि भयकरि भागे हैं ।
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भावार्थ - अज्ञानतें कहा कहा न होय ? मृग तौ भाडलीकूं जल जानि पीवनैकूं दौडि खेदखिन्न
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होय है। लोक अंधारे में जेवडेकू सर्प मानि डरिकरि भागे हैं। ऐसे ही यह आत्मा, जैसे बात- करि समुद्र क्षोभरूप होय, तेसैं अज्ञानकरि अनेक विकल्पनितें क्षोभरूप होय है। सो परमात शुद्धज्ञानधन है, तौऊ अज्ञानतें कर्ता होय है।
बसन्ततिलकाछन्दः ज्ञानाद्विवेचकतया तु परात्मनोर्यों जानाति हंस इस वापपसोविशेष ।
चैतन्यधातुमचलं स सदाधिरूढो जानाति एव हि करोति न किंचनापि ॥१॥ अर्थ-जो पुरुष ज्ञानतें बहुरि विवेकी भेदज्ञानीपणात परका अर आत्माका विशेषकर भेद जाने है “जैसे हंस दूधजल मिले हुये हैं, तोऊ तिनिका भेदकरि ग्रहण करे है तैसे" सो पुरुष 5 चैतन्यधातु अचलकू' सदा आश्रय करता संता जाने ही है, ज्ञाता ही है, किछू भी नाही का है। ___ भावार्थ-आपापरका भेद जाने है सो ज्ञाता ही है, कर्ता नाहीं है। आगे कहे हैं, जो जानिये है सो ज्ञानहीतें जानिये है।
मन्दाक्रान्ताछन्दः झानादेव ज्वलनपयसोरौष्ण्यशैत्यव्यवस्था ज्ञानादेवोलसति लवणस्वादमेदभ्युदासः ।
झानादेव स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः क्रोधादेश्च प्रभवति मिदा भिदती क भावं ॥१५॥ अर्थ-अग्निकी अर जलकी उष्णपणाकी अर शीतपणाकी व्यवस्था है सो ज्ञानहोत जानिये । है। बहुरि लवणका अर व्यंजनका स्वादका भेद है सो ज्ञानहीतें जानिये है। बहुरि अपने रसकार +
विकासरूप होता जो नित्य चैतन्यधातु, ताका अर क्रोधादिक भावका भेद है सो भी ज्ञानहाते 卐 जानिये है। कैसा है यह भेद ? कर्तापणाका भाव है ताकू भेदरूप करता संता प्रगट होय है।' फेरि कहे हैं, जो आत्मा कर्ता होय है, तौऊ अपने ही भावका है।
अनुष्टुप्छन्दः अज्ञानं ज्ञानमप्येवं कुर्वन्नात्मानमजसा । सात्कास्मात्मभावस्य परमावस्य म विद ॥१२॥
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अर्थ-ऐसें अज्ञानरूपभी तथा ज्ञान रूप भी आत्माहीकू करता संता आत्मा प्रगटपणेमस्नेही हैभाषका कर्ता है, भालका कर्ता तो कई ही नहीं है। आगें अगली गाथाकी सूचनिकाल्प मार श्लोक है।
आत्मा शानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किं । परभावस्य कत्मिा मोहोयं व्यवहारिणा ॥१७॥
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5. अर्थ-आत्मा ज्ञानस्वरूप है, सो आप ज्ञान ही है, ज्ञानतें अन्यकू कौनकू करें ? काहूकून
करे। बहुरि परभावका कर्ता आत्मा है यह मानना तथा कहना है सो व्यवहारी जिवनिका मोह है अज्ञान है। आगें सो ही कहे हैं, जो व्यवहारी जीव ऐसे कहे हैं। गाथा
ववहारेण दु एवं करेदि घडपडरथाणि दव्वाणि । करणाणि य कम्माणि य णोकम्माणीह विविहाणि ॥३०॥
व्यवहारेण वात्मा करोति घटपटरयान् द्रव्याणि ।
करणानि च कर्माणि च नोकर्माणीह विविधानि ॥३०॥ आत्मख्याति:-व्यवहारिणां हि यतो यथायमात्मात्मविकल्पच्यापाराभ्यां घटादिपरद्रव्यात्मकं बहिःकर्म कुर्वन् , प्रतिभाति ततस्तथा क्रोधादिपरद्रव्यात्मकं च समस्तमंतःकर्मापि करोत्यविशेषादित्यस्ति व्यामोहः । स न सन् । . अर्थ-आत्मा व्यवहारकरि घट पट रथ इनि वस्तुनिषू करे है, बहुरि इंद्रियादिक करण पदार्थ ॥ हैं तिनिकू करे है, बहुरि ज्ञानावरणादि तथा क्रोधादिक द्रव्यकर्म भावकर्मनिकू करे है, बहुरि शरीर आदि अनेक प्रकारके नोकर्मनिषू करे है ।
टीकाजाते व्यवहारी जीवनिकै यह आत्मा, जैसे अपने विकल्प अर व्यापार इनि दोऊनि म करि घट आदि परद्रव्यस्वरूप बाधकर्म करता संता प्रतिभासे है, ताते तैसें ही क्रोधाविक
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9 परद्रव्यस्वरूप समस्त हो अंतरंगकर्मकू करे है। जातें दोऊ परद्रव्यस्वरूप हैं, इनिके करनेमें ॥ विशेष नाहीं ऐसे व्यवहारी जीवनिके व्यामोह है, अज्ञान है।
भावार्थ-परद्रव्यनिका कर्ता आपकू मानना यह व्यवहार है। सो परमार्थदृष्टि में यह अज्ञान प्राया है। आगें कहे हैं, यह व्यवहारका मानना परमार्थदृष्टिमें भला नाही, सत्यार्थ नाहीं। गाथा
जदि सो परदव्वाणि य करिज णियमेण तम्मओ होज । जहमा ण तम्मओ तेण सो ण तेसिं हवदि कत्ता ॥३१॥
यदि स परद्रव्याणि च कुर्यान्नियमेन तन्मयो भवेत् ।।
यस्मान्न तन्मयस्तेन स न तेषां भवति कर्ता ॥३१॥ का आत्मख्याति:-यदि खल्वयमात्मा परद्रव्यात्मकं कर्म कुर्याद तदा परिणामपरिणामिमावान्यथानुपपरेनियमेन
तन्मयः स्यात् न च द्रव्यांतरमयत्वे द्रन्योच्छेदापत्तेस्तन्मयोस्ति । ततो म्याप्यव्यापकमावेन न तस्य कर्तास्ति। निमिच
नैमिलकमावेनापि न कर्तास्ति । ज अर्थ-जो आत्मा परद्रव्यनिकू करे, तौ सो आत्मा तिनि परद्रव्यनितें नियमकरि तन्मय होय .. 'जाय । बहुरि तन्मय नाहीं होय है, तिसकारणकरि तिनिका कर्ता नाहीं है। + टीका-जो निश्चयकरि यह आत्मा परद्रव्यस्वरूप कर्म करे तौ, परिणामपरिणामि भाव ।
की अन्यथा अप्राप्ति नियमकरि तन्मय होय । सो ऐसे होय नाहीं। जो ऐसे होय, तौ अन्य ॐ द्रव्यते अन्यद्रव्य तन्मय होने से, अन्यद्रव्यका उच्छेद होय, नाश होय । तातें व्याप्यव्यापकभाव ' 1 करि तो, तिस परद्रव्यका कर्ता आत्मा नाहीं है। । भावार्थ-अन्यद्रव्यका अन्यद्रव्य कर्ता होय, तौ न्यारे न्यारे द्रव्य काहेकू रहै ? अन्य द्रव्यका - नाश होय । यह बड़ा दोष आवै । तातें अन्यद्रव्यका कर्ता अन्यद्रव्यकू कहना भला नाहीं। आगे
कोई जानेगा, कि व्याप्यव्यापकभावकरि तौ कर्ता नाही; तथापि निमित्तनैमित्तिक भावकरि तौ ।
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को हो । ताकू निषेधे हैं जो निमित्तनैमित्तिक भावकरि भी कर्ता नाहीं है। गाया
जीवो ण करेदि घडं णेव पडं णेव सेसगे दव्वे । जोगुवओगो उप्पादगा य सो तेसिं हवदि कत्ता ॥३२॥
जीवो न करोति घटं नैव पटं नैव शेषकानि द्रव्याणि !
योगोपयोगावुत्पादकौ च तयोर्भवति कर्ता ॥३२॥ ... आत्मख्यातिः-पत्किल घटादि क्रोधादि वा परद्रव्यात्मकं कर्म तदयमात्मा तन्मयत्वानुषंगा व्याप्यन्याएकभा
वेन तावत्र करोति नित्यकर्तृत्वानुषंगाग्निमित्तनैमित्तिकमावेनापि न तत्कुर्यात् । अनित्यौ योगोपयोगावेव तत्र निमि।चत्वेन कर्तारौ योगोपयोगयोस्त्वात्माविकल्पव्यापारयोः कदाचिदज्ञानेन करणादात्मापि कर्तास्तु तथापि न परद्रव्यात्म
ककर्मकर्ता स्यात् । ज्ञानी ज्ञानस्यैव कर्ता स्यात् ।। + अर्थ-जीव है सो घटकू नाहीं करे है, बहुरि पटकू नाहीं करे है, बहुरि शेष जे बाकी सर्वही
द्रव्य हैं; तिनिकू काहूहीकू नाहीं करे है । जीवके योग अर उपयोग हैं, ते दोऊ तिनि घटादिकके 5 उपजावनेके उत्पादक निमित्त हैं। अर जीव है सो तिनि उपयोगनिका कर्ता है।
टीका-जो किछू घटादिक तथा क्रोधादिक परद्रव्यस्वरूप प्रगट कर्म देखिये हैं, तिनिकू यह 5 आत्मा व्याप्यव्यापकभावकरि तौ नाहीं करे है। जो ऐसे करे तौ, तिनित तन्मयपणाका प्रसंग - आवै बहुरि निमित्तनैमित्तिक भावकरि भी नाहीं करे है । जाते ऐसे करे तौ, सदा सर्व अवस्थामें के
कापणाका प्रसंग आवै । तो इनि कर्मनिकं कौन करे है सो कहे हैं। जो इस आत्माके योग, मन, वचनकायके निमिततें प्रदेशनिका चलना, अर उपयोग जो ज्ञानका कषायनितें उपयुक्त होना, ए दोऊ अनित्य हैं, सर्व अवस्था में व्यापक नाही, ते तिनि घटादिककू तथा क्रोधादिक परद्रव्यस्व- .. १९६ रूपकर्मनिकू निमित्तमात्रकरि कर्ता कहिये हैं । बहुरि ते योग उपयोग हैं। ते योग सौ ओत्माके प्रदेशनिका चलनरूप व्यापार हैं अर उपयोग है सो आत्माका चैतन्यका रागादि विकाररूप परि-
प्रम卐 ++++
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आ णाम है, तिनि दोऊनिका कदाचित्काल अज्ञानतें इनिकू करनेते इनिका आत्माकू भी कर्ता कहिये :
है। परंतु परद्रव्यस्वरूप कमका तो कता कदाचित् भी नाहीं है।
__भावार्थ-आत्माके योग उपयोग तो घटादि तथा क्रोधादिककू निमित्त हैं। तिनिकू तो । 卐 तिनिका निमितकता कहिये । अर आत्माकू तिनिका कती न कहिये । अर आत्माकूयोगोपयोगका
कर्ता संसारावस्थामै अज्ञानतें कहिये । इहां तात्पर्य ऐसा-जो द्रव्यदृष्टिकरि तो कोई द्रव्य अन्य " काहू द्रव्यका कर्ता नाहीं, बहुरि पर्यायदृष्टिकरि कोई द्रव्यका पर्याय कदाकाल काहू अन्य द्रव्यके' पर्यायकू निमित्त होय है सो इस अपेक्षा अन्यके परिणाम अन्य के परिणामका निमित्तकर्ता कहिये... बहुरि परमार्थत द्रव्य अपने परिणामका कता है, अन्यके परिणामका अन्य द्रव्य कर्ता नाहीं है, ऐसा जानना । आगें ऐसा कहे हैं, जो, ज्ञानी ज्ञानहीका कर्ता है । गाथा
जे पु गलदवाणं परिणामा होति णाणआवरणा। ण करेदि ताणि आदा जो जाणदि सो हवदि णाणी ॥३३॥
ये पुद्गलद्रव्याणां परिणामा भवंति ज्ञानावरणानि ।
न करोति तान्यात्मा यो जानाति स भवति ज्ञानी ॥३३॥ आत्मख्यातिः--ये खलु पुद्गलद्रव्याणां परिणामा गोरसव्यातदधिदुग्धमधुराम्उपरिणामवत्पुद्गलद्रव्यच्या त्वेन भवतो ) शानावरणानि भवंति तानि तटस्थगोरसाध्यक्ष इव न नाम करोति ज्ञानी किंतु न यथा स गोरसाध्यक्षस्तदर्शनमात्मम्यासत्वेन प्रभवद्वधाप्य पश्यत्येव तथा पुद्गलद्रव्यपरिणामनिमित्तं ज्ञानमात्मन्याप्यत्वेन प्रभवयाप्य जानात्येव बानी' झानस्यैव कर्ता स्यात् । एवमेव च ज्ञानावरणपदपरिवर्तनेन कर्मसूत्रस्य विमागेनोपन्यासाद्दर्शनावरणवेदनीयमोहनीयापुर्नामगोत्रांतरायः सप्तभिः सह मोहरागद्वपक्रोधमानमायालोभनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचधुर्याणरसनस्पर्धनसूत्राणि पोरस' म्यास्येवानि । अनया दिशान्यान्यप्यूछानि । अज्ञानी चापि परमावस्य न कर्ता स्यात् । ___अर्थ-जे ज्ञानावरणादिक पुदगलद्रव्यनिके परिणाम हैं, तिनिकू आत्मा नाहीं करे है। जो卐 न जाने है सो ज्ञानी है।
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टीका - जे निश्चयनयकरि ज्ञानावरणरूप परिणाम हैं, ते 'जैसें गोरसमें व्यास दही, दूध, मीठा, खाटा परिणाम हैं" तैसें पुद्गलद्रव्यतें व्याप्तपणाकरि होते संते पुद्गलद्रव्यहीके परिणाम 5 हैं। तिनिकं जैसें गोरसके निकट बैठा पुरुष तिसके परिणामकुं देखे जाने है, तैसें आत्मा ज्ञानी 卐 तिनि पुद्गल के परिणामनिका ज्ञाता द्रष्टा है, कतां नाहीं है । तौ कहा है ? जैसे गोरसकूं 5 गोरसके निकट बैठा पुरुष तिसकू देखे है । तिस देखनेरूप अपने परिणामतें व्यासपणेरूप होता संता तिकू व्याप्यकरि देखे ही है । तैसें ही पुद्गलपरिणाम है निमित्त जाकू ऐसा अपना ज्ञान, ताकू आपतें व्याप्यपणाकरि होता, ताकू व्याप्यकरि जाने ही है । ऐसें ज्ञानी ज्ञानहीका कर्ता क 4 होय है । ऐसें ही ज्ञानावरणपदकूं पलटिकरि कर्म सूत्रका विभागकरि स्थापनेते, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अंतराय इनिके सूत्र सात करि, बहुरि तिनिकरि सहित 5 5 मोह, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, प्राण, रसना, स्पर्शन ए सोलह सूत्र व्याख्यानरूप करणे । बहुरि इसही रीतिकरि अन्य भी विचारणे । आगें फ कहे हैं, जो अज्ञानी है, सो भी परद्रव्यके भावका कर्ता नाहीं है । गाथाजं भावं सुहमसुहं करेदि आदा स तस्स खलु कत्ता । तं तस्स होदि कम्मं सो तस्स दु वेदगो अप्पा ॥ ३४ ॥ यं भावं शुभमशुभं करोत्यात्मा स तस्य खलु कर्ता ।
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तत्तस्य भवति कर्म स तस्य तु वेदक आत्मा ||३४||
आत्मख्यातिः–इह खल्त्रनादेरज्ञानात्परात्मनो रेकखाध्यानेन पुद्गलकर्म विपाकदशाभ्यां मंदतीवश्वादाभ्यामचलित- 5 विज्ञानघनैकस्वादस्याप्यात्मनः स्वादं भिदानः शुभमशुभं वा योयं भावमज्ञानरूपमात्मा करोति स आत्मा तदा तन्मयत्वेन 55 तस्य भावस्य मावकत्वाद्भवत्यनुभविता, स भावोपि च तदा तन्मयत्वेन तस्यात्मनो भाग्यत्वात् भवत्यनुभाग्यः । एवम5 शानी वाषि परभावस्य न कर्ता स्यात् । न च परभावः केनापि तुपात ।
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अर्थ-- आत्मा है सो जिस शुभाशुभ अपने भावकू करे है, सो तिसभावका कर्ता निश्चय
5 मैं होय है, बहुरि सो भाव तिसका कर्म होय है, बहुरि सो हो आत्मा तिस भावरूप कर्मका वेदक
भोक्ता होय है ।
टीका - इस लोकविषै वाता है सो अनादि अज्ञानतें परका अर आत्माका एकपणाका 5 निश्चयकरि, तीव्र मंद स्वादरूप जे पुद्गलकर्मकी दोय दशा, तिनिकरि यद्यपि आप अचलित विज्ञानघनरूप एकस्वादस्वरूप है, तौऊ स्वादकू भेदरूप करता संता शुभ तथा अशुभ जो 5 अज्ञानरूप भाव ताकू' करे है सो आत्मा तिस काल तिल भावतें तन्मयपणाकरि तिस भावका 5 व्यापकपणाकरि तिस भावका कर्ता होय है। बहुरि सो वह भात्र भी तिस काल तिस आत्माके 5 तन्मयपणाकर, ति आमाके व्याप्य होय है । तातें ताका कर्म होय है । बहुरि सो ही आत्मा फ्र 5 तिस काल तिस भावतें तन्मयपणाकर, तिस भात्रका भावक होय है, तातें arer अनुभवन 5 करनेवाला भोक्ता होय है । बहुरि सो भाव भी तिस काल तिल आत्माके तन्मयपणाकरि, 5 तिस आत्माके भावनेयोग्य होय है । तातें अनुभवने योग्य होय है । ऐसें अज्ञानी है। सो भी परभावका का नाहीं है ।
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भावार्थ - अज्ञानी भी अपना अज्ञानभावरूप शुभाशुभ भावनिहीका कती अज्ञानावस्थामै फ है। परद्रव्यके भावका तौ कर्ता कदाचित् भी नाहीं है। आगे कहे हैं, जो परभाव कोई ही करि करनेकू समर्थ न हूजिये है यह न्याय है । गाथा
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जो जहमि गुणो दव्वे सो अण्ण दु ण संकमदि दब्वे ।
सो अण्णम संकेतो कह तं परिणामए दव्वं ॥ ३५ ॥
यो यस्मिन् गुणो द्रव्ये सोन्यस्मिंस्तु न संक्रामति द्रव्ये । सोन्यदसंक्रांतः कथं तत्परिणामयति द्रव्यं ॥ ३५॥
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मात्मख्याति:-इह किल यो यावान् कश्चिद्वस्तुविशेषो यस्मिन् यावति कस्मिंश्चिचिदात्मन्यचिदात्मनि वा दम्ये । मय卐 गुणे च स्वरसत एवानादित एव वृत्तः स खल्बचलितस्य वस्तुस्थितिसीनो मेत्तुमशक्यत्वाचस्मिन्नेव वर्तते न पुनः द्रव्या..
वरं गुणांतरं वा संक्रामेत । द्रव्यांतरं गुणांतरं वाऽसंक्रामंश्च कथं त्वन्यं वस्तुविशेष परिणामयेन् । अतः परभावः केनापि " । नकर्तुं पार्येत । अतः स्थितः खल्वात्मा पुद्गलकर्मणामकर्ता । म अर्थ-जो द्रव्य जिस अपने द्रव्यस्वभाववि तथा अपने जिलगुणविर्षे वर्ते है, सो द्रव्य अन्य- ..
इम्यविर्षे तया गुणविर्षे संक्रमणरूप नाहीं होय है, पलटिकरि अन्यविर्षे मिले नाहीं है । सो अन्य- क ! विर्षे नाहीं मिलता संता तिस अन्य द्रव्य कसैं परिणमावै ? कदाचित् नाही परिणमादै ।
टीका-इस लोक विर्षे जो जेते वस्तुविशेष हैं सो जेतें अपने चैतन्यस्वरूप तथा अचेतनस्वरूप ॥ द्रव्यविषं तथा अपना गुणवियें अपना निजासते ही अनादिते वर्ते हैं। सो निश्चयकरि अचलित + जो अपनी वस्तुस्थितिकी मयादा ताकू भेदने असमर्थ है। तातें अपने स्वभाव ही में वर्ते है।"
द्रव्यांतर तथा गुणांतरतूं संक्रमणरूप नाही होय हैं, पलटे नाही हैं। ऐसें अन्य द्रव्यरूप तथा ॥ 卐 अन्य गुणरूप न होता संता अन्य वस्तुविशेषकू कैसे परिणमावे ? कदाचित् नाही परिणमावे। __ याते परभाव है ताहि कोई भी नाहीं परिणमाय सके है।
. भावार्थ-जो द्रव्यस्वभाव है, ताहि कोई भी नाहीं पलटाय सके है, यह वस्तुकी मर्यादा है। आगे कहे हैं, जो इस कारणते आत्मा निश्चयकरि पुद्गलकर्मनिका अकर्ता है यह । ठहरी। माया
दव्वगुणस्स य आदा ण कुणदि पुग्गलमयमि कम्मइमि। तं उभयमकुवंतो तमि कहं तस्स सो कत्ता ॥३६॥
द्रव्यगुणस्य चात्मा न करोति पुद्गलमये कर्मणि। तदुभयमकुर्वस्तस्मिन्कथं तरूप स कर्ता ॥३६॥
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आत्मख्यातिः—पया खलु मृन्मये कलशकर्मणि मृद्रव्यमृद्गुणयोः स्वरसत एव वर्तमाने द्रव्यगुणांतरसंक्रमस्य । _ वस्तुस्थित्यैव निषिद्धत्वादात्मानमात्मगुणं वा नाधत्ते स कलशकारः द्रन्यांतरसंक्रममंतरेणान्यस्य वस्तुनः परिणमयितुम - शक्पत्वात् तदुभयं तु तस्मिन्ननादधानो र तत्त्वतस्तस्य कर्ता प्रतिभाति । तथा पुद्गलमयज्ञानावरणादौ कर्मणि पुद्गल
द्रन्यपुद्गलगुणयोः स्वरसत एव वर्तमाने द्रव्यगुणांतरसंक्रमस्य विधातुमशक्यत्वादात्मद्रव्यमात्मगुणं वात्मा न खल्वायत्ते।'
द्रयातरसंक्रममंतरेणान्यस्य वस्तुनः परिणयितुमशक्यत्वात्तदुभयं तु तस्मिन्ननादधानः कथं तु तच्चतस्तस्य कर्ता प्रति9 भापात् । ततः स्थितः खल्वात्मा पुद्गलकर्मणामकर्ता । अतोन्यस्तूपचारः।।
अर्थ-आत्मा है सो पुद्गलमय कर्म विर्षे द्रव्यकू तथा गुणकू नाहीं कर है, तिस विर्षे तिनि दोऊनिकू नाहीं करता संता ताका कर्ता कैसे होय ?
टीका-प्रथम ही दृष्टांत-जैसे मृत्तिकामय कलशनामा कर्म मृत्तिका नामा द्रव्य अर मृत्तिकाका गुण, तिनि विर्षे अपने निज रसकरि ही वर्तमान है तवर्ष कुम्भकार अपना द्रव्य+ स्वरूपकू तथा अपना गुणकू नाहीं मिला है । जातें अन्य द्रव्यका अर अन्य गुणका अन्य द्रव्य
गुणरूप पलटनेका बस्तुकी मर्यादा ही करि निषेधे है। बहुरि अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्यरूप भये विना अन्य वस्तुकू अन्यके परिणमाक्नेका असमर्थपणातै तिनि द्रव्य... अर गुणकू अन्य विर्षे नाहीं धारता संता परमार्थत तिस मृत्तिकामय कलशनामा कमका निश्चयकरि कुम्भकार कर्ता नाहीं
प्रतिभासे है। तैसें पुद्गलमय ज्ञानावरणादि कर्म हैं ते पुद्गलद्रव्य अर पुद्गलके गुण तिनि विर्षे # अपनेरसते ही वर्तमान हैं, तिनि वि आत्मा अपना द्रव्यस्वभावकू अर अपना गुणकू निश्चय करि
नाहीं धारे है, जातें अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्य विर्षे तथा अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्यके गुण विर्षे का | संक्रमण होनेका असमर्थपणा है। ऐसे अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्य विर्षे संक्रमण विना अन्य वस्तूकू ।
परिणभावनेका असमर्थपणातें, तिनि द्रव्य अर गुण दोऊनिकू तिस अन्य विषं नाहीं धारता आत्मा । ज स अन्य पुद्गलद्रव्यका कैसे कर्ता होय ? कदाचित् नाहीं होय । तातें यह निश्चय ठहरथा, जो
आरमा पुद्गलकमनिका अकर्ता है। आगे कहे हैं, जो इस सिवाय अन्य निमितनैमित्तिकादिभाव हैं, तिनिक देखि किछु और प्रकार कहना है सो उपचार है । गाथा
29 भज++++++
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जीवां दुदे बंधस्स दु परिसदूण परिणामं । जीवेण कर्द कम्मं भण्णदि उवयारमत्तेण ॥३७॥ जीवे हेतुभूते बंघस्य तु दृष्ट्वा परिणामं ।
जीवन कृतं कर्म भण्यते उपचारमात्र ण ॥३७॥
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मारणरूपातिः – इह खलु पौद्गलिककर्मणः स्वभावादनिमित्तभूतेप्यात्मन्यनादेरज्ञानाच चमिचभूतेन ज्ञानमापेन
परिणमनामिमिचीभूते सति संपद्यमानत्वात् पौद्गलिकं कर्मात्मनाकृतमिति निर्विकल्पविज्ञानघन भ्रष्टानां विकल्पपरा परेषामस्ति विकल्पः । स तूपचारएव न तु परमार्थः । कथं इति चेत् ।
अर्थ - जीवकूं निमित्तिरूप होतें कर्मबंधका परिणाम होय है, ताकूं देखिकरि कहिये है, जो जीवकरि कर्म किये है, सो उपचारमात्र करि कहिये ।
टीका - इस लोकमैं आत्मा निश्चयकरि स्वभावतें पुद्गलकर्मका निमित्तभूत नाहीं है, तौऊ
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अनादि अज्ञानते ताका निमित्तभूत भया जो अज्ञानभाव, ताकरि परिणमने पुद्गलकर्मका
5 निमित्तभूत होतें उपज्या जो पुद्गलकर्म, ताकू आत्माने किया ऐसा विकल्प होय है। सो जे निर्विकल्प विज्ञानघनस्वभावतें भ्रष्ट अर विकल्पनिविषै तत्पर हैं, तिनि अज्ञानीनिकै होय है। सो 卐
यह आत्माने किया ऐसा कहना उपचार है परमार्थ नाही है।
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भावार्थ - कदाचित भया निमित्तनैमित्तिक भावविषै कतृ कर्मभाव कहना यह उपचार है
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आर्गे यह उपचार कैसे है सो दृष्टांतकरि कहे हैं। गाथा
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जोघेहिं कदे जुद्धे राएण कदं ति जंपदे लोगो ।
तह ववहारेण कदं णाणावरणादि जीवेण ॥३८॥ योधैः कृते युद्धे राज्ञा कृतमिति जल्पते लोकः । व्यवहारेण तथा कृतं ज्ञानावरणादि जीवेन ॥३८॥
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आत्मरूपातिः--यथा युद्धपरिणामेन स्वयं परिणममानैः योपैः कृते युर युदपरिणामेन स्वयमपरिणममानस्य राहो' सागर हा किल कृतं पुमित्पुषचारो न परमार्थः । तथा मानापरणादिकर्मपरिणामेन स्वयं परिणममानेन पुद्गलद्रव्येण कृते
भानावरणादिकर्मपि शानावरणादिकर्मपरिणामेन स्वयमपरिणममानस्यात्मनः किलात्मना कृतंझानावरचादि कर्मेत्युपचारो का 卐 न परमार्थः । अत एतस्थितं ।।
___ अर्थ-जैसें जोद्धा जुद्ध करे तहां लोक ऐसा कहे है, जो राजा युद्ध किया। सो यह व्यव-" हारकार कहना है । तैसें ही ज्ञानावरणादि कर्म जीवकरि किये हैं, ऐसा कहना व्यवहारकरि है।
टीका-जैसे युद्धपरिणामनिकरि आप परिणमे जे जोद्धा, तिनकरि किया जो यह जुद्ध, .. ज, ताळू होते जुद्धपरिणामनिकरि आप न परिणम्या जो राजा, ताकू लोक कहे हैं, जो जुद्ध राजा ।
कीया जो ऐसा उपचार परमार्थ नाहीं है । तैसे ही ज्ञानावरणादिकर्म परिणामनिकरि आप परिगमता जो पुद्गलद्रव्य, ताकरि किये जे ज्ञानावरणादिकर्म ताकू होते ज्ञानावरणादि कर्मपरिणाम
करि आप नाही परिणमता जो आत्मा, ताकू कहिये, जो ज्ञानावरणादि कर्म आत्मा किये है।) ॐ सो ऐसा उपचार है, सो परमार्थ नाहीं है।
भावार्थ-जैसे जोदा जुद्ध करे तहां राजाका कीया उपचारकरि कहिये है, तेसे पुदगल" कर्म जीवने किये ऐसे उपचारकरि कहिये हैं। आगें कहे हैं, जो इस हेतूतें ऐसा निश्चय 卐 बरेषा ।गाथा
उप्पादेदि करेदि य बंधदि परिणामएदि गिगहदि य। आदा पुग्गलदव्वं ववहारणयस्य वत्तव्वं ॥३९॥
उत्पादयति करोति च बनाति परिणमयति पहाति च। आस्मा पुदगलद्रव्यं व्यवहारनपस्य वकव्यं ॥३९॥
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आत्मख्यातिः– अयं खल्वात्मा न गृह्णाति न परिणमयति नोत्पादयति न करोति न वध्वादि व्याम्यव्यापकभावाभावात् । प्राप्त व्याप्यव्यापकभावाभावेपि प्राप्यं विकार्य निर्वत्यच पुद्गलद्रव्यात्मकं कर्म गृह्णाति परिणमयत्युत्पादयति करोति बध्नाति वात्मेति विकल्पः स किलोपचारः । कम-5 मिति चेत् ।
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अर्थ - आत्मा है सो पुद्गलद्रव्यकूं उपजावे है, बहुरि करे है, बहुरि बांधे है, बहुरि परिणमा है, बहुरि ग्रहण करे है। ऐसा कहना है सो व्यवहार नयका वचन है । टीका - यह आत्मा निश्चयकरि पुद्गलद्रव्यस्वरूपकर्मकुं व्याप्यव्यापकभावके अभावतें प्राप्य विकार्य निर्वर्त्य ए तीन प्रकार के कर्मकू ग्रहण नाहीं करे है, परिणमा नाहीं है, उपजावै 5 नाहीं है, करे नाहीं है, बांधे नाहीं है । बहुरि व्याप्यव्यापकभावके अभाव होते भी प्राप्य विकार्य निर्वर्त्य ऐसें तीन प्रकारके पुद्गलद्रव्यस्वरूप कर्मकूं यह आत्मा ग्रहण करे है, परिणामावे है, उपजावे है, करें है, बांधे है। ऐसा विकल्प होय है सो प्रगट उपचार है । भावार्थ-व्याप्यव्यापकभावविना कर्मका कर्ता कहना सो उपचार है। आगे पूछे है, यह 5 उपचार कैसे है ? ताका उत्तर दृष्टांत करि कहे हैं। गाथा
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जह राया ववहारा दोसगुणुप्पादगोत्ति आलविदो ।
तह जीवो ववहारा दव्वगुणुप्पादगो भणिदो ॥४०॥ यथा राजा व्यवहाराद्दोषगुणोत्पादक इत्यालपितः ।
तथा जीवो व्यवहाराद् द्रव्यगुणोत्पादको भणितः ॥४०॥
आत्मख्यातिः—यथा लोकस्य व्याप्यव्यापकभावेन स्वभावत एवोत्पद्यमानेषु गुणदोषेषु व्याप्यव्यापकभावाभावेपि
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तदुत्पादको राजेत्युपचारः । तथा पुद्गलद्रव्यस्य व्याप्यव्यापकभावेन स्वभावत एवोत्पद्यमानेषु गुणदोषेषु व्याप्यव्यापक卐 भावाभावेपि तदुत्पादको जीव इत्युपचारः ।
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- अर्थ-जैसें प्रजाविर्षे राजा है सो दोष अर गुणका उपजावनहारा है ऐसा व्यवहारतें कहा
तेसै जीवकू भी व्यवहारते पुद्गलद्रव्यविर्षे द्रव्यगुणका उत्पादक कया है। . टीका-जैसें लोककै प्रजाकै व्याप्यव्यापकभावकरि स्वभावहीते उपजते जे गुण अर दोष ..तिनिविर्षे राजाकै व्याप्यव्यापकभावका अभाव है, तोऊ लोक कहै, जो गुणदोषका उपजावन5 हारा राजा है ऐसा उपचार है। तैसें पुद्गलद्रव्यके व्याप्यव्यापकभावकरि स्वभावहोतें उपजते
जे गुण अर दोष, तिनिविर्षे जीवकै व्याप्यव्यापकभावका अभाव है तौऊ तिनि गुणदोषनिका उपजाक्नहारा जीव है ऐसा उपचार है।
भावार्थ-जैसे लोकमैं कहिये है, जो, जैसा राजा है सेसी ही प्रजा है । ऐसें कहिकरि गुण._ दोषका कर्ता राजाकू कहे हैं। तैसें ही पुद्गलद्रव्यके गुणदोषका का जीवकू कहिये हैं। सो
यह परमार्थदृष्टि विचारिये तव उपचार है। आगै पूछे है, जो पुद्गलकर्मका कर्ता जीव नाहीं है, तो कौन है ? ऐसें प्रश्नका काव्य है।
वसंततिलकाछंदः जीवः करोति यदि पुद्गलकर्म नैव कप्तहिं तत्कुरुत इत्यभिशंकयैव ।
एतर्हि तीनरयमोहनिवर्हणाय संकीर्त्यते शृणुत पुद्गलकर्मकर्तृ ॥१८॥ __ अर्थ-जो पुद्गलकर्मकू जीव नाहीं करे है, तो तिस पुद्गलकर्मकू कौन करे है ? ऐसी आशंका करिकै अर इस कर्ताकर्मका तीबवेगरूप मोह अज्ञानके दुरि करनेकू, पुद्गलकर्मका जो कर्ता है सो कहिये है । सो हे ज्ञानके इच्छुक पुरुष हो तुम सुणु। याके उत्तरको गाया
सामण्णपच्चया खलु चउरो भगणंति बंधकत्तारो। 5 मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य बोद्धव्वा ॥४॥
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तेसिं पुणोवि य इमो भणिदो भेदो दुतेरसवियप्पो। मिच्छादिट्टीआदी जाव सजोगिस्स चरमंतं ॥४२॥ एदे अचेदणा खलु पुग्गलकम्मुदयसंभवा जइमा । ते जदि करंति कम्मं णवि तेर्सि वेदगो आदा ॥४३॥ गुणसगिणदा दु एदे कम्म कुव्वति पचया जहमा। तहमा जीवो कत्ता गुणा य कुवंति कम्माणि ॥४४॥
सामान्यप्रत्ययाः खलु चत्वारो भण्यंते बंधकर्तारः। मिथ्यात्वमविरमणं कषाययोगौ च बोद्धव्याः ॥११॥ तेषां पुनरपिचायं भणितो भेदस्तु त्रयोदशविकल्पः । मिथ्याष्टयादिर्यावत्सयोगिनश्चरमांतः ॥४२॥ एते अचेतनाः खल पुद्गलकर्मोदयसंभवा यस्मात् । ते यदि कुर्वति कर्म नापि तेषां वेदक आत्मा ॥४॥ गुणसंज्ञितास्तु एते कर्म कुर्वति प्रत्यया यस्मात् ।
तस्माजीवो कर्ता गुणाश्च कुर्वति कर्माणि ॥४४॥ - मारमस्पातिः-पदलकर्मणः किल पुद्गलद्रव्यमेवैकं का तद्विशेषाः मिध्यात्वाविरतिकषाययोगा बंधस्व सामान्य. "तुतथा चत्वारः कारः एव विकल्प्पमामा मिथ्पादृश्यादिसयोगकेवल्पवासपोदश कर्करः । अत पुलकर्मविपास
विकल्पस्वादत्यंतमचेतनाः संतत्रयोदशकर्तारः केवला एव यदि म्याप्यम्यापकमावेन किंचनापि पुद्गलकर्म तदा "अरेव किं बीनसात्रापतितं । अथापं तर्कः । पुद्गलमयमिध्यात्वादीन् दयमानो जीवः स्वयमेव मिथ्याष्टित्वा पुलकर्म करोति स बिलाविवेको यतो न खवास्मा भाज्यभावकमाषावानात् । पुरलगम्यमयमिथ्यास्वादिदडोपि卐
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पुनः पुदलकर्मणः कर्ता नाम । अर्थसदायात पतः पुद्गलद्रम्पमयानां चतुर्णा सामान्यनत्ययानां विकल्यास्त्रयोदश विशेष- 4 प्रत्यया गुणश्चम्दवाच्याः केवला एव कुर्वति कर्माणि । ततः पुगलकर्मणामकर्ता जीवो गुणा एव तत्कर्तारस्ते तु पुगल"म्यमेव । ततः स्थित पुगालक्षमणः पुनलदम्यवेक कर । न च जीवप्रत्यययोरेकत्वं । # अर्थ-प्रत्यय कहिये कर्मबंधकू कारण जे आस्रव, ते सामान्य तौ च्यारि हैं । ते बंधके कर्ता ...कहिये है। मिथ्यात्व, अविरमण, कषाय, योग ऐसे ते जानने । बहुरि तिनिका भेद तेरह भेदरूप
कया है। सो मिथ्याष्टिकू आदि लगाय सयोगकेवलीताई हैं ते तेरह गुणस्थान जानने। ते ये निश्चयदृष्टिकरि जातें पुद्गलकर्मके उदयतें भये हैं तातें अचेतन हैं । सो जो ये कर्म करे हैं, तौ तिनिका वेदक कहिये भोक्ता आत्मा नाहीं होय है । बहुरि इनि गुण ऐसी संज्ञा है । ते ए प्रत्यय गुण हैं । ते कर्म करे हैं। तातें जीव सौ कर्मका कर्ता नाहीं है । बहुरि ये गुण हैं ते "कर्म करे हैं। 卐 टीका-निश्चयकरि पुद्गलकर्मका एक पुद्गलबव्य ही कर्ता है। तिस पुद्गलद्रव्यका विशेष .....मिथ्यात्व अविरति कषाय योग ये च्यारि सामान्य हेतुपणाकरि बंधका च्यारि कर्ता हैं। बहुरि
तेही भेदरूप भये संते मिथ्यादृष्टीकू आदि लेकरि सयोगकेवली ताई तेरह कर्ता हैं । सो ये पुद्गल. कर्मके विपाकके भेद हैं, तातें अत्यंत अपेतन हैं। जड़ हैं। ते अचेतन भये संते जो केवल तेही "पुदगलकर्मक कर्ता होयकरि व्याप्यव्यापकभावकरि किछू पुद्गलकर्मक करे, तो करौ। जीवका जया कहा आया ! किछू भी न आया। अथवा इहां यह तर्क है जो पुद्गलमयी मिथ्यावा"विक वेदता संता जीव है सो आपही मिथ्यादृष्टि होयकार पुद्गलकर्म करे है। ताका या प्रासमाधान-जो यह अविवेक हे अज्ञान है। जाते आस्मा भाव्यभावकभावके अभावतें पुम्हार्म ' जे मिथ्यात्वादिक तिनिका वेदक कहिये भोक्ता भी निश्चयकरि नाही है। तो पुद्गलकर्मका कर्ता
सें होय । सो अब ऐसा आया-जो, जाते पुद्गलाव्यमयी चे सामान्य व्यारि प्रलय, तिनिके लिभदास प्रत्यय तेरह, ते गुणशद करि कड़े तिनिके नाम गुणस्थान हैं, ही केवळ वर्मनिर है
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करे हैं । तातें जीव है सो पुद्गलकर्मनिका अकर्ता है । अर ते गुण ही तिनि पुद्गलकर्मनिके कर्ता
हैं। ते गुण पुद्गलद्रव्यमयी ही हैं । ताते यह ठहरया, जो पुद्गलकर्मका पुदगलद्रव्य ही एक 卐कर्ता है। - भावार्य-अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्य कर्ता नाहीं, इस न्यायतें आत्मद्रव्य तौ पुद्गलद्रव्यकर्म
का कर्ता नाही, अर बंधके कर्ता योगकषायादिकतें भये गुणस्थान हैं, ते परमार्थकार अचेतन पुद्गलमयी हैं, ताते ते पुद गलकर्मके कर्ता हैं, अर जीवकू कर्ता मानना अज्ञान है। बहुरि कहे हैं, जो जीव के अर तिनि प्रत्ययनिकै एकपणा भी नाहीं है। गाथा---
जह जीवस्स अणगणुवओगो कोधो वि तह जदि अणण्णो। जीवस्साजीवस्स य एवमणरणत्तमावण्णं ॥४५॥ एवमिह जो दु जीवो सो चेव दुणियमदो तहाजीवो। अयमेयत्ते दोसो पञ्चयणोकम्मकम्माणं ॥४६॥ अह पुण अण्णो कोहो अण्णुवओगप्पगो हवदि चेदा। जह कोहो तह पञ्चय कम्मं णोकम्ममवि अण्णं ॥४७॥
यथा जीवस्यानन्य उपयोगः क्रोधोपि तथा यद्यनन्यः । जीवस्थाजीवस्य वैवमनन्यत्वमापन्नं ॥४५॥ एवमिह यस्तु जीवः स चैव तु नियमस्तथाजीवः अयमेकत्वे दोषः प्रत्ययनोकर्मकर्मणां ॥४६॥ अथ पुनः अन्यः क्रोधोऽन्यः उपयोगात्मको भवति चेतयिता। यथा क्रोधस्तथा प्रत्ययाः कर्म नोकर्माप्यन्यत् ॥४७॥
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आत्मख्यातिः -- पदि यथा जीवम्य तन्मयत्वाज्जीवादन्य उपयोगस्तथा जडः क्रोधोप्पनन्य एवेति प्रतिपचिस्तद चिद्रपजडयोरनन्यत्वाज्जीवस्योपयोगमयत्ववज्जडक्रोधमयत्वापत्तिः । तथा सति तु य एव जीवः स एवाजीव इति द्रयांतरलुप्तिः । एवं प्रत्ययनो कर्मकर्मणामपि जीवादनन्यत्वप्रतिपत्तावयमेव दोषः । अथैतदोषभयादन्यएवोपयोगात्मा जीवोन्य
hi एव जडस्वभावः क्रोधः इत्यभ्युपगमः । तर्हि यथोपयोगात्मनो जीवादन्यो जडस्वभावः क्रोधः तथा प्रत्ययनोकर्म- 5 कर्माण्यप्यन्यान्येव जडस्वभावत्वाविशेषामास्ति जीवप्रत्यययोरेकत्वं । अथ पुद्गलद्रव्यस्य परिणामस्वभावत्वं साधयति 5 सांख्यमतानुयायिशिष्यं प्रति ।
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अर्थ-जैसे जीवके अनन्य कहिये एकरूप उपयोग है, तैसें जो क्रोध भी एकरूप अनन्य होय, तौ ऐसें जीवकै अर अजीव अनन्या रूपपणा । ऐसें भये इस लोकमैं जो जीव है सोही नियमतें तैसा ही भया, अजीव भया । ऐसें दोडके एकत्व होने में एक द्रव्यका लोप भया यह दोष आया । ऐसें ही प्रत्यय नोकर्म कर्म इनिविषै यह ही दोष जानना । अथवा इस 5 दोषके भयतें तेरे मतमें क्रोध तौ अन्य है अर उपयोगस्वरूप चेतयिता आत्मा है सो अन्य ऐसें कहे हैं । सो क्रोधकी की ज्यों प्रत्यय नोकर्म कर्म एभी आत्मातें अन्य ही हैं । फ टीका--जो जैसे जीवके तन्मयीपणातें जीवतें उपयोग अनन्य है, एकरूप है, तैसें जड
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कोष भी अनन्य ही है, ऐसी प्रतिपत्ति है, तौ चिद्रूपके अर जड़के अनन्यपणातें जीवकी उपयोग
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मीपणाकी ज्यों जड क्रोधमयीपणाकी भी प्राप्ति आई । तैसें होते जो हो जीव है सो ही अजीव फ्र 45 है, ऐसें होते न्यारा अन्य द्रव्यका लोप भया । ऐसें ही प्रत्यय नोकर्म कर्मनिके भी जीवतें अनन्य की प्रतिपत्ति विषै यह ही दोष आवे है । बहुरि इस दोषके भयतें ऐसे मानें जो उपयोगस्वरूप 5 जीव है सो तौ अन्य ही है अर जडस्वरूप क्रोध है सो अन्य है, तो जैसे उपयोगस्वरूप जीवतें 5 asस्वभाव क्रोध है सो अन्य है तैसें ही प्रत्ययन्दोकर्म कर्म भी अन्य ही हैं, जातें जैसें जडस्वभाव
क्रोध तैसें ही प्रत्यय नोकर्म कर्म भी जड, इनिमैं विशेष नाहीं है, ऐसें जीवकै अर प्रत्ययकै एक फ पणा नाहीं ।
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भावार्थ - मिथ्यात्वादि आलव तौ जड़स्वभाव हैं अर जीव वेतनस्वभाव है, सो जड चेतन
एक होय तौ बडा दोष आवै, भिन्नद्रव्यका लोप होय, तातें आस्रवकै अर आत्माकै एकपणा 5 प्रामुख नाही, यह निश्चयन का सिद्धांत है । आगें सांख्यमतका अनुसारी शिष्यप्रति पुद्गलद्रव्य 5 परिणामस्वभावपणा साधे हैं। सांख्यमती प्रकृति पुरुष अपरिणामी माने हैं. ताकूं समझावे 5
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जीवेण सयं च ण सयं परिणमदि कम्मभावेण । जदि पुग्गलदव्वमिगं अप्परिणामी तदा होदि ॥ ४८ ॥ कम्मइयवग्गणादि य अपरिणमतीहि कामभावेण । संसारम्स अभावो पसज्जादे संखसमओ वा ॥४९॥ जीवो परिणामयदे पुग्गलदव्वाणि कम्मभावेण । तं सयमपरिणमंतं कह तु परिणामयदि गाणी ॥५०॥ अह सयमेव हि परिणमदि कम्मभावेण पुग्गलं दव्वं । जीवे परिणामयदे कम्मं क मत्त मिदि मिच्छा ॥५१॥
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शियमा कम्मपरिणदं कम्मं चि य होदि पुग्गलं दव्वं ।
तह तं गाणावरणाइ परिणादं मुगासु तच्चेव ॥५२॥ पंचकम् । जीवे न स्वयं बद्धं न स्वयं परिणमते कर्मभावेन ।
यदि पुद्गलद्रव्यमिदमपरिणामि तदा भवति ॥४८॥
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कार्मणवर्गणासु चापरिणममाणासु कर्मभावेन ।
संसारस्याभाव: प्रसजति सांख्यसमयो वा ॥ ४९ ॥ जीवः परिणामयति पुद्गलद्रव्याणि कर्मभावेन ।
तानि स्वयमपरिणममानानि कथं नु परिणामयति चेतयिता ॥५०॥ अथ स्वयमेव हि परिणमते कर्मभावेन पुद्गलद्रव्यं । जीवः परिणामयति कर्म कर्मत्वमिति मिथ्या ॥५१॥ नियमात्कर्मपरिणतं कर्म चैव भवति पुद्गलं द्रव्यं । तथा तद्ज्ञानावरणादिपरिणतं जानीत तच्चैव ॥५२॥
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आत्मख्यातिः - यदि पुद्गलद्रव्य जीव स्वयम्वर्द्ध सत्कर्मभावेन स्वयमेव न परिणमेतं तदा तदपरिणाम्येव स्यात् ।
तथा सति संसाराभावः । अथ जीवः पुद्गलद्रव्यं कर्मभावेन परिणमयति ततो न संसाराभावः इति तर्कः १ किं स्वयम- फ 5 परिणममानं परिणममानं वा जीवः पुद्गलद्रव्यं कर्मभावेन परिणामयेत् । न तावत्स्वयमपरिणममानं परेण परिणमयितु पात । नहि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुं मन्येन पायेत । स्वयं परिणतमानं तु न परं परिणमंयितारमपेक्षेत । न हि वस्तुफ शक्तयः परमपेक्षते । ततः पुद्गलद्रव्यं परिणामस्वभावं स्वयमेवास्तु । तथा सति कलशपरिणता मृत्तिका स्वयं कलश इव जडस्वभावज्ञानावरणादिकर्मपरिणतं तदेव स्वयं ज्ञानावरणादिकर्म स्वात् । इति सिद्धं पुद्गलद्रव्यस्य परिणामस्वभावत्वं ।
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अर्थ - पुद्गलद्रव्य है सो जीवविषै आप स्वयं न बंध्या है अर कर्मभावकरि आप नाहीं परि- 5
मे है, ऐसें मानिये तो यह पुद्गलद्रव्य अपरिणामी ठहरे है । अथवा कार्मणवर्गणा आप कर्म
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Hraat नाहीं परिणमे हैं, ऐसें मानिये तो संसारका अभाव ठहरे। अथवा सांख्यमतका प्रसंग फ
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आवे है । बहुरि जीव है सो पुद्गलद्रव्यनिकं कर्मभावनिकरि परिणभावे है, ऐसें मानिये तो ते पुद्गलद्रव्य आप नाहीं परिणमते संते हैं, तिनिकूं जीव वेतन कैसें परिणमावें ? यह तर्क ठहरे। 5 अथवा पुद्गलद्रव्य आप ही कर्मभावकरि परिणमे है, ऐसें मानिये तो जीव है सो कर्मभावकरि 1455 पुद्गलद्रव्यकूं परिणमावे है, ऐसें कहना मिथ्या ठहरे। तातें यह ठहरथा, जो पुद्गलद्रव्य है सो
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+ कर्मरूप परिणया नियमतें कर्मरूप होय है, ऐसे होते सो पुद्गलद्रव्य हो ज्ञानावरणाविरूप परि
गया जानू। _____टीका-जो पुद्गलद्रव्य जीव विर्षे आप नाही या संता स्वयमेव कर्मभावकरि नाहीं । 卐 परिणमे है तौ पुद्गलद्रव्य अपरिणामी ही ठहरे है, ऐसे होते संसारका अभाव होय है। कर्मरूप । .. भये विना जीव कर्मरहित ठहरै तब संसार काहेका ? बहुरि जो इहां ऐसा तर्क करै, जो जीव " है सो पुद्गलद्रव्यकू कर्मभावकरि परिणमावै है, तातें संसारका अभाव नाहीं होय है। ताका " , समाधानकू दोयपक्षकरि पूछे हैं । जो जीव है सो पुद्गलकू परिणमावै है सो स्वयं अपरिणमते ॥ । परिणभावे है, कि स्वयं परिणामतेकू परिणमा है ? तहां प्रथम पक्ष लीजिये तो स्वयं अपरिणमतेकू प तौ नाही परिणमावे है, आप न परिणामतेकू परके परिणभावनेकी सामर्थ्य नाही है, जाते स्वते ॥
शक्ति नाही होय सो शक्ति परकरि करी न जाय है। बहुरि जो पुद्गलद्रव्यकू स्वयं परिणमतेकू 卐 जीव कर्मभावकरि परिणमावै है, यह दूजा पक्ष कहे तो आप परिणमता होय तो अन्य परिणमा
वनेवालाकी अपेक्षा नाही चाहे है। जातें वस्तुकी शक्ति है ते परकू नाही अपेक्षारूप करे है। ऊ तासे पुद्गलद्रव्य है सो परिणामस्वभाव स्वयमेव होऊ । तैसें होतें जैसे कलशरूप परिणई मृत्तिका - आप सो कलश ही है, तैसें जडस्वभाव ज्ञानावरणादिक कर्मरूप परिणया पुद्गलद्रव्य सो ही आप
ज्ञानावरणादिकर्म ही है, ऐसे पुद्गलद्रव्यके परिणामस्वभावपणा सिद्ध भया। अब इस अर्थके म कलशरूप काव्य कहे हैं।
उपजातिच्छन्दः स्थितेत्यविध्ना खल पुद्गलस्य स्वभावभूता परिणामशक्तिः।
तस्यां स्थितायां स करोति भावं यमात्मनस्तस्य स एव कर्ता ॥१६ । 卐 जीवस्य परिणामित्वं साधयति ।।
अर्थ-ऐसे उक्त प्रकार करि पुद्गलद्रव्यको परिणामशक्ति स्वभावभूत निर्विन सिद्ध भई ।
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का है। ग. भावार्थ-सर्व द्रव्यनिका परिणामस्वभावपणा सिद्ध है, तातें जाका भावका जो ही कर्चा
है। गुदगलाइन्ट ली जिस साद आरके करे है, ताका सो ही कर्ता है। आगें जीवद्रव्यका परिणामस्वभावपणा साधे हैं। गाथा
ण सयं वद्धो कम्मे ण सयं परिणमदि कोहमादीहिं । जदि एस तुज्झ जीवो अप्परिणामी तदा होदि ॥५३॥ अपरिणमंते हि सयं जीवे कोहादिएहि भावहिं। संसारस्स अभावो पसजदे संखसमयओ वा ॥५४॥ पुग्गलकम्मं कोहो जीवं परिणामएदि कोहत्तं । तं सयमपरिणमंतं कह परिणामएदि कोहत्तं ॥५५॥ अह सयमप्पा परिणमदि कोहभावेण एस दे बुद्धी। कोहो परिणामयदे जीवस्स कोहमिदि मिच्छा ॥५६॥ कोहुवजुत्तो कोहो माणुवजुत्तो य माणमेवादा। माउवजुत्तो माया लोहुवजुत्तो हवदि लोहो ॥५॥ पंचकम् ।
न स्वयं वद्धः कर्मणि न.स्वयं परिणमते क्रोधादिभिः । यथेषः तव जीवोऽपरिणामी तदा भवति ॥५३॥
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अपरिणममाने स्वयं जीये क्रोधादिभिः भावः। संसारस्याभावः प्रसजति सांख्यसमयो वा ॥५४॥ पुगलकर्मक्रोधो जीनं परिणामपति कोषले । तं स्वयमपरिणममानं कथं तु परिणामयति क्रोधः ॥५५॥ अथ स्वयमात्मा परिणमते क्रोधभावेन एषा ते बुद्धिः। क्रोधः परिणामयति जीवं क्रोधत्वमिति मिथ्या ॥५६॥ कोषोपयुक्तः क्रोधो मानोपयुक्तश्च मान एवात्मा।
मायोपयुक्तो माया लोभोपयुक्तो भवति लोभः ॥५७।। पंचकम् ।
आत्मख्याति:-यदि कर्मणि स्वयमबद्धः सन् जीवः क्रोधादिभावेन स्वयमेव न परिणमते तदा स किलापरि卐णाम्येव स्यात् । तथा सति संसाराभावः। अथ पुद्गलकर्मक्रोधादि जीवं क्रोधादिभावेन परिणामयति ततो न मंसारा
भाव इति सर्कः । किं स्वयमपरिणममानं परिणममानं या पुद्गलकर्म क्रोधादि जीचं क्रोधादिभावेन परिणामयेत् । न . 卐 तावत्स्वयमपरिणममानः परेण परिणमयितुपायेंत नहि स्वतोऽसती शक्तिः कतु मन्येन पायते । स्वयं परिणममानस्तु
न परं परिणयितारमपेक्षेत । नहि वस्तुशक्तयः परमपेक्षते । ततो जीवः परिणामस्वभावः स्वयमेवास्तु तथा सति गरु卐 डम्यानपरिणतः साधकः स्वयं गरुड इवाज्ञानस्वभावक्रोधादिपरिणतोपयोगः स एव स्वयं क्रोधादिः स्यादिति सिहं
जीवस्य परिणामस्वभावत्वं । ____ अर्थ-सांख्यमतके अनुसारि शिष्यप्रति आचार्य कहे हैं । जो हे भाई तेरी बुद्धि में यह जीव कर्मविर्षे आप स्वयं न बंध्या है, अर कोधादिक भावनिकरि आप स्वयं न परिणमे है, तो अपरि.' णामी होय है । सो ऐसे क्रोधादिक भावनिकरि जीवकू आप स्वयं न परिणमते संते संसारका ।। अभाव होय है, अर सांख्यमतका प्रसंग आवे है। बहुरि कहेगा जो पुद्गलकर्म क्रोध है सो कोष- ।
भावरूप जीवकू परिणमावे है तो आप स्वयं नाही परणमता जो जीव ताहि क्रोध कैसें परिणमावे? . म यह तर्क है । अथवा तेरी ऐसी बुद्धि है, जो आत्मा आपै आप क्रोधभावकरि परिणमै है, तो " जीवकू क्रोध है सो क्रोधभावरूप परिणमावे है, ऐसें कहना मिया ठहरे है। साते यह सिद्धांत है
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1- है, जो, यह आत्मा क्रोधते उपयुक्त होय है, उपयोग कोधाकाररूप परिणमे है, तब तो कोष ही। जमय है। बहुरि मानकरि उपयुक्त होय है, तब यह आत्मा मान ही है । बहुंरि मायाकरि उपयुक्त होय ॥
है, तब माया ही है । बहुरि लोसफार उपयुतः शोश है, सब लोभ ही है।
___टीका-जो जीव है, सो कर्मविर्षे आप स्वयं नाही बंध्या संता क्रोधादिक भावकरि आप 卐 नाही परिणमै हैं, तो सो जीव अपरिणामी ही होय है, तैसें होते संसारका अभाव आवे है। .. अथवा जो ऐसा तर्क करे है, जो पुद्गलकर्म क्रोधादिक हैं, सो जीवकू क्रोधादिक भावकरि का परिणमावे हैं । तातें संसारका अभाव नाही होय है । तौ तहां दोय पक्ष पूछिये, जो पुद्गलकर्म' 15 क्रोधादिक हैं सो जीवकू आपै आप अपरिणमतेकू परिणमाये है, कि परिणमतेकू परिणामावै है ? ..
तहां प्रथम तो आप नाही परिणमता होय ताकू तो परके परिणमावनेका असमर्थपणा, जातें : 卐 आपमें जो शक्ति नाही, जो परकरि करी न जाय है । बहुरि स्वयं परिणमता होय सो परकू .
परिणमावनेवालाकू नाहीं चाहे है, जाते वस्तुको शक्ति है ते परकी अपेक्षा नाहीं करे है । अन्यमें ।
अन्य कोई शक्ति नई निपजाय सके नाहीं। तातें यह ठहरी, जो जीव है सो परिणामस्व-प्र 1. भावरूप स्वयमेव होऊ । तैसें होतें जैसे कोई मंत्रसाधक गस्डका ध्यान करता तिस गरुडभावरूप
परिणया गरुड ही है, तैसें यह जीवात्मा अज्ञानस्वभाव क्रोधादिरूप परिणया जो उपयोग तिस- 5 रूप आप स्वयमेव क्रोधादिक ही होय है । ऐसें जीवका परिणाम स्वभावपणा सिद्ध भया ।
भावार्थ-जीव भी परिणामस्वभाव है। जब अपना उपयोग क्रोधादिरूप परिणमे है, तब 卐 आप क्रोधादिक रूप ही होय है ऐसें जानना । अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
उपजातिच्छन्दः स्थितेति जीवस्य निरंतराया स्वभावभृता परिणामशक्तिः।
तस्यां स्मितायां स करोति भावं यं स्वस्य तस्यैव भवेत्स कर्वा ॥२०॥ 卐 वाहि
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अर्थ-जीवके अपने स्वभाव होते भई ऐसी परिणामशक्ति है सो पूर्वोक्तप्रकार निर्विन ठहरी । ताकू ठहरते संते सो जीव जिस भावकू आपके करे, ताहीका सो को होय है।।
भावार्थ-जीव भी परिणामी है, सो आप जिस भावरूप परिणमै ताका कर्ता होय है। आगे इसही अर्थकू लेकरि भावनिका विशेष करि कर्ता कहे हैं । गाथा
नीचे लिखी तीन गाथाओंकी आत्मख्याति संस्कृत और हिन्दी टीका उपलब्ध नहीं है इसलिये नहीं छापी गई। वात्पर्यवृत्ति टीका मिलती है वह छपी है।
जो संगं तु मुइत्ता जाणदि उवओगमप्पयं सुद्धं । तं णिसंग साई परमठवियाणया विति ॥
यः संग तु मुक्त्वा जानाति उपयोगमयकं शुद्ध।
तं निस्संग साधु परमार्थविज्ञायका विदंति ॥ तात्पर्यवृत्तिः–जो संगं तु मुइना जाणदि उपभोगमप्पयं सुद्धं यः परमसाधुर्वाधान्यंतरपरिग्रहं मुक्त्वा वीतराग- " चारित्राषिनाभूतमेदज्ञानेन जानात्यनुभवति । कं कर्मतापन्नं आत्मानं । कथं भूतं विशुद्धज्ञानदर्शनोपयोगस्वमानत्वादुप योगस्तमुपयोगं शानदर्शनोपयोगलक्षणं । पुनरपि कथं भृतं । शुद्ध भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मरहितं । सं णिसंग साहु । परमळवियाणया विति तं साधु निस्संगं संगरहितं विदंति जानसि नुवंति कथयति वा । के ते परमार्थविज्ञायका गणघरदेवादय इति। ___ अर्थ-जो साधु बाह्य अभ्यंतर परिग्रह छोड़कर वीतराग चारित्रके साथ होनेवाले भेदज्ञानसे शान दर्शनोपयोग लक्षणवाले शुद्ध आत्माको जानता है, अनुभवन करता है उसीको परमार्थ .. जाननेवाले गणधरादिक संगरहित साधु कहते हैं।
जो मोहं तु मुइत्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं । तं जिदमोहं साहुं परठमवियाणया विति॥
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म जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तम्स भावस्स (कम्मस्स)। णाणिस्स दु णाणमओ अण्णाणमओ अणाणिस्स ॥५॥
यःमोहं तु मुक्त्वा ज्ञानस्वभावाधिक मनुते आत्मानं ।
तं जितमोहं साधुपरमार्थविज्ञायका विदंति । तात्पर्यवृत्तिः-जो मोहं तु मुइना पाणसहावाधियं मुणदि आदं यः परमसाधुः कर्ता समस्तचेतनाचेतनशुभाशुभपरद्रव्येषु मोहं मुक्त्वात्मशुभाशुभमनोवचनकायच्यापाररूपयोगत्रयपरिहारपरिणताभेदरलत्रयलक्षणेन भेदज्ञानेन मनुते । जानाति के कर्मतापन्नं आत्मानं, किं विशिष्टं ! निर्विकारस्वसंवेदनज्ञानेनाधिक परिणतं परिपूर्ण । तं जिदमोहं साहू परमवियाणया विति तं साधं कर्मतापन्नं जितमोहं निर्मोहं विदंति जानंति । के ते! परमार्थविज्ञायकास्तीर्थकर." परमदेवादय इति । एवं मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वपक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायबुद्ध्युदयशुभाशुभपरिणाम-फ श्रोत्रचक्षुर्घाणजिड्वास्पर्शनसंज्ञानि विंशति सूत्राणि व्याख्येयानि । तेनैव प्रकारेण निर्मलपरमचिज्योतिः परिणतेविलक्षणासंख्येयलोकमात्रयिभावपरिणामा ज्ञातव्याः । अथ
अर्थ-जो साधु मोहका त्यागकर ज्ञानस्वभाववाले आत्माको जानता है उसे तीर्थकर प्रभृति विशिष्ट ज्ञानी मोहरहित-निर्मोही कहते हैं।
जो धम्मं तु मुइत्ता जाणदि उवओगमय्यगं सुद्धं । तं धम्मसंगमुक्कं परमवियाणया विति ॥ ___ यः धर्म तु मुक्त्वा जानाति उपयोगमयकं शुद्ध।
तं धर्मसंगमुक्तं परमार्थविज्ञायका विदंति । तात्पर्यवृत्तिः--जो धम्मं तु महतला जाणदि उवोगमथ्यगं सुद्धं यः परमयोगींद्रः स्वसंवेदनशाने स्थित्वा शुमो। पयोगपरिणामस्पं धर्म पुण्यसंगं स्वक्त्या निजशुद्धारमपरिणतामेदरत्नत्रयलक्षणेनाभेदेशानेन जानत्यनुभवति । कर्मता
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यं करोति भावमात्मा कर्ता स भवति तस्य भावस्य (कर्मणः) षभ
ज्ञानिनः स ज्ञानमयोऽज्ञानमयोऽज्ञानिनः ॥५०॥ आत्मख्यातिः-एवमयमात्मा स्वयमेव परिणामस्वभावोपि यमेक भावमात्मनः करोति तस्यौव कर्मतामापद्यमानस्य 卐 कत्वमापद्यते । स तु ज्ञानिनः सम्यकस्वपरविवेकेनात्यंतोदितविविक्तात्मख्यातित्यात् ज्ञानमय एवं स्यात् अज्ञानन ॥ .. तु सम्यक्स्वपरविवेकामावेनात्यंतप्रत्यस्तमितविविक्तात्मख्यातित्वादज्ञानमय एव स्यात् । किं ज्ञानमयभावात्किमज्ञान+ मयावतीत्याह । म. अर्थ--जो आत्मा जिसभावकू करे है सोही तिस भावरूप कर्मका कर्ता होय है। तहां ज्ञानीके
तौ सो भाव ज्ञानमय है, बहुरि अज्ञानीके सो भाव अज्ञानमय है। 卐 टीका-ऐसें पूर्वोक्त कथनकर यह आत्मा आप स्वयमेव परिणाम स्वभाव है तोऊ जिस
भावकू आपके करे है सो ही भाव कर्मक भावन माह होय है, ताका अप कर्तागणाप्राप्त होय है। बहुरि सो भाव ज्ञानीके तौ ज्ञानमय ही है, जाते ज्ञानीके सम्यक् प्रकार आपापरका भेदज्ञान भया है, ताकरि अत्यंत उदयकू प्राप्त भई जो सर्वपरद्रव्य भावनितें भिन्न आत्माकी ख्याति तिस ।। पन्नं आत्मानं । कथंभूतं विशुद्धज्ञानदर्शनोपयोगपरिणतं । पुनरपि कथंभूतं ? शुद्धं शुमाशुमसंकल्यविकल्परहितं । तं
धम्मसंगमुक्कं परमवियाणया विति । तं परमतपोधनं निर्विकारस्वकीयशुद्धारमोपलभरूपनिश्चयधर्मविलक्षणभोगाVE कांक्षास्वरूपनिदानबंधादिपुण्यपरिग्रहरूपव्यवहारधर्मरहितं विदंति जानं ति । के ते? परमार्थविज्ञायकाः प्रत्यक्षज्ञानिन " इति । किं च कथंचित्परिणामित्वे सति जीवः शुद्वोपयोगेन परिणमति पश्चान्मोक्षं साधयति परिणामित्वाभावे बद्धो
वद्ध एव शुद्धोपयोगरूपं परिणामांतरस्वरूपं न घटते ततश्र मोक्षाभाव इत्यभिप्रायः । एवं शुद्धोपयोगरूपज्ञानमयपरिणाम
गुणन्याख्यानमुख्यत्वेन गाथात्रयं गतं । तदनन्तरं यथा ज्ञानमयोऽज्ञानमयभावदयस्य कर्ता भवक्ति तथा कथयति।। का अर्थ-जो धर्म-पुण्यको छोडकर ज्ञान दर्शनोपयोगवाले शुद्ध आत्माको जानता है अनुभवन + करता है उसे परमार्थ के ज्ञाता--गणधरादिक धर्मसंग रहित साधु कहते हैं।
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प्र स्वरूपपणा है। बहुरि सो भाव अज्ञानीके अज्ञानमय ही है। जाते अज्ञानीके भले प्रकार स्वपर1 का भेदज्ञानका अभावकरि भिन्न आत्माकी ख्याति कहिये प्रगटता सो अत्यंत अस्त भई है, " भेदज्ञानका अभावतें भिन्न आत्माकू नाहीं जाने है। 9 भावार्थ-ज्ञानोके तो आपापरका भेदज्ञान भया है, तातें अपना ज्ञानमय भाव हीका कर्ता
पणा है । बहुरि अज्ञानीकै आशपरका भेदज्ञान नाहीं है, तातें अज्ञानमयभावहीका कर्तापणा है। आर्गे कहे हैं, जो ज्ञानमयभावतें तौ कहा होय है ? अर अज्ञानमय भावतें कहा होय है । गाथा
अण्णाणमओ भावो अणाणिणो गुणादि तेग कपाणि । + णाणमओ णाणिस्स दुण कुणदि तहमा दु कम्माणि ॥५९॥
अज्ञानमयो भावोऽज्ञानिनः करोति तेन कर्माणि ।
ज्ञानमयो ज्ञानिनस्तु न करोति तस्मातु कर्माणि ॥५९॥ ___ आत्मख्यातिः-अज्ञानिनो हि सम्बकालपरविवेकाभावनात्यंतप्रत्यास्तमितविविक्तात्मण्यातित्वाद्यस्मादन्नानमय क एवं स्यात् तस्मिंस्तु सति स्त्रपरयोरेकत्वाभ्यासेन ज्ञानमात्रात्स्वस्मात्प्रभ्रष्टः पराभ्यां रागद्वेषाभ्यां सममेकीभूय प्रवर्तिता
हंकारः स्वयं किलयोइं रज्ये रुण्यामीति रज्यते रुष्यति च तस्मादन्नानमयभाबादज्ञानी परौ रागद्वेषावात्मानं कुर्वन् करोति 5 कर्माणि । शानिनस्तु सम्यकस्वपरविवेकेनात्यंतोदितविविक्तात्मख्यातित्वाधस्माद् ज्ञानमय एवं भावः स्यात् तस्मिस्तु ।1- सति स्वपरयो नात्वविन्नानेन ज्ञानमात्रे स्वस्मिन्सुनिविष्टः पराभ्यां रागद्वेषाम्यां पृथग्भूततया स्वरसतएव निचाहंकारः का स्वयं किल केवलं जानात्येव न रज्यते न च रुण्यति तस्माद्ज्ञानमयाद् भावात् बानी परौ राग पावात्मालम्कुर्वन करोति . 1. कर्माणि ।
___अर्थ-अज्ञानीके अज्ञानमय भाव है, तिस कारणकरि अज्ञानी कर्मनिषू करे है। बहुरि + ज्ञानीके ज्ञानमय भाव है, तातें सो ज्ञानी कर्मनिकू नाही करे है।
टीका-अज्ञानीक निश्चयकरि भलेषकार स्वपरका मेदज्ञानका अभाव है साकार अत्यंत ।
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फ अस्त भया है भिन्न आत्माका प्रगटपणा जाके तिसपणेकरि अज्ञानमय ही भाव होय है, तिस अज्ञानमयभावके होतैं आत्माका अर परका एकपणाका निश्चय आशयकरि ज्ञानमात्र अपना आत्मस्वरूप भ्रष्ट हुवा संता परद्रव्यस्वरूप जे रागद्वेष तिनकरि सहित एक होयकरि प्रय है अहंकार जाके ऐसा भया संता अज्ञानी ऐसें माने है मैं रागी हूं, द्वेषी हूं, ऐसें रागी होय है, द्वेषी होय है । तिस रागादिस्वरूप अज्ञानमय भावतें अज्ञानी भया संता परद्रव्यस्वरूप जे 5 रागद्वेष तिनिश्वरूप आपकूं करता संता कर्म निकुं करे हैं । बहुरि ज्ञानीकै सम्यक भलेप्रकार फ्र आपापरका भेदज्ञान भया है, ताकरि अत्यंत उदय भया है भिन्न आत्माका प्रगटपणा जाकै तिस
फ्र
卐
5 भावकरि ज्ञानमय ही भाव होय है, ताके होर्ते अपना अर परका भिन्नपणाका ज्ञानकरि ज्ञानमात्र 卐
अपना आत्मस्वरूप वर्षे तिष्ट्या संता ज्ञानी है सो परद्रव्यस्वरूप जे रागद्वेष तिनिकरि न्यारा
卐
traft अपना रहा निवृत्त भया है परविर्षे अहंकार जाकै ऐसा भया संता निश्चयकरि
卐 जानेही है, रागरूप नाही होय है, तथा द्वेषरूप नाहीं होय है । तातें ज्ञानमय भावतें ज्ञानी 5
भया संता परद्रव्यस्वरूप जे रागद्वेष तिनिरूप आत्माकू नाहीं करता संता कर्मनिकं नाहीं 5 करे है।
फफफफफफफफफफफफफ
5 रागद्वेषभावरूप नाहीं करे है । केवल ज्ञाता ही होय है, तब कर्मकूं नाहीं करे है । आगें अगिली गाथाका अर्धकी सूचनकारूप काव्य कहे हैं ।
卐
卐
भावार्थ - या आत्मा क्रोधादिक मोहकी प्रकृतिका उदय आवे है, ताका अपने उपयोगमें
5 रागद्वेषरूप कलुष मलिन स्वाद आवे हैं, ताका भेदज्ञानविना अज्ञानी भया संता ऐसा माने हैजो यह रागद्वेषमय मलिन उपयोग है सो ही मेरा स्वरूप है यह ही मैं हूं, ऐसा अज्ञानरूप अहं5 कारकरि युक्त भया संता कर्मनिक बांधे है । ऐसें अज्ञानमय भावतें कर्म
होय है । बहुरि
जब ऐसें जाने है - जो ज्ञानमात्र शुद्ध उपयोग है सो तौ मेरा स्वरूप है, सो मैं हूं, अर रागद्वेष 5
卐
है सो कर्मका रस है, मेरा स्वरूप नाहीं, ऐसा भेदज्ञान होय तत्र ज्ञानी होय है, तब आपकूं
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फ हैं, सो यह तो काहेतें है ? बहुरि अज्ञानी के अज्ञानमय ही सर्व भाव होय हैं अर अन्य नाहीं फ
फ्र
होय हैं, सो यह काहे होय हैं ? इस ही प्रश्नके उत्तररूय गाथा हैं। गाथाणाणमया भावाओ णाणमओ चेव जायदे भावो ।
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आर्याछन्दः
ज्ञानमयएव भावः कुतो भवेद् ज्ञानिनो न पुनरन्यः ।
सर्वनाः॥२
अर्थ - इहां प्रश्न वचन है। जो ज्ञानीके हौ ज्ञानमय ही भाव होय हैं अर अन्य नाहीं होय
जम्हा तम्हा णाणिस्स सव्वे भावा दु णाणमया ॥ ६०॥ अगणाणमया भावा अण्णाणो चेव जायए भावो ।
जम्हा तम्हा भावा अण्णाणमया अणाणिस्स ॥ ६१ ॥
ज्ञानमयाद्भावाद् ज्ञानमयश्चैव जायते भावः ।
फफफफफफफफ
यस्मात्तस्माज्ज्ञानिनः सर्वे भावाः खलु ज्ञानमयाः ॥ ६० ॥ अज्ञानमयाजावादज्ञानश्चैव जायते भावः ।
यस्मात्तस्माद्भावादज्ञानमया अज्ञानिनः ॥ ६१ ॥
आत्मख्यातिः - यतो खज्ञानमयाद् भावाद्यः कथनापि भावो भवति स सर्वोदयज्ञानमयत्वमनतिवर्तमानोऽज्ञानमयएव
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5 स्यात् ततः सर्व एवाज्ञानमया अज्ञानिनो भावाः । यतश्च ज्ञानमवाद भाषायः कञ्चनापि भावो भवति स सर्वोपि ज्ञान
मयत्वमनतिवर्तमानो ज्ञानमय एव स्यात् ततः सर्व एव ज्ञानमया ज्ञानिनो भावाः ।
अर्थ - जातें ज्ञानमय भावतें ज्ञानमय ही भाव उपजे हैं, तातें ज्ञानीके निश्चयतें सर्व भाव 卐 ज्ञानमय ही उपजे हैं । बहुरि जातें अज्ञानमय भावतें अज्ञानमय ही भाव होय हैं तातें अज्ञानीके अज्ञानमय ही भाव उपजे हैं ।
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टीका--जातें निश्चयकरि अज्ञानमय भावतें जो कुछ भाव होय है सो सर्व ही अज्ञानपणाकूं 5
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नाही उल्लधिकार वर्तता संता अज्ञावमय हो होप है, तातें अज्ञानीकै सर्व ही भाष भारतात
हैं। बहुरि बातें ज्ञानमय भावतें जो कछु भाव होय है सो सर्व ही ज्ञानमयपणाकू नाही उल्लंधि म करि वर्तता संता ज्ञानमय ही होय है, तातें ज्ञानीके सर्व ही नाव हैं ते ज्ञानमय हैं। भावार्थ सुगम है। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
अनुष्टुपच्छन्दः बानिनो ज्ञाननिर्वृत्ताः सर्वे भावा भवंति हि । सर्वेप्यज्ञाननिर्वृत्ताः भवंत्यज्ञानिनस्तु ते ॥२२॥ अवैतदेव दृष्टांतेन समर्थयते ।।
अर्थ-ज्ञानीके सर्वही भाव हैं ते ज्ञानकरि निपजे हैं। बहुरि अज्ञानीके जे सर्व ही भाव हैं ते अज्ञानकरि निपजे हैं। आगे इस अर्थकू दृष्टांतकरि दृढ करे हैं । गाथा
कणयमयाभावादो जायंते कुंडलादयो भावा । अयमययाभावादो जह जायंते तु कडयादी ॥२॥ अण्णाणमया भावा आणणिणो बहुबिहा वि जायते । णाणिस्स दुणाणमया सब्वे भावा तहा होंति ॥६३॥
कनकमयाब्रावाज्जायते कुंडलादयो भावाः । अयोमयकानावाद्यथा जायते तु कटकादयः ॥६२॥ अज्ञानमयाद् भावादज्ञानिनो बहुविधा अपि जायंते ।
ज्ञानिनस्तु ज्ञानमयाः सर्वे भावास्तथा भवंति ॥६३॥ आत्मख्याति:-यथा खलु पुद्गलस्प स्वयं परिणामस्वभावत्वे सत्पपि कारगानुपियायित्वात्कार्याणां जानदमया ॥२ भावार्जाबनदजातिमनतिवर्तमानाजांवूनदकुडलादय एव भावा भवेयुर्न पुनः कालायसवलयादयः । कालायसमयावू 卐 मावाच कालायसजातिमनतिवर्तमानाः कालायसवलयादय एव भवेयुर्न पुनर्जावूनदकुडलादयः । तथा जीवस्य स्वयं परि-卐
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णामस्वभावत्वे सत्यपि कारणानुविधायित्वादेव कार्याणां अज्ञानिनः स्वयमन्त्रानमयाद् भावादज्ञानजातिमनतिवर्तमाना । विविधा अप्यज्ञानमया एव भावा भवेयुर्न पुनर्ज्ञानमयाः ज्ञानिनश्च स्वयं ज्ञानमयाद् भावाद् ज्ञानजातिमनतिवर्तमानाः सर्वे ।। ज्ञानमया एव भाषा भवेयु ने पुनरज्ञानमयाः ।
___ अर्थ-प्रथम दृष्टांत जैसे सुवर्णमय भावतें सुवर्णमय कुडलादिक भाव होय हैं । बहुरि लोह- 4 .. मयभावतें लोहमय कडा इत्यादिक भाव होय हैं । याका दृष्टांत-तैसें अज्ञानीके अज्ञानमय भावते + अनेक प्रकारके अज्ञानमय भाव होय हैं, बहुरि ज्ञानीकै सर्व ज्ञानमय भावतें सर्व ही ज्ञानमय
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भाव होय है। "
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___टीका-जैसें निश्चयकरि पुद्गलद्रव्यके स्वयं परिणाम स्वभावपणारूप होते भी जैसा पुद्गल + के कारण होय तिसका स्वरूप कार्य होय, यह प्रसिद्ध है । ऐसें होतें सुवर्णमय भावतें सुवर्णजाताकू,
नाहीं उल्लंघ्य वर्तता सुवर्णभय ही कुंडल आदिक भाव होय हैं, सुवर्णत लोहमय कडा आदिक । 9 भाव न होय हैं। बहुरि लोहमयभावते लोहकी जातीकू नाही उल्लंघ्य वर्तते लोहमय कडा + __ आदिक भाव होय हैं, बहुरि लोहत सुवर्णमय कुंडल आदिक भाव नाहीं होय हैं, तैसें जीवके + स्वयंपरिणाम भावरूप होते संते भी 'जैसा कारण होय तैसा ही कार्य होय ऐसा न्याय है इस 4 1- न्यायतें अज्ञानीके स्वयमेव अज्ञानमय भावतें अज्ञानकी जातीकू नाही उल्लभ्य वर्तते अनेक
प्रकारके अज्ञानमय ही भाव होय हैं ज्ञानमय नाहीं हो है। अर ज्ञानीके स्वयमेव ज्ञानमय । 45 भावतें ज्ञानकी जातीकू नाही उल्लंघ्य वर्तते सर्व ज्ञानमय ही भाव होय हैं, अज्ञानमय नाहीं ।
"होय हैं। 9 भावार्य-जैसा कारण होय तैसा ही कार्य होय इस न्यायतें जैसे सुवर्णते तौ.सुवर्णमय गहमे 5 .. होय, लोहतें लोहमय होय, तैलें अज्ञानीके अज्ञानतें अज्ञानमयभाव होय है, ज्ञानीके जानते .. मामब ही भाव होय हैं । इहां ऐसा आशय जानना, जो अज्ञानभाव तौ क्रोधानिक हैं, शानभाव
माविक हैं । यद्यपि अविरतसम्पदृष्टिके चारित्रमोहके उदयतें क्रोधाविक भी प्रा हैं, कामि
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5 भी नाही है, उदयकी बरजोरीतें परिणमे है । तातें तहां भ' ज्ञान ही विषै अपना स्वामीपणा फ्र मान तिनि क्रोधादि भावका भी अन्य ज्ञेयकी ज्यों ज्ञाता ही है, कर्ता नाहीं है । ऐसें तहां 5 भी ज्ञानीपणाकरि ज्ञानभाव ही भया जानना । आगे अगिली गाथाकी सूचना अर्थरूप फ्र
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तिनिविषै आत्मबुद्धि नाही है, परानमित्त भई उपाधि मान है, सो उदय देखि रहे ।
आगामी
ऐसा बंध नाही करे है । जातें संसारका भ्रमण वर्षे अर आप उद्यमी होय तिनिरूप परिणमे
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श्लोक है।
अज्ञानमयभावानामज्ञानी व्याप्य भूमिकां । द्रव्यकर्मनिमित्तानां भावानामेति हेतुतां ॥२३॥
अर्थ - अज्ञानी है सो अज्ञानमय अपने भाव, तिनिकी भूमिकाकूं व्याप्यकरि आगामी द्रव्य
कर्मकं कारण जे अज्ञानादिक भाव, तिनिका हेतुपणाकूं प्राप्त होय है। सो ही अर्थ गाथा पांचकरि
कहे हैं। गाथा
मिच्छुत्तस्सदु उदयं जं जीवाणं दु अतच्चसद्दहणं ।
असंजमस्स दु उदओ जं जीवाणं अविरदत्तं ॥ ६४॥ अगणाणस्स दु उदओ जं जीवाणं अतच्चउवलद्धी । जो दु कलुसोवओगो जीवाणं सो कसाउदओ ॥६५॥ तं जाण जोगउदयं जो जीवाणं तु चिट्ठउच्छाहो ।
सोहणमसोहणं वा कायव्वो विरदिभावो वा ॥ ६६ ॥
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एदेस हेदुभदेसु कम्मइयवग्गणागयं जं तु I
परिणमदे अडविहं णाणावरणादिभावेहिं ॥६७॥
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तं खलु जीवाणबद्ध कम्मइयवग्गणागयं जइया। तइया दु होदि हेदू जीवो परिणामभावाणं ॥६८॥
आशागत्य स उड्यो या जीवानामतत्त्वोपलब्धिः। मिथ्यात्वस्य तूदयो जीवस्याश्रद्दधानत्वं ॥६॥ उदयोऽसंयमस्य तु यजीवानां भवेदविरमणं तु । यस्तु कलुषोपयोगी जीवानां स कषायोदयः ॥६५॥ तं जानीहि योगोदयं यो जीवानां तु चेष्टोत्साहः। शोभनोऽशोभनो वा कर्तव्यो विरतिभावी वा ॥६६॥ एतेषु हेतुभूतेषु कार्मणवर्गणागतं यत्तु । परिणमतेऽष्टविधं ज्ञानावरणादिभावैः ॥१७॥ तत्खलु जीवनिबद्ध कार्मणवर्गणागतं यदा।
तदा तु भवति हेतुजीवः परिणामभावानां ॥६॥ आत्मख्याति:-अतत्वोपलब्धिरूपेण ज्ञाने स्वदमानो अज्ञानोदयः मिथ्यात्वासंयमकषाययोगोदयाः कर्महेतवस्त- 卐 卐न्मयाश्चत्वारो भावाः। तच्चाश्रद्धानरूपेण ज्ञाने स्वदमानो मिध्यात्योदयः अविरमणरूपेण शाने स्वदमानोऽसंयमोदयः ._ कलुषोपयोगरूपेण झाने स्वदमानः कपायोदयः शुभाशुभप्रवृत्तिनिवृत्तिव्यापाररूपेण ज्ञाने स्वदमानो योगोदयः। अथै- का ॐ नेषु पौद्गलिकेषु मिथ्यात्वाधुदयेषु हेतुभूतेषु यत्पुद्गलद्रव्यं कर्मवगणागतं ज्ञानावरणादिभात्रैरष्टया स्वयमेव परिणमते तत्खलु __ कर्मवर्गणागतं जीवनिबई यहा स्यात्तदा जीवः स्वयमेवाज्ञानात्परात्मनोरेकत्वाभ्यासेनाधानमफाला तस्मानादीनां 卐 सस्थ परिणाममानानां हेतुर्मवति । पुद्गलद्रव्यापृथग्भूत एव जीवस्य परिणामः। ... अर्थ-जो जीवनिके अतत्वकी उपलब्धि है अन्यथा स्वरूपका जानना है, सो तो अज्ञानका
उदय है। बहुरि जो जीवके अतत्त्वका श्रद्धान है सो मिथ्यात्वका उदय है । बहुरि जो जीवनिकै ज, अविरमण कहिये अत्यागभाव है सो असंयमका उदय है। बहुरि जो जीवनिकै ब्लुष कहिये
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卐 मलिन जाणपणाकी स्वच्छताते रहित उपयोग है सो कपायका उदय है। बहुरि जो जीवनिके
शुभरूप तथा अशुभरूप मनवचनकायकी चेष्टाका उत्साह करने योग्य तथा न करने योग्यका प्राय
व्यापार है ताकू योगका उदय जानू । इनिकू हेतुभूत होतें जो कार्मणवर्गणारूप आय प्राप्त 4 भया अष्ट प्रकार ज्ञानावरणादि भावनिकरि परिणमे है सो निश्चयतें जिस काल कार्मणवर्गणा ।
रूप आया संता जीववि निबद्ध होय है, तिस काल तिनि अज्ञानादिक परिणामभावनिका कारण - जीव होय है। ____टीका-अतत्त्व कहिये अयथार्थ वस्तुस्वरूपकी उपलब्धि करि ज्ञानविर्षे स्वादमें आवै सो + अज्ञानका उदय है । मिथ्यात्व, असंयम, कषाय, योगादिक तिस अज्ञानमय चार भाव हैं। कैसे 1- हैं ते ? ज्ञनावरणादि कर्मके कारण हैं । तहां तत्त्वके अश्रद्धानरूप करि ज्ञानमें आस्वाद आवे,'
सो तो मिथ्यात्वका, उदय है। बहुरि अविरमण कहिये अत्यागभाव करि ज्ञानविर्षे आस्वादरूप आवे है, सो असंयमका उदय है । बहुरि कलुष कहिये मलिन उपयोगरूपकरि ज्ञानविर्षे आस्वाद
रूप आवे है, सो कषायका उदय है । बहुरि शुभाशुभ प्रवृत्तिनिवृत्तिरूप व्यापाररू पकरि ज्ञानविर्षे 卐 स्वादस्वरूप होय है सो योगका उदय है । ए मिथ्यात्व आदिका उदयस्वरूप चारों भाव पुद्गलके
हैं ते आगामी कर्मबंधकू कारण होय हैं। तिनिकू कारणरूप होतें जो पुदगलद्रव्य कर्मवर्गणारूप
आया हुवा ज्ञानावरण आदि भावनिकरि अष्टप्रकार स्वयमेव परिणमे है । सो यह ज्ञानावरणा.. दिकरूप कर्मवर्गणाकरि प्राप्त भया जब जीववि निवद्ध होय, तब जीव है सो स्वयमेव अपने ॐ अज्ञानभावत परका अर आत्माका एकपणा निश्चयकरि अज्ञानमय जे अतत्त्वश्रद्धानादिक अपने + परिणामस्वरूप भाव, तिनिका कारण होय है।
म - भावार्थ-अज्ञानभावके भेदरूप जे मिथ्यात्व, अविरत, कषाय,योगरूप परिणाम ते पुद्गलके । 卐 परिणाम हैं । ते ज्ञानावरणादि आगामी कर्म बंधनेकू कारण हैं । अर जीव तिनि मिथ्यात्वादि । .. भावनिका उदय होते अपने अनभावतें अतत्त्वश्रद्धानादि भावनिरूप परिणमे है। तिनि अपने घर
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ऊमऊ ॥ ॐ
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अज्ञानरूप भावनिका कारण होय है। आगें कहे हैं, जो, जीवका परिणाम है सो पुद्गलद्रव्यों के नय.. न्यारा ही है। गाथा
जीवस्स दु कम्मेण य सह पारणामा दु होंति रागादी। एवं जीवो कम्मं च दोवि रागादिमावण्णा ॥६९॥ एकस्स दु परिणामो जायदि जीवस्स रागमादीहिं । ता कम्मोदयहेदृ हि विणा जीवस्स परिणामो ॥७०॥
जीवस्य तु कर्मणा च सह परिणामाः खलु भवंति रागादयः । एवं जीवः कर्म च द्वे अपि रागादित्वमापन्ने ॥६९॥ एकस्य तु परिणामो जायते जीवस्य रागादिभिः।
तत्कर्मोदयहेतुभिविना जीवस्य परिणामः ॥७॥ आत्मख्याति:-यदि जीवस्य तनिमित्तभूतविपच्यमानपुद्गलकर्मणा सहैव रागाद्यज्ञानपरिणामो भवतीति वितर्कः तदा जीवपुद्गलकर्मणोः सहभूतसुधाइरिद्रयोरिव द्वयोरपि रागायज्ञानपरिणामापत्तिः। अथ चैकस्यैव जीवस्य भवति जा रागाद्यज्ञानपरिणामः ततः पुद्गलकर्मविपाकाद्ध तोः पृथग्भूतो जीवस्य परिणामः । जीवात्पृथग्भूत एव पुद्गलद्रव्यस्य
परिणामः ।
___ अर्थ-जो ऐसे मनिये, जो जीवके परिणाम रागादिक होय हैं, ते कर्मकरि सहित होय हैं, तो ॥ .. जीव अर कर्म ए दोऊ ही रागादिपरिणामकू प्राप्त होय, ऐसा आवै । ताते यह सिद्ध होय है, जो ॐ रागादिकरि एक जीवहीका परिणाम उपजे है । सो इनि परिणामनिकू कर्मका उदय निमित्त1- कारण है। तिस निमित्तरूप कर्मपरिणामनितें न्यारा परिणाम केवल एक जीवहीका है।
___टीका-जो जीवका परिणाम रागादिरूप होय है, सो तिसकू निमित्तभूत जो विपाकरूप
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भया उदय आया जो पुद्गलकर्म तिसकरि सहितही होय है । ऐसा तर्क कीजिये तो, जीवकै अर . पुद्गलकर्मकै दोऊकै जैसें साथि रंगमें डारे हलद अर फिटकडी तिनि दोऊनिक रंगरूप परिणाम : होय है तैसें दोऊहीकै कर्मपरिणामकी प्राप्ति आवै, सो ऐसे है नाहीं। बहुरि जौ ऐसें मानिये जो रागादि अज्ञानपरिणानकी प्राप्ति आवै केवल एक जीवहीके होय है, तो इस हेतूतें ऐसाआया, जो पुद्गलकर्मका उदय जीवके रागादि अज्ञान परिणामनिकू निमित्त है, तिस विना न्यारा ही 15 जीवको परिणाम है।
भावार्थ-पद्गलकर्मका उदयके लार ही जीवका परिणाम मानिये तौजीवकै अर कर्मकै दोऊकै रागादिककी प्राप्ति आवै, सो ऐसें नाहीं । तातें पदुलकर्मका उदय जीवके अज्ञानरूप रागादिपरि-" णामनिकू निमित्त है। तिस निमित्तते न्यारा ही जीवका परिणाम है। आगे कहे हैं-जो पुद्गल- द्रव्यका परिणाम है सो जीवतें न्यारा ही है । गाथा
जइ जीवेण सहच्चिय पुग्गलदव्वस्स कम्मपरिणामो। एवं पुग्गलजीवा हु दोषि कम्मत्तमावण्णा ॥७॥ एकस्स दु परिणामो पुगलदवस्स कम्मभावेण । ता जीवभावहेदूहि विणा कम्मस्स परिणामो॥७२॥
यदि जीवेन सह चैव पुद्गलद्रव्यस्य कर्मपरिणामः । एवं पुद्गलजीवी खलु द्वावपि कर्मत्वमापन्नौ ॥७१॥ एकस्य तु परिणामः पुद्गलद्रव्यस्य कर्मभावेन ।
तज्जीवभावहेतुभिविना कर्मणः परिणामः ॥७२॥ आत्मख्यातिः-यदि पुद्गलद्रव्यस्य तनिमित्तभूतरागाद्यज्ञानपरिणामपरिणतजीवेन सहैव कर्मपरिणामो भवतीति । 15 वितर्कः तदा पुद्गलद्रव्यजीवयोः सहभूतहरिद्रामुधयोरिव द्वयोरपि कर्मपरिणामापत्तिः अथ चैकस्यैव पुद्गलद्रव्यस्य ।
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5 भत्रति कर्मत्वपरिणामः सतो रागादिजीवाज्ञानपरिणामाद्धेतोः पृथग्भूत एव पुद्गलकर्मणः परिणामः । किमात्मनिस्पृष्टं किमवद्धस्पृष्टं कर्मेति नयविभामेनाह । 卐
अर्थ- जो जीवकरि सहित ही पुद्गलद्रव्यका कर्मरूप परिणाम होय है ऐसें मानिये तो ऐसे तौ फ
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卐 जीव अर पुद्गल दोऊहीके का जाल हो जाया । तातें जीवभाव निमित्तकारण हैं, 卐 तिन बिना न्यारा ही कर्मका परिणाम है. सो एक दलद्रव्यहीका कर्मभावकरि परिणाम है । टीका - जो पुलका कर्मपरिणाम है, सो तिसकू' निमित्तभूत जो जीवका रागादि अज्ञान- 5
परिणाम, तिसरूप परिणया जो जीव, तिसकरि सहित ही होय है । ऐसा तर्क कीजिये तौ पुगल5 द्रव्यकै अर जीवके दोऊके जैसे हलके अर फिटकडीकै दोऊकै साथी ही रंगका परिणाम होय हैं, फ तैसें दोऊही कर्मपरिणामकी प्राप्ति आवे है । सो ऐसें हैं नाहीं । तातें ऐसा सिद्ध होय है, जो कर्मपरिणाम है सो एक पुद्गलद्रव्य हीका है । तातें जीaar रागादिस्वरूप अज्ञानपरिणाम जो क 15 कर्मकूं निमित्तकारण हैं, तिनि न्याराही पुद्गलकर्मका परिणाम है ।
भावार्थ- जो पुद्गलद्रव्यका कर्मपरिणाम होना जीवको साथिही मानिये, तौ दोऊके कर्मपरिफणाम ठहरे। तातें जीवका अज्ञानरूप रागादिपरिणाम कर्मकूं निमित्त है । तिसतें पुद्गलकर्मपरि फ्र णाम पुद्गलद्रव्य जीवतें न्यारा ही है। आगे पूछे है, जो आत्माविषे कर्म है, सो बद्धस्पृष्ट है, फ कि अस्पृष्ट है ? ऐसें पूछे नयविभाग करि उत्तर कहे है | गाथा -
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जो कम्मं बद्धं पुढं चेदि ववहारणयभणिदं ।
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सुद्धणयस्स दु जीवे अवद्धपुढं हवइ कम्मं ॥ ७३ ॥ ata Tie चेति व्यवहारनयभणितं ।
शुद्धrयस्य तु जीवे अबद्धस्पृष्ट भवति कर्म ॥७३॥
आत्मख्यातिः - जीवपुदलकर्मणोरेकबंधपर्यायत्वेन तदतिव्यतिरेकाभावाज्जीवे बद्धस्पृष्ट कर्मेति व्यवहारनयपक्षः ।
जीवपुद्गलकर्मणोरनेकद्रव्यत्वेनात्यं तथ्य तिरेकाज्जीवेऽबद्धस्पृष्टं कर्मेति निश्रयपक्षः । ततः कि---
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अर्थ - जीवविष कर्म है सो बद्ध है जीवके प्रदेशनितें बंधे है, तथा स्पृष्ट कहिये स्पर्शे है, ऐसा सौ व्यवहारनयका वचन है । बहुरि जीवविषै कर्म बंधे भी नाहीं है, स्परों भी नहीं है, ऐसा क 5 शुद्ध नयका वचन है ।
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प्रामृत
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टीका - जीवके अर पुद्गलकर्मके एक पर्यारणा करि देखिये नौ तिस काल व्यतिरेक 5 कहिये भिन्नताका अभाव । तहां जीवविध कर्म बद्धस्पृष्ट है बंधे भी है स्पर्शे भी है, ऐसा कहिये 5 सो तौ व्यवहारका पक्ष है। बहुरि जीवकै अर पुद्गलकर्म के अनेक द्रव्यपणा है, तिसकरि देखिये तब अत्यंत भिन्नपणा है, तातैं जीवविषै कर्म वद्वस्पृष्ट नाहीं है, ऐसा कहिये सो निश्चयनयका फ्र - पक्ष है। आगें कहे हैं, जो ए दोऊ नयपक्ष हैं तिनितें कहा होय है ? गाथा
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कामं बद्धमबद्धं जीवे एवं तु जाग गयपक्खं ।
फ्र पक्खातिक्कंतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो ॥७४॥
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कर्म बद्ध जीवे एवं तु जानीहि नयपक्षं ।
पक्षातिकांतः पुनर्भण्यते यः स समयसारः ॥७४॥
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आत्मख्यातिः --~~यः किल जीवे वद्ध कर्मेति यश्च जीवेऽबद्ध कर्मेति विकल्पः स द्वितयोपि हि नयपक्षः । य एवैनमतिक्रामति स एव सकल विकल्पांतिक्रांतः स्वयं निर्विकल्पैक विज्ञान वनस्वभावो भूत्वा साचात्समयसारः संभवति । 5 तत्र यस्तावज्जीवे बद्ध' कर्मेति विकल्पयति स जीवेऽबद्ध कर्मेति एकं पक्षमविक्रामपि न विकल्पमतिक्रामति । यस्तु atases कर्मेति विकल्पयति सोपि जीवे बद्ध कर्मेत्येकं पक्षमतिक्रामत्रपि न विकल्पमतिक्रामति । यः पुनर्जीवे वढ भवच कर्मेति विकल्पयति स तु तं द्वितरमपि पचमनतिक्रामत्र विकल्पमतिक्रामति । ततो य एवं समस्तनयपक्षमतिक्रामति स एव समस्तं विकल्पमतिक्रामति । य एव समस्तं विकल्पमतिक्रामति स एव समयसारं विंदति । यद्य वं 5 वहिं को हि नाम पक्षसंन्यासभावना न नाट्यति ।
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अर्थ - जीवविषै कर्म बंधे है अथवा नाहीं बंधे है या प्रकार ए दोऊ नयपक्ष हैं । बहुरि जो पक्ष असिकांत है दूरिवर्ती है ऐसा कहिये सो समयसार है निर्विकल्प शुद्ध आत्मतत्त्व हैं ।
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टीका-जो प्रगटकरि जीवविय कर्म बंधे है ऐसे कहना, बहरि जीवविर्षे कर्म नाहीं बंधे है ऐसें - -5 कहना, ऐसे ए दोऊ विकल्प हैं ते दोऊ ही नयपक्ष हैं। तहां जो इस नयपक्षके विकल्पकू उलंघ्य ,
वर्ते है छोडे है सो ही समस्त विकल्पनितें दूरवर्ती होय है, सो आप निर्विकल्प एक विज्ञानधन। ऊ स्वभावरूप होयकरि, सो साक्षात् समयसार भलेप्रकार होय है। तहों, प्रथम सौ जो जीवविः कर्म ॥ - बंध्या है ऐसा विकल्प करे है, सो जीवविर्षे कर्म नाहीं बंध्या है, ऐसा एकपक्षकू छोडता संता भी " विकल्पकू नाहीं छोडे है। बहुरि जो जीववि कर्म नाहीं बंध्या है ऐसा विकल्प करे है सोभी , + जीवविर्षे कर्म बंध्या है, ऐसा विकल्परूप पक्षकू छोडता संता भो विकल्पकू नाहीं छोड़े हैं । बहुरि ।।
जो जीवविर्षे कर्म बंध्या भी है अर नाहीं भी बंध्या है ऐसा विकल्प करे है सो तिनि दोऊ ही 卐 पक्षकू नाहीं छोडता संता विकल्पकू नाहीं छोडे है । तातें जो समस्त ही नयपक्षकू छोडे है, सो है
ही समस्तविकल्पकू छोडे है, बहुरि सो ही समयसारकू अनुभवे है। " भावार्थ-जीव कर्मनिसू बंध्या है तथा नाही बंध्या है, ए दोऊ नयपक्ष हैं। तिनिमें 5 15 काहूने बंधपक्ष पकडी सो विकल्प ही पकड्या । काहूने अबंधपक्ष पकडी सो भी विकल्प ही " पकडया । काहूने दोऊ पक्ष लही सो भी पक्षहीका विकल्प लिया, ऐसे विकल्प छोडि जो 卐 किछू भी पक्ष नाहीं पकडे सो शुद्ध पदार्थका स्वरूप जानि तिसरूप समयसार शुद्धात्मकू पावे
है। नयनिका पक्ष पकडना राग है, सो समस्त नयपक्ष छोडि वीतराग समयसार होय है। " फ़ इहां पूछे है, जो ऐसें है तौ नयपक्षका त्यागकी भावनाकू कोन नृत्य करावे है ? ताका उत्तररूप काव्य कहे हैं।
उपेन्द्रवज्राछन्दः य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निक्सति नित्यं ।
विकल्पजालच्युतशांतचित्तास्तएव साक्षादभृतं पिवंति ॥२४॥ + अर्थजे पुरुष नयका पक्षपातकू छोडि अपने स्वरूपविर्षे गुप्त होय निरंतर बसे हैं तेही
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पुरुष विकल्पके जालतें रहित शांत भया है चित्त जिनिका ऐसे भये संते साक्षात् अमृतकुं पीछे हैं । 卐 टीका - जेतें कछू पक्षपात रहे तेर्ते चित्तका क्षोभ मिटै नाहीं, जब सर्वनयका पक्षपात मिटि जाय, तब वीतरागदशा होय स्वरूपकी श्रद्धा निर्विकल्प होय अर स्वरूपविषे प्रवृत्ति होय है अब नयपक्षकूं प्रगटकर कहे हैं, अर तिसकूं छोड़े है सो तत्त्वज्ञानी है स्वरूपकूं पावे है, ऐसा auth heroy die काव्य कहे हैं।
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उपजातिच्छन्दः
एकस्य बद्धो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपाती । यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ||२५||
अर्थ-यहू चिन्मात्र जीव है सो एकनका तौ कर्मकरि बंध्या है ऐसा पक्ष है । बहुरि दूसरे arer कर्मकर arti बंध्या है ऐसा पक्ष है। ऐसे दोऊ ही नयके दोऊ पक्ष हैं। लो ऐसें दोऊ treat are पक्षपात है सो तौ तत्रवेदी नाहीं है । बहरि जो तत्त्ववेदी है, तत्त्वका स्वरूप जान-5 नेवाला है, सो पक्षपातरहित है । तिस पुरुषका जो चिन्मात्र आत्मा है सो चिन्मात्र ही है । 卐 या पक्षपातकर कल्पना नाहीं करे है ।
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टीका-इहां शुद्ध प्रधानकरि कथन है। तहां जीवनामा पदार्थकूं शुद्ध नित्य अभेद चैतन्यमात्र स्थापि अर कहे हैं, जो इस शुद्धनयका भी जो पक्षपात करेगा, सो भी तिस स्वरूप5 का स्वादकूं नाहीं पावेगा । अशुद्धपक्षकूं तो गौणकरि कहतेहि आवे है । अर कोई शुद्धनधका भी जो पक्षपात करेगा, तौ पक्षका राग न मिटेगा । तब वीतरागता नाहीं होयगी । तातें पक्षपातकुं 5 छोडि चिन्मात्रस्वरूपविषै लीन भये समयसार पावे है। अर चैतन्यके परिणाम परनिमित्तते अनेक होय हैं । तिनि सर्व निर्ऋ गौण कहते ही आवे है । तातें सर्वपक्ष छोडि शुद्धस्वरूपका
卐
श्रद्धान करि पीछे स्वरूपविषै प्रवृत्तिरूप चारित्र भये वीतरागदशा करना योग्य है। अब जैसें 5 वद्ध अबद्धपक्ष छुडाई तैसें ही अन्यपक्षकूं प्रगटकरि कहि छुडावे हैं ।
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एकस्य मूढ़ो न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपाती।
यस्तस्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिचिदेव ॥२६॥ + अर्थ-एक नयके तौ जीव मूढ हे मोही है, बहुरि दूसरे नयके मूढ नाहीं है यह पक्ष है। " ऐसे ये दोऊ ही चैतन्यविर्षे पक्षपात हैं। बहुरि जो तत्ववेदी है सो पक्षपातरहित है, ताका चित् 卐 है सो चित् ही है, मोही अमोही नाहीं है।
एकस्य रक्तो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपाती ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिञ्चिदेव ॥२७॥ - अर्थ-एकनयके तो यह जीव रक्त कहिये रागी है ऐसा पक्ष है, बहुरि दूसरे नयके रक्त नाहीं " है ऐसा पक्षपात है । सो ए दोज ही चैतन्यविर्षे नयके पक्षपात हैं। बहुरि जो सत्ववेदी है सो 卐 पक्षपातरहित है, ताकै पक्षपात नाहीं है, ताकै जो चित् है सो चित् ही है।
एकस्य दुष्टो न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपातौ । यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्सास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥२८॥ एकस्य कर्ता न तथा परस्य चिति द्वयोपिति पक्षपाती। यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥२६॥ एकस्य भोक्तान तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपाती। यस्तच्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥३०॥ एकस्य जीवो न तथा परस्य चिति द्वपीविति पक्षपाती। वस्तववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥३१॥ एकस्य सूक्ष्मो न तथा परस्य चिति दोषिति पक्षपाती। यस्तम्ववेदी न्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खल चिञ्चिदेव ॥३२॥ एकस्य हेतुर्न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपाती। यस्तत्ववेदी न्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिञ्चिदेव ।।३३।।
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एकस्य काय न तथा परस्य चिति द्वयोर्धाविति पक्षपाती। यस्तत्ववेदी व्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु विभिदेव ॥३४॥ एकस्य भावो न तथा परस्य चिति द्वयो विति पक्षपाती। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिचिदेव ॥३॥ एकस्य चैको न तथा परस्य चिति वयोर्कीविति पक्षपातौ । यस्तत्ववेदी न्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खल चिच्चिदेव ॥३६॥ एकस्य सांतो न तथा परस्य चिति दयोाविति पक्षपाती। यस्तस्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिञ्चिदेव ॥३७॥ एकस्य नित्यो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपाती। यस्तववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिञ्चिदेव ॥२८॥ एकस्य वाच्यो न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपातौ । पस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिधिदेव ॥३६॥ एकस्य नाना न तथा परस्य चिति द्वयोर्दाविति पक्षपाती। यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खल चिच्चिदेव ॥४०॥ एकस्य घेत्यो न तथा परस्य चिति द्वयोर्कीविति पक्षपाती। यस्तरत्रवेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिचिदेव ॥४१॥ एकस्य दृश्यो न तथा परस्य चिति द्वयोरिति पक्षपातौ । यस्तच्चवेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिबिदेव ॥४२|| एकस्य वेद्यो न तथा परस्य चिति द्वयो-विति पक्षपाती । यस्तषवेदी च्युसपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिचिदेव ॥४३॥ एकस्य भातो न तथा परस्य चिति द्वयो-विति पक्षपातौ ।
यस्तववेदी व्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिञ्चिदेव ॥४॥ अर्थ-एक नयके तो दुष्ट कहिये द्वेषी है, बहुरि दुसरे नयके दुष्ट नाहीं है। ऐसे ए चेतन्य
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विषं दोऊ नयके दोय पक्षपात हैं । एक नयके कर्ता है, दूसरे नयके कर्ता नाहीं है। एऐसे चैतन्य विर्षे दोऊ नयके दोऊ पक्षपात हैं। एक नयके भोक्ता है, दूसरे नयके भोक्ता नाहीं है । एचैतन्य- . विर्षे दोऊ नयके दोऊ पक्षपात हैं। एक नयके जीव है, दूसरे नयके जीव नाहीं है । एचैतन्यविर्षे घाट दोऊ नयके दोऊ पक्षपात हैं। एक गपके सूक्ष्म है, दूसरे पर खूक्ष्ण नहीं है। ऐसे ए चैतन्यविर्षे दोऊ नयके दोऊ पक्षपात हैं। एक नयके हेतु है, दूसरे नयके हेतु नाहीं है । ए दोऊ नयके 4 - चैतन्यविर्षे दोऊ पक्षपात हैं। एक नयके कार्य है, दूसरे नयके कार्य नाहीं है। ए दोऊ नयके
चैतन्यविर्षे दोऊ पक्षपात हैं । एक नयके भावरूप है, दूसरे नयके अभावरूप है। ए दोऊ : नयके चैतन्यविर्षे दोऊ पक्षपात हैं । एक नयके एक है दूसरे नयके अनेक है। ए दोऊ नयके
चैतन्यविर्षे दोऊ पक्षपात हैं । एक नयके सांत कहिये अंतसहित है, दूसरे नयके अंतसहित नाहीं 卐है। ए दोऊ नयके चैतन्यविर्षे दोऊ पक्षपात हैं। एक नयके नित्य है, दूसरे नयके अनित्य है। " .. ए दोऊ नयके चैतन्यविर्षे दोऊ पक्षपात हैं । एक नयके वाच्य कहिये वचनकार कहने में आवे है, "
दूसरे नयके वचनगोचर नाहीं है। ए दोऊ नयके चैतन्यविर्षे दोऊ पक्षपात हैं। एक नयके नाना
रूप है, दूसरेके नानारूप नाहीं है । ए दोऊ नयके चैतन्यविर्षे दोऊ पक्षपात हैं । एक नयके चेत्य " कहिये जानने योग्य है, दूसरेके चितवने योग्य नाहीं है। ए दोऊनयके चैतन्यवि दोऊ पक्षपात हैं।
एक नयके दृश्य कहिये देखने योग्य है, दूसरेके देखने में नाहीं आवे है। ए दोऊ नयके चैतन्य
विः दोऊ पक्षपात हैं। एक नयके वेय कहिये वेदनेयोग्य है, दूसरेके वेदनेमें न आवे है। दोऊ 卐 नयके चैतन्यविः दोऊ पक्षपात हैं । एक नयके भात कहिये वर्तमान प्रत्यक्ष है, दूसरेके नाहीं है। .. ए दोऊ नयके चैतन्यविर्षे दोऊ पक्षपात हैं । ऐसे चैतन्य सामान्यविवे ए सर्व पक्षपात हैं। बहुरि
तत्त्ववेदी है सो स्वरूपकू यथार्थ अनुभवन करनेवाला है । ताका चिन्मात्रभाव है सो चिन्मात्र - ही है, पक्षपातसूरहित है।
- भावार्थ-जीवके परनिमित्तें अनेक परिणाम हैं, तथा यामैं साधारण अनेक धर्म हैं। तथापि 5
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- असाधारण धर्म चिस्वभाव है, सो ही सामान्यभावकरि शुद्धनयका विषय है, तिस ही प्रधान " करि कथन है, सो याके साक्षात् अनुभवके अर्थि ऐसा कया है, जो यामै नयनिके अनेक पक्षपात म उपजे हैं । बद्ध अबद्ध, मूढ अमूह, रागी विरागी, द्वेषी अद्वेषी, कर्ता अकर्ता, भोक्ता अभोक्ता, - जीव अजीव, सूक्ष्म स्थूल, कारण अकारण, कायें अकार्य, भाव अभाव, एक अनेक, सान्त " असान्त, नित्य अनित्य, वाच्य अवाच्य, नाना अनाना, चेत्य अचेत्य, दृश्य अदृश्य, वेद्य अवेय, म - भात अभात इत्यादि नयनिके पक्षपात हैं । सो तस्वका अनुभवन करनेवाला पक्षपात नाहीं करे .. "है। नयनिकू तो यथायोग्य विवक्षातें साधे है । अर चैतन्यकू चेतनमात्र ही अनुभवन करे है। । इस ही अर्थका संक्षेपकरि काव्य कहे हैं।
वसन्ततिलकाछन्दः स्वेच्छासमुच्छलदनल्पविकल्पजालामेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षा ।
अंतर्वहिःसमरसैकरसस्वभाव स्वं भायमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रं ॥४॥ 5 अर्थ-जो तत्त्वका जाननेशला पुरुष है सो पूर्वोक्त प्रकार आपै आप उटते हैं बहुतविकल्प- - निके जाल जामैं, ऐसी जो बडी नयपक्षरूप वन ताकू उल्लंन्यकरि अर समरस जोवीतराग भाव । सो ही है एकरस जामें ऐसा है स्वभाव जाका ऐसा जो आत्माका भाव अपना स्वरूप अनुभूति-卐 + मात्र, ताकू प्राप्त होय है । फेरि कहे है
रथोड़ताछन्दः इंद्रजालमिदमेवमुच्छलत्पुष्कलोच्चलविकल्पवीचिभिः । यस्य विस्फुरणमेव तत्क्षणं कृत्वमस्य वि तदस्मि चिन्महः ॥४६॥
卐 . पक्षातिकांतस्य किं स्वरूपमिति चेत् ? . अर्थ-तत्ववेदी ऐसा अनुभवन करे है जो मैं चिन्मात्र मह तेजका पुंज हूं। जाका स्फुरा
5२३६ र यमान होना ही वड़ी बड़ी पुष्ट उठती चंचल जे विकल्परूप लहरी, तिनि करि उछलता इनि नय. " निके प्रवर्तनरूप इंद्रजाल, ताही तत्काल समस्तनिकू दूरी करे है।
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भावार्थ-चैतन्यका अनुभवन ऐसा है, जो याकै होते समस्त नयनिका विकल्परूप इंद्रजाल " है सो तत्काल क्लिय जाय है । आगे पूछे है जो पाते अतिकांत है दूरवर्ती है तिसका कहा जा
प्राभूत ' स्वरूप है ॥ ताका उत्तररूप गाथा कहे हैं । गाथा
दोरहवि णयाण भणियं जाणइ णवरं तु समयपडिबद्धो । ण दु गायपक्खं गिण्हदि किंचिवि णयपक्खपरिहीणो ॥७५॥
द्वयोरपि नपयोर्भणितं जानाति केवलं तु समयप्रतिवद्धः ।
न तु नयपक्षं गृह्णाति किंचिदपि नयपक्षपरिहीनः ॥७५॥ 卐 आत्मख्यातिः-यथा खलु भगवान्केवली श्रुतज्ञानावययभूतयोर्व्यवहारनिश्चयनयपक्षयोः विश्वसाक्षितया केवलं ॥ पर स्वरूपमेव जानाति न तु सततमुल्लसितसहजविमलसकलकेवलज्ञानतया नित्य स्वयमेव चिहानघनभूतत्वाच्छ्र तज्ञानभूमिका
तिक्रांततया समस्तनयपक्षपरिग्रहदूरीभूतत्वात्कंचनापि नयपक्षं परिगृहाति तथा किल यः श्रुतज्ञानावययाभूतयोर्व्यवहार- निश्चयनपपक्षयोः क्षयोपशमविजूं भितश्रुतज्ञानात्मकविकल्पप्रत्युद्गमनेपि परपरिग्रहप्रतिनिवृत्तौत्सुक्यतया स्वरूपमेव केवलं
जानाति न तु खरतरदृष्टिगृहीतसुनिस्तुषनित्योदितचिन्मयसमयप्रतिबद्धतथा तदात्वे स्वयमेव विज्ञापनभूतत्वात श्रुत- " + शानात्मकसमस्तांतर्वहिर्जन्यरूपविकल्पभूमिकातिक्रांततया समस्तनयपक्षपरिग्रहभूतत्वात्कंचनापि नयपक्षं परिगृह्णाति स 卐 .. खलु निखिलविकल्पेभ्यः परतरः परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योतिरात्मख्यातिरूपोनुभूतिमात्र: समयसारः।
अर्थ-जो पुरुष समय कहिये अपना शुद्धात्मा तिसते प्रतिबद्ध है आस्माकू जाने है, सो दोऊ का न ही नयका कह्याकू केवल जाने ही है । बहुरि नयपक्षकू किछू भी नाहीं ग्रहण करे है। कैसा है ,
वह पुरुष ? नयके पक्षकरि रहित है। 卐 टीका-इहां प्रथम दृष्टांत कहे हैं, जैसे केवली भगवान् सर्वज्ञ वीतराग समस्त वस्तूका ॥ .. साक्षीभूत है, ज्ञाता द्रष्टा है, सो श्रुतज्ञानके अवयवभूत जे व्यवहार निश्चयनयके पक्षरूप दोय नय की तिनिका केवल स्वरूपकू जाने ही है। बहरि काहू ही नयके पक्षकू नाही ग्रहण करे है। जाता
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卐 केवलो भगवान् निरंतर उदय स्वाभाविक निर्मल केवल ज्ञानस्वभाव है, तातें नित्य ही स्वयमेगा
विज्ञानघनस्वरूप है, याही श्रुतज्ञानको भूमिकातें अतिक्रांतपणाकरि समस्त नय पक्षका परिग्रहते 5 दूरीवर्ती है । तैसे ही जो मति श्रुतज्ञानी है सो भी श्रुतज्ञानके अवयवभूत जे व्यवहार निश्चय 卐
दोऊ नय तिनिका पक्षका स्वरूपकू हो केवल जाने है, जाते याकै क्षायोपशमिक ज्ञान है, ताकरि " उपजे जे श्रुतज्ञानस्वरूप विकल्प तिनिका फेरि उपजना होय है, तोऊपर जे ज्ञेय तिनिका ग्रहणप्रति 卐
उत्साहको निवृत्ति है, ताकरि नयनिका स्वरूपका ज्ञाता ही है । बहुरि काहू हे नयको पक्षकू नाही
ग्रहण करे है, जाते तीक्ष्ण ज्ञानदृष्टिकरि प्रथा जो निर्मल नित्य जाका उदय ऐसा चिन्मय समय । 卐 कहिये चैतन्यस्वरूप अपना शुद्ध आत्मा, तिसते याकै प्रतिबद्धपणा है, ताकरि तिस स्वरूपके अनु.
भवनके काल स्वयमेव केवलीको ज्यौं विज्ञानयनरूप भया है। याहोते श्राधान स्वरूप जे समस्त अंतरंग अर बाह्य जल कहिये अक्षरस्वरूप विकल्प ताको भूमिकाते अतिकांत है, तिसपणे करि ॥ केवलोकी ज्यौं समस्त नयरक्षका ग्रहगते दूरीभूत है। सो ऐसा मतिप्रसज्ञानी भी है। सो निश्चयकरि समस्त विकरयनितें दूरवर्ती परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योति आत्मख्यातिरूप अनुभूति-,
मात्र समयसार है। " भावार्थ-जैसे केवली भगवान् सदा नयनिकी पक्षका ज्ञाता द्रष्टा है तैसे ही श्रुतज्ञानी भी । 卐 जिस काल समस्त नयपक्षते रहित होय शुद्ध चैतन्यमात्र भावका अनुभवन करे है तब नयपक्षका .- ज्ञाता ही है । एकनयकी सर्वथा पक्ष ग्रहण करे तो मिथ्यावर मोल्यो पक्षको राग होय । बहुरि ..
प्रयोजनके वशते एकनयकू प्रधानकरि ग्रहण करे, तो मिथ्यात्व विना चरित्रनोहका पक्षसू राग रहै । अर जब नयपक्ष छोडी वस्तुस्वरूपकू केवल जाने हो, तब तिस काल श्रुतज्ञानी भी केवली.
की ज्यों वीतरागसारिखा ही होय है ऐसा जानना । इस अर्थ • मनमें धारि तत्ववेदीऐसा अनुभव 卐 करे ऐसे अर्थरूप काव्य कहे हैं।
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स्वागताछन्द: हिदभावभरभावितभावाऽभावभावपरमार्थतयैकं ।
बंधपद्धतिभपास्य समस्तो चेतये समयसारमपारं ॥४७॥ पक्षातिकांत एव समयसार इत्यवतिष्ठते । 卐 अर्थ-मैं जू हों तत्वका जाननेवाला सो समयसार जो परमात्मा ताही अनभवू ई। केसा
है समयसार ? चैतन्यस्वभावका भर कहिये पुंज, ताकरि भया हे भाव अभावस्वरूप जो एक卐 भावरूप परमार्थ तिसपणाकरि एक है।
___टीका-परमार्थकरि विधिप्रतिषेधका विकल्प जामैं नाहीं है। बहुरि पहले कहा करि 9 अनुभवूई ? समस्त ही जो बंधकी पद्धति कहिये परिपाटी, ताकू दूरि करिके। . भावार्थ-परद्रव्यके कर्ताकर्म भावकरि बंधकी परिपाटी चाले थी, ता पहले दूरी करि "समयसारकू अनुभवू हौं । बहुरि कैसा है ? अपार है, जाके केवलज्ञानादि गुणका पार नाहीं है। म आगे ऐसा नियमकरि ठहरावे है, जो पक्ष अतिक्रांत दूरवर्ती ही समयसार है । गायो
सम्मइंसणणाणं एवं लहदित्ति णवरि ववदेसं । सव्वणयपक्खरहिदो भणिदो जो सो समयसारो ॥७॥
सम्यग्दर्शनज्ञानमेतल्लभत इति केवलं व्यपदेशं ।
सर्वनयपक्षरहितो भणितो यः स समयसारः ॥७॥ आत्मख्यातिः-अयमेक एव केवलं सम्यग्दर्शनज्ञानव्यपदेशं किल लभते । यः खल्बखिलनयपक्षाधुग्णतया विश्रांतसमस्तविकल्पम्यापारः स समयसारः । यता प्रथमतः श्रुतज्ञानावष्टंभेन शानस्वभावमात्मानं निश्चित्य ततः खल्वात्म"काल्यातये परख्यातिहेतूनखिला एवेद्रियानिद्रियबुद्धीवधार्य आत्माभिमुखीकृतमतिज्ञानतवः, तथा नानाविषपक्षालंबनेजनानेकविकल्पैराकुलपतीः श्रुतशामघुवीरप्यवधार्य श्रुतज्ञानतनमप्यात्माभिमुखीकुर्वनत्यंतमविकल्पोभूत्वा प्रगित्येक स्वरसत
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व स्कीमवंतमादिमध्यांत विमुक्तमनाकुलमेकं केवलमखिलस्थापि विश्वस्योपरितरतम्विाखंडप्रतिभासमयमनंतं विज्ञानधनं प परमात्मानं समयसारं विदन्नेवात्या सम्यग्दृश्यते झायते च ततः सम्यग्दर्शनं झालं च समयसार एव । + अर्थ-जो सर्व पक्षात रहित है सो ही समयसार ऐसा कया है बहुरि यह समयसार है ॥ 1- सोही केवल सम्यग्दर्शनज्ञान ऐसा नामकू पावे है यह नाम वाहीकै है, वस्तु दोय नाहीं है। जो ..
" निश्चयतें समस्त नयपक्षत भेवरूप न किया जाय ऐसा चिन्मात्रभाव, तिसकरि विलय भये हैं 卐 समस्त विकल्पनिके व्यापार जामैं ऐसा समयसार शुद्धस्वरूप है । सो यह ही एक केवल सम्य- __ ज्ञान ऐसा नामकू पावे है । परमार्थत एकही है। जाते आना प्रथम ही श्रतज्ञानके अवलंबन 'करि ज्ञानस्वभाव आत्माका निश्चयकरि, तापीछे निश्चयतें आत्माको प्रगट प्रसिध्दि होनेके 4
अर्थि परख्याति जो आत्माते परपदार्थकी ख्याति कहिये प्रगट होना, ताकू कारण जो इंद्रिय 9 अर मनके द्वारै प्रवृत्तिरूप बुद्धि, ताकुं गौण करी आत्माके सन्मुख किया है मतिज्ञानका स्वरूप 卐 1. जाने ऐसा होय है । बहुरि तैसे ही नानाप्रकारके नयनिके पक्ष, तिनिका अवलंबन करी अनेक .. " विकल्पनिकरि आकुलता उपजावती जो श्रृतज्ञानकी बुद्धि ताकू भी गौण करी, अर श्रुतज्ञान है ताकू भी आत्मतल स्वरूपविर्षे सम्मुख करता संता अत्यंत निर्विकल्परूप होय, अर तत्काल +
ही अपने निजरसहीकरि व्यक्त प्रगट होता आदि मध्य अंतके भेदकरि रहित, अनाकुल एक 5 केवल समस्त पदार्थसमूह जो लोक, ताके उपरि तरता जैसें होय तैसें अखंडप्रतिभासमय के + अविनाशी अनंतविज्ञानधन स्वभावरूप परमात्मा जो समयसार, ताही अनुभवता संता सम्यका
कार देखिये है श्रद्धिये है, सम्यक्प्रकार जानिये है । तातें यह ही सम्यग्दर्शन है, यह ही सम्य卐 ग्ज्ञान है ऐसें यह ही समयसार है।
मर भावार्थ-आत्माकू पहले आगमज्ञानतें ज्ञानस्वरूप निश्चयकरि, पीछे इंद्रियबुद्धिरूप मतिज्ञानकू भी ज्ञानमात्रहीमैं मिलाय, श्रुतज्ञानरूप नयनिक विकल्प मीटि, अर श्रुतज्ञानकू भी निर्विकल्प
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4. करि एक ज्ञानमात्र अखंड प्रतिभासका अनुभवन करना। यह ही सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान नाम । "पावे है किछु न्यारा ही है नाहीं । अब याही अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
शालविक्रीडितच्छन्दः । आक्रामन्नविकल्यभावमचलं पक्षैर्नयानां विना सारो यः समयस्य भाति निमृतैरास्याधमानः स्वयं ।।
विज्ञान करसः स एष भगवान्पुण्यः पुराणः पुमान् ज्ञानं दर्शनमप्ययं किमथया पत्किचनकोप्ययं ॥४८॥ ___ अर्थ-जो नयनिका पक्षविना निर्विकल्पभावकू प्राप्त होता, निश्चल जैसे होय तैसें समय कहिये आगम अथवा आत्मा, ताका सार है सो साभ है । सो कैसा है ? जे निश्चितपुरुष हैं तिनि ॥
करि स्वयं आस्वाद्यमान है, तिनिने अनुभवतें जाणि लिया है । सो ही यह भगवान् विज्ञान ही "है एकरस जाका ऐसा है, सो पवित्र पुराणपुरुष है, याकू ज्ञान कहौ अथवा दर्शन कहो अथवा . 卐 किछ और नामकर कहो, जो कछु है सो यह एक ही है, नाना नाम कहावे है। अब कहे हैं, ... जो यह आत्मा ज्ञानते च्युत भया था सो ज्ञानहीलू आय मिले है।
___ शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः दुरं भूरिविजयजानगहने भ्राम्यनिजीपाच्च्युतो दूरादेव विवेकनिम्नगमनान्नीतो निजीयं बलात् । विज्ञान शासन करीनामात्मनमारमा हरन् आत्मन्येव सदा गतानुगतामायात्ययं तोयवत् ॥४६॥
अर्थ-यह आत्मा अपने विज्ञानयन स्वभावते च्युत भया संता, प्रचुर विकल्पनिके जालके - गहनवनमें अतिशयकरि भ्रमण करे था, तिस भ्रमतेकू विवेकरूप नीचे मार्गके गमनकरि जलकी 卐 ज्यौं अपना विज्ञानयन स्वभावविर्षे दूरतें आणि मिलाया । कैसा है ? जे विज्ञानका रस ही के एक ... रसीले हैं, तिनिकू एक विज्ञानरस स्वरूप ही है। सो ऐसा आत्मा अपने मात्मस्वभाव ही
आप ही वि समेटता संता जैसे बाया गया था, तैसे ही अपने स्वभावविर्षे आय प्राप्त होय है।' । भावार्थ-इहां जलका दृष्टांत है । जैसे जल है सो जलके निवासमेंस कोई मार्गकरि पाच निमरै सो वनमें अनेक जायगा भ्रमे, फेरि कोई नीचा मार्गकरि ज्यौँका त्यौं अपना जलके
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निवास में आय मिलें । तैसें आत्मा भी अनेक विकल्पनिके मार्गकरि स्वभावतें च्युत भया भूमण
करता संता कोई विवेक भेदज्ञानरूप नीचा मार्गकरि आप ही आपकूं खेचता संता, अपने स्वभाव प्रा विज्ञानघन वर्षे आय मिले है ।
अब कर्ता कर्म अधिकारकूं पूर्ण किया है, सो कर्ता कर्मका संक्षेप अर्थके कलशरूप श्लोक कहे हैं।
फफफफफफफफफफफफफ
अनुष्ट छन्दः
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विकल्पकः परं कर्ता विकल्पः कर्म केल। न तु कर्तृ कर्मत्वं सविकल्पस्य नश्यति ||४०||
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अर्थ - विकल्प करनेवाला तौ केवल कर्त्ता है । बहुरि विकल्प है सो केवल कर्म है। अन्य किछू फ कर्ता कर्म नाहीं है । यातें जो विकल्पसहित है, ताका कर्ता कर्मपणा कदाचित् भी नष्ट नाहीं हो है । 卐
भावार्थ- जहां तांई विकल्पभाव है, तहां तांई कर्ताकर्मभाव है। जिस काल विकल्पका
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अभाव होय, तिस काल कर्ताकर्मभावका भी अभाव होय है । अब कहे हैं, जो करे है सो करे ही है, जाने है सो जाने ही है।
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5 जो करे, हैं, सो कछू ही नाहीं जाने है । अर जो जाने है, सो कछू ही नाहीं करे है ।
भावार्थ-कर्ता है सो ज्ञाता नाहीं, अर ज्ञाता है सो कर्ता नाहीं । अब कहे हैं, ऐसे ही करने रूप क्रिपा अर जाननेरूप क्रिया दोऊ भिन्न हैं ।
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फफफफफफफफफफफफ
रथोद्धताछन्दः
यः करोति स करोति केवलं यस्तु वेति स तु वेति केवलम् ।
यः करोति न हि वेति स क्वचित् यस्तु वेत्ति न करोति स क्वचित् ॥ ५१॥
अर्थ- जो करे है, सो केवल करे ही है। बहुरि जो जाने है, सो केवल जाने ही है । बहुरि
इन्दवज्रा छन्दः
इप्तिः करोतौ न हि भासतेऽन्तः ज्ञशौ करोतिश्च न भासतेऽन्तः ।
शतिः करोतिश्च तो विभिन्ने ज्ञाता न कर्तेति ततः स्थितं च ॥ ५२ ॥
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अर्थ - जानरूप क्रिया है, सो तौ करनेरूप क्रियाविषै अंतरंग नाही भाते है । बहुरि करनेरूप किया है, सो जाननेरूप क्रियाविषै अंतरंग नाही भाते है । तातें ज्ञप्ति किया अर करोति क्रिया दोऊ भिन्न हैं । तातें यह ठहरी जो ज्ञाता है सो कर्ता नाहीं है ।
5 प्रामुख
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भावार्थ-- जिस काल ऐसे परिणमे है, जो मैं परद्रव्यकूं करूं हौं, तिस काल तौ तिस परि- 卐 मन क्रियाका कर्ता ही है । बहुरि जिस काल ऐसे परिणमे है, जो मैं परद्रव्यकूं जानू हौ, तिस काल जानन क्रियारूप ज्ञाता ही है । इहां कोई पूछे है, अविरतसम्यग्दृष्टि आदिके जेतें 5 चारित्रमोहका उदय है, तेतें कषायरूप परिणमे है। तहां कर्ता कहिये कि नाही ? ताका समाधान -- जो अविरत सम्यग्दृष्ट्यादिके श्रद्धान ज्ञानमय परद्रव्यके स्वामीपणारूप कर्तापणाका क - अभिप्राय नाहीं, अर कषायरूप परिणमन है सो उदयकी बरजोरीसृ है, ताका यह ज्ञाता है । तातें अज्ञानसंबंधी कर्तापणा याकै नाहीं है । अर निमित्तकी बरजोरीका परिणमनका फल किंचित् होय है। सो संसारका कारण नाहीं है । जैसें वृक्षकी जड कटे पीछे किंचित्काल रहे या न रहे तैसें है । फेरि दृढ करे हैं।
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शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः
कर्ता कर्मणि नास्ति नास्ति नियतं कर्मापि तत्कर्तरि द्वन्द्व विप्रतिषिध्यते यदि तदा का कर्तृकर्मस्थितिः । ज्ञाता ज्ञातरि कर्म कर्मणि सदा व्यक्तेति वस्तुस्थितिर्नेपध्ये वत नानटीति रभसा मोहस्तथाप्येष किम् ॥५३॥ अथवा नानाट्य वां तथापि -
फफफफफफफफफफ
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अर्थ-कर्ता है सो तौ कर्मविषै निश्चयकरि नाहीं है । बहुरि कर्म है सो भी कर्तावि निश्चयकरि नाहीं है । ऐसें दोऊ ही परस्पर विशेषकर प्रतिषेधये, सब कर्ताकर्मकी कहा स्थिति होय ? नाही होय । तब वस्तुकी मर्यादा प्रगट व्यक्तरूप यह ठहरी, जो ज्ञाता तौ सवा 7 ज्ञानविषै ही है। अर कर्म है सो सदा कर्मविषै ही है । लौऊ यह मोह अज्ञान है, सो नेपथ्य- फ्र विषे कैसें नाचे है ? सो यह बड़ा खेद है । नेपथ्य कहिये शांत ललित उदाच धीर इनि च्यारि
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卐 आभरणनि सहित जो यह तत्त्वनिका नृत्य, ताविर्षे यह मोह कैसे नाचे है ? कर्ताकर्मभाव त ।
नेपथ्यस्वरूप नृत्यका आभूषण नाहीं, ऐसे खेदसहित वचन आचार्य ने कहा है। . भावार्थ-कर्म तो पुद्गल है, ताका कर्ता जीवकू कहिये, तौ तिनि दोऊनिकौ तौ वडा भेद
है, जीव तो पुद्गलमें नाहीं अर पुद्गल जीवमें नाहीं तब इनिके कर्तृकर्मभाव कैसा बने ? ' " तातै जीव तौ ज्ञाता है, सो ज्ञाता ही है, पुद्गलका कर्ता नाहीं । बहुरि पुद्गलकर्म है सो कर्म
ही है। तहां आचार्य खंदकारे कया है-जो ऐसें प्रगट भिन्नद्रव्य है, तौऊ अज्ञानीका ए मोह : " कैसे नाचे है ? जो मैं तो कर्ता हूं अर यह पुद्गल मेरा कर्म है, यह बडा अज्ञान है । फेरि कहे 卐हैं, जो ऐसे मोह नाचे है, तो नाचो, वस्तुस्वरूप तो जैसा है तैसा ही तिष्ठे है।
___ मन्दाक्रांताछन्दः कर्ता का भवति न यथा कर्म कर्मापि नैव ज्ञानं ज्ञानं भवति च यथा पुद्गलः पुद्गलोऽपि । ज्ञानज्योतिर्जलितमचलं व्यक्तमन्तस्तथोच्चैनिश्चिच्छक्तीनां निकरभरतोऽत्यन्तमम्भीरमेतत् ॥५४||
इति जीवाजीयौ कत, कर्मवेषविमुक्ती निक्रांती।
इति समयसारच्याख्यायामात्मख्यातौ द्वितीयोऽकः । ___अर्थ-यह ज्ञानज्योति है सो अंतरंगविर्षे अतिशयकरि अपनी चैतन्यशक्तीके समूहके भारतें ॥ " अत्यंत गंभीर, जाका थाह नाही, सो ऐसे निश्चल व्यक्तरूप प्रगट भया। जैसे अज्ञानविर्षे आत्मा
कर्ता था, सो तो अब कर्ता न होय, अर याके अज्ञानतें पुद्गलकर्मरूप होय था, सो अब कर्मरूप न
होय, बहुरि जैसें ज्ञान तो ज्ञानरूप ही होय अर पुद्गल है सो पुद्गलरूप ही रहै, ऐसे प्रगट भया। । भावार्थ- आरसा ज्ञानी होय तब ज्ञान तो ज्ञानरूप ही परिणामे, पुदगलकर्मका का न बने,
र बहुरि पुद्गल है सो पुद्गलरूप हो रहे, कर्मरूप न परिणमे, ऐसें आत्माकै ज्ञान यथार्थ भये दोऊ * के परिणामके निमितनैमित्तिकभाव नाही होय है, ऐसा सम्यग्दृष्टीकै ज्ञान होय है। ऐसे
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जीव अर अजीव दोऊ कर्ता कर्मके वेषकरि एक होय नृत्यके अखाडे में प्रवेश किया था, सो .. सम्यग्दृष्टीका ज्ञान यथार्थ देखनेवाला है, सो दोऊ न्यारे न्यारे लक्षणते दोय जानि लीये, तब वेष दूरि करी, रंगभूमितें बाह्य नीसरी गये । बहुरूपोका वेषका यह ही प्रवर्तन है जो देखने-।। वाला जेते पहिचाने नाही, तेते चेसा किया करें, अर यथार्थ पहिचानि ले तब निजरूप प्रगट । करि चेष्टा न करता बैठि रहै, तैसें जानना । ऐसें कर्ताकर्म नामा दूसरा अधिकार पूर्ण भया। म
___ सवैया तेईसा जीव अनादि अज्ञान वसाय विकार उपाय वर्ण करता सौ, ताकार बंधन आन तणू फल ले सुख दुःख भवाश्रमवासो । ज्ञान भये करता न वणे तब कंध न होष सुलै परपासो,
आतममोहि सदा सुविलास को सिक पाय रहै निति थासो ॥१॥ याकी गाथा ७६ । कलसा ५४ । अर पहिला अधिकारकी गाथा ६८ । फलसा ४५ ।
सब मिलि गाथा तौ १४४ भई अर कलसा १६ भये । ऐसें इस समयसारग्रंथकी आरमख्यातिनामा टीकाकी वचनिकाषिर्षे दूसरा कर्ताकर्मनामा अधिकार पूर्ण भया ॥२॥
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अथ पुण्यपापाधिकारः। दोहा-पुण्य पाप दोऊ करम बंधरूप दुर मानि । शुद्ध आत्मा जिन लझो नमू चरन हित जानि ॥१॥ ॥ आत्मख्यातिः-अथैकमेव कर्म द्विपात्रीभूय पुण्यपापरूपेण प्रविशति--
अब टीकाकारके वचन हैं । तहां कर्म एक ही प्रकार है, सो दोष जो पुण्यपापरूप तिनिकरि । प्रवेश करे है। जैसें नृत्यके अखाडे मैं एक ही पुरुष अपने शेष रूप दिखाय नाचे, सा५ स्था
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.. ज्ञानी पहिचाने, तब एक ही जाने । तैसें सम्यग्दृष्टीका ज्ञान यथार्थ है सो यद्यपि कर्म एक ही है, । सो पुण्यपाप भेदकरि दोय प्रकार रूप करि नाचे है, ताकू एकरूप पहिचानि ले । तिस ज्ञानकी 5 महिमारूप इस अधिकारके आदिवि काव्य कहे हैं।
द्रुतविलम्बिवच्छन्दः ॥ तदथ कर्म शुभाशुभभेदतो द्वितयतां गतमैक्यमुपानयन् । ग्लपितनिर्भरमोहरजा अयं स्वयादेत्यवबोधसुघाप्लवः ॥१॥ .. अर्थ-अथ कहिये कर्ताकर्म अधिकारके अनंतर, यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर सम्यग्ज्ञानरूप + चंद्रमा है, सो स्वयं आपआप उदयकू प्रात होय है । कैसा है ? तत् कहिये सो प्रसिद्ध कर्म है 4 र सो कर्म सामान्यकार एक ही प्रकार है । सो शुभ अर अशुभके भेदतें दोयरूपपणाकू प्राप्त " भया है । ताकू एकपणाकू प्राप्त करता संता, उदय होय है।
4 भावार्थ-अज्ञानतें एक कर्म दोय प्रकार देखै था, सो ज्ञान एक प्रकार दिखाय दिया। बहुरि कैसा है ज्ञान ? दरी किया है अतिशयरूप मोहमय रज जाने । भावार्थ-ज्ञानविर्षे मोहुरूप रज लागि रहा था, सो दूरी किया, तब यथार्थ ज्ञान भया। जैसे चंद्रमाकै बादला तथा पाला
का पटल आडा आवै, तब यथार्थप्रकाश होय नाही, आवरण दूरी भये यथार्थ प्रकासे, तैसें । 卐 जानना । आर्गे पुण्यपापका स्वरूपका दृष्टांतरूप काव्य कहे हैं।
मन्दाक्रान्ताछन्दः एको दान्यजति मदिरा ब्राह्मणत्वाभिमानादन्यः शूद्रः स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तव ।
द्वावयेतो युगपदुदरान्निर्गतौ शूद्रिकायाः शूद्रौ साक्षादय च चरतो जातिभेदभ्रमेण ॥२॥
अर्थ- काहू शूद्री स्त्रीके उदरतें युगपत् एक ही काल दोय पुत्र निसरे जन्मे, तिनिमें एक卐 + तौ ब्राह्मणके घर पल्या, ताके ब्राह्मणपनाका अभिमान भया, जो में ब्राह्मण हौं सो तिस अभि-।।
मानतें मदिराकू दूरीही छोडे है, स्पर्श भी नाहीं है। बहुरि दूजा शूदहीके घर रह्यो, सो में + आप शूद्र हौं ऐसे मानि तिस मदिराकरि नित्य सौच करे है, शुचि माने है सो याका परमा
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विचारिये तब दोऊ ही शूद्रीके पुत्र हैं, जाते दोऊ ही शूद्रीके उदरतें जन्मे हैं, सो साक्षात् शूद्र । प卐 हैं। ते जाति भेदके भ्रमकरि प्रवर्ते हैं, आचरण करे हैं । ऐसें पुण्यपाप कर्म जानने, विभावपरिण-9
तीते उपचे, दोऊ ही नहला हैं, प्रतिदकवि दोन टीने हैं, परमा दृष्टि कर्म एक ही जाने हैं। 1 आगे शुभाशुभ कर्म के स्वभावका वर्णन कहे हैं । गाथा---
कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाण सुहसीलं। किह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि ॥१॥
कर्माशुभं कुशीलं शुभकर्म चापि जानीत सुधीलं ।
कथं तद् भवति सुशीलं यत्संसारं प्रवेशयति ॥ १॥ आत्मख्याति:-शुभाशुभजीवपरिणामनिमित्तत्वे सति कारणभेदात् शुभाशुभपुद्गलपरिणाममयन्वे सति स्वभावभेदात् शुमाशुभफलपाकत्वे सत्यनुभवभेदात् शुभाशुभमोक्षगंधमार्गाश्रितत्वे सत्याश्रयभेदात् चैकमपि कर्म किंचिच्छुभं - 卐 किंचिदशुभमिति केषांचित्किल पक्षः, स तु प्रतिषक्षः । तथाहि शुभोऽशुभो वा जीवपरिणामः केवलाज्ञानत्वादेकस्त- 4
देकत्वे सति कारण दात् एकं कर्म । शुभो शुभो वा पुद्गलपरिणामः केवलपुद्गलमयत्वादेकस्तदेकत्वे सति स्वभावा卐 भंदादेकं कर्म । शुभोऽशुभो वा फलपाकः केवलपुद्गलमयत्वादेकस्तदेकरवे सत्यनुभवाभेदादेकं कर्मः । शुभाशुभौ मोक्ष
बंधमागौ तु प्रत्येकं केवलजीवषुद्गलमयत्वादनेको तदनेकत्वे सत्यपि केवलपुद्गलमयबंधमार्गाश्रितत्वेनाश्रयाभेदादेक के कर्म।
___ अर्थ-अशुभकर्म तौ कुशील है, पापस्वभाव है, बुरा है । बहुरि शुभकर्म है सो सुशील है, + पुण्यस्वभाव है, भला है । ऐसें जगत् जाने है । तहां परमार्थदृष्टि कहे हैं, जो कर्म तौ शुभ होऊ, र तथा अशुभ होऊ, प्राणीकू संसारमें प्रवेश करावे है सो सुशील कैसे होय ? नाहीं होय। " टीका केईकनिका ऐसा पक्ष है, कर्म एक है तौ शुभ अशुभके भेदतें दोय भेदरूप है । जातें ॥ २४ + शुभ अर अशुभ जे जोक्के परिणाम ते जाकू निमित्त हैं तिस पणेकरि कारणके भेदतें भेद है।
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बहुरि शुभ अर अशुभ जे पुद्गल के परिणाम, तिनिमय होते सते, स्वभावके भेवतें भेद है । बहुरि.. कर्मका फल जो शुभ र अशुभ, तिसका पाक जो रस, तिसफ्णाकू होते, अनुभव कहिये स्वादका भेदतें भेद है। वहरि शुभ अर अशुभ जो मोहका अर बंधका मार्ग, ताक आश्रितपणा होते,.. आश्रयका भेदतें भेद है। ऐसे इनि चार हेतूनित किछु कोई कर्म शुभ है, कोई कर्म अशुभ है। ऐसा कोईका पक्ष है, सो सप्रतिपक्ष है-याका निषेध करनेवाला दूसरा पक्ष है सो ही कहे है। जो शुभ अथवा अशुभ जीवका परिणाम है, सो केवल अज्ञानमयपणाते एक ही है, ताकू एक होते कारणका अभेद है, तात कारणका अभेदसे कर्म एक ही है। बहुरि शुभ अथवा अशुभ पुद्गलका परिणाम है सो केवल पुद्गलमय है । तातें एक ही है। ताके एक होते स्वभावका अभेदतें भी कर्म एक ही है। बहुरि शुभ अथवा अशुभ जो कर्मका फलका रस, सो केवल पुद्गलमय ही है। ताके एक हाते अनुभव कहिये आस्वादके अभेदतें भी कर्म एक ही है।... बहुरि शुभ अथवा अशुभ मोक्षका अर बंधका मार्ग ए दोऊ न्यारे हैं। केवल जीवमय तौक मोक्षका मार्ग है अर केवल बुद्गलमय बंधका मार्ग है, ते अनेक हैं एक नाहीं हैं। तिनिकू एक .. न होते भी केवल पुद्गलमय जो बंधमार्ग ताका आश्रितपणाकरि आश्रयका अभेदतें कर्म
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भावार्थ-कर्मके विर्षे शुभ अशुभका भेदकी पक्ष चार हेतुतें कही। तहां शुभका हेतु तो जीवका शुभपरिणाम है, सो अरहंतादिविर्षे भक्तोका अनुराग, बहुरि जीवनिविर्षे अनुकंपापरि-5 णाम, बहुरि मंदकषायतें चित्तकी उज्ज्वलता इत्यादि हैं । बहुरि अशुभकू जीवके अशुभपरिणाम - तीव्र क्रोधादिक अशुभलेश्या, निर्दयपणा, विषयासक्तपणा, देवगुरु आदि पूज्यपुरुषनित विनयरूप। न प्रवर्तना इत्यादिक हैं । तातें इनि हेतृनिके भेदतें कर्म शुभाशुभरूप दोय प्रकार है। बहुरि शुभ अशुभ पुद्गलके परिणामका भेदते स्वभावका भेद है । शुभ तौ द्रव्यकर्म तो सातावेदनीय शुभ आयु शुभनाम शुभगोत्र ए हैं। अर अशुभ चारी घातिया अर असातावेदनीय, अशूभ
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5 आयु अशुभनाम, अशुभगोत्र ए हैं । बहुरि इनिके उदयतें प्राणीकूं इष्ट अनिष्ट भली बुरी सामग्री मिले सो है, सो ए पुद्गल के स्वभाव हैं, सो इनिका भेदतें कर्मविषै स्वभावका भेद है अर शुभ अशुभ अनुभवका भेदतें भेद है । शुभका अनुभव तौ सुखरूप स्वाद है अर अशुभका 5 दुःखरूप स्वाद है । बहुरि शुभाशुभ आश्रयका भेदतें भेद है । शुभका तो आश्रय मोक्षमार्ग है अ अशुभका आधा है ऐसा तो पक्ष है। अब थाका निषेधपक्ष कहे हैं। जो शुभ 5 अर अशुभ दोऊ जीवके परिणाम अज्ञानमय हैं, तातें दोऊका एक अज्ञान ही हेतु है । तातें 卐 हेतूका भेद कर्म में भेद नाहीं है । बहुरि शुभ अशुभ दोऊ पुद्गल के परिणाम हैं। तातें पुद्गल - क परिणामरूप स्वभाव भी दोऊका एक ही है, तातें स्वभावका अभेदतें भी कर्म एक ही है। 5 बहुरि शुभाशुभ फल सुखदुःखरूप स्वाद भी पुद्गलमय ही है, तातें स्वादका अभेदतें भी कर्म एक ही है । बहुरि शुभ अशुभ मोक्षधमार्ग कहे, ते मोक्षमार्ग तौ केवल एक जीवहीका परिणाम है 5 अर बंधमार्ग केवल एक पुद्गलहीका परिणाम है, आश्रय न्यारे न्यारे हैं, तातें बंधमार्गके आश्र तें भी कर्म एक ही हैं । ऐसें इहां कर्मके शुभाशुभ भेदका पक्षकूं गौण करि निषेध किया, जातें इहां अभेदपक्ष प्रधान है, सो अभेदपक्ष करि देखिये तब कर्म एक ही है, दोय नाहीं है फ्र 5 अब इस अर्थ के कलशरूप काव्य कहे हैं ।
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उपजातिच्छन्दः
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हेतुस्वभावानुभवाचा सदाप्यमेदान्नहि कर्मभेदः ।
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तद्चन्धमार्गाश्रितमेकमिष्टं स्वयं समस्तं खलु बन्धहेतुः ||३||
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अथोभयं कर्माविशेषेण बंधहेतु साधयति
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अर्थ- हेतु स्वभाव अनुभव आश्रय इनि च्यारीनिके सदा ही अभेदतें कर्मविषै भेद नाहीं है । तातें बंधक मार्ग आश्रय करि कर्म एक ही इष्ट किया है, मान्या है । जातें शुभरूप तथा
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२४
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" अशुभरूप दोऊ हो आप स्वयं निश्चयतें बंध हीका कारण हैं । आगे शुभ अशुभ दोऊ हो कर्म 卐 अविशेष करि बंधका कारण साधे हैं । गाथाक सौवरिणयमि णियलं बंधदि कालायसं च जह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं ॥२॥
सौवर्णिकमपि निगलं बध्नाति कालायसमपि च यथा पुरुषं ।
वनात्येवं जीवं शुभमशुभं वा कृतं कर्म ॥२॥ .आत्मरूयातिः-शुभमशुभं च कर्मविशेषणैव पुरुषं बध्नाति बंधत्वाविशेषाद कंचनकालायसनिगलवत् अयोभयं कर्म प्रतिषेधयति
अर्थ-जैसे सुवर्णकी बेडी पुरुषकू बाधे है अर लोहेकी बेडी भी पुरुपकू बांधे है, तैसें शुभ 5 तथा अशुभ किये हुये कर्म है सो जीवकू बांधे ही है।
टीका-शुभ अर अशुभ कर्म है सो अविशेष करि पुरुष जो आत्मा ताकू बांधे ही है, जातें - दोऊ बंधपणा करि विशेष रहित हैं। जैसे सुवर्णकी वेडी अर लोहकी बेडीमें बंध अपेक्षा भेद ॥
नाहीं । तेसै कर्ममें भी बंध अपेक्षा भेद नाहीं है। आगै शुभ अशुभ जे दोऊ कर्म तिनिकू निषेधे
+
हैं। गाथा
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तहमादु कुसीलेहिय रायं माकाहि माव संसग्गं । साधीणो हि विणासो कुसीलसंसग्गरायेण ॥३॥
तस्मात्तु कुशीरागं मा कुरु मा का संसर्ग।
स्वाधीनो हि विनाशः कुशीलसंसर्गरागाभ्याम् ॥३॥ आत्मरूयाति:-कुशीलशुभाशुभकर्मम्यां सह रागसंसगौं प्रतिपिडौ बंधहेतुत्वात् कुशीलमनोरमाऽमनोरमकरेणुकुट्टि- का + नीरागसंसर्गवत् । अथोभयं कर्म प्रतिषेध्यं स्वयं दृष्टांतेन समर्थपते--
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म अर्थ-भो मुनिजन हो, पूर्वोक्त शुभ अशुभ कर्म हैं ते कुशील हैं, निंद्य स्वभाव हैं। ताते ... सिमि वोऊ शीलनि राग श्रीति मति करो अथवा तिनिका संसर्ग भी मति करो। जाते । ॐ कुशीलके संसर्गत अर रागते अपना स्वाधीनका ही विनाश है, आपका घात आप हीतें होय है। जमा
टीका-कुशील जे शुभ अशुभ कर्म तिनि करि सहित राग अर संसर्ग दोऊ प्रतिषेधे हैं।" जाते ये दोऊ ही कर्मबंधके कारण हैं । जैसे कुशील जो मनको रमाक्नेवाली अर मनको नाहीं ॥ + रभावनेवाली हथनीरूपी कुटनी, ताका राग अर संसर्ग करनेवाला हस्तीका स्वाधीन विनाश होय . है, तेसैं स्वाधीन विनाश है। आगे दोऊ कर्मका प्रतिषेध• आप दृष्टांत करि हद करे हैं। गाथा
जहणाम कोवि पुरिसो कुच्छियसीलं जणं वियाणित्ता। वजेदि तेण समयं संसग्गं रायकरणं च ॥४॥ एमेव कम्मयपडी सीलसहावं हि कुच्छिदं णादु । वज्ति परिहरंति य ते संसग्गं सहावरदा ॥५॥
यथा नाम कश्चित्पुरुषः कुत्सितशीलं जणं विज्ञाय । वर्जयति तेन समकं संसर्ग रागकरणं च ॥४॥ एवमेव कर्मप्रकृतिशीलस्वभावं च कुत्सितं ज्ञात्वा ।
वर्जयंति परिहरति च तत्संसर्ग स्वभावरताः ॥५॥ मात्मख्याति:-पथा खलु कुशलः कश्चिद्धनहस्ती स्वस्य संधाय उपसर्पन्तीं चटुलमुखीं मनोरमाममनोरमां वा करे॥ + णुकुहिनी तस्वतः कुत्सितशीला विज्ञाय त्या सह रागसंसगौ प्रतिरोधयति । तथा किलात्मा रागो शानी स्वस्य बंधाय
उपसर्पती मनोरमाममनोरमां वा सर्वामपि कर्मप्रकृति तस्वतः कुत्सितशीला विचाय तया सह रागसंसमौ प्रतिषेधपति। " म अयोमयकर्महेतु प्रतिध्यं चागमेन साधयति
अर्थ-जैसे कोई पुरुष कुत्सित कहिये निंदनेयोग्य बुरा जाका स्वभाव ऐसा काई लोक
+
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प्रामृत
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" जानि, तिसकी साथी संसर्ग करना अर राग करना वर्ग है, ऐसे ही कर्मप्रकृतीका शीलस्वभाव । ॥ कृत्सित निंदने योग्य खोटा जानि, ताका संसर्ग वर्षे है, छोडे है अर ताका राग छोडे हैं। अपने स्वभावमैं रत होय हैं, स्वभावमैं लीन होय हैं।
टीका-जैसे कोई प्रवीण वनका हस्ती आपके बंधके अर्थी समीपवर्तती चंचल मुखकू लीला-' रूप करती मनको रमावनेवाली सुन्दर तथा असुन्दर जे हथणीरूपी कुटिनी ताकू कुत्सितशील .. बुरी जाणि, तिस करि सहित राग अर संसर्ग समीप जाना, दोऊ प्रतिषेधे है, नाहीं करे है।। तैसे ही आत्मा राग रहित ज्ञानी भया संता अपने बंधके अर्थी समीप उदय आवती मनोरमा पर अमनोरमा कहिये शुभरूप तथा अशुभरूप जो समस्त ही कर्मप्रकृति, ताही परमार्थत कुत्सितशील कहिये बुरी जाणि, तिस करि सहित राग अर संसर्ग प्रतिषेधे है।।
भावार्थ-जैसें हस्तीकै पकडनेकू कपटकी हथिणी दिखावे तब हस्ती कामांध भया तिससू राग संसर्ग करि खंदकमें पडी पराधीन होय, दुख भोगवे अर प्रवीण हस्ती होय तो तासू रागा - संसर्ग न करे । तैसें कर्मप्रकृतीकू भली जाणि अज्ञानी तासू राग करै संसर्ग करै, तब बंधमें पड़ी
संसारके दुःख भोगवे, ज्ञानी होय सो तासूसंसर्ग राग नाहीं करे । आगें शुभ अशुभ दोऊ कम हैं ते बंधके कारण हैं अर प्रतिषेधने योग्य हैं यह आगम करि साधे हैं । गाथा--
रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विरागसंपण्णो। एसो जिणोवदेसो तहमा कम्मेसु मारज्ज ॥६॥
रक्तो बध्नाति कर्म मुच्यते जीवो विरागसम्पन्नः ।
एष जिनोपदेशः तस्मात् कर्मसु मारज्यस्व ॥ ६ ॥ आत्मख्यातिः—यः खलु रक्तोऽवश्यमेव कर्म बनीयात् विरक्त एव मुच्येतेत्ययमागमः स सामान्येन रक्तत्त्वनिमिचत्वाच्छुममशुभमुभयकर्माविशेषेण बंधहेतुं साधयति तदुभयमपि कर्मप्रतिषेधयति ।
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अर्थ - रागी जीव है सो तौ कर्मकूं बांधे है, बहुरि वैराग्यकूं प्राप्त है सो जीव कर्मसू छूटे है, यहू जिनभगवानका उपदेश है । तातैं भो भव्यजीव ! तू कर्मनिविषे राग प्रीति मति करौ, रागी मति होहू ।
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स्वागताछन्दः
कर्म सर्वमपि सर्वसाधनमुशन्त्य विशेषात् ।
तेन सर्वमपि तत्प्रतिषिद्धं ज्ञानमेव विहितं शिवहेतुः || ४ ||
टीका - जो रागी है सो अवश्य कर्तकूं बांधे ही है । बहुरि विरक्त है सो ही कर्मतें छूटे है। ऐसा यह आगमका वचन हैं । सो यह वचन है सो सामान्य करि कर्म रागीपणाका निमित्तपणा क करि शुभ तथा अशुभ ए दोऊ हैं, तिनिक्कू अविशेष करि बंधका कारण सावे है, तातें तिनि दोऊ ही कर्म निकू निषेधे है । इस अर्थका कलशरूप काव्य है ।
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अर्थ – सर्वज्ञदेय हैं, ते सर्व ही कर्म, शुभ तथा अशुभकूं अविशेषतें बंधका कारण कहे हैं, तिस 5 कारण र सर्वही कर्म प्रतिषेध्या है । मोक्षका कारण तौ एक ज्ञान हीकूं कया है । अब की कहे हैं, जो कर्म सर्व ही प्रतिषेध्या है, तौ मुनि हैं ते कौन के शरण आश्रय मुनिपद पालेंगे ? याके निर्वाह काव्य कहे हैं ।
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5 फफफफफफफफफ
शिम्ब रिणीछन्दः
निषिद्धे सर्वस्मिन् सुकृतदुरिते कर्मणि किल प्रवृत्तं नेक न खलु मुनयः संत्यशरणाः । तदा ज्ञाने ज्ञानं प्रतिचरितमेषां हि शरणं स्वयं विन्दन्त्येते परमममृतं तत्र निरताः || ५ || अथ ज्ञानहेतु साधयति -
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अर्थ- सुकृतं कहिये शुभ आचरणरूप कर्म, बहुरि दुरित कहिये अशुभ आचरणरूप कर्म, ऐसा सर्व ही कर्मका निषेध करते संते, बहुरि नैष्कम्र्य कहिये कर्म रहित निवृत्ति अवस्थाकूं प्रवर्तते संते २५ १ मुनि हैं ते अशरण नाहीं हैं । इहां ऐसी नाहीं आशंका करनी जो ए मुनिपद काहेके आश्रय
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पालेंगे। जिस काल निवृत्ति अवस्था प्रवृत्ते, तिस काल इनि मुनिनिके ज्ञानविषे ज्ञानहीकू आचरणा यह शरण है। ते मुनि तिस ज्ञानविर्षे लीन भये संते परम उत्कृष्ट अमृतकू आप स्वयं भोगवे हैं।
भावार्थ--सर्व कर्मका त्याग भये ज्ञानका बडा शरण है । तिस ज्ञानमें लोन भये सर्व आकुलता रहित परमानंदका भोगना होय है, याका स्वाद ज्ञानी ही जाने है । अज्ञानी कषायी जीव कर्महीकू सर्वस्व जोनि तामें लीन है, ज्ञानानंदका स्वाद नाहीं जाने है। आगे ज्ञानकू मोक्षका कारण साधे हैं । गाथा
परमट्टो खलु समओ सुद्धो जो केवली मुणी पाणी। तहमिटिदो समादे मुणित पानति शिवाणं ॥७॥
परमार्थः खलु समयः शुद्धो यः केवली मुनिर्ज्ञानी ।
तस्मिन् स्थिताः स्वभावे मुनियः प्राप्नुवंति निर्वाणं ॥७॥ आत्मख्यातिः-शानं मोक्षहेतुः, ज्ञानस्य शुभाशुभकर्म गोरबंयनुत्ते सति मोक्षहेतुत्वस्य तथोपपत्तः तनु सकलकर्मादिजात्यंतरविविक्तविजातिमात्रः परमार्थ आत्मेति यावत् स तु युगादेकोभावप्रवृत्तज्ञानगमनतया समयः । सकलनयपक्षासकीणेकज्ञानतया शुद्धः । केवल चिन्मात्रवस्तुतया केवली । मननमात्रभावमात्रतया मुनिः स्वयमेवज्ञानतया ज्ञानी। स्वस्य भवनमात्रतया स्वस्वभावः स्वतश्चितो भवनमात्रता सहावो वेति शब्दभेदेऽपि न च वस्तुमेदः।
अब शानं विध्यापयति
अर्थ-निश्चय करि परमार्थरूप समय कहिये जीवनामा पक्षका यह स्वरूप है, जो शुद्ध है, केवली है, मुनि है, ज्ञानी है ए जाके नाम है। तिल स्वभावविवे जे मुनि तिष्ठे हे ते मुनि निर्वा. जर ण प्राप्त होय हैं।
टीका ज्ञान ही मोक्षका हेतु कहिये कारण है, जाते अज्ञान शुभ अशुभ कर्मरूप है, ताके 5
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फफफफफफफफफफफफ
बंधका कारणपणा होतें संतें मोक्षका कारणपणाकी तैसीहि उपपत्ति है, मोक्षका हेतुपणा ज्ञान
5 हीके बने है। सो यह ज्ञान है सो ही परमार्थ है, आत्मा है ऐसा कहिये है, जातें समस्त कर्मकुं आदि लेकर अन्य पदार्थनितें मित्र जात्यंतर चिज्ञातिमात्र है । सो ही परमार्थ स्वरूप आत्मा है,
प्रासू
जातितें भिन्न है । तो यही समय कहिये । जाते समय शब्दका ऐसा अर्थ पूर्वे का है- फ्र
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सम् ऐसा तो उपसर्ग है, ताका अर्थ तो एकेकाल एकरूप प्रवर्तना है, बहुरि अब ऐसा शब्दका अर्थ ज्ञान भी है, अर गमन भी सो दोऊ कियारूप एकै काल होय प्रवर्ते, ताकूं समय कहिये | 5
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सो ऐसा प्रवर्तन जीव नाम पदार्थका है, सो ही आत्मा है। बहुरि तिस हीकूं शुद्ध ऐसा नाम
कहिये, जातें समस्त धर्म तथा धर्मो ग्रहण करनेवाले जे नय तिनका पक्ष तिनितें असंकीर्ण फ
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फ कहिये मिले नाहीं, न्यारा ही एक ज्ञानपणा है, यह असाधारण धर्म है सो अन्यधर्मनित न्यारा ही प्रकाशरूप है, अन्यतें न मिले, सो एककूं शुद्ध कहिये । बहुरि याहीकुं केवली कहिये, जातें केवल
卐
फफफफफफफफफफफफ
चैतन्यमात्र वस्तुपणा या है, केवलशब्दका अर्थ एक है। बहुरि याहीकू' मुनि कहिये, जातें फ्र
एक
मननमात्र कहिये ज्ञानमात्र तिसभावमात्र यह है, तिसवणाकर मुनि भी यह ही है । बहुरि आप
卐
स्वयमेव ज्ञानी है हो, तिसपणाकरि ज्ञानी भी याकू कहिये है। बहुरि अपना जो ज्ञानस्वरूप, फ
卐
ताका भवन कहिये होना सत्तारूप प्रवर्तना, तिसपणाकरि स्वभाव भी याकूं कहिये । तथा अपना चेतनाका
卐
कहिये सतारू होना, ताकरि सद्भाव ऐसा भी याहीका नाम है। ऐसे
5 शब्दनिके भेद नाम भेद होतें भी वस्तु भेद नाहीं है ।
卐
भावार्थ-मोक्षका अपादान तौ आत्मा ही है, सो आत्माका परमार्थकरि ज्ञान स्वभाव है,
卐
सो ज्ञान है सो आत्मा ही है, तथा आत्मा है सो ज्ञान ही है । तातें ज्ञानहीकूं मोक्षका कारण
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5 कहना युक्त है । आगे, कोई जानेमा की, वाह्य तपश्चरणादि करे है, सो ही ज्ञान है, ताकूं ज्ञान- 5: की विधि बताये हैं । गाथा
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परमम्मिय अठिदो जो कुणदि तवं वदं च धारयदि। तं सब्बं वालतवं वालबदं विति सव्वहणु।। ८॥
卐प्राभूत परमा पास्थितः करोति तणे प्रतं च धारयति ।
तस्तव पालतपो बालबतं विदंति सर्वज्ञाः ॥८॥ बात्मल्यातिः-शानमेव मोक्षस्य कारणं विहित परमार्थभूतज्ञानशून्यस्याज्ञानकतयो ततपः कर्मणोः बंधहेतुत्वा卐 द्वालव्यपदेशेन प्रतिषिद्धत्वे सति तस्यैव मोक्षहेतुत्वात् ।
__अथ ज्ञानाबानमोक्षबंधहेतू नियमयति" अर्थ-जो परमार्थभूत ज्ञानस्वरूप आत्माविर्षे तौ नाहीं तिष्ठया है अर तप करे है बहुरि
व्रतकू धारे है सो सर्व ही तप बता सर्वज्ञदेव हैं ते बालतप कहिये अज्ञानतप अर बालबत कहिये " अज्ञानव्रत जाने हैं कहे हैं। 卐 टीका-मोक्षका कारण ज्ञान ही है यह विधि है । जाते परमार्थभूत जो ज्ञान ताकरि शून्य - ___ कहिये रहित जो अज्ञानतें किये तप अर व्रतरूप कर्म, तिनि दोऊनिकै बंधका कारणपणा है। तातें ॐ बालतप बालवत ऐसा नाम कहकरि सर्वज्ञदेवने प्रतिषेधे है । तातें तिस पूर्वोक्त ज्ञान हीकै मोक्षका ' 1- कारणपणा है।
भावार्थ-ज्ञानविना तप व्रत करना है, सो बालतप बालवत कह्याः है। तातें मोक्षका कारण म + ज्ञान ही है। आगें ज्ञान है सो तो मोक्षका हेतु है अर अज्ञान है सो बंधका हेतु है, ऐसा नियमकरि कहे हैं । गाथा--
वदणियमाणिधरंता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता। परमवाहिरा जेण तेण ते होति अण्णाणी ॥९॥
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व्रतनियमान् धारयंतःशीलानि तथा तपश्च कुर्वाणाः।
परमार्थवाह्या येन तेन ते भवन्स्यज्ञानिनः ॥ ९ ॥ ___आत्मख्यातिः-ज्ञानमेव मोक्षहतुस्तदभावे स्वयमज्ञानभूवानामज्ञानिनामन्त तनियमशीलतपः प्रभृतिशुभकर्मसद्धावेऽपि मोक्षाभावात् । अज्ञानमेव बंधहेतः, तदभावे स्वयं ज्ञानभूतानां ज्ञानिनां बहि तनियमशीलतपः प्रभृतिशुभकर्मा- . सद्भावेऽपि मोक्षसद्भावात् ।
अर्थ-ये केई व्रत अर नियम इनिकूधारे हैं तैसें ही शील बहरि तप तिनिकू करे हैं अर ... परमार्थभूत ज्ञानस्वरूप आत्मातें बाह्य हैं ताका स्वरूपका ज्ञान श्रद्धान जिनिकै नाहीं है ते निर्वाजणकू नाहीं अनुभवे हैं, नाहीं पावे हैं। - टीका-ज्ञान ही मोक्षका हेतु है । जाते ज्ञानके अभावकू होते आप अज्ञानरूप भये जे "अज्ञानी तिनिके अंतरंगविर्षे ब्रत नियम शील तपोरूप शुभकर्मका सद्भाव होते भी मोक्षका अभाव
है। ज्ञानविना शुभकर्मरूप व्रत नियम शील तपोरूप प्रवृत्ति होते भी मोक्ष नाही होय है । बहुरि __ अज्ञान है सो ही बंधका हेतु है । जातें अज्ञानका अभाव होते आप ज्ञानरूप भये जे ज्ञानी, 卐तिनिके वाह्य व्रत नियम शील तप आदि शुभकर्मका असद्भाव होते भी मोक्षका सदुभाव है।
भावार्थ-ज्ञान होते ज्ञानोके व्रत नियम शील तपोरूप शुभकर्म बाह्य न होते भी मोक्ष होय है। इहां ऐसा जानना, जो व्रत आदिकी प्रवृत्ति शुभकर्म है, सो प्रवृत्तिका अभाव भये-निर्वृत्ति 1- अवस्था भये व्रत नियम शील सपका बाह्यप्रवृत्तिरूपका अभाव है, तौऊ मोक्ष होय है, यह नियम "जानना । इस अर्थका कलशरूप काव्य है।
शिखरिणीछन्दः यदेतज्ञानात्मा ध्रुवमचलमाभाति भवनं शिवस्यायं हेतुः स्वयमपि यतस्तच्छिव इति ।
अतोऽन्यबंधस्य स्वयमपि यतो बन्ध इति तत् ततो झानात्मत्वं भवनमनुभूतिहि विहितम् ॥६॥ अर्थ- जो यह ज्ञानस्वरूप आत्मा ध्रुव है सो जब निश्चल अपने ज्ञानस्वरूप होता सोहे है,
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सो ही यह मोक्षका कारण है । जातें आप स्वयमेत्रहि मोक्षस्वरूप है । बहुरि यासिवाय अन्य है सो बंधका कारण है । जातें सो आप स्वयमेव बंधस्वरूप है, तातें ज्ञानस्वरूप अपना होना सो फ ही अनुभूति है, ऐसें निश्चयतें बंधमोक्षका हेतुका विधान किया है। अगे, फेरि भी पुण्यकर्मका पक्षपात करै, ताका प्रतिबोधनेके अर्थिं उत्तर कहे हैं। गाथा
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परमद्ववाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छंति । संसारगमगाहेदुं विमोक्षहेदुं अयागंता ॥ १० ॥ परमार्थबाह्या ये ते अज्ञानेन पुण्यमिच्छति । संसारगमनहेतु' विमोक्ष हेतुमजानतः ॥ १० ॥
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आत्मख्यातिः - इह खलु केचिन्निखिलकर्मपक्षक्षयसंभावितात्मलाभं मोक्षमभिलषं तोऽपि तद्ध ेतुभूतं सम्यग्दर्शन- फ ज्ञानचारित्रस्वभावपरमार्थभूतज्ञानभवनमात्रमैकाग्रयलक्षण समयसारभूतं सामायिकं प्रतिज्ञायापि दुरं तकर्म चक्रो सरणक्लीवतया 5 परमार्थभूतज्ञानानुभवनमा सामायिकमात्मस्वभावमलभमानाः प्रतिनिवृत्तस्थूलतमसंक्लेशपरिणामकर्मतया प्रवृत्तमानस्यूल- 5 तमविशुद्धिपरिणामकर्माणः कर्मानुभवगुरुलाघवप्रतिपत्तिमात्रसंतुष्टचेतसः स्थूललक्ष्यतया सकलं कर्मकांडमनुन्मूलतः स्वयमज्ञानादशुभकर्म केवल बंधहे तुमध्यास्य एवं व्रत नियमशीलतपःप्रभृतिशुभकर्मवं वहेतुमप्यजानं तो मोक्षहेतुमभ्युपगच्छति । फ्र अथ परमार्थमोक्षहेतुस्तेषां दर्शयति---
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अर्थ- जीव परमार्थ वाह्य हैं, परमार्थभूतज्ञानस्वरूप आत्माकूं नाहीं अनुभवे हैं, ते जीव 5 अज्ञानकर पुण्य इष्ट करे हैं, भला मानि चाहे हैं। कैसा है पुण्य ? संसारके गमनकू कारण है, तौऊ बहुरि ते जीव कैसे हैं ? मोक्षका कारण ज्ञानस्वरूप आत्माकू नाही जानते संते पुण्यही5 कूं मोक्षका कारण माने हैं ।
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टीका -- या लोकविषै निश्चयकरि केईक जीव ऐसे हैं, जे समस्त कर्म के पक्षका नाशकरि क उपजे है आत्मलाभ कहिये निजस्वरूपका लाभ जामैं ऐसा मोक्षकूं चाहते भी हैं, तौऊ तिस फ
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मोक्षके कारणभूत सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रस्वभाव परमार्थभूत ज्ञानके होनेमात्र एकाग्रता लक्षण समयसारभूत सामायिक चारित्र, ताकी प्रतिज्ञा लेकरिभी दुरन्तकर्मका समूहके पार होनेविये 5 समर्थपणाका अभावकरि परमार्थभूत ज्ञानके होनेमात्र जो सामायिक चारित्रस्वरूप आत्माका स्वभाव ताकू नाही पावते संते, अतिशयकार मोठा स्थूल सं शपरिणामस्वरूप कर्मतें तो निवृत्त 卐 भये हैं, बहुरि अतिशयकरि स्थूल मोठा विशुद्धरूप परिणामरूप कर्मकरि प्रवतें हैं, ते कर्मका अनुrest गुरुणा अलपणाकी प्राप्तिमात्रकरि ही संतुष्ट है चित्त जिनिका, बहरि स्थूललक्ष्यतारूप जो मोठा अनुभवगोचर संक्ल शरूप कर्मकांड ताकूं तौ छोडे हैं, परंतु समस्तकर्मकांडकं मूलतें नाहीं उन्मूल करते हैं, ते आप ही अपने अज्ञानतें अशुभकर्मही केवल बंधका कारण निश्चयकरि व्रत नियम शील तप आदिक शुभकर्मबंधका कारण है तोऊ या बंधका कारण नाहीं जानते मोक्षका कारण माने हैं अंगीकार करे हैं, ते परमार्थ बाह्य हैं।
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भावार्थ -- केई जीव अतिसंक्लेशपरिणामरूप कर्मकूं तौ बंधका मारण जानि छोडे हैं अर 5 अतिविशुद्धतारूप परिणामरूप कर्मसहित वर्तें हैं, कर्मका घणा थोडामात्र ही बंधमोक्षका कारण जाने हैं, असल रहित अपना स्वरूप मोक्षका कारण नाही जाने हैं, ते अशुभकर्म 5 छोडि व्रत नियम शीलतरूप शुभकर्म ही मोक्षका कारण मानि अंगीकार करे हैं। ते व्रत आदिकं पालते भी अज्ञानी ही हैं — परमार्थ कूं नाही जाने हैं। आगें, ऐलै जीवनिकू परमार्थफ स्वरूप मोक्षका कारण दिखाये हैं। गाथा -
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जीवादी सहहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं ।
रागादी परिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो ॥ ११ ॥
जीवादिश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं तेषामधिगमो ज्ञानं ।
रागादिपरिहरणं चारित्र ं एष तु मोक्षपथः ॥ ११॥
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आत्मख्यातिः -- मोक्षहेतुः किल सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रं । तत्र सम्यक्दर्शनं तु जीवादिश्रद्धानस्वभावेन ज्ञानस्य
卐 भवनं । जीवादिज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं ज्ञानं । रागादिपरिहरणस्वभावेन ज्ञानस्य भवनमापातं । ततो ज्ञानमेव फ्र
15 परमार्थमोक्षहेतुः ।
अथपरमार्थ मोक्षतोतुरन्यत् कर्म प्रतिषेधयति -
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अर्थ -- जीवादिक पदार्थको सम्यक् है ! बहुरि तिनि जीवादिपदार्थन
का अधिगम, सो ज्ञान है । बहुरि रागादिकका परिहरण त्याग सो चारित्र है । यह मोक्षका 5 मार्ग है ।
फफफफफफफफफफफफ
கககககககககக
टीका - मोक्षके कारण प्रगटपणे सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र है। तहां जीवादि पदार्थनिका 5 सम्यग्दर्शन कहिये सम्यक्प्रकार यथार्थप्रधान, तिस श्रद्धानस्वभावकरि ज्ञानका भवन कहिये 5 होना परिणमना सो तौ सम्यग्दर्शन है । बहुरि तैसे जीवादिपदार्थनिका ज्ञान, तिस स्वभाव करि 5 ज्ञानका होना सो सम्यग्ज्ञान है । बहुरि रागादिकका परिहरण कहिये त्यागना, तिस स्वभावकरि ज्ञानका होना सो सम्यक्चारित्र है सो ऐसे सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र ए तीनू ही ज्ञानके परिणमन मैं आय गये । तातें ज्ञान ही परमार्थरूप मोक्षका कारण भया ।
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भावार्थ - आत्माका असाधारण स्वरूप ज्ञान ही हैं । अर इस प्रकरण में ज्ञानहीकू' प्रधान
करि व्याख्यान है । तातें सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र ए तीनू ज्ञानहीका परिणमन हैं, ऐसे कहि ज्ञान - 145
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मोक्षका कारण का है। ज्ञान है सो अभेदविवक्षोंमें आत्मा ही है। सो कहने में किछू
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विरोध नाहीं । आगे, परमार्थरूप मोक्षका कारणतें अन्य जो कर्म, ताकूं प्रतिषेधे हैं। गाथामोत्तण णिच्छयटुं ववहारे ण विदुसा पवट्ठेति ।
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परममस्सिदा तु जदीण कम्मक्खओ होदि ॥ १२ ॥ Hear franti व्यवहारे न विद्वांसः प्रवर्तते । परमार्थमाश्रितानां तु यतीनां कर्मक्षयो भवति ॥ १२ ॥
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समय
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आत्मख्यातिः–युः खलु परमार्थमतोरतिरिक्तो व्रततपः प्रभुतिशुभकर्मा केषांचिन्मोक्षहेतुः सर्वाऽपि प्रतिषिद्ध
स्तस्य द्रव्यान्तरस्यभावत्वात् तत्स्वभावेन ज्ञानभवनस्याभवनात् । परमार्थमोक्षहेतोरेचैकद्रव्यस्वभावत्वात् तत्स्वभावेन
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ज्ञानभवनस्य भवनात् ।
卐 अर्थ - निश्चयनयका विषयकूं छोडिकरि पंडित जन व्यवहारकरि प्रवर्ते हैं, परंतु ये यतीश्वर
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परमार्थभूत आत्मस्वरूपकं आश्रित हैं, तिनिके कर्मका नाश का है। व्यवहारही में प्रवर्तने
5 वालेका कर्मक्षय नाहीं होय है
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टीका - केईक निकै ऐसा मोक्षका हेतु कारण है, जो परमार्थभूत मोक्षका कारण, तातें तौ
卐
रहित अर व्रत तप आदिक शुभकर्मस्वरूपहीतैं मोक्ष है। सो ऐसा मोक्षका हेतु मानना सर्व ही 5 प्रतिषेध्या है । जातें ऐसे मोक्षके कारणके अन्यद्रव्यका स्वभावपणा है, तिस स्वभावकरि ज्ञानके परिणमनके न होना है। ज्ञानका परिणमन परमार्थतें शुभाशुभरूप नाहीं । परमार्थभूत जो मोक्ष 5 का कारण, ताहीके rearer arar है । तिस स्वभावकरिही ज्ञानके परिणमनका 5
होना है।
卐
-मोक्ष आत्मा होय है, सो ताका कारण भी आत्माका स्वभाव ही चाहिये, जो
5 अन्यद्रव्यका स्वभाव होय ताकरि आत्माकै मोक्ष कैसे होय ? यह निश्चयनयका मत है। यातें शुभकर्म पुद्गलद्रव्यका स्वभाव है, सो आत्माकै मोक्षका कारण नाहीं । ज्ञान आत्माका स्वभाव 5 हैं, सो ही आत्माकै परमार्थभूत मोक्षका कारण है । अब इस ही अर्थ के कलशरूप दोय श्लोक 155
कहे हैं।
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अनुष्टुप् छन्दः
बु ज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं सदा एकद्रव्यस्वभावत्वान्मोक्षहेतुस्तदेव तत् ॥ ७ ॥ इथं कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं न हि द्रव्यांतरस्वभावत्वान्मोक्षहेतुनं कर्म तत् ॥ ८ ॥
अर्थ - जो ज्ञानस्वभावकरि वर्तना ज्ञानका होना है, सो ही मोक्षका कारण है । जाते ज्ञानके
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एक आत्मद्रव्यका स्वभावपणा है । बहुरि जो कर्मस्वभावकरि वर्तना है, सो ज्ञानका होना नाहीं, तो कर वर्तन पक्षका कारण नाही । जातें कर्मके अन्यद्रव्यका स्वभावपणा है 1
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5
भावार्थ- मोक्ष आत्मा होय है, सो आत्माका स्वभाव ही मोक्षका कारण होय, तातें ज्ञान -5 आत्माका स्वभाव है, सो ही मोक्षका कारण है। बहुरि कर्म है सो अन्यद्रव्य जो पुद्गलजन्य arat स्वभाव है, सो आत्माकै मोक्षका कारण नाहीं होय है, यह निश्चय है आगे अमिली 5 कनकी सूचनिकाका श्लोक कहे हैं।
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卐
अनुष्टुप्छन्दः
मोक्षहेतुतिरोधाना धत्त्वात्स्वयमेव च मोक्षहेतु तिरोधायि भावत्वात्ताभिषिध्यते ॥ ६ ॥
जथ कर्मणो मोक्षहेतुतिरोधानकरणं साधयति
अर्थ---कर्म है सो मोक्षके कारणका तिरोधान है --आच्छादन करने वाला है । अर आप स्वयस्वरूप है। बहुरि मोक्षका कारणका तिरोभावपणा या है । ऐसें तीन
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कर्म निषेधये हैं । सो ही अर्थ आगे गाथाकरि साधे हैं। तहां प्रथम ही कर्मके मोक्षका कारण
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जो दर्शन ज्ञान चारित्र तिनिका तिरोधान करना आच्छादना ताकूं साधे हैं। गाथा
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वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलविमेलणाच्छण्णो । मिच्छत्तमलोच्छण्णं तह सम्मत्तं खु गादव्वं ॥ १३ ॥ वत्थस्स सेदभावो जह वासेदि मलविमेलणाच्छगयो । अण्णाणमलोच्छण्णं तह गाणं होदि यादव्वं ॥ १४ ॥ वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलविमेलणाच्छरणो । तह दु कसायाच्छयां चारितं होदि गादव्वं ॥ १५॥
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वनस्य-श्वेतभावो यथा नश्यति मलविमेलनाच्छनः। मिथ्यात्वमलाक्छन्नं तथा च सम्यक्त्वं खलु ज्ञातव्यं ॥१३॥ वस्त्रस्य श्वेतभावो यथा नश्यति मलविमेलनाच्छन्नः । अज्ञानमलावच्छन्न तथा ज्ञानं भवति ज्ञातव्यं ॥१४॥ वस्त्रस्य श्वेतभावो यथा नश्यति मलविमेलनाच्छन्नः ।
कषायमलावच्छन्न तथा चारित्रमपि ज्ञातव्यं ।।१५।। जामख्यातिः-शानस्य सम्यक्त्वं मोक्षहेतुः स्वभावः, परभावेन मिध्यत्वनाम्ना कर्ममलेनावच्छन्नत्वात् तिरोधीयते। परमावभूतमलावच्छिन्नश्वेतवस्त्रस्वभावभूतश्वेतस्वभाववत् । ज्ञानस्य ज्ञानं मोक्षहेतुः स्वभावः, परभावेनासाननामा ॥ कर्ममलेनावच्छन्नत्वातिरोधीयते । परम वभूतमलावच्छन्नश्वेतवस्त्रस्वभावभूतश्वेतस्वभाववत् । बानस्य चारित्रं मोक्षहतुः .. स्वभावः, परभावेन कपायनान्ना कर्ममलेगावच्छन्नत्वात्तिरोधीयते । परभावभनमलावच्छिन्नश्वेतवस्त्रस्वभाषयत् । अतो; मोक्षहेतुतिरोधानकरणात् कर्म प्रतिषिर्छ । अथ कर्मणः स्वयं बंधत्वं साधयति
अर्थ-जैसा वस्त्रका श्वेतभाव मलके मेलनेकरि लिप्त भया संता नष्ट होय है--तिरोभूत होय । 卐 है, तैसा मिथ्यात्वमलकरि व्याप्त भया आत्माका सम्यक्त्वगुण आच्छादित होय है, ऐसें जानना ।
बहुरि जैसा वस्त्रका श्वेतभाव मलके मेलनेकरि लित भया संता नष्ट होय है, तेसा अज्ञानमल करि" व्याप्त हुवा आत्मा का ज्ञानभाव आच्छादित होय है, ऐसें जानना। बहुरि जैसा वस्त्रका श्वेतभाव卐 मलके मेलनेकरि लिप्त भया संता नष्ट होय है, तैसा कषायमलकरि व्याप्त भया संता आत्माको .. चारित्रभाव आच्छादित होय है, ऐसें जानना ।
भावार्थ-ज्ञानके सम्यक्त्व है सो मोक्षका कारणरूप स्वभाव है सो यह सम्यक्त्व परभाव।। स्वरूप जो मिथ्यात्वनामा कर्म सो ही भया मल, तिसकरि व्याप्तपणातें तिरोधानरूप होय है, ॥ 卐 आच्छादित होय है । जैसे परभावभूत जो मल रंग, ताकरि अवच्छन्न जो श्वेतवस्त्र, ताका
स्वभावभूत श्वेतस्वभाव आच्छादित होय है तैसें । बहुरि ज्ञानके ज्ञान है सो मोक्षका कारणरूप"
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स्वभाव है । सो परभाव जो अज्ञान नामा कर्म, सो ही भया मल, ताकरि व्याप्तपणातें तिरोधान" प्रम कीजिये है- आच्छादिये है। जैसे परभावरूप जो मल रंग, ताकरि व्याप्त भया श्वेतवस्त्रका
स्वभावभूत श्वेतस्वभाव आच्छादित होय है तैसें । बहुरि ज्ञानके चारित्र है सो मोक्षका कारणरूप स्वभाव है। सो परभावस्वरूप जो कपापनामा कर्म सो ही भया मल, ताकरि व्याप्तपणातें तिरो-5 धान कीजिये है-आच्छादिये है। जैसे परभावरूप जो मल रंग, ताकरि व्याप्त भया श्वेतवस्त्र-...
का स्वभावभूत श्वेतस्वभाव आच्छादित कीजिये है तैसें । यातें मोक्षके कारण जे सम्यग्दर्शनज्ञान+ चारित्र तिनिका आच्छादन करनेतें कर्म• प्रतिषेध्या है।
___ भावार्थ सम्यग्दर्शनसार वारिमय ज्ञाण गरिणमनस्वरूप मोक्षमार्गके प्रतिबंधक मिथ्यावा 卐 अज्ञान कषायरूप कर्म है, सोए कर्म तिस मोक्षके कारणभावकू आच्छादित करे है । याते कर्मका निषेध है । आगे कर्मका स्वयमेव बंधपणा साधे हैं । गाथा
सो सचगाणदरसी कम्मरयेण णियेण उच्छरणो। संसारसमावण्णो णवि जाणदि सव्वदो सव्वं ॥१६॥
स सर्वज्ञानदर्शी कर्मरजसा निजेनावच्छिन्नः ।
संसारसमापन्नो न विजानाति सर्वतः सर्वं ॥१६॥ आत्मख्याति:-यतः यमेव झानतया विश्वसामान्यविशेषज्ञानशीलमपि ज्ञानमनादिस्वपुरुषापराधप्रवर्तमानकर्ममलावच्छन्नत्वादेव बंधावस्थायां सर्वतः सर्वमप्यात्मानमविजानदज्ञानभावेनैवेदमेवमवतिष्ठते । ततो नियतं स्वयमेव कर्मव) पंधः । अतः स्वयं बंधात्वात्कर्म प्रतिषिद्ध। अथ कर्मणो मोक्षहेतुतिरोधायिभावत्वं दर्शयति
॥ अर्थ-सो आत्मा स्वभावकरि सर्वका जाननहारा लेखनहारा है तौऊ अपना कर्मरूप रज-.करि आच्छादित व्याप्त भया संता संसारकू प्राप्त है ऐसा भया संता सर्वप्रकार सर्व वस्तूकून। जाने है।
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टीका - जातें यह ज्ञानरूप आत्मा है, सो आप स्वयमेव ज्ञानपणाकरि विश्व कहिये सर्वपदार्थ, 卐 तिनिकूं सामान्य विशेषकर जाननेका ज्ञानस्वभावरूप हैं, तौऊ अनादिकालतें अपना पुरुषार्थकरि फ किया जो अपराध, ताकरि प्रवर्त्या जो कर्म, सो ही भया मल, ताकरि अच्छन्न कहिये आच्छा
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दित है - व्याप्त है— मलिन है । तिस भावकरि बंधावस्थाविषै सर्वप्रकार सर्वज्ञेयाकाररूप जो अपना स्वरूप, ताकूं नाहीं जानता संता अज्ञानभावकरिही यह आप इस प्रकार तिष्ठे है । तातें यह निश्चय भया- जो कर्म है, सो स्वयमेव आप ही बंधस्वरूप है । यातें कर्म स्वयमेव आप हो 卐 पणारूप जानि प्रतिषेध्या है।
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भावार्थ - इहां ज्ञानशब्दकरि आत्माहीका ग्रहण कीया है। सो यह ज्ञानस्वभावकरि तौ फ सर्वका देखनजाननहारा है । परंतु अनादितें आप अपराधी है, तातें कर्म बंधे है, ताकरि आच्छा卐 दित है सो अपना संपूर्णरूपकं न जानता संता अज्ञानरूप भया संता आप तिप्ठे है । ताकै कर्म आप ही बंधे है, कर्मकू आप तौ लेकरि नाहीं बांधे है, आप तो अपने अज्ञानभावरूप परिणमै है, 5 अर कर्म आप स्वयमेव बंघरूप होय है, तातें कर्मका प्रतिषेध है । आगे, कर्मके मोक्षका कारण जे सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र, तिनिका तिरोधायिभावपणा दिखावे हैं । इनिकूं प्रगट न होने देना यह 5 तिरोधायिभावपणा है । गाथा
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सम्मत्तपडिणिबद्धं मिच्छत्तं जिणवरेहि परिकहिदं । तस्सोदयेण जीवो मिच्छादिद्वित्ति णादव्वो ॥१७॥
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णाणस्स पडिणिबद्धं अरणाणं जिणवरे हि परिकहिदं । तस्सोदयेगा जीवो अण्णाणी होदि यादव्वो ॥ १८॥
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चारित पडिणिबद्धं कसायं जिणवरेहि पण्णत्तं ।
तस्सोदयेण जीवो अच्चरिदो होदि णादव्वो ॥ १९ ॥ सम्यक्त्वप्रतिनिबिद्धं मिथ्यात्वं जिनवरैः परिकथितं । तस्योदयेन जीवो मिध्यादृष्टिरिति ज्ञातव्यः ॥ १७ ॥ ज्ञानस्य प्रतिनिबद्ध अज्ञानं जिनवरैः परिकथितं । तस्योदयेन जीवोऽज्ञानी भवति ज्ञातव्यः ॥ १८॥ चारित्र प्रतिनिबद्धं कषायो जिनवरैः प्रज्ञप्तः । तस्योदयेन जीवोऽचारित्रो भवति ज्ञातव्यः ॥ १९ ॥
आत्मख्यातिः--सम्यक्स्वस्य मोक्षहेतोः स्वभावस्य प्रतिबंधकं किल मिथ्यात्वं तत्तु स्वयं कर्मैव तदुदयादेव
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ज्ञानस्य मिथ्यादृष्टित्वं । ज्ञानस्य मोक्षहेतोः स्वभावस्य प्रतिबंधकमज्ञानं तत्तु स्वयं कर्मेघ तदुदयादेव ज्ञानस्याज्ञानत्वं ।
5 चारित्रस्य मोक्षहेतोः स्वभावस्य प्रतिबंधकः किल कषायः, स तु स्वयं कर्मैव तदुदयादेव ज्ञानस्याचारित्रत्वं । अतः स्वयं भोक्षहेतुतिरोधायिभावत्वात्कर्म प्रतिषिद्ध ं ।
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अर्थ -- सम्यक्त्वका प्रतिबंधक रोकनेवाला मिथ्यात्व है, सो जिनवर देव कया है, ताका उदय
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करि जीव freeiefe होय है ऐसा जानना । ज्ञानका प्रतिबंधक रोकनेवाला अज्ञान है, यह 5 जिनवर देव का है, ताके उदयकरि जीव अज्ञानी होय है ऐसा जानना | चारित्रका प्रतिबंधक 15 कषाय है ऐसे जिनवर देव कया है, ताके उदयकरि जीव अचारित्री होय है ऐसा जानना । टीका – सम्यक्त्व मोक्षका कारण स्वभाव है, ताका प्रतिबंधक रोकनेवाला मिथ्यात्व है, सो आप स्वयं कर्म ही है, ताके उदयते ही ज्ञानकै मिध्यादृष्टिपणा है । बहुरि ज्ञानके मोक्षका कारण स्वभाव है, ताका प्रतिबंधक रोकनेवाला प्रगट अज्ञान है, सो आप स्वयं कर्म ही है, ताके उदयतेही ज्ञानके अज्ञानीपणा है । चारित्रके मोक्षका कारण स्वभाव है, ताका प्रतिबंधक प्रगट
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षेध्या है।
कपाय है, सो आप स्वयं कर्म ही है, ताके उदयही 'ज्ञानके अचारित्रपणा है। यातें कर्मके, लपप 5 स्वयमेव मोक्षका कारण जे सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र, तिनिका तिरोधायिभावपणा है, तातें कर्म प्रति"
भावार्थ-ज्ञानके मोक्षका कारणपणा स्वभाव सम्यग्दर्शनज्ञानवारित्र हैं, तिनि तीनीनिका# प्रतिपक्षी कर्म मिथ्यात्व अज्ञान कषाय हैं, ते तीनूनि प्रगट न होने देय हैं। तातें कर्मकै मोक्ष- .. " का कारणका दिरोगाविसापा है। तातें कर्मका प्रतिषेध है। अशुभकर्मके तौ मोक्षका कारण
कहा ? काधकपणा प्रसिद्ध ही है। परंतु शुभकर्म भी बंधरूप ही है । तातें यह भी कर्मसामान्य- ।। में प्रतिषेधरूप ही जानना । आगे इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
शालविक्रीडितच्छन्दः संन्यस्तव्यमिदं समस्तमपि तत्कमैत्र मोक्षार्थिना संन्यस्तै सति तत्र का किल कथा पुण्यस्य पापस्य वा । सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षास्य हेतुर्भवन्नै फर्म्यप्रतिबद्धमुद्धतरसं ज्ञानं स्वयं धावति ॥१०॥
अ-मोक्षके अर्थि पुरुषकू यह समस्तकर्म ही त्यागने योग्य है, ऐसे तिस समस्त ही कमकू छोडे संते पुण्य अथवा पापकी कहा कथा है ? कर्मसामान्यमें दोऊ आय गये । ऐसे समस्तकर्मका - त्याग भये ज्ञान है सो सम्यक्त्व आदिक जो अपना स्वभाव, तिसरूप होनेते मोक्षका कारण होता " संता कर्मरहित अवस्थातै प्रतिबद्ध उद्धत है रस जाका ऐसा आपआप दवडया आवै है। '
भावार्थ-कर्मको पटके ज्ञान आपआप अपना मोक्षका कारणस्वभावरूप भया संता प्रगटे है, फेरि कौन रोके ? आगै आशंका उपजे है, जो अविरतसम्यग्दृष्टि आदिके जेते कर्मका उदय रहे, । 5 तेते ज्ञान मोक्षका कारण कैसे ? कर्म अर ज्ञान दोऊ लार कैसे रहे ? ताका समाधानकू काव्य
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिनिस्य सम्यङ् न सा कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्वावन्न काचित्क्षातिः।। किन्त्वत्रापि सल्लसत्यवशतो यत्कर्मपन्धाय तन्मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्त स्वतः ॥११॥
55 5 55 5 5 5 55 55 5 分
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___अर्थ-जेतें कर्मका उदय है अर ज्ञानकी सम्यक् विरति नाही हे तेतें कर्मका अर ज्ञानका .. समुञ्चय कहिये एकठापणा भी कहा है, तेते या किछु हानि नाहीं है । इहां विशेष ऐसा-जो " इस आत्माविर्षे जो कर्म के उदयकी बरजोरीत आत्माके वश विना कर्म उदय होय है, सो तौ: + बंधके ही अर्थि है । बहुरि मोक्षके अर्थ तो एक परमज्ञान है, सो ही है। कैसा है ज्ञान ? कर्मत ..
आपहीते रहित है , कर्मके करनेवि आपका स्वामीपणारूप कर्तापणाका भाव नाहीं है। म भावार्थ-जेतें कर्म उदय है तेत कर्म तो अपना कार्य करे है, अर तहां ही ज्ञान है, सो .
अपना कार्य करे है, एक ही आरमामैं ज्ञान अर कर्म दोऊ एकहो रहने में भी विरोध नाहीं है। " मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञानकै जैसे विरोध है, तैसे कर्मसामान्यकै अर ज्ञानकै विरोध नाहीं है। आगै卐 कर्मका अर ज्ञानका नयविभाग दिखावे हैं।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः पज मग्नाः कर्मनयावलम्बनपरा शोनं न जानन्ति ये मग्ना ज्ञाननयैषिणोऽपि सतत स्वच्छन्दमन्दोद्यमाः।
___ विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं ये कुर्वन्ति न बमै जातु न वशं यान्ति प्रमादस्य च ॥१२॥ . 卐 अर्थ-जे केई कर्मनयके अवलंबनविर्षे तत्पर हैं, ताके पक्षपाती हैं, ते डुबे जाते, जे ज्ञानकुंभ
जाने ही नाहीं बहुरि जे ज्ञाननयके इच्छक हैं पक्षपाती हैं, ते भी डुबे जाते, जे क्रियाकांडको ' छोडी स्वच्छंद होई प्रभादी होय स्वरूपविर्षे मंद उद्यमी हैं बहुरि जे आप निरंतर ज्ञानरूप होते' .. कर्मतौ नाही करे हैं अर प्रमादके वश नाहीं होय है, स्वरूपमें उत्साहवान हैं ते सर्व लोकके .. 9 उपरि तरे हैं। - भावार्थ-इहां सर्वथा एकांत अभिप्रायका निषेध कीया है, जाते सर्वथा एकांतका अभिप्राय , " है, सोही मियादृष्टि है। तहां जे परमार्थभृत ज्ञानस्वरूप आत्माकू तो नाहीं जाने हैं अर व्यवहार , के दर्शनज्ञानचारित्ररूप क्रियाकांडके आडंबरहीकू मोक्षका कारण जाणि, तिसहोविः तत्पर रहे हैं, ५
ताका पक्षपात करे हैं, यह कर्मनय है । याके पक्षपाती ज्ञानकू तौ जाने नाहीं अर इस कर्मनय ही -
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विर्षे खेदखिन्न हैं ते संसारसमुद्र में डबे हैं। बहुरि जे परमार्थभूत आत्मस्वरूपकू यथार्थ तो जान्या नाहीं अर मिथ्यादृष्टि सर्वथा एकान्तिनिके उपदेशकरि तथा स्वयमेव हि किछु अंतरंगविय ज्ञानका स्वरूप मिथ्या कल्पि तिसविर्षे पक्षपात करे हैं अर व्यवहारदर्शनज्ञानवारित्रका क्रियाकांडकू निरर्थक जानि छोडे हैं, ज्ञाननयके पक्षपाती हैं ते भी संसारसमुद्र में डुबे हैं। जातें बाह्यक्रियाकांडकू छोडि स्वेच्छाचारी रहे हैं स्वरूपविर्षे मंद उद्यमी रहे हैं तातें । जे पक्षपातका अभिप्राय छोडि निरंतर ज्ञानरूप होतें कर्मकांडकू छोड़े हैं, अर निरंतर ज्ञानस्वरूपवि “जेते न थंव्या जाय तेते' 3 अशुभकर्मकू छोडि स्वरूपका साधनरूप शुभकर्मकांडविर्षे प्रवर्ते हैं ते कर्मका नाश करि, संसारतें निवृत्त होय हैं, ते सर्व लोकके उपरि वर्ते हैं, ऐसा जानना । आगे इस पुण्यपापाधिकारकू संपूर्ण करि अर ज्ञानकी महिमा करे हैं।
मन्दाक्रा-साछन्दः भेदोन्मादं भ्रमरसभरान्नाटयपीतमोहं मूलोन्मूलं सकलमपि तत्कर्म कृत्वा बलेन । हेलोन्मीलत्परमकलया सार्द्धमारम्धकेलि झानज्योतिः कवलिततमः पोज्जिजृम्भे भरेण ॥१३॥
इति पुण्यपापरूपेण द्विपात्रोभूतमेकपात्रीभ्य कर्म निष्क्रांत
इवि समयसारख्याख्यायामात्मख्याती तृतीयोकः । + अर्थ-ज्ञानज्योति है सो अतिशयकरि उदयकू प्राप्त होत भया-सर्वत्र फेल्या । सा है ? म . लीलामात्रकरि उघडी जो अपनी परमकला केवलज्ञान, तिससहित आरंभी है क्रीडा जाने, इहां .. 卐भावार्थ ऐसा, जो जेते सम्यग्दृष्टि छद्मस्थ है तेतें तौ ताका ज्ञान परमकला जो केवलज्ञान, सिस.. सहित शुद्धनयके बलते परोक्ष क्रीडा करे है बहुरि केवलज्ञान उपजे तब साक्षात् है। बहुरि केसा
" है ? ग्रासीभूत किया है दूरी किया है अज्ञानरूप अंधकार जाने । सो यह ऐसा ज्ञानज्योति पहले भकहा करि प्रगट भया है ? पूर्वोक्त शुभ अशुभरूप समस्तकर्म, ताकू अपना कल जो वीर्य शक्ति, 卐
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"ताकरि मूलते उन्मूल कहिये उपाडिकरि ? कैसा है यह कर्म ? पीया है मोह जाने। याहीते 5 प्रभ्रमके रसके भारतें शुभ अशुभका भेदरूप उन्मादकू नचावता संता है।
__ भावार्थ-ज्ञानज्योति है सो अपना प्रतिबंधक कर्म था सो भेदरूप होय नृत्यकरे था, ज्ञान 'भुलावा दे था, ताकू अपनी शक्तिकरि बिगाडि आप अपना संपूर्ण रूपसहित प्रकाशरूप भया। - इहां आशय ऐसा जानना, कर्म सामान्यकरि एक ही है, तयापि शुभ अशुभ दोय भेदरूप स्वांग - करी रंगभूमीमें प्रवेश कीया था, तार्क ज्ञान यथार्थ एक जानि लिया, तब कर्म रंगभूमीतें निकसी गया, ज्ञान अपनी शक्तिकरि यथार्थप्रकाशरूप भया, ऐसें जानना । ऐसें कर्म है सो: "नृत्यके अखाडे मैं पुण्यपापरूपकरि दोय नृत्यकारिणी बनी नाचे था, सौ ज्ञान यथार्थ जानी लिया. मजो, कर्म एकही है, तब एकरूपकरि निकसि गया, नृत्य करता रह गया ।
सर्वया तेईसा आश्वकारण, रूप लवादसुभेद विचारि गिने दोऊ न्यारे । पुण्य अरु पाप शुभाशुभभावनि बंध भये सुखदुःखकरा रे ॥ ज्ञान भये दोऊ एक लपे बुध आश्रय आदि समान विचारे ।
बंधके कारण हैं दोऊ रूप इन्हें तजि श्रीजिनमुनि मोक्ष पधारे ॥१॥ ऐसें इस समयसार ग्रंथकी आत्मख्यातिनाम टीकाकी बचनिकाविर्षे तीसरा पुण्यपाप नामा
अधिकार पूर्ण भया । इहांताई गाथा १६३ भई । कलसा ११२ गये।
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अथ आस्रवाधिकारः। दोहा--द्रव्यास्रवतें भिन्न है भावात्रव करि नास । भये सिद्ध परमात्मा नमू तिनहि सुखआस॥१॥
आत्मख्यातिः-अथ प्रविशत्यासवः । ___ अब इहां आस्रव प्रवेश करे है । जैसे नृत्यके अखाडेमैं नाचनेवाला स्वांग करी प्रवेश करे, पतैसें इहां आस्रवका स्वांग है। तहां इस स्वांग• यथार्थ जाननेवाला सम्यग्ज्ञान है । ताकी महि"मारूप मंगल करे है।
द्रुतविलम्बितच्छन्दः अथ महामदनिर्मरमन्थरं समररङ्गपरागतमास्रवम् ।
अयमुदारसमीरमहोदयो जयति दुर्जयनोधधनुर्धरः ॥१॥ ___ अर्थ-अथशब्द तो मंगल तथा प्रारंभवाची है । सो इहांतें आगे कहे है। जो काहूकार जीत्या न जाय ऐसा यह अनुभवगोचरज्ञानरूप सुभट धनुषधारी है, सो आस्रव है ताही जीते है। कैसा है ज्ञानरूप मुभट ? उदार कहिये अमर्यादरूप फैलता अर गंभीर कहिये जाका छद्मस्थ "थाह न पावे ऐसा है महान् उदय जाका । वहरि आस्रव कैसा है ? महान् जो मद ताकार ॐ अतिशयकरि भरया मंथर है उन्मत्त है । बहुरि कैसा है ? समररंग कहिये संग्रामभूमि ताविर्षे ॥ · आया है। 卐 भावार्थ-इहां नृत्यके अखाड़ेमें आसव प्रवेश किया, सो नृत्यमें अनेकरस वर्णन होय है, 卐 .. तातें रसवत् अलंकारकरि शांतरसमैं वीररस प्रधानकरि वर्णन कीया है। जो ज्ञानरूप धनुष्य- ..
धारी आसूवकू जीते है, सो आसब सर्वजगतकू जीति मदोन्मस भया संग्रामकी रंगभूमिमें आया 1- खडा रया, तब ज्ञान यासू भी बलवान् सुभट है, सो तत्काल जोते है, अंतमुहूर्तमें कर्मका नाश "करि केवलज्ञान उपजावे है । ऐसा ज्ञानका सामर्थ्य है। आगे आलवका स्वरूपकू कहे हैं। गाथा- "
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मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य सगासण्णादु । बहुविहभेदा जीवे तस्सेव अणण्णपरिणामा ॥१॥ णाणावरणादीयस्स ते दु कम्मस्स कारणं होंति । तेसिंपि होदि जीवो रागदोसादिभावकरी ॥ २ ॥ मिथ्यात्वमविरमणं कषाययोगौ च संज्ञासंज्ञास्तु । बहुविधभेदा जीवे तस्यैवानन्यपरिणामाः ॥ १ ॥ ज्ञानावरणाद्यस्य ते तु कर्मणः कारणं भवंति । तेषामपि भवति जीवः रागद्वेषादिभावकरः ॥ २ ॥
5 सत्राः, ते चाज्ञानिन एवं भवतीति, अर्थादेवापद्यते ।
जय झानिनस्तदभावं दर्शयति-
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त्वाविरतिकषाययोगाः पुद्गलपरिणामाः, ज्ञानावरणादिपुद्गलकर्मा स्त्रवणनिमित्तत्वात्किलानवाः । तेषां तु तदाखत्रणनिमिचत्वनिमिगं, अज्ञानमया आत्मपरिणामा रागद्र पमोहाः १ ततः सवर्णानिमित्तत्वनिमित्तत्वात् रागद्वे मोहा एवा
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अर्थ - मिथ्यात्व अविरमण कषाय योग ये च्यारी आस्त्रवके भेद हैं, ते संज्ञा कहिये चेतनाके
Dihatis
आत्मख्यातिः —–— रागद्व ेषमोहा आसूत्राः, इह हि जीवे स्वपरिणामनिमित्ताः, अजडत्वे सति चिदाभासाः, मिध्या- 5
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विकार अर असंज्ञा कहिये जड पुद्गलके विकार ऐसे भेदकरि न्यारे न्यारे दोय दोय प्रकार हैं। 5 तहां चेतनके विकार हैं ते जीवविषै बहुत भेद लीये हैं । ते तिस जीवके परिणाम हैं, ते जीवतें 5
अन्य नाहीं हैं, अभेदरूपही हैं । जे मिथ्यात्व आदि पुद्गलके विकार हैं ते ज्ञानावरण आदि कर्म
बंधने कारण होय हैं । बहुरि तिनि मिथ्यात्व आदि भावनिकं रागद्वेष आदि भावनिका करनेवाला जीव कारण होय है ।
२७२ 卐
टीका - इस जीवविषै राग, द्वेष, मोह हैं ते आसूब हैं। जातें कैसे हैं ते ? अपना परिणाम है
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- निमित्त जिनिकू। याहीते ते जड नाहीं है। ऐसे होते ते चिदाभास हैं। जिनिमें चैतन्यकी । "आभासा है । जातें मिथ्याव अविरत कषाय योग हे ते पुद्गलके परिणाम है ते ज्ञानावरण आदि 卐 पुद्गलकर्मनिके आसूवण कहिये आबनेकू निमित्त हैं, तिसपणेकरि ते प्रगट आसूव हैं। बहुरि
तिनि मिथ्यात्वादिकनिके ज्ञानावरणादिके आगमनकू निमित्तपणाके निमित्त अज्ञानमय आत्माके परिणाम राग द्वेष मोह हैं । तातें मिथ्यात्व आदिके कर्मके आसबके मिमित्तपणाके निमित्तपणातें - राग द्वेष मोह ही आसव हैं ते अज्ञानीके ही होय हैं, ऐसा अर्थते ही आय प्राप्त होय है, सूत्रमें
विना का भी अर्थतें आवे है। भ भावार्थ-ज्ञानावरणादिकम निके आवने तो कारण मिथ्यात्वादिकर्मका उदयरूप पुद्गलके
परिणाम हैं । वहुरि तिनिके कमक आवनकू निमित्त होनेका निमित्त जीवके रागद्वेषमोहरूप परिप्रणाम हैं, तिनिकू चिद्विकार कहिये । ते जीवके अज्ञान अवस्थामें होय हैं। सम्यग्दृष्टीके अज्ञान
अवस्था नाहीं, जातें मिथ्यात्वसहित ज्ञान• अज्ञान कहिये । सम्यग्दृष्टि ज्ञानी भया, तातें ते ज्ञान
अवस्थामें नाहीं । बहुरि अविरतसम्यग्दृष्टि आदिके चारित्रमोहके उदयतें रागादिक होय हैं, तिनि1. का याके स्वामीपणा नाहीं है, उदयकी बरजोरीतें है, तिनिकू रोगवत् जानि मेटया चाहे है,
इस अपेक्षा इनितें राग नाहीं। तातें मिथ्यात्वसहित रागादिक होय, तेही अज्ञानमय रागद्वेषमोह हैं, ते सम्यग्दृष्टिके नाहीं हैं ऐसा जानना । आगे, ज्ञानीके तिनि आस्रवनिका अभाव दिखावे हैं
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गाथा
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पत्थि दु आसवबंधो सम्मादिठिस्स आसवणिरोहो। संते पुव्वणिबद्धे जाणदि सो ते अबंतो॥३॥
नास्ति त्वासवबंधः सम्यग्दृष्टेरास्वनिरोधः। संति पूर्वनिबद्धानि जानाति स तान्यबध्नन् ॥३॥
२७३
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* आत्मख्यातिः-यतो हि ज्ञानिनोऽज्ञानमविरज्ञानमया भावाः, अवश्यमेव निरुभ्यते । ततोमानमयानां प भावानां, रागदपमोहानां आस्रवभूतानां निरोधाद ज्ञानिनो भवत्येव आस्रवनिरोधः । अदो ज्ञानी नासवनिमिषानि
"पुगलकर्माणि बनाति, नित्यमेवाक कस्वान्नवानि न बधन् सदवस्थानि पूर्ववदानि ज्ञानस्वभावत्वात्केवलमेव जानाति । म अथ राषद पमोहानामास्रवत्वं नियमपति
____ अर्थ-सम्यग्दृष्टिक आस्त्रयबंध नाहीं है। बहरि आस्लवका निरोष है । बहरि पूर्वे बांधे थे ते 卐 सत्तारूप हैं, तिनिकू जाने हैं। आगामी नाहीं बांधता संता जाने है। - टीका-जातें निश्चयकरि ज्ञानीके अज्ञानमय भाव हैं, ते अवश्य निरोधरूप होय हैं-अभाव होय " हैं। जातें ज्ञानमय भावनिकरि अज्ञानमय भाव हैं ते रुके हैं। जाते ते परस्पर विरोधी हैं, विरोधीपनिका एक जायगा रहना होय नाहीं, तातें रागद्वेषमोहभाव है ते अज्ञानमय हैं, ते आस्रवस्वरूप "हैं, तिनिका ज्ञानीके निरोधते आस्रवका निरोध होय ही है । यातें ज्ञानी आस्रव है निमित्त जिन्कू ऐसे जे ज्ञानावरणादि पुद्गलकर्म, तिनिकू नाही बांधे है, जाते सदा तिनि कर्मनिका अक
र्ता है तातें तिनि कर्मनि• नवीन नाहीं बांधता संता पहली बंधे थे ते सत्तारूप अवस्थित हैं, 卐 तिनिकू केवल जाने ही है, जाते ज्ञानीका ज्ञान ही स्वभाव है, कर्ता स्वभाव नाहीं है, कर्ता होय
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तो बाँधै।
न भावार्थ-ज्ञानी भये पीछे अज्ञानरूप रागद्वेषमोहभावनिका निरोध है । बहुरि रागद्वेषमोहका -निरोध भये मिथ्यात्व आदि आत्रवभावका निरोध है । बहुरि आस्त्रवका निरोधते नवीन बंधका " निरोध है। वहरि पूर्वे बंधे थे ते सत्तामें तिष्ठे हैं, तिनिका ज्ञाता ही रहे है, कर्ता नाहीं होय है, 卐 जातें नाहीं भया तब ज्ञानीका तौ ज्ञान ही स्वभाव है। यद्यपि अविरत सम्यग्दृष्टि आदिके
चारित्रमोहका उदय है ताकू ऐसा जानिये है, जो यह उदयकी बरजोरी है सो अपनी शक्त्यनुसार卐 रूप तिनिकू रोग जानि काटे ही है, तातें छते ही अणछते कहिये । आगामी सामान्यसंसारका । बंधरूप ते नाहीं हैं, अल्पस्थित्यनुभागरूप बंध करे हैं, ते अज्ञानकी पक्ष में गिणे है, अज्ञानकी
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5 पक्षमें तौ मिथ्यात्व अनंतानुबंधोके निमित्ततें बंधे हैं, सो गिणिये है। ऐसे ज्ञानके आलव बंध नाही गिण्या । आगे, राग द्वेष मोहनिके ही आसूत्रपणाका नियम करे हैं। गाथाभावो रागादिजुदो जीवेण कदो दु बंगो होदि । रागादिविप्पक्को अबंधगो जागो वरि ॥ ४ ॥
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भावो रागादियुतः जीवेन कृतस्तु बंधको भवति । रागादिविप्रमुक्तोऽचको ज्ञायको नवरि ॥ ४ ॥
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आत्मख्यातिः–इह खलु रागद्व े पमोहसंपर्कजोऽज्ञानमय एव भावः, अयस्कांतोपलसंपर्कज इव कालायससूची, कर्म 5 कर्तुमात्मानं चोदयति । तद्विवेकजस्तु ज्ञानमयः, अयस्कांतीपल विवेकज इव कालायसमूचीं, अकर्मकरणौत्सुक्यमात्मानं स्वभावेनैव स्थापयति । ततो रागादिसंकीर्णोऽज्ञानमय एव कर्तृव चोदकत्वाद्गंधकः । तदसंकीर्णस्तु स्वभावोद्भासक5 स्वात्केवलं ज्ञायक एवं ; न मनागपि बंधकः ।
अथ रागाद्यसंकीर्ण भावसंभवं दर्शयति
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अर्थ- जो रागादिकरि युक्त भाव जीवकरि कीया होय, सो नवीन कर्मका बंध करनेवाला 5 कया है । बहुरि जो भाव रागादिकभावनिकरि रहित है, सो बंध करनेवाला नाहीं है । केवल जाननेवाला ही है ।
टीका - इस आत्माविषै निश्चयकरि जो रागद्वेषमोहका मिलापर्तें उपज्या भाव होय, सो
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卐 अज्ञानमय हो है, सो जैसें चुबकपाषाण के संपर्कतें उपज्या भाव लोहकी सूईकूं प्रेरे है, चलावे 5 है, तैसें आत्माकं कर्मके करनेकू प्रेरे है । बहुरि तिनि रागादिकके मेदज्ञानतें उपज्या भाव
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सो ज्ञानमय है । सो जैसें चुंबकपाषाणका संसर्गविना सूईका स्वभाव है सो चलनेरूप नाही है, 5 तैसें आत्माकूं कर्मके करनेविषै उत्साहरूप नाहीं ऐसे स्वभावकरि स्थापे है । तातें रागादिकतें फ्र मिल्या अज्ञानमय भाव है सोही कर्मका कर्तापणाविर्षे प्रेरक है, तातें नवीन बंधा करनेवाला
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5 है। बहुरि रागादिकतें नाही मिल्या भाव है सो अपने स्वभावका प्रगट करनेवाला है । सो केवल जाननेवाला ही है। सो नवीनकर्मका किंचिन्मात्र भी बंध करनेवाला नाही है । भावार्थ - रागादिकके मिलापतें भया अज्ञानमय भाव है सो ही बंध करनेवाला है । बहुरि रागादिक नाहीं मिया ऐसा ज्ञानमय भाव है, सो बंधका करनेवाला नाहीं है, यह नियम 卐 आगे रागादिकर्ते मिल्या नाही ऐसा ज्ञानमय भावका संभवना दिखावे हैं। गाथापक्के फलम्मि पडदे जह ण फलं वज्झदे पुणो विंटे । जीवस कम्मभावे पडदे ण पुणोदय मुवेहि ॥५॥
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पके फले पतिते यथा न फलं वध्यने पुनवृन्ते । जीवस्य कर्मभाव पतिते न पुनरुदयमुपैति ॥ ५ ॥
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आत्मख्यातिः - यथा खलु पक्वं फलं वृन्तात्सक द्विविलष्ट सत्, न पुनर्वृन्तसंबंधमुपैति तथा कर्मोदयजो भावो जीवभावात्सकृद्विश्लिष्टः सन्, न पुनर्जीवभावमुपैति । एवं ज्ञानमयो रागाद्यसंकीणों भावः संभवति । अर्थ - जैसे वृक्ष तथा बेलि फल पकी करि पडे वीटलू क्षरि जाय सो वह फल फेरि फ वीटसू बंधे नाहीं, तैसें जीवविषै पुद्गलकर्म भावरूप था, सौ पचिकरि छडि गया, निर्जरा होय गई, सो कर्म फेरि नाहीं उदय होय हैं ।
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भावार्थ - कर्म की निर्जरा भये पीछे वह कर्म फेरि उदय नाही आवे, तब ज्ञानमय ही भाव रह्या । ऐसें जब जीवका मिथ्यात्वकर्म अनंतानुबंधी सहित सत्त्वमेसू क्षय होय जाय, तब फेरि
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टीका - जैसे निश्चयकरि यह प्रगट है, जो वोटसू पाका फल एक वार क्षरि पडथा सो वह फल फेरि वीट संबंधरूप नाहीं होय है। तैसें कर्मका उदयसूं निवज्या जो जीवका भाव सो फ एकवार जीवभाव भिन्न भवा संता फेरि जीवभाव नाहीं प्राप्त होय है । ऐसे ज्ञानमय भाव रागादिकरि अतंकीर्ण संभवे है ।
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- उदय आवे नाहीं, तब ज्ञानी भया संता फेरि कर्मका कर्ता नाहीं । मिथ्यात्वकी लार लगि प्रकृति । समयक
तौ बंधे नाहीं अर अन्यप्रकृति सामान्य संसारका कारण नाहीं । मूलते कटे वृक्षके हरे पानवत् हैं, ते हैं,ते शीघ्र सूकने योग्य हैं । ऐसें ज्ञानीका रागादिकतें नाहीं मिल्या ऐसा ज्ञानमय भाव संभवे है। चारित्रमोहका उदयका राग अज्ञानमय न गिणिये है। जातें सम्यग्दृष्टीकै ताका स्वामीपणा नाहीं है । अब इस अर्थका कलशस्य काव्य कहे है।
.शालिनी छन्दः भावो रागदपमोहैविना यो जीवस्य स्याद् ज्ञाननिवृत्त एव ।
धन् सर्वान् द्रव्यकर्मास्त्रवौधान् एषोऽभावः सर्वभावासूवाणां ॥२॥ अथ शानिनो द्रव्यासवाभावं दर्शयति
अर्थ-जो जीवका रागद्वेषमोह विना भाव होय है, सो भाव ज्ञान हो करि रचा हुवा है, सो - यह भाव है सो सर्व द्रव्यानवनिकू रोकता संता है, तातें सर्व ही भावात्रवनिका अभाव कहिये।॥
भावार्थ-पूर्वोक्त ही जानना । इहां सर्व भावात्रवनिका अभाव कहा। सो संसारका कारण मिथ्यात्व हो है । तिस संबंधी रागादिकका अभाव भया, सो सर्व ही भावासवका अभाव । भया । आगे ज्ञानीके द्रव्यास्त्रकका अभाव दिखावे हैं । गाथा
पुडवीपिंडसमाणा पुवणिबद्धा दु पच्चया तस्स । कम्मसरीरेण दु ते वद्धा सव्वेपि णाणिस्स ॥६॥
पृथ्वीपिंडसमानाः पूर्वनिवद्वास्तु प्रत्ययास्तस्य ।
कर्मशरीरेण तु ते बद्धाः सर्वेऽपि ज्ञानिनः ॥६॥ जामख्यातिः--ये खलु पूर्व, अज्ञानेनैव बहा मिथ्यात्वाविरतिकपाययोगा द्रव्यानवभूताः प्रत्ययाः, ते शानिनोर
न्यांतरभूताः, चेतनपुद्गलपरिणामत्वात् पृथ्वीपिंडसमानाः । ते तु सर्वेऽपि स्वभावत एव कार्माणशरीस्यैव प्रबंशन तु 卐 जीवेन, अतः स्वभावसिद्ध एव द्रन्यास्रवाभावोझानिनः ।
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.. अर्थ-तिस पूर्वोक्त ज्ञानीकै पहले अज्ञान अवस्थामैं कर्म बंधे हैं, ते प्रत्ययसंशा करि कहिये ज , ते कार्माणशरीरकरि सहित बंधे हैं, ते जीवके रागादिभाव भये विना पृथ्वीके पिंडसमान हैं। + जैसें मृत्तिका आदि अन्य पुद्गलस्कन्ध हैं, तैसे ते भी हैं।
टीका-जे प्रगटपणे पहले अज्ञानकरि बांधे जे मिथ्यात्व अविरति कषाय योगरूप द्रव्याखव卐 भूत प्रत्यय, ते ज्ञानीकै अन्यद्रव्यभूत अचेतन पुद्गलद्रव्यके परिणामपणातें पृथिवीके पिंडसमान ..हैं, ते सर्व ही अपने पुद्गलस्वभावतें ही कार्माण शरीर ही करि एक होय बंधे हैं, बहुरि जीवकार
नाहीं बंधे हैं । यातें ज्ञानीक द्रव्यास्त्रवका अभाव स्वभाव ही करि सिद्ध है। प भावार्थ-आत्मा ज्ञानी भया तबतें ज्ञानीकै भावास्रक्का तो अभाव भया ही । अर द्रव्या.
स्त्रव है सो मिथ्यात्वादि पुद्गलद्रव्यके परिणाम हैं, ते कार्मण शरीरतें स्वयमेव देघि रहे हैं, से 5 卐 अन्यमृत्तिकाका पिंड हैं, तैसे ते भी हैं, भावात्रवविना कछू आगामी कर्मबंधक कारण नाही, अर ..
पुद्गलमय हैं, तातें अमूर्तिक चैतन्यस्वरूप जीव स्वयमेव ही भिन्न हैं, ऐसा ज्ञानी जाने। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
उपजातिच्छन्दः भाषासूवाभावमयं प्रपन्नो द्रव्यासवेभ्यः स्वत एव भिमः ।
ज्ञानी सदा ज्ञानमयकभावो निरासूको नायक एक एव ॥३॥ ___ कथं शानी निरास्त्रवः । इति चेत्卐 अर्थ यह ज्ञानी है सो भावासूवके अभावकू तो प्राप्त भया है । बहुरि द्रव्यासूवनितें स्वयके मेव ही भिन्न है । जाते ज्ञानी है, सो सदा ज्ञानमय ही है केवल एक भाव जाका ऐसा है, यातें " निरासूव ही है, एक ज्ञायक ही है।
भावार्थ-भावासूव जे राग द्वेष मोह, तिनिका तौ ज्ञानीके अभाव भया । अर द्रव्यासूव हैं ते
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पुद्गल परिणाम हैं, तिनितें सदा ही स्वयमेव ही भिन्न है । तातें ज्ञानी निरासव ही है। आगे 5 पूछे हैं, जो, ज्ञानी निरासूव कैसा है ? ताका उत्तरकी गाथा कहे हैं । गोथा
चहुविह अणेयभेयं बंधते णाणदेसणगुणेहिं । समये समये जमा तेण अबंधुत्ति णाणी दु ॥७॥ चतुर्विधा अनेक बति ज्ञानदर्शनगुणाभ्यां ।
समये समये यस्मात् तेनाबंध इति ज्ञानी तु ॥७॥ आत्मख्याति:-झानी हि तावदासवभावनाभिप्रायाभावान्निरालव एव । यत्तु तस्यापि द्रव्यप्रत्ययाः प्रतिसमयमनेकऊ प्रकारं पुद्गलकर्म बन्नति तत्र ज्ञानगुणपरिणामहेतुः ।
कथं ज्ञानगुणपरिणामो बंधहेतुरिति चेत् --
अर्थ-जाते च्यारि प्रकार आसव कहे जे-मिथ्यात्व अविरमण कषाय योग, सो ए दर्शनज्ञान॥ के गुणनिकरि समय समय अनेक भेद लिये कर्मनिकू वांधे हैं, तात ज्ञानी तो अबंधरूप ही है।।
टीका-प्रथम ही ज्ञानी है सो तौ आस्व भावकी भावनाका अभिप्रायका अभावते निरा. + सूव ही है। बहुरि तिस ज्ञानीकै भी द्रव्यासव समय समयप्रति अनेक प्रकार पुद्गल कर्म बांधे
हैं। तिसविर्षे ज्ञानगुणका परिणमन है सो कारण है। आगे फेरि पूछे है, ज्ञानगुणका परिणाम बंधका कारण कैसा है ? ताका उत्तरकी गाथा
जमा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणोवि परिणमदि। अण्णत्तं णाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो ॥८॥
यस्मातु जघन्यात् ज्ञानगुणात् पुनरपि परिणमते । अन्यत्वं ज्ञानगुणः तेन तु स बंधको भणितः ॥८॥
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आत्मख्यातिः-–ज्ञानगुणस्य हि यावज्जघन्यो भावः, यावत् तस्यांत 'हूर्तविपरिणामित्वात् पुनः पुनरन्यतयास्ति
परिणामः । स तु यथाख्यातचारित्रावस्थाया अधस्यादवश्यं भाविरागसद्भावात्, गंधहेतुरेव स्यात् ।
एवं सति कथं ज्ञानी निरासचः १ इति चंद |
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अर्थ-जाते ज्ञानगुण है सो जघन्यज्ञानगुणतें फेरि भी अन्यपणारूप परिणमे है तिस कारण करि सो ज्ञानगुण कर्मका बंध करनेवाला कया है।
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टीका - ज्ञानगुणका जेते जधन्यभाव है- क्षयोपशमरूप भाव है, तेर्ते अंतमुहूर्त विपरिणामी
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है, ज्ञानभावरूप अंतमुहूर्त ही रहे है, पीछ अन्यप्रकार परिणम है । ताते अन्यपणारूप भी याका परिणाम है, सो यथाख्यातचारित्र अवस्थाके नीचे अवश्यंभावी रागपरिणामका सद्भाव है, ता बंधका कारण ही है ।
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भावार्थ- क्षयोपशमज्ञानका एक ज्ञेय परिथंबना अंतमुहूर्त ही है, पीछे अवश्य अन्य ज्ञेयकूं अवलंबे है । तातें स्वरूप भी अंतर्मुहूर्त ही थंभना होय है । तातें ऐसा अनुमान है - जो कथाख्यातचारित्र अवस्थाके नीचे अवश्य रागपरिणामका सद्भाव है, तिस रागके सद्भावतें बंध भी होय है । तातें ज्ञानगुणका जघन्यभाव बंधका कारण कया है । आगे फेरि पूछे है, जा ऐसा है, ज्ञानगुणका जघन्यभाव अन्यपणारूपः परिणाम बंधका कारण है, तो ज्ञानी निरासूव है, ऐसे कैसे फ 5 का ? ताका उत्तरकी गाथा -
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दंसणगाराचरितं जं परिणमदे जहण्णभावेण ।
गाणी ते दु वज्झदि पुग्गलकम्मेण विविहेण ॥९॥ 卐
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கககககழிழிழமிழழகழிக
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दर्शनज्ञानचारित्रं यत्परिणमते जघन्यभावेन ।
ज्ञानी तेन तु बध्यते पुद्गलकर्मणा विविधेन ॥ ९ ॥
आत्मख्यातिः——-यो हि ज्ञानी स बुद्धिपूर्वकरागद्व ेपमोहासवभावाभावात्, निरासव एवं किंतु सोऽपि यावदानं
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प्राभूद
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卐 सवोत्कृष्टभावेन दृष्ट ज्ञातुमनुचरितु वाऽशक्तः सन् जघन्यभावेनैव ज्ञानं पश्यति जानात्यनुचरसि तावत्स्यापि जपन्य-15 समय - भावान्यथानुपपत्त्याऽनुमीयमानाऽबुद्धिपूर्वककलंकविपाकसद्भावात् पुद्गल कर्मबंधः स्यात् । अतस्तावद् झानं दृष्टन्यं ज्ञात-*
व्यमनुचरितव्यं च यावद् ज्ञानस्य यावान् पूणो भावस्तावान् दृष्टो ज्ञातोऽनुचरितश्च सम्यग्भवति । ततः साक्षात् ज्ञानीभूतः सर्वथा निरासूव एव स्यात् ।
___ अर्थ-दर्शनज्ञानचारित्र हैं ते जो जघन्यभावकरि परिणमे हैं, तिस कारणकरि ज्ञानी अनेक 卐 प्रकार पुद्गलकम करि बंधे है।
__टीका-जो निश्चयकरि ज्ञानी है सो बुद्धिपूर्वक रागद्वेष मोहरूप आस्रवभावके अभावतें ।
निरासूव ही है। तहां यह निट्रोष है-मो ही जानी जेते ज्ञानकं सर्वोत्कृष्टभावकरि देखनेकू जानॐ नेकू आचरनेकू असमर्थ है, अर जघन्यभाव ही करि ज्ञानकू देखे है, जाने है, आचरे है, तेते तिस"
ज्ञानीके भी ज्ञान जघन्यभावको अन्यथा अप्रातिकरि अनुमानरूप कोया अबुद्धिपूर्वक कर्ममलकलंकका सद्भाव है । यात पुद्गलकर्मका बंध होय है । यातें यह उपदेश है—जो, तेते ज्ञान
देखना जानना आचरण करना, जेते ज्ञानका पूर्णभाव जेता है तेता देख्या जान्या आचऱ्या भले卐 5 प्रकार होय । तापोछे साक्षात् ज्ञानी भया संता सर्वथा निरासर ही होय है।
भावार्थ-ज्ञानीकू निरासव ऐसा कहा है, जो, जेते याकै क्षयोपशमज्ञान है, तेते तो बुद्धिपूर्वक अज्ञानमय राग द्वेष मोहका अभाव है, तातें निरासूव कया है। अर जेतें क्षयोपशमज्ञान 卐 है, तेते दर्शन ज्ञान चारित्र जघन्यभावकरि परिणमे हैं, तेते संपूर्णज्ञानकू देख्या जान्या आचरथा"
जाय नाहीं है । सो इस जघन्यभाव ही करि ऐसा जानिये है जो, याकै अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंक' 卐 विद्यमान है ताकरि बंध भी होय है, सो चारित्रमोहका उदयकरि है, अज्ञानमय भाव नाहीं है। .. .. तातें ऐसा उपदेश है-जो, जेलें ज्ञान संपूर्ण न होय-केवलझान न उपजे, तेतें ज्ञानहीका ध्यान का
निरंतर करना, ज्ञानहीकू देखना, ज्ञानहीकू जानना, ज्ञानहीकू आचरना, इस हो मार्ग चारित्र- मोहका नाश होय है, अर केवलज्ञान उपजे है। तब सर्वप्रकारकरि साक्षात निरासूत्र होय है, यह
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२
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5 विवक्षाका विचित्रपणा है । बुद्धिपूर्वक रागादिकका अभावकी अपेक्षा तौ अबुद्धिपूर्वक रागादिक 5
छे भी निरासू का, अर अबुद्धिपूर्वकका अभाव भये केवलज्ञान ही उपजैगा, तब साक्षात्
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निरासून होयहीगा ऐसें जानना । अव इस ही अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं ।
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शार्दूलविक्रीडितच्छदः
सन्यस्य त्रिजबुद्धिपूर्वमनिशं रागं समग्र स्वयं वारंवारमबुद्धिपूर्वमपि तं जेतु स्वशक्ति स्पृशम् ।
उच्छिदन् परिवृत्तिमेव सकलां ज्ञानस्य पूर्णा भवनात्मा नित्यनिरास्वो भवति हि ज्ञानी यदा स्याचदा ॥
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भावार्थ - तौ सुगम है। जब समस्तरागकूं हेय जान्या तब ताका मेटनेहीका उद्यमी भया प्रवर्तें है, तब सदा निरासूत्र ही कहिये । जातें आसू के भावनिकी भावनाका अभिप्रायका या
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अर्थ - यह आत्मा जब ज्ञानी होय है, तब अपने बुद्धिपूर्वक रागकूं तौ समस्तकूं आप दूरी करता संतान है, बहुरि अनुद्धिपूर्वक रागकूं भी जीतनेकूं बारंबार अपनी ज्ञानानुभवनरूप शक्ती स्पर्शता संता प्रवतें हैं, बहुरि ज्ञानकी पलटनी है ताकूं समस्तहीकूं दूरि करता संता ज्ञानकुं स्वरूपविषथांभता पूर्ण होता संता प्रवर्ते है। ऐसा ज्ञानी होय तब शाश्वता निरासूब होय है ।
प्र
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अभाव
| बहुरि यहां वद्धिपूर्वक अबुद्धिपूर्वककी दोय सूचना है। एक तौ जो आप कीया न
चाहे भर परनिमित्ततें जबरी होय ताकूं आप जाणे भी तौऊ ताकूं अबुद्धिपूर्वक कहिये । बहुरि फ्र 5 दूजा जो अपने ज्ञानगोचर ही नाहीं प्रत्यक्षज्ञानी जाने है। तथा ताकै अविनाभाविचिन्हकरि
अनुमानतें जानिये, सो अबुद्धिपूर्वक है ऐसें जानना । आगे पूछे है, जो सर्व ही द्रव्यासूक्की
5 संततीकूं जीवतै ज्ञानी निरासूत्र कैसे ? ऐसे प्रश्नका श्लोक है ।
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अनुष्टुप् छन्दः
सर्वस्यामेव जीवत्यां द्रव्यप्रत्ययसन्ततौ । कुतो निरासूवो ज्ञानी नित्यमेवेति चेन्मतिः ||५||
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- अर्थ - ज्ञानीकै सर्व ही द्रव्यासूवकी संततीकूं जीवते संतै ज्ञानी नित्य ही निरासूव है, ऐसा
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5 काहेतें का ? जो शिष्यकी ऐसी आशंकारूप बुद्धि है, ताका उत्तरकी गाथा कहे हैं। 卐
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सव्वे पुब्वणिबद्धा दु पच्चया संति सम्मदिठ्ठिस्स | उवओगप्पाओगं बंघते कम्मभावेण ॥ १० ॥
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संतीव निरवभोजा वाला इच्छी जहेव पुरुसस्स । बंदि ते उभोजे तरुगी इच्ली जह णरस्स ॥ ११ ॥ हेदुण णिरवभोज्जा तह बंधदि जह हवंति उवभोज्जा । सत्तविहा भूदा णाणावरणादिभावेहिं ॥ १२ ॥ एदेण कारणेण दु सम्मादिट्ठी अबंधगो होदि । आसवभावाभावे ण पच्चया बंधगा भणिदा ॥ १३ ॥
सर्वे पूर्व निबद्धास्तु प्रत्ययाः संति सम्यग्दृष्टेः । उपयोगप्रयोग्यं वनंति कर्मभावेन ॥१०॥
संति तु निरुपभोग्यानि वाला स्त्री यथेह पुरुषस्य ।
वनाति तानि उपभोग्यानि तरुणी स्त्री यथा पुरुषस्य ॥११॥
भूत्वा निरुपभोम्यानि तथा बध्नाति यथा भवत्युपभोग्यानि । साष्टविधानि भूतानि ज्ञानावरणादिभावैः ॥१२॥
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एतेन कारणेन तु सम्यन्दष्टिरबंधको भणितः ।
आसूवभावाभावे न प्रत्यया बंधका भणिताः ॥ १३॥
आत्मख्यातिः-यतः सदवस्थायां तदात्वपरिणीतवालस्त्रीक्त पूर्वमनुपभोग्यत्वेऽपि विपाकावस्थायां प्रपौवनपूर्व
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। परिणीतस्त्रीवत् उपभोग्यप्रायोग्य पुद्गलकर्मद्रव्यप्रत्ययाः संतोऽपि कर्मोदयकार्यजीवभावसभावादेव वनति । ततो॥ _+ शानिनो यदि द्रव्यप्रत्ययाः पूर्वबद्धाः संति । गंह । तथापि न निराशन एव कर्मोहयकार्यस्य रागद्वेषमोहरूपस्या- 1.
सबभावस्याभावे द्रव्यप्रत्ययानामगंधहेतुत्वात् । ____ अर्थ-सम्यग्दृष्टिके सर्व ही पूर्वे अज्ञान अवस्थामैं बांधे मिथ्यात्वादि प्रत्यय कहिये आसूत्र ते सत्तारूप विद्यमान हैं, ते उपयोगके प्रायोग्य कहिये प्रयोग करनेरूप जैसे होय तैसे तिसके अनु...
सार कर्मभावकरि आगामी बंधकू योग करनेरूप जैसे होय तैसे तिसके अनुसार कर्मभाव करि + आगामी बंधकू प्राप्त होय हैं । बहुरि ते पूर्व बंधे प्रत्यय उदय आये विनो निरुपभोग्य कहिये भोगने ,
योग्यपणाते रहित होयकरि तिष्ठे हैं, ते फेरि आगामी तैसे बंधे हैं-जैसे सात आठ प्रकार ज्ञानावरणादिभावकरि फेरि भोगने योग्य होय । बहुरि ते पूर्व बंधे प्रत्यय सत्तामें ऐसे हैं जैसे पुरुषके बालस्त्री भोगने योग्य नाहीं है बहुरि ते ही उपभोग्य कहिये भोगनेयोग्य होय तब पुरु-.. पकू बांधे है । जैले सा ही वाला स्त्री तरुणी होय तव पुरुबकू बांधे है । पुरुष ताके आधीन होय यह ही बंधना। इस कारणकरि सम्यग्दृष्टि अबंधक कह्या है । जातें आस्वभाव जे राग द्वेष मोह .. तिनिका अभाव होते प्रत्यय लिथ्यात्वादिक हैं, ते सत्तामें छते भी आगामी कर्मबंधके करनेवाले ।
॥
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五 5 55 55 5 55 55 5
+ नाहीं हैं।
+
+
+
टीका-जातें ऐसे हैं जो जैसे तत्कालकी परिणी बालस्त्री पहले वालक अवस्थामै पुरुषके। 卐 भोगनेयोन्य नाहीं है, फेरि सो ही स्त्री जब तरुणी होय तब जौवन अवस्थामैं भोगनेयोग्य होय,
है, तब पुरुष ताके आधीन होय है । तैसे पहले बांधे कर्म सत्ता अवस्थामैं है तेते भोगनेयोग्य ॐ नाही हैं । बहुरि ते ही जब विपाक अवस्था प्राप्त होय, तब तिस उदय अवस्थामें भोगनेयोग्य 5
होय है, तब जैसा आत्माका उपयोग विकारसहित होय तिस ही योग्यताके अनुसार पुद्गलकर्मरूप ... द्रव्य प्रत्ययसत्तारूप होते संते भी कर्मका उदयानुसार जीवके भावनिक सद्भावहीत बंधळू। प्रात होय है । तातें ज्ञानीके जो द्रव्यकर्मरूप प्रत्यय आस्वसत्तामैं विद्यमान हैं तो होऊ, तथापि
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म सो ज्ञानी तौ निरासूव ही है । जातें कर्मका उदयका कार्य जो जीवका भाव रागद्वेषमोहरूप 卐 - आस्वभाव ताका अभावकू होतें द्रव्यासूवनिके बंधका कारणपणा नाहीं है।
भावार्थ-सत्ता, मिथ्यावादि द्रव्यासूब विद्यमान हैं, तोऊ ते आगामी बंधके करनेवाले का 卐 नाहीं हैं, जातें बंधके करनेवाले तो जीवके भाव रागद्वेषमोहरूप होय हैं ते हैं । सो मिथ्यात्वादि .. द्रव्यासबके उदयके अर जीवके भावनिके कारणकार्यभाव निमित्तनैमित्तिकरूप है। सो जब मिथ्या
त्यादिका उदय आवें, तब जीवका रागद्वेषमोहरूप जैसा भाव होय तिस जीवभावके अनुसार 4
आगामी बंध होय है, । अर जब सम्यग्दृष्टि होय, तब मिथ्यात्व सत्तामनु नाश होय, तब तो " तिसकी लारकी अंनतानुबंधी कषाय तथा तिस संबंधी अविरमण अर योगभाव भी नष्ट के प होय, तब तिस सम्बन्धी जीवके रागद्वेषमोहभाव भी नाहीं होय हैं, तब तिस मिथ्यात्व
“अंनतानुबंधी संबंधी बंध भी न होय था, तिनि प्रकृतिनिका आगामी बंध भी नाहीं होय । 卐अर जो मिथ्यात्वका उपशम ही होय तब सत्तामै रहे, तब सत्ताका द्रव्य उदय विना बंधका ._ कारण ही नाहीं है। बहुरि जेते अविरतसम्यग्दृष्टि आदिक गुणस्थाननिकी परिपाटीमें चारित्रप्रमोहके उदय संबंधी बंध कहा है, सो इहां संसारसामान्यकी अपेक्षा तो बंधमें गिण्या नाहीं ॥
है। जाते ज्ञानी अज्ञानीका विशेष है। जेतें कर्मका उदतमें कर्मका स्वामीपणा राखी परिणमे
है तेते ही कर्मका कर्ता कया है । परके निमित्तते परिणमे, ताका ज्ञाता द्रष्टा होय तब ज्ञानी है, म प्रज्ञाता है सो कर्ता नाहीं। ऐसी अपेक्षातें सम्यकूदृष्टि भये पोछे चारित्रमोहका उदयरूप परिणाम . "होते भी ज्ञानी ही कया है। मिथ्यात्वका उदय हे जेते तिस संबंधी रागद्वेषमोहभावरूप
परिणमनेते अज्ञानी कया है। ऐसे ज्ञानी अज्ञानी कहनेका विशेष जानना। ऐसा बंध अबंधकाम _ विशेष है । बहुरि शुद्धस्वरूपमै लीन रहनेका अभ्यासतें साक्षात् संपूर्णज्ञानी केवलज्ञान प्रकट 卐भये होय है। तब सर्वथा निरासव होय है। ऐसे पहले कह ही आये हैं। अब इस अर्थका 4. कलशरूप काव्य कहे हैं।
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मालिनी छन्दः विजहति न हि सा प्रत्ययाः पूर्वमहाः समयमनुसरन्तो यद्यपि द्रव्यरूपाः ।
सदपि सकलरागदपमोहब्युदासादवतरति न जातु मानिनः कर्मवन्धः ॥६॥ ___अर्थ-चयपि पूर्व अज्ञान अवस्थामैं बंधरूप भये थे, ते द्रव्यरूप प्रत्यय कहिये द्रव्यासूत्र, ते
सत्तामैं विद्यमान हैं। जाते तिनिका उदय अपनी स्थितीके अनुसार है, सातें जेते उदयका ॥ + समयमाही आवे तेते सत्ताहीमें रहे, ऐसे द्रव्यासव सत्तामैं रहे, ते अपनी सत्ताक नाहीं छोडे
हैं। तौऊ ज्ञानीके समस्त रागद्वेषमोहका अभावतें नवीन कर्मका बंध कदाचित् ही अवतार 卐 नाहीं घरे है।
भावार्थ-रागद्वेषमोहभाव विना सत्ताका द्रव्यासूव बंधका कारण नाहीं है। इहां सकल रागद्वषमोहका अभाव बुद्धिपूर्वक अपेक्षा जानना। आगे इस ही अर्थकै दृढ करनेरूप गाथा है। ताकी सूचनिकाका श्लोक है।
__अनुष्टुप् छन्दः रागदपविमोहानां ज्ञानिनो यदसम्भवः । तत एव न बन्धोऽस्प तेहि बन्धस्य कारणम् ॥१॥
अर्थ-जाते ज्ञानीके रागद्वेषमोहका असंभव है, ताहीते ज्ञानीके बंध नाहीं है। जाते राग म द्वेष मोह हैं ते ही बंधके कारण हैं । आगे इस अर्थका समर्थनकी गाथा
रागो दोषो मोहो य आसवा णत्थि सम्मदिहिस्स। तहमा आसवभावेण विणा हेदु ण पच्चया होति ॥१४॥ हेदू चदुवियप्पो अववियप्पस्स कारणं होदि। तेसि पिय रागादी तेसिमभावेण वॉति ॥१५॥
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रागो द्वेषो मोहश्चासूवा न सन्ति सम्यग्दृष्टेः । तस्मादासवभावेन दिदातवो न पलाया मानन्ति ॥१॥ हेतुश्चतुर्विकल्पोऽष्टविकल्पस्य कारणं भवति ।
तेषामपि च रागादयस्तेषामभावेन बध्यन्ते ॥१५॥ म आत्मख्याति:---रागद्वेषमोहा न संति सम्यग्दृष्टेः सम्यग्दृष्टित्वान्यथानुपपनेः । तदभावे न तस्य द्रव्यप्रत्ययाः
पुद्गलकर्महेतुत्वं विभ्रति द्रव्यप्रत्ययानां पुद्गलकमहेतुत्वस्य रागाद्यहेतुत्वात् । ततो हेत्वभावे हेतुमदभावस्य प्रसिद्धत्वाद 卐शानिनों नास्ति बंधः।
... अर्थ-राग द्वेष मोह ए आसूव हैं, ते सम्यग्दृष्टीकै नाहीं हैं। तातें आस्वभावविना द्रव्यप्रत्यय म ते कर्म बन्धनेकू कारण नाही हैं। मिथ्यात्वादि च्यारि प्रकार हेतु हैं सो अष्टप्रकार कर्मके 1- बन्धनेकू कारण हैं । बहुरि तिनि च्यारी प्रकारके हेतूकुं भी जीवके रागादिकभाव कारण हैं। "सोसम्यादृष्टीकै तिनि रागादिक भावनिका अभाव है। तातें सम्यग्दृष्टीकै बन्ध नाहीं है। - टीका-सम्यग्दृष्टीके राग द्वेष मोह नाहीं हैं । जातें राग द्वेष मोहका अभावविना सम्यग्दृष्टिपणा "बनें नाहीं । बहुरि तिनि रागद्वेषमोहके अभावतें तिस सम्यग्दृष्टीके द्रव्यासव हैं, ते पुद्गलकमकै । 卐 बन्धनेकू कारणपणा नाहीं धारे हैं। जाते द्रव्यासवनिकै पुद्गलकर्म बन्धनेका कारणपणाका 1
रागादिकहीके कारणपणा है । ताते कारणके कारणका अभाव होते कार्यका अभावका भलेप्रकार 卐 प्रसिद्धपणा है । तातें ज्ञानीके बन्ध नाही है। .. भावार्थ-सम्यग्दृष्टि रागद्वेषमोहका अभाव विना होय नाही', ऐसा अविनाभाव नियम कह्या ..
सो यह मिथ्यात्वसंबंधी रागादिकका अभाव जानना । तिनहीकू रागादिक गणे है। सम्यग्दृष्टि , जन भये पीछे किछु चारित्रमोहसंबंधी राग रहे सो इहां न गणिये है, ते गौण हैं । तातें तिनि भावा
"सवनिविना द्रव्याशव बंधके कारण नाही, कारणका कारण न होय, तब भी कार्यका अभाव है। 卐 यह प्रसिद्ध है । तातें सम्यग्दृष्टि ज्ञानी है, याकै बन्ध नाहीं है । इहां सम्यग्दृष्टीकू ज्ञानी कहनेकी
乐 乐乐 乐乐 乐乐 乐
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• अपेक्षा ऐसी जाननी -जो प्रथम तौ ज्ञान जाकै होय सो ज्ञानी कहिये । सो सामान्य ज्ञानकी अपेक्षा at a at t हनी हैं। बहुरि सम्यग्ज्ञान मिथ्याज्ञानकी अपेक्षा लीजिये तब सम्यदृष्टी के सम्यग्ज्ञान है ताकी अपेक्षा ज्ञानी है । मिध्यादृष्टि अज्ञानी है। बहुरि संपूर्ण ज्ञानकी अपेक्षा 'ज्ञानी कहिये, तब केवली भगवान् ज्ञानी है । जातै सर्वज्ञ न होय, तेतैं पंचभावनिकी कथनी में 5 + अज्ञानभाव वारमा गुणस्थानताई सिद्धांतमें कया है । ऐसे अनेकांत विधिनिषेध सर्व अपेक्षा 卐 निर्वाध सिद्ध होय है । सर्वथा एकांततें किछू भी नाहीं सधे है। ऐसे ज्ञानी होय बंध नाहीं करे है, सो यह शुद्धtयका माहात्म्य है, तातें शुद्धयका महिमाकर कहे हैं।
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वसन्ततिलका छन्दः
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अध्याय शुद्धोधचिहकाग्रयमेव कलयन्ति सदैव ते । रागादिमुक्तमनसः सततं भवन्तः पश्यति बन्धविधुरं समयस्य सारम् ||८||
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भावार्थ - इहां शुद्धनयकरि एकाग्र होना कह्या, सो साक्षात् शुद्धनयका होना तो केवलज्ञान भये होय है । र श्रुतज्ञानका अंश है। सो इसके द्वारे शुद्धस्वरूप
करना तथा ध्यानकरि एकाग्र होना है सो यह परोक्ष अनुभव है । एकदेश शुद्धकी अपेक्षा व्यवहारकरि प्रत्यक्ष भी कहिये है । फेरि कहे हैं, जे यातें चिगे हैं ते कर्म बांधे हैं।
f
अर्थ — जे पुरुष शुध्दनयकूं अंगीकार करि निरंतर एकाग्रपणाका अभ्यास करे हैं कैसा है क शुध्दनय ? उध्दतबोध कहिये काहूका दाव्या न दबै ऐसा उज्वलज्ञान सो हैं चिन्ह जाका-सो • इसका अवलंबन करनेवाले पुरुष रागादिककरि रहित है मन जिनिका, ऐसे निरंतर होते संते बंधकरि रहित जो समयसार -अपना शुद्ध आत्मस्वरूप, ताहि अवलोकन करे हैं ।
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फ्रफ़ फ्रफ़ फफफफफफफ
वसन्ततिलका छन्दः
प्रच्युत्य शुध्दनयतः पुनरेव ये तु रागादियोगमुपयान्ति विमुक्तबोधाः ।
ते कर्मबन्धमिह विश्रति पूर्वपद्रव्यासूवैः कृतविचित्रविकल्पजालम् ॥६॥
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फफफफफफफफफफफफफफ
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अर्थ - बहुरि जे पुरुष शुद्धयतें छूटिकरि फेरि रागादिके योग कहिये संबंधकूं प्राप्त होय हैं,
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ते छोडा है ज्ञान जिनिने ऐसे भये संते कमबंधकूं धारे हैं । कैसा कर्मबंधकू धारे हैं ? पूर्वे बंधे 卐
5 प्रा
जे द्रव्यास्त्रव तिनकरि कीया है विचित्र अनेकप्रकार विकल्पनिका जाल जाने ।
卐
भावार्थ - फेरि शुद्धयतें चिगे तो रागादिकके संबंध द्रव्यास्त्रवके अनुसार अनेक भेद लिये फ कर्मनि बांधे है । नयतें चिगना यह जो फेरि मिथ्यात्वका उदय आय जाय तब बंध होने लागि
卐
जाय । जातें इहां मिथ्यात्वसंबंधी रागादिकतें बंध होनेकी प्रधानताकरि है अर उपयोगकी अपेक्षा 5
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गौण है। शुद्धोपयोगरूप रहनेका काल अल्प है । तातें ताका छूटनेकी अपेक्षा इहां नाहीं । अन्य
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ज्ञेयतें ज्ञान उपयुक्त होय तौऊ मिथ्यात्वविना रागका अंश है, सो ज्ञानीके अभिप्रायपूर्वक नाहीं । 5 तातें अल्पबंध संसारका कारण नाहीं । अथवा उपयोगकी अपेक्षा लीजिये तब शुद्धस्वरूपते चि सम्यक्त्व न छूटै । तत्र चारित्रमोहका रागते किछू बंघ होय है, सो अज्ञानकी पक्ष नाही
5 गिनिये, अर बंध है ही । ताकं मेटने शुद्ध नयतें न छूटनेका अर शुद्धोपयोग में लीन होने का 5 सम्यग्दृष्टि ज्ञानी कूं उपदेश है, ऐसें जानना। आगे इस ही अर्थ के समर्थनकूं दृष्टांतकरि दिखाये
हैं। गाथा
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கககககககககககககழ
जह पुरिसेणाहारो गहिदो परिणमदि सो अणेयविहं । मंसवसारुहिरादी भावे उदरग्गिसंजुत्तो ॥ १६ ॥
तह गाणिस्स दु पुब्वं जे बद्धा पच्चया बहुवियप्पं । वांते कम्मं ते णयपरिहीया दु ते जीवा ॥१७॥
यथा पुरुषेणाहारो गृहीतः परिणमति सोऽनेकविधम् ।
मांसवसारुधिरादीन्भावानुदराग्निसंयुक्तः ॥ १६॥
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ॐ ॥
तथा ज्ञानिनस्तु पूर्व ये बद्धाः प्रत्यया बहुविकल्पम् । उमप 卐
बघ्नन्ति कर्म से नयपरिहीनास्तु ते जीयाः ॥१७॥ युगलम् ॥ आत्मख्यातिः-यदा तु शुद्धनयात् परिहीणो भवति ज्ञानी तदा तस्य रागादिसद्भावात् पूर्वपद्धाः द्रम्पप्रत्ययाः 卐 स्वस्य हेतुत्वहेतुसद्भावे हेतुमभावस्यानिवार्यत्वात् झानावरणादिभावैः पुद्गलकर्मयं, परिणमयंति न चैतदप्रसिद्ध
पुरुषगृहीताहारस्योदराग्निना रसरुधिरांसादिभावैः परिणामकारणस्य दर्शनात् । । अर्थ-जैसे पुरुषने आहार ग्रहण कीया सो आहार उदराग्निकरि युक्त भया अनेकप्रकार मांस . बसा रुधिरादि भावनिरूप परिणमे है, तैसें ज्ञानीके पूर्वे बंधे जे द्रव्यास्रव, ते बहुत भेद लीये का कर्मणिपू बांधे हैं। बहरि जिलिस ए कर्ज दधे हैं ते जीव कैसे हैं ? नयकरि हीन भये हैं, शुद्ध
नयतें छूटि गये हैं, रागादि अवस्थाकू प्राप्त भये हैं। - टीका-जिसकाल ज्ञानी शुद्धनयतें परिहीन होय है, छूटे है, तिसकाल ताके रागादिभावनिका 4 सद्भावतें पूर्वे बांधे थे जे प्रत्यय कहिये द्रव्यात्रत्र, ते अपनाहेतु पणाका हेतुका सद्भाव होतें हेतु.॥
मत् कहिये कार्य, ताका भावका अनिर्वारण है अवश्य होय है, तातें ज्ञानावरणादिभावनिकरि म पुद्गलकर्मळू बंधरूप परिणमावे हैं। सो यहू अप्रसिद्ध नाही है। दृष्टांतकरि प्रसिद्ध है। जैसे ._ पुरुषकरि ग्रह्या जो आहार ताका उदराग्निकरि रस रुधिर मांसादि भावनिकरि परिणाम करनेका प्रत्यक्ष दर्शन है देखिये है तैसें जानना।
भावार्थ-ज्ञानी शुद्धनयतें छूटे तब रागादिभावनिका सदभाव होय, तब रागादिरूप भया संता कर्मनिकू बांधे है। जातें रागादिभाव हैं ते द्रव्यास्त्रव निमित्त होय, तब ते आत्रब अवश्य कर्मबंधकू कारण होय हैं । इहां इस अर्थका तात्पर्यरूप श्लोक है।
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इदमेवात्र तात्पर्य हेयः शुद्धनयो न हि । नास्ति बन्धस्तदत्यागात्तयागाद्वन्ध एव हि ॥१०॥ अर्थ-इहां पहले कथनविर्षे यह तात्पर्य है, जो शुद्धनय है सो त्यागनेयोग्य नाही है यह उप
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प्रदेश है । जाते तिस शुद्धनयके अत्यागते तो कर्मका बंध नाही होय है। बहुरि तिसके त्यागते 5 - कर्मका बंध होय ही है । फेरि तिल शुद्धनयहीके ग्रहणकू दृढ करते संते काव्य कहे हैं। ___ शार्दूलविक्रीडित छन्दः
___ पर धीरोदारमहिन्यनादिनिधने पोधे निवघ्नन्धति त्याज्यः शुद्धनयो न जातु कृतिभिः सर्वकषः कर्मणाम् ।
तत्रस्थाः स्वमरीचिचक्रमचिरात्संहृत्य निर्यद्वहिः पूर्ण ज्ञानधनौघमेकमचलं पश्यन्ति शान्तं महः ॥११॥ 卐 अर्थ-पुण्यवान् महंतपुरुषनिकरि शुद्धनय है सो कदाचित् भी छोडनेयोग्य नाहीं है। कैसा है ॥ .. शुद्धनय ? ज्ञानविर्षे थिरताकू अतिशयकरि बांधता संता है। कैसा ज्ञानवि थिरता बांधे है ?
धीर कहिये चलाचलपणेते रहिस का उदात् कहिये सर्वार्थनिों आप विस्तरता है महिमा 卐 पर जाकी । बहुरि कैसा है ज्ञान ? अनादिनिधन है-जाका आदि अंत नाही है। बहुरि कैसा है
शुद्धनय ? कर्मनिका सर्वकष कहिये मूलते नाश करनहारा है। ऐसे शुद्धनयके विर्षे जे तिष्ठे 卐 हैं, से पुरुष अपनी ज्ञानको मरीचि कहिये व्यक्तिविशेष, तिनिकू तत्काल समेटिकरि कर्मके पटलतें
बाह्य निसरता अर संपूर्णज्ञानधनका समूहस्वरूप निश्चल जो शांतरूप मह कहिये ज्ञानमय तेज 5 प्रतापका पुंज, ताहि अवलोकन करे हैं।
भावार्थ-शुद्धनय है सो आत्माकू एक ज्ञानमय तेज प्रतापका पुंज ताहि एक चैतन्यमात्र । समस्तज्ञानके विशेषनिकू गौणकरि, अर समस्त परनिमित्ततें भये भावनिकू गौणकरि, शुद्ध नित्य - अभेदरूप एककू ग्रहण करे है । सो ऐसे शुद्धका विषयस्वरूप अपना आत्माकू जे अनुभवे
हैं—एकाग्र होय तिष्ठे हैं, ते समस्त कर्मका समूहते न्यारा संपूर्ण ज्ञान जो केवलज्ञानस्वरूप + अमूर्तिक पुरुषाकार वीतराग ज्ञानमूर्तिस्वरूप अपना आत्मा, ताहि अवलोकन करे हैं। या शुद्ध
"नयके विर्षे अंतर्मुहूर्त तिष्ठे शुक्लध्यानकी प्रवृत्ति होयकरि केवलज्ञान उपजे है ऐसा याका माहात्म्य 卐 है। सो याकू अवलंबन करि फेरि जेतें केवलज्ञान न उपजे तेते यातें चिगना नाहीं, ऐसा श्रीम .- गुरुनिका उपदेश है । ऐसें आसूत्रका अधिकार पूर्ण कीया । अब रंगभूमिमैं भासूत्रका स्थान प्रवेश
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ना भया था, ताकुं ज्ञान यथार्थ जाणि स्वांग दूरि कराय आप प्रगट भया, ऐसें ज्ञानकी महिमाके । म卐 अर्थरूप काव्य कहे हैं।
मन्दाक्रान्ता छन्दः १२
रागादीनां झगिति विगमात्सर्वतोऽप्यास्रवाणां नित्योद्योतं किमपि परमं वस्तु सम्पश्यतोऽन्तः ।
स्फारस्फारैः स्वरसविसरैः प्लावयत्सर्षभावा नालोकान्तादचलमतुलं ज्ञानमुन्भग्नमेतत् ॥१२॥ अर्थ-रागादिक आसवनिका तत्काल क्षणमात्र सर्वप्रकार दूरि होनेते नित्य उद्योतरूप किछु परम वस्तूकू अंतरंगविर्षे अवलोकन करनेवाला पुरुषके यहु ज्ञान है सो उन्मम्न कहिये उदयरूप 卐 प्रगट भया । कैसा प्रगट भया ? अतिविस्ताररूप फैलते जे अपने निजरसके प्रवाह, तिनिकरि ॥
सर्वलोकपर्यंत अन्यभाव, तिनिकू अंतर्मग्न करता संता । बहुरि कैसा है ? अचल है-जैसेके तैसे सर्वपदार्थ जामैं सदा प्रतिभासे हैं, चले नाहीं है। वहरि कैसा है ? अतुल है, जाकी बराबरी और नाहीं है।
भावार्थ-शुद्धनयकू अवलंबन करि जो पुरुष अंतरंग विर्षे चैतन्यमात्र परमवस्तूकू एकाग्र ॐ अनुभवे है, ताके सर्व रागादिक आस्वभाव दूरि होय, अर सर्वपदार्थ निकू जाननेवाला निश्चल " - अतुल्य केवलज्ञान प्रगट होय है । सो यह ज्ञान सर्वते महान् है। ऐसे आस्त्रवका स्वांग रंगभूमीमें 卐 प्रवेश भया था, ताकू ज्ञान यथार्थरूप जानि लिया, तब निसरि गया।
सवैया तेईसा योग कषाय मिथ्यात्व असंयम आस्रव द्रव्य ते आगम गाये । राग विरोध विमोह विभाच अज्ञानमयी यह भावि तजाये ।। जे मुनिराज कर इनि पाल सुरिद्धि समाज लये सिव थाये ।
काय नवाय नमू चित लाय कहू जय पाय लहूं मन भाये ॥१॥ ऐसें इस समयसार ग्रंथकी आत्मख्याति नामा टीकाकी वचनिकावि आस्रव नामा चौथा
अधिकार पूर्ण भया ॥४॥ इहातांइ गाथा १८० भई । कलसा १२४ भवे ।
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समय २३३
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अथ संवराधिकारः ।
दोहा - मोहरागरुप दूरि करि समिति गुप्ति व्रत पारि । संवरमय आतम कीयो नमू ताहि मन धारि ॥ १ ॥
अब रंगभूमि मैं संवर प्रवेश करे है। तहां प्रथम ही टीकाकार मंगलके अर्थ, सर्व स्वांगका जाननेवाला जो सम्यग्ज्ञान, ताकी महिमारूप मंगल करे हैं ।
शार्दूलविक्रीडित छन्दः
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अर्थ — चैतन्यस्वरूपमय स्फुरायमान प्रकाशरूप ज्योति है सो उदयरूप होय फैले है । कैसा 5 है ? अनादिसंसारतें लगाय अपना विरोधी जो संवर, ताकी जीतिकरि एकांतपणे मदकूं प्राप्त भया जो आस्रव ताका तिरस्कारतें पाया है नित्य विजय जाने ऐसा संवरकू निपजावता संता है । बहुरि परद्रव्य तथा परद्रव्यके निमित्ततें भये भाव, तिनितें भिन्न है । बहुरि कैसा है ? अपना सम्यकू कहिये यथार्थस्वरूप, ताविषे निश्चित है। बहुरि कैसा है ? उज्वल है, निरावाच निर्मल driveमान प्रकाशरूप है । बहुरि कैसा है ? अपना रस जो ज्ञानरूप प्रवाह, ताका है प्राग्भार 15 जाकै- अपना रसका बोझकू लीये है, अन्य बोझ उतारि धरया है ।
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आसंसारविरोधिसंवरजयैकान्तावलिप्तास्रवन्यक्कारात्प्रतिलब्ध नित्यविजयं सम्पादयत्संवरम् ।
व्यावृत्तं पररूपतो नियमितं सम्यस्फुयोतिचिन्मय विजशा भारमुज्जृम्भते ॥१॥ तत्रादावेव सकलकर्मसंवरणस्य परमोपाय भेदविज्ञानमभिनंदति ।
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भावार्थ -- अनादितें आस्रवका विरोधी संवर है । ताकूं आसूत्र जीतिकरि मदकरि गर्वित तथा 5 ताका तिरस्कार करि जीतिकं प्राप्त भया जो संवर, ताकूं प्राप्त करता, अर समस्त पररूपतें न्यारा 5 होय, अपना रूपविषै निश्चल होय, यह चैतन्यप्रकाश है, सो अपना ज्ञानरसरूप भारकूं लीये 5 निर्मल उदयरूप होय है। आगे, संवरकी प्रवेशकी आदिहीविषै समस्तकर्मका संवर होनेका उत्कृष्ट उपाय भेदज्ञान है, ताकूं प्रशंसारूप कहे हैं। गाथा
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उबओगे उवओगो कोहादिसु गत्थि कोवि उवयोगो । कोही कोही चेव हि उवओगे गत्थि खलु कोही ॥ १ ॥ अवियप्पे कम्मे णोकम्मे चावि णत्थि उवओगो । उवओगह मिय कम्मे गोकम्मे चावि णो अस्थि ॥२॥ एदं तु अविवरीदं गाणं जइया दु होदि जीवस्स ।
तइयां ण किंचि कुव्वदि भावं उवओगसुद्धप्पा ॥३॥ उपयोगे उपयोगः क्रोधादिषु नास्ति कोप्युपयोगः ।
araः atra चैव हि उपयोगे नास्ति खलु क्रोधः ॥ १॥ अष्टविकल्पे कर्मणि नोकर्मणि चापि नास्त्युपयोगः । उपयोगऽपि च कर्म नोकर्म चापि नो अस्ति ॥२॥ एतत्वविपरीतं ज्ञानं यदा भवति जीवस्य । न किंचित्करोति भावमुपयोग शुद्धात्मा ॥३॥
आत्मख्यातिः: न खल्वेकस्य द्वितीयमस्ति द्वयाभिन्नप्रदेशत्वेनैकसतानुपपतेस्तदसत्येन तेन सहाधारघेयसंबं
घोऽपि नास्येव ततः स्वरूपप्रतित्वलक्षण, एवाधाराधेयसंबंधोऽवतिष्ठते तेन ज्ञानं जानतायां स्वरूपे प्रतिष्ठितं । जान— ताया ज्ञानादपृथगभूतत्वात् ज्ञाने एव स्यात् । क्रोधादीनि क्रुध्यतादौ स्वरूपे प्रतिष्ठितानि क्रुध्यतादेः क्रोधादेः पृथगभूतत्वात्क्रोधादिष्वेव स्युः, न पुनः क्रोधादिषु कर्मणि नोकर्मणि या ज्ञानमस्ति । नच ज्ञाने क्रोधादयः कर्म नोकर्म वा 5 संति परस्परमत्यंतस्वरूपवैपरीत्येन परमार्थाधाराधेयसंबंधशून्यत्वात् । नच ज्ञानस्य जानतास्वरूपं तथा क्रुध्यतादिरूप क्रोधादीनां च यथा क्र ध्यतादिस्वरूपं तथा जानतापि कथंचनापि व्यवस्थापयितुं शक्येत जानतायाः क्रुध्यतादेव 5 भावभेदेनोद्भासमानत्वात् स्वभावभेदाच्च वस्तुभेद एवेति नास्ति ज्ञानाज्ञानयोराधाराधेयत्वं । किं च यदा किलैकमेवा
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काशं स्वघुद्धिमधिरोप्याचाराधेयभावो विभाज्यते तदा शेषद्व्यांतराधिरोपनिरोधादेव बुद्धर्न भिन्नाधिकरणापेक्षा प्रभा वति । तदप्रभवे चैकमाकाशमेवैकस्मिन्नाकाश एच प्रतिष्ठितं विधायतो न पराधारधेयत्वं प्रतिभाति ततो बानमेव ज्ञाने
एवं क्रोधादय एव क्रोधादिष्वेवेति, साधु सिहं भेद विज्ञानं । ____अर्थ-उपयोगविर्षे उपयोग है। क्रोधादिकविर्षे निश्चयकरि कोऊ उपयोग नाहीं है। बहुरि ॥
क्रोधविही क्रोध है । उपयोगविर्षे निश्चयकरि क्रोध नाहीं है । बहुरि अष्टप्रकार ज्ञानावरण आदि कर्म अर शरीरादिक नोकर्म, ताविर्षे भी उपयोग नाहीं है। बहुरि उपयोगविर्षे कर्म नोकर्म भी नाहीं है । बहुरि सत्यार्थज्ञान जिसकाल जीवकै होय है, तिसकाल किछू भी उपयोगसिवाय अन्य भाव नाहीं करे है । केवल उपयोगस्वरूप शुद्ध आत्मा है। ____टीका--निश्चयकरि एक द्रव्यका दूसरा द्रव्य किछू संबंधी नाहीं है । जातें द्रव्य है सो भिन्न-5 + भिन्न प्रदेशरूप है । तातें एकसत्ताकी अप्राप्ति है । द्रव्यद्रव्यकी सत्ता न्यारी न्यारी है। वहरि ..
सत्ता एक न होते अन्य द्रव्यके अन्य द्रव्यकरि आधाराधेयसंबंध भी नाहीं है । तातें द्रव्यके अपने स्वरूपहीविर्षे प्रतिष्टारूप आधाराधेयसंबंध तिष्ठे है । तिसकारणकरि ज्ञान आधेय, लो तो जाणपणारूप अपना स्वरूप आधार, ताविर्षे प्रतिष्ठित है। जाते जाणपणा है सो ज्ञानतें अभिन्नभाव है-भिन्नप्रदेशरूप नाहीं है । तातें जाननक्रियारूप ज्ञान है सो ज्ञानही विर्षे है। बहुरि क्रोधादिक
हैं ते क्रोधरूप क्रिया क्रोधपणा अपना स्वरूप ताहीविर्षे प्रतिष्ठित हैं। जाते क्रोधपणारूप क्रिया प्र क्रोधादिकते अपृथग्भूत है, अभिन्नप्रदेश है । तातें क्रोधरूप क्रिया कोषादिविर्षेही होय है । बहुरि ॥ - क्रोधादिकविर्षे अथवा कर्म नोकर्मविर्षे ज्ञान नाहीं है । बहुरि ज्ञानविष क्रोधादिक अथवा कर्म नो...
कर्म नाहीं है। जातें ज्ञानके अर क्रोधादिकके अर कर्म नोकर्म के परस्पर स्वरूपका अत्यंत विपक प रीतपणा है। तिनिका स्वरूपका अत्यंत विपरीतपणा है । तिनिका स्वरूप एक होय नाही , ताते ।।
परमार्थका आधाराधेय संबंधका शून्यपणा है। बहुरि जैसे ज्ञानका जाननक्रियारूप जाणपणास्वरूप । म है, सेसे कोषकप क्रियापणास्वरूप नाहीं है। बहुरि जैसे क्रोधादिकका क्रोधपणा आरिक क्रिया
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5 पणा स्वरूप है, तेसे जाननक्रियारूप स्वरूप नाहीं है । कोई हो प्रकारकरि ज्ञानकुं क्रोधादिक्रियारूप परिणामस्वरूप स्थापया न जाए है । जाते जाननक्रियाके अर कोवरूप कियाके स्वभावका भेद्करि प्रगट प्रतिभासमानपणा है । बहुरि स्वभावके भेदतेंहि वस्तूका भेद हैं, यह नियम है। तातें ज्ञानकै अर अज्ञानस्वरूप क्रोधादिकके आधाराधेयभाव नाहीं है । फ्र
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sri reinsरि विशेष कहे हैं— जैसा आकाशद्रव्य एक ही है, ताहि अपने बुद्धिविषै स्थापि अर आधाराधेयभाव कल्पिये, तब आकाशसिवाय अन्य द्रव्य तिनिका तौ अधिकाररूप आरोपणाफ का निरोध भया । याहीतें बुद्धिकै भिन्न आधारकी अपेक्षा तौ न रही। अर जब भिन्न आधारको अपेक्षा नाहीं रही, तब बुद्धी मैं यह ही ठहरी, जो आकाश है सो एक ही है । सो एक आकाश5 हीविये प्रतिष्ठित है । आकाशका आधार अन्य द्रव्य नाहीं । आप आपहीकै आधार है। ऐसी भावना करनेवाले अन्यका अन्यके आधाराधेयभाव नाही प्रतिभासे है। ऐसे ही जब एक ही ज्ञानकूं अपनी बुद्धिविषै स्थापि आधाराधेयभाव कल्पिये, तब अवशेष अन्य द्रव्यनिका अधिरोप 15 करनेका निरोध भया । यातें बद्धीकै भिन्न आधारको अपेक्षा नाहीं रहे है । अर भिन्न आधारकी अपेक्षा हो बुद्धिमैं न रही, तब एक ज्ञानही एक ज्ञानविषै प्रतिष्ठित ठहरथा । ऐसी भावना करने 5 5 वालेके अन्यका अन्यके आधाराधेयभाव नाहीं प्रतिभासे है । तातें ज्ञान ही हैं सो तौ ज्ञान ही विष है । अर कोधादिक हैं ते क्रोधादिकवि ही है । ऐसें ज्ञानके अर कोधादिकके अर कर्म5 नोकर्म के भेदका ज्ञान है सो भलैप्रकार सिद्ध भया ।
भावार्थ - उपयोग है सो तौ चेतनाका परिणमन ज्ञानस्वरूप है। अर क्रोधादिक भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, शरीरादिक नोकर्म, यह सर्व ही पुद्गलद्रव्यके परिणाम हैं, ते जड हैं, 15 इनिके अर ज्ञानके प्रदेशभेद है, तातें अत्यंत भेद है । तातें उपयोग विषै तौ क्रोधादिक तथा कर्म नोकर्म नाही है । बहुरि कोधादिक कर्मनोकर्मविषे उपयोग नाही' है। ऐसे इनिके परमार्थस्वरूप क 5 आधार आधेयभाव नाहीं है । अपना अपना आधाराधेयभाव आप आपविषै है । ऐसे इनिके परस्पर
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+ परमार्थते अत्यंत भेद है । ऐसे भेद जाने सो भेदविज्ञान है, सो भलैप्रकार सिद्ध होय है। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः चंद्रप्यं जडरूपतां च दधतोः कृत्वा विभाग द्वयोरन्तरुणदारणेन परितो ज्ञानस्य रागस्य च ।।
मेदज्ञानमुदेति निर्मलमिदं मोदध्यमध्यासिताः शुद्धज्ञानघनौषमेकमधुना सन्तो द्वितीयच्युताः ॥२॥ अर्थयह निर्मल भेदज्ञान है सो उदय प्राप्त होय है । सो याका निश्चय करनेवाले सत्पुरुपनि संबोधन करि कहे हैं । जो सत्पुरुषही ! तुम याकू पायकारे, अर अवर द्वितीय जो रागा-म दिक भाव, तिनि” रहित भये संते, एक शुद्धज्ञानघनका समूहकूआश्रय करि, तिसमें लीन भये .. संते बडा आनंद मानू । जाते यह कहा करि उदय होय है ? चैतन्यरूप ताकू धारता संता तौ ॥ ज्ञान अर जडरूपताकू धरता राग, तिनि दोअनिके अज्ञानदशामें एकपणासा दीखे हैं। तिनिका - अंतरंगविर्षे अनुभवके अभ्यासरूप बलकरि उत्कृष्ट विदारणकरि सर्वप्रकार विभागकरि उदय । होय है।
भावार्थ-ज्ञान तो चेतनास्वरूप है अर रागादि पुद्गलविकार जड है । सो अज्ञानतें एक जडरूप भासे है। सो भेदविज्ञान जब प्रगट होय है, तब ज्ञानका अर रागादिकका भिन्नपणाका ॥ अंतरंग अनुभवके अभ्यासते प्रगट होय है । तब ऐसें जाने है, जो ज्ञानका स्वभाव तौ जानने- ..
मात्र ही है अर ज्ञानमें रागादिककी कलुषता मलिनता आकुलतारूप संकल्प विकल्प भासे हैं, " ॐ सोए सर्व पुद्गलके विकार हैं जड हैं । ऐसा ज्ञानका अर रागादिकका भेदका आस्वाद आवे .
है।सो यह भेदविज्ञान सर्व विभावभाव मेटनेकू कारण होय है, अर आत्माकू परमसंवरभावकू प्राप्त करे है। तातें सत्पुरुषनिकू कहे हैं, जो याकू पायकरि रागादिकते च्युत होय शुद्ध ज्ञानधन ॥ आत्माका आश्रय ले आनंदकू प्राप्त होऊ । अव कहे है--जो ऐसे यह भेदविज्ञान जिस काल ._ जानके रागादि विकाररूप विपरीतपणाकी कणिकाकून प्राप्त करता अविचलित है, तिसकाल.
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" झान है सो शुद्धोपयोग स्वरूपपणाकरि ज्ञानहीरूप केवल भया संता किंचिन्मात्र भी रागद्वेषमोह-॥ प्रय भावकू नाहीं प्राप्त होय हे । तातें यह ठहरी, जो भेदविज्ञानतें शुद्धात्माकी प्राप्ति होय है। ..
बहुरि शुद्धात्माकी प्राप्ती राग द्वेष मोह जे आस्रवभाव तिनिका अभाव है लक्षण जाका ऐसा 9 संवर होय है । आगे पूछे है, जो भेदविज्ञानहीतें शुद्धात्माकी प्राप्ति कैसी होय है ? ताका उत्तर गाथामैं कहे हैं। गाथा
जह कणय मम्गितवियं कणयसहावं ण तं परिचयदि। तह कम्मोदयतविदो ण जहदि णाणी दु णाणित्तं ॥४॥ एवं जाणदि णाणी अण्णाणी भुणदि रागमेवादं । अण्णागतमोच्छण्णो आदसहावं अयाणंतो॥५॥
यथा कनकमग्नितप्तमपि कनकभावं न तत्परित्यजति । तथा कर्मोदयतप्तो न जहाति ज्ञानी तु ज्ञानित्वम् ॥४॥ एवं जानाति ज्ञानी अज्ञानी जानाति रागमेवात्मानम् ।
अज्ञानतमोऽवच्छन्न आलस्वभावमजानन् ॥५॥ युग्मम् ॥ __ आत्मख्यातिः-यतो यस्यैव यथोदितभेदविज्ञानमस्ति स एव तत्सद्भावात् ज्ञानी सन्नेवं जानाति । यथा प्रचंडपावकप्रतप्तमपि सुवर्ण न सुवर्णत्वमपोहति तथा प्रचंड विपाकोपष्टन्धमपि झानं न ज्ञानस्वमपोहति, कारणसहसूणावि स्वभाव-क स्यापोढुमशक्यत्वात् । तदपोहे तन्मात्रस्य वस्तुन एवोच्छेदाद । नचास्ति वस्तूच्छेदः सतो नाशासंभवात् । एवं जानंच कर्माक्रांतोपि न रज्यते न द्वष्टि न मुह्यति किं तु शुद्धमात्मानमुपलभते । यस्य तु यथोदितं भेदविज्ञानं नास्ति सलह-का भावादनानी सन्नज्ञानतमसाच्छन्नतया चैतन्यचमत्कारमा प्रमात्मस्वभावमजानन् राममेवात्मानं मन्वमानो रज्यते दष्टि .. मुझते च न जातु शुद्धमात्मानमुपलभते । ततो भदविज्ञानादेव शुद्धात्मोपलंमः।
कथं शुद्धात्मोपलंभादेव संवरः?
听听听听 乐乐 乐乐 乐乐 乐乐
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अर्थ-जैसे सुवर्ण अग्निकरि तप्त भया संता भी अपना तिस सुवर्णभावकू नाहीं छोडे है, .. सेसे झानी कर्मके उदयकरि तप्तायमान भया भी अपना ज्ञानीपणा स्वभावकू नाही छोडे है, ऐसें ज्ञानी जाने है । बहारे अज्ञानी है सो रागही आत्मा जाने है । जाते अज्ञानी अज्ञानरूपए अंधकारतें अवच्छन्न है, व्याप्त है। तातें आत्माका स्वभाव नाहीं जानता संता प्रवर्ते है ।
टीका-जातें जाके जैसा कह्या तैसा भेदविज्ञान है, सो ही तिस भेदविज्ञानके सद्भावते , 4 ज्ञानी भया संता ऐसें जाने है जैसे प्रचंड अग्निकरि तपाया भी सुवर्ण अपने सुवर्णपणा ।
स्वभावकू नाही छोडे, तैसें प्रचंड तीवकर्मका उदयकरि युक्त भया संता भी ज्ञानी है सो अपना । 卐 ज्ञानपणा नाहीं छोडे है। जातें जो जाका स्वभाव है, सो हजारा कारण मिले तौऊ सो..
ताका स्वभावकू छोडेनेकू असमर्थ है। जो स्वभाव छोडे, सौ तिस छोडनेकरि तिस स्वभावमात्र ।
जो वस्तु ताका हो अभाव होय; सो वस्तुका अभाव होय नाही, जातें सत्ताका नाशका असंभव . जज है। ऐसें जानता संता ज्ञानी है सो कर्मकरि व्याप्त है तोऊ रागरूप नाहीं होय है, द्वेषरूप नाहीं -
होय है, मोहरूप नाहीं होय है। तो कैसा होय है ? एक शुद्ध आत्माहीकू पावे है। बहुरि जाकै । है जैसा कह्या तैसा भेदविज्ञान नाहीं है, सो तिस भेदविज्ञानके अभावते अज्ञानी भया संता अज्ञान
रूप अंधकारकरि आच्छादितपणाकरि चैतन्यचमत्कारमात्र आत्माका स्वभावकू नाहीं जानता संता ॥ रागस्वरूप ही आत्माकू मानता संता रागी होय है, द्वेषी होय है, मोही होय है, शुद्ध आत्माकू कदाचित् भी नाहीं पावे है। तातें यह ठहरया-जो भेदविज्ञानही शुद्ध आत्माका पावना है। 2
भावार्थ--भेदविज्ञानतें आत्मा ज्ञानी होय है, तब कर्मका उदय आवै ताकरि तप्तायमान " होय तौऊ अपना ज्ञानस्वभावतें छूटे नाहीं है । जाते जो जाका स्वभाव है, सो, चाहो जेत कारण
मिलो, स्वभावतें छूटे नाहीं, जो स्वभावतें छूटे तो वस्तुका नाश होय, यह न्याय है । तातें कर्मके, , उदयमें ज्ञानी रागी द्वेषी मोही नाहीं होय है । बहुरि जाके भेदविज्ञान नाहीं है, सो अज्ञानी ,
मया संवा रागी द्वेषी मोही होय है । तातें यह निश्चित है, जो भेदविज्ञानहीते शुद्ध आत्माकी है
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" प्राप्ति होय है। आगे पूछे है, जो शुद्ध आत्माकी प्राप्तिही संवर कैसा होय है ? ताका उत्तर 卐 कहे हैं । गाथा
सुद्धं तु वियाणंतो सुद्धमेवप्पयं लहदि जीवो। जाणतो दु असुद्धं अशुद्धगरपयं लहदि ॥६॥
शुद्धं तु विजानन् शुद्धमेवात्मानं लभते जीवः ।
जानंस्त्वशुद्धमशुद्धमेवात्मानं लभते ॥६॥ आत्मख्यातिः–यो हि नित्यमेवाच्छिन्नधारावाहिना ज्ञानेन शुद्धमात्मानमुपलभमानोऽवतिष्ठते स ज्ञानमयाद् भावात् । 'सानमय एव भावो भवतीति कृत्या प्रत्यगकर्माखवणनिमित्तस्य रागदपमोहसंतानस्य निरोधाच्छुद्रमेवात्मानं प्रामोति। -
यो हि नित्यमेवाज्ञानेनाशुद्धमात्मानमुपलभमानोऽवतिष्ठते सोज्ञानमयानाबादज्ञानमयो भावी भवतीति कृत्वा प्रत्यक्卐 कर्मास्त्रवणनिमित्तस्य रागद्वेषमोहसंतानस्यानिरोधादशुद्ध मेवात्मानं प्रामोति । अतः शुद्धात्मोपलंभादेव संवरः ।
अर्थ-शुद्ध आत्माकू जानता संता जीव है सो तौ शुद्ध ही आत्माकू पावे है। बहुरि आत्माकू अशुद्ध जानता संता जीव अशुद्ध ही आत्माकू पावे है।
टीका-जो पुरुष तिस ही अविच्छेदरूप धारावाही ज्ञानकरि शुद्ध आत्माकू पावता संता .. तिष्ठे है, सो पुरुष "ज्ञानमयभाव ज्ञानमय ही भाव होय है" ऐसा न्यायकरि आगामी कर्मका । ' आस्रवणका निमित्त जे राग द्वेष मोह, तिनिका संतान परिपाटीरूप उत्पत्तीका निरोध शुद्ध ही ।
आत्मापावे है। बहुरि जो जीव नित्य ही अज्ञानकरि अशुद्ध आत्माकू पावता संता तिष्ठे है, " 卐 सो जीव "अज्ञानमयभावतें अज्ञानमय ही भाव होय है" ऐसा न्यायकरि आगामी कर्मका आस्रव
णकू निमित्त जे राग द्वेष मोह, तिनिका संतानरूप उत्पत्तीका निरोध न होनेते अशुद्ध ही । आत्माकू पावे है । यातें शुद्ध आत्माका उपलभहीते संवर होय है।
भावार्थ-आत्माकू शुद्ध अनुभवता संता तौ शुद्धहीकू पावे है, ताके आलव रुकि संवर होय
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है । अर आपाकूं अशुद्ध अनुभवता संता अशुद्धही पाये है, ताके आस्रव रुके नाहीं है, संवर
नाहीं होय है। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
मालिनी छन्दः
यदि कथमपि धारावाहिना बोधनेन ध्रुवमुपलभमानः शुद्धमात्मानमास्ते । तदयमुदयनात्मारामभात्मानमात्मा परपरिणतिरोधाच्छुद्धमेवाभ्युपैति ॥३॥ केन प्रकारेण संवरो भवतीति चेत्
अर्थ -- जो आत्मा कोई प्रकार बड़े भाग्य धारावाही ज्ञानकरि निश्चल शुद्ध आत्माकं प्राप्त होता संता तिष्ठे है, तो यह आत्मा, उदय होता है आत्मारूप क्रीडावन जाकै, ऐसा अपना 5 5 आत्माकुं परपरिणति जे राग द्वेष मोह, तिनिका निरोधतें शुद्धहीकूं पावे है । ऐसे शुद्ध आत्माकी प्राप्ती संवर होय है । इहां धारावाही ज्ञान कह्या, ताका अर्थ-यहू जो एक प्रवाहरूप ज्ञान होय, सो धारावाही है। सो याकी दोय रीति है। एक तौ मिथ्याज्ञान वीचिमैं न आवे ऐसा सम्यग्ज्ञान सो धारावाही है । बहुरे दूजा उपयोगका ज्ञेयके उपयुक्त होनेको अपेक्षा है, सो जहां5 तांई एकज्ञेय उपयोग उपयुक्त होय रहे तहां तांई धारावाही कहिये । सो याकी स्थिति अंत- 5 ही है। पीछे विच्छेद होय है । सो जहां जैसी विवक्षा होय, तहां तैसा जानना । श्रेणी
चढे तब शुद्ध आत्मास उपयुक्त होय धारावाही होय है। आगे पूछे है, जो, कौन प्रकारकरि 5 संवर होय है ? ताका उत्तर कहे हैं। गाथा
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अप्पाणमप्पणोरुंभिदृण दो (सु) पुराणपावजोगेसु । दंसणणाणइ मिठिदो इच्छाविरदो य अहमि ॥७॥ जो सव्वसंगमुको झायदि अप्पाणमप्पणी अप्पा । वि कम्मं णोकम्मं चेदा चिंतेदि एयत्तं ॥ ८ ॥
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अप्पाणं झायंतो दसणणाणमइओ अणण्णमणो। लहदि अचिरेण अप्पाणमेक सो कम्मणिम्मुक्कं ॥९॥
आत्मानमात्मना रुन्ध्वा द्विपुण्यपापयोगयोः । दर्शनज्ञाने स्थितः इच्छाविरतश्चान्यस्मिन् ॥७॥ यः सर्वसङ्गमुक्तो ध्यायत्यात्मानमात्मनात्मा। नापि कर्म नोकर्म चेतयिता चिन्तयत्येकत्वम् ॥८॥ आत्मानं ध्यायन्दर्शनज्ञानमयोऽनन्यमनाः ।
लभतेऽचिरेणात्मानमेव ल कार्यनिमुक्ताम् ॥९॥ निकताम् ।। ॐ आत्मख्यातिः-यो हि नाम रागद्वषमोहमूले शुभाशुभयोगे वर्तमानः, दृढतरभेद विज्ञानावष्ट भेन, आत्मानं, आत्मनेवा- .. त्यंतं रुध्वा, शुद्धदर्शनज्ञानात्मद्रव्ये सुन्छु प्रतिष्टितं कृत्वा समस्तपरद्रव्वेच्छापरिहारेण समग्रसंगविमुक्तो भूत्वा नित्यमेवाप्रतिनिप्रकंपः सन्, मनागपि कमनोक्रमणारसंस्पर्शण, आत्मीयमात्मानमेवात्मना व्यायन् स्वयं सहजयेतवितृत्वादेकत्वमेव .. चेतयते । स खल्वेकत्वचेतनेनात्यंजको चैतन्यचमत्कारमात्मानं ध्यायन सुद्धदर्शनज्ञानमयमात्मद्रव्यमबाप्तः शुद्धात्मोकी पलंभे सति समस्तपरद्रव्यमयत मतिकांतः सन्, अचिरेणैव सकलकर्मविमुक्तमात्मानमवाप्नोति, एष संवरप्रकारः।
अर्थ-जो जीव अपने आत्मा आपहीकरि दोय जे पुण्यपापरूप शभाशभयोग तिनिते " रोकिकरि अर दर्शनज्ञानविष तिष्ठया हुवा अन्य वस्तुविर्षे इच्छाते रहित हुवा संता, जो सर्वपरिग्रहते रहित हुवा आत्माही करि आत्माकू ध्यावे है अर कर्म नोकर्मक नाहीं ध्यावे है अर .
आप चेतनारूप है तिस स्वरूपकू एकपणाकू अनुभवे है--विचारे है, सो जीव दर्शनज्ञानमय भया । 卐 अन्यमय नाही भया संता आत्माकू ध्यावता संता थोरे ही कालमें कर्मकरि रहित अपने आत्माकू.)
पावे है। ॐ टीका--निश्चयकरि जो जीव राग द्वेष मोह है मूल जाका ऐसा जो शुभाशुभ योग तिस 5
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" विर्षे वर्तमान जो अपना आत्मा, ताळू दृढतर भेदविज्ञानका अवलंबन करि आपहीकरि अत्यंत ।
रोकिकरि, बहुरि शुद्धज्ञानदर्शनरूप जो अपना आत्मद्रव्य, ताविर्षे भलेप्रकार प्रतिष्ठितकरि ठह- - .. रायकरि, अर समस्त परद्रव्यकी इच्छाका परिग्रहसू रहित होयकरि, नित्य ही अतिनिपकंपात " निश्चल हुवा संता. किंचिन्मात्र भी कर्मको स्पर्श नाही करि, अर अपने आत्माहीकू आत्माकरि ॥ न ध्यावता संता, आप स्वयंचेतनेवाला है, सो अपना चेतनारूपहीकुं एकत्वकू चेते है-अनुभवे है "ज्ञानचेतनामय होय है । सो जीव निश्चयकरि एकपणाका अनुभव करनेकरि परद्रव्यते अत्यंत
भिन्न चैतन्यचमत्कार मात्र अपना आत्माकूध्याक्ता संता, शुद्ध दर्शनज्ञानमय आत्मद्रव्यकू प्राप्त . भया संता, शुद्ध दर्शनज्ञानमय आत्मद्रव्यकू शुद्धात्माका उपलंभ होते संते, समस्तपरद्रव्यमयपणातें 5 दूरि भया संता थोरे ही कालमें समस्तकर्मते रहित आत्माकू पावे है। यह संवरका प्रकार है। .. भावार्थ-जो जीव पहले तो राग द्वेष मोहसू मिले शुभाशुभ मनवचनकायके योग, तिनितें
भेदज्ञानके बलतें अपने आत्माकू चलने न दे, पीछे शुद्धदर्शनज्ञानमैं अपनास्वरूपविर्षे निश्चल
करे, अर समस्त बाद्याभ्यंतरके परिग्रहत रहित होयकार, कर्मनोकर्मत भिन्न अपना स्वरूपवित्रं - एकाग्र होय ध्यान करता संता तिष्टे, सो थोरे ही कालमें समस्त कर्मका नाश करे है। यह संवरका प्रकार है । अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
मालिनीछन्दः निजमहिमरतानां भेदविज्ञानशक्त्या भवति नियतमेषां शुद्धमात्मोपलम्भः ।
अचलितमखिलान्यद्रव्यद्रे स्थितानां भवति सति च तस्मिन्नक्षयः कर्ममोक्षः ॥४॥ + केनक्रमेण संवरो भवतीति चेत्... अर्थ-जे पुरुष भेदविज्ञानकी शक्तिकरी अपना स्वरूपकी महिमाविषं लीन हैं, तिनिके ॥ निनियमत शुद्धतत्वकी प्राप्ति होय है। बहुरि तिस शुद्धतत्त्वकी प्राप्ति होते संते जे निश्चल जैसे ३०३ तोप तैसें समस्त अन्यद्रव्यनितें दूरि तिष्ठे हैं, तिनिके कर्मका मोक्ष कहिये अभाव होय है, सो ६
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अक्षय होय है - फेरि कर्मबंध नाहीं होय है, आगे पूछे हैं, जो संवर कोनसे अनुक्रमकरि होय है ? ताका उत्तर कहिये हैं । गाथा
नीचे लिखी दो गाथाओंकी आत्मख्याति संस्कृत और हिन्दी टीका उपलब्ध नहीं है इसलिये नहीं छापी गई। फ तात्पर्यवचि टीका मिलती है वह छपी है।
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उवदेसेण परोक्खं रूवं जह परिसदृण णादेदि ।
भगगादि तहेव घिप्पदि जीवो दिलोय गादोय ॥
उपदेशेन परोक्षरूपं यथा दृष्टा जानाति ।
भण्यते तथैव भियते जीवो दृष्टश्च ज्ञातश्च ॥
तात्पर्यवृत्तिः - उवदेसेण परोकखं रूवं जह पस्सिदृण णादेदि यथा लोके परोक्षमपि देवतारूपं परोपदेशालिखितं
दृष्ट्वा कश्चिद्द ेवदत्तो जानाति ! भव्यादि तहेव धिष्पदि जीवो दिठोय णादी य । तथैव वचनेन भष्यते तथैव मनसि
गृहस्ते । कोसी १ जीवः, केन रूपेण ? मया दृष्टो ज्ञातश्चेति मनसा संप्रधारयति । तथा चोक्तं ।
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कोविदिदिच्छो साहू संपडिकाले भणिज्ज रूवमिणं । पच्चक्खमेव दिठ्ठे परोक्खणाणे पवर्द्धतं ॥
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कोविदितार्थः साधुः संप्रतिकाले भणेत् रूपमिदं ।
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प्रत्यक्षमेव दृष्टं परोक्षज्ञाने प्रवर्तमानं ॥
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तात्पर्यवृत्तिः - अथ मतं भणिज्ञ रूवमिणं पञ्चक्खमेव दिट्ठ परोक्खणाणे पवट्ठतं । योसौ प्रत्यक्षेणात्मानं दर्श- फ्र
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यति तस्य पार्श्वे पृच्छामो वयं । नैवं (1) कोविदिदिच्छो साहू संपडिकाले भणिज्ज कोविदितार्थ साधुः, संप्रतिकाले या, पि । किंतु मणं पञ्चवमेवदिठं इदमात्मस्वरूपं प्रत्यक्षमेव मया दृष्ट
यात्
१ कोषि ।
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चतुथकाले केवलज्ञानिवत् । अपि तु नैवं कथभूतमिदमात्मस्वरूपं । परोक्खणाणे पट्ट तं केवलज्ञानापेक्षया परोक्षे
श्रुतज्ञाने प्रवर्तमानं इति ।
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तेसिं हेदु भणिदा अज्झवसागाणि सव्वदरसीहिं । मिच्छत्तं अण्णाणं अविरदिभावोय जोगोय ॥ १० ॥ दु अभावे णियमा जायदि णाणिस्स आसवणिरोहो । आसवभावेण विणा जायदि कम्मस्स दु णिरोहो ॥ ११ ॥ कम्मस्साभावेण य णोकम्माणं च जायदि गिरोहो । गो कम्मणिरोहेण य संसारणिरोहणं होदि ॥१२॥
तेषां हेतवः भणिताः अध्यवसानानि सर्वदर्शिभिः ।
मिथ्यात्वमज्ञानमविरतभावश्च योगश्च ॥१०॥
हेत्वभावे नियमाज्जायते ज्ञानिनः आस्रवनिरोधः । arrar fair जायते कर्मणोऽपि निरोधः ॥११॥
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किं विस्तरः यद्यपि केवलज्ञानापेक्षया रागादिविकल्परहितं स्वसंवेदनरूपं भावश्रुतज्ञानं शुद्धनिश्चयनयेन परोक्ष भण्यते । तथापि इन्द्रियमनोजनितसविकल्पज्ञानापेक्षया प्रत्यक्षं । तेन कारणेन, आत्मा स्वसंवेदनज्ञानापेक्षया प्रत्यक्षो क भवति । केवलज्ञानापेक्षया परोक्षोऽपि भवति । सर्वथा परोक्ष एवेति वक्तु ं नायाति । किन्तु चतुर्थकालेऽपि केवलिनः, किमात्मानं हस्ते गृहीत्वा दर्शयन्ति ? तेषि दिव्यध्वनिना भाणित्वा गच्छन्ति । तथापि श्रवणकाले भोतॄणां परोक्ष एवं 5 पश्चात्परमसमाधिकाले प्रत्यक्षी भवति । तथा, इदानीं कालेऽपीति भावार्थः । एवं परोक्षस्यात्मनः कथ पानं क्रियते, ऊ इति प्रश्ने परिहाररूपेण गाथाद्वयं गतं ।
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पृष्ठ ३०४ की टिप्पणीके पहिले श्लोककी तात्पर्यवृत्तिके नीचे 'तथा चोक्तं' इसके आगेवाला श्लोक छूट गया है वह निम्न प्रकार है
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गुरूपदेशादभ्यासात्संवित्तः स्वपरांतरं । जानाति यः स जानाति मोक्षसौख्यं निरंतरं । अथ-
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तेसिं हेदु भणिदा अज्झवसायाणि सव्वदरसीहिं । मिच्छत्तं अण्णाणं अविरदिभावोय जोगीय ॥ १० ॥ दु अभावे णियमा जायदि णाणिस्स आसवणिरोहो । आसवभावेण विणा जायदि कम्मस्स दु णिरोहो ॥ ११ ॥ कम्मस्साभावेण य णोकम्माणं च जायदि णिरोहो । गो कम्मणिरोहेण य संसारणिरोहणं होदि ॥ १२ ॥
तेषां हेतवः भणिताः अध्यवसानानि सर्वदर्शिभिः । मिथ्यात्वमज्ञानमविरतभावश्च योगश्च ॥ १०॥ हेत्वभावे नियमाज्जायते ज्ञानिनः आस्रवनिरोधः । aarat faar जायते कर्मणोऽपि निरोधः ॥११॥
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किं विस्तरः यद्यपि केवलज्ञानापेक्षया रागादिविकल्परहितं स्वसंवेदनरूपं भावश्रुतज्ञानं शुद्धनिश्चयनयेन परोक्षं भण्यते । तथापि इन्द्रियमनोजनितसविकन्यज्ञानापेक्षया प्रत्यक्षं । तेन कारणेन, आत्मा स्वसंवेदनशनापेक्षया प्रत्यक्षो भवति । केवलज्ञानापेक्षया परोक्षोऽपि भवति । सर्वथा परोक्ष एवेति वक्तु नायाति । किन्तु चतुर्थकालेऽपि केवलिनः, 5 किमात्मानं हस्ते गृहीत्वा दर्शयन्ति । तेपि दिव्यध्वनिना माणिवा गच्छन्ति । तथापि श्रवणकाले श्रोतॄणां परोक्ष एवं 5 पश्चात्परमसमाधिकाले प्रत्यक्षो भवति । तथा, इदानीं कालेऽपीति भाषार्थः । एवं परोक्षस्यात्मनः कम पानं क्रियते, इति प्रश्ने परिहाररूपेण माथाद्वयं गतं ।
पृष्ठ ३०४ की टिप्पणीके पहिले श्लोककी तात्पर्यवृत्तिके नीचे 'तथा चोक्तं' इसके आगेवाला श्लोक छूट गया है वह निम्न प्रकार है
गुरूपदेशादभ्यासात्संवितः स्वपरांतरं । जानाति यः स बानाति मोक्ष सौख्यं निरंतरं । अथ-
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कर्मणोऽभावेन च नोकर्मणामपि जायते निरोधः।।
नोकर्मनिरोधेन च संसारनिरोधनं भवति ॥१२॥ त्रिकलम्।। आत्मख्यातिः--संति तावज्जीवस्य, आत्मकमैकत्वाशयमूलानि मिथ्यात्वाज्ञानाविरतियोगलक्षणानि, अभ्यवसानानि । तानि रागद्वेपमोहलक्षणस्यासवभावस्य हेतवः। आम्रवभावः, कर्महेतुः, कर्म, नोकर्महेतुः, नोकर्म, संसारहेतुः इति । ततो नित्यमेवायमात्मा. आत्मकर्मणोरेकत्वाध्यासेन मिथ्यात्वान्नानाविरतियोगमयमात्मानमध्यवस्यति । ततो रागद्वेषमोहरूपमात्रवभावं भावयति । ततः कमें, आवति । ततो नोकर्म भवति ततः संसारः प्रभवति । यदा तु, आत्मक्रमणो- मेंदविज्ञानेन शुद्धचैतन्यचमत्कारमात्रमात्मानं, उपलभते । तदा मिथ्यात्वाविरतियोगलक्षणाना, अध्यसानानां, आस्रवभावहेतुनां, भवत्यभावः । तदभावे रागद्वेषमोहरूपासवभावस्य, भवत्यभावः । तदभावेऽपि भवत्ति कर्माभावः। तद-ए भावेऽपि भवति संसाराभावः । इत्येष संवरक्रमः । ___अर्थ-तेषां कहिये पूर्व कहे जे आस्रव, राग द्वेष मोह, तिनिका हेतु सर्वज्ञ देव अध्यवसान कहे हैं। ते मिथ्यात्व अज्ञान अविरतभाव योग ये च्यारि कहे हैं। सो ज्ञानीके इनिका अभाव होते, नियमतें आस्रवका निरोध होय है। सो आस्रवभावविना कर्मका भी निरोध होय है। बहुरि कर्मका अभावकरि नोकर्मका भी निरोध होय है। बहुरि नोकर्मका निरोधकरि संसारका निरोध , होय है। ___टीका-प्रथम ही जीवके आत्मा अर कर्मका एकपणाका निश्चयरूप आशय है मूल कारण जिनिका ऐसे मिथ्यात्व अज्ञान अविरति योगस्वरूप अध्यवसान विद्यमान हैं ते राग द्वेष मोह हैं लक्षण जाका ऐसे आरवका कारण हैं । बहुरि आस्त्रवभाव है सो कर्मका कारण है । बहुरि कर्म : है सो नोकर्मका कारण है । बहुरि नोकर्म है सो संसारका कारण है । तातें आत्मा है सो नित्य ही आत्मा अर कर्मका एकपणाका निश्चयरूप आशयतें मिथ्यात्व अज्ञान अविरति योगमय । आत्माकू निश्चयकरि माने है, तिस निश्चयतें राग द्वेष मोहरूप जो आस्रवभाव ताहि भावे + है। बहुरि तातें कर्मका आस्रव होय है, बहुरि कर्म ते नोकर्म होय है, बहुरि नोकर्मत संसार प्रगट
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卐 प्रवर्ते है । बहुरि जिसकाल आत्मा, आत्माका अर कर्मका भेदविज्ञान करि शुद्ध चैतन्यचमत्कार ॥ 1- मात्र आत्माकू पावे है तिसकाल मिथ्याव अज्ञान अविरति योगस्वरूप अध्यवसान आसव
भावके कारण हैं, तिनिका आत्माकै अभाव होय है । अर मिथ्यात्व आदिका अभाव होते राग प्रमुख
द्वेष मोहरूप आसवभावका अभाव होय है, अर राग द्वेष मोहका अभाव होते नोकर्मका अभाव - होय है, अर नोकर्मका अभाव होते संसारका अभाव होय है । ऐसा यह संवरका अनुक्रम है।
भावार्थ-जीवके जेते आत्माका अर कर्मका एकपणेका आशय है-भेदविज्ञान नाही, तेते ।। .. मिथ्यात्व अज्ञान अविरत योगरूप अध्यवसान विद्यमान हैं । तिनितें रागद्वेषमोहरूप आस्वभाव
होय है, आसवभावतें कर्म बंधे है, कर्मत नोकर्म शरीरादिक प्रगट होय हैं, नोकर्मत संसार है। बहुरि जिसकाल आत्माका अर कर्मका भेदविज्ञान होय है, तब शुद्ध आत्माकी प्राप्ति होय है,
तब मिथ्यात्वादि अध्यवसानका अभाव होय है, अर अध्यवसानका अभाव भये राग द्वेष मोहरूप 卐 + आसवका अभाव होय है, आसूबके अभावतें कर्म नाहीं बंधे है, अर कर्म के अभावतें नोकर्म
नाहीं प्रगटे है, नोकर्म के अभावतें संसारका अभाव होय है, ऐसा संवरका अनुक्म जानना। 5 अब, इस संवरका कारण प्रथम ही भेदविज्ञान कया, ताकी भावनाका उपदेश करे हैं। ताका कलशरूप काव्य कहे हैं।
उपजातिच्छन्दः सम्पद्यते संकर एष साक्षाच्छुद्धात्मतत्वस्य किलोपलम्भात् ।
स मेदविज्ञानत एव तस्मात्तद्भ दविज्ञानमतीय भाव्यम् ।।शा अर्थ-जातें यह संवर है सो निश्चयतें साक्षात् शुद्धात्मतत्त्वका उपलंभ कहिये पावनेतें होय है। बहुरि शुद्धात्मतत्त्वका उपलम्भ है, सो आत्मा अर कर्मका भेद विज्ञानते होय हे-कर्म• अर 卐 आत्माकू न्यारे जाने तब आत्माकू अनुभवे । तातें सो भेद विज्ञान अतिशय करि भावने योग्य है।
फेरि कहे हैं; जो, भेद विज्ञान कहां ताई भावना ?
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भावयेद् भदविज्ञानमिदमच्छिमधारया । तावद्यावत्पराच्च्युत्वा शानं शाने प्रतिष्ठितं ॥६॥
अर्थ-यह भेद विज्ञान है ताहि निरन्तर धाराप्रवाहरूप जामें विच्छेद न पड़े ऐसे तेते भावे, -८ जेते ज्ञान है सो परभावनित छुटि करि अपने स्वरूपज्ञानही विचं प्रतिष्ठित होय ठहरी जाय ।।
भावार्थ इहां ज्ञानका ज्ञान विर्षे ठहरना दोय प्रकार जानना । एक तौ मिथ्यात्वका अभाव फ़ होय सम्यग्ज्ञान होय, फेरि मिथ्यास्त्र न आवै। बहुरि दूजा यह जो शुद्धोपयोगरूप होय ठहरे, .. ज्ञान अन्य विकाररूप न परिणमै । सो दोऊ प्रकार न बने तेते निरन्तर भेद विज्ञानको भावना है जा राखनी । फेरि बेद विज्ञानकी महिमा का है। भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । तस्यैवाभावतो बड़ा बद्धा ये किल केचन ||
जाम ____ अर्थ-जे केई सिद्ध भये हैं, ते इस भेदविज्ञानतें भये हैं । बहुरि जे कर्मत बंधे हैं, ते तिसही 9 भेदविज्ञानके अभावतें बंधे हैं।
भावार्थ-संसार सो आत्मा अर कर्मके एकताकी माननेतें है, सो अनादितें जेतें भेदविज्ञान 卐 नाहीं है, तेतें कर्मतें बंधे ही है । तातें कर्मबंधका मूल भेदविज्ञानका अभाव ही है। जे बंधे हैं ते ।
याहीके अभावतें बंधे हैं । वहुरि जे सिद्ध भये हैं, ते भेदविज्ञान भये ही भये हैं । तातें प्रथम 9 भेदविज्ञान ही मोक्षका कारण है। यहां ऐसा भी जानना, जो विज्ञानाद्वैतवादी वौद्ध तथा वेदांती ॥
वस्तू• अद्वैत कहे हैं, ते अद्वैतका अनुभवही सिद्धि कहे हैं, तिनिका भी इस भेदविज्ञान सिद्धि के " कहनेते निषेध भया । जातें सर्वथा अद्वैत वस्तुका स्वरूप नाही, अर जे माने हैं, तिनिका भेद+ विज्ञान कहना बने नाहीं । भेदविज्ञान तौ वस्तु द्वैत होय तब कहना बने । सो जीव अजीव दोय ॥
वस्तु माने, अर दोयका संयोग माने, तब भेदविज्ञान बने, यात स्वाद्वादनिकै सर्व निर्बाध सिद्धि 卐 होय है । आगै संवरका अधिकार पूर्ण भया, सो या संवरका भये ज्ञान कैसा है ऐसे ज्ञानकी म
महिमाका कलशरूप काव्य कहे हैं।
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मन्दाक्रान्ताछन्दः भेदज्ञानोच्छलनकलनाच्छुद्धतचोपलम्भाद्रागग्रामप्रलयकरणाकर्मणां संवरेण ।
जा बिभ्रत्तोषं परमममलालोकनम्लानमेकं ज्ञानं जाने नियतमुदितं शाश्वतोद्योतमेतत् ॥८॥ अर्थ--यह ज्ञान है सो ज्ञानहीविर्षे निश्चल नियमरूप उदयकू प्राप्त भया । केसे अनुक्रमतें ॥ .. उदय भया ? प्रथम तो भेदज्ञानका उदय होना, ताका अभ्यास भया । बहुरि तिस भेदज्ञानके
अभ्यासतें शुद्धतत्त्वका उपलभ भया । बहुरि तिस शुद्धतत्वके उपलभते रागके समूहका प्रलय :
किया । बहुरि रागग्रामका प्रलय करनेते आसूक्के रुकनेते कर्मनिका संवर भया । बहुरि कर्मका - न" संवर होने करि पान उत्कृष्ट संतोष भारता संता, शाम प्रगट भया । बहुरि कैसा है ज्ञान ?
निर्मल है आलोक कहिये प्रकाश जाका, क्षयोपशमके दोषते मलिनता थी सो अब नाहीं है । बहुरि
अम्लान है, रागादिकतें कलुषता थी सो अब नाहीं है, तातें निर्मल है। बहुरि कैसा है ? एक 卐 है, क्षयोपशम करि भेद थे, ते अब नाही है। बहुरि शाश्वता है उद्योत जाका, क्षयोपशमज्ञान, .- क्रमतें होना था, सो अब नाहीं है। ऐसा रंगभूमिमैं संकरका स्वांग प्रवेश भया था ताकं ज्ञान जानि लिया, सो नृत्य करि रंगभूमिते निकसि गया।
सवैया तेईसा भेदविज्ञानकला प्रगटै तब शुद्धस्वभाव लहै अपना ही। राग द्वेष विमोह सनही मलि जाय इमै झठ कर्म रुका ही। उज्वल शान प्रकाश कर बहुतोष धरै परमातम माही।
यो मुनिराज भली विधि धारत केवल पाय सुखी शिव जाही ॥१॥ ऐसे इस समयसार प्रन्थकी आत्मल्यातिनामा टीकाकी क्चनिकाविर्षे गंचमां
संवर अधिकार पूर्ण भया । . इहां ताई गाथा १९२ भई । कलश १३२ भये ।
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अश निर्जराविकारः। दोहा—रागादिका मेटि करि नवे बंध हति संत । पूर्ष उदयों सम रहे नमू निर्जराक्त ।।१।। ___ इहां निर्जरा प्रवेश करे है । भावार्थ-जैसे नृत्य के अखाडे, नृत्य करनेवाला स्वांग बनाय प्रवेश करे है, तेले इहां तत्वनिका नृत्य है। तहां रंगभूमिमैं निर्जराका स्वांगका प्रवेश है, तहां
प्रथम ही सर्व स्वांग देखि करि यथार्थ जाननेवाला सम्यग्ज्ञान है ताकू टीकाकार मंगलरूपःजानि + प्रगट करे हैं।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः रागाद्यास्रवरोधतो निजधुरां धृत्वा परः संवरः कर्मागामि समस्तमेव भरतो दाविरुधन स्थितः। ___ प्राग्नद्धं तु तदेव दग्धुमधुना व्याजृम्भते निर्जरा ज्ञानज्योतिरपावृतं न हि यतो रामादिभिमूर्छति ॥१॥
अर्थ--प्रथम तौ उत्कृष्ट संवर है, सो रागादिक जे आस्रव तिनिकै राकनेते, अपनी धुरा जो 5 卐 सामर्थ्यकी हद, ताहि धारिकरि आगामी समस्त ही कर्म, ताकू मूलते दूरी हो रोकता संता .. तिष्ठया । अवे इस संवर भये पहले बंधरूप भया था जो कर्म, ताहि दग्ध करनेकू निर्जरारूप ॐ अग्नि फैले है, सो इस निर्जराके प्रगट होनेते, ज्ञानज्योति है सो आवरण रहित भया संता, फेरि 1- रागादि भावनिकरि मूर्छित नाहीं होय है, सदा निरावरण रहे है।
भावार्थ-संवर भये पीछे नवीन कर्म बंधे नाही, अर पूर्वे बंधे थे, ते निर्जरे, तब ज्ञानका ॥ + आवरण दूरि होय, तब ज्ञान ऐसा है, सो फेरि रागादिरूप न परिणमे, सदा प्रकाशरूप रहे । आगे निर्जराका स्वरूप कहे हैं। गाथा
उवभोजमिदियेहिं दवाणमचेदणाणमिदराणं । जं कुणदि सम्मदिछी ते सव्वं णिज्जरणिमित्तं ॥१॥
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उपभोगमिन्द्रियेद्रव्याणामचेतनानामितरेषाम् ।
यत्करोति सम्यग्दृष्टिस्तरसर्व निर्जरानिमितम् ॥१॥ ___ आत्मख्यातिः--विरागस्योपभोगो निर्जरायैव रागादिभावानां सद्भावेन मिच्यादृष्ट रचेतनान्यद्रव्योपभोगो बंध1 निमित्तं स्यात् । एतेन द्रव्यनिर्जरास्वरूपमावेदितं । + अथ भावनिर्जरास्वरूपमावेदयति--- - अर्थ-सम्यग्दृष्टि जोव जो इन्द्रियनिकरि चेतन तथा अचेतन जे द्रव्य, तिनिका उपभोग करे 卐 है, तिनिळू भौगवे है, सो सर्व ही निर्जराके निमित्त है।
टीका-विरागीका उपभोग है सो निर्जराके अर्थी ही है। जातें मिथ्यादृष्टिके रागादिभावनिके सद्भावतें चेतन अचेतन द्रव्यका उपभोग है सो बंधनिमित्त ही होय है । इस कथनकार दव्य-5 + निर्जराका स्वरूप कह्या ।
भावार्थ-सम्यग्दृष्टीकू ज्ञानी कह्या है, सो ज्ञानीके राग द्वेय मोहका अभाव कहा है। सो 卐 विरागीके इंद्रियनिकरि भोग होय है, सो तिस भोगकी सामग्रीकू यह सम्यग्दृष्टि ऐसा जाने है-जो - __ ये परद्रव्य हैं मेरा इनिका किछु नाता नाहीं, अर कर्म के उदयके निमित्तकरि इनिका मेरा संयोग- "
वियोग है, अर चारित्रमोहका उदय आय पीडा करे है । सो बलहीन है, जेते सही न जाय है। तातें जैसे रोगी रोगकू भला न जानै अर पीडा न सही जाय, तव ताका औषधि आदि करि इलाज करे, तैसे विषयरूप भोगोपभोगसामग्रीतें इलाज करे है। अर कर्मके उदयतें तथा भोगो
पभोग सामग्रीत राग द्वेष मोह नाहीं है । तातें सम्यग्दृष्टि ऐसे विरागी है, सो याके भोग उप" भोग है, सो निर्जराहीके निमित्त है । कर्म उदय होय है, सो अपना रस दे क्षरि जाय है । उदय + आये पीछे द्रव्यकर्मका सत्त्व रहैं नाही, निर्जरे ही । अर सम्यग्दृष्टीकै तिस कर्मउदयसू राग
देष मोह नाहीं। उदय आयाकू जानि ही ले है अर फलकू भौगवे है। सो राग देष मोह बिना भगवे वाले कर्म आवे नाही. आसवविना सम्यग्दृष्टि विरागीके आगामी बंध नाही, प्रेसें -
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आगामी बंध न भया तब केवल निर्जरा ही भई । तातें सम्यग्दृष्टि विरागीका भोगोपभोग निर्जरा." आप का ही निमित्त कहा । अर पूर्वकर्म उदय माय ताका द्रव्य क्षरि गया सो द्रव्यनिर्जरा है। आगे भावनिर्जराका स्वरूप कहे हैं। गाथा
दव्वे उपभुजंते णियमा जायदि सुहं च दुक्खं च । ते सुहदुःखमुदिण्णं वेददि अह णिज्जरं जादि ॥२॥
द्रव्ये, उपभुज्यमाने नियमाजायते मुखं च दुःखं च ।
तत्सुखदुःखमुदीर्ण वेदयते अथ निरां याति ॥२॥ 卐 आत्मख्याति:--उपभुज्यमाने सति हि परद्रव्ये तन्निमितः सातासातविकल्पानतिक्रमणेन वेदनायाः सुखरूपो दुःखरूपी
वा नियमादेव जीवस्य भाव उदेति । स तु यदा वेद्यते तदा मिथ्यादृष्टं रागादिभावाना सद्भावेन बंधनिमित्तं भूत्वा 5 निर्यमाणोप्यजीर्णः सन् बंध एव स्यात् । सम्यग्दृप्टेस्तु रागादिभावाभावेन बंधनिमित्तमभूत्वा केवलमेव निर्जीयमाणो __ प्यजीर्णः सन्निर्जरैव स्यात् ।।
अर्थ-परद्रव्य उपभोगमें आवते संते भोगते संते सुख अथवा दुःख नियमते उपजे है। तिस प्र 1- उदव आया सुखदुःखकू वेदे है, अनुभवे है, भोगवे है, आस्वादमें आवे है । सो आस्वाद देकरि ग क्षरि जाय है, निर्जरा होय चुक्या गया, सो फेरि नाहीं आवे है। प्र टीका-परद्रव्य उपभोगमें आवता संता भोगक्ता संता जीवके सुखरूप अथवा दुःखरूप
भाव नियम थकी उदय होय है, उपजे है। कैसा है यह भाव ? परद्रव्य है, निमित्त जाकू ऐसा 卐 है। जाते वेदनाके साता तथा असाता ऐसे दोय ही रूपपणो है, इनि दोऊभावकू नाही उल्लंघ्य .. वर्ते है, सो इस भावकू जिसकाल जीवकरि वेदिये है, तिसकाल मिथ्यादृष्टीके तो तिसते रागादि
भावनिका सद्भावकरि आगामी कर्मके बंधके निमित्त होयकरि निर्जरारूप होता भी निर्जरारूप नाहीं कहिये, आगामी बंधकरि निर्जरारूप भया, तातें बंध ही कहिये। बहुरि सम्यग्दृष्टीके तिस
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- सुखदुःखकी वेदनाते रागादिक भावनिको अभावकरि आगामी बंधके निमित्त नाही होय करि न केवल निर्जरे ही है, सो निर्जरारूप भया संता निर्जरा ही कहिये, बंध न कहिये। प्र भावार्थ:-कर्मका उदय आये मुखदुःखभाव नियमकरि उपजे हैं। तिसकू वेदते संते मिथ्या
दृष्टीकै तौ रागादिकके निमित्तते आगामी बंधकरि निर्जरे है। तातें निर्जरे काहेकी ? बंध ही 卐 किया । बहुरि सम्यादृष्टीके तिस वेदनासू रागादिकभाव नाहीं हैं, तातै आगामी बंध न होय, 1 1- तब केवल निर्जरा ही भई । ऐसें भावरूप निर्जरा होय है। याका अर्थकी अगिले कथनकी सुचनिकारूप कलशरूप श्लोक है।
अनुष्ट्रपछन्दः तद् ज्ञानस्यैव सामर्थ्य विरागस्य च वा किल । यत्कोऽपि कर्मभिः कर्म भुन्जानोऽपि न प्रध्यते ॥२॥ ॥ ॥ अथ ज्ञानसामर्थ्य दशयति
अर्थ-जो कर्म• भोगवता संता भी कर्मकरि नाहीं बंधे है, सो यह कोई आश्चर्यरूप सामर्थ्य ॐ ज्ञानका ही है, अथवा विरागीका ही है । अज्ञानीकू तौ आश्चर्यका उपजावनहारा है। ज्ञानी .. 1- यथार्थ जाने है । आगे ज्ञानका सामर्थ्यकू दिखावे हैं । गाथा
जह विसमुवभुजंता विजापुरिसा ण मरणमुवयंति । पोग्गलकम्मस्सुदयं तह भुंजदि ग्रेव वज्झदे णाणी ३॥
यथा विषमुपभुजाना विद्यापुरुषा न मरणमुपयाति ।
पुद्गलकर्मण उदयं तथा मुके नैव बध्यते ज्ञानी ॥३॥ - आत्मरूपाति:----यथा कश्चिद्विषवैद्यः परेषां मरणकारणं विषमुषभुञ्जानोऽपि, अमोघविद्यासामध्येन निव
सच्छत्तित्वान्न म्रियते, तथा अन्नानिनां रागादिभावसमावेन बंधकारणं पुद्गलकर्मोदयमुपंजा नोऽपि अमोधक्षान+ सामर्थ्यात् रागादिभावानामभावे सति निरुतच्छक्तित्वात् न बध्यते बानी ।
__ अथ वैराग्यसामर्थ्य दर्शयति---
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अर्थ-जैसें वैद्यपुरुष है सो विषकूं उपभोगता संता भी मरणकूं नाहीं प्राप्त होय है, तैलें
5 पुद्गलकर्मका उदयकूं ज्ञानी भोगवे है, तौऊ बंधे नाहीं है ।
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टीका–जैसे कोई विषय है, सो अन्यकू मरणका कारण ओ विष, ताकू भोगवता भी 5 अमोघविया कहिये अचूक सफल मंत्र यंत्र औषध आदिकी विद्या सामर्थ्यते रोकी है तिस 5 विषकी मारणशक्ति जानें, तिसपणातें मरणकूं नाहीं प्राप्त होय है । तैसें पुद्गलकर्मका उदय
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है सो अज्ञानी निकै रागादिभावनिक सद्भावकरि बंधका कारण है, ताकू ज्ञानी भोगवता संता 5 भी अमोघ अचूक सत्यार्थज्ञानके सामर्थ्यते रागादि भावनिका अभाव होते संते रोकी है तिस कर्मके उदय आगामी बंध करनेकी शक्ति जाने, तिसपणाकरि आगामी कर्मकरि नाहीं बंधे फ्र है।
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जह मज्जं पिबमाणो अरदिभावेण मज्जदि ग पुरिसो ।
दव्वभोगे अरदो णाणीविण वज्झदि तहेव ॥ ४ ॥
भावार्थ-जैसे
अपनी विद्याकी सामर्थ्यकर विrat मारनेकी शक्तिका अभाव करे है,
ताकू खावे तौऊ तिसतें मरे नाहीं । तैसें ज्ञानीके ज्ञानकी सामर्थ्य ऐसी है, जो कर्मका उदयकी
5 बंध करनेकी शक्ति रोके है । तातें तिसके कर्मका उदय भोग में आवै तौऊ आगामी बंध नाहीं 5
करे है । यह सम्यग्ज्ञानकी सामर्थ्य है । आगे वैराग्यका सामर्थ्य दिखावे हैं । गाथा
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आत्मख्यातिः - यथा कश्चित्पुरुषो मेरेयं प्रति प्रवृत्ततीभारतिभावः सन् मैरेयं पिवन्नपि तीभारतिसामर्थ्यान
माद्यति तथा रागादिभावानामभावेन सर्वद्रव्योषभोगं प्रति प्रवृत्तीत्रविरागभावः सन् विषयानुपभुञ्जानोऽपि तीव्रविराग
15 भावसामर्थ्यान्न बध्यते ज्ञानी ।
यथा मद्यं पिवन् अरतिभावेन माद्यति न पुरुषः ।
द्रव्योपभोगे अरतो ज्ञान्यपि न बध्यते तथैव ॥४॥
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म अर्थ-जैसे कोई पुरुष मद्यत तीन अरतिभावकरि विनाप्रीति पीवता संता मद रूप न होय ॥ य... है-मतवाला न होय है, तैसें ज्ञानी द्रव्यके उपभोगविर्षे अरत कहिये तीव्र रागरहित भया संता , कर्मनिकरि नाहीं बंधे है। प्र टीका-जैसे कोई पुरुष मदिराप्रति प्रवर्त्या है तीव्र अरतिभाव जाका ऐसा भया संता मदिराकू
पीवता संता भी तीव्र अरतिभावकी सामर्थ्यते मतवाला नाही होय है, तैसें ज्ञानी भी रागादि9 भावनिके अभावकरि सर्व द्रव्यका उपभोग प्रति प्रवा है तीव्र विरागभाव जाका ऐसा भया संता 1- भी विषयनिकू भोगता संता, तीव्र विरागभावके सामर्थ्य कर्मनिकरि नाही धंधे है।
1. भावार्थ-यह वैराग्यका सामर्थ्य है, जो विषयनिकू सेक्ता संता भी कर्मनिकरि नाहीं बंधे 5 卐है। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
स्थोद्धताछन्दः नानु ते विषयसेवनेऽपि यः स्वं फलं विषयसेक्नस्य ना।
ज्ञानवैभवविरागतापलाव सेवकोऽपि तदसावसेवकः ॥ ३ ॥ अथैतदेव दर्शयति+ अर्थ-यह पुरुष है सो विषयनिकू सेवते संते भी जो विषयसेवनेका निजफल है, ताको नाहीं है ..पावे है । सो ज्ञानके विभवका अर विरागताका बलते यह विषयनिका सेवनहारा है, तोऊ सेवनसहारा नाहीं है।
भावार्थ-ज्ञानका अर विरागताका कोई अचिंत्य सामर्थ्य ऐसा ही है, जो इंद्रियनिकरि । "विषयनिकू सेवे है, तौऊ ताकू सेवनहारा न कहिये । जाते विषयसेवनका सामान्य निजफल संसार । 卐है। सो ज्ञानी वैरागीके मिथ्यात्वके अभावतें संसारका भ्रमणरूप फल नाहीं होय है। आगे इस प्र
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संवतोविय सेवाद असेवमाणोवि सेवग कोवि ।
पगरणचेट्ठा कस्सवि णयपायरणोत्ति सो होदि ॥५॥ सेवमानोऽपि न सेवते, असेवमानोऽपि सेवकः कश्चित् । प्रकरणचेष्टा कस्यापि न च प्राकरण इति सा भवति ॥५॥
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5 भावानामभावेन विषयसेवनफलस्वामित्वाभावादसेवक एव । मिथ्यादृष्टिस्तु विषयानसेवमानोऽपि रागादिभावानां सद्भा- 5 dr विषयसेवनफलस्वामित्वात्सेवकः ।
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आत्मख्यातिः - यथा कश्चित् प्रकरणे व्याप्रियमाणोपि प्रकरणस्वामित्वाभावात् न प्राकरणिकः । अपरस्तु तत्रा
व्याप्रियमाणोऽपि तत्स्वामित्वात्प्राकरणिकः । तथा सम्यग्दृष्टिः पूर्वकर्मोदयसंपन्नान् विषयान् सेवमानोऽपि रागादि
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अर्थ-कोई तो विषयनि सेवता संता भी है, तौऊ भी न सेवे है, ऐसा कहिये है । बहुरि 5
कोई नाहीं सेवता संता है, तौऊ सेवनहारा है, ऐसा कहिये है। जैसे कोई पुरुषके कोई कार्य
संबंध
है, तिस प्रकरणसंबंधी सर्व क्रिया करे है, तौऊ किसीका कराया करे 5
5 है, आप तिसका स्वामी नाहीं है, ताकूं प्राकरण कहिये कार्यका करनेवाला है, ऐसा न कहिये ।
टीका - जैसे कोई पुरुष किसी कार्यका प्रकरणक्रियाविषै व्यापाररूप होय प्रवतें है, तिस5 संबंधी सर्व किया करे हैं, तौऊ तिस कार्यका प्रकरणका स्वामी कोई और है, ताका कराया करे 5 है । तातें प्रकरणका स्वामीपणाका अभाव प्राकरणिक कहिये करणवाला नाहीं है । बहुरि अन्य कोई तिस प्रकरणविषै व्यापाररूप प्रवर्तता नाही है, तिस कार्यसंबंधी क्रिया नाही करे है,
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तौऊ तिकार्यका स्वामीपणा प्राकरणिक कहिये तिस प्रकरणका करनेवाला कहिये है । तैसे ही
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सम्यग्दृष्टि है सो पूर्वी साचे थे जे कर्म, तिनिका उदयकरि व्याप्त भये जे इंद्रियनिके विषय तिनिकुं
5 सेवता संता है, तौऊ रागादिक भावनिके अभावकरि विषयसेवनका फलका स्वामीपणाका
अभावतें सेवनेवाला नाही है । बहुरि मिथ्यादृष्टि है सो विषयनिकूं नाही सेवता संता भी रागा
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" दिक भावनिका सद्भावकरि विषय सेवनेका फलका स्वामीपणातें विषयनिका सेवनेवाला हो ।
कहिये है। - भावार्थ-जैसे कोई व्यापारी धनका धना काहाटीपरि चाकर राख्या, सो हाटीका ..
काम व्यापार विणज देना लेना सर्व चाकर करे है, अर धनी अपने घर बैठा रहे है, हाटीसंबंधी 卐 कार्यकू नाहीं करे है। तहां विचारिये इस हाटोके तोटे नफेका स्वामी कोन है ? तहां परमार्थ ।। __ यह है-जो हाटीका कार्यसंबंधी तोटा नफाका स्वामी तो वो धनका धनी है, जाकर व्यापारा- " 5 दिक किया करे है, तोऊ स्वामीपणाका अभावतें तिसका फलका भोक्ता नाही है। अर-धनका - .. धनी किछू व्यापारादिक नाही करे है, तोऊ तिसका स्वामीपणातें तोटा नकाका फलका भोक्ता
ा है। तैसें संसारमें साहको ज्यौ तौ मिथ्यादृष्टि जानना अर चाकरको ज्यौं सम्यग्दृष्टि जानना । अब 卐 1. इस अर्थका समर्थनरूप सम्यादृष्टीके भावनिकी प्रवृत्तिका कलशरूप काव्य कहे हैं।
मन्दाक्रान्ताछन्दः सम्यग्दृष्टेभवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्तिः स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या । यस्माद् ज्ञात्वा व्यतिकरमिदं तत्त्वतः स्वं परं च स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात् ॥६॥
सम्यग्दृष्टिः विशेषेण स्वपरावेवं तावज्जानाति卐 अर्थ-सम्यदृष्टीकै नियमते ज्ञान अर वैराग्यकी शक्ति होय है । जातें यह सम्पन्डष्टि अपना + ... वस्तुपणा यथार्थस्वरूप ताका अभ्यास करने... अपना स्वरूपका ग्रहण अर परका त्यागका विधि - करि, यह तो अपना आत्मस्वरूप है अर यह परद्रव्य है ऐसा दोऊका भेद परमार्थकरि जानि, 卐 .- अर आपविर्षे तौ तिष्ठे है, अर परद्रव्यते सर्व प्रकार रागके योगते विरक होय है। सो यह
रीति ज्ञानवैराग्यको शक्तीविना होय नाही। आगै इस काव्यका अर्थरूप गाया है। तहां कहे । -----Am मामाकरितो ऐसें जाने। गाथा-
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उदयवियागो विविहो कम्माणं यण्णिदो जिणवरेहिं । ण दु ते मज्झ सहावा जागागभावो दु अहमिको ॥६॥
उदयविपाको विविधः कर्मणां वर्णितो जिनवरैः।
न तु ते मम स्वभावाः ज्ञायकभावस्त्वहमेकः ॥६॥ ___ आत्मख्याति:-ये कर्मोदयविपाकप्रभया विविधा भावा न ते मम स्वभावाः । एष टंकोत्कोणकशायकस्वभावोहं।
कथं रागी न भवति सम्यग्दृष्टिरिति चत्
अर्थ-कर्मनिका उदयका विपाक कहिये रस है सो अनेकप्रकार जिनेश्वर देव कया है। तेज + कर्मविपाकतें भये भाव मेरा स्वभाव नाहीं है । मैं तो एक ज्ञायक स्वभाव स्वरूप हौं।
टीका-जे कर्मके उदयके रसते उपजे अनेक प्रकार भाव ते मेरा स्वभाव नाही हैं। मैं तो 卐 यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव हूं। ऐसें सामान्यकरि सर्व ही कर्मजन्य
भावनिकू सम्यम्दृष्टि पर जाने है । आपकू एक जाननेवाला ही जाने है, ऐसें सामान्यकरि जानना 9 भया । आगे कहे हैं, सम्यग्दृष्टि आप अर परकू विशेषकरि ऐसें जाने है । गाथा--
पुगग्लकम्मं कोहो तस्स विवागोदयो हवदि एसो। ण दु एस मज्झभावो जाणगभावो दु अहमिको ॥॥
पुद्गलकर्म क्रोधस्तस्य विपाकोदयो भवति एषः ।
नवेष मम भावः, ज्ञायकभावः खल्वहमेकः ॥७॥ आत्मरूयाति:-अस्ति किल रागो नाम पुद्गलकर्म तदुदयविपाकप्रभवोयं रागरूपो भावः, न पुनर्मम स्वभावः । ॥ एष टोत्कीर्णज्ञायकस्वभावोहं । एवमेव च रागपदपरिवर्तनेन द्वेषमोहक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्र___ चक्षुणिरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि, अनया दिशा अन्यान्यप्यूयानि । एवं च सम्यग्दृष्टिः स्वं जानन् रागं .. 卐 मुचंश्च नियमाज्ज्ञानवैराग्याभ्यां संपन्नो भवति ।
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___ अर्थ सम्यग्दृष्टि से जाने है, जो राग है सो पुद्गलकर्म है, ताका विपाकका उदय है, + प मेरे अनुभवमें रागरूप प्रीतिरूप आस्वाद होय है, सो है, सो यह मेरा भाव नाहीं है। जातें -
" निश्चयकरि मैं तो एक ज्ञायकभावस्वरूप हौं । 卐 टीका-निश्चयकरि राग नामा पुद्गलकर्म है, तिस पुद्गलकर्म के उदयके विपाककरि निपज्या 4
यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर रागरूप भाव है, सो यह मेरा स्वभाव नाहीं है, मैं तौ टंकोत्को एक + ज्ञायकभावस्वरूप हौं । ऐसें सम्यग्दृष्टि विशेषकर आपापरकू जाने है । इहां गाथामै परभावका ॥
नीचे लिखी एक गाथाकी आत्मख्याति संस्कृत और हिन्दो टीका उपलब्ध नहीं है इसलिये नहीं छापी गई । तात्पर्यत्ति टीका मिलती है वह छपी है ।
कह एस तुज्झ ण हवदि विविहो कम्मोदयफलविवागो। परदव्वाणुवओगो णदु देहो हवदि अण्णाणी ॥
कथमेष तव न भवति विविधः कर्मोदयफलविपाकः ।
परद्रव्याणामुपयोगो न तु देहो भवति अज्ञानी।। तात्पर्यवृत्तिः-कह एस तुम ण हवदि विविहो कम्मोदयफलविवागो कथसेप विविधकर्मोदयफलयिपाकस्तवरूपं । + न भवतीति केनापि पृष्टः तत्रोसरं ददाति परदवाणुवओगो निर्विकारपरमाहादैकलक्षणस्वशुद्धात्मद्रव्यात्प्रथग्भूतानि है
परद्रयाणि यानि कर्माणि जीवे लनानि तिष्ठन्ति तेषामुपयोग उदयोयं, औपाधिकस्फटिकस्य परीपाधिवत् । न केवलं " 9 भावक्रोधादि ममस्वरूपं न भवति, इति णदु देहो हबदि अग्गाणो देहोऽपि मम स्वरूपं न भवति हु स्कुट कस्मादिति ॥
चेत् , अज्ञानी जडस्वरूपो यतः कारणात् , अहं पुनः, अनन्तनानादिगुणस्वरूप इति । म अर्थ-किसीने सम्यग्दृष्टीसे प्रश्न किया कि-यह जो नाना कर्मों के उदयसे फलविपाक होता है 5
यह तेरा स्वरूप क्यों नहीं है तो उसका उत्तर यह है कि निर्विकार परमाह्लाद स्वरूप शुद्ध ..
आत्महत्यसें वे कर्मविपाक भिन्न हैं इसलिये वे मेरे स्वरूप नहीं है। यह ही नहीं किंतु यह जो " - मेरा केह-शरीर है वह भी अज्ञानी होनेके कारण ज्ञानस्वरूपी मुझसे सर्वथा भिन्न है।
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जज विशेष राग कहा है, तैसें ही रागकी जायगां पद पलटनेकरि द्वेष मोह क्रोध मान माया लोभ कर्म ,
नोकर्म मन वचन काय श्रोत्र चक्षु प्राण रसन स्पर्शन ए पद धरि सोलह सूत्र व्याख्यान करने । 卐 बहुरि इस ही उपदेशकरि अन्य भी क्विारणे । याप्रकार सम्यग्हष्टि आपकू जानता संता, बहुरि
रागकू छोडता संता, नियमते ज्ञानवैराग्यकरि युक्त होय है। आगे इस ही अर्थकू सृचती गाथा 卐 कहे हैं । गाथा
एवं सम्माइट्ठी अप्पाणं मुणदि जाणगसहावं । उदय कम्मविधागं च मुअदिलचं वियाणंतो॥८॥
एवं सम्यग्दृष्टिः आत्मानं जानाति ज्ञायकस्वभावं ।
उदयं कर्मविपाकं च मुंचति तत्त्वं विजानन् ॥८॥ आत्मख्याति:—एवं सम्यग्दृष्टिः सामान्येन विशेषेण च परस्वभावेभ्यो भावेभ्यो सर्वेन्योऽपि विविच्य टंकोल्कीर्णेक卐 शायकस्वभावमात्मनस्तत्त्वं विजानाति । तथा तवं विजानंच स्वपरभावोपादानापोहननिपाय स्वस्य वस्तुत्वं प्रथयन्
कर्मोदयविपाकप्रभवान् भावान् सर्वानपि मुञ्चति । ततोयं नियमात् ज्ञानवैराग्याभ्यां संपन्नो भवति । ___अर्थ-ऐसें सम्यग्दृष्टि आपकू ज्ञायकस्वभाव जाने है अर कर्मका उदयकू कर्मका विपाक जानि 1. ताकू छोडे है । कैसा भया संता ? तत्व कहिये वस्तूका यथार्थस्वरूप ताकू जानता संता प्रवर्ते है।
टीका-याप्रकार सम्यग्दृष्टि है सो सामान्यकरि तथा विशेषकरि सर्व ही परभावनितें भिन्न 卐 होयकरि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव स्वभावरूप आत्माका तत्वकू नीके जाने है। बहुरि तिस 5
प्रकार तत्त्वकू नीके जानता संता स्वभावका ग्रहण अर परभावका त्यागकरि निपजने योग्य जो 卐 अपना वस्तुपणा, ताहि विस्तारता फैलावता संता कर्मका उदयके विपाककरि निपजे जे भाव, .. तिनि सर्वनिकू छोडे है तातें यह सम्यन्दृष्टि नियमते ज्ञानवैराग्यकरि संयुक्त होय है, यह सिद्ध
भया।
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भावार्थ - जब आपकूं तो ज्ञायकभावस्वरूप सुखमय जाने, अर कर्मके उदयकरि भये भाव फ निकुं आकुलतारूप दुःख जाने तब ज्ञानरूप रहना, अर परभावनितें विरागता होय ही होय, यह 卐 प्रगट अनुभवगोचर है, यह ही सम्यग्दृष्टिका चिन्ह है। आगे कहे हैं जो ऐसें न होय अर परद्रव्यनितें आसक्ततारूप रागी होय, अर सम्यग्दृष्टिपणाका अभिमान करे है, सो काहेका सम्य卐 दृष्टि ? वृथा सम्यग्दृष्टिपणाका अभिमान करे है ऐलें काव्यमें कहे हैं ।
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मन्दाक्रान्ताछन्दः
सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं जातु बन्धो न मे स्यादित्युचानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु ।
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आलम्बन्तां समितियरतां ते यतोऽद्यापि पापा आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिक्ताः 118 卐 कथं रागी न भवति सम्यग्दृष्टिरिति चेत्
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अर्थ-जे पर द्रव्यके विषै रागद्वेषमोहभावकरि तौ संयुक्त हैं अर आपकूं ऐसें माने हैं, जो 5 मैं सम्यष्टि हौं, मेरे कदाचित् कर्मका बन्ध नाहीं होय है, शास्त्रमें सम्यग्दृष्टिकै बन्ध नाहीं का हैं, ऐसें मानिकरि उत्तान कहिये गर्वसहित उंचा किया है अर हर्ष सहित उत्पुलक कहिये 5 रोमांचरूप भया हे मुख जिनिका ऐसे हैं, ते महात्रतादि आचरण करो तथा समिति कहिये वचन विहार आहारकी क्रियाविषै यक्षतें प्रवर्तना, तिसकी परता कहिये उत्कृष्टता ताकूं भी 5 आलम्बन करौ, ते ऐसे प्रवर्तते भी पापी मिथ्यादृष्टि ही हैं । जातें आत्माका अनात्माका ज्ञानतें रहित है, तातें सम्यक् रीते हैं, तिनिकै सम्यकूत्व नाहीं है ।
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भावार्थ---जो आपकं सम्यग्दृष्टि माने अर परद्रव्यर्ते राग होय, तौ तार्क सम्यक्त्व काका ? 5 व्रतसमिति पाले तौऊ आपापरका ज्ञान विन्ना पापी ही है। अर आपके बन्ध न होना मानि स्वच्छन्द प्रवर्ते, तौ काहेका सम्यग्दृष्टि ? तातैं चारित्रमोहका राग बन्ध तौ यथाख्यातचारित्र 5 जेते न होय तेते होय ही है। सो जेते राग रहे तेते सम्यग्दृष्टि अपनी निंदा ग करता ही रहे है, ज्ञान होने मात्र तौं बन्धतें छटना नाहीं, ज्ञान भये पीछे तिसहीमें strरूप शुद्धurtney
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卐 चारित्र बन्धन कटे है । तातें राग छतै बन्ध न होना मानि स्वच्छन्द होना तो मिध्यादृष्टि ही समय है । इहां कोई पूछे व्रतसमिति तौ शुभकार्य हैं, तिनिकूं पालतें पापी क्यों कहै ? ताका समा- 5 धान - जो सिद्धांत में पाप मिथ्यात्वहीकूं कया है, जहां तांई मिथ्याल रहै, तहां तांई शुभ तथा अशुभ सर्वही किया अध्यात्मविषै परमार्थकरि पाप ही कहिये, अर व्यवहारनयकी प्रधानता में 5 व्यवहारी जीवनिकं अशुभ छुडाय शुभमें लगावनेकू कथंचित् पुण्य भी कहिये हैं, स्याद्वादमत5 विषै विरोध नाहीं ।
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बहुरि कोई पूछें परद्रव्यसू राग रहे जेते मिथ्यादृष्टि कहै, सो यानें समझें नाहीं, अविरत - 15 सम्यष्टि आदिकै चारित्रमोहका उदयतें रामादिभाव होय हैं, तार्के सम्यक्त्व कैसे है ? ताका समाधान---जो इहां मिथ्यात्वसहित अनन्तानुबन्धीका राग प्रधानकरि कया है । जातें आपापरका फ ज्ञान श्रद्धानविना परद्रव्य तथा तिसके निमित्ततें भये भाव, तिनिविषै आत्मबुद्धि होय तथा प्रीति अप्रीति होय तब जानिये याकै भेदज्ञान भया नाहीं । जो मुनिपद लेकर व्रतसमिति भी पाले 5 हैं, तहां परजीवनिकी रक्षा तथा शरीर सम्बन्धी यत्नतें प्रवर्तना अपने शुभभाव होना इत्यादि परद्रव्य सम्बन्धी भावनिकरि अपने मोक्ष होना माने, अर परजीवनिका घात होना अयनाचार 卐 प्रवर्तना अपना अशुभभाव होना इत्यादि परद्रव्यनिको क्रियाहीतें अपने बन्ध माने तेते 卐 卐 जानिये - पाकै आपापरका ज्ञान नाहीं भया । बन्ध मोक्ष तौ अपना ही भावनितें था परद्रव्य तौ यामैं विपर्यय मान्या । तातें ऐसें परद्रव्यहीर्ते भला बुरा मानि रागद्वेष करे 5
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निमित्तमात्र था, हैं, जेतें सम्यग्दृष्टि नाहीं है, अर जेतें चारित्रमोह सम्बन्धी रागादिक रहे हैं । तिनिङ्कं तथा
5 तिनिका प्रेरया परद्रव्य सम्बन्धी शुभाशुभ क्रियामें प्रवते है तिस प्रवृत्तिनिक ऐसें माने जो यह कर्मका जोर है, यातें निवृत्त भये मेरा भला है, तिनिकूं रोगवत् जाने है, पीडा न सही जाय तब तिनिका इलाज करनेरूप प्रवर्ते है । तौऊ तिनितें याकै राग न कहिये रोग मानें, तिनितैं काहेका राग ? तिसका मेटनेहीका उपाय करें। सो मेटना भी अपने ही ज्ञानपरिणाम
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" रूप परिणमनेते माने । ऐसें परमार्थ अध्यात्मदृष्टिकर इहा व्याख्यान जानना । 卐 मिथ्यात्व विना चारित्रमोहसम्बन्धी उदयका परिणामकू इहां राग न कह्या है। जाते है .. सम्यग्दृष्टिकै ज्ञानवैराग्यशक्ति अवश्य होनो कया है। तहां मिथ्यात्व सहित ही राग· राग कहे हैं, प्राभूष + सो सम्यग्दृष्टीके है नाही, अर मिथ्यावसहित राग होय सो सम्यग्दृष्टि नाहीं, ऐसा विशेष... 5 + सम्यग्दृष्टि हो जाने है। मिथ्यादृष्टिका अध्यात्मशास्त्र में प्रथम तौ प्रवेश नाहीं, अर जो प्रवेश करे,
तौ विपर्यय समझे है, व्यवहारकू सर्वथा छोडि भ्रष्ट होय है, अथवा निश्चयकूनीके नाहीं जानिक प्र व्यवहारहीते मोक्ष माने है, परमार्थतत्त्वविर्षे मूढ है। ताते यथार्थ स्याद्वादन्यायकरि सत्यार्थ
समझे सम्यक्त्वकी प्राप्ति होय है । आगे पूछे है कि, रागी सम्यग्दृष्टि कैसे न होय है ? ताका म उत्तर कहे हैं। गाथा
परमाणुमित्तियं पि हु रागादीणं तु विजदे जस्स। गवि सो जाणदि अप्पा गयं तु सवागमधरोवि ॥९॥ अप्पाणमयाणंतो अणप्पयं चेव सो अयाणतो। कह होदि सम्मदिट्टी जीवाजीवे अयाणंतो॥१०॥ युम्म।
परमाणुमात्रमपि खलु रोगादीनां तु विद्यते यस्य । नापि स जानात्यात्मानं सर्वागमधरोऽपि ॥९॥ आत्मानमजानन् अनात्मानमपि सोऽजानन् ।
कथं भवति सम्यग्दृष्टिर्जीवाजीवावजानन् ॥१०॥ आत्मरूपातिः-यस्प रागाद्यज्ञानभावानां लेशतोऽपि विद्यते सद्भावः, भवतु स श्रुतकेवलिसदृशोऽपि तथापि । ज्ञानमयभाषानामभावेन न जानात्यात्मानं | पस्त्वात्मानं न जानाति सोऽनात्मानमपि न जानाति स्वरूपपररूपसपासचा. 4
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म्याकस्य वस्तुनी निश्चीयमानत्वात् । ततो व जालानात्मानी सानाति स जीपाजीची म बानाति । वस्तु जोषा-
जीवौ म जानाति स सम्यग्दृष्टिरेव न भवति । ततो रागी भानाभावान्न भवति सम्यग्दृष्टिः। 5 अर्थ-निश्चयकरि जिस जीवकै रागादिकना परमाणुमार काहिये देशमान अंशमात्र भी वर्ते है प्राम
सो जीव सर्व आगमका धारी होय-सर्व शास्त्र पढथा होय, तौऊ आत्माकू नाहीं जाने है। बहुरि । ा आत्माकू नाहीं जानता संता अनात्मा जो पर, ताकू भी नाहीं जाने है, बहुरि आत्मा अनात्मा 1. नाहीं जानता संता जीव अजीव पदार्थकू भी नाही जाने है, बहुरि जो जीवकू नाहीं जाने " सो सम्यग्दृष्टि कैसे होय ! 卐 टीका-जिस जीवके अज्ञानमय जे रागादिकभाव, तिनिका लेशमात्रका भी सद्भाव है सो 卐
जीव श्रुतकेवली सरीखा भी होय तौऊ ज्ञानमयभावका अभावत आत्माकू नाहीं जाने है। वहुरि जो अपने आत्माकू नाहीं जाने है सो अनात्माकू भी नाहीं जाने है। जातें अपना का
स्वरूप अर परका स्वरूपका सत्व अर असत्त्व दोऊ एक ही वस्तुका निश्चयमें आय जाय है, का तातें ऐसा है-जो आत्माकू अर अनात्मा दोऊक नाहीं जाने है सो जीव अजीव वस्तूकू
ही नाहीं जाने है, जीव अजीवकू नाहीं जाने है, सो सम्यग्दृष्टि नाहीं है । तातें रागी है सो
ज्ञानका अभावतें सम्यग्दृष्टि नाही है। 卐 भावार्थ-इहां रागी कहनेकरि अज्ञानमय राग द्वेष मोह भाव लिये तहां अज्ञानमय कहने- 4
करि मिथ्यात्व अनंतानुबंधीतें भये रागादिक लेने । मिथ्यात्वविना चारित्रमोहका उदयका राग न लेना । जाते अविरतसम्यग्दृष्टि आदिके चारित्रमोहके उदयसंबंधी राग है, सो ज्ञानसहित है, : ताकू रोगवत् जाने है, तिस रागसू याकै राग नाहीं है, कर्मोदयतें राग भया है, ताकू मेटया - चाहे है । बहुरि रागका लेशमात्र भी याको अभाव कहा, सो ज्ञानीकै अशुभराग तो अत्यंत गौण " ३२ है। बहुरि शुभराग होय है, सो सर्वशास्त्र पढि जाय, मुनि होय, व्यवहारचारित्र भी पाले, अर तिस शुभरागकू भला जानि लेशमात्र भी तिस रागसू राग करे, तो जानिये-याने अपना
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आत्माका परमार्थस्वरूप जान्या नाहीं । कर्मोदयजन्ति भावकूं भला जान्या । तिसतें उत्पना
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समय मोक्ष होना मान्या । ऐसें मानते अज्ञानी ही है। आपका परका परमार्थरूपकूं न जान्या । तब 5 जानिये जीव अजीव पदार्थका भी परमार्थरूप न जान्या । तब जो जीव अजीवकूं ही न जान्या, सब काका सम्यग्दृष्टि ऐसें जानना । अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं। तामेँ जे रागी 卐 5 प्राणी अनादितें रागादिककू अपना पद जाने हैं, सिन्हि उपदेश करे हैं।
मन्दाक्रान्ताछन्दः
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आसंसारात्प्रतिपदममी रागिणो नित्यमचाः सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्धि बुध्यध्वमन्वाः ।
एतैतः पदमिदमिदं यत्र चैतन्यधातुः शुद्धः शुद्धः स्त्ररसभरतः स्थायिभावत्वमेति || ६ ||
किं तत्पदम् ?
अर्थ संसारी भव्यप्राणीकूं श्रीगुरु संबोधे है। जो हे अंधे प्राणी हौ, ए रागी पुरुष हैं, ते
अनादि संसार लगाय जिस पदविष सोते हैं-निद्रामैं मग्न हैं, तिस पदकूं तुम अपद जानो अपद 5 जानो, यह तुमारा ठिकाना नाहीं । इहां दोय वारंवार कहनेतें अतिकरुणाभाव सूचे है । फेरि कहे हैं जो तुमारा ठिकाना यह है यह है। जहां चैतन्य धातु शुद्ध है शुद्ध है । अपने स्वाभा 15 विकरसके समूहतें स्थायीभावपणाकू प्राप्त है । इहां दोय शुद्धपद हैं, सो द्रव्य अर भाव दोऊकी शुद्धता अर्थ हैं । सो सर्व अन्यद्रव्यनित न्यारा, सो तौ द्रव्यशुद्धता है । अर परनिमित्ततें भये 5 अपने भाव तिति रहित भाव शुद्ध कहिये । सो इतः कहिये इस तरफ आवो इस तरफ आवो15 इहां निवास करौ ।
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भावार्थ - प्राणी अनादि संसारत लगाय रागादिककूं भला जाणि, तिनिहीकूं अपना स्वभाव मानि, तिनिहीविषै निश्चित तिष्ठे हैं-सोवे हैं । तिनिकं श्री गुरु दयालु होय संबोधे —जगावे है- सावधान करे है। जो हे अंधे प्राणी हो, तुम जिस पदवियें सोचौ हौ, सो
पद नाही है, सारा पद तौ चैतन्यस्वरूपमय है, तिसकूं प्राप्त होऊ, ऐसें सावधान करे है।
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जसे कोई महंत पुरुष मद पीयकरि मलिन जायगा सोता होय ताकू कोई ही आय जगावे कहे । जहे-तेरी जायगा तौ सुवर्णमय धातूकी अतिदृढ शुद्ध सुवर्णत रची अर बाध कजोडाकरि रहित है.
.. शुद्ध करी ऐसी है। सो हम बताते हैं, ताँ आव, तहां शयनादि करि आनंदरूप होऊ । तैसे इहां २६ । भी श्रीगुरु उपदेश कर सावधान किया है, जो बाह्य तौ अन्य व्यनिका मिलाप नाहीं अर' 15 अतरंग विकार नाहीं ऐसा शुद्ध चैतन्यरूप अपना भावका आश्रय करौ । दोय दोय वार कहने
करि अतिकरुणा अनुराग सूचे है। आगे पूछे है, जो हे श्रीगुरो, तुम बताओ सो पद कहा है? म 卐 ताका उत्तर कहे हैं। गाथा--
आदमि दव्वभावे अथिरे मोराण मिसह सब मियदं। थिरमेगमिमं भावं उबलंब्भतं सहावेण ॥११॥
आत्मनि द्रव्यभावान्यस्थिराणि मुक्त्वा गृहाण तव नियतं ।
स्थिरमेकमिमं भावं उपलभ्यमानं स्वभावेन ॥११॥ आत्मरूपातिः-इह खल भगवत्यात्मनि बहूनां द्रव्यभावानां मध्ये ये किल, अतत्स्वभावेनोपलभ्यमानाः, अनियतत्वावस्थाः, अनेके, क्षणिकाः, न्यभिचारिणो भावाः, ते सर्वेऽपि स्वयमस्थायित्वेन स्थातुः स्थानं भवितुमशक्यत्वात् , अपदभूताः । यस्तु तत्स्वभावेनोफ्लभ्यमानः, नियतत्त्वावस्था, एकः, नित्यः, अन्यभिचारी भावः, स एक एव स्वयं स्थायित्वेन स्थानं भवितुं शक्यत्वान पदभूतः । ततः सर्वानेवास्थायिभावान मुक्त्वा स्थायिभावभूतं, परमार्थरसतया स्वदमानं ज्ञानमेकमेवेदं स्वायं । __अर्थ आत्माविषं बहुत भाव हैं, तिनिमें परनिमित्ततें भये ते आत्माके भाव नाही ते अपद - हैं, तिनिळू द्रव्यरूप अर भावरूपकू सर्वहीकू छोडिकरि जो निश्चित थिर एक अपने स्वभाव हीम करि ग्रहण होता यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर चैतन्यमात्र भाव है, सो अपना पन है, ताहि भो भव्य -
तू जैसाका तैसा ग्रहण करि । 9 टीका निश्चयकार इस भगवान् आत्माविर्षे द्रव्यभावस्वरूप वहुत भाव दीखेहैं । तिनिमें ,
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" केई तिस आत्माके स्वभावरहित हैं, ते अनियत कहिये अनिश्चित अवस्था रूप हैं, अनेक हैं, क्षणिक । 卐 हैं, व्यभिचारी हैं, ऐसे भाव हैं ते सर्व ही आप अस्थायी हैं, ठहरनेका जिनिका स्वभाव नाहीं।
तातें तिष्ठनेवाला आत्मा, ताके तिष्ठनेका ठिकाना स्थान होनेकू योग्य नाहीं ताते ते अपदभूत के हैं। बहुरि जो भाव आत्मस्वभावकरि तौ ग्रहणमें आवे है, बहुरि नियतावस्था है, सदा निश्चित ॥ - रहे है, बहुरि एक है, बहुरि नित्य है, बहुरि अव्यभिचारी है ऐसा एक चैतन्यमात्र ज्ञानभाव है। ..
सो आप स्थायीभावस्वरूप है, सदा विद्यमान पाइये है, सो तिष्ठनेवाला जो आत्मा ताका 4. तिष्ठनेका स्थान होनेकू योग्य है, ताते यह भाव पदभूत है। ताते सर्व ही जे अस्थायीभाव तिनि- -
कू छोडिकरि स्थायीभूत परमार्थ रसपणाकरि स्वादमें आवता यह ज्ञान है सो ही एक आस्वादने 卐 योग्य है।
भावार्थ-पूर्व वर्णादिक गुणस्थानान्त भाव कहे थे, ते तो सर्व ही आत्मावि अनियत अनेक क्षणिक व्यभिचारी ऐसे भाव हैं, ते आत्माके पद नाहीं । बहुरि यह स्वसंवेदन स्वरूप ज्ञान है म सो नियत है, एक है, नित्य है, अव्यभिचारी है, स्थायीभाव है सो आत्माका पद है, सो ज्ञानो- निकरि यह ही एक स्वाद लेनेयोग्य है । अब इस अर्थका कलशरूप श्लोक कहे हैं।
एकमेव हि तत्स्वाद्यं विपदामपदं पदम् । अपदान्येव भासन्ते पदान्यन्यानि यत्पुरः ॥८॥
अर्थ-सी ही एक पद आस्वादने योग्य है । कैसा है ? विपद जो आपदा तिनिका पद नाहीं॥ .. है, जिस पदमें किछू भी आपदा प्रवेश नाहीं करे है। जाके आगे अन्य सर्व ही पद हैं ते अपद .. प्रतिभासे हैं।
भावार्थ-एक ज्ञान ही आत्माका पद है, यामैं किछू भी आपदा नाही, याके आगे अन्य " सर्व ही पद आपदास्वरूप आकुलतामय अपद भासे हैं । फेरि कहे हैं, जो आत्मा ज्ञानका अनुभव । 45 करे है, तब ऐसे करे है
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शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः एकं ज्ञायकभावनिर्भरमहास्वाद समासादयन् स्वाद द्वन्द्वमयं विधातुमसहः स्वां वस्तुवृत्ति विदन ॥
आत्मात्मानुभवानुभावविवशो अश्यद्विशेपोदयं सामान्यं कलयन् किलैप सकलं ज्ञानं नयत्येकताम् ॥८॥ अर्थ-यह आत्मा है सो ज्ञानके विशेषनिका उदयकू गौण करता संता सामान्यज्ञानमात्र अभ्यास करता संता समस्तज्ञानक एक भावकू प्राप्त करे है। कैसा भया संता ? सो कहे हैं, एक ज्ञायकमात्र भावकार भरथा जो ज्ञानका महास्वाद ताकू लेता संता है। बहुरि कैसा है ? द्वंद्वमय जो वर्णादिक रागादिक तथा क्षायोपशमरूप ज्ञानके भेदरूप स्वाद, ताहि करनेवू लेने असमर्थ है, ज्ञान ही में एकाग्र होय तव दूजा स्वाद नाहीं आवे । बहुरि कैसा है ? अपनी जो वस्तूकी प्रवृत्ति ताहि जानता है, आस्वाद करता है। जातें कैसा है ? आत्माका जो अनुभव.5 आस्वाद, ताके प्रभाव करि विवश है, तिसही स्वादके आधीन है-तहांत :चिगनेकू: असमर्थ है। अद्वितीय स्वाद लेता बाहरि काहेकू आवै । ___भावार्थ-इस एक स्वरूपज्ञानके रसीले स्वाद आगै अन्य रस फीके हैं । अर भेदभाव-सब मिटि जाय हैं। ज्ञानके विशेष ज्ञेयके निमित्ततें हैं। सो जब ज्ञानसामान्यका स्वाद ले तब सर्व- शानके भेद भी गौण होय जाय हैं। एक ज्ञान ही शेयरूप होय है। इहां कोई पूछे, छयस्थक पूर्णरूप केवलज्ञानका स्वाद कैसा आवै ? ताका उत्तर तौ पूर्व कथन शुद्धनयका किया तहां हो .. भया । जो शुद्धनय आत्माका शुख पूर्णरूप जनावे है, सो इस नयके द्वारे पूर्णरूप केवलज्ञानका का परोक्ष स्वाद आवे है ऐसें जानना । आगै इस ही अर्थरूप गाथा कहे हैं। जो कर्मके क्षयोपशमके निमिसते ज्ञानमें भेद हैं । जब ज्ञानस्वरूप विचारिये, तब एक ही है ॥ गाथा
आभिणिसुदोहिमणकेवलं च तं होदि एकमेव पदं। सो एसो परमट्टो जं लहिदुं णिन्वुदि जादि ॥१२॥
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आभिनिबोधिकश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलं च तद्भवत्येकमेव पदं ।
स एव परमार्थः, यं लब्ध्वा नितिं याति ॥१२॥ आत्मख्याति:-आत्मा किल परमार्थः तत्तु ज्ञानं, आत्मा च एक एव पदार्थः, ततो ज्ञानमप्येकमेव पदं यदेतत्तु । + झानं नामकं पदं स एप परमाः साक्षाकोदोमायः । गाभिनितोशिकादयो भेदा इदमेक पदमिह भिदंति ? कि त.
तेपीदमेबैक पदमभिनंदति । तथाहि--यथात्र सचितुर्धनपटलावगुठितस्य तद्विघटनानुसारेण प्राकट्यमासादयतः प्रकाशा 卐 नातिशयभेदा न तस्य प्रकाशस्वभाव मिदंति । तथा, आत्मनः कर्मपटलादयावगुठितस्य तद्विघटनानुसारेण प्राकट्य- ।।
मासादयतो ज्ञानातिशयभेदा न तस्य ज्ञानस्वभावं भिंधुः । किंतु प्रत्युतमभिनंदयुः । ततो निरस्तसमस्तभेदमात्मस्व." 卐 भावभूतं ज्ञानमेवैकमालम्ब्यं तदालंबनादेव भवति पदप्राप्तिः । नश्यति भ्रांतिः। भवत्यात्मलाभः । सिद्धत्यनात्मपरिहारः,
न कर्म मूर्छति । न रागद्वेषमोहा उत्प्लवंते । न पुनः कर्म आस्रवति । न पुनः कर्म बध्यते । प्रागबद्ध कर्म, उपभुक्त' । फ्र निर्जीयते । कृत्स्नकर्माभावात् साक्षान्मोक्षी भवति।। म अर्थ-आभिनिबोधिक कहिये मतिज्ञान अर श्रुतज्ञान अवधिज्ञान मनापर्ययज्ञान केवलज्ञान -
ए ज्ञानके भेद हैं ते एक ज्ञान ही पदकू प्राप्त हैं-सर्व ही एक ज्ञान नाम है, सो यह परमार्थ फ़ है, शुद्धनयका विषयस्वरूप ज्ञानसामान्य है, तथा यह ही शुद्ध नय है, जिसकू पायकरि आत्मा ..
निर्वाण पदकू प्राप्त होय है। 卐 टीका-निश्चय करि आत्मा है सो परमपदार्थ है। सो आत्मा पर्वोक्त ज्ञान है। बहरि - आत्मा है सो एक ही पदार्थ है । तातें ज्ञान भी एक ही पदकू प्राप्त है। बहुरि जो यह ज्ञान
नामा एक पद है, सो परमार्थस्वरूप साक्षात् मोक्षका उपाय है । बहुरि मतिज्ञानादि ज्ञानके म के भेद हैं ते तिस ज्ञाननामा एक पदकू भेदरूप नाहीं करे हैं-ज्ञानरूपके भेद नाहीं करे हैं, तो ...
एकट्ठा करे हैं, इस एक ज्ञान नामा पदहीकं वृद्धिरूप प्रगट करि प्रकाशे हैं। सो ही कहे हैजैसे इस लोकमें बादलेकरि संकोचरूप आच्छादित जो सूर्य, ताके तिस बादलेके विघटनेके 1------
सोने का दीनाधिकके भेद ते सिमके।
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5 प्रकाशरूप सामान्य स्वभावकू भेदे नाहीं हैं। तैसे कर्मके पटलका उदयकरि संकोच्या आच्छादित ॥
जो आत्मा, ताके तिस कर्मका विघटन जो क्षयोपशम, ताके अनुसार करि प्रगटपणाकू प्राप्त होताकै ज्ञानके हीनाधिकके भेद हैं, ते तिस आत्माके सामान्यज्ञान स्वभावकू नाही भेदे हैं, तो 卐 कहा करे है ? उलटा प्रकाशरूप प्रगट ही करे हैं। तातें दूर भये हैं समस्त भेव जामें ऐसा - आत्माका स्वभावभूत जो ज्ञान, तिसहीकू एककू आलंबन करना । तिस ज्ञानके आलंबनहोते " निजपदको प्राप्ति होय है । बहुरि तिसहीत भ्रांतीका नाश होय है। बहुरि तिसहीतें आत्माका है
लाभ होय है । अनात्माका परिहारकी सिद्धि होय है। ऐसे होतें कर्मका उदयकी मूर्छा नाहीं । होय है, राग द्वेष मोह नाहीं उपजे हैं, राग द्वेष मोह विना फेरि कर्मका आस्रव नाहीं होय है, 卐
आस्रव न होय तब फेरि कर्मकू नाहीं बंधे है, पूर्वे बांधे थे जे कर्म, ते भोगे हुये निर्जराकू प्राप्त ।।
होय हैं समस्त कर्मका अभाव होय करि साक्षात् मोक्ष होय है। ऐसा ज्ञानके आलंबनका । 卐 माहाल्य है।
___भावार्थ-ज्ञानमें कर्मके क्षयोपशमके अनुसार भेद भये हैं। ते किछु ज्ञानसामान्यकू तौ के अज्ञानरूप नाहीं करे है। उलटा ज्ञानकुं प्रगट ही करे हैं । तातें भेदनिकू गौण करि एक ज्ञान
'सामान्यका आलंबन ले आत्माकू ध्यावना, यातें सर्वसिद्धि होय है। अब इस अर्थका कलशरूप " काव्य कहे हैं।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः अच्छाच्छाः स्वयमुच्छलन्ति यदिमाः संवेदनव्यक्तयो निष्फीताखिलभावमण्डलरसप्राग्भारमचा इव । म यस्याभिन्नरसः स एष भगवानेकोऽप्यनेकीमवन् वलगत्युत्कलिकाभिरद्भुतनिधिश्चैतन्यरलाकरः ॥६॥
अर्थ-जिस आत्माकी जो ए संवेदनकी व्यक्ति कहिये अनुभवमें आवत ज्ञानके भेद हैं, ते 卐 निर्मलतें निर्मल आपै आप उछले हैं प्रगट अनुभवमें आवे हैं। कैसी हैं ते? निष्पीत कहिये । .. पीया जो समस्तपदार्थनिका समूहरूप रस, ताका प्राग्भार कहिये बहुतभार ताकरि मान्मांती
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ही हैं। सो यह भगवान् चैतन्यरूप रक्षाकर समुद्र, सो उठती जे लहरी तिनिकरि आप अभिन्न रस जाका ऐसा एक है । तौऊ अनेकरूप होता दोलायमान प्रवतें है । कैसा है ? अद्भुत निधि जाका ।
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वहुत रत्ननिकरि भरया होय है, सो एक जलकरि भरया है, 5 तौऊ तामैं निर्मल छोटो बडो अनेक लहरो उठे हैं, ते सर्व एक जलरूप ही हैं । तैसा यह आत्मा ज्ञानसमुद्र सो एक ही है, या अनेक गुण हैं अर कर्मके निमित्ततें ज्ञानके अनेक भेद आपआप फ व्यक्तिरूप होय प्रगट होय हैं, ते व्यक्ति एकज्ञानरूप ही जाननी - खंडखंडरूप नाहीं अनुभव करनी । अव और विशेषकर कहे हैं । 卐
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शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः
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किं व– क्लिश्यन्तां स्वयमेत्र दुस्करतरमाशोन्मुखः कर्मभिः क्लिश्यन्तां च परे महाव्रतपोभारेण भग्नाश्विरम् ।
साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तु ं क्षमन्ते न हि ॥ १०॥
अर्थ — केई तो कठिन दुःखकरि करे जाय ऐसे मोक्षतें पराङ्मुख कर्म तिनिकरि स्वयमेव जिनाज्ञाविना क्लेश करो, अर केई पर कहिये मोक्षके सन्मुख कथंचित् जिनाशामैं कहे ऐसे महा- 卐
5 व्रत तथा तपके भारकरि बहुतकालपर्यंत भग्न भये पीडित भये कर्मनिकर क्लेश करो, तिनि
कर्मतेिं तो मोक्ष होय नाहीं । जातें यह ज्ञान है, सो साक्षात् मोक्षस्वरूप है अर निरामय पद 5 है - जामैं किछू रोगादिकका क्लेश नाहीं है अर आपही करि आप वेदनेयोग्य है। सो ऐसा ज्ञान तौ ज्ञानगुणविना कोई ही प्रकारके कष्टकर पावनेकूं समर्थ न हृजिये है ।
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णाणगुणेहिं विहीणा एवं तु पदं वह्नवि ख लहंति ।
तंगिए सपनमेनं जनि इसि कस्मपरिमोक्खं ॥१३॥
भावार्थ - ज्ञान है सो साक्षात् मोक्ष है, सो ज्ञानहीतें पाइये है। अन्य किछू क्रियाकर्मकांडतें 5 न पाइये है । आगे इस अर्थरूप उपदेश करे हैं। गाथा
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ज्ञानगुणैविहीना एतत्तु पदं बहवोऽपि न लभते ।
तद् गृहाण सुपदमिदं यदीच्छसि कर्मपरिमोक्षं ॥१३॥ ___ आत्मख्याति:-यतो हि सकलेनापि कर्मणा कर्मणि ज्ञानस्याप्रकाशनाद शानस्यानुपलंभः । केवलेन झानेनैव धान 1 एव ज्ञानस्य प्रकाशनाद् ज्ञानस्योपलंभः । ततो बहवोऽपि बहुनापि कर्मणा शानशून्या नेदमुपलभते । इदमनुपलभमानाश्च ॥ 1- कर्मभिर्विप्रमुच्यते ततः कर्ममोक्षार्थिना केवलज्ञानावष्टंभेन नियतमेवेदमेकं पदमुपलभनीयं ।
__ अर्थ-हे भव्य ! जो तू काका तारलाणे गोक्ष जिला चाहे है, तौ तिस ज्ञानकू नियमकरिक 卐 निश्चित ग्रहण करि । जातें ज्ञानगुणकरि जे रहित हैं, ते बहुत भी हैं-बहुत प्रकार कर्म करे हैं,
सौऊ इस ज्ञानस्वरूप पदकू नाहीं प्राप्त होय हैं। 5 टीका-जातें समस्त ही कर्मके विर्षे ज्ञानका प्रकाशना नाहीं है, तातें ज्ञानका उपलंभ; .. कहिये पावना, सो कर्मकरि नाहीं होय है। केवल एक ज्ञानही करि ज्ञानके विर्षे ज्ञानका प्रकाशना " है, तातें ज्ञानही करि ज्ञानका पावना होय है । तातें बहुत भी प्राणी ज्ञानकरि शून्य हैं, ते बहुत
प्रकार कर्मकरि यह ज्ञानका पद नाहीं पाये हैं बहुरि इस पदकू नाहीं पावते संते कर्मनिकरि नाहीं " छुटे हैं । तातें जो कर्म के मोक्ष करनेका अर्थी है, ताकरि केवल एक ज्ञानहीका अक्लंबन कर 卐 निश्चित इस ही एकपदकू प्राप्त होना।
भावार्थ-ज्ञानही मोक्ष है, कर्मत नाहीं है । तातें मोक्षार्थीकू ज्ञानहीका ध्यान करना यह 卐 उपदेश है। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
द्रुतविलम्बितच्छन्दः 9 पदमिदं ननु कर्मदुरासदं सहजयोधकलामुलभं किल । तव इदं निजबोधकलावलात्कलयितुं यतवां सततं जगत् ॥११॥ र अर्थ-अहो भव्यजीवहो; यह ज्ञानमय पद है सो कर्मकरि तौ दुष्प्राप्य है, बहुरि स्वाभाविक " ज्ञानकी कलाकरि सुलभ है, यह प्रगटकरि निश्चय जाणे । साते अपने निजज्ञानकी कलाके बलतें - 卐 इस ज्ञानका अभ्यास करनेकू समस्त जगत् अभ्यासका यत्न फरौ।
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भावार्यसकलकर्मकू छुडाय ज्ञानका अभ्यास करनेका उपदेश किया है। बहुरि ज्ञानकी म 15 कला कहनेकरि ऐसा सूचे है, जो जेतें पूर्णकला प्रगट न होय, तेते ज्ञान है सो हीनकलास्वरूप "है-मतिज्ञानादिरूप है । तिस ज्ञानकी कलाके अभ्यासतें पूर्णकला जो केवलज्ञान संपूर्णकला सो प्राभूत म प्रगट होय है । आगै फेरि इस ही उपदेशकू प्रगट विशेषकर कहे हैं । गाथा
एदहमि रदो णिचं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदमि । एदेण होहि तित्तो तो होहदि उत्तमं सोक्खं ॥१४॥
एतस्मिन रतो नित्यं संतुष्टो भव नित्यमेतस्मिन् ।
एतेन भव तृप्तः तर्हि भविष्यति तवोत्तमं सौख्यं ॥१४॥ आत्मख्यातिः--एतावानेव सत्य आत्मा यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्र एव नित्यमेव रतिमुपैहि । 9 एतावत्येव सत्याशीः, यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य झानमात्रेणेव नित्यमेव संतोषमुपैहि । एतावदेव सत्यमनुभवनीयं + ... यावदेव ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्रेणैव नित्यमेव तृप्तिमुपैहि । अथैवं तव तन्नित्यमेवात्मरतस्य, आत्मसंतुष्टस्य, + आत्महप्तस्य च वाचामगोचरं सौख्यं भविष्यति । तत्तु तत्क्षण एव त्वमेव स्ववमेव द्रक्ष्यसि मा अन्यान् प्राक्षीः। ॥ । अर्थ-भो भव्य प्राणी ! तू इस ज्ञानविर्षे नित्य सदाकाल रत होउ-रुचिरूप लीन होऊ ।
बहुरि इसही विर्षे नित्य संतुष्ट होऊ, अन्य किछू कल्याणकारी है नाहीं । बहुरि इसही विर्षे तृप्त । प होऊ अन्य किछू चाहि रहे नाहों ऐसा अनुभव करि । ऐसे किये तेरे उत्तम सुख होयगा।
टीका--हे भव्य ! एतावन्मात्र ही सत्य परमार्थस्वरूप आत्मा है, जेता यह ज्ञान है। ऐसा फ़ निश्चय करिके ज्ञानमात्र ही आत्मावि निरंतर रति प्रीति रुचिकू प्राप्त होऊ । बहुरि एतावन्मात्र ॥ .. ही सत्यार्थ कल्याण है, जेता यह ज्ञान है। ऐसा निश्चय करिके ज्ञानमात्र ही आत्माकर नित्य
ही संतोष प्राप्त होऊ, नित्य ही तृप्तिकू प्राप्त होऊ । बहुरि पतावन्मात्र ही सत्यार्थ अनुभवन , - करने योग्य है, जेता यह ज्ञान है, ऐसा निश्चय करिके ज्ञानमात्र ही आत्माकरि नित्य ही तृप्तिरज
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प्राप्त होऊ । ऐले यि ही आसालि रन, शात्यायि संतुष्ट, आत्मावि तृप्त जो तू, ताके "ऐसे निरंतर होने लगता हो वचनके अगोचर नित्य उत्तम सुख होयगा । तिस सुखकूतिस ही 卐 काल स्वयमेव ही देखेगा । अन्यकू मति पूछ, यह सुख आपके अनुभवगोचर ही है, परकू काहेदूं
___प्राभूत
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5 भावार्थ-ज्ञानमात्र आत्माविर्षे लीन होना याहीते संतुष्ट रहना याहीते तृप्त होना यह ॥ - परमध्यान है, याहीते वर्तमान आनन्दरूप होय है, अर लगता हो सम्पूर्ण ज्ञानानंदस्वरूप केवल "ज्ञानकी प्राप्ति होय है। इस सुखकू ऐसे करनेवाला ही जाने है। अन्यका यामैं प्रवेश नाहीं। 5 卐 अब इसकी महिमाकू अगिले कथनकी सूचनारूप कलशरूप काव्य कहे हैं।
उपजातिच्छन्दः अचिन्त्यशक्तिः स्ववमेव देवश्चिमात्रचिन्तामणिरेव यस्मात् ।
सर्वार्थसिद्धात्मतया विधचे शानी किमन्यस्य परिग्रहेण ॥१२॥
कुतो ज्ञानी न परं गृह्णाति इति थेव+ अर्थ-जाते यह चैतन्यमात्र ही है चिन्तामणि जाके ऐसा ज्ञानी है। तो स्वयमेव आप देव "है। कैसा है ? अचिन्त्य कहिये काहूके चितवनमें न आवै ऐसी है शक्ति जामें । सो ऐसा ज्ञानी 卐 सर्व प्रयोजन जाके सिद्ध हैं। ऐसे स्वरूप भया अन्यके परिग्रह करि कहा करे ? किछू ही फ़ ... करना नहीं। + भावार्थ-यह ज्ञानमूर्ति आत्मा अनंतशक्तिका धारक वांछित कार्यकी सिद्धि करनेवाला आप जही देव है । तातें सर्व प्रयोजनके सिद्धपणाकरि ज्ञानीके अन्य परिग्रहके सेवनेकरि कहा साध्य +
है ! यह निश्चयनयका उपदेश जानू । आगे पूछे हैं, जो ज्ञानी परकू काहेते नाही परिग्रहण 卐 करे है ? ताका उत्तर कहे है। गाथा
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को ग्राम भणिज्ज हो परदव्वं मममिदं हवदि दव्वं । अप्पाणमप्पणी परिग्गहं तु णियदं वियाणंतो ॥ १५ ॥ को नाम भद् बुधः परद्रव्यं ममेदं भवति द्रव्यं । आत्मानमात्मनः परिग्रहं तु नियतं विजानन् ॥१५॥
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आत्मख्यातिः - यतो हि ज्ञानी योहि यस्य स्वो भावः स तस्य स्त्रः सतस्य स्वामीति खरतरतच्चवष्टंभात्, आत्मानमात्मनः परिग्रहं तु नियमेन जानाति । ततो न ममेदं स्वं नाहमस्य स्वामी इति परद्रव्यं न परिगृहाति । 卐 अतोहमपि न तत्परिगृह्णामि ।
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अर्थ - ज्ञानी पंडित है सो ऐसा कौन है ? जो यह परद्रव्य है सो मेरा द्रव्य है ऐसे कहे। 5 ज्ञानी तौ न कहे। कैसा है ज्ञानी पंडित ? अपना आत्मा हीकूं नियमकरि अपना परिग्रह जानता 卐 卐 संता प्रवर्ते है ।
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टीका - जातें जो ज्ञानी है सो नियमकरि ऐसे जाने है जो जाका स्वभाव है, सोही ताका फ
स्व है, धन है, द्रव्य है । वहुरि तिसही स्वभावरूप द्रव्यका वह स्वामी है । ऐसें सूक्ष्म तीक्ष्ण 卐 卐 तदृष्टिरि अवलंबतें, आत्माका परिग्रह अपना आत्मस्वभाव ही है ऐसें जाने है । तातें पर
15 द्रव्यकूं ऐसा जाने है जो यह मेरा स्व नाही, मैं याका स्वामी नाही, यातें परद्रव्यकूं अपना क
परिग्रह नाहीं करे । तातें मैं भी ज्ञानी हौं । सो परद्रव्यकूं नाहीं ग्रहण करो हौं ।
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भावार्थ - लोकमें यह रीति है, जो समझवार स्थाणा मनुष्य है, सो परकी वस्तुकं अपनी
नाही जाने, ताकूं ग्रहण करे नाहीं । तैसे ही परमार्थ ज्ञानी अपना स्वभावहीकूं अपना धन जाने, 卐 卐 परका भावकू अपना जाने नाही, ताकू ग्रहण न करे है। ऐसा ज्ञानी है सो परका ग्रहण सेवन 45 नाही करे है। आगे इसही अर्थ युक्तिकरि दृढ करे हैं। गाथा
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मज्झं परिग्गहो जदि तदो अहमजीविदं तु गच्छेज । णादेव अहं जह्मा तह्मा ण परिग्गहो मज्झ ॥१६॥
मम परिग्रहो यदि तताहऽमजीवतां तु गच्छेयं ।
ज्ञातैवाहं यस्मात्तस्मान्न परिग्रहो मम ॥१६॥ आत्मख्यातिः-यदि परद्रग्यमहं परिगण्हीसं तदावश्यमेवाजीवो ममासो स्वः स्यात् । अहमप्यवश्यमेवाजीव- 卐 1- स्यामुण्य स्वामी स्यां। अजीवस्य तु यः स्वामी स किलाजीवः । एवमवशेनापि मगाजीवत्वमापद्येत । मम तु एको गायक एवं भावः, यः स्वः, अस्यैवाहं स्वामी, नतो माभून्ममाजीवत्वं ज्ञातवाहं भविष्यामि, न परद्रव्यं परिगण्हामि, 卐 अयं च मे निश्चयः।
अर्थ-ज्ञानी ऐसे जाने है, जो मेरे परद्रव्य परिग्रह होय, तो में सी अजीवपणा प्राप्त न होय जाऊ । जाते मैं तो ज्ञाता ही हो, ताते मेरे किछु परिग्रह नाहीं है । " टोका-जो अजीव परद्रव्यकू मैं परिग्रहण करो, तो अजीव मेरा अवश्य स्व होय । बहुरि । + मैं भी उस अजीवका अवश्य स्वामी ठहरौं । जाते यह न्याय है जो अजीवका स्वामी निश्चय
करि होय, सो अजीव ही होय । ऐसें मेरा अजीवपणा अवश्य आय पड़े है। तातें मेरा तौ " 卐 एक ज्ञायक भाव ही है, सो मेरा जो स्त्र है, तिसहीका में स्वामी हौं। तातें मेरे अजीवपणा ॥ ... मति होऊ, मैं तो ज्ञाता ही होऊंगा, परद्रव्यकू नाहीं ग्रहण करूंगा, मेरा यह निश्चय है। । भावार्थ-निश्चयनयकरि यह सिद्धांत है, जो जीवका तौ भाव जीव ही है, तिनहीकरि म जीवकै स्व-स्वामी संबंध है । बहुरि अजीवका भाव अजीव ही है, तिनही करि अजीक्कै स्व.
स्वामी संबंध है। सो जीवके अजीवका परिग्रह मानिये तो जीव अजीवताकू प्राप्त होय । जतातें जीवकै अजीवका परमार्थत परिग्रह मानना मिथ्याबुद्धि है। तातें ज्ञानीकै यह मिथ्याधुन्द्वि
"होय नाहीं । शानी तो ऐसे माने है जो परद्रव्य मेरे परिग्रह नाहीं, मैं तौ ज्ञाता हौं । आगे कहे 卐हैं, जो ऐसें मानते ज्ञानीके परद्रव्यके बिगडने सुधरनेवि समता है। गाथा ॥
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छिजदु वा भिजदु वा णिजदुवा अहव जादु विप्पलयं । # जमा तहमा गच्छदु तहावि ण परिग्गहो मज्झ ॥१७॥
छियतां वा भिद्यतां का नीयतां अथवा यातु विप्रलयं ।
यस्मात्तस्माद् गच्छतु तथापि न परिग्रहो मम ॥१७॥ बात्मख्यातिः-छिद्यवां वा भिद्यतां वा नीयता वा विप्रलयं यातु वा यतस्ततो गच्छन्तु वा तवापि न परद्रम पारिवामि । पदको नाम भन नवं आई परन्यस्य स्वामी । परगन्यमेव परद्रन्यस्य स्वं परगन्यमेव परम्पस्य म स्वामी । अहमेव मम स्वं अहमेव मम स्वामीति जानाति । र अर्थ-ज्ञानी ऐसे विचारे, जो परद्रव्य है, सो छिदि जावो अथवा भिदि जावो अथवा कोई "ले जावो अथवा नष्ट हो जावो विनशि जावो जिस तिस कारण जावो, तौऊ निश्चयकरि मेरा "परद्रव्य परिग्रह नाहीं है। " टीका-परद्रव्य छिदो वा भिदो, वा कोई ल्यो, वा प्रलय हो जावो, वा जिस तिस कारणते 4 जावो, तौऊ मैं परद्रव्यक परिग्रहण नाहीं करौ हौं । जातै परद्रव्य मेरा स्व नाहीं, मैं परद्रव्यका
स्वामी नाहीं । परद्रव्य ही परद्रव्यका स्व है, परद्रव्य ही परद्रव्यका स्वामी है। मैं ही मेरा स्व हौं, 9 में ही मेरा स्वामी हौं ऐसें जानू हौं।
भावार्थ-ज्ञानीकै परद्रव्यका बिगडने सुधरनेका हर्षविषाद नाही है। अब इस अर्थका कलशरूप तथा अगिले कथनकी सूचनिकारूप काव्य कहे हैं।
वसन्ततिलकाछन्दः । — इत्थं परिग्रहमपास्य समस्तमेव सामान्यतः स्वपरयोरविवेकहेतुम् ।
अज्ञानमूझतुमना अधुना विशेषाद् भूयस्तमेव परिहतु मयं प्रवृत्तः ।। १३ ॥ अर्थ-याप्रकार परिग्रहकू सामान्यकरि समस्तहीकू छोडिकरि, अब आप अरपरका अविवेकका 卐 ।
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कारण अज्ञानकू छोडनेका है मन जाका, ऐसा जो यह ज्ञानी, सो तिस परिग्रह विशेषकरि कन्यारा न्यारा परिहार करने फेरि प्रवर्तें है ।
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भावार्थ - जातें स्वपरका एक है । तातें ज्ञान
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जानका कारण अज्ञान है, ताहीर्ते परद्रव्यका परिग्रहण गाथामैं तो परिग्रहका सामान्यकरि त्याग करना कया। अब आगे 5
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भावस्तु ज्ञानिनो न भवति, ज्ञानिनो ज्ञानमय एव भावोऽस्ति ततो ज्ञानी, अज्ञानमयस्य भावस्य इच्छाया अभावाद 5 धर्म नेच्छति । तेन ज्ञानिनो धर्मपfront area | ज्ञानमयस्यैकस्य aresatara भावाद् धर्मस्य केवलं शायक
अज्ञानके छोडनेकूं विशेषकर न्यारा न्यारा नाम लेकरि त्याग करना कया है । गाथा - अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणीय णिच्छदे धम्मं ।
अपरिग्गहो दु धम्मस्स जाणगो तेण सो होदि ॥१८॥ अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छति धर्मं । अपरिग्रहस्तु धर्मस्य ज्ञायकस्तेन स भवति ॥ १८॥
आत्मख्यातिः—इच्छा परिग्रहः तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति, इच्छा स्वज्ञानमयो भावः, अज्ञानमयी 5
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अर्थ -- ज्ञानी है सो परिग्रह रहित है, जातें अनिच्छ कहिये परिग्रहकी इच्छा रहित है, ऐसा है । तातें धर्मं नाहीं इच्छे है । तातें धर्मका अपरिग्रह ही है, तिस धर्मका ज्ञानी ज्ञायक ही है ।
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टीका-इच्छा है सो परिग्रह है, जाकै इच्छा नाहीं ताकै परिग्रह नाहीं । बहुरि इच्छे है
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सो अज्ञानमय भाव है, अज्ञानमय भाव है सो ज्ञानोके नाहीं' है, ज्ञानीकें तो ज्ञानमय ही भाव है । तातें ज्ञानी है, सो अज्ञानमयभात्र जो इच्छा, ताके अभाव धर्मकूं नाहीं 5 इच्छे है । तिस कारण करि ज्ञानीकै धर्मपरिग्रह नाहीं है । ज्ञानमय जो एक ज्ञायकभात्र,
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सद्भावतें धर्मका केवल ज्ञाता ही यह ज्ञानी है। आगे ऐसे ही ज्ञानीके अधर्मपरिग्रह नाहीं है , ऐसें कहे हैं। गाथा--
अपरिगहो अणिच्छो भागिदोणाणीय णिच्छदि अहम्म। अपरिग्गहो अधम्मस्स जाणगो तेण सो होदि ॥१९॥
अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छत्यधर्म ।
अपरिग्रहोऽधर्मस्य ज्ञायकस्तेन स भवति ॥१९।। + आत्मख्यातिः-इच्छा परिग्रहः तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति, इच्छा त्वज्ञानमयो धर्मः । अज्ञानमयो भावस्तु ।
शानिनो नास्ति शानिनो झानमय एव भावोऽस्ति । ततो ज्ञानी, अज्ञानमयम्य भावस्य इच्छाया अभावात् अधर्म जनेच्छति, तेन शानिनः अधर्मपरिग्रहो नास्ति ज्ञानमयस्यैकस्य शायकमावस्य भावादधर्मस्य केवलं शायक एवायं स्यात् । -
एवमेव चाधर्मपदपरिवर्तनेन रागद्वपक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्शनष्त्राणि पोडश । 9 भ्याख्येयानि, अनया दिशाऽन्यान्यप्यूह्यानि ।।
___अर्थ-ज्ञानी इच्छारहित है, यातें परिग्रह रहित कह्या है। याहीते ज्ञानी है सो अधर्म 'नाहीं इच्छे है, तातें अधर्मका परिग्रह याकै नाहीं है। तिस कारणकरि सो ज्ञानी तिस अधर्मका ॥ .. ज्ञायक ही है।
टीका-इच्छा है सो परिग्रह है । जाकै इच्छा नाही ताके परिग्रह नाही। बहरि इच्छा है । सो अज्ञानमय भाव है, अज्ञानमय भाव ज्ञानीकै नाही है, ज्ञानीकै तौ ज्ञानमय ही भाव है। ।।
तातें ज्ञानी अज्ञानमय भाव जो इच्छा ताके अभावतें अधर्म नाही इच्छे है। तातें ज्ञानीके । + अधर्मका परिग्रह नाहीं है। ज्ञानमय जो एक ज्ञायकभाव ताके सद्भावते यह ज्ञानी अधर्मका +
केवल ज्ञायक ही है। ऐसे ही गाथामैं अधर्मपद है, ताके पद पलटनेकरि अर अधर्मकी जायगर 卐 राग द्वेष क्रोध मान माया लोभ कर्म नोकर्म मन वचन काय श्रोत्र चक्षु व्राण रसन स्पर्शन ए 5
सोलह पद धरि सोलह गाथासूत्र करि व्याख्यान करना । इस ही उपदेशकरि अन्य भी विचारने।
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आगे ज्ञानीके आहार करना भी परिग्रह नाही हे यह कहे हैं। गाथा
अपरिग्गहो अणिच्छो मणिदो डाराम तुमिच्छदे णाणी। है अपरिग्गहो दु असणस्स जाणगो तेण सो होदि ॥२०॥
अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितोशनं च नेच्छति ज्ञानी।
अपरिग्रहस्त्वशनस्य ज्ञायकस्तेन स भवति ॥२०॥ आत्मख्याति:-इच्छा परिग्रहः तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति, इच्छा त्वज्ञानमयो भावः, अज्ञानमयो भावस्तु शानिनो नास्ति ज्ञानिनो ज्ञानमय एवं भावोऽस्ति । ततो ज्ञानी, अज्ञानमस्य भावस्य इच्छाया अभावान्, अशनं नेच्छति
सेन ज्ञानिनोऽशनपरिग्रहो नास्ति ज्ञानमयस्यैकस्य ज्ञायकभावस्य मावादशनस्य केवलं ज्ञायक एवायं स्यात् । + नीचे लिखी एक गाथाकी आत्मख्याति संस्कृत और हिन्दी टीका उपलब्ध नाहीं है इसलिये नाही छापी गई। - तात्पर्यवृत्ति टीका मिलती है वह छपी है।
धम्मच्छि अधम्मच्छी आयासं सुत्तमंगपुव्वेसु ।
संगं च तहा णेयं देवमणुअत्तिरियणेरइयं ॥ - तात्पर्यवृत्तिः---अपरिग्रहो भणितः कोऽसौ ? अनिच्छः तस्य परिग्रहो नास्ति यस्य बहिर्द्रव्येषु आकांक्षा नास्ति
तेन कारणेन परतत्वज्ञानी चिदानंदैकस्वभावं शुद्धात्मानं विहाय धर्माधर्माकाशाधंगपूर्वगतश्रुतयाह्याभ्यंतरपरिग्रहदेवमनु- व्यतिर्यनरकादिविभावपर्यायान्नेच्छति इति शं यं ज्ञातव्यं । ततः कारणाचद्विषये निष्परिग्रहो भूत्वा तद्रूपेणापरिणमन् या सन् दर्पणे विम्बस्येव झायक एव भवति। + अर्थ-जिसके इच्छा नहीं है उसके परिग्रह भी नहीं है इसलिये तत्वज्ञानी अपने चिदा-
नन्द स्वभाववाले शुद्धात्माको छोडकर धर्म अधर्म आकाशादि परद्रव्य तथा अङ्गपूर्वगत श्रुत वाहा卐भ्यंतर परिग्रह देव मनुष्य तियंच नरक आदि विभाव पर्यायोंको नहीं चाहता है इसलिये वह 1- उनका ज्ञाता ही है, परिग्रही नहीं।
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. अर्ष-इच्छा रहित होय सो परिग्रहरहिल है ऐसे कया है । बहुरि ज्ञानी है सो अशन कहिये । ग्य भोजन, ताकू नाही इच्छे है । तातें ज्ञानीके अशनका परिग्रह नाहीं है । तिस कारगकरि ज्ञानी क.. १ अशनका ज्ञायक ही है। " टीका-इच्छा है सो परिग्रह है, सो जाके इच्छा नाहीं ताकै परिग्रह नाहीं । बहुरि इच्छा + है सो अज्ञानमय भाव है, सो ज्ञानीके अज्ञानमय भाव नाही है। जाते ज्ञानीकै तौ ज्ञानमय ही ..
भाव है, सातें ज्ञानी है सो अज्ञानमयभाव जो इच्छा, ताके अभावतें अशनकू नाही इच्छे है।। तिस कारणकरि ज्ञानीके अशनका परिग्रह नाही है। ज्ञानमय ही भाव है, तातें ज्ञानी है सो अज्ञानमय भाव जो इच्छा, ताके अभावतें अशनकू नाही इच्छे है । तिस कारणकरि ज्ञानीकै ।। अशनका परिग्रह नाहीं है । ज्ञानमय जो एक ज्ञायक भाव, ताके सदावतें यह ज्ञानी केवल ।
अशनका ज्ञायक ही है। 9 भावार्थ-ज्ञानीके आहारकी भी इच्छा नाहीं है, तातें ज्ञानीके आहार करना भी:परिग्रह ।।
नाही है । इहां प्रश्न-जो आहार तौ मुनी भी करें है, ताकै इच्छा है की नाही ? विना इच्छा"
आहार कैसे करे ? ताका समाधान-जो असातावेदनीय कर्मके उदयतें तो जठराग्निरूप खंधा 15 उपजे है अर वीर्या तरायके उदयकरि ताकी वेदना सही नाही जाय है अर चारित्रमोहके उदय
करि ग्रहणकी इच्छा उपजे है । सो इस इच्छाकू कर्मका उदयका कार्य जाने है, तिस इच्छाकू रोगवत् जानि मेटथा चाहे हैं । इच्छातें अनुरागरूप इच्छा नाही है, ऐसी इच्छा नाहीं है जो मेरी यह इच्छा सदा रहौ । तातें अज्ञानमय इच्छाका अभाव है। परजन्य इच्छाका स्वामीपणा ..
ज्ञानीके नाही है। तातें इच्छाका भी ज्ञानी ज्ञायक ही है । ऐसा शुद्धनय... प्रधानकरि कथन । + जानना । आगे पानका भी परिग्रह ज्ञानीक नाही ऐने कहे हैं। माया
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टीका- -इच्छा है सो परिग्रह है । जाकै इच्छा नाहीं तार्के परिग्रह भी नाहीं । बहुरि इच्छा
है सो अज्ञानमय भाव है, सो ज्ञानीकै अज्ञानमय भाव नाहीं है, ज्ञानीकै तो ज्ञानमय ही भाव 5 हे तातें ज्ञानी अज्ञानमय भाव जो इच्छा, ताके अभावतें पानकूं नाही इच्छे हैं । तिस कारणकरि ज्ञानी पानका परिग्रह नाहीं है । ज्ञानमय जो एक ज्ञायकभाव ताके सद्भावतें यह ज्ञानी पानका केवल ज्ञायक ही हैं।
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अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो पाणं च णिच्छदे णाणी ।
अपरिग्गहो दु पाणस्स जाणो तेण सो होदि ॥२१॥
अपरिग्रहो अनिच्छो भणितः पानं च नेच्छति ज्ञानी । अपरिग्रहस्तु पानस्य ज्ञायकस्तेन स भवति ॥ २१ ॥
आत्मरूपातिः--इच्छा परिग्रहः, तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति इच्छा त्वज्ञानमयो भावः अज्ञानमयो फ 15 भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति । ज्ञानिनो ज्ञानमय एत्र भावोऽस्ति । ततो ज्ञानी, अज्ञानमस्य भावस्य इच्छाया अभावात् पानं नेच्छति । तेन ज्ञानिनः पानपरिग्रहो नास्ति ज्ञानमयस्यैकस्य शायकभावस्य भावात् केवलं पानकस्य ज्ञायक एवायं स्यात् । अर्थ - इच्छा रहित है तो परिग्रहरहित का है। बहुरि ज्ञानी है सो पान कहिये जल आदिक 455 पीवना, ताकूं इच्छे नाहीं है । तातें पानका परिग्रह ज्ञानीकै नाहीं है । तिस कारणकार ज्ञानी पानका ज्ञायक ही है ।
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भावार्थ - आहारवत् जानना। आगे कहे हैं, जो ऐसे ही अन्य जे अनेक प्रकार परजन्य भाव, तिनिकूं ज्ञानी नाही इच्छे हैं। गाथा
ககககககககழபிமிககழி
इव्वादु एदु विवि सव्वे भावेय णिच्छदे णाणी । जाणगभावो णियदो णीरालंबीय सव्वत्थ ॥ २२ ॥
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इत्यादिकांस्तु विविधान् सर्वान् भावान्नेच्छति ज्ञानी ।
ज्ञायकभावो नियतः निरालंबश्च सर्वत्र ॥२२॥ आत्मख्यातिः-एवमादयोऽन्येऽपि बहुप्रकाराः परद्रव्यस्य ये मावास्तान् सर्वानेव नेच्छति ज्ञानी तेन मानिनः १४२ सर्वेषामपि परद्रन्यभावानां परिग्रहो नास्ति इति सिद्धं ज्ञानिनोऽत्यंतनिप्परिग्रहत्वं । अथैवमयमशेषभावांतरपरिगृह
शून्यत्वात् उद्वांतसमस्वाज्ञानः सर्वत्राप्यत्यंतनिरालंबो भूत्वा प्रतिनियतटंकोत्कीर्णकनायकभावः सन् साक्षाद्विज्ञानधनमात्मानमनुभवति । ___ अर्थ-इस प्रकारकू आदि लेकरि अनेक प्रकारके जे सर्वभाव, तिनिकू ज्ञानी नाही इच्छे,
है। जातें नियमकरि आप ज्ञायकभाव है, सात सर्वविषं निरालब है। ___टीका-याही पूर्वोक्त प्रकारकू आदि लेकरि अन्य भी बहुत प्रकार परद्रव्यके जे स्वभाव हैं, तिनि सर्वहीकू ज्ञानी नाही इच्छे है। तिस कारणकरि ज्ञानीक सर्व ही परद्रव्यनिके भावनिका ..
परिग्रह नाही है। ऐसें ज्ञानीका अत्यंत निष्परिग्रहपणा सिद्ध भया । अब याप्रकार यह ज्ञानीम + समस्त अन्य भावनिका परिग्रहका परिग्रह करि शून्यपणातें बन्या है उगल्या है समस्त अज्ञान ।।
जाने ऐसा भया संता सर्वत्र अतिनिरालंबन स्वरूप होय करि न्यारा ही एक टंकोत्कीर्ण ज्ञायक-" 卐 भाव भया संता साक्षात् विज्ञानधन आत्माकू अनुभव है।
___ भावार्थ-पूर्वोक्त प्रकार आदि लेकरि सर्व ही अन्य भावनिका ज्ञानीकै परिग्रह नाही है। जाते सर्व हो परभावनिकू हेय जाने, तब तिनकी प्राप्तिकी इच्छा नाहीं। उदय आयेकू अनासक्त भया भोगवे है। संसार देह भोगनिसूरागरूप इच्छा विना परिग्रहका अभाव कहा अब इस अर्थका कलशारूप काव्य कहे हैं।
स्वागताछन्दः पूर्वबद्धनिजकर्मविपाकाल शानिनो यदि भवत्युपभोगः ।। तभवत्वय च रागवियोगाव ननमेति न परिग्रहभावम् ।।१४॥
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अर्थ-ज्ञानीके जो पूर्व बंधे अपने कर्मका विपाक कहिये उदयतें उपभोग होय है, सो होऊ ।
परंतु रामके वियोग निश्चयतें सो उपयोग परिग्रह भावकूं नाही प्राप्त होय है ।
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भावार्थ- पूर्वे बांधे कर्मका उदय आवै तब उपभोग सामग्री प्राप्त होय, ताकू अज्ञानमय
रागभाव कर भोगवे, तब तौ सो परिग्रह भावकूं प्राप्त होय सो ज्ञानीकै अज्ञानमय रागभाव
गया,
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5 नाहीं है । उदय आया है, ताकू भोगवे है। यह जाने है- जो पूर्वे बांध्या था सो उदय आय पिंड 'छूटया, आगामी नाहीं वांछू हौं, ऐसें तिनि रागरूप इच्छा नाहीं तब ते परिग्रह 5 भी नाहीं । आगे ज्ञानीकै तीनकालगत परिग्रह नाहीं है ऐसे कहे हैं। गाथा - उप्पराणोदय भोगे विओगबुद्धीय तस्स सो णिच्चं ।
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कंखामणागदस्स य उदयस्स ण कुव्वदे णाणी ॥ २३ ॥
उत्पन्नोदभोगे वियोगबुद्धया तस्य स नित्यं ।
कांक्षामनागतस्य चोदयस्य न करोति ज्ञानी ॥ २३॥
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आत्मख्यातिः — कर्मोदयोपभोगस्तावत् अतीतः प्रत्युत्पन्नो नागतो वा स्यात् । तत्र तीतस्तावत अतोदत्वादेव सन् परिगृहमावं विभर्ति | अनागतस्तु आकांक्ष्यमाण एव परिग्रहभावं विभृयात् । प्रत्युत्पन्नस्तु स किल रागबुद्ध्या प्रवर्तमान फ एव तथा स्यात् । न च प्रत्युत्पन्नः कर्मोदयोपभोगो ज्ञानिनो रागवुद्ध्या प्रवर्तमानो दृष्टः ज्ञानिनोऽज्ञानमयभावस्य रागबुद्ध ेरभावात् । वियोगबुद्ध्यैव केवलं प्रवर्तमानस्तु स किल न परिग्रहः स्यात् । ततः प्रत्युत्पन्नः कर्मोदयोपभोगो ज्ञानिनः परिग्रहो न भवेत् । अनागतस्तु स किल झानिनो न कांक्षित एव, ज्ञानिनोऽज्ञानमयभावस्याकांक्षाया अभानात् । ततो नागतोऽपि कर्मोदयोपभोगो ज्ञानिनः परिग्रहो न भवेत् ।
+
अर्थ - उत्पन्न भया वर्तमानकालका उदयका भोग, सो तौ तिस ज्ञानीकै निरंतर वियोगकी बुद्धिकरितें है । तातें परिग्रह नाहीं है । बहुरि अनागत जो आगामी काल, तिलविष उदय 5 होयगा, ताकी ज्ञानी वांछा नाहीं करे है, तातें परिग्रह नाहीं है । बहुरि अतीतकालका वीति ही 5
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卐 गया सो यह विना कह्या सामर्थ्यते ही जानीये याकैपरिग्रह नाही', गयेकी वांछा ज्ञानीके कैसी होय ?
टीका-कर्मका उदयका उपभोगना तीन प्रकार है। अतीतकालका, प्रत्युत्पन्न कहिये वर्तमान कालका, अनागत कहिये आगामी कालका ऐसे । तहां अतीतकालका तौ वीति ही गया, सो गया ॥ ॐ सो गया। यात ज्ञानी परिग्रहभावकू नाहीं धारे है। बहुरि अनागत जो आगामी कालमैं ....
आवेगा, सो ताकी वांछा करे, तब परिग्रहभावकू धारे, सो ज्ञानीकै आगामी वांछा नाही,
तातें परिग्रहभावकू नाही धारे है। जिस कर्मक ज्ञानी अपनी अहित जान्या, ताके उदयके ।। 17 भोगकी आगामी वांछा काहे करे ? बहुरि प्रत्युत्पन्न कहिये वर्तमानका उपभोग है, सो ॥
रागबुद्धि करि प्रवर्तमान होय तौ परिग्रहभावकू धारै । सो ज्ञानीकै वर्तमानका उपभोग रागबुद्धि करि प्रवर्तमान नाहीं दीखे है। जातें जानीके अज्ञानमयभाव जोरागबुद्धि ताका अभाव है। बहुरि ।
केवल वियोगबुद्धि ही करि प्रवर्तमान होय, सो निश्चय करि परिग्रह नाही है। जाते ज्ञानीकी यह 卐 बुद्धि है-जोजाका संयोग भया,ताका वियोग अवश्य होयगा । ताते विनाशीकतै प्रीति न करनी।।
तातें वर्तमान कर्मका उदयका उपभोग है, सो ज्ञानीकै परिग्रह नाही है । वहरि अनागत आगामी कर्मका उदयकू नाही वांछता जो ज्ञानी ताकै सो अनागत उपभोग परिग्रह नाही है। जाते ज्ञानीकै अज्ञानमयभावरूप जो वांछा, ताका अभाव है। तातें अनागत भी कर्मका उदयका उपभोग ज्ञानीकै परिग्रह नाहीं होय ।
म 9 भावार्थ-अतीत तौ गया ही है, अनागतकी वांछा नाही, वर्तमानका विर्षे राग नाहीं है ये
जानै ताविषै राग कैसा होय ? तातें ज्ञानीके तीन ही काल सम्बन्धी कर्मका उदयका भोगना -
परिग्रह नाहीं । वर्तमानके कारण मिलावे है सो पीडा न सही जाय, ताका इलाज रोगवत् करे ॥ म है। यह निवलाईका दोष है।
कुतोऽनागतं मानी नाकांक्षतीति चन
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आगे पूछे है, अनागत कालका कर्मका उदयकूं ज्ञानी काहेतें नाहीं वांछे है ? ताका उत्तर 5 कहे हैं। गाथा-
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जो वेददिवेदिजदि समए समए विणस्सदे उहयं ।
तं जागो दुगाणी उभयमवि ण कंखदि कयावि ॥ २४ ॥
यो वेदयते वेद्यते समये समये विनश्यत्युभयं ।
तद् ज्ञायकस्तु ज्ञानी, उभयमपि न कांक्षति कदाचित् ॥२४॥
5
आत्मख्यातिः - ज्ञानी हि तावद् ध वत्वात् स्वभावभावस्य टंकोत्कीर्णेकशायकभावो नित्यो भवति यौ तु वेद्यवेदकभाव तो तूत्पन्नप्रध्वंसित्याद्विभावभावानां क्षणिकौ भवतः । तत्र यो भाबि कांश्रमाणं वेद्यभावं वेदयते स यावद् भवति तावत्कांक्षमाणो भावो विनश्यति । तस्मिन् विनष्टे वेदको भावः किं वेदयते १ यदि कक्षमाणवेद्यभावपृष्ठभाविनमन्यं भावं वेदयते तदा तद्भवनात्पूर्व विनश्यति कस्तं वेदयते १ यदि वेदकभावपृष्टभावी भावोम्पस्तं वेदयते तदा तद्भवनात्पूर्वं स विनश्यति । किं स वेदयते : इति कांक्ष्यमाणभात्रवेदनानवस्था तां च विजानन् ज्ञानी न किंचिदेव कांक्षति ।
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अनुक्रम
अर्थ - जो अनुभव करनेवाला भाव, सो वेदकभाव कहिये । बहुरि जो अनुभवन करनेयोग्य भाव, सो वेद्यभाव कहिये । सो ऐसे वेदक अर वेद्य ये दोष भाव आत्माके होय हैं। सो फ करि होय है, एककाल होय नाहीं, सो दोऊ ही समय समय विषे विनशि जाय है, अर आत्मा दोऊ भावनिवि नित्य है । तातें ज्ञानी आत्मा दोऊ भावनिका ज्ञायक है जाननेवाला ही है । फ इनि दोऊ ही भावनिकुं ज्ञानी कदाचित् भी नाहीं वांछे है
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टीका - ज्ञानी है सो तो "अपना स्वभावभावकै ध्रुवपणा है" तातें टंकोत्कीर्ण एकज्ञानस्वरूप नित्य है । बहुरि जो वेदना करनेवाला अर वेदने योग्य ऐसे दोय वेदक अर वेद्यभाव हैं ते
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उपजना अर विनसनारूप हैं । जातें विभावभाव हैं, तिनिकै क्षणिकपणा है, तातें दोऊ भाव
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विन्नासीक क्षणिक हैं। तहां विचारिये है, जो वेदकभाव है सो आगामी वांछामें लेनेयोग्य वेद्यभाव ता अनुभवन करे । यहू जेतें उपजे तेतें वेद्यभाव नष्ट होय जाय
- विनसि जाय । ताकू
विनाश होतें वेदकमाव है सो कौन देदे - अनुभवन करें ? बहुरि जो इहां ऐसे कहिये, जो वांछा मैं 5 आवता जो वेद्यभाव ताके पीछे होगा जो अन्य वेद्यभाव ताकूं बेड़े है । तौ तिसके होनेके पहले ही सो वेदकभाव विसि जाय, तब तिस वेद्यभावकूं कौन वेदे ? बहुरि फेरि कहे, जो वेदकभावके पीछे होगा जो अन्य वेदकभाव सो तिस वेद्यभावकुं वेदेगा ।
तिस वेदकभाव होनेके 卐
पहले सो वेद्यभाव विनसि जाय, तब सो वेदकभाव कौनसे भावकूं वेदे ? ऐसे कांक्षमाणभाव जो वेदनाको वांछामें आवता भाव, तार्के अनवस्था है, कहूं ठहरना नाहीं । तिस अनवस्थाकूं जानता संता ज्ञानी किद्दू भी नाहीं वांछे है।
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भावार्थ-वेदकभाव तो वेदनेवाला अर वेद्यभाव जाकूं वेदिए सो इनि दोऊके कालभेद है। 5 जब वेदकभाव होय तत्र वेद्यभाव होय नाहीं अर वेद्यभाव होय तब वेदकभाव होय नाहीं । ऐसें होतें वेदकभाव आवै तब वेद्यभाव विनसि जाय, तब वेदकभाव कोनकूं वेदे ? अर वेद्यभाव आवे 5 तब वेदकभाव विनसि जाय, तब वेदकभाव विना वेद्यकू कौन वेदे ? तातै ज्ञानी दोऊकूं विनाशीक जाणि आप जाननेवाला ही रहे है । इहां प्रश्न - जो आत्मा तौ नित्य है, सो दोऊ भाव- 卐 निकूं वेदनेवाला क्यौं न कहो ? ताका समाधान - जे वेद्यवेदकभाव तो विभाव हैं, आत्माका स्वभाव तो हैं नाहीं, सो जाकी वांछा करी ऐसा वेद्यभाव जेतें वेदकभाव आया तेर्ते नष्ट होय गया । ऐसें वांछितभोग तो भया ही नाहीं । तातें ज्ञानी निष्फल वांछा काहेकुं करे ? मनोवांछित फ होय नाही, तब वांछा करना अज्ञान है। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं ।
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स्वागताछन्दः वेद्यवेदक विभावचलत्वाद्वद्यते न खलु काङ्क्षितमेव ।
तेन काङ्क्षति न किञ्चन विद्वान्द्र सर्वतोऽप्यतिविरक्तिमुपैति ॥ १५ ॥
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म तथाहि. अर्थ-वेद्य वेदकभाव हैं ते कर्मके निमित्ततें होय हैं । ताते ते स्वभाव नाही', विभाव हैं,
'बहुरि चलायमान हैं, समयसमय विनसे हैं। तातें वांछित भावकू नाहीं वेदिये हैं । तिस कारण४८) करि विद्वान् ज्ञानी है सो किछू भी आगामी भोग नाही वांछे है। सर्वहीत अतिविरक्तभाव
वैराग्यभावकू प्राप्त है। _____ भावार्थ-अनुभवगोचर जो वेद्यवेदक विभाव तिनिहीके कालभेद है, तातें मिलाप नाही,' 卐 विधि मिले नाही तब आगामी बहुत कालसंबंधी वांछा ज्ञानी काहेकू करे ? आगे ऐसे सर्व ही .. उपभोगते ज्ञानीके वैराग्य है सो ही कहे हैं। गाथा
बंधुबमोगाणिमित्तं अज्झवसाणोदएसु णाणिस्स। संसारदेहविसएसु णेव उप्पज्जदे रागो ॥२५॥
बंधोपभोगनिमित्तेषु अध्यवसानोदयेषु ज्ञानिनः ।
संसारदेहविषयेषु नैवोत्पद्यते रागः ॥२५॥ ____ आत्मख्याति:-इह खल्वध्ययसानोदयाः कतरेऽपि संसाविषयाः, कनरेपि शरीरविषयाः। तत्र यतरे संसारविषयाः, ततरे बंधनिमित्ताः । यतरे शरीरविषयास्ततरे तूपभोगनिमित्ताः । यतरे बंधनिमित्तास्ततरे रागदपमोहाधाः । यतरे तूपभोगनिमित्तास्ततरे सुखदुःखाद्याः। अथामीषु सर्वेष्वपि झानिनो नास्ति रागः। नानाद्रव्यस्वभावत्वेन टङ्को-।स्कीर्णेकज्ञायकभावस्वभावस्य तस्य तत्प्रतिषेधात् । ... अर्थ-बंधके अर उपभोगके निमित्त जे अध्यवसानके उदय, ते संसारविषय अर देहविषय हैं, तिनिविर्षे ज्ञानीक राग नाहीं उपजे है।
टीका-इस लोकविर्षे निश्चयकरि जे अध्यवसानके उदय हैं, ते केतेएक तौ संसारविषय हैं॥ बहुरि केतेएक शरीरविषय हैं । तहां जेते संसारविषय हैं, तेते तो बंधके निमित्त हैं, बहुरि जेते
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.- शरीरविषय हैं, तेते उपभोगके निमित्त हैं । तहां जेते बंधके निमित्त हैं, तेते तो राग द्वेष मोह
आदिक हैं, बहुरि जेते उपभोगके निमित्त हैं, तेते सुखदुःखादिक हैं । अब कहे हैं, जो इनि सर्व- हीविर्षे ज्ञानीक राग नाहीं है । जाते अध्यवसान है सो नानाद्रव्यका स्वभाव है। तिसपणा
"करि तिस ज्ञानीके एक टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभावकै तिनिका प्रतिषेध है। 9 भावार्थ-संसारदेहभागसंबंधी राग द्वेष मोह सुखदुःखादिक अध्यवसानके उदय हैं, ते नाना.. द्रव्य जे पुद्गलद्रव्य तथा जीवद्रव्य ऐले संयोगरूप भये तिनिके स्वभाव हैं । अर ज्ञानीका एक भज्ञायकस्वभाव है, तातें ज्ञानोकै तिनिका प्रतिषेध है, तातें ज्ञानीकै सिनिवि राग प्रीति नाही है। 1- परद्रव्य परभाव संसारमैं भ्रमणके कारण हैं, तिनितें प्रीति करे, तो ज्ञानी काहेका ? इस "अर्थका कलशरूप तथा अगिले कथनकी सूचनिकाके श्लोक हैं।
स्वागताछन्दः ज्ञानिनो न हि परिग्रहमाचं कर्म सगरसरिक्ततयति
रागयुक्तिरकषायितवस्त्र स्वीकृतैव हि बहिर्ल्ड ठतीह ॥१६॥ " अर्थ-ज्ञानि तिनि परिग्रहभावनिकरि रिक्त है रहित है अर ज्ञानी रागरूपी रसकरि.भी रिक्त 卐है रहित है । तिसपणाकरि कर्म है सो परिग्रह भावकू नाही प्राप्त होय है। जैसे लोद फिटकडी ... करि कसायला न किया जो वस्त्र ताविर्षे रंगका लगना है, सो अंगीकार न भया संता बाद्य ही
लुठे है, वस्त्रमाहि प्रवेश नाही करे है।। ___ भावार्थ जैसे लोद फिटकडी लगाये विना वस्त्रके रंग चढे नाही, तैसे ज्ञानीके रागभावबिना कर्मका उदयका भोग नाही, सो परिग्रहपणाकू नाहीं प्राप्त होय है । फेरि कहे हैं
स्वागताछन्दः शानवान् स्वरसवोऽपि यतः स्यात्सर्वरागरसवर्जनशीलः। लिप्यते सकलकर्मभिरेष कर्ममध्यपवितोऽपि ततो न ॥१७॥
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जज अर्थ-जाते ज्ञानवान् है सो अपने निजरसहीत सर्व रागरसकरि वर्जित स्वभाव है । तातें "कर्मके मध्य पडया है तोऊ समस्तकर्मकरि नाहीं लिपे है। आगे इस ही अर्थका व्याख्यान म गाथामैं करे हैं । गाथा
णाणी रागप्पजहो सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो। णो लिप्पदि कम्मरएण दु कद्दममज्झे जहा कणयं ॥२६॥ अण्णाणी पुण रत्तो सव्वदव्वेसु कम्ममज्झादो। लिप्पदि कम्मरएण दु कद्दममझे जहा लोहं ॥२७॥
ज्ञानी रागाहायः सर्वद्रव्येषु कर्ममध्यगतः। नो लिप्यते कर्मरजसा तु कर्दममध्ये यथा कनकं ॥२६॥ अज्ञानी पुनारक्तः सर्वद्रव्येषु कर्ममध्यगतः ।
लिप्यते कर्मरजसा कर्दममध्ये यथा लोहं ॥२७॥ आत्मल्याति:----यथा खलु कनकं कर्दममध्यगतमपि कर्दमेन न लिप्यते तदलेपस्वभावत्वाव तथा किल ज्ञानी " कर्ममध्यगतोऽपि कर्मणा न लिप्यते सर्वपरद्रव्यकृतरागत्यागशीलत्वे सति तदलेपस्वभावत्वाद । यथा लोहं कदममध्यजग सत्कर्दमेन लिप्यते तल्लेपस्वभावत्वात् तथा किलाज्ञानी कर्ममध्यमतः सन् कर्ममा लिप्येत सर्वपरद्रन्यकृतरागोपा- 15
" दानशीलत्वे सति तल्लेपस्वभावत्वात् । 卐 अर्थ-जो ज्ञानी है सो सर्वद्रव्यनिविर्षे रागका छोडनेवाला है, सो कर्मके मध्यगत होय रया + __ है, तोऊ कर्मरूप रजकरि नाही लिपे है, जैसे कर्दभ कहिये कीच, तामैं पडया सुर्वणकै काई न 卐 लागै तैसें । बहुरि अज्ञानी है सो सर्वद्रव्यनिविर्षे रक्त है-रागी है, तातें कर्मके मध्यगत भया संता 5.. .. कमरजकरि लिपे है। जैसे कर्दम कोचमें पड्या लोहकै काई लागै तैसें।
टोका-जैसें निश्चयकरि सुवर्ण है सो कर्दमके वीचि पड्या है तोऊ कर्दमकरि लिपे नाही,
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... सोनाके काई लागै नाही', जातें सुवर्णका स्वभाव कर्दमका लेप न लागनेस्वरूप ही है, तैसें प्रगट- " प्रयपणे ज्ञानी कर्मके वीचि पड्या है तौऊ कर्मकार लिप नाहीं, जाते ज्ञानी सर्व परद्रव्यगत रागका ए
- त्यागका स्वभावपणाकू होते संते कर्मका लेपरूप स्वभाव नाहीं हैं। बहुरि जैसे लोह है सो " "कर्दममध्य पड्या हुवा कर्दमकरि लिपे है, जातें लोहका स्वभाव कर्दमतें लिपनेहीरूप है, तैसें ही है + प्रगटपणे अज्ञानी है सो कर्मक वोचि पड्या संता कर्मकरि लिये है, जातें अज्ञानी सर्वपरद्रव्य
विर्षे कीया जो राग ताका उपादानस्वभाव होते संते तिस कर्म लिपनेका स्वभावस्वरूप है। 9 भावार्थ-जैसे कादामें पड्या सुवर्णकै काई न लागे, अर लोहके कोई लागे । तैसें ज्ञानी ... कर्मके मध्यगत है, तौऊ ज्ञानी कर्मत लिप नाहीं-बांधे नाहीं। अर अज्ञानी कर्मत लिपै है-बांधे ॥
है। यह ज्ञान अज्ञानका महिमा है। अब इस अर्थका तथा अगिले कथनकी सूचनिकाका कलशरूप काव्य कहे हैं।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः यादृक् तागिहास्ति तस्य कशतो यस्य स्वभावो हि यः कर्तु नैप कथंचनापि हि परैरन्यादृशः शक्यते । ___अज्ञानं न कथंचनापि हि भवेत् ज्ञानं भवत्सन्ततं ज्ञानिन् सुंश्व परापराधजनितो नास्तीह बन्धस्तव ॥१८॥ म 卐 अर्थ-जिस वस्तुका जैसा इस लोकमें जो स्वभाव है, ताका तैसा ही स्वाधीनपणा है, यह + __ निश्चय है । सो तिस स्वभावकू अन्य कोऊ अन्य सारिखा किया चाहै, तो कदाचित् ह अन्यसा. जरिखा करि सके नाहीं। इस न्यायतें ज्ञान है सो निरन्तर ज्ञानस्वरूप ही होय है । ज्ञानका अज्ञान ॥ .. कदाचित् भी होय नाहीं है, यह निश्चय है । ताते हे ज्ञानी ! तू कर्मके उदयजनित उपभोग
भोगि । तेरै परकै अपराध करि उपज्या ऐसा इस लोकमें बंध नाहीं है। ... भावार्थ-वस्तु स्वभाव मेटनेकू कोई समर्थ नाहीं, तातें ज्ञान भये पीछे ताकू अज्ञान करनेकू "कोई समर्थ नाहीं, यह निश्चयनय है । तातें ज्ञानीकू कया है, जो तेरे परके किये अपरा तें तो प्रबंध नाहीं है, तो तू उपभोगकू भोगि । उपभोगनिके भोगनेकी शंका मति करे । शंका करेगा तो
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卐 परद्रव्यतें बुरा होना माननेका प्रसंग आयेगा । ऐसें परद्रव्यतें अपना बुरा होना माननेकी शंका है ....मेटी है। ऐसा मति जान-जो भोग भोगनेकी प्रेरणा करि स्वच्छन्द किया है। स्वेच्छाचारी " होना तो अज्ञानभाव है, सो आगे कहेंगे । आर्गे इसही अर्थकू दृष्टान्त करि दृढ करे हैं। गाथा
नीचे लिखी तीन गाथाओंकी आत्मख्याति संस्कृत और हिन्दी टोका उपलब्ध नाहों है इसलिये नाहों छापी गई। तात्पर्यवृत्ति टीका मिलती है वह छपी है।
णागफणीए मूलं णाइणितोएण गन्भणागेण । णागं होइ सुवराणं धम्मं तं भच्छवाएण ॥
नागफण्या मूलं नागिनीतोयेन गर्भनागेन ।
नागं भवति सुवर्ण घम्यमानं भस्त्रावायुना ॥ __तात्पर्यवृत्तिः–नागफणी नामौषधी तस्या मूलं नागिनी हस्तिनी तस्यास्तोयं मूत्रं गर्भनागं सिन्दूरद्रम्यं नागं सीसकं । अनेन प्रकारेण पुण्योदये सति सुवर्ण भवति न च पुण्याभावे । कथंभूतः सन् भस्त्रया धन्यमानमिति दृष्टांतगाथागता। अथ दार्श्व समाह
कम्मं हवेइ किटं रागादी कालिया अह विभाओ। सम्मत्तणाणचरणं परमोसहमिदि वियाणाहि ॥
कर्म भवति किट रागादयः कालिका अथ विभावाः ।
सम्यक्त्वज्ञानदर्शनचारित्रं परमौषधमिति विजानीहि ॥ तात्पर्यवृत्तिः-द्रव्यकर्म किट्ठसंगं भवति रागोदिविभावपरिणामाः कालिकासंज्ञा झातम्याः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रप्रयं भेदाभेदरूपं परमौषधं जानीहि इति ।।
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मुंजतस्सवि दव्वे सच्चित्ताचित्तमिस्सिये विविहे। संखस्स सेदभावो णवि सकादि किण्हनो कासुं रिटा तह गाणिस्स दु विविहे सच्चित्ताचित्तमिस्सिए दव्वे। भुंजत्तस्सवि गाणं णवि सक्कदि रागदो णेदुं ॥२९॥ जइया स एव संखो सेदसहावं तयं पजहिदृण । गच्छेज किण्हमा तइया सुक्कत्तणं पजहे ॥३०॥
#55卐+++5+59
झाणं हवेइ अग्गी तवयरणं भत्तली समक्खादो। जीवो हवेइ लोहं धमियव्वो परमजोईहिं॥
ध्यानं भवत्यग्निः तपश्चरणे भत्रा समाख्याते ।
जीवो भवति लोहं धमितव्यः परमयोगिभिः॥ ___ तात्पर्यवृत्तिः-वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूपं ध्यानमनिभवति । द्वादशविधतपश्चरणं भस्त्रा ज्ञातन्या। आसन
भन्यजीवो लोहं भवति । स च भव्यजीवः पूर्वोक्तसम्यक्त्वाद्यौषधप्यानाग्निभ्यां संयोगं कृत्वा द्वादशविधतपश्चरणभस्त्रया जन परमयोगिभिः धमितन्यो ध्यातव्यः । इत्यनेन प्रकारेण यथा सुवर्ण भवति तथा मोक्षो भवतीति संदेहो न कर्वन्यो "भट्टचावांकमतानुसारिभिरिति । + अर्थ-जिस प्रकार पुण्यका बल हो तो नागफणी नामक औषधीकी जड, हथिनीका मूत्र, 1-सिन्दूर द्रव्य और सीसा इनको भस्त्रा (धोंकनी) की पवनसे अग्निमें पकानेपर लोहा सोना
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तह णाणी विय जइया णाणसहावत्तयं पजहिदृण । अण्णायोण परिणदो तइया अण्णाणदं गच्छे॥३१॥ चउक्कं॥ मात्र
भुञानस्यापि विविधानि सचित्ताचित्तमिश्रितानि द्रव्याणि । शंखस्य श्वेतभावो नापि शक्यते कृष्णकः कतुम् ॥२८॥ तथा ज्ञानिनोऽपि सचित्ताचित्तमिश्रितानि द्रव्याणि । भुज्ञानस्यापि ज्ञानं नापि शक्यते रागतां नेतुम् ॥२९॥ यदा स एव शंखः श्वेतस्वभावं तक प्रहाय ।
गच्छेत्कृष्णभावं तदा शुक्लत्वं प्रजह्यात् ॥३०॥ 1- बन जाता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपी औषधिसे तपश्चरणरूपी मिस्त्रा द्वारा " ध्यानामि प्रज्वलित करनेपर कर्म कलंक मिटकर आत्मा शुद्ध बन जाता है। के नीचे लिखी एक गाथाको आत्मसमति संस्कृत और हिन्दी टोका उपलब्ध नहीं है इसलिये नहीं छापी गई। तात्पर्यवृत्ति टीका मिलती है वह छपी है।
जह संखो पोग्गलदो जइया सुक्कत्तणं पजहिदण। गच्छेज किण्हभावं तइया सुक्कत्तणं पजहे ॥ - यथा शंखः पौद्गलिकः यदा शुक्लत्वं प्रहाय ।
गच्छेत् कृष्णभावं तदा शुक्लत्वं प्रजयात् ॥ 卐 तात्पर्यवृत्ति:---तथैव च यथा निर्जीचशंखः कृष्णपरद्रव्यलेपवशात् अंतरंगोपादानपरिणामाधीनः सन् श्वेतस्वभावत्वं + .. डिहाय कृष्णभा गच्छेन तदा शुक्लत्वं त्यजति । इति निर्जीवशंखनिमित्तं द्वितीयान्वयदृष्टांन्तगाथा गता ।
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तथा ज्ञान्यपि यदि ज्ञानस्वभावं तकं प्रहाय ।
अज्ञानेन परिणतस्तदा अज्ञानतां गच्छेत् ॥३१॥ चतुष्कम् ।। आत्मल्यापिक....पथा र शंखव परद्रव्यमुप जानस्या५ न परेण श्वेतभावः कृष्णीकर्तुं शक्येत परस्य पर- ॥ 9 भावतत्यानिमित्तत्त्वानुषपत्तेः।
- तथा किल ज्ञानिनः परद्रव्यमुपभुज्ञानस्यापि न परेण ज्ञानमज्ञानं कर्तुं शक्येत परस्य परभावतच्चनिमित्तत्वानुष । पतेः । ततो ज्ञानिनः परापराधनिमित्तो नास्ति बंधः। ____ यथा च यदा स एव शंखः परद्रव्यमुपशुजानोऽनुपभुञ्जानो वा श्वेतभावं प्रहाय स्वयमेव कृष्णभावेन परिणमते ग 卐 तदास्य खेतभावः स्वयंकृतः कृष्णभावः स्यात् ।। .. तथा यदा स एव ज्ञानी परद्रव्यमुपभुज्ञानोऽनुपभुजानो वा ज्ञानं प्रहाय स्वयमेवाज्ञानेन परिणमेत तदास्य ज्ञान । + स्वयंकृतमज्ञानं स्यात् । ततो ज्ञानिनो यदि (?) स्वापराधनिमित्तो बंधः । + अर्थ-जैसा शंखोंका श्वेत स्वभाव है, सो शंख सचित्त अचित्त मिश्रित अनेक प्रकार द्रव्य
निळू भक्षण करे है, तौऊ तोका श्वेत स्वभाव कृष्ण करनेकू समर्थ नाहीं हूजिये है। तैसा ज्ञानी फ़ भी अनेक प्रकारके सचित्ताचित्तमिश्र द्रव्यनिकू भोगवे है, तोऊ ताका ज्ञान अज्ञानपणाकू प्राप्त ।।
करनेकू समर्थ न हजिये है । बहुरि जैसा सो ही शंख जिस काल अपने तिस खेतभावकू छोडि 卐 कृष्णभावकू प्राप्त होय, तव शुक्लपणाकू छोडै तैसा ज्ञानी भी अपना तिस ज्ञान स्वभावकू जिसके .. काल छोडि अज्ञानकरि परिणम, तिस काल अज्ञानताकू प्राप्त होय ।
टीका-जैसा शंख परद्रव्या भक्षण करता रहे है, ताका श्वेतभावकू परकरि कृष्णस्व-9 1- भावस्वरूप करनेकू समर्थ न हूजिये है। जाते परकै परभावस्वरूप करनेका निमित्तपणाकी 1 अप्राप्ति है तैसा परद्रव्य भोगवता जो ज्ञानी, ताका ज्ञान• अज्ञानता स्वरूप करने निश्चय का
करि परकरि नाहीं समर्थ हूजिये है । जाते परके परभावस्वरूप करनेका निमित्तपणाकी अप्राप्ति । है, तातें ज्ञानीकै परकै परभावस्वरूपकरने किये अपराधके निमित्ततें बंध नाहीं है। बहुरि जिस "
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" काल सो ही शंख परद्रव्या भोगता संता होऊ अथवा न भोगता संता होऊ अपना श्वेतभावकू _+ छोडि आपही कृष्भावस्वरूप परिणाम, सिस काल तिस शंखका श्वेतभाव अपना ही किया
कृष्णभावस्वरूप होय । तैसा ही सोही ज्ञानी परद्रव्य भोगता संता होऊ तथा न भोगता ।। ॥६॥ संता होऊ जिस काल अपना ज्ञानकू छोडि स्वयमेव आप ही अज्ञान करि परिणमै, तिस काल -
याका ज्ञान अपना ही किया निश्चय करि अज्ञानरूप होय है। तातें ज्ञानीके परका किया बंधन । नाहीं, आपही अज्ञानी होय तब अपनो अपराधके निमित्ततें बंध होय है।
भावार्थ-जैसा शंख श्वेत है, सो परके भक्षणेत तौ काला होय नाहीं। जब आप ही कालिमारूप परिणमै, तब काला होय । तैसा ही ज्ञानी उपभोग करता तो अज्ञानी होय नाहीं। जब + आपही अज्ञानरूप परिणमै तब अज्ञानी होय, तब बंध करे है। याका कलशरूप काव्य कहे हैं।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः करिं स्वफलेन यत्किल वलात्कमैव नो योजयेत् कुर्वाणः फललिप्सुरेव हि फलं प्राप्नोति यत्कर्मणः । ज्ञानं संस्तदपास्तरागरचनो नो बध्यते कर्मणा कुर्वाणोऽपि हि कर्म तत्फलपरित्यागेकशीलो मुनिः ॥२०॥ अर्थ-निश्चय करि यह जानू-जो कर्म है सो अपने करनेवाले कर्ताकू अपना फल करि " वरजोरीत तौ नाही जोडे है । सो मेरा फलकू तू भोगि । जो कर्मकू करता संता तिस फलका के इच्छुक हुवा करे है, सोही तिस कर्मका फल पावे है । तातें ज्ञानरूप हुवा संता कर्मविर्षे दूरी भया। है रागकी रचना जाकी ऐसा मुनि है, सो कर्म करता संता भी, कर्मकरि नाही बंधे है । जाते ॥
कैसा है यह मुनि ? तिस कर्म के फलका परित्यागरूप ही एक स्वभाव जाका। 9 भावार्थ-कर्म तो कर्ताकू जबरीतें अपना फलते जोडे नाहीं । अर जो कर्मकू करता संता, 7 + ताका फलकी इच्छा करे, सोही ताका फल पाये है। तातें जो ज्ञानी ज्ञानरूप हुवा प्रवर्ते अर । । कर्मके करने विर्षे राग न करै अर तिसका फलको आगामो इच्छा न करे, सो मुनि कर्मकार बंधे ।
नाहीं है। आगे इस अर्थकू दृष्टांतकरि दृढ करे हैं। गाथा
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पुरिसो जह कोवि इह वित्तिणिमित्तं तु सेवदे रायं । तो सोवि देदि राया विविहे भोगे सुहप्पादे ॥३२॥ एमेव जीवपुरिसो कम्मरयं सेवदे सुहणिमित्तं । तो सोवि कम्मरायो देदि सुहप्पादगे भोगे ॥३३॥ जह पुण सो चैव गरो वित्तिणिमित्तं ण सेवदे रायं । तो सो ण देदि राया विविहसुहप्पादगे भोगे ॥३४॥ एमेव सम्मदिछी विसयत्तं सेवदे ण कम्मरयं । तो सो ण देदि कम्मं विविहे भोगे सुहुप्पादे ॥३५॥ पुरुषो यथा कोपीह वृत्तिनिमित्तं तु सेवते राजानं । तत्सोऽपि ददाति राजा विविधान् भोगान सुखोत्पादकान् ॥३२॥ एवमेव जीवपुरुषः कर्मरजः सेवते सुखनिमित्तं ।। तत्सोपि ददाति कर्मराजा विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान् ॥३३॥ यथा पुनः स एव पुरुषो वृत्तिनिमित्तं न सेवते राजानं ।। तत्सोऽपि न ददाति राजा विविधान सुखोत्पादकान् भोगान् ॥३॥ एवमेव सम्यग्दृष्टिः विषयार्थ सेवते न कर्मरजः।
तत्तन्न ददाति कर्म विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान् ॥३५॥ आत्मख्यातिः-यथा कश्चित्पुरुषो फलार्थ राजानं सेवते ततः स राजा तस्य फलं ददाति । तथा जीवः फलार्थ कर्म सेवते ततस्तत्कर्मः तस्य फलं ददाति । यथा च स एव पुरुषः फलाई राजानं न सेवते ततः स राजा तस्य फलं न ददाति । तथा सम्पग्दृष्टिः फलार्थ कर्म न सेवते ततस्तत्कर्म तस्य फलं न ददातीति तात्पर्य ।
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र अर्थ-जैसें इस लोकमें कोई पुरुष आजीविका निमिस राजाकू सेवे, तौ सो राजा भी ताकूर " सुखके उपजावनहारे अनेक प्रकारके भोगनिकू दे है । ऐसे ही जीवनामा पुरुष सुखके निमित्त ॥ कर्मरूप रजकू सेवे, तौ सो कर्म भी ताकू सुखके उपजावनहारे अनेक प्रकारके भोगनिकूदे है। :- बहुरि जैसे सो ही पुरुष आजीविकानिमित्त राजाकून सेवे, तौ सो राजा भी ताकू सुखके उप
5 जावनहारे अनेक प्रकारके भोग नाहीं दे है। ऐसे ही सम्यग्दृष्टि है सो कर्मरूप रजकू विषयनिके प 1- अर्थ नाहीं लेवे है, तो सो कर्म भी ताकू सुखके उपजावनहारे नाना प्रकारके भोग नाहीं दे है। "
" टीका-जैसे कोई पुरुष फलके अर्थि राजाकू सेवे है, तातें राजा ताकू फल दे है। तैसें ॥ + जीव है सो फलके अर्थ कमकू सेव है, तात सो कर्म ताकू फल दे है। बहुरि जैसे सो ही पुरुष
फलके अर्थ राजाकू नाहीं सेवे है, तातें सो राजा ताकू फल नाहीं दे है। तैसें सम्यग्दृष्टि फलके म 卐 अर्थि कर्मकू नाहीं सेवे है, तातै सो कर्म ताकू फल नाहीं दे है, ऐसा तात्पर्य है।
भावार्थ-फलकी वांछा करि कर्म करे, ताका फल पावे, बांछाविना कर्म करे, ताका फल न पावें। अब इहां आशंका उपजी है-जो फलकी वांछाविना कर्म काहेकू करें ? ऐसी आशंका दुरि . करनेकू काव्य कहे हैं।
शालविक्रीडितच्छन्दः त्यक्त' येन फलं स कर्म कुरुते नेति प्रतीमो वयं किन्त्वस्यापि कृतोऽपि किश्चिदपि तत्कर्मावशेनापतेत् । तस्मिन्नापतिते त्वकम्परमज्ञानस्वभावे स्थितो शानी किं कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति जानाति कः ॥२॥ ॥
अर्थ-जाने कर्मका फल तो छोड्या अर कर्मकू करे है यह तो हम नाहीं प्रतीतिरूप करे हैं, .... परन्तु यामें किछु विशेष है-जो या ज्ञानीकै भी कोई कारणते किछु सो कर्म याके केशविना + आय पडे है, ताकू आय पडते संते भी यह ज्ञानी निश्चल परमज्ञानस्वभावकेविर्षे तिष्ठ्या किछू भी कर्म करे है कि नाहीं करे है यह कौन जाने ?
भावार्थ-ज्ञानीकै परक्शतें कर्म आय पडे है, ताविर्षे भी ज्ञानी ज्ञानतें चलायमान न होय ॥
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हैं। तहां यह ज्ञानी है सो न जानिये कर्म करे हैं कि नाहीं करे है, यह कौन जानें ? ज्ञानीकी ज्ञानीही जाने । अज्ञानीका ज्ञानीके परिणाम जानने व नाहीं, इहां ऐसा जानना, जो 卐 5 ज्ञानी कहने अविरत सम्यग्दृष्टी लगाय ऊपरके सर्व ही ज्ञानी हैं, तहां अविरतसम्यग्दृष्टि तथा देशविरत तथा आहारविहार करते मुनि तिनिके वाह्यक्रियाकर्म प्रवतें हैं, तौऊ अन्तरद्धमिध्यात्वके अभाव तथा ते यथासंभव कषाय अन उज्वल हैं। तनिक उजलाईकू तेही जाने हैं । मिथ्यादृष्टि afrat उजलाई जाने नाहीं । मिथ्यादृष्टि तौ बहिरात्मा है, बाह्यहोतें भला रामाने हैं । अन्तरात्माकी गति मिथ्यादृष्टि कहा जानैं ? आगे इस ही अर्थका समर्थनरूप कहे 5 5 हैं। जो ज्ञानीकै निःशंकित नामा गुण होय है, ताकी सूचनिकारूप काव्य कहे हैं ।
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अर्थ -- यह साहस केवल एक सम्यग्दृष्टि हैं तेही करनेकूं समर्थ हैं । जो भयकरि चलायमान 5 15 भया जो तीन लोकका जन, तिनने छोड्या है अपना मार्ग ज्याकरि ऐसा वज्रपात पडते संते भी अपने ज्ञान नाही चलायमान होय हैं। कैसे हैं सम्यग्दृष्टि ? स्वभाव ही करि निर्भयपणा सर्व 卐 5 ही शंका छोडि करि अपना आत्माकूं ऐसा जाने हैं जो नाहीं बाध्या जाय है ज्ञानरूप शरीर जोका, ऐसा आप ही करि जानते संते प्रवर्ते हैं ।
भावार्थ - सम्यग्दृष्टि निःशंकित गुण सहित होय है। सो ऐसा वज्रपात पडे, जो जाके भय करि तीन लोकके जन मार्ग छोडि दे तौऊ सम्यग्दृष्टि अपना स्वरूपकं निर्वाध ज्ञानशरीर मानता 5 ज्ञानते चलायमान न होय है। ऐसी शंका नाही ल्याये है, जो इस बज्रपाततें मेरा विनाश
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शादूलविक्रीडितच्छन्दः
सम्यग्दृष्टय एव साहसमिदं कर्तुं क्षमन्ते परं यऽपि पतत्यमी भवचलत्यैलोक्यमुक्ताध्वनि । सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शंकां विहाय स्वयं जानन्तः स्वमवध्योधनपुर्ण बोधाच्च्यवन्ते न हि ॥२२॥
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होयगा । पर्याय विनसे तौ याका विनाशीक स्वभाव ही है। आगे इस अर्थ गाथा करि कहे हैं ।
गाथा
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सम्मादिट्टी जीवा णिस्संका होति णिमया तेण । समक सत्तभयविप्पमुक्का जमा तह्मा दु गिस्संका ॥३६॥
सम्यग्दृष्टयो जीवा निश्शङ्का भवन्ति निर्भयास्तेन ।
सप्तभयविप्रमुक्ता यस्मात्तस्मात्तु निश्शङ्का ॥३६॥ ___आत्मख्याति:---येन नित्यमेव सम्यग्दृष्टयः सकलकमनिरभिलाषा: संतः, अत्यन्तकर्म निरपेक्षतया वर्तते तेन नूनमेते, अत्यन्त निश्शकदारुणाध्यवसायाः संतोऽत्यंतनिर्भयाः संभान्यते । ___अर्थ-सम्यग्दृष्टि जीव हैं ते निःशङ्कह ोय हैं, तिस कारण करि निर्भय होय हैं । जाते सप्तभय करि रहित होय हैं, तातें निःशंक होय हैं।
टीका--जाकारण करि सम्यग्दृष्टि हैं ते नित्य ही समस्त कर्मके फलकी अभिलाषाते रहित भये संते कर्मकी अपेक्षातें सर्वथा रहितपणा करि वर्ते हैं, ताकारण करि निश्चयतै अत्यन्त " निःशंक दारुण उत्कट तीन निश्चयरूप दृढ आशयरूप भये संते अत्यन्त निर्भय हैं। ऐसे संभा-卐 बना कोजिये हैं । अब सप्त भयके कलशरूप काव्य कहे हैं। तहां इस लोकका अर परलोकका ए. दोय भय है, ताको एक काव्य है।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः लोकः शाश्वत एक एष सकलव्यक्ती विविक्तात्मनः चिल्लोकं स्वयमेव मेवलमयं यल्लोकपत्येककः ।
लोकोऽयं न तयापरस्तव परस्तस्यास्ति तद्रीः कुतो निश्शंकं सततं स्वयं स सहज ज्ञानं सदा विन्दति ॥२३॥
अर्थ-यह भिन्न आत्माका चैतन्यस्वरूप लोक है सो शाश्वत है, एक है, सकलजीवनिके प्रगट । 卐 है, जाकू यह ज्ञानी आत्मा ही स्वयमेव एकाकी केवल अवलोकन करे है। तहां ज्ञानी ऐसे विचारे
है, जो यह चैतन्यलोक है, सो तेरा है बहुरि तिसते अन्य लोक है सो परलोक है, तेरा नाहीं।"३ ॐ ऐसा विचारता तिस ज्ञानीके इस लोक अर परलोकका भय काहेते होय ? नाही होय । तातें
सो ज्ञानी है सो निःशंक भया संता निरंतर आपकू' स्वाभाविक ज्ञानस्वरूप अनुभवे है।
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भावार्थ-जो इस भवमें लोकनिका डर होय, जो यह लोक मेरा न जानिये कहा बिगाड सभा करना ! सो ऐसा सो इह लोकका भय है । बहुरि परभवमें न जानिये, कहा होयगा? ऐसा भय ॥ - रहे सो परलोकका भय है । सो ज्ञोनी ऐसें जाने-जो मेरा लोक तौ चैतन्यस्वरूपमात्र एक नित्य
है, यह सर्वक प्रगट है । बहुरि इस लोक सिवाय है सो परलोक है; सो मेरा लोक तौ काइका क बिगाडया बिगडे नाहीं। ऐसे विचारता ज्ञानी आपकं स्वाभाविक ज्ञानरूप अनुभवें, साकै इस ।। लोकका भय काहेतें होय ? कदाचित् न होय । अब वेदनाका भयका काव्य है।
शार्दूलविक्रीडितछंदः एषकेव हि वेदना यदचलंबानं स्वयं वेद्यते निभेदोदितवेधवेदकवलादेकं सदानाकुलः।
नैवान्यागतवेदनैव हि भवेत्तद्धीः कुतो ज्ञानिनो निःशः सततं स्वयं स सहजं वानं सदा जिन्दति ॥२४॥ अर्थ-ज्ञानी पुरुषनिकै याही एक वेदना है जो निराकुल होय करि अपना एक ज्ञानस्वरूपा आप अपना ज्ञानभावही वेदने योग्य है अर आपहीवेदनेवाला ऐसा अभेदस्वरूप वेधवेदकभावके, 卐 चलते निरन्तर निश्चल वेदिये है-अनुभवन कीजिये है। बहुरि ज्ञानीके अन्यतें आई ऐसी वेदना ..
ही नाही है ताते तिसकै तिस वेदनाका भय काहे होय ? नाहीं होय । यात ज्ञानी निःशंक 9 भया संता अपना स्वाभाविक ज्ञानभावकू सदा निरन्तर अनुभव है।
भावार्थ-वेदना नाम सुखदुःखका भीगनेका है सो ज्ञानीकै एक अपना ज्ञानमात्रस्वरूपका भोगना ही है। यह अन्यकरि आईकू वेदना ही नाहीं जाने है। ताते अन्यागतवेदनाका भय जज नाहीं है । तातें सदा निर्भय भया ज्ञानका अनुभवन करे है । अब अरक्षाका भयका काव्य है।
शालविक्रीडितच्छन्दः यत्सनाशमुपैति या नियतं व्यक्त ति वस्तुस्थितिओनं सरस्वयमेव तत्किल ततस्त्रातं किमस्वापरः। अस्यात्राणमतो न किंचन भवेत्चद्भीः कुतो शानिनो निःशंकः सततं स्वयं स सहजं शानं मदा विन्दति । २शा अर्थ-ज्ञानी ऐसे विचार है, जो सत्स्वरूप वस्तु है, सो नाशकू प्राप्त नाहीं होय है, यह
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१. नियमते वस्तुकी मर्यादा है। बहुरि ज्ञान है सो आप सत्स्वरूप वस्तु है, ताका निश्चयकरि भन्यमय । करि कहा राख्या ? तात तिस ज्ञानके अरक्षा करनेस्वरूप किछू भी नहीं है। ताते तिस २ अरक्षाका भय ज्ञानीक काहेरौं होय ? नाहीं होय है। ज्ञानी तो अपना स्वाभाविक ज्ञानस्वरूपकू
निःशंक भया संता सदा आप अनुभवै है। 卐 भावार्थ-ज्ञानी ऐसें जाने है, जो सत्तारूप वस्तूका कदाचित् नाश नाहीं अर ज्ञान आप .. सत्तास्वरूप है। दो शाका शिछू लेसा माहीं है.. जाफी रक्षा किये रहे; नातरि नष्ट होय जाय । जतातें ज्ञानीके अरक्षाका भय नाही, निशंक भया संता आप स्वाभाविक अपना ज्ञानकू सदा 1अनुभवे है । अब अगुप्तिभयका काव्य है।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः प स्वं रूपं किल वस्तुनोऽस्ति परमा गुप्तिः स्वरूपे न यच्छक्तः कोऽपि परप्रथेष्टुमकृतं ज्ञानं स्वरूपं च नुः।
__ अस्यागुप्तिरतो न काचन भवेचीः कुतो शानिनो निःशंकः सततं वयं स सहज ब्रानं सदा विन्दति ॥२६॥ 卐 . अर्थ-ज्ञानी विचारे है, जो वस्तूका निजरूप है सो ही परमगुप्ति है। सो ताविर्षे पर है । .. सो कोई भी प्रवेश करनेकू समर्थ नाही है। बहुरि ज्ञान है सो पुरुषका स्वरूप है सो अकृत्रिम 卐 है, यातें या अगुप्ति किछु भी नाही है। ता तिन अगुप्तिका भय ज्ञानीक नाही है। 1- याहीते ज्ञानी निःशंक भया संता निरंतर आप स्वाभाविक अपना ज्ञानभावकू सदा अनुभव है। । भावार्थ-गुप्ति नाम जामैं काहूका प्रवेश नाहीं ऐसा गढ़ दुर्गादिकका है। तहां यह ॥ र प्राणी निर्भय होय वसै । ऐसा गुप्त प्रदेश न होय चौडा होय ता अगुप्ति कहिये । तहां बैठे " प्राणीकै भय उपजे । तहां ज्ञानी ऐसा जाने है, जो वस्तूका निजस्वरूप है, तामै परमार्थकार दूजे म + वस्तूका प्रवेश नाही, यह ही परमगुप्ति है । सो पुरुषका स्वरूप ज्ञान है । तामै काइका प्रवेश
नाहीं तातें ज्ञानीका काहेतें भय होय ? स्वाभाविक ज्ञानस्वरूपकू निःशंक भया संता निरंतर + अनुभवे है । अब मरणभयका काव्य है।
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शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः प्राणोच्छेदमुदाहरन्ति मरणं प्राणाः किलास्यात्मनो ज्ञानं तत्स्वयमेव शाश्वततया नो जियते जातुचित् । तस्यातो मरणं न किञ्चन भवेनद्भीः कुतो ज्ञानिनो निशंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ॥२७॥ प्राभूत
अर्थ-ज्ञानी विचारे है, जो प्राणनिका उच्छेद होना, तिसकं मरण कहे हैं। सो आत्माका ज्ञान है सो निश्चयकरि प्राण है सो ज्ञान है सो स्वयमेव शाश्वता है, यात याका कदाचित् भी 卐 उच्छेद नाहीं होय है। यात तिस आत्माकै मरण किछू भी नाही है सो ज्ञानीके ऐसे विचारतें
तिस मरणका भय काहे होय ? तातें सो ज्ञानी निःशंक भया संता, निरंतर अपना स्वाभाविक ॐ ज्ञानभावकू आम सदा अनुभव है।
भावार्थ-इंद्रियादिक प्राण विनसें ताकू लोक मरण कहे हैं । सो आत्माकै इंद्रियादिक प्राण परमार्थस्वरूप नाही निश्चयकरि ज्ञान प्राण है, सो अविनाशी है, ताका विनाश नाही । तातें आत्माकै मरण नाही यातें ज्ञानीकै मरणका भय नाहीं। यातें ज्ञानी अपना ज्ञानस्वरूप... निःशंक भया संता निरंतर आप अनुभवे है । अब आकस्मिक भयका काव्य है। .
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः एक शानमनायनन्तमचलं सिद्ध किलैतत्स्वतो पावत्ताव दिदं सदैव हि भवेन्नात्र द्वितीयोदयः ।। 卐 तन्नाकस्मिकमत्र किञ्चन भवेत्तभीः कुतो शानिनो निःशंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ॥२८॥
अर्थ-ज्ञानी विचारे है जो ज्ञान है सो एक है, अनादि है, अनंत है, अचल है, सो यह आपहीतें सिद्ध है। सो जेतें है तेते सदा सोही है, याविर्षे दुजेका उदय नाहीं है, तातें है याविर्षे अकस्मात नवा किछु उपजे ऐसा किछू भी नहीं है। ऐसें विचारतें तिस अकस्मात्
होनेका भय काहे होय ? नाही होय है। यातें सो ज्ञानी निःशंक भया संता निरंतर अपना 卐 स्वाभाविक ज्ञानस्वभावकू सदा अनुभवे है . .. भावार्थ-जो कबहु अनुभवमें न आया ऐसा किछू अकस्मात प्रगट हुवा भयानक पदार्थ,
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ताकरि प्राणीके भय उपजे, सो आकस्मिकभय है। सो आत्माका ज्ञान है सो अविनाशी अनादि - अनंत अचल एक है। सो याविर्षे दुजेका प्रवेश नाही, नवीन अकस्मात् कछू होय नाही, सो 5 ऐसा ज्ञानी आपकू जाने, ताके अकस्मात भय काहे होय ? । तातें ज्ञानी अपना ज्ञानभावकू॥ .. निःशंक निरंतर अनुभवे है। ऐसे सप्त भय ज्ञानीकै नाही हैं । इहां प्रश्न-जो अविरतसम्यग दृष्टि आदिककू भी ज्ञानी कहे हैं, अर तिनिकै भयप्रकृतिका उदय है, ताके निमित्ततें भय भी है
देखिये है। सो ज्ञानी निर्भय कैसा है ? ताका समाधान-जो भयप्रकृतिके उदयके निमित्ततें भय ।।
उपजे है ताकी पीडा न सही जाय है । जातें अंतरायके प्रबल उदयतें निर्बल है, तात तिस" 5 भयका इलाज भी करे है। परंतु ऐसा भय नाही-जाकरि स्वरूपका ज्ञान श्रद्धानतें चिगि जाय। म
बहुरि भय उपजे है सो मोहकर्मको भयनामा प्रकृतिका उदयका दोष है, ताका आप स्वामी होय,
कर्ता न बने है ज्ञाता ही है। आगे कहे हैं, सम्यग्दृष्टीकै निशंकितादि चिन्ह हैं, ते कर्मकी निर्जराज E करे हैं। शंकादिक करि किया बंध नाहीं होय है । ताको सूचनिकाका काव्य है।
मन्दाक्रान्ताछन्दः टोत्कीर्णस्वरसनिचितशानसर्वस्वभाजः सम्यग्दृष्टयदिह सकलं नन्ति लक्ष्माणि कर्म ।
तत्तस्यास्मिन्पुनरपि मनाककर्मणो नास्ति बन्धः पूर्वापाचं तदनुभवतो निश्चितं निर्जरैव ॥२६॥ + अर्थ-जातें सम्यग्दृष्टिके निःशंकित आदि चिन्ह हैं ते समस्तकर्मकू हणे हैं-निर्जरा करे हैं।" __ तातें फेरि भी इसका उदय होते नवीन कर्मका किञ्चिन्मात्र भी बंध नाही होय है। तिस 卐 कर्मका पहले बंध भया था, ताके उदयकू भोगवता संताकै ताकी नियम करि निर्जरा हो होय है। म .. कैसा है सम्यग्दृष्टि ? टंकोत्कीर्णवत् एक स्वभावरूप जो अपना निजरस, तिसकरि परिपूर्ण भया .. का जो ज्ञान, ताका सर्वस्वका भोगनहारा है-आस्वादक है।
भावार्थ-सम्यग्दृष्टि पहलै भयादिप्रकृति बांधी थी ताका उदयकू भोगवे है, तोऊ ताके नि:. ॥ शंकितादि गुण प्रवर्ते हैं, ते पूर्वकर्मकी निर्जरा करे हैं । अर शंकादिक करि कीया बंध नाहीं होय 卐
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पुरिसो जह कोवि इह वित्तिणिमित्तं तु सेवदे रायं । तो सोवि देदि राया विविहे भोगे सुहप्पादे ॥३२॥ एमेव जीवपुरिसो कम्मरयं सेवदे सुहणिमित्तं । तो सोवि कम्मरायो देदि सुहप्पादगे भोगे ॥३३॥ जह पुण सो चैव णरो वित्तिणिमित्तं ण सेवदे रायं । तो सोण देदि राया विविहसुहप्पादगे भोगे ॥३४॥ एमेव सम्मदिछी विसयत्तं सेवदे गा कम्मरयं । तो सो ण देदि कम्मं विविहे भोगे सुहुप्पादे ॥३५॥
पुरुषो यथा कोपीह वृत्तिनिमित्तं तु सेवते राजानं । तत्सोऽपि ददाति राजा विविधान् भोगान सुखोत्पादकान् ॥३२॥ एवमेव जीवपुरुषः कर्मरजः सेवते सुखनिमित्तं । तत्सोपि ददाति कर्मराजा विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान् ॥३३॥ यथा पुनः स एव पुरुषो वृत्तिनिभित्तं न सेवते राजानं । तत्सोऽपि न ददाति राजा विविधान सुखोत्पादकान् भोगान् ॥३४॥ एवमेव सम्यग्दृष्टिः विषयार्थ सेवते न कर्मरजः।
तत्तन्न ददाति कर्म विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान् ॥३५॥ । आत्मख्यातिः-यथा कश्चित्पुरुषो फलार्थ सजान सेवते ततः स राजा तस्य फलं ददाति । तथा जीवः फलार्थ " को सेवते ततस्तत्कर्म तस्य फलं ददाति । यथा च स एव पुरुषः फलार्थ राजानं न सेवते ततः स राजा तस्य फलं ना - ददाति । तथा सम्यग्दृष्टिः फलार्थ कर्म न सेवते ततस्तत्कर्म तस्य फलं न ददासीति तात्पर्य ।
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..-जैसें इस लोकारें कोई पुरुष आजीविका निमित्त राजाकू सेवे, तौ सो राजा भी ताकू " सुखके उपजावनहारे अनेक प्रकारके भोगनिकू दे है । ऐसे ही जीवनामा पुरुष सुखके निमित 卐 कर्मरूप रजकू सेवे, तौ सो कर्म भी ताकू सुखके उपजावनहारे अनेक प्रकारके भोगनिकूदे है। " . बहुरि जैसे सो ही पुरुष आजीविकानिमित्त राजाकून सेवे, तौ सो राजा भी ताकू सुखके उप-" 5 जावनहारे अनेक प्रकारके भोग नाहीं दे है। ऐसे ही सम्यग्दृष्टि है सो कर्मरूप रजकू विषयनिकेश 1- अर्थ नाही सेवे है, तौ सो कर्म भी ताकू सुखके उपजाउनहारे नाना प्रकारके भोग नाहीं दे है।
टीका-जैसे कोई पुरुष फलके अथि राजाकू सेवे है, तातें राजा ताकू फल दै है। तैसें ॥ + जीव है सो फलके अर्थि कर्म सेवे है, तातें सो कर्म ताकू फल दे है । बहुरि जैसें सो ही पुरुष
फलके अर्थ राजाकू नाही सेवे है, तातें सो राजा ताकू फल नाहीं दे है। तैसें सम्यग्दृष्टि फलके 卐 卐 अर्थि कर्मकू नाहीं सेव है, तातें सो कर्म ताकू फल नाहीं दे है, ऐसा तात्पर्य है।
भावार्थ--फलकी वांछा करि कर्म करे, ताका फल पावै, वांछाविना कर्म करें, ताका फल न " फ पावै । अब इहो आशंका उपजी है-जो फलकी वांछाविना कर्म काहे करे ? ऐसी आशंका दूरि । + करनेकू काव्य कहे हैं।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः स्यक्तं येन फलं स कर्म कुरुते नेति प्रतीमो वयं किन्वस्यापि कुतोऽपि किश्चिदपि तत्कर्मावशेनापतेत् ।
तस्मिन्नापतिते त्वकम्परमज्ञानस्वभावे स्थितो ज्ञानी किं कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति जानाति कः ॥२१॥ __अर्थ जाने कर्मका फल तो छोड्या अर कर्मकू करे है यह तो हम नाहीं प्रतीतिरूप करे हैं,
परन्तु यामें किछू विशेष है-जो या ज्ञानीकै भी कोई कारण किछू सो कर्म याके वशविना " + आय पडे है, ताकू आय पडते संते भी यह ज्ञानी निश्चल परमज्ञानस्वभावकेविर्षे तिष्ठ्या किछू ॥ कर्म करे है कि नाही करे है यह कौन जाने ? .. भावार्थ-ज्ञानीकै परवशतें कर्म आय पडे है, ताविर्षे भी ज्ञानी ज्ञानतें चलायमान न होय ॥
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है। तहां यह ज्ञानी है सो न जानिये कर्म करे हैं कि नाहीं करे है, यह कौन जानें ? ज्ञानीकी
ज्ञानीही जाने । अज्ञानीका ज्ञानीके परिणाम जाननेकू बल नाहीं, इहां ऐसा जानना, जो 5
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ज्ञानी कहने अविरत सम्यग्दृष्टी लगाय ऊपरके सर्व ही ज्ञानी हैं, तहां अविरतसम्यग्दृष्टि तथा देशविरत तथा आहारविहार करते मुनि तिनिके बाह्यक्रियाकर्म प्रवतें हैं, तौऊ अन्तरद्गमिथ्यात्वके अभाव तथा ते यथासंभव कषायके अभाव उज्वल हैं। तातें तिनिकी उजलाईकू तेही जाने हैं । मिथ्यादृष्टि तिनिकी उजलाईकूं जाने नाहीं । मिथ्यादृष्टि तो बहिरात्मा है, बाह्यहीतें भला
रामाने हैं । अन्तरात्माकी गति मिथ्यादृष्टि कहा जानें ? आगे इस ही अर्थका समर्थनरूप कहे 5 हैं। जो ज्ञानीकै निःशंकित नामा गुण होय है, ताकी सूचनिकारूप काव्य कहे हैं ।
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शादूलविक्रीडितच्छन्दः
सम्यग्दृष्टय एव साहसमिदं कतु क्षमन्ते परं यद्रजेऽपि पतत्यमी भयचलत्त्रैलोक्यमुक्ताध्वनि । सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शंकां विहाय स्वयं जानन्तः स्वमवध्यबोधयपूपं बोधाच्च्यवन्ते न हि ॥२२॥
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अर्थ - यह साहस केवल एक सम्यग्दृष्टि हैं तेही करनेकूं समर्थ हैं। जो भयकरि चलायमान 5 भया जो तीन लोकका जन, तिनने छोड्या है अपना मार्ग ज्याकरि ऐसा वज्रपात पडते संते भी अपने ज्ञान नाही चलायमान होय हैं। कैसे हैं सम्यग्दृष्टि ? स्वभाव ही करि निर्भयपणात सर्व 5 ही शंका छोड़ि कर अपना आत्माकूं ऐसा जाने हैं जो नाहीं बाध्या जाय है ज्ञान्दरूप शरीर जोका, ऐसा आप ही करि जानते संते प्रवर्तें हैं ।
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भावार्थ- सम्यग्दृष्टि निःशंकित गुण सहित होय है । सो ऐसा वज्रपात पडे, जो जाके भय
करि तीन लोकके जन मार्ग छोडि दे तौऊ सम्यग्दृष्टि अपना स्वरूपकूं निर्वाध ज्ञानशरीर मानता
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ज्ञानतें चलायमान न होय है। ऐसी शंका नाहीं ल्याबे है, जो इस वज्रपाततें मेरा विनाश 5
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होगा । पर्याय विनसे तौ याका विनाशीक स्वभाव ही है। आगे इस अर्थ गाथा करि कहे हैं।
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गाथा
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ॐ ॥ ॥ मज हैजज
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सम्मादिट्टी जीवा णिस्संका होति णिमया तेण । सत्तभयविप्पमका जह्मा तह्या दु णिस्संका ॥३६॥
सम्यग्दृष्टयो जीवा निश्शङ्का भवन्ति निर्भयास्तेन ।
सप्तभयविषमुक्ता यस्मात्तस्मात्तु निश्शाङ्का ॥३६॥ आत्मख्याति:-येन नित्यमेव सम्यग्दृष्टयः सकलकमनिरमिलापाः संतः, अत्यन्तकर्मनिरपेक्षतया वर्तते तेन ननमेते, अत्यन्त निश्शङ्कदारुणाध्यवसायाः संतोऽत्यंतनिर्भया: संभाम्यते । ___अर्थ-सम्यग्दृष्टि जीव हैं ते निशङ्कह ोय हैं, तिस कारण करि निर्भय होय हैं । गातें । सप्तभय करि रहित होय हैं, तातें निःशंक होय हैं।
टीका-जाकारण करि सम्यग्दृष्टि हैं ते नित्य ही समस्त कर्म के फलकी अभिलाषा रहित भये संते कर्मकी अपेक्षातें सर्वथा रहितपणा करि वर्ते हैं, ताकारण करि निश्चयतें अत्यन्त निःशंक दारुण उत्कट तीव्र निश्चयरूप दृढ आशयरूप भये संते अत्यन्त निर्भय हैं। ऐसे संभावना कीजिये हैं । अब सप्त भयके कलशरूप काव्य कहे हैं। तहां इस लोकका अर परलोकका ए दोय भय है, ताकी एक काव्य है।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः लोकः शाश्वत एक एप सकलव्यक्तो विविक्तात्मनः चिल्लोकं स्वयमेव मेवलमयं यल्लोफयत्येककः ।
लोकोऽयं न तवापरस्तय परस्तस्यास्ति तद्भीः कुतो निश्शंकं सततं स्वयं स सहज ज्ञानं सदा विन्दति ॥२३॥ ___ अर्थ-यह भिन्न आत्माका चैतन्यस्वरूप लोक है सो शाश्वत है, एक है, सकलजीवनिकै प्रगट 卐 है, जाकू यह ज्ञानी आत्मा ही स्वयमेव एकाकी केवल अवलोकन करे है । तहां ज्ञानी ऐसे विचारे .. है, जो यह चैतन्यलोक है, सो तेरा है बहुरि तिसतै अन्य लोक है सो परलोक है, तेरा नाहीं।"
ऐसा विचारता तिस ज्ञानीके इस लोक अर परलोकका भय काहेते होय ? नाही होय । ताते 1 सो ज्ञानी है सो निःशंक भया संता निरंतर आपकू स्वाभाविक ज्ञानस्वरूप अनुभव है।
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भावार्थ-जो इस भवमें लोकनिका डर होय, जो यह लोक मेरा न जानिये कहा बिगाढ - 9 करेगा ! सो ऐसा तो इह लोकका भय है । बहुरि परभवमें न जानिये, कहा होयगा? ऐसा भय ॥
रहे सो परलोकका भय है । सो ज्ञानी ऐसें जाने-जो मेरा लोक तौ चैतन्यस्वरूपमात्र एक नित्य ..
है, यह सर्वकै प्रगट है । बहुरि इस लोक सिवाय है सो परलोक है; सो मेरा लोक तौ काहका 卐 विगाडया विगडे नाहीं । ऐसे विचारता ज्ञानी आपकू स्वाभाविक ज्ञानरूप अनुभवे, ताकै इस .. लोकका भय काहेतें होय ? कदाचित् न होय । अव वेदनाका भयका काव्य है।
शार्दूलविक्रीडितछंदः एकैव हि वेदना पदचलं ज्ञानं स्वयं वेद्यते निभेदोदितवेद्यवेदकवलादेकं सदानाकुलः। __ नैवान्यागतवेदनैव हि भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो निःशः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ॥२४॥
अर्थ-ज्ञानी पुरुषनिके याही एक बेदना है जो निराकुल होय करि अपना एक ज्ञानस्वरूप - आप अपना ज्ञानभावही वेदने योग्य है अर आपही वेदनेवाला ऐसा अभेदस्वरूप वेद्यवेदकभावके चलते निरन्तर निश्चल वेदिये है-अनुभवन कीजिये है। बहुरि ज्ञानीकै अन्यतें आई ऐसीवेदना .. ही नाही है ताते तिसकै तिस वेदनाका भय काहे होय ? नाही होय । यातें ज्ञानी निर्शक । भया संता अपना स्वाभाविक ज्ञानभावक सदा निरन्तर अनुभव है।
भावार्थ-वेदना नाम सुखदुःखका भोगनेका है सो ज्ञानीकै एक अपना ज्ञानमात्रस्वरूपका भोगना ही है। यह अन्यकरि आईकू वेदना ही नाहीं जाने है। तातें अन्यागतवेदनाका भय ॥ + नाहीं है । तासे सदा निर्भय भया ज्ञानका अनुभवन करे है । अव अरक्षाका भयका काव्य है।
शालविक्रीडितच्छन्दः यत्सम्राशमुपैति यन्न नियतं व्यक्तं ति वस्तुस्थितिओनं सत्स्वयमेव तत्किल ततस्त्रातं किमस्वापरैः। अस्यात्राणमतो न किंचन भवेत्तभीः कुतो ज्ञानिनो निःशंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं मदा बिन्दति ॥२५॥ अर्थ-ज्ञानी ऐसे विचारे है, जो सत्स्वरूप वस्तु है, सो नाशकू प्राप्त नाहीं होय है, यह
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नियमतें वस्तुकी मर्यादा है। बहुरि ज्ञान है सो आप सत्स्वरूप वस्तु है, ताका निश्चयकरि अन्यमय । करि कहा राख्या ! तात तिस ज्ञानके अरक्षा करनेस्वरूप किछू भी नहीं है। ताते तिस
अरक्षाका भय ज्ञानीकै काहे होय ? नाहीं होप है । ज्ञानी तो अपना स्वाभाविक ज्ञानस्वरूपकू निःशंक भया संता सदा आप अनुभवै है। 9 भावार्थ-ज्ञानी ऐसें जाने है, जो सत्तारूप वस्तूका कदाचित् नाश नाहीं अर ज्ञान आप ... सत्तास्वरूप है । सो याका किछु ऐसा नाहीं है-जाकी रक्षा किये रहे; नातरि नष्ट होय जाय । ॐ तातें ज्ञानीकै अरक्षाका भय नाही, निःशंक भया संता आप स्वाभाविक अपना ज्ञानपू. सदा 1. अनुभवै है । अब अगुप्तिभयका काव्य है।।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः + स्वं रूपं किल वस्तुनोऽस्ति परमा गुप्तिः स्वरूप न यच्छक्तः कोऽपि परप्रवेष्टमकृतं ज्ञानं स्वरूपं च नुः।
। अस्यागुप्तिरतो न काचन भवेत्तीः कुतो ज्ञानिनो निःशंकः सततं स्वयं स सहज शानं सदा विन्दति ॥२६॥ 卐 अर्थ-ज्ञानी विचारे है. जो वस्तुका निजरूप है सो ही परमगुप्ति है। सो ताविर्षे पर है -
सो कोई भी प्रवेश करने... समर्थ नाही है। बहुरि ज्ञान है सो पुरुषका स्वरूप है सो अकृत्रिम है, यात याकै अगुप्ति किछू भी नाहीं है। तातै तिन अगुप्तिका भय ज्ञानीक नाही है। याहीतें ज्ञानी निशंक भया संता निरंतर आप स्वाभाविक अपना ज्ञानभावकू सदा अनुभव है।
भावार्थ-गुप्ति नाम जामैं काहूका प्रवेश नाहीं ऐसा गढ़ दुर्गादिकका है। तहां यह ॥ + प्राणी निर्भय होय वसै । ऐसा गुप्त प्रदेश न होय चौडा होय ताकू अगुप्ति कहिये। तहां बैठे ..
प्राणीकै भय उपजे । तहां ज्ञानी ऐसा जाने है, जो वस्तूका निजस्वरूप है, तामें परमार्थकरि दूजे : 卐 वस्तूका प्रवेश नाही, यह ही परमगुप्ति है । सो पुरुषका स्वरूप ज्ञान है । ताने काहका प्रवेश -
नाहीं तातें ज्ञानीका काहे भय होय ? स्वाभाविक ज्ञानस्वरूपकू निःशंक भया संता निरंतर ॥ 卐 अनुभवे है । अब मरणभयका काव्य है ।
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शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः प्राणोच्छेदमुदाहरन्ति मरणं प्राणाः किलास्यात्मनो ज्ञानं तत्स्वपमेय शाश्वततया नो डिघते जातुचित् ।
तस्यातो मरणं न किञ्चन भवेत्तीः कुतो शानिनो निशंकः सततं स्वयं त सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ॥२७॥ मप्र ____ अर्थ-ज्ञानी विचारे है, जो प्राणनिका उच्छेद होना, तिसकूँ भरण कहे हैं। सो आत्माका "ज्ञान है सो निश्चयकरि प्राण है सो ज्ञान है सो स्वयमेव शाश्वता है, यात याका कदाचित् भी , 卐 उच्छेद नाहीं होय है। याते तिस आत्माके मरण किछ भी नाहीं है सो ज्ञानीकै ऐसे विचारतें .. तिस मरणका भय काहेतें होय ? तातें सो ज्ञानी निशंक भया संता, निरंतर अपना स्वाभाविक h ज्ञानभावकू आप सदा अनुभवे है।
भावार्थ-इंद्रियादिक प्राण विनसें ताकू लोक मरण कहे हैं। सो आत्माकै इद्रियादिक प्राण परमार्थस्वरूप नाही निश्चयकरि ज्ञान प्राण है, सो अविनाशी है, ताका विनाश नाही । तातें ॥ आत्माकै मरण नाहीं यातें ज्ञानीकै मरणका भय नाहीं। यात ज्ञानी अपना ज्ञानस्वरूपकू निःशंक भया संता निरंतर आप अनुभवे है । अब आकस्मिक भयका काव्य है।
शालविक्रीडितच्छन्दः एकं ज्ञानमनाउनन्तमचलं सिद्ध किलतरस्वतो यावत्तावदिदं सदैव हि भवेन्नात्र द्वितीयोदयः । 卐 तन्नाकस्मिकमत्र किश्चन भवेत्तीः कुतो ज्ञानिनो निःशंकः सततं स्वयं स सहज ज्ञानं सदा विन्दति ।।२८॥
अर्थ-ज्ञानी विचार है जो ज्ञान है सो एक है, अनादि है, अनंत है, अचल है, सो यह " आपहीतें सिद्ध है । सो जेसे है तेते सदा सो ही है, याविषे दूजेका उदय नाहीं है, तातें ॥ जयाविर्षे अकस्मात् नवा किछू उपजे ऐसा किछू भी नाहीं है। ऐसे विचारतें तिस अकस्मात् ....
होनेका भय काहे होय ? नाही होय है । यातें सो ज्ञानी निःशंक भया संता निरंतर अपना ॥ स्वाभाविक ज्ञानस्वभावकू सदा अनुभवे है
भावार्थ-जो कबहु अनुभवमें न आया ऐसा किछू अकस्मात प्रगट हुवा भयानक पदार्थ, "
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ज्ञान है सो अविनाशी अनादि
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देखिये है । सो ज्ञानी निर्भय कैसा है ? ताका समाधान जो भयप्रकृतिके उदयके निमित्त भय
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उपजे है ताकी पीड़ा न सही जाय है । जातें अंतरायके प्रवल उदयतें निर्बल है, तातें तिस
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बहुरि भय उज्जे है सो मोहकर्मको भयनामा प्रकृतिका उदयका दोष है, ताका आप स्वामी होय,
कर्ता बने है ज्ञाता ही है। आगे कहे हैं, सम्यष्टी निःशंकितादि चिन्ह हैं, ते कर्मकी निर्जरा
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तातें फेरि भी इसका उदय होतें नवीन कर्मका किञ्चिन्मात्र भी बंघ नाही होय है | free
5 कर्मका पहले बंध भया था, ताके उदयकूं भोगवता संताकै ताकी नियमकरि निर्जरा ही होय है। कैसा है सम्यग्दृष्टि ? टंकोत्कीर्णवत् एक स्वभावरूप जो अपना निजरल, तिसकरि परिपूर्ण भया 5 जो ज्ञान, ताका सर्वस्वका भोगनहारा है-आस्वादक है।
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मन्दाक्रान्ताछन्दः
टक्ङ्कोत्कीर्णस्वरसनिचितज्ञानसर्वस्वभाजः सम्यग्दृष्टेर्यदिह सकलं मन्ति लक्ष्माणि कर्म | तस्यास्मिन्पुनरपि मनाक्कर्मणां नास्ति बन्धः पूर्वोपात्तं तदनुभवतो निश्चितं निर्जव ॥ २६ ॥
भावार्थ-सम्यष्टि पहलै भयादिप्रकृति बांधी थी ताका उदयकूं भोगवे हैं, तौऊ ताके निःशंकितिादि गुण प्रवतें हैं, ते पूर्वकर्मकी निर्जरा करे हैं । अर शंकादिक करि कोया बंध नाहीं होय
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है। अब इस कथनकू गाथामैं कहे हैं। ताहां प्रथम ही निःशंकित अंगकी गाथा
जो चत्तारिवि पाए छिंददि ते कम्ममोहबाधकरे । सो णिस्संको चेदा सम्मादिट्टी मुणेदव्वो ॥३७॥
यश्चतुरोपि पादान् छिनत्ति तान् कर्ममोहवाधाकरान् ।
स निशंकश्चेतयिता सम्यग्दृष्टिीतव्यः ॥३७॥ + आरमख्याति:---यतो हि सम्यग्दृष्टिः, टंकोत्कीर्णंकनायकभावमयत्वेन कर्मबंधकाकरमिध्यात्वादिभावामावा- . ___ निशंकः, ततोऽस्य शंकाकतो नास्ति बंधः । किं तु निरव । का अर्थ-जो आत्मा कर्म के बंधका कारण जो मोह, ताके करनेवाले मिथ्यात्वादि भावरूप ॥ च्यारि पाय, तिनिकू निशंक भया संता काटे है, सो आत्मा निःशंक सम्यग्दृष्टि जानना।
टीका-जातें सम्यग्दृष्टि है सो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमय है, तिस भावकरि कर्मबंधका 卐 कारण शंकाके करनेवाले ऐसे मिथ्यात्व अविरति कषाय योग ए च्यारि भाव, तिनिका याके
अभाव है, तातें निःशंक है, ताते याकै शंकाकरि किया हुवा बंध नाहीं है । तो कहा है ? निर्जरा . भावार्थ-सम्यग्दृष्टिके कर्म उक्य आवे है ताका आप स्वामीपणाका अभावतें कर्ता न होय । ना है। तातें भयप्रकृतिका उदय आवते भी शंकाका अभावते स्वरूपते च्युत नाहीं होय है, निःशंक
है। तातें याकै शंकाकृत बंध नाहीं होय है, कर्म रस दे खिरि जाप है। आगे निष्काक्षित गुणकी गाथा है
जो ण करेदि दु कंखं कम्मफले तहय सव्वधम्मसु । ॐ सो णिक्कंखो चेदा सम्मादिछी मुणेदव्वो ॥३८॥
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तथा ज्ञान्यपि यदि ज्ञानस्वभावं तकं प्रहाय ।
अज्ञानेन परिणतस्तदा अज्ञानतां गच्छेत् ॥३१॥ चतुष्कम् ।। आत्मख्यातिः-यथा खलु शंखस्य परद्रव्यमुपमजानस्यापि न परेण श्वेतभावः कृष्णीकतु" शक्येत परस्य पर- मा 4. भावतस्वनिमिचत्वानुपपत्तेः।
_तथा किल झानिनः परद्रव्यमुपाञानम्यापि न परेण ज्ञानमज्ञानं कर्तुं शक्येत परस्य परभाक्तत्वनिमित्तत्वानुप-ग के पत्तेः । ततो ज्ञानिनः परापराधनिमित्तो नास्ति बंधः।
___यथा च यदा स एव शंखः परद्रव्यमुपभुझानोऽनुषभुजानो या श्वेतभावं प्रहाय स्वयमेव कृष्णभावेन परिणमते ॥ + तदास्य सदभावः स्वयंशतः कृथामायः स्यात् ।
___तथा यदा स एव ज्ञानी परद्रव्यमुपभुञ्जानोऽनुपशुजानो वा ज्ञानं प्रहाय स्वयमेवाज्ञानेन परिणमेत तदास्य ज्ञानं " का स्वयंकृतमज्ञानं स्यात् । ततो ज्ञानिनो यदि (?) स्वापराधनिमित्तो बंधः । ___अर्थ-जैसा शंखोंका श्वेत स्वभाव है, सो शंख सचित्त अचित्त मिश्रित अनेक प्रकार द्रव्य
निळू भक्षण करे है, तौऊ तोका श्वेत स्वभाव कृष्ण करनेकू समर्थ नाहीं हूजिये है । तेसा ज्ञानी ॥ ॥ भी अनेक प्रकारके सचित्ताचित्तमिश्र द्रव्यनिळू भोगवे है, तोऊ ताका ज्ञान अज्ञानपणाकू प्राप्त
करनेकू समर्थ न हूजिये है । बहुरि जैसा सो ही शंख जिस काल अपने तिस श्वेतभावकू छोडि । फ़ कृष्णभावकू प्राप्त होय, तव शुक्लपणाकू छोडै तैसा ज्ञानी भी अपना तिस ज्ञान स्वभावकू जिस + काल छोडि अज्ञानकरि परिणमै, तिस काल अज्ञानताकू प्राप्त होय ।
टीका-जैसा शंख परद्रव्य भक्षण करता रहे है, ताका श्वेतभाव परकरि कृष्णस्व-म - भावस्वरूप करनेकू समर्थ न हूजिये है। जाते परके परभावस्वरूप करनेका निमित्तपणाकी
अप्राप्ति है तैसा परद्रव्या भोगवता जो ज्ञानी, ताका ज्ञान अज्ञानता स्वरूप करने• निश्चय करि परकरि नाहीं समर्थ हूजिये है । जाते परके परभावस्वरूप करनेका निमित्तपणाकी अप्राप्ति । है, तातें ज्ञानीकै परकै परभावस्वरूपकरने किये अपराधके निमित्ततें बंध नाहीं है। बहुरि जिस ॥
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卐 काल सो ही शंख परद्रव्यकूं भोगता संता होऊ अथवा न भोगता संता होऊ अपना श्वेतभावकू 5 छोडि आपही कृष्णभावस्वरूप परिणमै, तिस काल fre inr raभाव अपना ही किया कृष्णभावस्वरूप होय । तैसा ही सोही ज्ञानी परद्रव्यकू' भोगता संता होऊ तथा न भोगता 5 संता होऊ जिस काल अपना ज्ञानकूं छोडि स्वयमेव आप ही अज्ञान करि परिणमें, तिस काल याका ज्ञान अपना ही किया निश्चय करि अज्ञानरूप होय है । तातें ज्ञानीके परका किया बंध 5 नाही', आपही अज्ञानी होय तब अपना अपराधके निमित्त बंध होय है ।
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भावार्थ- जैसा शंख श्वेत है, सो परके भक्षणेतें तौ काला होय नाहीं । अब आप ही कालि- 5 मारूप परिणमै, तब काला होय । तैसा ही ज्ञानी उपभोग करता तौ अज्ञानी होय नाहीं । जब 15 आपही अज्ञानरूप परिणमै तब अज्ञानी होय, तब बंध करें है । याका कलशरूप काव्य कहे हैं । शार्दूलविक्रीडित छन्दः
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कर्त्तारं स्वफलेन यत्किल वलात्कर्मेंद नो योजयेत् कुर्वाणः फललिप्सुरेव हि फलं प्राप्नोति यत्कर्मणः ।
ज्ञानं संस्तदपास्तरागरचनो नो बध्यते कर्मणा कुर्वाणोऽपि हि कर्म तत्फलपरित्यागेकशीलो मुनिः ॥ २० ॥
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ताका फलकी इच्छा करें, सोही ताका फल पावे है । तातें जो ज्ञानी ज्ञानरूप हुवा प्रवर्तै अर कर्म करने विषै राग न करें अर तिसका फलकी आगामी इच्छा न करें, सो मुनि कर्मकरि बंधे 5 नाहीं है। आगे इस अर्थ दृष्टांतकरि दृढ करे हैं। गाथा
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प्रा
अर्थ - - निश्चय कर यह जानू जो कर्म है सो अपने करनेवाले कर्ताकूं अपना फल करि
बरजोरीतें तो नाही जोडे है । सो मेरा फलकूं तू भोगि । जो कर्मकूं करता संता तिस फलका इच्छुक हुवा करे है, सोही तिस कर्मका फल पाये हैं। तातें ज्ञानरूप हुवा संता कर्मविषै दूरी भया 5 है रागकी रचना जाकी ऐसा मुनि है, सो कर्मकू करता संता भी, कर्मकरि नाहीं बंधे है । जाते फ कैसा है यह मुनि ? तिस कर्मके फलका परित्यागरूप ही एक स्वभाव जाका ।
भावार्थ - कर्म तो कर्ताकूं जबरीतें अपना फलतें जोड़े नाहीं । अर जो कर्मकूं करता संता,
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है। अब इस कथनकूं गाथामै कहे हैं। यहां प्रथम ही निःशंकित अंगकी गाथा - जो चत्तारिवि पाए छिंददि ते कम्ममोहबाधकरे । सो सिंको चेदा सम्मादिट्टी मुगोदव्वो ॥३७॥ यश्चतुरोपि पादान् छिनन्ति तान् कर्ममोहबाधाकरान् । स निशंकश्चेतयिता सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्यः ||३७||
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आत्मख्यातिः --- यतो हि सम्बन्दष्टिः, टंकोरकीर्णे कज्ञापकभावमयत्वेन कर्मजं धर्मकाकर मिध्यात्वादिभावाभावानिशंक:, ततोऽस्य शंकाकृतो नास्ति बंधः । किं तु निर्जरेंव |
अर्थ - जो आत्मा कर्म के वंघका कारण जो मोह, ताके च्यारि पाय, तिनिकूं निःशंक भया संता काटे है, सो आत्मा
करनेवाले मिथ्यात्वादि भावरूप 5 निःशंक सम्यग्दृष्टि जानना । 卐
टीका - जातें सम्यग्दृष्टि है सो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमय है, तिस भावकरि कर्मबंधका 5 कारण शंकाके करनेवाले ऐसे मिथ्यात्व अविरति कषाय योग ए च्यारि भाव, तिनिका याकै अभाव है, तातें निःशंक है, तातें याकै शंकाकरि किया हुवा बंध नाहीं है । तौ कहा है ? निर्जरा फ्र ही है। भावार्थ- सम्यग्दृष्टि कर्म उदय आवे है ताका आप स्वामीपणाका अभावतें कर्ता न होय है । तातें भयप्रकृतिका उदय आवर्त भी शंकाका अभावतें स्वरूपतें च्युत नाहीं होय है, निःशंक है । तातें याकै शंकाकृत बंध नाहीं होय है, कर्म रस दे खिरि जाय है । आगें निष्कांक्षित गुणकी फ
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गाथा है
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जो ण करेदि दु कंखं कम्मफले तहय सव्वधम्मेसु ।
सो णिक्कखो चेदा सम्मादिठ्ठी मुणेदव्वो ॥ ३८ ॥
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यो न करोति तु कांक्षा कर्मफलेषु तथा च सर्वधर्मेषु ।
स निकांक्षश्वेतयिता सम्यग्दृष्टितिव्यः ॥३८॥ + आत्मख्यातिः-यतो हि सम्यग्दृष्टिः, टंकोत्कीर्णेकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि कर्मफलेषु सर्वेषु वस्तुधर्मेषु च 1- कांक्षाभावान्निष्कांक्षस्ततोऽस्य कांक्षाकृतो नास्ति बंधः किं तु निर्जरेव |
अर्थ-जो आत्मा कर्मके फलनिविर्षे तथा सर्व धर्मनिविर्षे वांछा नाहीं करे है, सो चेतयिता है 卐 आत्मा निष्कांक्ष सम्यग्दृष्टि जानना।
____टीका-जातें सम्यग्दृष्टि है सो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणा करि सर्व ही कर्मके फल-" । निति तथा सर्ज ही परलो गार्गनितिन बांछाके अभावतें निकांक्ष है-निर्वा छक है। तातें याकै + कांक्षाकरि किया हुवा बंध नाहीं है । तो कहा है ? निर्जरा ही है।
भावार्थ-सम्यग्दृष्टीकै कर्मका फलकेवि तथा सर्व धर्म कहिये कांच कंकणपणा आदि तथा 卐 निंदा प्रशंसा आदिके वचनरूप पुद्गलके परिणामन इत्यादि अथवा सर्वधर्म कहिये अन्यमतीनि
करि माने अनेक प्रकार सर्वथा एकांतरूप व्यवहार धर्मके भेद, तिनिविर्षे वाला नाही है। तातवांछाकरि होता जो बंध, सो याक नाही है। वर्तमानकी पीडा नहीं सही जाय ताके मेटनेके 卐 इलाजकी वांछा चारित्रमोहके उदयते है यह ताका आप कर्ता न होय है, कर्मका उदय जाणि .. ताका ज्ञाता है, तातें वांछाकरि किया बंध नाहीं है । आगै निर्विचिकित्सागुणकी गाथा है।
जो ण करेदि दु गुंछं चेदा सवसिमेव धम्माणं । सो खलु णिविदिगिंछो सम्मादिछी मुणेदवो ॥३९॥
यो न करोति जुगुप्सां सर्वेषामेव धर्माणां । स खलु निर्विचिकित्सः सम्यग्दृष्टितिव्यः ॥३९॥
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आत्मख्यातिः---यतोहि सम्यग्दृष्टिः टंकीर्णेज्ञायकस्वभावमयत्वेन सर्वेष्वपि वस्तुधर्मेषु जुगुप्साऽभावान्निविं5 चिकित्सः ततोऽस्य विचिकित्साकृतो नास्ति वंघः किं तु निजव |
अर्थ- जो जीव सर्व ही वस्तूके धर्मनिकी जुगुप्सा कहिये ग्लानि, ताहि न करे है, सो निश्चय७ 5 करि आत्मा निर्विचिकित्स कहिये विचिकित्सादोषरहित सम्यग्दृष्टि जानना ।
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टीका- जातें सम्यष्टि है सो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणा करि सर्व ही वस्तुधर्मनि fa जुगुप्सा अभाव निर्विचिकित्स है, ग्लानितारहित है । तातें याके विचिकित्साकर किया फ्र 5 बंध नाहीं होय है । तौ कहा है ? निर्जरा ही होय है ।
भावार्थ- सभ्य वस्तू धर्म जे क्षुधा तृषा शीत उष्ण आदि भाव तथा वा आदि फ्र 5 मलिनद्रव्य, तिनिकेविषै ग्लानि नाही करें हैं। जुगुप्सानामा कर्मप्रकृतिका उदय आवे ताका आप कर्ता न होय है । तातें जुगुप्साकर किया याके बंध नाहीं है। प्रकृति रस दे खिरि जाय 5 है । तातें निर्जरा ही है । आगे अमूददृष्टि अंगकी गाथा है ।
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जो हवदि असम्मूढो चेदा सव्वेसु कम्मभावेसु । सो खलु अमृढदिट्ठी सम्मादिठ्ठी मुणेदव्वो ॥४०॥ यो भवति, असंमूढः चेतविता सर्वेषु कर्मभावेषु ।
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स खलु अमृद्दृष्टिः सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्यः ॥ ४० ॥
आत्मख्यातिः - यतो हि सम्यग्दृष्टि, टंकोटकीर्णकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि भावेषु मोहाभावादमूढदृष्टिः ततोऽस्य फ महदृष्टिकृतो नास्ति बंधः किं तु निर्जरैव ।
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अर्थ- जो जीव सर्व भावनिविषै असंमूढ कहिये मूढ नाही होय है, यथार्थवस्तुकूं जाने है, सो सम्यग्दृष्टि चेतयिता निश्चयकरि अमूढदृष्टि जानना ।
टीका - जातें जो निश्चयकरि सम्यग्दृष्टि है, सो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणा करि सर्व
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9 भावनिविय मोहके अभावतें अमूढदृष्टि है। ताते याके मूढदृष्टिकरि किया हुवा बंध नाही है। म - तो कहा है ? निर्जरा ही है। ॐ भावार्थ-सम्यग्दृष्टि सर्वपदार्थनिका स्वरूप यथार्थ जाने हे, तिनिपरि राग द्वेष मोहके है - अभावते अयथार्थदृष्टि नाहीं पडे है, अर चारित्रमोहके उदयसे इष्टानिष्टभाव उपजे, ताकू - "उदयकी बरजोरी जानि तिनि भावनिका कर्ता न होप है। तातें मूढदृष्टिकरि किया हुवा बंध 卐 नाहीं है । तो कहा है ? निर्जरा ही है। प्रकृति रस दे खिरि जाय है । सो निर्जरा ही है। अब .. उपगृहनगुणकी गाथा है।
जो सिद्धभत्तिजुत्तो उवगृहणगो दु सव्वधम्माणं । सो उवगृहणगारी सम्मादिछी मुणेदवो ॥४१॥ यः सिद्धभक्तियुक्तः उपगृहनकस्तु सर्वधमान ।
स उपगृहनकारी सम्यग्दृष्टितिव्यः ॥४१॥ - वात्मख्याति:—यतो हि सम्यग्दृष्टिः, टंकोत्कीर्णेकज्ञावकमावमपरवेन समस्तात्मशक्तीनामुपहणातुपाहक, +
ततोऽस्य जीवस्य शक्तिदौर्बल्यकृतो नास्ति बंधः किं तु निरैव । + अर्थ-जो जीव सिद्धनिकी भक्तिकरि संयुक्त होय अर अन्य वस्तुके सर्वधर्मनिका उपगृहक +
कहिये गोपनेवाला होय, सो उपगृहनकारी सम्पम्हष्टि जानना। 卐 टीका-जातें निश्चयकरि सम्पदृष्टि है, सो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावमयपणा करि ॥ ... आत्माकी समस्तशक्तिका उपवृहण कहिये बधावनेते उपहक होय है। ताते याके जीवकी शक्तीका दुर्बलपणाकरि किया बंध नाही है। तो कहा है ? निर्जरा ही होय है।
भावार्थ--सम्यग्दृष्टि उपगृहनगुण करि संयुक्त होय है । सो उपगृहन नाम छिपाबनेका है। सो "निश्चयनय प्रधानकरि ऐसा कह्या--जो अपना उपयोग सिद्धभक्तिमै लगावे अर सर्वधर्मनिका
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उपग्रहक होय, सो सिद्धभक्तिमैं: उपयोग लगाया तब अन्य धर्मपरि दृष्टि ही न रही, तब सर्व ही फ्र
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छिपाये अर दूजा नाम उपगृहन का । सो अपना उपयोग सिद्धनिके स्वरूपमें लगाया तब अपना
आमाकी सर्व शक्ति बधाई, आत्मा पुष्ट भया सो दुर्बलताकरि बंध होय था, सो न होय है, तब 5 निर्जरा ही होय । बहुरि जेते अंतरायका उदय है, तेतें निचलाई है। परंतु याके अभिप्रायमें निबलाई नाही है । कर्मके उदयकूं जीतनेफा अपनी शक्तिसार महान् उद्यम होय है। आगे 卐 5 स्थितीकरण गुणकी गाथा है।-
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उम्मेगं गच्छंतं सिवमग्गे जो ठवेदि अप्पाणं ।
सोठिदिकरणेण जुदो सम्मादिट्ठी मुणेदव्व ॥ ४२ ॥
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उन्मार्ग गच्छंतं शिवमार्गे यः स्थापयत्यात्मानं ।
स स्थितिकरणेन युक्तः सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्यः ॥ ४२ ॥
आत्मख्यातिः यतो हि सम्यग्दृष्टिः टंकोत्कीर्णेकज्ञायकस्वभावमवत्वेन मागे एवं स्थितिकरणात् स्थितिकारी तोऽस्य मार्गच्यवनकृतो नास्ति बंध: कि तु निर्जव ।
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5 अपना आत्मा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप मोक्षका मार्ग, तातें छूटै तौ ताहूं तिस ही मार्गवि स्थापै, सो स्थितिकारी है । तातें मार्ग छूटनेकरि किया याकै बंध नाहीं होय । तौ होय है ? निर्जरा ही होय है ।
भावार्थ - जो अपना आत्मा अपने स्वरूपरूप मोक्षमार्गतें चिगै, ताकू तिस ही मार्गविष
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अर्थ- जो जीव अपने आत्माकूं भी उन्मार्ग चालतेकू मार्गविषै स्थापन करें, सो चेतयिता स्थितीकरणगुणयुक्त सम्यन्दष्टि जानना ।
टीका --जा सम्यष्टि है सो निश्चयकरि टंकोकी एक ज्ञायकस्वभावमय है, तातें जो फ
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स्थापे, सो स्थितीकरणगुणयुक्त है । ताकै मार्गत छूटनेकरि बंध होय सो घंध नाहीं होय । उदय आये कर्म रस देकरि खिरि जाय है, तातें निर्गरा ही है। आगे वात्सल्पगुणकी गाथा है
जो कुणदि वच्छलत्तं तिण्ह साधूण मोक्खमग्गम्मि। , सो वच्छलभावजुदो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ॥४३॥
___ यः करोति वत्सलत्वं त्रयाणां साधूनां मोक्षमार्गे।
स वात्सल्यभावयुक्तः सम्यग्दृष्टितिव्यः ॥४॥ ___आत्मख्याति:-यतो हि सम्यग्दृष्टिष्टकोत्कीर्णे बजायकमावमयत्वेन सम्पदर्शनशानचारित्राणां स्वस्मादमेदबुद्ध्या सम्यग्दर्शनान्मार्गवत्सलः, ततोऽस्य मार्गानुपलंभवतो नास्ति बंधः किं तु निर्जरेव । ____ अर्थ-जो जीव तीन जे साधु कहिये सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र अथवा आचार्य उपाध्याय" साधुपदसहित आत्मा, तिनिका रूप जो मोक्षमार्ग, ताविर्षे वात्सल्यभाव करे सो वत्सलभावकरि ॥ युक्त सम्यग्दृष्टि जानना।
टीका-जात निश्चयकरि सम्यग्दृष्टि है सो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणा करि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रनिकू आपते अभेदबुद्धि करि भलै प्रकार देखनेते मोक्षमार्गका वत्सल है अति-.. प्रीतियुक्त है ताते याकै मार्गकी अप्राप्ति करि किया कर्मका बंध नाहीं है। तौं कहा है ? " निर्जरा है। ___ भावार्य-वत्सलपणा नाम प्रीतिभावका है, सो मोक्षमार्गरूप अपना स्वरूपविर्षे अनुरागयुक्त होय, ताकै मार्गकी अप्रोति करि किया कर्मका बंध नाही, कर्म रस देकर खिरि जाय है, तातें निर्जरा ही है । आगे प्रभावनागुणकी गाथा है
विजारहमारुढो मणोरहरएसु हणदि जो चेदा। सो जिणणाणपहावी सम्मादिट्ठी मुणेदव्यो ॥४४॥
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विद्यारथमारूढः मनोरथरयान् हंति यश्चेतयिता । स जिनज्ञानप्रभावी सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्यः ॥४४॥ आत्मख्यातिः – यतो हि सम्यग्दृष्टिष्टकोत्कीर्णे कज्ञानभावमयत्वेन ज्ञानस्य समस्तशक्तिप्रबोधेन प्रभावजननात्प्रभा- प्रामृव वनकरः ततोस्य ज्ञानप्रभावनाकर्षकृतो नास्ति बंधः किं तु निर्जव |
अर्थ — जो जीव विद्यारूप रथविर्षे चढ्या मनरूप जो रथ चलनेका मार्ग, ताविषै भ्रमे है, 5 सो जिनेश्वरका ज्ञानका प्रभावना करनेवाला सम्यग्दृष्टि जानना ।
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टांका - जाते जो निश्चय कारे सम्यग्दृष्टि है, सो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भावमयपणा करि क ज्ञानकी समस्तशक्ति का फैलावने करि प्रभावके उपजावनेत प्रभावना करनेवाला है । तातें या 5 ज्ञानकी प्रभावनाका अप्रकर्ष कहिये वधावना नाहीं, ताकरि किया बंध नाहीं होय है । तौ कहा है ? निर्जरा ही है ।
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भावार्थ -- प्रभावना नाम उद्योत करना प्रगट करना इत्यादिकका है, सो जो अपना ज्ञानकुं निरंतर अभ्यास करि प्रगट करे बधावे, ताकै प्रभावना अंग होय है । ताकै अप्रभावनाकृत कर्मका बंध नाही है, कर्म रस दे खिरि जाय है । तातें निर्जरा ही है । इहां गाथामें ऐसें कथा -जो 5 विद्यारूपी रथविषे आत्माकूं थापि भ्रमे, सो ज्ञानकी प्रभावनायुक्त सम्यग्दृष्टि है । सो यह निश्चय प्रभावना है । जैसे व्यवहार करि जिनबिम्बकू रथविषे स्थापि नगर वन आदि विषै भ्रमाय प्रभावना करे, तैसे जानना । ऐसें सम्यग्दृष्टिज्ञानीकै निःशंकित आदिक आठ गुण कर्मकी निर्जके कारण कहे। ऐसे ही और भी सम्यक्त्वके गुण निर्जराके कारण जानना । बहुरि इहां निश्चयन्यप्रधान कथन है, तातैं आत्माहीके परिणाम निःशंकारूप आदिक करि 卐 कहे । ताका संक्षेप ऐसा जो सम्यग्दृष्टि आत्मा अपना ज्ञान अद्धानवियें निःशंक होय भयके निमि5 रातें स्वरूपतें चिगे नाहीं अथवा सन्देहयुक्त न होय, तार्के निःशंकित गुण कहिये ॥१॥ बहुरि जो फ्र कर्मका फलकी वांछा न करें तथा अन्य वस्तुके धर्मनिकी वांछा न करें, ताकै निष्कांक्षितगुण होय
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॥५॥ बहुरि जो वस्तुके धर्मनिविर्षे ग्लानि न करे, ताके निर्विचिकित्सा गुण होय है ॥३॥ बहुरि ।
जो स्वरूपविर्षे मूढ न होय यथार्थ जान; ताके अमूढदृष्टिगुण होय है ।४॥ बहुरि आत्माकू स्वरू-卐 'पते चिगताकू स्थापे, ताकै स्थितीकरण गुण होय है ॥५॥ बहुरि जो आत्माकू शुद्धस्वरूपमें लगावै प्र आत्माकी शक्ति बधावै अन्य धर्मनिळू गौण करे, ताके उपगृहन गुण होय है ॥६॥ बहुरि जो अपना ॥
स्वरूपवित्रं विशेष अनुराग राखे, ताकै वात्सल्य गुण होय है ॥७॥ बहुरि जो आत्माका ज्ञानगुणकू 卐 प्रकाशरूप प्रगट करै, ताकै प्रभावना गुण होय है ॥८॥ सो ए सर्व ही गुण इनिके प्रतिपक्षी म .. दोषनि करि कर्मका बंध होय था, ताकू न होने दे हैं अर इनिळू होते चारित्रमोहका उदयरूप ।। 7 शंकादि प्रवर्ते तौ, तिनिकी निर्जरा ही होय है, बन्ध नाही है। जाते बन्ध तो मिथ्यावसहित ग - ही प्रधानता करि कह्या है।
जो चारित्रमोहके उदयनिमित्ततें सम्यग्दृष्टीके सिद्धान्तमें गुणस्थाननिकी परिपाटीमैं बन्ध 卐कया है, सो वह भी बन्ध निर्जरारूप ही जानना । जाते सम्यग्दृष्टीके जैसे मिथ्यात्वके उदयमें 5 __बांध्या कर्म क्षरे है, तैसे ही नवीन बन्ध्या भी क्षरे है, याकै तिसका स्वामीपणाका अभाव है। 卐तातें आगामी बन्धरूप नाहीं, निर्जरारूप ही है। जैसे कोई पुरुष पराया द्रव्य उधार ल्याई का ..तिसतें आपके ममत्वबुद्धि नाही, वर्तमानमें तिस द्रव्यते किछु कार्य कर लेना होय सो करि ।।
पैलेकूकरारकै करार दे है । जेतें अपने घरमें भी पड्या रहै तौ तिसते ममत्व नाहीं । तातें तिस । - पुरुषके तिस द्रव्यका बन्धन नाहीं है । पर दिया बरावर ही है। तैसें ही ज्ञानी कर्मद्रव्य... -
जाने है, तातें ममत्व नाहीं है । सो छता भी निर्जरा सारिखा ही है ऐसें जानना। 卐 बहुरि ए निःशंकित आदिक आठ गुण व्यवहारनयकरि व्यवहार मोक्षमार्गपरि लगाय लेणे। म - तहां जिनवचनविर्षे सन्देह नाही, भय आये व्यवहारदर्शनज्ञानचारित्रतें चिगना नाहीं, सो निःशं. .. + कितपणा है ॥१॥ बहुरि संसार वेह भोगको वांछाकरि तथा परमतकी वांछाकरि व्यवहारमोक्ष- + मार्गत चिगै नाहीं, सो निष्कांक्षितपणा है ॥२॥ बहुरि अपवित्र दुर्गन्धादिक वस्तुके निमित्तते ।।
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व्यवहारमोक्षमार्गकी प्रवृत्तिमैं ग्लानि न करें, सो निर्विचिकित्सा है ||३|| बहुरि देव शास्त्र गुरु
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5 लोककी प्रवृत्ति अन्यमतादिक तत्त्वार्थका स्वरूपविषै मूढता न राखै, यथार्थ जानि प्रवतें सो अमूढ- 5 दृष्टि है || ४ || बहुरि धर्मात्मामें कर्म के उदयतें दोष उपजै, ताकूं गौण करे अर व्यवहार मोक्षमार्गकी 5 प्रवृत्ति बधावे सो उपगूहन तथा उपबृंहण है ||५|| बहुरि व्यवहारमोक्षमार्ग विगतेकूं घिरता करे सो स्थितिकरण है || ६ || बहुरि व्यवहार मोक्षमार्ग में प्रवर्तनेवालेतें विशेष अनुराग होय, सो 卐 वात्सल्य है ||७|| बहुरि व्यवहारमोक्षमार्गका अनेक उपाय करि उद्योत करें, सो प्रभावना है ॥८॥ 卐 卐 सो
ए व्यवहारनय प्रधान करि कहे हैं। सो इहाँ निश्चयंप्रधान कथनविर्षे इनिकी गौणता है।
सम्यग्ज्ञानरूप प्रमाणदृष्टी मैं दोऊ ही प्रधान हैं, स्याद्वादमत में किछू विरोध नाहीं है । अब निर्जरा
5 अधिकारकूं पूर्ण किया, सो निर्जराका स्वरूप यथार्थ जाननेवाला अर कर्मका नवीन बन्ध रोकि फ निर्जरा करनेवाला जो सम्बन्दृष्टि, ताकी महिमा करे हैं ।
मन्दाक्रान्ताछन्दः ।
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रुन्धन् बन्धं नवमिति निजैः सङ्गतोऽटाभिरंगैः शाम्बद्धं तु क्षयमुपनयन्निर्जरोज्जृम्भणेन ।
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सम्बदृष्टिः स्वयमतिरसादादिमध्यान्तमुक्त ं ज्ञानं भूत्वा मटति गगनाभोगरङ्ग विगाहा ॥ ३० ॥ इति निर्जरा निष्क्रांता ।
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इति समयसारख्याख्यायामात्मख्याती पछोकः ।
अर्थ- सम्यग्दृष्टि जीव है सो आप स्वयमेव अपने निजरसमें मस्त भया संता आदि मध्य 5
संता है ।
बंध तौ होय नाहीं अर माठ अंगमि
अन्तकार रहित सर्वव्यापक एकप्रवाहरूप धारावाहीज्ञानरूप होय करि अर आकाशका मध्यरूप
* जो रङ्गभूमि अतिनिर्मल ताविवें अवगाहन करि नृत्य करे है। कैसा है सम्यग्दृष्टि ? नवीन बंधकूं क
तौ पूर्वोक्त प्रकार रोकता संता है, बहुरि पहिली बांध्या था
ताकू अपने अष्ट अङ्गनिकारि सहित
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या संता निर्जराके प्रगट होनेकरि नाशङ्कं प्राप्त करता भावार्थ - सम्यग्दृष्टीकै शंकादिक कर किया नवीन
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करि सहित है, तातें निर्जराका उदय होनेकरि पूर्ववंधका नाश होय है। सो एक प्रवाहरूप झाम-" 5 रूप रसका आप पान कारे 'जैसे कोई मद पीयकरि मन्न भया नृत्यके अखाडेमैं नृत्य को है। तैसें निर्मल आकाशरूप रंगभूमिमै नृत्य करे है।
इहां कोई कहे-सम्यग्दृष्टिकै निर्जरा होना तो कहते आये अर बन्ध होना न कया। सो 卐 गुणस्थाननिकी परिपाटीमें सिद्धान्तमें अविरतसम्यग्दृष्टीते लगाय बंध कया है, अर घातिकर्म- ।।
निका कार्य आत्माका गुण घात करना है, सो दर्शन ज्ञान सुख वीर्य इनि गुणनिका घात भी । 卐 विद्यमान है, सो चरित्रमोहका उदय नवीन बन्ध भी करे ही है, अर मोहके उदयमें भी बन्धन'
मानिये तो मिथ्यादृष्टीकै मिथ्यात्व अनन्तानुवन्धीका उदय होते भी बंधका न होना क्यों न मानिये ? ताका समाधान-जो बन्ध होनेमें प्रधान मिथ्यात्व अनंतानुबंधीका उदय ही है अर) सम्यग्दृष्टीके तिनिका उदयका अभाव है, सो चारित्रमोहके उदयते यद्यपि सुखगुणका घात है ..
अर अल्प स्थिति अनुभाग लिये मिथ्यात्व अनंतानुबंधी विना तथा तिनिका लारकी अन्य प्रकृतिम 9 विना घातिकर्मकी प्रकृतिनिका तथा अघातिकर्मकी प्रकृतिनिका बन्ध भी होय है । तोऊ जैसा
मिथ्यात्व अनंतानुबंधीसहित होय तैसा होय नाहीं। अनन्तसंसारका कारण तो मिथ्यात्व अनंता
नुबन्धी है, तिनिका अभाव भये पीछे तिनिका बन्ध होय नाहीं। अर आत्मा ज्ञानी भया तब + 1- अन्य बंधकी कौन गिनती करे ! वृक्षकी जड कटै पीछे हरे पान रहनेका कहा अवधि ! ताते
इस अध्यात्मशास्त्रवि तौ सामान्यपणे ज्ञानी अज्ञानी होनेहीका प्रधान कथन है। ज्ञानी भये ॥ पीछे किछु कर्म रहे है ते सहज ही मिटते जायगे। जैसे कोई पुरुष दरिद्री था, सो झोपडीमैं
वसे था, ताकू भाग्य उदयकरि वडा महलकी धनसहित प्राप्ति भई । तामैं बहुत दिनका कजोडा 9 भरथा था, सो या पुरुषने आय प्रवेश किया तिसही दिनतें यह तौ महलका धनी सम्पदावान् ,
वणि गया। अब कजोडा झाडना है, सो अनुक्रमतें अपना बलके अनुसार झाडे है। जब सब" 卐 झाडि जायगा उज्वल होय जायगा, तब परमानन्द भोगेहीगा, ऐसें जानना । ऐसें रंगभूमिमें है
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निर्जराका प्रवेश भया था सो अपना स्वरूप प्रगट दिखाय निकसि गया । इहां ताई गाथा भई कलश १६२ भये। ऐसे समयसार नाम ग्रंथकी आत्मख्याति नाम टीकाकी वचनिकाविर्षे
सहा निसरा अभिकार पूर्ण भया ॥६॥
सवैया तेईसा सम्यकवंत महंत सदा समभाव रहे दुख संकट आये। कर्म नवीन बंधे न तचै अर पूरव बंध बडे विन माये ।। पूरण अङ्ग सुदर्शनरूप धरै निति मान पटै निज पाये । यों शिवमारग साधि निरंतर आनंदरूप निजातम थाये ॥१॥
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अथ बंधाधिकारः। ज दोहा-गादिकतें कर्मको बंध जानि मुनिराय । तबै तिनहि समभाव करि नमू सदा तिनि पाय ॥१॥
आत्मख्यातिः-अथ प्रविशति बंधः। 卐 अब टीकाकारके वचन हैं, जो अब बंध प्रवेश करे है । जैसे नृत्यके अखाडेमैं स्वांग प्रवेश
करे है, तैसें रंगभूमिमैं बंधतत्त्वका स्वांग प्रवेश करे है। तहां प्रथम ही सर्व तत्त्वका यथार्थ जान卐 नेवाला जो सम्यग्ज्ञान, सो बंधक दूरि करता संता प्रगट होय है ऐसे अर्थकू ले मंगलरूप काव्य फ़ कहे हैं।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः। रागोद्गारमहारसेन सकलं कृत्वा प्रमत्त जगत् क्रीडन्तं रसभावनिर्भरमहानाटयं न पन्धं धुनत् । आनन्दामृतनित्यभोजि सहजावस्था स्फुटं नाटयडीरोदारमनाकुलं निरुपधिज्ञानं समुन्मजति ॥१॥
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अर्थ-ज्ञान है सो उदय होय है । कहा करता संता उदय होय है ? बंध है ताहि उडावता। ..... संता उदय होय है । कैसा है घंध ? रागका उद्गार जो उगलना उदय होना सो ही भया महा
'... रस, ताकरि समस्त जगतकू प्रमत्त-प्रमादी-मतवाला करिके अर रसके भावकरि भरथा जो ३६ । बडा नृत्य, ताकरि नाचता है, ऐसा बंधकू उडावता है । बहुरि आप ज्ञान कैसा है ? आनंदरूप卐 5 अमृतका नित्य भोजन करनेवाला है । वहुरि अपनी जाननक्रियारूप स्वाभाविक अवस्था ताकू...
प्रगटरूप नचावता संता उदय होय है । बहुरि धीर है, उदार है, निश्चल है, बड़ा जाका विस्तार 卐 है। बहुरि अनाकुल है-जामें किछु आकुलताका कारण नाहीं रहे है । बहुरि निरुपधि है-परि-- .. ग्रहते रहित है--किछू परद्रव्यसंबंधी ग्रहणत्याग नाहीं है । ऐसा ज्ञान उदयकू प्राप्त होय है। " का भावार्थ-बंधतत्त्व रंगभूमामें प्रवेश करे है, ताकू ज्ञान उडायकरि आप प्रगट होय नृत्य त करेगा, ताकी महिमा या काव्यमें प्रगट करी है । ऐसा ज्ञान अनंतस्वरूप आत्मा सदा प्रगट रहौ । आगे चतता सम विचारे हैं। जहां प्रथम बंधका कारण... प्रगट कहे हैं । गाथा
जह णाम कोवि पुरिसो णेहभत्तोदु रेणुबहुलम्मि। ठाणम्मि ठाइदृणय करेदि सत्येहि वायामं ॥१॥ छिंददि भिंददि य तहा तालीतलकदलिवंसपिंडीओ। सचित्ताचित्ताणं करेदि दव्वाणसुवघादं ॥२॥ उवघादं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहि करणेहिं । गिच्छयदो चिंतिजदु किं पञ्चयगोदु तस्स रयबंधो ॥३॥ जो सो दुणेहभावो तइमि गरे तेण तस्स रयवंधो। मिच्छयदो बिगोयं ण कायचेदठाहिं सेसाहिं ॥४॥
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एवं मिच्छादिट्ठी बटुंतो वहुविहासु चेटासु । रागादी उवओगे कुव्वंतो लिप्पदि रयेण ॥५॥
यथा नाम कोऽपि पुरुषः स्नेहाभ्यक्तस्तु रेणुबहुले । स्थाने स्थित्वा करोति शस्ौक्यामं ॥१॥ छिमति सिनत्ति च तथा तालीफलकदलीवंशपिंडीः । सचित्ताचित्तानों करोति द्रव्याणामुपघातं ॥२॥ उपघातं कुर्वतस्तस्य नानाविधेः करणैः।। निश्चयतश्चित्यतां किंप्रत्यपकस्तु तस्य रजोबन्धः ॥३॥ यः स तु स्नेहभावस्तस्मिन्नरे तेन तस्य रजोबन्धः । निश्चयो विज्ञेयं न कायचेष्टाभिः शेषाभिः ॥४॥ एवं मिथ्यादृष्टिवर्तमानो बहुविधासु चेष्टासु ।
रागादीनुपयोगे कुर्वाणो लिप्यते रजसा ॥५॥ _आत्मख्यातिः-इह खलु यथा कश्चित् पुरुषः स्नेहाग्यक्तः स्वभावत एव रखोबहुलायां भूमौ स्थितः शन्नन्यायामकर्म कुर्वाणः, अनेकप्रकारकरणः सचिसाचित्तवस्तूनि चिन्नन् रजसा बध्यते । तस्य कतमो बन्धहेतुः ! न तावत्स्वभावत' एव रजोबहुला भूमिः, स्नेहानभ्यक्तानामपि तत्रस्थानां तत्प्रसंगात । न शस्त्रन्यायामकर्म, स्नेहानभ्यक्तानामपि तस्मात् .. तत्प्रसंगात् । नानेकप्रकारकरणानि, स्नेहानभिन्यक्तानामपि तैस्तत्प्रसंगात् । न सचित्ताचिसवस्तूपधासः, स्नेहानमिन्य-ज कानामपि तस्मिस्तत्प्रसंगात् । ततो न्यायवलेनैवैतदायातं यत्तस्मिन् पुरुषे स्नेहाभ्यंगकरण सम्बन्धहेतुः । एवं मिथ्याष्टिः, .. आत्मनि रागादीन् कुर्वाणः स्वभावत एव कर्मयोग्यपुद्गलबहुले लोके कापवाङ्मनःकर्म कुर्वाणोऽनेकप्रकारकरणैः । सचित्ताचित्तवस्तूनि विघ्नन् कर्मरजसा वध्यते । सस्य कतमो बन्धहेतुः । न तावत्स्वभावत एव कर्मयोग्यपुद्गलबालो ।। लोकः, सिद्धानामपि तत्रस्थानां तत्प्रसंगात् । न कायवाङ्मनःकर्म, यथाख्यातसंयतानामपि तत्प्रसंगात् । नानेकप्रकार
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करणानि, केवलज्ञानिनामपि तत्प्रसंगात् । न सचित्ताचित्तवस्तूपघातः, समितितत्पराणामपि तस्प्रसंगात् । ततो न्यायबले- 5 मय 5 नैतदेवायातं यदुपयोगे रागादिकरणं संबंधहेतुः ।
अर्थ —नाम कहिये प्रगटकरि कहे हैं, जो जैसे कोई पुरुष अपने देहकै स्नेह कहिये तैलादिक
5 लगायकरि, अर रज जहां बहुत ऐसे स्थानविधै तिष्ठिकरि अर शस्त्रनिकरि व्यायाम करे है अभ्यास करे है। तहां तालवृक्षका पेड तथा केलीका पेड तथा वांसका पिंड इत्यादिकूं छेदे है
卐
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भेदे है । बहुरि सचित्त चित्त द्रव्यनिका उपधात करें हैं। ऐसे नानाप्रकारके करणनिकर 57
5 उपघात करता तिस पुरुषकै निश्चयतें विचारों, साकै रजका बंध लगे है, सो कौनसे कारणाकरि
लगे है ? asi fae नरका जो तेल आदिका सचिक्कणभाव है, तिसकरि ताका बंध लगे है, यह
5 निश्चयतें जानना । बहुरि बाकी कायकी चेष्टा हैं, तिनिकरि सो रजका बंध नाहीं है, यह निश्चय है । ऐसे ही मिथ्यादृष्टि जीव बहुत प्रकारकी चेष्टाविषे वर्तमान है । सो अपना उपयोगविरागादिक भावनि करता संता कर्मरूप रजकरि लिये है, बंध करे है।
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टीका - इस लोक में निश्चयकरि जैसे कोई पुरुष स्नेह तेल आदिक, ताकरि अभ्यक्त कहिये
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मर्दनयुक्त भया संता, जामैं अपने स्वभावतें ही रज बहुत होय ऐसी भूमिविषै तिष्ठथा शस्त्रनिका क 15 व्यायाम कहिये अभ्यासरूप कार्यकूं करता संता अनेक प्रकारके कारणनिकरि सचित अचित्त वस्तूनिकं खापता संता, तिस भूमीको रजकरि बंधे है, लिपे हैं, ताकेँ विचारिये जो बंधका 5 कारण इनिमें कौन है ? तहां प्रथम तौ स्वभावही जामैं रज बहुत ऐसी भूमि सो रजके बंधने कारण नाहीं है । जो भूमि ही कारण होय तौ जिनिकै तैल आदिक नाहीं लम्बा अर 5 तिस भूमीविषै तिष्ठे तिनिकै भी तिस रजका बंध लग्या चाहिये, सो है नाहीं है । बहुरि शस्त्र - 5 निका अभ्यास करना कर्म है, सो भी तिस रजके बंध लगनेकूं कारण नाहीं है । जो शस्त्रकि
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अभ्यास बंधनेका कारण होय, तौ जिनिकै तैल आदि लग्या नाहीं, तिनिके भी तिस शस्त्राभ्यास फ
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करने रजका बंध लागे । बहुरि अनेक प्रकार करण ते भी तिस रजके बंधनेकूं कारण नाहीं
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के है। जो ऐसे होय, तौ जिसिके तेल आदि न लग्या होय, तिनिके भी तिनि करणनिकरि रजका समयबंध लागे। बहुरि सचित्त अचित्त वस्तुनिका उपघात है, सो भी तिस रजके लगने कारण " 25 नाहीं है। जो ऐसे होय तो जिनिकै तेल आदि लग्या नाहीं तिनिक भी सचित्त अचित्तका घात है
करते संते रजका बंध लागै । तातें न्यायका बलकरि ही यह आया, जो तिस पुरुषविर्षे तैल
आदि सचिवणका मर्दन करना है सो बंधका कारण है। ऐसे ही मिथ्यादृष्टि जीव अपना 卐 of आत्माविर्षे राग आदि भावनिकू करता संता स्वभावहीत कर्मके योग्य जे पुद्गल तिनिकरि
भरया जो लोकताविरों का वचन मनकी क्रियाकू करता संतो अनेक प्रकारके करणनिकरि का म सचित्त अचित्त वस्तूनिकू घातता संता, कर्मरूप रजकरि बंधे है। तहां विचारिये, बंधका कारण ।।
अतिशयवान् कौन है ? तहां प्रथम तौ स्वभावहीतें कर्मयोग्य पुद्गलनिकरि बहुत भरथा लोक का बंधका कारण नाहीं है । जो तिनितें बंध होय तौ लोकमें सिद्ध भी तिष्ठे हैं, तिनिका भी बंधकाम 1- प्रसंग आवे है । बहुरि काय वचन मनका कियास्वरूप योग हैं, ते भी बंधके कारण नाहीं हैं।
" जो तिनितें बंध होय यथाख्यातसंयमीनिकी काय वचन मनकी किया हैं, तिनिके भी बंधकाम 1 प्रसंग आवै है। बहुरि अनेक प्रकारके करण हैं, ते भी बंधके कारण नाहीं हैं। जो तिनितें बंध " होय, तो केवलज्ञानीनिकै भी तिनिकरणनिकरि बंधका प्रसंग आवे है। बहुरि सचित्त अचित्त ॥ 卐 वस्तूनिका उपघात है, सो भी बंधका कारण नाहीं है । जो तातें बंध होय, तौ जे साधु समिति- .. विर्षे तत्पर हैं, यमरूप प्रवर्ते हैं, तिनिके भी सचित्त अचित्तके घाततें बंधका प्रसंग आवै है, ताते । न्यायका बलकरि ही यह आया-जो उपयोगविर्षे रागादिकका करना है, सो ही बंधकाम
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4. कारण है।
__भावार्थ-इहां निश्वयनय प्रधान करि कथन है । सो जहां निर्बाध हेतुकरि सिद्ध होय, सो ; ही निश्चय, सो बंधका कारण विचारिये, सो निर्बाध यह ही सिद्ध भया-जो मिथ्यादृष्टि पुरुष ।। राम द्वेष मोह भावनिकू अपने उपयोगविय करे हैसो येरागादिक ही बंधके कारण हैं । अर अन्य ।
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जो कर्मयोग्य पुद्गलनितें भरथा लोक तथा मन वचन कायके योग तथा अनेक कारण तथा चेतन अचेतनका घात ये बंधके कारण नाहीं हैं। जो इनितें बंध होय, तौ सिद्धनिके तथा यथास्यात्तचारित्रवाक तथा केवलज्ञानीनिकै तथा समितिरूप प्रवर्तते मुनिनिकै बंघका प्रसंग आ है, अर तिनिके बंध है नाहीं, तातें यह हेतुमैं व्यभिचार भया । तातें बंधका कारण रागादिक ही हैं यह निश्चय है । इहां समितिरूप प्रवर्तनेवाले मुनिका नाम तौ लिया अर अविरत देश5 विरतका नाम न लिया। सो इनिके बाह्यसमितिरूप प्रवृत्ति नाहीं । तातें चारित्रमोहसंबंधी रागतें 5 किंचित बंध होय है, तातें सर्वथा बंधके अभावकी अपेक्षामैं इनिका नाम न लिया, सो अंतरंग अपेक्षा 5 ये भी निर्गन्ध ही जानने । आगे इस अर्थका कलशरूप काव्य है ।
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पृथ्वीछन्दः
न कर्मबहुलं जगन्न चलनात्मकं कर्मवाननेककरणानि वा न चिदचिवधो न बन्धकृत् । पदमुपयोगः समुपाति रामादिभिः स एव किल केवलं भवति बन्धहेतुर्नृणाम् ||२|| अर्थ---कर्मबंधका करनेवाला कर्मयोग्य पुद्गलनिकरि बहुत भरथा जो जगत् कहिये लोक सो
कारण नाहीं है । बहुरि चलनेस्वरूप जे कायवचनमनकी क्रिया कर्मरूप योग, ते भी कारण नाहीं
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हैं । बहुरि अनेक रीतिके करण, ते भी कारण नाहीं हैं । बहरि चेतन अचेतनका वध कहिये घात 卐
5 सो भी कारण नाहीं है । तौ कहा है ? जो उपयोगभू कहिये आत्मा, सो रागादिकनिकरि सहित एकताका भाव प्राप्त होय है, सो ही एक पुरुषनिकै बंधका कारण है ।
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5 नाहीं होय है, तातें साकै पूर्वोक्त वेशतें बंध नाहीं होय हैं ऐसें कहे हैं। गाथा
जह पुण सो चेव णरो गोहे सव्वा अवणिये संते । रेणुबहुलम्म ठाणे करेदि सत्थेहि वायामं ॥ ६ ॥
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भावार्थ - इहां निश्चयनयकरि एक रागादिकहीकूं बंधका कारण कया है । आगे सम्यग्दृष्टि फ
उपयोगविषै रागादिककूं नाहीं करे है, उपयोगके अर रागादिकके भेद जानि रागादिकका स्वामी
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छिंददि भिंददि य तहा तालीतलकदलिवंसपिंडीओ। सच्चित्ताचित्ताणं करेदि दवाणमुवघादं ॥७॥ उवधादं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहि करणेहिं। णिच्छयदो चिंतिजहु किंपञ्चयगो ण तस्स रयबंघो॥८॥ जो सो दुणेहभावो तमि णरे तेण तस्स रयबंधो। णिच्छयदो विराणेयं ण कायचेबाहिं सेसाहिं ॥९॥ एवं सम्मादिठी वढंतो बहुविहेसु जोगेसु। अकरंतो उवओगे रागादी व वज्झदि रयेण ॥१०॥
यथा पुनः स चैव नरः स्नेहे सर्वस्मिन्नपनीते सति । रेणुवहुले स्थाने करोति शस्ौक्यामं ॥६॥ छिनत्ति भिनत्ति च तथा तालीतलकदलीवंशपिंडीः। सचित्ताचित्तानां करोति द्रव्याणामुपधातं ॥७॥ उपघातं कुर्वतस्तस्य नानाविधैः करणः । निश्चयतो विज्ञेयं किंप्रत्ययको न रजोबंधः॥८॥ यः स, अस्नेहभावस्तस्मिन्नरे तेन तस्य रजोबंध । निश्चयतो विज्ञेयं न कायचेष्टाभिः शेषाभिः ॥९॥ एवं सम्यग्दृष्टिर्वर्तमानो बहुविषेषु योगेषु ।। अकुर्वन्नुपयोगे रागादीन न लिप्यते रजसा ॥१०॥
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आत्मरुयातिः --- यथा स एव पुरुषः स्नेहे सर्वस्मिन्नपनीवे सति तस्यामेव स्वभावात् एव रजोबहुलायां भूमौ तदेव शस्त्रम्यायामकर्म कुर्वाणस्तैरेवानेकप्रकारकरणैस्तान्येव सचिताविद्यवस्तूनि विभन् रजसा न बध्यते स्नेहाभ्यस्य बन्ध- फ
हेतोरभावात् । तथा सम्यग्दृष्टिः, आत्मनि रागादीनकुर्वाणः सन् तस्मिन्नेव स्वभावत एव कर्मयोग्यपुद्गलबहुले लोके
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तदेव कायवाङ्मनःकर्म कुर्वाणः, तैरेवानकप्रकारकरणः, तान्येव सचित्ताचित्तवस्तूनि निमन् कर्मरजसा न बध्यते रागयोगस्य बंधहेतोरभावात् । 卐
अर्थ - बहुरि सो ही नर जैसे तिस स्नेह तैलादिक सर्वकू दूरि किये संते बहुत रजके स्थान5 वर्षे शस्त्रनिका अभ्यास करे है, बहुरि तैसे ही तालवृक्षके तलकूं तथा केलीकूं तथा घांसका विडा छेदे है, भेदे है, सचित अचित्त द्रव्यनिका उपघात करे है, तहां उपघात करतेके ताके नाना प्रकार करणनिकरि करताकै निश्चयतें जानना, जो रजका बंधना कौन कारणतें नाहीं होय है ? फ्र तिस नरके जो सचिकणतासू रहितपणा हैं सो ही निश्वयतें वाकी काय संबंधी अन्य चेष्टाविना रजका नाहीं बंधनेका कारण है । ऐसे ही सम्यग्दृष्टि बहुत प्रकार योगनिविषै वर्तमान है, सो 15 योगविर्षे रागादिककू नाहीं करता संता वर्ते है, यातें कर्मरजकरि नाहीं लिये है ।
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टीका - जैसें सो ही पुरुष स्नेह कहिये तैलादिककी चिकणाई सर्व ही दूरि किये संते, स्वभाव 5 होतें जानें रजकी बहुलता ऐसी तिस ही भूमिविषै, तिनि ही शस्त्रनिका अभ्यासकूं करता संता, तिनि ही अनेक प्रकारके करणनिकर, तिनि ही सचित अचित्त वस्तूनिकू हणता घात 卐 करता संता रजकरि नाहीं बंधे है । जाते या बंधका हेतु जो सचिकूणपणाका मर्दन, ताका 5 अभाव है। तैलें ही सम्यग्दृष्टि पुरुष है सो आत्माविषे रागादिककू नाहीं करता संता, स्वभावहोतें कर्मयोग्य पुद्गलनिकरि भरचा ऐसा तिस ही लोकविषै, तिस ही काय वचन मनकी क्रियाकूं 卐 करता संता, तिनि ही अनेक प्रकारके करणनिकरि तिनि ही सचिव अचित्त वस्तुनिका घात करता संता कर्मरूप रजकरि नाहीं बंधे है । जातें या बंधका कारण जो रागका योग, ताका
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9 भावार्थ-सम्याष्टिक पूर्वोक्त सर्व संबंध होते भी रागका संबंधका अभाव है, तातें कर्मबंधक म नाही होय है। याका समर्थन पूर्वे कह ही आये हैं अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः - लोकः कर्म ततोऽस्तु सोऽस्तु न परिस्पन्दात्मकं कर्म तव तान्यस्मिन्करणानि सन्तु चिदचियापादनं चास्तु तत् ।
रागादीनुपयोगभूमिमनयन् शनं भवन्केवलं बन्धं नैव कुतोऽप्युपत्ययमहो सम्यग्गामा धक
अर्थ-तिस कारण सो कर्मनिकार अश्या पूर्वोक्त लोक है सो होहू, कुहुरि सो मन मन कायके चलनस्वरूप कर्मरूप योग है सो होहू, बहुरि ते पूर्वोक्त करण होहू, बहुरि सो पूर्वोक्स - चैतन्य अचैतन्यका व्यापादान कहिये घात करना होहू, यह सम्यग्दृष्टि है सो रागादिक उपयोग-5
भूमिमैं नाहीं प्रात करता संता अर केवल एक ज्ञानरूप होता संता, तिनि पूर्वोक्त कोई ही " कारणते बंधकू प्राप्त नाही होय है, यह निश्चल सम्यग्दृष्टि है, अहो ! देखो !! यह सम्यग्दर्शनकी 卐 अद्भुत महिमा है।
इहां सम्यग्दृष्टिका अद्भुत माहात्म्य कह्या है । अर लोक, योग, करण, चैतन्य अचैतन्यका ॥ घात प बंधके कारण न कहे हैं। तहां ऐसा मति जानू जो परजीवकी हिंसातें बंधन कहा, " तातें स्वच्छंद होय हिंसा करना । इहां अबुद्धिपूर्वक कदाचित् परजीवका घात भी होष, साते अंध न होय है । अर जहां बुद्धिपूर्वक जीव मारनेके भाव होहिंगे तहां तो अपने उपयोगते रामाविकका सद्भाव आवेगा, तहां हिंसातें बंध होयहीगा। जहां जीवकूजीवावनेका अभिप्राय होय, ताकू .. भी निश्चयनयमें मिथ्याख कहे हैं, तो मारनेका अभिप्राय मिथ्यात्व क्यों न होगा ? तते कायम
नकू नयविभागकरि यथार्थ समझि श्रद्धान करना। सर्वथा एकांत तो मिथ्यात्व है। अब इस " अर्थ दृढ करनेकू व्यवहारनयकी प्रवृत्ति करावनेक काव्य काहे हैं।
पृथ्वीछन्दः तमपि न निरर्गलं चरितमीक्षते शानिनां वदायतनमेव सा किल निरर्गला व्यापतिः । अकामतकर्म तन्मतमकारणं शानिना इयं न हि विरुभ्यो किस करोति जानाति च ॥
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अर्थ - तथापि कहिये लोक आदि कारणनितें बंघ का नाहीं अर रागादिकहीते बंध कया,
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तौऊ ज्ञानीनि निरर्गल कहिये मर्यादरहित स्वच्छंद प्रवर्तना योग्य न कया है । जाते निरर्गल प्रा
प्रवर्तना है सो बंधका ही ठिकाना है, ज्ञानीनिकै विनावांछा कर्म कार्य होय है, सो बंधका कारण का है, जातें जानें भी है अर कर्मकूं करें भी है, यह दोऊ क्रिया कहां विरोधरूप नाहीं है ? फ करना अर जानना तौ निश्चयतें विरोधरूप ही है।
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भावार्थ- पहली काव्य में लोक आदि बंधके कारण न कहें तहां ऐसें मति जानिये - जो माह्मव्यवहारप्रवृत्ति बंधके कारणनिमें सर्वथा ही निषेघी है, जो ज्ञानीनिकै अबुद्धिपूर्वक वांछा 5
विना प्रवृत्ति होय है, तातें बंध न कया है । तातें ज्ञानीनिकं स्वच्छंद प्रवर्तना तौ न कझा है,
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मर्याद प्रवर्तना तौ संघका ही ठिकाना है । जाननेमें अर करनेमें सौ विरोध है, ज्ञाता रहेगा फ्र
கழபிழபிமிமிமிமிபிகககழி
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15 तौ बंधन होगा, कर्ता होगा तो बंध होयहोगा । अब कहे हैं जो जाने है सो करे नाहीं है अर जो करे है सो जाने नाही है, जो करे है सो कर्मका राग है अर राग है सो अज्ञान है अर अज्ञान है सो बंधका कारण है । ऐसें काव्यमें कहे हैं।
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वसन्ततिलका छन्दः
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जानाति यः स न करोति करोति यस्तु जानात्ययं न खलु तत्किल कर्मरागः । रागं त्वबोधमयमव्यवसायमाहुमिध्यादृशः स नियतं स हि बन्धहेतुः ॥ ५ ॥
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अर्थ- जो जाने है, सो करे नाहीं है। बहुरि जो करे है, सो जाने नाही है। बहुरि जो
करे है, सो निश्चय यह कर्मराग है बहुरि जो राग है, ताकू मुनि हैं ते अज्ञानमय अध्यवसाय
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कहे हैं। सो यह मिथ्यादृष्टीके होय है, सो नियमतें बंघका कारण है । अब मिथ्यादृष्टिका फ
आशयकूं गाथा मैं प्रगटकरि कहे हैं। गाथा
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जो मरादि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं ।
सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तोदु विवरीदो ॥११॥
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आत्मरुवातिः - परजीवानहं हिनस्मि परजीवैर्हि स्पे चाहमित्यध्यवसायो ध वमज्ञानं स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानत्वामिध्यादृष्टिः । यस्य तु नास्ति स झानित्वात्सम्यग्दृष्टिः । मयमभ्यवसायोऽज्ञानं ? इति वेद
यो मन्यते हिनस्मि हिंस्ये च परैः सत्वे । स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः ॥ ११ ॥
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अर्थ- जो पुरुष ऐसें माने है, मैं परजीवकू हणं हूं, मारूं हूं, बहुरि परजीवनिक रि में हण्या जाऊ' हूं, पर मोकू मारे है, सो पुरुष मूह है, मोही है, अज्ञानी है । बहुरि ज्ञानी यातें विपरीत है, ऐसें नाहीं माने हैं ।
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फफफफफफफफफफफफफ
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श्री प्रसूत
टीका - परजीवनिकूं मैं हणू हूं । बहुरि परजीवनिकरि मैं हण्या जाऊ हूं। ऐसा अध्यवसाय कहिये निश्चयरूप जाका आशय है, सो निश्चयतें अज्ञान है । सो ऐसा अध्यवसाय जाऊँ होय फ्र सो अज्ञानी है । इस अज्ञानीपणातें मिथ्यादृष्टि है । बहुरि जाकै ऐसा आशयरूप अज्ञान नाहीं है सो ज्ञानीपणातें सम्यग्दृष्टि है ।
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भावार्थ-जाकै ऐसा आशय है "जो परजीवकूं मैं मारू ं हूं, अर पर मेरेतांई मारे हैं" सो फ 5 ऐसा आशय अज्ञान है । तातें सो अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है । अर जाके यह आशय नाहीं, सो ज्ञानी है, सम्यग्दृष्टि है। यहां ऐसा जानना - जो निश्चयनयकरि कर्ताका स्वरूप यह है, जो आप 5 स्वाधीन जिस भावरूप परिणमै ताकूं तिस भावका कुर्ता कहिये । सो परमार्थकरि कोऊ काहूके 5 मरण करे नहीं है। जो परकरि परका मरण माने है, तो अज्ञानी है। निमित्तनैमित्तिकभावतें कर्ता कहना व्यवहारनयका वचन है, सो यथार्थ मानना सम्यग्ज्ञान है। आगे पूछे है, यह अध्यवसाय अज्ञान कैसा है ? ताका उत्तररूप गाथा कहे हैं। गाथा
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आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिगवरेहिं पण्णत्तं । आउंगा हरेसि तुमं कह ते मरणं कं तेसिं ॥ १२ ॥ आउक्खयेण मरणं जीवाणां जिणवरेहिं पण्णत्तं ।
आउंन हरंति तुह कह ते मरणं कदं तेहिं ॥ १३॥
आयुः क्षयेण मरणं जीवानां जिनवरैः प्रज्ञप्तं ।
आयुर्न हरसि त्वं कथं त्वया मरणं कृतं तेषां ॥१२॥
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आयुः क्षयेण मरणं जीवानां जिनवरैः प्रज्ञप्तं ।
आयुर्न हरन्ति तब कथं ते मरतैः ॥
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आत्मख्यातिः – मरणं हि तावज्जीवानां स्वायुःकर्मक्षयेगैच तदभावे तस्य भावयितुमशक्यत्वात् स्वायुः कर्म च फ
नान्येनान्यस्य हतु ं शक्यं तस्य स्वोपभोगेनैव क्षीयमाणत्वात् । ततो न कथंचनापि, अन्योऽन्यस्य मरणं कुर्यात् । ततो
5 हिनस्मि हिंस्ये चेत्यभ्यवसायो ध्रुवमज्ञानं ।
जीवनाध्यवसायस्य द्विपक्षस्य का वार्ता ! इति चेत्
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अर्थ — जीवनिकै मरण है सो आयुकर्म के क्षयतें होय है । यह जिनेश्वरदेवने कला है। सो 卐
हे भाई, तू माने है "जो मैं परजीवकू मारूं हूं" सो यह अज्ञान है। जातें तू परजीवका आयु 15
कर्म हरे नाहीं है । तातें तिनिकै मरणकूं तूने कैसे किया ? बहुरि जीवनिकै मरण आयुकर्मके
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क्षयकरि होय है । ऐसें जिनेश्वरदेवने का है। अर हे भाई! तू ऐसें माने है "जो में परजीव निकरि मारया जाऊ हूं" सो यह तेरा अज्ञान है । जातें परजीव तेरा आयुकर्म हरे नाहीं । 5 तातें तिनितें तेरा मरण कैसा किया ?
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टीका - निश्चयकरि जीवनिके मरण है सो अपने आयुकर्मके क्षयहीकरि होय है, जो आयुका
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के क्षय न होय, तौ तिसके मरण करने कोऊ न समर्थ होय । बहुरि अपना आयुकर्म अन्यके 1- अन्यकरि हरनेका असमर्थपणा है । आयुकर्म तो अपना उपभोगहीकरि क्षयरूप होय है, तातें
अन्य है सो अन्यके मरण काहू प्रकार भी करे नाहीं है । तातें जो ऐसा माने है, अभिप्राय करे प्राभूत क है, जो में परजीवकू हणूई, तथा परजीव मोकू हणे हैं, सो यह अध्यवसाय निश्वयकरि ।। - अज्ञान है। 9 भावार्थ-जो जीवके मान्य होय अर तिस मान्यरूप कार्य न होय सो ही अज्ञान,सो मरण , .. आपके परका किया होय नाही, परके आपका किया होय नाही, अर यह प्राणी माने सो ही
अज्ञान है, यह निश्चयनय प्रधान कथन है। बहुरि परस्पर निमित्तनैमित्तिकभावकरि पर्यायका + म उत्पाद व्यय होय ताकू जन्ममरण कहिये है। तहां जाके निमित्ततें होय ताकू ऐसे कहिये, जो " याने याकूमारथा, सो यह कहना व्यवहार है । सो इहां ऐसा मति जानू'-जो व्यवहारका 卐 ॐ सर्वथा निषेध है। जे निश्चयकू न जाने तिनिका अज्ञान मेटनेकू कया है। याकू जाने पीछे
दोऊ नयके अविरोध जानि यथायोग्य नय मानना । फेरि पूछे हैं, जो मरणके अध्यवसायकू तौ + अज्ञान कहा सो जान्या, अर तिस मरणका प्रतिपक्षी जो जीवनेका अध्यवसाय, ताकी कहा - वार्ता है ? ऐसे पूछ उत्तर कहे हैं । गाथा
जो मण्णदि जीवेमिय जीविज्जामिय परेहि सत्तेहिं । सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तोदु विवरीदो ॥१४॥
यो मन्यते जीवयामि जीव्ये चापरैः सत्वैः ।
स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः ॥११॥ + आत्मख्याति:-परजीवानहं जीवयामि परजीवजींन्ये चाहमित्यध्यवसायो भ्रषमज्ञानं स तु यस्यास्ति सोशानि-4 .. त्वान्मिध्याष्टिः । यस्य तु नास्ति स झानित्वात् सम्यग्दृष्टिः।
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। कथमयमध्यवसायो शानमिति चेत्र ? . अर्थ-जो जीव ऐसैं माने है, जो में परजीवनिकू जीवाऊ हौं, बहुरि परजीव माकू जीवावे .....
हैं, सो मूढ़ है, मोही है, अज्ञानी है ! वारि ज्ञानी माते विपरीत है , येसे नाहीमाने, यातें 卐उलटा माने है। .. टीका-परजीवनिकू में जीवाऊ हो, बहुरि परजीव मेरे ताई जीवावे हैं, ऐसा अध्यवसाय
कहिये निश्चयरूप आशय है, सो निश्चयकर अज्ञान है । सो यह जाकै होय सो जीव अज्ञानी-पणातें मिथ्यादृष्टि है । बहुरि जाकै यह अध्यवसाय नाहीं है सो जीव ज्ञानीपणातें सम्यग्दृष्टि है। ___ भावार्थ-जो ऐसें माने हैं, जो मोकू पर जीवावे हैं, अर में पर जीवाऊ हौं, सो यह अज्ञान है, जाके यह अज्ञान है सो मियादृष्टि है । जाकै यह अज्ञान नाहीं सो सम्यग्दृष्टि हैं। आगै पूछे है, जो यह जीवावनेका अध्यवसाय अज्ञान कैसा है ? ताका उत्तर कहे हैं । गाथा
आउउदयण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्डू । आउं च ण देसि तुमं कहं तए जीविदं कदं तेसिं ॥१५॥ आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सब्वण्हू । आउं च ण दित्ति तुहं कहं णु ते जीविदं कदं तेहिं ॥१६॥
आयुरुदयेन जीवति जीव एवं भणन्ति सर्वज्ञाः । आयुश्च न ददासि त्वं कथं स्त्रया जीवितं कृतं तेषां ॥१५॥ आयुरुदयेन जीवति जीव एवं भणन्ति सर्वज्ञाः ।
आयुश्च न ददाति तव कथं तु ते जीवितं कृतं तैः ॥१६॥ - आत्मरूपातिः–जीवितं हि तावज्जीवानां स्वापुःकमोदयेनैव, तदभावे तस्य भावयितुमशक्यत्वात् । आयु: कर्म
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" च नान्येनान्यस्य दातुं शक्यं तस्य स्वपरिणामेनैव, उपाय॑माणत्वात् । ततो न कथंचनापि अन्योऽन्यस्य जीवितंभ समय कुर्यात् । अतो जीवयामि जीग्ये चेत्यध्यवसायो ध्र वमज्ञानं ।
दुःखसुखकरणाध्यवसायस्यापि, एषैव गतिः
अर्थ-जीव है सो अपनी आयुके उदयकरि जीवे है, ऐसे सर्वज्ञ देव कहे हैं। तहां हे भाई, 15 परजीवकू तू आयूकर्म नाहीदे है, तो तेने तिनि परजीवनिका जीवित कैसा किया ? बहुरि । 1 जीव है सो अपना आयुकर्मके उदयतें जीवे है, ऐसे सर्वज्ञ देव कहे हैं । तहां हे भाई, परजीव卐 1- तोकू आयुकर्म नाहीं दे हैं, तो तिनिने तेरा जीवित केला किया ?
टोका-जीवनिका जीवित है सो अपना आयुकर्म के उदयहीकरि है जो आयुका उदयका 卐 अभाव होय, तौ तिप्त जीवितका होनेका अशययगा है। बहुरि अपना आयुकर्म अन्यके अन्य।
करि देनेका असमर्थपणा है तिस आयुकर्मका अपने परिगामहोकार उपनायवापणा है तातें.अन्य। 卐 है सो अन्यके जीविता कोई प्रकार भी नाहीं करे है । यात परकू में जीवाऊ हौं तथा पर मोकूम
जीवावे हैं ऐसा अध्यवसाय है सो निश्चयकरि अज्ञान है। ___भावार्थ-पूर्व मरणके अध्यवसायमें कह्या सो ही जानना । आगे कहे हैं, जो दुःखसुख के करनेका अध्यवसायको भी याही गति है । गाथा
जो अप्पणादु मरणदि दुःखिदसुखिदे करेमि सत्तेति। सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तोदु विवरीदो ॥१७॥
य आत्मना तु मन्यते दुःखितसुखितान करोमि सत्यानिति ।
समूढोऽझानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः ॥१७॥ ___ आत्मख्याति:-परजीवानहं दुःखितान मुखितांश्च करोमि । परजीवैदुःखितः सुखितश्च क्रिमेह, इल्पव्यवसायो । ध्रुवमझानं । स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानित्वान्मिभ्या दृष्टिः । यस्य तु नास्ति स झानित्वाव सम्पद्रष्टिः।
कामव्यवसायोज्ञानमिति चेत
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अर्थ-जो जीव ऐसे माने है, जो में परजीवनिकू आपकरि दुःखी सुखी करुई। सो जीव मूढ है, मोही है, अज्ञानी है। बहुरि ज्ञानी है सो यातें विपरीत है, यात उलटा माने है।
टीका-परजीवनिकू मैं दुःखी करू हूं, बहुरि सुखी करूं हूं, बहुरि परजीव मोकू सुखी " दुःखी करे हैं ऐसा अध्यवसाय है सो निश्चयकरि अज्ञान है। सो यह अज्ञान जाके है सो अज्ञानी + है तातें सो मिथ्यादृष्टि है । बहुरि जाके यह अज्ञान नाही है, सो ज्ञानीपणातें सम्यग्दृष्टि है।
भावार्थ-जाकै ऐसा मान्य है जो में परजीवकू सुखी दुःखी करौं हौं अर मोकू परजीव सुखी दुःखी करे हैं सो यह मानना अज्ञान है, जाकै यह है सो अज्ञानी है, जाके यह नाही सो शानी है; सम्यग्दृष्टि है । आगे पूछे है, यह अध्यवसाय अज्ञान कैसा है ? ताका उत्तर कहे हैं। गाथा
कम्मणिमित्तं सव्वे दुक्खिदमुहिदा हवंति जदि सत्ता। कम्मं च ण देसि तुमं दुक्खिदमुहिदा कह कदा ते ॥१८॥ कम्मणिमित्तं सवे दुक्खिदसुहिदा हवंदि जदि सत्ता। कम्मं च ण देसि तुमं कह तं सुहिदो कदो तेहिं ॥१९॥ कम्मोदयेण जीवा दुक्खिदमुहिदा हवंति जदि सव्वे । कम्मं च ण देसि तुमं कह तं दुहिदो कदो तेहिं ॥२०॥
कर्मनिमित्तं सर्वे दुःखितमुखिता भवंति यदि सत्वाः । कर्म च न ददासि त्वं दुखितसुखिताः कथं कृतास्ते ॥१८॥ कर्मनिमित्तं सर्वे दुःखितमुखिता भवति यदि सत्वाः। कर्म च न ददासि त्वं कथं त्वं सुखितः कृतस्तैः ॥१९॥
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कर्मोदयेन जीवा दुःखितमुखिता भवति यदि सर्वे ।
कर्म च न ददासि त्वं कथं त्वं दुखितः कृतस्तैः ॥२०॥ आत्मरूपातिः-सुखदुःखे हि तावज्जीवानां स्वकर्मोदयेनैव तदभावे तयोर्भवितुमशक्यत्वात् । स्वकर्म च नान्येनास्य 5 दातुं शक्यं तस्य स्वपरिणामेनैवोपाय॑माणत्वात् । ततो न कथंचनापि, अन्योन्यस्य सुखदुःखे कुर्यात् । अतः मुखित-卐 - दुःखितान् करोमि । सुखितदुःखितश्च क्रिये चैत्यभ्यवसायो ध्रु वमनानं ।
___अर्थ-जोव हैं ते सर्व ही अपने कर्मके उदय करि दुःखी सुखी होय हैं । जो ऐसे हैं तो - हे भाई ! तिनि जीवनिकू कर्म तो तूं नाहीं दे है। तो ते दुःखी सुखी कैसे किये ? बहुरि जीव हैं।
ते सर्व ही अपने कर्म के उदय करि दुःखी सुखी होय हैं। जो ऐसे हैं, तो हे भाई ! ते जीव तौकून 卐 कर्म तो दे नाही, तिनिने तोकू दुःखी कैसे किया? बहुरि जीव हैं ते सर्व ही अपने कर्मका उदय
करि दुःखी सुखी होय हैं, जो है भाई ! ऐसे हैं तौ ते जीव कर्म तौ तोकू दे नाही, तो तोकू । म तिनित सुखी कैसे किया। ____टीका-सुखदुःख हैं ते प्रथम ही जीवनिके अपने कर्मके उदय हो करि होय हैं । जाते ।।
कर्मके उदयका अभाव होते तिनि सुख दुःखनिका उदय होनेका असमर्थपणा है। बहुरि अपना" 卐 कर्म है सो अन्यकू अन्यकरि देनेकू असमर्थ है, तिस कर्मके अपना परिणामही करि उपजवापना
है। तातें अन्यकै अन्य है सो सुखदुख काहू प्रकार भी नहीं करे है । यातें जाके ऐसाअध्यवसाय है, जो मैं परजीवनिळू सुखी दुःखी करौं हौं, बहुरि परजीवनि करि मैं सुखी दुःखी किया सो यह अध्यवसाय निश्चय करि अज्ञान है।
भावार्थ-जैसा आशय होय तेसा कार्य न होय, सो ऐसा आशय अज्ञान है । सो सर्वजीव卐 15 अपने अपने कर्मके उदय करि सुखी दुःखी होय है, सो जो ऐसे माने में परकू सुखी दुखी करौं ..
" हौं, अर मोकू पर सुखी दुःखी करे हैं, सो यह मानना निश्चयनय करि अज्ञान है अर निमित्त ' नेमित्तिकभाव है ताके आश्रय सुखदुःख करनेवाला कहना सो व्यवहार है, सो निश्चयकी ,
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सर्व सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् । अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् ॥६॥
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अर्थ- इस लोक में जीवन मरण जीवित दुःख सुख हैं ते सर्व ही सदाकाल नियमतें अपने
अपने कर्मके उदयते होय हैं । बहुरि जो परपुरुष है सो के
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वित दुःख सुख करे है
यह मानना है सो अज्ञान है । फेरि इस ही अर्थ दृढ करते संते अगिले कथानकी सूचनिका
रूप काव्य कहे हैं।
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दृष्टिमें गौण है । अब इस अर्थका कलशरूप काव्य है
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वसन्ततिलका छन्दः
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वसन्ततिलका छन्दः
अज्ञानमेतदधिगम्य परात्यरस्य पश्यन्ति ये भरणजीवितदुःखसौख्यम् । कर्माण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते मिथ्यादृशो नियतमात्महनो भवति ॥७॥
अर्थ - यह पूर्वोक्त मानना अज्ञान है, ताही प्राप्त होय करि जे पुरुष परतें परकें मरण
जीवित सुख दुःख होना देखें हैं, माने हैं, ते पुरुष "मैं इनि कर्मनिकं करूं हूं" ऐसा अहंकाररूप 5
फरसकरि कर्मनिकू करनेके इच्छुक हैं, कर्म करनेकी भारने जीवावने की सूखी दुःखी करनेकी वांछा करे हैं ते नियमकरि मिथ्यादृष्टि हैं । आप ही करि अपना घात जिनिके पाइये है ऐसे हैं ।
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भावार्थ -- जे परकूं मारने जीवावनेका तथा सुखदुःख करनेका अभिप्राय करे हैं, ते मिथ्या
दृष्टि हैं । अर अपना स्वरूपते च्युत भये रागी द्वेषी मोही होय आपही करि आपका घात करे हैं, तातें हिंसक हैं। आगे इस अर्थ गाथामें कहे हैं। गाथा
फफफफफफफफफफफफफ
जो मरदि जोय दुहिदो जायदि कम्मोदयेश सो सम्बो ता दुमारिदो दुहाविदो चेदि गहु मिच्छा ॥ २१ ॥
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+ जो ण मरदि णय दुहिदो सोविय कम्मोदयेण खलु जीवो। म
तङ्मा ण मरिदोदे दुहाविदो चेदि गहु मिच्छा ॥२२॥
यो म्रियते यश्व दुःखितो जायते कर्मोदयेन स सर्वः। सम्मात मारितस्ते दुःखितो देति न खलु मिथ्या ॥२१॥ यो न म्रियते न च दुखितो भवति सोपि च कर्मोदयेन खलु जीवः।
तस्मान्न मारितो नो दुःखितो वेति न खलु मिथ्या ॥२२॥ आत्मख्याति:---यो हि प्रियते जीवति वा दुःखितो भवति सुखितो भवति च स खलु कर्मोदयेनैव तदभावे वस्य जा तथा भपितमशक्यत्वात् ततः, मयायं मास्तिः, अयं जीवितः अयं दुःखितः कृतः, अयं मुखितः कृतः, इति पश्यन्
मिथ्यादृष्टिः। म अर्थ-जो मरे है बहुरि दुःखी होय है सो सर्व कर्मके उद्य करि होय है । तातें तैरै “मैं ... भारथा, मैं दुःखी किया ऐसा अभिप्राय है, सो मिथ्या नाहीं है कहा ? मिथ्या ही है। बहुरि + जो मरे नाहीं है बहुरि दुःखी नाही होय है सो भी कर्मके उदयही करि होय है । तातें तेरै
यह अभिप्राय है "जो में मारथा नाहीं अर दुःखी न किया" सो यह भी अभिप्राय कहा मिथ्या
नाहीं है ? मिथ्या ही है। + टीका-निश्चयकरि मरे है तथा जीवे है अथवा दुःखी होय है तथा सुखी होय है सो___ अपने कर्म के उदयकरि होय है। तिस कर्म के उदयका अभाव होते तिस जीवके तैसें मरण + जीवन सुख दुःख होनेका असमर्थपणा है । तातें में यह मारथा, यह मैं जीवाया, यह में दुःखी + किया, यह मैं मुखी किया ऐसें मानता संता जीव मिथ्यादृष्टि है।
___ भावार्थ-कोऊ काडूका मारचा मरे नाही, जीवाया जीवे नाही, सुखी एसी किन सुती म
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दुःखी होय नाहीं । यातें मारने जीवावने आदिका अभिप्राय करे सो तौ मिथ्यादृष्टि ही होय, यह निश्चयका वचन है । इहां व्यवहारनय गौण है । याका कलशरूप श्लोक है।
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अनुष्टुप्छन्दः
मिथ्यादृष्टेः स एवास्य बन्धहेतुर्विपर्ययात् । य एवाध्यवसायो ऽयमज्ञानात्माऽस्य दृश्यते ॥८॥
अर्थ - forefer it यह अध्यवसाय है सो अज्ञानरूप प्रत्यक्ष दीखे है, सो ही यह afrore free faपर्ययस्वरूप है तातें बंधका कारण है ।
भावार्थ - झूठा अभिप्राय सो ही मिथ्याल, सो ही बंधका कारण ऐसें जानना । अध्यवसाय बंघका कारण है ऐसें गाथामैं कहे हैं। गाथा
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एसा दुजो मदी दे दुःखिदसुहिदे करेमि सत्तेति । एसा दे मूढमदी सुहासुहं बंदे कम्मं ||२३||
आगे यह
ही
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एषा तु या मतिस्ते दुःखितसुखितान् करोमि सत्वानिति । एषा ते मूढमतिः शुभाशुभं बध्नाति कर्म ॥२३॥
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आत्मख्यातिः - परजीवानहं हिनस्मि न हिनस्मि दुःखयामि सुखयामि इति प एवायमज्ञानमयोऽभ्यवसायो मिथ्यादृष्टेः स एव स्वयं रागादिरूपत्वाचस्य शुभाशुभबंधहेतुः । अथाव्यवसायं बंधहेतुत्वेनावधारयति -
卐
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अर्थ- हे आत्मन् ! तेरी जो यह बुद्धि है जो मैं जीवनिकू सुखी दुःखी करू ं हूं, सो यह तेरी फ मूढबुद्धि है, मोहस्वरूप है। सो यह ही बुद्धि शुभ अर अशुभ कर्मनिकं बांधे है ।
卐
टीका - परजीवनिक में हणू हूं, दुःखी करूं हूं, सुखी करू ं हूं ऐसा जो यह अज्ञानमय अध्य
वसाय है, सो यह मिथ्यादृष्टिकै होय है । सो ही स्वयं रागादिरूपपणातें तिसके शुभाशुभ 5
बंधका कारण है ।
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भावार्थ - मिथ्या अध्यवसाय बंधका कारण है। आगे मिथ्या अध्यवसायकूं बंधका कारणपणा- 5 करि नियमरूप कहे हैं। गाथा
दुक्खिदसुहिदे सत्ते करेमि जं एस मज्झवसिदं ते ।
तं पाववंधगं वा पुराणस्स य वंधगं होदि ॥२४॥ मारम जीवावेमिय सत्ते जं एव मज्झवसिदंते ।
तं पाववंधगं वा पुण्णस्स य वंधगं होदि ॥ २५॥ दुःखितसुखितान् सत्वान् करोमि यदेवमध्यवसितं ते । तत्पापबंधकं वा पुण्यस्य च बंधकं वा भवति ॥२४॥ मारयामि जीवयामि च सत्वान् यदेवमध्यवसितं ते । तत्पापबन्धकं वा पुण्यस्य बन्धकं वा भवति ॥ २५॥
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आत्मख्यातिः - य एवायं मिथ्यादृष्टेरज्ञानजन्मा रागमयोध्यवसायः स एव वंधहेतुः इत्यवधारणीयं न च पुण्यपापत्वेन द्वित्वाइघस्य तद्वित्वं तरमन्वेष्टव्यं १ एकेनैवानेनाध्यवसायेन दुःखयामि, मारयामि, इति सुखयामि, जीवयामीति च द्विधा शुभाशुभाई काररसनिर्भरतया द्वयोरपि पुण्यपापयोर्बन्धहेतुत्वस्याविरोधात् ।
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एवं हि हिंसाभ्यवसाय एव हिंसेत्यायातं ---
अर्थ - हे आत्मन् ! तेरा यह अध्यवसित है -अभिप्राय है, जो में जीवनिकूं दुःखी सुखी करू
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हूं, सो ही यह अभिप्राय पापबंधक है तथा पुण्यका बंधक है। बहुरि मैं जीवनिकं मारूं हूं 5
5
अथवा जीवाऊ हूं जो तेरा यह अध्यवसित है- अभिप्राय है, सो भी पापका बंधक है तथा पुण्यका बंधक है।
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टीका - जो यह मिथ्यादृष्टिके अज्ञानतें जाका जन्म भया ऐसा रागमय अध्यवसाय है सो
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ही यह बंधका कारण है, ऐलें अवधारण करना नियम जानना । बहुरि बंधके पुण्यपापपणाकरि
प्राभूष
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5 वोयपणाकरि दोयपणा है, सो याके दोयपणे कारणका भेद नाहीं हेरणा जो पुण्यका कारण 5 तौ अन्य है अर पापबंधका कारण किछ और है। एक ही इस अध्यवसायकरि दुःखी करूं हूं, मारूं हूं ऐसा तथा सुखी करू हूं, जीवाऊ हूँ ऐसा दोय प्रकार शुभ अशुभ अहंकाररसकरि
२६ भरयापणाकरि पुण्यपाप दोऊहीनिका बंधका कारणपणाका अवरोध है । एक ही अध्यवसायकरि पुण्यपाप दोऊका बंध है ।
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भावार्थ -- यह अज्ञानमय अध्यवसाय ही बंधका कारण है। तहां शुभ अध्यवसाय तौ जीवावना सुखी करना ऐसा है बहुरि मारना दुःखी करना यह अशुभ अध्यवसाय है । सो अहंकाररूप मिथ्याभाव दोऊही में हैं, तातें ऐसा न जानना, जो शुभका कारण तौ और है अर 5 अशुभका कारण तौ और है । अज्ञानमयपणाकरि दोऊ अध्यवसाय एक ही है। आगे कहे हैं जो ऐसें होतें अध्यवसाय ही बंधका कारण होतें जो यह हिंसाका अध्यवसाय है, सो ही हिंसा है, फ यह आया । गाथा
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अज्झवसिदेण वंधो सत्ते मारे हि माव मारे हि ।
एसो वंघसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स ॥ २६ ॥
अध्यवसितेन बन्धः सत्वान् मारयतु मा वा मारयतु । एष बन्धसमासो जीवानां निश्चयनयस्य ॥ २६ ॥
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फ परेग कतुमशक्यत्वात् ।
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आत्मख्यातिः--परजीवानां स्वकर्मोदयवैचित्र्यवशेन प्राणन्यपरोपः कदाचिद् भवतु, कदाचिन्मा भवतु । य एव निस्मीत्यहंकाररसनिर्भरी हिंसायामध्यवसायः स एव निश्चयतस्तस्य बंधहेतुः, निश्चयेन परभावस्य प्राणन्यपरोपस्य
अथाध्यवसायं पापपुण्योर्बन्धहेतुत्वेन दर्शयति
अर्थ - निश्चयनका यह पक्ष है, जो जीवनिकं मारो अथवा मति मारो, यह जीवनिकै
कर्मबंध है सो अध्यवसायहीकरि है, यह ही बंघका संक्षेप है ।
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टोका-परजीवनिके प्राणनिका वियोग है सो अपना कर्मका उदयका विचित्रपणाका वशिकरि है। सो कदाचित् होऊ अथवा कदाचित् मति होऊ जो "यह में हर्जू हो" ऐसा अहंकार- 卐.... - रसकरि भरथा हिंसाके विर्षे अध्यवसाय है-अभिप्राय है सोही निश्चयते तिस अभिप्रायवाले "पुरुषके बंधका कारण है, जात निश्चयनयको पक्षमें परका भाव जो प्राणनिका वियोग करना, सो , परके करनेकुं असमर्थपणा है।
भावार्थ-निश्चयनयकरि परका प्राणनिका वियोग करना परका किया होय नाही, ताके 5 卐 कर्मके उदयकी विचित्रताकरि कदाचित् होय है, कदाचित् नाहीं होय है तातें जो ऐसा माने है
" अहंकार करे है “जो में परजीवकूमारूह" सो यह अहंकाररूप अध्यवसाय है । सो अज्ञानमय । 卐है। सो यह ही हिंसा है, अपना विशुद्धचेतन्य प्राणका घात है अर यह ही बंधका कारण है, .... यह निश्चयनयका मत है। इहां व्यवहारनयकू गोणकरि कया जानना, सो कथंचित् जानना। ॐ सर्वथा एकांतपक्ष है सो मिथ्यात्व है। आगै यह हिंसाका अध्यवसाय कसा तैसें ही तिसहीकू 1. अन्य कार्य निविर्षे भी पुण्यपापका बंधका कारणपणाकरि प्रत्यक्ष दिखावे है। गाथा
एवमलिये अदत्ते अवमचेरे परिग्गहे चेव । कीरदि अज्झवसाणं जं तेण दु वज्झदे पावं ॥२७॥ तहय अचोजे सच्चे वंभे अपरिगहत्तणे चेव । कीरदि अज्झवसाणं जं तेण दु वज्झदे पुगणं ॥२८॥
एवमलीकेऽवत्तेऽब्रह्मचर्ये परिग्रहे चैव । क्रियतेऽध्यवसानं यत्तेन तु बध्यते पापं ॥२७॥
10 तथापि च सत्ये दत्ते ब्राह्मणि, अपरिग्रहत्वे चैव । क्रियतेऽध्यवसानं यत्तेन तु बध्यते पुण्यं ॥२८॥
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र आत्मख्याति:-एवमयमज्ञानात यो यथा हिंसायां विधीयतेऽध्यवसायः, तथा असत्यादचानपरिग्रहेषु याच विधी" यते स सर्वोऽपि केवल एव पापबंधहेतुः यस्तु अहिंसायां यथा विधीयते, अध्यवसायः । तथा यश्च सत्पदचनमापरि'प्रहेषु विधीयते स सर्वोऽपि केवल एव पुण्यबंधहेतुः । - न च वालवस्तु द्वितीयोऽपि संधहेतुरिति शक्यं वक्तु' अर्थ--एवं कहिये पूर्वे हिंसाका अध्यवसाय कह्या तेसे ही अलीक कहिये असत्य अदत्त कहिये ॥ + चोरी आदिकरि विना दिया परधनका लेना, अब्रह्मचर्य कहिये स्त्रीका संसर्ग, परिग्रह कहिये धन- .. .. धान्यादिक इनिवि जो अध्यवसान कीजिये; तिसकरि तौ पापका बंध होय है। बहुरि तेसे ही
सत्यविधे, दिया लेनेविर्षे, ब्रह्मचर्यविय, अपरिग्रहविर्षे जो अध्यवसान कीजिये, तिसकरि पुण्यका बंध होय है। ____टीका-एवं कहिये पूर्वोक्त प्रकार यह अज्ञानतें जो जैसे हिंसाविर्षे अध्यवसाय करिये तैसेंही है 5 असत्य, अदत्त, अब्रह्म, परिग्रह इनिविर्षे जो अध्यवसाय कीजिये, सो सर्व ही केवल एक पाप- 4
बंधहीका कारण है। बहुरि जो अहिंसाविर्षे जैसे कीजिये तैसें ही सत्य, दत्त, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह इनिविय भी अध्यवसाय कीजिये, सो सर्व ही केवल एक पुण्यबंधहीका कारण है।
भावार्थ-जैसा हिंसाविर्षे अध्यवसाय पापबंधका कारण कह्या, तैसा असत्य, अदत्त, अब्रह्म परिग्रह इनिविर्षे अध्यवसाय पापबंधका कारण है । बहुरि जैसा अहिंसाविर्षे अध्यवसाय पुण्यका
कारण है, तैसा सत्य, दत्त, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रहपणा इनिविर्षे पुण्यबंधका कारण है। ऐसें पांच पापका - अभिप्राय तो पापबंध करे है अर पांच व्रत एकदेश सर्व देशविर्षे अभिप्राय है सो पुण्यबंध करे है। 卐 आगे कहे हैं जो बाह्यवस्तु है, सो दूसरा बंधका कारण है नाहीं कोई जानेगा कि, जैसा
अध्यवसान बंधका कारण है, तैसा बाह्यवस्तु है सो भी दूसरा बंधका कारण है सो ऐसें नाहीं है। एक अध्यवसाय ही अंधका कारण है। गाथा
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वत्थु पडुच्च जं पुण अज्झवसाणं तु होदि जीवाणं । ण हि वत्थुदो दुवंधो अज्झवसाणेण वंघोत्ति ॥२९॥
वस्तु प्रतीत्य यत्पुनरव्यवसानं तु भवति जीवानां ।
न च वस्तुतस्तु बंधोऽध्यवसानेन बन्धोस्ति ॥२९॥ आत्मरूपाति:---अध्यवसानमेव बंधहेतुर्न तु बाझवस्तु तस्य बंघहेतोरध्यवसानस्य हेतुत्वेनैव चरितार्थत्वात् । तहिं ॥ म किमयों वालवस्तुप्रतिषेधः १ अध्यवसानप्रतिषेधार्थः । अध्यवसानस्य हि बालवस्तु, आश्रयभूतं । न हि वाद्यवस्त्वनाभित्य, - अध्यक्सानमात्मानं लभते । यदि बाझवस्त्वनाश्रित्यापि, अध्यवसानं जायेत तदा यथा वीरससुतस्याश्रयभूतस्य सद्भावे पर वीरसनु हिनस्मीत्यध्यवसायो जायते, तथा बंध्यामुतस्याश्रयभूतस्यासद्भावेऽपि बंध्यासुतं हिनस्मीत्यध्यवसायो
जायेत । न च जायते । ततो निराश्रयं नास्त्यध्यक्सानमिति नियमः । तत एव चाध्यवसानाश्रयभूतस्थ चालवस्तुनो। + अत्यंतप्रतिषेधः, हेतुप्रतिषधनैव हेतुमत्प्रतिषेधात् । न च बंधहेतुहेतुत्वे सत्यपि बाह्य वस्तु बंघहेतुः स्याद् ईर्यासमिति
परिणतयतींद्रपदम्पसायमानशास्तकार मोदिवालिया यायवस्तुनो बन्धहेतुहेतोरबन्धहेतुत्वेन बन्धहेत्वस्यानैकाप्रन्तिकत्वात् । अतो न बामवस्तु जीवस्यातनावी बन्धहेतुः । अध्यक्सानमेव तस्य तद्भावो बन्धहेतुः ।। - एवंविधहेतुत्वेन निर्धारितस्याध्यवसानस्य स्वार्थक्रियाकारित्वाभावेन मिथ्यात्वं दर्शयति卐 अर्थ-जीवनिके अध्यक्सान होय है सो वस्तुकू प्रतीत्यकरि अवलंब्यकरि होय है। बहुरि , ....वस्तुतें बंध नाहीं है, अध्यवसानहीकरि बंध है। + टीका-अध्यवसान है सो ही बंधका कारण है। बहुरि बाह्यवस्तु है सो बंधका कारण नाहीं ॥
है । जाते बंधका कारण जो अध्यक्सान, ताका कारणपणाकरि ही बाह्यवस्तुकै चरितार्थपणा है बाह्य " वस्तु तौ अध्यवसानहीका कारण है बंधका कारण नाहीं । तहाँ पूछे है जो वाद्यवस्तु बंधका कारण का
नाही; तौ ताका निषेध कौन अर्थी कीजिये है ? जो बाद्यवस्तुका प्रसंग मति करो त्याग करौ। "ताका समाधान करे है-जो अध्यवसानका प्रतिषेधके अथि वाद्यवस्तुका प्रतिषेध हे त्याग कराईए 5है। जातें बाद्यवस्तु है सो अध्यवसानका आश्रयभूत है। बाधवस्तुका आश्रयविना अध्यवसान के
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अपना स्वरूपकू नाही पाये है-नाहीं उपजे है। जो बाह्यवस्तुका आश्रय न लेकर भी ___ अध्यवसान उपो, तो जैसे सुभाटकी माताकी पुत्र जो सुभट, साका सद्भाव होते, तिसका 卐 आश्रय लेकरि काहूके अध्यक्सान होय है, जो सुभटकी माताका पुत्रकू मैं हणंह, सैसे ही .- वांझका पुत्रका सद्भाव न होते भी तिसके आश्रय भी “मैं बंध्यासुतक मारू ह" ऐसा
अध्यवसान उपजै? सो तो नाहीं उपजे है । सो ऐसे विना आश्रय अध्यवसान उपजे नाहीं। । प्रवंध्याका पुत्र ही नाही, तो मारनेका अध्यवसाय कैसा उपजै? तातें: यह नियम है-जो बाह्य
"वस्तू विना निराश्रय अध्यवसान उपजै नाही, याहोते अध्यवसानका आश्रयभूत जो बाझवस्तु, मताका अत्यंत प्रतिषेध है, ता” हेतु जो कारण, ताका प्रतिषेधकार ही हेतुमान् जो कार्य, ताका ___ प्रतिषेध है यह न्याय है । बाह्यवस्तु अध्यवसानका हेतु है, तातें ताका प्रतिषेधकरि अध्यवसानका 5 प्रतिषेष होय है। बहुरि बाह्यवस्तुके बंधका हेतु जो अध्यवसान, ताका हेतुपणा होते भी 1- बाझवस्तु बंधका हेतु नाहीं है, यामैं व्यभिचार है । जातें कोई मुनी'द्र ईर्यासमितिरूप प्रवर्ते है
ताके चरणकरि हण्या गया जो कालका प्रेरया अतिवेगकरि शीघ्र आय पडया कोई उडता जीव,
ताके मरनेते मुनी द्रकू हिंसा न लागै; तेले अन्य वस्तु भी बंधके कारण माने, ते अपंधके "भी कारण हैं, सातें बाह्यवस्तुके बंधका कारणपणा माननेविर्षे अनेकांतिक हेत्वाभासपणा है + व्यभिचार आवे है। यात निश्चयकरि बाह्यवस्तुकै वंधका कारणपणा निर्वाध सिद्ध होय नाही।
यातें जीवके बाद्यवस्तु अतद्भावरूप है, सो बंधका कारण नाहीं । तदभावरूप अध्यवसान 卐 है सो ही बंधका कारण है। .. भावार्थ-बंधका कारण निश्चयनपरि अयवसान ही है। अर बाझवस्तु है सो अध्य
वसानका आलंबन है । तिनिकू आलंव्यकरि अध्यवसान उपजै है, तातें अध्यवसानका कारण जज कहिये है । विनावाद्यवस्तु निराश्रय अध्यवसान उपजे नाही, याहीते बाह्यवस्तुका त्याग कराया 'है। अर बंधका कारण पाद्यवस्तु कहिये, तौ यामैं व्यभिचार आवे है। जो कोई जायगां कारण
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卐 अर कोई जायगा न दीखे, ताकू व्यभिचार कहिये । जैसे कोई मुनि ईर्यासमितिते यत्नतें गमन करे ॥ .. था, अर ताके पादतले कोई उडता जीव आय पडथा मरि गया, तौ ताकी हिंसा मुनींद्रकून
लागे। सो इहां बाह्यदृष्टिकरि देखिये सौ हिंसा भई, परंतु मुनीकै हिंसाका अध्यक्सान नाही, तातें बंधका कारण नाहीं से भी शासनस्तु जानना । अर बाह्यवस्तुविना निराश्रय अध्यवसान न होय, तातें ताका निषेध है ही। आगे कहे हैं जो या प्रकार बंधका कारणपणा
करि निश्चयकिया जो अध्यवसान, ताके अपनी अर्थक्रियाका करनेवालापणा नाहीं है, सातें ...याकै मिथ्यापणा है । जाकै अर्थक्रियाकारिपणा नाही, सो ही मिथ्या जो किया चाहिये सो 9 होय नाहीं, सो चाहि करना झूठा है, ऐसा दिखावे हैं। गाथा
दुक्खिदसुहिदे जीवे करेमि बंधेमि तह विमोचमि । जा एसा तुज्झ मदी णिरच्छया सा हु दे मिच्छा ॥३०॥
दु:खितसुखितान् जीवान् करोमि बन्नामि तथा विमोचयामि।
सा एषा तव मतिः निरर्थिका सा खलु अहो मिथ्या ॥३०॥ आत्मख्याति:-परान् जीवान् दुःखयामि सुखयामीत्यादि बंधयामि वा यदेतदध्यवसानं तत्सर्वमपि परमावस्य फ़ परस्मित्रन्याप्रियमाणत्वेन स्वार्थक्रियाकारित्वाभावात् खकुसुमं लुनामीत्यध्यवसानवन्मिध्यारूपं केवलमात्मनोऽनायव ।
कुतो नाध्यक्सानं स्वार्थक्रियाकारि ? इति चेत्+ अर्थ हे भाई, तेरी ऐसी बुद्धि है, जो मैं जीवनिळू दुःखी सुखी करू हूं तथा बंधावूह, 5 - छुडावू हुं सो यह बुद्धि मूढमति है-मोहस्वरूप है, निरर्थक है-जाका विषय सत्यार्थ नाही, " तातें निश्चय करि मिथ्या है। # टीका-परजीवनिक दुःखी करूहूँ, सुखी करू, इत्यादि तथा पंधाऊं छुडावू
इत्यादि जो यह अध्यक्सान है, सो सर्व ही मिथ्या है । जाते परभावका परविर्षे व्यापार न होने
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"पणाकरि स्वार्थ क्रियाकारिपणाका अभाव है। परभाव परविर्षे प्रवेश करे माहीं। कोई
कहै 'मैं आकाशका फूलकू चुटूंहू" ऐसा अध्यवसान करे सो झूठा होय, तेसे मियारूप है तो केवल आपके अनर्थहीके अर्थ है, परकै किछू भी करनेवाला नाहीं है। 4 भावार्थ--जाका लिलय जाहीं सो निरर्थक है । सो परकू दुःखी सुखी आदि करनेकी बुद्धि
करै, सो पर याका किया दुःखी सुखी होय नाहीं, तब बुद्धि निरर्थक भई, सो या बुद्धि मिथ्या । है। आगै फेरि पूछे है जो यह अध्यवसान अपनी अर्थ क्रियाका करनेवाला केसें नाहीं? साका उत्तर कहे हैं । गाया
अज्झवसागणिमित्तं जीवा वज्झंति कम्मणा जदि हि। मुचंति मोक्खमग्गे ठिदा य ते किंकरोसि तुमं ॥३१॥
अध्यवसाननिमित्तं जीवो बध्यन्ते कर्मणा यदि हि।
मुच्यन्ते मोक्षमार्गे स्थिताश्च तत् किंकरोषि त्वं ॥३१॥ ' आत्मख्यातिः—यत्किल बंधयामि मोचयामीत्यध्यवसानं तस्य हि स्वार्थक्रिया यद्वन्धनं मोचनं जीवानां । जीवस्तु, ._ अस्पाध्यवसायस्य सद्भावेऽपि सरागवीतरागयोः स्क्परिणामयोः, अभावान बध्यते न मुच्यते । सरागवीतरागयोः स्वपरि卐णामयोः सद्मावालस्याध्यवसायस्याभावेऽपि बध्यते मुच्यते च, यतः परत्राकिंचित्करत्वान्नेदमभ्यक्सानं स्वार्थक्रियाकारि ._ततच मिध्यैवेति भावः।
अर्थ-भाई! जो जीव हैं ते अध्यवसान है निमित्त जिनिकू ऐसे कर्मकरि बंधे हैं । वहरि । मोक्षमार्गविर्षे तिष्टया कर्मकरि छूटे हैं । जो ऐसे है, तो तू कहा करेगा? तेरा तो बांधने के "छोडनेका अभिप्राय विफल गया । 5. टीका-हे भाई ! तेरी यह बुद्धि है, जो मैं प्रगटाणणे बंधाऊं हू छुडाचूह ऐसा अध्यवसान ..है ताकी अर्थक्रिया जीवनिका बांधना छोडना है । सो जीव तौ इस अध्यवसायका सद्भाव
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होते भी अपना सरागवीतरागपरिणामके अभावतें न बंधे हैं न छूटे हैं। बहुरि अपना सराग- .. वीतराग परिणामके सद्भावते तिस तेरे अध्यवसायका अभाव.होते भी बंधे हैं तथा छुटे हैं,
तातें परविर्षे तो यह अकिंचित्कर है-किछू भी करनेवाला नाहीं। तातें यह अध्यवसान स्वार्थ- 5 जक्रियाकारि नाहीं है । तातें मिथ्या ही है, ऐसा भाव है।
भावार्थ-जो हेतु किछू भी न करे ताक अकिंचित्कर कहिये है, सो यह बांधने छोडनेका + अध्यवसानतें परविर्षे किछू भी न किया । जाते याकै नाहीं होते तो जीव अपने सरागवीतराग- .
परिणामकरि बंधमोक्षफू प्राप्त होय । वहरि याकै होते भी जीव अपने सरागवीतराग परिणामके + अभाव होते बंधमोक्षकू नाहीं प्राप्त होय । तातें अध्यवसान परविर्षे अकिंचित्कर है, तात स्वार्थ1- क्रियाकारी नाहीं, मिथ्या है। अब इस अर्थका कलारूप काव्य है तथा अगिले कथनकी " सूचनिका रूप श्लोक है।
अनुष्टप्छन्दः अनेनाभ्यवसायेन निम्फलेन विमोहितः । तत्किञ्चनापि नैचास्ति नात्माऽऽस्मानं करोति यत् ॥६॥ . 5. अर्थ-आत्मा है सो इस निष्फल निरर्थक अध्यवसायकरि मोह्या हुवा आपकू अनेकरूप करे "है। सो ऐसा पदार्थ कोई जगतमें नाहीं है-जिसरूप आपकू नाहीं करें, सर्वहीरूप करे है। 卐 है भावार्थ--यह आत्मा मिथ्या अभिप्रायकरि मूल्या हुवा चतुर्गतिसंसारमें जेती अवस्था हैं,
जेते पदार्थ हैं, तिनि सर्वस्वरूप आपकू भया माने है । अपना शुद्धस्वरूपकू नाहीं पहिचाने है। फ़ आगे इस अर्थकू प्रगटरूप गाथामैं कहे हैं । गाथा--
नीचे लिखी पांच गाथाओंकी आत्मरूपाति संस्कृत और हिन्दी टीका उपलब्ध नहीं है इसलिये नहीं छापी जगई। तात्पर्यवति टीका मिलती है वह छपी है।
कायेण दुक्खवेमिय सत्ते एवं तुजं मदिं कुणसि। सन्वावि एस मिच्छा दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता ॥१॥
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सब्वे करेदि जीवो अक्षवसाणेण तिरियणेरेइए । देवमणुवेपि सव्वे पुरागं पावं अगेयविहं ||३२||
वाचाए दुक्खवेमिय सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि । सव्र्वावि एस मिच्छा दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता ॥२॥ मणसाए दुक्खवेमिय सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि । सव्वावि एस मिच्छा दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता ॥ ३ ॥ सच्छेण दुक्खवेमिय सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि । सव्वावि एस मिच्छा दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता ॥४॥ कायेन दुःखयामि सत्वान एवं तु यन्मतिं करोषि । सर्वापि एषा मिथ्या दुःखिताः कर्मणा यदि सत्वाः ॥ वाचा दुःखयामि सत्वान् एवं तु यन्मतिं करोषि । सर्वापि एषा मिथ्या दुःखिताः कर्मणा यदि सत्वाः ॥ मनसा दुःखयामि सत्वान् एवं तु यन्मतिं करोषि । सर्वापि एषा मिथ्या दुःखिताः कर्मणा यदि सत्वाः । शस्त्रेण दुःखयामि सत्वान् एवं तु यन्मतिं करोषि । सर्वापि एषा मिथ्या दुःखिताः कर्मणा यदि जीवाः ॥
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तात्पर्यवृत्तिः कायेण इत्यादि स्वकीयपापोदयेन जीवाः दुःखिताः भवति यदि चेत् । तेषां जीवानां स्वकीयपाप- 5 कम देयभावे भवतो किमपि कतु" नायाति इति हेतोः मनोवचनकायैः शस्त्रैश्व जीवान् दुःखितान् करोमि इति रे
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धम्माघम्नं च तहा जीवाजीवे अलोगलोगं च ।
सव्वे करेदि जीवो अज्झवसाणेण अप्पाणं ॥३३॥ 卐 दुरात्मन् त्वदीया मतिर्मिध्या । परं किं तु स्वस्थभावच्युतो भूत्वा त्वं पापमेव बनासि इति ।। - अर्थ--ये जीव अपने पापकर्मके उदयले दुःखित होते हैं इसलिये हे जीव ! तेरो जो यह " भावना है कि मैंने मन वचन काय या शस्त्रसे इन्हें :दुःखित किया है सो सर्व मिथ्या है + कारण–यदि उनके पापकर्मका उदय नहीं हो तो तेरे प्रयत्नसे भी उनको दुःख नहीं -
पहुंच सकता। ॥ अथ सुखिता अपि निश्चयेन स्वकीय शुभकमोदये सति भवंतीति कथयति--
कायेण च वायाइव मणेण सुहिदे करेमि सत्तेति। एवंपि हवदि मिच्छा सुहिदा कम्मेण जदि सत्ता ॥५॥
कायेन च वाचा वा मनसा सुखितान करोमि सवानिति ।
___ एवमपि भवति मिथ्या सुखिनः कर्मणा यदि सत्वाः॥ तात्पर्यवृत्तिः स्वकीयकमो दयेन जीवा यदि चेत् सुखिता भवंति न च स्वदीयपरिणामेन तहिं मनोवयनकाय卐 जीवान् सुखितानहं करोमि इति भवदीया मतिर्मिथ्या । एवं तबाध्यवसानं स्वार्थकं न भवति। परं किं तु निरूपराग-卐 ____ परमचिज्ज्योतिःस्वभावे स्वशुद्धात्मतत्त्वमश्रद्दधानः, तथैवाजानन अभावयंश्च तेन शुभपरिगामेन पुण्यमेव बनाति इत्यर्थः ।
अर्थ-जीव अपने शुभकर्मोदयसे सुखी होते हैं किसी दूसरे जीवके प्रयत्नसे नहीं इसलिये - हे जीव ! तेरा यह सोचना कि मैंने इन्हें सुखो किया है, मिथ्या है।
अथ स्वस्थभावप्रतिपक्षभूतेन च रागाद्यभ्यवसानेन मोहितः समयं जीवः समस्तमपि परद्रव्यमात्मनि नियोजयति । IF इत्यपदिशति
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सर्वान् करोति जीवानध्यवसानेन तियङ्नेरयिकान् । देवमनुजांश्च सर्वान् पुण्यं पापं च नेकविध ॥३२॥ धर्माधर्म च तथा जीवाजीवो अलोकलोकं च ।
सन् करोति जीतः आमदासानेन शतानं ॥३३॥ ___ आत्मख्याति:-यथायमेव क्रियागर्भहिंसाध्यवसानेन हिंसकं, इतराध्यवसानैरितरं च; आत्मात्मानं कुर्यात् , तथा ..
विपच्यमाननारकाध्यवसानेन नारकं, विपच्यमानतिर्यगध्यवसानेन तिर्य चं, विपच्यमानमनुष्याम्यवसानेन मनुष्यं, विपच्या 卐 मानदेवाज्यवसानेन देवं, चिपच्यमानसुखादिपुण्याध्यक्सानेन पुण्यं, विपच्यमानदुःखादिपापाग्यवसानेन पापमात्मानं .. __ कुर्यात् । तथैव च ज्ञायमानधर्माध्यवसानेन धर्म, ज्ञायमानाधर्माध्यवसानेनाधर्म', बायमानाजीवाध्यवसानेन जीव, ज्ञाय
मानाजीवाध्यवसानेनाजीवं, झापमानलोकाध्यवसानेन लोकं, शायमानालोकानाशाध्यवसानेनालोकाकाशमात्मानं कुर्यात् । .. ___ अर्थ-जीव है सो अध्यवसानकरि आपके तिर्यच नारक देव मनुष्य ए सर्व ही पर्याय हैं । तिनिकू करे है। बहुरि पुण्य पाप हैं तिनि सर्वहीकू अनेक प्रकार आपके करे है । बहुरि धर्म अधर्म तथा जीव अजीव तथा लोक अलोक इनि सर्वहीकू इस अध्यवसानकरि आपरूप करे है।"
टीका-जैसे यह आत्मा पूर्वोक्त क्रिया है गर्भ कहिये मध्य जाके ऐसा हिंसाका अध्यवसानकरि 卐 आपकू हिंसक करे है। बहुरि अहिंसाका अध्यवसानकरि अहिंसक करे है । बहुरि अन्य अध्य-.
वसानकरि अन्य बहुत प्रकार करे है । तैसें ही विपच्यमान कहिये उदयमें आया जो नारकका अध्यवसान, ताकरि आपकू नारकी करे है। बहुरि उदय आया जो तिर्यचका अध्यबसान, ताकार
आपकू तिथंच करे है । बहुरि उदय आया जो मनुष्यका अध्यक्सान, ताकरि आपकू मनुष्य करे " - है। बहुरि उदय आया जो देवका अध्यवसान, ताकरि आपकू देव करे है। बहुरि उदय आया )
जो सुख आदि पुण्यका अध्यवसान, ताकरि पुण्यरूप आपकू करे है । बहुरि उदय आया जो दुःख ...
आदि पापका अध्यवसान, ताकरि आपकू पापरूप करे है। तेसें ही जाननेमें आया जो धर्म, + ताका अध्यवसानकरि आपकू धर्मरूप करे है। बहुरि जाण्या हुवा अधर्मका अध्यवसानकरि ।
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आपकू अधर्मरूप करे है । बहुरि जाण्या हुवा अन्य जीवका अव्यवसानकरि आपकू अन्यजीवरूपक म करे है । बहुरि जाण्या हुवा पुद्गलका अध्यक्सानकरि आपकू पुद्गल करे है। बहुरि जाण्या -
हुवा लोकाकाशका अध्यवसानकरि आपकू लोकाकाश करे है। बहुरि जाण्या हुवा अलोका05 काशका अध्यवसानकरि आपकू अलोकाकाश करे है। ऐसे सर्वस्वरूप आपकू अध्यवसानकार
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भावार्थ-यहू अध्यवसान अज्ञानरूप है, तातें अपना परमार्थरूप नाहीं जानना। आत्मा के आपकू अनेक अवस्थारूप करे है, तिनिविर्षे आपा मानि प्रवर्ते है। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं तथा अगिले कथनकी सूचनिका है।
इन्द्रवजाछन्दः विश्वाद्विभक्तोऽपि हि यत्प्रमावादात्मानमात्मा विदधाति विश्वम् ।
मोहैककन्दोऽध्यवसाय एष नास्तीह येषां पतयस्त एव ॥१०॥ ___ अर्थ-यह आत्मा समस्त द्रव्यनितें भिन्न है, तोऊ जिस अध्यवसायके प्रभावतें आपकू समस्त-"
स्वरूप करे है, सो यह अध्यवसाय कैसा है ? मोह है एक कंद जाका । सो यह अध्यवसाय 1. जिनिके नाहीं है, ते यति हैं मुनि हैं। आगे कहे हैं यह अध्यवसाय जिनिकै नाहीं ते मुनि कर्मत नाहीं लिपे हैं । गाथा
एदाणि णत्थि जोर्स अज्झवसाणाणि एवमादीणि । ते असुहेण सुहेण य कम्मेण मुणी ण लिप्पंति ॥३४॥
एतानि न संति येषामध्यवसानान्येवमादीनि ।
तेऽशुभेन शुभेन वा कर्मणा मुनयो न लिप्यंति ॥३४॥ बास्मल्याविः-एतानि किल यानि त्रिविधान्यध्यवसानानि समस्तान्यपि शुभाशुभकर्मबन्धनिमित्तानि स्वयमकानादिस्मत्वात् । तया हि यदिदं हिनमीत्यायध्यवसानं तत्त्वज्ञानमयत्वेन आत्मनः सदहेतुकज्ञप्त्यैकक्रियस्य राष- -
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विपाकमयीनां हननादिक्रियाणां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माऽज्ञानादस्ति तावदशानं विवितात्माऽदर्शनादस्ति व समयं मिथ्यादर्शनं विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रं । यत्पुनरेष धर्मो ज्ञायत इत्याद्यध्यवसानं तदप्यज्ञानमयत्वेनात्मनः 5 सद्हेतुकज्ञानैकरूपस्य ज्ञयमयानां धर्मादिरूपाणां च विशेषाज्ञानेन विविकात्माऽज्ञानादस्ति तावदज्ञानं विविक्तात्मा०८ दर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं विविकारमानाचरणादस्ति चारित्रं । तती बंधानामखान्येवैतानि समस्तान्यध्यवसानानि । 5 येषामेवेतानि न विद्यते त एवं मुनिकुञ्जराः । केचन सदहेतुकज्ञस्यैकक्रियं सदहेतुकशायकैकभावं सदहेतुकज्ञानैकरूपं च 5 विवितात्मानं जानंतः सम्पपश्यतोऽनुचरंतश्च स्वच्छस्वच्छदोद्यदमंदांतज्यों तिषो ऽस्य॑तमज्ञानादिरूपत्वामाचाद शुभे नाशुभेन वा कर्मणा खलु न लिप्येरन् ।
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अर्थ--ए पूर्वोक्त अध्यवसान जिनिके नाहीं हैं तथा या प्रकार के अन्य भी अध्यवसानः जिनके 15 5 नाहीं हैं, ते मुनिराज अशुभ तथा शुभकर्मकरि नाहीं लिपे हैं ।
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टीका-ए पूर्वोक्त अध्यवसान हैं ते तीन प्रकार हैं । अज्ञान अदर्शन अचारित्र । ऐसे ते समस्त ही शुभ अशुभ कर्मबंधके निमित्त हैं । जातें ए आप स्वयं अज्ञानादिरूप हैं। कैसे हैं :सो 5 5 कहिये हैं। जो यह मैं परजीवकू हणं हूं इत्यादिक अध्यवसाय है सो अज्ञानादिरूप होय है। जातें आमतौ ज्ञायक है, तिलपणाकरि ज्ञप्तिक्रियामात्र ही है, तातैं सदपद्रव्यदृष्टिरि अहेतुक 5 कातें उपज्या नाहीं ऐसा नित्यरूप ज्ञप्ति कहिये जाननेमात्र ही है एक क्रिया जाकै ऐसा है । 卐
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बहुरि ना घातना आदि क्रिया हैं ते राग द्वेषका उदयमय हैं। ऐसें आत्मा के अर घातने आदि 5 क्रियाके विशेष न जाननेकरि भिन्न आत्माकूं जान्या नाही, तातें मैं परजीवकूं घातू हू ऐसा अध्यवसान अज्ञान है | बहुरि ऐसे ही भिन्न न्यारा आत्माका न देखना, श्रद्धान: न होना तातें: अध्यवसान मिथ्यादर्शन हैं । बहुरि ऐसे ही भिन्न न्यारा आत्माका अनावरण अध्यवसान हो 卐 अचारित्र है । बहुरि यह धर्मद्रव्य है सो मोकरि जानिये है ऐसा अध्यवसाय है, सो भी अज्ञानादिरूप ही है । जातें आत्मा तौ ज्ञानमय है, तिसपणा करि ज्ञानमात्र ही है । जातें सद्रपद्रव्यफ 5 दृष्टिकरि अहेतुक कहिये जाका कारण कोऊ नाहीं ऐसा ज्ञानमात्र ही है एकरूप जाका ऐसा है। 5
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जज ॐ ॥ ॥ ॥॥
卐 बहरि धर्मादिकरूप हैं ते ज्ञेयमय हैं। ऐसें ज्ञानशेयका विशेष न जाननेकरि भिन्न न्यारा आत्माका +
अज्ञानतें में धर्मकू जानू हूँ ऐसा भी अज्ञानरूप अध्यवसान है। बहुरि भिन्न आत्माका न
देखनेकरि श्रद्धान न होनेकरि यह अध्यवसान मिथ्यादर्शन है । बहुरि भिन्न आत्माका अना-का - चरणते यह अध्यवसान अचारित्र है । तातें ए अध्यवसान हैं ते समस्त ही बंधके निमित्त हैं। " सो जिनिक ए अध्यवसान विद्यमान नाहीं हैं, तेही मुनि प्रधान हैं । तिनिळू मुनिकुञ्जर कहिये।" 卐 से केई विरले हैं । ते कैसे हैं ? सर्व अन्यद्रव्यभावनितें भिन्न आत्मा सत्तारूप द्रव्यदृष्टीकरि है - काहू ते उपज्या नाही, तातें अहेतुक एक ज्ञायकभावस्वरूप अर सत्ता अहेतुक एकज्ञानरूप ऐसा
आत्माकू जानते संते हैं। बहुरि तिसहीकू सम्यक्प्रकार देखते श्रद्धान करते संते हैं। बहुरि , 5 तिसहीकू आचरते संते हैं । बहुरि निर्मल स्वच्छंद स्वाधीनप्रवृत्तिरूप उदयकू प्रास होता अमंद1. प्रकाशरूप है अंतरंगज्योति स्वरूप जिनिक ऐसे हैं । सातें अज्ञान आदिके अत्यंत अभावतें शुभ तथा अशुभकर्मकरि ते नाही लिपे हैं।
भावार्थ-यह अध्यवसान हैं ते मैं पर... हणू हूँ ऐसे हैं, तथा मैं परद्रव्यकू जानू हूं ऐसे ।। 1. हैं, सो आत्माके अर रागादिकके तथा आत्माके अर ज्ञे यरूप अन्यद्रव्यके जेतें भेद न जाने, " ते प्रवर्ते हैं । सो भेदविज्ञानविना मिथ्याज्ञानरूप हैं तथा मिथ्यादर्शनरूप हैं तथा मिथ्या- 5
चारित्ररूप हैं। ऐसे तीन प्रकार प्रवतें हैं । सो जिनिकै नाही ते मुनिकुंजर हैं । ते आत्मा .. सम्यक् जाने हैं, सम्यक् अद्धे हैं, सम्यक् आचरे हैं । तातें अज्ञानके अभावतें सम्यग्दर्शनज्ञान
चारित्ररूप भये संते कर्मनितें नाहीं लिपे हैं। आगे पूछे है कि अध्यवसान बारबार कहते है # आये, सो यह अध्यवसान कहा है ? याका रूप नीकै समशे नाही ऐसें पूछे अध्यवसानका रूप,
प्रगटकरि दिखाये हैं। गाया
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जात्मख्यातिः – स्वपरयोरविवेके सति जीवस्याध्यवसितिमात्रमध्यवसानं । तदेव व बोधनमात्रत्वाद् बुद्धिः । व्यवसानमात्रत्वात् व्यवसायः । मननमात्रत्वान्मतिज्ञानं । चेतनामात्रत्वाचितं । चितोभवनमात्रत्वाद् भावः । वितः परिणम5 नमात्रत्वात् परिणामः ।
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बुद्धी ववसाओविय अज्झवसाणं मदीय विगाणं । इकट्ठमेव सव्वं चित्तं भावोय परिणामो ॥३५॥ बुद्धिर्व्यवसायोऽपि वा अध्यवसानं मतिश्च विज्ञानं । एकार्थमेव सर्वं चित्तं भावश्च परिणामः ॥ ३५॥
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नीचे लिखी गाथाकी आत्मरूपाति संस्कृत और हिन्दी टीका उपलब्ध नहीं है इसलिये नहीं छापी गई। तात्पर्यवृत्ति टीका मिलती है वह छपी है ।
फ्रफ़ फ्रफ़ फफफफफफ ५
जा संकष्पवियप्पो ता कम्मं कुणद असुहसुहजगयं । 卐 अप्पसरूवा रिद्धी जाय ण हियए परिप्फुरइ ॥
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या संकल्पविकल्पौ तावत्कर्म करोत्यशुभशुभजनकं ।
आत्मस्वरूप ऋद्धिः यावत् न हृदये परिस्फुरति ॥
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तात्पर्यवृत्ति:- यावत्कालं वहिर्विषये देवपुत्रकलत्रादौ ममेतिरूपं संकल्पं करोति अभ्यंतरे हर्षविषादरूपं विकल्प च करोति तावत्कालमनंतज्ञानादिसमृद्धिरूपमात्मानं हृदये न जानाति । यावत्कालमित्यंभूत आत्मा हृदये न परिस्फुरति तारकालं शुभाशुभजनकं कर्म करोतीत्यर्थः I
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• 1 3. 20
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अर्थ- जब तक आत्मा आत्मासे भिन्न शरीर पुत्र और स्त्री आदिमें यह मेरे हैं इस प्रकार
5 संकल्प करता है तथा अन्तरंगमें हर्ष विषादरूप विकल्प करता है तबतक अनंतज्ञानादि संपत्तिरूप फ आत्माको हृदयमें नहीं जानता है और तबतक शुभाशुभ कर्मको करता रहता है।
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5 अर्थ---बुद्धि व्यवसाय बहुरि अध्यवसान बहुरि मति विज्ञान चित्त भाव बहुरि परिणाम ए सर्वक मय... एकार्थ ही हैं, नाम भेद है, इनिका अर्थ न्यारा नाहीं।
____टीका-आपका अर परका दोऊका भेदज्ञान न होते संते जो जीवकी अव्यवसिति कहिये ॥ निश्वितमात्र होय सो अध्यवसान है । सोही बोधनमात्रपणात बुद्धि है बहुरि सोही व्यवसान ...
कहिये निश्चयमात्रपणातें व्यवसाय है । लो ही जाननेमात्रपणातें मति है। बहुरि सोही विज्ञप्ति-5 卐 मात्रपणातें विज्ञान है। बहुरि सो ही चेतनमात्रपणातें चित्त है। बहुरि सो ही चेतनका भवन- ..
मात्रपणातें भाव है। बहुरि सोही परिणमनमात्रपणातें परिणाम है । ए सर्व ही एकार्थ हैं।। ____ भावार्थ-ए बुद्धि आदि आठ नाम कहे, ते सर्व ही चेतन आत्माके परिणाम हैं । सो जेते आपापरका भेदज्ञान न होय तेते परविर्षे अर आपविर्षे एकपणाका निश्चयरूप बुद्धि आदिक" होय हैं । सो ही अध्यवसान नाम है। आगै अगिले कथनकी सूचनिकाके अर्थरूप काव्य कहे हैं, “जो अध्यवसान त्यागनेयोग्य कहा है, सो तहां ऐसी संभावना है, जो व्यवहारका त्याग कराया है, निश्चयनयका ग्रहण कराया है" ऐसे कहे हैं।
शार्दूलविक्रीडितछन्दः सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं. त्याज्यं यदुक्त जिनः तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोप्पन्याश्रयस्त्याजितः।
सम्पङ्निश्चयमेकमेव तदमी निष्कम्पमाक्रम्य किं शुद्धज्ञानधने महिन्नि न निजे बन्नन्ति सन्तो धृतिम् ॥११॥ __ अर्थ-सर्व ही वस्तुनिविर्षे जो समस्त अध्यवसान है, सो जिनभगवान् त्यागने योग्य कहा "
है। सो आचार्य कहे हैं, हम ऐसे माने हैं "जो परके आश्रय प्रवर्तता जो व्यवहार सो सर्व ही 1- छुडाया है” तातें हम उपदेश करे हैं-जो सत्पुरुष हैं, ते सम्यक्प्रकार एक निश्चयहीकू निष्कम्प
" जैसे होय तैसें निश्चल अंगीकार करिके अर शुद्धज्ञानघनस्वरूप अपना महिमा आत्मस्वरूप,5 4 तावि थिरता क्यों नाहीं धारे हैं ?
भावार्थ-जिनेश्वर देव अन्य पदार्थ निविर्षे आत्मबुद्धिरूप अध्यवसान छुडाया है, सो यह
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卐 पराश्रित सर्व ही व्यवहार छुपा है ऐसे जानू, तातें शुद्धज्ञानस्वरूप अपना आत्मा, ताविर्षे ॥ 1. थिरता राखियो, ऐसा शुद्धनिश्चयका ग्रहणका उपदेश है । आचार्य आश्चर्य भी किया है जो ...
भगवान् अध्यवसानकू छुड़ाया, तो अब सत्पुरुष याकू छोडि अपने स्वरूपविषे क्यों नाही तिष्ठे : + हैं ? यह हमारे अचिरज है। आगे इस अर्थकू गाथामैं कहे हैं गाथा
एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण। णिच्छयणयसल्लीणा मुणिणो पावंति णिव्वाणं ॥३६॥
एवं व्यवहारनयः प्रतिषिद्धो जानीहि निश्चयनयेन ।
निश्चयनयसंलीना मुनयः प्राप्नुवन्ति निर्वाणं ॥३६॥ आत्मख्यातिः-आत्माश्रितो निश्चयनयः, पराश्रितो व्यवहारनयः । तत्रैवं निश्चयनयेन पराश्रितं समस्तमध्यव卐 सानं बंधहेतुत्वेन मुमुक्षोः प्रतिषेधयता व्यवहारनय एव किल प्रतिषिद्धः, तस्यापि पराश्रितत्वाविशेषात् । प्रतिषेध्य एवं ॥
चार्य, आत्माश्रितनिश्चयनयाश्रितानामेव ग्रुच्यमानत्वात् , पराश्रितव्यवहारनयस्यैकांतेनामुच्यमानेनाभन्येनाश्रिय卐 भाणत्वाच।
कथमभव्येनाश्रियते व्यवहारनयः ? इति चेत्
अर्थ-एवं कहिये पूर्वोक्तप्रकार अध्यवसानरूप व्यवहारनय है, सो निश्चयनयकरि प्रतिषेध- 5 1 रूप जानू । जे मुनिराज निश्चयके आश्रित हैं, ते निर्वाण प्राप्त होय हैं।
टीका-इहां निश्चयनय है सो तौ आत्मा आश्रित है। बहुरि पर आश्रित है सो व्यव- 7 हारनय है । सो जैसे परके आश्रित समस्त अध्यवसान परकू अर आपकू एक मानना सो बंधका . कारणपणाकरि मोक्षके इच्छककू छुडावता जो निश्चनय, ताकरि तैसे ही निश्चयतै व्यवहारनय ही प्रतिषेध्या है छुडाया है। जाते जैसे अध्यवसान पराश्रित है, तैसें व्यवहारनय भी पराश्रित ; है, यामैं विशेष नाहीं । जातें ऐसा सिद्ध होय है, जो यह व्यवहारनय प्रतिषेधनेयोग्य ही है।
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" जाते जे आत्माधित निश्चयनयकं आश्रितपुरुष हैं, तिनिके ही कर्मत छुटवापना है। बहुरिः ॥ पराश्रित जो व्यवहारनय ताकै तौ एकांतकरि कर्मत नाहीं छूटता जो अभव्य, ताकरि भी आश्रीयमाणपणा है।
भावार्थ-आत्माके परके निमित्त अनेक भाव होय हैं, ते सर्व व्यवहारनयके विषय हैं, तातें ॥ प्र व्यवहारनय तौ पराश्रित है । अर जो एक अपना स्वाभाविकभाव है, सो निश्चयनयका विषय
है। तात निश्चयनय आत्माश्रित है। सो अध्यवसान भी व्यवहारनयका ही विषय है। ताते अध्यवसानका त्याग सो व्यवहारनयका ही त्याग है। सो निश्चयनयकू प्रधानकरि व्यवहारनयका त्यागका उपदेश है। जाते जे निश्चयके आश्रय प्रवर्ते हैं, ते तो कमंत छूटे हैं अर जे एकांताकर लगनहारनपही साशय अद्यते हैं, ते कर्मत कबहू नाहीं छूटे हैं। आगै पूछे है, जो अभव्यकरि भी व्यवहारनय कैसें आश्रय कीजिये है ? ऐसे पूछे उत्तर कहे हैं। गाथा_वदसमिदी गुत्तीओ सीलतवं जिणवरेहिं पण्णत्तं । कुव्वंतोवि अभविओ अण्णाणी मिच्छदिट्ठीय ॥३७॥
व्रतसमितिगुप्तयः शीलतपो जिनवरैः प्रज्ञप्त ।
कुर्वन्नप्यभव्योऽज्ञानी मिथ्यादृष्टिस्तु ॥३७॥ 卐 आत्मख्यातिः-शीलतपःपरिपूर्ण त्रिगुप्तिपश्चसमितिपरिकलितमहिंसादिपंचमहायतरूपं, व्यवहारचारित्र, अभ- 5 ___न्योऽपि कुर्याद तथापि स निश्चारित्रोक्षानी मिथ्यादृष्टिरेव निश्चयचारित्रहेतुभूतज्ञानश्रद्धाशून्यत्वात् ।
॥ तस्यैकादशांगज्ञानमस्ति ? इति चेन् .. अर्थ-वत समिति गुप्ति शील तप जिनेश्वरदेवनें कहे हैं । तिनिकू करता संता भी अभव्य- जीव है सो अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही है।
टीका-शीलतपकरि परिपूर्ण, तीन गुप्ति पांच समितिकरि संयुक्त, अहिंसादिक पांच महा
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व्रतरूप ऐसा व्यवहार चारित्र अभव्य भी करे है । तौऊ सो अभव्य चारित्रकरि रहित ही है, अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही है । जातें निश्चयचारित्रका कारण स्वरूप जो ज्ञान श्रद्धान, ताकरि फ तार्क शून्यपणा है ।
भावार्थ--अभव्य जीव महाव्रत समिति गुप्तिरूप व्यवहारचारित्र पार्ले तौऊ निश्चयसम्य卐 ज्ञान श्रद्वान विना सो सम्यक्वारित्र नाम न पावे है। तातें सो अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही रहे है । आगे शिष्य कहे है, “जो तार्के ग्यारह अंगका ज्ञान होय है," ताकू अज्ञानी कैसे कक्षा ? ताका 卐
उत्तर कहे हैं। गाथा
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मोक्खं असतो अभवियसत्तो दु जो अघीएज्ज ।
पाठो या करेदि गुणं असद्दहंतस्स गाणं तु ॥ ३८॥ मोक्षमश्रदधानोऽभव्य सत्त्वस्तु योधीयीत ।
पाठो न करोति गुणमश्रदधानस्य ज्ञानं तु ॥३८॥
आत्मख्यातिः --- मोक्षं हि न तावदभव्यः श्रद्धचे शुद्धज्ञानात्मज्ञानत्यत्वात् । ततो ज्ञानमपि नासौ श्रद्ध ज्ञानमश्रद्दधानश्चाचाराद्येकादशांगं श्रुतमधीयानोऽपि श्रुताध्ययनगुणाभावान्न ज्ञानो स्यात् स किल गुणः श्रुताभ्ययनस्य यद्विविक्तवस्तुभूतज्ञानमयात्मज्ञानं तच विविक्तवस्तुभूतं ज्ञानमदवानस्याभव्यस्य श्रुताध्ययनेन न विधातु शकषेत ततस्तस्य तद्गुणाभाव:, ततश्च ज्ञानश्रद्धानाभावात् सोऽज्ञानीति प्रतिनियतः ।
तस्य धर्मश्रद्धानमस्तीति चेत्
अर्थ- जो अभव्यजीव है, सो शास्त्रका पाठ पढे है परंतु मोक्षतत्वका श्रद्वानकूं नाहीं करता संता है, तातें सो ज्ञान श्रद्वान नाहीं करता पुरुषके गुण नाहीं करे है
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टीका - अभव्यजीव है सो प्रथम तो निश्चयकरि मोक्षकूं नाहीं श्रद्वान करे है । जातें शुद्धज्ञानमय जो आत्मा, ताका ज्ञानकरि अभव्यकै शून्यपणा है, अभव्यकै शुद्धात्माका ज्ञान होय
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卐 नाही तातें अभव्य ज्ञानकू भी नाहीं श्रद्धानरूप करे है। बहुरि ज्ञानकूं नाहीं श्रद्धान करता 5 संता अभव्य है सो आचारांग आदि लेकर ग्यारह अंगरूप श्रुतकूं पढता संता भी फ शास्त्रका पढनेका जो गुण है, ताका अभावतें ज्ञानी नाही होय है । शास्त्र पढनेका यह गुण है. जो भिन्न वस्तुभूत ज्ञानमय आत्माका ज्ञान होय सो तिस भिन्नवस्नुभूत ज्ञानकूं नाहीं श्रद्धान करता 5 जो अभव्य, वाके शास्त्र के पढनेकरि आत्मज्ञान करनेकुं नाहों समर्थ हूजिये है । तातें ताकै शास्त्र पढनेका सो भिन्न आत्माका जानना गुण है सो नाहीं है । तातें सांचे ज्ञानश्रद्धानके 5 अभावतें सो अभव्य अज्ञानी ही है, यह नियम है ।
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भावार्थ - अभव्य जीव ग्यारह अंग पढे तौऊ तार्के शुद्ध आत्माका ज्ञान श्रद्धान न होय, ता शास्त्र पढना गुण न किया, तातें सो अज्ञानी ही है। आगे शिष्य फेरि कहे हैं 'तिस 5 धर्मका तौ श्रद्धान होय है, सो कैसें निषेधिये ?' ताका उत्तर कहे हैं। गाथा-सहदिय पत्तयदिय रोचेदिय तह पुणोवि फासेदि ।
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धम्मं भोगणिमित्तं गहु सो कम्मक्खयणिमित्तं ॥ ३९ ॥ श्रद्दधाति प्रत्येति च रोचयति तथा पुनश्च स्पृशति ।
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धर्म भोगनिमित्तं न खलु स कर्मक्षयनिमित्तं ॥ ३९॥
卐 आत्मख्यातिः - अभन्यो हि नित्यकर्मफलचेतनारूपं वस्तु श्रद्ध, नित्यज्ञानचेतनामात्रं न तु श्रद्धचे नित्यमेव फ भेदविज्ञानानर्हत्वात् । यतः स कर्ममोक्षनिमित्तं ज्ञानमात्रं भूतार्थं धर्म न श्रद्धत्ते भोगनिमितं शुभकर्ममात्रमभूतार्थमेव 5 श्रद्धते । तत एवासौ अभूतार्थधर्मश्रद्धानप्रत्ययनरोचनस्पर्शनैरुपरितनय वेयक भोगमात्रमास्कंदन पुनः कदाचनापि चि फ यते ततोऽस्य भूतार्थधर्मश्रद्धानाभावात्, श्रद्धानमपि नास्ति एवं सति तु निश्चयनयस्य व्यवहारनयप्रतिषेधो 5 युज्यत एव ।
hreat प्रतिषेध्यप्रतिषेधकौ व्यवहारनिश्चयनयाविति चेत्
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अर्थ- सो अभव्य जीव धर्म श्रद्धान करे हैं, प्रतीति करे है, रोगे है, तथा स्पर्शे है। परंतु 5
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1. युक्त ही है।
ज, संसारके भोगके निमित्त धर्म है ताकू ही श्रद्धे है, ताहीकू प्रतीति करे है, ताही रोचे है, ताहीकू
"स्पर्श है । र कर्मक्षयका निमित्त धर्म है ताकू नाही श्रद्धे है, नाहीं प्रतीति-करे: है, अर कर्म卐 क्षयका निमित्त धर्म है ताकू नहीं रोचे है, नाहीं स्पर्श है।
टीका-अभव्य जीव है सो नित्य ही कर्मफलचेतनारूप वस्तूकू श्रद्धे है। बहुरि नित्यज्ञानचेतनामात्र वस्तूक नाही श्रद्धे है। जाते अगर जीव निलम ही शापारका भेदविज्ञानके योग्य 4 + नाहीं है; तात सो अभव्य ज्ञानमात्र भूतार्थ सत्यार्थ धर्म जो कर्मक्षयका निमित्त है, ता• नाही " " श्रद्धे है । अर शुभकर्ममात्र असत्यार्थ धर्म है, सो भोगका निमित्त है, ताकू श्रद्धे है; तातें ही यह ॥ ॐ अभव्य अभूतार्थ धर्मका श्रद्धान प्रतीति रोचना स्पर्शना इनिकरि उपरिले अवेयकताई के भोग
मात्रनिकू पावे है, बहुरि कर्मत कदाचित् भी नाहीं छूटे है । ताते याकै भूतार्थ सत्यार्थ धर्मका ॥ ॐ श्रद्धानका अभावते साचा श्रद्धान भी नाहीं है। ऐसे होते निश्चयनयकै व्यवहारनयका प्रतिषेध 卐 भावार्थ-अभव्यजीव कर्मफलचेतनाकू जाने है अर ज्ञानचेतनाकू जाने नाही', जातें याकै . - भेदज्ञान होनेकी योग्यता नाहीं है, तातें शुद्ध आत्मिकधर्मका श्रद्धान याकै नाहीं अर शुभ
कर्महीकू धर्म श्रद्धे है, ताका फल अवेयकताईके भोग पावे है, अर. कर्मका क्षय नाहीं होय है, 卐 1 तातें याकै सत्यार्थधर्मका भी श्रद्धान न कहिये अर याहीतें निश्चयनयके व्यवहारनयका निषेध
है। इहां एता और जानना-जो यह हेतुवादरूप अनुभवप्रधान ग्रंथ है, तातें भव्य अभव्यकामा र अनुभवकी अपेक्षा निर्णय है अर यह ही अहेतुवाद आगमतें मिलाइये तब अभव्यके सूक्ष्म ।।
केवलीगम्य ऐसा ही व्यवहारनयकी पक्षका आशय रहिजाय है, सो छद्मस्थके अनुभवगोचर 4 नाहीं भी होय है, परंतु सर्वज्ञदेव जाने है। ताके केवलव्यवहारकी पक्षतें सर्वथा एकांतरूप है
मिथ्यात्व रहै, तातें अभव्यका यह आशय सर्वथा न मिटे, तातें अभव्य ही है। आगे पूछे हैं, जो + निश्चयनय तो व्यवहारका प्रतिषेधक कया अर निश्चयके व्यवहारनय प्रतिषेधनेयोग्य करा, सोम
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दोऊ ही कैसे हैं ? ऐसे पूछे निश्चयव्यवहारका स्वरूप प्रगट कहे हैं। गाथा
आयारादीणाणं जीवादीदंसणं च विराणेयं । छज्जीवाणं रक्खा भणदि चरित्तं तु ववहारो॥४०॥ आदा खु मज्झणाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य । आदा पचक्खाणे आदा मे संवरे जोगे॥४१॥
आचारादिज्ञानं जीवादिदर्शनं च विज्ञेयं । षट्जीवानां रक्षा भणति चरित्रं तु व्यवहारः ॥४०॥ आत्मा खलु मम ज्ञानमात्मा मे दर्शनं चरित्रं च ।
आत्मा प्रत्याख्यानं आत्मा मे संवरो योगः ॥४॥ आत्मख्याति:-आचारादिशब्दश्रुतं शानस्याश्रयभूतत्वात् ज्ञानं, जीवादयो नवपदार्था दर्शनस्याश्रयत्वादर्शनं, पजीवनिकायश्चारित्रस्याश्रयत्वात् चारित्रं, व्यवहारः । शुद्ध आत्मा ज्ञानाश्रयत्वाद् शानं, शुद्ध आत्मा दर्शनाश्रयत्वा
दर्शनं, शुद्ध आत्मा चारित्राश्रयत्वाचारित्रमिति निश्चयः । नयाचारादीनां ज्ञानाश्रयत्वस्थानकांतिकत्वाद् न्यवहारनयः ॥ ए प्रतिषेभ्यः । निश्चयनयस्तु शुद्धस्यात्मनो ज्ञानायाश्रयत्वस्यकांतिकत्वात् तत्प्रतिषेधकः । तथाहि-नाचारादिशब्दश्रुतं
एकांतेन ज्ञानस्याश्रयः, तत्सद्भावेप्यभन्यानां शुद्धात्माभावेन ज्ञानस्याभावात् । न जीवादयः पदार्या दर्शनस्पाश्रयाः म तत्सद्भावेप्यभन्यानां शुद्धात्माभावेन दर्शनस्याभावात् । न षट्जीवनिकाय चारित्रस्याश्रयस्तत्सद्भावेप्यभव्यानां शुद्धा
त्माभावेन चारित्रस्याभावात् । शुद्ध आत्मैव ज्ञानस्याश्रयः, आचारादिशब्दश्रु तसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव , 4 शानस्य सद्भावात् । शुद्ध आत्मैव दर्शनस्याश्रयः, जीवादिपदार्थसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावनैव दर्शनस्य सद्भा- ..
वात् । शुद्ध आत्मैव चारित्रस्याश्रयः षड्जीवनिकायसद्भावेऽसद्भावे या तत्सद्भावेनैव चारित्रस्य सद्भावात् । + अर्थ-आचारांग आदि शास्त्र है सो तो ज्ञान है, बहुरि जीवादि तत्व है सो दर्शन है,
बहुरि छह कायकी जीवनिकी रक्षा है सो चारित्र है; ऐसें तौ व्यवहारनय कहे है। बहुरि निश्चय
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करि मेरा आत्मा ही ज्ञान है, बहुरि मेरा आत्मा ही दर्शन है, बहुरि मेरा आत्मा ही चारित्र है, बहुरि मेरा आत्मा ही प्रत्याख्यान है, बहुरि मेरा आत्मा ही संवर है, बहुरि मेरा आत्मा ही योग प्रा है, समाधि है, ध्यान है ऐसें निश्चयनय कहे है ।
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टीका - आचारांग आदि लेकर शब्दश्रुत है, सो ज्ञान है, जातें यह ज्ञानका आश्रय है। बहुरि जीवकू आदि लेकरि नव पदार्थ हैं, ते दर्शन हैं, जातें ए दर्शनके आश्रय हैं । बहुरि छह रक्षा है, सो चारित्र हैं, जाते यह चारित्रका आश्रय है । ऐसें तो व्य
जीवनकी
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वचन हैं । बहुरि शुद्ध आत्मा है, सो ज्ञान है, जातें ज्ञानका आश्रय आत्मा ही है । बहुरि शुद्ध फ आत्मा है, सो ही दर्शन है. जातें दर्शनका आश्रय आत्मा ही है । बहरि शुद्ध आत्मा है, सो ही
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चारित्र है, जातैं चारित्रका आश्रय आत्मा ही है । ऐसें निश्चयनयके वचन हैं। तहां आचारांग 5 ariana ज्ञानाfarar आश्रयपणाका अनैकांतिकपणा है, व्यभिचार है । आचारांग आविक तौ 5 होय अर ज्ञान आदिक नाहीं भी होय, तातें व्यवहारनय प्रतिषेधने योग्य है । बहुरि निश्चयनय है, सो शुद्ध आत्म ज्ञानादिकका आश्रयपणाका ऐकांतिकपणा है, जहां शुद्ध आत्मा है, तहां 5 ही ज्ञानदर्शनचारित्र है । तातें तिस व्यवहारनयका प्रतिषेध करनेवाला है । सो ही हेतुकरि कहे हैं, आचारादि शब्दश्रुत हैं, सो एकांतकरि ज्ञानका आश्रय नाहीं है, जातें आचारांगादिकका
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अभव्य जीवकै सद्भाव होते भी शुद्ध आत्माका अभावकरि ज्ञानका अभाव है । बहुरि जीव आदि
नवपदार्थ हैं ते दर्शनका आश्रय नाहीं है, जातें अभव्यकै तिनका सद्भाव होते भी शुद्धात्माका फ 卐
अभावकरि दर्शनका अभाव है । बहुरि छह जीवनिकी रक्षा है, सो चारित्रका आश्रय नाहीं है,
5 जातें ताका सद्भाव होते भी अभव्यकै शुद्धात्माका अभावकरि चारित्रका अभाव है। बहुरि 5 शुद्ध आत्मा है, सो ही ज्ञानका आश्रय है, जातें आचारांगादि शब्दश्रुतका सदभाव होते तथा 卐 असद्भाव होते भी शुद्धात्माका सद्भावही करि ज्ञानका सद्भाव है। शुद्ध आत्मा है सो ही
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दर्शनका आश्रय है, जातें जीवादि पदार्थनिका सद्भाव होते तथा असद्भाव होते भी शुद्धात्माका
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" सद्भावहीकरि दर्शनका सद्भाव है । बहुरि शुद्ध आत्मा ही चारित्रका आश्रय है, जातें छह
जीवनिकी रक्षाका सद्भाव होते तशा असदभाव होते भी अद्धान्माका सभावहीकरि चारित्रका __ सद्भाव है। म भावार्थ-आचारांगादि शब्दश्रुतका जानना तथा जीवादिपदार्थका जानना तथा छह - कायके जीवनिकी रक्षा इनिके होते भी अभव्यके ज्ञानदर्शनचारित्र न होय है, तातै व्यवहारनय
तौ प्रतिषेध्य है । बहुरि शुद्धात्माके होते ज्ञानदर्शनचारित्र होय ही हैं, तातें निश्चयनय याका + प्रतिषेधक है, तातें शुद्धनय उपादेय कया है। आगें अगिले कथनकी सूचनिकाका काव्य कहे हैं।
उपजातिच्छन्दः रागादयो बन्धनिदानमुक्तास्ते शुद्धचिन्मात्रमहोऽतिरिक्ताः
आत्मा परो चा किमु तन्निमित्त मिति प्रणन्नाः पुनरेवमाहुः ॥१२॥ अर्थ-इहां शिष्य फेरि पूछे है, जो रागादिक हैं ते तो बंधके कारण कहे, बहुरि ते शुद्धचैतन्यमात्र मह जो आत्मा तातें अतिरिक्त कहिये भिन्न कहे-न्यारे कहै, तहां तिनिके होने में + आत्मा निमित्त है कि पर कोई निमित्त है ? ऐसे प्रेरे हुए आचार्य फेरि आगाने याका उत्तर - दृष्टांत कहे हैं । गाथा" नीचे लिखी गाथाओंकी आत्मरूपाति संस्कृत और हिन्दी टीका उपलब्ध नहीं है इसलिये नहीं छापो ॥ - गई। तात्पर्यवृत्ति टीका मिलती है यह छपी है।
आघाकम्मादीया पुग्गलदव्वस्स जे इमे दोसा। कह ते कुब्वदि णाणी परदव्वगुणा हु जे णिचं ॥ आधाकम्मादीया पुग्गलदव्वस्स जे इमे दोसा। कहमणुमण्णदि अण्णेण कीरमाणा परस्स गुणा ॥
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जह फलियमणि विसुद्धो न सयं परिणमदि रागमादीहिं ।
राइज्जदि अगणेहिं दु सो रत्तादियेहिं दव्वेहिं ॥ ४२ ॥
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तात्पर्यवृत्तिः:- स्वयं पर्किनापन आहार आधाकर्मशब्देनोच्यते तत्प्रभृतिव्याख्यानं करोति--आधाकर्माया ये इमे दोषाः कथंभूताः १ शुद्धात्मनः सकाशात्परस्याभिन्नस्याहाररूपपुद्गलद्रव्यस्य गुणाः । पुनरपि कथंभूताः ? तस्यैवाहारhi पुद्गलस्य पचन पाचनादिक्रियारूपाः तान्निश्चयेन कथं करोतीति ज्ञानीति प्रथममायार्थः । अनुमोदयति वा कथमिति द्वितीय गाथार्थः परेण गृहस्थेन क्रियमाणान्, न कथमपि । कस्मात् ? निर्विकल्पसमाधौ सति आहारविषयमनोवचन-15 कायकृतकारितानुमननाभावात् इत्याधाकर्मव्याख्यानरूपेण गाथाद्वयं गतं ।
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अर्थ - अपने आप पाकसे उत्पन्न हुये आहारको 'आधाकर्म" नामसे कहा गया है। आधा कर्म आदि पुद्गल गुण हैं उनको यह ज्ञानी आत्मा स्वयं कैसे कर सकता है तथा किस
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प्रकार दूसरोंसे किये हुये उन दोषोंकी अनुमोदना कर सकता है अर्थात् ज्ञानी शुद्ध आत्मासे
भिन्न पुद्गलद्रव्यके गुण आधाकर्म आदिको न तो स्वयं करता है और न दूसरोंसे किये 5 हुओंकी अनुमोदना ही करता है
I
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आहारग्रहणात्पूर्वं तस्य पात्रस्य निमित्तं यत्किमप्यशनपानादिकं कृतं तदौपदेशिकं भण्यते तेनौपदेशिकेन सह तदेवाचाकर्म पुनरपि गाधाद्वयेन कथ्यते—
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आधाकर्माद्याः पुद्गलद्रव्यस्य ये इमें दोषाः । कथं तान् करोति ज्ञानी परद्रव्यगुणाः खलु ये नित्यं ॥ आधा कर्मायाः पुद्गलद्रव्यस्य ये इमे दोषाः । कथमनुमन्यते अन्येन क्रियमाणाः परस्य गुणाः ॥
फफफफफफफफफफफफ
आधाकम्मं उद्देसियं च पोग्गलमयं इमं दव्वं । कह तं मम होदि कदं जं णिच्चमचेदणं वृत्तं ॥
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एवं णाणी सुद्धो ण सयं परिणमदि रागमादीहि । राइजदि अण्णेहिं दु सो रागादीहिं दोसेहिं ॥४३॥ आघाकम्म उद्देसियं च पोग्गलमयं इमं दव्वं । कह तं मम कारविदं जं णिचमचेदणं वुत्तं ॥
आधाको पदेशिकं च पुद्गलमयमेतद्व्यं । कथं तन्मम भवति कृतं यन्नित्यमचेतनमुक्तं ॥ आधाकमौ पदेशिकं च पुद्गलमयमेतद् द्रव्यं ।
कथं तन्मम कारितं यन्नित्यमचेतनमुक्तं ॥ 卐 तात्पर्यवृत्तिः–यदिदमाहारकपुद्गलद्रव्यमाधाकर्मरूपमौपदेशिकं च चेतनशुद्वात्मद्रव्यपृथक्त्वेन नित्यमेवाचतनं ॥ - भणितं तत्कथं मया कृतं भवति कारितं वा कथं भवति ! न कथमपि । कस्माद्धंतोः ! निश्चयरत्नत्रयलक्षणभेदबाने सति आहारविषये मनोवचनकायकृतकारितानुमानाभावात् । इत्यौपदेशिकव्याख्यानमुख्यत्वेन च गाथाद्वयं गतं । . '
___ अयमत्राभिप्रायः पश्चात्पूर्व संप्रतिकाले ना योग्याहारादिविषये मनोवचनकायकृतकारितानुमतरूपैर्नवनिर्विकल्पैः - शुद्धास्तेषां परकृताहारादिविषये बंधो नास्ति यदि पुनः परकोयपारिणामेन बंधो भवति तहि कापि काले निर्वाणं 卐 नास्ति । तथा चोक्त।
णावकोडिकम्मसुद्धो पच्छापुरदोय संपदियकाले ।
परसुहदुक्खणिमित्त वादि जदि णस्थि णिचाणं । ___ अर्थ-आधाकर्म आहारक पुद्गलद्रव्यरूप है इसलिये चेतनशुद्धात्मद्रव्यसे पृथक है अतः वे ॥ है कैसे मेरे होसक्ते हैं या मैं उनरूप कैसे हो सक्ता हूं ? अर्थात् नहीं हो सक्ता ई क्योंकि मेरा " उनका लक्षण भिन्न भिन्न है और इसीलिये आधाकर्म आदि अचेतनको न करा सकता हूं है और न उनकी अनुमोदना ही कर सकता हूं। यहांपर यह अभिप्राय समझना चाहिये कि -
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यथा स्फटिकमणिः शुद्धो न स्वयं परिणमते रागाये। रज्यतेऽन्यैस्तु स रक्तादिभिद्र व्यः ॥४२॥ एवं ज्ञानी शुद्धो न स्वयं परिणमते रागाथैः ।
रज्यतेऽन्यैस्तु स रागादिभिर्दोषैः ॥४३॥ . आत्मख्याति:-यथा खलु केवल: स्कटिकोपलः परिणामस्वभावत्वे सत्यपि स्वस्य शुस्वभावत्वेन रागादिनिमित्त त्वामावात् रागादिभिः स्वयं न परिणमते । परद्रव्येणेव स्वयं रागादिभावापन्नतया स्वस्य रागादिनिमिवभूतेन शुद्ध卐 स्वभावात्तच्यत्रमान एव रागादिभिः परिणम्यते । तथा केवलः किलात्मा परिणामस्वभावत्वे सत्यपि स्वस्य शुद्धस्वभाव ।
वेन रागादिनिमित्तत्वाभावात् रागादिभिः स्वयं न परिणमने परद्रन्येणैव स्वयं रागादिभावापन्नतया स्वस्य रागादि.. निमित्तभूतेन शुद्धस्वभावात्प्रच्यवमान एष रागादिभिः परिणम्येत, इति तापवस्तुस्वभावः।
अर्थ-जैसा स्फटिकमणि आप शद्ध है, सो रागादि कहिये ललाई आदि रंगरूप आप ही तौ नाहीं परिणमे है, अन्य लाल काला आदि द्रव्यनिकरि ललाई आदि रंगरूप परिणमे है। तैसा ही याही प्रकार ज्ञानी है सो आप शुद्ध है, सो रागादि भावनिकर आप ही तो नाहीं परिणमे है, अन्य जे रागादि दोष, तिनिकारे रागादिरूप कोजिये है।
टीका-जैसा निश्चयकरि केवल एकला स्फटिकपाषाण है सो आप परिणामस्वभावरूप .. होते संते भी अपना शुद्धस्वभावपणाकरि तौ रागादिनिमितपणाका अभावतें रागादिकरि आप नाही परिणमे है, आप ही अपके रागादिपरिणाम होनेका निमित्त नाहीं है। बहुरि परद्रव्य . स्वयं रागादिभावकू प्राप्त हुवापणाकरि स्फटिकके रागादि निमित्तभूत है। ताकरि, शुद्धस्वभावते । व्युत होता संता हो रागादिककरि परिणमिये है । तैसा केवल एकला आत्मा है सो परिणाम-ऊ वर्तमान भूत भविष्यत कालमें वा योग्य आहारादि विषयमें नक्कोटि विकल्पसे मेरा आत्मा शुद्ध
है, उसके परकृत आहारदिके विषयमें बन्ध नहीं होता है। यदि उसके भी बन्ध माना जायगा। 4 तो किसी भी कालमें आत्माका निर्वाण नहीं हो सक्ता है।
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स्वभावरूप होते संते भी आपके शुद्धस्वभावपणाकरि रागादिनिमित्तपणाका अभावतें आप ही उमरागादि भावनिकरि नाहीं परिणमे है आपके आप ही रागादि परिणामका निमित्त नाहीं है, परद्रव्य
स्वयं रागादिभाव त हुवाणाकरि आत्माके रागादिकका निमित्तभूत है, ताकरि शुद्ध
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फफफफफफफफ
भावतें च्युत होता संता ही रागादिककरि परिणमिये है । ऐसा ही वस्तूका स्वभाव है ।
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भावार्थ - आत्मा एकाकी तौ शुद्ध ही है, परंतु परिणामस्वभाव है । जैसा परका निमित्त मिलें तैसा परिणमे भी है । तातैं रागादिकरूप परिणमे है । सो परद्रव्यका निमित्तरि परिणमे 卐
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फ है। तहां स्फटिकमणिका दृष्टांत है जो स्फटिकमणि आप सौ केवल एकाकार शुद्ध ही है, परंतु
परद्रव्यका ललाई आदिका डंक लागे तब ललाई आदिरूप परिणमे है, सो यह वस्तूहीका
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स्वभाव है । यहां किछू अन्य तर्क नाहीं है । अब इस अर्थका कलशरूप श्लोक है ।
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उपजातिछन्दः
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न जातु रागादिनिमित्तभावमात्माऽऽत्मनो याति यथाऽर्ककान्तः । तस्मिन्निमित्तं परसङ्ग एव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् || १३||
फफफफफफफ
अनुष्टुप्छन्दः
इति वस्तुस्वभावं स्वं ज्ञानी जानाति तेन सः । रागादीन्नात्मनः कुर्यान्नातो भवति कारकः ॥ १४॥
अर्थ-जैसें अपने वस्तुस्वभावकूं ज्ञानी है सो जाने है, तिस कारणकरि सो ज्ञानी रागादिककुं
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अर्थ - आत्मा है सो आपके रागादिकका निमित्तभावकू कदाचित् न प्राप्त होय है, तिस फ आत्माविषै रागादिकका निमित्त परद्रव्यका संग ही है, इहां सूर्यकांतमणिका दृष्टांत है - जैसें 5 सूर्यकांतमणि आप ही तो अग्निरूप नाहीं परिणमे है, तिसविषै सूर्यका बिंब अभिरूप होनेकूं 5 निमित्त है, तैसें जानना । यह वस्तूका स्वभाव उदयकूं प्राप्त है काहूका किया नाहीं है । आगे कहे हैं, जो ऐसा वस्तुका स्वभावकूं जानता संता ज्ञानी रागादिककूं आपके नाहीं करे है ऐसा सूचनिकाका श्लोक है ।
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卐 आत्मख्यातिः---यथोक्तवस्तुस्वभावं जानन् ज्ञानी शुद्धस्वभावादेव न प्रच्यवते, ततो रागद्व ेषमोहादिभावैः स्वयं न परिणमते न परेणापि परिणम्यते, ततष्टकोत्कीर्णे कझापकस्वभावो ज्ञानी रागद्वे पमोहादिभावानामकर्तेदेखि नियमः । अर्थ - ज्ञानी है सो आप ही आपके राग द्वेष मोह तथा कषायभाव नाहीं करे है, तिल 5 कारणकरि सो ज्ञानी तिनि भावनिका कारक कहिये करनेवाला - कर्ता नाहीं है । टीका - जैसा का तैसा वस्तूका स्वभाव जानता संता ज्ञानी है सो अपना शुद्धस्वभावतें 5 ही नाहीं छूटे है, तातें राग द्वेष मोह आदि भावनिकरि आप आप नाही परिणमे है अर परकरि भी नाही परिणमिये है, तातें टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वरूप ज्ञानी राग द्वेष मोह आदि भावनिक अकर्ता ही है, ऐसा नियम है
I
भावार्थ - ज्ञानी भया, तब वस्तूका ऐसा स्वभाव जान्या, जो आप तो आत्मा शुद्ध है- द्रव्यefeat अपरिणमनस्वरूप है, पर्यायदृष्टिकरि परद्रव्यके निमित्त रागादिरूप परिणमे है, सो अब फ 15 आप ज्ञानी तिनिभावनिका कर्ता न हो है, उदय आवै तिनिका ज्ञाता ही है। आगे कहे हैं "अज्ञानी ऐसा वस्तूका स्वभाव नाहीं जाने है, तार्ते रागादिक भावनिका कर्ता होय है,” याकी 5 सूचनिकाका श्लोक है ।
आपके नहीं करे है, तारों रागादिकका कारक नाही है। आगे ऐसें ही गाथामै कहे हैं। गाथा-गवि रागदोसमोहं कुव्वदि णाणी कसायभावं वा । सयमप्पणो ण सो तेा कारगो तेर्सि भावाणं ॥ ४४ ॥ 卐 नापि रागद्वेषमोहं करोति ज्ञानी कषायभावं वा । स्वयमेवात्मनो न स तेन कारकस्तेषां भावानां ॥४४॥
फ्रफ़ फफफफफफफफफफफ
अनुष्टुप्छन्दः
इति वस्तुस्वभावं स्वं नाज्ञानी वेचि तेन सः । रागादीनात्मनः कुर्यादतो भवति कारकः ||१५||
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अर्थ - अज्ञानी है सो ऐसा अपना वस्तुस्वभावकूं नाहीं जाने है, तिस कारणकरि सो अज्ञानी रागादिकभावनिकूं आपके करे है, यातै तिनिका कारक होय हैं । अब इस अर्थ की गाथा
फ कहे हैं। गाथा
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卐
राय दोसहमि य कसायकम्मेसु चेव जे भावा ।
5
तेहिं दु परिणममाणो रायादी बंधदि पुणोवि ॥ ४५ ॥ रागे दोषे च कषायकर्मसु चैव ये भावाः ।
卐
तैस्तु परिणममानों रागादीन् बभाति पुनरपि ॥४५॥
आत्मख्यातिः—यथोक्तं वस्तुस्वभावमजानंस्त्वज्ञानी शुद्धस्वभावादासंसारं प्रच्युत एव । ततः कर्मविपाकप्रभवे राम
卐
इषमोहादिभावैः परिणममानोऽज्ञानी रागद्वेषमोहादिभावानां कर्ता भवन् बध्यत एवेति प्रतिनियमः । ततः स्थित-5 फ मेतत्
अर्थ - राग बहुरि द्वेष बहुरि कषायकर्म इनिकू होते संते जे भाव होय हैं, तिनिकरि परि 5 मता संता, अज्ञानी रामादिककूं फेरि फेरि बांधे है ।
टीका - जैसा कया तैसा वस्तुका स्वभावकू नाहीं जानता संता अज्ञानी है सो अपना शुद्ध
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स्वभावतें अनादिसंसारतें लगाय च्युत ही हैं, छूटि रा है तातें कर्मके उदयकरि भये जे राग
5 द्वेष मोहादिक भाव, तिनिकरि परिणमता संता, अज्ञानी राग द्वेष मोहादि भावनिका कर्ता होता संता कर्मनिकरि बंधे ही है ऐसा नियम है ।
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भावार्थ - अज्ञानी वस्तूका स्वभाव तौ यथार्थ जाने नाहीं अर कर्मका उदयकरि जैसा भाव फ
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होय, तिस आपा जानि परिणमें, तब तिनिका कर्ता भया संता आगामी फेरि फेरि कर्म बांधे है यह नियम है। आगे कहे हैं, जो इस हेतु यह ठहरी, ताकी गाथा
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टीका - निश्चयकरि जे ए अज्ञानीके पुद्गलकर्म हैं निमित्त जिनिकुं ऐसे राग द्वेष मोह आदि भावनिका कर्ता होता संता कर्मनिकरि बंधे ही हैं, ऐसा परिणाम है; ते ही फेरि राग द्वेष मोह आदि परिणामकूं निमित्त जो पुद्गलकर्म, ताके बंधके कारण होय हैं ।
भावार्थ - अज्ञानी के कर्व के निमित्त राग द्वेष मोह आदिक परिणाम होय हैं, ते फेरि आगामी कर्मबंधके कारण होय हैं। आगे फेरि पूछे है, ऐसें है, जो अज्ञानीके रागादिक फेरि कर्मबंधके कारण हैं, तो आत्मा रागादिकका अकारक ही है, ऐसें कैसें कया है ? ताका समाधान कहे हैं । 卐 फ गाथा
फफफफफफफफफफफफफ
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राम िय दोसी य कसायकम्मेसु चेव जे भावा । ते मम दु परिणतो रागादी बंधदे चेदा ||४६ ॥ रागे च दोषे च कषायकर्मसु चैव ये भावाः ।
तन्मम तु परिणममानो रागादीन् बध्नाति चेतयिता ॥ ४६ ॥ आत्मख्यातिः - य इमे किलाज्ञानिनः पुद्गलकर्मनिमित्ता रागद्वेषमोहादिपरिणामास्त एवं भूयो रागद्वेषमोहादिपरिणामनिमित्तस्य पुद्गलकर्मणो बंधहेतुरिति । कथमात्मा रामादीनामकारकः १ इति वेद
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अर्थ - राम बहुरि द्वेष बहुरि कषाय कर्म इनिक्कू होते संते जे भाव होंय तिनिकरि परिणमता
संता, आत्मा रागादिकनिकूं बांधे है ।
अपडिक्कम दुविहं अपच्चक्खाणं तहेब विष्णेयं । एदेवदेसेा दु अकारगो वणिदो वेदा ॥४७॥ अपडिकमणं दुविहं दव्वे भावे अपच्चखापि । एदेणुवदेसेण दु अकारगो वणिदो वेदा ॥ ४८ ॥
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जाव ण पच्चक्खाणे अपडिक्कमणे च दव्वभावाणे । कुव्वदि आदा ताव दुकत्ता सो होदि णादव्वं ॥४९॥
अप्रतिक्रमणं द्विविधमप्रत्याख्यानं तथैव विज्ञेयं । एतेनोपदेशेनाकारको वर्णितश्चेतयिता ॥४७॥ अप्रतिकमणं द्विविधं द्रव्ये भावे तथैवाप्रत्याख्यानं । ऐतेनोपदेशेनाकारको वर्णितश्वेतयिता ॥४८॥ यावन्नप्रत्याख्यानमप्रतिक्रमणं च द्रव्यभावयोः।
करोत्यात्मा तावत्त कती स भवति ज्ञातव्यः ॥१९॥ आत्मख्याति:-आत्मा अनात्मनां रागावीमायकारक एक, अति पासवानोविष्योपदेशान्यथानुपपत्तेः।।। यः खलु, अप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोच्यभावभेदेन द्विविधोपदेशः स द्रश्यभावयोनिमित्तनैमित्तिकभावं प्रथयन्नक त्व-" मात्मनो ज्ञापयति । तत एतत् स्थितं परद्रव्यं निमित्त नैमित्तका आत्मनो रागादिभावाः। यद्येवं नेप्येत तदा द्रव्याप्रति-- क्रमणाप्रत्याख्यानयोः कर्तृत्वनिमिचत्योपदेशोऽनर्थक एव स्यात् तदनर्थकत्वे त्वेकस्यैवात्मनो रागादिमावनिमिचत्वापची। नित्यकर्तृत्वानुषंगान्मोक्षामावः प्रसनंच ततः परद्रव्यमेवात्मनो रागादिभावनिमित्तमस्तु तथा सति तु रागादीनाम-1. कारक एवात्मा, तथापि यावन्निमिचभूतं द्रव्य न प्रतिकामति न प्रत्याचष्टे च तावन्नैमितिकभूतं भावं न प्रतिक्रामति । न प्रत्याचष्टे च, यावत्तु भावं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे तावत्कर्तेव स्यात् । यदेव निभिचभूतं द्रव्यं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च तदैव नैमिचिकभूवं भावं प्रतिक्रामति प्रत्याचप्रे च । यदा तु भावं प्रतिक्रामति प्रत्याचपटे च तदा साधाइकतैव स्यात् ।
द्रव्यभावयोनिमिचनैमित्तिकमावोदाहरणं चैतत् ।
अर्थ-अप्रतिक्रमण दोय प्रकार जानना, तैसें ही अप्रत्याख्यान दोय प्रकार जानना, इस) 15 उपदेशकरि चेतयिता-आत्मा अकारक कया है। सो अप्रतिक्रमण दोय प्रकार-एक तौ द्रव्य...
विर्षे, एक भावविर्षे, बहुरि तैसें ही अप्रत्याख्यान दोय प्रकार-एक द्रव्यविर्षे, एक भावविय, इसी
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3 उपदेशकरि चेतयिता-आत्मा अकारक कह्या है, जेते आरमा द्रव्यविर्षे अर भावविर्षे अप्रतिक्रमण के . अर अप्रत्यागपाल करे है, से सो आग इतः होर है यह जानना।
टीका-आत्मा है सो आपहीकरि रागादिभावनिका अकारक ही है। जातें आप ही कारक 卐 होय तौ अप्रतिक्रमण अर अप्रत्याख्यान इनिका द्रव्यभावकरि दोय प्रकारका उपदेशको अप्राप्ति के ___ आवे है-जो निश्चयकरि अप्रतिक्रमण अर अप्रयाख्यानका दोय प्रकार भेदका उपदेश है, सो यह + उपदेश द्रव्यके अर भावके निमित्तनैमित्तिकभावकू विस्तारता संता, आत्माके अंकापणाकू ॥ 1- जनावै है, तातें यह ठहरथा, जो परद्रव्य तौ निमित्त है अर नैमित्तिक आत्माकै रागादिकभाव
हैं, जो ऐसे न मानिये तौ द्रव्य अप्रतिक्रमण अर द्रव्य अप्रत्याख्यान इनिके कर्तापणाका निमित्तपणाका उपदेश है सो अनर्थक ही होय, अर इस उपदेशके अनर्थकपणा होते संते एक आत्माहीके रागादिभावका निमित्तपणाकी प्राप्ति होते सदा नित्यकर्तापणाका प्रसंग आवै, तातें मोक्षका अभाव ठहरे, तातें आत्माकै रागादिभावनिका निमित्त परद्रव्य ही होऊ, तैसे होते आत्मा रागादिभावनिका अकारक ही है, यह सिद्ध भया तौऊ जैत रागादिकका निमित्त भूत परद्रव्यका प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान नाहीं करे, तेते नैमित्तिकभूत रागादिकभावनिका प्रतिक्रमण प्रत्या ख्यान न होय, बहुरि जेते इनि भावनिका प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान न होय, तेते रागादि भावनिका कर्ता ही है, बहुरि जिसकाल रागादिभावनिका निमित्तभूत द्रव्यनिका प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान + करे है, तिसही काल नैमित्तिकभूत रागादिभावनिका प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान होय है, बहुरि जिस- काल इनि भावनिका प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान भया, तिस काल साक्षात् अकर्ता ही है। 卐 भावार्थ-अतिक्रमण प्रत्याख्यानका द्रव्यभाव भेदकरि दोष प्रकारका उपदेश है । सो इहां . शुद्धनयप्रधान कथन है । तातें निषेधप्रधानकरि वर्णन है। तहां अप्रतिक्रमण अप्रत्याख्यान ऐसा
कहा है, सो अतीतकालमै परद्रव्यका ग्रहण किया, ताकू अब भला जानै, ताका संस्कार रहै, 卐 ममत्व रहै, सो तौ द्रव्य अप्रतिक्रमण है । अर तिस परद्रव्यके ग्रहणके निमित्ततें रागादिकमाव
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भये थे, तिनि वर्तमान में भला जाने, तिनिसूर है तो अतिक्रमण है + बहुरि आगामी कालमें परद्रव्यकी वांछाकरि ममत्व राखे सो द्रव्य अप्रत्याख्यान है । बहुरि तिनिके 5 निमित्त आगामी कालमै रागादिभाव होयंगे तिनिकी वांछा राखै, ममत्व राखै, सो भाव अप्रत्या ख्यान है । सो यह द्रव्य अप्रतिक्रमण भाव अप्रतिक्रमण, बहुरि द्रव्य अप्रत्याख्यान भाव अप्रत्या ख्यान ऐसा दोय प्रकारका उपदेश है, सो द्रव्यभावके निमित्तनैमित्तिक भावकुं जनावे है । परद्रव्य तौ निमित्त है अर नैमित्तिक रागादिक भाव हैं; सो जेतें निमित्तभूत परद्रव्यका अप्रतिक्रमण f अप्रत्याख्यान या आत्माकै है, तेतें तौ रागादिभावनिका अतिक्रमण अप्रत्याख्यान है । अर जेतें 卐 रागादिभावनिका अप्रतिक्रमण अप्रत्याख्यान हैं, तेतैं रागादिभावनिका कर्ता ही है। अर जिस क काल निमित्तभूत परद्रव्यका प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान करें, तिसकाल नैमित्तिक रागादिभावनिका 5 भी प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान होय । धरि रागादिभावनिका प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान होय सव साक्षात् अकर्ता ही है । ऐसें आत्मा स्वयमेव तो रागादिभावनिका अकर्ता ही है । यह परद्रव्यका निमित्त कहनेतें जानिये है। आगे द्रव्यके अर भावके निमित्तनैमित्तिक भावका उदाहरण यह है, सो गाथामें कहे हैं। गाथा
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आधाकम्मादीया पुग्गलदव्वस्स जे इमे दोसा ।
कह ते कुव्वदि णाणी परदव्वगुणादु जे गिचं ॥ ५०॥ आधाकम्मं उद्देसियं च पुग्गलमयं इमं दव्वं ।
कह तं मम होदि कयं जं णिच्चमचेदां वृत्तं ॥५१॥ अधः कर्मायाः पुद्गलद्रव्यस्य य इमे दोषाः ।
कथं तान्करोति ज्ञानी परद्रव्यगुणास्तु ये नित्यं ॥५०॥
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अधःकर्मोद्देशिकं च पुद्गलमयमिदं द्रव्यं ।
कथं तन्मम भवति कृतं यनित्यमचेत्नमुकं ॥५१॥ आत्मख्यातिः--यथाधाकर्मनिष्पन्नमुद्देशनिष्पन्नं च पुदगलदम्यानेमित्तभूतमात्याचक्षाणो नैमिषिकभूतं बंध- + + साधकं भावं न प्रत्याचप्टे तथा समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्याचक्षाणस्तन्निमितकं भावं न प्रत्याचप्टे । यथा पाषाकर्मादीन् "पुद्गलद्रव्यदोषान नाम करोत्यात्मा परद्रव्यपरिणामत्वे सति, आत्मकार्यत्वाभावात् ततोऽधःकर्मोद्देशिकं च पुद्गल- फ़ 卐 द्रव्यं न मम कार्य नित्यमचेतनत्वे सति मत्कार्यत्वाभावात् इति तत्वज्ञानपूर्वकं पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतं प्रत्याचक्षाणो
नैमिचिकभृतं बंधसाधकं भावं प्रत्याचष्टे तथा समस्तमपि परद्रन्यं प्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्र भावं प्रत्याचपटे एवं द्रव्य- ॥ 卐 भावयोरस्ति निमित्तनैमित्तिकभाषः ।
अर्थ-अधःकर्मकू आदि लेकरि जे ए पुद्गलद्रव्यके दोष हैं, तिनिकू ज्ञानी कैसे करे ? जातें फए नित्य ही सदा पुदगलद्रव्यके गुण हैं । बहुरि यह अधःकर्म अर उद्देशिक है सो पुद्गलमय - 1- द्रव्य है, ज्ञानी यह जाने है, जो यह मेरा किया कैसे होय ? जो सदा अचेतन कया है।
__टीका-जैसें अधःकर्मकरि निपज्या बहुरि उद्देशकरि निपज्या जो आहार आविक पुद्गल है ॐ द्रव्य, सो भावनिकू निमित्तभूत है। जैसा भक्षण करें तैसा भाव होय, सो ऐसें द्रव्यकू ..
अप्रत्याख्यानरूप करता त्याग न करता जो मुनि, सो तिस द्रव्यके नैमित्तिकभूत जे भाव, ते । 卐 बंधके साधक हैं, तिनिक भी त्याग न कर है; तैसे ही समस्त परद्रव्यकू जो त्यागे नाहीं है, सो .
तिसके निमित्ततें होते भावनिकू भी नाहीं त्यागे है। बहुरि जैसें अधःकर्म आदिक पुद्गलबव्यनिकू 卐 आत्मा नाहीं करे है, जातें ए पर पुद्गलद्रव्यके परिणाम हैं, तिसपणाकू होते आत्माकै कार्य-' .. पणाका इनिके अभाव है; ताते ज्ञानी ऐसें जाने “जो अधाकर्म उद्देशिक पुद्गलद्रव्य हैं, ते मेरे
कार्य नाहीं हैं, जाते ए नित्य ही अचेतनपणाके होते मेरे कार्यपणाका इनिकै अभाव है" ऐसे तत्त्वज्ञानपूर्वक निमित्तभूत पुद्गलद्रव्यकू त्याग करता संता मुनि बंधका साधक जो नैमिचिक भूतभाव, ताकू भी त्यागे है, तैसें ही समस्त परद्रव्यकू त्याग करता संता तिस परद्रव्यके
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1- निमित्त होते भावनिकू भी त्यागे है, ऐसे द्रव्यभावके निमित्तनैमित्तिकभाव हैं।
भावार्थ-यह द्रव्यकै अर भावकै निमित्तनैमित्तिकपणा उदाहरणकरि दृढ़ किया है। जैसे 5 ..लौकिकजन कहे हैं जो जैसा दाणा खाय, तैसी बुद्धि उपजै । तैसें ही शास्त्रमें उदाहरण है-जो
पापकर्मकरि आहार निपजे, ताकू अधःकर्मनिष्पन्न कहिये तथा जो आहार किसीके निमित्त 5 निपजै, ताकू उद्देशिक कहिये । सो ऐसा आहार जो पुरुष सेवे, ताके तैसे ही भाव होय । ऐसा .. द्रव्यभावका निमित्तनैमित्तिकभाव है, तैसा ही समस्तद्रव्यनिका निमित्तनैमित्तिकभाव जानना। +ऐसे होते जो परद्रव्यकू ग्रहण करे है ताकै रागादिभाव भी होय हैं, तिनिका कर्ता भी होय है, । तब कर्मका बंध भी करै है। बहुरि जब ज्ञानी होय है, तब काहूके ग्रहण करनेका राग नाहीं, तब "रागादिरूप परिणमन भी नाहीं, तब आगामी वंघ भी नाहीं, ऐसें ज्ञानी परद्रव्यका कर्ता नाहीं ॥ है। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहि परद्रव्यके त्यागनेका उपदेश करे हैं।
___ शार्दूलविक्रीडितछन्दः इस्पालोच्य विषम्य शकिल परद्रध्यं सभ बलाचन्मूलं बहुभावसन्ततिमिमामुद्धतु कामः समम् ॥
आत्मानं समुपैति निर्भरवहत्पूर्णकसंचिद्युतं येनोन्मूलितबन्ध एष भगवानात्मात्मनि स्फूर्जति ॥१६॥ + अर्थ-जो पुरुष ऐसे परद्रव्यके अर अपने भावके निमित्तनैमित्तिकपणा विचारिकरि, तिस ..परद्रव्यसमस्त• अपना बल-पराक्रम-उधमकरि, त्याग करिके, अर सो परद्रव्य है मूल जाका गऐसी बहुत भावनिकी संतति--परिपाटीकू दूरि युगपत् उडावनेषं चाहता संता अतिशयकरि । पर बहता प्रवाहरूप धारावाही पूर्ण एकसंवेदन, तिसकरि युक्त जो अपना आत्मा, ताहि प्राप्त होय "है। जिस कारणकरि उन्मूलित किये हैं-मूलतें उपाडे हैं कर्मके बंधन जाने ऐसा भगवान् यह आत्मा आपहीविर्षे स्फुरायमान प्रगट होय है।
भावार्थ-परद्रव्यके अर अपने भावके निमित्तनैमित्तिकभाव जानि, समस्त परद्रव्यकू त्यागे, तब समस्तरागादि भावनिकी संतति कटि जाय, अब आत्मा अपना ही अनुभव करता संता
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ज, कर्मके बंधनकू काटि आपहीविर्षे प्रकाशरूप प्रगटे है । तातें अपना हित चाहे हैं ते ऐसे करो। अव बंध अधिकार पूर्ण किया, ताके अंतमंगलरूप ज्ञानकी महिमाका अर्धरूप कलशकाव्य कहे हैं।
मन्दाक्रान्ताछन्दः रागादीनामुदयमदयं दारयत्कारणानां कार्य बन्धं विविधमधुना सद्य एव अणुध । ज्ञानज्योतिः क्षपिततिमिरं माध सन्नदतत नाइन्प्रसारमारः कोऽपि नास्या वृणोति ॥१७॥
इति बंधो निष्फ्रांता।
इति समयसारन्यातपायामात्मख्याती सप्तमोऽका । अर्थ-यह ज्ञानज्योति है सो क्षेप्या है-दरि किया है अज्ञानरूप अंधकार जाने सो तैसे सम्पप्रकार सज्या जैसे याका प्रसर कहिये फैलना अवर कोई आवरे नाहीं सो यह ऐसा पहले कहा करिके सज्या सो कहे हैं। पहले तो बंधके कारण जे रागादिकभाव, तिनिका उदय असे निर्दयी काहूकू विदारे तैसें तिनिकू विदारता संता प्रगटया, पीछे जब कारण दूरी भये, तब
तिनिका कार्य जो कर्मका ज्ञानावरण आदि अनेक प्रकार बंध ताकू अव तत्काल ही दूरि करिके 5 .- अर ज्या है।
भावार्थ-ज्ञान प्रगट होय है जब रागादिक न रहै, तिनिका कार्य बंध न रहै, तब फेरिः । 1- या आवरणेवाला कोई न रहै, सदाकाल प्रकाशरूप रहै । ऐसें रंगभूमिमें बंधका स्वांग प्रवेश+ किया था, सो ज्ञानज्योति प्रगट भया, तब बंध स्वांग दूरि करि निकसि गया।
सबैया तेईसा " जो नर कोय परै रजमाहि सचिक्कण अंग लगे वह गादै, त्यो मतिहीन जु राग विरोध लिये विचरे तब बंधन बाट । 卐 पाय समै उपदेश यथारथ रागविरोध तजै निज चाट, नाहि बंधै तल कर्मसमूह जु आप गहे परभावनि काट ॥१॥ ऐसें इस समयसारनाम ग्रंथकी आराख्याति नामा टीकाकी वनिकाविर्षे बंध नामा सातमा
अधिकार पूर्ण भया । यहाँ साई गाथा २८७ भई । कलश १७९ भये ॥
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अथ मोक्षाधिकारः। दोहा-कर्मपंध सब काटिक पहुंचे मोक्ष सुधान । नम् सिद्ध परमात्मा करू ध्यान अमलान ॥१॥ आत्मस्वाति:-अब प्रविशति मोक्षः ।
अब टीकाकारके वचन हैं, जो इहां मोक्षतत्त्व प्रवेश करे है। प्रबंध-जैसे नृत्यके अखाडेमें + स्वांग प्रवेश करे है। तहां ज्ञान सर्व स्वांगका जाननेवाला है, तातें सम्यग्ज्ञानकी महिमारूप मंगल है। अधिकारका आदिवि काव्य कहे हैं।
शिखरिणीछन्दः हिनामा मात्रकलदलनाद बन्धपुरुषो नयन्मोक्षं साक्षात्पुरुषमुपलम्भकनियतम् ।
इदानीमुन्मज्जन् सहजपरमानन्दसरसं परं पूर्ण शानं कृतसकलकृत्यं विजयते ॥१॥ " अर्थ-अब बंधपदार्थक अनंतर पूर्णज्ञान है सो प्रज्ञारूप करोतकरि दलन कहिये विदारणते ॥
बंध अर पुरुषकू द्विधा कहिये न्यारे न्यारे दोय करि अर पुरुषकू साक्षात् मोक्षफू प्राप्त करता संता " जयवंत प्रवर्ते है । कैसा है पुरुष ? उपलंभ कहिये अपना स्वरूपका साक्षात् अनुभवन, ताहीकरि का + निश्चित है। बहुरि ज्ञान कैसा है ? उदय होता जो अपना स्वाभाविक परम आनंद, ताकरि सरस .- है रस भरथा है, बहुरि पर कहिये उत्कृष्ट है, बहुरि कीये हैं समस्त करने योग्य कार्य जाने-अब ॐ कछु करना न रहा है।
भावार्थ-ज्ञान है सो बंधपुरुषकू जुदे करि पुरुषकू मोक्ष प्राप्त करता संता अपना संपूर्णरूप " प्रगटकरि जयवंत प्रवर्ते है, याका सर्वोत्कृष्टपणा कहना यह ही मंगलवचन है। आगे कहे हैं,
जो मोक्षकी प्राप्ति कैसे होय है। तहां प्रथम तौ जो बंधका छेद न करें हैं अर बंधका स्वरूप ही जाणि संतुष्ट हैं, ते मोक्ष न पावे हैं । माथा --..
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जह णाम कोवि पुरिसो बंधणियमि चिरकालपडिवो। तिव्वं मंदसहावं कालं च वियाणदे तस्स ॥१॥ जइ णवि कुव्वदि छेदं ण मुंचदि तेण कम्मवघेण । कालेण वहुएणवि ण सो गारो पावदि विमोक्खं ॥२॥ इय कम्मबंधणाणं पयेसपयडिहिदीयअणुभागं । जाणंतोवि ा मुंचदि मुंचदि सब्वेज जदि सुद्धो ॥३॥
यथा नाम कश्चित्पुरुषो वंधनके चिरकालप्रतिबद्धः । ती मंदस्वभावं कालं च विजानाति तस्य ॥१॥ यदि नापि करोति छेदं न मुच्यते तेन कर्मबंधन । कालेन बहुकेनापि न स नरः प्रामोति विमोक्षं ॥२॥ इति कर्मबंधानां प्रदेशस्थितिप्रकृतिमेवमनुभागं ।
जानन्नपि न मुचति मुचति सर्वान् यदि विशुद्धः ॥३॥ 卐 आत्मख्याति:--आत्मबंधयोदिधाकरणं मोक्षः, बंधस्वरूपज्ञानमात्रं तद्धनुरित्येके तदसत न कर्मबद्धस्य बंधस्वरूप .. ज्ञानमात्र मोक्षहेतुः अहेतुत्वात् निगडादिबद्धस्व बंधस्वरूपज्ञानमात्रवत् एतेन कर्मबंधप्रपंचरचनापरिज्ञानमात्रसंतुष्टा , 卐 उत्थाप्यते--
अर्थ-अहो देखो ! जैसे कोऊ पुरुष बंधनविर्षे बहुत कालका बंध्या, तिस यंधनका तीन मंद ॥ "गाढा ढीला स्वभावकू जाने है, बहुरि तिसका कालकू जाने है, जो एता कालका बंध्या है, अर 卐 जो तिस बंधनकू आप काटें नाहीं है तौ तिस बंधनकै वशी भया ही रहे है, तिसकरि छूटै नाहीं ॥
है, बहुत भी कालकर सो पुरुष बंधते छूटना ऐसा मोक्ष नाहीं पाये है। तैसें ही जो पुरुष कर्मके
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+ बंधनका प्रदेशबंध स्थितिबंध प्रकृतिबंध अनुभागबंध याप्रकार है ऐसें जानता संता है, सो भी 5 नमप - कर्म नाहीं छूट है, बहुरि जो आप रागादिकू दुरि करि शुद्ध होय, तौ छूटे है।
टीका--आत्माका अर बंधका विधाकरण कहिये न्यारा न्यारा करना सो मोक्ष है। तहां म 5 केई ऐसे कहे हैं जो बंधका स्वरूपका ज्ञानमात्रहीत मोक्ष है, बंधका स्वरूप जानना सो ही न
मोक्षका कारण है सो यह कहना असत्य है, जातें ऐसा अनुमानका प्रयोग है जो कर्मकरि बंधे पुरुषकै बंधका स्वरूपका ज्ञानमात्र ही मोक्षका कारण नाहीं है । जातें यह जानना ही कर्मते.
छूटनेका कारण नाहीं है, जैसे बेडी आदि करि बंध्या पुरुषकै तिल वेडी आदि बंधनका स्वरूपका - जाननेमात्रपणा ही वेडी आदि काटनेका कारण नाहीं होय है, तैसें ही कर्मका बंधका स्वरूप ॥
जाननेमात्रहीत कर्मबंधते छुटै नाहीं है । इस कथनकरि कर्मके बंधका प्रपंच कहिये विस्तार तिसकी रचना अनेक प्रकार होना तिसका जाननेमात्रकरि जे केई अन्यमती आदि मोक्ष माने , 卐 हैं, ते इसका ज्ञानमात्रहीविर्षे संतुष्ट हैं, तिनिका उत्थापन कीजिये हैं।
भावार्थ-केई अन्यमती ऐसे माने हैं, जो बंधका स्वरूप जानतेत ही मोक्ष है तिनिका कहनेका इस कथनकरि निराकरण जानना । जाननेमात्रतें बंध कटे नाहीं। बंध तौ काटथा ॥ कटे। आगे कहे हैं, जो बंधकी चिंता किये भी बंध कटे नाहीं । गाथा--
जह बंधे चिंतंतो बंधणबद्धो ण पावदि विमोक्खं । तह बंधे चिंतंतो जीवोविण पावदि विमोक्खं ॥४॥
यथा बंधं चिंतयन् बंधनबद्धो न प्राप्नोति विमोक्षं।
तथा बंधं चितयन् जीवोऽपि न प्राप्नोति विमोक्षं ॥४॥ 卐 आत्मख्यातिः-बंधचिताप्रबंधो मोक्षहेतुरित्यन्ये तदप्यसत् न कर्मवइस्प बंधचिताप्रबंधनावमा मोषदेवरहेतृत्वात् ॥
निगडादिबद्धस्य बंधचिताप्रबंधवत् । एतेन कर्मबंधविषयचिंताप्रबंधात्मकविशुदूधर्मध्यानाधबुदयो चोभ्यते ।
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अर्थ - जैसें कोई बंधनकर बंध्या पुरुष है सो तिनिबंधन चितवता संता तिसका सोच करता संता भी मोक्षकूं नाहीं पावे है, तैसें कर्मबंधकी चिंता करता जीव है सो भी मोक्षकू नाहीं पावे है |
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टीका - अन्य कई ऐसें माने हैं जो बंधकी चिंताका प्रबंध है, सो मोक्षका कारण है सो 5 भी मानना असत्य है । इहां भी अनुमानका प्रयोग ऐसा ही है, जो कर्मबंधनकरि बंध्या जो 5 पुरुष, ताकै तिस बंधकी चिंताका प्रबंध है— जो यह बंध कैसे छूटेगा ? या रीति मनकूं लगाय 5 राखे सो भी बंघका अभावरूप जो मोक्ष ताका कारण नाहीं है । जातें यह चिंताप्रबंध बंधतें छूटने का कारण नाहीं । जैसे कोई बेडी सांखलतें बध्या पुरुष तिस बंधकी चिंता करवो करे, छूटनेका उपाय न करे, सो तिस बेडी आदिके बंधनतें छूटे नाहीं । तैसें कर्मबंधकी चिंताप्रबंध मोक्ष नाहीं । इस कथन करि कर्मबंधविषे चिताप्रबंधस्वरूप विशुद्ध धर्मध्यानकरि अंध है बुद्धि जिनकी तिनिकू समझाईए हैं ।
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भावार्थ - कर्मबंधी चिंतामैं मन लग्या रहै, सोच करवो करें तो भी मोक्ष होय नाहीं । यह धर्मध्यानरूप शुभपरिणाम है, सो केवल शुभपरिणामहीर्ते मोक्ष माने हैं, तिनिकू उपदेश है * जो शुभपरिणामतें मोक्ष नाहीं । आगे पूछे हैं “जो बंधके स्वरूपका ज्ञानतें मोक्ष नाहीं, तिसका सोच कीये मोक्ष नाहीं, तौ मोक्षका कारण क्या है ?” ऐसें पूछे मोक्ष होनेका उपाय कहे हैं। फ
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जह बंधे छित्तूणय बंघणबद्धो दु पावदि विमोक्खं । तह बंधे छित्तूणय जीवो संपावदि विमोक्खं ॥५॥
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यथा बंधांश्छित्वा च बंधनबद्धस्तु प्राप्नोति विमोक्षं।
तथा बंधांश्छित्वा च जीवः सम्प्राप्नोति विमोक्षं ॥५॥ आत्मण्याति:-कर्मबद्धस्य बंधच्छेदो मोक्षहेतुः, हेतुत्वात् निगडादिवद्धस्य बंधच्छेदवत् एतेन उमयेऽपि पूर्व- । बात्मवंधयोर्बिधाकरणे व्यापार्यते । 卐 किमयमेव मोक्षहेतुः : इति चेत् ।
___ अर्थ-जैसे बंधनतें बंध्या पुरुष है सो बंधनकू छेदिकरि मोक्षकू पावे है, वैसे ही कर्मके .. बंधनकू छेदिकरि, जीव मोक्षकू पावे है। ___टीका कर्मके बंधका बंधन छेदना मोक्षका कारण है, जातें यह छेदना ही तहां कारण । है। जैसे बेडी सांकल आदिकरि बंध्या पुरुषकै सांकलका बंध काटना छूटनेका कारण है, तैसे - इस कथनकरि पहिले कहे थे जे दोय पुरुष-एक तो बंधका स्वरूप जाननेवाला अर एक बंधकी । चिंता करनेवाला-तिनि दोऊनिकू आत्माका अर बंधका न्यारा न्यारा करनेविर्षे प्रेरणा करि .. व्यापार कराइए है-उपदेशकरि उयम कराया है। फेरि पूछे है जो कर्मबंधनका छेदना मोक्षका : कारण कहा, सो एतावान्मात्र ही मोक्षका कारण है, कहा ? ऐसे पूछे उत्तर कहे हैं। गाथा
बंधाणं च सहावं वियाणि, अप्पणो सहावं च। बंधेस जो ण रजदि सो कम्मविमुक्खणं कुणदि॥६॥
बंधानां च स्वभावं विज्ञायात्मनः स्वभावं च ।
बंधेषु यो न रज्यते स कर्मविमोक्षणं करोति ॥६॥ ____ आत्मख्याति:----य एव निर्विकारचैतन्यचमत्कारमात्रमात्मस्वभावं तद्विकारकारकं बंधानां च स्वभावं विहाय !
बंधेभ्यो विरमति स एव सकलकर्ममोक्षं कुर्यात् । एतेनात्मबंधयोदि धाकरणस्थ मोक्षहेतुत्वं नियम्यते । 9 केनात्मबंधो द्विधा क्रियते ? इति चेत्
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. अर्थ-वैधनिका स्वभावकू जानिकार बहुरि आत्माका स्वभावकू जानिकरि अर जो पुरुष । बंधनिवि विरक्त होय है, सो पुरुष कर्मनिका विमोक्षण करे है।
टीका--जो पुरुष निश्चयकरि निर्विकार चैतन्यचमत्कारमात्र तो आत्माका स्वभाव अर तिस आत्माके विकारका करनेवाला बंधनिका स्वभाव इनि दोऊनिकू विशेषकरि जानिकरि अर 卐 तिनि बंघनित विरक्त होय है, सो ही पुरुष समस्त कर्मका मोक्षकू करे है। इस कथनकरि -
आत्माका अर अंधका न्यारा न्यारा द्विधा करनेके मोक्षका कारणपणाका नियम किया है।
दोऊका न्यारा न्यारा करना ही मोक्षका कारण नियमकार है। ऐसे नियमकरि कया है। आगे - : फेरि पूछे हैं, जो आत्मा अर बंध ए दोऊ किसकरि द्विधा कहिये न्यारे कीजिये ? ऐसे पूछे उत्तर कहे हैं। गाथा
जीवो बंधीय तहा छिज्जति सलक्खणेहिं णियएहिं । पण्णाछेदणएणदु छिण्णा णाणत्तमावण्णा ॥७॥
जोवो बंधश्च तथा छियेते स्वलक्षणाभ्यां नियताभ्यां ।
प्रज्ञाछेदकेन तु छिन्नो नानात्वमापन्नौ ॥७॥ ____ आत्मख्याति:-आत्मगंधयो द्विधाकरणे कायें कतुरात्मनः करणमीमांसायां निश्चयतः स्वतो भिन्नकरणासंभवान्त भगवती प्रज्ञेय छेदनात्मकं करणं । तया हि तौ छिन्नौ नानात्वमवश्यमेवापद्यते ततः प्रत्रात्मबंधयोद्विधाकरणं । ननु म कथमात्मबंधौ चेत्यचंतकभावेनात्यंतप्रत्यासत्तरेकीभूती भेदविज्ञानाभावादेकचंतकवद् व्यवष्ट्रियमाणौ प्रक्षया छेत्तु .. शक्येते ? नियतस्त्रलक्षणसूक्ष्मांतःसंधिसावधान निपातनादिति बुध्येमहि । आत्मनो हि समस्तशेषद्रव्यासाधरणत्वाच्च तन्यं ।। स्वलक्षणं तत्तु प्रवर्तमानं यद्यदभिव्याप्य प्रवत्तते निवर्तमानं च यद्यदुपादाय निवर्तते तत्तत्समस्तमपि सहप्रवृत्तं क्रम-1प्रवृत्तं वा पर्यायजातमात्मेति लक्षणीयं सदेकलक्षणलक्ष्यत्वाव, समस्तसहक्रमप्रवृत्तानंतपर्यायाविनाभावित्वाच्च तन्यस्य । चिन्मात्र एवात्मा निश्चतम्यः, इति यावत् । बंधस्य तु आत्मगन्यसाधरणा रागादयः स्वलक्षणं । न च रागादय आत्म-
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पकतामित्र
: द्रन्यासाधारणता विभ्राणाः प्रतिभासते नित्यमेव चैतन्यचमत्कारादतिरिक्तत्वेन प्रतिभासमानत्वात् । नच याचदेव समस्त स्वपर्यायन्यापि चैतन्यं प्रतिभाति ? रागादीनंतरेणापि चैतन्यस्यारमलामसंभावनात् । यत्तु रागादीनां चैतन्येन सहकी- 1स्लवनं तच्चेत्यचेतकभावप्रत्यासत्तेरेव नेकद्रव्यत्वात, चैत्यमानस्तु रागादिरात्मनः प्रदीप्यमानो घटादिः प्रदीपस्य प्रदी-" पकतामित्र चेतकतामेव प्रथयेन्न पुनारागादीनां, एवमपि तयोरत्यंतप्रत्यासत्या भेदसंभावनामावनादिरस्त्येकत्वन्यामोहः । स तु प्रायैव छियत एव । ____ आत्मबंधौ द्विधाकृत्वा किं कर्तव्यं ? इति चेत् ।
अर्थ-जीव अर बंध दोऊ अपने अपने निश्चतस्वलक्षणनिकरि बुद्धिरूपी छैनीकरि जैसे - छेदे तैसें छेदिये हुये नानापणाकूपात होय जाय न्यारे न्यारे होय जांय ।।
टीका-आत्मा अर बंधका द्विधाकरण कहिये न्यारा न्यारा करना नामा जो कार्य, ताविर्षे ॥ करनेवाला जो कर्ता आत्मा, ताके करणका विचार कीजिये तब निश्चयनयथकी आपते न्यारा ... करण नामा कारकका तो असंभव है । तातें भगवती कहिये ज्ञानस्वरूप जो प्रज्ञा बुद्धि, सो ही की छेदनस्वरूप करण है, तिस प्रज्ञाहीकरि ते दोऊ आत्मा अरबंध छेदे हुये नानापणाकू अवश्य ।। प्राप्त होय हैं—अवश्य न्यारे न्यारे होय जाय हैं । ताते प्रज्ञाहीकरि आत्मा अर बंधका न्यारा." न्यारा करना है । इहां प्रश्न है--जो आत्मा अर बंध ए दोऊ तो चेतकवेत्यभावकरि अत्यंत प्रत्यासत्ति कहिये निकटताकरि एकले होय रहे है । आत्मा तो चेतक है अर बंध चेत्य है । सो दोऊ एकरूप भये अनुभवमें आवे है । सो भेदविज्ञानके अभावतें एक चेतक ही जो व्यवहारमै प्रवर्तते ॥ देखिये हैं, ते प्रज्ञाकरि कैसे छेदनेक समर्थ हूजिये? ताका समाधान आचार्य करें हैं-जो हम ऐसे ... जाने हैं, आत्मा अर बंधका निश्चितस्वलक्षणकी सूक्ष्म जो अन्तःसन्धि कहिये अन्तरंगको मिली, हुई सन्धि, ताविर्षे इस प्रज्ञा छैनीकू सावधान होयकरि पटकनेते दोऊ न्यारे न्यारे होय जाय। है। तहाँ आत्माका तौ निजलक्षण निश्चयकरि समस्त अन्य द्रव्यनितें असाधारणपणातें जो अन्यमें । न पाइये है ऐसा चैतन्य स्वलक्षण है, सो यह चैतन्य स्वलक्षण है, सो प्रवर्तता संता जिस जिस
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1. पर्यायकू व्याप्यकरि प्रवर्तते है बहुरि निवृत्तता संता जिस जिस पर्यायकू ग्रहणकरि निवृत्त होय .
है, सो सो समस्त सहवर्ती अर क्रमवर्ती पर्यायनिका समूह, सो आत्मा है ऐसा लखने योग्य है, यह लक्षण समस्त गुणपर्यायनिमें व्यापक है । सो सर्व ही गुणपर्यायनिका समुदाय आत्मा है -
ऐसा इस लक्षणतें जानना । जातें आत्मा तिस हो एक लक्षणते लक्ष्य है। बहुरि चैतन्यके के समस्त सहवर्ती अर क्रमवर्ती जे अनंतपर्याय, तिनितें अविनाभावीपणा है। तातें चिन्मात्र ही आत्मा है, ऐसा निश्चय करना, ऐसा दूसरा व्याख्यान है। .
बहुरि बंधका स्वलक्षण आत्मद्रव्यते असाधारण रागादिक हैं । जातें ए रागादिक हैं ते + आत्मद्रव्यते साधारणपणाकू धारते नाहीं प्रतिभासे हैं । इनिके सदा ही चैतन्यचमत्कारतें भिन्न- .. 'पणाकरि प्रतिभासमानरणा है। बहुरि नेता इस समस्त अपने पर्यायनिमें व्यापनेस्वरूप चैतन्य- श्री
प्रतिभासे है, तेते ही रागादिक नाहीं प्रतिभाते हैं, रागादिकविना भी चैतन्यका आत्मलाभ - __ कहिये स्वरूप पावना संभव है । बहुरि जो रागादिकका चैतन्यकरि सहित ही उपजना दीखे । 卐 है, सो यह चेत्यचेतकभाव कहिये ज्ञेयज्ञायकभाव. ताके अत्यंत प्रत्यासत्ति कहिये अतिनिकटता, पE
ताते दीखे है, एकद्रव्यपणातें नाहीं है । तहां चेत्यमान कहिये ज्ञेयरूपज्ञानमें आवते जे रागादिक,
ते आत्माके चेतकता कहिये ज्ञायकपणाहीकू विस्तारे हैं। बहुरि रागादिकपणाकू नाहीं विस्तारे 5 जज हैं। जैसे दीपकके घटादिक प्रकाशने योग्य होते प्रदीपकपणाहीकू विस्तारे हैं, बहुरि घटादिक" पणाकू नाहीं विस्तारे हैं, तैसें जानना । बहुरि ऐसे होते भी आत्मा अर बंध दोऊके अत्यंत 4 प्रत्यासत्ति-निकटताकरि भेदकी संभावनाका अभाव है-भेद दीखे नाहीं है, तातें इस " अज्ञानीके अनादिकालते एकपणाका व्यामोह है-म है, सो ऐसा व्यामोह प्रज्ञाहीकरि छेया 卐 ही जाय है।
____भावार्थ-आत्मा अर बंध दोऊकू लक्षणभेदकरि पहिचानि बुद्धिरूपी छैनीकरि छेदि न्यारे फ़ पारे करने । जाते आत्मा तौ अमूर्तिक, अर बंध सूक्ष्मपुद्गलपरमाणुनिका स्कंध, यातें
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5 ही न्यारे छद्मस्थके ज्ञानमें आवै नाहीं । एक स्कंध दीखे, याहोर्ते अनादि अज्ञान है । सो फ श्रीगुरुनिका उपदेश पायकरि इनिका लक्षण न्यारा न्यारा ही अनुभवकरि जानना । जो समय चैतन्यमात्र तो आत्माका लक्षण है अर रागादिक बंधका लक्षण है, ते भी ज्ञयज्ञायकभावकी 5 अतिनिकटताकरि एकसे होय रहे दीखे हैं, सो तीक्ष्णबुद्धिरूपी छैनी इनिकुं भेदि न्यारे न्यारे करनेका शस्त्र है, ताकू' इनिकी सूक्ष्मसंधीकूं हेरि सावधान निष्प्रमाद होय पटकणी, तिसकू फ पडते ही दोऊ न्यारे न्यारे दीखने लागे, तब आत्माकूं ज्ञानभावमें ही राखना अर बंधकूं अज्ञानभावमें रखना । ऐसें दोऊकूं भिन्न करना । अब इस अर्थ का कलशरूप काव्य कहै हैं ।
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स्रग्धरा छन्दः
प्रज्ञाछेत्री शितेयं कथमपि निपुणैः पातिता सावधानः क्ष्मेऽन्तः सन्धिबन्धे निपतति रभसादात्मकर्मोभयस्य ।। आत्मानं मनमन्तः स्थिरविशदलसद्धाग्नि चैतन्यपूरे बन्धं चाज्ञानमाये नियमितमभितः कुर्वती भिन्नभिन्नौ ॥२॥ अर्थ - आत्मा अर बंधकूं भिन्न करनेकूं यह प्रज्ञा है सो तीक्ष्ण छैनी है। सो जे प्रवीण 卐 पुरुष हैं ते सावधान प्रमादरहित भये संते आत्मा अर कर्म इनि दोऊनिका सूक्ष्म जो अन्तः 5 कहिये मांहिला संधीका बंधन, ताविवें याकूं कोई प्रकार यत्नकरि ऐसें पटके है सो यह बुद्धिरूपी छैr ariust हुई शीघ्र ही समस्तपणे भिन्न भिन्न करती पडे है । सो आत्माकुं तो अंतरंग- 4 5 विषै स्थिर अर विशदलसत् कहिये स्पष्ट प्रकाशरूप दैदीप्यमान है धाम कहिये तेज जाका ऐसा 4 जो चैतन्यका पूर प्रवाह, ताविषै मन करती संती पर्डे है । बहुरि बंधकूं अज्ञानभावविषै निश्चल 5 नियमतें करती संतो पडे है ।
५ भावार्थ - इहां आत्मा अर बंधका भिन्न भिन्न करना नामा कार्य है । ताका कर्ता आत्मा है। अर करणवाकर्ता काहेकरि कार्य करें ? तातें करण चाहिये । अर निश्चयनयकरि कर्ता- " तैं भिन्न करण होय नाहीं । तातें आत्मातें अभिन्न यह बुद्धि, इस कार्यविषै करण है। सो आत्माकै अनादि बंध ज्ञानावरणादि कर्म हैं । तिनिका कार्य भावबंध तौ रामादिक हैं । अर
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卐 नोकर्म शरीरादिक हैं। सो बुद्धिकरि आत्माकू शरीरतें तथा ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्मते तया ॥ समया, रागादिक भाषकर्मत भिन्न एक चैतन्यभावमात्र अनुभवकरि ज्ञानहीमें लीन राखना, यह ही
- भिन्न करना याहीते सर्व कर्मका नाश होय, सिद्धपदकं प्राप्त होय है, ऐसें जानना । आगे फेरि, ४४२ पूछे है, जो आत्मा अर बंधकू द्विधा करि अर कहा करना ? ऐसे पूछे उत्तर कहे हैं । गाथा
जीवो बंधोय तहा छिजति सलक्खणेहिं णियएहिं । बंधो छेदेदवो सुद्धो अप्पाय घेत्तव्यो ॥८॥
जीवो बंधश्च तथा छियेते स्वलक्षणाभ्यां नियताभ्यां ।
बंधश्छेत्तव्यः शुद्ध आत्मा गृहीतव्यः ॥८॥ आत्मख्यातिः-आत्मबंधी हि तावन्नियतस्वलक्षण विज्ञानेन सर्वथैव छत्तव्यौ ततो रागादिलक्षणः समस्त एव । प. बंधो निर्मोक्तव्यः, उपयोगलक्षणशुद्ध आत्मैव गृहीतव्यः। एतदेव किलात्मबंधयोदिघाकरणस्य प्रयोजनं यद्वधत्यागेन 1 शुद्धात्मोपादानं ।
अर्थ-जीव अर बंध ए दोऊ अपने अपने निश्चित निजलक्षणनिकरि तैसें भिन्न कीजिये, जैसे बंध तौ छेदि भिन्न करना अर शुद्ध आरमाकू ग्रहण करना ।
टीका-आत्मा अर अंध दोऊ प्रथम तो अपना अपना निश्चित निजलक्षण है ताका विज्ञानकरि सर्वप्रकार ही भिन्न करने, पीछे रागादिक हैं लक्षण जाका ऐसा समस्त ही बंधकू.. तौ छोडना, अर उपयोग है लक्षण जाका ऐसा शुद्ध आत्मा एकला ही ग्रहण करना । यह हो । निश्चयकरि आत्मा अर बंधका द्विधाकरणका प्रयोजन है; जो बंधका त्याग करि शुद्ध आत्माका + ग्रहण करना।
भावार्थ-शिष्य पूछा था, जो आत्मा अर बंधकू द्विधा करि कहा करना ? ताका यह उत्तर) दिया, जो बंधका तो त्याग करना अर शुद्धात्माका ग्रहण करना। आगें पूछे है-आत्मा अर ...
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बंधकू प्रज्ञाकार तो भिन्न किये अर आत्माकू ग्रहण काहेकरि कीजिये ? ताका प्रश्नोत्तरकी ।। गाथा कहे हैं।
कह सो घिप्पदि अप्पा पण्णाए सो दु घिप्पदे अप्पा। जह परणाए विभत्तो तह पण्णाएव पित्तव्वो ॥९॥
कथं स गृह्यते आत्मा प्रज्ञया स तु गृह्यते आत्मा ।
यथा प्रज्ञया विभक्तस्तथा प्रज्ञयैव गृहीतव्यः ॥९॥ 卐 आत्मख्यातिः-ननु केन शुद्धोयमात्मा गृहीतव्यः ? प्रज्ञयेज शुद्धोयमात्मा गृहीतव्यः, शुद्धस्यात्मनः स्वयमा स्मानं गृहवो विभजत इव प्रककरणत्वात् अतो यथा प्रज्ञया विभक्तस्तथा प्रायैव गृहीतव्यः।
कथमात्मा प्रज्ञया गृहीतव्यः इति चेत
अर्थ-शिष्य पूछे है, सो यह शुद्ध आत्मा काहेकरि ग्रहण कीजिये? आचार्य उत्तर कहे " हैं-प्रज्ञाहीकरि यह शुद्ध आत्मा ग्रहण कीजिये । जैसे पहले प्रज्ञाकरि भिन्न किया, तैसें प्रज्ञा हीकरि ग्रहण करना।
टीका-शिष्यका प्रश्न, जो यह शुद्ध आत्मा काहेकरि ग्रहण करना ? गुरु उत्तर कहे हैं-卐 है जो यह शुद्ध आत्मा प्रज्ञाहीकरि ग्रहण करना । आप स्वयं शुद्ध आत्माकू ग्रहण करता जो शुद्ध
आत्मा, ताकै पहलै भिन्न करताके प्रज्ञा ही एक करण था, तैसें हो ग्रहण करताके भी सो ही। 卐 प्रज्ञा एक करण है, भिन्न करण नाहीं । यातें जैसे पहले प्रज्ञाकरि भिन्न किया था, सैसे .. प्रज्ञाहीकरि ग्रहण करना।
भावार्थ-भिन्न करने में अर ग्रहण करनेमें न्यारा करण नाहीं है। तातै प्रज्ञाहीकरि तौ॥ भिन्न किया अर प्रज्ञाहीकरि ग्रहण करना । आगै फेरि पूछे है “जो यह आत्मा प्रज्ञाकरि कौन... प्रकार ग्रहण करना?" ताका उत्तर कहे हैं । माथा
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परणाए घेत्तव्यो जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो। अवसेसा जे भावा ते मज्झपरित्त णादव्वा ॥१०॥
हा महीतल्यो यश्चेतयिता सोऽहं तु निश्चयतः।
अवशेषा ये भावाः ते मम परा इति ज्ञातव्याः ॥१०॥ आत्मख्यातिः-योहि निपतस्वलक्षणावलंबिन्या प्रनया प्रविभक्तश्चेतयिता सोऽयमहं । ये त्वमी अवशिष्टा अन्य- . + स्वलक्षणलक्ष्या व्यवहियमाणा भावाः, ते सर्वेऽपि चेतपितृत्वस्य व्यापकत्यस्य व्याप्यत्वमनायांतोऽत्यंत मत्तो भिन्नाः । ।
ततोऽहमेव मयैव मह्यमेव मत्त एव मन्येव मामेव गृह्णामि । यत्किल गृहणामि त तनकक्रियत्वादात्मनश्चतये, चेतपमान
एव चेतये, चेतयमानेनैव चेतये, चेतयमानायैव चंतये, चंतपमानादेव चेतये, चेतयमाने एव चेतये, चेतयमानमेव + .. चेतये । अथवा न चेतये, न चेतयमानोनये, न घेतयमानेन चेतये, न चेतयमानाय चतये, न तपमानाचे वये, न ।
चेतयमाने चेतये, न चेतयमानं चेतये । किंतु सर्वविशुद्धचिन्मात्रो भावोऽस्मि ।। - अर्थ-जो चेतयिता कहिये चेतनस्वरूप आत्मा है, सो निश्चयते में हौं ऐसे प्रज्ञाकार ग्रहण .. " करने योग्य है। अवशेष जे भाव हैं, ते मेरे पर हैं, इस प्रकार आत्माकू ग्रहण करना जानना। " 4 टीका--निश्चयकरि जो नियतस्वलक्षण कहिये निश्चित निजलक्षणकू अवलंबन करनेवाली -
प्रज्ञा है, तिसकरि चैतन्यस्वरूप आत्माकू भिन्न किया था, सो ही यह मैं हौं, बहुरि जे यह 卐 अवशेष अन्य अपने स्वलक्षणकरि लखने योग्य व्यवहाररूप भाव हैं, ते सर्व ही चेतयिता आत्माका + __ व्यापक जो चेतकपणा, ताका व्याप्यपणा नाहीं आवते भाव हैं, ते मोते अत्यंत भिन्न हैं, तातें
मैं ही मुझहीकरि मेरे ही अर्थि मुझहीत मोविर्षे ही मोहीकू ग्रहण करोहौं,बहुरि प्रगट ग्रहण करो 卐 हौं । सो आत्माके चेतना ही है एक किया जाकै तिसपणाकरि चेतू ही हो। चेतता संताही .. चेतू हौं। चेतता संता ही करि चेतू हौं । चेतता संताहीके अर्थि चेतू हौं। चेतता संताहीते , चेतू हौं । चेतता संताहीविर्षे चेतू हौं । चेतता संताहीकू चेतू हौं । अथवा न चेतू हौं । न चेतता ।
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म संता चेतू हौं । न चेतता संताहीकरि चेतू हौं । न चेतता संताके अर्थि चेतू हौं। न चेतता के 4 संतातें चेतू हौं । न चेतता संतावि चेतू हौं । न चेतता संताकू चेतू हौं। तो कहा हौं? सर्व" विशुद्ध चैतन्यमात्र भाव हो। ____ भावार्थ-जिस प्रज्ञाकरि आत्माकू बंधतें भिन्न किया था, तिसहीकरि यह चैतन्यस्वरूप है
आत्मा में हों, अन्य अवशेष भाव हैं ते मोते यदा---पर हैं, ऐसे महाग फरना शो अभिन्न षट्म कारक लगावनेमें मोकू, मोहीकरि, मेरे ही अर्थि, मोते, मोविधे ग्रहण करू हौं। सो ग्रहण 1- करना कहा है ? चेतनकी चित्स्वरूप क्रिया ही है। ताकरि चेतू हौं-जानू हौं अनुभवू हौं
ऐसे लगाय, फेरि इनि कारकनिके भेदका भी निषेध किया । जो मैं शुद्ध चैतन्यमात्र भाव हों, 4 सो एक अभेद हो-द्रव्यदृष्टिकरि कर्ता कर्म आदि षट्कारकका भी भेद मोवि नाहीं है। तातें
नाहीं चेतू हों इत्यादि लगावना । ऐसें बुद्धिकरि ग्रहण करना । अब इस अर्थका कलारूप ' काव्य कहे हैं।
शार्दूलविक्रीडितछन्दः 卐 मित्या सर्वमपि स्वलक्षणबलाद् मेत्तु कियच्छक्यते चिन्मुद्रादितनिर्विभागमहिमा शुद्धश्चिदेवासम्पहम् ।
मिद्यन्ते यदि कारकाणि यदि वा धर्मा गुणा वा यदि भियन्तां न भिदाऽस्ति काचन विभौ भावे विशुद्धे चिति ॥३॥ का अर्थ-ज्ञानी कहे है। जो भेदने न्यारे करने समर्थ इजिये, तिस सर्वकू निजलक्षणके । - बलते भेदिकरि अर मैं चैतन्यचिह्नकरि चिद्धित विभागरहित है महिमा जाकी ऐसा शुद्ध चैतन्य "ही हौं । बहुरि जो कर्ता कर्म करण सम्प्रदान अपादान अधिकरण ये षटकारक अर सत्त्व असत्त्व ॐ नित्यत्व अनित्यत्व एकत्व अनेकत्व आदिक धर्म अर ज्ञान दर्शन आदिक गुण ए भेदरूप हैं, तौ ॥
" भेदरूप होऊ । विशुद्ध समस्त विभावनितें रहित एक अर विभु कहिये सर्व गुणपर्यायनिमें व्यापक 卐 ऐसा चैतन्यभावविर्षे तौ किछू भेद है नाहीं। - भावार्थ-जो इस चैतन्यभावतें अन्य अपने स्वलक्षणकरि भेदे गये ते तो भेदरूप किये अर .
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5 कारकभेद अर धर्मभेद हैं तौ होऊ । शुद्ध चैतन्यमात्रविषे सौ किछू भेद है नाहीं । शुनकरि आत्माकू ऐसा अभेदरूप ग्रहण करना। आगे कहे हैं, जो शुद्ध चेतन्यमात्र तौ ग्रहण कराया तथा
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सामान्यचेतना है सो दर्शनज्ञानसामान्यमय है, तातें अनुभव में दर्शनज्ञानस्वरूप आत्माका अनुभव ऐसा करना | गाथा
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पण्णाए घित्तन्वो जो दट्ठा सो अहं तु णिच्छयदो । अवसेसा जे भावा ते मज्झ परेति णादव्वा ॥ ११ ॥
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पण्णाए घित्तव्वो जो णादा सो अहं तु मिच्छयदो । अवसेसा जे भावा ते मज्झ परेत्ति णादव्वा ॥ १२ ॥
शाहीराच्या सोऽहं तु निश्चयतः ।
अवशेषा ये भावास्ते मम परा इति ज्ञातव्याः ॥ ११॥
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आत्मख्यातिः — चेतनया दर्शनज्ञानविकल्पान तिक्रमणाचं तयितृत्वभित्र दृष्टवं ज्ञातुत्वं चात्मनः स्वलक्षणमेव ततोहं
दृष्टारमात्मानं गृह्णामि यत्किल गृह्णामि तत्पश्याम्येव, पश्यन्नेव पश्यामि पश्यतैव पश्यामि पश्यते एव पश्यामि पश्यत 5
प्रज्ञया गृहीतव्यो यो ज्ञाता सोऽहं तु निश्चयतः । अवशेषा ये भावास्ते मम परा इति ज्ञातव्याः ॥१२॥
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एव पश्यामि पश्यत्येव पश्यामि पश्यंतमेव पश्यामि । अथवा - न पश्यामि न पश्यन् पश्यामि न पश्यता पश्यामि न पश्यते पश्यामि न पश्यतः पश्यामि न पश्यति पश्यामि न पश्यंतं पश्यामि । किंतु सर्वविशुद्धी मात्रो भावोऽस्मि ।
अपि च--ज्ञातारमात्मानं गृहणामि यत्किल गृहणामि तज्जानाम्येव, जानन्नैव जानामि, जानतैव जानामि, जानते एवजा
नामि, जानत एव जानामि, जानत्येव जानामि, जानंतमेव जानामि । अथवा -- न जानामि न जानन् जानामि, न जानता
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15 जानामि, न जानते जानामि, न जानतो जानामि न जानति जानामि, न जानंतं जानामि । किंतु सर्व विशुद्धज्ञप्ति -
मात्रो भावोऽस्मि । ननु कथं चेतना दर्शनज्ञानविकल्पौ नातिक्रामति येन चेतयिता दृष्टा ज्ञाता च स्यात् ? उच्यते-
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बेला तावाशतिभा पुरूः सा तु सगाव यम्भूनां सामान्यविशेषात्मकत्वात् वैरूप्यं नातिकामति । ये तु तस्या रूपे " 卐ते दर्शनझाने, ततः सा नातिक्रामति । यद्यतिक्रामति ! सामान्यविशेषातिक्रांतत्वाच्चेतनैव न भवति । तदभावे द्वौ ॥ .. दोषी--स्वगुणोच्छेदाच्छतनस्याचेतनतापत्तिः, ब्यापकाभावे च्याप्यस्य चेतनस्याभावो वा। ततस्तद्दोपभयादर्शनज्ञानाजस्मिकैव चेतनाभ्युपगंतव्या ! + अर्थ-प्रज्ञाकरि ऐसे ग्रहण करना, जो द्रष्टा कहिये देखनेवाला, सो तो निश्चयते में हौं, "अवशेष जे भाव हैं, ते मेरे पर हैं, ऐसें जानना। बहुरि प्रज्ञाहीकरि ग्रहण करना, जो ज्ञाता + 卐 कहिये जाननेवाला हौं, सो तौ निश्चयतें में हौं, अवशेष जे भाव हैं, ते मेरे पर हैं, ऐसें जानना । .. टीका-जातें चेतनाकै दर्शनज्ञानके भेदका उल्लंघन नाहीं है, तातें चेतकपणाको ज्यौं दर्शकटपणा अर ज्ञातापणा आत्माका निजलक्षण ही है, तातें ऐसें अनुभवन करना जो मैं देखनेवाला 1- आत्माकू ग्रहण करूं हौं, जो निश्चयतें ग्रहण करूं हौं, सो देख ही हौं, देखता संता ही देख
"हो, देखता करि ही देख हौं, देखताके अर्थि ही देख हौं, देखताते ही देख हौं, देखतेविर्षे ही 5 पर देख हौं, देखते ही देखू हौं । अथवा न देखू हौं, न देखतां संता देख हौं, न देखतेकरि देखू
"हो, न देखतेके अर्थि देखू हौं, न देखते देखू हौं, न देखतेवि देखू हूं । न देखताकू देखू हूं। प्रतौ कहा हौं ? सर्वविशुद्ध एक दर्शनमात्र भात्र में हों। ऐसें तौ दर्शनपरि कर्ता कर्म करण
सम्प्रदान अपादान अधिकरण लगाय, फेरि तिनिका निषेधकरि अर एक दर्शनमात्र भावस्वरूप 'आत्माकू अनुभवनरूप करना । बहुरि तैसे ही ज्ञानपरि लगावना, जो जाननेवाला ज्ञाता आत्माकू 卐 ..मैं ग्रहण करूं हौं । जो ग्रहण करूं हो, सो निश्चयतै जानू ही हौं, जानता' संता ही जानू हौं,
जानताकरि ही जानू हौं, जानताके अर्थि जानू हौं, जानताते ही जानू हौं, जानताविर्षे ही 15 जानू हों, जानताकू ही जानू हौं, अथवा न जानू हों, न जानता संता जानू हों, न जानता- +
"करि जानूं हों, न जानताके अर्थि ही जान हौं, न जानतातें जानें हौं, न जानताकेविर्षे जान हो, मन जानताकू जानूं हौं । तो कहा हौं ? सर्वविशुद्ध एक जाननक्रियामात्र भाव में हौं। ऐसे
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ज्ञानपरि षट्कारक भेदरूप लगाय, फेरि अभेदरूप करनेकुं कारकभेदका निषेध करि. एक
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ज्ञानमात्र आपका अनुभवन करना ।
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भावार्थ- पहले तो सामान्य चेतनाका अनुभवन कराया। सो आत्माकूं प्रज्ञाकरि ग्रहण करना पहले का था, सो चेतनाका अनुभवन करना ही ग्रहण करना है-किछू अन्य वस्तूका 5 ग्रहण करना नाहीं है । बहुरि अनुभवन करना, अनुभवन करनेवाला, अनुभवन जाकर कीजिये 卐 इत्यादि कारक भेदरूप कहिकरि अभेदविवक्षामैं कारकभेदका निषेध किया, एक शुद्ध चेतनामात्र ही कहा था । अर अब इहां चेतनासामान्य है सो दर्शनज्ञानविशेषकं नाहीं उल्लंघि वर्ते 5 है । तातें द्रष्टा अर ज्ञाताका अनुभवन कराया । तहां भी षट्कारकरूप भेद अनुभवनकरि पीछे अभेद अनुभवन अपेक्षा कारकभेद दूरि करि द्रष्टा ज्ञातामात्रका अनुभवन कराया है।
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इहां शिष्य पूछे है, जो चेतना दर्शनज्ञानभेदकूं कैसें नाहीं उल्लंघे है ! जाकरि चेतयिता आत्मा द्रष्टा ज्ञाता होय । ताका उत्तर कहे हैं। प्रथम तौ चेतना है सो प्रतिभासरूप है, सो 5 ऐसी चेतना है सो दोयरूपपणाकूं नाहीं उल्लंघि वर्ते है । जातें सर्व ही वस्तुका सामान्यविशेष फ्र
रूप स्वरूप है । सो चेतना भी वस्तु है, सो सामान्य विशेषरूपकूं कैसें उल्लंघे ? सो ताके
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दोयरूप हैं ते दर्शन ज्ञान हैं, तातें सो चेतना तिनि दर्शन ज्ञान दोऊनिकूं नाहीं उल्लंघे है। 5 4 बहुरि जो इनि दोयरूपकूं उल्लंघे तो सामान्यविशेषरूपका उल्लंघवापणात चेतना ही न होय है । तिस चेतनाके अभावतें दोय दोष आवै एक तौ अपने गुणका उच्छेद होनेते चेतनके अचे5 तनपणाकी प्राप्ति आवे, अर दूसरा व्यापक जो चेतना, ताका अभाव होतें, व्याप्य जो चेतन आत्मा ताका अभाव होय है । तातें तिनि दोषनिके भयतें चेतना दर्शनज्ञानस्वरूप ही अंगिकार 5 करनी। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं ।
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ताऽपि हि चेतना जगति चेद्द्दज्ञप्तिरूपं त्यजेत् तत्सामान्यविशेषरूपविरहात्साऽस्तित्वमेव त्यजेत् ।
तच्या जडता चितोऽपि भवति व्याप्यो विना व्यापफादात्मा चान्वमुपैति तेन नियतं हरज्ञप्तिरूपास्तु चित् ॥४॥
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卐 अर्थ-जगतविर्षे निश्चयकरि चेतना अद्वैत है तौऊ जो दर्शनज्ञानरूपकू छोडे तो सामान्य- 5
विशेषरूपके अभावतें सो चेतना अपना अस्तिपनाहीकू छोडे । बहुरि जब चेतना अपना अस्ति
"त्वकू छोडे, तब चैतनके जडता होय है । बहुरि व्याप्य जो आत्मा, सो व्यापक जो चेतना, ३तिसविना अंतर्फे प्राप्त होय । आत्माका नाश होय । तात नियमत चेतना है सो दर्शनज्ञान
.. स्वरूप ही होऊ। 卐 भावार्थ-वस्तुका स्वरूप सामान्य विशेषरूप है, सो चेतना भी वस्तु है, सो दर्शनज्ञान. ' - विशेषकू छोडै, तो वस्तुपणाका नाश होय, तब चेतनाका अभाव होते, के तौ चेतनके जडपणा ..
आवै, के चोतना आत्माकी सर्व अवस्थामै पा ? तातें व्यापक है अर आत्मा चेतना ही है। म तातें चेतनाके व्याप्य है सो व्यापकके अभावतें व्याप्य जो चेतन आल्मा ताका अभाव होय है। -
तातें चेतना दर्शनज्ञानस्वरूप ही माननी । इहां तात्पर्य ऐसा-जो सांख्यमती आदि कई 卐 सामान्यचेतनाहीकू मानि एकांत कहे हैं, तिनिका निषेध करनेकू वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेष__ रूप है, सो चेतनाकू सामान्यविशेषरूप अंगोकार करनी ऐसा जनाया है। आगे कहे हैं, जशेतनाका तो चिन्मय एक भाव है अर अन्य परभाव हैं, सो चिन्मयभाव तौ उपादेय है अर प्रपरभाव हेय है, सो यह सूचनिका अगिले कथनकी है, ताका श्लोक है।
इन्द्रवजाछन्दः । एकश्चितश्चिन्मय एव भावो भावाः परे ये किल ते परेषाम् ।
__ ग्राह्यस्ततश्चिन्मय एव भावो भाषाः परे सर्वत एव हेयाः ॥५॥ ॐ अर्थ-चौतन्यका तो एक चिन्मय ही भाव है, अर अन्य भाव हैं, ते प्रगटपणे परके भाव हैं।
तातें एक चिन्मयभाव है सो ही ग्रहण करनेयोग्य है, बहुरि जे परभाव हैं, ते सर्व ही त्यागने"योग्य हैं । अव इस उपदेशकी गाथा कहे हैं। गाथा
354+ +++ ++
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को गाम भणिज्ज वुहो णादु सवे परोदये भावे । मज्झमिणं ति य वयणं जाणतो अप्पयं सुद्धं ॥१३॥
प्राम को नाम भणे बुधः ज्ञात्वा सर्वान् परोदयान् भावान् ।
卐 ममेदमिति वचनं जाननात्मानं शुद्धं ॥१३॥ . आत्मख्याति:-यो हि परात्मनोनियतस्वलक्षण विभागपातिन्या प्रजया ज्ञानी स्यात् स खल्वेकं चिन्मात्र माव- 5
मात्मीयं जानाति शेषांश्च सर्वानेच भावान् परकीयान जानाति । एवं जानन कथं परभावान्ममामी इति व याद परात्ममनोनिश्चयेन जामिना । अतः सर्वथा चिद्भाव एव गृहीतव्यः शेषाः सर्वे एव मावाः प्रहातन्या इति । .. सिद्धांतः। ॥ अर्थ-ज्ञानी है सो अपना स्वरूपकं जानिकरि अर सर्व ही परके भावनिकू जानिकरि अर - ए मेरे हैं ऐसा क्चन कौन कहै ? ज्ञानी पंडित तो नाहीं कहै। कैसा है ज्ञानी ? अपना शुद्ध र " आत्माकू जानता संता है। 卐 टीका-जो पुरुष आत्मा अर परका निश्चितस्वलक्षणके विभागविर्षे पड़नेवाली जो प्रज्ञा ॥
ताकरि ज्ञानी होय है, सो पुरुष निश्चयकरि एक चैतन्धमात्र अपना भाव ताकू तो अपना जाने .. 卐 है। बहुरि बाकी सर्व ही भावनिक परके जाने है। ऐलें जानता संता परके भावनिक “ए 1- मेरे हैं ऐसे कैसें कहै ? ज्ञानी तौ नाहीं कहै। जाते परके अर आपके निश्चयकरि स्वस्वा- .. 1 मिपणाका संबंधका असंभव है । यातें सर्वथा चिदभाव ही एक ग्रहण करने योग्य है। अवशेष ॥ 45 सर्व ही भाव त्यागने योग्य हैं ऐसा सिद्धांत है ।
___ भावार्थ-लोकमें भी यह न्याय है, जो सुबुद्धि न्यायवान होय, सो परके धनादिककू 5 अपना न कहै । तैसें ही सम्यग्ज्ञानी है सो समस्त ही परद्रव्यकू अपना बनावे नाहीं । अपना ॥ .- निजभावहीकू अपना जानि ग्रहण करे है। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
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शार्दूलविक्रीडितछन्दः सिद्धान्तोऽयमुदाचित्तचरितैर्मोक्षार्थिमिः सेव्यतां शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैचास्म्यहम् । ॥ एते ये तु समुल्लसन्ति विविधा भावाः पृथग्लक्षणाः तेऽहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि ॥६॥
अर्थ-उज्वल है उत्कट है चित्तका चरित्र जिनिका ऐसे मोक्षके अथि पुरुष हैं, ते यह सिद्धांत सेवन करो-जो मैं तो शुद्ध चैतन्यमय एक परमज्योति ही सदा ही हौं, अर ए जे अनेक ७ प्रकारके भिन्नलक्षणरूप भाव हैं, ते मैं नाही हौं । जाते ते समग्र कहिये सारे ही मेरे परद्रव्य
हैं। भावार्थ सुगम है। आगे कहे हैं, जो परद्रव्यकू ग्रहण करे है, सो अपराधवान है, बंधमें 卐 पडे है । अर जो निजद्रव्यमें संतुष्ट है सो निरपराधी है, बंधे नाहीं है। ऐसी सूचनिकाका 15 अगिले कथनका श्लोक है।
अनुष्टुप्छन्दः परद्रव्यग्रहं कुर्वन् बध्यते चापराधवान् । यध्येतानपराधो न स्वद्रव्ये संवृतो यतिः ॥७॥ ___अर्थ-जो परद्रव्यकू ग्रहण करता संता है, सो सो अपमान है, सो बंधमें पडे है । बहुरि 1- अपने ही द्रव्यविर्षे संवररूप है संतुष्ट है परद्रव्यकू नाहीं ग्रहण करे है सो यतीश्वर अपराधरहित है, सो बंधे नाहीं । आगै इस कथनकू दृष्टांतपूर्वक गाथामें कहे हैं । गाथा
तेयादी अवराहे कुव्वदि जो सो ससंकिदो होदि। मा वज्झेऽहं केणवि चोरोत्ति जणम्मि विवरंतो॥१४॥ जो ण कुणदि अवराहे सो णिस्संको दु जणवदे भमदि। णवि तस्स वज्झि९ जे चिंता उपज्जदि कयावि ॥१५॥ एवं हि सावराहो वज्झामि अहं तु संकिदो चेदा। जो पुण मिरवराहो गिस्संकोहं ण वज्झामि ॥१६॥
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आत्मरुयातिः– यथात्र लोके य एव परद्रव्यग्रहणलक्षणमपराधं करोति तस्यैव बंघशंका संभवति । यस्तु युद्ध फ
सन् तं न करोति तस्य सा न संभवति । तथात्मापि य एवाशुद्धः सन् परद्रव्यग्रहणलक्षणमपराधं करोति तस्यैव बंध
5 शंका संभवति यस्तु शुद्धः संस्तं न करोति तस्य सा न संभवति, इति नियमः । अतः सर्वथा सर्वपरकीयभावपरिहारेण 5 शुद्ध आत्मा गृहीतव्य:, तथा सत्येव निरपराधत्वात् । कोहि नामायमपराधः १-
स्तेयादीनपराधान् करोति यः स शंकितो भवति । मा बध्ये केनापि चौर इति जने विवृण्वन् ॥१४॥ यो न करोत्यपराधात् स निशंकस्तु जनपदे भवति । नापि तस्य वधु अहो चिंतोत्पद्यते कदाचित् ॥१५॥ एवं हि सापराधो बध्येऽहं तु शंकितश्च तयिता । यदि पुनर्निरपराधो निशंकोऽहं तु बच्ये ॥१६॥
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अर्थ – जो पुरुष चोरी आदि अपराधनिक करे है, सो ऐसें शंकासहित हुवा भ्रमे है, जो यह 5 चोर है ऐसें जानि मोकू कोई मति बांबी ल्यो । ऐसी शंकासहित लोककेविषै विचरे है । बहुरि 4 जो किछू अपराध नाहीं करे है, सो पुरुष देशविषै निःशंक भ्रमे है। ताकै बंधने की चिंता कदाचित् 5 नाहीं उपजी है । ऐसें मैं जो अपराध सहित हौं तो मेरी शंका है, जो 'मैं बंधू' ऐसी शंकायुक्त 5 आत्मा होय है । बहुरि जो मैं निरपराध हों तो निशंक हौं, न बंधूगा, ऐसें ज्ञानी विचारे है । टीका- जैसें या लोकविषै जो पुरुष परद्रव्यका ग्रहण है लक्षण जाका ऐसा अपराधकुं करे 5 है तिसही बंधक शंका संभवे है। बहुरि जो अपराध नाहीं करे है, ताकै तौ शंका नाहीं संभवे है । तैसें आत्मा भी जो अशुद्ध हुवा संता परद्रव्यका ग्रहण है लक्षण जाका ऐसा अप-5 राधकूं करे है, तिसहीकै बंधकी शंका संभवे हैं । बहुरि जो आत्मा शुद्ध भया संता तिस अप卐
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राषकू नाही करे है ताकै सो शंका माही संभवे है, यह नियम है । या सर्वथा सर्वपरद्रव्यके " 9 भावका परिहार करि शुद्ध आत्मा ग्रहण करना । तैसें किये ही निरपराधपणा है।
भावार्थ-चोरी आदि अपराध करे, तो बंधनकी शंका होय । निरपराधके शंका काहे..... " होय ? तैसें ही आत्मा परद्रव्यका ग्रहणरूप अपराध करें, तो बंधकी शंका होय ही। आपकू
शुख अनुभवे परकू नाही ग्रहै तो बंधकी शंका काहेकू होय ? तातें परद्रव्यकू छोडि शुद्ध + आत्माका ग्रहण करना तब निरपराध होय है। आगे पूछे है, जो यह अपराध कहा है ! ताका .. उत्तर अपराधका स्वरूप कहे हैं । गाथा
संसिद्धिराधसिद्धी साघिदमाराविदं च एयहो। अवगदरायी जो खलु चेदा सो होदि अवराहो ॥१७॥ जो पुण णिरवराहो चेदा णिस्संकिओ दु सो होदि। आराणाए णिचं व?हिं अहं तु जाणतो ॥१८॥
संसिद्धिराधसिद्धं साधितमाराधितं चैकार्थ । अपगतराषो यः खलु चेतयिता स भवत्यपराधः ॥१७॥ यः पुनर्निरपराधश्वेतयिता निश्शंकितस्तु स भवति ।
आराधनया नित्यं वर्तते अहमिति जानन् ॥१८॥ ___ आत्मख्याति:-परद्रन्यपरिहारेण शुद्धस्यात्मनः सिद्धिः साधनं वा राधः, अपगतो राधो यस्य भावस्य सोऽपराध
स्तेन सह यश्वेतयिता वर्तते स सापराधः स तु परद्रव्यग्रहणसद्भावेन शुद्धात्मसिद्धथभावावंधशंकासंभवे सति स्वयम卐 वादनाराधक एव स्यात् । यस्तु निरपराधः स समग्रपरदून्यपरिहारेण शुद्धात्मसिद्धिसभाबाद बंधशंकाया असंभरे सति, पर
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उपयोगकलक्षणशुद्ध जात्मैक एवाहमिति निश्चिन्वम् नित्यमेव शुद्धात्मसिखिलक्षणयाराधनया समानत्वादाराधक एब ____ अर्थ-संसिद्धि राध सिद्ध साधित आराधित ए शब्द एकार्थ हैं, साते जो चेतयिता आत्मा अपगतराध कहिये राधसू रहित होय सो आत्मा अपराध है। बहुरि जो आत्मा अपराध नाहीं ॥ निरपराध है, सो निःशंक ह-शंकारहित है । आपकू मैं हौं ऐसे जानता संता आराधनाकरि ..
टीका-परद्रव्यका परिहार करिके जो शुद्ध आत्माकी सिद्धि अथवा साधन सो राध कहिये, तहां जिस चेतयिता आत्माके राध कहिये शुद्ध आत्माकी सिद्ध अथवा साधन अपगत कहिये । दृरिवर्ती होय सो आत्मा अपराध है। अथवा याका दूसरा समासविग्रह ऐसा-जिस भावका राध दूरवर्ती होय, तिस भावकू अपराध कहिये सो तिस अपराधकरि जो आत्मा वर्ते सो आत्मा सापराध है, सो ऐसा आत्मा परद्रव्यके ग्रहणका सद्भावते शुद्ध आत्माकी सिद्धीके अभावतें ॥ ताके बंधकी शंकाका संभव होते आप स्वयं अशुद्धपणातें अनाराधक ही है-आराधना करने
वाला नाहीं है। बहुरि जो आत्मा अपराधरहित निरपराध है, सो समस्त परद्रव्यपरिग्रहका + 卐 परिहार करिके शुद्ध आत्माकी सिद्धीके सद्भावतें ताके बंधकी शंकाका असंभवकू होते ऐसा ।।
निश्चय करता वर्ते-जो मैं उपयोग ही है एक लक्षण जाका ऐसा एक शुद्ध आत्मा ही है। ॐ सो आत्मा नित्य ही शुद्ध आत्माकी सिद्धि है लक्षण जाका रेसी आराधनाकरि वर्तमान होय
है तातें आराधक ही है।
___ भावार्थ-संसिद्धि राध सिद्धि साधित आराधित इनि शब्दनिका अर्थ एक ही है। सोम ॥ इहां राध नाम शुद्ध आत्माकी सिद्धि अथवा साधनका है, सो जाकै यह नाहीं, सो आमा ।
सापराध है । अर यह जाकै होय, सो निरपराध है । सो सापराध है ताके बंधकी शंका संभवे ॥ 卐 है, सात अनारापक है। अर निरपराध है सो निःशंक भया अपने उपयोगमें लीन होय, तब
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बंधको शंका नाहीं । अर सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तपका एक भावरूप निश्चय आराधनाका आराधक ही है। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
मालिनीवृत्तम अनवरतमनन्तर्वध्यते सापराधः स्पृशति निरपराधो बन्धनं जातु नैव ।।
नियतया स्पं गजमराको राशिः निरपराधः साधुसुद्धात्मसेवी ॥८॥ अर्थ-जो आत्मा सापराध है, सो तौ निरंतर अनंतपुद्गलपरमाणुरूप कर्मनिकरि बंधे है। " 卐 बहुरि जो निरपराध है, सो बंधनकू कदाचित् नाहीं स्पर्श है । बहुरि यह सापराध आत्मा है, सो त
तो अपने आत्माकू नियमकरि अशुद्ध ही सेक्ता सापराध ही होय है । बहुरि जो निरपराध है, " सो भले प्रकार शुद्ध आरमाका सेवनेवाला होय है। आने व्यवहारनयका आलंवी तर्क करे ॥ है-जो इस शुद्ध आत्माका सेवनका प्रयास कहिये खेद ताकरि कहा है ? जाते प्रतिक्रमण आदि .. प्रायश्चित्त है. ताकरि ही आत्मा निरपराध होय है । जाते सापराधके तौ अप्रतिक्रमणादि हैं, सो अपराधके दूरि करनेवाले नाहीं हैं, तातें तिनिक विषकुभ कहे हैं। बहुरि निरपराधके प्रति- क्रमणादिक हैं ते तिस अपराधके दूरि करनेवाले हैं, तातें तिनि• अमृतकुंभ कहे हैं। सो ही । व्यवहारका कहनेवाला आचारसूत्रवि कहा है। उक्तं च गाथा---अप्पडिकमणमपडिसरणं, + अप्पडिहारो अधारणा चेव । अणियत्ती य अणिदागटहा सोहीय विसकुभो ॥१॥ पडिकमणं पडिसरणं परिहरणं धारणा णियत्तीय । जिंदा गाहा सोही अठविहो अमयकुभो दु॥२॥5 अर्थ-अप्रतिक्रमण, अप्रतिशरण, अपरिहार, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिंदा, अगर्हा, अशुद्धि ऐसे ..
आठ प्रकार करिके लगै दोषका प्रायश्चित्त करना, सो तौ विषकुभ है--जहरका भरथा घडा है। + बहुरि प्रतिक्रमण, प्रतिशरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निंदा, गर्दा शुद्धि ऐसे आठ प्रकारकरि ।
लगे दोषका प्रायश्चित्त करना, सो अमृतकुभ है। ऐसे व्यवहारनयके पक्षीने तर्क किया, ताका । 4 समाधान आचार्य निश्चयनयकू प्रधानकरि कहे हैं । गाथा
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पडिकमणं पडिसरणं परिहरणं धारणा वियत्तीय ।
गिंदा गरुहा सोहिय अट्ठविहो होदि विसकुंभो ॥१९॥ अपंडिकमणं अपडिसरणं अप्पडिहारो अधारणा चैव ।
अणियत्तीय अनिंदा अगरुहा विसोहिय अमयकुंभो ||२०||
प्रतिक्रमणं प्रतिसरणं परिहारो धारणा निदित्व !
निंदा गर्दा शुद्धिः अष्टविधो भवति विषकुंभः ॥ १९ ॥ अप्रतिम प्रतिसरणं परिहारोऽधारणा चैव । अनिवृत्तिश्चानिंदा ऽगऽशुद्धिर मृतकुंभः ॥२०॥
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आत्मख्यातिः – यस्तावदज्ञानि जनसाधरणोऽप्रतिक्रमणादिः स शुद्धात्म सिद्धभावस्वभावत्वेन स्वयमेवापराधत्वा-फ
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द्विषकुंभ एव किं विचारेण । यस्तु द्रव्यरूपः प्रतिक्रमणादिः स सर्वापराधविषापदाकर्षणसमर्थत्वेनामृतकुंभोऽपि प्रतिक्रमणादिविलक्षणाप्रतिक्रमणादिरूपां तार्तीयकों भूमिमपश्यतः स्वकार्यकरणासमर्थत्वेन चिपक्षकार्यकरित्वाद्विषकुम एव फ
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स्पात् 1 अप्रतिक्रमणादिरूपा तृतीयभूमिस्तु स्वयं शुद्धात्मसिद्धिरूपत्वेन सर्वापराधविषदोषाणां सर्वकत्वात् साक्षात्स्वयममृतकुंभो भवतीति व्यवहारेण द्रव्यप्रतिक्रमणादेरपि, अमृतकुंभत्वं साधयति । तयैव च निरपराधो भवति चेत 5 यिता । तदभावे द्रव्यप्रतिक्रमणादेरप्यपराध एव । अतस्तृतीयभूमिकयैव निरपराधत्वमित्यवतिष्ठते तत्प्राप्त्यर्थ एवायं द्रन्यप्रतिक्रमणादिः, ततो मेति संस्था यत्प्रतिक्रमणादीन् श्रुतिरूपा जयति किंतु द्रव्यप्रतिक्रमणादिना न चति अन्यदीयप्रतिक्रमणाप्रतिक्रमणाद्यगोचराप्रतिक्रमणादिरूपं शुद्धात्मसिद्धिलक्षणमतिदुष्करं किमपि करिष्यति । वक्ष्यते
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5 कारण है। बहुरि अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण, अपरिहार, अधारणा, बहुरि अनिवृत्ति, अनिंदा,
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अर्थ - प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार धारणा बहुरि निवृत्ति, निंदा, गर्हा, शुद्धि ऐसे आठ
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प्रकार तौ विषकुंभ हैं। जातैं यामैं कर्तापणाकी बुद्धि संभवे है। अर कर्त्तापणा है सो बंधका
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卐 अगऱ्या, अशुद्धि ऐसे आठ प्रकार अमृतकुंभ हैं । जातें इहां कर्त्तापणाका निषेध है, किछू ही न करना । तातें बंधते रहित है।।
टीका-जो प्रथम अज्ञानी जन ते साधारण अप्रतिक्रमणादिक है, सो तो शुद्धात्माकी, सिद्धीका अभाव स्वभावरूप है, तातें स्वयमेव अपराध दोषरूप ही है, तातें ताका विचार करि तौ ।
कहा ? वह तो पहले ही त्यागने योग्य है । बहुरि जो द्रव्य प्रतिक्रमणादिक है, सो सर्व अपराध-5 + रूपपणातें विषके अनुक्रमकरि मेटनेवि समर्थपणाकरि अमृतकुंभ भी व्यवहार आचारसूत्रमें ...
कया है । तोऊ प्रतिक्रमण अप्रतिक्रमण आदि दोऊते विलक्षण ऐसी अप्रतिक्रमण आदि स्वरूप 卐 तीसरी भूमिकू नाहीं देखनेवाले पुरुषके दोका काटना जो आगला. कार्य, ताके करनेविर्षे अस
मर्थपणाकरि विपक्ष जो बंध ताका कार्य करनेवालापणातें प्रतिक्रमणादिक है, सो विषकुभ ही। 7 है। बहुरि अप्रतिक्रमणादिरूप तीसरी भूमि है, सो आप स्वयं शुद्धात्माकी सिद्धिरूप है, तिस
पणाकरि सर्व अपराधरूप विषके दोष, तिनिकी सर्वकी मेटनेवाली है। तातें साक्षात् आप स्वयं अमृतकुभ है, सो ऐसे ही तीया भूमि व्यवहार करिक द्रव्यप्रतिक्रमणादिकके भी अमृतकुभ-卐
पणाकू साधे है। तिस तीसरी भूमीही करि चेतयिता आत्मा निरपराध होय है । इस तीसरी __ भूमीकाका अभाव होते द्रव्यप्रतिक्रमणादिक है, सो भी अपराध ही है । यातें यह ठहरी-जोक।
अप्रतिक्रमणादिरूप तीसरी भूमीहीकरि निरपराधपणा है, ताकी प्राप्तिके अर्थि ही यह द्रव्यज प्रतिक्रमणादिक है, ताहें ऐसें मति मानो, जो निश्चयनयका शास्त्र है, सो द्रव्य प्रतिक्रमणादिककू.
छुडावै है, तो कहा कहे है ? द्रव्यप्रतिक्रमणादिकहींकरि आत्मा बंधतें नाहीं छूट है। इस सिवाय । 卐 अन्य भी प्रतिक्रमण अप्रतिक्रमण आदिकै अगोचर अप्रतिक्रमणादिरूप शुद्धात्माकी सिद्धि है;
लक्षण जाका अर करना जाका अतिकठिन ऐसा किछू करावे है, सो इहां ही आगे कहा, .. ताकी गाथा--कम्म जं पुक्कयं । सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं । तत्तो णियत्तए अप्पयं तु जो सो का
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卐 पडिकमणं । इत्यादिक निश्चयप्रतिपादिक स्वरूप आगे कहसी । तहां इस गाथाका भी अर्थ
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भावार्थ-व्यवहारनयक आलंधी कही जो लगे दोषका प्रतिक्रमणादिकरि ही आत्मा शुद्ध हाय है, तो पहले ही शुद्धात्माका आलंबनका खेदकर कहा है ? शुद्ध भये पीछे ताका आलंबन होय, पहले ही तौ आलंबनका खेद निष्फल है । ताकूं आचार्य समझावे हैं - जो द्रव्यप्रति -
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क्रमणादिक हैं ते दोष मेटनेवाले हैं, परंतु शुद्ध आत्माका स्वरूप प्रतिक्रमणादिरहित है । ताका 55 5 आलंयविना तौ द्रव्यप्रतिकरणादिक हैं ते दोष स्वरूप ही हैं। दोपकू मेटनेकूं समर्थ नाहीं । जातें निश्चयकी सापेक्षहित हो महालय बोक्षमार्ग में है अर केवल व्यवहारहीका पक्ष तौ मोक्षमार्ग में नाहीं, बंधहीका मार्ग हैं। तातें ऐसें कया है, जो अज्ञानीके जे अप्रतिक्रमणादिक हैं, ते तौ विषकुंभ है ही, तिनिकी तौ कहा कथा ? परंतु जे व्यवहारचारित्रमें प्रतिकमणादिक 5 कहे हैं ते भी किरि विषकुभ ही हैं। जाते आत्मा तौ प्रतिक्रमणादिककरि रहित शुद्ध अप्रतिक्रमणादिस्वरूप है ऐसें जानना । अब इस कथनका कलशरूप काव्य कहे हैं । अतो हताः प्रमादिनो गताः सुखासीनतां प्रलीनं चापलमुन्मीलितमालंबनं - 1 आत्मन्येवालातिं च चित्तमासम्पूर्ण विज्ञानघनोपलब्धेः ॥ ६ ॥
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अर्थ - इस कथन सुखकर बैठनेषणाकू प्राप्त भये ऐसे प्रमादीजीवनिकू तौ ताडे हैं। जे 卐
5 निश्चयनयका आश्रय ले प्रमादी होय प्रवर्तें, तिनिकूं ताडिकरि उद्यम लगावे हैं। बहुरि चपल
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पणाका प्रलय किया है । जे स्वच्छंद वर्ते तिनिका स्वच्छंदपणा मेटया है । बहुरि आलंबनकू 5 उपाडया है । जे व्यवहारकी पक्षकरि परद्रव्यका तथा द्रव्यप्रतिक्रमणादिका आलंबन ले
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संतुष्ट होय है, तिनका आलंबन छुड़ाया है। बहुरि चित्तकुं आत्माहीविर्षे आलानित किया है,
है । व्यवहार के आलंबनमें अनेक प्रवृत्तीमें चित्त भ्रमे था, सो शुद्ध आत्माहीविषै लगाया
। जहां तांई संपूर्ण विज्ञानघन आत्माकी प्राप्ति न होय, तहां तांई चैतन्यमात्र आत्माविर्षे चित
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लग्या रहै ऐसे थांभ्या है, ऐसें जानना । अब कहे हैं, जो इहां निश्चयनयकरि प्रतिक्रमणादिककू ।... सौ विषकुंभ कह्या अर अप्रतिक्रमणादिककू अमृतकुंभ कहा, ताकू कोई उलटी समझि प्रतिक्रम५९णादिककू छोडि प्रमादी होय ताकू समझावनेकू कलशरूप काव्य कहे हैं।
. पसन्ततिलका यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतं तत्राप्रतिकमणमेव सुधा कुतः स्यात् ।
तरिक प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोऽधः किनोर्धमूर्ध्वमधिरोहति निप्रमादः ॥१०॥ अर्थ-अहो भाई, जहां प्रतिक्रमणहोकू विष कह्या, तहां काहेते अप्रतिक्रमण अमृत होय ? जतातें यह जन नीचे नीचे पडता संता प्रमादरूप क्यों होय है ? निष्प्रमादी भया संता ऊंचा ऊंचा ..
"क्यों नाहीं चढ़े है। 卐 भावार्थ-आचार्य कहे हैं, जो अज्ञानावस्थामैं जो अप्रतिक्रमणादिक था, ताकी तौ कथा ..
ही कहा ? इहां तौ निश्चयनयकू प्रधानकरि अर द्रव्यप्रतिक्रमणादिक शुभ प्रवृत्तिरूप थे, तिनिकी । ॐ पक्ष छुडावनेकू तिनि तौ विषकुंभ कहे हैं। जातें ए कर्म बंधके ही कारण हैं, बहुरि अप्रति
क्रमणप्रतिक्रमणते रहित तीसरी भूमि शुद्ध आत्मस्वरूप है, सो प्रतिकमणादित रहित है । ताते "
तहाँके अप्रतिक्रमणादिक अमृतकुभ कया है। तिस भूमीविर्षे चढावनेकू उपदेश किया है सो ७ प्रतिकमणादिककू विषकुंभ कहै मुणिकरि जो प्रमादो होय है ताकू कहे हैं यह जन नीचा " नीचा क्यों पडे है ? तीसरी भूमिमै ऊंचा ऊंचा क्यों नाहीं चढे है ? जहां प्रतिकमणकू विष- ॐ कुभ कह्या, तहां तौ तिसका निषेधरूप अप्रतिकमण ही अमृतकुभ होयगा। सो यह अप्रति
क्रमणादिक अज्ञानीकै होय, सो न जानना, तीसरी भूमिका शुद्ध आत्मामयी जाननी। आगे 卐 इस अर्थकू दृढ करते संते काव्य कहे हैं। ,
प्रमादकलितः कथं भवति शुद्धभावोऽलसः कवायभरगौरवादलसती प्रमादो यतः। जतः स्वरसनिर्भरे नियमितः स्वभावे भवन्मुनिः परमशुद्धता ब्रजति जयते वाऽचिरात् ॥११॥
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पृथ्वीवृत्तम्
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म अर्थ-जाते कषायका भर कहिये भार, ताका गौरव कहिये भारयापणा, तातें अलसता॥ 15 कहिये आलसपणा, ताकू प्रमाद कहिये है । सो ऐसे प्रमादकरि युक्त अलसभाव होय, सो शुद्ध...
" भाव कैसे होय ? याते आत्मिकरसकरि भरचा स्वभावविर्षे निश्चल होता संता मुनि है सो । •॥ परमशुद्धताकू प्राप्त होय है । बहुरि शीघ्र ही थोरे ही कालमें कर्मबंधतें छूटे है।
___ भावार्थ-प्रमाद तौ कषायका गौरवतें होय है सो प्रमादीकै शुद्धभाव होय नाहीं । जो मुनि - + उद्यमकरि स्वभावमें प्रवर्ते है सो शुद्ध होयकरि मोक्षकू प्राप्त होय है। अब मुक्त होनेका के - अनुक्रमके अर्थरूप काव्य कहे हैं अर मोक्षका अधिकार पूर्ण करे हैं।
म शालविक्रीडितछन्दः म त्यक्त्वाशुद्धिविधायि तत्किल परद्रव्यं समय स्वयं स्वे द्रन्ये रसिमेति यः स नियतं सर्वापरावच्युतः। "
बन्धध्वंसमुपेत्य नित्यमुदितः स्वज्योतिरच्छोच्छलञ्चैतन्यामृतपूरपूर्णमहिमा शुद्धो भवन्मुच्यते ॥१२॥
अर्थ-जो पुरुष निश्चयकरि अशुद्धताका करनेवाला जो परद्रव्य, ताकू सर्वकू छोडिकरि के 1- अर आप अपने निजद्रव्यविर्षे रतीकू प्राप्त होय है-लीन होय है, सो पुरुष नियमते सर्व अपराधते
" रहित भया संता, बंधका नाशकू प्रात होयकरि नित्य उदयरूप भया संता अपना स्वरूपका प्रकाश 4 रूप ज्योतिकरि निर्मल उछलता जो चैतन्यरूप अमृतका प्रवाह, ताकरि पूर्ण है महिमा जाकी ,
ऐसा शुद्ध होता संता कर्मनित छूटे है। 卐 भावार्थ-पहले समस्त परद्रव्यका त्याग कर अपना निजद्रव्य आत्मस्वरूपविर्षे लीन होय ॥
है, सो सर्व रागादिक अपराधते रहित होय आगामी बंधका नाश करे है अर नित्य उदयरूप ..
केवलज्ञानकू पाय शुद्ध होय सर्व कर्मका नाशकरि मोक्ष प्राप्त होय है, यह मोक्ष होनेका अनु.॥ 卐 क्रम है। ऐसे मोक्षका अधिकार पूर्ण भया, ताके अंत मंगलरूप ज्ञानकी महिमाका कलशरूप : 1. काव्य कहे हैं।
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बन्पच्छेदात्कलयदतुलं मोक्षमक्षय्यमेतमित्योद्योतस्फुटितसहजावस्वमेकान्तशुद्धम् । एकाकारस्वरसभरतोऽत्यन्तगम्भीरधीरं पूर्ण ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि ॥१३॥
पनि सोलो जितः ।
इति समयसारन्याख्यायामात्मख्याती अष्टमोंकः । ___ अर्य-यह ज्ञान है सो पूर्ण भया संता दैदीप्यमान प्रगट भया । कहा करता संता प्रगट भया ? कर्मका बंध था ताके छेदतें अविनाशी अतुल जो मोक्ष, ताकू प्राप्त होता संता । बहुरि ॥ कैसा प्रगट भया ! नित्य है उद्योत प्रकाश जाका ऐसी प्रफुल्लित भई है स्वाभाविक अवस्था "जाकी । बहुरि कैसा प्रगट भया ? एकान्तशुद्ध कहिये ताकै कर्मका मैल न रह्या अत्यंत शुद्ध 4 भया प्रगट भया । बहुरि कैसा प्रगट भया? एक जो अपना ज्ञानमात्र आकार, ताका निजरसका । "भरतें अत्यंत गंभीर है अर धीर है-जाकी थाह नाहीं अर जामैं किछू आकुलता नाहीं । बहुरि । म प्रगट होयकरि कहा किया ? अचल जो कोई प्रकार चले नाहीं ऐसी आपको महिमा, ताविर्षे )
लीन भया । 9 भावार्य-यह ज्ञान प्रगट भया सो कर्मका नाश करि मोक्षरूप होता अपनी स्वाभाविक है
अवस्थारूप अत्यंत शुद्ध समस्त ज्ञेयाकारकू गौण करि ज्ञानका प्रकाश "जाका थाह नाहीं जामें फ्र आकुलता नाही" ऐसा प्रगट दैदीप्यमान होयकरि अपनी महिमाविर्षे लीन भया। ऐसे रंग. .. भूमिविर्षे मोक्षतत्त्वका स्वांग आया था; सो ज्ञान प्रगट भया, मोक्षका स्वांग निसरि गया।
सवैया--ज्यों नर कोय परथो दृढबंधन बंधस्वरूप लखै दुखकारी।
चित कर निति कम कटै यह तौऊ छिदै नहि नै कटिकारी ॥
छेदन गहि आयुध धाय चलाय निशंक करै दुय धारी।।
__ यो युध बुद्धि धसाय दुधा करि कर्मरु आतम आप गहारी ॥१॥ ऐसें इस समयसारग्रंथकी आत्मख्यातिनामा टीकाकी वचनिकावि आठमा मोक्षनामा
अधिकार पूर्ण भया ॥॥इहां ताई गाथा ३०७ भई । कलश १९२ भये । 卐
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अथ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकारः ।
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दोहा - सर्वविशुद्ध ज्ञानमय सदा आत्माराम । परकूं करें न भोगवे जानें जपि तसु नाम ||१||
इहां मोक्षतत्त्वका स्वांग निकसनेके अनंतर सर्व विशुद्धज्ञान प्रवेश करे है। रंगभूमिविषै
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15 जीवाजीव, कर्ता कर्म, पुण्य पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, मोक्ष ए आठ स्वांग आये । तिनिका नृत्य भया । अपना अपना स्वरूप दिखाय निकलि गये । अब सर्व स्वांग दूरि भये एकाकार सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करे है। तहां प्रथम ही मंगलरूप ज्ञानपुंज आत्माकी महिमाका काव्य कहे हैं। फ्र
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अर्थ -- ज्ञानका पुत्र आत्मा है, सो स्फुरायमान प्रगट होय है। कहा करि प्रगट होय है ?
5 समस्त ही कर्ता अर भोक्ता इत्यादिक भाव हैं तिनि सर्वहोकू भलै प्रकार प्रलय कहिये नाशकूं प्राप्त करी प्रगट होय है । बहुरि कैसा है ? प्रतिपद कहिये वारंबार नाशकूं प्राप्त करि प्रगट होय है । कर्मके क्षयोपशमके निमित्त अनेक अवस्था होय हैं, तिनिप्रति बंधमोक्षकी ज्यौं कल्पना फ 5 प्रवृत्ति तातें दूरीभूत है- दूरीक्त है । बहुरि शुद्ध है शुद्ध है। दोयवार कहनेतें रागादिक मल अर आवरण दोऊ रहित हैं बहुरि कैसा है ? अपना निजरस जो ज्ञानरस, ताका विसर कहिये 5 फैलना, ताकरि आपूर्ण कहिये भरया ऐसा पवित्र अर अचल है अर्चि कहिये दीप्ति-प्रकाश जाका । बहुरि कैसा है ? टंकोत्कीर्ण है प्रगट महिमा जाकी ।
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भावार्थ- शुद्धनका विषय ज्ञान स्वरूप आत्मा है, सो कर्ताभोक्तापणाका भावसू रहित ४६
है । बहुरि बंधमोक्षकी रचनाकरि रहित है, अर परद्रव्यतें अर सर्व परद्रव्यके भावनित रहित
फ्री है, तातें शुद्ध है। अर अपने निजरसका प्रवाहकरि पूर्ण दैदीप्यमान ज्योतिरूप टंकोत्कीर्ण जाकी
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फफफफफफफफफफफफ
पादाक्रान्ता छन्दः
नीत्वा सम्यक्प्रलयमखिलान्तु भोक्त्रादिभावान् दूरीभूतः प्रतिपद्मयं बन्धमोक्षप्रक्लृप्तः । शुद्धः शुद्धः स्वरसविसरापूर्ण पुण्याचलार्थिष्टङ्कोत्कीर्णप्रकटमहिमा स्फूर्जति ज्ञानपुखः ॥१॥
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卐 महिमा है । सो ऐसा ज्ञानपुअ आत्मा प्रगट होय है । अब सर्व विशुद्धज्ञान प्रगट करे है । 卐
तहां प्रथम ही कर्ता-भोक्ताभावतें न्यारा दिखावे हैं, ताकी सूचनिकाका श्लोक है ।
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अनुष्टुप्छन्दः
कथं न स्वास्थ चियो वेदयितृत्ववत् । अज्ञानादेव कर्ताऽयं तदभावादकारकः ||२॥
अर्थ - इस चित्स्वरूप आत्माका कर्तापणा स्वभाव नाहीं है । जैसे वेदयितृत्व कहिये भोक्ता
पणा स्वभाव नाहीं है, तैसें सो यह आत्मा कर्ता मानिये है, सो अज्ञानतै मानिये है | अर जब 卐 अज्ञानका अभाव होय है, तब अकारक कहिये कर्त्ता नाहीं है । आगे आत्माका अकर्तापणा 5 दृष्टांतपूर्वक सिद्ध करे हैं। गाथा
दवियं जं उपज्जदि गुणेहि तंतेहि जाणसु अणराणं ।
जह कडयादीहिंदु पजएहिं कायं अणण्णमिह ॥ १ ॥ जीवरसाजीवस्य जे परिणामा दु देखिदा सुते ।
तं जीवमजीवं वा तेहिमणण्णं वियाग्राहि ॥२॥
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ण कुदोवि विप्पण्गो जह्मा कज्जं ण लेण सो आदा । उप्पादेदि ण किंचिवि कारणमवि तेण गा सो होदि ॥३॥
कम्मं पहुच कत्ता कत्तारं तह पहुच कम्माणि ।
उप्पंजंतिय यिमा सिद्धी दु ण दिस्सदे अगणा ||४|| द्रव्यं यदुत्पद्यते गुणैस्तत्तैर्जानीह्यनन्यत् ।
यथा कटकादिभिस्तु पर्यायैः कनकमनन्यदिह ॥१॥
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जीवस्याजीवस्य तु ये परिणामास्तु दर्शिताः सूत्र। ते जीवमजीवं वा तैरनन्यं विजानाहि ॥२॥ न कुतश्चिदप्युत्पन्नो यस्मात्कार्य न तेन स आना। उत्पादयति न किंचित्कारगनपि तेन न स भवति ॥३॥ कर्म प्रतीत्य कर्ता कर्तारं तथा प्रतीत्य कर्माणि ।
उत्पयंते नियमारिसद्धिस्तु न दृश्यतेऽन्या ॥४॥ आत्मरूयातिः-जीवो हि तावरक्रमनियमितात्मपरिगामै रुवद्यमानो जोव एष नाजोवः, एमजीयोऽपि क्रमनियम - मितात्मपरिणामरुत्पद्यमानोऽजीव एवं न जीवः, सर्वद्रव्याणां स्वपरिणामः सह तादात्म्मान कंकगादिपरिगामः कांचनभवत् । एवं हि जीवस्य स्वपरिणामैरुत्पद्यमानस्याप्यजीवेन सह कापै कारणभावो न सिद्धयति सर्वद्रव्याणां द्रव्यांतरेणो। त्पाद्योत्पादकमावाभावात् । तदसिद्धौ चाजोत्रस्प जीवकर्मत्वं न सिद्वयति । तदसिद्वौ च क कर्मणोरनन्यापेक्ष सिद्ध- .. नत्वात्-जीवस्याजीवकर्तृत्वं न सिद्धति, अतो जीवोऽकर्ता अवत्तिइते है अर्थ-जो द्रव्य अपना गुणनिकरि उपजे है, सो तिनि गुणनिकरि अन्य मति जानू तिनि ।
गुणमय ही है । जैसे सुवर्ण है सो अपनः कटक आदि पायनिकार लोको अन्य नाहीं है-कट卐 कादि है सो सुवर्ण ही है । तैसे ही द्रव्य जानु । ऐसें जो अर अजीवके जे परिणाम सूत्र-म .. विर्षे कहे हैं, तिनि परिणामनिकरि तिस जीव अजोकू अनन्य जानू-अन्य मति जानु । परि. प्रणाम हैं ते द्रव्य ही हैं। यातें सो आत्मा कोईत उज्या- नाहीं है, तातें तो काहूका किया कार्य
नाहीं है । बहुरि काहू अन्यकू उपजावै नाहीं है, तातें काहूका कारण भी नाहीं है। बहुरि यहः ।। । न्याय है जो कर्मकू प्रतीत्यकार कर्ता है तैसें ही कर्ताक्प्रतोत्यकरि कर्म उपजे है यह नियम " है। अन्यप्रकार कर्ताकर्मकी सिद्धि नाहीं देखिये है।
टीका-जीव है सो तौ प्रथम ही क्रमकरि अर नियमित निश्चित अपने परिणाम :तिनि卐 करि उपजता संता जीव ही है, अजीव नाहीं है। ऐसे ही अजीव है सा भी क्रमहोकरि अर
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卐 निश्चित जे अपने परिणाम तिनिकरि उपजता संता अजीव ही है, जीव नाहीं है । जातें सर्व फ
ही द्रव्यनिके अपने परिणामनिकरि सहित तादात्म्य है, कोई ही अपने परिणामनित अन्य नाहीं,
ऐसे परिणाम तिनिकूं छोडि अन्यमें जाय नाहीं । जैसे कंकणादि परिणाम निकरि सुवर्ण उपजे है, प्रभृत
* सो कंकणादिकर्ते अन्य नाहीं है तिनितें तादात्म्यस्वरूप है; हे सर्व द्रव्य हैं । ऐसें ही अपने परिणामनिकरि उपजता जो जीव, ताके अजीवकरि सहित कार्यकारणभाव नाहीं सिद्ध होय है । फ जाते सर्व द्रव्यनिकै अन्य द्रव्यकरि सहित उत्पाद्य अर उत्पादकभावका अभाव है अर तिस फ्र
कार्यकारणभावकी सिद्धि न होते अजीवकै जीवका कर्मपणा न सिद्ध होय है अर अजीवके
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जीवका कर्मपणा न होते कर्ताकर्म के अनन्यापेक्षसिद्धपणातें जीवकै अजीवका कर्तापणा न 5 5 ठहरया । यातें जीव है सो परद्रव्यका कर्ता न ठहरथा अकर्ता ठहरथा । भावार्थ- सर्वद्रव्यनिके परिणाम न्यारे न्यारे हैं। अपने अपने परिणामनिके सर्व कर्ता हैं
1
5 ते तिनिके कर्ता हैं, ते परिणाम तिनिके कर्म हैं । निश्चयकरि कोईके काहूतें कर्ताकर्मसंबंध नाहीं है । तातें जीव अपने परिणामनिका कर्ता है, अपना परिणाम कर्म है । तैसें ही अजीव अपना फ परिणामनिका कर्ता है, अपना परिणाम कर्म है । ऐसें अन्यके परिणामनिका जीव अकर्ता है । अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं। अर जीव अकर्ता है, तौऊ याकै बंध होय है सो यह अज्ञानकी महिमा है, ऐसे कहे हैं ।
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शिखरिणी छन्दः
अकर्त्ता जीवोऽयं स्थित इति विशुद्धः स्वरसतः स्फुर चिज्ज्योतिभिश्छुरितभुवनाभोगभुवनः ।
तथाऽप्यस्यासौ स्याद्यदिह किल बन्धः प्रकृतिभिः स खल्वज्ञानस्य स्फुरति महिमा कोऽपि गहनः ॥३॥
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अर्थ-- ऐसें जीव है सो अपने निजरसतें विशुद्ध है। यातें परद्रव्यका तथा परभावनिका
5 अकर्ता ठहरथा । कैसा है जीव ? स्फुरायमान होता - फैलता जो चैतन्यज्योति, तिनिकरि व्यास 5
४६५
भया है भुवन कहिये लोकका आभोग कहिये मध्य जाकरि ऐसा है भवन कहिये होना जाता ।
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1 ऐसा है तोऊ याकै इस लोकवि प्रगट कर्मप्रकृतिनिकरि बंध होय है। सो यह निश्चयकरि च) अज्ञानका कोई ऐसा ही महिना है, सो बड़ा गहन है-ताका थाह न पाइये।
भावार्थ-शुद्धनयकरि जीव परद्रव्यका कर्ता नाहीं अर सर्व ज्ञेयनिवि जाका ज्ञान व्याप5 नेवाला है, तौऊ याकै कर्मका बंध होय है सो यह कोई अज्ञानका बड़ा महिमा है। आगै इस 1. अज्ञानका महिमाकू प्रगट करे हैं । गाथा
चेदा दु पयडिवढं उप्पजदि विणस्सदि । पयडीवि चेदयटै लप्पजदि विणम्सदि ॥५॥ एवं बंधो दुराहंपिं अण्णोण्णपञ्चयाण हवे । अप्पणो पयडी एय संसारो तेण जायदे ॥६॥
चेतयिता तु प्रकृत्यर्थमुत्पद्यते विनश्यति । प्रकृतिरपि चेतकार्थमुत्पद्यते विनश्यति ॥५॥ एवं बंधो द्वयोरन्योन्यप्रत्ययादभवेत् ।
आत्मनः प्रकृतेश्च संसारस्तेन जायते ॥६॥ आत्मस्याति:-अयं हि आ संसारत एवं प्रतिनियतस्वलक्षणानिनेिन परमात्मनोरेकत्याध्यासस्य करणात्कर्ता सन् चेतयिता प्रतिनिमित्तमुत्पादविनाशावासादयति । प्रकृतिरपि चेतयितृनिमित्तमुत्पत्तिविनाशाबासादयति । एव- मनयोरात्मप्रकृत्योः कर्तृकर्मभावाभावेप्यन्योन्यनिमित्तनैमितिकभावेन द्वयोरपि बंधो दृष्टः, ततः संसारः, तत एव च ॥ "योः कई कर्मव्यवहारः-- 5 अर्थ- चेतयिता कहिये चेतनेवाला आत्मा हे सो तौ प्रकृति कहिये ज्ञानावरणादि कर्मकी , 1- प्रकृति ताके निमित्ततें उपजे है तथा विनसे है। तथा प्रकृति भी तिस चेतनेवाले आत्माके
55 5 5 5 5 5 5
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निमित्ततें उपजे विनसे है, आत्माके परिणामके निमित्तते तैसें ही परिणमे है। ऐसें दोऊकै + अप आत्माकै अर प्रकृतिकै परस्पर निमित्ततें बंध होय है । बहुरि तिस बंधकरि संसार उपजे है।।
टीका-यह चेतयिता आत्मा है सो अनादि संसारतें लगाय अर आपका अर बंधका न्यारा 'न्यारा लक्षणका भेदज्ञान न होनेकरि परके अर आत्माके एकपणाका निश्चित अभिप्रायके म ... करने परद्रव्यका कर्ता भया संता प्रकृति जो ज्ञानावरणादि कर्मकी प्रकृति, ताके निमित्तते । की उपजना विनशना करे है । बहुरि प्रकृति भी आत्माके निमित्ततें उत्पत्ति-विनाशकू प्राप्त होय +है-आत्माके परिणामके अनुसार परिणमे है । ऐसें इनि आत्माकै अर प्रकृतिके दोऊनिके पर
मार्थतें कर्ताकर्मपणाका भावका अभाव होतें भी परस्पर निमित्तनैमित्तिकभावकरि दोऊहीके "
बंध देखिये है। बहुरि तिस बंधतें संसार है, ताहीत दोऊकै कर्ताकर्मका व्यवहार प्रवर्ते है। ' + भावार्थ-आत्माकै अर प्रकृतिक परमार्थते कर्ताकर्मपणाका अभाव है, तौऊ परस्पर निमित्त- ..
नैमित्तिकभावतें कर्ताकर्मका भाव है, तातें बंध है, बंधते संसार है ऐसा व्यवहार है। आगे को म कि जेतें आत्मा प्रकृतिके निमित्ततें उपजना विनशना न छोड़े, तेते अज्ञानी मिथ्यादृष्टि असंयत 5 है । गाथा---
जाएसो पयडियर्टी चेदगो ण विमुंचदि। अयाणओ हवे ता मिच्छादिछी असंजदो ॥७॥ जदा विमुंचदे चेदा कम्मफलमणतयं । तदा विमुत्तो हवदि जाणगो पस्सगो मुणी ॥८॥
यावदेष प्रकृत्यर्थ चेतयिता नैव विमुचति । अज्ञायको भवेत्तावन्मिथ्यादृष्टिरसंयतः ॥७॥
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यदा विमुचति चेतयिता कर्मफलमनंतकं ।
तदा विमुक्तो भवति ज्ञायको दर्शको मुनिः ॥८॥ आत्मख्यातिः—यावदयं चेतयिता प्रतिनियतस्वलक्षणानि नाद प्रकृतिस्वभावमात्मनो बंधनिमित्तं न मुंचति
卐प्राभूत में तावत्स्वपरयोरेकत्वज्ञानेनाज्ञायको भवति । स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन मिथ्यादृष्टिभवति। स्वपरपोरेकत्वपरिणत्या चासयतो है
भवति । तावदेव परात्मनोरेकत्वाभ्यासस्य करणारकर्ता भवति । यदा स्वयमेव प्रतिनियतस्वलक्षणनि नात् प्रकृतिस्वभावमात्मनो धनिमित्त मुंचति तदा स्वपरयोविभागज्ञानेन ज्ञायको भवति । स्वपरयोविभागदर्शनेन दर्शको भवति + स्वपरयोविभागपरिणत्या च संयतो भवति तदैव च परात्मनोरेकत्वाभ्यासस्याकरणाइकर्ता भवति ।
अर्थ--यह आत्मा चेतयिता जेतें प्रकृतिके निमित्ततें उपजना विनशना न छोडै तेते अज्ञायक .. भया संता मिथ्यादृष्टि असंयमी होय है । बहुरि जिस काल आत्मा अनंत जो कर्मका फल, ताकू
छोडे है, तिस काल बंधसूरहित होय-विमुक्त होय, ज्ञायक दर्शक कहिये ज्ञाता द्रष्टा मुनि ॥ + संयमी होय है। - टीका--जेतें यह चेतयिता आत्मा अपना अर प्रकृतिका न्यारा न्यारा स्वभावरूप लक्षणका
भेदज्ञानका अभावतें आपके बंधका निमित्त जो प्रकृतिका स्वभाव, ताही न छोडे है, तेतें अपना + " अर परका एकपणाका ज्ञानकरि अज्ञायक होय है । बहुरि अपना परका एकपणाका दर्शन श्रद्धानम करि मिथ्यादृष्टि होय है। बहुरि अपनी अर परकी एकपणाकी परिणतिकरि असंयत होय है। __बहुरि तेते ही परका अर आत्माका एकपणाका अध्यवसान करनेत कर्ता होय है । बहुरि जिस- .. + काल यह ही आत्मा आपका अर प्रकृतिका न्यारा न्यारा स्वलक्षणका निर्णयरूप ज्ञानतें आपके क 1- बंधका निमित्त जो प्रकृतिका स्वभाव ताहि छोडे है, तिस काल अपना अर परका विभागका । " ज्ञानकरि ज्ञायक होय है। बहुरि अपना अर परका विभागका दर्शन श्रद्धानकर दर्शक होय है। " १६८ बहुरि अपना अर परका विभागकी परिणतिकरि सँयत होय है। तिस ही काल परका अरआपक. एकपणाका अभ्यास नाहीं करनेते अकर्ता होय है।
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भावार्य-यह जात्मा जेतें अपना अर परका निजलक्षण नाहीं जाने, तेतें भेदज्ञानका " मय अभावतें कर्मप्रकृतिका उदयकू अपना जाणि परिणमे है । तैसें मिथ्यादृष्टि अज्ञानी असंयमी होय, 卐 - कर्ता होय, कर्मका बंध करे है । अर भेदज्ञान होय तब ताका कर्ता न बने है, तब कर्मका बंध ..
न करे है, ज्ञाता द्रष्टा हुवा परिणमे हैं। ऐसे ही भोक्तापणा आत्माका स्वभाव नाहीं है ऐसें कहे हैं। ताकी सूचनियागः लोग...
भोक्तं न स्वभावोऽम्य स्मृतः कर्तृत्ववचितः । अज्ञानादेव भोक्ताऽयं तदभावादवेदकः ॥४॥
अर्थ-इस आत्माका कर्तास्वभाव जैसें नाहीं है, तैसें ही भोक्तापणाभी स्वभाव नाही है, यह 5 15 अज्ञानहीतें भोक्ता होय है । बहुरि जब अज्ञानका अभाव होय है तब अवेदक है-भोक्ता नाही है। आगे इस अर्थकू गाथामें कहे हैं।
अण्णाणी कम्मफलं पयडिसहावठिदो दु वेदेदि। णाणी पुण कम्मफलं जाणदि उदिदं ण वेदेदि ॥९॥
अज्ञानी कर्मफलं प्रकृतिस्वभावस्थितस्तु वेदयते ।
ज्ञानी पुनः कर्मफलं जानाति-उदितं न वेदयते ॥९॥ __ आत्मख्याति:- अज्ञानी हि शुद्धात्मशानाभावात् स्वपरयोरेकत्वज्ञानेन, स्वपरपोरेकत्वदर्शनेन, स्वपश्योरेकत्वपरिपत्या च प्रकृतिस्वभावे स्थितत्वात् प्रकृतिस्वभावमप्यतया--अनुभवन् कर्मफलं वेदयते । ज्ञानी तु शुद्धात्मज्ञानसभा भावात्स्वपरयोविभागज्ञानेन, स्वपरयोविभागदर्शनेन स्वपस्योरेकत्वापरिणत्या च प्रकृति स्वभावादपसृतस्वात-युद्धात्म- .. स्वभावमेकमेवाईतयानुभवन् कर्मफलमुदितं झंयमानत्वात्-जानात्येव न पुनस्तस्याहंतयाऽनुभवितुमशक्यत्वाद् वेदयते । म _ अर्थ-अज्ञानी है सा तौ कर्मका फल प्रकृतिके स्वभाववि तिष्टया हवा वेदे है-भोगवे है । बहुरि ज्ञानी है सो उदय आया कर्मका फलकूजाने है अर वेदे नाहीं है-भोगवे नाहीं है। "
टोका-अज्ञानी है सो निश्चयकरि शुद्ध आत्माका ज्ञानका अभावतें अपना अर परका एकज
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पणाका ज्ञानकरि बहुरि अपना अर परका एकपणाका वर्शन श्रद्धानकर वहरि अपनी अर परकी " एकपणाकी परिणतिकरि प्रकृतिके स्वभावविर्षे तिष्ठे है । तातें प्रकृतिके स्वभावकू अहंबुद्धिपणा-... करि आप अनुभवता संता कर्म के फलकूवेदे है-भोगवे है । बहुरि शानी है सो शुद्ध आत्माके ज्ञानके सद्भावतें अपना अर परका विभागका ज्ञानकरि बहुरि अपना अर परका विभागका ॥ दर्शन श्रद्धान करि बहुरि अपनी परकी विभागरूप परिणतिकरि प्रकृतिके स्वभावतें अपमृत भया
है- दूरिवर्ती भया है अर अपना शुद्ध आत्माका स्वभावकू एकहीकू अहंबुद्धिपणाकरि आप अनु卐 भवे है । सो ऐसे अनुभवन करता संता उदय आया जो कर्मका फल, सो ज्ञेयमात्रपणातें ताकू..
जाने ही है। बहुरि ताकू अहंपणाकरि अनुभवन करनेका असमर्थपणातें वेदे नाहीं है भोग , 卐 नाहीं है।
भावार्थ-अज्ञानीकै तौ शुद्ध आत्मा ज्ञान नहीं है, तातें जैसा कर्म उदय आवे तिसही आपा जानि भोगवै है। बहुरि ज्ञानीकै शुद्ध आत्मानुभव भया, तातै प्रकृतीका उदय आवै ताकू अपना स्वभाव जाने नाही, ताका ज्ञाता ही रहै-भोक्ता नाहीं होय है। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
शाद लविक्रीडितछन्दः अज्ञानी प्रकृतिस्वभावनिरतो नित्यं भवेद्व दको ज्ञानीतु प्रकृतिस्वभावविरतो नो जातु विदकः ।
इत्येवं नियमं निरूप्य निपुणेरझानिता त्यज्यतां शुद्ध कात्ममये महस्याचलितैरासेन्यता झानिता ॥५॥ अज्ञानी वेदक एवेति नियम्बते
अर्थ-अज्ञानी जन है सो तौ प्रकृतिस्वभावविर्षे रागी है लीन है, ताहीकू अपना स्वभाव ' 15 जाने है, तातें सदाकाल ताका वेदक है-भोक्ता है । बहुरि ज्ञानी है सो प्रकृतिस्वभावविष विरागो .." " है-विरक्त है, ताकू परका स्वभाव जाने है, तातें कदाचित् भी वेदक नाहीं है-भोक नाहीं है।
सो आचार्य उपदेश करे हैं-जो जे निपुण प्रवीण पुरुष हैं, ते ज्ञानीपणाका अर अज्ञानीपणाका .
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ऐसा नियम निरूपणaft विचारिकरि अज्ञानीपणाकूं तौ छोडौ । अर शुद्ध आत्मामय जो एक मह—तेज प्रताप, ताविषै निश्चल होयकरि ज्ञानीपणाकूं सेवन करो। आगे अज्ञानी है सो वेदक 5 ही है--भोक्ता ही है ऐसा नियम कहे हैं। गाथा -
प्रा
ण मुयदि पयडिमभव्वो सुदद्भुवि अज्झाइदूण सच्छाणि । गुडदुर्द्धपि पिता या पराणया निव्विसा होति ॥१०॥
न मुंचति प्रकृतिमभव्यः सुष्टुप्यधीत्य शास्त्राणि । गुडदुग्धमपि पिवंतो न पक्षमा निर्विषा भवंति ॥१०॥
जो पुण णिरावराहो चेदा गिस्संकिदो दु सो होदि ।
आराहणाय णिचं वठ्ठदि अहमिदि वियाणंतो ॥
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नीचे लिखी गाथाफी जमख्याति संस्कृत और हिन्दी टीका उपलब्ध नहीं है इसलिये नहीं छापी गई। फ
तात्पर्यवृत्ति टीका मिलती है वह छपी है ।
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यः पुनर्निरपराधश्वेतयिता निश्शशंकितस्तु स भवति । आराधना नित्यं वर्तते अहमिति विजानन् ॥
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तात्पर्यवृत्ति:- जो गुण गिरवराहो वेदा णिस्संकिदो दु सो होदि - यस्तु चैत्रपिता ज्ञानी जीवः स निरपराधः सन् परमात्माराधनविषये निःशंको भवति । निश्शंको भूत्वा किं करोति ? आहारणायं णिव वट्ठदि अहमिदि विगाणंखोनिर्दोषपरमात्माराधनारूपया निश्चयाराधनया नित्यं सर्वकालं वर्तते । किं कुर्वन् ? अनंतज्ञानादिरूपोऽहमिति निर्विकसमाधौ स्थित्वा शुद्धात्मानं सम्यग्ज्ञानन् परमसमरसी भावेन चानुभवति इति ।
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अर्थ- जो ज्ञानी जीव है वह निरपराध होता हुआ परमात्मा के आराधनमें निःशंक होता है
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और मैं अनंतज्ञान स्वरूप हूँ" ऐसी निर्विकल्प समाधी में स्थित होकर परम समरसो भावका अनुभव करता है ।
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जामख्याति:-यथात्र विषधरो विषभाव स्वयमेव न सुचति, विषभावमोचनसमर्थसशर्करक्षीरपानाच न संचति । " म तपा किलामन्यः प्रकृतिस्वमा स्वयमेव न {चति प्रमोचनसमर्थद्रव्यश्रुतज्ञानाञ्च न मुचति, नित्यमेव भानश्रुतज्ञान
लक्षणशुद्धात्मज्ञानाभावेनाशानित्वात् । अतो नियम्यते ज्ञानी प्रकृतिस्वभावे सुस्थित्वावदक एव । ___ अर्थ-अभव्य है सो प्रकृति कहिये कर्मका उदयस्वभाव है ताही न छोडे है। जो भलैप्रकार के
अभ्यास करि शास्त्रनिकू पढे है, तोऊ प्रकृति बदले नाही है। जैसे सर्प है सो गुडसहित दूधकू .. । पीवता संता भी निर्विष नाही होय है। म टीका-जैसे इस लोकविय सर्प है, सो अपना विषभाव, ताही आप आप भी नाहीं छोडे ..
है। बहुरि विषभावके मेटनेकू समर्थ ऐसा मिश्रीसहित दूधके पोवनेते भी नाही छोडे है। तैसें ।
प्रगटपणे अभव्य है सो प्रकृतिका स्वभावकू स्वयमेव भी नाही छोडे है, वहुरि प्रकृतिस्वभावके । - छुडावनेकू समर्थ जो द्रव्यश्रुत शास्त्रका ज्ञान, ताते भी नाही छोडे है। जाते याकै नित्य ही
भावभुतज्ञानस्वरूप जो शुद्धात्मज्ञान, ताका अभावकरि अज्ञानीपणा है। यातें ऐसा नियम कीजिये है, जो अज्ञानी प्रकृतिस्वभावविय तिष्ठवापगातें वेदक हो हैकर्मका भोक्ता ही है।।
भावार्थ-अज्ञानी कर्मका फलका भोक्ता ही है यह नियम कहा । तहां अभव्यका उदाहरण युक्त है, जाका ऐसा स्वयमेव स्वभाव है, यह नियम कह्या । तहां अभव्य जो बाह्यकारण मिले ।
भी कर्मका उदयका भोगनेका स्वभाव नाहीं बदले है। तातें अज्ञानीकै भोक्तापणाका नियम 1 वणे है । आगे कहे हैं, जो ज्ञानी कर्मफलका अवेदक ही है ऐसा नियम कीजीये है। गाथा
गिब्वेदसमावण्णो णाणी कम्मप्फलं वियाणादि। महुरं कंडवं बहुविहमवेदको तेण पण्णत्तो ॥११॥
निर्वेदसमापन्नो ज्ञानी कर्मफलं विजानाति । मधुरं कटुकं वहुविधमवेदको तेन प्रज्ञप्तः ॥११॥
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आत्मख्यातिः-ज्ञानी तु निरस्तभेदभावश्रुतज्ञानलक्षणशुद्वात्मज्ञानसभावेन परतोऽत्यंतविविक्तस्वात प्रकृतिस्वभावं - " स्वयमेव मुचति ततो मधुरं मधुरं वा कर्मफलमुदितं ज्ञात्वात् केवलमेव जानाति, न पुनाने सनि परद्रव्यस्याहंतया卐 अनुभवितुमयोग्यत्वाद दयते । अतो ज्ञानी प्रकृतिस्वभावविरक्तत्वादवेदक एव |
卐 अर्थ-ज्ञानो है सो निवेद कहिये वैराग्य, ताकू प्राप्त है, सो कर्मके पलक जाने है। जो ... मधुर कहिये मोठा है तथा कटुक कहिये कड़वा है ऐसे अनेक प्रकार है ताकू जाने है, तातें अवे, पदक है-भोक्ता नाहीं है।
टीका-ज्ञानी है सो दूरि भया है भेद जाम, ऐसा जो अभेषरूप माश्रुतज्ञान है, सो स्वरूप 'जाका ऐसा जो शुद्धात्मा, ताका ज्ञानका सद्भाक्करि परतें अत्यंत विरक्त है। तातें ऐसा ज्ञानी 4. प्रकृतिस्वभाव जो कर्मका उदयका स्वभाव, ताहि स्वयमेव छोडे है, तिसरूप नाही परिणमे है। .. "तातें मीठा कडवा जो सुखदुःखरूप कर्मका फल उदय आया, ताकू, ताकू केवल जाने ही है।"
जातें ज्ञानीका ज्ञातापणा स्वभाव है, तातें कर्ता नाही बने है । भोक्ता नाहीं वने है । ज्ञान होते , - संते परद्रव्यका अहंबुद्धिकरि अनुभवनेका अयोग्यपणा है, तातें वेदक नाही है-भोक्ता नाही "होय है। यातें ज्ञानी प्रकृतिस्वभावतें विरक्त है, तिसपणाकरि अवेदक ही-भोक्ता नाहीं है। " 9 भावार्थ-जो जाते विरक्त होय ताकू अपने वश तौ भोगवे नाही अर परवशतें भोगवे तौ - ताकू परमार्थकरि भोक्ता न कहिये । इस न्यायतें ज्ञानी प्रकृतिस्वभाव जो कर्मका उदय, ताकू.. "अपना जाने नाही, तातें विरक्त है, सो स्वयमेव तौ भोगवे ही नाहीअर उदयकी वरजोरी, 卐 ते परवश हुवा अपनी निवलाईते भोगवे तौ ताकू परमार्थकरि भोक्ता न कहिये, व्यवहार .. करि भोक्ता कहिये। ताका इहां शुद्धनयतें अधिकार नाही। अब इस अर्थका कलारूप ...
काव्य कहे हैं।
ममममम ॥ ॥॥॥॥॥॥॥५
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वसन्ततिलवाहिन्दः शानी करोति न न वेदयते च कर्म जानाति केवलमयं किल तत्स्वभावम् ।
जानन्परं करणवेदनयोरभावात शुद्धस्वभावनियतः स हि मुक्त एत्र ॥६॥ अर्थ-ज्ञानी है सो कर्मक स्वतंत्र होय करें नाहीं है। तैसे ही वेदे नाहीं है। केवल तिस + कर्मस्वभावकू जाने ही है। ऐसे केवल जानता संता करनेका अर वेदनेका अभावतें शुद्ध- स्वभावके विर्षे निश्चित है सो निश्चयकरि मुक्त ही है-कर्मनितें छुटया ही कहिये।
भावार्थ-ज्ञानी कर्मका स्वाधीनपणे कर्ता भोक्ता नाहीं केवल ज्ञाता ही है। तातें शुद्ध । स्वभावरूप भया संता मुक्त ही है। जो कर्म उदय आवै भी है तौ ज्ञानीका कहा करे? जेते। " निबलाई रहै जेतें कर्म जोर चलावो, सवलाई क्रमतें बधाय कर्मका निमूल नाश करेहीगा । आगै इस ही अर्थकू फेरि दृढ करे हैं । गाथा
णवि कुम्वदि गावि वेददि णाणी कम्माइ बहु पयाराइ । जाणदि पुण कम्मफलं बंधं पुण्णं च पावं च ॥१२॥
नापि करोति नापि वेदयते ज्ञानी कर्माणि बहुप्रकाराणि ।
जानाति पुनः कर्मफलं बंधं पुण्यं च पापं च ॥१२॥ .. आत्मख्यातिः-शानी हि कर्मचेतनाशून्यत्वेन कर्मफलचंतनाशून्यत्वेन च स्वयमक यादवेदयितृत्वाञ्च न कर्म करोति न वेदयते च । किंतु ज्ञानचेतनामयत्वेन केवलं ज्ञातृत्त्वात्कर्मबंध कर्मफलं च शुभमशुभं वा केवलमेव जानाति । -
अत एतत् ! ___अर्थ-ज्ञानी है सो बहुत प्रकारके कर्मनिषू करे नाहीं है, वेदे नाहीं है । बहुरि कर्म के फलफूं. " पुण्यकू पापकू जाने है।
टीका-ज्ञानी है सो कर्मचेतनाकरि शुन्य है । बहुरि कर्मफलचेतनाकरि शून्य है । तिसपणाकरि स्वयं स्वतंत्र होय कर्ता नाहीं होय है । बहुरि स्वयं वेदक भी न होय है । तातें कमकू करें।
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5 नाहीं है, वेदे नाहीं है, तौ कहा है ? । ज्ञानी ज्ञानचेतनामय है, तिसपणाकरि केवल ज्ञाता ही है, तिपणात कर्मका बंध बहुरि कर्मका शुभ तथा अशुभफल ताकूं केवल जाने ही है। आगे 5 पूछे है, जो यह जानना कैसा है ? काहेतें है ? ताका उत्तर दृष्टांतपूर्वक कहे हैं। गाथा卐 दिट्ठी सपि णाणं अकारयं तह अवेदयं चैव । कम्मुदगं विज्जरं चैव ॥ १३ ॥
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जागदि य बंघम
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दृष्टिः स्वयमपि ज्ञानमकारकं यथाऽवेदकं चैत्र । जानाति च बंधमोक्षं कर्मोदयं निर्जरां चैत्र ॥ १३॥
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आत्मख्यातिः-~-यथात्र लोके दृष्टिष्ट ईयादत्यंतविभक्तत्वेन तत्करणवेदनयोरसमर्थत्वात् दृश्यं न करोति न वेदयते च 5 अन्यथाशिदर्शनात्संधुक्षणवत् स्वयं ज्वलनकरणस्य, लोहपिंडवत्स्वयमेवौष्ण्यानुभवनस्य च दुर्निवारत्वात् । किंतु केवलं दर्शनमात्रस्वभावत्वात् तत्सर्वं केवलमेच पश्यति तथा ज्ञानमपि स्वयं दृष्टा कर्मणोऽत्यंत विभक्तत्वेन निश्रयतस्तकरणवेदनयोरसमर्थत्वात्कर्म न करोति न वेदयते च । किंतु केवलं ज्ञानमात्रस्वभावत्वात्कर्मबंधं मोक्षं वा कर्मोदयं, 卐 निर्जरां वा, केवलमेव जानाति ।
अर्थ- जैसे दृष्टि कहिये नेत्र है सो देखनेयोग्य पदार्थ देखे है, तिनिका कर्ता भोक्ता नाही 卐 है। तैसें ही ज्ञान हे सो बंध, मोक्ष, कर्मका उदय, निर्जरा इनिकू जाने ही है; करनेवाला भोग-' 卐 卐 नेवला नाहीं है ।
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टीका - जेसें इस लोक में दृष्टि कहिये नेत्र है सो दृश्य कहिये देखनेयोग्य पदार्थ तिनितें अत्यंत,
भिन्नपणातेंतिनिके करने अर वेदनेकू असमर्थ है; तिसपणाकरियपदार्थ करे नही है,
5 वेदे नाहीं है । जो ऐसें न होय तो अम्मी प्रज्वलित करनेवालाकीज्यों अर लोहका पिंड अनीतें प्रज्वलित तप्तायमान होय है ताकी ज्यौं अनीके देखनेतें नेत्रकै कर्ता-भोक्तापणा अवश्य आवै तौ है ? दृष्टीका केवल दर्शनमात्र स्वभाव है । तातें तिस दृश्य केवल देखे ही है । तैसें ही
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5 ज्ञान है सो भी आप दृष्टिवत् ही है, तातें कर्मतें अत्यंतभिन्नपणातें निश्चयतें तिस कर्मका करना अर भोगना असमर्थ है. तिसपणातें कर्मकू करे नाहीं है, भोगवे नाहीं है । तौ कहा है ? केवल ज्ञानमात्रस्वभावपणात कर्म के बंध तथा मोक्षकुं तथा कर्मके उदय तथा कर्मकी निर्ज राकू केवल जाने ही है ।
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भावार्थ-ज्ञानका स्वभाव नेत्रकीज्यों दूरितें जानने का है, तातें करना भोगना ज्ञानकै नाहीं । 15 जो करना भोगना माने हैं, सो अज्ञान है । इहां कोई पूछे जो ऐसा तो केवलज्ञान है; अर जबताई मोहकर्मका उदय है तबताई तो सुखदुःखरागादिरूप परिणने ही है; अर दर्शनावरण 5 ज्ञानावरण वीर्या तरायका उदय है तहांताई अदर्शन अज्ञान असमर्थपणा होय ही है; केवल- फ्र ज्ञान पहले ज्ञाता द्रष्टा केसे कहिये ? ताका समाधान- जो पहले तो कहते ही आवे है तो स्वतंत्र 卐 tat भोगता परमार्थतें कर्ता भोक्ता कहिये हैं, सो जब मिटिया अज्ञानका अभाव 5 भया, तब परद्रव्यका स्वामीपणाका अभाव भया, तब आप ज्ञानी भया, स्वतंत्रपणे तो काहूका कर्त्ता भोक्ता होय नाहीं । अर आपकी निवलाईकरि कर्मउदयको बरजोरीकार जो कार्य होय 5 है, तातें परमार्थी मैं कर्ता भोक्ता न कहिये हैं । अर तिसके निमित्तते कछू नवीनकर्मरज 5 लागे भी है, तो ता इहां बंधमें न गणिये है । जो संसार है सो तो मिथ्यात्र है, मिथ्यास गये 5 पीछे संसारका अभाव ही होय है, समुद्र में बूंदकी कहा गणती ?
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बहुरि एता और जानना - जो केवलज्ञानी तो साक्षात् शुद्धात्मस्वरूपही है अर श्रुतज्ञानी 卐 5 भी शुद्ध व आत्मा तैसा ही अनुभव है, प्रत्यक्ष परोक्षका ही भेद है । सो याके ज्ञानद्वानकी अपेक्षा तो ज्ञातादृष्टापणा ही है, बहुरि चारित्रकी अपेक्षा प्रतिपक्षी कर्मका जेता 卐 उदय है तेता घात है; सो याका नाश करनेका उद्यम है। जब कर्मका अभाव होसी, त 15 साक्षात् यथाख्यात चारित्र होती, तब केवलज्ञानको प्राप्ती होसी । बहुरि सम्यग्दृष्टि ज्ञानी फ्र कहिये है सो मिथ्याका अभावही की अपेक्षा कहिये हैं। जो अपेक्षा न लीजिये, तौ ज्ञान सामान्य 卐
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करि तौ सर्व ही जीव ज्ञानी हैं बहुरि विशेष अपेक्षा ही लीजिये तो जहां तांई कञ्चिन्मात्र भी अज्ञान
卐 रहै, जे ज्ञानी न कया जाय, जैसे सिद्धांतमें भाव लगाये है हांता केवलज्ञान न उपजै, तेतें 5
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5 बारमा गुणस्थानताई अज्ञानभाव लगाया है
।
तातैं इहां ज्ञानी अज्ञानी कहना सम्यक्त्वभिध्याव
हकी अपेक्षा जानना | आगे जे सर्वथा एकांतके आशय आत्माकू कती हो माने हैं, तिनिक 卐
निषेधे हैं, ताकी सूचनिकाका श्लोक है ।
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अनुष्टुप्छन्दः
ये तु कर्त्तारमात्मानं पश्यन्ति तमसा तताः । सामान्यजनवत्तेषां न भोसोऽमुमुक्षताम् ॥ ७ ॥
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अर्थ - ये पुरुष अज्ञान अंधकारकरि आच्छादे हुये आत्माकू कर्ताही माने हैं, ते मोक्षकू चाहते
हैं, तौऊ तिनिकै सामान्यजन - लौकिकजनकीज्यों मोक्ष नाहीं होय है | अब इस अर्थ
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गाथाकर कहे हैं | गाथा---
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लोगस्स कुदि विणू सुरणारयतिरियमाणु से सत्ते । समणाणंपिय अप्पा जदि कुव्वदि छविहे काए ॥ १४ ॥ लोगसमणामेवं सिद्धतं पाडे ण दिस्सदि विसेसो । लोगस्स कुदि विगहू समणा अप्पओ कुणदि ॥ १५ ॥
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फ्र एवं ण कवि मुक्खो दीसइ दुगहंपि समणलोयाणं ।
णिचं कुव्वंताणं सदेव मणुआसुरे लोगे ॥ १६ ॥
लोकस्य करोति विष्णुः सुरनारकतिर्यङ्मानुषान् सवान् ।
श्रमणानामप्यात्मा यदि करोति षड्विधान् कायान् ॥१४॥
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लोकश्रमणानामेवं सिद्धांतं प्रति न दृश्यते विशेषः । लोकस्य करोति विष्णुः श्रमणानामप्यान्मा करोति ॥१५॥ एवं न कोऽपि मोक्षो दृश्यते लोकश्रमणानां द्वयेषां ।
नित्यं कुर्वतां सदैव मनुजान् सुरान् लोकान् ॥१६॥ आत्मख्याति:-ये त्वात्मानं कतारमेव पश्यंति ने लोकोत्तरिका अपि न लौकिकतामतिवर्तन्ते । लौकिकानां । ॐ परमात्मा विष्णुः सुरनारकादिकार्याणि करोति, तेषां तु स्वात्मा तानि करोति इत्यपसिद्धांतस्य समत्वात् । ततस्तेषामात्मनो नित्यक त्याभ्युपगमात्-लौकिकानामिव लोकोतरिकाणामपि नास्ति मोक्षः ।
अर्थ देव नारक सिव मनुष्यवाणी सिनि लोके तो विष्णु करे है ऐसी मान्य है। 5 बहुरि श्रमण जे यति तिनिकभी ऐसी मान्य होय, जो षट्कायके जीवनिकू आत्मा करे है। तो "लोकका अर श्रमणनिका दोऊनिका एक सिद्धांत ठहरथा, किछू विशेष न देखिये है। जातें लौकिकके विष्णा करे है, श्रमणनिके आत्मा करे है ऐसे दोऊ कतोकी माननेमें समान भये ।
ऐसें लोकके अर श्रमणनिके दोऊनिके कोईभी मोक्ष नाही देखिये है। जाते देव मनुष्य असुर ऊसहित लोकनिकू जीवनिकू नित्य दोऊ करते संते प्रवर्ते हैं, तिनिकै काहेका मोक्ष होय ? .. टीका-जे पुरुष आत्माक कर्ताही माने हैं, ते लोकोत्तरिक हैं-लोकतें दरिवर्ति बाद्य भये हैं। "तौऊ लौकिकपणाकू नाही उल्लंघि वर्ते हैं। जातें लौकिकजननिकै तौ परमात्मा विष्या सुरनारक
आदि कायनिकू करे हैं। बहुरि ते लोकवाह्य भये ऐसे मुनि तिनिके अपना आत्मा तिनि के "सुरनारक आदिकू करे हैं ऐसे अपसिद्धांत कहिये अन्यथा माननेका दोऊकै समानपणा है। जताते ते आत्माकू नित्य कर्तापणाके माननेते लौकिकजनकीज्यों लोकोत्तरिक मुनि हैं तोऊ ..लौकिकजन ही हैं, तिनिकै मोक्ष नाहीं होय है।
भावार्थ-जे आत्माकू कर्ता माने हैं ते मुनि होय तोऊ लौकिकजनसारिखेही हैं । जातें लोक
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प्रदेशकू छोडि नाहीं प्राप्त होय है । बहुरि अगभ वा शुभ स्पर्श है सो सोकू ऐसें नाहीं कहे है
जो तू मोकू स्पर्शि । बहुरि स्पर्शन इंद्रियके विषयमें आया जो स्पर्श ता. सो आत्मा भी ग्रहण के 卐 करनेकू अपना प्रदेशकू छोडि नाहीं प्राप्त होय है । बहुरि अशुभ वा शुभ द्रव्यका गुण है सो
तोकूऐसें नाहीं कहे है, जो तू मोकू जाणि । बहुरि बुद्धि के विषयमें आया जो गुण तार्क सो।। आत्मा भी ग्रहण करने अपना प्रदेशकू छोडि नाहीं प्राप्त होय है । बहुरि अशुभ वा शुभ द्रव्य है सो तोकू ऐसें नाहीं कहे हैं, जो तू मोकू जाणि । बहुरि बुद्धीके विषयमें आया जो द्रव्य"
ताकू आत्मा भी ग्रहण करने अपना प्रदेशकू छोडि नाहीं प्राप्त होय है। यह मूढ जीव है + सो ऐसे यह जाणि करि उपशमभावकू नाहीं प्राप्त होय है। अर परके ग्रहण करनेकू मन करे। है। जातें आप कल्याणरूप बुद्धि जो सम्यग्ज्ञान ताकू नाहीं प्राप्त भया है।
टीका-तहां प्रथम दृष्टांत कहे हैं। जैसे वाह्यपदार्थ घट पट आदिक हैं, सो जैसे कोई देव-... दत्तनामा पुरुष यज्ञदत्तनामा पुरुपकू हाथ पकडि कहे, तैसे दीपककू अपने प्रकाशने विर्षे नाही. प्रेरणा करै है, जो तू मोकू प्रकाशि । बहुरि दीपक है सो भी अपने स्थानककू छोडि-जैसें ।। चुंबक पाषाणकू लोहकी सूई अपना स्थानककू छोडि जाय लगैसें नाहीं जाय लगे है। तो। कहा है ? वस्तुका स्वभावके परकरि उपजावने अशक्यपणा है तथा परक उपजावनेका असमर्थपणा है। बहुरि घटपटादिक समीप नाहीं होते दीपक प्रकाशरूप है। तैसें ही तिनि ।
समीप होतें भी अपना स्वरूप ही करि प्रकाशरूप है। बहुरि अपना स्वरूप ही करि प्रकाशरूपम 卐 होता दीपककै वस्तुस्वभावहीते विचित्र परिणतो प्राप्त होता जो मनोहर अमनोहर ..
घटपटादिपदार्थ सो किंचित्मात्र भी विकियाके अर्थी नाही कलिये है। तैसा ही दाति है।। 9 जो बाह्य पदार्थ शब्द रूप, गंध, रस, स्पर्श गुण द्रव्य हैं, ते जैसें देवदत्तनामा पुरुष यज्ञदत्तनाना।
पुरुषक हाथ पकडि कहै, तैसें नाहीं कहे हैं। मोकू सुणि, मोकू देखि, मोकू सूघि, मोकू" " आस्वादि, मोकू स्पर्शि, मोकू जाणि ऐसे अपने ज्ञानकरि आत्माकू नाहीं प्रेरै हैं। बहुरि卐
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प्रदीपं प्रयोजयति । नच प्रदीपोप्ययः कांतोपलकृष्टायः सूर्चायत स्वस्थानात्मच्युत्य तं प्रकाशयितुमायाति । किं तु वस्तुस्त्र9 भावस्य परेणोत्पादयितुमशक्यत्वात् परमुत्पादयितुमशक्तत्वाच्च यथा सदसन्निधाने तथा तत्संनिधानेऽपि स्वरूपेणव प्रका'
शते । स्वरूपेणैव प्रकाशमानस्य चास्य वस्तुस्वभावादेव विचित्रां परिणतिमासादयन् कमनीशेऽकमनीयो वा छटपटादिर्न । 卐 मनोगपि विक्रियाय कल्पते । तथा बहिरर्थः शब्दो रूपं गंधो रसः पर्ची गुणद्रध्ये च देवदत्तो यज्ञदत्त मिव हस्ते गृहीत्या मां भृण मां परम मा जित मां सिम
मायालेति स्वनाने नात्मानं प्रयोजयति। नचात्माप्ययःकांतोपलकृष्टा-.. । यसूचीवन स्वस्थानात्प्रच्युत्य तान् ज्ञातुमायाति । किंतु वस्तुस्यभ यस्य परेणोत्पादयितुमशक्यत्वात् परमुत्पादयितुमशक्त+ त्वाच्च यथा तदसन्निधाने तथा तत्सन्निधानेऽपि स्वरूपेणैव जानीते। स्वरूपेण जानतश्चास्य वस्तुस्वभावादेव विचित्रां परि-..
पंतिमासादयंतः कमनीया अकमनीया वा शब्दादयो बहिरा न मनागपि विक्रियायें कल पेरन् । एवमास्मा परं प्रसि। 卐 उदासीनो नित्यमेवेति वस्तुस्थिनिः, तथापि यद्रागद्वेषौ तदज्ञानं ।
अर्थ-निंदाके अर स्तुतीके वचन हे ते बहुत प्रकार पुद्गल परिणमे है .तिनिक सुणिकरि ... का यह अज्ञानी जीव ऐसे माने है, जो मोकू कह्या; ऐसे मानि रूसे है रोस करें है तथा दोष करे है। + शब्दरूप परिणया पुद्गल द्रव्य है, सो यह पुद्गल द्रव्यका गुण है, अन्य है । ताते हे अज्ञानी जीव " तोकू तौ किछू ही न कह्या, तू अज्ञानी भया काहे• रोस करे है ? अशुभ अथवा शुभ शब्द है, फ़ सो तो ऐसें नाहीं कहे है, जो मोकू मुणि । बहुरि श्रोत्र इंद्रियक विषपमें आया जो शब्द,卐 ___ ताकू ग्रहण करनेकू अपने स्वरूपकू छोडि सो आत्मा भी नाहों प्राप्त होय है। बहुरि अशुभ + अथवा शुभ रूप है सो तोकू ऐसें नाहीं कहे है, जो तू मोकू देखि । बहुरि चक्षु इद्रियके विषयमें 5 .. आया जो रूप ताकू सो आत्मा भी ग्रहण करनेकू अपना प्रदेशनिकू छोडि नाहीं प्राप्त होय है। ..
बहरि अशुभ अथवा शुभ गंध है सो तो ऐसें नाहीं कहे है, जो तू मोकू सूधि । बहुरि घाण
इंद्रियके विषयमें आया जो गंध ताकू सो आत्मा भी ग्रहण करनेकू अपना प्रदेशकू छोडि नाही ' प्राप्त होय है। बहुरि अशुभ वा शुभ रस है सो तोकू ऐसें नाहीं कहे है, जो तू मोकू आस्वाद ।
करि । बहुरि रसन इंद्रियका विषयमें आया जो रस ताकू सो आत्मा भी ग्रहण करने अपना
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प्रदेशकू छोडि नाहीं प्राप्त होय है । बहुरि अशुभ वा शुभ स्पर्श है सो सोकू ऐसें नाहीं कहे है ... - जो तू मोकू स्पर्शि । बहुरि स्पर्शन इंद्रियके विषयमें आया जो स्पर्श ताकू सो आत्मा भी ग्रहण क 卐 करनेकू अपना प्रदेशकू छोडि नाहीं प्राप्त होय है । बहुरि अशुभ वा शुभ द्रव्यका गुण है सो..
तो ऐसें नाहीं कहे है, जो तू मोकू जाणि । बहुरि बुद्धिके विषयमें आया जो गुण ताकू सो। 卐 आत्मा भी ग्रहण करने अपना प्रदेशकू छोडि नाहीं प्राप्त होय है । वहुरि अशुभ वा शुभ
द्रव्य है सो तोकू ऐसें नाहीं कहे है, जो तू मोकू जाणि । बहुरि बुद्धीके विषयमें आया जो द्रव्य ताकू आत्मा भी ग्रहण करनेकू अपना प्रदेशकू छोडि नाहीं प्राप्त होय है । यह मूढ जीव है। सो ऐसें यहु जाणि करि उपशमभावकू नाहीं प्राप्त होय है। अर परके ग्रहण करनेकू मन करें।
है । जाते आप कल्याणरूप बुद्धि जो सम्यग्ज्ञान ताकू नाहीं प्राप्त भया है ! 卐 टीका-तहां प्रथम दृष्टांत कहे हैं । जैसे बायपदार्थ घटा पर आदिक है, सो जैसे कोई देव...
दत्तनामा पुरुष यज्ञदत्तनामा पुरुपकू हाथ पकडि कहे, तैसे दीपककू अपने प्रकाशने विर्षे नाही:
प्रेरणा करै है, जो तृ मोकप्रकाशि । बहुरि दीपक है सो भी अपने स्थानकळू छोडि-जैसे1- चुवक पापाणवू लोहकी सूई अपना स्थानक छोड़ि जाय लगैतैसें नाहीं जाय लगे है। तो।
कहा है ? वस्तुका स्वभावके परकरि उपजाबने अशक्यपणा है तथा परकू उपजाबनेका अस.. +मर्थपणा है । बहुरि घटपटादिक समीप नाही होतें दीपक प्रकाशरूप है। तैसें ही तिनिक
समीप होतें भी अपना स्वरूप ही करि प्रकाशरूप है। बहुरि अपना स्वरूप ही करि प्रकाशरूप, 卐 होता दीपकके वस्तुस्वभावहीते विचित्र परिणती प्राप्त होता जो मनोहर अमनोहर । __ घटपटादिपदार्थ सो किंचितमात्र भी विकियाक अर्थी नाही कल्पिये है। तैसा ही दार्टीत है।। 卐 जो बाह्य पदार्थ शब्द रूप, गंध, रस, स्पर्श गुण द्रव्य हैं, ते जैसे देवदत्तनामा पुरुष यज्ञदत्तनामा
पुरुषक हाथ पकडि कहै, तैसें नाहीं कहे हैं। मोकू सुणि, मोकू देखि, मोकू सघि, मोकू आस्वादि, मोकू स्पशि, मोकू जाणि ऐसें अपने ज्ञानकरि आत्माकू नाही रे हैं। बहुरि।
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ईश्वरकू कर्ता माने है तिनि मुनिनिने आस्माकू कर्ता मान्या ऐसे दोऊकी माननी समान भई । "तातें जो लौकिकजनके सो मोक्ष नाही, तैसें तिस मुनिनिके मोक्ष नहीं का होगा सो कार्य के
फलकू भोगवेहीगा जो फल भोगवेगा ताके काहेका मोक्ष ? आगे कहे हैं, जो परद्रव्यका अर ..पा ..आस्माका किछूभी संबंध नाही है, तातें कर्ताकर्मसंबंधभी नाही है, ऐसें श्लोकमें कहे हैं।
नास्ति सर्वोऽपि सम्बन्धः परद्रव्यात्मतत्त्योः। कर्तृकर्मत्यसम्बन्धाभावे सत्कता कुतः ॥८॥ म अर्थ-परद्रव्यका अर आत्मतत्त्वका सर्व ही संबंध नाही है, ऐसे कर्ताकर्मपणाका संबंधका
अभावकू होते परद्रव्यका कर्तापणा काहेते होय ? | भावार्थ-परद्रव्यका अर आत्माका किछूभी संबंध नाही, तब कर्ताकर्मसंबंध काहे होय ? '
ऐसे होते कापणा कहेकू होय ? आगै व्यवहारनयके वचनकरि कहिये हैं, जो परद्रव्य मेरा है "सो जे व्यवहारहीकू निश्चय माने हैं, ते अज्ञानत माने हैं, याकू दृष्टांत पूर्वक कहे हैं । गाथा
ववहारभासिदेण दु परदव्वं मम भणंति विदिदत्था । जाणंति णिच्छयेण दु णय इह परमाणुमित्त मम किंचि ॥१७॥ जह कोवि णरो जंपदि अह्माणं गामविसयपुररहें। गय होंति ताणि तस्स दु भणदिय मोहेण सो अप्पा ॥१८॥ एमेव मिच्छदिट्ठी णाणी णिस्संसयं हवदि एसो। जो परदव्वं मम इदि जाणतो अप्पयं कुगदि ॥१९॥ तह्मा ण मेति गच्चा दोहं एदाण कत्ति ववसाओ। परदब्वे जाणंतो जाणे जो दिहिरहिदाणं ॥२०॥
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व्यवहारभाषितेन तु परद्रव्यं मम भणंत्यविदितार्थाः जानंति निश्चयेन तु नचेह परमाणुमात्रमपि किंचित् ॥१७॥ यथा कोऽपि नरो जल्पति अस्माकं प्रामविषयपुरराष्ट्र। न च भवंति तस्य तानि तु भणति च मोहेन स आत्मा ॥१०॥ एवमेव मिथ्याइष्टिानी निस्संशयं भवत्येषः। यः परद्रव्यं ममेति जाननात्मानं करोति ॥१९॥ तस्मान्न मे इति ज्ञात्वा द्वयेषामप्येतेषां क व्यवसायं ।
परद्रव्ये जानन् जानीयाद् दृष्टिरहितानां ॥२०॥ आत्मख्याति:--अज्ञानिन एव व्यवहारविमूढा परद्रव्यं ममेदमिति पश्यंति । ज्ञानिनस्तु निश्चयप्रतिबुद्धाः परद्रव्य"कणिकामात्रमपि न ममेदमिति पश्यंति । ततो यथात्र लोके कश्चित् व्यवहारविमूढः परकीयग्रामवासी ममायं ग्राम इति
पश्यन् मिथ्यादृष्टिः। तथा शान्याप कचिद व्यवहारावभूटी भूत्वा परद्रव्य मभेदमिति पश्येत् तदा सोऽपि निस्संशयं ५ ____परद्रव्यमात्मानं कुर्वाणो मिथ्यादृष्टिरेव स्यात् । अस्तवं जानन् पुरुषः सामेव परद्रव्यं न ममेति ज्ञात्या लोकश्रममाना प्रद्वयेषामपि योऽयं परद्रव्ये कर व्यवसायः, स तेषां सम्यग्दर्शनरहितत्वादेव भवति इति सुनिश्चित जानीयान् । ' + अर्थ-अविदितार्थ कहिये नाहीं जान्या है पदार्थका स्वरूप ज्याने, ते पुरुष व्यवहार कहे "वचन लेकरि कहे हैं, जो परद्रव्य मेरा है । बहुरि जे निश्चयकार पदार्थका स्वरूप जाने हैं, ते कहे म हैं, जो परद्रव्य परमाणुमात्र भी किछू मेरा नाहीं है । व्यवहारका कहना ऐसा है जैसे कोई म __पुरुष कहे मेरा ग्राम है, मेरा देश है, मेरा नगर है, मेरा राजका देश है, तहां निश्चय विचारिये +तो ते ग्राम आदिक ताके नाहीं हैं; वह आत्मा मोहकरि मेरा मेरा कहे हैं। ऐसे ही जो ज्ञानी .. होयकार भी जो परद्रव्य परगव्य जानता संता भी कहे है जो परद्रव्य मेरा है, ऐसें आपकू।
परद्रव्यमय करे है, सो निःसंदेह मिथ्यादृष्टि होय है । तातें ज्ञानो है सो परद्रव्य मेरा नाहीं है
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ऐसें जानिकरि अर जो परद्रव्यविषै लौकिकजनकै अर मुनिनिकै जो कर्तापणाका व्यापार होय तौ ऐसें जाने, जो ए सम्यग्दर्शनकरि रहित हैं ।
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टीका - जे व्यवहारहीविषे विमूढ है ते ही अज्ञानी हैं, ते ही यह परद्रव्य मेरा है ऐसें देखे है कहे हैं। बहुरि ज्ञानी हैं ते निश्चयनयकार प्रतिबुद्ध भये हैं, ते परद्रव्यकूं कणिकामात्रकूं भी 'यह मेरा है ऐसें नाही' देखे हैं, तातें जैसें या लोकमें कोई व्यवहारविषै विमूढ परके ग्राम 卐 5 वसनेवाला कहै " यह मेरा ग्राम है" ऐसें देखतासंता मिथ्यादृष्टि कहिये । तैसें जो ज्ञानी भी कोई प्रकारकरि व्यवहारविषै विमूढ होयकरि 'यह परद्रव्य मेरा है' ऐसें देखे, तो तितकाल सो कभी परद्रव्यकूं आप करता संता मिध्याहति ही होय बातें जो तत्रकूं जानता पुरुष है, सो स - ही परद्रव्य मेरा नाही है ऐसें जानिकरि अर लौकिकजन अर भ्रमणजन इनि दोऊनिके भी जो 5R यह परद्रव्यविर्षे कर्तापणाका निश्चय है, तौ सो तिनिके सम्यग्दर्शनका रहितपणाहीतें होय है, ऐसें निश्चय जाने है।
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भावार्थ - ज्ञानी भी होय अर फेरि व्यवहारकरि मोही होय, तौ, लौकिकजन होऊ तथा 5 मुनिजन होऊ, दोऊके परद्रव्यका कर्तापणा आवे, तब मिध्यादृष्टि होय है, ऐसें ज्ञानी जाने है। इस at an hoशरूपकाव्य कहे हैं ।
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वसन्ततिलका छन्दः
एकस्य वस्तुन हान्यतरेण सार्द्ध सम्बन्ध एव सकलोऽपि यतो निषिद्धः । तत्क] कर्मघटनाऽस्ति न वस्तुभेदे पश्यन्त्वक' मुनयश्च जनाश्च तम्यम् ||६||
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अर्थ — जाकारण एकवस्तुकै अन्यवस्तुकरि सहित इस लोकमैं संबंध है, सो समस्त ही निषेध्या है; तातें जहां वस्तुभेद है तहां कर्ताकमकी प्रवृत्ति ही नाहीं है । तातें लौकिकजन भी
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भर मुनिजन भी वस्तुके तत्त्व कहिये यथार्थस्वरूप ऐसा ही देखो, जो कोई काहूका कर्ता नाहीं, ५४८ परद्रव्य परका अकर्त्ता ही श्रद्धामैं ल्यावो । आगे कहे हैं जो पुरुष ऐसा वस्तुस्वभावका नियम
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माहीं जाने है; ते अज्ञानी मये कर्मकू करे हैं, से भावकर्मके कर्ता होय हैं, ऐसें अपने भावकर्मका क कर्ता अज्ञानतें चेतन ही है, ताकी सूचनिकाका काव्य है ।
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वसन्ततिलका छन्दः
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ये तु स्वभावनिवमं कलयन्ति नेममज्ञानमममहसो बत ते बराकाः ।
कुर्वन्ति कर्म तत एव हि भावकर्म कर्त्ता स्वयं भवति चेतन एव नान्यः ॥ १० ॥
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अर्थजे पुरुष वस्तुका स्वभावका पूर्वोक्त नियमकू नाहीं जाने हैं, तिनिका आचार्य वेद
करि कहे हैं । अहो अज्ञानविषै मन भया है मह कहिये पुरुषार्थ- पराक्रमरूप तेज जिनिका ते 卐 वक कहिये रांक भये संते कर्मकूं करे हैं, ज्ञानतें छूटि गये हैं तातें दूसरी तीसरी भावकर्मका 5
आप चेतन ही कर्ता होय है, अन्य नाहीं है ।
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अज्ञानी ही है,
भावार्थ - जो अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है सो वस्तुका स्वरूपका नियम तौ जाने नाहीं अर पर5 द्रव्यका कर्ता बनै, तब आप अज्ञानरूप परिणमैं, तब अपना भावकर्मका कर्ता अन्य नाहीं है । आगे इस कथन युक्तिकरि साधै । गाथामिच्छत्ता जदि पयडी मिच्छादिठ्ठी करेदि अप्पाणं । तहमा अवेदणा दे पयडी णणु कारगो पत्ता ॥ २१ ॥
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नीचे लिखी गाथाकी आत्मख्यात संस्कृत और हिन्दी टीका उपलब्ध नहीं है इसलिये नहीं छापी गई। सम्मत्ता जदि पयडी सम्मादिठ्ठी करेदि अप्पाणं ।
तहमा अचेदणा दे पयडी गणु कारगो पत्तो ॥
सम्यक्त्वं यदि प्रकृतिः सम्यग्दृष्टिं करोत्यात्मानं ।
तस्मादचेतना ते प्रकृतिनंनु कारकः प्राप्तः ॥
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अहवा एसो जीवो पोग्गलदव्वस्स कुगदि मिच्छत्तं । तहमा पोग्गलदव्वं मिच्छादिट्ठी ण पुण जीवो ॥२२॥ अह जीवो पयडी विय पोग्गलदव्वं कुणंति मिच्छंत्तं । तहमा दोहि कयं तं दोण्णिवि भुंजंति तस्स फलं ॥२३॥ ॥ अह ण पयडी ण जीवो पोग्गलहलं रेदि पिछत्तं । तहमा पोग्गलदव्वं मिच्छत्तं तंतु ण हु मिच्छा ॥२४॥
मिथ्यात्वं यदि प्रकृतिमिथ्यादृष्टिं करोत्यात्मानं । तस्मादचेतना ते प्रकृतिर्ननु कारकः प्राप्तः ॥२१॥ अथवैषः जीवः पुद्गलद्रव्यस्य करोति मिथ्यात्वं । तस्मात्पुद्गलद्रव्यं मिथ्यादृष्टिर्न पुनर्जीवः ॥२२॥ अथ जीवः प्रकृतिरपि पुद्गलद्रव्यं कुरुते मिथ्यात्वं । तस्मात् द्वाभ्यां कृतं द्वावपि भुजाते तस्य फलं ॥२३॥ अथ न प्रकृतिर्न च जीवः पुद्गलद्रव्यं करोति मिथ्यात्वं ।
तस्मात्सुद्गलद्रव्यं मिथ्यावं तत्तु न खलु मिथ्या ॥२४॥ आरमख्याति:--जीव एवं मिथ्यात्वादिभावकर्मणः कर्ता तस्याचेतनप्रकृतिकार्यत्वे चेतनत्वानुषंगात् । स्वस्यैव 5 जीयो मिथ्यात्वादिभावकर्मणः कर्ता जोवेन पुद्गलद्रव्यस्य मिथ्यात्त्रादिभावकर्मणि क्रियमाणं पुद्गलद्रव्यस्य चेतना-1 नुषंगा । न च जीवश्व प्रकृतिश्च मिथ्यात्वादिभावकर्मणो बौ कर्तारौ जीववदचेतनायाः प्रकृतेरपि तत्फलभोगानुषंगात् । न च जीवश्च प्रतिश्च मिथ्यात्वभावकर्मणो द्वौ कर्तारौ स्वभाक्त एव पुद्गलद्रव्यस्य मिथ्यात्वादि-भावा-1 नुषंगात् । ततो जीवः कर्ता स्वस्य कर्म कार्यमिति सिद्ध ।
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अर्थ-जीवके मिथ्यात्वभाव होय है ताकू विचार है -जो निश्चयकरि यह कौन करे है? म तहां जो मिथ्यात्वनामा मोहकर्मकी प्रकृति पुदगलद्रव्य है, सो यह प्रकृति आत्माकू मिथ्याधि ॥
करे है। ऐसे मानिये तो सांख्यमतीकू कहे हैं-प्रकृति तौ तेरे मतमें अवेतन है, सो, अहो सांख्य+ मती, अचेतन प्रकृति जीवकै मिथ्यात्वभावका करनेवाला ठहरथा । सो यह बने नाहीं। अथवा "
ऐसे मानिये, जो यह जोव है सो पुद्गलद्रव्यकै मिथ्यात्वकू करे है । तो ऐसे मानै पुद्गलद्रव्यकी ।। मिथ्यादृष्टि ठहरे, जीव मिथ्यादृष्टि न ठहरे, सो यह भी बने नाहीं। अथका ऐसें मानिये जो " जीव अर प्रकृति ए दोऊ पुद्गलेद्रव्यकै मिथ्यात्वकू करे है। तो दोऊकरि किया ताका फल दोऊ .
ही भोगवै ऐसें ठहरै, सो यह भी बने नाहीं। अथवा ऐसे मानिये, जो पुद्गलद्रव्यनामा मिथ्या-" प्रवकू प्रकृति भी न करे है अर जीव भी न कर है, तो पुद्गलद्रव्य ही मिथ्यास्त्र है। सो ऐसें ॥
" मानना कहां मिथ्या झुठा नाहीं है । ताते यह सिद्ध होय है—जो मिथ्यात्वनामा जीवका भावके कर्म ताका कर्ता तौ अज्ञानी जीव है अर याके निमित्तते पुद्गल द्रव्यमें मिष्यास्वकर्मकी शक्ति) . निपजी है।
___टीका-मिथ्यात्व आदि भाव कर्म है, ताका कर्ता जोव ही है । जाते तिसकू अचेतन जो 5 .. प्रकृति, ताका कार्य मानिये तो तिस भावकर्मके भी अचेतनपणाका प्रसंग आवे है। बहुरि मिथ्यात्व,
आदि भाषकर्मका कर्ता जीव आपके ही आप है। जो जीवकरि पुद्गलद्रव्यके मिथ्यात्व आदि । - भाषकर्म किये मानिये, तौ भाषकर्म चेतन है, सो पुद्गलद्रव्यकै चेतनपणाका प्रसंग आवे है।
बहुरि जीव अर प्रकृति दोऊ ही मिथ्याव आदि भावकर्म के कर्ता नाही है, जातें प्रकृति अचेतन 卐 है, ताके भी जीवको ज्यौं ताका फल भोगनेका प्रसंग आवे है। बहुरि ये दोनू अकर्ता भी॥ ___ नाही, जातें पुद्गलद्रव्यकै अपने स्वभावहीतें मिथ्यास आदि भावका प्रसंग आवे है । तातें .. + मिथ्यात्व आदि भाषकमका जीव का है अर अपना भावकम है सो अपना कार्य है यह सिद्ध ।
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भावार्थ — भावकर्मका कर्ता जीव ही सिद्ध किया, सो इहां ऐसा जानना जो परमार्थत फ्र अन्य द्रव्य अन्यद्रव्यका भावका कर्ता नाहीं है । तातें जे चेतनके भाव हैं, तिनिका चेतन ही कर्ता होय । सो यह जीवकै अज्ञानतें मिथ्याल आदि भावरूप परिणाम हैं ते चेतन हैं, जड 卐
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5 नाहीं हैं। शुद्धनयकरि तिनिकू चिदाभास भी कहे हैं। तातें चेतनकर्मका कर्ता वेतन ही होय, 5 यह परमार्थ है। तहां अभेददृष्टिमें तौ शुद्धचेतनमात्र जीव है अर कर्मके निमित्ततें परिणमे तब फ तिनि परिणामनिकरि युक्त होय । तव परिणामपरिणामीका भेददृष्टि मैं अपने अज्ञानभाव परिणाम क हैं, तिनका कर्ता जीव ही है । अर अभेददृष्टिमें कर्ता कर्मभाव ही नाहीं है, शुद्धचेतनामात्र जीवस्तु है । या प्रकार यथार्थ समझना । जो चेतनकर्मका कर्त्ता चेतन ही है। अब इस अर्थका 5 कलशरूप काव्य कहे हैं ।
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भावार्थ --चेतनकर्म वेतनहीकै होय, पुद्गल जड हैं, ताके चेतनकर्म कैसे होय ? आगे जे 5 केई भावकर्मका भी कर्ता कर्महीकूं माने हैं, तिनिकूं समझाने कहे हैं। ताकी सूचनाका काव्य है I
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शार्दूलविक्रीडित छन्दः
कार्यत्वादकृतं न कर्म न च तज्जीवप्रकृत्यो गोरज्ञायाः प्रकृतेः स्वकार्यकभुग्भावानुषङ्गा कृतिः । नैकस्याः प्रकृतेरचिन्वलसनाज्जीवोऽस्य कर्त्ता ततो जीवस्यैव च कर्म तच्चिदनुमं ज्ञाता न तत्पुद्गलः ॥ ११ ॥ अर्थ-कर्म है सो कार्य है, तातें बिना किया होय नाहीं । बहुरि सो कर्म जीवका अर प्रकृतिका दोऊका किया नाहीं । जातें प्रकृति तौ जड है, ताके अपने अपने कार्यका फलका भोगने का प्रसंग आये है । बहुरि एक प्रकृतिकी ही कृति कहिये कार्य नाहीं है । जातें प्रकृति अचेतन है अर भावकर्म चेतन है । तातें इस भावकर्मका कर्त्ता जीव ही है। यह जीवहीका कर्म है । जातें चेतनके अनुग कहिये चेतनतें अन्वयरूप हैं-चेतनके परिणाम हैं । अर पुद्गल है सो ज्ञाता नाही है । तातें पुद्गल के नाही है ।
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स्याद्वादकर वस्तुकी मर्यादा 5
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शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः
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कर्मेव प्रवित्तर्क्य कर्तृ हतकैः क्षिप्त्वाऽऽत्मनः कर्तृतां कर्त्ताऽऽत्मैव कथञ्चिदित्यचलिता कथित श्रुतिः कोपिता । तेषामुद्धतमोहमुद्रितधियां बोधस्य संशुध्दये स्वाद्वादप्रतिबन्धलब्ध विजया वस्तुस्थितिः स्तूयते ॥ १२ ॥
फ ६ अर्थ-ई आत्मा घातक सर्वथा एकान्तवादी तिनिनें कर्महीकूं कती विचार अर आत्माके 卐
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कतीपणा दूरि करि अर यह आत्मा कथंचित् कती है ऐसें कहनेवाली निर्वाध श्रुति कहिये 5 जिनेश्वरकी वाणी है, ताकूं कोप उपजाया, ऐसे सर्वथा एकान्तवादी हैं । ते कैसे हैं ? उद्धत 卐 उत्कट तीव्र उदय भया जो मोह मिथ्यात्व ताकरि मुद्रित भई है बुद्धि जिनकी तिनिका बोध कहानी शुद्धि अर्थ वस्तुकी मर्यादा कहिये है । कैसी कहिये है? 5 स्याद्वाद के प्रतिबन्ध कहिये प्रवन्ध ताकरि पाइये है विजय कहिये निर्बंधसिद्धि जानें। भावार्थ - ई वादी सर्वथा एकान्तकरि कर्मका कर्त्ता कर्महीकूं कहे हैं। अर आत्माकू अकर्त्ता ही कहे हैं । ते आत्माका स्वरूपके घातक हैं । अर जिनवाणी हैं सो स्याद्वादकर 45 5 वस्तु निर्बाध साधे है, सो वाणी आत्माकु कथंचित् कर्त्ता कहे है, सो तिनि सर्वथा एकान्तीनिपरि वाणीका कोप है । तिनिकी बुद्धि मिथ्यात्वकरि मूदि रहे है । तिनिके मिथ्यात्वके दृरि 5 करनेकू आचार्य कहे हैं। स्याद्वादकरि जैसी वस्तुसिद्धि होय है, तेसे कहिये है । गाथा -
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कम्मेहि दु अयणाणी किज्जदि णाणी तहेव कम्मेहिं ।
कम्मेहिं सुवाविज्जदि जग्गाविज्जदि तहेव कम्महि ||२५||
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कम्मेहिं सुहाविज्जदि दुक्खाविज्जदि तहेव कम्मेहिं । कम्मेहिय मिच्छत्त गिज्जदि य असंजयं चेव ॥२६॥
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कम्मेहिं भमाडिजदि उाइढमहं चावि तिरियलोयम्मि । कम्मेहि चेव किज्जदि सुहासुहं जेत्तियं किंचि ॥२७॥ जमा कम्मं कुम्वदि कम्म देदित्ति हरदि जं किंचि । तह्मा सव्वे जीवा अकारया हुँति आवण्णा ॥२८॥ पुरुसिच्छियाहिलासी इच्छी कम्मं च पुरिसमहिलसदि । एसा आयरियपरंपरागदा एरिसी दु सुदी ॥२९॥ तहमा ण कोवि जीवो अवहनयारी दु तुम मुवदेसे । जहमा कम्मं चेवहि कम्म अहिलसदि जं भणियं ॥३०॥ जमा घादेदि परं परेण धादिज्जदेदि सापयडी। एदेणच्छण दुकिर भण्णदि परघादणामेत्ति ॥३१॥ तहमा ण कोवि जीवो उवघादगो अत्थि तुम उवदेसे । जहमा कम्मं चेवहि कम्मं घादेदि जं भणियं ॥३२॥ एवं संखुवदेसं जेदु परूविति एरिसं समणा । तेसि पयडी कुव्वदि अप्पा य अकारया सव्वे ॥३३॥ अहवा मण्णसि मज्झं अप्पा अप्पाण अप्पणो कुणदि। एसो मिच्छसहावो तुइमं एवं भणंतस्स ॥३४॥
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अप्पा णिचो असंखिज्जपदेसो देसिदो दु समयम्मि। णवि सो सक्कदि तत्तो हीणो अहियोव काहुँ जे ॥३५॥ जीवस्स जीवरूवं विच्छरदो जाण लोगमित्तं हि । तत्तो किं सो हीणो अहियोव कदं भणसि दव्वं ॥३६॥ जह जाणगोदु भावो णाणसहावण अत्थि देदि मदं। तहमा णवि अप्पा अप्पयं तु सयमप्पणो कुणदि ॥३७॥
कर्मभिस्तु अज्ञानी क्रियते ज्ञानी तथैव कर्मभिः। कर्मभिः स्वाप्यते जागयते तथैव कर्मभिः ॥२५॥ कर्मभिः सुखी क्रियते दुःखीक्रियते च कर्मभिः। कर्मभिश्च मिथ्यात्वं नीयते नीयतेऽसंयमं चैव ॥२६॥ कर्मभिर्धाम्यते ऊर्ध्ववमधश्चापि तिर्यगलोकं च। कर्मभिश्चैव क्रियते शुभाशुभं यावत्किंचित् ॥२७॥ यस्मात् कर्म करोति कर्म ददाति कर्म हरतीति किंचित् । तस्मात्तु सर्वजीवा अकारका भवत्यापन्नाः ॥२८॥ पुरुषःस्त्र्यभिलाषी स्त्रोकर्म च पुरुषमभिलषति। एषाचार्यपरंपरागतेदृशी श्रुतिः ॥२९॥ तस्मान्न कोऽपि जीवोऽब्रह्मचारी युष्माकमुपदेशे। यस्मात्कमेव हि कर्माभिलषतीति यद्भणितं ॥३०॥
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यस्माद्धति पर परेण हन्यते च सा प्रकृतिः । एतेनार्थेन भण्यते परघातं नामेति ॥३१॥ तस्मान्न कोऽपि जीव उपधातका युष्माकमुपदंश । यस्मात्कर्मेव हि कर्म हंतीति भणितं ॥३२॥ एवं सांख्योपदेशे ये तु प्ररूपयंतीदृशं श्रमणाः । तेषां प्रकृतिः करोत्यात्मानश्चाकारकाः सर्वे ॥३३॥ अथवा मन्यसे ममात्मात्मानमात्मनः करोति । एष मिथ्यास्वभावस्तवतन्मन्यमानस्य ॥३४॥ आत्मा नित्योऽसंख्येयप्रदेशो दर्शितस्तु समये । नापि स शक्यते ततो हीनोऽधिकश्च कतु यत् ॥३५॥ जीवस्य जीवस्वरूपं विस्तरतो जानीहि लोकमात्र हि। ततः स किं हीनोऽधिको वा कथं करोति द्रव्यं ॥३६॥ अथ ज्ञायकस्तु भावो ज्ञानस्वभावेन तिष्ठतीति मतं ।
तस्मानाप्यात्मात्मानं स्वयमात्मनः करोति ॥३७॥ 卐 आत्मख्याति:-कर्मेवात्मानमज्ञानिनं करोति ज्ञानावरणारख्यकमोदयमंतरेण तदनुषपत्तेः । कमैव ज्ञानिनं करोति . ज्ञानावरणाख्यकर्मक्षयोपशममंतरेण तदनुपपत्तः । कर्मव स्वापयवि निद्राख्यकर्मोदयमंतरेण तदनुपपनः । कमैव जागरपति । 卐 निद्राख्यकमोदयक्षयोपशममंतरेण तदनुफ्पत्तः । कर्मैव सुखयति सद्व दाख्यकमो दयमंतरेण तदनुपपत्तेः । कमैव दुःख.... यति असद्व दाख्यकमो दयमंतरेण तदनुपपत्तेः । कमैव मिथ्याष्टिं करोति मिथ्यात्वको दयमंतरेण तदनुपपत्तः । कर्म-"
यासंयतं करोति चारित्रमोहाख्यकमो दयमंतरेण तदनुपपत्तः । कमैवो धस्तिर्यग्लोकं भ्रमयति आनुपाख्यकमो卐 .... दयमंतरेण तदनुपपचेः अपरमपि यथावकिचिच्छुभाशुभभदं तत्वावत्सकलमपि कर्मव करोति प्रशस्ताप्रशस्तरागारूप5 को दयमंतरेण तदनुपपत्तेः । यत एवं समस्तमपि स्वतंत्रं कम करोति कर्म ददाति कर्म हरति च ततः सर्व एव जीयाः)
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नित्यमेवैकातेनाकर्तार एवेति निश्चिनुमः । किंच — श्रुतिरप्येनमर्थमाह पुर्वेदाख्यं कर्म स्त्रियमभिलपति स्त्रीवेदारूयं 5 5 कर्म पुमांसमभिलषति इति वाक्येन कर्मण एव कर्माभिलाषऋतु स्वसमर्थनेन जीवस्याब्रह्मकर्तृ स्वसमर्थनेन प्रतिषेधात् । तथा यत्परेण इंति, येन च परेशान कर्म कर्मघातक स्वसमर्थनेन जीवस्य घात- 卐 5 कर्तृत्वप्रतिषेधाच्च सर्वथैयाकतु त्वज्ञापनात् । एवमीदृशं सांख्यसमयं स्वप्रज्ञापराधेन सूत्रार्थमबुध्यमानाः केचिच्छ्रमणाभासाः रूपयंति तेषां प्रकृतेरेकांतेन कनु स्वाभ्युपगमेन सर्वेषामेव जीवानामेकांतेनाकट त्वापते:- जीवः कर्तेति कोपो दुः शक्यः 5 परिहर्त । यस्तु कर्म, आत्मनो ज्ञानादिसर्वभावान् पर्यायरूपान् करोति, आत्मा त्वात्मानमेवैकं करोति ततो जीवः 卐 कर्तेति श्रुतिकोपो न भवतीत्यभिप्रायः स मिथ्यैव । जीवो हि द्रव्यरूपेण तावन्नित्योऽसंख्येयप्रदेशो लोकपरिमाणश्च । 15 तत्र न तावन्नित्यस्य कार्यस्त्रमुपपा कृतकत्वनित्यत्वयोरेकत्वविरोधात् । न चावस्थिताऽसंख्येयप्रदेशस्यैकस्य पुद्गलस्कंप्रक्षेपणार्पणद्वारेणापि कार्यत्वं प्रदेशप्रक्षेपणाकर्षणे सति तस्यैकत्वव्याघातात् । न चापि सकललोकवस्तु卐 विस्तारपरिमित नियत निजाभोगसंग्रहस्य प्रदे उसंकोचन विकाशद्वारेण तस्य कार्यत्वं प्रदेश संकोचनिकाशयोरपि शुष्काद्र- 5 धर्मवत्प्रतिनियत निज विस्ताराद्धीनः विकस्य तस्य कर्तुमशक्यत्वात् । यस्तु वस्तुस्वभावस्य सर्वथापोढुमशक्यत्वात् शायको 15 भावो ज्ञानस्वभावेन तिष्ठति, तथा तिष्ठश्च ज्ञायककट स्वयोरत्यंतविरुद्धत्वान्मिथ्यात्वादिभावानां न कर्ता भवति । 15 भवंति च मिथ्यात्वादिभात्राः ततस्तेषां कर्मैव कर्तृ प्ररूप्यत इति वासनान्मेषः तु तु नितरामात्मानं करोतीत्यभ्युपगममुपत्येव तो ज्ञtest भावस्य सामान्यापेक्षया ज्ञानस्वभावात स्थित्वेऽपि कर्मजानां मिथ्यात्वादिभावानां ज्ञान- फ समयेऽनादिज्ञे यज्ञानशून्यत्वात् परमात्मेति जानतो विशेषापेक्षया त्वज्ञाख्यस्य ज्ञानपरिणामस्य करणात्कतु स्वमनुमंतव्यं तावद्यावतदादिज्ञेयज्ञानभेदविज्ञान पूर्णत्वादात्मानमेवात्मेति जानतो विशेशापेक्षयापि ज्ञानरूपेणैव ज्ञानपरिणामेन परि- 5 णममानस्य केवलं ज्ञातृत्वात्साक्षादस्तु त्वं स्यात् ।
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अर्थ - जीव है सो कर्मनिकर अज्ञानी कीजिये है। बहुरि तेसे ही कर्मनिकरि ज्ञानी कीजिये है। कर्म-फ्र
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5 निकरि सुत्राईये है । तैसें ही कर्मनिकरि जगाइये है । कर्मनिकरि सुखी कीजिये है । बहुरि तैसें ही 卐 कर्मेंनिकरि दुःखी कीजिये है । कर्मनिकरि मिथ्यात्व प्राप्त कीजिये है । वहुरि कर्मनिकरि असंयम प्राप्त कीजिये है । कर्मनिकर ऊर्ध्वलोकमें तथा अधोलोकमें तथा तिर्यग्लोक में भ्रमाइये है। जो किछू शुभ अशुभ है, सो कर्मनिहीकरि कीजिये है । जातैं कर्म करे है, कर्म दे है, कर्म हरि ले है,
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जो किछ कर है, सो कर्म हो कर है। तात सर्व जीव है ते अकारक प्राप्त भये-जीव का नाहीं। बहुरि यह आचार्यनिकी परंपराकरि चली आई श्रुति है, सो भी कहे हैं जो पुरुष वेदकर्म हे, सो तौस्त्रीका अभिलाषी है बहुरि स्त्रीवेदनामा कर्म है, सो पुरुषकू अभिलाषे है-चाहे है । तातें कोई ॥ - भी जीव अब्रह्मचारी नाहीं । हमारा उपदेशविर्षे ऐसा , जातें कर्म है सो हो कर्मकू अभिलाषे ..... "है चाहे है ऐसे कया है । जाते परक हणे है परकरि हणिये है सो भी प्रकृति ही है । तिस ही के अर्थकार प्रगटकरि कहिये है जो यह परघातनामा प्रकृति है। तातें हमारा उपदेशविर्षे कोई भी - - जीव उपधात करनेवाला नाहीं है। जाते कर्म है सो ही कर्मकू घाते है ऐसें कहा है। ऐसे जे ।
केई श्रमण जति ऐसा सांख्यमतका उपदेशकू प्ररूपे हैं, तिनिक प्रकृति ही करे है, आत्मा हैं तेज - सर्व ही अकारक है ऐसा आया अथवा आचार्य कहे हैं-जो आत्माका कर्तापणाका पक्ष साधनेकू "तू ऐसें मानेगा जो मेरा आत्मा है सो आपके आप... करे है ऐसे कापणाका पक्ष भी मानू ॥
हो। तो तेरा ऐसें जाननेका यह मिथ्या स्वभाव है। जातें आत्मा नित्य असंख्यातरदेशी सिद्धांत. विय कह्या है, तिसते हीन अधिक करने• समर्थ नाहीं हुजिये है। जीवका जीवरूप विस्तार अपेक्षा निश्चयकरि लोकमात्र जानू । सो ऐसा जीवद्रव्य तिस परिणामते हीन तथा अधिक कैसे करे .. है ? बहुरि ऐसें मानिये जो ज्ञायकभाव है सो ज्ञानस्वभावकरि तिष्ठे है, तो ताही हेतूतें ऐसा।
आया--जो आत्मा आपके आपकू स्वयमेव नाहीं करे है । तातें कर्तापणा साधनेकू विवक्षा पल- टिकरि पक्ष का सो बन्या नाही, तातें कर्मका कर्ता कहीकू माने तो स्याद्वादतें विरोध ही "आवेगा, तातें कथंचित् अज्ञान अवस्थामैं अपने अज्ञानभावरूप कर्मका कर्ता मानै स्याद्वादतें विरोध
नाहीं है। " टीका-तहां पूर्वपक्ष ऐसा है-जो कर्म ही आत्माकू अज्ञानी करे है, जाते ज्ञानावरण कर्मकाम 7 उदयः विना तिस अज्ञानकी अप्राप्ति है, बहुरि कर्म ही आत्माकू ज्ञानी करे है, जातें ज्ञानावरण - कर्मका क्षयोपशम विना ज्ञानकी अप्राप्ति है । बहुरि कर्म ही आत्माकू सुवाणे है, जाते निद्रानामा
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कर्मका उदय विना निद्राको अप्राप्ति है, बहुरि कर्म ही आत्माकू जगावे हैं, जातें निद्रानामा ,
कर्मका क्षयोपशम विना जागनेकी अप्राप्ति है । बहुरि कर्म ही आत्माकू सुखी करे है जाते साता''वेदनीयनामा कर्मका उदय विना सुखकी अप्राप्ति हैं । बहुरि कर्म ही आत्माकू दुःखी करे है, जाने) .२ । असातावेदनीयनामा कर्मका उदय विना दुःखकी अप्राप्ति है । बहुरि कर्म ही आत्माकू मिथ्यादृष्टि ।
करे है जातें मिथ्यावकर्मका उदय विना मिथ्यात्वको अप्राप्ति है। बहुरि कर्म ही आत्माकू असंयमी के न करे है, जातें चारित्रमोहनामा कर्मका उदय विना असंयमकी अग्राप्ति है। बहुरि कर्म ही आत्माकूर "उर्वलोकमें अधोलोकमें तिर्यंचलोकमें भ्रमावे है, जात आनुपूर्वीनामा कर्मका उदय विना भ्रमणकी। 卐 अप्राप्ति है। बहुरि और भी ज्यों क्यों जेता शुभ अशुभ है, सो तेता सर्व ही कर्म ही करे है,
जातें प्रशस्त अप्रशस्त रागनामा कर्मका उदय विना तिनि शुभाशुभको अप्राप्ति है। जाते या प्रकार
समस्तहीकू कर्म स्वतंत्र होय करे है, कर्म ही दे है, कर्म ही हरि ले है, तातें हम ऐसा निश्चय करे॥ पर हैं, जो सर्व ही जीव हैं ते नित्य ही सदा ही एकांतकरि अकर्ता ही हैं बहुरि विशेष कहिये-जो श्रुति ।। " कहिये वाणी शास्त्र भी इल हीअर्थकू कहे है, जो पुरुषवेदनामा कर्म है सोतौस्त्री• अभिलाषे हे..
चाहे है, वहुरि स्त्रीवेदनामा कर्म है सो पुरुषकू अभिलाषे है-चाहे है, ऐसे वाक्यकरि कर्मके ही
कर्मका अभिलाषका कतीपणाका समर्थनकरि जीवकै अब्रह्मचारीपणाका कापणाका प्रतिषेधते" फ़ भी कर्मही कर्तापणा आया, जीव अकर्ता ही सिद्ध भया । बहुरि से ही जो पर• हणें है, .. बहरि जो परकरि हणिये है, सो परघातनामा कम है, ऐसे वचनकरि कर्महीके कर्मका घातका भकर्तापणाका समर्थनकरि जीवकै घातका कर्तापणाका प्रतिषेधतें सर्वथा जीवकै अकर्तापणा जनाया॥ - है। या प्रकर ऐसा सांख्यका मत केई "श्रमणाभास कहिये यति नाहीं अर यतीले कहावे ते"...
अपनी बुद्धिके अपराधकरि सूत्रके अर्थ ऐसे विपरीत जानते संते सूत्रका अर्थ प्ररूपण करे हैं।" 5 ऐसा पूर्वपक्ष है।
अब आचार्य कहे हैं-जे ऐसे पक्ष करे हैं, तिनिके एकांतकरि प्रकृतिका कर्तापणा माननेकरि।
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सर्व ही जीवनिके एकांतकार अकर्तापणाकी प्राप्ति आवनेते जीव कर्ता है ऐसी जो श्रुति कहिये 卐 ■ 5 भगवन्तकी वाणी ताका कोप आवे है । सो दूर करनेकू योग्य नाहीं है । बहुरि वाणीका कोप फ दूर करनेकूं जो ऐसें कहै - जो कर्म है सो तौ आत्माके अज्ञानादि सर्व पर्यायरूप भाव हैं तिनिकं करे हैं । बहुरि आत्मा है सो एक अपने आत्माही द्रव्यरूप करे है, तातें जीव कर्ता है। ऐसा श्रुति कहिये वाणीका वचन मानिये है, तातें वाणीका कोप नाहीं होय हैं, ऐसा अभिप्राय करें तौ सो यह अभिप्राय मिथ्या है। जाते जीव है सो प्रथम तौ द्रव्यरूपकरि नित्य है, असंख्यात 卐 प्रदेशी है, लोकपरिमाण हैं, तहां नित्यका कार्यपणा वने नाहीं । जातें कृत कहिये कृत्रिम वस्तूका अर नित्यपणाका परस्पर एकपणाका विरोध है: नित्य कृत्रिम होय नाहीं । बहुरि एक आत्मा अवस्थित असंख्यात प्रदेशी हैं ताके जैसे पुद्गल के स्कंधमें परमाणु आय बैठे हैं अर निकसि जाय हैं, ताकै कार्यपणा बने है । तैसें याकै कार्यपणा नाहीं बने हैं जातें प्रदेशनिका आवना अर 卐 निकसि जाना होय तौ अवस्थित असंख्यातप्रदेशरूप एकपणाका व्याघात होय, बहुरि सकल 卐 लोकरूपी घरमात्र विस्तार परिमाण निश्चित अपना समस्तपणाका संग्रहरूप आत्माके प्रदेशनिका संकोचना अर फैलना तिस द्वारकरि भी ताके कार्यपणा बने नाहीं । जातें प्रदेशनिका संकोचना 卐 अर फैलना इनि दोऊनिकेभी सूके आले चामडेकी ज्यों नियमरूप अपना जो प्रदेशनिका विस्तार है तातें ताका हीनाधिक करनेका असमर्थपणा है । बहुरि जो ऐसे अभिप्रायमें वासना होय जो 5 वस्तुका स्वभावका सर्वथा मेटनेका असमर्थपणा है, तातें ज्ञायकभाव है सो तौ : ज्ञानस्वभावही करि 5 सदाकाल ही तिष्ठे हैं, सो तैसें तिष्ठता आत्मा मिथ्यात्वादि भावनिका कर्ता न होय है । जातें ज्ञायकपणाका अ कर्तापणाका अत्यंत विरुद्धपणा है, अर मिध्यात्व आदिभाव हैं ते होय ही हैं, 卐 . तातें तिनिका कर्ता कर्म ही है ऐसी प्ररूपणा कीजिये है। तहां आचार्य कहे हैं- ऐसी वासनाका उघडना है सो ही पहले कहा था 'जो आत्मा आत्माकूं करे है तातें कर्ता है' तिस माननेकू 5 अतिशयकरि हणे है घाते है । जाते- सदाकाल शायक मान्या तब आत्मा अकर्ता ही भया, तातें क
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हम कहे हैं ऐसा अनुमान करना — जो शायकभावकै सामान्य अपेक्षाकरि ज्ञानस्वभावरूप अबस्थितपणा होते भी कर्मतें उपजे जे मिध्यास्त्र आदि भाव, तिनिका ज्ञानका समयविषे अनादिहीतें 5 ज्ञेयका अर ज्ञानका भेदविज्ञानका शून्यपणा पर आत्मा जानता संताके विशेष अपेक्षाकरि अज्ञानस्वरूप जो ज्ञानका परिणाम, ताक करने कर्तापणा है, यह अनुमान करने योग्य है, तो क 5 कहांतांई करना ? जेतें जिस काल ज्ञेयज्ञानका भेदविज्ञानका पूर्णपणातें आत्माही आत्मा जनताकै विशेष अपेक्षाकरि भी ज्ञानरूप ही ज्ञानपरिणामकरि परिणमता संताके केवल ज्ञातापण साक्षात् कर्तापणा होय, तेतें कर्तापणा का अनुमान करना ।
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भावार्थ - केई जैन मुनि भी स्याद्वादवाणी मैं नीका न समझिकरि सर्वथा एकांतका
अभिप्राय करे तथा विवक्षा पलटिकरि कहे--जो आत्मा तौ भावकर्मका अकर्ता ही है, कर्म फ
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5 प्रकृतिका उदय है सो ही भावकर्मकू करे है । अज्ञान, ज्ञान, सोवना, जागना, सुख, दुःख, मिथ्या, असंयम च्यारी गतिमैं भ्रमण जे किछू शुभ अशुभ जेतेक भाव हैं ते सर्व कर्म करे है । 5 जीव तो अकर्ता है। ऐसा ही शास्त्रका अर्थ करें - जो वेदका उदयतें स्त्रीपुरुषका विकार होय हैं, बहुरि अपघात परघात प्रकृति उदयतें परस्पर घात प्रवतें है । ऐसा एकांतकरि जैसें सांख्यमती सर्व प्रकृतिका कार्य माने हैं पुरुष अकर्ता माने हैं, तैसे बुद्धिके दोपकरि जैन मुनीनिका भी
मानना आया । तब जैनवाणी स्याद्वाद है, तातें सर्वथा एकांत माननेवालेपरि वाणीका कोप
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अवश्य होगा । बहुरि वाणीके कोप के भयतें विवक्षा पलटिकरि कहै— जो आत्मा अपना आत्मा
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5 का कर्ता है, तातें भावकर्मका कर्ता तौ कर्म ही है अर अपना कर्ता आत्मा है, ऐसें कथंचित् 卐
कर्ता आत्मा कहते वाणीका कोप न होयगा, तो वह कहना तो मिथ्या हैं। आत्मा द्रव्यकरि
नित्य है, लोकपरिमाण असंख्यातप्रदेशी हैं । सो यामै तौ किछू नवीन करनेकू है नाहीं । नाहीं
काकूं करै अर भावकर्मरूप पर्याय हैं तिनिका कर्ता कर्म बताये तो आत्मा तो अकर्ता ही रह्या,
卐 तब वाणीका कोप कैसें मिटया ? तातैं आत्माकै कर्तापणा अर अकर्तापणाकी विवक्षा यथार्थ क
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मानना ही स्याद्वाद मानना सांचा होय है । सो ऐसा है—जो आत्माकै ज्ञायक स्वभाव तो सामान्य अपेक्षाकरि है ही, परंतु ज्ञानविशेषकी अपेक्षा आपापरका भेदविज्ञान विना परकू आत्मा जाने है, सो इस अज्ञानरूप अपना भावका कर्ता है। अर जब तिस ज्ञानविशेषकी अपेक्षा करि आपापरका भेदविज्ञान होय, तिस ही कालतें लगाय भेदविज्ञानकी पूर्णता भये आपकूं आप 5 5 जाने अर ज्ञानपरिणामकरि परिणमैं तब केवल ज्ञाता भया साक्षात् अकर्ता होय है ऐसें मानना सत्यार्थ स्याद्वादका प्ररूपण है । अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
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शार्दूलविक्रीडित छन्दः
मा कर्त्तारमी स्पृशन्तु पुरुषं सांख्या हवाप्यार्हताः कर्त्तारं कलवन्तु तं किल सदा भेदावोवादधः । 卐
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नियतं प्रत्यक्षमेनं स्वयं पश्यन्तु च्युतकर्तृभावमचलं ज्ञातारमेकं परं ||१३||
ऊर्ध्व अर्थ - आर्हत कहिये
अर्हतके भतके जैनी जन हैं ते आत्माकं सर्वथा अकती सांख्यमती
निकी ज्यौं मति मानू । तिस आत्माकूं भेदविज्ञान भये पहले कती मानू अर भेदज्ञान भये ताके फ
एक ज्ञाता ही आयें
उपरि उद्धत ज्ञानमंदिरवियें निश्चत नियमरूप कतीपणाकरि रहित निश्चल
卐
आप प्रत्यक्ष देखो।
भावार्थ - सांख्यमती पुरुषकं सर्वथा एकांतकरि अकती शुद्ध उदासीन चैतन्यमात्र माने हैं । सो ऐसें मानने पुरुषकै संसारका अभाव आवे है । अर प्रकृतिकै संसार माने तौ प्रकृति तौ जड 卐 फ है, ताकै सुखदुःख आदिका संवेदन नाहीं । ताकै काहेका संसार ? इत्यादि दोष आवे हैं । यातें सर्वथा एकांत वस्तूका स्वरूप नाहीं । तातैं ते सांख्यमती मिध्यादृष्टि हैं । तैसें जैनी भी माने हैं 卐 तौ मिथ्यादृष्टि होय हैं । तातें आचार्य उपदेश करे हैं-जो, सांख्यमतीनिकी ज्यों जैनी आत्माकुं
5 卐
सर्वथा अकती मति मानू । जहांतांई आपापरका भेदविज्ञान न होय, तहांताई तौ रागादिक अपने
चेतनरूप भावकर्मनिका कती मानू । अर भेदविज्ञान भये पीछे शुद्धविज्ञानघन समस्त कतीपणा के
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5 अभावकरि रहित एक ज्ञाता ही मानू ऐसें एक ही आत्मा के विषै कती अकती दोऊ भाव 5
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विवक्षाके वशते सिद्ध होय हैं। यह स्योद्वादमत जैनीनिका है। अर वस्तुस्वभाव ऐसा ही है। "कल्पना नाहीं है। ऐसे माने पुरुषकै संसार मोक्ष आदिकी सिद्धि है। सर्वथा एकांत माननेविर्षे फसर्व निश्चय व्यवहारका लोप होय है ऐसें जानना । आगे धौलमती क्षणिकवादी हैं, ते ऐसे माने के
हैं, जौ, की तो अन्य है अर भोक्ता अन्य है। तिनिके सर्वथा एकांत मानने में दूषण दिखावे हैं। 卐अर स्याद्वादकरि जैसे वस्तुस्वरूप कीभोक्तापणा है तैसें दिखावे हैं। तहां प्रथम ही ताकी सूचनिकाका काव्य है।
मालिनीछन्दः क्षणिकमिदमिहकः कल्पयित्वात्मतत्वं निजमनसि विधचे कनु भोक्त्रोविभेदं ।
अपहरति विमोहं तस्य नित्याभृतौद्यः स्वयमयमभिषिचंश्चिचमत्कार एव ॥१४॥ प अर्थ-एक कहिये बौद्धमती क्षणिकवादी है सो आत्मतत्त्वकू क्षणिक कल्पिकरि अर अपना 1
"मनविर्षे कती अर भोक्ताविर्षे भेद माने है। करे और है, भोगवे और है ऐसे माने है । ताका भविमोह कहिये अज्ञानकुं यह चैतन्यचमत्कार है सो ही आप दूरी करे है। कहा करता संता? ॥ _____ नित्यरूप अमृतका ओघनिकरि सिंचता संता। 卐 भावार्थ-क्षणिकवादी कतीभोक्तावि भेद माने हैं, पहिले क्षण था सो दर्जे क्षण नाहीं -ऐसें माने हैं । सो आचार्य कहे हैं। जो हम साकू कहा समझायें ? यह चैतन्य ही ताका -
अज्ञान दूरी करेगा। जो अनुभक्गोचर नित्यरूप है । पहिले क्षण आप है, सो ही दूजे क्षणमें कहे हैं। मैं पहले था, सो ही हों, ऐसा स्मरणपूर्वक प्रत्यभिज्ञान, ताकी नित्यता दिखावे हैं। इहां "बौद्धमती कहे, जो पहिले क्षण था, सोही मैं दुजे क्षण हौं, यह मानना तो अनादि अविद्यातें भ्रम - 卐है, यह मिटे तब तत्त्व सिद्ध होय, समस्त क्लेश मिटे। ताकू कहिये, जो, हे बौद्ध, ते प्रत्यभिज्ञा- + ___नकू भ्रम बताया, तो जो अनुभवगोचर है सो भ्रम ठहरथा । तो तेरा मानना क्षणिक है । सो । 卐भी अनुभवगोचर है । सो यह भी भूम ही ठहया । जाते अनुभव अपेक्षा दोऊ ही समान हैं
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जतातें सर्वथा एकांत मानना तो दोऊ ही भूम है-वस्तुस्वरूप नाहीं। हम कथंचित नित्यानित्या-4 प - मक वस्तुस्वरूप कहे हैं, सो सत्यार्थ है । आगे ऐसे ही क्षणिक माननेवालेकू युक्तिकरि निषेधे है। ..
___अनुष्टपछन्दः + यूयंशभेदतोऽत्यन्तं वृत्तिमन्नासकल्पनात् । अन्य; शानि भुक्तंऽन्यः इत्येकान्तवलास्तु मा ॥१५॥
अर्थ-वृत्त्यंश कहिये क्षणक्षणप्रति अवस्थामंद हैं, तिनिक वृत्त्यंश कहिये । तिनिके अत्यंत म कहिये सर्वथा भेद न्यारे न्यारे वस्तु माननेत वृत्तिमत् कहिये जा, अवस्था पाइये ऐसा आश्रय卐 -रूप वृत्तिमान् वस्तु, ताका नाशकी कल्पनाते ऐसे माने हैं, जो करे और है अर भौगवे और ..
है। सो आचार्य कहे हैं, जो ऐसा एकांत मति प्रकाशो। जहां अवस्थावान् पदार्थका नाश भया, 卐 तहां अवस्था कोनके आश्रय होय ? ऐसा दोऊका नाश आवे है, तब शून्यका प्रसंग होय है। - ... अब अनेकांराबूं प्रगट पारि इस क्षाणियायाळू शाट करि निषेधे हैं । गाथा
केहि चिदु पज्जयेहिं विणस्सदे णेव केहिचिदु जीवो। जमा तहमा कुब्वदि सो वा अण्णो व णेयंतो॥३७॥ केहिचिदु पज्जयहिं विणस्सदे णेव केहिचिदु जीवो। जमा तह्मा वेददि सोवा अण्णो व णेयंतो ॥३८॥ जो चेव कुणदि सो चेव वेदको जस्स एस सिद्धंतो। सो जीवो गादव्यो मिच्छादिट्ठी अणारिहिदो ॥३९॥ अण्णो करेदि अण्णो परिभुंजदि जस्स एस सीद्धंतो। सो जीवो यादवो मिच्छादिट्ठी अणारिहदो ॥४०॥
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कैश्चित्पर्यायैविनश्यति नैव कैश्चित्तु जीवः । यस्मात्तस्मात्करोति स वा अन्यो वा नेकांतः ॥३७॥ कैश्चित्पर्यायः -- विनश्यति नैव कैश्चित्तु जीवः । यस्मात्तस्माद्वेदयति स वा अन्यो वा नैकांतः ॥ ३८ ॥
य एव करोति स एव वेदको यस्यैष सिद्धांतः । स जीवो ज्ञातव्यो मिध्यादृष्टिरनार्हतः ॥३९॥ अन्यः करोत्यन्यः परिभु के वस्य एष सिद्धांतः । स जीवो ज्ञातव्यो मिथ्यादृष्टिरनार्हतः ||४०||
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आत्मख्याधिः–थवो हिं' प्रतिप्तमय संभवदगुरुलघुगुणपरिणामद्वारेण क्षणिकत्वादचलितचैतन्यान्वयगुणद्वारेण क नित्यत्वाच्च जीवः कैचित्पर्यायैर्विनश्यति कैश्चित्तु न विनश्यतीति द्विस्वभावो जीवस्वभावः । ततो य एव करोति स वेदयते स एवान्यो या करोतीति नास्त्येकांतः । एवम कांतेऽपि यस्तत्क्षण वर्तमानस्यैव परमार्थवेन वस्तुत्वमिति ववंशेऽपि वस्तुत्वमध्यास् गुनयलोमा जुसूत्र कति स्थित्वा य एवं करोति स एव न 5 वेदयते । अन्यः करोति अन्यो वेदयते इति पश्यति स मिध्यादृष्टिरेव दृष्टव्यः । क्षणिकत्वेऽपि स्यंशानां वृत्तिमartanacarरस्य टंकrत्कीर्णस्यंवांतः प्रतिभासमानत्वाद ।
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अर्थ -- जातें जीव नामा पदार्थ है सो केई पर्यायनिकरि तौ विनसे है । बहुरि केई पर्यायfreit नाहीं विनसे है । तातें सो हो जीव कर्ता होय है अथवा सो ही कर्ता न होय है, फ्र अन्य कर्ता होय है । ऐसा स्योद्वाद है-एकांत नाही है। बहुरि जातें जीव है सो केई पर्यायनिकर विनसे है बहुरि केई पर्यायनिकरि नाहीं विनसे है । तातें सो ही जीव भोगवे हैभोक्ता होय है अथवा सो हो भोक्ता न होय है, अन्य भोगवे है। ऐसा स्याद्वाद है- एकांत नाहीं है । बहुरि जाका ऐसा सिद्धांत है-मत है, जो जीव करें है, सो ही नाहीं भोगवे हैं, 卐 अन्य ही भोगवे है, सो जीव मिथ्यादृष्टि जानना, अरहंतका मतका नाही है। बहुरि जाका
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ऐसा सिद्धांत है, जो अन्य करे है अर अन्य भोगवे है, सो जीव मिथ्यादृष्टि जानना, अरहंतका पए मतका नाहीं है।
" टीका-जाते जीव है सो समयसमयप्रति संभवता अगुरुलघुगुणका परिणाम तिसका द्वार卐 करि तौ क्षणिक है। बहुरि अचलित चैतन्यका अन्वयरूप गुणकार द्वारकरि नित्य है तिसपणातें
केई पर्यायनिकरि तौ विनसे है बहुरि केई पर्यायनिकरि नाहीं विनसे है। ऐसें दोय स्वभावरूप ॐ जीवका स्वभाव है। तातें जो ही करे है सो ही भोगवे है अथवा सो ही नाहीं भोगवे है, अन्य
भोगवे है अथवा जो ही भोगवे है, सो ही करे है, अथवा अन्य करै है एकात नाहीं है। ऐसे " अनेकांत होते भी जो ऐसें माने है-जो जिस क्षणके वि वर्तमान है, ताहीके परमार्थरूप ॥ + सत्त्वकरि वस्तूपणा है । ऐसें वस्तूका अंशविर्षे वस्तूपणाका निश्चय करि अर शुद्धनयके :लोभते ___ ऋजुसुत्र नयके एकांतवि तिष्ठिकरि अर जो ही करें है सो ही न भोगवे है अन्य करे है अर अन्य 卐 भोगवे है ऐसे देखे है-श्रद्धान करे है सो जीव मिथ्यादृष्टि ही जानना । जाते वृत्त्यंश जे पर्यायरूप .. अवस्था, तिनिके क्षणिकपणा होते भी वृत्तिमान् जो चैतन्यचमत्कार, टंकोत्कीर्ण नित्यस्वरूपका । म अंतरंगविर्षे प्रतिभासमानपणा हे ।। - भावार्थ-वस्तुका स्वभाव रूप जिनवाणीमें द्रव्यपर्यायस्वरूप कहा है, सो पर्याय अपेक्षा तौ ।
वस्तु क्षणिक है, बहुरि द्रव्य अपेक्षा नित्य है ऐसा अनेकांत स्याद्वादतें सिद्ध होय है । सो जीव-जा पनामा वस्तु भी ऐसा ही द्रव्यपर्यायस्वरूप है, सो पर्याय अपेक्षाकार देखिये, तब तौ कार्यकू करै ।।
तौ और पर्याय हैं, अर भोगवे और पर्याय है। जैसे मनुष्यपर्यायमें शुभाशुभकर्म किये, ताका फल । 'देवादि पर्याय भोग्या । बहुरि द्रव्यदृष्टिकरि देखिये, तब जो करे है, सो ही भोगवे ऐसा सिद्ध होय ._ है। जैसे मनुष्यपर्यायमें जीवद्रव्य था, तिसमें शुभाशुभ कर्म किये थे अर सो ही जीव देवादि
पर्यायमें गया, तहां तिस ही जीवने अपना कियाका फल भोगया, सो ऐसें वस्तुका स्वरूप अने-' 1- कांतरूप सिद्ध होते भी जे शुद्धनयमें तौ संशय नाहीं अर शुद्धनयके लोभते वस्तूका पर्याय वर्त- ।।
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मानकालमें एक अंश था, ताहीकू वस्तु मानि ऋजुसूत्रनयका विषयका एकांत पकडि अर पेसें। माने है-जो करे है सो भोगवे नाहीं अन्य भोगवे है अर भोगवे है सो करे नाहीं अन्य करे है। सो मिथ्यादृष्टि है, अरहंतका मतका नाहीं । जाते पर्यायके क्षणिकपणा होते भी द्रव्यरूप चैतन्य चमत्कार तो अनुभवगोचर नित्य है। जैसे प्रत्यभिज्ञानकरि ऐसें जानै जो बालक अवस्थामें 5
मैं था सो ही अब तरुण अवस्थामें तथा वृद्ध अवस्थामै हौं । ऐसें जो अनुभवगोचर स्वसंवेदनमें + आवे अर जिनवाणी ऐसे ही गावे, ताकुन माने, सो ही मियादृष्टि कहावै ऐसें जानना । अब इस अर्थक कलशरूप काव्य कहे हैं।
शार्दूलविक्रीडितछन्दः आत्मानं परिशुद्धीप्सुभिरतिव्याप्ति प्रपद्यांधकैः कालोपाधियलादशुद्धिमधिको तत्रापि मत्वा परैः।
चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प प्रथकः शुद्ध सूत्रं रितरात्मा व्युज्जित एष हारवदहो निःशुत्रमुक्त क्षिभिः ॥१६॥ ॥ ___अर्थ-आत्माकू समस्तपणे शुद्ध इच्छक जे पृथुक कहिये वौद्धमतो, तिनिने तिस आत्माविर्षे ।
कालके उपाधिक बलते अधिक अशुद्धता मानिकरि अतिव्याति पायकरि अर शुद्ध ऋजसूत्रनयके + प्रेरै हुये चैतन्यकू क्षणिक कल्पिकरि आंधेनिने आत्माकू छोड्या । जातें आस्मा तो द्रव्यपर्याय-5 .. स्वरूप था, सो सर्वथा क्षणिकपर्यायस्वरूप मानि छोडि दिया, तिनिकै आत्माकी प्राप्ति न भई। 15
इहां हारका दृष्टांत है जेसे मोतीनिका हार नामा वस्तु है, सा. सूत्रवि मोती पोये हैं, ते " 卐 भिन्नभिन्न दीखे हैं । सो जे हार नामा वस्तूकू रसूत्रसहित मोतो पोये नाहीं दोखें हैं अर मोती.. ... निहीकू न्यारेन्यारे देखि ग्रहण करे हैं, तिनिकै हारकी प्राप्ति नाहीं होय है। तेसे ही जे आत्मा-1 " का एक नित्य चैतन्यभावकू नाहीं ग्रहण करे हैं अर समयसमय वर्तना परिणामरूप उपयोगकी ' प्रवृत्तीकू देखि तिसकू सदा नित्य मानि कालका उपाधीतें अशुद्धपना मानि ऐसें जाने हैं-जो॥ 1- नित्य माने कालका उपाधि लागै तब आत्माकै अशुद्धपणा आवै तब अतिव्याप्ति दूषण लागै,
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सो इस दूषणके भयतें ऋजुसूत्रनयका विषय जो शुद्ध वर्तमानसमयमान क्षणिकपणा, तिस.मात्र जमानि आत्माकू छोडि दीया ।
भावार्थ-बौद्धमती आत्माकू समस्तपणे शुद्ध माननेका इच्छक होय अर विचारी-जोआत्मा 'नित्य मानिये तो नित्यमें तो कालकी अपेक्षा आये तातें उपाधि लागै, तब बड़ी अशुद्धता आवै, 卐 .. तब अतिव्याप्ति दूषण लागे. इस भयतें शुद्ध ऋजुसूत्रनयका विषय वर्तमान समयमात्र था, कतिसमात्र क्षणिक आत्मा मान्या तब आत्मा नित्यानित्यस्वरूप द्रव्यपर्यायस्वरूप था, म जतिसका ग्रहण ताकै न भया, केवल पर्यायमात्रविर्षे आत्माकी कल्पना भई, सो सत्यार्थ आत्मा । "नाहीं ऐसें जानना । अब फेरि इस ही अर्थ के समर्थनरूप वस्तूका अनुभवन करने... काव्य 卐 कहे हैं।
शार्दूलविक्रीडितछन्दः 卐 कत्तुर्वेदयितुश्च युक्तिवशतो भेदोऽस्त्वमंदोऽपि वा कर्ता वेदपिता च मा भवतु का वस्त्वेव संचित्यतां ।
प्रोता सूत्र इवात्मनीह निपुणभेत्तुं न शक्या काचिच्चिचिन्तामणिमालिकेयम भिलोप्येका चकास्त्वेव नः ॥१७॥ 1. अर्थ-कर्ता के अर भोक्ताके युक्तिके कशतें भेद होऊ अथवा अभेद होऊ, अथवा कर्ता भोका ,
दोऊ ही मति होऊ, वस्तुहीका चिंतवन करौ । जातें निपुण जे चतुर पुरुष, तिनिकरि सूत्रवि . "पोई हुई मणीनिकी माला जैसी भेदी न जाय, तैशी आत्मावि पोई हुई चैतन्यरूप चिंतामणीकी प्रमाला है, सो कहूं ही कोई करि भेदने समर्थ न हूजिये । ऐसी यह आस्मारूपी माला समस्त
पणे एक हमारे प्रकाशरूप प्रगट हो। 卐 भावार्थ-वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक अनंतधर्मा है । ताविक विवक्षाके वशते कर्ता भोक्तापणाका ॥ ._भेद भी है। अर भेद नाहीं भी है। अर कर्त्ता भोक्ता भी काहे कहना ? केवल शुद्ध वस्तु
मात्रका असाधारण धर्म के द्वारै अनुभवन करना। ऐसे आत्मा नामा वस्तु सो असाधारण का - चैतन्यमात्रभावके द्वारै अनुभवन करते चैतन्यके परिणमनरूप पर्यायके भेदनिकी अपेक्षा कर्ता
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भोक्ताका भेद है । चिन्मात्र द्रव्य अपेक्षा भेद नाही है। ऐसे भेद अभेद होऊ तथा चिन्मात्र 卐 अनुभवनमें काहे भेद अभेद कहना ? कर्ताभोक्ता ही न कहना । वस्तुमात्र अनुभवन करना। 卐 1- जैसा मणिनिकी मालामै सूत्र मोतीनिका विवक्षात भेद है। मालामात्रग्रहण करनेमें भेदाभेद। विकल्प नाही, तैसा आत्माविर्षे चैतन्यकै द्रव्यपर्याय अपेक्षा भेदाभेद है, तोऊ आत्मवस्तुमात्र - अनुभव करतै विकल्प नाही। सो आचार्य कहे हैं-ऐसा निर्विकल्प आत्माका अनुभव हमारे
प्रकाशरूप है, ऐसा जैनीनिका वचन है। आगे इस कथन दृष्टांतकरि स्पष्ट करे हैं, ताकी । 卐 सूचनिकाकू नयविभागका काव्य कहे हैं।
रथोद्धताछन्दः व्यावहारिकरशैय केवलं कर्ट कर्म च विभिनमिष्यते ।
निश्चयेन यदि वस्तु चिन्त्यते क कर्म च सदैकमिश्यते ॥१८॥ ___ अर्थ-व्यवहारकी दृष्टिमैं तो केवल कर्ता अर कर्म भिन्न दोखे है, अर जब निश्चयकरि देखिये ॥ वस्तूकू विचारिये तव कर्ता अर कर्म सदाकाल एक ही देखिये है।
. भावार्थ-व्यवहारनय तो पर्यायाश्रित है । सो यामें तौ भेद ही दीखे । बहुरि शुद्धनिश्चयनय ।
है सो द्रव्याश्रित है। तामैं अभेद ही दीखे, तातै व्यवहारमैं तौ कर्ताकर्मका भद है। निश्चयमै ॥ - अभेद हे । आगै इस कथनकू दृष्टांतकरि गाथामें कहे हैं।
जह सिप्पिओ दु कम्मं कुम्वदि णय सोदु तम्मओ होदि।। तह जीवोवि य कम्मं कुब्वदि णय तम्मओ होदि ॥४१॥ जह सिप्पिओ दु करणेहिं कुम्वदि गय सोदु तम्मओ होदि। . तह जीवो करणेहिं कुम्वदि णय तम्मओ होदि ॥४२॥
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जह सिप्पउ करणाणि गिणदि णय सो दु तम्मओ होदि। तह जीवो करणाणि य गिणदि णय तम्मओ होदि ॥४३॥ म जह सिप्पिउ कम्मफलं भुंजदि णय सोदु तम्मओ होदि।। तह जीवो कम्मफलं भुंजदि णय सोवि तम्मओ होदि ॥४४॥ एवं ववहारस्स दु वत्तव्यं दंसणं समासेण । सुणु णिच्छयस्स वयणं परिणामकदं तु जं होदि ॥४५॥ जह सिप्पिओ दु चिट्ठ कुव्वदि हवदि य तहा अणगणो सो। तह जीवोवि य कम्म कुव्वदि हवदि य अणण्णो सो ॥४६॥ जह चिढं कुव्वंतो दु सिप्पिओ णिच्च दुक्खिो होदि। तत्तो सेय अणण्णो तह चेदठंतो दुही जीवो ॥४७॥ __ यथा शिल्पिकस्तु कर्म करोति न च स तु तन्मयो भवति । तथा जीवोऽपि च कर्म करोति न च तन्मयो भवति ॥४१॥ यथा शिल्पिकः करणः करोति न स तु तन्मयो भवति । तथा जीवः करणः करोति न च तन्मयो भवति ॥४२॥ यथा शिल्पिकस्तु करणानि गृह्णाति न स तु तन्मयो भवति । तथा जीवः करणानि च गृह्णाति न च तमन्यो भवति ॥४३॥ यथा शिल्पिकः कर्मफलं भुक्त न च स तु तन्मयो भवति । तथा जीवः कर्मफलं भुक्तेन च तन्मयो भवति ॥४४॥
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एवं व्यवहारस्य तु वक्तव्यं दर्शनं समासेन । शृणु निश्चयस्य वचनं परिणामकृतं तु यद भवति ॥४५॥ यथा शिल्पिकस्तु चेष्टां करोति भवति च तथानन्यस्तस्याः । तथा जीवोऽपि च कर्म करोति भवति चानन्यस्तस्मात् ॥४६॥ यथा पेट कुणिस्तु शिल्लिको नित्यदुःखितो भवति ।
तस्माच स्यादनन्यस्तथा चेष्टमानो दुःखो जीवः ॥४७॥ ___आत्मख्यातिः-यथा खलु शिल्ली सुवर्णकारादिः कुंडलादिपरद्रव्यपरिणामात्मकं कर्म करोति । हस्तकुट्टकादिभिः ।
परद्रव्यपरिणामात्मकः करणैः करोति । हस्तकट्टकादीनि पस्द्रव्यपरिणामात्मकानि करणानि गृहणाति। ग्रामादिपरद्रव्यप। म रिणामात्मकं कुंडलादिककर्मफलं भुक्ते नवनेकद्रव्यत्वेन ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्र-.
णव तत्र क कर्मभोक्तृभोग्यत्वव्यवहारः । तथात्मापि पुण्यपापादि पुद्गलपरिणामात्मकं कर्म करोति । कायवाङ्मनोभिः । + पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकः करणः करोति कायवाङ्मनांसि पुद्गलपरिणामात्मकारणानि गृहणाति सुखदुःखादिपुद्गलद्रव्यप-..
रिणामात्मकं पुण्यपापादिकर्मफलं भुक्तं च नवनेकद्रव्यत्वेन ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति ततो निमित्तनैमित्तिक । 卐 भावमात्रेणेव तत्र कर्तृ कर्मभोक्तभोग्यत्वव्यवहारः। यथा च स एव शिल्पी चिकोः चेष्टानुरूपमात्मपरिणामात्मक
कर्म करोति । दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मकं चेष्टानुरूपकर्मफलं भुंक्त च एकद्रव्पन्केन ततोऽनन्यत्वे सति तन्मयश्च । 卐 भवति ततः परिणामपरिणामिभावेन तव कर्तृकर्मभोक्तभोग्यत्वनिश्चयः तथात्मापि चिको चटारूपमात्मपरिणामा-1
रमकं करोति । दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मकं चेष्टारूपकर्मफलं भुंक्त च एकद्रव्यत्वेन ततोनन्यत्वे सति तन्मयश्च । ॥ भवति ततः परिणामपरिणमिभावेन तत्रैव कर्तृ कर्मभोक्तभोग्यत्वनिश्चयः ।
___ अर्थ-जैसा शिल्पी कहिये सुनार आदि कारीगर है, सो आभूषणादिक कर्मकू करे है, सो । तिस आभूषणादिकतें तन्मय नाहीं होय है। तैसा जीव भी पुद्गलकर्मकू करे है तथापि तातें 1- तन्मय नाहीं होय है। बहुरि जैसा शिल्पी थोड़ा आदि करणनितें कर्मकू करे है तथापि तिनितें..
तन्मय नाहीं होय है तैसा जीव भी मन वचन काय आदि करणनितें कर्म करे है तथापि तिनितें तन्मय नाहीं होय है। बहुरि जैसा शिल्पिक करणनिकू ग्रहण करे है तथापि तिनिते
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तन्मय नाहीं होय है । तैसा जीव भीं मन-वचन-कायरूप करणनिकू ग्रहण करे है तथापि तिनिले तन्मय नाही होय है । बहुरि जैसा शिल्पिक आभूषणादि कर्मके फलकू भोगवे है तथापि तातें 5 तन्मय नाहीं होय है । तैसा जीव भी सुखदुःख आदि कर्मके फलकूं भोगवे है तथापि तिनितें तन्मय नाहीं होय है । या प्रकार व्यवहारका दर्शन कहिये मत, सो संक्षेप कहने योग्य है अर 5 निश्चयके वचन है सो अपने परिणामनिकरि किये होय है। सो कहिये है, सो सुणु । जैसा 卐 शिल्पिक है सो अपने परिणामरूप चेष्टारूप कर्म करे है, सो शिल्पी तिस चेष्टा न्यारा नाही क है - तन्मय है। तैसा जीव भी अपना परिणामरूप चेष्टास्वरूपकर्म करे है, सो तिस चेष्टा न्यारा नाही है - तन्मय है । बहुरि जैसा शिल्पी चेष्टा करता संता निरंतर दुःखी होय है, तिस 卐 दुःख न्यारा नाही है, तातें तन्मय है । तैसा जीव भो चेष्टा करता संता दुःखी होय है ।
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टीका - जैसा निश्चयकरि शिल्पी सुवर्णकारादिक है सो कुंडल आदि परद्रव्यके परिणामस्वरूप कर्म करे है, हथोडा आदि परद्रव्यके परिणामस्वरूप करण तिनिकरि करे है, हथोडा आदि परद्रव्यके परिणामस्वरूप करण तिनिकूं ग्रहण करे है, बहुरि कुंडल आदि कर्मका फल ग्राम धन आदि परद्रव्यके परिणामस्वरूप पावे है, तिनिकू भोगवे है तथापि ते सर्व ही भिन्नभिन्न द्रव्य हैं— सो तिसतें अन्य है । तातें तिनितें तन्मय नाही होय हैं, तातें तहां निमित्त 5 नैमित्तिक भावमा करि ही तिनिके कर्ताकर्मपणाका अर भोक्ताभोग्यपणाका व्यवहार है । तैसा
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आत्मा भी पुण्यपाप आदि पुद्गलद्रव्यस्वरूप कर्म करे हैं, बहुरि काय - मन-वचन-- पुद्गलद्रव्य5 स्वरूप करणांनकरि कर्मकू करे है, बहुरि काय - वचन- मन- पुद्गलद्रव्यके परिणामस्वरूप करणनिकूं ग्रहण करे हैं, वहुरि सुखदुःख आदि पुद्गलद्रव्य के परिणामस्वरूप पुण्यपाप आदि कर्मका 5 फल भोगवे है, सो भिन्नद्रव्यपणातें तिनितें अन्य होते संते तिनितें तन्मय नाहीं होय हैं।
तातें निमित्तनैमित्तिक भावमात्रकरि ही तहां कर्ताकर्मपणा - भोक्ताभोम्यपणाका व्यवहार है ।
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बहुरि जैसा सो ही शिल्पी करनेका इच्छक भया संता अपना हस्त आदिकी चेष्टारूप अपना फ
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परिणामस्वरूप कर्म करे है, बहरि दुःखस्वरूप अपना परिणामरूप चेष्टामय कर्मके फलकू . भोगवे है, तिनि परिणामनिकू अपना एक ही द्रव्यपणाकरि अनन्य होते संते तिनितें तन्मय होय 5 है, तातें तिनिविर्षे परिणाम परिणामिभावकरि कर्ताकर्मपणाका अर भोक्ताभोग्यपणाका निश्चय :
है। तैसा आत्मा भी करनेका इच्छक भया संता अपना उपयोगकी तथा प्रदेशनिकी चेष्टारूप "अपना परिणामस्वरूप कर्म• करे है, अर दुःख है लक्षण जाका ऐसा अपने परिणामरूप चेष्टारूप कर्मका फल• भोगवे है, तिनि परिणामनिके अपना एक ही द्रव्यपणाकरि अन्यपणा न .
होता संता तिनितें तन्मय होय है । तातें तिनि परिणाम निविर्षे परिणाम परिणामी भावकरि 卐कर्ताकर्मपणाका अरभोक्ताभोग्यपणाका निश्चय है।
ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयतः स भवति नापरस्य परिणामिन एन भनेर ।
न भवति क शून्यमिह कर्म न चैकतया स्थितिरिह यस्तुनो भवतु कई तदेव ताः ॥८!! म अर्थ-ननु कहिये अहो मुनि हौ, तुम यह निश्चय करौ, जो यह प्रगटपणे परिणाम है, सो र "तौ निश्चयतें कर्म है। बहुरि सो परिणाम अपना आश्रय जो परिणारी द्रव्य, ताहोका होय है, 卐 अन्यका नाहीं होय है । जाते परिणाम हैं ते अपने अपने द्रव्यके आश्रय हैं, अन्यके परिणामका ॥ ... अन्य आश्रय होय नाहीं। बहुरि जो कर्म है, सो कर्ता विना होय नाहीं । बहारे वस्तु है सो द्रव्यकपर्यायस्वरूप है । तातें ताकी एक अवस्थारूप कूटस्थस्थिति आदि होय नाही, सर्वथा नित्यपणा :
बाधासहित है । तातें अपना परिणामरूप कर्मका आप ही कर्ता है, यह निश्चय सिद्धांत है । अब इस ही अर्थक समर्थन कलशरूप काव्य कहे हैं।
पृथ्वीछन्दः बहिलुठति यद्यपि स्फुटदनन्तशक्तिः स्वयं तथाऽप्यपरवस्तुनो विशति नान्यवस्वन्तरम् |
स्वभावनियतं यतः सकलमेव वस्त्विष्यते स्वभावचलनाकुल: किमिह मोहितः क्लिश्यते ।।१६॥ अर्थ-ययपि वस्तु है सो आप प्रकाशरूप अनंतशक्तिस्वरूप है, तथापि अन्य वस्तु है, सो
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1- अन्य वस्तुविर्षे प्रवेश नाहीं करे है, वाहरि ही लोटे है। जातें समस्त ही वस्तु अपने अपने विभाव। वि नियमरूप हैं ऐसें मानिये है। सो आचार्य कहे हैं-जो ऐसे होते भी यह जीव अपने ॥ स्वभावतें चलायमान होय, आकुल हुवा मोही भया संता, क्यों क्लेशरूप होय है।
भावार्थ-वस्तुस्वभाव तौ नियमरूप ऐसा है, जो काहू वस्तूमो कोई मिले नाहीं अर यही 卐प्राणी अपने विभावसू चलायमान होय व्याकुल-लशरूप होय है, सो यह बडा अज्ञान है। फेरि इस ही अर्थकू दृढ करनेकू कहे हैं।
रथोद्धताछन्दः वस्तु चैकमिह नान्यवस्तुनो येन तेन खलु वस्तु घस्तु तत् ।
निश्चयोऽयमपरो परस्य कः किं करोति हि वहिल उन्नपि ॥२०॥ 卐 अर्थ-जाते यालोकविर्षे एक वस्तु है सो अन्य वस्तुका नाहीं है, तिस ही कारणकरि वस्तु ._ है सो वस्तु है, ऐसे न होय तो वस्तुका वस्तुपणा न ठहरै, यह निश्चय है। ऐसे होते अन्य वस्तु
है सो अन्यवस्तुके बाहरि लोटे है, तोऊ ताका कहा करे? किछू भी न करि सके है। ___भावार्थ-वस्तूका स्वभाव तो ऐसा है, जो अन्य कोई वस्तु पलटाय न सके, तब अन्यके "अन्य कहा किया ? किछू भी न किया । जैसे चेतन बस्तुके एक क्षेत्रावगाहरूप पुद्गल तिष्ठे है, म मतौऊ चेतनकू जडकरि आपरूप तौ परिणमाय सक्या नाहीं, तब चेतनका कहा किया? किछु ..
भी न किया, यह निश्चयनयका मत है । बहुरि निमित्तनैमित्तिकभावकरि अन्य वस्तुके परिणाम . 'होय है, सो भी तिस वस्तुहीका है, अन्यका कहना व्यवहार है, सो ही कहे हैं
रथोद्धताछन्दः यत्तु वस्तु कुरुतेऽन्यवस्तुनः किञ्चनापि परिणामिनः स्वयम् ।
व्यावहारिकदृशैव तन्मतं नान्यदस्ति किमपीह निश्चयात् ॥२१॥ भ अर्थ-जो कोई वस्तु अन्यवस्तुकै किछू करे है ऐसा कहिये है सो वस्तु आप परिणामी है,卐
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अवस्थातें अन्य अवस्थारूप होना वस्तूका पयायस्वभाव है, याही परिणामी कहिये है। सो ऐसें परिणामी वस्तूकै अन्यके निमित्तते परिणाम भया ताकू कहैं, यह अन्यने कीया सो यह । व्यवहारनयकी दृष्टिकरि कहिये है । बहुरि निश्चयतें तौ अन्य किछू किया है नाहीं, परिणाम भया; सो आपहीका भया, अन्यने तौ तामें किछू भी ल्याय धरथा नाही ऐसें जानना। आगे इस निश्चयव्यवहारनयके कथनळू दृष्टांतकरि स्पष्ट कहे हैं । गाथा
जह सेटिया दु ण परस्स सेटिया सेटिया य सा होदि। तह जाणगो दु ण परस्स जाणगो जाणगो सोदु ॥४८॥ जह सेटिया दु ण परस्त सेटिया सेटिया य सा होदि। तह पस्सगो दु ण परस्स पस्सगो पस्सगो सोदु ॥४९॥ जह सेटिया दु ण परस्स सेटिया सेटिया दु सा होदि। तह संजदो दु ण परस्स संजदो संजदो सोदु ॥५०॥ जह सेटिया दु ण परस्स सेटिया सेटिया दु सा होदि । तह दसणं दुणे परस्स देसणं दंसणं तंतु ॥५१॥ एवं तु णिच्छयणयस्स भासियं णाणदंसणचरित्ते। सुणु ववहारणयस्सय वत्तव्वं से समासेण ॥५२॥ जह परदव्वं सेटदि हु सेटिया अप्पणो सहावेण । तह परदव्वं जाणदि णादा विसएण भावेण ॥५३॥
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जह परदव्वं सेटदि हु सेटिया अप्पणो सहावेण । तह परदव्वं पस्सदि जीवोवि सएण भावेण ॥५४॥ जह परदव्वं सेटदि हु सेटिया अप्पणो सहावेण । तह परदव्वं विरमदि णादावि सएण भावण ॥५५॥ जह परदव्वं सेटदि हु सेटिया अप्पणो सहावेण । तह परदव्वं सद्दहदि सम्मादिट्ठी सहावेण ॥५६॥ एसो ववहारस्स दु विणिच्छओ गाणदसणचरित्ते। मणिदो अण्णेसु वि पज्जएसु एमेव णादव्वो ॥५७॥
थथा सेटिका तु न परस्य सेटिका सेटिका च सा भवति । तथा ज्ञायकस्तु न परस्य ज्ञायको ज्ञायकः स तु ॥४८ यथा सेटिका तु न परस्य सेटिका सेटिका तु सा भवति । तथा दर्शकस्तु न परस्य दर्शको दर्शकस्तु स भवति ॥४९॥ यथा सेटिकास्तु न परस्य सेटिका सेटिका च सा भवति । तथा संयतस्तु न परस्य संयतः संयतः स तु ॥५०॥ यथा सेटिका तु न परस्य सेटिका सेटिका च सा भवति । तथा दर्शनं तु न परस्य दर्शनं दर्शनं तत्तु ॥५१॥ एवं तु निश्चयनयस्य भाषितं ज्ञानदर्शनपरित्र । शृणु व्यवहारस्य च वक्तव्यं तस्य समान ॥५२॥
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यथा परद्रव्यं सेटयति खलु सेटिकात्मनः स्वभावेन । तथा परद्रव्यं जानाति ज्ञातापि स्वकेन भावेन ॥५३॥ यथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मनः स्वभावेन । तथा परद्रव्यं पश्यति ज्ञातापि स्वकेन भावेन ॥५४॥ यथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मनः स्वभावेन । तथा परद्रव्यं विजहाति ज्ञातापि स्वकेन भावेन ॥५५॥ यथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मनः स्वभावेन । तथा परद्रव्यं श्रद्धत्ते ज्ञातापि स्वकेन भावेन ॥५६॥ एवं व्यवहारस्य तु विनिश्चयो ज्ञानदर्शनचरित्रो ।
माणितोऽवधि पर्यायेषु एवमेव ज्ञातव्यः ॥५॥ आत्मख्यातिः-सेटिकात्र तावच्छ्वेतगुणनिर्भरस्वभावं द्रव्यं तस्य तु व्यवहारेण चैत्यं कृयादिपरद्रव्यं । अथात्र - कुड्यादेः परद्रव्यमा चैत्यस्य श्वेतयित्रो सेटिका किं भवति किं न भरतीति तदुभयतत्वसंबंधी मीमांस्यते-यदि卐 - सेटिका कुड्यादेभवति तदा यस्य यद्भवति तचदेव भवति यथात्मनो ब्रानं भवदात्मैव भवतीति तत्त्वसंबंधे जीवति ..
सेटिका कुड्यादेमेवंती कुख्यादिरेव भवेत, एवं सति सेटिकायाः स्वद्रव्योच्छेदः । न च द्रव्यांतरसंक्रमस्य पूर्वमेव प्रतिषि5 छत्वाद् द्रव्यस्यास्त्युच्छेदः, ततो न भवनि सेटिका कुड्यादेः। यदि न भवति सेटिका कुड्यादेस्तहि कस्य सेटिका भवति ? .. "सेटिकाया एव सेटिका भवति । ननु कतरान्या सेटिका ? यस्याः सेटिकाभवति? न खल्लन्या सेटिका सेटिकायाः। किंतु । - स्वस्वाम्यंशावेवान्यौ । किमत्र साध्यं स्वस्याम्यंशव्यवहारेण ? न किमपि । तर्हि न कस्यापि सेटिका, सेटिका सेटिकैवेति" निश्चयः । यथा दृष्टांतस्तथायं दाष्टी तिकः । चतयितात्र ताब्द् ज्ञानगुणनिर्भरस्वभावं द्रव्यं तस्य तु व्यवहारेण जयं । पर पुद्गलादि द्रव्यं । अथात्र पुद्गलादेः परद्रस्य ज्ञेयस्य ज्ञायकाचतयिता किं भवति किं न भवतीति ? तदुभयतत्त्वसंबंधो पर
मीमांस्यते । यदि चेतयिता पुद्गलादेर्भवति तदा यस्य यद्धयचि तत्तदेव भवति यथात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवति इति ।
तत्वसंबंधे जीवति, चेतयिता पुद्गलादेर्भवन् पुद्गलादेरेव भवेत् एवं सति चेतयितुः स्वद्रव्योच्छेदः । न च द्रव्यांतरसंक्र"मस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाद् द्रव्यस्यास्त्युच्छेदः । ततो न भवति चेतयिता पुद्गलादेः । यदि न भवति चतयिता पुगला
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卐 .. देस्तहिं न घेतासिता भवति ? नेतागितुरेस चेतयिता भवति। ननु कतरोन्यश्चतयिता चेतयितुर्यस्य अंतयिता 9 भवति ? न खल्वन्यश्चेतयिता चेतयितुः, किंतु स्वस्वाम्यंशाषेयान्यौ । किमत्र साध्यं स्वस्वाम्यंशन्यवहारेण ! न किमपि ॥ तर्हि न कस्यापि ज्ञायकः । ज्ञायको ज्ञायक एवेति निश्चयः ।।
किंच सेटिकात्र तावच्छ्वेतगुणनिर्भरस्वभावं द्रव्यं तस्व तु व्यवहारेण श्वैन्यं कुड्यादि परद्रव्यं । अथात्र कुड्यादेः॥ परयरद्रभ्यस्य श्वतस्य स्वतयित्रो सेटिका किं भवति किं न भवतीति ? तदुभयतनसंबंधो मीमांस्यते। यदि सेटिका
"कुड्यादेर्भवति तदा यस्य यद् भवति ततदेव भवति यथात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवतीति तत्संबंधे जीवति सेटिका : 4. कुड्यादेभवति कुड्यादिरेव भवेत् एवं सति सेटिकायाः स्वद्रव्योच्छदः । न च द्रव्यांतरसंक्रमस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वादे
स्तुच्छेदः । तता न भवति सेटिका कुड्यादेः यदि न भवति सेटिका कुड्यादेस्तहि कस्य सेटिका भवति ? सेटिकाया जा पर एच सेटिका भवति । ननु कतरान्या सेटिका सेटिकायाः यस्याः सेटिका भवति ? न खल्वन्या सेटिका सेटिकायाः किंतु
स्पस्वाम्यशावेवान्यो । किमत्र साध्यं स्वस्थाम्यंशव्यवहारेण ? न किमपि । तर्हि न कस्यापि सेटिका, सेटिका सेटिकैवेति । निश्चयः यथायं दृष्टांतस्तथायं दा तिक:---चतवितात्र तावदर्शनगुणनिर्भरस्वभावं द्रव्यं तस्य तु व्यवहारेण दृश्यं ।।
पुदगलाद परद्रव्यं । अथात्र पुदगलादेः परद्रव्यस्य दृश्यस्य दर्शकश्चेतपिता किं भवति किं न भवतीति तदुभयवच- । 卐 संबंधो मीमांस्यते-यदि चेतयिता पुदुलादेभंगति तदा यस्य यद भवति तत्तदेव भवति सथात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवति
इति सच्चस्बंधो जीवति चेतयिता पुद्गलदेर्भवन् पुद्गलादिरंब भवेत् एवं सति चेनयितः द्रव्योच्छेदः । न च द्रव्या卐 तरसंक्रमस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्बत्दा द्रव्यस्यास्त्युच्छेदः १ ततो न भवति चेतयिता पुद्गलाः। यदि न भवति चेतयिता के
पुद्गलादेःस्तहि कस्य चेतयिता भवति ? न खवन्यश्चतयिता चेतयितुः किंतु स्वस्थाम्यंशावेवान्यौ । किमत्र साध्यं । 卐 स्वस्वाम्यंशव्यवहारेण १ न किमपि । तर्हि न कस्यापि दर्शकः, दर्शको दर्शक एवेति निश्चयः।
अपि च सेटिका तावच्छचतगुणनिर्भरस्वभावं द्रव्यं तस्य तु व्यवहारेण चैत्यं कुड्यादि परदव्यं । अपात्र कुड्यादेः 卐 परद्रव्यस्य श्वैत्यस्य श्वेतयित्रो सेटिका किं भवति किं न भवतीति ? तदुभयतत्वसंबंधो मीमांस्यते । यदि सेटिका ॥ ____ कुड्यादेर्भवति तदा यस्य यद भवति तत्तदेव भवति यथात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवति इति तत्वसंबंधे जीवति सेटिका .... 卐कुड्यादेर्भवती कुड्यादिरेव भवेत् । एवं सति सेटिकायाः स्वद्रव्योच्छेदः । न च द्रव्यांतरसंक्रमस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाद् 5 - द्रव्यस्यास्त्युच्छेदः ? सतो न भवति सेटिका कुड्यादेः । यदि न भवति सेटिका कुड्यादेस्तहि कस्य सेटिका भवति ? .. + सेटिकाया एक सेटिका भवति। ननु कतरान्या सेटिना सेटिकाया यस्याः सेटिका भवति ? न सल्वन्या सेटिका सेटिकायाः का
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। किंतु म्वस्वाम्यंशावेवान्यौ । किमत्र साध्यं स्वस्त्राम्यंशव्यवहारेण ! न किमपि तहि न कस्यापि सेटिका, सेटिका ।।
सेटिकैवेति निश्चयः । यथा दृष्टांतस्तथा दार्टी तिकः-चेतयितात्र तावन शानदर्शनगुणनिर्भरपरापोहनात्मकस्यभावं द्रव्यं । तस्य तु व्यवहारेणापोद्य पुदगलादिपरद्रव्यं । अथात्र पदलादेः परद्रश्यस्यापोद्यस्यापोहकः किं भवति किं न "भवतीति ? तभयतत्संबंधी मीमांस्यते । यदि घेतयिता पुदगलादेर्भवति तदा यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति यथा ॥ मनो ज्ञानं भवदान्मैव भवति इति नत्त्यसंबंध जीवति चतयिता पुदगलादेर्भवन् पुद्गलादिरेव भवेत् । एवं सति -
चेतयितुः स्वद्रव्यच्छेदः । न च द्रव्यांतरसंक्रमस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाद् द्रव्यस्यास्त्युच्छेदः । ततो न भवति चेतयिता " प्रपद्गलादेः । यदि न भवति नतापिता पुदगलादेस्तहि आप नेतागिता भवति ! चंतयितुरेव चतयिता भवति । ननु ।
"कतरोऽन्यश्वेतयिता चेतयितुर्यस्य गोतयिता भवति ? न खल्वन्यश्चेतयिता तयितुः किंतु स्वस्वाम्यंशावेवान्यौ । भकिमत्र साध्यं स्वस्वाम्यंशव्यवहारेण ? न किमपि । तर्हि न कस्याप्यपोहकः, अपोहकोऽपोहक एवेति निश्चयः ।
यथा च सेब सेटिका संतगुणनिर्भरस्वभाषा स्वयं कुड्यादिपरद्रव्यस्वभावेनापरिणममाना कुड्यादिपरद्रव्यानिमित्तकेपनात्मनः खतगणनिर्भरस्वभावस्य परिणामेनोत्पधमानमात्मस्वभावेन श्वेतयतीति व्यवढियते तथा कोतयितापि ज्ञानगुण-
निर्भरस्वभावः स्वयं पुद्गलादिपरद्रव्यस्वभावेनापरिणममानः पुद्गलादिपरद्रव्यं चात्मस्वभावेनापरिणमयन् पुद्गलादिपर卐द्रव्यनिमिसकेनात्मनो ज्ञानगुणनिर्भरम्वभावम्य परिणामेनोत्पधमानः पुनलादिपरद्रव्यं यतृनिमितकेनात्मनः +
म्यभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेन जानातीति व्यवड़ियते । 卐 किंच यथा च सेटिका श्वेतगुणनिर्भरस्वभावा स्वयं कुड्यादिपरद्रव्यस्वभावेनापरिगममाना कुड्यादिपरद्रव्यं चात्म- ' ___ स्वभावेनापरिणमयंती कुड्यादिपरदन्यनिमित्तकेनात्मनः श्वेतगुणनिमेरस्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमाना कुड्यादिपरद्रव्यं 卐सटिकानिमित्तकेनात्मनः स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेन श्वेतयतीति व्यावाहियते । तथा चेतायितापिऊ
दर्शनगुणनिभरस्वभावः स्वयं पुद्गलादिपरश्यस्वभावेनापरिणाममानः पुद्गलादिपरद्रयं चात्मस्वभावेनापरिणमयन् ... पुद्गलादिपरद्रव्यानिमित्तकेनात्मनो दर्शनगुणनिर्भरस्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानः पुत्गलादिपरद्रन्यं चेतयितृनिमिन_केनात्मनो दर्शनगुणनिर्भरस्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेन पश्यतीति व्यवडियते । 卐 अपि च यथा च सैव संटिका श्वेतगुणनिर्भरस्वभावा स्वयं कुड यादिपरद्रन्यस्वभावेनापरिणममाना कुड यादिपर- " .-द्रव्यं चात्मस्वभावेनापरिणमयन्ती कुड मादिपरदन्यनिमिषनात्मनः श्वेतगुणनिर्भरस्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमाना 45
कुडपादिपरद्रव्य सेटिकानिमिसकैनात्मनः स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेन श्वेतयतीनि न्याहियते ।
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________________ 卐 तथा मोतपित्तापि ज्ञानदर्शनगुणनिर्भरपरापाहनात्मकस्वभावः स्वयं पुद्गलादिपरद्रव्यस्वभाषेनापरिणममानः पुगलादि द्रव्यं चात्मस्वभावेनापरिणमयन् पुद्गलादिपरद्रव्यनिमित्तकेनात्मनो ज्ञानदर्शनगुणनिर्भरपरपोहनात्मकस्वभावस्य " 卐 परिणामेनोत्पद्यमानः पुद्गलादिपरद्रव्यं चतयिनिमित्त केनात्मनः स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वमायेना२३ - पोइतीति व्यवहियते / एवमयमात्मनो ज्ञानदर्शनचरित्रपर्यायाणां निश्चयव्यवहारप्रकारः / एवमेवान्येषां सर्वेषामपि / 卐 पर्यायाणां दृएव्यः / अर्थ-जैसी सेटिका कहिये सुपेदी करनेकी कली तथा खडी पांडु ऐसा द्रव्य है, सो, पर जो " ॐ भीति आदि ताकी सुपेद करनेवालो है / याते सेदिका नाहीं है, सेटिका है सो आप ही सेटिका है। तैसा ज्ञायक कहिये जाननेवाला है सो परद्रव्यका जाननेवाला है / याते ज्ञायक नाही है, "आप ही ज्ञायक है। बहुरि जैसी सेटिका है सो परकी सेटिका नाहीं है, सो आप ही सेटिका 卐 + है। तैसा दर्शक कहिये देखनेवाला है, सो परका देखनेवाला है। यातें देखनेवाला नाही है, आप .. ही देखनेवाला है / बहुरि जैसी सेटिका है सो परकी सेटिका नाही है, आप हो सेटिका है तैसा + 卐 संयत है, सो परकू त्यागे है / यातें संयत नाही है, आप ही संयत है बहुरि जैसी सेटिका है, सो.. .. परकी नाही है, सेटिका आप ही सेटिका है / तैसा दर्शन कहिये श्रद्धान है, सो परका श्रद्धानतें / श्रद्धान नाहीं है आप ही श्रद्धान है / ऐसा दर्शन-ज्ञान-चारित्रवि निश्चयनयका भाषित है1. कझा वचन है / बहुरि तिस व्यवहारका वक्तव्य है, सो संक्षेपकरि कहिये है, सो सुण-जैसी सेटिका अपने स्वभावकरि परद्रव्य जो भीति आदि तिनिकू सुपेद करे है, तैसा ज्ञाता कहिये // प जाननेवाला है सो परद्रव्य... अपना स्वभावकरि जाने है। बहुरि जैसी सेटिका अपने स्वभाव- ... करि परद्रव्यकू सुपेद करे है, तेता ज्ञाता है सो अपने स्वभावकरि परद्रव्यकू देखे है। बहुरि , जैसी सेटिका है, सो अपने स्वभावकरि परद्रव्यकू सुपेद करे है, तैसा ज्ञाता भी अपने स्वभाव करि परद्रव्यकू त्यागे है / बहुरि जैसी सेटिका है सो परद्रव्यर्फे अपने स्वभावकरि सुपेद करे है, " के तैसा ज्ञाता भी अपने स्वभावकरि परद्रव्य... श्रद्धे है। ऐसा जो दर्शनज्ञानचारित्रविर्षे व्यवहारका ... विशेषकरि निश्चय कया है, सो ही अन्य पर्यायनिविर्षे भी ऐसा ही जानना / $ 5 乐乐 乐乐 乐 五牙 牙 卐卐म 5
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कहे हैं - इस लोकवि सेटिका है सो श्वेतगुणकरि भरथा द्रव्य है, 5 ताकू लोक कली खडी पांडू इत्यादि कहे हैं। ताकै व्यवहारकरि श्वेत करनेयोग्य मंदिर कुटी 5 भिती आदि परद्रव्य हैं । अब इहां सेटिकाकै अर परद्रव्यकै दोऊके परमार्थकरि संबंध कहा है ? सो विचारिये हैं । श्वेत करनेयोग्य कुटी आदि परद्रव्य है, ताकी श्वेश करनेवाली लेटिका किछु है कि नाहीं है ? जो ऐसें मानिये, जो सेटिका कुटयादि परद्रव्यकी है, तौ ऐसा न्याय है-जो 卐 15 जाका जो होय, सो तिसस्वरूप ही होय । जैसें आत्माका ज्ञान होता संता आत्मा ही स्वरूप है | ऐसा परमार्थरूप तत्त्वसंबंधी जीवता विद्यमान होते, सेटिका कुटी आविकी होती संती कुटी 5 आदिका स्वरूप होय - तिसतें न्यारा द्रव्य न होय । ऐसें होते संते सेटिकाका निजद्रव्यका तौ उच्छेद होय - अभाव होय, कुटी आदिक ही एकद्रव्य ठहरै । सौ दूसरा द्रव्यका उच्छेद नाहीं 5 है । जातैं द्रव्यका अन्यद्रव्य होना तो पहले ही प्रतिषेधरूप कहि आये हैं, अन्य द्रव्यका पलटि करि अन्य द्रव्य होय नाहीं । तातें यह निश्चय भया - जो सेटिका कुटी आदि परद्रव्यकी फ नाहीं है ।
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इहां पूछे है सो सेटिका कुटी आदिकी नाहीं है, तो कौनकी सेटिका है ? ताका उत्तरजो सेटिका सेटिकाही की है। तहां फेरि पूछे है जो वह अन्यसेटिका कौनसी है ? जिस सेटिकाकी यह सेटिका है। ताका उत्तर - जो सेटिकातें अन्य दूजा सेटिका तौ नाहीं है । तौ कहा है ? afare स्वस्वामिभाव है। सो ये अंश हैं, तिनिकै अन्यपणा है । तहां कहे हैं जो इहां निश्चय 5
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हारकरि ज्ञेय कहिये जानने योग्य पुद्गल आदिक परद्रव्य है, सो इहां तिस आत्माका अर
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卐 पुद्गल आदि परद्रव्य दोऊका परमार्थ तत्त्वरूप संबंध विचारिये है जो पुद्गल आदि परद्रव्य हैं, तिनका चेतयिता आत्मा है की नाही है ? तहां जो ऐसें मानिये - वेतयिता आत्मा पुद्गल आदि परद्रव्यका है, तो यह न्याय है--जाका जो होय सो वह सो ही है- अन्य नाहीं है । ऐसें 5 आत्माका ज्ञान होता संता आत्मा ही है, ज्ञान कछू न्यारा द्रव्य नाहीं है, ऐसा परमार्थरूप तत्त्वसंबंध जीवता विद्यमान होतें, आत्मा पुद्गलादिका होता संता, पुद्गलादिक ही होय, ऐसें फ होतें आत्माका स्वद्रव्यका उच्छेद होय--अभाव होय, पुद्गलद्रव्य ही ठहरे, आत्मा न्यारा द्रव्य न 5 ठहरे सो ऐसे होय नाही, दूव्यका उच्छेद होय नाही । जातें अन्यद्रव्यकी पलटिकारी अन्यद्रव्य होनेका प्रतिषेधही कही आये हैं । ता चेतयिता आत्मा पुद्गलादिक परदूव्यका नाहीं 5 होय है। तहां पूछे है - जो चेतयिता आत्मा बुद्गलादि परद्रव्यका नाहीं है, तौ कौनका है ? ताका उत्तर - जो चेतयिताहीका चेतयिता है। तहां फोर पूछे है - जो वह दूसरा चेतयिता कौन सा 15 फ है ? जाका यह चेतयिता है। ताका उत्तर - जो चतयितातें अन्य दूजा चेतयिता तौनाही है। तो कहा है ? तहां कहे हैं जो स्वस्वामि अंश हैं ते अन्य कहिये हैं। तहां कहे हैं, इहां निश्चय फ 15 नयविषै स्वस्वामि अंशका व्यवहारकरि कहा साध्य है ? किछू भी नाहीं । तातें यह ठहरी - जो 卐 ज्ञायक है सो निश्चयकरि अन्य काहूका नाही है, ज्ञायक है सो आप ही ज्ञायक है ऐसा निश्चय है। अब जैसा ज्ञायक दृष्टांतदा तकरि का, तेसा ही दर्शककूं कहे हैं। तहां सेटिका है सो प्रथम तौ श्वेतगुणकरि भरया है स्वभाव जाका ऐसा द्रव्य है । ताकै व्यवहारकरि श्वेत करनेयोग्य कुटी आदि परद्रव्य है । सो सेटिका अर कुटी आदि परद्रव्यका इहां दोऊका परमार्थ- फ्र तत्वरूप संबंध विचारिये है । जो श्वेत करनेयोग्य कुटि आदि परद्रव्यके श्वेत करनेवाली सेटिका है कि नहीं है ? तहां जो टिका कुटयादिककी है ऐसें मानिये तो यह न्याय है—जाका जो होय सो वह ही है अन्य नाहीं । जैसा आत्माका ज्ञान होता संता आत्मा ही है। ऐसा परमार्थरूप 卐 संबंध' जीवता विद्यमान होता सेटिका कुटी आविकी होती संती कुटी आदिक ही होय । 卐
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卐 एसे होते सेटिकाका स्वद्रव्यका उच्छेद होय, सो द्रव्यका उच्छेद होय नाहीं, जातें द्रव्यका अन्य- 1 - द्रव्य पलटिकरि होनेका पहले ही निषेध करि आये हैं । तातें सेटिका कुटी आदिककी नाहीं है।
इहां पृछे है जो सेटिका कुटयादिकी नाही है, तो कौनकी है ? ताका उत्तर-जो सेटिका 15 सेटिकाहीकी है। फेरि पूछे है, वह दूजी सेटिका कौन सी है ? जाकी यह सेटिका है। ताका
" उत्तर-जा अन्य दूजी सेटिका तो नाही है, बाकी यह मेटिका होय । तो कहा है ? स्वस्वामि 9 अंश ही अन्य है। तहां कहे हैं, इहां निश्चयनयविर्षे स्वस्वामिअंशके व्यवहारकरि कहा साध्य है ?
किछू भी नाही तो यह ठहरी-जो सेटिका काहूकी भी नाही, सेटिका है सो सेटिका ही , 卐 है, ऐसा निश्चय है। जैसा यह दृष्टांत है, तैसा यह दाटी तिक है । जो इहां चेतयिता आत्मा ।
प्रथम ही दर्शनगुणकरि भरथा है स्वभाव जाका ऐसा द्रव्य है, ताकै व्यवहारकरि देखनेयोग्य , + पुद्गल आदि परद्रव्य है।
अब इला दोऊका परमार्थभूत तत्वरूप संबंध विचारिये है । जो पुद्गल आदि परद्रव्य है' ताका चेतायता है कि नाहीं है ? जो चेतयिता पुद्गल द्रव्यादिका है ऐसे मानिये तो यह न्याय है जो जाका होय, सो वह सो ही है, अन्य नाही है। जैसें आत्माका ज्ञान होता संता॥
आत्मा ही है ज्ञान न्यारा द्रव्य नाहीं है, ऐसा तत्त्वसंबंध• जीवता विद्यमान होते चैतयिता 卐 पुद्गल आदिका होता संता पुद्गल आदिक ही होय, न्यारा द्रव्य न होय । ऐसें होतें चेतयिताका
स्वद्रव्यका उच्छेद होय-नाश होय । सो व्यका उच्छेद होय नाहीं । जाते अन्य द्रव्यका पलटि-15 करि अन्यद्रव्य होनेका पहिलै ही निषेधकार आये है । तातै यह ठहरी, जो चेतयिता पुद्गलद्रव्य । आदिका नाही है, तहां पूछे है जो चेतयिता पुद्गलद्रव्य आदिकका नाही है तो कौनका हैं ?' ताका उत्तर--जो चेतयिताका ही चेतयिता है । फेरि पूछे है, वह दूजा चेतयिता कौन सा. +है ? जाका यह चेतयिता होय है, ताका उत्तर-जो चेतयितातें अन्य तौ चेतयिता नाही है।卐
तो कहा है ? स्वस्वामि अंश ही अन्य है। तहां कहे है, इहां निश्चयनयवियें स्वस्वामि अंशका व्यव
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हारकरि कहा साध्य है ? किछू भी नाही तो यह ठहरी, जो चेतयितो कोईका भी दर्शक नाही" । नमय दर्शक है सो दर्शक ही है । इहां निश्चयनयविषै स्वस्वामि अंशका व्यवहारकरि कहा साध्य है ? फ किछू भी नाही यह निश्चय है ।
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"अब तैसें ही चारित्रकूं कहे हैं। तहां जैसी सेटिका है, सो प्रथम ही श्वेतगुणकरि भरथा स्वभाव जाका द्रव्य है । ताकै व्यवहारकरि श्वेत करने योग्य कुटी आदि परद्रव्य है । अब यहां दोऊ परमार्थकरि संबंध विचारिये है । श्वेत करने योग्य कुटी आदि परद्रव्य है ताकी 5 श्वेत करनेवाली सेटिका है कि नाही है ? तहां जो सेटिका कुटी आदिकी है, ऐसें मानिये तौ यह न्याय है, जो जाका होय सो वह सो ही है, अन्य नाहीं है । जैसा आत्माका ज्ञान होता संता आत्मा ही है, अन्य न्यारा दूव्य नाहीं है, ऐसा परमार्थरूप तस्वसंबंधकूं जीवता विद्यमान 5 होतें सेटिका कुटी आदिकी होती सती कुटी आदि ही होय, ऐसें होतें सेटिकाका स्वद्रव्यका उच्छेद होय, सो व्यका उच्छेद होय नाही । जातै अन्य दूव्यका पलटिकरि अन्यद्रव्य होनेका
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पहिले प्रतिषेध कर आये हैं, तातें सेटिका कुटयादिककी नाही है। तहां पूछे है, जो कुटया
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दिकी नाही है तो कौनकी सेटिका है ? ताका उत्तर-सेटिकाही की सेंटिका है । फेरि पूछे हैं,
5 वह दूजी सेटिका कौनसी है ? जाकी यह सेटिका है। ताका उत्तर- जो इस सेटिकातें अन्य फ सेटिका तौ नाही है । तौ कहा है ? स्वास्वामि अंश हैं, ते ही अन्य हैं। तहां कहे हैं -स्वस्वामि5 अंशकर निश्चयनयविषै कहा साध्य है ? किछू भी नाहीं । तो यह ठहरी जो सेटिका अन्य arght भी नाही है, सेटिका है सो सेटिका ही है ऐसा निश्चय है। जैसा यह दृष्टांत है, तैसा दातिक अर्थ है, जो चेतयिता आत्मा है, सो प्रथमही ज्ञानदर्शनगुणकरि भरघा परका त्याग- 卐 रूप है स्वभाव जाका ऐसा द्रव्य है, ताकै व्यहारकरि त्यागने योग्य पुद्गल आदि परदूव्य हैं। अब इहां दोऊकै परमार्थतत्त्वरूप संबंध विचारिये है, जो त्यागने योग्य जो पुद्गल आदि 5 परद्रव्य, ताका त्यागनेवाला चेतयिता है कि नाही है ? जो चेतयिता पुद्गल आदि परद्रव्यका
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होता संता आत्मा ही है अन्य न्यारा व्य नाहीं ऐसा तत्वसंबंध जीवता विद्यमान होते चेत-भ 1- यिता पुद्गल आदिका होता संता पुद्गल आदिक ही होय । ऐसे होते चेतयिताका स्वद्रव्यका - उच्छेद होय. सो दुव्यका उच्छेद होय नाहीं । जातें अन्य व्यका पलटिकरि अन्य दव्य होनेका卐 म प्रतिध पहले ही कहि करि आये हैं। ताते चेतयिता पुद्गलादिकका न होय है। इहां पूछे ..
हैं-जो लोतविता पुदगल आधिकार नाहीं है, तो कौनका चेतयिता है ? ताका उत्तर-जो चेतायः 5 ताका ही चेतयिता है। तहां फेरि पूछे हैं, वह दूजा चेतयिता कौनसा है ? जाका यह चेतयिता ।। .. है। ताका उत्तर-जो चेतयितातें अन्य शेतयिता तौ नाहीं है। तो कहा है ? स्वस्वामि अंश हो । 5 अन्य है । तहां कहे हैं-इहां निश्चयनयविः स्वस्वामि अंशका व्यवहारकरि कहा साध्य है ? किछू 15 E भी नाहीं । तो यह ठहरी-जो त्यागनेवाला अपोहक है सो काहूका ही अपोहक नाही', अपो
हक है सो अपोहक ही है ऐसा निश्चय है । 卐 अब व्यवहारकू कहै हैं-जैसे सो ही सेंटिका श्वेतगुणकरि भरथा है स्वभाव जाका सो आप
कुटी आदि परद्रव्यके स्वभावकरि न पारेणापती संती बहुरि कुट्यादिक परद्रव्य... आपके स्वभाव करि नाहीं परिणमावती संतो कुट्यादि परद्रव्य है निमित्त जाकू ऐसा अपना श्वेतगुणकरि भरथा , स्वभावका परिणामकरि उपजती संतो कुट्यादि परद्रव्यर्फ आपके स्वभावकरि सुफेद करे है । कैसा"
है परद्रव्य ? सेटिका है निमित्त जाकू ऐसा अपना स्वभावका परिणामकरि उपजता संता है, ताकुंभ - श्वेत करे है, ऐसा व्यवहार कीजिये हैं । तैसे घेतयिता आत्मा भी ज्ञानगुणकरि भरथा है स्वभाव " जाका ऐसा है । सो स्वयं आप तो पुद्गलादि परद्रव्यके स्वभावकरि न परिणमता संता है । अर) 卐 पुद्गल आदि परदव्यकू आपके स्वभावकरि नाहीं परिणमावता संता है। बहुरि पुद्गल आदे..
परद्रव्य है निमित्त जाकू ऐसा अपना ज्ञानगुणकरि भरचा स्वभाव ताका परिणामकरि उपजता ॥ 卐 संता है, सो पुद्गलादि परद्रव्य चेतयिता जाकू निमित ऐसा अपना स्वभावका परिणामकरित
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1 उपजता संता है, ताकू अपने स्वभावकरि जाने है, ऐसा व्यवहार कोजिये है। ऐसा तो ज्ञानका प卐 व्यवहार है।
बहुरि दर्शनगुणका व्यवहार कहे हैं-जैसे सोही सेटिका श्वेतगुणकरि भरथा है स्वभाव । मजाका ऐसा है, सो आप स्वयं कुटयादि परद्रव्यके स्वभावकरि तौ न परिणमती संतो है; अर .- कुट्यादि परद्रव्यकू अपने स्वभावकरि नाहीं परिणमावती संती है; अर कुट्यादि परद्रव्य है निमित्त "
जाकू ऐसा श्वेतगुणकरि भरथा अपना स्वभाव, ताका परिणामकार उपजती संती है। सोम जकुट्यादि परद्रव्य, सेटिका है निमित्त जाकू ऐसा अपना स्वभावका परिणामकार उपजता संता... " है; ताकू अपने स्वभावकरि सुख्द करे है; ऐसा व्यवहार कोजिये है । तैसें चेतयिता है सो दर्शनक 卐 गुणकरि भरथा है स्वभाव जाका ऐसा है। सो स्वयं आप तौ पुद्गल आदि परद्रव्यका स्वभाव
करि न परिणमता संता है। बहुरि पुद्गल आदि परद्रव्यकू अपने स्वभावकरि नाहीं परिणमावता ।। संता है । अर पुद्गल आदि परद्रव्य है निमित्त जाकू ऐसा अपना दर्शनगुणकरि भरथा स्वभावका परिणाम ताकरि उपजता संता है। सो पुद्गल आदि पाव्यत चेतयिता है निमित्त जाकू ऐसा
अपना स्वभावका परिणामकारे उपजता संताकू अपना स्वभावकरि देखे है, ऐसा व्यवहार॥ 4 कीजिये है। ऐसा दर्शनगुणका व्यवहार है।
अब चारित्रका व्यवहार कहै हैं-जैसें सो ही सेटिका श्वेतगुणकरि भरथा है स्वभाव जाका " 卐 ऐसी है, सो आप स्वयं कुट्यादि परद्रव्यके स्वभावकरि न परिणमती संती है, बहुरि कुट्यादि . परद्रव्यकू अपने स्वभावकरि नाहीं परिणमावती संती है, अर कुट्यादि परद्रव्य है निमित्त जाकू 卐 ऐसा श्वेतगुणकरि भर्या अपना स्वभाव ताका परिणामकरि उपजती संती है; सो कुट्यादि .. परद्रव्यकू सेटिका है निमित्त जाकूऐसा अपना स्वभावका परिणामकरि उपजै ताकू सेटिका + अपने स्वभावकरि श्वेत कर है । ऐसा व्यवहार कीजिये है। तैसे घेतयिता आत्मा भी ज्ञानदर्शक 1नगुणकरि भरचा परके अपोहन कहिये त्याग, तिस रूप स्वभाव है, सो स्वयं आप पुद्गलादि पर
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द्रव्यके स्वभावकरि न परिणमता संता है। बहुरि पुद्गलादि परद्रव्यकू अपने स्वभावकरि नाहीं. 5 परिणभावता संता है। अर पुद्गलादि परद्रव्य है निमित्त जाकूं ऐसा अपना ज्ञानदर्शनगुणकरि 5 भर्या परके त्याग करनेरूप स्वभावके परिणामकरि उपजता संता है, सो चेतयिता हैं निमित्त
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जाकू ऐसा अपना स्वभावका परिणामकरि उपजता जो पुद्गलादि परद्रव्य ताकू अपने स्वभावकरि त्यागे है । ऐसा व्यवहार कीजिये है। ऐसे यह आत्माके ज्ञान दर्शन चारित्र तेही भये पर्याय तिनका निश्चय व्यवहारका प्रकार है । ऐसे ही अन्य भी जे केई पर्याय हैं तिनि सर्व ही 5 पर्यायनिका निश्चय व्यवहार जानना |
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भावार्थ -- आत्माका शुद्धनयकरि एक चेतनामात्र स्वभाव है । ताके परिणाम देखना, जानना, श्रद्धना, परद्रव्यते निवृत्त होना है। तहां निश्चयनयकरि विचारिये तब आत्मा परद्रव्यका 卐 5 ज्ञायक न कहिये, दर्शक न कहिये, श्रद्धान करनेवाला न कहिये, त्याग करनेवाला न कहिये । जातें परद्रव्यकै अर आत्माकै निश्चयकरि किछू भी संबंध नाहीं है । जो ज्ञाता, द्रष्टा, श्रद्धान 卐 5 करनेवाला, त्याग करनेवाला, ए सर्व भाव हैं सो आप ही है । भावभावकका भेद कहना सो भी व्यवहार है । अर परद्रव्यका ज्ञाता, द्रष्टा, श्रद्धान करनेवाला, त्याग करनेवाला कहिये है । फ्र सोभी व्यवहारनयकरि कहिये हैं । जातें परद्रव्यकै अर आत्माका निमितिनैमित्तिक भाव है । सो फ्र परकै निमित्ततें कि भाव भये देखि व्यवहारी जन कहे हैं, जो परद्रव्यकू जाने है. परद्रव्यकूं देखे हैं, परद्रव्यका श्रद्धान करे है, परद्रव्यकूं त्यागे है । ऐसें निश्चय व्यवहारका प्रकार जानि यथावत् श्रद्धान करना । अब इस अर्थ के कलशरूप काव्य कहे हैं
शार्दूलविक्रीडित च्छन्दः
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शुद्धद्रव्यनिरूपणार्पितमतेस्तत्वं समुत्पश्यतो नैकद्रव्यगतं चकास्ति किमपि द्रव्यान्तरं जातुचित् । ज्ञानज्ञयमति यत्तु तदयं शुद्धस्वभावोदयः किं द्रव्यान्तर चुम्बनाकुल धियस्तत्वाच्च्यवन्ते जनाः ||२२|| अर्थ - आचार्य कहे हैं--जो शुद्ध द्रव्यके निरूपणविषै लगाई है बुद्धि जाने बहुरि तत्त्वकूं
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अनुभवता है ऐसा पुरुषकें एक द्रव्यविषं प्राप्त भया अन्यद्रव्य किछू भी न कदाचित् प्रतिभासे है । बहुरि ज्ञान है सो अन्य ज्ञेय पदार्थकुं जाने है सो
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यह ज्ञानका शुद्ध स्वभावका उदय है, सो यह जन लोक हैं ते अन्यद्रव्य के ग्रहणविर्षे आकुल है बुद्धि जिनिकी ऐसे भये संते शुद्धस्वरूपतें क्यों चिगे हैं ? 卐
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भावार्थ- शुद्धनकी दृष्टिकरि तत्त्वका स्वरूप विचारतें अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्यविषै प्रवेश नाही फ दीखे है । अर ज्ञानविषे अन्य द्रव्य प्रतिभासे है सो यह ज्ञानकी स्वच्छता का स्वभाव है। किछू ज्ञान तिनिकं ग्रहण न कीये है । अर यह लोक अन्य व्यका ज्ञानविषै प्रतिभास देखि अर अपना 5 ज्ञानस्वरूपतें छूटि अर ज्ञेयके ग्रहण करनेकी बुद्धि करे हैं सो यह अज्ञान है । ताकी आचार्यने करुणाकर कया है । जो ए लोक तत्त्वतें क्यों चिगे हैं ? फेरि इस ही अर्थकू दृढ़ करे हैंI
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मन्दाक्रान्ताछन्दः
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शुद्धद्रव्यस्वरस भवनाकि स्वभावस्य शेष-मन्यद्रव्यं भवति यदि वा तस्य किं स्यात्स्वभावः । ज्योत्स्नारूपं स्नपयति ध्रुवं नैव तस्यास्तिभूमिज्ञानं ज्ञेयं कलयति सदा ज्ञेयमस्यास्ति नैव ||२३|| अर्थ - जिस द्रव्यका जो निज भाव होय सो स्वभाव है। सो आत्माका ज्ञानचेतना स्वभाव है । ताकै शुद्ध द्रव्य जो शुद्ध आत्मा ताका निजरस ज्ञानचेतना है । ताके होते ते अन्य बाकी 15 जा द्रव्य है सो कहां होय ? किछू भी न होय । परमार्थकरि संबंध नाही अथवा अन्य दूव्य ताके यहू स्वभाव कहा होय ? किछू भी न होय । परमार्थकरि संबंध नाहीं । जैसें ज्योत्स्ना जो 5 चांदणी ताका रूप पृथ्वीकू उज्वल करे है, तो कहां पृथ्वो चांदणीकी होय जाय ? किछू भी न होय । तैसें ज्ञान है सो ज्ञेयपदार्थकूं सदाकाल जाने है, तौ ज्ञेय ज्ञानका किछू कहा होय जाय ? किछू भी नहीं है ।
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भावार्थ- शुद्धनकी दृष्टिकरि देखिये तब कोई द्रव्यका स्वभाव काढू अन्यद्रव्यरूप होय नाहीं । जैसें चांदणी पृथ्वीकूं उज्वल करे है परंतु चांदणीकी पृथ्वी किछू होय नाहीं है । तेसे ज्ञान ज्ञेयकू क
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जाने है परंतु ज्ञानका शेय किछू होय नाहीं है । आत्माका ज्ञान स्वभाव है सो याकी स्वच्छता के - ज्ञेय स्वयमेव झलके है। तौऊ ज्ञानम तिनि शेषनिका प्रदेशमाहीं है। जब कहे हैं, जो ज्ञान, " राग द्वेषका उदय कहां ताई है ? ताका काव्य
मन्दाक्रान्ताछन्दः राग पदयमुदयते ताबदेतन्न यावद् झानं ज्ञानं भवति न पुनर्योध्या याति गोभ्यः ।
ज्ञानं ज्ञानं भवतु तदिदं न्यकृताज्ञानभावं भावोभावो भवति तिरयन्येन पूर्णस्वभावः ॥२४॥
अर्थ-यहु ज्ञान जेते ज्ञानरूप न होय है, अर बोध्य कहिये ज्ञेय सो शेयभावकू प्राप्त न होप 卐 है, तेते राग द्वेष दोऊ उदय होय हैं । तातें यह ज्ञान है सो ज्ञानरूप होऊ । कैसा होऊ! दूरी .. किया है अज्ञानभाव जाने ऐसा होऊ । तिस कारणकरि भाव अभाव ज्ञानमैं होय हैं । तिनिक
दूरी करता संता पूर्ण स्वभाव होय । जन टीका-जेते ज्ञान ज्ञानरूप न होय, ज्ञेय ज्ञेयरूप न होय, तेते राग द्वेष उपजै है । तातें "यह ज्ञान अज्ञानभावकू दरिकरि ज्ञानरूप होऊ । जिस कारण ज्ञानमैं भाव अर अभाव ए दोय
अवस्था होय हैं, सो तो मिटि जाय । अर ज्ञान पूर्णस्वभावकू प्राप्त होय जाय । यह प्रार्थना है। "आगे कहे हैं कि, राग द्वेष मोहते दर्शनज्ञानचारित्रका घात होय है, सो दर्शन ज्ञान चारित्र 卐 पुद्गल द्रव्यमें तौ हैं नाहीं, आत्माहीमैं दशनज्ञानचारित्र हैं । अर आत्माहीमें अज्ञानते राग द्वेष मोह हैं । सो अज्ञानतें अपना ही घात होय है; ऐसा निर्णय करे हैं । गाथा
दसणणाणचरित्तं किंचिवि पत्थि दु अचेदणे विसए। तह्मा किं घादयदे चेदयिदा तेसु विसएसु ॥५८॥ दंसणणाणचरित्तं किंचिवि णत्थि दु अचेदणे कम्मे । तह्मा किं घादयदे चेदयिदा तेसु कम्मेसु ॥५९॥
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दसणणाणचरित्तं किंचिवि णत्थि दु अचेदणे काये । तहमा किं धादयदे चेदयिदा तेसु कायेसु ॥६०॥ णाणस्स दसणस्स य भणिदो घादो तहा चरित्तस्स । गवि तमि कोऽवि पुग्गलदब्वे घादो दु णिहिटो ॥१॥ जीवस्स जे गुणा केई णत्थि ते खलु परेसु दब्वेसु। तहमा सम्मादिहिस्स णत्थि रागो दु विसएसु ॥३२॥ रागो दोसो मोहो जीवस्सेव दु अणण्ण परिणामा। एदेण कारणेण दु सद्दादिसु गास्थि रागादि ॥६३॥
दर्शनज्ञानचरित्र किचिदपि नास्ति स्त्रचेतने विषये । तस्मात्किं घातयति चेतयिता तेषु कायेषु ॥५८॥ दर्शनज्ञानचरित्र किंचिदपि नास्ति त्ववेतने कर्मणि । तस्माकिं घातयति चेतयिता तेषु कर्मसु ॥५९॥ दर्शनज्ञानचरित्रं किंचिदपि नास्ति स्वचेतने काये। तस्मात् किं घातपति चेतयिता तेषु कायेषु ॥६॥ ज्ञानस्य दर्शनस्य भणितो घातस्तथा चरित्रस्य । नापि तत्र पुद्गलद्रव्यस्य कोऽपि घातो निर्दिष्टः ॥६१॥ जीवस्य ये गुणाः केचिन संति खलु से परेषु द्रव्येषु । तस्मात्सम्यन्द्रप्टेनोस्ति रागस्तु विषयेषु ॥१२॥
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रागों द्वेषो मोहो जीवस्यैव चानन्यपरिणामाः ।
एतेन कारणेन तु शब्दादिष न संति रागादयः ॥६॥ आत्मख्याति:---यद्धि यत्र भवाते तत्तद्घाते हन्यत एव यथा प्रदीपघाने 'प्रकाशो इन्यते । यत्र च यद्भवति २४ तत्तपाते हन्यते यथा प्रकाशपाते प्रदीपो हन्यते। यत्तु यत्र न भवति तत्तद्घाते न हन्यते यथा घटप्रदीपपाने घटो न..
हन्यते । यथात्मनो धर्मा ज्ञानदर्शनचारित्राणि पुद्गलद्रव्यघातेऽपि न हन्यते, न च दर्शनशानचारित्राणां पातेऽपि । ॥ पुद्गलद्रव्यं हन्यते, एवं दर्शनज्ञानवारित्राणि पुद्गलद्रव्ये न भवंतीत्यायाति अन्यथा तराते पुद्गलद्रव्यघातस्य, 1
पुद्गलद्रव्यमाने सद्घातस्य दुर्निवारत्वात् । यत एवं ततो ये यावंतः के वनापि जोवगुणास्ते सर्वेऽपि परद्रव्येषु न" 卐 संतीति सम्यक् पश्यामः । अन्यथा अत्रापि जीवगुणघाते पुद्गलद्रव्यधातस्य पुद्रगलद्रव्यघाते जीवगुणधावस्य च
दुर्निवारत्वात् । यद्ययं ताई कुतः सम्यग्दृष्टभवात रागो विषेषु ? न कुतोऽपि । तहि रागस्प कतरा खानिः ..
रागदपमोहादि जीवस्गवाज्ञानमयाः परिणामास्ततः परद्रव्यत्वादिषयेषु न संति, अज्ञानाभावात्सम्यग्दृष्टौ तु न भवंतिका + एवं ते विषये घसंतः सम्यग्दृष्टर्न भरतो न भवत्येव ।
___ अर्थ-दर्शन ज्ञान चारित्र हैं सो अचेतन जे विषय तिनिवि किछू भी नाहीं हैं। तात तिनि" 卐 विषयनिविर्षे चेतयिता आत्मा कहा पाते ? घातनेकू किछू भी नाही बहुरि दर्शन ज्ञान चारित्र
हैं सो अचेतन जो कर्म ताविर्षे किछू भी नाही हैं । तातें तिस कर्मविधै चेतयिता आत्मा कहा...
पाते। किछू भी घातनेकू नाहीं। दर्शन ज्ञान चारित्र है सो अचेतन जो काय ताविर्षे किछू भी है i- नाही है। तातें तिनि कायनिविर्षे चेतयिता आत्मा कहा पाते ? किछु भी घातनेकू नाही।
बहुरि घात है सो ज्ञानका तथा दर्शनका तथा चारित्रका कया है तहां पुद्गल द्रव्यका किछु धात" # नाही कया है। बहुरि जे केई जीवके गुण हैं ते परव्यनिविर्षे नाहीं हैं। तातें सम्यन्दृष्टीके
विषयनिविर्षे राग नाही है। राग द्वेष मोह हैं ते जीवहीका अनन्य एकरूपः अभेदरूप परिणाम। 卐 हैं। इस कारणकरि रागादिक हैं ते शब्दादिवि नाहीं हैं।
___टीका-निश्चयकरि जो जाविणे होय सो तिसके घात होते हण्याही जाय है। जैसे दीपक
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विष प्रकाश है सो दीपकका घात होते प्रकाश भी हणिये ही हैं । बहुरि जाविषे जो होय सो ताकै घात होते हणिये ही है। जैसे प्रकाशको धाते होते प्रदीप भी हणिये ही है। बहुरि जो 5 जावि न होय सो ताके घात होते नाहीं हणिये है। जैसे घटकर घात होते घटका प्रदीपक है सो नाहीं हणिये है । बहुरि जानिये जो न होय सो ताके घाते नाही हृणिये है। जैसे घड़में फ प्रदीपका घात होते घट नाहीं हणिये है इस न्यायतें कहे हैं जो आत्मा के धर्म दर्शन ज्ञान चारित्र फ्र हैं ते पुद्गलद्रव्य घात होते भी नाहीं घातें जाय हैं । बहुरि दर्शनज्ञानचारित्रका घात होते 5 भी पुवूलद्रव्य घात्या न जाय है । ऐसें दर्शनज्ञानचारित्र हैं ते पुद्गलद्रव्यवि नाही हैं । यह आत्मा जो ऐसे न होय, तौ दर्शनज्ञानचारित्रका घात होते तो पुद्गलद्रव्यका घातका दुर्निवार
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पणा होय, अवश्य घात होय । अर पुद्गलद्रव्यका घात होतें दर्शनज्ञानचारित्रका घात अवश्य 5
होय । जातें ऐसे है तातें आचार्य कहे हैं, जेजे किछू जीवद्रव्यके गुण हैं ते सर्व ही परद्रव्यनि
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विषे नाही हैं। ऐसे पुद्गल सम्यक प्रकार हम देखे हैं। अर को ऐसें न होय तो इहां क 15 भी जीवके गुणकाघात होते पुद्गल ब्रव्यका घातका दुर्निवारपणा होय । अर पुद्गल- 5 द्रव्यका घात होते जीवगुणका घातका दुर्निवारपणा होय । सो ऐसे है नाहीं । अब विचारे हैंजो ऐसे होते सम्पष्ट विषयनिविषै राग कौन हेतूतें होय है ? तहां कहे हैं। काहू ही हेतूतें 5 नाही होय है । तब पूछे है-रागके उपजनेकी कौनसी खानी है ? तहां कहे हैं - राग द्वेष मोह 5 हैं ते जीव ही का अज्ञानमय परिणाम हैं। यह अज्ञान ही रागादिककै उपजनेकी खानी है। 5 • जातें विषय हैं ते परद्रव्य हैं। तिनिविधै रागादिक अज्ञानमय परिणाम नाही है। बहुरि जब अज्ञानका अभाव हो तब आत्मा सम्यग्दृष्टि होय, तब तावियें रागादि न होय हैं । ऐसें ते 5 रागादिक विषयनिविषे न होते संत अर सम्यग्दृष्टीके न होते संते
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नाही है।
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भावार्थ-दर्शन ज्ञान चारित्र आदि जेते जीवके गुण हैं ते अचेतन पुद्गलद्रव्य नाही फ हैं। तातें आत्माके अज्ञानमय परिणामतें राग द्वेष मोह होय हैं । तिनिकरि आपहीके दर्शन फ्र
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+ ज्ञान चारित्र आदि गुण धाते जाय । अर राग द्वेष मोह जीवहीके अस्तित्वमैं भज्ञानते उपो " हैं। जब अज्ञानका अभाव होय तब सम्यग्दृष्टि होय तब नाहीं उपजे है। ऐसे होते शुद्धद्रव्यके। 卐 दृष्टीमैं पुद्गलविय भी राग द्वेष मोह नाहीं सम्यग्दृष्टि जीवविष भी नाहीं। ऐसे दोऊ ही विर्षे __ न होते ए नाही ही हैं अर पर्यायदृष्टीमैं जीवके अज्ञान अवस्थामें हैं ऐसा जानना । अब इस 卐 अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
मन्दाक्रान्ताछन्दः रागद्वं पाविह हि भवति ज्ञानमज्ञानभावात् ती पस्तुत्व प्राणतशा ५मानी न किञ्चित् ।।
सम्पादृष्टिः क्षपयतु ततस्तन्यदृष्टया स्फुटतो शानज्योतिजलति सहजं येन पूर्णाचलानिः ॥२॥ ___ अर्थ-इस आत्मावि ज्ञान हे सोही अज्ञान भावते राग द्वेष रूप परिणमे है। बहुरि ते .卐 रागादिक वस्तुपणावि स्थायिष्टिकरि देखे हुये किछू भी नाहीं हैं, द्रव्यरूप न्यारे वस्तु नाहीं है।
तातें आचार्य प्रेरणा करे हैं, जो सम्यग्दृष्टि पुरुष है सो तत्वदृष्टिकरि तिनिकुं प्रगट देखि अर क्षेपो 3 नाश करो। ज्यौं स्वाभाविक ज्ञानज्योतिपूर्ण है प्रकाशरूप अचल दीति जाकी ऐसी देदीप्यमान॥
प्रकाशै। ___भावार्थ-राग द्वेष न्यारा ही तो द्रव्य नाहीं । जीवके अज्ञान भावतें होय है। तातें सम्य- पर दृष्टि होय तत्वदृष्टिकरि देखिये, किछू भी वस्तु नाहीं ऐसे देखे। घातिकमका नाश होय केवल-1
ज्ञान उपजे है। आगे कहे हैं, जो अन्य द्रव्यकरि अन्य द्रव्यके गुण नाहीं उपजाइये है, ताकी" + सूचनिकाका काव्य है
___ मालिनीछन्दः रागढ़ पोत्पादकं तस्वदृष्टया नान्यद् द्रव्यं वीक्ष्यते किश्चनापि ।
सर्वद्रव्योत्पनिरन्तकास्ति म्यतात्यन्तं स्वस्वभादेन यस्मात् ॥२६॥ 卐 अर्थ-राग द्वेषका उपजाक्नेवाला तत्वदृष्टिकरि देखिये तब अन्य द्रव्य किछू भी नाहीं देखिये।
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1- है। चेतनहीके परिणाम हैं । जातें यह न्याय है-जो सर्व द्रव्यनिकी उत्पनि है सो अपने ही.. भय, निज स्वभावविर्षे अंतरंगविर्षे अत्यात अमटरूप शो है । अन्य ध्यावे अन्यके गुणपर्यायनिकी 5 - उत्पत्ति नाहीं है । अब इस अर्थकू गाथामें कहे हैं गाथा
अण्णदवियेण अण्णदवियस्स गो कीरदे गुणविघादो। तह्मा दु सव्वदव्वा उपजते सहावेण ॥६४॥
अन्यद्रव्येणान्यद्रव्यस्य न क्रियते गुणोत्पादः।
तस्मात्तु सर्वद्रव्याण्युत्पद्यते स्वभावेन ॥६॥ आत्मख्यातिः-न च जीवस्य परद्रव्यं रागादीन्युत्पादयतीति शक्यं अन्यद्रव्येणान्यद्रव्यगुणोत्पादककरणम्या-5 योगात् । सर्वद्रव्याणां स्वभावेनेवोत्पादान । तथा हि मृत्तिका कुमभावनोत्पद्यमाना कि कुंभकार स्वभावेनोत्पद्यते .. किं मृत्तिकास्वभावेन ? यदि कुभकारस्वभावेनोत्पद्यते तदा कुंभकरणाहंकारनिर्भरपुरुषाधिष्ठिराच्यापृतकरपुरुष. शरीराकारः कुभः स्यात्, न च तथास्ति द्रन्यांतरस्वभावेन द्रव्यपरिणामोत्पादस्यादर्शनात् । यद्यवं तर्हि मृत्तिका -
भाकारस्वभावेन नोत्पद्यते किंतु मृत्तिकास्वभावेनैव, स्वस्वभावेन द्रव्यपरिणामोत्पादस्य दर्शनात् । एवं च सति ॥ मस्वभावानतिक्रमान कुभकारः कुंभस्योत्पादक एव मृत्तिकैव कुंभकारस्वभावमस्पृशंती स्वस्वभावनोत्पद्यते । एवं - सर्वाष्यपि द्रव्याणि स्वपरिणामपर्यायेणोत्पद्यमानानि किं निमित्तभूतद्रव्यांतरस्वभावेनोत्पद्यते किं स्वस्वभावेन ? " यदि निमित्तभूतद्रव्यांतरस्वभावनोत्पद्यते तदा निमित्तभूतपरद्रव्याकारस्तत्परिणामः स्यात् न च तथास्ति द्रव्यांतरस्वभावेन र
द्रव्यपरिणामोत्पादस्यादर्शनात् । यधवं बर्हि न सर्वव्याणि निमित्तभूतपरस्वभावेनोन्पद्यते किंतु स्वस्वभावेनैव, स्वस्वभा- वेन द्रव्यपरिणामोत्पादस्य दर्शनान् एवं च सति सर्वद्रयाणां निमित्तभूतद्रव्यांतराणि स्वपरिणामस्योत्पादकान्येव सर्वद्न्या"व्येव निमिचभूतद्रव्यांतरस्वभावमस्पृशंति स्यस्वभावेन म्वपरिणामभावनोत्पद्यते अतो न परद्रव्यं जीवस्य रागादीनामुत्पाद4. कमुत्पश्यामो यस्मै कुप्यामः ।।
_____ अर्थ-अन्य द्रव्यकरि अन्य द्रव्यके गुणका उत्पाद नाहीं कीजिये है । तातें यह सिद्धांत है, जो ॐ सर्व ही द्रव्य अपने अपने स्वभावकरि उपजे हैं।
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टीका - जीवद्रव्यकै परदूव्य है सो रागादिक उपजावे है, ऐसी आशंका न करनी । जातें
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hi अन्य द्रव्यकरि अन्य द्रव्यके गुणका उत्पाद करनेका अयोग्य है । सर्वद्रव्यवि स्वभावीकरि 5, उत्पाद है । सोही दृष्टांतकरि दिखाइये हैं — मृत्तिका है सो कुंभभावकरि उपजती संती कहा 卐 कुंभकारके स्वभावकरि उपजे हैं, की मृत्तिका स्वभावकरि उपजै ? ऐसे दोय पक्ष पूछी, तहां जो 15 कहिये कुंभकार के स्वभावकरि उपजे है कुंभके करनेका अहंकारकरि भया जो पुरुष ताकरि • आश्रयरूप अर व्यापाररूप है हस्त जामैं ऐसा पुरुषका शरीर ताका आकार कुंभ भया चाहिये कुंभकारका शरीरकी आकार घट बनाया चाहिये, सो ऐसे है नाहीं । जातें अन्य द्रव्यका स्वभाव 5 करि अन्यदुव्यका परिणामका उपजना न देखिये है । तातें जो ऐसें है तो मृत्तिका कुंभकारके 5 स्वभावकरि तो नाहीं उपजे है, तो कैसे उपजे है ? मृत्तिका स्वभावहोकर उपजे है। जातें अपने 5 स्वभावीकरि द्रव्यका परिणामका उत्पाद देखिये है । ऐसें होतें मृत्तिकाका स्वभावके नाहीं उल्लंघनेतें कुकुंभकार है सो कुंभका उत्पादक कहिये उपजावनहारा नाहीं है, मृत्तिका हो कुंभकार के स्वभाव नाही स्पर्शती संती अपना ही स्वभावकरि कुंभभावकरि उपजे है। ऐसे ही सर्व ही दूव्य हैं, ते अपने परिणामरूप पर्यायकरि उपजते संते हैं, ते कहा निमित्तभूत जे अन्य द्रव्य 'तिनिके स्वभावकरि उपजे है की अपने स्वभावहीकरि उपजे है ? ऐसे दोय पक्ष पूछी, तहां जो कहिये निमित्तभूत अन्य दूव्यके स्वभावकरि उपजे है, तौ निमित्तभूत परद्रव्यका आकार तिसका परिणाम होय, सो ऐसें होय नाहीं । जातें अन्य दुव्यका स्वभावकरि अन्य द्रव्यका परि- 5 गामका उपजनेका अदर्शन है— नाही देखिये है । तातें जो ऐसे है तौ सर्व ही दूव्य हैं ते निमित्तभूत जो परदूव्य ताका स्वभावकरि नाहीं उपजे हैं, तो कैसें उपजे हैं अपने स्वभावीकरि 15 उपजे हैं। जातें अपने स्वभावीकरि सर्वद्रव्यनिका परिणामका उत्पाद देखिये है। ऐसे होते सर्व ही व्यकेि निमित्तभूत जे अन्य द्रव्य ते अन्य द्रव्यके परिणामके उपजाननहारे नाहीं हैं। सर्व 5 ही दूव्य हैं ते निमित्तभूत जे अन्य दूव्य तिनिके स्वभावकूं नाही स्पर्शते संते अपने स्वभावकरि 5
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भावार्थ - आत्मा रागादिक उपजे हैं ते अपने हो अशुद्ध परिणाम हैं। निश्चयनयकरि विचा- 5
रिये सब इनिका उपजावनहारा अन्य द्रव्य नाही है। अन्य द्रव्य इनिका निमित्तमात्र हैं । जातें
अन्य दुव्यके अन्य दूव्यगुणपर्याय उपजावे नाहीं यह नियम है । तातें जे ऐसे माने हैं, जो मेरे
* रागादिक परदूव्य ही उपजावे है, ऐसा एकांत करे है, ते नयविभाग में समझे नाही, मिथ्यादृष्टि
हैं। ए रागादिक जीवकै सत्त्वमें उपजे हैं. परद्रव्य निमित्तमात्र है, ऐसें मानना सम्यग्ज्ञान है ।
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अपने परिणाम भावकरि उपजे हैं। या कारणतें आचार्य कहे हैं जो परदूव्य है, सो जीवकै
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5 तातें आचार्य ऐसें कहे हैं- -हम राग द्वेषके उत्पत्तिमैं अन्य दूव्यपरि काहे कोप करें ? राग द्वेषका 5
रागादिकका उपजावनहारा नाहीं देखे है, जापरि हम कोप करें।
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उपजना आपहीका अपराध है। अब इस अर्थ के कलशरूप काव्य कहे हैं ।
मालिनीछन्दः यदि भवति रागद्वे पदोषप्रसूतिः कतरदपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र ।
स्वयमयमपराधी तत्र सर्पत्यबोधो भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः ||२७||
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अर्थ- जो इस आत्मावि राग द्वेष दोषकी उत्पत्ति हैं तहां परद्रव्यकूं किछू भी दूषण नाहीं
卐 है । ति आत्मविषै यह अज्ञान आप अपराधी फैले है । यह कथन प्रगट होऊ, अर यह अज्ञान 5 है सो अस्त होऊ । जातें मैं तो ज्ञानस्वरूप हों, ऐसें मानना सम्यग्ज्ञान है ।
卐
भावार्थ - अज्ञानी जीव राग द्वेषकी उत्पत्ति परदूव्यतें मानि परद्रव्यतें कोप करे है। जो
5 मेरे परद्रव्य राग द्वेष उपजावे है ताकू दूरी करूं । ताकूं समझानेकू कहे है। जो राग द्वेषकी 5
उत्पत्ति अज्ञान आपही केविषै होय हैं । ते आपहीके अशुद्ध परिणाम हैं। सो यह अज्ञान
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नाशंकु प्राप्त होऊ, अर सम्यग्ज्ञान प्रगट होऊ आत्मा ज्ञानस्वरूप है ऐसा अनुभव करौ । राग 卐
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द्वेष उपजने में परद्रव्यकू' उपजावनहारा मानि तिसपरि कोप मति करो। ऐसा उपदेश है। अब इस ही अर्थ दृढ करने अर अगिले कथन की सूचनिकारूप काव्य कहे हैं ।
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रथोद्धताछन्दः रागजन्मनि निमित्त नां परद्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते । उत्तरंति न हि मोहवाहिनी शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धयः ।।२८॥ .. ____ अर्थ-जे पुरुष रागकी उत्पत्तिविर्षे परद्रव्यहीका निमित्तपणा माने हैं, अपना किछ भी हेतु जज न माने हैं, ते मोहरूप नदीके पार नाहीं उतरे हैं । जातें शुद्धनयका विषयभूत जो आत्माका " स्वरूप ताका ज्ञानकरि रहित अंध है बुद्धि जिनिकी ते ऐसे हैं। + भावार्थ-शुद्धनयका विषय आत्मा अनंत शक्तीकू लिये चैतन्यचमत्कारमात्र नित्य अभेद एक 卐
है। तामैं यह नगलता है, जो जैसा निमित्त मिले से आप परिणमे है। ऐसा नाहीं, जो पैला .. 卐परिणमा तैसे परिणमे है । अपना किछू पुरुषार्थ नाहीं है । सो ऐसे आस्माका स्वरूपका जिनिकू । .. ज्ञान नाहीं है, ते ऐसे माने हैं, जो आत्मा परद्रव्य परिणमावै है, तैसे परिणमे है । ते ऐसे मानने
वाले मोहकी वाहिनी जो सेना अथवा नदी, राग द्वेषादि परिणाम तिनितें पार नाही होय है।। - तिनिके राग द्वेष नाहीं मिटे हैं । जातें अपना पुरुषार्थ तिनिके होनेमें होय तौ तिनिके मेटनेमें " भी होय । अर परहीके किये होय तो पैला किया ही करै । अपना मेटना काहेका ? तातें अपना किया होय अपना मेटया मिटै, ऐसे कचित् भानना सम्यग्ज्ञान है। आगै इस कथन प्रगट करे ॥
हैं-जो स्पर्शरसगंधवर्ण शब्दरूप पुद्गल एरेणमे है, ते इंद्रियनिकरि आत्माके जाननेमैं आवे हैं 卐 तथापि ते जड हैं । आत्माकू किछु कहे नाहीं है, जो हम• ग्रहण करौ । आत्मा ही अज्ञानी होय. .तिनिक भले बुरे मानि रागी द्वेषी होय है । ऐसें गाथामैं कहे हैं।
गिदिदसंथुदवयणाणि पोग्गला परिणमंति बहुगाणि । ताणि सुणिदूण रूसदि तूसदिय अहं पुणो भणिदो ॥६५॥ पोग्गलदव्वं सदुत्तह परिणदं तस्स जदि गुणो अपणो। तमा ण तुमं भणिदो किंचिवि किं रूससे अवुहो ॥६६॥
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असुहो सुहोव सहो ण तं भणदि सुणसु मंति सो चैव । णय एदि विणिग्गहिदुं सोदु विसयमागदं सदं ॥६७॥ असुहं सुहं च रूवं ण तं भणदि पेच्छ मंति सो चेव । णय एदि विणिग्गहिदुं चक्खुविसयमागदं रूवं ॥१८॥ असुहो सुहोय गंधो ण तं भणदि जिग्घ मति सो चेव । णय एदि विणिग्गाहेहूँ घाणविसयमादं गंधं ॥६९॥ असुहो सुहोय रसो ण तं भगदि रसय मंति सो चेव । णय एदि विजिग्गहिद रसणविसयमागदं तु रसं ॥७०॥ अमुहो मुहोय फासो ण तं भणादि फासमंति सो चेव । णय र दि विणा गहिदु कायविसयमागदं फासं ॥७॥ असुहो मुहोय गुणो ण तं भणादि वुज्झ मति सो चेव । णय एदि विणिग्गहिदु वुद्धिविसयमागदं तु गुणं ॥७२॥ असुहं मुहं च दव्वं ण तं भणदि वुज्झमति सो चेव । गाय एदि विणग्गहिदुं बुद्धिविसयमागदं दव्वं ॥७३॥ एवं तु जणि दबस्स उपसमेणेव गच्छदे मूढो। णिग्गहमणा परस्सय सयंच बुद्धिं सिवमपत्तो ॥७४॥
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निंदितसंस्तुतवचनानि पुद्गलाः परिणमंति बहुकानि ।
तानि श्रुत्वा रूष्यति तुष्यति च पुनरहं भणितः ॥ ६५॥ पुद्गलद्रव्यं शब्दवपरिणतं तस्य यदि गुणोऽन्यः । तस्मान्न त्वां भणितः किंचिदपि किं रुष्यस्यबुद्धः ॥ ६६ ॥
अशुभः शुभो वा शब्दः न त्वां भणति शृणु मामिति स एव । नचेति विनिगृहीतु श्रोत्रविषयमागतं शब्दं ॥ ६७॥ अशुभं शुभं वा रूपं न त्वां भणति पश्य मामति स एव ।
नचेति विनिग्रहीतु चक्षुविषयमागतं रूपं ॥ ६८ ॥ अशुभः शुभोवा गंधो न त्वां भणति जित्र मामिति स एव । नचेति विनिगृहीतु' प्राणविषयमागतं गंधं ॥ ६९ ॥ अशुभः शुभो वा रसो न त्वां भणति रसय मामिति स एव । चैति विनिहीतु बुद्धिविषयमागतं तु रसं ॥७०॥ अशुभः शुभोवा स्पर्शो न त्वां भणति
भाति स एव
नचैति विनिगृहीतु कार्याविषयमागतं तु स्पर्श ॥ ७१ ॥
अशुभः शुभो वा गुणो न त्वां भणति बुध्यस्व मामिति स एव ।
नचैति विहीतु बुद्धिविषयमागतं तु गुणं ॥७२॥
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अशुभं शुभं वा द्रव्यं न त्वां भणति ध्वस्व मामिति स एव । चेति विनिहीतु बुद्धिविषयमागतं तु द्रव्यं ॥ ७३ ॥ एवं तु ज्ञातद्रव्यस्य उपशमेनैव गच्छति मूहः ।
विनिर्ग्रहमनाः परस्य तु स्वयं च बुद्धिं शिवानप्राप्तः ॥७४॥
आरमख्यातिः - पधेड़ बहिरर्था घटादिः, देवदत्तो यज्ञदत्तमिव हस्ते गृहीत्वा 'मां प्रकाशय' इति स्वप्रकाशने न
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आत्मा है सो भी जैसें चुचकपाषाण करि खेची लोहकी सई पाषाणके जाय लगी है तैसें । 7 अपने स्थानक प्रदेशनितें छुटि तिनिकू जानने नाही जाय है । तो कहा है ? वस्तूका॥
स्वभावकै परकरि उपजाबनेकं अशक्यपणा है तथा परकू उपजाबनेका असमर्थपणा है। बहुरि... जैसे शब्दादिककू समीप नाही होते तिनिळू आत्मा अपने स्वरूपही करि जाने है, तैसें ही 5 तिनिकू समीप होते भी अपने स्वरूपहीकरि तिनि जाने हैं. बहुरि अपने स्वरूप ही करि शब्दा--
दिककू जानता आत्माके ते शब्द आदिक वस्तुस्वभावहीतें विचित्रपरिणतीकू प्राप्त होते मनोहर तथा + अमनोहर बाह्यपदार्थ किंचिन्मात्र भी विक्रियाक अर्थी नाहीं कल्पिये हैं । ऐसें आला है सो दीपक
की ज्यौ परद्रव्यप्रति नित्य ही उदासीन हैं । ऐसी ही वस्तुकी मर्यादा है, तोऊ जो गग द्वेष उपजे है सो अज्ञान है।
भावार्थ----आत्मा शब्दकू सुणिकरि, रूपकू देखिकार, गंधक सूविकरि, रस आपाइकरि, .. स्पर्शकू स्पर्शिकरि, गुणद्रव्यकू जाणिकरि भला बुरा मानिकरि राग द्वेष उपजारे है. सो यह अज्ञान है । जाते ते शब्दादिक तो जड पुअगलद्रव्यके गुण हैं । सो आत्मा का कहे नाहीं जो
हम ग्रहण करौ। अर आप भी अपना प्रदेशनिकू छोडि तिनि ग्रहण करने तिनिविर्षे जाय" ॐ नाहीं है । जैसे तिनिकू समीप नाहीं होते जाने है, मैं ही समीप होतें जाने है। आत्माकेज
विकारके अर्थ किंचिन्मात्र भी नाहीं है। जैसें दीपक घटपटादिका प्रकाशे है. तैसें आत्मा तिनिकू जाने है, ऐसा वस्तुका स्वभाव है । तोऊ आत्मा राग द्वेष उपजावे है सो यह अज्ञान ही है। अब इस ही अर्थका कलशरूप काव्य कहे है।
शार्दूलविक्रीडितछन्दः पूर्णकाच्युतशुद्धबोधहिमा योद्धा न बोध्यादयं, यायात्कामपि विक्रियां तत इतो दीपः प्रकाश्यादिव। -
तद्वस्तुस्थितिबोधवन्ध्यधिषणा एते किमज्ञानिनो, रागद्वपमयी भवन्ति सहजा मुश्चन्त्युदासीनताम् ॥ 卐 अर्थ-यह वोद्धा कहिये ज्ञानी है सो पूर्ण अर एक जो च्युत नाहीं होय अर शुद्ध-विकारतें
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भावार्थ - ज्ञानका स्वभाव ज्ञेयकूं जाननेहीका है। जैसा दीपकका स्वभाव घटपट आदि ककू प्रकाशनेका है। यह वस्तुस्वभाव है । ज्ञ यकूं जाननेमात्रतें ज्ञानमें विकार नाहीं होय है । अर शेकू जानकार भला बुरा मानि आत्मा रोगी द्वेषी विकारी होय है । सो यह अज्ञान है। 5 सो आचार्य शोच किया है— जो वस्तुका स्वभाव तो ऐसे, अर यह आत्मा अज्ञानी होयकरि रागद्वेषरूप क्यों परिणमे है ? अपनी स्वाभाविक उदासीनता अवस्थारूप क्यों रहें नाहीं ? सो यह फ आचार्यका शोच युक्त है, जाते जेतें शुभ राग है तेतें प्राणीनिकूं अज्ञानतें दुःखी देखि करुणा उपजै तब शोच होय है । अब अगिले कथनको सूचनिकारूप काव्य कहे हैं। शार्दूलविक्रीडित छन्दः
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रहित ऐसा जो ज्ञान तिस स्वरूप है महिमा जाकी ऐसा है । सो ऐसा ज्ञानी बोध्य कहिये ज्ञेय 卐 पदार्थ तिनि किछू भी विक्रियाकूं नाहीं प्राप्त होय है। जैसे दीपक है सो प्रकाशनेयोग्य घटपट ३६ 5 आदि पदार्थ हैं तिनितें विक्रियाकूं प्राप्त नाहीं होय है, तैसें । सो ऐसे वस्तूकी मर्यादाका ज्ञानकरि रहित हैं धिषणा कहिये बुद्धि जिनकी ऐसे भये संते ए अज्ञानी जीव अपनी स्वाभा卐 विक उदासीनताकूं क्यौं छोडे हैं ? अर राग द्वेषमय क्यों होय हैं ? ऐसा आचार्यने शोच किया है।
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राग विभावमुक्तमहतो नित्यं स्वभावस्पृशः पूर्वागामिसमस्त कर्मविकला भिन्नास्तदात्योदयात् । दूरारुटचरित्रवैभवबलानञ्चचिदर्मियों विन्दति स्वरसाभिषिक्तभुवनां ज्ञानस्य सञ्चेतनाम् ॥३०॥
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अर्थ-ज्ञानी है ते कैसे हैं ? राग द्वेष जे विभाव तिनिकरि रहित है मह कहिये तेज जिनिका ।
बहुरि कैसे हैं ? नित्य ही अपना चैतन्यचमत्कारमात्र स्वभाव है ताकूं स्पर्शनेवाले हैं । बहुरि कैसे 卐 ? पूर्वे किये जे समस्त कर्म अर आगामी होयगे जे समस्त कर्म तिनितें रहित हैं । बहुरि कैसे हैं ? तदात्व कहिये वर्तमानकालमें आवै जो कर्मका उदय तातें भिन्न हैं । ऐसें ज्ञानी हैं ते अति5 शयकरि अंगीकार किया जो चारित्र ताका जो विभव समस्त परद्रव्यका त्याग ताके बलते ज्ञानकी 5
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5 सम्यक्प्रकार घेतना ताकूं अनुभवे हैं। कैसी है ज्ञानवेतना ! चञ्चत् कहिये चिमकती जागती जो चैतन्यरूप ज्योति तिसमयी हैं । बहुरि कैंसी ह ? अपना ज्ञानरूप रस ताकरि सिंच्या है भुवन फ्र कहिये तीन लोक जीहि ।
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भावार्थ -- जनिका राग द्वेष गया अर अपने चैतन्य स्वभावका अंगीकार भया अर अतीत
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| अनागत वर्तमान कर्मका ममत्व गया ऐसे ज्ञानी सर्व परद्रव्यतै न्यारे होय चारित्र अंगीकार करे हैं। ताके बलतें कर्मचेतना अर कर्मफलचेतनात न्यारी जो अपनी चैतन्यके परिणमनस्वरूप ज्ञानवेतना ताकू अनुभवन करे हैं। इहां तात्पर्य यह जानना - जो पहले तो कर्मचेतना अर कर्मफल Paani भन्न अपनी ज्ञानचेतनाका स्वरूप आगम अनुमान स्वसंवेदन - प्रमाणतें जानै अर 卐 ताका श्रद्धान- प्रतीति दृढ करै सो यह तो अविरत देशविरत प्रमत्त अवस्थामैं भी होय है।
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बहुरि जब अप्रमत अवस्था होय है, तत्र अपना स्वरूपहीका ध्यान करे हैं। तब ज्ञानचेतनाका जैसा श्रद्धा किया तिसविपैं लीन होय है। तब श्रेणी चढि केवलज्ञान उपजाय साक्षात् ज्ञान- 5 चेतनारूप होय हैं, ऐसें जानना । अब इस अर्थ गाथामैं कहे हैं। तहां अतीत कर्मतें ममत्व छोड़े सो प्रतिक्रमण है; आगामी न करनेकी प्रतिज्ञा करें सो प्रत्याख्यान है, वर्तमानकर्म उदय आया 卐 ताका ममत्व छोडे सो आलोचना है, ऐसा चारित्रका विधान है, ताकूं कहे हैं। गाथा
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कम्मं जं पुव्वकथं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं ।
तत्तो णियत्तदे अप्पयं तु जो सो पडिकमणं ॥ ७५ ॥
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कम्मं जं सुहमसुहं जह्मिय भावेण वज्झदि भविस्सं । तत्तो णियत्तदे जो सो पक्क्क्खाणं हवे चेदा ॥ ७६ ॥
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जं सुहमसुहमुदिण्णं संपडिय अणेयवित्थरविसेसं । तं दोसं जो चेददि स खलु आलोयणं चेदा ॥७७॥ णिचं पच्चक्खाणं कुव्वदि णिचंपि जो पडिक्कमदि। शिवं आलोयदि सो हु चरित्तं हवदि चेदा ॥७८॥
कर्म यत्पूर्वकृतं शुभाशुभमनेकविस्तरविशेष । तस्मान्निवर्तयत्यात्मानं तु यः स प्रतिक्रमणं ॥७५।। कर्म यच्छुभमशुभं यस्मिंश्च भावे बध्यते भविष्यत् । तस्मानिवर्तते यः स प्रत्याख्यानं भवति चेतयिता ॥७६॥ यच्छभमशुभमुदीर्ण संप्रति चानेकविस्तरविशेषं । तं दोषं चेतयते स खल्वालोचनं चेतयिता ॥७७।। नित्यं प्रत्याख्यानं करोति नित्यमपि यः प्रतिकामति ।
नित्यमालोचयति स खलु चरित्र भवति चेतयिता ॥७८॥ आत्मख्यातिः-य: सलु पुद्गलकर्मविपाकमवेभ्यो भावेम्यश्चेतयितात्मानं निवर्तयति स तत्कारणभूत पूर्वकर्म" + प्रतिक्रामन् स्वयमेव प्रतिक्रमणं भवति । स एव तत्कार्यभूतमुत्तरं कर्म प्रत्याचक्षाणः प्रत्याख्यानं भवति । स एव वर्त
मानकर्मविपाकमात्मनोऽत्यंतभेदेनोपलभमानः, आलोचना भवति । एवमयं नित्यं प्रतिक्रामन्, नित्यं प्रत्याचक्षाणो ॐ नित्यमालोचयंश्च पूर्वकर्मकार्येभ्य उत्तरकर्मकरणेग्यो भावेभ्योत्यंत निवृत्तः, वर्तमानं कर्मविपाकमात्मनोऽत्यंतमेदेनो
पलभमानः स्वस्मिभच खलु वानस्वभाव निरंतरचरणाचारित्रं भवति । चारित्रं तु भवन् स्वस्य ज्ञानमात्रस्य चेतनात् ॐ स्वयमेव शानचेतना भवतीति भावः ।
___ अर्थ-पूर्व अतीतकालमें किये जे शुभ अशुभ ज्ञानावरण आदि अनेक प्रकार विस्तार ..
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卐 विशेषरूप कर्म तिनितें जो चेतयिता आत्मा अपने आत्मा निवर्तन करै छडावै सो आत्मा प्रतिसमय - क्रमणस्वरूप है । बहुरि जो आगामी कालमै कर्म शुभ तथा अशुभ जिस भावके होतें बंधे हे तिस।
अपने भावतें जो चेतयिता निवृत्त होय छूटै सो आत्मा प्रत्याख्यानस्वरूप है । बहुरि जो वर्तमान कालमैं शुभ तथा अशुभ कर्म अनेक प्रकार ज्ञानावरण आदि विस्ताररूप विशेषनिकू लिये उदय
आया ताकू दोषकू जो चेतयिता चेतरूप भया चेते, येदै-अनुभव, तिसका स्वामिपणा कर्तापणा' ' छोडै सो आत्मा आलोचनास्वरूप है । ऐसें जो आत्मा नित्य प्रत्याख्यान करे है, नित्य प्रतिक... मण करे है, निस्य आलोचना करे है सो चेतयिता चारित्रस्वरूप है।
卐 _____टोका-जो आत्मा पुद्गलकर्म के उदयतें भये भावनितें अपने आत्माकू निर्वर्तन करें, छुडावै ।। सो आत्मा तिस भावकू कारणभूत जो पूर्व अतीतकालमैं किये कर्मकूप्रतिक्रमणरूप करता संता । आप ही प्रतिक्रमणस्वरूप होय है । बहुरि सो ही आत्मा पूर्वकर्मका कार्यभूत जो आगामी बंधेगा प कर्म ताकू प्रत्याख्यानरूप करता त्यागता संता आप ही प्रत्याख्यानस्वरूप होय है। बहुरि सो"
ही आत्मा वर्तमान जो कर्मका उदय तातें आपकू अत्यंत भेदकार अनुभवन करता संता प्रवत, ॐ सो आप ही आलोचनास्वरूप होय है । ऐसें यह आत्मा नित्य प्रतिक्रमण करता संता, नित्य ।
प्रत्याख्यान करता संता, नित्य आलोचना करता संता, पूर्वकर्मक कार्यरूप अर उत्तर आगामी
कर्मके कारणरूप जे भाव तिनिते अत्यंत निवृत्तिस्वरूप भया संता, अर वर्तमान जो कर्मका उदय .. .. तातें आपकू अत्यंत भेदकरि पावता संता अपना जो ज्ञानस्वभाव तिस ही विषं निरंतर प्रवर्तनेते। ने आप ही चारित्रस्वरूप होय है। बहुरि ऐसें चारित्ररूप होता संता आपकू ज्ञानमात्र चेतनेते + अनुभवनेते आप ही ज्ञानचेतनास्वरूप होय है, ऐसा भाव है।
भावार्थ-इहां निश्चयचारित्र प्रधानकरि कथन है। तहां चारित्रमै प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान + आलोचनाका विधान है। तहां लग्या दोषतें आत्मा निर्वर्तन करना सो तौ प्रतिक्रमण है। अर...
आगामी दोष लगावनेका त्याग करना सो प्रत्याख्यान है । अर वर्तमान दोषत आत्माकू न्याराका
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5 करना सो आलोचना है। सो निश्चय विधारिये सब तीनू, कालसंधि कमीनंत आत्मा भिन्न समय जानना, श्रद्धना, अनुभवना ऐसे किये आत्मा ही प्रतिक्रमण है, आत्मा ही प्रत्याख्यान है, आत्मा ही आलोचना है। तीनों स्वरूप निरंतर आत्माका अनुभवन सो ही चारित्र है । अर निश्चय卐 ४. चारित्र है सो ही ज्ञानचेतनाका अनुभवन है। इस ही अनुभवतें साक्षात् ज्ञानचेतनास्वरूप heeran आत्मा प्रगट होय है। अब आगे ज्ञानचेतना अर अज्ञानचेतना जो कर्मचेतना अर फ कर्मफलचेतना ताका स्वरूप प्रकट करें हैं। ताकी सूचनिकाका काव्य कहै हैं ।
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उपजातिछन्दः
ज्ञानस्य सञ्चेतनयैव नित्यं प्रकाशते ज्ञानमतीवशुद्धम् ।
अज्ञानसचेतनया तु धावन् बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि बन्धः ||३१||
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अर्थ - ज्ञानकी संचेतनाकरि ही ज्ञान है सो अत्यंत शुद्ध निरंतर प्रकाशे है । बहुरि अज्ञानकी चेतनाकरि बंध है सो दोडता संता ज्ञानकी शुद्धताकू रोके है, न होने दे है ।
भावार्थ -- संचेतना कहिये जो जहां जिसतें एकाग्र होय तिस ही ओर अनुभवरूप स्वाद
four at it fat वरूपचेतना कहिये । सो जब ज्ञानहीतें एकाग्र उपयुक्त होय तिस हो और
चेत राखें सो सौ ज्ञानचेतना है। सो यातें तौ ज्ञान अत्यंत शुद्ध होय प्रकाशे हैं, केवलज्ञान उपजि 5
आवे है तब संपूर्ण ज्ञानचेतना नाम पावे है । बहुरि अज्ञान जो कर्म अर कर्मका फलरूप उपयो
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गहूं करना सो तिस ही ओर एकाग्र होय अनुभव करना सो अज्ञानचेतना है । सो यातें कर्मका
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बंध होय है। सो ज्ञानकी शुद्धताकूं रोके है । अब इस कथन गाथाकरि कहे हैं। गाथावेदतो कम्मफलं अप्पाणं जो दु कुणदि कम्मफलं ।
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सो तं पुणोवि बंदि बीर्य दुक्खस्स अठ्ठाविहं ॥ ७९ ॥
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वेदतो कम्मफलं मयेकदं जो दु मुणदि कम्मफलं । सो तं पुणोवि बंधदि बीयं दुक्खस्स अट्ठविहं ॥ ८०॥ वेदतो कम्मफलं सुहिदो दुहिदो दु हवदि जो चेदा | सो तं पुणोवि बंधदि बीर्य दुक्खस्स अठ्ठाविहं ॥८१॥ वेदयमानः कर्मफलमात्मानं यस्तु करोति कर्मफलं ।
स तत्पुनरपि बनाति बीजं दुःखस्याष्टविधं ॥ ७९ ॥
वेदयमानः कर्मफलं मया कृतं यस्तु जानाति कर्मफलं ।
स तत्पुनरपि बध्नाति बीजं दुःखस्याष्टविधं ॥ ८०॥ वेदयमानः कर्मफलं सुखितो दुःखितश्च भवति चेतयिता । स तत्पुनरपि बध्नाति बीजं दुःखस्याष्टविधं ॥ ८१ ॥
आत्मख्यातिः – ज्ञानादन्यवेद महमिति चेतनं अज्ञानचेतना । सा द्विधा कर्मचेतना कर्मफलचेतना च । तत्र ज्ञाना5 दन्यत्र दमहं करोमीति चेतनं कर्मचेतना । ज्ञानादन्यवेद वेदयेऽहमिति चेतनं कर्मफल चेतनाः । सा तु समरसापि संसार
बीजं । संसारबीजस्याष्टविधकर्मणो योजत्वात् । ततो मोक्षार्थिना पुरुषेणाज्ञानचेतनालयाय सकलकर्मसन्यासभावनां
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सकलकर्मफलसन्यासभावनां च नाटयित्वा स्वभावभूता भगवती ज्ञानचेतनैवैका नित्यमेव नादयितव्या ।
तत्र तावत्सकलकर्मफलसन्यास भावनां नाटयति
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अर्थ - जो आत्मा कर्मका फलकूं वेदता संता कर्मफलकं आपरूप ही करे मार्ने, सो फेरि भी
दुःखका बीज ज्ञानावरण आदि आठ प्रकारका कर्मकूं बांधे है । बहुरि कर्मका फलकूं वेदता संता 5 आत्मा ति कर्मफलकू ऐसें जाने है यह में किया है सो फेरि भी दुःखका बीज ज्ञानावरण 5 आदि आठ प्रकारका कर्मकू बांधे है। बहुरि कर्मका फलकूं वेदता संता आत्मा है सो सुखी दुःखो होय है। सो चेतयिता फेरि भी दुःखका बीज ज्ञानावरण आदि आठ प्रकारका कर्मकूं बांधे है।
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# टीका-ज्ञानतें अन्य जो अन्यभाव ताविर्षे ऐसें चेतै अनुभवै माने, यह जो मैं हौं, सो "अज्ञानचेतना है । सो दोय प्रकार है। कर्मचेतना कर्मफलचेतना । तहां ज्ञानसिवाय अन्य भावनिक 卐 विर्षे ऐसे चेते अनुभवै माने, जो याकू मैं करू हो, सो तो कर्मचेतना है। बहुरि ज्ञानसिवाय .. अन्य भावनिविर्षे एसें चेतै अनुभवै मानै जो याकू में वेद हौं, भोगऊ हो, सो कर्मफल चेतना है। " ॐ सो यह दोऊ ही दोऊ प्रकारकी अज्ञानचेतना है । सो संसारका बीज है। जाते संसारका बीज + - अष्टप्रकार ज्ञानावरण आदि कर्म है। ताका यह अज्ञानचेतना बीज है । यातें कर्म उपजे है बंधे " है । तातें जो मोक्षका अर्थी पुरुष है ताकरि अज्ञानवेतनाका नाशके अर्थी समस्तकको संन्यास-卐 म भावना कहिये पटकी देणेको भावनाकू नवायकरे नृत्य करायकार अर फेरि सना फलकी
संन्यासकी भावना त्यागकी भावनाकू नचायकरि अर अपना स्वभावभूत जो ज्ञानवती भगवती 卐 एक ज्ञानचेतना ताहोकू निरंतर नृत्य करावने योग्य है। तहां प्रथम हो साल के संन्यासको 1. भावनाकू नृत्य करावे हैं । ताका कलशरूप काव्य है।
आयछिन्द: कृतकारितानुमन स्त्रिकाल विषयं मनोवचनकायैः । परिहत्य कर्म सत्रं परमं ने कार्यमलम् ॥३२॥ ___ अर्थ-अतीत अनागत वर्तमानकालसंबंधी सर्व ही कर्म है ताही कृत, कारित, अनुमोदना, अर मन वचन कायकरि परिहारकरि छोडिकरि उत्कृष्ट निष्कर्म अवस्था है, ताही मैं अवलंबन करौ ।।
हों। ऐसें सर्व कर्मका त्याग करनेवाला ज्ञानी प्रतिज्ञा करें है। अब सर्वकर्मका त्याग करनेका । 卐 कृत कारित अनुमोदना मन वचन कायकरि गुणचास भंग होय है। तहाँ अतीतकालसंबंधी कर्मके ++ .. त्याग करनेकू प्रतिक्रमण कहिये । ताके प्रथम हो गुणचास भंग करि कहे हैं। तहां टीकामैं " + संस्कृतपाठ ऐसा है
卐 यदहमकार्य यदचीकरं यत्कुर्व तमध्यन्यं समन्वनामिषं मनसा वाचा च कावेन चेति तन्मिध्या मे दुष्कृतमिति १ .. " यदहमकार्ष यदचीकरं यत्कुर्व तमप्यन्यं समन्वज्ञासिपं मनसा वाचा च तन्मे मिथ्या दुकृतमिति २ यदहमकार्ष यद
5 55 $ 55
जम
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चीरं यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं मनसा च कायेन चेति तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३ यदहमकार्ष यदचीकरं यत्कुर्व तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं वाचा च कायेन चेति तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ४ यदहमकार्ष यदचीकरं यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं मनसा च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ५ यदहमकार्षं यदचीकरं यत्कुर्वं तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं वाचा व तन्मे मिध्या दुष्कृतमिति ६ यदहमकार्य यदचीकरं यत्कुर्वे तमप्यन्यं समन्यज्ञासिषं कायेन च तन्मिथ्या मे 55 दुष्कृतमिति ७ दमकार्ष यदचीकरं मनसा वाचाच कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ८ यदहमकार्ष यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं मनसा च वाचाच कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति
यदहमचीकरं यस्तु तमप्यन्यं
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समन्वज्ञासिपं मनसा च वाचा च कावेन तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १० यदहमकार्ष पदचीकरं मनसा च वाचाच 5 तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ११ दमकार्य सर्वपत्यं न च तन्मिथ्या मे दुष्कृत - मिति १२ यदहचोकरं यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं मनसा च चाचा च तन्मे मिथ्या दुष्कृतमिति १३ यदहमकायदचीकरं मनसा कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १४ यदहमकार्ष यत्कुर्व तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं मनसा च फ्र कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १५ यदहमचीकरं यत्कुर्व तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं मनसा च कावेन च तन्मिथ्या 5 मे दुष्कृत मिति १६ यदहमकार्ष यदचीकरं वाचाच कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १७ यदा चाचा च कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १८ यदहमचीकरं यत्सुतमप्यन्यं समन्वशासि वाचाच कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ११ यदहमकार्षं यदचीकरं मनसा च तन्मध्या मे दुष्कृतमिति २० हमकार्ष यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्यज्ञासिषं मनसा च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २१ यदहमचीकरं यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं मनसा च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २२ यदहमकार्ष यदचीकरं वाचा व तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २३ यदहमकार्ष यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं वाचा च तन्मिथ्या में दुष्कृतमिति २४ यदहम वीरं तमप्यन्यं समन्वज्ञामिषं वाचाच तन्मिथ्या मे दुष्कृतं २५ यदहमकार्ष यदचीकरं कायेन च तन्मया मे दुष्कृतमिति २६ दहम• कार्य यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासिवं कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतं २७
मप्यन्यं समझा
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समन्वज्ञासिषं
कायेन तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २८ यदद्दमकार्ष मनसा च वावा च कायेन च तन्मय से दुष्कृतमिति २६ यदकरं मनसा च याचाच कायेन च तन्मिथ्या से दुष्कृतं ३० यत्कुर्वतमप्यन्यं सममाचवावा न कायेन च तन्मिथ्या में दुष्कृतमिति ३१ यदहमकार्ष मनसा च वाचा व कायेन च तन्मिथ्या में दुष्कृतमिति ३२ यदहम रोकरं मनसा च याचा च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३३ यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं मनसा चबाना च वन्मिथ्या मे 55
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.. दुष्कृतमिति ३४ यदहमकार्ष मनसा च कायेन च तन्मिच्या मे दुम्कृतमिति ३५ यदहमचीकर. मनसा च कायेन च
तन्मिए से दुष्कर्यायति ३६ परामप्यायं तमन्नज्ञासिपं मनसा च कायेन च सन्मिध्या मे दुष्कृतमिति ३७ यद- . 1. इमकार्ष वाचा च कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३८ यदहम वीकर वाश च कायेन च तन्मिथ्या में दुष्कृत
मिति ३६ यत्तुर्वतमप्यन्यं समन्वन्नासिर्फ चावा च कायेन च तन्मिध्या में दुष्कृतमिति ४० यदहमकार्ष मनसा च ॥ तन्मिथ्या मे दुष्कृतं ४१ यदहमचीकरं मनसा च तन्मिध्या में दुष्कृतं ४२ यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासिपं मनसा च .. "तन्मिध्या में दुष्कृतमिति ४३ यदहमका वाचा च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ४४ यदहमचीकरं वाचा च तन्मिथ्या में म प्रदुष्कृतमिति ४५ तत्कुर्वतमप्यन्यं समन्यत्रासिकं वाचा च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ४६ यदहमकार्ष कायेन च तन्मिध्या ..
"मे दुष्कृतमिति ४७ यदहमधीकरं कायेन च तन्मिध्या में दुष्कृतमिति ४८ यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं कायेन चक 卐तन्मिन्या मे दुष्कृतमिति ४६ ।
अर्थ-प्रतिक्रमण करनेवाला कहे है-जो मैं दुष्कृत कहिये पापकर्म अतीतकालमैं किया था, . 卐 अर अन्य प्रेरिकरि कराया था, अर अन्यकू करते अनुमोया था भला जाण्या था, मनकरि, वचनकरि, कायकरि, सो मेरा पापकर्म मिथ्या होऊ।
भावार्थ-पापकर्म• संसारका बीज जाणि हेयबुद्धि आई तब ममत्व छोडथा, यह ही मिथ्या है 1- करना । ऐसें यह एक भंग भया । सो याकी समस्या ऐसी-जो कृत कारित अनुमोदना ए तीन
॥ है, ताका तौ तीनका अंक स्थापिये । बहुरि मन वचन काय ए भी तीन यामें लागै। ताते याका 21 जज दूसरा तीया स्थापिये तब तेतीसका अंक भया । सो इस भंगकू तेतीसका है, ऐसा नाम कहिये।।
३३।१। ऐसे ही टीकामें अन्यभंगनिका संस्कृत पाठ है, तिनिकी वचनिका करि लिखिये है । जो । पापकर्म में अतीतकालमें किया, अर अन्यकू प्रेरणा करि कराया, अर अन्यकू करतेकू भलाभ
जाण्या, मनकरि वचनकरि सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । ऐसा दूसरा भंग है। इहां समस्याककृत कारित अनुमोदनाका सौ तीया ही है । अर मन अर वचन दोय ही लागे । काय न लागे।' ... तातें दोयका अंक थायिये, तब तीया अर दूवा ऐसे बत्तीसका भंग नाम भया । ३२।२ । बहुरि ..
जो पापकर्म मैं अतीतकालमैं कीया, अन्यकू प्रेरणा करि कराया, अर अन्यकू करतेकू भला आण्या, ।
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मनकरिअर कायकरि सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । ऐसा तीसरा भंग है इहां कृत कारित 5 अनुमोदनाका तौ तीया ही भया । अर मनकरि अर कायकरि ऐसें दोय लागे । याते तोया दूवा ऐसें याका नाम बत्तीसका भंग भया । इहां वचन न लाग्या । ३२ । ३ । बहुरि जो पापकर्म में अतीतकाल में किया, अर अन्यकू प्रेरणा करि कराया, अर अन्यकूं करतेकू भी भला जाण्या, फ 5 वचनकरि अर कायकरि सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । ऐसा चौथा भंग है । इहां कृत कारित अनुमोदना तो तीया ही है। अर वचन अर काय दोय लागे । मन न लाग्या । तातें दूषा भया । 卐 5 तातें याकूं भी बत्तीसका भंग कहिये । इहाँ ताई बत्तोसके तीन भंग भये । ४३२ ॥ बहुरि जो पापकर्म अतीतकाल में मैं किया अर अन्यकू प्रेरणा करि कराया, अर करतेकू भला जाण्या, मनहीकरि, सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । ऐसा पांचमा भंग भयो। यहां कृत फ कारित अनुमोदनाका तौ तीया ही है अर एक मन ही लाग्या ताका एका भया । वचन काय न लाग्या । तातें याका नाम इकतीसका भंग का । ५।३१ । बहुरि जो मैं अतीतकालमैं पापकर्म 5 किया अर अन्यकू प्रेरणा करि कराया अर अन्यकू करतेकू भला जाण्या, वचनकरि, सो पाप卐 कर्म मेरा मिथ्या होऊ | ऐसा छडा भंग भया । इहां कृत कारित अनुमोदनाका तो तीया ही है। फअर वचन ही एक लाग्या, मन काय न लाग्या । तातें तीया एका ऐसें इकतीसका भंग नाम भया । ६।३१ | बहुरि जो मैं पापकर्म अतीतकालमें किया, अर अन्यकूं प्रेरिकरि कराया, अर अन्य करते भला जाण्या कायकरि, सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । ऐसा यह सातवा भंग भया । इहां कृत कारित अनुमोदनाका तौ तीया ही है अर काय एक ही लाग्या । मन वचन न लाग्या । ता ता एका ऐसा इकतीसका भंग नाम भया । ७१३१ । ऐसे इकतीसके भी तीन ही गंग 5 भये ।
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बहुरि जो पापकर्म मैं अतीतकाल मैं किया, अर जो अन्यकू प्रेरिकरि कराया, मन वचन काय卐 फ करि, सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । ऐसा यह आठवा भंग भया इहां कृत कारित ए दोय
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हो लगाये, अर मन वचन काय तीनूं लगाये। तातें दुधा तीया ऐसा समस्यामैं तेईसका भंग 1+ नाम भया १८१२३ । बहुरि जो पापकर्म अतीतकालमै मैं किया, अर अन्यकू करतेकू मला 1- जाण्या, मन वचन कायकरि, सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । ऐसा नवमा भंग है । इहां कृत अनु" मोदना ए दोय ही लीये । अरमन वचन काय तीन ही लामै । तातें दूवा तीया ऐसी तेईसकी :
समस्या भई । तातें तेईसका भंग नाम पाया । ९।२३ । बहुरि जो पापकर्म में अन्यकू प्रेरिकरि ..
कराया, अर अन्य करतेकू भला जाण्या मन वचन कायकरि, सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ। 卐ऐसा यह दशमा भंग है। इहां कारित अनुमोदना दोय ही लिये अरमन वचन काय तीन ही । ..लागे। तातें तेईसकी समस्याका भंग भया । १०३२ । ऐसे तेईसके भी तीन ही भंग भये।। म बहुरि जो पापकर्म में अतीतकालमें किया, अर अन्य प्रेरिकरि कराया मन वचनकरि सो - पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । ऐसा यह ग्यारहमा भंग भया । यामें कृत कारित दोय लिये। अर "मन वचन दोय लागे । तातें दोय दोय ऐसी बाईसकी समस्यातें बाईसका भंग नाम कहिये। ११।२२ । बहुरि जो पापकर्म में अतीतकालमें किया, अर अन्य करतेक भला जाण्या मनकरि
वचनकार, सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । ऐसा बारवा भंग है । यामें कृत अनुमोदना दोय : जलिये । मन वचन ए दोय लागे । ताते वोईसकी समस्यातें बाईसका भंग कहिये । १२॥२२ । ....बहुरि जो पापकर्म में अतीतकालमें किया, अर अन्य प्रेरि कराया, अर अन्य करते भला । 卐 जाण्या मनकरि वचनकरि सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । ऐसा तेरवा भंग है। यामैं कृत कारित ५
दोय लीये । मन वचन दोय लागे । तातें बाईलको समस्यातें बाईसका भंग नाम पाया ।१३।२२
वहुरि जो मैं अतीतकालमें पापकर्म किया, अर अन्यकू प्रेरि कराया मनकरि कायकरि सो मेरा ॥ पर पापकर्म मिथ्या होऊ । यह चौदवा भंग भया । यामैं कृत कारित दोऊ लिये । मन काय दोष .. "लागे । तातें बाइसकी समस्यातें बाईसका भंग कहिये ।१४।२२ । बहुरि जो पापकर्म में किया ।
अतीतकालम, अर करतेकू अन्यक भला जाण्या मनकायकरि ऐसा पंदरवां भंग है। यामें कृत
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अनुमोदना लिया। अर मन काय लागे । तातै बाईसका भंग कहिये ।१५।२२ । बहुरि जो पाप, कर्म में अन्य प्रेरिकरि कराया, अर अन्य करतेकू भला जान्या मनकरि कायकरि सो पाप
कम मेरा मिथ्या होऊ । ऐसा सोलवा भंग है । यामैं कारित अनुमोदना लिया। मन काय लागा। जतातें बाईसकी समस्यातें बाईसका भंग नाम है । १६।२२ । बहुरि जो पापकर्म मैं अतोतकालमें)
किया, अर अन्य प्रेरिकरि कराया वचनकरि कायकरि सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । यह ॐ सतरावां भंग है। यामैं कृत कारित लिया। बचन काय लाग्या । तातं वाईसकी समस्यातें बाईक 1. सका भंग कहिये । १७१२२ । बहरि जो पापकर्म मैं अतीतकालमें किया, अर अन्य करते ।
" भला जाण्या वचनकरि कायकरि सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । यह अठारवा भंग है। यामै । + कृत अनुमोदना लिया । वचन काय लागे। तातें बाईसकी समस्याते वाईसका भंग कहिये । १८५
" २२ । बहुरि जो पापकर्म अतीतकालमैं अन्य प्रेरिकार में कराया, अर अन्य करतेकू भला 卐 जाण्या वचनकार कायकरि सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । यह उगगोलवां भंग है । यामैं कारित ... अनुमोदना ए दोय लिये । अर वचन काय लागा । तातें बाईसकी समस्यातें बाईसका भंग कहिये ।। ।१९।२२ । ऐसे बाईसकी समस्याके नव भंग भये ।
बहुरि जो मैं पापकर्म अतीतकालमें किया, अर अन्य प्रेरिकरि कराया एक मनहिकरिब " सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । यह वीसवा भंग है । यामैं कृत कारित दोय लिया। अर एक
मन ही लागा । तातें दूवा एकातें इकईसकी समस्यातें इकईसका भंग कहिये । २०२१ । बहुरि ॥ " जो पापकर्म में अतीतकालमैं किया, अर अन्य करतेक भला ज्ञाण्या मनकरि सो पापकर्म म मेरा मिथ्या होऊ । यह इकईसवां भंग है । या कृत अनुमोदना ए दोय लिये। एक मन लागा।' __ तातें इकईसकी समस्यातें इकईसका भंग कहिये ॥२१॥२१॥ बहुरि जो पापकर्म किया में अतीत卐 कालमें अर अन्यकू प्रेरिकरि कराया, अर अन्यकू करतेषू भला जाण्या मनकरि, सो मेरा ।
पापकर्म मिथ्या होऊ । यह वाईसवां भंग है। यामें कारित अनुमोदना ए वोय लिये । अर एक ।
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मन लागा। तातें इकईसकी समस्यातें इकईसका भंगनाम है ।। २२|२१|| बहुरि जो मैं पापकर्म अतीतकाल में कीया । अर अन्यकूं प्रेरिकरि कराया वचनकरि सो मेरा पापकर्म मिथ्या होऊ । यह 5 है कारित ए दोय लिये । अर वचन ही लोगा ताका दूवा एका ऐसा इकइसकी समस्या इसका भंग कहिये ।२३।२१ | बहुरि जो मैं पापकर्म अतीतकाल में किया, अर फ अन्यकू करतेकू भला जाण्वा वचनकरि, सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । यह चौबीसवां भंग है । 卐 या कृत अनुमोदना ए दोष लिये। अर एक वचन ही लागा। तातें इकईसकी समस्यातें इकइसका भंग कहिये । २५।२१ । बहुरि जो पापकर्म में अतीतकाल में अन्य प्ररिकरि कराया, 卐 अर करते अन्यकूं ते भला जाण्या वचनकरि, सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । यह पचीसवां भंग भया । या कारित अर अनुमोदना ए दोष लिये । अर एक वचन ही लागा। इसकी समस्या इकईसका भंग भया । २५/२१ । बहुरि जो पापकर्म में अतीतकाल में किया अर अन्यकूं प्रेरिकरि कराया कायकरि सो मेरा पापकर्म मिथ्या होऊ । यह छवोसवां भंग है। फ
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मैं कृत कारित दाय लिये। अर एक काय लगाया। तातें इकईसकी समस्यातें इकईसका
भंग कहिये | २६।२१ | बहुरि जो पापकर्म अतीतकालमें किया, अर अन्य करलेकू भला जाण्या फ कायकर, सो पाप कर्म मेरा मिथ्या होऊ । यह सताईसवां भंग है । या कृत अनुमोदना दोय 卐 लोये । अर एक काय लागा । तार्ते इकईसकी समस्यातें इकईसका भंगनाम कहिये | २७१२१ । बहुरि जो पापकर्म में अतीतकालमै अन्यकं प्रेरिकरि कराया, अर अन्यकूं करतेकू भला जाण्या arraft सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । यह अठाईसवां भंग है । या कारित अनुमोदना ए दो ले, एक काय लगाया। तातें इकईसकी समस्यातें इकईसका भंग नाम है । २८|२१| 5 ऐसे इकईसके नव भंग भये ।
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बहुरि जो पापकर्म अतीतकाल में मैं किया, मनकरि वचनकार कायकरि सो पापकर्म मेरा 5 मिथ्या होऊ । यह गुणतीसवां भंग है। यामैं कृत एकही ले, मन वचन काय तीनू लगाये
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5 तातें तेराको समस्यातें तेराका भंग कहिये ॥२९॥१३॥ बहरि जो पापकर्म अतीतकालमें मैं' उप - अन्यकुंप्रेरिकरि कराया मावचनकायकरि सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ। यह तीसका भंग है।..
या कारित एक ले, मन वचन काय तीनू लगाये । ताते एक तीयाते तेराकी समस्याते तेराकाका 9 भंग कहिये ॥३०॥१३॥ बहुरे जो पापकर्म में अतीतकालमैं अन्यकू करतेकू मला जाण्या मनकरि ।
वचनकरि कायकरि सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । यह इकतीस भंग है। यामैं अनुमोदना। 卐 एक ले, मन वचन काय तो लगाये। ताते एका तीया तेराकी समस्यातें तेराका भंग है .. ॥३१॥१३॥ ऐसे तेराके समस्याके तीन भंग भये ।
। बहुरि जो पापकर्म अतीतकालमैं मैं किया मनवचनकरि सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । 1- यह बत्तीसवां भंग है। यामैं कृत एक ले, मन वचन ए दोय लगाये। ताते बाराकी समस्यातें ...
बाराका भंग कहिये ॥३२॥१२॥ बहुरि जो पापकर्म में अतीत कालमें अन्यकू प्रेरकरि कराया म मनकरि वचनकरि सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ। यहे तेतीसवां भंग है । यामें कारित एक ले,..
मन वचन ए दोय लगाये। ताते एका दुवा ऐसी बारहकी समस्याते बाराका भंग कहिये। ॥३३॥१२॥ बहुरि जो पापकर्म अतीतकालमै मैं अन्यकू करतेकं भला जाण्या मनकरि बचनकरि सो यह पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ। यह चौतीसवां भंग भया। यामैं अनुमोदना एक ले, मन" वचन ए दोय लगाये । ताते एका दूवा एसा वारहका भंग कहिये ॥३४॥१२॥ बहुरि जो पापकर्म) अतीतकालमैं मैं किया मनकरि कायकरि सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ। यह पैतीसवां भंग है।.. यामें कृत एक ले, मन अर काय ए दोय लगाये। तातें वारहकी समस्यात वाराका भंग कहिये, ॥३५॥१२॥ बहुरि जो पापकर्म अतीतकालमैं अन्य प्रेरिकरि कराया मनकरि कायकरि सो
पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । यह छतीसवां भंग है। यामें कारित एक ले, मन अर काय ए दोय" 卐 लगाये ताते वारहकी समस्यातें बारहका भंग कहिये ॥३६॥१२॥ बहुरि जो पापकर्म अतीत
कालमै मैं अन्यकू करतेषू भला जाण्या मनकारि कायकरि सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ। यह
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सेतीसवां भंग है। यामैं अनुमोदना एक ले, मन अर काय लगाये। तातें चारहकी समस्यातें .. बारहका भंग कहिये ॥३७॥१२।। बहुरि जो पापकर्म मैं अतीतकाल में किया वचनकरि कायकरि । सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ। यह अठतीसवां भंग है। यामैं कृत एक ले, वचन अर काय । दोय लगाये। तातें बारहको समस्यातें बारहका भंग कहिये ॥३८॥१२॥ बहुरि जो पापकर्म अतीतकालमै मैं अन्यकू प्रेरिकरि कराया वचन कायकरि सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ। यह
गुणतालीसवां भंग है। यामैं कारित एक ले, वचन काय दोय लगाय, तातें बारहको समस्यातें + बारहका भंग कहिये ॥३९।१२।। बहुरि जो पापकर्म अतीतकालमें मैं अन्यकू करतेषू भला
जाण्या वचनकार कायकरि सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ। यह चालीसवां भंग है। यामें अनुमोदना एक ले, वचन अर काय ए दोऊ लगाये ! लाते बारड़की समस्यातें बारहका भंग कहिये ॥४॥१२॥ ऐसें बारहकी समस्याके नव भंग भये।
बहुरि जो पापकर्म में अतीतकालमैं किया मनकरि, सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ। यह इकतालीसवां भंग है । यामैं एक कृत ले, एक मन लगाया। तातें ग्यारहकी समस्यानै ग्यारह- -
का भंग कहिये ॥४१॥११॥ वहरि जो पापकर्म में अतीतकालमें अन्य प्रेरिकरि कराया मनकरि । 1- सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । यह बियालीसवां भंग है। यामें एक कारित ले, एक मन
लगाया, तातें ग्यारहकी समस्याते ग्यारहका भंग कहिये ॥४२॥११॥ बहुरि जो पापकर्म अतीतकालमें मैं अन्यकू करतेकं भला जाण्या मनकरि, सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ। यह तियालि-卐
सवां भंग है । यामें एक अनुमोदना ले, एक मन लगाया। तातें ग्यारहकी समस्यात ग्यारहका ... 9 भंग भया ४३।११ बहुरि जो पापकर्म मैं अतीतकालमैं किया वचनकरि, सो पापकर्म मेरा मिथ्या
होऊ । यह चवालीसवां भंग है । यामें एक कृत ले, एक वचन लगाया। तातें म्यारहकी समस्यात् ।। । ग्यारहका भंग कहिये । ४४।११ । बहुरि जो पापकर्म अतीतकालमें में अन्य प्रेरिकरि कराया । - वचनकरि सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । यह पैतालीसवां भंय है । यामें कारित एक ले, एक
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फ वचन लगाया। तातें ग्यारहकी समस्या म्यारहका भंग कहिये | ४५|१२| बहुरि जो पापकर्म aaraarat में अन्यकू करतेकू भला जाण्या वचनकरि, सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । यह 5 छियालीसवां भंग है। यामैं एक अनुमोदना ले एक वचन लगाया। तातें ग्यारहकी समस्यातें ग्यारहका भंग कहिये । ४६ । ११ । बहुरि जो पापकर्म अतीतकाल में मैं किया कायकरि सो urved मेरा मिथ्या होऊ । वह सैतालीसवां भंग है यामैं एक कृत ले, एक काय लगाया । तातें 卐 5 ग्यारहकी समस्यातें ग्यारहका भंग कहिये । ४७|११| बहुरि जो पापकर्म में अतीतकालमें अन्यकूं 5 प्रेरिका र कराया काय करि, सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । यह अठतालीसवा भंग है । यामें एक 5 कारित ले, एक काय लगाया । तातें ग्यारहकी समस्यातें ग्यारहका भंग कहिये | ४८१११ | बहुरि 5 जो पापकर्म अतीतकाल में अन्यकूं करतेकूं भला जाण्या कायकरि, सो पापकर्म मेरा मिथ्या होऊ । यह गुणचासवां भंग है । यामें एक अनुमोदना ले, एक काय लगाया । तातें एका एका ऐसें फ ग्यारह की समस्यातें ग्यारहका भंग कहिये । ४९।११। ऐसे ग्यारहके नव भंग भये । ऐसे गुणचास भंग हैं । तिनि तेतीसकी समस्याका एक १ । बत्तीका तीन ३ । इकतीसका तीन ३ । तेई - 5 सका तीन ३ । बाईसका नव ९ । इकईसका नव ९ । तेराका तीन ३ । बारहका नव ९ । ग्यारहका नव ९ । ऐसे सब मिलि गुणचास भये ।
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इन गुणचा भंगनिका संक्षेपपाठ ऐसा जानना - कृत कारित अनुमोदना मन वचन कायकरि ।
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३३ | ए तेतीसकी समस्याका भांग । १ । कृत कारित अनुमोदना मन वचनकरि । ३२ । कृतकारित अनुमोदना मन कायकरि ३२ | कृत कारित अनुमोदना वचनकायकरि ३२ । ए तीन बत्तीसकी समस्याका ३ | कृत कारित अनुमोदना मनकरि । ३१ । कृत कारित अनुमोदना वचनकरि । ३१ । कृत कारित अनुमोदना कायकरि । ३१ । ए इकतीसकी समस्याका तान 卐 5 । ३ । कृत कारित मन वचन कायकरि । २२ । कृत अनुमोदना मन वचन कायकरि । २. कारित अनुमोदना मन वचन कायकरि । २३। ए तेईसकी समस्याका तीन ॥ ३॥ कृत कारित मन
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"वचनकरि ।२२। कृत अनुमोदना मन वचनकरि । २२ । कारित अनुमोदना मन वचनकरि ।२२। 5कृत कारित मनकायकरि ।२२॥कृत अनुमोदना मनकायकरि ।२२० कारित अनुमोदना मनकार्यकार: ....१२२॥ कृत कारित वचनकायकरि । २२ ! कृत अनुमोदना वचनकायकरि ।२२। कारित अनुमोदना
वचन कायकरि ।२२। ए नव वाईसको समस्याको ।९। कृत कारित मनकरि ।२१। कृत अनुमोदना - मनकरि ।२१। कारित अनुमोदना मनकरि ।२१॥ कृत कारित वचनकरि ।२१। कृत अनुमोदना वचन । "करि ।२१। कारित अनुमोदना वचनकार ॥२१॥ कृत कारित कायकरि । २१ । कृत अनुमोदना "
कायकरि । २१ । कारित अनुमोदना कायकरि । २१ । ए नव इकईसकी समस्याका है।९। "कृत मन वचन कायकरि । १३ । कारित मन वचन कायकरि । १३ । अनुमोदना मन वचन प्रकायकरि ।१३। ए तेराकी समस्याका तीन । ३ । कृत मन वचनकरि । १२ । कारित मन वचन-
करि बारह ।१२। अनुमोदना मन वचनकरि १२॥ कृत मनकायकरि । १२ । कारित मनकायकरि 卐१२॥ अनुमोदना मनकायकरि । १२ । कृत वचनकायकरि ।१२। कारित वचनकायकरि । १२ । 卐
अनुमोदना वचनकायकरि ।१२। ए नव बाराको समस्याका है । ९ । कृत मनकरि । ११ । कारित मनकरि ।११। अनुमोदना मनकरि ।११। कृत वचनकरि ।११। कारित वचनकरि ।११। अनुमोदना - वचनकरि ।११। कृत कायकरि ।११। कारित कायकरि ।११। अनुमोदना कायकरि ।११। ए नव . ग्याराकी समस्याका है। ५ । ऐसे तेतीसका एक ।। बत्तीसका ३ । इकतीसका ३ । तेईसका ३ । बाईसका ९ । इकईसका ९ । तेराका ३ । बाराका ९ । ग्याराका ९ । सब मिलि गुणचास + भये । अब इस कथनका कलशरूप काव्य है सो लिखिये है। ___मोहाधदहमकाएं समस्तमपि कर्म तत्प्रतिक्रम्य । आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ॥३३॥ ॥ र अर्थ—जो में मोहर्ते अज्ञानते, अतीतकालविर्षे कर्म किये तिनि समस्तहीकू प्रतिकमणरूप- 1 "करि अर समस्त कर्मते रहित चैतन्यस्वरूप जो आत्मा ताविर्षे आपहीकरि निरंतर बतौ हौं।' ॐ ऐसें ज्ञानी अनुभव करे।
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भावार्थ-अतीतकालमें किये कर्मका गुणचास भंगरूप मिथ्याकार प्रतिक्रमणकरि ज्ञानी । ज्ञानस्वरूप आत्माविर्षे लीन होयं निरंतर अनुभव करें । ताका यह विधान है । मिथ्या कहनेका - प्रयोजन यह जो जैसे कोई पहलै धन कमाय घरमे धरथा था। पीछे तासू ममत्व छोइया ।
तब ताका भोगनेका अभिप्राय नाहीं । कमाया था जैसा न कमाया । तेसे कर्म वांध्या था, ताकू卐 म अहित जानि ममत्व छोडया। ताका फलमें लीन न होयगा, तब बांध्या तैसा न बांध्या मिथ्या -
ही है । ऐसा जानना । ऐसा प्रतिकमणकल्प है । अब आलोचनाकल्प है। तहां संस्कृत टीका-: 卐 का पाठ ऐसा
___न करोमि न कारयामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च बाचा च कायोन चंति १ न करोमि नऊ 卐 कारयामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च वाचा गेति २ न करोमि न कारयामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजा- ..
नामि वाचा च कायेन चेति ३ करोमि न कारयामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा कायेन चेति ४ न करोमि न म 卐 कारयामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा चेति ५ न करोमि न कारयामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि वाचा ..
चेति ६ न करोमि न कारयामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि कायेन चेति ७ न करोमि न कारयामि मनसा च वाचा । 卐च कायेन चंति ८ न करोमि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च वाचा च कायेन चेति , न कारयामि न कुर्वत- ।।
मप्यन्यं समनुजानामि मनसा च याचा च कायेन चेति १० न करोमि न कारयामि मनसा च बाचा चेति ११ न । 卐 करोमि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च याचा चेति १२ न कारयामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा +
व काचा गेति १३ न करोमि न कारयामि मनसा च कायेन चति १४ न करोमि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि । 卐 मनसा च कायेन चेति १५ न कारयामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च कायेन चेति १६ न करोमि न
कारयामि वाचा च कायेन चेति १७ न करानि न कुतमप्यन्यं समनुजानामि वाचा च कायेन चंति १८ न " ' कारयामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि वाचा च कायेन चेति १६ न करोमि न कारयामि मनसा चंति २० न
करोमि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा चेति २१ न कारयामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा चति
२२ न करोमि न कारयामि वाचा चेति २३ न करोमि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि वाचा चेति २४ न कार.' - यामि न कुर्वतमप्यन्य समनुजानामि वाचा चेति २५ न करोमि न कारयामि कायेन चंति २६ न करोमि न
कुर्वतमप्यन्य समनुजानामि कायेन चेति २७ न कारयामि न कुर्वतमप्यन्य समनुजानामि कायेन चेति २८ न卐
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5 करोमि मनसा च वावा व कायेन चति २१ न कारयामि मनसा व बाचा च कायेन चेति ३० न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा वाचा कायेन चेति ३१ न करोमि मनसा च वाचाच कायेन चेति ३२ न कारयामि फ मनसा वाचा चेति ३३ न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च वावा चेति ३२ न करोमि मनसा च बाराचेति ३५ न कारयामि मनसा च कायेन चेति ३६ न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च कायेन चेति ३७ न 5 करोमि बाचाच कायेन चेति ३८ न कारयामि बाचा व कायेन चेति ३६ न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि वाचा च कायेन चेति ४० न करोमि मनसा चेति ४१ न कारयामि मनसा चेति ४२ न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा 卐 5 बेति ४३ न करोमि वा । चेति ४४ न कारयामि वाया चेति ४५ न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि वाश चेति ४६ amiti ४७ न कारयामि कार्यन चेति ४८ कुर्वताप्यन्यं समनुजानामि कायेन चेति ४६ । याका अर्थ - या वर्तमान कर्तापणाका निषेध है । जो में कर्मकू न करौ हौं, न अन्यकूं प्रेरि कराऊं हौं, न अन्यकूं कर्ताकूं भी भला जानू हौं, मनकरि वचनकार कायकरि । ऐसा प्रथम भंग है । या कृत कारित अनुमोदना इनि तीन निपरि मन वचन काय लगाये । तातें तीनतीनका अंकको समस्या तेतीसका भंग कहिये | ११३३ | ऐसे ही अन्यभंगनिके संस्कृत पाठ हैं; तिनकी वचनका लिखिये । तहां - वर्तमान कर्मकूं मैं न करो हौं, न अन्यकू प्रेरिकरि फ कराऊं हों, न अन्यकूं करतेकू भला जाणू हौं, मनकरि वचनकरि । ऐसा दूसरा भंग है । यामैं कृत कारित अनुमोदना इनि तीननिपरि मन वचन ए दोष लगाये । तारें तीया दुवा ऐसें बत्ती5 सकी समस्याका भंग वाहिये | २|३२| बहुरि वर्तमानकर्मकू में नाहीं करौ हौं, अन्यकू प्रेोरे कराऊ' नाहीं हौं, अन्यकू करतेकूं भला नाहीं जानू हौं मनकरि कायकार, ऐसा तीसरा भंग है । यामैं कृत कारित अनुमोदना परि मन काय लगाये । तब बत्तीसकी समस्याका भंग भया | ३ | ३२ | बहुरि वर्तमानकर्मकूं मैं नहीं करौ हौं, अन्यकू' प्रेरिकरि कराऊं नाहीं हौं, अन्यकू करतेकूं अनुमोद नाहीं हौं, भला न जा वचनकरि कायकरि । ऐसा चौथा भंग है। यामैं कृत कारित अनुमोदना क 15 इनि तीननिपरि वचन काय ए दोष लगाये तब बत्तीसकी समस्याका भंग भया । ४१३२ । ऐसें बत्तीसकी समस्या तीन भंग भये ।
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... बहरि वर्तमानकर्मकं मैं करूं नाही हौं, अन्यकू प्रेरि कराऊं नाही हौं, अन्यकं करते । भला न जाणं हौं मनकरि ऐसा पांच भंग है। या कृत कारित अनुमोदना इनि तीननिपरि । एक मन लागा । तातें इकतीसको समस्याका भंग भया ॥५॥३१॥ बहुरि वर्तमानकर्मकू में करूं..
नाहीं हों, अन्य प्रेरि कराऊं नाहीं हौं, अन्यकू करतेकू भला नाहीं जानूहों वचनकरि, ऐसा । 卐 छठा भंग है । यामैं कृत कारित अनुमोदना इनि तीनानेपरि एक वचन लागा । तातें इकतीसकी ... समस्याका भंग कहिये ॥६॥३१॥ बहुरि वर्तमानकर्मक मैं करूं नाही हौं, अन्यकू प्रेरि कराऊं। 7 नाही हौं, अन्यकू करते• भला नाहीं जानू हौं कायकार, यह सातमा भंग है। यामें कृत
कारित अनुमोदना इनि तीननिपरि एक काय लागा। तातै इकतीसकी समस्याका भंग भया ।। जा ७३१॥ ऐसें इकतीसको समस्याके तीन भंग भये ।
卐 पर बहुरि वर्तमानकीकू मैं चार माह ही अन्य प्रेरि कराऊंनाही हो मनकरि वचनकरि ।
कायकरि, यह आठवां भंग है। यामैं कृत कारित इनि दोयपरि मन वचन काय तीन लगाये।। 卐 तातें तेईसको समस्याका भंग कहिये ।।८।२३।। बहुरि वर्तमानकर्मकू मैं करूं नाही हौं, अन्य
करतेकू भला नाहीं जान हो मनकरि वचनकरि कायकरि, यह नवमां भग है। यामें कृत" अनुमोदना इनि दोयपरि मन वचन काय ती लगाये । तातें तेईसको समस्याका भग भया' ॥९॥२३॥ बहुरि वर्तमानकर्म... मैं अन्यकू प्रेरिकरि कराऊ नाही हौं, अन्यकू करतेभला नाहीं .. जानू हौं मनकरि वचनकरि कायकरि, यह दशमा भंग है। पामें कारित अनुमोदना इनि
वोयपरि मन वचन काय ती लगाये। तात तेईसकी समस्याका भंग भया ॥१०॥२३॥ ऐसें " तीन भंग तेईसकी समस्याके भये ।। + बहुरि वर्तमानकर्मकू मैं करूं नाही हौं, अन्य प्रेरि कराऊ नाही हौं, मनकरिवचनकार, ऐसा'
म्यारवां भंग है। यामैं कृत कारित इनि दोयपरि मन वचन ए दोय लगाये तात बाईसकी सम-... 卐 स्याका भंग भया । ११२२ । बहुरि वर्तमानकर्मकू मैं करू नाही हौं अन्य करतेषू भला नाही
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जानू' हो मनकरि वचनकरि, यह धारवा भंग हैं । यामैं कृत अनुमोदना इनि दोऊनिपरि मन वचन ए दोष लगाये । तातें बाईसकी समस्याका भंग भया ।१२।२२। बहुरि वर्तमानकर्मकू मैं क 5 अन्यकुं प्रेरि नाहीं कराऊ हों, अन्यकुं करतेकू भला नाहीं जानू हौं मनकरि वचनकर, ऐसा 卐 तेरवां भंग है । यामै कारित अनुमोदना इनि दोयपरि मन वचन ए दोष लगाये । तातें बाईसकी समस्याका भंग भया । १३।२२ । बहुरि वर्तमानकर्म मैं करूं नाहीं हो, अन्यकू प्रेरि कराऊ नाहीं ही मनकरि कायकरि, यह चौदवां भंग है । यामै कृत कारित इनि दोयपरि मन काय ए दोय लगाये । ता बाईसकी समस्या भई । १४१२२ । बहुरि वर्तमानकर्मकूं मैं करू नाहीं हौं, 5 अन्यकूं करते अनुमोदू नाहीं ही मनकरि कायकरि, यह पंदरत्रां भंग है । या कृत अनुमोदना so दोय लगाये । तातें वाईसकी समस्या भई | १५|२२ । बहुरि वर्तमान 5 5 कर्मकू अन्यकूं प्ररिकरि में कराऊं नाहीं हौं, अन्यकूं करतेकू अनुमोदू नाहीं हौं मनकरि कायकर, यह सोलवां भंग है । यामैं कारित अनुमोदना इनि दोयपरि मन काय ए दोष लगाये । तातें बाई5 सकी समस्या भई । १६।२२। बहुरि वर्तमानकर्म मैं करू नाहीं हौं, अन्यकूं प्रेरि कराऊ' नाहीं हौं वचनकर काकर यह सतरवां भंग हैं । यामैं कृत कारित इनि दोयुपरि वचन काय ए दोष लगाये । तावासकी समस्या भई । १७७२२ । बहुरि वर्तमानकर्म में नाहीं करू हो, अन्यकूं 5 फ करतेकू भला नाहीं जानू हो, वचनकरि कायकरि यह अठारवां भंग है । यामैं कृत अनुमोदना इन दोयपरि वचन काय ए दोष लगाये । तातें बाईसकी समस्या भई । १४१२२ । बहुरि वर्त 5 मानकर्म में अन्य प्रेरि कुराऊ नाहीं हौं, अन्यकूं करते अनुमोदू नाहीं हौं, वचनकार कायर, यह उगणी भंग है । यामें कारित अनुमोदना ये दोय ले, इनिपरि वचन काय ए दौय फ लगाये । तातें बाईसकी समस्या भई । १६।२२ । ऐसे बाईसकी समस्याके नव भंग भये । बहुरि वर्तमानकर्म मैं करू नाहीं हौं, अन्यकूं प्रेरि कराऊ नाहीं हौं मनकरि, यह वीसर्वा भंग क है । यायें कृत कारित इनि दोयपरि एक मन लगाया। तातें इकईसकी समस्या भई ॥। २०१२१ ।। 卐
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म बहुरि वर्तमानकर्मकू में नाहीं करूं हों, अन्यकं करते• भला :नाहीं जानू हौं मनकरि, यह 1
इकईसा भंग है। यामें कृत अनुमोदना इनि दोयपरि एक मन लगाया । तातें इकईसकी स+मस्या भई १२१॥२१॥ बहुरि वर्तमानकर्म अन्यकू प्रेरि में कराऊ नाही हौं, अन्य करतेकू भला ॥ - नाहीं जानूं ही मनकरि, यह वाईसवां भंग है । यामें कारित अनुमोदना इनि दोयपरि एक मन "लगाया । तातें इकईसकी समस्या भई । २२।२१ । बहुरि वर्तमानकर्मकू में नाहीं करूं हों, अन्यकू' करि कराऊ नाही हौं वचनकरि, यह तेईसवां भांग है। या कृत कारित इनि दोयपरि एकवचन
"लगाया । तातें इकईसको समस्या भई । २३।२१ । बहुरि वर्तमानकर्मकू में करूं नाही हो, अन्यकुंभ 卐 करतेषू अनुमोदू नाही हौ वचनकरि ऐसा चोईसर्वा भंग है। यामें कृत अनुमोदना इनि दोय- । - परि एक वचन लगाया । ऐसी इकईसकी समस्या भई २४।२१ बहुरि वर्तमानकर्मकू में अन्यकू ।
प्रेरि कराऊ नाही हौं, अन्यकू करते• अनुमोदू नाही हो, वचनकार ऐसा पचीसवां भंग है।" यामैं कारित अनुमोदना इनि दोयपरि एक वचन लगाया । ताते इकईसकी समस्या भई । २५॥" " २१ । बहुरि वर्तमानकर्मकू में नाही करू हो अन्य प्रेरि कराऊ नाही हौ कायकरि, ऐसा ॥
छत्रीसा भग है । यामै कृत कारित इनि दोयपरि एक काय लगाया । तातें इकई सकी सम
स्या भई । २६।२१ । बहुरि वर्तमानकर्मकू मैं नाही करू हौं, अन्यकू करते• भला नाही फ़ जानूं हौं, कायकरि, ऐसा सताई सशं भक्त है। यामैं कृत अनुमोदना इनि दोयपरि एक काय -
लगाया। ताते इकईसकी समस्या भई । २७।२१ । बहुरि वर्तमानकर्मकू में अन्य प्रेरि कराऊ ।
नाही हौ, अन्यकू करते• अनुमोदू नाही हौ कायकरि, ऐसा अठाईसवां भङ्ग है। पामै . कारित अनुमोदना इनि दोयपरि एक काय लगाया। तातें इकईसकी समस्या भई । २८१२ ।
ऐसे इकईसके नव भंग भये।। प्र .बहुरि वर्तमानकर्मकू मैं नाही करू हौं मनकरि ववनकरि कायकरि, ऐसा गुणतीसवां भंग है । "यामैं एक कृलपरि मन वचन काय तीनें लगाये। तातें तेराकी समस्या भई ॥२९॥१३॥ बहुरि ।
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जवर्तमानकम में अन्योति कराऊ नाहीं हो मन वचन कायकर, ऐसा तीसवां भंग है । यामैं है ... कारित एकपरि मन वचन काय तीनूं लगाये। तातें तेराकी समस्या भई ३०॥१३॥ बहुरि
वर्तमानकर्म• मैं अन्यकू करतेकू अनुमोदू नाही हौ मनकरि प्रचनकरि कायकरि, ऐसा इकतीस-卐 1वां भंग है । यामै एक अनुमोदनापरि मन वचन काय तीनूं लगाये । तातें तेराको समस्या भई ..
"।३१।१३। ऐसे तेराकी समस्याके तीन भंग भये। + बहुरि वर्तमानकर्म• मैं नाहीं करूं ही मनकरि वचनकरि, ऐसा बत्तीसका भंग है। यामें - __एक कृतपरि मन वचन ए दोय लगाये। तातें बारहको समस्या भई ।३२।१२। बहुरि वर्तमान卐कर्मकू अन्यकू प्रेरि में नाहीं कराऊ हौं मनकरि वचनकरि, ऐसा तेतीसवां भंग है । यामें एक के 1-कारितपरि मन वचन दोय लगाये। तातें बारहको समस्या भई ।३३।२। बहुरि वर्तमानकर्मकू
अन्यकुं करताकू मैं भला नाहीं जान हौं मनकारे वचनकार ऐसा चौतीसवां भंग है । यामें एक फ्र अनुमोदनापरि मन वचन ए दोय लगाये । तातें बारहको समस्या भई ३४।१२। बहुरि वर्तमान "कर्मकू में नाहीं करूं ही मनकरि कायकरि ऐसा पैतीसवां भंग है। यामें कृत एकपरि मन काय । 'ए दोय लगाये । तातें बारहकी समस्या भई ३५।१२। बहुरि वर्तमानकर्मकू में अन्यकू प्रेरिकरि ।
नाही कराऊ हौं मनकरि कायकरि, पेसा छत्चीसवां भंग है। या कारित एकपरि मन काय जए दोय लगाये। तातें बारहको समस्या भई ।३६।१२। बहरि वर्तमानकर्मकू में अन्यकू करतेकूम ..भला नाहीं जानूं ही मनकरि कोयकरि, ऐसा सैतीसवां भंग है। यामें अनुमोदना एकपरि मन
काय ए दोय लगाये। तातें बारहकी समस्या भई ।३७११२। बहुरि वर्तमानकर्म में नाहीं॥ 1- करूं हौं वचनकरि कायकर ऐसा अठतीसवां भंग है। या एक कृतपरि वचन काय लगाये। ..
"तातें बारहकी समस्या भई ।३८।१२। बहुरि वर्तमानकर्मकू में अन्य प्रेरिकरि नाही कराऊ प्रहौं वचनकार कायकरि, ऐसा गुणतालीसवां भंग है। यामैं एक कारितपरि वचन काय ए दोय . "लगाये। तातें बारहकी समस्या भई । ३६४१२ । बहुरि वर्तमानकर्मकू में अन्यकू करते• भला
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जज नाहीं जानू हौं, वचनकरि कायकरि, ऐसा चालीसवां भंग है । यामें एक अनुमोदनापरि वचन ।
"काय ए दोय लगाये । तातें बारहकी सयस्या भई । ४०१२ । ऐसे नव भंग बारहके भये ।। 卐 बहुरि वर्तमानकर्ममैं नाही कारू ही मनकरि, ऐसा इकतालीसको भंग है। यामें के ... एक कृतपरि एक मन लागा। तातै ग्यारहकी समस्या भई । ४।१ । बहुरि वर्तमानकर्मकू"
अन्यकू पर मैं नाहीं कराऊ हौ, मनकरि, ऐसा बियालीसा भग है। या कारित एकपरि ॥ एक मन लागा तातें ग्यारहकी समस्या भई । ४२।११। बहुरि वर्तमान कर्मकू में अन्यकू "करतेकू अला नाहीं जानू हों मनकरि ऐसा तियालीसवां भंग है। यामें एक अनुमोदनाम
परि एक मन लगाया । तातें ग्यारहकी समस्या भई । ४३।११ । बहुरि वर्तगनकर्मकुं मैं .. __नाही करू हौं वचनकार, ऐसा चवालीसवां भंग है। यामें एक कृतपरि वचन एक लगाया। जताते ग्यारहकी समस्या भई ।४४|११ । बहुरि वर्तमानकर्म में अन्यकं प्रेरिकरि नाही .- कराऊ हौं वचनकरि, ऐसा पैतालीसवां भंग । यामैं एक कारितपरि एक वचन लगाया । ताते
न्यारहकी समस्या भई । ४११ । बहुरि वर्तमानकर्म में अन्य करते• भला नाहीं जानू पर ही वचनकरि, ऐसा छियालीसवां भंग है । यामैं एक अनुमोदनापरि एक वचन लगाया। तातें "ग्यारहकी समस्या भई । ४६।१ । बहुरि वर्तमानकर्मकू मैं नाही करूं हो कायकरि, ऐसा सेतालीस भङ्ग भया । यामें एक कृतपरि एक काय लगाया। तातें ग्यारहकी समस्या भई ४७
११ । बहुरि वर्तमानकर्मकू मैं अन्यकू प्रेरि नाही कराऊ हो कायकरि, ऐसा अठतालीसवां भङ्ग । ऊहै । यामैं एक कारितपरि एक काय लगाया। तातें ग्यारहकी समस्या भई । ४८।११। वहरि . .... वर्तमानकर्मकू' में अन्यकू करताकू भला नाहीं जानू हौं कायकरि, ऐसा गुणचासवां भङ्ग है।
यामें एक अनुमोदनापरि एक काय लगाया । तातें ग्यारहकी समस्या भई । ४६१११ । ऐसें ग्यार-म -हकी समस्याके नव भङ्ग भये। ऐसे आलोचनाके गुणचास भंग हैं । इनिमें तेतीसकी समस्याका "एक १। बत्तीसका तीन ३। इकतीसका तीन ३ । तेईसका तीन ३ । बाईसका नव ६ । इकई
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सका नव । तेराका तीन ३ । बाराका नव ६ । ग्याराका नव है । ऐसें सब मिलि गुणचास भये। स्मय + अब याके अर्थका कलशरूप काव्य है।
आर्याछन्दः मोहविलामविजम्भितमिदभुदयरकर्म सकलमालोच्य । आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ॥३४॥ .. " इत्यालोचनाकल्पः समाप्तः।। 卐 अर्थ-निश्चयचारित्रकू अंगीकार करनेवाला कहे है। जो मोहके विलासकरि फैल्या यह ... उदयकू प्राप्त होता जो वर्तमानकम ताकू समस्तकू आलोचनामें लेकर समस्तकर्मस रहित । 卐 चैतन्यस्वरूप जो आस्मा ताविर्षे में आपहीकरि निरंतर वर्तो हौं ।
ज . भावार्थ-वर्तमानकालमें कर्मका उदय आवै, ताकू ज्ञानी ऐसे विचारे है। जो पूर्वे बांध्या " " था ताका यह कार्य है। मेरा तो यह कार्य नाही में याका कर्ता नाहीं । मैं तो शुद्धचैतन्यमात्र) प्र आत्मा हौं । ताकी दर्शनज्ञानरूप प्रवृत्ति है। ताकरि या उदय भये कर्मका देखने जाननेवाला ..
ह्रौं। मेरा स्वरूपहीमैं मैं वो हौं। ऐसा अनुभवन करना ही निश्चपचारित्र है। ऐसे आलोच卐 नाकल्प समाप्त किया। आगें प्रत्याख्यानकल्प कहे हैं। ताकी टीकामै संस्कृतपाठ ऐसा है
न करिष्यामि न कारयिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च वाचा च कायेन चेति १ न करिष्यामि। 卐न कारयिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च वाचा चेति २ न करिष्यामि न कारयिष्यामि न कुर्वतम
प्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च कायेन चति ३ न करिष्यामि न कारयिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि वाचा
च कायेम चेति ४ न करिष्यामि न कारयिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुशास्यामि मनसा चेति ५ न करिष्यामि नम ._ कारयिष्यामि न कुवतमप्यन्यं ममनुज्ञास्यामि वाचा चेति ६ न करिष्यामि न कारयिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजज्ञास्यामि कायेन चेति ७ न करिष्यामि न कारयिष्यामि मनसा वाचा च कायेन चंति ८ न करिष्यामि न कुर्व तमप्यन्यं,
समनुज्ञास्यामि मनसा च वाचा च कायेन चहन कारविष्यामि न कुर्व तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च वाचा च + कायेन चेति १० न करिष्यामि न कारयिष्यामि मनसा च वाचा चेति ११ न करिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञा
स्यामि मनसा च वाचा. चेति १२ न कारयिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च वाचा चति १३.न ।
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करिष्यामि न कारयिष्यामि मनसा च कायेन चेति १४ न करिष्यामि न कुर्वतमध्यम्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च ॥ - कान पति १५ न करिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुशास्यामि मनसा च कायेन चति १६ न करिष्यामि न कारयि. प्यामि बाचा च कायोन चेति १७ न करिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुहास्यामि मनसा च कायेन चेति १८ न
कारयिष्यामि न कुर्वत समनहास्यामि वाचा च कायेन चति १६ न करिष्यामि न कारयिष्यामि मनसा चेति '२० न करिष्यामि न कुर्व तमामयन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा चति २१ न करयिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञा- 5
स्यामि मनसा चेति २२ न करिष्यामि न कारयिभ्यामि वाचा चंति २३ न फरिम्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञा"ध्यामि वाचा चेत्ति २४ न कारपिण्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनशास्यामि वाचा गेसि २५ न कस्न्यिामि कारयि. ॥
पामि कायेन गेति २६ न करिष्यामि न कुनै तमप्यन्यं समनुशास्यामि कायेन गोति २७ न कारयिष्यामि न कुर्वत
मप्यन्यं समनुज्ञास्यामि कायेन नेति २८ न करिष्यामि मनसा वाचा कायेन मेति २६ न कारयिष्यामि मनसा याचा 卐 प्रकायेन चेति ३० न कुर्वतमप्यन्यं जनं समनुज्ञासामि मनसा वाचा कायेन ति ३१ न करिष्यामि मनसा बाचा
नेति ३२ न कारयिष्यामि मनसा वाचा चेति ३३ न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा वाचा गेति ३४ न करिमध्यामि मनसा च कायेन गेति ३५ न कारयिष्यामि मनसा च कायेन चेति ३६ न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनमा
च कायेन गेति ३७ न करिष्यामि वाचा च कायेन गेति ३८ न कारिष्यामि वाचा च कायेन चेति ३६ न कुर्वतमप्यन्य 卐समनुनास्यामि याचा च कायेन चेति ४० न करिष्यामि मनसा रोति ४१ न कारयिष्यामि मनसा चेति ४२ न कुर्वत___मप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा ति ४३ न करिष्यामि वाचा चेति ४४ न कारयिष्यामि वाचा चेति ४५ न कुर्व तम卐 प्यन्यं समनुज्ञास्यामि वाचा चेति ४६ न करिष्यामि कायन घेति ४७ न कारयिष्यामि कायोन चेति ४८ न कुर्वतम- ..
प्यन्यं समनुज्ञास्यामि कायेन येति ४६ । है याका अर्थ-प्रत्याख्यान करनेवाला कहे है, जो आगामी कालविर्षे कर्म• मैं नाही करूंगा,
अन्यकू प्रेरिकरि नाही कराऊंगा, अन्यकू करतेकू भला नाही' जानूंगा, मनकरि वचनकरि काय-क म करि । ऐसा प्रथम भंग है। यामैं कृत कारित अनुमोदना इनि तीननिपरि मन वचन काय ए ... तीन लगाये। तातें तीया तीया तेतीसकी समस्याका भंग भया । १३३ । ऐसें ही अन्य भंग
निका टीकामैं संस्कृतपाठ भी है तिनिकी वचनिका लिखिये हैं । आगामी कालके कर्मकू मैं नाहीं॥ पकरूंगा, अन्यकू प्रेरि नाहीं कराऊंगा, अन्यकू करतेङ भला भी नाही जागा मनकरि वचन
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__करि, ऐसा दूसरा भंग है। यामैं कृत कारित अनुमोदना इनि तीननिपरि मन वचन ए दोय "
- लगाये । तातें बत्तीसकी समस्या भई । २।३२ । बहुरि आगामी कालके कर्मकू मैं नाहीं करूंगा, जमा " अन्य प्रेरिकरि नाहीं कराऊंगा, अन्यकू करतेकू भला भी नाहीं जानेगा मनकरि कायकरि, + ऐसा तीसरा भंग है । यामैं कृत कारित अनमोदनाका तौ तीया ही भया । अर मनकरि अर " कायकरि ऐसे दोय लागे । तातें तोया दूवा । तातें बत्तीसकी समस्या भई । ३।३२ । बहुरि आ... प्रगामी कालके कर्मकू मैं नाही करूगा, अर अन्य प्रेरिकरि नाही कराऊंगा, अन्यकू करते _____नाहीं अनुमोदूंगा वचनकरि कायकरि, ऐसा चौथा भंग है। यामें कृत कारित अनुमोदना इनि ।। 卐 तीननिपरि वचन काय ए दोय लगाये । तातें बत्तीसकी समस्या भई । ४।३२ । ऐसे बत्तीसकी .. समस्याके तीन भंग भये। क बहुरि आगामी कालके कर्मकू में नाहीं करूंगा, अन्यकू प्रेरि नाही कराऊंगा, अन्यकू । 1- करतेकू भला नाही जानूगा मनकरि, ऐसा पांचवां भंग है । यामें कृत कारित अनुमोदना इनिज " तीननिपरि एक मन लगाया । ताते इकतीसकी समस्या भई । ५३१ । बहुरि आगामी कालके
कर्म में नाहीं करूंगा, अन्य प्रेरि नाहीं कराऊंगा, अन्यकू करते। भला नाही' जानूंगा ॥ "वचनकार, ऐसा छठा भंग है । यामें कृत कारित अनुमोदना इनि तीननिपरि एक वचन लगाया। जतातें इकतीसकी समस्या भई । ६।१ । बहुरि आगामी कालके कर्मक मैं नाहीं करूंगा, ' ____ अन्यकुं प्रेरि नाहीं कराऊंगा, अन्यकू करते भला नाही जागा कायकरि, ऐसा सातवां
भंग है। यामैं कृत कारित अनुमोदना इनि तीननिपरि एक काय लगाया। तातें इकतीसकी । । समस्या भई । ७।३१ । ऐसे इकतीसकी समस्याके तीन भंग भये ।
卐 " बहुरि आगामी कर्म में नाहीं करूंगा, अन्य रिकरि नाही कराऊंगा मनकरि वचन'करि कायकरि, आठवां भंग है। यामें कृत कारित इनि दोयपरि मन वचन काय तीनूं लगाये। 5 . तातें तेईसकी समस्या भई । ८।२३ । बहुरि आगामी कर्मकू में नाही करूंगा अन्यकू करतेकू
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भला नाहीं जानूगा मनकरि वचनकरि कायकरि ऐसा नवमां भंग है। यामें कृत अनुमोदना + ...इनि दोयपरि मन वचन काय तीनूं लगाये। तात तेईसकी समस्या भई । १।२३ । बहुरि 'आगामी कर्म में अन्य प्रेरिकरि नाही कराऊंगा, अन्यकू करतेकू भला नाहीं जानेगा मन- जपाभ
करि बचनकरि कायकरि ऐसा दसवां भंग है। याम कारित अनुमोदना इनि दोयपरि मन वचन "काय तीनूं लगाये । तातें तेईसकी समस्या भई । १०।२३ । ऐसे तेईसकी समस्याके तीन भंग ॥ प्रभये।
- बहुरि आगामी कमकू में नाहीं करूगा, अन्य प्रेरि नाही कराऊंगा मनकरि वचनकरि । 卐ऐसा ग्यारवां भंग है । या कृत कारित इनि दोयपरि मन वचन ए दोय लगाये। तातै बाईसकी .. समस्या भई । ११:२२ । बहुरि आगामी कर्मक में नाहीं करूंगा, अन्य करते... भला नाहीं "
जानूंगा मनकरि वचनकरि ऐसा बारवां भंग है यामैं कृत अनुमोदना इनि दोयपरि मन वचन जए दोय लगाये। तातें बाईसकी समस्या भई । १२।२२ । बहुरि आगामी कर्मअन्यकं प्रेरि"करि नाही कराऊंगा, अन्य करतेषू भला नाहीं जानूंगा मनकारे वचनकार, ऐसा तेरवां भंग ॥ है । यामें कारित अनुमोदना इनि दायपरि मन वचन लगाये बाईसकी समस्या भई । १३।२२। ..
बहुरि आगामी कर्मकू मैं नाही करूगा अन्य प्रेरिकरि नाहीं कराऊंगा मनकरि कायकरि । 卐 ऐसा चौदवां भंग है । यामैं कृत कारित इनि दोयपरि मन अर काय ए दोय लगाये । तातें बा.. ईसकी समस्या भई । १४१२२ । बहुरि आगामी कर्मकू में नाहीं करूंगा, अन्य करते• भला
नाहीं जानूंगा मनकरि कायकरि, ऐसा पदरवां भंग है। या कृत अनुमोदना इनि दोयपरि मन 1- काय ए दोय लगाये। तातें बाईसको समस्या भई १॥२२॥ वहरि आगामी कर्मकू में अन्य।
प्रेरि नाही कराऊंगा, अन्यकू करते• भला नाहीं जानूंगा, मनकरि कायकरि ऐसा सोलवांक भंग है। यामें कारित अनुमोदना इनि दोयपरि मन काय ए दोय लगाये। तातें बाईसकी । समस्या भई।१६।२२। बहुरि आगामी कर्मकू में नाहीं करूंगा, अन्य प्रेरिकरि नाही करा- "
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卐 ऊंगा वचनकरि कायकरि ऐसा सतरावां भंग है । यामें कृत कारित इनि दोयपरि वचन काय लगाये । तातें बाई सकी समस्या भई | १७| २२ | बहुरि आगामी कर्मकूं मैं अन्य प्रेरिकरि नाही कराऊंगा, अन्यकुं करतेकूं भला नाही जानूंगा वचनकरि कायकरि ऐसा अठारवां भंग 卐 भया । यायें कृत अनुमोदना इनि दोयपरि वचन काय लगाये । तातें बाईसकी समस्या भई । १८।२२ । बहुरि आगामी कर्मकूं में अन्य प्रेरिकरि नाही कराऊंगा, अन्यकूं करतेकू भला फ्र कभी नहीं जानूगा वचनकर कायकरि ऐसा उगणीसवां भंग भया । यामैं कारित अनुमोदना इन दोपरि वचन काय ए दोष लगाये । तातें बाईसकी समस्या भई । १९।२२ । ऐसे बाई - 5 सकी समस्या व भंग भवे ।
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बहुरि आगामी कर्म में नाहीं करूंगा, अन्यकूं प्रेरिकरि नाही कराऊंगा मनकरि, ऐसा बीसवां भंग है । यामैं कृत कारित इनि दोयपरि एक मन लगाया। तातें इकईसकी समस्या भई | २०|२१ | बहुरि आगामी कर्मकूं मैं नाही करूगा, अन्यकूं करतेकूं भला नाही जानूंगा मनकरि ऐसा इस भंग है । यामै कृत अनुमोदना इनि दोयपरि मन एक ल5 गाया। तातें इकई सकी समस्या भई । २११२१ । बहुरि आगामी कर्मकूं मैं नाही कराऊंगा, अन्यकं करते भला नाहीं जानूंगा मनकरि ऐसा बाईसवां भंग है । यामैं कारित अनुमो दना इनि दोषपरि एक मन लगाया। तातें इकईसकी समस्या भई । २२१२१ | बहुरि आगामी मैं नहीं करूंगा, अन्यकू प्रेरिकरि नाही कराऊंगा वचनकरि ऐसा तेईसवां भंग है। फ कर्मक या कृत कारित इनि दोयपरि एक वचन लगाया। तातें इकईसकी समस्या भई । २३।२१ । 5 बहुरि आगामी कर्मकू में नहीं करूंगा अन्धकू करतेकू भला नाही जानूंगा वचनकर ऐसा चोईसवां भग है या कृत अनुमोदना इनि दोयनिपार एक वचन लगाया। सातें इकईसको समस्या भई । २४।२१ | बहुरि आगामी कर्मकू में अन्य प्रेरिकरि नाही कराऊंगा, अन्यकू' करतेकूं भला भी नाही जानूंगा वचनकरि ऐसा पचीसवां भंग है। यामें कारित
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ॐ अनुमोदनो इनि दोयपरि एक वचन लगाया। ताते इकईसको समस्या भई । २५॥२१ । बहुरि卐 - आगामी कर्मक मैं नाही करूगा, अन्यकू प्रेरि नाहीं कराऊंगा कायकरि ऐसा छबीसवां भंग ।। "है। यामैं कृत कारित इनि दोयपरि एक काय लगाया। तातें इकईसकी समस्या भई । २६।२१।। 9 बहुरि आगामी कर्मकू मैं नाहीं करूंगा, अन्य करतेक भला नाहीं जानूगा कायकरि ऐसा
सत्ताईसा भंग भया । यामैं कृत अनुमोदना इनि दोयपरि एक काय लगाया । ताते इकईसकी " 卐 समस्या भई ।२७।२१। बहुरि आगामी कर्मकू मैं अन्य प्रेरि नाहीं कराऊंगा, अन्य करते' .- भला नाहीं जानूगा कायकरि ऐसा अठाईसवां भंग है । यामैं कारित अनुमोदना ईनि दोय-..
परि एक काय लगाया । ताते इकईसकी समस्या भई । २८१२१ । ऐसे इकईसकी समस्याके 4 नव भंग भये।
बहुरि आगामी कर्मकू में नाही करूंगा मनकरि वचनकरि कायकरि, ऐसा गुणातीसवां । 卐 भंग है । यामें कृत एकपरि मन वचन काय तीनू लगाये । तातें तेराको समस्या भई ।२९।१३।” ... बहुरि आगामी कर्म में अन्य... प्रेरिकरि नाहीं कराऊंगा मनकरि वचनकरि कायकरि, ऐसा । 5 तीसवां भंग है। यामैं एक कारितपरि मन वचन काय ती लगाये। तातें तेराको समस्या ) घर भई । ३०१३ । बहुरि आगामी कर्म में अन्यकू करतेकू भला नाहीं जानूंगी मनकरि बचन-- । करि कायकरि ऐसा इकतीसवां भंग है। यामें एक अनुमोदनापरि मन बचन काय तो लगाये।। जतातें तेरहकी समस्या भई । ३ ३ । ऐसे तेराकी समस्याके तीन भंग भये।
____ बहुरि आगामी कर्म में न करूगा मनकरि वचनकरि ऐसा बत्तीसवां भंग है । यामैं एक " . कृतपरि मन वचन दोय लगाये। तातें बाराकी समस्या भई ३२।१२। बहुरि आगामी कर्म
मैं अन्य प्रेरिकरि नाही कराऊंगा मनकरि वचनकरि ऐसा तेतीसा भंग है। पामैं एक 卐 कारितपारे मन वचन दोय लगाये। तातें बारहकी समस्या भई ३३।१२। बहुरि आगामी काकू .. में अन्यकू करतेकू नाही' अनुमोदूंगा मनकरि वचनकार, ऐसा चौतीसवां भंग है। का एक
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- अनुमोदनापरि मन वचन दोय लगाये। तातें बाराकी समस्या भई ।३४।१२। बहुरि आगामी
कर्मकू मैं नाहीं करूंगा मनकरि कायकरि, ऐसा पैतीसवां भंग है। यामैं एक कृतपरि मन काय + ए दोय लगाये। तातें बाराको समस्या भई १३५।१२। बहुरि आगामी कर्मकू मैं अन्य प्रेरिकरि ।।
नाही कराऊंगा मनकरि कायकरि, ऐसा छत्तीसवां भंग है। यामैं एक कारितपरि मन काय ए। 卐 दोय लगाये । तातें बारहकी समस्या भई ३६।१२। बहुरि आगामी कर्मक मैं अन्यडूं करते
भला नाहीं जानूंगा मनकरि कायकरि, ऐसा सेतीसा भंग है। यामैं एक अनुमोदनापरि मन"
काय ए दोय लगाये । तातें बारहकी समस्या भई ३७।१२। बहुरि आगामी कर्मक मैं न करूंगा + वचनकरि कायकरि, ऐसा अठतीसवां भंग है। यामैं एक कृतपरि वचन काय ए दोप लगाये।
तातें बारहकी समस्या भई ३८।१२। बहुरि आगामी कर्मकू मैं अन्यकू प्रेरि नाहीं कराऊंगा' 卐 वधनकरि कायकर, ऐसा गुगतालीसा भंग है । यामैं एक कारितपरि वचन काय ए दोय ...
लगाये । तातें वारहकी समस्या भई ।३९।१२। बहुरि आगामी कर्मकू मैं अन्यकू करते... भला का नाहीं जानूंगा वचनकरि कायकरि, ऐसा चालीसवां भंग है। यामें एक अनुमोदनापरि वचन । काय ए दोय लगाये। तातें बारहको समस्या भई ४०।१२। ऐसे नव भंग वारहकी समस्याके ।
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भये।
+
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बहुरि आगामी कर्मकू में नाहीं करूंगा मनकरि ऐसा इकतालीसवां भंग है। यामैं एक... कृतपरि एक मन लगाया। तातें ग्यारहको समस्या भई ।११।१११ बहुरि आगामी कर्मकू अन्य 卐 में प्रेरिकरि नाही कराऊंगा मनकरि ऐसा वियालीसवां भंग है। यामैं एक कारितपरि एक
मन लगाया । तातें म्यारहकी समस्या भई ।४२।११। बहुरि आगामी कर्मकू मैं अन्यकू करतेकू" 9 भला नाहीं जानूंगा मनकरि, ऐसा सियालीसवां भंग है। याम एक अनुमोदनापरि एक मन
लगाया। तातें ग्यारहकी समस्या भई ।४३।११। बहुरि आगामी कर्मकू मैं नाहीं करूंगा वचनकरि, ऐसा चवालीसवां भंग है। यामै एक कृतपरि एक वचन लगाया । तातें ग्यारहकी सम-फ़
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या भई | ४४|११| बहुरि आगामी कर्मकूं मैं अन्यकूं प्रेरिकरि नाही कराऊंगा वचनकरि, ऐसा म पैतालीसवां भंग है। यामैं एक कारितपरि एक वचन लगाया। तातें ग्यारहको समस्या भई | ४५|११| बहुरि आगामी कर्मकूं मैं अन्यकूं करतेकूं भला नाहीं जानूंगा वचनकरि, ऐसा छियाarea है एक अनुमान लगाया । तातें ग्यारहकी समस्या भई ॥४६॥ 卐 ११। बहुरि आगामी कर्मकूं मैं नाहों करूंगा कायकरि ऐसा सैंतालीसवां भंग है । यामें एक कृतपरि एक काय लगाया । ता ४७११ । बहुरि आगामा कर्मकूं मैं अन्यकूं प्रोरेकरि नाहीं कराऊंगा कायकरि, ऐसा अठतालीसवां भंग है । या काiरतपरि एक काय लगाया । तातैं ग्यारहको समस्या भई १४५|११| बहुरि आगामी कर्मकूं अन्यकूं करते कूं भला फ नाहीं जानूंगा कायकरि ऐसा गुणचासवां भंग है । यामैं एक अनुमोदनापरि एक काय लगाया तातें ग्यारह की समस्या भई । ४९ | ११ | ऐसें ग्यारहकी समस्याके नव भंग भये । ऐसे गुणचोस भंग sererrar भये । तिनिमैं तेतीसकी समस्याका एक | १| बत्तीसके तीन 11 इकतीसके तीन | ३ | तेईसके तीन |३| बाईसके नव १९ । इकईसके नत्र || तेरा के तीन ॥३॥ बाराके ॥६ 卐 ग्याराके || ऐसें सब मिलि गुणचास भये । अब इस अर्थका कलशरूपकाव्य कहे हैं । आर्याछन्दः
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प्रत्याख्याय भविष्यत् कर्म समस्तं निरस्तसम्मोहः । आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना ad ||३५|| इति प्रत्याख्यानकल्पः समाप्तः ।
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अर्थ - प्रत्याख्यान करनेवाला ज्ञानी कहे है । जो आगामी समस्त कर्मनिकूं में प्रत्याख्यान
क रूप त्याग करि, अर नष्ट भया है मोह जाका ऐसा भया संता कर्मसू रहित चैतन्यस्वरूप जो 5
आत्मा ताविषै आपहीकरि तूं हां ।
卐
भावार्थ – निश्चयचारित्रमै प्रत्याख्यानका विधान ऐसा है, जो समस्त आगामी कर्मसु रहित
卐
अपना शुद्धचैतन्यकी प्रवृत्तिरूप जो शुद्धोपयोग तावियें वर्तना है । सो ज्ञानी आगामी समस्त
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- कर्मका प्रत्याख्यान कर अपना चैतन्यस्वरूपविर्षे वर्ते है । इहां तात्पर्य ऐसा जानना-जो व्यव
हारचारित्रमें तो ज्यौं प्रतिज्ञामै दोष लागै ताका प्रतिक्रमणं, आलोचना, प्रत्याख्यान होय हैं।॥ अर इहां निश्चयचारित्रका प्रधानपणे कथन है। सोशुद्धोपयोगसू विपरीत समस्त ही कर्म आत्माके ... दोपस्वरूप है । तिनि सर्व ही कर्मचेतनास्वरूप परिणामका ज्ञानी तीन कालके कर्मका प्रतिक्रमण आलोचना प्रत्याख्यानकरि समस्तकर्म चेतनासून्यारा अपना शुद्धोपयोगस्वरूप आत्माका ज्ञानश्रद्धान करि, अर तिसमें थिर होनेका विधान करि निष्प्रमाद दशाकू प्राप्त होय । श्रेणी चढि । केवलज्ञान उपजावने सन्मुख होय है । यह ज्ञानीका कार्य है। ऐसा प्रत्याख्यानकल्प समाप्त किया । आगें सकलकर्मका संन्यास कहिये क्षेपणा, पाटकी देना, टाको भावना मृरा कराय" कथन पूरण करनेका काव्य है।
उपजातिछन्दः ममस्तमित्येवमपास्य कर्म – कालिकं शुद्धनयावलम्बी । विलीनमोहो रहितं विकारविचन्मात्रमात्मानमथावलम्चे ॥३६॥5
अय सकलकर्मफलसंन्यामभावनां नाटयति । ____ अर्थ-शुद्धनयका अवलंबन करनेवाला कहे है, जो इत्येवं कहिये पूर्वोक्तप्रकार तीन काल.. अतीत वर्तमान भविष्यत्-संबंधी कर्मकू निराकरणकरि छोडिकरि अर शुद्धनयका अवलंबन कर-45 नेवाला ज्ञानीमैं हौं । सो विलय भया है मोह मिथ्यातकर्म जाका ऐसा भया संता अब सम-" स्तविकारते रहित चैतन्यमात्र आत्माकू अवलंबू हौं। अब सकल कर्मफलका संन्यासकी भावनाक नृत्य करावे हैं। ताका टीकामें संस्कृतपाठ ऐसा है-तहां प्रथम तो समुञ्चय अर्थका... काव्य है।
आर्याछन्दः विगलन्तु कर्मविषतरुफलानि मम भुक्तिमन्तरेणैव । सञ्चेनयेऽहमचलं चैतन्यारमानमात्मानम् ॥३७॥ ___अर्थ--सकलकर्मफलको संन्यासभावना करनेवाला कहे है, जो कर्मरूपी विषका रक्षक फलक
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हैं ते मेरे भोगनेविना ही खिरि जावो । मैं चैतन्यस्वरूप जो मेरा आत्मा ताकूं निश्चल तृ - अनुभवूं हौं ।
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भावार्थ - ज्ञानी कहे है, जो कर्मका फल उदय आवे है, ताकूं में ज्ञाता द्रष्टा हुवा देखूं हौं, फ ताका फलका भोक्ता नाही घनूं हौं, तातें मेरे भोगेविना ही ते कर्म खिरि जावो । मैं मेरे चैतन्यस्वरूप आत्मामें लीन भया तिनिका देखने जाननेवाला ही हौं । इहां इतना विशेष और जानना जो अविरतदशा तथा देशविरतप्रमत्तसंयतदशामें तो ऐसा ज्ञान श्रद्धान ही प्रधान है अर जब अप्रमत्तदशा होकर श्रेणी चढे है तब यह अनुभव साक्षात् होय है । अब कलकर्मफलका 5 संन्यासभावनाका पाठ संस्कृतटीका ऐसा है
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नाहं प्रतिज्ञानावरणमा १ नाहं ध्रुवज्ञानावरणीयकर्म फल मुंजे 卐 5 चैवात्र संचे नामविज्ञानावरणीय कर्मफलं मुंजे चैतन्यात्मानमात्म संत ३ नाह मन:पर्ययज्ञास दरणीयकर्म कलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेये ४ नाई केहना वरमीयकर्मफलं भुजे चैतन्यात्मान मात्मानमंसं ५ नाहं चक्षुदर्शनावरणीय कर्मफलं भुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमंत्र संच नाहमचक्षुर्दर्शनावर कर्मफलं जे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ७ नामवधिदर्शनावरणीयकर्मफल भुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव 5 संचेत ८ नाहं केवलदर्शनावरणीय कर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमंत्र संचेतना निद्रादर्शनावरणीयकर्मफलं भुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १० नाई निद्रानिद्रादर्शनावरणीय कर्मफलं भुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमंत्र संचेत 卐 ११ नाहं चादर्शनावरण कर्म कलं भुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेती १२ नाहं प्रचलाप्रचलादर्शनावरणीय कर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव सं १३ नाहं स्त्यानगृद्धिदर्शनावरणीयकर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमंत्र संचेती १४ नाई सातवेदनीय कर्मफलं भूजे चैतन्यात्मानमात्मानमेत्र संचेती १५ नाहमात वेदनीयकर्मफलं भुजे 5 चैतन्यात्मानमात्मानमेव संवत १६ नाहं सम्यक्त्वमोहनीयफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १७ नाई. मिथ्यात्वमोहनीयफलं मुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १८ नाई सम्यक्त्वमिथ्यात्वमोहनीयफलं जे चैतन्या- फ्र स्मानमात्मानमेव संचेतये ११ नाहं अनंतानुबंधिक्रोधक पायवेदनीयफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेती २० ना अप्रत्याख्यानावरणीयक्रोधवेदनीयमोहनीयफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये २१ लाई प्रत्याख्यानावर
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कणीयक्रोधवेदनीयमोपफलं भूले चैतन्यात्मानमात्मानमेव चेत २२ नाहं संज्वलनशोधकषायवेदनीय मोहनीयकर्मफलं मुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतयं २३ नाही अनंतानुर्वधिमान कषायवेदनीयमोहनीयकर्म
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फलं सुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेत २४ नामप्रत्याख्यानावरणीयमान कषायवेदनीयमोहनीयफलं भुंजे फ चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये २५ नाहं प्रत्याख्यानावरणीयमान कथाय वेदनीयमोहनीयकर्मफलं झुंज चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये २६ नाहं संज्वलनमान पावेदनीयमोहनीयफल जे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये २७५5 नाहमनंतानुबंधिमायाकषायवेदनीयमोहनीयफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेत्र संचेतये २८ नाहमप्रत्याख्यानावरणीयमायाकषायवेदनीयमोहनीयफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये २६ नाहं प्रत्याख्यानावरणीयमायाकषायवेदनीय- 5 फलं सुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ३० नाह संज्वलनमायाकपायवेदनीयमोहनीयफलं भुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ३१ नाहमनंतानुबंधिलोभक पायवेदनीयमोहनीयफलं जे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचये ३२ फ्र " नाहमप्रत्यारूपानावरणीय लोभकपायवेदनीय मोहनोयकर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ३३ नाहं प्रत्याख्यानावरणीयलोभकषाथवेदनीयमोहनीय कर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचतेये ३४ न
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, नीयमोहनीय कर्मफलं जे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ३५ नाहं हास्यनोकवायवेदनीय कर्मफलं भुजं चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचतये ३३ नाहं रतिनोकपाय वेदनीयमोहनीय कर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ३७ 5 नाहमर तिनोकषायवेदनीयमोहनीयफलं भुजं चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचये ३८ नाहं शोकनोकपायवेदनीयमोहनीयफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचये ३६ नाहं भयनोपायवेदनीयमोहनीयफलं भुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव
5 संचेतये ४० नाहं जुगुप्सानोकषायवेदनीयमोहनीयफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ४१ नाहं स्त्रीवेदनो- 5 कषायवेदनीयमोहनीयफलं जे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ४२ नाहं पुंवेदनोकषायवेदनीयमोहनीयफलं भुजं 5 चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ४३ नाहं नपुंसकवेदनो कषाय वेदनीयमोहनीयफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेत ४४ नाहं नरकायुः फलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ४५ नाहं तिर्यगायुः फलं मुजे चैतन्यात्मान- ' मात्मानमेव संच तये ४६ नाहं मानुषायुः फलं भुजे च तम्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ४७ नाई देवायुः फलं जे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ४८ नाहं नरकगतिनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ४६ नाई विर्य ' फुगविनामफल भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेत्र संचेतये ५० नाहं मनुष्यगतिनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ५१ नाहं देवगतिनामफल' भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संच तये ५२ नाइमेंकेन्द्रियनामफल भुजे चैतन्या
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त्मानमात्मानमेव संच तये ५३ नाहं द्वी द्रियजातिनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ५४ नाहं त्रींद्रिय-15 " जातिनामफल मुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ५५ नाहं चतुरिद्रियजातिनामफल मुंजे चैतन्यात्मानमात्मान - - 卐 मेव संचेतये ५६ नाहं पंचेंद्रियजातिनामफल भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ५७ नाहमौदरिकादिशरीर-15
नामकर्मफल भंज चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ५८ नाहं बैंक्रियकशरीरनामफल मंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचतये ५६ नाहमाहारकशरीरनामकर्मफलं मुजे चैतन्यान्मानमात्मानमन मंचन ६० नाहं नैराश्रीनामफल भंजेपन
चैतन्यात्मानमात्मानमव संचेतये ६१ नाहं कार्माणशरीरनामफल मुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ६२ नाहमौदा-" + रिकशरीरांगोपांगनामफल मुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचंतये ६३ नाहं वैक्रियकशरीरांगोपांगनामफलं भुजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमव संचेतये ६४ नाहमाहारकशरीरांगोपांगनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचतये ६५ नाहमोदारिकशरीरबंधननामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचतये ६६ नाहं वैक्रियकशरीरबंधननामफल भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ६७ नाहमाहारकशरीरबंधननामकर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेत्तये ६८ नाहं" तेजसशरीरबंधननामफल भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचतये ६९ नाहं कार्मणशरीरबंधननामफल भुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ७० नाहमौदारिकशरीरसंघातनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचंतये ७१ नाह बैंक्रियकशरीरसंघातनामफल भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ७२ नाहमाहारकशरीरसंघातनामफल भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमंत्र संचतये ७३ नाह तैजसशरीरसंघातनामफलं मुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ७५
नाह कार्माणशरीरसंघातनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचतये ७५ नाहं समचतुग्नसंस्थाननामफलं मुंजे 1चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ७६ नाह न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थाननामफलं मुंज चैतन्यारमानमात्मानमेव संचतये ।
७७ नाह सातिसंस्थाननामफलं भुज चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ७८ नाहं कुजसंस्थाननामफलं भुजे पैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ७६ नाह वामननामसंस्थाननामफलं झुंज चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ८० नाह. हुंडकसंस्थाननामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचतये ८१ नाह' अर्जषभनाराचसंहनननामफलं भुजे चैतन्यात्मान-फ़ मात्मानमेव संतये ८२ नाह बननाराचसंहननामफलं अजे चैतन्यामानमात्मानमेव संचेतये ८३ नाहं नाराच गाम-,
फलं झुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचतये ८४ नाहमर्धनाराचसंहननामफलं भुजे चैतन्यात्मानमारमानमेव संचेतयेक 5 ८५ नाह कीलिकासंहनननामफलं मुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ८६ नाहमसंप्राप्तसंहनननामफलं भुजे.
बैतन्यात्मानमात्मानमेव संकेतये ८७ नाई खिग्धस्पर्मनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ८८ नाह सूक्ष्म ।
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स्पर्शनामफळ अने चैतन्यात्मानमारमानमेव संचेसये ८६ नाह' शीतस्पर्शनामफलं ४ चैतन्यात्मानमात्मानमेवर
संचेतये १० नाहमुणस्पर्शनामफलं भुजे चैतन्यास्मानमात्मानमेव संचेतये ६१ नाहं गुरुस्पर्शनामफलं भुजे चैतन्या- 'स्मानमात्मानमेव संचेतये १२ नाह लघुस्पर्शनामफा भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमय संचतये ६३ नाह मृदुम्पर्शनामफलं प
झुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचतये ६४ नाह कर्कशस्पर्शनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १५ नाह। 卐 मधुररसनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ६६ नाहमम्लरसनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मान व संच.. ठये ६७ नाहं रिक्तरसनामफलं भुज चतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ६८ नाह कटकरसनामफलं भुजे चैतन्यात्माका नमात्मानमेव संचेतये ६६ नाई कपायरसनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १०० नाह सुरभिनाम-卐 .. गंधफलं भजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतय १०९ नाहनसुराभेलामकाज चतुरात्मानमात्मानमेव संचंतये
१०२ नाहं शुक्लवर्णनामफलं भुग चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचवये १०३ नाहं रक्तवर्णनामफल मुंजे चैतन्यात्मानमा-म स्मानमेव संचेतये १०४ नाहं पीतवर्णनामफलं मुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १०५ नाहं हरितवर्णनामफलं भुजे
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १०६ नाहं कृष्णवर्णनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमंव सचेतये १०७ नाहंका - नरकगत्यानुपुर्वीनामफलं मुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १०८ नाहं नियंग्गत्यानुपूर्वीनामफलं भुंगे चैतन्या
स्मानमात्मानमेव संचेतये १०६ नाहं मनुष्पगत्यानुपूर्वीनामफलं मुंज चैतन्यात्मानमात्मानमंव मंतये ११० नाहं । - देवगत्यानुपूर्वीनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संगतये १११ नाहं निर्माणनामफलो भुंगे चैतन्यात्मानमात्मा"नमंत्र संचेतये ११२ नाहमगुरुलघुनामफलं भुने चैतन्यात्मानमात्मानमेव संोनये ११३ नाहमुपघातनामफलं भुज + चैतन्यात्मानमात्मानमेव संगेतये ११४ नाहं परवातनामफलं मुंज चैतन्यात्मानमात्मानमेव संगेतये ११५ नाहमानपनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेय संगेतये ११६ नाहमुद्योतनामफलं मुंजे चैतन्यान्मानमात्मानमव संगेतये ११७ नाहमुछासनामकल मुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ११८ नाई प्रशस्तविहायोगतिनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संगोतये ११६ नाहमप्रशस्त विहायोगतिनामफलं मुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव । संगतये १२० नाहं साधारणशरीरनामफल भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमंय संगेतवे १२१ नाहं प्रत्येकनामफलं भजे ।
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १२२ नाहं स्थावरनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेत्ये १२३ नाहं । पर प्रसनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १२४ नाहं सुभगनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संतये
१२५ नाहं दुर्भगनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १२६ नाई सुस्वरनामकर्मफलं भुंज चैतन्यात्मानमा
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... त्मानमेव संचेतये १२७ नाहं दुःस्वरनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १२८. नाह शुभनामफलं भुजे ॐ चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचंतये १२६ नाहमशुभनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचतये १३० नाहं सूक्ष्मश-3 .. रीरनामफलं मुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमत्र संचेतये १३१ नाह' वादरशरीरनामफलं भुज चैतन्यात्मानमान्मानमेव
सिंचंतये १३२ नाह पर्याप्तनामफलं मुंज चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १३३ नाहमपर्याप्तनामफलं भुजे चैतन्या- . 1- त्मानमात्मानमेव संचतये १३४ नाहं स्थिरनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १३५ नाहमस्थिरनामफलं
मुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमव संचंतये १३६ नाहमादेयनामफलं भुज चैतन्यात्मानमात्मानमय संचेतवे १३७ नाह- . 1- मनादेयनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १३८ नाह' यशकीर्तिनामफलं भुंजे चैतन्यात्मानमात्मान
मव संतये १३६ नाहमयशःकोर्तिनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचंतये १४० नाह तीर्थकरत्वनामफलं , - मुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमय संचेतये १४१ नाहमुच्चैोयनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमव संचंतये १४२ नाह "नीचैर्गोत्रनामफलं भुज चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १४३ नाहदानांतरायनामफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव - मंचंतये १४४ नाह लोमांतरायनामफर्य भुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचतये १४५ नाह भोगांतरायनामफलं भुंज
"चैतन्मात्मानमात्मागर्गव संचतरे १४६ नापजोगांतरायनामफलं मुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १४७ । पनाहं वीर्या तरायनामफलं भुजे चैत्र यात्मानमात्मानमेव संचेतवे १४८ ।
- अर्थ--में ज्ञानी हौं, सो मतिज्ञानावरणीय नामा कर्मका फलकूनाही भोगू हौं, चैतन्य卐 स्वरूप आत्माहीकू संचेतू हों—एकाग्र अनुभवू हों। इहां चेतना अनुभवना वेदना भोगना इनिका ॥
एक अर्थ जानना अर 'सं उपसर्गत एकाग्र अनुभवना जानना यह, सर्वपाठमें जानना ।१. ऐसे - अहो अन्य एकसो सैतालीस कर्मप्रकृतिनिके संस्कृत पाठ हैं, तिनिकी वचनिका लिखिये है । मैं 1- श्रुतज्ञानावरणीय कर्मका फल नाहीं भोगऊ हौं । चैतन्यस्वरूप आत्माही• अनुभऊ हौं ।२१ मैं,
अवधिज्ञानावरणीय कर्मका फलक नाहीं भोगऊं ह्रौं। चैतन्य० । में मनःपर्ययज्ञानावरणीयकर्म ७ चैतन्य० ।। मैं केवलज्ञानावरणीयकर्म० चैतन्यः । ५ । मैं चक्षुर्दर्शनावरणीयकर्म० चैतन्य० ।६। 5
मैं अचक्षुर्दर्शनावरणीयकर्म० चैतन्यः ।७। मैं अवधिदर्शनावरणीयकर्म० चैतन्य ।। मैं केवलप्रदर्शनावरणीयकर्म० । चैतन्यः ।९। मैं निद्रादर्शनावरणीयकर्म० चैत ।१०। मैं निद्रानिद्रादर्शना-5
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वरणीयकर्मका फल नाहीं भोगऊ हौं । चैतन्यस्वरूप आत्माही अनुभवू हौं । ११ । मैं प्रचलादर्शनावरणीयकर्मका फल नाहीं भोगऊ हौं । चैत० ११२] में प्रचलाप्रचलादर्शनावरणीयकर्म• चैतः 5, | १३ | मैं स्त्यानगृद्धिदर्शनावरणीय चैत १४ । मैं सातावेदनीयकर्म० चैत । १५ । मैं असातावेदनीयकर्म० चैत । १६ । मैं सम्यक्त्वमोहनीय कर्म० चैतन्य ||७| मैं मिथ्यात्वमोहनीय 5 * कर्म० चैतन्यः | १८ | मैं सम्यमिध्यात्वमोहनीय कर्म० चैतन्य० | १६ | मैं अनंतानुबंधिक्रोधकषाय, वेदनीयमोहनीय कर्मका फल नाहीं भोगऊ हौं । चैतन्यस्वरूप० | २०| मैं अप्रत्याख्यानावरणीयकोच कषायवेदनीयमोहनीय कर्म० चैतन्य० १२१। मैं प्रत्याख्यानावरणीयकोष कषायवेदनीयमोहनीय कर्म० 5 चैतन्य० | २२ | मैं संज्वलनकोधकपाय वेदनीयमोहनीयकर्म० चैतन्य० | २३ | मैं अनंतानुबंधिमानकषाय वेदनीय कर्म • चैतन्य । २४ | मैं अप्रत्याख्यानावरणीयमानकषाय वेदनीयकर्म चैतन्य फ । २५ । मैं प्रत्याख्यानावरणीयमान कषायवेदनीयकर्म० चैतन्यः । २६ । मैं संज्वलनमान कषायवेदनीयकर्म चैतन्य० | २७| में अनंतानुबंधिमायाकषायवेदनीयमोहनीयकर्म० चैतन्य । २८ । मैं अप्रत्याख्यानावरणीयमायाकषाय वेदनीयमोहनीयकर्म० चैतन्य । २६ । मैं प्रत्याख्यानावरणीयमाया- फ्र कषायवेदनीयमोहनीय कर्म • चैतन्य - 1३०1 मैं संज्वलनमायाकषायवेदनीयमोहनीय कर्म० चैतन्यः |३१| मैं अनंतानुबंधिलोभकपायवेदनीयमोहनीय कर्मः चैतन्य० | २३ | में अप्रत्याख्यानावरणीयलोभ- फ कपायवेदनीयमोहनीय कर्म० चैतन्य० |३३| मैं प्रत्याख्यानावरणीय लोभकषायवेदनीय मोहनीय कर्म •
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चैतन्य॰ । २४ । मैं संज्वलनलोभकषाय वेदनीयमोहनीयकर्म चैतन्य० । २५ । में हास्यनोकषायवेदनोयमोहनीय कर्म० चैतन्य |३६| में रतिनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्म० चैतन्य |३७| मैं अर
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तिनोकषाय वेदनीयमोहनीयकर्म० चेतन्य |३८| मैं शोकनोकपायवेदनीयमोहनीय कर्म० चैतन्य०
15 | ३६ | में भयनोकपाय वेदनीयमोहनीय कर्म० चैतन्यः । ४ । मैं जुगुप्सानोकषायवेदनीयमोहनीय- ५७ कर्म० चैतन्यः । ४१ । मैं स्त्रीवेदनोकषायवेदनीयमोहनीय कर्म० चैतन्यः । ४२। मैं पुरुषवेदनो
5 कषायवेदनीयमोहनीयकर्म० चैतन्यः । ४२ । मैं नपुंसकवेदनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्म० चैतन्य० फ
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।४। मैं नारकआयुकर्मका० चैतन्यः ।४५। मैं तिरयंचआयुकर्मका० चैतन्य । ४६.। मैं मानुष । -卐 आयुकर्म० चैतन्य ४७ मैं देवआयुकर्म चैतन्यः । ४८ । मैं नरकगतिनामकर्म चैतन्य १४९।
मैं तिर्य चगतिनामकर्म० चैतन्य० ।५०। मैं मनुष्यगति० चैतन्य० ॥५१॥ मैं देवगतिनामकर्म
चैतन्य० ।५२। मैं एकेंद्रियजातिनामकर्म• चैतन्य० । ५३ । मैं दींद्रियजातिनामकर्मः चैतन्य० ॥ ५। ५४ । मैं त्रींद्रियजातिनामकर्मः ।।५। मैं चतुरिंद्रियजातिनामकर्म० चैतन्य० ॥५६। मैं पंचेंद्रिय". जातिनामकर्म० चैतन्य० ॥५॥ मैं औदारिकशरीरनामकर्म० चैतन्य० । ५८ । मैं वैक्रियकशरीर-म 卐 नामकर्म० चैतन्य० ॥५९। मैं आहारकशरीरनामका चैतन्यः । ६० । मैं तैजसशरीरनामकर्मः।
चैतन्यः । ६१ । मैं कार्मणशरीरनामकर्म० चैतन्यः । ६२ । में औदारिकशरीरअंगोपांगनामकर्म चैतन्यः । ६३ । में क्रियशरीरअंगोपागनामकर्म० चैतन्य० । ६४ । मैं आहारकशरीरांगोपांगनामकर्म० चैतन्य० । ६५ । में औदारिकशरीरबंधननामकर्म० चैतन्य० ॥६६॥ मैं वैक्रियकशरीरबंधननामकर्म० चैतन्यः । ६७ । मैं आहारकशरीरबंधननामकर्म चैतन्यः । ६८ । मैं तेजसशरीरबंधननामकर्म० चैत । ६६ । मैं कार्मणशरीरबंधननामकर्म० चैत० ।७।
मैं औदारिकशरीरसंघातनामकर्म० चैत०। ७१। मैं वैक्रियकशरीरसंघातनामकर्म० चैत । ज। ७२ । मैं आहारकशरोरसंघातनामकर्म० चैत० । ७३ । मैं तेजसशरीरसंघातनामकर्म० चैत.
४। मैं कार्मणशरीरसंघातनामकर्म० चैत । ७५ । मैं समचतुरस्त्रसंधाननामकर्म० चैत० 卐६। मैं न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थाननामकर्मः चैत० ७७। मैं सातिकसंस्थाननामकर्म० चैत० ....१७८० में कुञ्जकसंस्थाननामकर्म० चैत० १७। मैं वासनसंस्थाननामकर्म • चैत० ।८०। मैं
हुडकसंस्थाननामकर्म० चैत १८१॥ में वर्षभनाराचसंहनननामकर्म० चैत ।।२। मैं वज- + नाराचसंहनननामकर्म० चैत० ८३॥ मैं नाराचसंहनननामकर्म० चैत. १८४३ मैं अर्धनाराचसंहनननामकर्मः चैतः ।। मैं कोलिकासंहनननामकर्म० चैत० १८६॥ मैं असंप्राप्त पाटिकासंहनननामकर्म० चैत १८७। मैं स्निग्धस्पर्शनामकम० चैत १८८1 में रूक्षस्पर्शनाम- +
도 55 55 5 55도
5 5 55 55 5 5 5 5 5 h
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कर्म० चेत० १८९। मैं शीतस्पर्शनामकर्म० चैत ९॥ में उपनाम० चैत० ॥९१३ "मैं गुरुस्पर्शनामकर्म० चैत १९२१ में लघु स्पर्शनामकर्म० चैत १९३। मैं मृदुस्पर्शनामकर्मक फचैत. ६॥ मैं कर्कशस्पर्शनामकर्म० चैत० ।। मैं मधुररसनामक० चैत० ६६। मैं
आम्लरसनामकर्म० चैत ।६७ । मैं तिक्तरसनामकर्म चैत० १ ६८ | मैं कटुकरसनामकर्म० चैत । ६६ । मैं कषायरसनामकर्म० चैतः । १००१ में सुरभिगंधनामकर्म० चैत । १०१। मैं ॥ असुरभिगंधनामकर्म० चैत ।१०२ शुक्लवर्णनामकर्म० चैत । १०३ । में रक्तवर्णनामकर्मक "चैत । १०४ । में पीतवर्णनामकर्म चैत । १०५। में हरितवर्णनामकर्म० चैत० । १०६ । क
में कृष्णवर्णनामकन० चैत । १०७ । नरकगत्यानुपूर्वीनामकर्म० चैत । १०८ । मैं तिर्य____चगत्यानु-नामकर्म० चैत । १०६ । में मनुष्यगत्यानुपूर्वीनामकर्म० चैत । ११ । में देव- " जगत्यानुपूर्वीनामकर्म. चेत. १११। में निर्माणनामकर्म चैत ११२॥ में अगुरुलघु नामकर्म के
चैतः । ११३ । में उपधातनामकर्मः चैत ।११। मैं परघातनामकर्म० चैत ११॥ मैं आतका पनामकर्म० चैत ११६। में उद्योतनामकर्म चैत ।१७। मैं उच्छ्वासनाभकर्म चैतन्य ११८१
मैं प्रशस्तविहायोगतिनामकर्म चैतन्यः ।।१६। मैं अप्रशस्तविहायोगतिनामकर्म चैतन्य० ॥१२॥ " में साधारणशरीरनामकर्म चैतन्य० ॥१२१॥ मैं प्रत्येकशरीरनामकर्म चैतन्य १२२१ में स्था15 वरनामकर्म० चैत ।१२३। मैं सनामकर्म चैत १.२४॥ मैं सुभगनामकर्म चैत ११२५। मैं -
"दुर्भगनामकर्म० चैत ।१२६। मैं सुस्वरनामकर्म० चैत ।१२। मैं दुःस्वरनामकर्म चैत ।१२८॥ 卐 में शुभनामकर्म० चैत ।१२। मैं अशुभनामकर्म चैत ।१३। मैं सूक्ष्मनामकर्म चैत ॥१३१। फ़ ._मैं बादरशरी'नामकर्म० चैत १३२। मैं पर्यातनामकर्म० चैत ११३३। मैं अपर्याप्तनामकर्म चैत. 卐१३४ में स्थिरनामकर्मः चैत १३५॥ मैं अस्थिरनामकर्म० चैत ११३६। मैं आदेयनामकर्म 1- चैत ।१३७। मैं अनादेयनामकर्म० चैत ११३८१ में यश-कीर्तिनामकर्म चैत ।१३९। मैं अयश:
कीर्तिनामकर्म० चैत १४०। में तीर्थ करनामकर्म० चैत १४१। मैं उच्च गोत्रकर्म. चैत
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१४२। मैं नीचेोत्र. चैत ।१४३। मैं दानांतरायकर्म चैत ।१४ में लाभांतरायकर्म चैतन्य पर १४५। मैं भोगांतरायकर्मः गत १४६। मैं उपभोगांतरायकर्म चैत १४७। मैं वीर्या तराय
कर्मः चैतः ॥४८॥ ऐसो ज्ञानी सकलकर्मकी फलकी संन्यासकी भावना करे। इहां भावना नाम ", फेरि फेरि चितवनकरि उपयोगका अभ्यास करनेका है।
卐 ___सो जब सम्यग्दृष्टि होय, ज्ञानी होय है, तब ज्ञानश्रद्धान तो भया ही जो मैं शुद्धनयकरि 卐 समस्त कर्मत अर कर्मके फलते रहित हौं । परंतु पूर्वे बांधे कर्म उदय आवे तामें तिनि भावनिका
कापणा छोडि अर पूर्वे तीन काल संबंधी गुणधास मंगकरि मधेतनाका यागकी भावनाकरिबहुरि यह सर्वकर्म के फलका भोगवनेका त्यागको भावनाकरि एक शैतन्य स्वरूप आत्माहीका। भोगवना रह्या । सो अविरत देशविरत प्रमत्त अवस्थामें तो ज्ञानश्रद्धानमैं निरंतर भावना है ही। अर जब अप्रमत्तदशा होय एकाग्रचित्तकरि ध्यान करै तब केवल चैतन्यमात्र आत्माविर्षे उपयोग लगावै, अर शुद्धोपयोगरूप होय, तब निश्चयचारित्ररूप शुद्धोपयोग भावतें श्रेणी चढि केवल.'
ज्ञान उपजावै है । तब इस भावनाका फल कर्मचेतना अर कर्मफलचेतनाते रहित साक्षात् ज्ञान+ चेतनारूप होना है। सो फेरि अनंत काल ताई ज्ञानचेतना ही रूप भया संता आत्मा परमानंदमें। 1 मम रहे है । अब इस हो अर्थ के कलशरूप काव्य कहे हैं।
_ वसन्ततिलकाछन्दः निःशेषकर्मफलमन्न्यसनान्ममौवं सक्रियान्तरविहारनिवृत्तवृतेः ।।
चैतन्यलक्ष्म भजतो भृशमात्मतचं कालायलीयमचलस्य बहुत्वनन्ता ॥३८॥ अर्थ-सकल कर्म के फलका त्यागकरि ज्ञानचेतनाकी भावना करनेवाला ज्ञानी कहे है।卐 जो एवं कहिये पूर्वोक्त प्रकार सकल कर्मका फलका सन्न्यास करने में कैसा हौं ? चैतन्य है... म लक्षण जाका ऐसा आत्मतत्त्व, ताही अतिशयकरि भोगवता हौं। अर इस सिवाय अन्य जो
उपयोगको तथा बाह्यकी क्रिया, ताविर्षे विहार कहिये प्रवर्तना तातें रहित है वृत्ति जाकी ऐसा
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- अचल हौं। सो मेरे यह कालकी आवली प्रवाहरूप अनंत है सो इसही भोगनेरूप जावो । समय " उपयोगकी प्रवृत्ति अन्य विर्षे मति जावो ।
भावार्थ-ऐसी भावना करनेवाला ज्ञानी पेसा तृप्त भया है, जो, भावना करते मानू , 1- साक्षात् केवली ही भया । सो ऐसा ही रहना अनंत काल चाहे है। सो सत्य है । याही भावना.
"तें केवली होय है केवलज्ञान उपजनका परामर्थ उपाय यही है। बाह्य व्यवहार चारित्र है सो 卐 इसहीका साधनरूप है। अर इस विना व्यवहारचारित्र है सो शुभकर्मकू वांधे है। मोक्षका - उपाय नाही हे । फेरि काव्य कहे है।
सन्ततिलकाछन्दः यः पूर्वभावकृतकर्मविषद्रमाणां मुक्तं फलानि न खलु स्वत एव तृप्तः ।
आपातकालरमणीयमुदरम्यं निष्कर्म गर्ममयमति दशान्तरं सः ॥३६॥ 卐 अर्थ-जो पुरुष पूर्वे अज्ञान भावकरि किये जे कर्म तेही भये विषके वृक्ष तिनिका फल .. उदय आया ताकू ताका स्वामी होय न भोगवे हैं। अर निश्चयकरि अपने आत्मस्वरूपहीत तृप्त का है। अन्य किछू तृष्णा नाही करे है। सो पुरुष वर्तमान कालविर्षे तो सुन्दर रमनेयोग्य, अर - आगामी कालविर्षे जाका फल सुन्दर रमनयोग्य ऐसा कर्मनितें रहित स्वाधीन सुखमयी दशांतर कहिये ऐसी दशा संसार अवस्थामै पूर्वे कबहू न भई ऐसी अन्य स्वरूप दशाकू प्रास होय है।'
भावार्थ-इस ज्ञानचेतनाकी भावनाका यह फल है। याके भावनात अत्यंत तृप्त रहे हैं, अन्य तृष्णा न रहे है। अर आगामी केवलज्ञान उपजाय सर्वकर्मनितें रहित मोक्ष-अवस्थाकू म प्राप्त होय है । अब उपदेश करे हैं, जो ऐसे कर्मचेतना अर कर्मफल चेतनाका त्यागको भावना
करि अज्ञानचेतनाका अभावकू प्रकट नवाय ज्ञानचेतनाका स्वभावकू पूर्ण करि, ताकू नचावतें असते ज्ञानी जन हैं ते सदाकाल आनंदरूप रहैं । इस अर्थ के कलशरूप काव्य हैं।
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अर्थ- ज्ञानी जन हैं ते कर्मतैं अर कर्म के फलतें अत्यन्त विरक्त भावनाकूं निरंतर भावना
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करि, बहुरि समस्त अज्ञानचेतना का नाशकूं स्पष्ट प्रकटपणें नृत्य कराय अर अपना निज रस्तें पाया
स्वभावरूप जो ज्ञानचेतना ताकूं, आनंद सहित जैसे होय तेसें पूर्ण करि नृत्य करावते संते इहांतें 5
आगे प्रशमरस जो कर्मका अभावरूप आत्मिकरस अमृतरस ताहि सदाकाल पीवो। यह ज्ञानीजननिकूं प्रेरणा है ।
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भावार्थ - यह पहले तो तीन कालसंबंधी कर्मका कर्तापणारूप कर्मचेतनाके गुणवास भंग
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रूप त्यागको भावना कराई । पोछे एक सौ अठतालोस कर्मप्रकृतिका उदयरूप कर्मका फलका त्यागकी भावना कराई है । ऐसें अज्ञानचेतनाका प्रलय कराय अर ज्ञानचेतनाएँ प्रवर्तनेका 5
उपदेश किया है। यह ज्ञानचेतना सदा आनंदरूप अपना स्वभावका अनुभवरूप है । ताकू
ज्ञानी जन सदा भोगयो । श्रीगुरुनिका उपदेश हैं। आगें यह सर्व विशुद्धज्ञानका अधिकार है क 15 सो ज्ञानकूं कर्ता भोकापणाते भिन्न दिखाया अब अन्य द्रव्य अर अन्य द्रव्यनिके भाव तिनितें ज्ञानकू न्यारा दिखावें हैं । ताकी सूचनिकाका काव्य है ।
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स्रग्धराछन्दः
अत्यन्तं भारतिमविरतं कर्मणस्तत्फलाच प्रस्पष्टं नाटयित्वा प्रलयनमखिलाज्ञानसञ्च तनायाः | पूर्ण कृत्वा स्वभावं स्वरसपरिगतं ज्ञानसञ्च तनां स्वां सानन्दं नाटयन्तः प्रशमरसमितः सर्वकालं पिबन्तु ॥ ४० ॥
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वंशस्थ च्छन्दः
इतः पदार्थावगुण्ठनात् विना तेरेकमनाकुलं ज्वलन् ।
समस्तवस्तुव्यतिरेकनिश्चयाद्विवेचितं ज्ञानमिहावति ॥४१॥
अर्थ --- इहां आगे इस ज्ञानके अधिकारविधै समस्त वस्तुनितें व्यतिरेक कहिये भिन्नका 5 निश्चयतें विवेचित कहिये न्यारा किया जो ज्ञान सो अवस्थान करे है, निश्चल तिष्ठे है । कैसा 5 हुवा तिष्ठे है ? पदार्थकी जो प्रथना कहिये फैलना
ताका अवगुंठन कहिये ज्ञेयज्ञानसंबंधकरि
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एकसे दिखाना, तातै भई जो अनेक रूप कृति कहिये कर्तृत्वभावरूप क्रिया, ताविना एक ज्ञान 5 क्रियामात्र सर्व आकुलतार्ते रहित देदीप्यमान होता तिष्ठ है I
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भावार्थ- सर्वस्तुनि न्यारा ज्ञानकूं प्रगट दिखावे हैं । सो ही गाथामें कहे हैंसत्यं गाणं ण हवदि जह्मा सत्थं ग यागदे किंचि ।
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ता अण्णं गाणं अगणं सत्थं जिणा विंति ॥ ८२ ॥ सो गाणं गा हवदि जमा सद्दो ण यागादे किंचि । तहमा अण्णं गाणं अराणं सद्दे जिणा विति ॥ ८३ ॥ रूवं गाणं ण हवदि जहमा रूवं ण याणदे किंचि । तहमा अण्णां गाणं अण्णं रूवं जिणा विति ॥ ८४ ॥ वण्णो णागांण हवदि जहमा वगणो ण यागदे किंचि ।
तहमा अरणं गाणं अण्णं वण्णं जिणा विंति ॥ ८५ ॥
गंध गाणं ण हवदि जमा गंधो ण याणदे किंचि । तहमा गाणं अण्णं अण्णं गं जिगा। विंति ॥८६॥
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ण रसो दु होदि गाणं जहमा दु रसो अचेदणो णिच्चं । तहमा असणं गाणं रसं च अण्णं जिणा विंति ॥८७॥
फासो गाणं गा हवदि जमा फासो ण यागदे किंचि । तहमा अं णाणं अण्णा फासं जिणा विति ॥ ८८ ॥
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कम्मं णाणं णा हवदि जहमा कम्मं ण याणदे किंचि । तहमा असणां णाणं अण्णं कम्मं जिणा विति ॥८९॥ धम्मच्छिओ ण णाणं जमा धम्मी ण याणदे किंचि । तहमा अण्णं गाणं अण्णं धम्मं जिणा विति ॥१०॥ ण हवदि णाणमधम्मच्छिओ ज ण याणदे किंचि । तहमा अण्णं णाणं अण्णमधम्मं जिणा विति ॥९॥ कालोवि णत्थि णाणं जमा कालो ण याणदे किंचि । तहमा ण होदि णाणं जमा कालो अचेदणो णिचं ॥१२॥ आयासपि य गाणं ण हवदि जहमा ण याणदे किंचि । तहमा अण्णायासं अण्णं गाण जिणा विति ॥९३।। अज्झवसाण णाणं ण हवदि जमा अचेदण णिचं । तमा अणणं णाणं अज्झवसाणं तहा अण्णा ॥९४॥ जमा जाणदि णिच तहमा जीवो दु जाणगो गाणी। णाणं च जाणयादो अव्वदिरित्तं मुणेयव्वं ॥१५॥ णाणं सम्मादिट्टी दु संजमं सुत्तमंगपुव्वगयं । धम्माधम्मं च तहा पव्वजं अज्झति वुहा ॥१६॥
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शास्त्र ज्ञान न भवति यस्माच्छास्त्र न जानाति किंचित् । तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यच्छास्त्र जिना वदति ॥४२॥ शब्दो ज्ञानं न भवति यस्माच्छब्दो न जानाति किंचित् । तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं शब्दं जिना वदति ॥८३॥ रूपं ज्ञानं न भवति यस्माद्रपं न जानाति किंचित् । सस्माइन्यजज्ञानमन्यद्रूपं जिना वदंति ॥४॥ वर्णो ज्ञानं न भवति यस्माद्वर्णो न जानाति किंचित् । तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं वर्ण जिना वदंति ॥८॥ गंधो ज्ञानं न भवति यस्माद्धो न जानाति किंचित् । तस्माज्ज्ञानमन्यदन्यं गंधं जिना वंदति ॥८६॥ न रसस्तु भवति ज्ञानं यस्मात्तु रसो अवेतनो नित्यं । तस्मादन्यज्ज्ञानं रसं चान्यं जिना वदंति ॥८॥ स्पर्शो ज्ञानं न भवति यस्मात्स्पर्शी न जानाति किंचित् । तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं स्पर्श जिना बदति ॥८॥ कर्म ज्ञानं न भवति यस्मात्कर्म न जानाति किंचित् । तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यत्कर्म जिना वदंति ॥८६॥ धर्मास्तिकायो न ज्ञानं यस्माद्धर्मो न जानाति किंचित् । तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं धर्म जिना वदंति ॥१०॥ न भवति ज्ञानमधर्मास्तिकायो यस्मान्न जानाति किंचित् । तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यमधर्म जिना वदति ॥३१॥
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कालोऽपि नास्ति ज्ञानं यस्मात्कालो न जानाति किचित् । तस्मान्न भवति ज्ञानं यस्मात्कालोऽचेतनो नित्यं ॥२॥ आकाशमपि ज्ञानं न भवति यस्मान्न जानाति किंचित् । तस्मादन्याकाशमन्यज्ज्ञानं जिना वदंति ॥६३॥ अध्यवसानं ज्ञानं न भवति यस्मादचेतनं नित्यं । तस्मादन्यज्ज्ञानमध्यवसानं तथान्यत् ॥१४॥ घरमा जागति नित्यं तस्माज्जीवस्तु ज्ञायको ज्ञानी । ज्ञानं च ज्ञायकादव्यतिरिक्तं ज्ञातव्यं ॥६५॥ ज्ञानं सम्यग्दृष्टिं तु संयम सूत्रमंगपूर्वगतं ।
धर्मा धर्म च तथा प्रवज्यामभ्युपयंति बुधाः ॥६॥ आत्मख्यातिः-न श्रुतं ज्ञानमचेतनत्वात तनी ज्ञानश्रुतयोर्व्यतिरेकः । न शब्दो ज्ञानचेतनत्वात् तती शानशब्द. +योर्व्यतिरेकः । न रूपं ज्ञानमचानत्वात् ततो ज्ञानरूपयोर्व्यतिरेकः । न वर्णो ज्ञानमचंतनत्वात् ततो ज्ञानवर्णयोयति- 1.
रेकः । न गंधी ज्ञानमचंतनत्वात् ततो ज्ञानमंधयोपतिरेकः । न रसो ज्ञानमचेतनत्वात् ततो ज्ञानरसयोतिरेकः । न । पर स्पर्शो शानमचेतनत्वात् ततो ज्ञानस्पर्शयोयतिरेकः । न कर्म ज्ञानमचंतनत्वात् ततो ज्ञानकर्मणोर्व्यतिरेकः । न धों
झानमचंतनत्यात ततो ज्ञानधर्मयोचूँतिस्कः । नाधर्मो ज्ञानमचेतनत्वात ततो ज्ञानाधर्मयोर्व्यतिरेकान कालो ज्ञानमचं. प्रतमत्वान् ततो ज्ञानकालयोर्व्यतिरेकः । नाकाशं ज्ञानमचंतनत्वात् ततो ज्ञानाकाशयोय॑तिरेकः । नाध्यवसानं ज्ञानमत- 4
नत्वाद नतो झानाध्यवसानयोर्व्यतिरेकः । इत्येवं ज्ञानम्य सबैरेव परद्रव्यः सह व्यतिरेको निश्चयसाधितो भवति । अथ। 15 जीव एवैको ज्ञान चेतनत्वात् ततो ज्ञानजीक्योरेवाव्यतिरेकः, न च जीवस्य स्वयं ज्ञानत्वात्ततो व्यतिरेकः कश्चनापि
शंकनीयः । एवं तु सति ज्ञानमेव सम्यग्दृष्टिः, ज्ञानमेव संयमः, ज्ञानमेवोगपूर्वरूपं सूत्रं, ज्ञानमेव धर्माधमी, ज्ञानमय प्रव्रज्येति ज्ञानस्प जीवपर्यायैरपि सहाव्यतिरेको निश्चयसाधितो दृष्टव्यः ।
अथैवं सर्घद्रव्यन्यतिरेकेण सर्वदर्शनादिजीवस्वभावाव्यतिरेकण वा अतिव्याप्तिमव्याप्तिं च परिहरमाणमन
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"मूलं धर्माधर्मरूपं परमसमयमुद्दम्य स्वयमेव प्रवृज्यारूपमापाच दर्शनज्ञानचरित्रस्थितित्वरूपं समयमवाप्य मोक्षमार्गमात्मयभन्या परिणतं कृत्वा समयाप्तसंपूर्णविज्ञानधनमा हानोपादानशून्यं साक्षात्समयसारभूतं शुद्धज्ञानमकमेव स्थितं द्रष्टव्यं । 'म
___ अर्थशास्त्र है सो ज्ञान नाही है। जातें शास्त्र किछू जाने नाही है, जड़ है। तातें .. फ्रज्ञान अन्य हे शास्त्र अन्य है, ऐसें जिन भगवान् हैं ते जाने हैं कहे हैं । शब्द है सो ज्ञान । ..नाही है जाते शब्द किछु जाने नाही है तातें ज्ञान अन्य है शब्द अन्य है। यह जिनदेव -
कहे हैं । रूप है सो ज्ञान नाही है। जात रूप किछू जाने नाही है। तातें ज्ञान अन्य है रूप " - अन्य है । यह जिनदेव कहे हैं। वर्ण है सो ज्ञान नाहीं है। जाते वर्ण किछू जाने नाही है। म
तातें ज्ञान अन्य है वर्ण अन्य है। यह जिनदेव कहे हैं। गंध है सो ज्ञान नाहीं है। जाते गंध जकिछू जाने नाही है। तातें ज्ञान अन्य है गंध अन्य है । यह जिनदेव कहे हैं। बहुरि रस हे सो ॥ "ज्ञान नाहीं है। जातें रस किछु जाने नाही है, तातें, ज्ञान अन्य है रस अन्य है । यह जिनदेव ' कहे हैं । स्पर्श है सो ज्ञान नाहीं है। जाते स्पर्श किछु जाने नाही है, तातै ज्ञान अन्य है स्पर्श . ___ अन्य है। यह जिनदेव कहे हैं। कर्म है सो ज्ञान नाही है। जातें कर्म किछू जाने नाहीं है, . जतातें ज्ञान अन्य है कर्म अन्य है। यह जिनदेव कहे हैं। धर्म है सो ज्ञान नाहीं हे। जातें धर्म । किछू जाने नाही है, तातें ज्ञान अन्य है धर्म अन्य है । यह जिनदेव कहे हैं । अधर्म है सो ज्ञान नाहीं है । जाते अधर्म किछू जाने नाहीं है, तातें ज्ञान अन्य है अधर्म अन्य है। यह जिनदेव कहे हैं । काल है सो ज्ञान नाहीं है । जाते काल किछू जाने नाही है, तातें ज्ञान अन्य है काल卐 "अन्य है। यह जिनदेव कहे हैं । आकाश भी ज्ञान नाही है जाते आकाश किछू जाने नाहीं है, .. जतातें ज्ञान अन्य है आकाश अन्य है। यह जिनदेव कहे हैं। तैसे ही अध्यवसान है सो ज्ञान .नाही है । जाते अध्यवसान अचेतन है, तातें, ज्ञान अन्य है अध्यवसान अन्य है। यह जिनदेव .. 卐 कहे हैं । बहुरि जीव है सो ज्ञायक है, सो ही ज्ञान है । जाते यह निरतर जाने है । ज्ञान है सो । 1- ज्ञायकतें अभिन्न है न्यारा नाही है, ऐसा जानना । बहुरि ज्ञान है सोहो सम्यग्दृष्टि है, ज्ञान ही
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"संयम है, ज्ञान ही अंगपूर्वगत सूत्र है, धर्म अधर्म भी ज्ञान ही है, बहुरि प्रवज्या दीक्षा है सो 卐भी ज्ञान है । ज्ञानी जन हैं ते ऐसे अंगीकार करे हैं माने हैं। .. टीका--श्रुत कहिये वचनात्मक द्रव्यश्रुत है सो ज्ञान नाहीं है । जाते वचन है सो अचेतन
है। सातें ज्ञानके अर श्रुतके व्यतिरेक है भेद है । बहरि शब्द है सो ज्ञान नाहीं है । जाते शब्द पुद्गलद्रव्यका पर्याय है अचेतन है, तातें ज्ञानके अर शब्दके व्यतिरेक है । बहुरि रूप है सो ज्ञान "नाहीं है। जाते रूप पुद्गलका गुण है अचेतन है, तातें रूपके अर ज्ञानके व्यतिरेक है । बहुरि प्रवर्ण है सो ज्ञान नाहीं है । जारौं वर्ण पुद्गलद्रव्यका गुण है, अचेतन है, तातें वर्ण के अर ज्ञानके ___व्यतिरेक है। बहुरि गंध हं सो ज्ञान नाहीं है । जातें गंध पुद्गलद्रव्यका गुण है, अचेतन है, जतातें गंधके अर ज्ञानके व्यतिरेक है। बहुरि रस है सो ज्ञान नाहीं है। जाते रस 卐 ..पुद्गलद्रव्यका गुण है अचेतन है, तातें रसके अर ज्ञानके व्यतिरेक है। बहुरि स्पर्श है सो
ज्ञान नाहीं है । जाते स्पर्श पुद्गलद्रव्यका गुण हे अचतन है, तातें स्पर्शक अर ज्ञानके व्यतिरेक है। बहुरि कर्म है सो ज्ञान नाहीं है । जातें कर्म अचेतन है, तातें कर्मके अर ज्ञानके व्यतिरेक "है। बहरि धर्मद्रव्य है सो ज्ञान नाहीं है। जाते धर्म अचेतन है तातें धर्मद्रव्यके अर
ज्ञानके व्यतिरेक है । वहुरि अधर्मद्रव्य है सो ज्ञान नाहीं है । जाते अधर्म अचेतन है, तातें + "अधर्मद्रव्यके अर ज्ञानके व्यतिरेक है । बहुरि कालद्रव्य है सो ज्ञान नाहीं है । जाते काल अचेतन है, जताते कालके अर ज्ञानके व्यतिरेक है । बहुरि आकाशद्रव्य है सो ज्ञान नाहीं है। जाते आकाश ...अचेतन है । तातें ज्ञानके अर आकाशके व्यतिरेक है। बहुरि अध्यवसान है सो ज्ञान नाहीं है। +जातें अव्यवसान अचेतन है । तातें ज्ञानके कर्मके उदयकी प्रवृत्तिरूप अध्यवसानके व्यतिरेक है।
ऐसें याप्रकार तो ज्ञानके सर्व ही परद्रव्यनिकरि सहित व्यतिरेक भिन्नपणाका निश्चय साध्या हुवा
देखना । अर अब कहे हैं, जो जीव है सो ही एक ज्ञान है जातें जीव घेतन है, ताते ज्ञानके अर अजीवके अव्यतिरेक है अभेद है । बहुरि जीवके आपैआप ज्ञानपणा है । ज्ञानजीवके व्यतिरेक भेव ॥
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किछु ही आशंकारूप न करना । ऐसें होते ज्ञान है सो ही सम्यग्दृष्टि है, ज्ञान है सो ही संयम है, ज्ञान है सो हो अंगपूर्वगत सूत्र है । बहुरि धर्म अधर्म है सो भी ज्ञान ही है। बहुरि ज्ञान है सो प्रवज्या कहिये दीक्षा है, निश्चयचारित्र है। ऐसे जीवके पर्यायनिकरि सहित भी अव्य
सिरक अभेदका निश्चय साध्या हुवा देखना । अब कहे हैं । जो ऐसे सर्वपरद्रव्यनिकर तो व्यतिकारेक करि बहुरि जीवके सर्वदर्शन• आदि लेकरि स्वभावनिकरि अव्यतिरेक करि, तौ अतिव्याप्ति + अर अत्याप्ति दृषणकू दूरिकरता स्ता, अर अनादिकालतें बिभ्रम अविद्या मूल जाका ऐसा "धर्म अधर्म कहिये पुण्य पाप शुभ अशुभरूप परसमय ताकदूरि करि, अर आप प्रवज्या जो 5 卐 निश्चयचारित्ररूप दीक्षाकू पायकरि, दर्शनज्ञानचारित्रवि स्थितिरूप जो स्वतंयम ताकू व्याप्यकरि
आत्माहीवि मोक्षमार्गकू परिणामरूपकार, अर पाया है संपूर्ण विज्ञानयन स्वभाव जाने, अर हान उपादान कहिये त्याग ग्रहणकरि रहित साक्षात् समयसारभूत परमार्थ रूप शुद्ध एक ज्ञान - अवस्थित भया देखना, प्रत्यक्ष स्वसंवेदनकार अनुभवन करना।
भावार्थ-अर सर्व परद्रव्यनित ती न्यारा अर अपना पर्यायनित अभे ऐसा ज्ञान एक दि. खाया । सो यातें अतिव्याप्ति अर अव्याप्ति नामा लक्षणके दोष है ते दुम भये । जातें आत्माका
लक्षण उपयोग है । सो उपयोगमें ज्ञान प्रधान है । सो यह अन्य अचेतन व्यनिम नाहीं । तातें 5 + तो अतिव्याप्तिस्वरूप नाहीं । अर अपना अवस्था में सर्वमें है, तातें अव्याप्तस्वरूप नाहीं। अर ..
इहां ज्ञान कहनेत आत्माही जानना । जाते अभेदविवक्षामै गुणगुणीके अभेद है। ताते विरोध । 卐 माहीं । इहां ज्ञानहीकू प्रधानकरि आत्माका अधिकार है । या ही लक्षणते सर्वपरद्रव्यनित भिन्न र ... अनुभवगोचर होय है । यद्यपि आत्मामें अनंतधर्म हैं तथापि तिनिमें कई तौ छद्मस्थके अनुभवॐ गोचर ही नाही, तिनिकू कहे, छमस्थ ज्ञानी आत्माकू कैसे पहिचाने ? अर कई धर्म अनुभव-5 पर गोचर हैं तिनिमें कई अस्तित्व वस्तुत्व प्रमेयत्वादिक हैं ते अन्यद्रव्यनित साधारण हैं समान हैं। ..
तिनिकू कहे न्यारा आत्मा जान्या जाय नाहीं। बहुरि केई परद्रव्यके निमित्ततें भये, तिनिकू
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कहे । परमार्थभूत आत्माका स्वरूप शुद्ध कैसे जान्या जाय ? तातें ज्ञान ही कहे। छद्मस्थ ज्ञानी । आत्माकू पहिचाने तातें ज्ञानहीकू आत्मा कहिकरि, अर इस ज्ञानमै अनादि अज्ञानते शुभाशुभ है उपयोगरूप परसमयकी प्रवृत्ति है ताकू दूरि करि, अर सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रविर्षे प्रवृत्तिरूप स्व
समयरूप परिणमनस्वरूप मोक्षमार्गविर्षे आत्माकू परिणमाय, अर संपूर्ण ज्ञान प्राप्त होय तब म 卐 फेरि त्यागग्रहणकू किछू न रहै । ऐसा साक्षात् समयसारस्वरूप पूज्ञान परमार्थभूत शुद्ध ठहरै। __ ताकू देखना। ॐ तहां देखना ही तीन प्रकार जानना । एक तो शुद्धनयका ज्ञानकरि याका श्रद्धान करना । .. सो यह तो अविरत आदि अवस्था में भी मिथ्यात्वके अभावतें होय है। बहुरि दूसरा ज्ञानश्रद्धान
भये पीछे वाद्य सर्व परिग्रहका त्यागकरि याका अभ्यास करना । उपयोग ज्ञानहीविर्षे थांभना है + सो जैसे शुद्धनयकरि अपना स्वरूपकू सिद्धसमान जान्या श्रद्वान किया, तैसा ही ध्यानविषे ले " एकाग्रचित्तक ठहरावना । फेरि फेरि याहीका अभ्यास करना । सो यह देखना अप्रमत्तदशामें 卐 + होय है । सो जहाँ ताई ऐसे अभ्यासतें केवलज्ञान उपजै तहां ताई यह अभ्यास निरंतर रहै। यह ।।
देखनेका दूसरा प्रकार है । सो इहां ताई तो पूर्णज्ञान शुद्धनयके आश्रय परोक्ष देखना है । बहुरि । 卐 तीसरा यह है, जो केवलज्ञान उपजै तब साक्षात् देखना होय है। तब सर्व विभावनितें रहित ... होय सर्वका देखनजाननहारा ज्ञान है सो यह पूर्णज्ञानका प्रत्यक्ष देखना ही सो यह ज्ञान है" ॐ सो ही आत्मा है । अभेदविवक्षामें ज्ञान कहौ तथा आत्मा कही किछू विरोध न जानना। अव ॥ 1- इस अर्थ के कलशरूप काव्य कहे हैं।
शार्दूलविक्रीडितछन्दः पर अन्येभ्यो व्यतिरिक्तमान्मनियतं बिभ्रत्पृथग्यस्तुता मादानोज्झनशून्यमतदमलं ज्ञानं तथाऽवस्थितम् ।
___ मध्यावन्तविभागमुक्तसहजस्फारप्रभाभासुरः शुद्धज्ञानघनो यथाऽस्य महिमा नित्योदितस्तिष्ठति ॥४२॥ - + अर्थ यह ज्ञान है सो तैसें अवस्थित भया है, जैसे याका महिमा निरंतर उदयरूप तिप्ठे
+
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प्रतिपक्षी कर्म न रहै । कैसा अवस्थित भया है ? अन्य जे परद्रव्य तिनितें व्यतिरिक्त कहिये "न्यारा अवस्थित भया है। बहुरि कैसा है ? आत्मनियतं कहिये आपहीविर्षे निश्चित है। बहुरि + कैसा है ? पृथक् कहिये न्यारा ही वस्तुपणाकू धारता संता है । वस्तूका स्वरूप सामान्यविशेषा
स्मक है, सो ज्ञान भी सामान्यविशेषपणाधारथा है । बहुरि कैसा है ? आदानोज्झन कहिये 卐ग्रहणत्याग तिनि करि शून्य है रहित है। ज्ञान में किछू त्याग ग्रहण नाहीं है। बहुरि कैसा है ? ' -अमल कहिये रागादिक मलते रहित है ऐसा है । बहुरि याका महिमा नित्य उदयरूप तिष्ठे है
सो कैसा है ? मध्य अर आदि अर अंत जे विभाग तिनिकरि मुक्त कहिये रहित, अर सहज कहिये स्वाभाविक, अर स्फार कहिये फैल्या बिस्तरथा जो प्रभा कहिये प्रकाश ताकरि दैदीप्य"मान है । बहुरि शुद्रज्ञानशा न कहिये समूह है ऐसा जाका महिमा सदा उदयमान है। तैसें । म अवस्थित भया है ठहरया है।
. भावार्थ-ज्ञानका पूर्णरूप सर्व जानना है । सो जब यह प्रकट होय है तब तिनि विशेष- । जगनिसहित प्रकट होय है । सो याकी महिमा कोई विगाडि सके नाहीं सदा उदयमान रहे है। म .. अब कहे हैं, ऐसे ज्ञानस्वरूप आत्माका धारणा सो ही कृतकृत्यपणा है।
उपजातिछन्दः . उन्मुक्त मु मोफयमशेषतस्तत्तथानमादयमशेषतस्तत् । यदात्मनः संहृतसर्वशक्त: पूर्णस्य सन्धारणमात्मनीह ॥४३॥ .. - अर्थ-जो समेटी है सर्व शक्ति जानें ऐसा जो पूर्णस्वरूप आत्मा, ताका आत्मा ही विष ।
धारण करना सो ही जो उन्मोच्य कहिये छोडनेयोग्य था, सो तो सर्व उन्मुक्त कहिले छोडया । म "अर जो आदेय कहिये लेने योग्य था, सो समस्त लिया। 卐 भावार्थ-जो पूर्णज्ञान स्वरूप सर्वशक्तिका समूहस्वरूप आत्मा, ताक् धारणा सो ही त्यागने- 卐५८. . योग्य तो सर्व ही त्यागा । अर ग्रहण करनेयोग्य था सो ग्रहण कीया। यह ही कृतकृत्यपणा है। -
आगे कहे हैं, जो ऐसे ज्ञानके देह भी नाही है। साकी सूचनिकाका श्लोक है ।
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अनुष्टुप्छन्दः
व्यतिरिक्तं परद्रव्यादेवं ज्ञानमवस्थितं । कथमाहारकं तत्स्याद्येन देहोऽस्य शंकयते ॥ ४४ ॥
भावार्थ एवं कहिये पूर्वोक्त प्रकार परद्रव्यतें न्यारा ज्ञान अवस्थित भया ठहरया । सो
ऐसा ज्ञान आंहारक कहिये कर्मनो कर्मरूप आहार करनेवाला कैसा होय ? अर जब आहारक
तब या देही का कैसी करिये ? नाही करिये । अत्र इस अर्थकू गाथामैं कहे हैं।
गाथा---
अत्ता जस्स अमुत्तो हु सो आहारओ हवदि एवं । आहारो खलु मुत्तो जह्मा सो पुग्गलमओ दु ॥९७॥ वि सक्कदि वित्तुं जेण सुचदे चेव जं परं दव्वं ।
सो कोविय तस्स गुणो पाउग्गिय विस्ससो वापि ॥९८ ॥ तहमा दु जो विसुद्धो वेदा सो व गिडदे किंचि ।
व विमुंचदि किंचिवि जीवाजीवाणदव्वाणं ॥ ९९ ॥ आत्मा यस्यामूर्ती न खलु स आहारको भवत्येवं । आहारः खलु मूर्ती यस्मात्स पुद्गलमस्तु ॥९७॥
नापि शक्यते गृहीतुं यन मुंचति चैव यत्परं द्रव्यं ।
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स कोऽपि च तस्य गुणो प्रायोगिको वैखसो वापि ॥ ९८ ॥
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तस्मा यो विशुद्धचेतयिता स नैव गृह्णाति किंचित् । नैव विचति किंचिदपि जीवाजीवयोर्द्रव्ययोः ॥६६॥
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आत्मख्यातिः ---ज्ञानं हि परद्रव्यं किंचिदपि न गृह्णाति न मुंचति प्रायोगिकगुणसामर्थ्यात् वैखसिकगुणसाम - 5
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ॐ यद्वा ज्ञानेन परद्रस्य गृहीतु मोक्तुं चाशक्यत्वात् । परद्रव्यं च न ज्ञानस्यामूस्मिद्रन्यस्य मूर्तपुद्गलद्रम्पत्वादाहार 1- ततो ज्ञानं नाहारकं भवत्यतो बानम्य देहो नाशंकनीयः ।
__ अर्थ—याप्रकार जाका आत्मा अमूर्तिक है सो निश्चयकरि आहारक नाहीं है। जातें आहार १०॥ है सो मूर्तिक है । सो आहार पुद्गलमय है । बहुरि जो परद्रव्य है सो ग्रहण करनेकू नाहीं समर्थ
हजिये है । अर लोडनेकू समर्थ न हूजिये है। सो कोई ऐसाही आत्माका गुण है, प्रायोगिक है। प्र तथा वैरसिक है। तातें जो विशुद्ध चेतविता आत्मा है सो किछु ही परद्रव्यकू जीव अजीवकूम - नाहीं ग्रहण करे है । बहुरि किछू ही परद्रव्यकू नाहीं छोड़ें है।
टीका-इहाँ आत्मा कहनेत ज्ञानका ग्रहण है, जाते, अभेदविवक्षात लक्षणवियें ही लक्ष्यका प्र व्यवहार है। इस न्यायतें आत्माकू ज्ञान ही कहते आवे है। तातें टीका करे हैं । जो, ज्ञान है।
सो परवलय किंचिन्मात्र भी नाहीं ग्रहण करे है, अर किंचिन्मात्र भी नाहीं छोडे है। जाते। 卐 प्रायोगिक गुण काहये परनिमित्ततें भया जो गुण ताकी सामयतें तथा वैनसिक कहिले स्वाभा-'
विक गुणकी सापयतें दोऊ प्रकारतें ज्ञानकरि परद्रव्यका ग्रहण करनेका अर छोडनेका असम ॐ र्थपणा है। वह रे अमूर्तिक आत्मद्रव्य जो ज्ञान ताकै मूर्तिक पुद्गलद्रव्य आहार नाहीं है।' 1- अमूर्तिकके मूर्तिक आहार होय नाहीं । तातें ज्ञान आहारक नाहीं है। यातें ज्ञानके देहकी संका ..
॥ न करणी। 4भावार्थ-ज्ञानस्वरूप आत्मा अमूर्तिक है । अर आहार है सो कर्मनोकर्मरूप पुद्गलमय मूर्तिक ।
" है। तातें परमायतें आत्माके पुद्गलमय आहार नाहीं है। बहुरि आत्माका ऐसा ही स्वभाव " 卐 है, सो परद्रव्यकू तौ ग्रहण ही नाहीं करे है। स्वभावरूप परिणमू तथा विभावरूप परिणमू, ___अपने ही परिणामका ग्रहण त्याग है। परद्रव्यका तो ग्रहण त्याग किछु भी नाहीं है। ताते 卐 आत्माके पुद्गलमय देहस्वरूप जो लिंग है, वेष है, बाह्यचिन्ह है, सो मोक्षका कारण नाहों है।)
ताकी सूचनिकाका श्लोक है।
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अनुष्टुप्छन्दः
एवं ज्ञानस्य शुद्धस्य देंड एव न विद्यते । ततो देहमयं ज्ञातुर्न लिंग मोक्षकारणम् ||४५ ||
अर्थ - एवं कहिये पूर्वोक्तप्रकारकरि शुद्धज्ञानकै देह ही नाहीं विद्यमान है । तातें ज्ञाताके देहमय लिंग है, चिन्ह है, भेष है सो मोक्षका कारण नाहीं हैं। अत्र इस अर्थ गाथाकरि कहे। 卐 हैं
| गाथा
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पाखंडियलिंगाणि य हिलिंगाणिय बहुप्पयाराणि ।
वित्तुं वदंति मूढा लिंगमिण मोक्खमग्गोत्ति ॥१००॥
णय होदि मोक्खमग्गो लिंगं जं देहणिम्ममा अरिहा ।
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लिंगं मुइत्तु दंसणणाणचरिताणि सेवति ॥ १०१ ॥ पाखंडिलिंगानि च गृहलिंगानि च बहुप्रकाराणि । गृहीत्वा वदति मूढा लिंगमिदं मोक्षमार्ग इति ॥ १०० ॥
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न तु भवति मोक्षमार्गो लिंगं यह हनैर्ममका अर्हतः ।
लिंगं मुक्त्वा दर्शनज्ञानचरित्राणि सेवते ॥ १०१ ॥
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आत्मख्यातिः --- केचिद् द्रव्यलिंगमज्ञानेन मोक्षमार्ग मन्यमानाः संतो मोहेन द्रव्यलिंगमेयोपाददते । तदप्यनुप-क
5 पन्नं सर्वेषामेव भगवतामर्हदं वानां शुद्धज्ञानमयत्ये सति द्रव्य लिंगाश्रयभूतशरीरममकारत्यागात् । तदाश्रितद्रव्यलिंगत्या
गेन दर्शनज्ञानचरित्राणां मोक्षमार्गत्वेनोपासनस्य दर्शनात् ।
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अथैतदेव साधयति---
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अर्थ - पाखंडिलिंग बहुरि गृहिलिंग ऐसे बहुत प्रकार बाह्यलिंग हैं। तिनिकूं ग्रहणकरि मूढ
अज्ञानी जन ऐसें कहे हैं, यह लिंग है सो ही मोक्षका मार्ग है। आचार्य कहे हैं लिंग मोक्षका 5
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5 मार्ग नाही है। जातें, अहंतदेव हैं से देहके विर्षे निर्ममत्व भये संते लिंगकू छोडिकरि दर्शन
ज्ञानचारित्रहीकू सेवे हैं। ___टीका केईक जन अज्ञानकरि द्रव्यलिंगहीकू मोक्षमार्ग मानते संते मोहकरि द्रव्यलिंगहोकू, अंगीकार कर हैं । सो यह द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग मानना अनुपपन्न है। जाते सर्व ही भगवान्। अरहंतदेव हैं तिनिकै शुद्धज्ञानमयीपणा होते संत द्रव्यलिंगका आश्रयभूत जो शरीर ताका" ममकारका त्याग तिस शरीरके आश्रित जो द्रव्यलिंग ताका त्याग करि अर दर्शन ज्ञानचारि-1 त्रनिके मोक्षमार्गपणाकरि सेवना देखिये हैं। ____ भावार्थ-जो देहमय द्रव्यलिंग ही मोक्षका कारण होता तौ अरहतादिक देहका ममत्व छोडिक दर्शनज्ञानचारित्रकू काहे सेवते ? द्रव्यलिंगही मोक्षप्राप्त होते । तातें यह निश्चय भया,
जो देहमलिंग मोक्षमार्ग नाहीं है। परमार्थकरि दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप आत्मा ही मोक्षका भार्ग। 卐 है। आगै यह साधे हैं, जो दर्शनज्ञानचारित्र ही मोक्षमार्ग है । गाथा
णवि एस मोक्खमग्गो पाखंडी गिहमयाणि लिंगाणि। दसणणाणचारित्ताणि मोक्खमग्गं जिणा विति ॥१०२॥
नाप्येष मोक्षमार्गः पाखंडिगृहमयानि लिंगानि।
दर्शनज्ञानचरित्राणि मोक्षमार्ग जिना वदति ॥१०२॥ आत्मख्यातिः--न खलु द्रव्यलिंगं मोक्षमार्गः शरीराश्रितत्वे सति परद्रव्यत्वात् । तस्माद्दर्शनशानचारित्राण्येव । 1- मोक्षमार्गः, आत्माश्रितत्वे सति स्वद्रव्यत्वात् ।
यत एवं
अर्थ-पाखंडिलिंग अर गृहस्थलिंग ये मोक्षमार्ग नाहीं । वर्शन ज्ञान चारित्र हैं ते मोक्षमार्ग हैं। ऐसें जिनदेव कहे हैं।
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फ़ टीका निश्चयकरि द्रव्यलिंग है सो माक्षका प्राग नाहीं है । जाते याकै शरीरकै आश्रित._ पणा हात संते यह परद्रव्य है । बहुरि दर्शन ज्ञान चारित्र हैं ते ही मोक्षमार्ग हैं। जाते इनिके आत्माके आश्रितपणा होतें सतें निज आत्मद्रव्यपणा है !
भावार्थ-मोक्ष है सो सर्व कर्मका अभावरूप आत्माका परिणाम है । सो याका कारण भी.. " आत्माका परिणाम ही चाहिये । तातें दर्शन ज्ञान चारित्र हैं ते आत्माका परिणाम हैं । तात ते । 卐 ही मोक्षक मार्ग हैं, यह निश्चयकरि कहा । बहुरि लिंग है सो देहमय है । देह है सो पुद्गल-1
द्रव्यमय हैं । तातें आत्माकै देह मोक्षका मार्ग नाहीं है । परमार्थकरि अन्यद्रव्यके अन्यद्रव्य किछु। करे नाही यह नियम है । आर्गे कहे हैं, जो जातें ऐसें है द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग नाही, ताते ऐसे करना यह उपदेश करे हैं।
जहमा जहित्तु लिंगे सागारणगारिएहि वा गहिदे । दसणणाणचरित्ते अप्पाणं जुज मोक्खपहे ॥१०३॥
तस्मात्तु जहित्वा लिंगानि सागारेरनगारिकर्वा गृहीतानि ।
दर्शनज्ञानचारिजो आत्मानं युश्व मोक्षपधे ॥१३॥ आत्मरत्यातिः-यत्तो व्यलिंगं न मोक्षमार्गः, ततः समस्तमपि द्रव्यलिंगं त्यक्त्वा दर्शनज्ञानचारित्रे चैव मोक्ष5 मार्गत्वात आत्मा याक्तव्य इति सूत्रानुमतिः।।
अर्थ-जाते द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग नाही, तातें सागार कहिये गृहस्थनिकरि, अर अनगार। 卐 कहिये गृहक त्यागि मुनि होयकरि जे लिंग आहे तिनि• छोडिकरि अपने आत्माकू दर्शनज्ञान) 1. चारित्रस्वरूप मोक्षमार्गविर्षे युक्त करौ । यह श्रीगुरुनिका उपदेश है।
टीका--जातें द्रव्यलिंग है सो मोक्षका मार्ग नाही है, तातें समस्त हो द्रव्यलिंग हैं ताहिक
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5 छोडि अर दर्शनशानचारित्रनिविर्षे ही आत्माकू युक्त करना । जाते एही मोक्षका मार्ग है । ऐसा
सूत्रका उपदेश है।
- भावार्थ इहां द्रव्यलिंगनकू छुडाय दर्शनज्ञानचारित्रविर्षे लगावनेका वचन है। सो यह + सामान्य परमार्थवचन है। कोई जानेगा, कि मुनि श्रावक व्रत छुडावनेका उपदेश है। सो ऐसा
नाही है । जे केवल द्रव्यलिंगहीकू मोशा जामि नेष धारे शिमिळू पक्ष धुलाई है । जो भेष卐 मात्रतें मोक्ष नाहीं है। परमार्थरूप मोक्षमार्ग आत्माके परिणाम दर्शन ज्ञान चारित्र हैं ते ही
हैं । अर व्यवहार आचारसूत्रमैं कहे तिस अनुसार मुनिश्रावककै बाह्य व्रत हैं ते व्यवहारकरि,. 卐 निश्चयमोक्षमार्गके साधक हैं । तिनिळू छुडावै नाहीं ऐसा कहे हैं। जो तिनिका भीममत्व छोडि का .. परमार्थ मोक्षमार्गमें लागै मोक्ष होय है । केवल भेषमात्र मोक्ष नाहीं है ऐसा जानना। आगैरका इस ही अर्थकू दृढ करे हैं ताकी सूचनिकाका श्लोक है।
___अनुष्ट्रप छन्दः दर्शनवानचारित्रत्रयात्मा तम्बमात्मनः । एक एव सदा सेव्यो मोक्षमार्गा समुक्षुणा ॥४६॥
अर्थ-जातें आत्माका तत्त्व कहिये यथार्थरूप दर्शनज्ञानचारित्रका त्रिकस्वरूप है तातें मोक्षकेत । इच्छुक पुरुषनिकरि एक ही यह मोक्षमार्ग सदा सेवने योग्य है। अब यह ही उपदेश गाथाकरि" कहे हैं।
सुक्खपहे अप्पाणं ठवेहि वेदयदि झायहि तं चेव । " तत्थेव विहर णिच्च माविरहसु अण्णादव्वेसु ॥१०४॥
मोक्षपथे आल्मानं स्थापय वेदय ध्याय हितं चैव ।
तत्रैव विहर नित्यं मा विहारिन्यद्रव्येषु ॥१०॥ आत्मख्यातिः-आ संसारात्परद्रव्य रागढ़ पादौ नित्यमव स्त्रप्रशादोषणापतिष्ठमानमपि स्वप्रज्ञागुणनैव ततो व्यावर्त्य । 1- दर्शनज्ञानचारिगेषु नित्यमेवावस्थापयति निश्चितमात्मानं । तथा चियांवरनिरोधेनात्यंतमेकायो भूत्वा दर्शनशानचारित्रा- ..
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ग्येव घ्यायस्व | तथा सकलकर्मकर्मफलचेतनासंन्यासेन शुद्धज्ञानचेतनामयोभूत्वा दशनज्ञानचारित्राण्येव चेतयस्य । तया ॥ " द्रव्यस्वभावतः निशाणात्रिपरिणाप्रया तन्मयपरिणामो भूत्वा दर्शनज्ञानचारित्र वेव विहर | तथा ज्ञानके रूपमेकमेवाचलितमवर्लवमानो जयरूपेणोपाधितया सर्वत एव प्रधावत्स्वषि परद्रव्यधु सर्वेश्वपि मनागपि मा विहार्षीः। ॥ प्राभूत
अर्थ-हे भव्य ! तू मोक्षमार्गकेवि अपने आत्मा स्थापि। बहुरि तिसही• ध्याय । बहुरि ।। तिसहीकू चेति अनुभवगोचर करि । बहुरि तिस आत्माहीके विर्षे निरंतर विहार करि। अन्य. " 卐 द्रव्यनिविर्षे मति विहार करे। - टीका--आचार्य उपदेश करे हैं, जो हे भव्य ! तू अनादि संसारतें लगाय यह आत्मा .. " अपनी बुद्धि के दोषकरि परद्रव्यविथै रागद्वेषादिविर्षे नित्य ही निरंतर तिष्ठता संता प्रवतें है तौऊ ।
ताक अपनी बुद्धिहीके गुणकरि तिनि परद्रव्यनिविर्षे राग द्वेषते छुडाय अर दर्शनशानचारित्रविर्षे
निरंतर तिष्ठता अति निश्चल स्थापन करि तैसे ही समस्त अन्य चिंताका निरोध करि अत्यंत भएकाग्रचित्त होय दर्शनज्ञानचारित्रहीकू ध्याय ध्यान करि । तैसें ही समस्त कर्म अर कर्मका ॥ - फलरूप चेतनाका संन्यास करि, त्याग करि अर शुद्धज्ञानचेतनामय होयकरि, दर्शनज्ञानचारित्रहीकू चेति अनुभवन करि । तैसें ही द्रव्यके स्वभावके वशते क्षणक्षणप्रति उपजते उदय होते जे परिणाम, तिसपणाकरि तन्मयपरिणाम करि, दर्शनज्ञानचारित्रहीवि विहार करि । तैसें ही तू.
एकज्ञानरूपहीकू निश्चलरूप अवलंबन करता संता ज्ञेयरूपकरि ज्ञानके उपाधिपणाकरि सर्व तर+ फतें आय पडते जे सर्व ही परद्रव्य तिनिवि किंचिमात्र भी विहार मति करै।
भावार्थ-परमार्थरूप आत्माका परिणाम दर्शनशानचारित्र है। ते ही मोक्षमार्ग है । तिनिही... जविर्षे आत्माकू स्थापना । तिनिहीका ध्यान करना । तिनिका अनुभव करना। तिनिहीविर्षे प्रव. । तना । अन्य द्रव्यनिविर्षे नाही प्रवर्तना । यहु ही परमार्थकरि उपदेश है। केवल व्यवहारहीमें । मूढ न रहना । अब इस हो अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
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शार्दूलविक्रीडितछन्दः एका मोक्षपथो य एष नियतो हम्ज्ञप्तिवृष्यात्मकस्तष स्थितिमति यस्तमनिशं ध्यायेश्च तं चेतति । तस्मिन्नेव निरंतरं विहरति द्रव्यान्तराण्यस्पृशन् सोऽवश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विन्दति ॥४७॥
अर्थ----जो दर्शनशानचारित्रस्वरूप यह एक मोक्षका मार्ग है सो जो पुरुष तिस ही विर्षे स्थितीकू प्राप्त होय है तिष्ठे है, बहुरि जो तिसहीकू निरंतर ध्यावे है, बहुरि जो तिसहीकू चेते " 卐 है, अनुभवे है, बहुरि जो तिसहीविर्षे निरंतर विहार करे है प्रवर्ते है, कैसा भया संता ? अन्य ) .. द्रव्यनिकू नाहीं स्पर्शता संता, सो पुरुष थोरे ही कालमें अवश्य समयसार जो परमात्माका रूप 卐 जाका नित्य उदय रहै ऐसा अनुभवे है पावे है। .. भावार्थ-निश्चयमोक्षमार्ग के सेक्नेत थोरे ही कालमें मोक्षकी प्राप्ति होय यह नियम है। " आगे कहे हैं, जो द्रव्यलिंगहीकू मोक्षमार्ग मानि ताधि ममत्वभाव राखे हैं ते मोक्ष नाहीं पावे हैं। ताकी सूचनिकाका काव्य है।
शार्दूलविक्रीडित छन्दः ये त्वेनं परिहृत्य संवृत्तिपथप्रस्थापितेनात्मना लिङ्गै द्रव्यमये च हन्ति ममतां तच्चावबोधच्युताः।
नित्योद्योतमखण्डमेकमतुलालोक स्वभावप्रभागाम्भारं समयप सारममलं नाद्यापि पश्यन्ति ने ॥४८॥
अर्थ-जे पुरुष यह पूर्वोक्त परमार्थस्वरूप मोक्षमार्ग ताकू छोडिकरि अर व्यवहार मार्गविर्षे 5 - वलाया स्थाप्या जो अपना आत्मा ताहीकरि, द्रव्यमय जो यह बाझलिंग भेष ताविर्षे ममता करे ..
है; जाने है, कि यह हो हम मोक्ष प्राप्त करेगा; ते पुरुष तत्त्वके यथार्थ ज्ञानते रहित भये संते" मुनिपद लीया है तोऊ इस समयसारकू नाही अवलोकन करे हैं. नाहीं पावै हैं । कैसा है समय,
सार? नित्य है उदय जाका, कोई प्रतिपक्षी होय ताका उदयका विच्छेद न करि सके है । बहुरि 卐 कैसा है ? अखंड है, जामें अन्य ज्ञेय आदिके निमित्ततें खंड नाहीं होय है । बहुरि कैसा है ?' .. एक है, पर्यायनिकरि अनेक अवस्था होय है, तोऊ एकरूपपणाकू नाहीं छोडे है। बहुरि कैसा
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है ! अतुल कहिये जाके बराबरी अन्य नाहीं ऐसा है आलोक कहिये प्रकाश जाका, सूर्यादिकका मय , प्रकाशकी ज्ञानप्रकाशकं उपमा नाही लागे। बहुरि अपने स्वभावको जो प्रथा ताका प्राग्भार
है, जाका भार अन्य सहारी शकै नाहीं । बहुरि अमल है, रागादिक विकारमलकरि रहित है। "ऐसा परमात्माका स्वरूपकू द्रव्यलिंगी नाहीं पावे है। अब इस अर्थकी गाथा कहे हैं । गाथा
पाखंडियलिंगेसु व गिहलिंगेसु व बहुप्पयारेसु । । कुव्वंति जे मत्ति तेहिं ण णादं समयसारं ॥१०५॥
पाखंडिलिंगेषु वा गृहिलिंगेषु वा बहुप्रकारेषु ।
कुर्व ति ये ममतां तैर्न शातः समयसारः ॥१०५॥ ___आत्मख्यातिः-ये खलु श्रमणोऽहं श्रमणोपासकोऽहमिति द्रव्यलिंगममकारेण मिथ्या कारं कुर्वति तेज्नादिरु
हव्यवहारविमूहाः प्रोदविकं निश्चयमनारदाः परमार्थसत्यं भगवंतं समयसारं न पश्यति ।। ___अर्थ-जे पुरुष पाखंडिलिंगनिविर्षे अथवा गृहस्थलिंगनिविर्षे बहुत प्रकार हैं, तिनिविर्षे ममता करे हैं, जो हमारे यह ही मोक्षके देनहारे हैं, तिनि पुरुषनि समयसारकू जान्या नाही।। _____टीका--जे पुरुष निश्चयकरि ऐसे माने हैं, जो मैं श्रमण हौं, मुनि हौं अथवा श्रमणका 5 उपासक हौं, सेक्क हौं, श्रावक हौं, ऐसे द्रव्यलिंगवि ममकारकरि मिथ्या अहंकार करे हैं, ते ..
अनादिका प्रसिद्ध चल्या आया जो व्यवहार ताविर्षे मूढ मोही भये संते प्रौढ़ कहिये बड़ा है । - भेदज्ञान जामें ऐसा निश्चयनयकू नाही प्राप्त भये संते परमार्थकरि सत्यार्थ जो भगवान् ज्ञान- -
रूप समयसार ताहि नाहीं देखे हैं नाही पावे हैं। के भावार्थ-जे अनादिकालका परद्रव्यके संयोगते भया जो व्यवहार ताही विषे मूह मोहीम ___ हैं, ते ऐसे जाने हैं, जो यह बाह्य महावतादिरूप भेष है सो ही हमकू मोक्ष प्राप्त करेगा । अर 卐 भेदज्ञानका जातें जानना होय ऐसा निश्चयनयकू नाही जाने हैं । तिनिके सत्यार्थ परमात्मस्प卐
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शुद्धज्ञानमय समयसारको प्राप्ति नहीं होय है। अब इस हो अर्थके
वियोगिनीछन्दः
व्यवहारविमृष्टयः परमार्थ कलयन्ति नो जनाः । तुषबोधविमुग्धबुद्धयः कलयन्तीह तुषं न तंडुलम् ||४६ ॥
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अर्थ -- जे जन व्यवहारहोविषै विमूढ मोही है बुद्धि जिनिकी ऐसे हैं ते परमार्थकूं नाही' जाने हैं। जैसें लोकविर्षे जे तुसहीके ज्ञानविषै विमुग्धबुद्धि जन हैं ते तुसही तंदुल जाने हैं। अर तंदुलकं तंदुल नाहीं जाने हैं। 卐
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भावार्थ -- जे परमार्थ आत्माका स्वरूप नाहीं जाने हैं अर व्यवहारहीत्रिवें मूढ होय रहे हैं: शरीरादि परद्रव्यही आत्मा जाने हैं ते परमार्थ आत्माकूं नाहीं जाने हैं। जैसें तुष तेंडुलका भेद तौ जाने नाही' अर परालकं कुठे तिनिकै तंडुलकी प्राप्ति नाहीं । तुस तंडुलका भेदज्ञान 15 भये संते तंडुल पावे | आगे इस ही अर्थ दृढ करनेकू कहे हैं ।
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रूपकाव्य कहे हैं।
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स्वागत। छन्दः
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फ द्रव्यलिङ्गमम फारमीलितैर्ह स्वते समयसार एव न । द्रव्यलिङ्गमिह यत्किलान्यतो ज्ञानमंक्रमिदमंत्र हि स्वतः ||५० ||
अर्थ - द्रव्यलिंगके ममकारकरि भोलित हैं मो ही आंधे हैं तिनिकरि समयसार है सो फ्र देखिये ही नाहीं है । जातैं इस लोकविषै द्रव्यलिंग हैं सो तो अन्य द्रव्यतें होय है । अर यह ज्ञान है सो आप आत्मद्रव्यते ही होय है । 卐
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भावार्थ--- जे द्रव्यलिंगकूं ही आपा माने हैं ते आंधे हैं । तिनिकूं आपा पर सूझ्या नाहीं । आगे कहे हैं जो व्यवहारनय तो मुनि भावकके भेदकरि लिंग दोय प्रकार हैं, तिनि दोऊकूं मोक्षमार्ग न कहे है अर निश्चयनय काहू हो लिंगकूं मोक्षमार्ग न कहे है । गाथा
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ववहारिओ पुण णओ दोण्णिवि लिंगाणि भणदि मोक्खरहे । णिच्छयणओ दु णिच्छदि मोक्खपहे सव्वलिंगाणि ॥ १०६ ॥
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व्यावहारिकः पुनर्नयो द्वे अपि लिंगे भणति मोक्षपथे।
निश्चयनयस्तु नेच्छति मोक्षपथे सर्वलिंगानि ॥१०६।। आत्मख्याति:-यः खलु श्रमणश्रमणोपासकभेदेन द्विविधं द्रव्यलिंगं भवति मोक्षमार्ग इति प्ररूपणप्रकारः स मा केवलं व्यवहार एव न परमार्थस्तस्य स्वयमसुद्धद्रव्यानुभवनात्मकत्वे सति परमार्थत्वाभावात् । यदेव श्रमणश्रमणोपासक-म 1- विकल्पानतिक्रांतं दृशिममित्तिमा गुरझानमेवल पैक मिति निम्नुपसंचेतनं परमार्थः, तस्यैव स्वयं शुद्धद्रव्यानुभवा. आत्मकत्वे सनि परमार्थकत्वात् ततो ये व्यवहारमंत्र परमार्थबुद्धया चेतयंते ते समयलारमेव न संचंतयते । य एव परमार्थ-卐 5 बुद्धया चेतयंते ते एष समयसारं चतयंते ।।
___ अर्थ-व्यवहारनय है सो तौ मुनि श्रावकके भेदकरि दोय प्रकार लिंग हैं तिल दोऊहीक ' मोक्षमार्ग कहे है । बहुरि निश्चयनय है सो सर्व ही लिंगकू मोक्षमार्गविर्षे नाही इष्ट करे है। .
टीका--निश्चयकरि श्रमण कहिये मुनि अर श्रमणके उपासक कहिये श्रावक ऐसे दोय भेदकरि लिंग दोय प्रकार हैं। सो दोऊ ही लिंग मोक्षमार्ग है, ऐसा प्ररूपणका प्रकार है, सो 卐 केवल व्यवहार ही है। परामर्थ नाहीं है । जाते इस व्यवहारनयके स्वयं अशुदव्यका अनुभवस्वरूपपणा होते सतै परमार्थपणाका अभाव है। बहुरि जो श्रमण अर श्रमगका उपासकके भेदतें दूरिवर्ती दर्शनज्ञानचारित्रकी प्रवृत्तिमात्र निर्मलज्ञान ही एक है, ऐसा निर्मल अनुभवन
सो परमार्थ है, सोही मोक्षमार्ग है । जाते ऐसें ज्ञानहीके स्वयं शुद्रवरूप होनेका स्वरूपपणा 卐 होते संत परमार्थपणा है। तातै जे पुरुष केवल व्यवहारहीकू परमार्थबुद्धिकरि अनुभवे हैं तेज .. समयसारकू नाहीं चेते हैं, नाही अनुभवे हैं । बहुरि जे परमार्थहोकू परमार्थको बुद्धि करि अनुप्रभवे हैं, ते ही तिस सययसारकू अनुभवे हैं। ज भावार्थ-व्यवहारनयका तो विषय भेदरूप है । सो अशुद्ध द्रव्य है । सो परमार्थ नाही। " अर निश्चयनयका विषय अभेदरूप शुद्धद्रव्य है सो परमार्थ है । सो जे व्यवहारहीकू निश्चय
मानि प्रवर्ते हैं तिनिकै समयसारकी प्राप्ति नाहीं है। अर जे परमार्थ परमार्थ जाने हैं।
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- तिनिके समयसारकी प्राप्ति होय है । ते ही मोक्षकू पावे हैं। आगे कहे हैं, जो बहुत कहनेकरि .. "पूरि पडौ, एक परमार्थहीका चिंतवन करना।
मालिनीछन्दः अलमलमतिजस्पैर्विकल्पैरनपैरयमिह परमार्थचिंत्यतां नित्यमकः ।
स्वरसविमरपूर्णज्ञानविस्फूर्तिमात्राम खलु समयसारादादुत्तरं किश्चिदस्ति ॥५१॥ .. अर्थ-आचार्य कहे हैं, जो अति वहत कहनेकरि अर बहत दुर्विकल्पनिकरि तौ पूरि पडो।" के इस अध्यात्मग्रन्थविर्षे यह परमार्थ है, सो हो एक निरंतर अनुभवन करना । जातें निश्चयकार - अपने रसका फैलावकरि पू जो ज्ञान ताका स्फुरायमान होनेमात्र जो समपसार परमात्मा " तिसशिवाय अन्य किछु भो सार नाहीं है। 卐 भावार्थ-पूर्णज्ञानस्वरूप आत्माका अनुमान करना। निश्चरकरि इस उपरांति किछू भी .. सार नाही है। आगे इस समयसार ग्रंथ पूर्ण को है । ताको सूचनिकाका श्लोक है।
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इदमकं जगचक्षुरक्षयं याति पूर्णताम् । विज्ञानयनमानन्दमयमध्यक्षतां नया ॥२॥ " अर्थ--इदं कहिये यह समयप्राभूत है सो पूर्णताकू प्राप्त होय है । केला है ! अक्षय कहिये 5 मजाका विनाश न होय ऐसा जगतके अद्वितीय नेत्रसमान है। जाते कहा करता है ? विज्ञानयन जो शुद्ध परमात्मा समयसार आनंदमय ताकू प्रत्यक्ष प्राप्त करता संता है।
भावार्थ--यह समयप्रामृत ग्रंथ है सो ववनरूय तया ज्ञानरूप दोऊ ही प्रकार करि नेत्र-5 के समान है । जातें जैसे नेत्र घटपटादिक प्रत्यक्ष दिखावे है तैसें यह शुद्ध आत्माका स्वरूपकू । .._प्रत्यक्ष अनुभवगोचर दिखाये है । अब याकू आचार्य पूर्ण करे हैं, सो याका महिमारूप पडनेका प्रफलकी गाथा कहे हैं।
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कम + +
प्राभूत
जो समयपाहुडमिणं पठिणय अच्छतच्चदो णाएं। अच्छे ठाहिदि चेदा सो पावदि उत्तमं सुक्खं ॥१०७॥
यः समयसारप्राभृतमिदं पठित्वाऽर्थतत्वतो ज्ञात्वा ।
अर्थे स्थास्यति चेतयिता स प्राप्नोत्युत्तमं सीख्यम् ॥१७॥ पर आत्मख्यातिः–यः खलु समयसारभूतस्य भवतः परमात्मनोऽस्य विश्वप्रकाशकत्वेन विश्वसमयस्य प्रतिपादनात "स्वयं शब्दब्रह्मायमाणं शास्त्रमिदमधीत्य विश्वप्रकाशनसमर्थपरमार्थभृतचित्प्रकाशरूपपरमात्मानं निश्चियन् अर्थतम्तव- ॥
तश्च परिच्छिद्य अस्यैवार्थभूतं भगवति एकस्मिन् पूर्णविज्ञानधने परमब्रह्मणि सारं भेण स्थास्यति चयिता, स नाक्षा"सत्क्षणविजभमाणचिदेकरसनिर्भवस्वभावसुस्थितनिराकुसात्मरूयतया परमानंदशब्दवाच्यमुत्तममनाकुरवलक्षणं सौख्यं ॥ जस्वयमय भविष्यतीति । . अर्थ—जो चेतयिता पुरुष भव्यजीव इस समयप्राभूतङ पढिकरि अर अर्थते अर तत्त्वतें
जानिकार अर याका अर्थविर्षे तिष्ठेगा सो उत्तमसोख्वस्वरुप होयगा। - टीका-जो चेतयिता भव्यपुरुष आत्मा निश्चयकरि इस शास्त्रकू पढिकरि अर समस्तपदार्थ"निका प्रकाशनेविचे समर्थ ऐसा परमार्थ सूत चैतन्यप्रकाशरूप आत्माकू निश्चय करता संता के अर्थतें अर यथार्थ तत्वते जाणि, अर याहीका अर्थभूत जो भगवान् एक पूर्णविज्ञानधनस्वरूप
परब्रह्म ताविर्षे सर्वप्रकार उद्यम आरंभ करिकै र तिष्ठेगा सो पुरुष, उत्तम अनाकुलता है की जलक्षण जाका ऐसे सुखरूप खयमेव आप ही होपगा। कैसा है यह शास्त्र समयसारभूत भगवान् ।
परमात्मा ? समस्तका प्रकाशनेवालापणाकरि जाकू विश्वसमय कहिये, ताक प्रकाशनेते आप
स्यं शब्दब्रह्मसारिखा है। बहुरि जित सुख प्राप्त झोयगा सो सुख कैसा है ? तत्काल उदय- -रूप प्रगट होता एक चैतन्यरसकरि भरथा अपने स्वभावविर्षे भलै प्रकार तिष्ठया निराकुल "आत्मस्वरूपपणाकरि परमानंद शब्दकरि कहने योग्य है।
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5 भावार्ग-इस शास्त्रका नाम समयप्रामृत है । सो समय नाम पदार्थका हे ताका कहनेकाला ॥
है। तथा समय नाम आत्मा है ताका कहनेवाला है। सो आत्मा समस्त पदार्थनिका प्रकाशने- ... प्रास वाला है। ताकं यह कहे है । सो समस्तपदार्थनिका कहनेवाला होय ताक शब्दब्रह्म कहिये। ॐ सो ऐसे आत्माकू कहने” इस शास्त्रकू शब्दब्रह्मसारिखा कहिये । शब्दब्रह्म तौ द्वादशांगशास्त्र -
"है, ताकी उपमा याकू भी है सो यह शब्दब्रह्म परब्रह्म जो शृद्धपरमात्मा ताकू साक्षात् दिखावे " 卐है। जो इस शास्त्रकू पढिकरि याके यथार्थ अर्थविर्षे ठहरेगा सो परब्रह्मकुंपावेगा । याही उत्तम. 1- सौख्य जाकू परमानंद कहिये ऐसा स्वाभिक स्वाधीन जामें बाधा नाहीं विच्छेद नाहीं अकि.
नाशी ऐसा सुख पावेगा याहीत भव्यजीव अपना कल्याणके अर्थी या पढो, सुण, निरंतर पायाहीका स्मरण ध्यान राखो ज्यौं अविनाशीमुखकी प्राप्ति होय । यह श्रीगुरुनिका उपदेश है। "अब इस सर्वविशुद्धज्ञानका अधिकारको पूर्णताका कलशरूप श्लोक कहे हैं।
अनुष्टुप छन्दः इतीदमात्मनस्तस्यं ज्ञानमात्रमवस्थितम् । अखण्डमकमचलं स्वसंवेद्यमबाधितम् ॥५३|| 卐 अर्थ-इति कहिये याप्रकार आत्माका तत्व कहिये परमार्थभूत स्वरूप ज्ञानमात्र अवस्थित ॥ ...भया निश्चित ठहरया। कैसा है ज्ञानमात्रतय ? अखंड है अनेक ज्ञयाकारकरि तथा प्रतिपक्षि भकर्मकरि खंड खंड दीखे है, तौऊ ज्ञानमात्रवि खंड नाहीं है। बहरि याहीते एकरूप है । बहुरि -अचल है ज्ञानरूपतें चल न होय अर ज्ञ यरूप नाहीं है। बहुरि स्वसंवेद्य है आपहीकरि आप ।।
जाननेयोग्य है । बहुरि अबाधित है काहू खोटी युक्तिकरि वाच्या नाहीं जाय है। 4. भावार्थ-इहां आत्माका निजस्वरूप ज्ञान ही कहा है। जातें आत्मामें अनंत धर्म हैं, तिनिमें 4 "केई तौ साधारण हैं, ते तो अतिव्याप्तिरूप हैं। तिनि आत्मा पिछाण्या जाय नाहीं । बहुरि केई" अपर्यायाधित हैं, कोई अवस्थामैं है कोईमैं नाहीं है, ते अव्याप्तिरूप हैं। तिनितें भी आत्मा
पिछाण्या जाय नाहीं । बहुरि चेतनता है सो यद्यपि लक्षण है तथापि शक्तिमात्र है, सो अदृष्ट
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है। तातें ताकी व्यक्ति दर्शन ज्ञान हैं । तिनिमें ज्ञान साकार है, प्रकट अनुभवगोचर है । तातें "याहीके द्वारे आस्मा पहिचान्या जाय है । तातें या ज्ञानही प्रधानकरि आत्मतत्त्व कहा है।
ऐसा मति जानू', जो आत्माकू ज्ञानमात्र तत्त्व कहा है । सो एता ही परमार्थ है अन्य धर्म झूटेप
हैं आत्मामैं नाहीं हैं ऐसा सर्वथा एकांत किये मिथ्याष्टि होय है। विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धका मत फआवे है। तथा वेदांतका मत आवे है । सो ऐसा एकांत बाधासहित है । ऐसा एकांत अभिप्राय- 4 1- करि मुनिव्रत भी पाले, अर आत्माका ज्ञानमात्रका ध्यान भी करे तो मिथ्याल कटे नाहों।
मन्दकषायनिके वशते स्वर्ग पावे तो पात्रो, मोक्षका साधन तो होय नाहीं। तातें स्थाबादकर
यथार्थ समजना । ऐसें इहां तांई गाथाका व्याख्यान अर तिस व्याख्यानके कलशरूप तथा सूच"निकारूप काव्य टीकाकारने किये । अब इहां टीकाकार विचार हैं--जो इस प्रथमैं ज्ञानकू । जप्रधानकरि ज्ञानमात्र आत्मा कहते आये। तहां कोई ऐसा तर्क करै, जो जैनमत तो स्याद्वाद है, . .. ज्ञानमात्र कहने में एकांत आया, स्याद्वादतें विरोध आया। तथा एक ही ज्ञानमै उपायतत्त्व अर 9 उपेयतत्त्व ए दोय कैसे बणे ? ऐसे तर्क के निराकरणके अर्थि किछू कहिये हैं। ताका श्लोक है। 卐 अत्र स्याद्वादशुद्धथं वस्तुतश्वव्यवस्थितिः । उपायोपेयभावश्च मनाम्भूयोऽपि चिन्त्यते ॥५४॥ ' HF अर्थ इहां इस अधिकारविर्षे स्यावादके शुद्धताके अर्थि वस्तुतत्त्वकी व्यवस्था है सो विचा-- "रिये है तथा एक ही ज्ञानमें उपायभाव अर उपेयभाव किछु एक फेरि भी विचारिये है। 9 भावार्थ-यद्यपि इहां ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व कहा है तथापि वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेषात्मक ____ अनेक धर्मस्वरूप है, सो स्थाद्वादते सधे है । सो ज्ञानमात्र आत्मा भी वस्तु है, ताकी व्यवस्था " 'स्याद्वादकरि साधिये है। अर इस ज्ञानही मैं उपायभाव अर उपेयभाव कहिये साध्यसाधकभाव 卐. ..विचारिये है। अब याकी व्यवस्था कहे हैं। स्याद्वाद है सो समस्तवस्तूका साधनेवाला एक
निर्वाध अर्हत्सर्वज्ञका शासन है मत है। सो स्याद्वाद सर्ववस्तु अनेकांतात्मक हैं ऐसे कहे है।
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卐 जाते सर्व ही वस्तूका अनेकांतात्मक कहिये अनेकधर्मरूप स्वभाव है। असत्यार्थ कल्पनाकरि
नाहीं कहे है। जैसा वस्तूका स्वभाव है तैसा ही कहे है। सो इहां आत्मा नामा वस्तूकू ज्ञान"मात्रपणाकरि कहते संते स्याद्वादका परिकोप नाहीं है । ज्ञानमात्र आत्मवस्तूकै भी स्वयमेव अनेप्रकांतात्मकपणा है। सो कैसा है सो ही कहे हैं । तहां अनेकांतका ऐसा स्वरूप है, जो जोही
वस्तु तत्स्वरूप है, सो ही वस्तु अतत्स्वरूप है । बहुरि जो ही वस्तु एकस्वरूप है सो ही वस्तु । 5 अनेकस्वरूप है। 1. बहुरि जो ही वस्तु सत्स्वरूप है सो ही वस्तु अतत्स्वरूप है। बहुरि जो ही वस्तु नित्यस्वरूप "है सो ही वस्तु अनित्य स्वरूप है ! ये एकतस्तुशिश नातुपणाकी निपजावनहारी परस्परविरुद्ध 卐
दोय, शक्तिका प्रकाशना सो अनेकांत है । सो ऐसी विरुद्ध दोय शक्ति अपना आत्मवस्तूकै ज्ञान"मात्रपणा होते भी पाइए है सोही कहिये है। आत्माकै ज्ञानमात्रपणा होते भी अंतरंगविर्षे ।
चिमकता प्रकाशमान जो ज्ञानस्वरूप ताकरि तो तत्स्वरूपपणा है । बहुरि बाह्य उघडते अनंत . ज्ञेयभावकू प्राप्त अर ज्ञानस्वरूपते भिन्न जे परद्रव्यनिके रूप, तिनिकार अतत्स्वरूपपणा है। तिनि + स्वरूपज्ञान नाहीं है । बहुरि सहभूत प्रवर्तते अर क्रमरूप प्रवर्तते जे अनंत चैतन्यके अंश तिनिका के 1- समुदायरूप अविभागरूप जो द्रव्यपणा ताकरि तो एकपणा है। वहरि अविभाग एकद्रव्यविर्षे
व्याप्त जे सहभूत प्रवर्तते अर क्रमरूप प्रवर्तते चैतन्यके अनंत अंश, तिनिरूप पर्याय, तिनिकरि 15 अनेकपणा है। बहुरि अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावरूप होनेको शक्तीका स्वभावपणाकरि सत्वरुप ..
"है। बहुरि परके द्रव्य क्षेत्र काल भावकी होनेकी शक्तीका स्वभावपणाके अभावकार असत्त्व+ स्वरूप है। बहुरि अनादिनिधन अविभाग एकवृत्तिरूप जो परिणमन तिसपणाकरि नित्यपणा
स्वरूप है। बहुरि क्रमकरि प्रवर्तते जे एकसमयपरिमाण अनेकवृत्तीके अंश तिनिकरि परिणामने 卐पणाकरि अनित्यपणा स्वरूप है । ऐसें तत्पणा, अतत्पणा, एकपणा अनेकपणा, सत्पणा, असत्..पणा, नित्यपणा अनित्यपणा प्रकट प्रकाशे ही है । इहां तर्क, जो आत्मवस्तूक ज्ञानमात्रपणा होते
5 55 5 5 5 5!
55 55 5
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. ऊ अझ प्र
.. भी खमेव अनेकांत प्रकाशे है, तो अर्हत भगवान तिसके साधनपणाकरि अनेकांतक कौन अर्थी "
अनुशासन करे हैं--उपदेशरूप करे हैं ? ताका समाधान-जो अज्ञानी जन हैं तिनिके ज्ञानमात्र ॥ आत्मवस्तूका प्रसिद्ध करनेके अर्थी कहे हैं । निश्चयकरि अनेकांतविना ज्ञानमात्र आत्मवस्तु ही
प्रसिद्ध नाहीं होय है। सो ही कहिये है। स्वभाव ही थकी बहुत भावनिकरि भरथा जो यह है 卐 लोक ताविपें सर्वभावनिकै अपने अपने स्वभावकरि अद्वैतपणा है। तोऊ द्वैतपणाका निपेध कर।
नेका असमर्थपणा है । तातें समस्त ही वस्तु है सो स्वरूपविर्षे प्रवृत्ति अर पररूपते व्यावृत्ति इनि । 5 दोऊ रीतिकरि दोऊ भावनिकरि आश्रित है, युक्त है, यह नियम है। सो ही ज्ञानमात्र भाव वियें लगावना । तहां ज्ञानभाव हे सो अन्य बाकीके शेयभावनिकरि सहित अपना निजज्ञानरसका भरकरि प्रवर्त्या जो ज्ञाताज्ञेयका संबंध तिसपणाकरि अनादिहीत ज्ञेयाकार परिणमता ही दीखे ॥ है। तातें जो अज्ञानी जन है सो ज्ञान तत्वकू क्षेचरूप अंगीकार करि अज्ञानी होयकार अर आप
नाशप्राप्त होय है । तिस काल यह अनेकांत है, सो अपना ज्ञानस्वरूपकरि ज्ञेयतें भिन्न ज्ञानॐ तत्त्वकू प्रकट करि अर इस आत्माकू ज्ञातापणाकरि परिणमनतें ज्ञानी करता संता तिस आत्माकू
उदयरूप करे है। नाश न होने दे है ॥२॥ + बहुरि अज्ञानी जन जिस काल ऐसें माने हैं, जो यह सर्व जगत है सो निश्चयकरि एक ... आत्मा है। ऐसे अज्ञानतत्वकू अपना ज्ञानस्वरूपकरि अंगीकार करि अर समस्त जगतकू आपा .. +मानि ग्रहण करि, अपना भिन्न आत्माका नाश करे है। तिस काल परभावस्वरूपकरि अतत् .. कहिये सर्व जगत् एक हो आत्मा नाहीं है, ऐसे भिन्न आत्मस्वरूपपणा प्रकट करि अर यहअनेकांत ।
है सो समस्त जगत्ते भिन्न ज्ञानकू दिखावता संता आत्माका नाश नाहीं करने दे है। २। + बहुरि जिस काल अनेक ज्ञेयनिके आकारनिकरि खंड खंड रूप किया जो एक ज्ञानका ॥ "आकार ताकू देखि एकांतवादी ज्ञानतत्व नाशकू प्राप्त करे है। तिस काल यह अनेकांत है लो । 卐ज्ञानतत्त्वके द्रव्यकरि एकपणाकू प्रकट करता संता ताकू जीवावे है। नाश नाहीं होने देवे है १३॥
历历 步历 步历 历
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卐
卐
बहुरि जिस काल एकांती ज्ञानका एक आकारका ग्रहण करनेके अर्थि अनेक ज्ञेयनिके आकार ज्ञान
प्रभ
हैं, तिनका लाग करि अर ज्ञानस्वरूप आत्माका नाश करे है। लिस काल 5 यह अनेकांत है सो ज्ञानके पर्यायनिकरि अनेकपणाकूं प्रकट करता संता आत्माका नाश नाहीं करने है
फफफफफफफफफफफफफ
बहुरि जिस काल एकांती है सो ज्ञायमान ज्ञानमें आवते जे परद्रव्य तिनिके परिणमनातें 卐
ज्ञाताद्रव्यकू' परद्रव्यपणाकरि अंगीकार करि आत्माका नाश करे है । तिस काल अपना स्वद्रव्य
卐
करि आमाका सकूं प्रकट करता संता अनेकांत है सो ही तिस आत्माकू जोवा है नाश नाहीं होने दे है || 卐
बहुरि जिस काल एकांती है, सो सर्वद्रव्य है ते मैही हों ऐसें परद्रव्यनिकं ज्ञाताद्रव्यकरि 5
5 अंगीकार करि आत्माका नाश करे है, तिस काल परद्रव्यरूप आत्मा नाहीं है, ऐसें परद्रव्यकरि आत्माका असकूं प्रकट करता संता अनेकांत ही नाश करने नाहीं दे है ॥६॥
卐
बहुरि परक्षेत्रत्रि प्राप्त जे ज्ञेय पदार्थ तिनिके आकार तिनिसारिखा परिणमनेर्ते परक्षेत्र- 5
etair ज्ञान सद्रूप अंगीकार करि एकांती नाशकुं प्राप्त करे है, तिस काल अपना क्षेत्रकरि 卐 अस्तित्व प्रकट करता संता अनेकांत ही जीवाये है, नाश नाहीं होने दे है |७|
卐
बहुरि अपने क्षेत्र होने के अर्थि परक्षेत्रविषै प्राप्त ज्ञेय तिनिका आकार ज्ञानका होना
ताका त्यागकर ज्ञानक्रं ज्ञेयाकाररहित तुच्छ करता संता एकांती आत्माका नाश करे हैं तिल
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4 काल अनेकांत है सो ज्ञानकै अपना क्षेत्रविषे परक्षेत्र विषै प्राप्त जे ज्ञेय तिनिके आकाररूप परिण
卐
मनेका स्वभावपणा है, ऐसें परक्षेत्रकरि नास्तिपणाकूं प्रगट करता संता नाश करने न दे है ||
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बहुरि जिस काल पूर्वे आलंबे थे ज्ञेय पदार्थ तिनका विनाशका कालविवें ज्ञानका असस्त्रकं ६० अंगीकार अज्ञानका
करि एकांती ज्ञानकूं नाशकूं प्राप्त करे है, तिस काल अपना ज्ञानहीका कालकरि सत्त्वकूं प्रगट करता संता अनेकांत ही ज्ञानकूं जीवावे है, नाश न होने दे है । ६ ॥
...
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बहुरि जिस काल अर्थका आलंबनका कालहीविष ज्ञानका सत्तक ग्रहणकरि एकांती आत्मा-" 卐 का नाश करे है तिस काल परके कालकरि असत्त्वकू प्रकट करता संता अनेकांत ही नाश ॥ 1- होने न दे है।१०। ___ बहुरि जिस काल ज्ञायमान जानने में आवता जो परभाव ताके परिणमनके आकार दिखता;
जो ज्ञायकभाव ताकू परभावकरि ग्रहणकरि अर ज्ञानभावकू एकांती नाशकू प्राप्त करे है, ..
तिस काल स्वभावकरि ज्ञानका सत्वकू प्रकट करता संता अनेकांत ही ज्ञानकू जीवावे है नाश 卐 न होने दे है।।
बहरि जिस काल एकांती है सो ऐसा मनावे है 'जो सर्व भाव है ते मैं हौं ऐसें परभावक ज्ञायकपणाकरि अंगीकार करि अर आत्माका नाश करे है, तिस काल परभावनिकरि ज्ञानर का असत्वकू प्रकट करता संता अनेकांत है सो ही आत्माका नाश न होने दे है ।१२।
बहुरि जिस काल अनित्य जे ज्ञानके विशेष तिनिकरि खंडित भया जो नित्यज्ञानसामान्य,म र सो नाशकू प्राप्त होय है ऐसा एकांत स्था, तिस काल ज्ञानका सामान्यरूपकरि नित्यपणाकू " प्रकट करता संता अनेकांत है सो ही नाश करने न दे है ।१३। । 卐 बहुरि जिस काल नित्य जो ज्ञानसामान्य ताका ग्रहण करनेके अर्थि अनित्य जे ज्ञानके __ विशेष तिनिका त्यागकरि एकांत है सो आत्मा नोशा प्राप्त करे है, तिस काल ज्ञानके विशेष-" प्र रूपकरि अनित्यपणाकू प्रकट करता संता अनेकांत है सो ही तित आत्माकू जोवावे है, नाश' - होने न दे है ।१४॥ - ऐसे चौदह भंगनिकरि ज्ञानमात्र आत्माकू एकांतकरि तौ आत्माका अभाव होना अर 1+ अनेकांतकरि आत्माका ठहरना दिखाया। तहां तत् अतत्, अर एक अनेक, नित्य अनित्य, ऐसैं “तो छह भंग भये । अर सत्त्व असत्त्वके द्रव्य क्षेत्र काल भावकरि आठ भंग किये, ऐसे चौदह 9 भंग जानने अब इनिके कलशरूप १४ काव्य हैं, सो कहिये हैं।
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शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः
बाह्यार्थः परिपीतमुज्झितनिजप्रव्यक्तिरिक्तभवत् विश्रान्तं पररूप एवं परितो ज्ञानं पशोः सीदति । यत्तचदिह स्वरूप इति स्वाद्रादिनस्तत्पुनद् सेन्ममनस्वभाव नरतः पूर्ण समुन्मज्जति ||२||
अर्थ - पशु कहिये अज्ञानी तिर्यंचसमान सर्वथा एकांती, ताका ज्ञान है सो बाह्य ज्ञेय पार्थनिरस्तपणे पीया गया ऐसा होता संता छोडि जो अपनी व्यक्ति सिनिकरि रीता समस्तपणेकर पररूपही के विषै विश्रांत भया रहि गया । अपना रूप किछू भी न रह्या, सोना भया । वहरि स्याहादीका ज्ञान है सो जो अपने स्वरूप जो है सो स्वरूप ही है 5 ज्ञानस्वरूप ही है, ऐसें तत्स्वरूप भया inr अतिशयकार प्रकट भया जो ज्ञान
स्वभाव ताके भरते संपूर्ण उदयरूप प्रकट होष है ।
समूहरूप
தி தி த மிககழிக்பிகமிகக
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भावार्थ- कोई सर्वथा एकांती तो ज्ञान सेवाकारमात्र ही माने है। ना तो ज्ञान ज्ञेय पीय गये आप कलू न रह्या । वहरि स्यादी ज्ञान अपने
परि ज्ञान ही है, ज्ञेयाकार भया तौऊ arrant नाहीं छोड़े है, ऐसे माने हैं। ता तत्स्वरूप ज्ञान प्रकट प्रकाशमान है । पुनःशार्दूलविक्रीडि
फ्र
विश्वं ज्ञानमिति प्रत सभूतो विश्वमयः पशुः पशुत्रि स्वच्छन्दमाचेष्टते । यतत्पररूपतो न तदिति स्याद्वाददर्शी पुनर्विवाद भिन्नमविश्वविश्वघटितं तस्य स्वच्छं स्वशेन ॥३॥ अर्थ - पशु, कहिये अज्ञानी सर्वथा एकांतवादी है सो समस्त ज्ञेयपदार्थ है सो ज्ञानमय है, ऐसें विचारि करि, अर सकल जगतकूं निजतत्त्वकी आशाकरि देखि आप समस्त वस्तुमयी होय । अर तिर्यचकी ज्यौं स्वच्छंद पेष्टा करे है । बहरि स्याद्वादका देखनेवाला है सो तिस ज्ञानका निज स्वरूप ऐसा देखे है, जो अपने ज्ञानस्वरूप तत्स्वरूप है। सो पर जे ज्ञेयस्वरूप तिनितें तत्स्वरूप
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है । ऐसें समस्त वस्तुतें भिन्न अर समस्तज्ञ यवस्तुनिकरि घडया तौऊ समस्त ज्ञेयस्वरूप फ्र
नाहीं, ज्ञेयाकाररूप भया तौऊ न्यारा ऐसा ज्ञानका स्वरूप अनुभव है ।
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खण्ड खण्ड बिगडी है शक्ति जाकी ऐसा भया संता समस्तपर्णेकरि तूटता खण्ड खण्ड होता आप नाश प्राप्त होय है । बहुरि अनेकांतका जाननेवाला है सो सदा उदयरूप जो ज्ञानका एक5 द्रव्यपणा तिसकरि ज्ञयनिके आकार होनेतें भया जो सर्वथा भेदका भ्रम ताहि दूरि करता संता निर्वाध अनुभवन स्वरूप ज्ञानकूं एक देखे हैं ।
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अर्थ - पशु कहिये अज्ञानी सर्वथा एकांतवादी है सो ज्ञानका स्वभाव बाह्य ज्ञेयपदार्थका ग्रहण
रूप है are भरतें समस्त अनेक उदय भये प्रकट ज्ञानमें आये जे ज्ञयनिके आकार तिनिकरि फ
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शार्दूलविक्रीडित छन्दः
बाह्यार्थग्रहणस्वभावभरतो विष्वग्विचित्रोल्लसज्ञेयाकारविशीर्णशक्तिरभितस्त्र, ट्यन्पशुर्नश्यति । एकद्रव्यतया सदाऽप्युदितया भेदभ्रमं ध्वंसयन्नेकं ज्ञानमबाधितानुभवनं पश्यत्यनेकान्तवित् ||४||
Te
फ्र
5.
भावार्थ- जो वस्तु अपना स्वरूप तत्स्वरूप है सो ही वस्तु परका स्वरूप अतत्स्वरूप है फ्र ऐसें स्याद्वादी देखे है । सो ज्ञान अपना स्वरूपतें तत्स्वरूप है । तैसें ही पर ज्ञेयनिका आकाररूप भया है तोऊ तिनितें भिन्न है । तातें असत्स्वरूप है। अर एकांतवादी समस्तवस्तुरूप ज्ञानकूं मानि आपा तिनि ज्ञेयमयी मानि अज्ञानी होय पशुकी ज्यों स्वच्छंद प्रवर्तें है । ऐसा 5 स्वरूपका भंग है । पुनः
फ्र
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5 फफफफफफफफफफ
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भावार्थ - ज्ञान है सो ज्ञयनिके आकार परिणमनेतें अनेक दीखे है । ताकूं सर्वथा एकांतवादी 5 अनेक खण्डखण्डरूप देखता संता ज्ञानमय जो आया ताका नाश करे है । अर स्वाद्वादी ज्ञानकुं
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ज्ञेयाकार भया है तौऊ सदा उदयरूप द्रव्यपणाकरि एक देखे है । यह एकस्वरूप भंग है । पुनः-ज्ञेयाकारकलङ्कमेचकचिति प्रक्षालनं कल्पयन्नेकाकारचिकीर्षया स्फुटमपि ज्ञानं पशुर्नेच्छति । वैश्येऽप्यविचित्रतामुपगतं ज्ञानं स्वतः क्षालितं पर्यायस्तदनेकतां परिमृशन् पश्यत्यनेकान्तवित् ||५||
अर्थ -- पशु अज्ञानी सर्वथा एकांतवादी है । सो ज्ञयनिके आकारनिकरि कलंककरि अनेका- 5
काररूप मलिन जो चैतन्य ताविर्षे एक चैतन्यकामात्र आकार करनेकी इच्छा करि प्रक्षालन कहिये
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धोवना कल्यता संता ज्ञान अनेकाकार प्रकट है तोऊ ताकू नाहीं माने है एकाकार हो मानिक ज्ञानका अभाव करे है । वहुरि अनेकांतका जाननेवाला है सो ज्ञ याकारकरि ज्ञानका विचित्रपणा जप "है तोऊ एकपणाप्राप्त ज्ञान है सो आप स्वयमेव प्रक्षाल्या हुवा शुद्ध है, एकाकार है अर " जपर्यायनिकरि ताके अनेकता अनुभव है।।
भावार्थ-एकांतवादी तौ ज्ञानविर्षे ज्ञ याकारकू मैल जाणि एकाकार करनेक्ज्ञयाकारकू धोय प्रदरि करि ज्ञानका नाश करे है । बहुरि अनेकांती ज्ञानकं स्वरूपकरि अनेकाकारपणा माने है।' .. सो ऐसा वस्तुस्वभाव है सो सत्यार्थ है ऐसा अनेकस्वरूप भंग है । पुनः----
प्रत्यक्षालिखितस्फुटस्थिरपरद्रव्यास्तितावञ्चितः स्वद्रव्यानवलोकनेन परितः शून्यः पशुनश्यति ।
स्त्रद्रव्यास्तितया निरूप्प निपुणं सद्यः समुन्मज्जता स्याद्वादी तु विशुद्धबोधमहसा पूर्णो भवन्जीवति ॥६॥1 ____ अर्थ-पशु अज्ञानी एकांतवादी हैं सो प्रत्यक्षप्रमाणकरि आलिखित कहिये चितरथा हुवा । दीखता स्फुट प्रकट स्थल अर स्थिर कहिये निश्चल ऐसा परद्रव्यर्फे देखि तिसका अस्तित्वकरिए
ठिग्या हुवा अपना निज आत्मद्रव्यका अस्तित्व नाहीं देखनेकरि समस्तपणे सर्वथाशून्य होता 卐 आपाका नाश करे है । बहुरि स्याद्वादी है सो अपना निजद्रव्यका अस्तिपणाकरि निपुण जैसे 5 __ होय तैसें निज आत्मद्रव्यका निरूपणकरि तत्काल प्रकट होतो जो विशुद्धज्ञानरूप तेज ताकरि .. जपूर्ण होता जीवे है । नष्ट न होय है। .. भावार्थ--एकांती बाह्य परद्रव्यकू प्रत्यक्ष देखि ताहीका अस्तित्व मान्या। अर अपना आत्म
द्रव्य इंद्रियप्रत्यक्षकरि दीख्या नाहीं। जाकू शून्य मानि आत्माका नाश करे है । बहुरि स्याद्वादी । ज्ञानरूप तेजकर अपना आत्मद्रव्यका अस्तित्वके अवलोकनकर आप जीवे है, आपाका नाश "नाहीं करे है । यह स्वद्रव्यअपेक्षा अस्तित्वका भंग है । पुनः--
सर्वद्रव्यमयं प्रपद्य पुरुष दुर्वासनावासितः स्वद्रव्यममतः पशुः किल परद्रव्येषु विश्राम्यति । ___ स्याद्वादी तु समस्तवस्तुष परद्रव्यात्मना नास्तिता जाननिर्मलशुद्धबोधमहिमा स्वद्रव्यमेवाश्रयेत् ॥१॥
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' 卐 ' अर्थ-पशु अज्ञानी एकांतवादी है सो पुरुष जो आत्मा ताकू सर्वद्रव्यमय। एक. कल्पिकार पय... अर कुनयकी वासनाकरि वासित हुवा प्रकट परद्रव्यवि स्वद्रव्यका भ्रमकरि विश्रामकरे है।। ,प्रबहरि स्याद्वादी है सो समस्त ही वस्तुविर्षे परद्रव्यस्वरूप करि नास्तिताकू जानता संता निर्मल है शुद्धज्ञानकी महिमा जाको ऐसा हुवा स्वद्रव्यहोवू आश्रय करे है।
भावार्थ-एकांतवादी तो सर्वद्रव्यमय एक आत्माकू मानि परद्रव्य अपेक्षा नास्तिता है; प्रताका लोप करे है । अर स्याद्वादी समस्तवि परद्रव्य अपेक्षा नास्तिता मानि अपना निजद्रव्य- ...
है रमे है । यह परद्रव्य अपेक्षा नास्तिताका भंग है । पुनः卐 भिन्न क्षेत्र निषण्णवीध्यनियतव्यापारनिष्ठः सदा सीदत्येव बहिः पतन्तमभितः पश्यन्पुमांसं पशुः ।
स्वक्षत्रास्तितया निरुदरभसः स्याद्वादवेदी पुनस्तिष्ठत्यात्मनि खातबोध्य नियतव्यापारशक्तिर्भयन् ।।८।। ___ अर्थ-अशु अज्ञानी एकांतवादी है सो भिन्नक्षेत्रवि तिष्ठया जे ज्ञेयपदार्थ तिनिवि ज्ञेय. - ज्ञायकसंबंधरूप निश्चितव्यापारविर्षे तिष्ठया संता पुरुषकू समस्तपणे बाह्यज्ञेयानविर्षे ही पड़ता
संता ताकू देखता संता कष्टहीकू प्राप्त होय है। बहुरि स्याद्वादका जाननेवाला है सो अपने प्र क्षेत्रवि अपना अस्तिपणाकरि रोक्या है अपना रभस ज्याने ऐसा भया संता आत्माहीविर्षे
आकाररूप भये जे ज्ञेय तिनिका निश्चयव्यापारकी शक्तिरूप होता संता अपने क्षेत्रहीवि के 卐 अस्तित्वरूप तिष्ठे है।
भावार्थ-एकांतवादी तौ भिन्नक्षेत्रवि ज्ञेय पदार्थ तिष्ठे हैं तिनिके जाननेके व्यापाररूप। म होता पुरुषको वाह्य पडता ही मानि नष्ट करे है। बहुरि स्याद्वादी अपना क्षेत्रवि ही तिष्ठथा .- पुरुष अन्यक्षेत्रवि तिष्ठते ज्ञेयनिकू जानता संता अपने क्षेत्रहीवि अस्तित्व धारे है, ऐसा " मानता संता आत्माहीविर्षे तिष्ठे है। यह स्वक्षेत्रविर्षे अस्तित्वका भंग है। पुनः- 卐
स्वक्षेत्रस्थितये पृथग्विधपरक्षेत्रस्थितायोज्झनात्तुच्छीभूय पशुः प्रणश्यति विदाकारा सहार्वमन् । स्याद्वादी तु वसन स्वधामनि परक्षेत्र विदनास्तितां त्यक्तार्थोऽपि न तुच्छतामनुभवन्याकारकर्षी परान् ॥६॥
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卐 अर्थ - पशु अज्ञानी एकांतवादी है तो अपना क्षेत्रवि तिष्ठनेके अर्थी न्यारे न्यारे परक्षेत्रवि तिष्ठते ज्ञेय पदार्थ तिनिके छोडने तुच्छ होयकरि अपने चैतन्यके ज्ञेयरूप आकारनिक्कू पर 5 ज्ञेय अर्थकी साथि वमता संता जैसें अर्थनि छोडे तैसें चैतन्यके आकारनिकू भी छोड़ें। तब २ आषा तुच्छ रह्या । ऐसा आपका नाश करे है। बहुरि स्याद्वादी अपने क्षेत्रविषे वसता संता परक्षेत्र विषै अपनी नास्तिताकूं जानता संता यद्यपि परक्षेत्र ज्ञेय पदार्थनिकू छोडे है तौऊ अपने 卐 5 चैतन्य के ज्ञयरूप आकार भये तिनिकू परतें खेचनेवाला होता तुच्छताकूं नाहीं अनुभवे है नष्ट नाहीं होय है । 卐
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भावार्थ - एकांती तो परक्षेत्रविषे तिष्ठते ज्ञेयपदार्थनिक आकार चैतन्यके आकार भये 15 तिनिकूं जैसें अर्थनिकू छोडे है तेंसें चेतन्यके आकारनिकूं भी छोड़े है ऐसें जाने है। चैतन्यके 5 आकारनिकूं अपना करूंगा तो अपना क्षेत्र छुटि जायगा। तातें आप चैतन्यके आकाररहित फ होय तुच्छ होय है, नष्ट होय है । बहुरि स्याद्वादी ज्ञयपदार्थनिकू छोडे है, तौऊ अपने चैतन्यके 5 आकारनिकू छोडे नाहीं है । अपने क्षेत्र विषै वसता परक्षेत्रत्रिष अपनी नास्तिताकूं जानता तुच्छ फ नाहीं होय है, नष्ट नाहीं होय है । यह परक्षेत्र अपेक्षा नास्तिताका भंग है । पुनः卐 पूर्वालम्बतवोभ्यनाशसमये ज्ञानस्य नाशं विदन् सीदत्येव न किञ्चनापि कलयन्नत्पन्ततुच्छः पशुः । अस्तित्वं निजकालतोऽस्य कलयन स्याद्वादवेदी पुनः पूर्णस्तिष्ठति बाह्यवस्तुषु मुहुर्भुवा विनश्यत्स्वपि ॥ १० ॥ अर्थ- पशु अज्ञानी एकांतवादी है सो पूर्वकालमें आलंबे जे ज्ञेयपदार्थ तिनिका नाश होनेके
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समय विज्ञानका भी नाशकू जानता संता किछू भी नाहीं जानता संता तुच्छ भया नाशकूं प्राप्त होय है । बहुरि स्थाद्वादका वेदी है सो इस आत्माका अपने कालतें अस्तित्व जनता संता बाह्यवस्तु बारंबार होयकरि नष्ट होते संते भी आप पूर्ण ही तिष्ठे है।
भावार्थ- पहिले शेय पदार्थ जाने थे उत्तरकालमें विनसि गये तिनिकू देखि एकांती अपना
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ज्ञानका भी नाश मानि अज्ञानी हुवा आत्माका नाश करे है। बहुरि स्याद्वादी ज्ञेयपदार्थनिकू 卐
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मनट होतें भी अपना अस्तित्व अपना ही कालतें मानता नष्ट न होय है। यह स्वकाल अपेक्षा 1अस्तित्वका भंग है। पुनः--
अर्यालम्बनकाल एव कलयन् शानस्य सक्वं बहिर्मेयालम्बनलालसेन मनसा भ्राम्यन् पशुनश्यति । ।
नास्तित्वं परकालतोऽस्य कलयन् स्याद्वादवेदी पुनस्तिष्ठत्यात्मनिखातनित्यसहजज्ञानकपुओभवन् ॥११॥ +
अर्थ-पशु अज्ञानी एकांतवादी है सो ज्ञेयपदार्थके आलम्बनकाल ही ज्ञानका अस्तित्व 卐 जानता संता बाह्यज्ञेयका आलंबनविर्षे चित्त• अनुरागसहित करि अर बाह्य श्रमता संता नाशकूफ 1- प्राप्त होय है। बहुरि स्याद्वादका वेदो है सो परकालतें अपना आरमाका नास्तित्वकू जानता ..
। संता आत्माविर्षे उकिरया जो नित्य स्वाभाविक ज्ञानपुंज तिस स्वरूप होता संता तिप्ठे है, नष्ट न । ज, होय है।
भावाथ-एकाती तो शेयके आलंबनके काल ही शानका सत्त्व जाने है सो ज्ञेयके आलंबएनधि मन लगाय बाह्य भूमता संता नष्ट होय है । बहुरि स्याद्वादी ज्ञेयके कालतें अपना अस्तित्व ॥
नाहीं जाने है, अपने ही कालतें अपना अस्तित्व जाने है। तातें जयते न्यारा ही अपना ज्ञानका + पुंजरूप होता नष्ट न होय है । यह परकाल अपेक्षा नास्तित्वको भंग है । पुनः
विश्रान्तः परभावभावकलनान्नित्यं बहिर्वस्तुषु नश्यत्येव पशुः स्वभावमहिमन्येकान्तनिश्चंतनः।
सर्वस्मिन्निवतस्वभावभवनज्ञानाद्विभक्तो भवन् स्यावादी तु न नाग्नमेति सहजस्पष्टीकृतप्रल्पयः ।।१२।। म अर्थ-पशु अज्ञानी एकांतवादी है सो परभावकू ही अपना भाव जाननेते बाह्मवस्तुनिवि , " विश्राम करता संता अपना स्वभावकी महिमाविर्षे एकांतकरि निश्चेतन भया जड होता संता 卐 आपनाशकू प्राप्त होय है । बहुरि स्याद्वादी है सो सर्व ही वस्तुनिविर्षे अपना निश्चित नियमरूप) ___ जो स्वभावभावका भवनस्वरूप ज्ञान सातें सर्वते न्यारा होता संता सहजस्वभावका स्पष्ट 卐 प्रत्यक्ष अनुभवरूप किया है प्रत्यय कहिये प्रतीतिरूप जानपना जाने ऐसा भया नाशवं प्राप्त 1 नाहीं होय है।
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भावार्थ-एकांती तौ परभाव निजभाव जानि बाह्यवस्तूहीविर्षे विश्राम करता संता __आस्माका नाश करे है । बहुरि स्याद्वादी अपना ज्ञानभाव यथापि ज्ञेयाकार होय है, तथापि ज्ञानमहीकू अपना भाव जानता संता आपाका नाश नाहीं करे है। यह अपना भावकी अपेक्षा + 1- अस्तित्त्रका भंग है । पुनः--
अध्यास्यात्मनि सर्वभावभवनं शुद्धस्वभावच्युतः सर्ववाप्यनियारितो गनभयः स्वैरं पशुः क्रीडति। ' ___ म्याहादी तु विशुद्ध एव लसति स्वस्य स्वभाष भरादारूढः परमावभावविरहच्यालोकनि कम्पितः ॥१३॥
अर्थ-पशु अज्ञानी एकांतवादी है सो अपने आत्माविर्षे सर्वज्ञेयपदार्थनिका होना निश्चय : प्रकरि अर शुद्धज्ञानस्वभावते च्युत भया संता सर्वपदार्थनिविर्षे निःशंक वर्जनारहित स्वेच्छाचारी .. - भया क्रीडा करे है । अपना भावका लोप करे है । बहुरि स्याद्वादी है सो अपना ही भावविर्षे ।
सर्वथा आरूढ भया परभावका अपने भावविर्षे अभावका प्रकटपणा है ताकरि निश्चय भया शुद्ध , पज ही शोभायमान है। " भावार्थ-एकांती तौ परभावन्निकू आपा जानि अपने शुद्धस्वभावसू च्युत भया सर्वत्र + निशंक स्वेच्छातें प्रवते है । बहुरि स्याद्वादी परभावनिकू जाने है तोऊ तिनित न्यारा अपना आ
स्माकू शुद्धज्ञानस्वभाव अनुभवतासंता सोभे है। यह परभाव अपेक्षा नास्तित्वका भंग है । पुनः--卐 卐 प्रादुर्भावविराममुद्रितबहद्ज्ञानांशनानात्मना निझनाक्षणभङ्गसङ्गपतितः प्रायः पशुनश्यति ।
स्याद्वादी तु चिदात्मना परिमृशंश्चिद्वस्तु नित्योदितं टोत्कीर्णवनस्वभावमहिमज्ञानं भवन् जीवति ॥१४॥ 卐 अर्थ-पशु अज्ञानी एकांतवादी है सो उत्पादव्ययकरि लक्षित प्राप्त होता जो ज्ञान ताके .. अंशनिकरि नानास्वरूपका निर्णयका ज्ञानते क्षणभंगका संगमें पढथा बाहुल्यपणे आपाका नाश
करे है । बहुरि स्याद्वादी है सो चैतन्यस्वरूपकरि चैतन्यवस्तूकू नित्य उदयरूप अनुभवता संता टंकोत्कीर्णधनस्वभाव है महिमा जाकी ऐसा ज्ञानरूप होता संता जोवे है । आपाका नाश नाहीं ।
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भावार्थ - एकांती तो शयक आकारवत् ज्ञानकू उपजता विनसता देखि अर क्षणभंगकी संगतीवत् आपाका नाश करे है । बहुरि स्याद्वादी है सो ज्ञान ज्ञेयकी साथि उपजे विनशे है फ्र 5 तौऊ चैतन्यभावका नित्य उदय अनुभवता संता ज्ञानी होता जीवे है, आपाका नाश नाहीं करे है । यह नित्यपणाका भंग है। पुनः
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कीर्ण विशुद्धबोधविसराकारात्मतत्वाशया वाञ्च्छत्युच्छलदच्छचिरपरिणतेभिन्नः पशुः किंचन । ज्ञानं नित्यमनित्यतापरिगमेऽप्यासादयत्युज्वलं स्याद्वादी तदनित्यतां परिमृशंस्थिद्वस्तुवृत्तिक्रमात् ॥ १५ ॥ अर्थ - पशु अज्ञानी एकांतवादी हैं सो टंकोत्कीर्ण निर्मलज्ञानका फैलावस्वरूप एक आकार 5
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जो आत्मतत्त्व, ताकी आशाकरि अर आपविषै उछलती जो निर्मल चैतन्यको परिणिति, तातें न्यारा किछू आत्माकुं चाहे है । सो किछू है नाहीं । बहुरि स्याद्वादी है सो नित्य ज्ञान है सो 5 अनित्यता प्राप्त होते भी उज्वल दैदीप्यमान चैतन्यवस्तुको प्रवृत्तिके क्रम ज्ञानके अनित्यताकूं अनुभवता संता ज्ञानकूं अंगोकार करे है ।
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भावार्थ - एकांती तौ ज्ञानकुं एकाकार नित्य ग्रहण करनेकी वांछा करिअर ज्ञानचैतन्यकी परिणति उपजे विनशे है तातें भिन्न किछू माने है, सो परिणामसिशय परिणामी किछू न्यारा ही है नहीं । बहुरि स्याद्वादी है सो यद्यपि ज्ञान नित्य है, तौऊ चैतन्यकी परिणति क्रमतें उपजे fara है, ताके क्रम ज्ञानकी अनित्यता माने हैं, वस्तुस्वभाव ऐसा ही है, यह अनित्यपणाका भंग है। अब कहे हैं, जो ऐसा अनेकांत है, सो जे अज्ञानकार मोही मूढ हैं, तिनिकूं आत्मतत्त्वकं ज्ञान5 मात्र साधता संता स्वयमेव अनुभवनमें आवे है ।
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इत्यज्ञानविमूढानां ज्ञानमात्र' प्रसाधयन् । आत्मतत्त्वमनेकांतः स्वयमेवानुभूयते ॥ १६ ॥
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अर्थ -- ऐसे पूर्वोक्तप्रकार अनेकान्त है, सो जे अज्ञानकरि प्राणी मूढ भये हैं, तिनिक्कू समझावनेकूं आत्मतत्वकं ज्ञानमात्र साधता संता आपआप अनुभवगोचर होय है ।
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भावार्थ – अनादिकालके प्राणी स्वयमेव तथा एकांतवादका उपदेशकरि आत्मतत्त्वकू ज्ञानका अनुभवका क्षणातकरि आत्माका नाश करे है । तिनिकू समझावनेकू आत्माका प्रा स्वरूप ज्ञानमात्र ही कहिकरि, अर तिसकूं अनेकांतस्वरूप प्रकटकरि स्याद्वाद दिखाया है, सो 5 यह असत्कल्पना नाहीं है । ज्ञानमात्र वस्तु अनेकधर्मसहित आप आप अनुभवगोचर प्रत्यक्ष प्रति-5 भास आ है । सो प्रवीण पुरुष अपना आपाकी तरफ देखि अनुभवकरि देखो । ज्ञान तत्स्वरूप, अतत्स्वरूप, एकस्वरूप अनेकस्वरूप, अपने द्रव्यक्षेत्रकालभावतें सत्स्वरूप, परके द्रव्यक्षेत्रकालभावतें क फ 15 असत्स्वरूप, नित्यस्वरूप, अनित्यस्वरूप इत्यादि प्रत्यक्ष अनुभवगोचरकरि अनेकधर्म स्वरुप, प्रतीती मैं ल्यावो । यह ही सम्यग्ज्ञान है । सर्वथा एकांत मार्ने मिथ्याज्ञान है, ऐसा जानता । 5 अब अनेकांतकी महिमा करे हैं ।
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अनुष्टुप्छन्दः
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एवं तत्त्वव्यवस्थित्या स्वं व्यवस्थापयन् स्वयम् | अलङ्घ्यशासनं जैनमनेकान्तो व्यवस्थितः ||१७||
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अर्थ - याप्रकार तत्व कहिये वस्तूका यथार्थ स्वरूपकी व्यवस्थितिकरि अपने स्वरुपकूं आप ही स्थापन करता संता अनेकांत है सो व्यवस्थित भया निश्चत ठहरथा । सो कैसा है यह ? अलंघ्य फ 15 कहिये काहूकरि लंघ्या न जाय जीत्या न जाय ऐसा जिनदेवका शासन है, मत है, आज्ञा है । फ्र भावार्थ - यह अनेकांत है सो ही निर्वाध जिनमत है । सो जैसे वस्तूका स्वरूप है तैसें स्थापता फ 5 आप आप सिद्ध भया है । असत्कल्पनाकरि वचनमात्र प्रलाप काढूने नकया है। निपुण पुरुषनिके। विचारि प्रत्यक्ष अनुमान प्रमाणकरि अनुभवकरि देखो। इहां कोई तर्क करे है, जो आत्मा अने-'
फ कांतमयी है, अनंतधर्मा है, तौऊ ताका ज्ञानमात्रपणाकरि नाम कौन अर्थी किया ? ज्ञानमात्र कह 55 मैं तौ अन्यधर्मनिका निषेध जान्या जाय है । ताका समाधान - जो इहां लक्षणकी प्रसिद्धिकरि 5 लक्ष्य के प्रसिद्धि अर्थी आत्माका ज्ञानमात्रपणाकरि नाम किया है, जो आत्मा ज्ञानमात्र है। क सोही कहे हैं, आत्माका ज्ञान लक्षण है । जातें तिस आत्माका सो ज्ञान असाधारण गुण है। 卐
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- यह ज्ञान काहू अन्यद्रव्यमें पाइए नाही, तिस कारणकरि इस ज्ञानलक्षणकी प्रसिद्धि करि, अर'..
" ताकरि लक्ष्य कहिये लखने योग्य जो आत्मा ताकी प्रसिद्धि होय है । लक्षण होय सो जाकं बाह" ल्यपणकरि सर्व जाणे सो होय । अर लक्ष्य होय सो जाफूप्रसिद्ध न जानिये सो होय । योते।
लक्षण कहनेत लक्ष्य प्रसिद्ध होय है । इहां फेरि तक करे है, जो इस लक्षणको प्रसिद्धिकरि कहा" साध्य है ? लक्ष्य ही साधने योग्य है, आत्माहीकू साधना था । ताका समाधान—जो अप्रसिद्ध है लक्षण जाकै ऐसा अज्ञानी पुरुषकै लक्ष्यकी प्रसिद्धि नाहीं होय है। अज्ञानीकू पहले लक्षण
दिखाइए तब लक्ष्यकू ग्रहण करै । जातें जाके लक्षण प्रसिद्ध होय ताहीके तिस लक्षणस्वरूप 卐 लक्ष्यको प्रसिद्धि होय है।
फेरि पूछे है, जो वह लक्ष्य न्यारा ही कहा है; जो ज्ञानकी प्रसिद्धिकरि तिसते न्यारा ही प्रसिद्ध होय है । ताका उत्तर-जो ज्ञानतें न्योरा ही तो लक्ष्य आत्मा नाही है। जाते द्रव्य-- ..पणाकरि ज्ञानके अर आत्माके भेद नाही है--अभेद ही है । इहां फेरि पूछे है, जो ज्ञान आत्मा ।
अभेदरूप है तो लक्ष्यलक्षणका भेद काहेकरि कीया हुवा होय है ? ताका उत्तर-जो प्रसिद्ध 1- करि प्रसाध्यमानपणा है ताकरि किया भेद है । ज्ञान प्रसिद्ध है। जातें ज्ञानमात्रके स्वसंवेदन
करि सिद्धपणा है। सर्व प्राणीनिके स्वसंवेदनरूप अनुभवमै आवे है। तिस प्रसिद्धिकरि साध्या ' हवा तिस ज्ञानतें अविनाभावी जे अनंत धर्म तिनिका समुदायरूप अभिन्नप्रदेशरूप मूर्ति आत्मा
है। तातें ज्ञानमात्रवि अचलित निश्चल लगाई उकीरी जो दृष्टि ताकरि क्रमरूप अर अक्रमरूप 卐 -युगपद्प प्रवर्तता जो तिस ज्ञानतें अविनाभूत अनंत धर्मका समूह जेता जो कछू लखिये है।
तेता सो कछू समस्त ही एक निश्चयकरि आत्मा है । इस ही प्रयोजनके अर्थी इस अध्यात्मप्रकरणविर्षे इस आत्माका ज्ञानमात्रपणाकरि व्यपदेश किया है, नाम कया है । फेरि पूछे है, जो क्रमरूप अर अक्रमरूप प्रवर्ते हैं अनंत धर्म जाविर्षे ऐसा आत्माके ज्ञानमात्रपणा कैसा है ? ताका समाधान-जो परस्पर व्यतिरिक कहिये न्यारा न्यारा स्वरूपा धारे जे अनंत धर्म तिनिका;
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..समुदायरूप परिणाई जो एक ज्ञप्ति कहिये ज्ञानक्रिया तिलमात्र भावरूपकरि आपै आप स्वयमेव
होनेत आत्माकै ज्ञानमात्रपणा है। आत्माके जेते धर्म हैं तेते सर्व हो ज्ञानके परिणमनरूप हैं। १८ । यद्यपि तिनिके लक्षणभेदकरि भेद है, तथापि प्रदेशभेद नाहीं है। तासे एक असाधारण ज्ञानकू
कहते सर्व यामैं आय गये । याहीतें इस आत्माका ज्ञानमात्र जो एकभाव ताके अंतःपातिनी म कहिये याहीमैं आय पडनेवाली अनंतशक्ति उदय होय है उघडे है। तिनिकू कईकनिकू कहे हैं, .. ._तिनिका टीकामैं संस्कृत पाठ है सो लिखिकरि तिनिकी वचनिका लिखिये हैं।
आत्मद्रव्यहेतुभूतचैतन्यमावभावधारणालक्षणा जीवत्वशक्तिः।। 1- अर्थ-प्रथम तो जीवत्व नामा शक्ति है, सो कैसी है ? आत्मद्रव्यर्फे कारणभूत जो चैतन्य- । मात्रभाव सो ही भया भावप्राण ताका धारणा है लक्षण जाका ऐसी है।
अजडत्वात्मिका चितिशक्तिः । _ अर्थ-यह दूजी चिति शक्ति है सो कैसी है ? अजडपणा कहिये जड नाहीं होय ऐसी है + चेतना जाका स्वरूप ऐसी है।
___ अनाकारोपयोगमयी दृशिशक्तिः । फ़ अर्थ—यह तीसरी दर्शनक्रियारूप शक्ति है । कैसी है ? अनाकार कहिये जामैं ज्ञेयरूप .. आकारका विशेष नाहीं ऐसा जो दर्शनोपयोग सत्तामात्रपदार्थसू उपयुक्त होना, तिसमयी है।
साकारोपयोगमयी ज्ञानशक्तिः । ___ अर्थ—यह चौथी ज्ञानशक्ति है, सो कैसी है ? साकार कहिये ज्ञेयपदार्थका आकाररूप - विशेषतें जुडनेवाला उपयुक्त होनेवाला जो ज्ञान तिसमयी है।
अनाकुलत्वलक्षणा सुखशक्तिः । ____ अर्थ—यह पांचमो सुखशक्ति है। कैसी है ? अनाकुलत्व कहिये आकुलताते रहितपणा है के लक्षण नाका ऐसी है।
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स्वरूपनिर्वर्तनसामध्यंरूपा वीर्यशक्तिः ।
अर्थ - यह छठी वीर्यशक्ति है । कैसी है ? अपना निज आत्मस्वरूप ताका निर्वर्तन कहिये 'निपजावना रचना तिसको सामर्थ्य तिसरूप हैं ।
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अर्थ - यह आठमी विभुत्व नामा शक्ति है । कैसी है ? सर्वभावनिविषै व्यापक जो एक भाव 15 तिसरूप है जाका ज्ञान एक भाव सर्वभावनिविषै व्यापे है ।
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अस्त्र ण्डितप्रताप स्वातन्त्र्यशालित्वलक्षणा प्रभुत्वशक्तिः ।
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अर्थ - यह सातमी प्रभुत्वशक्ति है । कैसी है ? जो काहूकार खंड्या न जाय ऐसा अखं- फ दिन है प्रताप जाका ऐसा जो स्वाधीनपणा ताकरि शोभनीकपणा है लक्षण जाका ऐसी है । रूपा विशुशक्तिः ।
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भारपणात्मज्ञानमयी सर्वज्ञत्व प्रक्तिः ।
अर्थ - विश्व कहिये समस्त पदार्धनका समूहरूप लोकालोक, तिनिके समस्त जे विशेष भाव आकारनिहित भाव, तिनिके जाननेरूप परिणया है स्वरूप जाका ऐसो ज्ञानमयी दशमी सर्वज्ञत्व नामा शक्ति है ।
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卐
विश्वविश्वान्यभावपरिणतात्मदर्शनमयी सर्वदर्शित्वशक्तिः ।
अर्थ
-यह नवमी सर्वदर्शिव नामा शक्ति है । कैसी है ? विश्व कहिये समस्त पदार्थ निका समूहरूप जो लोकालोक ताका सामान्यभाव सत्तामात्र तिसके देखनेरूप परिणया है स्वरूप फ्र जाका ऐसा दर्शन कहिये देखना तिसमय है ।
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नीरूपात्मप्रदेशप्रकाशमान लो कालीकाकार मंचकोपयोगलक्षणा स्वच्छत्वशक्तिः ।
अर्थ - अमूर्तिक आत्माका प्रदेशनिविषै प्रकाशमान जो लोकालोकका आकारकरि मेचक फ्र 45 कहिये अनेक आकाररूप दीखता उपयोग सो है लक्षण जाका ऐसी स्वच्छत्व नामा ग्यारमी शक्ति है। जैसी आरसाकी स्वच्छता प्रकाशरूप घटपटादि जामें प्रकाशै, तैसी स्वच्छता है ।
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स्वयम्प्रकाशमानांवेशदस्वसंवित्तिमयो प्रकाशशक्तिः । ___ अर्थ-स्वयमेव आ आप प्रमाशमान विशद स्पष्ट खसंवित्ति कहिये अपना अनुभव, तिसमयी । प्रकाश नामा शक्ति बारमो है।
क्षेत्रकालानवच्छिन्नचिद्विलासात्मिकाऽसङ्कुचितविकासत्वशक्तिः । का अर्थ क्षेत्रकालकर अमर्यादरूप जो चैतन्यका विलास तिसस्वरूप असंकुचितविकासव नामा तेरमी शक्ति है।
अन्याक्रियमाणान्याकारकैकद्रव्यात्मिकाऽकार्यकारणशक्तिः । अर्थ-अन्यकरि न करनेयोग्य अर अन्यका कारण नाहीं ऐसा एक द्रव्य तिस खरूप 1 अकार्यकारणत्व नामा चौदमी शक्ति है।
परात्मनिमित्तकशेयझानाकारग्रहणग्राहणस्वभावरूपा परिणम्यपरिणामात्मकशक्तिः। - अर्थ-पर अर आप है निमित्त जिनिको ऐसा ज्ञेयाकार अर ज्ञानाकार तिनिका ग्रहण करना
अर ग्रहण करावना पेसा स्वभाव है रूप जाका ऐसी परिणम्यपरिणामालक नामा पंदरमी शक्ति 卐 है। शेयाकार अर ज्ञानाकर आप ही परिणमे है यह शक्ति है।
अन्यूनातिरिक्तस्वरूपनियतत्वस्वरूपा त्यागोपादानशून्यत्वशक्तिः ।। 卐 अर्थ-अन्यून कहिये घटता नाही, अर अनतिरिक्त कहिये वधता नाहीं ऐसें खरूपत्रिवें ॥ .. नियतत्व कहिये नियमरूप जैसाका तैसा रहना तिसरूप त्यागापादानशून्यत्व नामा सोलमी ... 卐 शक्ति है।
षट्स्यानपतितद्धिहानिपरिणतस्वरूपप्रतिष्ठत्वकारणविशिष्टगुणात्मिका अगुरुलघुत्वशक्तिः । __अर्थ-षट्स्थानपतित वृद्धिहानिरूप परिणया जो वस्तूका निजखरूपकी प्रतिष्ठाका कारण15 विशिष्ठ अगुरुलघुत्वनामा गुण तिस स्वरूप अगुरुलघुत्र नामा सतरमी शक्ति है । इस षट्स्थान
पतितहानिवृद्धिका स्वरूप गोमटसारग्रंथतें जानना । यह ही अविभाग प्रतिच्छेदकी संख्यारूप जे"
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पटूस्थान तिनिर्कारि वस्तुस्वभावका घटना बघना वस्तूके स्वरूपकूं ठहरनेकू कारण ऐसा ही कोई गुण है ताकूं अगुरुलघु गुण कहिये है । सो यह भी शक्ति आत्मामें है । क्रमाक्रमवृत्तिवृत्तलक्षणोत्पादव्ययत्र वत्वशक्तिः ।
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फ्रफ़ फ्र
फ्रफ़ फफफफफफफफ
卐
प्रा
卐
अर्थ - क्रमवृत्तिरूप पर्याय क्रमदृशिरूप गुण सिनिफा वर्तन सो है लक्षण जाका ऐसी उत्पा- फ
5 बव्ययभ्रु वत्व नामा अठारमी शक्ति है । क्रमवर्ती पर्याय तौ उत्पादव्ययरूप होय हैं। अर सहवर्ता द्रव्यस्वभावभूतधौव्यव्ययोत्पादालिङ्गितसदृशविसदृशरूपैकास्तित्वमात्रमयी परिणामशक्तिः ।
गुणवरूप रहे है।
卐
अर्थ - द्रव्यके स्वभावभूत ऐसे धौव्य व्यय उत्पाद तिनिकरि आलिंगित स्पर्शित जे समानरूप अर असमानरूप परिणाम तिनिस्वरूप एक अस्तित्वमात्रमयी परिणामशक्ति उगणीसमी है । कर्मबन्धव्यपगमव्यञ्जित सहजस्पर्शादिशून्यात्मप्रदेशात्मिका मूर्तन्वशक्तिः ।
अर्थ -- कर्मबंधका अभावकरि प्रकट व्यक्त भया जो स्वाभाविक स्पर्श रस गंध वर्णकरि शून्य रहित आत्माका प्रदेश तिसस्वरूप अमूर्तत्व नामा शक्ति वीसमी है । सकलकर्मकृतज्ञातृत्वमात्रातिरिक्त परिणामकरणोपरमात्मिकाकतु स्वशक्तिः ।
卐
अर्थ- समस्त कर्मकार किये ज्ञातापणामात्र अतिरिक्त कहिये न्यारे परिणाम तिनिका
卐
फ करनेका उपरम कहिये अभाव तिसस्वरूप अकर्तृत्वशक्ति इकईसमी है । आत्मा ज्ञातापणासिवाय फ • कर्मकरि किये परिणामका कर्ता नाहीं है, यह भी यामैं शक्ति है।
卐
सकलकर्मकृतशातृत्वमात्रातिरिक्तपरिणामानुभवो परमात्मिका भोक्तृत्वशक्तिः ।
卐
अर्थ — सकलकर्म निकरि कीया ज्ञातापणामात्रतें अतिरिक्त न्यारे जे परिणाम तिनिका 15 'अनुभव कहिये भोगना तिसका अभावस्वरूप अभोक्तृत्व नामा बाईसमी शक्ति है। आत्मा ज्ञातापणासिवाय अन्य परिणाम कर्मके किये हैं, तिनिका भोक्ता नाहीं है यह भी पार्ने शक्ति है। 5 सकलक परम प्रवृत्तात्मप्रदेशनंष्पन्द्यरूपानिष्क्रियत्वशक्तिः ।
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अर्थ- समस्त कर्मका अभावकरि प्रवर्त्य जो आत्माका प्रवेशका नैष्पन्य कहिये निश्चलपणा
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माणकरि अवस्थित ऐसें दोऊ भावकूं लिये लोकाकाशपरिमाणस्वरूप अवयवपणा हे लक्षण जाका
5 ऐसी नियतप्रदेशत्वशक्ति चौवोसभी है । आत्माका लोकपरिमाण असंख्यात प्रदेश नियत है। सो संसार अवस्थामै तौ संकुचे विस्तरे है । अर मोक्ष अवस्थामैं चरमशरीरसूं किछू घाटि अवस्थित फ है। ऐसी शक्ति है ।
卐
卐
5
रीवा
स्वधर्मव्यापकत्यशक्तिः ।
अर्थ - सर्व ही शरीरनिमेँ एकस्वरूपरूप रहना यह स्वधर्मव्यापकत्वशक्ति पचीसमी है। 5 5 शरीरके धर्मरूप न होना अपने धर्मनिर्मे व्यापना यह शक्ति है ।
स्वपवमानासमानसमानासमानत्रिविधभावधारणात्मिका साधारणासाधारणसाधारणा साधारणधर्मत्वशक्तिः ।
卐
जाय हैं । तातें निष्क्रियत्वशक्ति भी या है ।
आमंसारसंहरण त्रिस्तरणलक्षणउक्षित किञ्चिदून चरमशरीरपरिमाणावस्थित लोकाकाशसम्मितात्मावयवत्वलक्षणा नियतप्रदेशत्वशक्तिः ।
अर्थ - अनादिसंसारतें लगाय संकोचविस्तारकरि चिन्हित अर किंचित् ऊन चरमशरीरपरि
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卐
तिसस्वरूप तेईसमी निष्कियत्वशक्ति है। सकलकर्मका अभाव होय तक प्रदेशनिका कंप मिटि
फ
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கமிகமிகக்ழகமிமிழகபிழி
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卐
卐
अर्थ —- परस्पर भिन्नलक्षणस्वरूप जे अनंत स्वभाव तिनिकरि भावित मिल्या हुवा जो एक भाव सो है लक्षण जाका ऐसी अनंतधर्मत्वशक्ति सताईसमी है ।
फ्र
अर्थ- आप परके समानधर्म अर असमानधर्म अर समानासमान धर्म ऐसें तीन प्रकारके
भावधारणस्वरूप यह साधारणासाधारणसाधारणासाधारणधर्मव नामा शक्ति छवीसमी है । विलक्षणानर्तकभावलक्षणाऽनन्त धर्मत्वशक्तिः ।
तदतद्रूपमयत्वलक्षणाविरुद्ध धर्मत्वशक्तिः ।
अर्थ - तत्स्वरूप अर अतत्स्वरूप तिनिमयपणा है लक्षण जाका ऐसी विरुद्धधर्मत्वशक्ति
5 अठाईसमी है ।
55
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கககககககககககதிதி
卐
卐
फ
फ शक्ति है।
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卐
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तद्रूपभवनरूपा तत्त्वशक्तिः ।
अर्थ — तत्स्वरूप होना है स्वरूप जाका ऐसी तत्त्वशक्ति गुणतीसमी है । जो वस्तुका स्वभाव
ताकूं तत्त्व कहिये । सो तत्त्वशक्ति है।
卐
卐
अतद्रूपभवनरूपा अतस्वशक्तिः ।
अर्थ -- तत्स्वरूप न होय रूप अतत्त्वशक्ति तीसमी है। जैसे चेतन जडरूप न होय यह
卐
卐
अनेक
व्यापकद्रव्यमयत्वरूपा एकत्वशक्तिः ।
अर्थ - अनेक जे अपने पर्याय तिनिर्मै व्यापक जो एक द्रव्य तिसमयी स्वरूप एकत्वशक्ति 卐
इकतोसमी है ।
एकद्रव्यव्याप्यानेक पर्यायम यत्त्ररूपाऽनेकत्वशक्तिः
卐
अर्थ - एकद्रव्यविषै व्यापनेयोग्य जे अनेकपर्याय तिनिमय स्वरूप अनेकत्वशक्ति बत्तीसमी हैं । भृतावस्थस्वरूपा भावशक्तिः ।
अर्थ--भूत कहिये भये विद्यमान परिणामतें अवस्थित स्वरूप सो भावशक्ति है ये तेतीसमी है । शून्यावस्थत्वरूपाऽभावशक्तिः ।
अर्थ -- जिस परिणामका अभाव है तिनिका शून्यपणातें अवस्थितस्वरूप सो अभावशक्ति
है । यह चौतीसमी है ।
फफफफफफफफफफफफफ
ratorरूपा भावाभावशक्तिः ।
अर्थ -- वर्तमान होसी जो पर्याय ताका व्यय होना तिसरूप भावाभावशक्ति पैतीसभी है ।
अभवत्योदयरूपाऽमावभावशक्तिः ।
अर्थ - - वर्तमान न होते पर्यायका उदय होना तिसरूप अभावभावशक्ति है । पर्यायभवनरूपा भावभावशक्तिः ।
अर्थ - - वर्तमान पर्यायका होना, तिसरूप रहना सो भावभावशक्ति है ।
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फफफफफफफफफफफ
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अभवत्पर्यायाभवनरूपाऽभावाभावश्चक्तिः ।
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अर्थ-न होते पर्यायका नाहीं होना तिसरूप अभावाभावशक्ति है यह अठतीसमी है । कारकानुगत क्रियानिष्क्रान्तभवनमात्रमयी भावशक्तिः ।
--कारक जे कर्ता कर्म आदि तिनिविषै अनुगत जो क्रिया तातें रहित जो होनामात्र5 मयी सो भावशक्ति गुणतालीसमी है ।
अर्थ
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रातभव त्तारूपभावमयी क्रियाशक्तिः ।
卐
卐
卐
अर्थ----कारककै अनुगत अनुसार होना तिसरूप भावमयी कियाशक्ति चालीसमी है । 卐
प्राप्यमाणसिद्धरूपभात्रमयी कर्मशक्तिः ।
अर्थ - पावनेमें आता है ऐसा सिद्धरूप aur aणाया जो भाव तिसमयी कर्मशक्ति 5 इकतालीसमी है ।
卐
भवतारूपसिद्धरूपभावभावकत्वमयी कर्तृत्वशक्तिः ।
अर्थ -- होवाचणारूप जो सिद्धरूपभाव तिसके भाव कहिये होनेवाला तिसपणामयी कर्तृ वशक्ति बियालीसमी है ।
卐
अर्थ -- होता जो भात्र करणशक्ति तियालीसभी है ।
भवद्भावभवनसाधकतमत्वमयी करणशक्तिः ।
तिसका होना तिसविर्षे अतिशयमान् जो साधक तिसपणामयी
फफफफफफफफफफफफफ
उत्पादव्ययालिङ्गितभावापाय निरपाय वत्वमयी अपादानशक्तिः ।
अर्थ - उत्पादव्ययकरि स्पर्शित जो भाव ताका अपायके होते निरपाय कहिये नष्ट न होता ऐसा ध्रुवपणामयी अपादानशक्ति पैतालीसम है।
स्वयं दीयमानभावी पेयत्वमयी सम्प्रदानशक्तिः ।
अर्थ -- आपहीकरि देने में आवता जो भाव ताके प्राप्त होने योग्यपणा पावने योग्यपणामयी 5 , संप्रदानशक्ति चवालीसमी है ।
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भाव्यमानमावाधारत्वमयी अधिकरणशक्तिः । प्रय अर्थ-भाव्यमान कहिये भावनेमैं आवता जो भाव तिसका आधारपणामयी छियालीसा । अधिकरणशक्ति है।
म्वभावमात्रस्वम्यामिरवमयी सम्बन्धशक्तिः । . अर्थ---अपना भाव तिस मात्र स्वस्वामिपणा तिस मयी संबंधशक्ति सैतालीसमी है । अपना
भावनिका स्वामी आप है यह संबंध है ऐसे सैतालीस शक्तीके नाम लिये। इनकू आदि लेकरि + अनेकशक्तिकरि युक्त आत्मा है । तोऊ ज्ञानमात्रपणाकू नाही छोडे है । अब इस अर्थका कलशरूप काव्य है।
वसन्ततिलकाछन्दः इत्याद्यनकनिजशक्तिसुनिर्भरोऽपि यो झानमात्रमयतां न जहाति भावः ।
एवं क्रमाक्रमविवर्ति विवर्तचित्र तद्रव्यपर्ययमयं चिदिहास्ति वस्तु ॥१८॥ __ अर्थ-इति कहिये ऐसे ए सैतालीस शक्ति कहि तिनिकू आदि लेकरि अनेक अपनी शक्तिनिकरि भलै प्रकार भया है तोऊ जो भाव ज्ञानमात्रमयीपणाकू नाहीं छोडे है सो चैतन्य आत्मा के - द्रव्यपर्यायमयी इस लोकमै वस्तु है । कैसा है ? कमरूप अक्रमरूप विशेष वर्तनेवाले जे विवत 1 कहिये परिणमनके विकाररूप अवस्था तिनिकरि चित्र कहिये नाना प्रकार होय प्रवर्ते है। 卐 के भावार्थ-कोई जानेगा कि ज्ञानमात्र कह्या सो आत्मा एकस्वरूप ही है । सो ऐसें नाहीं है। ..
वस्तुका स्वरूप द्रव्यपर्यायमयी है, अर चैतन्य भी यस्तु है, सो अनंतशक्तिकरि भरया है। सो मनमरूप अर अक्रमरूप अनेक परिणामके विकारनिका समूहरूप अनेकाकार होय है। अर ज्ञान ,
असाधारण भाय है ता• नाही छोडे है। सर्व अवस्था परिणामपर्यायी हैं ते ज्ञानमय हैं । अव " 卐 इस अनेकस्वरूप वस्तूकुंज जाने हैं श्रद्धे हैं, अनुभवे हैं तिनिके बडाईके अर्थ कलशरूप काव्य ॥
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बसन्ततिलकाछन्दः नैकान्तसङ्गतदृशां स्वयमेव वस्तुतज्यव्यवस्थितिमिति प्रविलोकरन्तः।।
स्थाद्वादशुद्धमधिकामधिगम्य सन्तो ज्ञानीभवन्ति जिननीतिमलङ्घयन्तः ॥१६॥ ६. अर्थ-वस्तु है सो स्वयमेव आपै आप अनेकान्तात्मक है ऐसे वस्तुतत्त्वकी व्यवस्थाकू अनेकान्त-:
" विर्षे संगत कहिये प्राप्तकरि जो दृष्टि ताकरि विलोकते देखते संते सत्पुरुष हैं ते स्याद्वादको अधि卐 कशुद्धीकू अंगीकारकरिकै अर ज्ञानी होय हैं। कैसे भये संते ? जिनेश्वर देवका स्याद्वादन्याय __ ताकू वादी उल्लंघन न करते हैं। 9 भावार्थ-जे सत्पुरुष अनेकांतकू लगाई दृष्टिकरि ऐसे अनेकांतरूप वस्तुतत्त्वकी मर्यादाकू देखते ।
हैं, ते स्याद्वादकी शुद्धिकू पायकरि ज्ञानी होय हैं । अर जिनदेवके स्याद्वादन्यायकू नाही उल्लंघे, "हैं । स्याद्वाद न्याय जैसे वस्तु तैसें कहे है । असत्कल्पना नाहीं करे है । ऐसे स्याद्वादका अधिकार " पूर्ण किया। " अब ज्ञानमात्रभावके उपाय अर उपय ए दाऊ भाव विचारिये हैं। जाते, उपाय तो जाकरि पावनेयोग्य भाव पाइये सो है। ताकू मोक्षमार्ग भी कहिये। बहुरि उपेयभाव जो पावनेयोग्य )
आदरनेयोग्य भाव होय ताकू कहिये । सो आत्माका शुद्ध सर्वकर्मनित रहित भाव है ताकू मोक्ष 卐भी कहिये । सो ययपि ज्ञानमात्र भाव एक है तथापि अनेकांतस्वरूप है । तामै स्याद्वादतें साध्या की ..हवा उपाय उपेय ए दोऊ भाव एकहीमें बने हैं । सो विचारिये हैं। | आत्मा जो वस्तु ताकै ज्ञानमात्रपणा होते भी उपाय-उपेयभाव विद्यमान है ही । जातें ताकै ।
एककै भी स्वयमेव आपैआप साधक अर सिद्ध इनि दोऊरूप परिणामीपणा है । आत्मा तो परि-॥ __णामी है। अर साधकपणा अर सिद्धपणा ए दोऊ परिणाम है । तहां जो साधकरूप है सो तो 5 उपाय है, बहुरि जो सिद्ध है सो उपेय है । यातें इस आत्माकै अनादितें लगाय मिथ्यादर्शन, 5 1. मिथ्याज्ञान मिथ्याचारित्रनिकरि अपना स्वरूपत च्युत होनेते संसारमै भ्रमताकै भलै प्रकार निश्चल
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ग्रहण किया जो व्यवहार सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र ताका पाक कहिये परिपाक पचना ताका प्रकर्ष क कहिये बनेकी परंपरा ताकरि अनुक्रमकरि अपना स्वरूपविषै आपकूं आरोपण करताकै अर अन्तम जो निश्चय सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रका विशेष तिसपणाकरि साधकरूप है । बहुरि तैसें ही फ्र परमप्रकर्ष कहिये बधना ताकी मकरिका कहिये हद ताकूं अधिरूढ कहिये प्राप्त भया जो रत्नत्रय arat अतिशयकार प्रवर्त्या जो समस्त कर्मका नाश ताकरि प्रज्वलित दैदीप्यमान अर अस्खलित 15 कहिये फेरि चि नाहीं ऐसा निर्मल स्वभावभाव तिसपणाकरि सिद्धरूप है । इनि साधक सिद्ध दोऊ भावनिक स्वयमेव आप परिणमता जो एक ज्ञानमात्र भाव सो ही उपायउपेयभात्रकं
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है ।
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भावार्थ - यह आत्मा अनादिकालतें मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्र संसारमै भ्रमे है । सो जब व्यव हार सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकं निश्चल अंगीकार करें, तब अनुक्रमतें अपना स्वरूपका अनुभवनकी वृद्धि करता निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी पूर्णता प्राप्त होय ते तो साधकरूप है । वहुरि निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी पूर्णताकरि समस्त कर्मका नाश होय तब साक्षात् मोक्ष होय । फ्र सो सिद्धरूप भाव है । सो इनि दोऊ भावरूप ज्ञानहीका परिणाम है। सो ही उपायोपेयभाव
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है । ऐसें दोऊ ही भावनिविषै ज्ञानमात्रकै अनन्यपणा है । अन्यपणा नाहीं है । तिलकरि नित्य
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निरंतर नाहीं चिगता जो एकवस्तु ताका निष्कम्प परिग्रहणत तिस ही काल मोक्षके अर्थी पुरुष फ
निकै जो भूमिका अनादिसंसारत लगाय कबहू जिनिने पाई नाहीं ऐसी भूमिका का लाभ तिनिकूं
卐
या प्रकार होय है । तातें ते सत्पुरुष तहां सदाकाल निश्चल भये ते आपही क्रमरूप अर फ 14 अक्रमरूप प्रवर्ते जे अनेकांत कहिये अनेक धर्म तिनिकी मूर्ति भये संते साधकभावतें है संभव
कहिये उत्पत्ति जाकी ऐसी परमप्रकर्षकी हृदरूप जो सिद्धि ताके भावके भाजन होय हैं । बहुरि फ जे इस भूमीकूं नाहीं पाये हैं "कैसी है भूमि ? अंतनत कहिये जामैं गर्भित भये अनेक धर्म ऐसा
जो ज्ञानमात्र एक भाव तिसस्वरूप है" सो ऐसी भूमिकूं जे नाही पावै ते नित्य अज्ञानी होते
卐
६
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संते ज्ञानमात्रभावके अपना स्वरूपकरि नाहीं होना अर पररूपकरि. होना देखते संत, श्रद्धान करते संते, जानते संते, आचरते संते मिथ्यादृष्टि भये संते, मिथ्याज्ञानी भये संते, मिथ्या चारित्री "भये संते, अत्यंत उपायोपेयभावतें भ्रष्ट भये संते संसारमैं भ्रमे ही हैं। अब इस अर्थ के कलशरूप मकाव्य कहे हैं।
बसन्ततिलकाछन्दः 卐
ये शानमात्रनिजभावमयीमकम्पा भूमि श्रयन्ति कथमप्यपनीतमोहाः ।
ने माधकत्वमधिगम्य भवन्ति मिद्धा भूदास्त्वमूमनुपलभ्य परिभ्रमन्ति ॥२०॥ ॐ अर्थ--जे भव्यपुरुष कोई प्रकारकरि कैसे हो दुरि भया है मोह अज्ञान मिथ्यात्व जिनिका
ऐसे हैं, ते ज्ञानमात्र निजभावमयी निश्चलभूमिकाकू आश्रय करे हैं । ते पुरुष साधकपणाकू अंगी"करकरि सिद्ध होय हैं। बहुरि जे मूड मोही अज्ञानी मिध्यादृष्टि हैं, ते इस भूमिकाकू न शय
अर संसारमैं भ्रमे हैं। - अर्थ-जे पुरुष गुरूके उपदेशतें तथा स्वयमेव काललब्धीकू पाय मिथ्यात्वसू रहित होय हैं. मते ज्ञानमात्र अपना स्वरूपकू पाय साधक होय, सिद्ध होय हैं । अर ज्ञानमात्र आत्माकू नाही , ..पावे हैं, ते संसारमैं भ्रमे हैं। अब कहे हैं, जो वह भूमिका ऐसे पावे हैं।
वसन्ततिलकाछन्दः स्याद्वादकौशलसुनिश्चलसंयमाभ्यां यो भाययस्यहरहः स्वमिहीपयुक्तः।
ज्ञानक्रियानयपरस्परतीवमंत्रीपात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमां स एकः ॥२१॥ 卐 अर्थ-जो पुरुष स्याद्वादन्यायका प्रवीणपणा अर निश्चलबतसमितिमुप्तिरूप संयम इनि दोऊ ॥ निकरि अपने ज्ञानस्वरूप आत्माविर्षे उपयोग लगावता संता आत्माकं निरंतर भावे है, सोही पुरुष ज्ञानमय अर क्रियानयकरि इनि दोऊनिकेविर्षे परस्पर भया जो तीन मैत्रीभाव तिसका पात्ररूप ॥ भया इस निजभाबमयी भूमिकाकू पावे है ।
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____भावार्थ-जो ज्ञाननयहीकू ग्रहणकरि क्रियानयकू छोडे है सो प्रमादो स्वच्छन्दभया इस 9 भूमिकू न पावे है। बहुरि जो कियानयहीकू ग्रहणकरि ज्ञाननयकू नाहीं जाने है सो भी शुभ
कर्ममें संतुष्ट भया इस निष्कर्मभूमिकाकू नाही पावे है। बहुरि ज्ञान पाय निश्चल संयमकू अंगीॐ कार करे हैं तिनिकै ज्ञाननयके अर क्रियानयके परस्पर अत्यंत मित्रता होय है ते इस भूमिकाकुंभ 1पावे हैं । इनि दोऊ नयनिका ग्रहणत्यागका रूप का फल पंचास्तिकायग्रंथके अंतमें कया है,.. - तहांतें जानना । अब कहे हैं, इस भूमिकाकू पावे है सो हो आत्माकू पावे है ।
बनन्ततिलकाछन्दः वित्पिण्ड वण्डिमविलासिविकासहासः शुद्धप्रकाशभरनिर्भरसुप्रभातः ।
आनन्दमुस्थितमदास्खलितकरूपस्तस्यैव चायमुदयत्यचलाचिंरात्मा ॥२२॥ अर्थ--जो पुरुष पूर्वोक्त प्रकार भूमिकाकू पावे है तिस हो पुरुषके यह आत्मा उदय होय .. " है। कैसा है आत्मा ! चैतन्यका जो पिंड ताका निरगलविलास करनेवाला जो विकास प्रफुल्लित म होना तिसरूप है हास कहिये फूलना जाका, बहुरि कैसा है ? शुद्धप्रकाशका भर कहिये समूह
ताकरि भला प्रभातसारिखा उदयरूप है। बहुरि कैसा है ? आनंदकरि भले प्रकार तिष्ठया" 卐 सदा नाहीं चिगता है एकरूप जाका ऐसा है। बहुरि कैसा है ? अचल है अर्चि कहिये ज्ञानरूप) दीप्ति जाको ।
भावार्थ-इहां चिपिंड इत्यादि विशेषणते तो अनंतदर्शनका प्रकट होना जनाया है। बहुरि कैसा है ? अचल है ? शुद्धप्रकाश इत्यादि विशेषणते अनंतज्ञानका प्रकट होना जनाया
है। अरु आनंदसुस्थित इत्यादि विशेषणकरि अनंत सुखका प्रकट होना जनाया है। अर 卐 अचलाचि इस विशेषकरि अनंतवीर्यका प्रकट होना जनाया है। पूर्वोक्त भूमीके आश्रयतें ऐसा - आत्मा उदय हो है । अब कहे हैं. ऐसा ही आत्मस्वभाव हमारे प्रकट होऊ ।
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समय
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ககககககககககககக
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हैं । सो मोक्षका इच्छक पुरुष यह ही प्रार्थना करे है, जो मेरा पूर्णस्वभाव आत्मा उदय होऊ 5 अन्यभाव बंधमोक्षमार्गको कथारूप हैं, तिनिकरि कहा प्रयोजन है ? अब कहे हैं, जो नयनिकरि आत्मा साधिये है, परंतु नयहीपरि दृष्टि रहें तौ नयनिके परस्पर विरोध भी है । तातें मैं फ फ नयनिकूं अविरोधकरि आत्मा अनुभॐ हौं ।
वसन्ततिलका छन्दः
फफफफफफफफफफफफफ
卐
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卐
वसन्ततिलका छन्दः
स्याद्वाददीपितलसन्महसि प्रकाशे शुद्धस्वभावमहिमन्युदित भयो ।
किं बन्धमोक्षपथपातिभिरत्यभाषैर्नित्योदयः परमयं स्फुरतु स्वभावः ||२३||
अर्थ--मोवि स्याद्वादकर दीपित कहिये प्रकाशरूप भया है ललाट करता तेजःपुंज क
जामैं, बहुरि शुद्धस्वभावकी है महिमा जामैं ऐसा ज्ञानप्रकाश उदय होतें बन्धमोक्षके मार्ग पटकनेवाले जे अन्यभाव तिनिकरि कहा साध्य है ? मेरे तौ केवल अनंतचतुष्ट्यरूप यह अपना स्वभाव सो निरंतर उदयरूप भया स्फुरायमान होऊ ।
भावार्थ- स्याद्वादकरि यथार्थ आत्मज्ञान भये पीछे याका फल पूर्ण आत्माका प्रकट होना
चित्रात्मशक्तिसमुदायमयोऽयमात्मा सद्यः प्रणम्यति नयेक्षणखण्ड्यमानः । तस्मादखण्डम निराकृतखण्डमेकमेकान्तशान्तमचलं चिदहं महोऽस्मि ||२४||
अर्थ- यह आत्मा है सो चित्र कहिये अनेक प्रकार जे अपनी शक्ति तिनिके समुदायमय
卐
卐
फ है। सो नयनिकी दृष्टिकरि भेदरूप किया हुवा तत्काल खंडखंडरूप होय नाशकं प्राप्त होय है । तातें मैं मेरा आत्मा ऐसे अनुभव हो, जो मै चेतन्यमात्र मह वस्तू हौं । सो कैसा हौं ? नाहीं क 5 निराकरण कीये हैं खंड जामैं तौऊ खंड भेदरहित अखंड हौं, एक हौं, बहुरि एकांतशांतरूप हौं ।
जा कर्मका उदयका लेश नाहीं ऐसा शांतभावमय हौं । अर अचल हौं, कर्मका उदयका चलाया चलूं नाहीं हौं ।
फ..
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भावार्थ-आत्मामैं अनेकशक्ति हैं, अर एक एक शक्तिका ग्राहक एक एक नय है, सो। समय नयनिकी एकांत दृष्टिकरि ही देखिये तो आत्माको खंड खंड होय नाश होय जाय । तातें स्या.. द्वादी नयनिका विरोध मेटि चैतन्यमात्र वस्तु अनेकशक्तिसमूहरूप सामान्यविशेषस्वरूप सर्व
शक्तिमय एकज्ञानमात्र अनुभव करे है। ऐसा वस्तूका स्वरूप है तामें विरोध नाहीं । अब अखंड) - आत्माका ऐसें अनुभव करे सो कहे हैं।
न द्रव्येण खण्डयामि न क्षेत्रेण खण्डयामि न कालेन खण्डयामि ।
न भावेन खण्डयामि सुविशुद्ध एको ज्ञानमात्री भावोऽस्मि । __ अर्थ-ज्ञानी शुद्ध नयका आलम्बन लेकरि ऐसे अनुभवे, जो मैं मेरे शुद्धात्मस्वरूपकू द्रव्य. म करि नाहीं खंडू हौं भेद नाहीं देखू हौं। तथा क्षेत्रकरि नाहीं खंडूं हों। तथा कालकरि नाहीं॥ खंडूं हौं । तथा भावकरि नाही खंडूं हौं । भलै प्रकार विशुद्ध निर्मल एक ज्ञानमय भाव हौं। -
भावार्थ---शुद्धनयकरि देखिये तब द्रव्यक्षेत्रकालभावकरि शुद्ध चैतन्यमात्र भावविर्षे कि 4. भी भेद नाहीं दीखे है । तातें ज्ञानी अभेदज्ञानस्वरूप अनुभवमें भेद नाहीं करे है । अब कहे हैं, जो ज्ञान तो मैं हौं, ज्ञेय ज्ञेय है।
शालिनीछन्दः योऽयं भावो ज्ञानमात्रोऽहमस्मि ज्ञयो शेयज्ञानमात्रः स नैव । यो झंगज्ञानकल्लोलवल्गन् ज्ञानज्ञेयज्ञामद्वस्तुमात्रः||२शा म अर्थ-जो यह ज्ञानमात्र भाव में ही सो ज्ञेयका ज्ञानमात्र ही नाहीं जानना । तो यह
ज्ञानमात्रभाव कैसा जानना ? ज्ञेयनिके आकार जे ज्ञानके कल्लोल तिनिकू विलगता ऐसा ज्ञान
सो ही ज्ञान, सो ही ज्ञेय, सो ही ज्ञाता ऐसें ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञाता इनि तीन भावनिसहित वस्तुमात्र 1- जानना।
भावार्थ-अनुभव करते ज्ञानमात्र अनुभवै । तब बाह्य ज्ञेय तो न्यारे ही हैं ज्ञानमैं पैठे नाही, प बहुरि ज्ञेयनिके आकारकी झलक ज्ञानमैं है । सो ज्ञान भी ज्ञेयाकाररूप दीखे हैं, ए ज्ञानके 15
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ॐ
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- कलोल हैं। सो ऐसा भी ज्ञानका स्वरूप है। अर आपकरि आप जानने योग्य है तातें ज्ञेयरूप " भी है । अर आप ही आपकू जाननेवाला है यातें ज्ञाता भी है । ऐसें तीनूं भाववरूरज्ञान एकम
है। याहीतें सामान्यविशेषरूप वस्तु कहिये तिसमात्र ही ज्ञानमात्र कहिये है । सो अनुमा करने- .. " वाला ऐसे हो अनुभव करे, जो ऐसा ज्ञानभाव यह में हौं। अब कहे हैं, अनुभवको दशामें , 卐 अनेकरूप दीखे हैं। तोऊ यथार्थज्ञाता निर्मठ ज्ञान भूले नाहीं है।
पृष्वोछन्दः कचिल्लसति मेचकं कायमच कामे व कवियुनरमे वकं सहजनेय वचं मम ।
तथापि न विमोहयत्यम रमेधयां तन्मनः परस्परसंहाप्रमशक्ति का भरत ॥२६|| अर्थ-अनुभवन करनेवाला कहे है। जो मेरा आत्मतत्व है सो कहूं तो मेकक लसे है अने卐 卐 काकार दीखे है । बहुरि कहूं अमेवक कहिये अनेकाकाररहित शुद्व एकाकार दोखे है । बहुरि ..
कहूं मेचकामेचक कहिये दोऊ रूप दोखे है। तोऊ जे निर्मलबुद्धि हैं तिनिका मन भमरूप
नाहीं करे है। जातें कैसा है ? परस्पर भले प्रकार मिलो जे प्रकट अनेक शक्ति तिनिका 1- समूहस्वरूप स्फुरायमान होता है।
" भावार्थ-आत्मतत्व है तो अनेकशक्तीकू लिये है। तातें कोई समस्या ता अनक प्राकार के कर्म उदयके निमित्तकरि अनुभवमैं आवे हैं। बहुरि कोई अवस्थामैं शुद्ध एकाकार:अनुभव आवे
हैं । बहुरि कोई अवस्थामैं शुद्धाशुद्धरूप अनुभवमें आये है। तौऊ यथार्थज्ञानी स्थाद्वादक बल卐 करि भमरूप न होय है। जैसा है तैसा माने है। ज्ञानमात्रसूं च्युत न होय है । अब कहे हैं, ... अनेकरूपकू धारता यह आत्माका अद्भुत आश्चर्यकारी विभव है।
- पृथ्वीछन्दः इतो गतमनेकता दधदितः सदाऽप्येकतामितः क्षणविभङ्गुरं ध्र वमितः सदैवोदयात् । इतः परमविस्तृतं धृतमितः प्रदेशनिजैरहो सहजमात्मनस्तदिदमदभुतं वैभवम् ॥ ७॥
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+ अर्थ-अहो ! बडा आश्चर्यकारी ! सो यह आत्माका स्वाभाविक अद्भुत विभव है । जो इतः वय कहिये एकतरफ देखिये तो अनेकताकू धारता है, यह पर्यायष्टि है। बहुरि एकतरफ देखिये तो
5 सदा ही एकताकू धारता है, यह द्रव्यदृष्टि है। बहुरि एकतरफ देखिये तो क्षणभंगुर है, यह 1 भी क्रमभावी पर्यायष्टि है। बहुरि एकतरफ देखिये तो ध्रुव दीख है. यह सहभावी गुणदृष्टि
है । जाते सदा उदयरूप दीखे है। बहुरि एकतरफ देखिये तो परमविस्तारस्वरूप दीखे है, यह + ज्ञान अपेक्षा सर्वगतदृष्टि है। बहुरि एकतरफ देखिये तो अपने प्रदेशनिहींकरि धारिये हैं, यह "प्रदेशनिकी अपेक्षादृष्टि है। ऐसा आश्चर्यरूप विभवकू आत्मा धारे है। 9 भावार्थ-यह द्रव्यपर्यायात्मक अनंतधर्मा वस्तूका स्वभाव है । सो जे पूर्व अज्ञानी है, तिनिके.. .. ज्ञानमें आश्चर्य उपजावे है । सो असंभवती वार्ता है । बहुरि ज्ञानीनिक वस्तुस्वभावमैं आश्चर्य
नाहीं है। तोऊ अद्भुत परम आनंद ऐसा होय है, ऐसा कवह पूर्व न भया । यह आश्चर्य भी 1उपजे है । फेरि इस ही अर्थरूप काव्य है।
पृथ्वीछन्दः कपायकलिरेकतस्स्खलति शान्तिरस्त्येकतो भोपहतिरेकातः स्पृशति ठक्तिरप्यकतः ।
जगत्रितयमकतः स्फुरति चियकारत्येकाः स्वभावमहिमाऽऽत्मनो विजयनेऽभुतादद्भुतः ॥ अर्थ-आल्लाका स्वभावका महिमा है सो अद्भुतते अद्भुत विजयरूप प्रवर्ते है । काहूकरि । ._ बाध्या न जाय है। कैसा है ? एकतरफ दखिये तो कषायनिका कलेश दीखे है । वहुरि एकतरफ।
देखिये तो कषायनिका उपशमरूप शांत भाव है । बहुरि एकतरफ देखिये तो संसारसंबंधी पीडा प - दीखे है । बहरि एकतरफ देखिये तो संसारका अभावरूप मुक्ति भी स्पर्दो है । बहुरि एकतरफ
देखिये तो केवल एक चैतन्यमात्र हो शोभे है। ऐसें अद्भुतते अद्भुत महिमा है। 45 भावार्थ-इहां भी पहले काव्यके भावार्थरूप ही जानना । यह अन्यवादी सुणि बढा आश्चर्य .. "करे हैं । सिनिके चित्तमै विरुद्ध भासे, सो समाहि शके नाही । अर तिनिके कदाचित् श्रद्धा
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" आये तो प्रथम अवस्थामै वडा अद्भुत दीखे, जो हमने अनादिकाल यौँ ही खोया। यह जिनके
卐 वचन बडे उपकारी है, वस्तूका स्वरूप यथार्य जनावे है । ऐसें आश्चर्यकरि प्रधान करे हैं । आगे.. अपटीकाकार इस सर्व विशुद्धज्ञानका अधिकार पूर्ण करे हैं। ताके अंतमङ्गलके अर्थी इस विश्वमा ४ कारहीकू सर्वोत्कृष्ट कहे हैं।
मालिनीछन्दः जयति सहजतेजःपुञ्जमज्जत्रिलोकीस्खलदखिलविकल्पोऽप्येक एव स्वरूपः ।
स्वरसविसरपूर्णाच्छिन्नतावोपलम्भप्रसभनियमितार्चिश्चिच्चमत्कार एषः ॥२६॥ 卐 अर्थ-यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर चैतन्यचमत्कार है सो जयवंत प्रवर्ते है। काहकरि बाध्या न - जाय ऐसें सर्वोत्कृष्ट होय प्रवर्ते है। कैसा है ? अपना स्वभावस्वरूप जो तेजः प्रकाशका पुज" । ताविर्षे मन होते जे तीन लोकके पदार्थ तिनिकरि होते दीखते हैं अनेक विकल्प भेद जामें ऐसा
है। तौऊ एकस्वरूप ही है। भावार्थ-केवलज्ञानमैं सर्व पदार्थ झलके हैं । ते अनेक ज्ञेयाकाररूप
दीखे हैं । तोऊ चैतन्यरूप ज्ञानाकारकी दृष्टीमें एक ही स्वरूप है । बहुरि कैसा है ? अपना निज- 卐 रसकरि पूर्ण ऐसा नाही छिद्या है तत्त्वस्वरूपका पावना जाकै। भावार्थ-प्रतिपक्षी कर्मका.
अभाव भया तातें नाहीं पाया स्वभावका अभाव जाकै ऐसा है । वहुरि कैसा है ? प्रसभ कहिये। 卐 प्रकट बलात्कारै नियमरूप है दीप्ति जाकी। अपना अनंतवीर्यत निष्कंप तिष्ठे है ऐसा चिच्चम- .. त्कार जयवन्त है । इहां जयवन्त कहने में सर्वोत्कर्षकरि वर्तना कह्या, सो यह ही मंगल है। आगे" टीकाकार अपना नामकू प्रकट करते पूर्वोक्त आत्माहीकू आशीर्वाद करे हैं ।
__ अविलितचिदात्मन्यात्मनाऽऽत्मानमात्मन्यनवरतनिमग्न धारयत् ध्वस्तमोहम् ।
उदितममृतचन्द्रज्योतिरेतत्समन्ताज्ज्वलतु विमलपूर्ण निस्सपलस्वभावम् ॥३०॥
अर्थ-यह अमृतचन्दज्योति कहिये जामें मरण नाहीं तथा जाकरि अन्यकै मरण नाहीं सो ... " अमृत, तथा अत्यंत स्वादुरूप मिष्ट होय ताकू लोक रूढिकरि अमृत कहे हैं। ऐसा अमृतमयी जोक
चन्द्रमासारिखा ज्योति प्रकाशस्वरूप ज्ञान, प्रकाशरूप आत्मा, सो उदयकू प्राप्त भया । सो यहा।
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ऊ समंतात् कहिये सर्व तरफ सर्वक्षेत्रकालमैं, ज्वलतु कहिये देदीप्यमान प्रकाशरूप रहौ । कैसा है ? .. अविचलित कहिये निश्चल जो चित् कहिये चेतना सो है स्वरूप जाका ऐसा जो अपना आत्मा, ""
ताविर्षे आपहीकरि अपने आरनुपर्दू निरंतर मना हवा धारता संता है। पाया स्वभावकू कबहू नाहीं - छोड़ता है । वहुरि कैसा है ? धस्त कहिये नाशकू प्राप्त भया है मोह जाका अज्ञान अंधकारकू " दूरि कीया है। बहुरि निस्सपत्न कहिये प्रतिपक्षी कर्मकरि रहित ऐसा है स्वभाव जाका । बहुरिम + कैसा है ? निर्मल है अर पूर्ण है।
___ भावार्थ-इहां आत्मा अमृतचंदज्योति कह्या, सो यह लुप्तोपमा अलंकारकरि कह्या जानना। + जाते, अमृतचंद्रवत् ज्योति ऐसा समासविर्षे वत् शब्दका लोप होय है तब अमृतचंद्रज्योति कहिये ।।
तथा वत् शब्द न करिये तब अमृतचंद्ररूपज्योति ऐसा कहिये । तब भेदरूपक अलंकार है । तथा।
अमृतचन्द्रज्योति ऐसा ही आत्माका नाम कहिये तब अभेदरूपक अलंकार हो है। अर याके 5 विशेषण हैं तिनिकरि चंद्रमा व्यतिरेक भी है। जाते अस्तमोह विशेषण तो अज्ञान अंधकार" " दुरि होना जणावे है। अर निर्मल पूर्ण विशेषण लांछनरहितपणा पूर्णपणा जणावे है। अर) म निःसपत्वस्वभाव विशेषण राहुर्बिवते तथा बादला आदिकरि आच्छादित न होना जणावे है।..
समंतात् ज्वलन है सो सर्वक्षेत्र सर्वकालमें प्रतापरूप प्रकाश करना जणाये है। चंद्रमा ऐसा नाहीं। जबहुरि अमृतचंद्र ऐसा टीकाकार अपने नाम भी जणाया है । बहुरि याका समास पलटिकरिता 1- अर्थ कीजिये तव अनेक अर्थ होय हैं। सो यथासंभव जानने ।
ऐसे समयसारग्रन्थकी आत्मख्याति नाम टीकाकी वचनिकाविषं सर्वविशुद्धज्ञानका प्रवेश 1- नामा नवमां अधिकार पूर्ण भया ॥९॥ इहां ताई गाथा तौ ४१४ भई । अर काव्य २७५ भये । श्लोकसंख्या १२००० है। सवैया–सुखविशुद्धज्ञानरूप सदा चिदानंद करता न भोगता न परद्रव्यभावको ।
मूरतअमूरत जे आनद्रव्य लोकमाहि ते भी ज्ञानरूप नाही न्यारे न अभावको ।।
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यह जानि ज्ञानी जीव आपकू भज सदीव शानरूप सुखनूप आन न लगावको ।
कर्म कर्मफलरूप चेतना दूरि दारि बानचेतना अभ्यास करे शुद्ध धावको ॥१॥ अब संस्कृतटीका पूर्ण करि अमृतचंद्र आचार्य कहे हैं, जो आत्मामैं परसंयोगर्ते अनेक भाव) होय हैं तिनिका वर्णन ग्रंथनिमें होय है, सो सर्व ही वर्णन इस विज्ञानधन, मन्न भये किछू भी... "नाहीं दीखे हैं।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः ___ यस्मात् द्वैतमभूत्पुरा स्वपरयोभू दं यही जन्तरं । रागढ़ पपरिग्रहे सति यती जातं क्रियाकारकः । + भाना च यतोऽनुभूतिराखलं खिन्नक्रियायाः फलं । तद्विज्ञानघनौघमामधुना किदिन वित्किल ॥३॥
अर्थ-यस्मात् कहिये जिसपर संयोगरूप बंधपर्याय जनित अज्ञानतें प्रथम तो अपना अर। ऊपरका द्वैतरूप एकभाव भया. बहुरि जिस द्वैतपणातें अपने स्वरूपविर्षे अंतर भया, बंधपर्यायहीकू
आपा जान्या, वहरि तिस अंतर पडते रागदेषका परिग्रहण भया, तिसके होते क्रिया अर कर्ता कर्म आदि कारकनिकरि भेद पड्या, बहुरि तिस क्रिया कारकके भेदकार आत्माकी अनुभूति है, 卐 - सो क्रियाका समस्तफलकू भोगती संती खेदखिन्न भई सो ऐसा अज्ञान है, सो अब ज्ञान भया।..
तव तिस विज्ञानधनके समूहविर्षे मन्न होय गया सो अब याकू देखिये तो किछू भी नाहीं है।" म यह प्रकट अनुभवमें आवे है। - भावार्थ अज्ञान है सो परसंयोग ज्ञान ही अज्ञानरूप परिणया था। कछु दूजा तो वस्तु। 卐 था नाहीं । सो अव ज्ञानरूप परिणम्या तव किछू भी न रहा। तब इस अज्ञान के निमित्त .. राग, द्वेष, कर्ता, कर्म, सुख, दुःख, आदि भाव होय थे, ते भी विलाये गये। एक ज्ञान ही ज्ञान
रहि गया। तीन कालवर्ती अपना परका सर्व भावनिकू आत्मा ज्ञाता द्रष्टा हुया देखवो करी। IF आगै अमृतचंद्र आचार्य इस ग्रंथ करनेका अभिमानरूप कषायकू दृरि करता संता यथार्थ कहे हैं। .. सन्ततिलकाछन्दः
卐 - स्वशक्तिसंम ितवस्तुतचयाख्या कृतेयं समयम्य शब्दैः । स्वरूपगुप्तस्य न किञ्बदन्ति कर्तव्यमेवास्तचन्द्रसूरः ॥३२॥ ..
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अर्थ-यह समय कहिये आत्मवस्तु तथा समय कहिये समयप्राभृत नाम शास्त्र,
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फ व्याख्या कहिये व्याख्यान तथा यह आत्मख्याति नाम टोका, सो शब्दनिकरि करी है । कैसे हैं शब्द ? अपनी शक्तिहीकरि संसूचित कहिये भलै प्रकार कया है वस्तूका तत्त्व कहिये यथार्थस्वरूप कहिये निज आत्मरूप अमूर्तिक ज्ञानमात्र, तिसविषै गुप्त होय प्रवेशकरि रह्या है । भावार्थ-शद है सो तो पुद्गल है। सो पुरुषके निमित्ततें वर्णपदवाक्यरूप परिणमें है सो वस्तू स्वयमेत्र है । r ranatara 5 संबंध है, सो द्रव्यश्रुतकी रचना शब्दही करना संभव है । अर आत्मा है सो अमूर्तिक है, अर ज्ञानस्वरूप है, तातें मूर्तिक पुद्गलको रचना कैसे करें ? तातें आचार्यने ऐसा कहा है, सो यह फ समप्रभृतकी टीका शब्दनिकरि करी है । मैं मेरा स्वरूपमें लीन हौं । मेरा कर्तव्य यामैं नाहीं है । ऐसें कहने में उद्धतपणाका परिहार भी आवे है । अर निमित्तनैमित्तिकव्यवहारकर ऐसा 5 कहिये ही है, जो विवक्षितकार्य फलाने पुरुषने किया इस न्यायकरि अमृतचंद्र आचार्यकृत यह टीका है हो। इस ही न्यायकरि पढनेसुननेवालेनि तिनिका उपकार भी मानना युक्त हैं ।
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पढने सुनकर परमार्थ आत्माका स्वरूप जान्या जाय है । तिसका श्रद्धान आचरण क
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ये मिथ्या ज्ञान श्रद्धान आचरण दूरि होय है । परंपरा मोक्षकी प्राप्ति होय है । याका निरंतर
अभ्यास करना योग्य है ।
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फफफफफफफफफफफफफ
ऐसें आत्मख्याति नामा समयसारग्रंथकी टीका समाप्त भई । सवईया इकतीसा
कुंदकुंदन किया गाथाचं प्राकृत है प्राभृतसमय शुद्ध आतम दिखावनूं |
सुधाचंद्रसूरि करि संस्कृतीका वर आत्मख्याति नाम यथातथ्य मन भावनं ॥ cant aafaai लिख जयचंद्र पढें संक्षेप अर्थ अल्पबुद्धिकू पावनं । ढोसून मन ला शुद्ध आतमा लखाय ज्ञानरूप गहौ चिदानंद दरसावनूं || १॥ समयमार अधिकारका वर्णन कर्ण सुनंत । द्रव्यभावनो कर्म तजि आतमतन्त्र लखत ॥२॥
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- ऐसे इस समयसारप्रामृतनामा मंथकी आत्मख्याति नामा संस्कृसटीकाको देशभाषामय जवनिका लिखी है । सो यह ताका संक्षेप भावार्थरूपसा अर्थ लिख्या है। संस्कृतटीका, न्यायसे ..सिद्ध भये प्रयोग हैं । तिनिका विस्तार करिये तब अनुमानप्रमाणके प्रयोग प्रतिज्ञा, हेतु, उदा
हरण, उपनय, निगमनरूप हैं, तिनिका स्पष्टकरि व्याख्यान लिखिये तो ग्रंथ बहुत वधै । तथा ॥ आयु बुद्धि बले स्थिरता अल्पतातें जेता बण्या तेता संक्षेपकरि प्रयोजन मात्र लिख्या है। "ताकू वाँचिकरि भव्यजीव पदार्थ समझियो। अर किछू अर्यमें हीनाधिक होय तो बुद्धिमान् 卐मूलग्रंथतें जैसे होय तैसें समझियो । कालदोषते इनि ग्रंथनिको गुरुसम्प्रदायका व्युच्छेद होय गया ._है । तातें जेता बणे तेता अभ्यास होय है। जैनमत स्याद्वादरूप है, सो जे जिनमतको आज्ञा जमाने हैं तिनिके विपरीत श्रद्धान न होय है। कहूं अर्थका अन्यथा समझना भी होय तो विशेष- - बुद्धिमान्का निमित्त मिले यथार्थ होय है। जिनमतके श्रद्धानी हठमाही नाहीं होय हैं ऐसे "जानना ।। अंतमंगलके अर्थ परमेष्ठोकू नमस्कार करि ग्रंथ समाप्त करिये हैं। छप्पय----मंगल श्रीअरहंत घातियाकर्म निवारे | मंगल सिद्ध महंत कर्म आठ परजारे।
आचारिज उवज्झाय मुनी मंगलमय सारे । दीक्षा शिक्षा देय भव्यजीवनितारे। अठत्रीस मूलगुण धार जे सर्वसाधु अणगार हैं । मैं नमू पंचगुरुचरणक् मंगल हेतु करार हैं ॥१॥ जैपूरनगरमांहि तेरापन्थशैली बडी बडे बडे गुनी जहां पटै ग्रंथ सार हैं। जयचन्द्र नाम मैं हूँ तिनिमें अभ्यास किछु किवो बुद्धिसारू धर्मरागत विचारे है ।। समयसारग्रंथ ताकी देशके बचनरूप भाषा करि पढो सुनू करो निरधार है।
आपापर मेद जानि हेय त्यागि उपादेय महो शुद्ध आतमहू यह बात सार है ॥२॥ दोहा-संवत्सर विक्रम तणू अष्टादश शत और । चौसठि कातिक वदि दशै पूरण ग्रंथ सु और ॥३॥ ' इति श्रीमत्कुन्दन्कुदाचार्यकृत समपत्राभृत नामा प्राकृत गाथाबद्धग्रन्थकी अमृतचन्द्राचार्यकृत आत्मख्याति नामा ॥ ___संस्कृतटीकाके अनुसार यह संक्षेपभावार्थमात्र देशभाषामयवनिका संपूर्ण मई ।
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________________ VAPER RATNA AAPSET2 HINGU श्रीमत्कन्दकुन्दाचार्यकृत समयप्राभृतकी श्रीमदाचार्य अमृतचंद्र सूरीकृत संस्कृत टीका तथा पण्डित श्रीजयचन्द्रकृत आत्मख्याति-वचनिका समाप्त. 12 1616RRRRRRRH Pravel