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आत्मख्यातिः-–ज्ञानगुणस्य हि यावज्जघन्यो भावः, यावत् तस्यांत 'हूर्तविपरिणामित्वात् पुनः पुनरन्यतयास्ति
परिणामः । स तु यथाख्यातचारित्रावस्थाया अधस्यादवश्यं भाविरागसद्भावात्, गंधहेतुरेव स्यात् ।
एवं सति कथं ज्ञानी निरासचः १ इति चंद |
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अर्थ-जाते ज्ञानगुण है सो जघन्यज्ञानगुणतें फेरि भी अन्यपणारूप परिणमे है तिस कारण करि सो ज्ञानगुण कर्मका बंध करनेवाला कया है।
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टीका - ज्ञानगुणका जेते जधन्यभाव है- क्षयोपशमरूप भाव है, तेर्ते अंतमुहूर्त विपरिणामी
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है, ज्ञानभावरूप अंतमुहूर्त ही रहे है, पीछ अन्यप्रकार परिणम है । ताते अन्यपणारूप भी याका परिणाम है, सो यथाख्यातचारित्र अवस्थाके नीचे अवश्यंभावी रागपरिणामका सद्भाव है, ता बंधका कारण ही है ।
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भावार्थ- क्षयोपशमज्ञानका एक ज्ञेय परिथंबना अंतमुहूर्त ही है, पीछे अवश्य अन्य ज्ञेयकूं अवलंबे है । तातें स्वरूप भी अंतर्मुहूर्त ही थंभना होय है । तातें ऐसा अनुमान है - जो कथाख्यातचारित्र अवस्थाके नीचे अवश्य रागपरिणामका सद्भाव है, तिस रागके सद्भावतें बंध भी होय है । तातें ज्ञानगुणका जघन्यभाव बंधका कारण कया है । आगे फेरि पूछे है, जा ऐसा है, ज्ञानगुणका जघन्यभाव अन्यपणारूपः परिणाम बंधका कारण है, तो ज्ञानी निरासूव है, ऐसे कैसे फ 5 का ? ताका उत्तरकी गाथा -
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दंसणगाराचरितं जं परिणमदे जहण्णभावेण ।
गाणी ते दु वज्झदि पुग्गलकम्मेण विविहेण ॥९॥ 卐
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கககககழிழிழமிழழகழிக
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दर्शनज्ञानचारित्रं यत्परिणमते जघन्यभावेन ।
ज्ञानी तेन तु बध्यते पुद्गलकर्मणा विविधेन ॥ ९ ॥
आत्मख्यातिः——-यो हि ज्ञानी स बुद्धिपूर्वकरागद्व ेपमोहासवभावाभावात्, निरासव एवं किंतु सोऽपि यावदानं
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प्राभूद
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