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________________ 卐 सवोत्कृष्टभावेन दृष्ट ज्ञातुमनुचरितु वाऽशक्तः सन् जघन्यभावेनैव ज्ञानं पश्यति जानात्यनुचरसि तावत्स्यापि जपन्य-15 समय - भावान्यथानुपपत्त्याऽनुमीयमानाऽबुद्धिपूर्वककलंकविपाकसद्भावात् पुद्गल कर्मबंधः स्यात् । अतस्तावद् झानं दृष्टन्यं ज्ञात-* व्यमनुचरितव्यं च यावद् ज्ञानस्य यावान् पूणो भावस्तावान् दृष्टो ज्ञातोऽनुचरितश्च सम्यग्भवति । ततः साक्षात् ज्ञानीभूतः सर्वथा निरासूव एव स्यात् । ___ अर्थ-दर्शनज्ञानचारित्र हैं ते जो जघन्यभावकरि परिणमे हैं, तिस कारणकरि ज्ञानी अनेक 卐 प्रकार पुद्गलकम करि बंधे है। __टीका-जो निश्चयकरि ज्ञानी है सो बुद्धिपूर्वक रागद्वेष मोहरूप आस्रवभावके अभावतें । निरासूव ही है। तहां यह निट्रोष है-मो ही जानी जेते ज्ञानकं सर्वोत्कृष्टभावकरि देखनेकू जानॐ नेकू आचरनेकू असमर्थ है, अर जघन्यभाव ही करि ज्ञानकू देखे है, जाने है, आचरे है, तेते तिस" ज्ञानीके भी ज्ञान जघन्यभावको अन्यथा अप्रातिकरि अनुमानरूप कोया अबुद्धिपूर्वक कर्ममलकलंकका सद्भाव है । यात पुद्गलकर्मका बंध होय है । यातें यह उपदेश है—जो, तेते ज्ञान देखना जानना आचरण करना, जेते ज्ञानका पूर्णभाव जेता है तेता देख्या जान्या आचऱ्या भले卐 5 प्रकार होय । तापोछे साक्षात् ज्ञानी भया संता सर्वथा निरासर ही होय है। भावार्थ-ज्ञानीकू निरासव ऐसा कहा है, जो, जेते याकै क्षयोपशमज्ञान है, तेते तो बुद्धिपूर्वक अज्ञानमय राग द्वेष मोहका अभाव है, तातें निरासूव कया है। अर जेतें क्षयोपशमज्ञान 卐 है, तेते दर्शन ज्ञान चारित्र जघन्यभावकरि परिणमे हैं, तेते संपूर्णज्ञानकू देख्या जान्या आचरथा" जाय नाहीं है । सो इस जघन्यभाव ही करि ऐसा जानिये है जो, याकै अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंक' 卐 विद्यमान है ताकरि बंध भी होय है, सो चारित्रमोहका उदयकरि है, अज्ञानमय भाव नाहीं है। .. .. तातें ऐसा उपदेश है-जो, जेलें ज्ञान संपूर्ण न होय-केवलझान न उपजे, तेतें ज्ञानहीका ध्यान का निरंतर करना, ज्ञानहीकू देखना, ज्ञानहीकू जानना, ज्ञानहीकू आचरना, इस हो मार्ग चारित्र- मोहका नाश होय है, अर केवलज्ञान उपजे है। तब सर्वप्रकारकरि साक्षात निरासूत्र होय है, यह 55555 卐5
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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