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9 भावार्थ-पुद्गलकर्मकू परमार्थत पुद्गलद्रव्य ही करे है, अर पुद्गलकर्मक होने मनुकूल है
अपना रागादि परिणामकू जीव करे है, तिसका निमित्त नैमित्तिभावकू देखिकरि अज्ञानीके यह भूम +है, जो पुद्गलकर्मक जीव ही करे है सो अनादि अज्ञानतें प्रसिद्ध व्यवहार है। जीवपुदगलका , भेदज्ञान नाही है, तेतें दोऊकी प्रवृत्ति एककीसी ही दीखे है । तातें जेतें भेदज्ञान न होये जेते
दीखे सो कहे, श्रीगुरु भेदज्ञान कराय परमार्थजीवका स्वरूप दिखाय अज्ञानीके प्रतिभास... व्यवहार कहै हैं । आगें इस व्यवहारकू दूषण दे है । गाथा
जदि पुागलकम्ममिणं कुव्वदि तं चेव वेदयदि आदा। दो किरियावादित्तं पसजदि सम्मं जिणावमदं ॥१७॥
यदि पुद्गलकर्मेदं करोति तच्चेव वेदयते आत्मा ।
द्विक्रियाव्यतिरिक्तः प्रसजति स जिनावमतं ॥१७॥ आत्मख्यातिः-इह खलु क्रिया हि तापदखिलापि परिणामलक्षणतया न नाम न परिणामतोस्ति भिमा, परिणा卐 मोपि परिणामपरिणामिनोरभिन्नवस्तुत्वात्परिणामिनो न भिन्नस्ततो या काचन क्रिया किल सकलापि सा क्रियावतो है
न भिन्नति क्रियाकौरव्यतिरिक्ततायां वस्तुस्थित्या प्रतपस्यां यथा व्याप्यन्यापकभावेन स्वपरिणामं करोति, भाज्य卐 भावकभावेन तमेवानुभवतिश्च जीवस्तथा व्याप्यच्यापकभावेन पुद्गलकर्मापि यदि कुर्यात् भाव्यभावकभावेन तदेशानु-卐
भषेञ्च ततो यं स्वपरसमवेतक्रियाद्वयाव्यतिरिक्ततायां प्रमजंत्यां स्वपरयोः परस्परविभागप्रत्यस्तममादनेकात्मकमेकमात्माफ्र नमनुभवन्मिध्यादृष्टितया सर्वज्ञावमतः स्यात् । कुतो द्विक्रियानुभावी मिध्यादृष्टिरिति चेत् ।
_ अर्थ--जो आत्मा इस पुद्गलकर्मकू करे है बहुरि तिसहीकू वेदे है भोगवे है, तौ सो आत्मा
दोय कियातें अभिन्न ठहरे ऐसा प्रसंग आवे है सो यह जिनदेवका मत नाहीं। पर टीका-इस लोकवि जो क्रिया है सो प्रथम तौ समस्तही परिणामस्वरूप है, तातें परिणाम
ही है, किछू भिन्न वस्तू नाहीं । बहुरि परिणाम है सो भी परिणाम अर परिणामी द्रव्य दोऊ
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