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________________ + टीका-जो प्रगटकरि जीवविय कर्म बंधे है ऐसे कहना, बहरि जीवविर्षे कर्म नाहीं बंधे है ऐसें - -5 कहना, ऐसे ए दोऊ विकल्प हैं ते दोऊ ही नयपक्ष हैं। तहां जो इस नयपक्षके विकल्पकू उलंघ्य , वर्ते है छोडे है सो ही समस्त विकल्पनितें दूरवर्ती होय है, सो आप निर्विकल्प एक विज्ञानधन। ऊ स्वभावरूप होयकरि, सो साक्षात् समयसार भलेप्रकार होय है। तहों, प्रथम सौ जो जीवविः कर्म ॥ - बंध्या है ऐसा विकल्प करे है, सो जीवविर्षे कर्म नाहीं बंध्या है, ऐसा एकपक्षकू छोडता संता भी " विकल्पकू नाहीं छोडे है। बहुरि जो जीववि कर्म नाहीं बंध्या है ऐसा विकल्प करे है सोभी , + जीवविर्षे कर्म बंध्या है, ऐसा विकल्परूप पक्षकू छोडता संता भो विकल्पकू नाहीं छोड़े हैं । बहुरि ।। जो जीवविर्षे कर्म बंध्या भी है अर नाहीं भी बंध्या है ऐसा विकल्प करे है सो तिनि दोऊ ही 卐 पक्षकू नाहीं छोडता संता विकल्पकू नाहीं छोडे है । तातें जो समस्त ही नयपक्षकू छोडे है, सो है ही समस्तविकल्पकू छोडे है, बहुरि सो ही समयसारकू अनुभवे है। " भावार्थ-जीव कर्मनिसू बंध्या है तथा नाही बंध्या है, ए दोऊ नयपक्ष हैं। तिनिमें 5 15 काहूने बंधपक्ष पकडी सो विकल्प ही पकड्या । काहूने अबंधपक्ष पकडी सो भी विकल्प ही " पकडया । काहूने दोऊ पक्ष लही सो भी पक्षहीका विकल्प लिया, ऐसे विकल्प छोडि जो 卐 किछू भी पक्ष नाहीं पकडे सो शुद्ध पदार्थका स्वरूप जानि तिसरूप समयसार शुद्धात्मकू पावे है। नयनिका पक्ष पकडना राग है, सो समस्त नयपक्ष छोडि वीतराग समयसार होय है। " फ़ इहां पूछे है, जो ऐसें है तौ नयपक्षका त्यागकी भावनाकू कोन नृत्य करावे है ? ताका उत्तररूप काव्य कहे हैं। उपेन्द्रवज्राछन्दः य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निक्सति नित्यं । विकल्पजालच्युतशांतचित्तास्तएव साक्षादभृतं पिवंति ॥२४॥ + अर्थजे पुरुष नयका पक्षपातकू छोडि अपने स्वरूपविर्षे गुप्त होय निरंतर बसे हैं तेही $ 5 55 55 5 5 h + + +
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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