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प्रामृत
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" जानि, तिसकी साथी संसर्ग करना अर राग करना वर्ग है, ऐसे ही कर्मप्रकृतीका शीलस्वभाव । ॥ कृत्सित निंदने योग्य खोटा जानि, ताका संसर्ग वर्षे है, छोडे है अर ताका राग छोडे हैं। अपने स्वभावमैं रत होय हैं, स्वभावमैं लीन होय हैं।
टीका-जैसे कोई प्रवीण वनका हस्ती आपके बंधके अर्थी समीपवर्तती चंचल मुखकू लीला-' रूप करती मनको रमावनेवाली सुन्दर तथा असुन्दर जे हथणीरूपी कुटिनी ताकू कुत्सितशील .. बुरी जाणि, तिस करि सहित राग अर संसर्ग समीप जाना, दोऊ प्रतिषेधे है, नाहीं करे है।। तैसे ही आत्मा राग रहित ज्ञानी भया संता अपने बंधके अर्थी समीप उदय आवती मनोरमा पर अमनोरमा कहिये शुभरूप तथा अशुभरूप जो समस्त ही कर्मप्रकृति, ताही परमार्थत कुत्सितशील कहिये बुरी जाणि, तिस करि सहित राग अर संसर्ग प्रतिषेधे है।।
भावार्थ-जैसें हस्तीकै पकडनेकू कपटकी हथिणी दिखावे तब हस्ती कामांध भया तिससू राग संसर्ग करि खंदकमें पडी पराधीन होय, दुख भोगवे अर प्रवीण हस्ती होय तो तासू रागा - संसर्ग न करे । तैसें कर्मप्रकृतीकू भली जाणि अज्ञानी तासू राग करै संसर्ग करै, तब बंधमें पड़ी
संसारके दुःख भोगवे, ज्ञानी होय सो तासूसंसर्ग राग नाहीं करे । आगें शुभ अशुभ दोऊ कम हैं ते बंधके कारण हैं अर प्रतिषेधने योग्य हैं यह आगम करि साधे हैं । गाथा--
रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विरागसंपण्णो। एसो जिणोवदेसो तहमा कम्मेसु मारज्ज ॥६॥
रक्तो बध्नाति कर्म मुच्यते जीवो विरागसम्पन्नः ।
एष जिनोपदेशः तस्मात् कर्मसु मारज्यस्व ॥ ६ ॥ आत्मख्यातिः—यः खलु रक्तोऽवश्यमेव कर्म बनीयात् विरक्त एव मुच्येतेत्ययमागमः स सामान्येन रक्तत्त्वनिमिचत्वाच्छुममशुभमुभयकर्माविशेषेण बंधहेतुं साधयति तदुभयमपि कर्मप्रतिषेधयति ।
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