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________________ !! ॐ ७४ ॐ ॐ ॐ 9 भावार्थ-दोय वस्तू हैं ते सर्वथा भिन्न ही हैं प्रदेशभेदरूप ही हैं, दोऊ एक होय परिणमै । नाहीं, एक परिणाम उपजावे नाही, क्रिया एक होय नाहीं । ऐसा नियम है, जो दोय द्रव्य । एक होय परिणमे तो सर्व द्रव्यनिका लोप हो जाय । फेरि इस ही अर्थकू दृढ करे हैं। आर्याछन्दः नैकस्य हि कर्तारी द्वौ स्तो द्वे कर्मणो न चैकल्प । नैकस्य च क्रिये द्वे एकमनेकं यतो न स्यात् ॥६॥ ___अर्थ-एक द्रव्यका दोय कर्ता न होय, बहुरि एक द्रव्यका दोय कर्म न होय, बहुरि एक द्रव्यकी दोय .क्रया न होय । जातें एक द्रव्य हे सो अनेक द्रव्य होय नाहीं।। भावार्थ-यह निश्चयनयकरि नियम है सो शुद्धद्रव्याथिकनय करि का जानना । अब कहे हैं, जो आत्माकै अनादित परद्रव्यका कर्ताकर्मपणाका अज्ञान है सो जो यह परमार्थनयका पहणकरि एक बार भी विलय होय तो फार न आवै। शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः आसंसारत एव धावति परं कुर्वेहमित्युच्चकैः दुर्वारं ननु मोहिनामिह महाहंकाररूपं तमः । सन् नार्थपरिग्रहेण विलयं पकवारं ब्रजेन् तरिक ज्ञानयनस्य बंधनमहो भूगो भोदात्मनः ॥१०॥ अर्थ-इस जगतविर्षे मोही अज्ञानी जीवनिका “यह मैं परद्रव्यकू करूं हूं" ऐसा परद्रव्यका॥ के कर्तृत्वका अहंकाररूप अज्ञानांधकार अनादि संसारतें लगाय चन्या आये है। कैसा है ? अति शयकरि दुर्वार है निवारथा न जाय है। सो आचार्य कहे हैं, जो शुद्यार्थिक अभेदनय परमार्थ है सत्यार्थ है, ताका ग्रहणकरिके जो एक बार भी नाश हो जाय तो यह जीव ज्ञानयन है सो यथार्थज्ञान भये पीछे कहां ज्ञान जाता रहै ? नाहीं जाय, अर ज्ञान न जाय तर कहाँ फेरि अज्ञा-" नतें बंध होय ? कदाचित् नाही होय । __ भावार्थ-इहां तात्पर्य ऐसा, जो अज्ञान तौ अनादि हो का है, परन्तु दर्शनमोहका नाशकरि एक बार यथार्थज्ञान होयकरि क्षायिकसयक्व उपजे तौ फेरि मिथ्यात्व नाही आवे तबक ॐ 乐 $ $$ $$ 听听 乐乐
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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