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________________ ' श्र 听听听听听听听听听听 乐乐 मिथ्याखका बंध न होय अर मिथ्यात्र गये पीछे संसारका बन्धन काहेकू रहै ? मोक्ष हो पावै ऐसा जानना । फेरि विशेषकर कहे हैं। अनुष्टुप छन्दः ___ आत्मभावान्करोत्यात्मा परभावान्सदा परः । आत्मैव ह्यात्मनो भायाः परस्य पर एव ते ॥११॥ ___ अर्थ-आत्मा है सो तो अपने भावनिकू करे है बहुरि परद्रव्य है सो परके भावनिकू करे है। - मासे अपने भाव है से सो आरही हैं बहुरि परभाव हैं ते पर ही हैं यह नियत है। आगें पर. द्रव्यका कर्ताकर्मपणाकै माननेकू अज्ञान कह करि कया, जो ऐसें माने सो मिथ्यादृष्टि है, तहां आशंका उपजे है, जो यह मिथ्यात्वादि भाव कहा वस्तु है ? जो जीवके परिणाम कहिये तो पूर्वेरागादिभावनिकू पुद्गलके परिणाम कहे हैं तातें विरोध आवे है बहुरि पुद्गलके परिणाम ॥ कहिये तो जीवका प्रयोजन नाही, याका फल जीव काहे पावै ? ऐसी आशंका दूर करने कहे हैं। गाथा नीचे लिखी एक गाथाकी आत्मख्याति संस्कृत और हिन्दी टीका उपलग्ध नहीं है इसलिये नहीं छापी गई । तात्पर्यचि टीका मिलती है यह छपी है। पुग्गलकम्मणिमित्तं जह आदा कुणदि अप्पणो भावं। पुग्गलकम्मणिमित्तं तह वेददि अप्पणो भावं॥ पुद्गलकर्मनिमित्तं यथात्मा करोति आत्मनः भावं । - पुद्गलकर्मनिमित्तं तथा वेदयति आत्मनो भावं ॥ वात्पर्यवृतिः—पुग्गलकम्मणिमिनं जह आदा फुणदि अप्पणी भावं-उदयागतं द्रव्यकर्मनिमिचं कृत्वा यथात्मा के निर्विकारस्वसंवित्तिपरिणामशून्यः सन्करोत्यात्मनः समधिन सुखदुःखादिमा परिणामं, पुमगलकम्मणिमिर तह वेददि अपणो भाव-तथैवोदयागवद्गम्यकर्मनिमिचं लग्बा स्वशुद्धात्ममावनोत्ववास्तवसुखास्वादमवेदयन्सन् तमेव कर्मोदयजनि ॥ 乐乐 乐乐 乐乐 乐乐 $$ $
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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