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________________ फ्र मिच्छत्तं पुण दुविहं जीवमजीवं तहेव अण्णाणं । अविरंदि जोगो मोहो कोषादीया इमे भाषा ॥ १९॥ मिथ्यात्वं पुनद्वविधं जीवोऽजीवस्त देवाज्ञानं । अविरतियोगो मोहः क्रोधाचा इमे भावाः ॥ १९ ॥ ६ फ 卐 फ्र 卐 जात्मख्यातिः - मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयो हि भावाः ते तु प्रत्येकं मयूरमुकरंदवज्जीवाजीवाम्यां भाग्य5 मानत्वाज्जीवाजीवौ । तथाहि- - यथा नीलकृष्णहरितीतादयो भावाः स्वद्रव्यस्वभावत्वेन मयूरेण भाग्यमानाः मयूर एवं 55 यथा च नीलहरितपीतादयो भावाः स्वच्छताविकारमात्रेण मुकुरंदेन भाव्यमाना मुकुरंद एव । तथा मिथ्यादर्शनमज्ञानम கமிபிமிககழ\\மிழிகிழி 卐 फ्र 5 वितिरित्यादयो मात्रा: स्वद्रव्यस्वभावत्वेनाजीवेन मान्यमाना अजीव एव । तथैव च मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरविरित्या - 57 यो मावाश्चैतन्यविकारमात्रेण जीवेन भव्यमाना जीव एव । काविह जीवाजीवाविति चेत् । 卐 फ्र अर्थ- पहली गाथामै दोय क्रियावादी मिथ्यादृष्टी कया था। ताका जोडकू पुनः शब्द है 5 सो कहे हैं। मिथ्यात्व कहा सो दोय प्रकार है, एक जीव मिध्यात्व, एक अजीव मिध्यात्व । बहुरि 5 तैसें ही अज्ञान भी दोय प्रकार, जीव अजीव । बहुरि तैसें ही अविरति, योग, मोह, क्रोधादि 5 कषाय जीव अजीव भेवकरि दोय दोष प्रकार ए सर्व ही भाव हैं। 卐 卐 टीका - मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति, इत्यादिक जो भाव हैं ते प्रत्येक न्यारे न्यारे मयूर अर 5 दर्पणकी ज्यौं जीव अजीव करि भाये हुए हैं। तातें जीव भी हैं अजीव भी हैं । सो ही कहे हैं फ्र 5 तस्वकीयरागादिभावं वेदयत्यनुभवति । न च द्रव्यकर्मरूपपरभावमित्यभिप्रायः । अथ चिद्रूपानात्मभावानात्मा करोति 5 तथैवाचिद्रूपान् द्रव्यकर्मादिपरभावान् परः पुद्गलः करोतीत्याख्याति । சு 卐 卐 अर्थ - पुद्गल कर्मों के निमित्तसे आत्मा जिस प्रकार भाव करता है उसी प्रकार पुद्गल के निमित्त उसके फलको भोगता है । कर्मों க 5
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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