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मज्झं परिग्गहो जदि तदो अहमजीविदं तु गच्छेज । णादेव अहं जह्मा तह्मा ण परिग्गहो मज्झ ॥१६॥
मम परिग्रहो यदि तताहऽमजीवतां तु गच्छेयं ।
ज्ञातैवाहं यस्मात्तस्मान्न परिग्रहो मम ॥१६॥ आत्मख्यातिः-यदि परद्रग्यमहं परिगण्हीसं तदावश्यमेवाजीवो ममासो स्वः स्यात् । अहमप्यवश्यमेवाजीव- 卐 1- स्यामुण्य स्वामी स्यां। अजीवस्य तु यः स्वामी स किलाजीवः । एवमवशेनापि मगाजीवत्वमापद्येत । मम तु एको गायक एवं भावः, यः स्वः, अस्यैवाहं स्वामी, नतो माभून्ममाजीवत्वं ज्ञातवाहं भविष्यामि, न परद्रव्यं परिगण्हामि, 卐 अयं च मे निश्चयः।
अर्थ-ज्ञानी ऐसे जाने है, जो मेरे परद्रव्य परिग्रह होय, तो में सी अजीवपणा प्राप्त न होय जाऊ । जाते मैं तो ज्ञाता ही हो, ताते मेरे किछु परिग्रह नाहीं है । " टोका-जो अजीव परद्रव्यकू मैं परिग्रहण करो, तो अजीव मेरा अवश्य स्व होय । बहुरि । + मैं भी उस अजीवका अवश्य स्वामी ठहरौं । जाते यह न्याय है जो अजीवका स्वामी निश्चय
करि होय, सो अजीव ही होय । ऐसें मेरा अजीवपणा अवश्य आय पड़े है। तातें मेरा तौ " 卐 एक ज्ञायक भाव ही है, सो मेरा जो स्त्र है, तिसहीका में स्वामी हौं। तातें मेरे अजीवपणा ॥ ... मति होऊ, मैं तो ज्ञाता ही होऊंगा, परद्रव्यकू नाहीं ग्रहण करूंगा, मेरा यह निश्चय है। । भावार्थ-निश्चयनयकरि यह सिद्धांत है, जो जीवका तौ भाव जीव ही है, तिनहीकरि म जीवकै स्व-स्वामी संबंध है । बहुरि अजीवका भाव अजीव ही है, तिनही करि अजीक्कै स्व.
स्वामी संबंध है। सो जीवके अजीवका परिग्रह मानिये तो जीव अजीवताकू प्राप्त होय । जतातें जीवकै अजीवका परमार्थत परिग्रह मानना मिथ्याबुद्धि है। तातें ज्ञानीकै यह मिथ्याधुन्द्वि
"होय नाहीं । शानी तो ऐसे माने है जो परद्रव्य मेरे परिग्रह नाहीं, मैं तौ ज्ञाता हौं । आगे कहे 卐हैं, जो ऐसें मानते ज्ञानीके परद्रव्यके बिगडने सुधरनेवि समता है। गाथा ॥
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