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________________ 99 छिजदु वा भिजदु वा णिजदुवा अहव जादु विप्पलयं । # जमा तहमा गच्छदु तहावि ण परिग्गहो मज्झ ॥१७॥ छियतां वा भिद्यतां का नीयतां अथवा यातु विप्रलयं । यस्मात्तस्माद् गच्छतु तथापि न परिग्रहो मम ॥१७॥ बात्मख्यातिः-छिद्यवां वा भिद्यतां वा नीयता वा विप्रलयं यातु वा यतस्ततो गच्छन्तु वा तवापि न परद्रम पारिवामि । पदको नाम भन नवं आई परन्यस्य स्वामी । परगन्यमेव परद्रन्यस्य स्वं परगन्यमेव परम्पस्य म स्वामी । अहमेव मम स्वं अहमेव मम स्वामीति जानाति । र अर्थ-ज्ञानी ऐसे विचारे, जो परद्रव्य है, सो छिदि जावो अथवा भिदि जावो अथवा कोई "ले जावो अथवा नष्ट हो जावो विनशि जावो जिस तिस कारण जावो, तौऊ निश्चयकरि मेरा "परद्रव्य परिग्रह नाहीं है। " टीका-परद्रव्य छिदो वा भिदो, वा कोई ल्यो, वा प्रलय हो जावो, वा जिस तिस कारणते 4 जावो, तौऊ मैं परद्रव्यक परिग्रहण नाहीं करौ हौं । जातै परद्रव्य मेरा स्व नाहीं, मैं परद्रव्यका स्वामी नाहीं । परद्रव्य ही परद्रव्यका स्व है, परद्रव्य ही परद्रव्यका स्वामी है। मैं ही मेरा स्व हौं, 9 में ही मेरा स्वामी हौं ऐसें जानू हौं। भावार्थ-ज्ञानीकै परद्रव्यका बिगडने सुधरनेका हर्षविषाद नाही है। अब इस अर्थका कलशरूप तथा अगिले कथनकी सूचनिकारूप काव्य कहे हैं। वसन्ततिलकाछन्दः । — इत्थं परिग्रहमपास्य समस्तमेव सामान्यतः स्वपरयोरविवेकहेतुम् । अज्ञानमूझतुमना अधुना विशेषाद् भूयस्तमेव परिहतु मयं प्रवृत्तः ।। १३ ॥ अर्थ-याप्रकार परिग्रहकू सामान्यकरि समस्तहीकू छोडिकरि, अब आप अरपरका अविवेकका 卐 । 卐भ.55555; 5
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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