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________________ $ 5 $ प्रामा + $ 5 + + ++ है। अब इस कथनकू गाथामैं कहे हैं। ताहां प्रथम ही निःशंकित अंगकी गाथा जो चत्तारिवि पाए छिंददि ते कम्ममोहबाधकरे । सो णिस्संको चेदा सम्मादिट्टी मुणेदव्वो ॥३७॥ यश्चतुरोपि पादान् छिनत्ति तान् कर्ममोहवाधाकरान् । स निशंकश्चेतयिता सम्यग्दृष्टिीतव्यः ॥३७॥ + आरमख्याति:---यतो हि सम्यग्दृष्टिः, टंकोत्कीर्णंकनायकभावमयत्वेन कर्मबंधकाकरमिध्यात्वादिभावामावा- . ___ निशंकः, ततोऽस्य शंकाकतो नास्ति बंधः । किं तु निरव । का अर्थ-जो आत्मा कर्म के बंधका कारण जो मोह, ताके करनेवाले मिथ्यात्वादि भावरूप ॥ च्यारि पाय, तिनिकू निशंक भया संता काटे है, सो आत्मा निःशंक सम्यग्दृष्टि जानना। टीका-जातें सम्यग्दृष्टि है सो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमय है, तिस भावकरि कर्मबंधका 卐 कारण शंकाके करनेवाले ऐसे मिथ्यात्व अविरति कषाय योग ए च्यारि भाव, तिनिका याके अभाव है, तातें निःशंक है, ताते याकै शंकाकरि किया हुवा बंध नाहीं है । तो कहा है ? निर्जरा . भावार्थ-सम्यग्दृष्टिके कर्म उक्य आवे है ताका आप स्वामीपणाका अभावतें कर्ता न होय । ना है। तातें भयप्रकृतिका उदय आवते भी शंकाका अभावते स्वरूपते च्युत नाहीं होय है, निःशंक है। तातें याकै शंकाकृत बंध नाहीं होय है, कर्म रस दे खिरि जाप है। आगे निष्काक्षित गुणकी गाथा है जो ण करेदि दु कंखं कम्मफले तहय सव्वधम्मसु । ॐ सो णिक्कंखो चेदा सम्मादिछी मुणेदव्वो ॥३८॥ + + ++ 卐卐
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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