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________________ ॥ | अर्थ-ऐसें अज्ञानरूपभी तथा ज्ञान रूप भी आत्माहीकू करता संता आत्मा प्रगटपणेमस्नेही हैभाषका कर्ता है, भालका कर्ता तो कई ही नहीं है। आगें अगली गाथाकी सूचनिकाल्प मार श्लोक है। आत्मा शानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किं । परभावस्य कत्मिा मोहोयं व्यवहारिणा ॥१७॥ तथा हि + + + 5. अर्थ-आत्मा ज्ञानस्वरूप है, सो आप ज्ञान ही है, ज्ञानतें अन्यकू कौनकू करें ? काहूकून करे। बहुरि परभावका कर्ता आत्मा है यह मानना तथा कहना है सो व्यवहारी जिवनिका मोह है अज्ञान है। आगें सो ही कहे हैं, जो व्यवहारी जीव ऐसे कहे हैं। गाथा ववहारेण दु एवं करेदि घडपडरथाणि दव्वाणि । करणाणि य कम्माणि य णोकम्माणीह विविहाणि ॥३०॥ व्यवहारेण वात्मा करोति घटपटरयान् द्रव्याणि । करणानि च कर्माणि च नोकर्माणीह विविधानि ॥३०॥ आत्मख्याति:-व्यवहारिणां हि यतो यथायमात्मात्मविकल्पच्यापाराभ्यां घटादिपरद्रव्यात्मकं बहिःकर्म कुर्वन् , प्रतिभाति ततस्तथा क्रोधादिपरद्रव्यात्मकं च समस्तमंतःकर्मापि करोत्यविशेषादित्यस्ति व्यामोहः । स न सन् । . अर्थ-आत्मा व्यवहारकरि घट पट रथ इनि वस्तुनिषू करे है, बहुरि इंद्रियादिक करण पदार्थ ॥ हैं तिनिकू करे है, बहुरि ज्ञानावरणादि तथा क्रोधादिक द्रव्यकर्म भावकर्मनिकू करे है, बहुरि शरीर आदि अनेक प्रकारके नोकर्मनिषू करे है । टीकाजाते व्यवहारी जीवनिकै यह आत्मा, जैसे अपने विकल्प अर व्यापार इनि दोऊनि म करि घट आदि परद्रव्यस्वरूप बाधकर्म करता संता प्रतिभासे है, ताते तैसें ही क्रोधाविक + + + +
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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