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________________ होय है। लोक अंधारे में जेवडेकू सर्प मानि डरिकरि भागे हैं। ऐसे ही यह आत्मा, जैसे बात- करि समुद्र क्षोभरूप होय, तेसैं अज्ञानकरि अनेक विकल्पनितें क्षोभरूप होय है। सो परमात शुद्धज्ञानधन है, तौऊ अज्ञानतें कर्ता होय है। बसन्ततिलकाछन्दः ज्ञानाद्विवेचकतया तु परात्मनोर्यों जानाति हंस इस वापपसोविशेष । चैतन्यधातुमचलं स सदाधिरूढो जानाति एव हि करोति न किंचनापि ॥१॥ अर्थ-जो पुरुष ज्ञानतें बहुरि विवेकी भेदज्ञानीपणात परका अर आत्माका विशेषकर भेद जाने है “जैसे हंस दूधजल मिले हुये हैं, तोऊ तिनिका भेदकरि ग्रहण करे है तैसे" सो पुरुष 5 चैतन्यधातु अचलकू' सदा आश्रय करता संता जाने ही है, ज्ञाता ही है, किछू भी नाही का है। ___ भावार्थ-आपापरका भेद जाने है सो ज्ञाता ही है, कर्ता नाहीं है। आगे कहे हैं, जो जानिये है सो ज्ञानहीतें जानिये है। मन्दाक्रान्ताछन्दः झानादेव ज्वलनपयसोरौष्ण्यशैत्यव्यवस्था ज्ञानादेवोलसति लवणस्वादमेदभ्युदासः । झानादेव स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः क्रोधादेश्च प्रभवति मिदा भिदती क भावं ॥१५॥ अर्थ-अग्निकी अर जलकी उष्णपणाकी अर शीतपणाकी व्यवस्था है सो ज्ञानहोत जानिये । है। बहुरि लवणका अर व्यंजनका स्वादका भेद है सो ज्ञानहीतें जानिये है। बहुरि अपने रसकार + विकासरूप होता जो नित्य चैतन्यधातु, ताका अर क्रोधादिक भावका भेद है सो भी ज्ञानहाते 卐 जानिये है। कैसा है यह भेद ? कर्तापणाका भाव है ताकू भेदरूप करता संता प्रगट होय है।' फेरि कहे हैं, जो आत्मा कर्ता होय है, तौऊ अपने ही भावका है। अनुष्टुप्छन्दः अज्ञानं ज्ञानमप्येवं कुर्वन्नात्मानमजसा । सात्कास्मात्मभावस्य परमावस्य म विद ॥१२॥ ज 历听听 $ $$ $ 乐乐 乐乐 乐乐 乐乐 乐 ॐ ॥ + + + +
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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