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अर्थ - ओ पुरुष आप निश्चयतें ज्ञानस्वरूप होता संता भी अज्ञानतें तृण सहित अन्नादिक 5 सुन्दर आहार मिल्या हुआ खानेवाला हस्ती आदि तिर्यचकी ज्यों होय प्रसन्न होय है, सो कहा करे है ताका दृष्टांत कहे हैं। जैसे कोई रसाल कहिये शिखरिणीकू पीयकरि तिसके दही 5 मीठेका मिल्या दुवा खाटा मीठा रस, तिसकी अति चाहि करि तिसका रस भेदकून जानि करि 5 दूधके अर्थि गऊ दोहे है ।
भावार्थ- कोई पुरुष शिखरिणी पीय करि ताके स्वादकी अति चाहितें रसका ज्ञान विना 5 ऐसा जान्या जो यह गऊका दूधमें स्वाद है । सो गऊकू अति लुब्ध होय दोहे है, तैसें अज्ञानी पुरुष आपा परका भेद न जानि विषयनिमें स्वाद जानि पुद्गल कर्मकू अति लुब्ध होय ग्रहण करे फ है, अपना ज्ञानका अर पुल कर्मका स्वाद भिन्न नाहीं अनुभव है । तिर्यचकी ज्यों अन्नकूं घास में मिल्या एक स्वाद ले है । फेरि कहे हैं, जो ऐसें अज्ञानतें पुद्गल कर्मका कर्ता होय है । शार्दूलविक्रीडित छन्दः
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बसन्ततिलकाछन्दः
अज्ञानतस्तु सवणाभ्यवहारकारी ज्ञानं स्वयं किल मवन्नपि रज्यते यः ।
पीत्वा दधीक्षमधुराम्लरसातिगृद्धथा गां दोग्धि दुग्धमिव नूनमसौ रसालं ॥ १२२॥
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अज्ञानान्मृगतृष्णको जलधिया थाति पातु मृगा अज्ञानात्तमसि द्रवंति भुजगाभ्यासेन रज्जौ जनाः ।
अज्ञानाच्च विकल्पचक्रकरणाद्वातोत्तरं गान्धिवत् शुद्धज्ञानमया अपि स्वयममी कर्त्री भवत्याकुलाः ॥ १३ ॥
अर्थ--ए लोकके जन हैं ते निश्चयकरि शुद्ध एक ज्ञानमय हैं, तौऊ आप अज्ञानतें व्याकुल
होय परद्रव्यका कर्तारूप होय हैं । जैसें पवनकरि कल्लोलनिसहित समुद्र होय है, तैसे विकल्पनिके
5 समूह करें है यातें कर्ता बने हैं। देखो - अज्ञानहीतें मृग हैं ते भाडलीकूं जल जानि पीवनेकूं दौडे ! हैं, बहुरि अज्ञानहीतें लोक अंधकार में जेवडेविषै सर्पका निश्चय करि भयकरि भागे हैं ।
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भावार्थ - अज्ञानतें कहा कहा न होय ? मृग तौ भाडलीकूं जल जानि पीवनैकूं दौडि खेदखिन्न