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________________ 1 + + + अर्थ-यह पूर्वोक्त ज्ञानस्वरूप नित्य आत्मा है, सो सिद्धि जो स्वरूपका प्राप्ति साके इच्छक पुरुषनिकरि साध्यसाधकभावके भेदकरि दोय प्रकारकरि एकही सेवनेयोग्य है, सो सेवो। भावार्थ-आत्मा तौ ज्ञानस्वरूप एकही है, परंतु याका पूर्णरूप साध्यभाव है अर अपूर्णरूप 5 साधकभाव है, ऐसें भावभेदकरि दोय प्रकारकरि एकही सेवना। तहां दर्शनज्ञानचारित्ररूप साधकभाव है, सोही गाथामैं कह्या है । गाथा दसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्छ। ताणि पुण जाण तिण्णिवि अप्पाणं चैव णिच्छयदो॥१६॥ नीचे लिखी एक गाथाकी आत्मख्याति संस्कृत और हिन्दी टीका उपलब्ध नहीं है इसलिये नहीं छापी गई। म तात्पर्यदृचि टीका मिलती है यह छापी है। आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दसणे चरित्ते य। आदा पञ्चक्खाणे आदा में संवरे जोगे। आत्मा स्फुटं मम ज्ञाने आत्मा में दर्शने चारिने छ। आत्मा' प्रत्याख्याने आत्मा मे संवरे योगे ॥ तात्पर्यवृत्तिः-आदा शुद्धात्मा सु स्फुटं मज्झ मम भवति का विषये णाणे आदा मे दंसणे चरिते य आदा पञ्चखाणे आदा मे संवरे जोगे सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रप्रत्यारूपानसंबरयोगभावनाविषये। योगे कोः निविकल्पसमाधौ . परमसामायिके परमध्याने चैत्येको भावः भोगाकांक्षानिदानबंधशल्यादिभावरहिते शुद्धात्मनि ध्याते सर्व सम्यग्नानादिक लम्यत इत्यर्थः एवं शुद्धनयव्याख्यानमुख्यत्वेन प्रमथस्यले गाथात्रयं गतं । इत ऊर्ध्व भंदाभेदरत्नत्रयमुख्यत्वेन गाथा- 4 प्रयं कथ्यते तद्यथा-प्रथम गाथायां पूर्वार्द्धन भेदरत्नत्रयभावनामपरार्द्धन चाभेदरत्नायभावनां कथयति । भाषा-अर्थ--सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र प्रत्याख्यान संवर योग भावना में मेरे शुद्ध आत्मा हो 卐s जाती है अर्थात् भोगाकांक्षा निदान बंध शल्य आदि रहित शुद्ध आत्माका ध्यान करनेसे सम्य + + + प्र
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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