SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परद्रव्यते न्यारा अपने पयोनिविर्षे एकरूप निश्चल अपने गुणनिवियें एकरूप परनिमित्त भये , भावनितें भिन्न अपना स्वरूपकी अनुभवन है सोही ज्ञानका अनुभवन है। अर यह अनुभवन है 15 सो भावश्रुतज्ञानरूप जो जिनशासन ताका अनुभवन है। शुद्धन्यकरि यामैं किछू भेद नाहीं है। अब इसही अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं। पृथ्वीछन्दः अखंडितमनाकुलं ज्वलदनन्तमंत हिमहः परममस्तु नः सहजमुद्विलासं सदा । चिदुच्छलननिर्भरं सकलकालमालम्बते यदेकरसमुल्लसल्लघपाखिल्यलीलायितम् ॥१४॥ अर्थ-आचार्य कहे हैं, जो तत् कहिये सो परम उत्कृष्ट मह कहिये तेज प्रकाशरूप हमारे होऊ, जो सदाकाल चैतन्यका उच्छलन कहिये परिणामान ताकार भया जैसे लूणकी डली एक क्षाररसकी लीलोकू आलम्बन करे है, तैसें एक ज्ञानसस्वरूपकू आलंबन कर है। बहुरि सो तेज कैसा है ? ' अखंडित है, जामें शेयनिका आकाररूप नाहीं खंडते है। बहुरि फैसा है ? अनाकुल है, जामैं कर्मके निमित्तते भये रागादक तिनिकरि भई जो आकुलता सो नाहीं है। बहुरि कैसा है ? ' 'अन्तर्बहिरनन्तं ज्वलत् कहिये अंतरहित अविनाशी जैसे होय तैसें । अंतरंग तो चैतन्यभावकार दैदीप्यमान अनुभवमें आवे है अर बाह्य वचनकायकी क्रियाकरि प्रगट देदीप्यमान हो है, जान्या । ॥ जाय है। बहुरि सहज कहिये स्वभावकरि भया है, काहूने रचा नाहीं है बहुरि 'सदा उद्विलास कहिये निरंतर उदयरूपहै विलास जाका एकरूप प्रतिभासन है। भावार्थ-आचार्य ने प्रार्थना करी है, जो यह स्वरूप ज्योतिर्ज्ञानानन्दमय एकाकार हमारे ॥ सदा प्राप्त रहो, ऐसा जानना । आगें आगिली गाथाकी सुचनिकाका श्लोक है। ___ अनुष्टुप्छन्दः एष ज्ञानपनो नित्यमात्मसिद्धिमभीप्सुभिः । साध्यसाधकमादेन द्विधैकः समुपास्यताम् ॥ १५॥ 55+म+++++फ卐 if $ $$ $ 听听听听 555
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy