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- कर्मका प्रत्याख्यान कर अपना चैतन्यस्वरूपविर्षे वर्ते है । इहां तात्पर्य ऐसा जानना-जो व्यव
हारचारित्रमें तो ज्यौं प्रतिज्ञामै दोष लागै ताका प्रतिक्रमणं, आलोचना, प्रत्याख्यान होय हैं।॥ अर इहां निश्चयचारित्रका प्रधानपणे कथन है। सोशुद्धोपयोगसू विपरीत समस्त ही कर्म आत्माके ... दोपस्वरूप है । तिनि सर्व ही कर्मचेतनास्वरूप परिणामका ज्ञानी तीन कालके कर्मका प्रतिक्रमण आलोचना प्रत्याख्यानकरि समस्तकर्म चेतनासून्यारा अपना शुद्धोपयोगस्वरूप आत्माका ज्ञानश्रद्धान करि, अर तिसमें थिर होनेका विधान करि निष्प्रमाद दशाकू प्राप्त होय । श्रेणी चढि । केवलज्ञान उपजावने सन्मुख होय है । यह ज्ञानीका कार्य है। ऐसा प्रत्याख्यानकल्प समाप्त किया । आगें सकलकर्मका संन्यास कहिये क्षेपणा, पाटकी देना, टाको भावना मृरा कराय" कथन पूरण करनेका काव्य है।
उपजातिछन्दः ममस्तमित्येवमपास्य कर्म – कालिकं शुद्धनयावलम्बी । विलीनमोहो रहितं विकारविचन्मात्रमात्मानमथावलम्चे ॥३६॥5
अय सकलकर्मफलसंन्यामभावनां नाटयति । ____ अर्थ-शुद्धनयका अवलंबन करनेवाला कहे है, जो इत्येवं कहिये पूर्वोक्तप्रकार तीन काल.. अतीत वर्तमान भविष्यत्-संबंधी कर्मकू निराकरणकरि छोडिकरि अर शुद्धनयका अवलंबन कर-45 नेवाला ज्ञानीमैं हौं । सो विलय भया है मोह मिथ्यातकर्म जाका ऐसा भया संता अब सम-" स्तविकारते रहित चैतन्यमात्र आत्माकू अवलंबू हौं। अब सकल कर्मफलका संन्यासकी भावनाक नृत्य करावे हैं। ताका टीकामें संस्कृतपाठ ऐसा है-तहां प्रथम तो समुञ्चय अर्थका... काव्य है।
आर्याछन्दः विगलन्तु कर्मविषतरुफलानि मम भुक्तिमन्तरेणैव । सञ्चेनयेऽहमचलं चैतन्यारमानमात्मानम् ॥३७॥ ___अर्थ--सकलकर्मफलको संन्यासभावना करनेवाला कहे है, जो कर्मरूपी विषका रक्षक फलक
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