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________________ राग तो भया नाहीं अर शुभत्र्यवहारकू छोडि स्वच्छन्दप्रमादी होय प्रवर्ते। ऐसे होय तौ नयसम विभागमें समझा नाहीं उल्टा मिथ्यात्र ही भया । ऐसें मंदबुद्धीनिईके यथार्थज्ञान होनेका प्रयो-5 जन जानि इस प्रन्यकी पचनिकाका प्रारम्भ कीया है ऐसें जानना । आगें इस प्रन्यकी पीठिका लिखिये हैं। तहां इस ग्रन्थमै अधिकार नव हैं । तिनिके नाम-5 जीवाजीव १, कतृकर्म २, पुण्यपाप ३, आस्त्रव १, संवर ५, निर्जरा ६, बंध ७, मोक्ष - सर्वविशुद्ध ९, ऐसें । तहां प्रथम जीवाजीव अधिकारकी गाथा अडसठि हैं। तहां पहले तो टीकाकार रंगभूमिका स्थल बांध्या है । ताकी गाथा अडतीस हैं। तहां प्रथम ही एक गाथामें मालाचरण करी । बहुरि दूजी गाथामें जीवनामा पदार्थका स्वरूप का है। यह जीवाजीवरूप षड्द्रव्या-" त्मक लोक है। तिनिमें धर्म, अधर्म, आकाश, काल से चारि हुए तो स्वभावपरिणतिस्वरूपही है। अर जीव अर पुदलद्रव्यके अनादिसंयोगते विभावपरिणति भी है। तातें पुद्गल स्पर्शरसगंध वर्णशब्दरूप मूर्तिक हैं। ता जीव देखिकरि रागद्बषमोहरूप परिणम है। अर इसके निमित्तते) + पुगलकर्मरूप होय जीवत बंधे है । ऐसें इनिकें अनादिहीतें बंधावस्था है। सो जब निमित्त पाय... रागादिक रूप न परिणमै तब नवीन कर्म बंध नाहीं। पुरातनकर्म झडिजाय तब मोक्ष होय ।। ऐसें जोवकै स्वसमयपरसमयकी प्रवृत्ति होय है। सो जब जीव सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रस्वभावरूप अपना स्वभावरूप परिणमै तब स्वसमय होय । अर मिथ्यादर्शनशानचारित्ररूप परिणम है तेते" पुगलकर्मकेविर्षे तिष्ठ्या परसमय है, ऐसे कहा है। ___आगें तीसरी माथामें कही है, जो जीवके पुद्गलकर्मके बंधते परसमयपणा है,. सो यह सुन्दर नाही, यामें जीव संसारमें भ्रमता अनेक प्रकार दुःख पाये है। तातें स्वभावमें तिष्ठे न्यारा होय एकला तिष्ठे तब सुन्दर । आगें चौथा गाथामैं कही है, जो यह जीवका न्यारापणाका अर एक पणाका पावना दुर्लभ है। जातें बंधकी कथा तौ सर्वप्राणी करे हैं । अर यह कथा विरलै जाने हैं,। + तातें दुर्लभ हैं । आगे कहे हैं जो यह कथा हमारा ज्ञानका विभवका सर्वस्वकरि हम कहे हैं, सो॥ 听听听听听听听听听听 s =
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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