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________________ 卐 अन्य भी अपना अनुभवतें परीक्षा करि ग्रहण फिजियो । आगें जीवकूं शुद्धन्य करि देखिये तब 卐 प्रमत्त अप्रमत्त दोऊ दशातें न्यारा एक ज्ञायकभावमात्र देखिये, जो जाननेवाला है सोही जीव है फ ऐसें कहा है । 卐 फ्र 卐 15 आगे इस ज्ञायकभावमात्र आत्माके दर्शनज्ञानचारित्रका भेदकर भी अशुद्धपणा नाहीं है, ज्ञायक है सो ज्ञायक ही है ऐसें कया है । आगें आत्माकूं व्यवहारनय अशुद्ध कहे हैं । ताके उपदेशका प्रयोजन गाथा तीनमें कया है । आगे शुद्धनयकुं सत्यार्थ कया है व्यवहारनयकुं असत्यार्थ का है। आगे का हैं, जो, जे स्वरूपका शुद्ध परमभावकू पहुंच गये तिनिकै तौ शुद्धयही प्रयो जनवान है। अर जे साधक अवस्था में हैं तिनके व्यवहारनय भी प्रयोजनवान् हैं ऐसें कया है । आगे कहा है जीवादितानि शुद्धनयकरि जानना यह सम्यक्त्व है। आगे शुद्धयका विषयभूत आत्माकं बध्द स्पृष्ट, अन्य, अनियत, विशेषसंयुक्त इनि पांच भावनित रहित का है। आगेनया विषय आत्मा जाने सो सम्मान है ऐसे कहा है । आगे सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वक चारित्र' साधूकरि सेवर्नेयोग्य है ऐसें दृष्टांत सहित कया है । आगें शुद्धन्यके विषयभूत आत्माकूं न जाने जे जीव ते अज्ञानी हैं ऐसें कया है । आगे अज्ञानी समझावनेकी रीति कही है। आगे अज्ञानी जीवदेहकूं एक देखि तीर्थंकरकी स्तुतिका प्रश्न किया, ताकै प्रश्नका उत्तर है । आगें इस 15 उत्तर में जीवदेहकी भिन्नता दिखाई है। आगे शिष्यका प्रश्न जो चारित्र में प्रत्याख्यान झा, सो प्रत्याख्यान कहा है, ताका उत्तर है, जो ज्ञानही प्रत्याख्यान है । " 卐 卐 பிகுழ****\\\\ 5 卐 卐 आगे दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप परिणया आत्माका स्वरूप कहिकरि रंगभूमिकाका स्थल गाथा अठतीसमें पूर्ण किया है। आगे जोव अजीव दोऊ बंधपर्यायरूप होय एकप्रतिभासमें आवै हैं, तिनिमें' फ जीवका स्वरूप न जानते अज्ञानी हैं, ते जीवकी कल्पना अध्यवसानादिक भावरूप अन्यथा करें हैं तिनका प्रकार गाथा पांचमें कहा है। आगे जीक्का स्वरूप अन्यथा कल्पे हैं तिनिका निषेधकी 卐 गाथा एक है। आगे अध्यवसानादिकभाव पुद्गलमय हैं जीव नाहीं हैं ऐसें कहा है। आगे अध्यक- फ्र ર L
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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