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________________ ॐ5555 1 + 4. करि एक ज्ञानमात्र अखंड प्रतिभासका अनुभवन करना। यह ही सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान नाम । "पावे है किछु न्यारा ही है नाहीं । अब याही अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं। शालविक्रीडितच्छन्दः । आक्रामन्नविकल्यभावमचलं पक्षैर्नयानां विना सारो यः समयस्य भाति निमृतैरास्याधमानः स्वयं ।। विज्ञान करसः स एष भगवान्पुण्यः पुराणः पुमान् ज्ञानं दर्शनमप्ययं किमथया पत्किचनकोप्ययं ॥४८॥ ___ अर्थ-जो नयनिका पक्षविना निर्विकल्पभावकू प्राप्त होता, निश्चल जैसे होय तैसें समय कहिये आगम अथवा आत्मा, ताका सार है सो साभ है । सो कैसा है ? जे निश्चितपुरुष हैं तिनि ॥ करि स्वयं आस्वाद्यमान है, तिनिने अनुभवतें जाणि लिया है । सो ही यह भगवान् विज्ञान ही "है एकरस जाका ऐसा है, सो पवित्र पुराणपुरुष है, याकू ज्ञान कहौ अथवा दर्शन कहो अथवा . 卐 किछ और नामकर कहो, जो कछु है सो यह एक ही है, नाना नाम कहावे है। अब कहे हैं, ... जो यह आत्मा ज्ञानते च्युत भया था सो ज्ञानहीलू आय मिले है। ___ शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः दुरं भूरिविजयजानगहने भ्राम्यनिजीपाच्च्युतो दूरादेव विवेकनिम्नगमनान्नीतो निजीयं बलात् । विज्ञान शासन करीनामात्मनमारमा हरन् आत्मन्येव सदा गतानुगतामायात्ययं तोयवत् ॥४६॥ अर्थ-यह आत्मा अपने विज्ञानयन स्वभावते च्युत भया संता, प्रचुर विकल्पनिके जालके - गहनवनमें अतिशयकरि भ्रमण करे था, तिस भ्रमतेकू विवेकरूप नीचे मार्गके गमनकरि जलकी 卐 ज्यौं अपना विज्ञानयन स्वभावविर्षे दूरतें आणि मिलाया । कैसा है ? जे विज्ञानका रस ही के एक ... रसीले हैं, तिनिकू एक विज्ञानरस स्वरूप ही है। सो ऐसा आत्मा अपने मात्मस्वभाव ही आप ही वि समेटता संता जैसे बाया गया था, तैसे ही अपने स्वभावविर्षे आय प्राप्त होय है।' । भावार्थ-इहां जलका दृष्टांत है । जैसे जल है सो जलके निवासमेंस कोई मार्गकरि पाच निमरै सो वनमें अनेक जायगा भ्रमे, फेरि कोई नीचा मार्गकरि ज्यौँका त्यौं अपना जलके 9 + +
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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