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जीवां दुदे बंधस्स दु परिसदूण परिणामं । जीवेण कर्द कम्मं भण्णदि उवयारमत्तेण ॥३७॥ जीवे हेतुभूते बंघस्य तु दृष्ट्वा परिणामं ।
जीवन कृतं कर्म भण्यते उपचारमात्र ण ॥३७॥
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मारणरूपातिः – इह खलु पौद्गलिककर्मणः स्वभावादनिमित्तभूतेप्यात्मन्यनादेरज्ञानाच चमिचभूतेन ज्ञानमापेन
परिणमनामिमिचीभूते सति संपद्यमानत्वात् पौद्गलिकं कर्मात्मनाकृतमिति निर्विकल्पविज्ञानघन भ्रष्टानां विकल्पपरा परेषामस्ति विकल्पः । स तूपचारएव न तु परमार्थः । कथं इति चेत् ।
अर्थ - जीवकूं निमित्तिरूप होतें कर्मबंधका परिणाम होय है, ताकूं देखिकरि कहिये है, जो जीवकरि कर्म किये है, सो उपचारमात्र करि कहिये ।
टीका - इस लोकमैं आत्मा निश्चयकरि स्वभावतें पुद्गलकर्मका निमित्तभूत नाहीं है, तौऊ
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अनादि अज्ञानते ताका निमित्तभूत भया जो अज्ञानभाव, ताकरि परिणमने पुद्गलकर्मका
5 निमित्तभूत होतें उपज्या जो पुद्गलकर्म, ताकू आत्माने किया ऐसा विकल्प होय है। सो जे निर्विकल्प विज्ञानघनस्वभावतें भ्रष्ट अर विकल्पनिविषै तत्पर हैं, तिनि अज्ञानीनिकै होय है। सो 卐
यह आत्माने किया ऐसा कहना उपचार है परमार्थ नाही है।
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भावार्थ - कदाचित भया निमित्तनैमित्तिक भावविषै कतृ कर्मभाव कहना यह उपचार है
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आर्गे यह उपचार कैसे है सो दृष्टांतकरि कहे हैं। गाथा
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जोघेहिं कदे जुद्धे राएण कदं ति जंपदे लोगो ।
तह ववहारेण कदं णाणावरणादि जीवेण ॥३८॥ योधैः कृते युद्धे राज्ञा कृतमिति जल्पते लोकः । व्यवहारेण तथा कृतं ज्ञानावरणादि जीवेन ॥३८॥
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