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आत्मख्यातिः—पया खलु मृन्मये कलशकर्मणि मृद्रव्यमृद्गुणयोः स्वरसत एव वर्तमाने द्रव्यगुणांतरसंक्रमस्य । _ वस्तुस्थित्यैव निषिद्धत्वादात्मानमात्मगुणं वा नाधत्ते स कलशकारः द्रन्यांतरसंक्रममंतरेणान्यस्य वस्तुनः परिणमयितुम - शक्पत्वात् तदुभयं तु तस्मिन्ननादधानो र तत्त्वतस्तस्य कर्ता प्रतिभाति । तथा पुद्गलमयज्ञानावरणादौ कर्मणि पुद्गल
द्रन्यपुद्गलगुणयोः स्वरसत एव वर्तमाने द्रव्यगुणांतरसंक्रमस्य विधातुमशक्यत्वादात्मद्रव्यमात्मगुणं वात्मा न खल्वायत्ते।'
द्रयातरसंक्रममंतरेणान्यस्य वस्तुनः परिणयितुमशक्यत्वात्तदुभयं तु तस्मिन्ननादधानः कथं तु तच्चतस्तस्य कर्ता प्रति9 भापात् । ततः स्थितः खल्वात्मा पुद्गलकर्मणामकर्ता । अतोन्यस्तूपचारः।।
अर्थ-आत्मा है सो पुद्गलमय कर्म विर्षे द्रव्यकू तथा गुणकू नाहीं कर है, तिस विर्षे तिनि दोऊनिकू नाहीं करता संता ताका कर्ता कैसे होय ?
टीका-प्रथम ही दृष्टांत-जैसे मृत्तिकामय कलशनामा कर्म मृत्तिका नामा द्रव्य अर मृत्तिकाका गुण, तिनि विर्षे अपने निज रसकरि ही वर्तमान है तवर्ष कुम्भकार अपना द्रव्य+ स्वरूपकू तथा अपना गुणकू नाहीं मिला है । जातें अन्य द्रव्यका अर अन्य गुणका अन्य द्रव्य
गुणरूप पलटनेका बस्तुकी मर्यादा ही करि निषेधे है। बहुरि अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्यरूप भये विना अन्य वस्तुकू अन्यके परिणमाक्नेका असमर्थपणातै तिनि द्रव्य... अर गुणकू अन्य विर्षे नाहीं धारता संता परमार्थत तिस मृत्तिकामय कलशनामा कमका निश्चयकरि कुम्भकार कर्ता नाहीं
प्रतिभासे है। तैसें पुद्गलमय ज्ञानावरणादि कर्म हैं ते पुद्गलद्रव्य अर पुद्गलके गुण तिनि विर्षे # अपनेरसते ही वर्तमान हैं, तिनि वि आत्मा अपना द्रव्यस्वभावकू अर अपना गुणकू निश्चय करि
नाहीं धारे है, जातें अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्य विर्षे तथा अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्यके गुण विर्षे का | संक्रमण होनेका असमर्थपणा है। ऐसे अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्य विर्षे संक्रमण विना अन्य वस्तूकू ।
परिणभावनेका असमर्थपणातें, तिनि द्रव्य अर गुण दोऊनिकू तिस अन्य विषं नाहीं धारता आत्मा । ज स अन्य पुद्गलद्रव्यका कैसे कर्ता होय ? कदाचित् नाहीं होय । तातें यह निश्चय ठहरथा, जो
आरमा पुद्गलकमनिका अकर्ता है। आगे कहे हैं, जो इस सिवाय अन्य निमितनैमित्तिकादिभाव हैं, तिनिक देखि किछु और प्रकार कहना है सो उपचार है । गाथा
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