SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 卐 फ卐5 ! आत्मरूपातिः--यथा युद्धपरिणामेन स्वयं परिणममानैः योपैः कृते युर युदपरिणामेन स्वयमपरिणममानस्य राहो' सागर हा किल कृतं पुमित्पुषचारो न परमार्थः । तथा मानापरणादिकर्मपरिणामेन स्वयं परिणममानेन पुद्गलद्रव्येण कृते भानावरणादिकर्मपि शानावरणादिकर्मपरिणामेन स्वयमपरिणममानस्यात्मनः किलात्मना कृतंझानावरचादि कर्मेत्युपचारो का 卐 न परमार्थः । अत एतस्थितं ।। ___ अर्थ-जैसें जोद्धा जुद्ध करे तहां लोक ऐसा कहे है, जो राजा युद्ध किया। सो यह व्यव-" हारकार कहना है । तैसें ही ज्ञानावरणादि कर्म जीवकरि किये हैं, ऐसा कहना व्यवहारकरि है। टीका-जैसे युद्धपरिणामनिकरि आप परिणमे जे जोद्धा, तिनकरि किया जो यह जुद्ध, .. ज, ताळू होते जुद्धपरिणामनिकरि आप न परिणम्या जो राजा, ताकू लोक कहे हैं, जो जुद्ध राजा । कीया जो ऐसा उपचार परमार्थ नाहीं है । तैसे ही ज्ञानावरणादिकर्म परिणामनिकरि आप परिगमता जो पुद्गलद्रव्य, ताकरि किये जे ज्ञानावरणादिकर्म ताकू होते ज्ञानावरणादि कर्मपरिणाम करि आप नाही परिणमता जो आत्मा, ताकू कहिये, जो ज्ञानावरणादि कर्म आत्मा किये है।) ॐ सो ऐसा उपचार है, सो परमार्थ नाहीं है। भावार्थ-जैसे जोदा जुद्ध करे तहां राजाका कीया उपचारकरि कहिये है, तेसे पुदगल" कर्म जीवने किये ऐसे उपचारकरि कहिये हैं। आगें कहे हैं, जो इस हेतूतें ऐसा निश्चय 卐 बरेषा ।गाथा उप्पादेदि करेदि य बंधदि परिणामएदि गिगहदि य। आदा पुग्गलदव्वं ववहारणयस्य वत्तव्वं ॥३९॥ उत्पादयति करोति च बनाति परिणमयति पहाति च। आस्मा पुदगलद्रव्यं व्यवहारनपस्य वकव्यं ॥३९॥ ॥ 5 ॥
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy