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5 नाहीं है, वेदे नाहीं है, तौ कहा है ? । ज्ञानी ज्ञानचेतनामय है, तिसपणाकरि केवल ज्ञाता ही है, तिपणात कर्मका बंध बहुरि कर्मका शुभ तथा अशुभफल ताकूं केवल जाने ही है। आगे 5 पूछे है, जो यह जानना कैसा है ? काहेतें है ? ताका उत्तर दृष्टांतपूर्वक कहे हैं। गाथा卐 दिट्ठी सपि णाणं अकारयं तह अवेदयं चैव । कम्मुदगं विज्जरं चैव ॥ १३ ॥
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जागदि य बंघम
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दृष्टिः स्वयमपि ज्ञानमकारकं यथाऽवेदकं चैत्र । जानाति च बंधमोक्षं कर्मोदयं निर्जरां चैत्र ॥ १३॥
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आत्मख्यातिः-~-यथात्र लोके दृष्टिष्ट ईयादत्यंतविभक्तत्वेन तत्करणवेदनयोरसमर्थत्वात् दृश्यं न करोति न वेदयते च 5 अन्यथाशिदर्शनात्संधुक्षणवत् स्वयं ज्वलनकरणस्य, लोहपिंडवत्स्वयमेवौष्ण्यानुभवनस्य च दुर्निवारत्वात् । किंतु केवलं दर्शनमात्रस्वभावत्वात् तत्सर्वं केवलमेच पश्यति तथा ज्ञानमपि स्वयं दृष्टा कर्मणोऽत्यंत विभक्तत्वेन निश्रयतस्तकरणवेदनयोरसमर्थत्वात्कर्म न करोति न वेदयते च । किंतु केवलं ज्ञानमात्रस्वभावत्वात्कर्मबंधं मोक्षं वा कर्मोदयं, 卐 निर्जरां वा, केवलमेव जानाति ।
अर्थ- जैसे दृष्टि कहिये नेत्र है सो देखनेयोग्य पदार्थ देखे है, तिनिका कर्ता भोक्ता नाही 卐 है। तैसें ही ज्ञान हे सो बंध, मोक्ष, कर्मका उदय, निर्जरा इनिकू जाने ही है; करनेवाला भोग-' 卐 卐 नेवला नाहीं है ।
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टीका - जेसें इस लोक में दृष्टि कहिये नेत्र है सो दृश्य कहिये देखनेयोग्य पदार्थ तिनितें अत्यंत,
भिन्नपणातेंतिनिके करने अर वेदनेकू असमर्थ है; तिसपणाकरियपदार्थ करे नही है,
5 वेदे नाहीं है । जो ऐसें न होय तो अम्मी प्रज्वलित करनेवालाकीज्यों अर लोहका पिंड अनीतें प्रज्वलित तप्तायमान होय है ताकी ज्यौं अनीके देखनेतें नेत्रकै कर्ता-भोक्तापणा अवश्य आवै तौ है ? दृष्टीका केवल दर्शनमात्र स्वभाव है । तातें तिस दृश्य केवल देखे ही है । तैसें ही
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