________________
:
+
卐
+
+
+
+
आत्मा है सो भी जैसें चुचकपाषाण करि खेची लोहकी सई पाषाणके जाय लगी है तैसें । 7 अपने स्थानक प्रदेशनितें छुटि तिनिकू जानने नाही जाय है । तो कहा है ? वस्तूका॥
स्वभावकै परकरि उपजाबनेकं अशक्यपणा है तथा परकू उपजाबनेका असमर्थपणा है। बहुरि... जैसे शब्दादिककू समीप नाही होते तिनिळू आत्मा अपने स्वरूपही करि जाने है, तैसें ही 5 तिनिकू समीप होते भी अपने स्वरूपहीकरि तिनि जाने हैं. बहुरि अपने स्वरूप ही करि शब्दा--
दिककू जानता आत्माके ते शब्द आदिक वस्तुस्वभावहीतें विचित्रपरिणतीकू प्राप्त होते मनोहर तथा + अमनोहर बाह्यपदार्थ किंचिन्मात्र भी विक्रियाक अर्थी नाहीं कल्पिये हैं । ऐसें आला है सो दीपक
की ज्यौ परद्रव्यप्रति नित्य ही उदासीन हैं । ऐसी ही वस्तुकी मर्यादा है, तोऊ जो गग द्वेष उपजे है सो अज्ञान है।
भावार्थ----आत्मा शब्दकू सुणिकरि, रूपकू देखिकार, गंधक सूविकरि, रस आपाइकरि, .. स्पर्शकू स्पर्शिकरि, गुणद्रव्यकू जाणिकरि भला बुरा मानिकरि राग द्वेष उपजारे है. सो यह अज्ञान है । जाते ते शब्दादिक तो जड पुअगलद्रव्यके गुण हैं । सो आत्मा का कहे नाहीं जो
हम ग्रहण करौ। अर आप भी अपना प्रदेशनिकू छोडि तिनि ग्रहण करने तिनिविर्षे जाय" ॐ नाहीं है । जैसे तिनिकू समीप नाहीं होते जाने है, मैं ही समीप होतें जाने है। आत्माकेज
विकारके अर्थ किंचिन्मात्र भी नाहीं है। जैसें दीपक घटपटादिका प्रकाशे है. तैसें आत्मा तिनिकू जाने है, ऐसा वस्तुका स्वभाव है । तोऊ आत्मा राग द्वेष उपजावे है सो यह अज्ञान ही है। अब इस ही अर्थका कलशरूप काव्य कहे है।
शार्दूलविक्रीडितछन्दः पूर्णकाच्युतशुद्धबोधहिमा योद्धा न बोध्यादयं, यायात्कामपि विक्रियां तत इतो दीपः प्रकाश्यादिव। -
तद्वस्तुस्थितिबोधवन्ध्यधिषणा एते किमज्ञानिनो, रागद्वपमयी भवन्ति सहजा मुश्चन्त्युदासीनताम् ॥ 卐 अर्थ-यह वोद्धा कहिये ज्ञानी है सो पूर्ण अर एक जो च्युत नाहीं होय अर शुद्ध-विकारतें
है
+
+