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________________ + क + + + + + + + + + + विर्षे खेदखिन्न हैं ते संसारसमुद्र में डबे हैं। बहुरि जे परमार्थभूत आत्मस्वरूपकू यथार्थ तो जान्या नाहीं अर मिथ्यादृष्टि सर्वथा एकान्तिनिके उपदेशकरि तथा स्वयमेव हि किछु अंतरंगविय ज्ञानका स्वरूप मिथ्या कल्पि तिसविर्षे पक्षपात करे हैं अर व्यवहारदर्शनज्ञानवारित्रका क्रियाकांडकू निरर्थक जानि छोडे हैं, ज्ञाननयके पक्षपाती हैं ते भी संसारसमुद्र में डुबे हैं। जातें बाह्यक्रियाकांडकू छोडि स्वेच्छाचारी रहे हैं स्वरूपविर्षे मंद उद्यमी रहे हैं तातें । जे पक्षपातका अभिप्राय छोडि निरंतर ज्ञानरूप होतें कर्मकांडकू छोड़े हैं, अर निरंतर ज्ञानस्वरूपवि “जेते न थंव्या जाय तेते' 3 अशुभकर्मकू छोडि स्वरूपका साधनरूप शुभकर्मकांडविर्षे प्रवर्ते हैं ते कर्मका नाश करि, संसारतें निवृत्त होय हैं, ते सर्व लोकके उपरि वर्ते हैं, ऐसा जानना । आगे इस पुण्यपापाधिकारकू संपूर्ण करि अर ज्ञानकी महिमा करे हैं। मन्दाक्रा-साछन्दः भेदोन्मादं भ्रमरसभरान्नाटयपीतमोहं मूलोन्मूलं सकलमपि तत्कर्म कृत्वा बलेन । हेलोन्मीलत्परमकलया सार्द्धमारम्धकेलि झानज्योतिः कवलिततमः पोज्जिजृम्भे भरेण ॥१३॥ इति पुण्यपापरूपेण द्विपात्रोभूतमेकपात्रीभ्य कर्म निष्क्रांत इवि समयसारख्याख्यायामात्मख्याती तृतीयोकः । + अर्थ-ज्ञानज्योति है सो अतिशयकरि उदयकू प्राप्त होत भया-सर्वत्र फेल्या । सा है ? म . लीलामात्रकरि उघडी जो अपनी परमकला केवलज्ञान, तिससहित आरंभी है क्रीडा जाने, इहां .. 卐भावार्थ ऐसा, जो जेते सम्यग्दृष्टि छद्मस्थ है तेतें तौ ताका ज्ञान परमकला जो केवलज्ञान, सिस.. सहित शुद्धनयके बलते परोक्ष क्रीडा करे है बहुरि केवलज्ञान उपजे तब साक्षात् है। बहुरि केसा " है ? ग्रासीभूत किया है दूरी किया है अज्ञानरूप अंधकार जाने । सो यह ऐसा ज्ञानज्योति पहले भकहा करि प्रगट भया है ? पूर्वोक्त शुभ अशुभरूप समस्तकर्म, ताकू अपना कल जो वीर्य शक्ति, 卐 + + ++ + + ++ 9
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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