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________________ टीका-तहां प्रथम दृष्टांत-जैसें पवनका चालना न चालना है निमित्त जिनिक ऐसी जोर “समुद्रके विर्षे तरंगका उठना अर विलय होना रूप' दोऊ अवस्था तिनिके पवनके अर समुद्र के व्याप्यव्यापकभावके अभावतें कर्ताकर्मपणाकी असिद्धि होते, समुद्र है सोही आप 4 तिनि अक्स्थानिविर्षे अंतर्व्यापक होयकार आदिमध्यांतविबै तिनि अवस्थानिमें व्याप्यकरि उत्तरंग निस्तरंगरूप आपहीकू करता संता आपही एककू करता संता प्रतिभासे है। कोई फ़ औरकू तौ नाहीं करता है तैसें ही सोही समुद्र तिस पवनकै अर समुद्रके भाव्यभावक भावका अभावतें परभावके परकार अनुभक्न करनेका असमर्थपणातें उत्तरंगनिस्तरंगस्वरूप : आपहीकू अनुभवता संता प्रतिभासे है और कोई अनुभवै नाही है। तैसेंही दार्टात है-जो पुद्गलकर्मका उदयका संभव असंभव है निमिन जा ऐसी जो ससंसार अर निःसंसार ए दोऊ अवस्था ताका पुद्गलकर्मके अर जीवके व्याप्यव्यापकपणाका अभावतें कर्ताकर्मपणाकी असिद्धि है। यातें जीव है सो आप अंतापक होयकरि आदिमध्यांतविधैं ससंसारनिःसंसार " अवस्थामै व्याप्पकरि ससंसारनिःसंसाररूप आत्माकू करता संता आपहीकू करता प्रतिभासो, अन्यकू करता मति प्रतिभासो । तैसे ही यहही जीव भाव्यभावकभावके अभावतें परभावकें परकरि अनुभवन करनेका असमर्थपणा है, तातें ससंसारनिःसंसाररूप आमाही अनुभवता ॥ संता आपहीकू अनुभवन करता प्रतिभासो, अन्यकू करता मति प्रतिभासो।। भावार्थ-आत्माके ससंसारनिःसंसार अवस्था है सो परद्रव्यपुद्गलकर्मके निमित्तते है। 卐 तहां तिनि अवस्थारूप आपही परिणमे है। तातें आपहीका कर्ता भोक्ता है, निमित्तमात्र 1 पुद्गलकर्म है, ताका तौ कर्ता भोक्ता नाहीं है । आगें व्यवहारकू दिखावे हैं । गाथा ववहारस्स दु आदा पुग्गलकम्मं करेदि अणेयविहं। तं चेव य वेदयदे पुग्गलकम्मं अणेयविहं ॥१६॥ | 5555 555 5 5 + + ॐ ॐ + ॐ + +
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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