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ही हैं। सो यह भगवान् चैतन्यरूप रक्षाकर समुद्र, सो उठती जे लहरी तिनिकरि आप अभिन्न रस जाका ऐसा एक है । तौऊ अनेकरूप होता दोलायमान प्रवतें है । कैसा है ? अद्भुत निधि जाका ।
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वहुत रत्ननिकरि भरया होय है, सो एक जलकरि भरया है, 5 तौऊ तामैं निर्मल छोटो बडो अनेक लहरो उठे हैं, ते सर्व एक जलरूप ही हैं । तैसा यह आत्मा ज्ञानसमुद्र सो एक ही है, या अनेक गुण हैं अर कर्मके निमित्ततें ज्ञानके अनेक भेद आपआप फ व्यक्तिरूप होय प्रगट होय हैं, ते व्यक्ति एकज्ञानरूप ही जाननी - खंडखंडरूप नाहीं अनुभव करनी । अव और विशेषकर कहे हैं । 卐
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शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः
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किं व– क्लिश्यन्तां स्वयमेत्र दुस्करतरमाशोन्मुखः कर्मभिः क्लिश्यन्तां च परे महाव्रतपोभारेण भग्नाश्विरम् ।
साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तु ं क्षमन्ते न हि ॥ १०॥
अर्थ — केई तो कठिन दुःखकरि करे जाय ऐसे मोक्षतें पराङ्मुख कर्म तिनिकरि स्वयमेव जिनाज्ञाविना क्लेश करो, अर केई पर कहिये मोक्षके सन्मुख कथंचित् जिनाशामैं कहे ऐसे महा- 卐
5 व्रत तथा तपके भारकरि बहुतकालपर्यंत भग्न भये पीडित भये कर्मनिकर क्लेश करो, तिनि
कर्मतेिं तो मोक्ष होय नाहीं । जातें यह ज्ञान है, सो साक्षात् मोक्षस्वरूप है अर निरामय पद 5 है - जामैं किछू रोगादिकका क्लेश नाहीं है अर आपही करि आप वेदनेयोग्य है। सो ऐसा ज्ञान तौ ज्ञानगुणविना कोई ही प्रकारके कष्टकर पावनेकूं समर्थ न हृजिये है ।
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णाणगुणेहिं विहीणा एवं तु पदं वह्नवि ख लहंति ।
तंगिए सपनमेनं जनि इसि कस्मपरिमोक्खं ॥१३॥
भावार्थ - ज्ञान है सो साक्षात् मोक्ष है, सो ज्ञानहीतें पाइये है। अन्य किछू क्रियाकर्मकांडतें 5 न पाइये है । आगे इस अर्थरूप उपदेश करे हैं। गाथा
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