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________________ . ... .... ! + ' + ' + ' + + ' + ' ' ज्ञानगुणैविहीना एतत्तु पदं बहवोऽपि न लभते । तद् गृहाण सुपदमिदं यदीच्छसि कर्मपरिमोक्षं ॥१३॥ ___ आत्मख्याति:-यतो हि सकलेनापि कर्मणा कर्मणि ज्ञानस्याप्रकाशनाद शानस्यानुपलंभः । केवलेन झानेनैव धान 1 एव ज्ञानस्य प्रकाशनाद् ज्ञानस्योपलंभः । ततो बहवोऽपि बहुनापि कर्मणा शानशून्या नेदमुपलभते । इदमनुपलभमानाश्च ॥ 1- कर्मभिर्विप्रमुच्यते ततः कर्ममोक्षार्थिना केवलज्ञानावष्टंभेन नियतमेवेदमेकं पदमुपलभनीयं । __ अर्थ-हे भव्य ! जो तू काका तारलाणे गोक्ष जिला चाहे है, तौ तिस ज्ञानकू नियमकरिक 卐 निश्चित ग्रहण करि । जातें ज्ञानगुणकरि जे रहित हैं, ते बहुत भी हैं-बहुत प्रकार कर्म करे हैं, सौऊ इस ज्ञानस्वरूप पदकू नाहीं प्राप्त होय हैं। 5 टीका-जातें समस्त ही कर्मके विर्षे ज्ञानका प्रकाशना नाहीं है, तातें ज्ञानका उपलंभ; .. कहिये पावना, सो कर्मकरि नाहीं होय है। केवल एक ज्ञानही करि ज्ञानके विर्षे ज्ञानका प्रकाशना " है, तातें ज्ञानही करि ज्ञानका पावना होय है । तातें बहुत भी प्राणी ज्ञानकरि शून्य हैं, ते बहुत प्रकार कर्मकरि यह ज्ञानका पद नाहीं पाये हैं बहुरि इस पदकू नाहीं पावते संते कर्मनिकरि नाहीं " छुटे हैं । तातें जो कर्म के मोक्ष करनेका अर्थी है, ताकरि केवल एक ज्ञानहीका अक्लंबन कर 卐 निश्चित इस ही एकपदकू प्राप्त होना। भावार्थ-ज्ञानही मोक्ष है, कर्मत नाहीं है । तातें मोक्षार्थीकू ज्ञानहीका ध्यान करना यह 卐 उपदेश है। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं। द्रुतविलम्बितच्छन्दः 9 पदमिदं ननु कर्मदुरासदं सहजयोधकलामुलभं किल । तव इदं निजबोधकलावलात्कलयितुं यतवां सततं जगत् ॥११॥ र अर्थ-अहो भव्यजीवहो; यह ज्ञानमय पद है सो कर्मकरि तौ दुष्प्राप्य है, बहुरि स्वाभाविक " ज्ञानकी कलाकरि सुलभ है, यह प्रगटकरि निश्चय जाणे । साते अपने निजज्ञानकी कलाके बलतें - 卐 इस ज्ञानका अभ्यास करनेकू समस्त जगत् अभ्यासका यत्न फरौ। + ' + ' ' ' ' 卐
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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