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________________ + + 55 5 5 + ॥ नियमतें वस्तुकी मर्यादा है। बहुरि ज्ञान है सो आप सत्स्वरूप वस्तु है, ताका निश्चयकरि अन्यमय । करि कहा राख्या ! तात तिस ज्ञानके अरक्षा करनेस्वरूप किछू भी नहीं है। ताते तिस अरक्षाका भय ज्ञानीकै काहे होय ? नाहीं होप है । ज्ञानी तो अपना स्वाभाविक ज्ञानस्वरूपकू निःशंक भया संता सदा आप अनुभवै है। 9 भावार्थ-ज्ञानी ऐसें जाने है, जो सत्तारूप वस्तूका कदाचित् नाश नाहीं अर ज्ञान आप ... सत्तास्वरूप है । सो याका किछु ऐसा नाहीं है-जाकी रक्षा किये रहे; नातरि नष्ट होय जाय । ॐ तातें ज्ञानीकै अरक्षाका भय नाही, निःशंक भया संता आप स्वाभाविक अपना ज्ञानपू. सदा 1. अनुभवै है । अब अगुप्तिभयका काव्य है।। शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः + स्वं रूपं किल वस्तुनोऽस्ति परमा गुप्तिः स्वरूप न यच्छक्तः कोऽपि परप्रवेष्टमकृतं ज्ञानं स्वरूपं च नुः। । अस्यागुप्तिरतो न काचन भवेत्तीः कुतो ज्ञानिनो निःशंकः सततं स्वयं स सहज शानं सदा विन्दति ॥२६॥ 卐 अर्थ-ज्ञानी विचारे है. जो वस्तुका निजरूप है सो ही परमगुप्ति है। सो ताविर्षे पर है - सो कोई भी प्रवेश करने... समर्थ नाही है। बहुरि ज्ञान है सो पुरुषका स्वरूप है सो अकृत्रिम है, यात याकै अगुप्ति किछू भी नाहीं है। तातै तिन अगुप्तिका भय ज्ञानीक नाही है। याहीतें ज्ञानी निशंक भया संता निरंतर आप स्वाभाविक अपना ज्ञानभावकू सदा अनुभव है। भावार्थ-गुप्ति नाम जामैं काहूका प्रवेश नाहीं ऐसा गढ़ दुर्गादिकका है। तहां यह ॥ + प्राणी निर्भय होय वसै । ऐसा गुप्त प्रदेश न होय चौडा होय ताकू अगुप्ति कहिये। तहां बैठे .. प्राणीकै भय उपजे । तहां ज्ञानी ऐसा जाने है, जो वस्तूका निजस्वरूप है, तामें परमार्थकरि दूजे : 卐 वस्तूका प्रवेश नाही, यह ही परमगुप्ति है । सो पुरुषका स्वरूप ज्ञान है । ताने काहका प्रवेश - नाहीं तातें ज्ञानीका काहे भय होय ? स्वाभाविक ज्ञानस्वरूपकू निःशंक भया संता निरंतर ॥ 卐 अनुभवे है । अब मरणभयका काव्य है । 55 ३ ज ' ___ ---
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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