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________________ समय + फ़卐999) भावार्थ-व्यवहारनय तो आत्मा अर शरीरकू एक कहे है अर निश्चयनय भिन्न कहे है, तातें व्यवहारनपकरि शरीरका स्तवन करी आत्माका स्तन जानिये है । सोही आगें माथामैं कहे हैं। गाथा इणमण्णं जीवादो देहं पुग्गलमयं थुणित्तु मुणी। मण्णदि हु संथुदो वंदिदो मए केवली भयवं॥२८॥ इदमन्यत् जीवाद हे पुद्गलमयं स्तुत्वा मुनिः। मन्यते खलु संस्तुतो वन्दितो मया केवली भगवान् ॥२८॥ आत्मख्यातिः-यथा कलधौतगुणस्य पांडरत्वस्य व्यपदेशेन परमार्थतोऽतत्स्वभावस्यापि का स्वरस्य व्यवहारमात्रेगैव पांडुरं कार्यस्वरमित्यस्ति उपपदेशः । तथा शरीरगुणस्य शुक्ललोहितत्वादेः स्तवनेन परमार्थतोऽतत्स्वभावस्यापि ॥ तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य व्यवहारमात्रेणेव शुक्ललोहितस्तीर्थकरकेवलिपुरुष इत्यस्ति स्तवनं । निश्चयनयेन तु शरीरस्त. वैननात्मस्तवनमनुपपन्नमेव तथाहि___ अर्थ-मुनि है सो यह जीवते अन्य पुद्गलमय देह ताकी स्तुति करी अर यह माने है, जो, मैं केवली भगवानकी स्तुती करी वंदना करी। टीका-जैसे रूपाका गुण जो पांडुरपणा, ताका नामकरि सुवर्णकू पांडुर ऐसा नामकरि कहिये सो व्यवहारमात्रकरि कहिये है। परमार्थ विचारिये तव सुवर्णका स्वभाव पांडुर नाहीं है, पीत" है । तेसे ही शुक्लरक्तपणा आदिक शरीरके गुण हैं, जाके स्तवनकरि, तीर्थकर केवलीपुरुषकूम कहिये शुक्ल हैं रक्त हैं ऐसा स्तवन करीये हैं, सो यह स्तवन व्यवहारमात्रकरि है। परमार्थ विचारिये तब शुक्लरक्तपणा तीर्थंकर केवली पुरुषका स्वभाव है नाहीं। तातें निश्चयनयकरि卐 शरीरका स्तवन करि आत्माका स्तवन नाहीं बने है सोही गाथाकरि कहे हैं। इहां कोई ... पूछे, जो, व्यवहारनय तौ असत्यार्थ कया है अर शरीर जड है, सो व्यवहारके आश्रय जडकी, स्तुतीका कहां फल ? ताका उत्तर-जो, व्यवहारनय सर्वथा असत्यार्थ नाहीं हे, निधया ।
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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